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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमात्मदर्शन, ( २३५ ) नाम तथा तेमनी स्थापना बन्ने सरखां फळने उत्पन्न करनारीछे. माटे जे भव्य पुरुष पंच परमेष्टिनां नामनुं आलंबन करेछे तेणे पंच परमेष्ठिनी स्थापनानुं पण आलंबन करवुज जोइए. शिष्य - वीतरागनी स्थापनाथी आत्माहतछे. एमां तो जरा मात्र संशय नथी, पण मधुनी प्रतिमा पूजतां श्रावकने हिंसा थाय तेनुं केम ? सुगुरु हे भव्य तुं सांभळ, जिनेश्वरनी आज्ञा प्रमाग के आपणी एति कल्पना प्रमाण. शिष्य-- गुरुजी, प्रभुनी आज्ञाप्रधान. गुरु-त्यारे सांभळ-बीजे गाम जतां वच्चमां नदी आवे ते साधु उतरे के नहीं, यादराख - एकपाणिना बिंदुमां एटला जीवछे के ते पारेवा जेवडी काया करतो जंबुद्वीपमां माय नहीं. एवं जलतुं बिंदु समज. वळी पाणीमां सेवालरूप वनस्पति पण साधारण बादर निगोदरूपे रहीछे. बळी पुरा प्रमुख सूक्ष्मत्रस जीव पण एवाछे के मनुष्यनी कायाना स्पर्शथी हणार जाय वे कहो के एव । नदीना जलमां मुनिराज पगमुकी उतरे के नहीं ? शिष्य-- प्रभु ए सिध्धांतमां हिंसा थतां पण साधुने नदी उतरवा - नी आज्ञा करीछे. कारणके तेथी मुनीश्वरने अन्य भव्यजीवो प्रतिबोधमां लाभ मळेछे. अने भावदयानी पुष्टि थायछे माटे, आपे एवं मने समजाव्यं हतुं, प्रतिमाना निषेधको पण आ बात मानेछे. सुगुरु-तेज प्रमाणे सर्वज्ञमए सिध्धांतमां श्राक्रुने, मधुनी म तिमा पूजननुं फरमान कर्युछे. प्रभुनी प्रतिमा पूजतां मोटो लाभ थाय छे. अत्र प्रभुनी आज्ञाज प्रधान जाणी, प्रभु सर्वज्ञ हता. तेमना केवलज्ञान आगळ आपणी मति कल्पना For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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