Book Title: Niryukti Panchak Part 3
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक NIRYUKTI PAMCAKA (खण्ड 3) ७ प्रधान सम्पादक वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी -सपादिका समणी कुसुमप्रज्ञा आचार्य महाप्रज्ञ अनुवादक मुनि दुलहराज Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक [ आचार्य भद्रबाहु विरचित दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, दशाश्रुतस्कंध की नियुक्तियों के मूलपाठ, पाठान्तर, पादटिप्पण, अनुवाद, विस्तृत भूमिका तथा विविध परिशिष्टों से समलंकृत ] (खण्ड-३) वाचना प्रमुख गणाधिपति श्री तुलसी प्रधान संपादक आचार्य महाप्रज्ञ संपादिका डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञा अनुवादक मुनि दुलहराज जैन विश्व भारती, लाडनूं Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : जैन विश्व भारती लाडनूं-३४१ ३०६ ( राजस्थान ) ISBN No. ८१-७१९५-०४४-२ जैन विश्व भारती,© लाडनूं राष्ट्रीय अभिलेखागार, भारत सरकार, नई दिल्ली के आर्थिक सौजन्य से प्रकाशित प्रथम संस्करण विक्रम संवत् २०५६ सन् १९९९ पृष्ठांक ८५० मूल्य : ५०० मुद्रक : शान्ति प्रिंटर्स, दिल्ली Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NIRYUKTI PAMCAKA [Original text, variant readings with critical notes, translation, elaborated preface and various appendices on the Niryuktis of Daśavaikālika, Uttarādhyayana, Acārāmga, Sūtrakrtämga and Daśāśrutaskaņdha written by Bhadrabāhu] (Vol-III) Vacanāpramukha Gaņādhipati Sri Tulsi Chief Editor Ācārya Mahāprajña Editor Translator Muni Dulaharāja Dr. Samani Kusumaprajñā JAIN VISHVA BHARATI, LADNUN Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publisher : Jain Vishva Bharati, Ladnun-341 306 (Rajasthan) ISBN No. 81-7195-044-2 Jain Vishva Bharati, Ladnun First Edition Vikrama Samvat 2056 1999 Published by the kind munificence of Govt. of India, National Archives of India, Janpath, New Delhi-110001. Price Rs. 500 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण पुट्ठो वि पण्णापुरिसो सुदक्खो, आणापहाणो जणि जस्स निच्चं । सच्चप्पओगे पवरासयस्स. भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।। जिसका प्रज्ञापुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगमप्रधान था। सत्ययोग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से।। विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीयमच्छं। सज्झाय-सज्झाणरयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।। जिसने आगम दोहन कर-कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत । श्रुत सद्ध्यान लीनचिर चिन्तन, जयाचार्य को विमल भाव से।। पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि। जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स प्पणिहाणपुत्वं ।। जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में, मेरे मन में। हेतुभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से।। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन आगम के व्याख्या साहित्य में नियुक्ति का स्थान प्रथम है। इसकी रचना गागर में सागर भरने जैसी है। भाष्यकारों और टीकाकारों के सामने नियुक्ति व्याख्या का आधार रही है । हमारे धर्मसंघ में आगम-संपादन के साथ-साथ नियुक्ति के संपादन का कार्य भी लम्बे समय से चल रहा है। संपादन के इस कार्य में समणी कुसुमप्रज्ञा संलग्न है। मुनि दुलहराजजी का अत्यंत महत्त्वपूर्ण योग इस संपादन में है । निर्युक्तियों की गाथाओं का अनुवाद मुनि दुलहराजजी ने किया है I निर्युक्ति का संपादन अनेक दृष्टियों से श्रमसाध्य और दुर्गम है। जो कार्य हुआ है उसमें और भी परिष्कार की अपेक्षा है, इसे विनम्रतापूर्वक स्वीकार करना चाहिए । फिर भी जो काम हुआ है, वह बहुत मूल्यवान् और श्रम की बूंदों से अभिषिक्त कार्य है । जो कार्य स्वयं मूल्यवान् है, उसके मूल्यांकन की अपेक्षा नहीं की जा सकती नहीं की जानी चाहिए। फिर भी इस कार्य का अंकन होगा, यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है । अध्यात्म साधना केन्द्र, महरौली ६.५.९९ आचार्य महाप्रज्ञ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय संकेत-निर्देशिका निर्युक्तिसाहित्य : दशवैकालिक निर्युक्ति विषयानुक्रम @ • गाथाओं का समीकरण O निर्युक्ति-गाथाएं • हिन्दी अनुवाद उत्तराध्ययन निर्युक्ति विषयानुक्रम गाथाओं का समीकरण नियुक्ति-गाथाएं हिन्दी अनुवाद R @ आचारांग निर्युक्ति विषयानुक्रम गाथाओं का समीकरण निर्युक्ति-गाथाएं R O हिन्दी अनुवाद सूत्रकृतांग निर्युक्ति विषयानुक्रम गाथाओं का समीकरण निर्युक्ति-गाथाएं हिन्दी अनुवाद दशाश्रुतस्कन्ध निर्युक्ति @ Q R : एक पर्यवेक्षण @ विषयानुक्रम नियुक्ति की गाथाएं R • हिन्दी अनुवाद परिशिष्ट १. भाष्य-गाथाओं का समीकरण • दशवैकालिक भाष्य • उत्तराध्ययन भाष्य ग्रंथानुक्रम ov m 2 १३ १५-१२९ 3 & 28 १७ ७१ १०७ ११३ १२१ १८७ २३३ २३९ २४५ २८७ ३२३ ३२७ ३३१ ३५९ ३८७ ३८९ ४०७ ४२५ ४२६ ४३४ १६ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. पदानुक्रम ३. एकार्थक ४. देशी शब्द ५. निक्षिप्त शब्द ६. कथाएं ७. परिभाषाएं ८. सूक्त-सुभाषित ९. उपमा और दृष्टान्त १०. दृष्टिवाद के विकीर्ण तथ्य ११. अन्य ग्रंथों से तुलना १२. विशेषनामानुक्रम १३. वर्गीकृत विशेषनामानुक्रम १४. वर्गीकृत विषयानुक्रम १५. प्रयुक्त ग्रंथ सूची Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आगम-सम्पादन का कार्य दुरूह ही नहीं, श्रमसाध्य, समय- सापेक्ष, बौद्धिक जागरूकता एवं अन्त: प्रज्ञा के जागरण का प्रतीक है। तेरापंथ के नवम आचार्य एवं जैन विश्व भारती संस्थान के प्रथम अनुशास्ता गुरुदेव श्री तुलसी ने ४५ वर्ष पहले शोध के क्षेत्र में भगीरथ प्रयत्न किया था, जिसके सारथी बने वर्तमान आचार्य श्री महाप्रज्ञ । इस ज्ञानयज्ञ में उन्होंने अपने धर्म परिवार के अनेक साधु-साध्वियों को नियुक्त किया, फलस्वरूप बत्तीस आगमों का मूल पाठ सम्पादित होकर प्रकाशित हो चुका है । भगवती भाष्य, आचारांग-भाष्य और व्यवहारभाष्य जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का कार्य भी पूर्ण हुआ है । एकार्थक कोश, निरुक्तकोश, देशीशब्दकोश, श्रीभिक्षु आगम-विषय कोश तथा जैन आगम वनस्पतिकोश भी प्रकाशित होकर सामने आ चुके हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ 'निर्युक्तिपंचक' इसी श्रृंखला की एक कड़ी है, जिसे सम्पादित किया है समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने । नियुक्ति आगमों की प्रथम व्याख्या है अतः व्याख्याग्रंथों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है । आचार्य भद्रबाहु द्वारा निर्मित हैं । इनमें आगमों के महत्त्वपूर्ण एवं पारिभाषिक शब्दों की निक्षेप पद्धति से व्याख्या की गयी है। निर्युक्तिपंचक में दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग एवं दशाश्रुतस्कंध – इन पांच नियुक्तियों का समाहार है। नियुक्तियों का हस्तप्रतियों से समालोचनात्मक रूप से पाठ-संपादन प्रथम बार प्रकाशित हो रहा है, यह संस्था के लिए गौरव का विषय है । ग्रन्थ में दिए गए पाद-टिप्पण निर्युक्तियों की गाथा - संख्या निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इस ग्रंथ में पाठ-संपादन तथा पाठ-विमर्श का वैशिष्ट्य तो मुखर है ही साथ ही साथ ग्रंथ में १४ महत्त्वपूर्ण परिशिष्ट भी संदृब्ध हैं । गाथाओं का हिन्दी अनुवाद होने से ग्रंथ की महत्ता और अधिक बढ़ गयी है। हिन्दी अनुवाद में मनीषी मुनि श्री दुलहराजजी की श्रमनिष्ठा बोल रही है। ग्रंथ की बृहद् व्याख्यात्मक भूमिका 'निर्युक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण' नियुक्तियों के अनेक गंभीर विषयों को स्पष्ट करने वाली है । शोध कार्य धैर्य, परिश्रम, निष्ठा, जागरूकता एवं सातत्य मांगता है । समणीश्री कुसुमप्रज्ञाजी ने इन सभी गुणों को मन से जीया है। यही वजह है कि ग्रन्थ की सम्पूर्ण संयोजना में उनकी प्रतिभा और साधना मुखर हुई है । समणी कुसुमप्रज्ञाजी लगभग २० वर्षों से शोधकार्य में संलग्न हैं । इससे पूर्व वे व्यवहारभाष्य एवं एकार्थक कोश का संपादन कर चुकी हैं। 'निर्युक्तिपंचक' का सम्पादन नारी जाति का गौरव है। आचार्य श्री तुलसी एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने नारी जाति को विद्या और अनुसंधान के क्षेत्र में जो साहस, बुद्धि-वैभव एवं आत्म-विश्वास दिया है, युगों-युगों तक उनका कर्तृत्व इतिहास में अमिट रहेगा । ग्रंथ की प्रेरणा और दिशा निर्देशन का प्राण तत्त्व है—–श्रद्धेय गुरुदेव तुलसी एवं आचार्य श्री Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ नियुक्ति पंचक महाप्रज्ञ । ग्रन्थ की पूर्णाहुति में मुनि श्री दुलहराजजी का अविस्मरणीय योगदान रहा है । उनके अनथक श्रम, मार्गदर्शन एवं सम्पादन कौशल ने ही ग्रन्थ को प्रकाशन तक पहुंचाया है। जैन विश्व भारती आगम- साहित्य प्रकाशन की श्रृंखला में 'निर्युक्तिपंचक' जैसे ग्रंथरत्न को प्रकाशित कर विद्वत् पाठकों एवं सत्य- संधित्सुओं को यह ग्रन्थ सौंपते हुए गौरव की अनुभूति कर रही है । सम्पूर्ण नियुक्ति साहित्य को पांच खण्डों में प्रकाशित करने की योजना है, जिसमें यह तीसरा खण्ड ८५० पृष्ठों में राष्ट्रीय अभिलेखागार, भारत सरकार के आर्थिक सौजन्य से प्रकाशित हो रहा है । प्रथम खण्ड प्रकाशनाधीन है। विद्वद्वर्ग यह ग्रन्थ समादृत होगा, इसी आशा और विश्वास के साथ सबके प्रति विनम्र आभार ज्ञापन | श्रीचन्द बैंगानी कुलपति, जैन विश्व भारती, लाडनूं Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत-निर्देशिका अचू. अनु. जंबू अनुद्वा अनुद्वाचू आ. आचासू आचू आटी. आटीपा. आनि आवचू आवनि आवमटी आवहाटी उ. ज्ञा. दशवैकालिक अगस्त्य अनुवादक अणुओगदाराई अनुयोगद्वार चूर्णि आयारो आचारांग सूत्र (संपा. शूब्रिग) आचारांग चूर्णि आचारांग टीका आचारांगटीका के पाठान्तर आचारांगनियुक्ति आवश्यक चूर्णि आवश्यकनियुक्ति आवश्यकनियुक्ति मलयगिरि टीका आवश्यकनियुक्ति हारिभद्रीय टीका उत्तराध्ययन सूत्र उद्धृत गाथा उत्तराध्ययन चूर्णि उत्तराध्ययननियुक्ति उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य टीका उत्तराध्ययन सुखबोधा टीका ओघनियुक्ति ओघनियुक्ति टीका ओघनियुक्ति द्रोणाचार्य टीका कषायपाहुड़ कौटिलीय अर्थशास्त्र गाथा गुणस्थान गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गौतमधर्मसूत्राणि चंदावेज्झय प्रकीर्णक चतुर्थ संस्करण चूर्णि चूपा. चूर्णि के पाठान्तर जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति जंबूटी जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका जयध. जयधवला जिचू दशवैकालिक जिनदासचूर्णि जीवाजीवाभिगम जीचू जीतकल्प चूर्णि जीतभा जीतकल्पभाष्य जैन आगम... जैन आगम-साहित्य में भारतीय समाज जैन पुराणों... जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन जैन सा.... जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ज्ञाताधर्मकथा टीका टीका के पाठान्तर तत्त्वार्थसूत्र तंदुल तंदुलवैचारिक तुलना तृसं तृतीय संस्करण दचू दशाश्रुतस्कन्ध चूर्णि दनि दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति दशवैकालिक सूत्र दशअचू दशवैकालिक अगस्त्यसिंह चूर्णि दशजिचू दशवैकालिक जिनदासचूर्णि दशनि दशवैकालिकनियुक्ति दशहाटी दशवकालिक हारिभद्रीय टीका दश्रुनि दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति दसवे. दसवेआलियं तह उत्तरज्झयणाणि द्रष्टव्य टा उगा उचू उनि उशांटी उसुटी ओनि ओनिटी ओनिद्रोटी कपा. कौटि टीपा दश. गुण गोजी चंदा चसं Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 १४ द्विचू द्विसं ध. नंदीचू नंदीमटी नंदीहाटी निगा निचू निभा पंसं पंकभा पंचभा पंव. प पद्म परि पिनि पिनिटी पृ. प्रचू. प्र. प्रसं बृभा बृभापीटी भ भआ भटी भा भाग. भागा भू म मज्झिम मनु دو - द्वितीय चूला द्वितीय संस्करण धवला नंदीचूर्णि नंदी मलयगिरि टीका नंदी हारिभद्रीय टीका नियुक्ति गाथा निशीथ चूर्णि निशीथ भाष्य पंचम संस्करण पंचकल्पभाष्य पंचकल्प भाष्य पंचवस्तु पण्णवणा, पत्र पद्मपुराण परिशिष्ट पिंड नियुक्ति पिंडनिर्युक्तिटीका पृष्ठ प्रथमचूला प्रधान प्रथम संस्करण बृहत्कल्प भाष्य बृहत्कल्पभाष्य पीठिका टीका भगवती भगवती आराधना भगवती टीका भाष्य, भाष्यकार भागवत भाष्यगाथा भूमिका - मलयगिरि टीका मज्झिमनिकाय मनुस्मृति मनो मभा. महापु. मूला रावा. वा. प्र. वि. विभा विभाकोटी विभामटी व्यभा व्या. शांटी शांटीपा षट्. षड् षड्टी. सं सं संपा सम समटी समप्र. सू.. सूचू. १ सूचू. २. सूटी सूनि स्थाटी हरि हाटी हाटी मनोनुशासनम् महाभारत महापुराण मूलाचार तत्त्वार्थ राजवार्तिक वाचना प्रमुख विक्रम संवत् विशेषावश्यकभाष्य विशेषावश्यक कोट्याचार्य टीका विशेषावश्यक मलधारी हेमचन्द्र टीका व्यवहार भाष्य निर्युक्तिपंच व्याख्याकार उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य टीका उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य टीका के पाठान्तर षट्खंडागम षड्दर्शनसमुच्चय षड्दर्शनसमुच्चय टीका षष्ठ संस्करण संख्या संपादक, संपादन, संपादित समवाओ समवायांग टीका समवाओ प्रकीर्णक सूयगड सूत्रकृतांग चूर्णि भाग १ सूत्रकृतांग चूर्णि भाग २ सूत्रकृतांग टीका सूत्रकृतांग नियुक्ति स्थानांग टीका हरिवंशपुराण दशवैकालिक हारिभद्रीय टीका हारिभद्रीय टीका Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण ४९ १. नियुक्ति का स्वरूप • सूत्रकृतांगनियुक्ति २. नियुक्ति का प्रयोजन १८ | १२. दशाश्रुतस्कंध एवं उसकी नियुक्ति ३. नियुक्तियों की संख्या ● नामकरण ४. नियुक्ति-रचना का क्रम ● रचनाकार ५. आचार्य गोविंद एवं उनकी नियुक्ति ● अध्ययन एवं विषयवस्तु ६. दशवैकालिक सूत्र एवं उसकी नियुक्ति • दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति • रचनाकार का परिचय १३. नियुक्तियों की गाथा-संख्या: एक रचना का उद्देश्य अनुचिंतन ७ नामकरण १४. नियुक्ति में निक्षेप-पद्धति ० नि!हण १५. नियुक्तिपंचक का रचना-वैशिष्ट्य • रचनाकाल १६. छंद-विमर्श ● भाषा-शैली १७. निर्जरा की तरतमता के स्थान ० अध्ययन एवं विषयवस्तु १८. भावनाएं ० दशवैकालिकनियुक्ति . दर्शनभावना ७. दशवैकालिक की एक नयी नियुक्ति २९ • ज्ञानभावना ८. उत्तराध्ययन सूत्र एवं उसकी नियुक्ति ३१ चारित्रभावना • नामकरण • तपोभावना • कर्तृत्व वैराग्यभावना ● रचनाकाल १९. प्रणिधि/प्रणिधान • अध्ययन एवं विषयवस्तु २०. साधना के बाधक तत्त्व • उत्तराध्ययननियुक्ति २१. त्रिवर्ग ९. आचारांग सूत्र एवं उसकी नियुक्ति ३७ . रचनाकार • अर्थ रचनाकाल • काम • भाषा एवं रचना-शैली २२. वर्ण-व्यवस्था एवं वर्णसंकर जातियां • अध्ययन एवं विषयवस्तु • वर्णसंकर जातियां • आचारांगनियुक्ति वर्णान्तर के संयोग से उत्पन्न १०. महापरिज्ञा अध्ययन एवं उसकी नियुक्ति ४३ ।। जातियां ७ महापरिज्ञा शब्द...... २३. स्थावरकाय ११. सूत्रकृतांग एवं उसकी नियुक्ति स्थावरकाय में जीवत्व-सिद्धि • नामकरण • पृथ्वीकाय • रचनाकार एवं रचनाकाल • अप्काय • अध्ययन एवं विषयवस्तु • तैजस्काय • धर्म ८५ ८८ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ११२ ११३ ११५ ११५ • वायुकाय . वनस्पतिकाय २४. भिक्षु का स्वरूप २५. भिक्षाचर्या २६. दिशा • द्रव्य दिशा ० क्षेत्र दिशा • ताप दिशा . प्रज्ञापक दिशा • भाव दिशा • दिशाएं और वास्तुशास्त्र २७. करण • तिथि के अनुसार करण-चक्र . करण निकालने की विधि . करण का समाप्ति-काल जानने की विधि २८. काव्य • गद्यकाव्य • पद्यकाव्य गेयकाव्य • चौर्णकाव्य २९. यातायातपथ ३०. धार्मिक संस्कृति ९३ ३१. दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक तथ्य ३२. सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थितियां ३३. इतिहास ३४. विज्ञान ३५. स्वास्थ्य विज्ञान एवं आयुर्वेद ३६. परवर्ती एवं अन्य ग्रंथों पर प्रभाव ३७. आगम-संपादन का इतिहास ३८. नियुक्ति-संपादन का इतिहास १०५ | ३९. पाठ-संपादन ४०. नियुक्तियों का अनुवाद ४१. प्रयुक्त प्रति-परिचय • दशवैकालिक नियुक्ति • उत्तराध्ययन नियुक्ति १०६ • आचारांग नियुक्ति • सूत्रकृतांग नियुक्ति • दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति ४२. कृतज्ञता-ज्ञापन । ११९ १२० १२२ १२४ १२५ १२९ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण श्वेताम्बर परम्परा में महावीर वाणी आज भी ग्यारह अंगों के रूप में सुरक्षित है। दिगम्बर- परम्परा के अनुसार उन आगम ग्रंथों का कालान्तर में लोप हो गया इसलिए नियुक्ति-साहित्य की विशाल श्रुतराशि केवल श्वेताम्बर परम्परा में ही मान्य है । निर्युक्ति का स्वरूप जैन आगमों के व्याख्या ग्रंथ मुख्यतः चार प्रकार के हैं――― निर्युक्ति, भाष्य चूर्णि और टीका । नियुक्ति प्राचीनतम पद्यबद्ध व्याख्या है। आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति (गा. ८८ ) में नियुक्ति का निरुक्त इस प्रकार किया है— 'निज्जुत्ता ते अत्था जं बद्धा तेण होइ निज्जुत्ती' जिसके द्वारा सूत्र के साथ अर्थ का निर्णय होता है, वह नियुक्ति है । निश्चय रूप से सम्यग् अर्थ का निर्णय करना तथा सूत्र में ही परस्पर संबद्ध अर्थ को प्रकट करना निर्युक्ति का उद्देश्य है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार क्रिया, कारक, भेद और पर्यायवाची शब्दों द्वारा शब्द की व्याख्या करना या अर्थ प्रकट करना निरुक्ति/निर्युक्ति है । जर्मन विद्वान् शार्पेन्टियर के अनुसार नियुक्तियां प्रधान रूप से संबन्धित ग्रंथ के इंडेक्स का कार्य करती हैं तथा सभी विस्तृत घटनावलियों का संक्षेप में उल्लेख करती हैं। व्याख्या के संदर्भ में अनुगम दो प्रकार का होता है – सूत्र - अनुगम और नियुक्ति - अनुगम । निर्युक्ति- अनुगम तीन प्रकार का होता है १. निक्षेपनिर्युक्ति- अनुगम २. उपोद्घातनिर्युक्ति- अनुगम ३ सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्ति-अनुगम । प्रत्येक शब्द के कई अर्थ होते हैं। उनमें कौन सा अर्थ प्रासंगिक है, इसका ज्ञान निक्षेपनियुक्ति - अनुगम से कराया जाता है । उपोद्घातनिर्युक्ति - अनुगम में छब्बीस प्रकार से शब्द या विषय की मीमांसा की जाती है। तत्पश्चात् सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति - अनुगम के द्वारा नियुक्तिकार सूत्रगत शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं । नियुक्तिकार मूलग्रंथ के प्रत्येक शब्द की व्याख्या न कर केवल विशेष शब्दों की ही व्याख्या प्रस्तुत करते हैं । १. (क) विभा १०८६; जं निच्छयाइ जुत्ता, सुत्ते अत्था इमीए वक्खाया। तेणेयं निज्जुत्ती निज्जुत्तत्थाभिहाणाओ ।। (ख) सूटी प १; योजनं युक्तिः अर्थघटना निश्चयेनाधिक्येन वा युक्तिर्निर्युक्तिः सम्यगर्थप्रकट नम् । निर्युक्तानां वा सूत्रेष्वेव परस्परसम्बद्धानामर्थानामाविर्भावनं युक्तशब्दलोपान्निर्युक्तिः । १००; सूत्रार्थयोः परस्परं निर्योजन संबंधनं निर्युक्तिः । (ग) आवमटी प. (घ) ओनिटी प ४; नि: आधिक्ये योजनं युक्तिः सूत्रार्थयोर्योगो नित्यव्यवस्थित एवास्ते वाच्यवाचकतयेत्यर्थः अधिका योजना निर्युक्तिरुच्यते, नियता निश्चिता वा योजनेति । २. आवहाटी प ३६३ । 3. Uttarādhyayana sūtra, preface, page 50, 51 ४. विभा ९७२; निज्जुत्ती तिविगप्पा, नासोवग्घायसुत्तवक्खाणं । ५. विभा ९७३ ९७४ । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक भाष्य साहित्य में व्याख्या के तीन प्रकार बताए गए हैं, उनमें निर्युक्ति का दूसरा स्थान है । प्रथम व्याख्या में शिष्य को केवल सूत्र का अर्थ कराया जाता है, दूसरी व्याख्या में नियुक्ति के साथ सूत्र की व्याख्या की जाती है तथा तीसरी व्याख्या में निरवशेष— सर्वांगीण व्याख्या की जाती है। यहां निज्जुत्तिमीसओ का दूसरा अर्थ यह भी संभव है कि दूसरी व्याख्या में शिष्य को सूत्रगत अर्थ का अध्ययन कराया जाता है, जिसे अर्थागम कहा जाता है । विशेषावश्यक भाष्य की प्रस्तुत गाथा भगवती २५/९७ में भी प्राप्त है, परन्तु भगवती में यह कालान्तर में प्रक्षिप्त हुई है, ऐसा प्रतीत होता है । निर्युक्ति का प्रयोजन १८ एक प्रश्न सहज उपस्थित होता है कि जब प्रत्येक सूत्र के साथ अर्थागम संबद्ध है तब फिर अलग से नियुक्ति लिखने की आवश्यकता क्यों पड़ी? इस प्रश्न के उत्तर में नियुक्तिकार स्वयं कहते हैं- 'तह वि य इच्छावेइ विभासिउं सुत्तपरिवाडी (आवनि ८८ ) । सूत्र में अर्थ निर्युक्त होने पर भी सूत्रपद्धति की विविध प्रकार से व्याख्या करके शिष्यों को समझाने के लिए नियुक्ति की रचना की जा रही है। इसी गाथा की व्याख्या करते हुए विशेषावश्यक भाष्यकार कहते हैं कि श्रुतपरिपाटी में ही अर्थ निबद्ध है अतः अर्थाभिव्यक्ति की इच्छा नहीं रखने वाले नियुक्तिकर्त्ता आचार्य को श्रोताओं पर अनुग्रह करने के लिए वह श्रुतपरिपाटी ही अर्थ - प्राकट्य की ओर प्रेरित करती है । उदाहरण द्वारा भाष्यकार कहते हैं कि जैसे मंख—चित्रकार अपने फलक पर चित्रित चित्रकथा को कहता है तथा शलाका अथवा अंगुलि के साधन से उसकी व्याख्या करता है, उसी प्रकार प्रत्येक अर्थ का सरलता से बोध कराने के लिए सूत्रबद्ध अर्थों को नियुक्तिकार नियुक्ति के माध्यम से अभिव्यक्त करते | जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने 'इच्छावेइ' शब्द का दूसरा अर्थ यह किया है कि मंदबुद्धि शिष्य ही सूत्र का सम्यग् अर्थ नहीं समझने के कारण गुरु को प्रेरित कर सूत्रव्याख्या करने की इच्छा उत्पन्न करवाता है। आचार्य हरिभद्र ने भी यही व्याख्या की है । निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि नियुक्तियां जैन आगमों के विशेष शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करने एवं अर्थ-निर्धारण करने का महत्त्वपूर्ण उपक्रम है 1 निर्युक्तियों की संख्या निर्युक्तियों की संख्या के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि नंदी सूत्र में जहां प्रत्येक आगम का परिचय प्राप्त है, वहां ग्यारह अंगों के परिचय-प्रसंग में प्रत्येक अंग पर असंख्येय १. विभा ५६६, सुत्तत्थो खलु पढमो, भणिओ । तइओ य निरवसेसो, अणुओगे || २. विभा १०८८; तो सुयपरिवाडिच्चिय, इच्छावेइ तमणिच्छमाणं पि । निज्जत्ते वि तदत्थे, ३. विभा १०८९; फलयलिहियं पि मंखो, दाएइ य पइवत्युं, विभासिउं मे, वा सीसो, वोत्तुं तदणुग्गहट्ठाए ।। पढइ पभासइ तहा कराईहिं । सुहबोहत्थं तह इहं पि ।। सुयपरिवाडिं न सुठु बुज्झामि । गुरुमिच्छावेइ वत्तुं जे ।। ४. विभा १०९१; इच्छह नातिमई ५. आवहाटी १ पृ. ४५ । बीओ निज्जुत्तिमीसओ एस विही होइ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण नियुक्ति होने का उल्लेख है। असंख्येय शब्द को दो संदर्भो में समझा जा सकता है। प्रत्येक अंग पर अनेक नियुक्तियां लिखी गयीं अथवा एक ही अंग पर लिखी गयी नियुक्तियों की गाथा-संख्या निश्चित नहीं थी। प्रश्न उपस्थित होता है कि ये नियुक्तियां क्या थीं? इसके समाधान में एक संभावना यह की जा सकती है कि स्वयं सूत्रकार ने ही सूत्र के साथ नियुक्तियां लिखी होंगी। इन नियुक्तियों को मात्र अर्थागम कहा जा सकता है। हरिभद्र ने भी सूत्र और अर्थ में परस्पर नियोजन को नियुक्ति कहा है। इस दृष्टि से 'संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ' का यह अर्थ अधिक संगत लगता है कि सूत्रागम पर स्वयं सूत्रकार ने जो अर्थागम लिखा, वे ही उस समय नियुक्तियां कहलाती थीं। दूसरा विकल्प यह भी संभव है कि आचारांग और सूत्रकृतांग के परिचय में नंदीकार ने 'संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ' का उल्लेख किया होगा लेकिन बाद में पाठ की एकरूपता होने से सभी अंग आगमों के साथ 'संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ' पाठ जुड़ गया। अभी वर्तमान में जो नियुक्ति-साहित्य उपलब्ध है, उसके साथ नंदी सूत्र में वर्णित नियुक्ति का कोई संबंध नहीं लगता। आवश्यकनियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने १० नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की है। उनका क्रम इस प्रकार है-१. आवश्यक २. दशवैकालिक ३. उत्तराध्ययन ४. आचारांग ५. सूत्रकृतांग ६. दशाश्रुतस्कंध ७. बृहत्कल्प ८. व्यवहार ९. सूर्यप्रज्ञप्ति १०. ऋषिभाषित। हरिभद्र ने 'इसिभासियाणं च' शब्द की व्याख्या में देवेन्द्रस्तव आदि की नियुक्ति का भी उल्लेख किया है। वर्तमान में इन दस नियुक्तियों में केवल आठ नियुक्तियां ही प्राप्त हैं। ऐसा संभव लगता है कि भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति में दस नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की लेकिन वे आठ नियुक्तियों की रचना ही कर सके। दूसरा संभावित विकल्प यह भी स्पष्ट है कि अन्य आगम-साहित्य की भांति कुछ नियुक्तियां भी काल के अंतराल में लुप्त हो गयीं। इस संदर्भ में डा. सागरमलजी जैन का मंतव्य है— लगता है सूर्यप्रज्ञप्ति में जैन आचार-मर्यादा के प्रतिकुल कुछ उल्लेख तथा ऋषिभाषित में नारद, मंखलि गोशालक आ परम्परा के लिए विवादास्पद व्यक्तियों का उल्लेख देखकर आचार्य भद्रबाहु ने प्रतिज्ञा करने पर भी इन पर नियुक्ति लिखने का विचार स्थगित कर दिया हो अथवा यह भी संभव है कि इन दोनों ग्रंथों पर नियुक्तियां लिखी गयी हों पर विवादित विषयों का उल्लेख होने से इनको पठन-पाठन से बाहर रख गया हो, फलत: उपेक्षा के कारण कालक्रम से ये विलुप्त हो गयी हों।' इसके अतिरिक्त पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति, पंचकल्पनियुक्ति और निशीथनियुक्ति आदि का * स्वतंत्र अस्तित्व मिलता है। डा. घाटगे के अनुसार ये क्रमश: दशवैकालिकनियुक्ति, आवश्यकनियुक्ति बृहत्कल्पनियुक्ति और आचारांगनियुक्ति की पूरक नियुक्तियां हैं। इस संदर्भ में विचारणीय प्रश्न यह कि ओघनियुक्ति, पिंडनियुक्ति और निशीथनियुक्ति जैसी स्वतंत्र एवं बृहत्काय रचना को आवश्यकनियुकि १. नंदी ८१-९१। २. आवनि ८४, ८५; आवस्सगस्स दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे। सूयगडे निज्जुत्तिं, वुच्छामि तहा दसाणं च ।। कप्परस य निज्जुत्ति, ववहारस्सेव परमणिउणस्स। सूरियपण्णत्तीए, वच्छं इसिभासियाणं च ।। ३. आवहाटी १ पृ. ४१; ऋषिभाषितानां च देवेन्द्रस्तवादीनां नियुक्ति:........ । ४. सागर जैन विद्या भारती, भाग १ पृ. २०५ । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति पंचक दशवैकालिकनिर्युक्ति और आचारांगनिर्युक्ति का पूरक कैसे माना जा सकता है? इन नियुक्तियों का स्वतंत्र अस्तित्व था, इस विषय में कुछ बिंदुओं पर विचार करना आवश्यक लगता है— ९. यद्यपि आचार्य मलयगिरि पिंडनियुक्ति को दशवैकालिकनियुक्ति का अंग मानते हुए कहते हैं कि दशवैकालिकनियुक्ति की रचना चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु ने की । दशवैकालिक के पिंडैषणा नामक पांचवें अध्ययन पर बहुत विस्तृत नियुक्ति की रचना हो जाने के कारण इसको अलग स्वतंत्र शास्त्र के रूप में पिंडनिर्युक्ति नाम दे दिया गया। इसका हेतु बताते हुए आचार्य मलयगिरि कहते हैं कि इसीलिए पिंडनियुक्ति के आदि में मंगलाचरण नहीं किया गया क्योंकि दशवैकालिक के प्रारम्भ में मंगलाचरण कर दिया गया था। लेकिन इस संदर्भ में स्पष्ट रूप कहा जा सकता है कि मंगलाचरण की परम्परा बहुत बाद की है । छेदसूत्र और मूलसूत्रों का प्रारम्भ भी नमस्कारपूर्वक नहीं हुआ | मंगलाचरण की परम्परा लगभग विक्रम की तीसरी शताब्दी के आस-पास की है । दूसरी बात, मलयगिरि की टीका के अतिरिक्त ऐसा उल्लेख कहीं नहीं मिलता अतः स्पष्ट है कि केवल इस एक उल्लेख मात्र से पिंडनियुक्ति को दशवैकालिकनिर्युक्ति का पूरक नहीं माना जा सकता है। तीसरी बात, दशवैकालिकनियुक्ति के मंगलाचरण की गाथा केवल हारिभद्रीय टीका में मिलती है। स्थविर अगस्त्यसिंहकृत दशवैकालिक की चूर्णि में इस गाथा का कोई संकेत नहीं है। इससे भी स्पष्ट है कि मंगलाचरण की गाथा बाद में जोड़ी गयी है। ऐसा अधिक संभव लगता है कि विषय - साम्य की दृष्टि से पिंडनिर्युक्ति को दशवैकालिकनिर्युक्ति का पूरक मान लिया गया । २० २. दशवैकालिकनियुक्ति में द्रव्यैषणा के प्रसंग में कहा गया है कि यहां पिंडनियुक्ति कहनी चाहिए। यदि पिंडनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति की पूरक होती तो ऐसा उल्लेख नहीं मिलता । ३. दशवैकालिकनियुक्ति में नियुक्तिकार ने लगभग अध्ययन के नामगत शब्दों की व्याख्या अधिक की है । अन्य अध्ययनों की भांति पांचवें अध्ययन में भी 'पिंड' और 'एषणा' – इन दो शब्दों की व्याख्या . की है। यदि पिंडनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति की पूरक होती तो अलग से नियुक्तिकार यहां गाथाएं नहीं लिखते तथा पिंड शब्द के निक्षेप भी पिंडनियुक्ति में पुनरुक्त नहीं करते । ४. ओघनियुक्ति और पिंडनियुक्ति को कुछ जैन सम्प्रदाय ४५ आगमों के अंतर्गत मानते हैं। इस बात से स्पष्ट होता है कि आचार्य भद्रबाहु द्वारा इसकी स्वतंत्र रचना की गयी होगी । ओघनियुक्ति की द्रोणाचार्य टीका में भी उल्लेख मिलता है कि साधुओं के हित के लिए चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु ने नवम पूर्व की तृतीय आचार-वस्तु से इसका निर्यूहण किया । ५. ओघनिर्युक्ति को आवश्यकनियुक्ति का पूरक नहीं कहा जा सकता क्योंकि आवश्यकनिर्युक्ति की अस्वाध्याय नियुक्ति का पूरा प्रकरण ओघनियुक्ति में है । यदि यह आवश्यकनियुक्ति का पूरक ग्रंथ होता तो इतनी गाथाओं की पुनरुक्ति नहीं होती । ६. निशीथ आचारांग की पंचम चूला के रूप में प्रसिद्ध है किन्तु आज इसका स्वतंत्र अस्तित्व १. पिनिटी प. ९ । २. दशनि २१८/४; भावस्सुवमारित्ता, एत्थ दव्वेसणाऍ अहिगारो । तीए पुण अत्यजुत्ती, वत्तव्वा पिंडनिज्जुती || ३. ओनिद्रोटी प. ३, ४ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ निर्युक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण मिलता है । आचारांगनिर्युक्ति की अंतिम गाथा में नियुक्तिकार ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि पंचमचूला - निशीथ की नियुक्ति मैं आगे कहूंगा । निशीथ चूर्णिकार ने भी अपनी मंगलाचरण की गाथा में कहा है- 'भणिया विमुत्तिचूला अहुणावसरो निसीहचूलाएं उनके इस कथन से इस ग्रंथ का पृथक् अस्तित्व स्वतः सिद्ध है अन्यथा वे ऐसा उल्लेख न कर आचारांगनियुक्ति के साथ ही इसकी रचना कर देते । ७. इस संदर्भ में एक संभावना यह भी की जा सकती है कि आचारांग की चार चूलाओं की नियुक्ति तो अत्यंत संक्षिप्त शैली में है किन्तु निशीथनियुक्ति अत्यंत विस्तृत है । इसकी रचना - शैली भी अन्य नियुक्तियों से भिन्न है अतः बहुत संभव है कि भद्रबाहु द्वितीय ने इसे विस्तार देकर इसका स्वतंत्र महत्त्व स्थापित कर दिया हो । आचार्य भद्रबाहु जहां दस निर्युक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं, वहां निशीथ का नामोल्लेख नहीं है । यह चिंतन का प्रारम्भिक बिन्दु है । अभी इस बारे में और अधिक गहन चिंतन की आवश्यकता है । ८. पंचकल्पनिर्युक्ति को भी बृहत्कल्पनिर्युक्ति की पूरक निर्युक्ति नहीं माना जा सकता। ऐसा अधिक संभव लगता है कि आचार्य भद्रबाहु ने 'कप्प' शब्द से पंचकल्प और बृहत्कल्प इन दोनों नियुक्तियों का समावेश कर दिया हो । किसी स्वतंत्र विषय पर लिखी गई नियुक्ति को भी मूल निर्युक्ति से अलग कर उसे स्वतंत्र नाम दिया गया है, जैसे—आवश्यकनिर्युक्ति एक विशाल रचना है । उसके छह अध्ययनों की नियुक्तियों का भी अलग-अलग नाम से स्वतंत्र अस्तित्व मिलता है। नीचे कुछ नाम तथा उनका समावेश किस नियुक्ति में हो सकता है, यह उल्लेख किया गया है १. सामाइयनिज्जुत्ती २. लोगस्सुज्जोयनिज्जुत्ती ३. णमोक्कारनिज्जुत्ती ४. परिट्ठावणियानिज्जुत्ती ५. पच्चक्खाणनिज्जुत्ती आवश्यक नियुक्ति आवश्यकनिर्युक्ति आवश्यक नियुक्ति आवश्यकनियुक्ति आवश्यक नियुक्ति आवश्यक नियुक्ति आवश्यक नियुक्ति बृहत्कल्प तथा दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति इसके अतिरिक्त जिन आगमों पर नियुक्तियां लिखी गई हैं, उनके अलग-अलग अध्ययनों के आधार पर भी निर्युक्ति के अलग-अलग नाम मिलते हैं । जैसे—आचारांगनिर्युक्ति में सत्थपरिण्णानिज्जुत्ती, महापरिण्णानिज्जुत्ती और धुयनिज्जुती आदि । वर्तमान में सूर्यप्रज्ञप्ति तथा ऋषिभाषित पर लिखी गयी नियुक्तियां और आराधनानिर्युक्ति अनुपलब्ध है । संसक्तनियुक्ति की हस्तलिखित प्रतियां मिलती हैं, किन्तु वह अभी तक प्रकाशित नहीं हो १. कप्पनिज्जत्ती दशाश्रुतस्कंध के अंतर्गत पर्युषणाकल्प एवं बृहत्कल्प --- इन दोनों निर्युक्तियों के लिए प्रसिद्ध है । ६. असज्झायनिज्जुत्ती ७. समोसरणनिज्जुत्ती ८. कप्पनिज्जुत्त ९. पज्जोसवणाकप्पनिज्जुत्ती Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक पायी है। इसकी प्रतियों में गाथाओं तथा पाठ का बहुत अंतर मिलता है। इसमें ८४ आगमों के संबंध में उल्लेख है अत: विद्वान् लोग इसे परवर्ती एवं असंगत रचना मानते हैं। सरदारशहर के गधैया हस्तलिखित भंडार में महेशनियुक्ति की प्रति भी मिलती है किन्तु यह खोज का विषय है कि यह किस ग्रंथ पर कब और किसके द्वारा लिखी गई? इन नियुक्तियों के अतिरिक्त गोविंद आचार्यकृत गोविंदनियुक्ति का उल्लेख भी अनेक स्थलों पर मिलता है। गोविंदनियुक्ति में उन्होंने एकेन्द्रिय जीवों में जीवत्व-सिद्धि का प्रयत्न किया है क्योंकि अप्काय में जीवत्व-सिद्धि के प्रसंग में आचारांग चूर्णि में उल्लेख मिलता है कि 'जं च निज्जुत्तीए आउक्कायजीवलक्खणं जं च अज्जगोविंदेहि भणियं गाहा।' इस उद्धरण से स्पष्ट है कि उन्होंने आचारांग के प्रथम अध्ययन के आधार पर नियुक्ति लिखी होगी। आचार्य भद्रबाहु द्वारा उल्लिखित नियुक्तियों के अतिरिक्त अन्य नियुक्तियों की निश्चित संख्या के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। वर्तमान में उपलब्ध नियुक्तियों में कुछ नियुक्तियां स्वतंत्र रूप से मिलती हैं, जैसे—आचारांग, सूत्रकृतांग की नियुक्तियां। कुछ नियुक्तियों के आंशिक अंश पर छोटे भाष्य मिलते हैं, जैसेदशवैकालिक और उत्तराध्ययन की नियुक्ति। कुछ नियुक्तियों पर बृहद् भाष्य हैं पर दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व मिलता है,जैसे—आवश्यकनियुक्ति, पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति आदि। कुछ नियुक्तियां ऐसी हैं, जो भाष्य के साथ मिलकर एक ग्रंथ रूप हो गयी हैं, जिनको आज पृथक् करना अत्यंत कठिन है, जैसेनिशीथ, व्यवहार, बृहत्कल्प आदि की नियुक्तियां । बृहत्कल्पभाष्य की टीका में आचार्य मलयगिरि इसी बात का उल्लेख करते हैं।' नियुक्ति-रचना का क्रम आवश्यकनियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा का क्रम इस रूप में प्रस्तुत किया है --१. आवश्यक २. दशवैकालिक ३. उत्तराध्ययन ४. आचारांग ५. सूत्रकृतांग ६. दशाश्रुतस्कंध ७. बृहत्कल्प ८. व्यवहार ९. सूर्यप्रज्ञप्ति १०. ऋषिभाषित । पंडित दलसुखभाई मालवणिया का अभिमत है कि भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति में जिस क्रम से ग्रंथों की नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की है, उसी क्रम से नियुक्तियों की रचना हुई है। इस कथन की पुष्टि में कुछ हेतु प्रस्तुत किए जा सकते हैं १. आचारांगनियुक्ति गा. १७७ में ‘लोगो भणिओ' का उल्लेख है। इससे आवश्यकनियुक्ति (गा. १०५७,१०५८) में चतुर्विंशतिस्तव के लोगस्स पाठ की व्याख्या की ओर संकेत है। २. आयारे अंगम्मि य पुबुद्दिट्ठो' उल्लेख आचारांगनियुक्ति (गा. ५) में है। दशवैकालिक के १. निभा ५५७३, बृभा ५४७३ टी. पृ. १४५२, पंकभा ४२० । २. निचू ३ पृ. २६०। ३. बृभापीटी. पृ.२ सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिर्भाष्यं चैको ग्रंथो जात:। ४. आवनि ८४, ८५ ।। , गणधरला . १२.१४ । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवक्षण क्षुल्लिकाचार अध्ययन की नियुक्ति (१५४-६१) में आचार तथा उत्तराध्ययन के चतुरंगीय अध्ययन की नियुक्ति (गा. १४४-५८) में अंग का विशद वर्णन मिलता है। इससे स्पष्ट है कि आचारांग से पूर्व दशवैकालिक और उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना हो चुकी थी। ३. उत्तराध्ययननियुक्ति में 'विणओ पुबुद्दिट्ठो' (गा.२९) का उल्लेख दशवकालिक की विनयसमाधि की नियुक्ति (गा. २८६-३०३) की ओर संकेत करता है। इस उद्धरण से स्पष्ट है कि दशवैकालिक के बाद उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना हुई। ४. 'कामा पुबुद्दिट्ठा (उनि २००) का उद्धरण दशवैकालिकनियुक्ति (गा. १३७-४१) में वर्णित काम शब्द की व्याख्या की ओर संकेत करता है। इससे स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन से पूर्व दशवैकालिकनियुक्ति की रचना हुई। ५. सूत्रकृतांगनियुक्ति (गा. १८३) में 'आयार सुतं भणियं' उल्लेख से स्पष्ट है कि दशवैकालिक और उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना उससे पूर्व हो गयी थी क्योंकि आचार का वर्णन दशनि १५४-६१ में तथा श्रुत का वर्णन उनि २९ में है। ६. आवश्यकनियुक्ति में वर्णित निह्नववाद की कुछ गाथाएं शब्दश: उत्तराध्ययननियुक्ति में मिलती हैं। ७. उत्तराध्ययननियुक्ति में वर्णित करण की व्याख्या वाली कुछ गाथाएं सूत्रकृतांगनियुक्ति में भी मिलती हैं। ८. सूत्रकृतांगनियुक्ति में 'गंथो पुवुद्दिट्ठो' (गा० १२७) का उल्लेख उत्तराध्ययननियुक्ति (गा० २३४-४०) में वर्णित ग्रंथ शब्द की व्याख्या की ओर संकेत करता है। इस उद्धरण से स्पष्ट है कि सूत्रकृतांगनियुक्ति से पूर्व उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना हुई। ९. आचारांगनियुक्ति (गा. ३३६) में वर्णित 'जह वक्कं तह भासा' का उल्लेख दशवकालिक की 'वक्कसुद्धि' अध्ययन की नियुक्ति की ओर संकेत करता है। १०. सूत्रकृतांगनियुक्ति (गा. ९९) में 'धम्मो पुवुद्दिट्ठो' का उल्लेख दशवैकालिकनियुक्ति (गा. ३६-४०) में वर्णित धर्म शब्द की व्याख्या की ओर संकेत करता है। इससे स्पष्ट है कि सूत्रकृतांगनियुक्ति की रचना बाद में हुई।। ११ 'जो होति मोक्खो, सा उ विमुत्ति पगतं' आचारांगनियुक्ति (गा.३६५) का यह उल्लेख उत्तराध्ययननियुक्ति में वर्णित मोक्ष की व्याख्या की ओर संकेत करता है। उपर्युक्त उल्लेखों से स्पष्ट है कि नियुक्तियों की रचना का कम वही है, जिस कम से उन्होंने नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की है। नियुक्तियों के कर्तृत्व एवं उसके रचनाकाल के बारे में हम विस्तार से अगले खंड में चर्चा करेंगे। आचार्य गोविंद एवं उनकी नियुक्ति आचार्य भद्रबाहु द्वारा लिखित नियुक्तियों के अतिरिक्त गोविंद आचार्य कृत गोविंदनियुक्ति का उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलता है। आवश्यकचूर्णि में दर्शनप्रभावक ग्रंथ के रूप में गोविंदनियुक्ति का उल्लेख हुआ है। निशीथ चूर्णि में उनका परिचय इस प्रकार मिलता है.... १. निभा ३६५६, चू. पृ. २६० । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक गोविंद' नामक बौद्ध भिक्षु था। एक जैन आचाय द्वारा वाद-विवाद में वह अठारह बार पराजित हुआ। पराजय से दुःखी होकर उसने चिन्तन किया कि जब तक मैं इनके सिद्धांत को नहीं जानूंगा, तब तक इन्हें नहीं जीत सकता। इसलिए हराने की इच्छा से ज्ञान-प्राप्ति के लिए उसी आचार्य को दीक्षा के लिए निवेदन किया। सामायिक आदि का अध्ययन करते हुए उसे सम्यक्त्व का बोध हो गया। गुरु ने उसे व्रत-दीक्षा दी। दीक्षित होने पर गोविंद भिक्षु ने सरलतापूर्वक अपने दीक्षित होने का प्रयोजन गुरु को बता दिया। उनके दीक्षित होने का उद्देश्य सम्यक् नहीं था अत: उन्हें ज्ञान-स्तेन कहा गया। बृहत्कल्पभाष्य में उनका उल्लेख ज्ञान-स्तेन के रूप में नहीं है। वे हेतुशास्त्र युक्त गोविंदनियुक्ति लिखने तथा सम्यग्-दर्शन की प्राप्ति के लिए दीक्षित हुए—ऐसा भाष्यकार तथा टीकाकार मलयगिरि का मंतव्य है। निशीथभाष्य एवं पंचकल्पभाष्य में भी अन्यत्र ऐसा ही उल्लेख मिलता है। व्यवहारभाष्य में मिथ्यात्वी के रूप में उनका उल्लेख मिलता है। वहां चार प्रकार के मिथ्यात्वियों के उदाहरण हैं, उनमें गोविंद आचार्य पूर्व गृहीत आग्रह के कारण मिथ्यात्वी थे। नंदी सूत्र की स्थविरावली के अनुसार ये आर्य स्कन्दिल की चौथी पीढ़ी में हुए। नंदी सूत्र में इन्हें विपुल अनुयोगधारक, क्षांति, दया से युक्त तथा उत्कृष्ट प्ररूपक के रूप में प्रस्तुत किया है गोविंदाणं पि नमो, अणुओगे विउलधारणिंदाणं । निच्चं खंतिदयाणं, परूवणा दुल्लभिंदाणं।। गोविंदनियुक्ति में उन्होंने एकेन्द्रिय जीवों में जीवत्व-सिद्धि का प्रयत्न किया है। यह नियुक्ति दशवकालिक के चतुर्थ अध्ययन छज्जीवणिया के आधार पर लिखी गयी अथवा आचारांग के प्रथम अध्ययन शस्त्र-परिज्ञा पर, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। दशवैकालिकनियुक्ति में मात्र इतना उल्लेख है-गोविंदवायगो वि य जह परपक्खं नियत्तेइ। आचारांग के प्रथम अध्ययन शस्त्र-परिज्ञा के आधार पर लिखी गयी प्रतीत होती है। इसके कुछ हेतु इस प्रकार हैं १. अप्काय में जीवत्व-सिद्धि के प्रसंग में आचारांग चूर्णि में उल्लेख है—'जं च निज्जुत्तीए आउक्कायजीवलक्षणं जं च अज्जगोविंदेहिं भणियं गाहा'—इस उद्धरण से स्पष्ट है कि आचारांग के आधार पर उन्होंने नियुक्ति लिखी होगी। २. आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर ने इन स्थावरकायों की अस्तित्व-सिद्धि के अनेक सूत्रों का उल्लेख किया है,जबकि दशवैकालिक में केवल इनकी अहिंसा का विवेक है। आचारांगनियुक्ति में भी १. आचार्य हरिभद्र ने गोविंद के स्थान पर गोपेन्द्रवाचक का प्रयोग किया है (दशहाटी प. ५३)। २. निचू ३ पृ. ३७; भावतेणो सिद्धंतावहरणट्ठताए केणति पउत्तो आगतो, अप्पणा वा गोविंदवाचकवत् । ३. बृभा ५४७३ टी. प. १४५२: विद्या-मंत्रनिमित्तार्थ हेतुशास्त्राणां च गोविंदप्रभृतीनामर्थाय । ४. (क) निभा ५५७३; निचू पृ. ९६: हेतुसत्थगोविंदनिज्जुत्तादियट्ठा उवसंपज्जति। (ख) पंकभा ४२०, गोविंदज्जो णाणे, दंसणसत्थट्ठहेतुगट्ठा वा। ५ व्यभा २७१४; पुवागहितेण होति गोविंदो। ६ निचू ३ पृ. २६०; पच्छा तेण एगिदियजीवसाहणं गोविंदनिज्जुत्ती कया । ७ आचू " २० । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण २५ स्थावरकाय-सिद्धि की कुछ गाथाएं हैं। संभव है आचार्य भद्रबाहु ने गोविंदनिर्युक्ति से कुछ गाथाएं ली हों क्योंकि गोविंदाचार्य भद्रबाहु द्वितीय से पूर्व के हैं । दशवैकालिक की दोनों चूर्णियों में भी गोविंद आचार्य के नामोल्लेख पूर्वक यह गाथा मिलती हैभणियं च गोविंदवायगेहिं काये विहु अज्झप्पं, सरीरवाया समन्नियं चेव । काय-मणसंपउत्तं, अज्झप्पं किंचिदाहंसु । । आज स्वतंत्र रूप से गोविंदनिर्युक्ति नामक कोई ग्रंथ नहीं मिलता फिर भी प्राप्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गोविंद आचार्य ने नियुक्ति लिखी थी, जो आज अनुपलब्ध है । दशवैकालिक सूत्र एवं उसकी निर्युक्ति दशवैकालिक सूत्र साध्वाचार का प्रारम्भिक ज्ञान कराने वाला महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है । उत्कालिक सूत्रों में दशवैकालिक का प्रथम स्थान है । आचारप्रधान ग्रंथ होने से नियुक्तिकार के अनुसार इसका समावेश चरणकरणानुयोग में होता है । दिगम्बर ग्रंथों के अनुसार इसमें साधु के आचार एवं भिक्षाचर्या का वर्णन है । यह आगम - पुरुष की रचना है, इसलिए इसकी गणना आगम ग्रंथों के अंतर्गत होती है। जैन परम्परा में यह अत्यंत प्रसिद्ध आगम ग्रंथ है। इसके महत्त्व को इस बात से आंका जा सकता है कि इसके निर्यूहण के पश्चात् दशवैकालिक के बाद उत्तराध्ययन पढ़ा जाने लगा। इससे पूर्व आचारांग के बाद उत्तराध्ययन सूत्र पढ़ा जाता था । दशवैकालिक की रचना से पूर्व साधुओं को आचारांग के अंतर्गत शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन को अर्थतः जाने बिना महाव्रतों की विभागतः उपस्थापना अर्थात् छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं दिया जाता था किन्तु दशवैकालिक की रचना के बाद इसके चौथे अध्ययन (षड्जीवनिकाय) को अर्थतः जानने के बाद महाव्रतों की विभागतः उपस्थापना दी जाने लगी । प्राचीन काल में आचारांग के दूसरे अध्ययन 'लोक-विजय' के पांचवें उद्देशकगत आमगंध ( २ / १०८) सूत्र को पढ़े बिना कोई भी स्वतंत्र रूप से भिक्षा के लिए नहीं जा सकता था । किन्तु दशवैकालिक के निर्यूहण के पश्चात् पांचवें अध्ययन 'पिंडैषणा' को पढ़ने के बाद भिक्षु पिंडकल्पी होने लगा । " दशवैकालिक ग्रंथ की उपयोगिता इस बात से जानी जा सकती है कि मुनि मनक के दिवंगत होने पर आचार्य शय्यंभव ने इसको यथावत् रखा जाए या नहीं, इस विषय में संघ के सम्मुख विचार-विमर्श किया। संघ ने एकमत से निर्णय लिया कि यह आगम भव्य जीवों के लिए बहुत कल्याणकारी है । भविष्य में भी मनक जैसे अनेक जीवों की आराधना १. दशजिचू १०९, दशअचू पृ. ५३ । २. धवला १/१/१ पृ. ९७, कपा. जयधवला भा. १ पृ. १०९, अंगपण्णत्ति चूलिका गा. २४ । ३. व्यभा १५३३: आयारस्स उ उवरिं, उत्तरज्झयणाणि आसि दसवेयालियउवरिं, इयाणि किं ते न पुव्विं तु । होंती उ ।। ४. व्यभा १५३१; पुव्विं सत्यपरिण्णा, अधीतपढिताइ होउवडवणा । एहिं छज्जीवणिया, किं सा उ न होउवट्ठवणा । । बंभचेरे. पंचमउद्देस ५. व्यभा १५३२: बितियम्मि आमगंधम्मि । सुत्तम्मि पिंडकप्पी, इह पुण पिंडेसणा एसो ।। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचा में निमित्तभूत बनेगा अत: यह अविच्छिन्न रहना चाहिए। आज भी शैक्ष साधु-साध्वियों को आचार का प्राथमिक बोध देने हेतु सर्वप्रथम इसी आगम ग्रंथ को कंठस्थ कराया जाता है। रचनाकार का परिचय दशवैकालिक के नि!हण कर्ता आचार्य शय्यंभव हैं। वे राजगृह नगरी के यज्ञवादी ब्राह्मण थे। अनेक विद्याओं के पारगामी विद्वान् थे। आचार्य प्रभव को अपने योग्य उत्तराधिकारी की खोज करनी थी। उन्होंने ज्ञानबल से शय्यंभव ब्राह्मण को इसके योग्य देखा। उनको प्रतिबोध देने हेतु आचार्य प्रभव ने दो साधुओं को यज्ञशाला में भेजा। साधुओं ने कहा---'अहो कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते।' ऐसा कहकर वे साधु वहां से चले गए। शय्यंभव ने सोचा कि अवश्य इनकी बात में कोई तत्त्व निहित है। उन्होंने अपने अध्यापक से तत्त्व का अर्थ पूछा। अध्यापक ने शय्यंभव को बताया कि आर्हत धर्म तत्त्व है। शय्यंभव खोजते-खोजते मुनि के पास पहुंचे और धर्म के यथार्थ स्वरूप को समझकर प्रव्रजित हो गए। रचना का उद्देश्य जब शय्यंभव आचार्य प्रभव के पास दीक्षित हुए, उस समय उनकी पत्नी गर्भवती थी। कालान्तर में उनके पुत्र की उत्पत्ति हुई। उसका नाम मनक रखा गया। जब वह आठ वर्ष का हुआ तब मां की अनुमति लेकर पिता की खोज में निकल पड़ा। रास्ते में उसे आचार्य शय्यंभव मिले। परिचय पूछने पर आचार्य को ज्ञात हुआ कि यह उनका अपना पुत्र है। उन्होंने उसे अपने पास दीक्षित कर लिया पर अपना वास्तविक परिचय नहीं बताया। आचार्य शय्यंभव ने अपने ज्ञानबल से जाना कि इसका आयुष्य बहुत कम है तब उन्होंने उसकी सम्यग् आराधना हेतु पूर्वो की विशाल ज्ञानराशि से दशवैकालिक का निर्वृहण किया। वैसे भी चतुर्दशपूर्वी किसी निमित्त के उपस्थित होने पर पूर्वो से ग्रंथ का निर्गृहण करते ही हैं। नामकरण नियुक्तिकार ने इसके लिये दो नामों का उल्लेख किया है. दसकालिक, दशवैकालिक। उनके अनुसार दसकालिक नाम संख्या और काल के निर्देशानुसार किया गया है। आचार्य शय्यंभव ने मनक के लिए दस अध्ययनों का विकाल में नि!हण किया इसलिए इसका नाम दशवैकालिक पड़ा। आगम का स्वाध्याय-काल दिन और रात का प्रथम व अंतिम प्रहर होता है। स्वाध्याय-काल के बिना भी इसका अध्ययन-अध्यापन किया जाता है इसलिए भी इसे दशवैकालिक कहा जा सकता है। इसका दसवां अध्ययन वैतालिक छंद में है अत: स्थविर अगस्त्यसिंह के अनुसार इसका एक नाम 'दसवैतालिक' भी है। आचार्य महाप्रज्ञजी के अनसार शय्यंभव ने मनक के लिए इसकी रचना की। मनक के स्वर्गस्थ होने के बाद जहां से उन्होंने इसका निर्वृहण किया, वहीं वे अन्तर्निविष्ट करना चाहते थे अत: संभव है स्वयं उन्होंने इसका कोई नामकरण न किया हो पर जब इसको स्थिर रूप दिया गया तब आगमकार ने ही इसका १. दशनि ३४९, दशअचू पृ. २७१ । २. दशअचू पृ.४, ५, चरिमो चोद्दसपुव्वी अवस्सं निज्जूहति, चोद्दसपुव्वी वि कारणे। ३. दशनि ७। ४ दशनि १४ । ५. दशअचू प्र.३; दसमं च वेतालियोपजातिवृत्तेहिं णियमितमज्झयणमिति दसवेतालियं । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण नामकरण किया हो। नि!हण दशवैकालिक आचार्य शय्यंभव की स्वतंत्र रचना नहीं अपितु निर्मूढ कृति है। नियुक्तिकार के अनुसार आत्मप्रवाद पूर्व से धर्मप्रज्ञप्ति (चतुर्थ अध्ययन), कर्मप्रवाद पूर्व से तीन प्रकार की पिंडैषणा (पंचम अध्ययन), सत्यप्रवाद पूर्व से वाक्यशुद्धि (सप्तम अध्ययन) तथा शेष अध्ययनों (१, २, ३, ६, ८, ९, १०) का नवमें प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय आचार-वस्तु से नि!हण हुआ। नियुक्तिकार दूसरा विकल्प प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि शय्यंभव ने मनक को अनुगृहीत करने के लिए सम्पूर्ण दशवैकालिक का नि!हण द्वादशांगी गणिपिटक से किया। दिगम्बर साहित्य में इसके कर्तृत्व के विषय में 'आरातीयैराचार्यैर्नियूढं' मात्र इतना उल्लेख मिलता है। महानिशीथ के अनुसार महावीर गौतम से कहते हैं—“मेरे बाद निकट भविष्य में द्वादशांगी के ज्ञाता आचार्य शय्यंभव होंगे। वे अपने पुत्र के लिए दशवकालिक का निर्माण करेंगे। वह सूत्र संसार-तारक और मोक्षमार्गप्रदर्शक होगा। इसे पढ़कर दुष्णम काल के अंत में होने वाला दुःप्रसभ नामक साधु आराधक होगा।" तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य जयाचार्य का अभिमत है कि चतुर्दशपूर्वी की वही रचना आगम के अंतर्गत आती है, जो केवलज्ञानी के वचनों की साक्षी से की जाए। अत: जयाचार्य ने प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध में यह कल्पना की है कि पूर्वो के आधार पर रचित दशवकालिक का कलेवर बहुत बृहत् था। शय्यंभव ने उसको लघु बना दिया। रचनाकाल वीर-निर्वाण के छत्तीसवें वर्ष में आचार्य शय्यंभव का जन्म हुआ। ६४ वें वर्ष में वे दीक्षित हुए। दीक्षा के आठ वर्ष बाद उन्होंने इसका निर्वृहण किया अत: वीर-निर्वाण के ७२ वर्ष बाद उन्होंने इस ग्रंथ का नि!हण किया। विंटरनित्स के अनुसार वीर-निर्वाण के ९८ वर्ष बाद इसकी रचना हुई। इतना निश्चित है कि वीर-निर्वाण की प्रथम शताब्दी में ही इस ग्रंथ का नि!हण हो चुका था। भाषा-शैली सूत्रात्मक शैली में गुंफित इस ग्रंथ में धर्म और अध्यात्म के अनेक रहस्यों का उद्घाटन हुआ है। यह गद्य और पद्य मिश्रित रचना है फिर भी इसमें पद्यभाग अधिक है। बीच-बीच में अनेक उपमाओं के प्रयोग से इसकी भाषा व्यञ्जक एवं प्राञ्जल हो गयी है। अर्धमागधी और जैन महाराष्ट्री भाषा का सम्मिलित प्रयोग इस ग्रंथ में मिलता है। अध्ययन एवं विषयवस्तु दशवैकालिक सूत्र में दस अध्ययन तथा दो चूलाएं हैं। ग्रंथ के अवशिष्ट अर्थ का संग्रह करने के लिए चूला का वही स्थान है, जो स्थान मुकुट में मणि का है। नियुक्तिकार ने चूलिका को उत्तरतंत्र १. दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन पृ. ११ । २. दशनि १५, १६ । ३. दशनि १७। ४. प्रश्नोत्तर तत्वबोध २०/८३२। ५. प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध १९/८२२, ८२३ । ६. दशअचू पृ. ६; सेसत्थसंगहत्थं मउड-मणित्थाणीयाणि दो चूलज्झयणाणि। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ नियुक्तिपंचक और संग्रहणी कहा है। परिशिष्ट की भांति प्राचीनकाल में ग्रंथ के साथ चूलिका जोड़ दी जाती थी, जो सूत्र के अर्थ की संग्रहणी के रूप में होती थी। संग्रहणी का अर्थ है शास्त्र में वर्णित और अवर्णित अर्थ का संक्षिप्त संग्रह । आचार्य शीलांक के अनुसार चूलिका का अर्थ अग्र है। अग्र का अर्थ उत्तरभाग है। अध्ययनों तथा चूलिकाओं के नाम तथा उन पर कितनी-कितनी नियुक्ति-गाथाएं लिखी गईं, इसका उल्लेख इस प्रकार हैअध्ययन नियुक्तिगाथाएं अध्ययन नियुक्तिगाथाएं १. द्रुमपुष्पिका १-१२६ ७. वाक्यशुद्धि २४५-६८ २. श्रामण्यपूर्वक १२७-५२ ८. आचार-प्रणिधि २६९-८५ ३. क्षुल्लिकाचारकथा १५३-८८ ९. विनय-समाधि २८६-३०४ ४. षड्जीवनिका १८९-२१७ १०. सभिक्षु ३०५-३३ ५. पिंडैषणा २१७/१-२२१/ १ १. रतिवाक्या (प्रचू.) ३३४-४४ ६. महाचारकथा २२२-४४ २. विविक्तचर्या (द्विचू.) ३४५-४९ नियुक्तिकार ने अध्ययनों के नामों का उल्लेख नहीं किया लेकिन अध्ययन-गत विषयवस्तु का वर्णन किया है। उनके अनुसार दशवकालिक के प्रथम अध्ययन में जिन-शासन में प्रचलित धर्म की प्रशंसा, दूसरे में संयम में धृति, तीसरे में आत्म-संयम में हेतुभूत लघु आचार कथा, चौथे में जीव-संयम, पांचवें में तप और संयम में गुणकारक भिक्षा की विशोधि, छठे अध्ययन में संयमी व्यक्तियों द्वारा आचरणीय महती आचार-कथा, सातवें अध्ययन में वचन-विभक्ति (भाषा-विवेक), आठवें अध्ययन में आचार-प्रणिधि, नौवें अध्ययन में विनय तथा अंतिम दसवें अध्ययन में भिक्षु का स्वरूप प्रतिपादित है। प्रथम चूलिका में संयम में विषाद प्राप्त साधु को स्थिर करने के उपाय तथा दूसरी चूलिका में अत्यधिक प्रसाद गुणचर्या—अप्रतिबद्ध चर्या तथा संयम में रत रहने से होने वाली गुणवृद्धि का वर्णन दशवैकालिकनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति में ३४९ गाथाएं हैं। इसमें नियुक्तिकार ने प्रथम अध्ययन की विस्तृत व्याख्या की है। पूरे नियुक्ति साहित्य का विहंगावलोकन करने पर ज्ञात होता है कि केवल दशवकालिक के प्रथम अध्ययन की प्रथम गाथा के प्रत्येक शब्द की नियुक्तिकार ने विस्तृत व्याख्या की है। अन्यथा नियुक्तिकार सूत्रगत किसी विशेष शब्द की ही व्याख्या करते हैं। प्रथम अध्ययन की पांच गाथाओं पर १२६ गाथाएं लिखी हैं, जिसमें मुख्य रूप से धर्म, मंगल, तप, हेतु, उदाहरण आदि का वर्णन किया गया है। यद्यपि उदाहरण और हेतु के भेद-प्रभेदों का विस्तार मूल पाठ से सीधा संबंधित नहीं है पर न्याय-दर्शन के क्षेत्र में यह वर्णन अपना विशिष्ट स्थान रखता है। हेत. आहरण आदि के भेद-प्रभेदों को निर्यक्तिकार ने कथाओं के माध्यम से स्पष्ट किया है। ये कथाएं सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण १. दशनि ३३४। २. दशहाटी प. २६९ । ३. तत्त्वार्थश्रुतसागरीय वृत्ति (प. ६७) में प्रथम अध्ययन का नाम वृक्ष-कुसुम मिलता है। ४. नियुक्ति में इसका दूसरा नाम 'धम्मपण्णत्ति' भी मिलता है। (दशनि २१७) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण २९ प्रथम अध्ययन की नियुक्ति में नियुक्तिकार ने अनेक जिज्ञासाओं को उपस्थित करके साधु की भिक्षाचर्या को समाहित किया है। अंत में न्याय के दस अवयवों का नामोल्लेख एवं उनकी व्याख्या प्रस्तुत की है। दूसरे अध्ययन की नियुक्ति में श्रमण का स्वरूप, पूर्व के १३ निक्षेप तथा काम के भेद-प्रभेदों का वर्णन है। पद के भेद - प्रभेदों का वर्णन काव्य एवं साहित्य की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । तीसरे अध्ययन की नियुक्ति में मूलपाठ में आए किसी भी शब्द की व्याख्या न करके अध्ययन के नाम में आए क्षुल्लक, आचार एवं कथा — इन तीन शब्दों के निक्षेप एवं व्याख्या प्रस्तुत है । कथा के भेद-प्रभेदों का नियुक्तिकार ने सर्वांगीण निरूपण किया है। 1 चौथे अध्ययन की नियुक्ति में षटुकाय का वर्णन करके नियुक्तिकार ने जीव के अस्तित्व एवं पुनर्जन्म को सिद्ध करने में अनेक हेतु प्रस्तुत किए हैं। यह सारा वर्णन दर्शन के क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। आत्मा के संबंध में इतना तर्कसंगत और यौक्तिक वर्णन नियुक्तिकार से पूर्व नहीं मिलता। दशवैकालिक का पांचवां अध्ययन बहुत बड़ा है लेकिन इसकी नियुक्ति बहुत छोटी नियुक्तिकार ने पिंड एवं एषणा इन दो शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत की है। छठे अध्ययन का एक नाम धर्मार्थकाम भी है अत: नियुक्तिकार ने धर्म, अर्थ और काम का विस्तृत वर्णन किया है। सातवें वाक्यशुद्धि अध्ययन में भाषा के भेद - प्रभेदों एवं शुद्धि का वर्णन किया गया है। अंत में भाषा - विवेक पर मार्मिक सूक्तियां भी मिलती हैं । आठवें अध्ययन में प्रणिधि के भेद-प्रभेदों का विस्तृत वर्णन है । नवें अध्ययन में विनय के भेद-प्रभेदों एवं समाधि का विवेचन है । दसवें सभिक्खु अध्ययन में भिक्षु के स्वरूप, लक्षण, उसके एकार्थक एवं भिक्षु की कसौटियों का वर्णन है । नियुक्तिकार ने भिक्षु को स्वर्ण की उपमा दी है । इसमें स्वर्ण के आठ गुण एवं चार कसौटियों का उल्लेख है । प्रथम चूलिका की नियुक्ति में चूड़ा के निक्षेप एवं प्रथम चूड़ा का नाम रतिवाक्या की सार्थकता पर विचार किया गया है। द्वितीय चूलिका की निर्युक्ति में साधु की प्रशस्त चर्या पर विचार हुआ है । अंत में मुनि मनक के समाधिमरण और उसके स्वर्गस्थ होने पर आचार्य शय्यंभव द्वारा इसके निर्यूहण का उद्देश्य स्पष्ट किया गया है। दार्शनिक दृष्टि से इस नियुक्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान है । दशवैकालिक की एक नयी नियुक्ति आचार्य भद्रबाहु द्वारा रचित निर्युक्ति के अतिरिक्त एक अन्य नियुक्ति की प्रति लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर के ग्रंथ-भंडार में मिली। इसमें दशवैकालिक की अति संक्षिप्त निर्युक्ति है । हस्तप्रति के आधार पर लेखक के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती लेकिन पंडित दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार यह नियुक्ति किसी अन्य आचार्य द्वारा रचित होनी चाहिए । इस नियुक्ति में कुल ९ गाथाएं हैं, जिनमें चार गाथाएं मूल दशवैकालिकनियुक्ति की हैं तथा छह गाथाएं स्वतंत्र हैं । प्रारम्भिक चार गाथाओं में कर्त्ता, रचना का उद्देश्य तथा रचनाकाल का उल्लेख है । अंतिम छह गाथाओं में चूलिका की रचना के पीछे क्या इतिहास रहा, इसका उल्लेख मिलता 1 हारिभद्रीय टीका में बिना नामोल्लेख के यह घटना संक्षेप में निर्दिष्ट मात्र है । प्रस्तुत नियुक्ति के अंत १. दशहाटी पृ. २७८, २७९ । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० गालयस्स नियुक्तिपंचक में उल्लेख है— 'इति दशवैकालिकनियुक्ति: समाप्ता:।' यह प्रति सं० १४४२ कार्तिक शुक्ला शुक्रवार को नागेन्द्र गच्छ के आचार्य गुणमेरुविजयजी के लिए लिखी गयी, ऐसा उल्लेख उक्त प्रति के अंत में मिलता है। प्रति में पाठ की दृष्टि से कुछ स्थानों पर अशुद्धियां थीं, उनको हमने ठीक कर दिया है। १. सेज्जंभवं गणधरं, जिणपडिमादसणेणं पडिबुद्धं । मणगपियरं दसकालियस्स वंदे ।। २. मणगं पडुच्च सेज्जभवेण निज्जूहिया दसज्झयणा। वेयालियाए ठविया, तम्हा दसकालियं नाम ।। ३. छहिं मासेहिं अहीयं, अज्झयणमिणं तु अज्जमणगेणं । छम्मासा परियाओ, अह कालगओ समाहीए ।। ४. आणंदअंसुपायं, कासी सेज्जंभवा तहिं थेरा। जसभद्दस्स य पुच्छा, कहणा य वियारणा संघे ।। ५. तुम्हारिसो वि मुणिवरो, जइ मोहपिसाएण छलिज्जंति। ता साहु तुमं चिय धीर, धीरिमा कं समल्लीणा।। ६. दसअज्झयणं समयं, सेज्जंभवसूरिविरइयं एयं । लहुआउयं च नाउं, अट्ठाए मणगसीसस्स ।। ७. एयाओ दो चूला, आणीया जक्खिणीए अज्जाए। सीमंधरपासाओ, भवियजणविबोहणट्ठाए।। ८. खुल्लोसण दीहम्मि य, अहं च काराविओ उ अज्जाए। रयणीए कालगओ, अज्जा संवेगमुप्पन्ना।। ९. कहाणयं संजायं, रिसिहिंसा पाविया मए पावे। तो देवया विणीया, सीमंधरसामिणा पासे ।। १०. सीमंधरेण भणियं, अज्जे! खुल्लो गओ महाकप्पे। __मा जूरिसि अप्पाणं, धम्मम्मि निच्चला होसु।। चूलिका की रचना का इतिहास बहुत रोचक है। स्थूलिभद्र एक प्रभावशाली आचार्य हुए हैं। उनकी यक्षा आदि सात बहिनों ने भी दीक्षा ली थी। श्रीयक उनका छोटा भाई था। वह शरीर से बहुत कोमल था, भूख को सहन करने की शक्ति नहीं थी अत: वह उपवास भी नहीं कर सकता था। एक बार पर्युषण पर्व पर यक्षा की प्रेरणा से श्रीयक मुनि ने उपवास किया। दिन तो सुखपूर्वक बीत गया लेकिन रात्रि को भयंकर वेदना की अनुभूति हुई। भयंकर वेदना से मुनि श्रीयक दिवंगत हो गये। भाई के स्वर्गवास से यक्षा को बहुत आघात लगा। मुनि की मृत्यु का निमित्त स्वयं को मानकर वह दु:खी रहने लगी और संघ के समक्ष स्वयं को प्रायश्चित्त के लिए प्रस्तुत किया। संघ ने साध्वी यक्षा को निर्दोष घोषित कर दिया लेकिन उसने अन्न ग्रहण करना बंद कर दिया। संघ ने कायोत्सर्ग किया। १. दशनि १३ । २. दशनि १४ । ३. दशनि ३४८। ४. दशनि ३४९। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण ३१ शासन देवी प्रकट हुई। संघ ने कहा आप इसे सीमंधरस्वामी के पास ले जाएं। उस समय शासन देवता साध्वी यक्षा को सीमंधर स्वामी के पास ले गए। सीमंधर स्वामी ने यक्षा को प्रतिबोधित किया और कहा तुम इसके लिए दोषी नहीं हो। तुम्हारा भाई महाकल्प में देव बना है अत: तुम दु:खी न रहकर धर्म में दृढ़ बनो। उस समय सीमंधर स्वामी ने यक्षा को चार चूलिकाओं की वाचना दी। इनमें दो चूलिकाएं दशवैकालिक के साथ तथा दो आचारांग (तीसरी और चौथी चूला) के साथ जोड़ दी गई। प्रस्तुत नियुक्ति का काल-निर्धारण तथा कर्त्ता का उल्लेख करना कठिन है। लेकिन अत्यंत संक्षेप में इसके द्वारा दशवकालिक की रचना का इतिहास ज्ञात हो जाता है। संभावना की जा सकती है कि प्रस्तुत नियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति के बाद रची गयी क्योंकि इसकी चार गाथाओं को इस नियुक्ति में अक्षरश: लिया गया है। प्राचीनकाल की यह पद्धति रही कि किसी बात को सुरक्षित रखने के लिए उसे पद्यबद्ध कर देते थे जिससे मौखिक और कंठस्थ परम्परा में सुविधा रहती थी। उत्तराध्ययन सूत्र एवं उसकी नियुक्ति उत्तराध्ययन अर्धमागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध आचार प्रधान आगम है। उपमाओं की बहुलता के कारण विटरनित्स ने इसे श्रमणकाव्य की कोटि में रखा है। इसमें साधु के आचार एवं तत्त्वज्ञान का सरल एवं सुबोध शैली में वर्णन किया गया है। जार्ल शान्टियर, डा. गेरिनो, विंटरनित्स तथा हर्मन जेकोबी आदि विद्वानों ने इसे आगम की सूची में ४१ वां आगम माना है। दिगम्बर साहित्य में अंगबाह्य के १४ प्रकारों में सातवां दशवैकालिक और आठवां उत्तराध्ययन का स्थान है। नंदीसत्र में कालिक सत्रों की गणना में प्रथम स्थान उत्तराध्ययन का है। वर्तमान में इसकी गणना मूल सूत्रों में की जाती है। इसको मल सत्र क्यों माना गया इस बारे में विद्वानों में अनेक मतभेद हैं। पाश्चात्य विद्वान शान्टियर एवं प्रो. पटवर्धन के अनुसार इसमें महावीर के मूल शब्दों का संग्रह है, इसलिए इसे मूलसूत्र कहा जाता है। किन्तु यह तर्क युक्तिसंगत नहीं लगता क्योंकि दशवैकालिक मूलसूत्रों के अंतर्गत है पर वह आचार्य शय्यंभव द्वारा निर्मूढ़ है। डॉ. शूबिंग ने साधु जीवन के मूलभूत नियमों का प्रतिपादक होने के कारण इसे मलसत्र कहा। यह समाधान भी तर्क की कसौटी पर सही नहीं उतरता क्योंकि अनुयोगद्वार और नंदी में अन्य विषयों का प्रतिपादन है। प्रो. विंटरनित्स के अनुसार इस मूलसूत्र पर अनेकविध व्याख्या-साहित्य लिखा गया इसलिए इसे मूलसूत्र कहा गया। यह मान्यता भी तर्कसंगत नहीं लगती क्योंकि आवश्यक सूत्र पर सबसे अधिक व्याख्या साहित्य मिलता है। एक मान्यता यह भी प्रसिद्ध है कि आत्मा के चार मूल गुण हैं— ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप। नंदी में मुख्यत: ज्ञान का, अनुयोगद्वार में दर्शन का, दशवैकालिक में चारित्र का तथा उत्तराध्ययन में तप का वर्णन है अत: ये चारों मूल सूत्र हैं। चूर्णिकाल में श्रुतपुरुष के मूल स्थान में आचारांग और सूत्रकृतांग का स्थान था। उत्तरकालीन श्रुतपुरुष की मूलस्थापना में दशवैकालिक और उत्तराध्ययन आ गए। इन्हें मूलसूत्र मानने का यही सर्वाधिक संभावित हेतु है, ऐसा आचार्य श्री तुलसी का मंतव्य है । मूलत: इनमें मुनि के मूल गुणों १. परिशिष्ट पर्व ९/८४-१०० । ३. The Dasavekalika sutra: a study, Page 16. २. The uttaradhyayana sutra, preface page 32. ४. A Histroy of Indian literature vo 2, Page 466. ५. दसवे..........भूमिका पृ. ५। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ नियुक्ति पंचक महाव्रत, समिति आदि का निरूपण है अतः ये मूलसूत्र कहलाते हैं । मूलसूत्र की संख्या एवं उनके नामों के बारे में विद्वानों में काफी मतभेद है किन्तु उत्तराध्ययन को सभी ने एकस्वर से मूलसूत्र माना है। प्रो. बेबर ने उत्तराध्ययन, आवश्यक और दशवैकालिक—इन तीनों को मूलसूत्र के रूप में स्वीकृत किया है। विंटरनित्स ने इन तीनों के अतिरिक्त पिंडनियुक्ति को भी ग्रहण किया है। डॉ. शूब्रिंग पिंडनिर्युक्ति, ओघनियुक्ति सहित पांच ग्रंथों को मूलसूत्र के रूप में स्वीकृत करते हैं। प्रो. हीरालाल कापड़िया ने इनके अतिरिक्त दशवैकालिक की चूलिकाओं को भी मूलसूत्र में परिगणित किया है।'तेरापंथ की मान्यता के अनुसार दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नंदी और अनुयोगद्वार— ये चार सूत्र मूलसूत्र के अंतर्गत हैं। मूलसूत्र का विभाजन विक्रम की ११ वीं १२ वीं शताब्दी के बाद हुआ, ऐसा अधिक संभव लगता है क्योंकि उत्तराध्ययन की चूर्णि एवं टीका में ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता है। आचार्य तुलसी के अनुसार मूलसूत्र का विभाजन विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में होना चाहिए । नामकरण उत्तराध्ययन सूत्र में तीन शब्दों का प्रयोग है -१. उत्तर २. अध्ययन ३. और सूत्र । उत्तर शब्द के तीन अर्थ हो सकते हैं -- प्रधान, जबाब और परवर्ती। आचार्य हरिभद्र के अनुसार उत्तर शब्द का प्रयोग प्रधान या अति प्रसिद्ध अर्थ में हुआ है। प्रो. जेकोबी, बेबर और शार्पेन्टियर इसी अर्थ से सहमत हैं। उत्तर शब्द का प्रयोग परवर्ती या अंतिम अर्थ में भी होता है, जैसे—उत्तरकांड, उत्तररामायण आदि । जैन परम्परा में यह मान्यता बहुत प्रसिद्ध है कि महावीर ने अपने निर्वाण से पूर्व ५५ अध्ययन पुण्य-पाप के तथा छत्तीस अट्ठवागरणाइं अर्थात् बिना पूछे छत्तीस अध्ययनों के उत्तर दिए अतः विद्वानों का मानना है कि यह 'छत्तीसं अपुट्टवागरणाई' शब्द उत्तराध्ययन से ही संबंधित होना चाहिए क्योंकि जैन परम्परा में अन्य कोई ऐसा ग्रंथ नहीं है, जिसके छत्तीस अध्ययन हों । इस कथन की पुष्टि में उत्तराध्ययन की अंतिम गाथा को प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया जाता है इइ पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिव्वुए । छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धीय सम्मए । । यहां 'परिनिव्वुए' शब्द संदेहास्पद है । शान्त्याचार्य ने परिनिव्वुए शब्द का अर्थ स्वस्थीभूत किया है अत: इस दृष्टि से इसे महावीर का अंतिम उपदेश नहीं माना जा सकता । नियुक्तिकार के अनुसार उत्तर शब्द क्रम के अर्थ में प्रयुक्त है । उत्तराध्ययन आचारांग सूत्र के बाद पढ़ा जाता था अतः इसका नाम उत्तराध्ययन पड़ा। टीकाकार शान्त्याचार्य ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि दशवैकालिक की रचना के बाद यह सूत्र दशवैकालिक के बाद पढ़ा जाने लगा। प्रो. लायमन के अनुसार आचारांग आदि ग्रंथों के उत्तरकाल में रचा होने के कारण यह उत्तराध्ययन कहा जाता है । चूर्णिकार ने उत्तर के आधार पर इसके अध्ययनों की तीन प्रकार से योजना की है- -१. स-उत्तर— पहला अध्ययन २. निरुत्तर—छत्तीसवां अध्ययन ३. सउत्तर- निरुत्तर—बीच के सारे अध्ययन | १. A History of the canonical literature of the Jainas, Page 44, 45. २. उनि ३; कमउत्तरेण पगयं, आयारस्सेव उवरिमाइं तु । तम्हा उ उत्तरा खलु अज्झयणा होंति नायव्वा ।। ३. उशांटी प. ५; आरतस्तु दशवैकालिकोत्तरकालं पठ्यंत इति । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण ३३ दिगम्बर आचार्यों ने भी उत्तर शब्द की अनेक दृष्टिकोणों से व्याख्या की है। कषायपाहुड़ के चूर्णिकार के अनुसार उत्तराध्ययन उत्तरपदों का वर्णन करता है। यहां उत्तर शब्द समाधान सूचक है। अंगपण्णत्ति में उत्तर के दो अर्थ हैं—१. किसी ग्रंथ के पश्चात् पढ़ा जाने वाला २. प्रश्नों का उत्तर देने वाला । उत्तर के बाद दूसरा शब्द अध्ययन है। यद्यपि अध्ययन शब्द सामान्यतया पढ़ने के लिए प्रयुक्त होता है किन्तु प्रस्तुत संदर्भ में इसका प्रयोग परिच्छेद, प्रकरण और अध्याय के अर्थ में हुआ है। सूत्र शब्द का सामान्य अर्थ है जिसमें शब्द कम तथा अर्थ विपुल हो। जैसे पातञ्जलयोगसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र, ब्रह्मसूत्र आदि। उत्तराध्ययन में सूत्ररूपता का अभाव है, विस्तार अधिक है। यद्यपि आत्मारामजी ने अनेक उद्धरणों से इसे सूत्रग्रंथ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है किन्तु सामान्य व्यवहार में प्रयुक्त सूत्र शब्द का लक्षण इस ग्रंथ में घटित नहीं होता है। जार्ल शान्टियर का भी मानना है कि सूत्र शब्द का प्रयोग इसके लिए सटीक नहीं हुआ है क्योंकि विधिविधान, दर्शनग्रंथ तथा व्याकरण आदि ग्रंथों में सूत्रात्मक शैली अपनाई जाती है। ऐसा अधिक संभव लगता है कि वैदिक परम्परा में सूत्र शब्द का प्रयोग अधिक प्रचलित था। जैनों ने भी परम्परा से सूत्रात्मक शैली न होते हुए भी ग्रंथ के साथ सूत्र शब्द जोड़ दिया। कर्तृत्व नियुक्तिकार के अनुसार यह ग्रंथ किसी एक कर्ता की कृति नहीं, अपितु संकलित ग्रंथ है। उनके अनुसार इसके कर्तृत्व को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है। --- १. अंगप्रभव—दूसरा अध्ययन (परीषहप्रविभक्ति) २. जिनभाषित-दसवां अध्ययन (द्रुमपत्रक) ३. प्रत्येकबुद्ध-भाषित-आठवां अध्ययन (कापिलीय) ४. संवाद-समुत्थित-नवां और तेईसवां अध्ययन (नमिप्रव्रज्या, केशिगौतमीय) नंदी में उत्तरज्झयणाई यह बहुवचनात्मक नाम मिलता है। उत्तराध्ययन के अंतिम श्लोक तथा नियुक्ति में भी उत्तरज्झाए' ऐसा बहुवचनात्मक नाम मिलता है। चूर्णिकार ने छत्तीस उत्तराध्ययनों का एक श्रुतस्कंध (एक ग्रंथ रूप) स्वीकार किया है। इस बहुवचनात्मक नाम से यह फलित होता है कि उत्तराध्ययन अध्ययनों का योग मात्र है, एककर्तृक ग्रंथ नहीं। उत्तराध्ययन की भाषा-शैली की भिन्नता देखकर भी यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह किसी एक व्यक्ति की कृति नहीं है। ये सब कब रचे गए, इनका व्यवस्थित रूप कब बना, यह कहना कठिन है। कुछ विद्वानों का मानना है कि इसके प्रथम १८ अध्ययन प्राचीन हैं तथा उत्तरवर्ती अठारह अध्ययन अर्वाचीन । किन्तु इस मत की पुष्टि का कोई सबल प्रमाण नहीं है। इतना निश्चित है कि इसके कई अध्ययन प्राचीन हैं और कई अर्वाचीन । आचार्य तुलसी के अभिमत से उत्तराध्ययन के अध्ययन ई० पू० ६०० से ईस्वी सन् ४०० अर्थात् लगभग एक हजार वर्ष की धार्मिक एवं दार्शनिक विचार-धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। वीर-निर्वाण के एक हजार वर्ष बाद देवर्धिगणी ने प्राचीन एवं अर्वाचीन अध्ययनों का संकलन कर इसे एकरूप कर दिया। इनका प्रवचन १. कपा. भा.१ चू. पृ. ११०;उत्तरमिदि च उत्तरज्झेणं वण्णेदि। ३. उनि ४; अंगप्पभवा जिणभासिया य पत्तेयबुद्धसंवाया। २. अंगपण्णत्ति ३/२५, २६ । ४. नंदी ७८। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ नियुक्तिपंचक एक काल में न होकर विभिन्न समयों में हुआ अत: यह संकलन सूत्र है, एक कर्तृक नहीं। इसके कुछ अंश बाद में स्थविरों द्वारा जोड़े गए हैं। इसका प्रबल प्रमाण है केशिगौतमीय अध्ययन । दूसरी बात सम्यक्त्व-पराक्रम अध्ययन में जो प्रश्नोत्तर हैं, वे अंगसूत्रों की प्रश्नोत्तर शैली से बिल्कुल भिन्न हैं। जाले शान्टियर का अभिमत है कि यह प्रारम्भ में मूल रूप से बौद्ध ग्रंथ धम्मपद और सुत्तनिपात के समान था। संभवत: इसमें सैद्धान्तिक विषयों का प्रतिपादन करने वाले अध्ययन नहीं थे। केवल संन्यासी जीवन की आचार-शैली और धार्मिक कथाएं ही संकलित थीं। कालान्तर में इसका स्वतंत्र महत्त्व स्थापित करने हेतु यह अनुभव किया गया कि इसमें धार्मिक, सैद्धान्तिक, दार्शनिक विषयों का समावेश किया जाए अत: परवर्तीकाल में इसमें सैद्धान्तिक, दार्शनिक आदि विषय जोड़ दिए गए। निष्कर्ष की भाषा में यह कहा जा सकता है कि उत्तराध्ययन में परिवर्तन एवं परिवर्धन का क्रम महावीर-निर्वाण से प्रारम्भ होकर वल्लभी-वाचना के समय तक चलता रहा। रचनाकाल उत्तराध्ययन का उल्लेख दिगम्बर ग्रंथों में आदर के साथ उल्लिखित है। इससे स्पष्ट है कि संघभेद होने से पूर्व ही यह एक ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका था। अन्यथा दिगम्बर-परम्परा में इसका उल्लेख नहीं मिलता। दशवैकालिक की रचना के बाद यह दशवैकालिक के बाद पढ़ा जाने लगा,इस बात से स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन की रचना दशवैकालिक से पूर्व हो चुकी थी। दशवकालिक के कर्ता शय्यंभवसूरि हैं, जिनका समय वीर-निर्वाण के ७५ वर्ष बाद माना जाता है। इस प्रकार उत्तराध्ययन की प्राचीनता एक ओर महावीर-निर्वाण तक जा पहुंचती है तो दूसरी ओर ऐसे भी उल्लेख हैं, जिससे उत्तराध्ययन के अध्ययनों की परवर्तिता सिद्ध होती है। इस सूत्र में वर्णित जातिवाद, दासप्रथा, यज्ञ एवं तीर्थस्थान आदि के वर्णन प्राचीनता के द्योतक हैं। अध्ययन एवं विषयवस्तु उत्तराध्ययन में ३६ अध्ययन तथा १६३८ श्लोक हैं। इसके प्रत्येक अध्ययन अपने आप में परिपूर्ण हैं। इनमें आपस में भी कोई संबंध परिलक्षित नहीं होता। समवायांग में उत्तराध्ययन के जिन ३६ अध्ययनों का नामोल्लेख मिलता है, वे नियुक्ति में उपलब्ध अध्ययनों के नामों से कुछ भिन्न हैं। यहां उत्तराध्ययन, उसकी नियुक्ति तथा समवाओ में आए अध्ययनों के नामों का चार्ट प्रस्तुत किया जा रहा है। साथ ही किस अध्ययन पर कितनी नियुक्ति-गाथाएं लिखी गयी इसका भी संकेत दिया जा रहा है-- - उत्तराध्ययन नियुक्तिकार समवाओ नियुक्तिगाथाएं १. विनयश्रुत विनयश्रुत विनयश्रुत १-६५ २. परीषहप्रविभक्ति परीषह परीषह ६६-१४१ ३. चतुरंगीय चतुरंगीय चातुरंगीय १४२-१७२/१५ ४. असंस्कृत असंस्कृत असंस्कृत १७३-९९ १. दसवेआलियं तह उत्तरज्झयणाणि, भूमिका पृ. २४ । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण उत्तराध्ययन ५. अकाममरणीय ६. क्षुल्लक निर्ग्रथीय ७. उरभ्रीय ८. कापिलीय ९. नमिप्रव्रज्या १०. द्रुमपत्रक ११. बहुश्रुतपूजा १२. हरिकेशीय १३. चित्रसंभूतीय १४. इका १५. सभिक्षुक १६. ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान १७. पापश्रमणीय १८. संजयीय १९. मृगापुत्रीय २०. महानिर्ग्रथीय २१. समुद्रपाली २२. रथनेमीय २३. केशिगौतमीय २४. प्रवचनमाता २५. यज्ञीय २६. सामाचारी २७. खलुंकी २८. मोक्षमार्गगति २९. सम्यक्त्वपराक्रम ३०. तपोमार्गगति ३१. चरणविधि ३२. प्रमादस्थान ३३. कर्मप्रकृति ३४. लेश्याध्ययन ३५. अनगारमार्गगति ३६. जीवाजीवविभक्ति निर्युक्त अकाममरण निर्ग्रथीय औरभ्र कापिलीय नमिप्रव्रज्या द्रुमपत्रक बहुश्रुतपूज्य हरिकेश चित्रसंभूति काय भक्षु समाधिस्थान पापश्रमणीय संजयीय मृगचारिका निर्ग्रन्थता समुद्रपाल रथनेमीय केशिगौतमीय समिति यज्ञीय सामाचारी खलुंकीय मोक्षगति अप्रमाद तप चरण प्रमादस्थान कर्मप्रकृति लेश्या अनगारमार्ग जीवाजीवविभक्ति समवाओ अकाममरणीय पुरुषविद्य औरश्रीय कापिलीय नमिप्रव्रज्या द्रुमपत्रक बहुश्रुतपूजा हरिकेशीय चित्रसंभूत इषुकारीय भ समाधिस्थान पापश्रमणीय संजयीय मृगचारिका अनाथप्रव्रज्या समुद्रपालीय रथनेमीय गौतमकेशीय समिति यज्ञीय सामाचारी खलुंकीय मोक्षमार्गगति अप्रमाद तपोमार्ग चरणविधि प्रमादस्थान कर्मप्रकृति लेश्याध्ययन अनगारमार्ग जीवाजीवविभक्ति निर्युक्तिगाथाएं २००-२९ २३०-३७ २३८- २४२/१ २४३-५२ २५३-७२ २७३-३०२. ३०३-१० ३११-२१ ३२२-५२ ३५३-६६ ३६७-७२ ३७३-७९ ३८०-८४ ३८५-९८ ३९९-४१५ ४१६-२२ ४२३-३६ ४३७-४४ ४४५-५१ ४५२-५६ ४५७-७६ ४७७-८१ ४८२-९० ४९१-९७ ४९८-५०४ ५०५-५०८ ५०९-१३ ५१४-२१ ५२२-२८ ५२९-४० ५४१-४३ ५४४-५४ ३५ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ नियुक्ति पंचक नियुक्ति के अनुसार उत्तराध्ययन के अध्ययनों की संक्षिप्त विषय-वस्तु इस प्रकार है— १३. निदान — भोग-संकल्प २५. ब्राह्मण के गुण २६. सामाचारी १. विनय २. परीषह ३. चार दुर्लभ अंग ४. प्रमाद - अप्रमाद ५. मरण- विभक्ति ६. विद्या और आचरण ७. रसगृद्धि का परित्याग ८. अलाभ ९. संयम में निष्कंपता १०. अनुशासन की उपमा ११. बहुश्रुत - पूजा १२. तप: ऋद्धि १४. अनिदान — भोग- असंकल्प १५. भिक्षु के गुण १६. ब्रह्मचर्य की गुप्तियां १७. पाप - वर्जन १८. भोग और ऋद्धि का परित्याग ३०. तप १९. अपरिकर्म ३१. चारित्र ३२. प्रमादस्थान ३३. कर्म ३४. लेश्या ३५. भिक्षुगुण ३६. जीव- अजीव विवेचन । २०. अनाथता २१. विचित्रचर्या २२. चरण की स्थिरता २३. धर्म २४. समितियां उत्तराध्ययननिर्युक्ति उत्तराध्ययन निर्युक्ति में ५५४ गाथाएं हैं । इस नियुक्ति की रचना - शैली अन्य नियुक्तियों से भिन्न है । इसके प्राय: सभी अध्ययनों में निक्षेपपरक तथा अध्ययन के नाम से संबंधित गाथाएं एक समान हैं । निक्षेप के आधार पर नियुक्तिकार ने संयोग शब्द के विभिन्न प्रकार एवं उनकी विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है। जैसे अणुओं का स्कंधों से संयोग, पंचास्तिकाय के प्रदेशों का संयोग, इन्द्रिय-मन और पदार्थों का संयोग, वर्णों का शब्दों के साथ संयोग तथा आत्मा के साथ विविध भावों का संयोग आदि । यद्यपि इस विस्तृत व्याख्या से उत्तराध्ययन की गाथा समझने में कोई सहायता नहीं मिलती लेकिन इस व्याख्या से पुद्गल और जीव से संबंधित संसार के जितने भी संयोग हैं, उन सबका वैज्ञानिक एवं सैद्धान्तिक ज्ञान हो जाता है । २७. अशठता २८. मोक्षगति २९. आवश्यक में अप्रमाद प्रथम अध्ययन में अविनीत को गलि—दुष्ट घोड़े की तथा विनीत को आकीर्ण – जातिमान् अश्व की उपमा दी है अतः गलि और आकीर्ण के एकार्थक भी कोशविज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । इस नियुक्ति में उत्तर, करण, अंग, निर्ग्रथ आदि शब्दों के निक्षेप अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं । दूसरे परीषह अध्ययन की निर्युक्ति में १३ द्वारों में परीषह का सैद्धान्तिक एवं तात्त्विक वर्णन मिलता है । अकाममरणीय अध्ययन में मरण के भेदों का सर्वांगीण विवेचन प्राप्त होता है। आगे के अध्ययनों में मुख्यतः निक्षेपपरक गाथाएं अधिक हैं । कथा की दृष्टि से यह नियुक्ति अत्यन्त समृद्ध है । प्रसंगवश लगभग ६० से ऊपर कथाओं का उल्लेख निर्युक्तिकार ने किया है। केवल परीषह प्रविभक्ति अध्ययन में २५ कथाओं का संकेत है । चार प्रत्येकबुद्ध कथाओं की तुलना वैदिक एवं बौद्ध साहित्य से की जा सकती है । अन्य नियुक्तियों की भांति इसमें कथाएं संक्षिप्त नहीं, अपितु विस्तार से दी गयी हैं । रचना - शैली की दृष्टि से यह अन्य नियुक्तियों से भिन्न है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण आचारांग सूत्र और उसकी नियुक्ति आचारांग सूत्र अध्यात्म का एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसकी सूत्रात्मक शैली में अध्यात्म के अनेक रहस्य छिपे पड़े हैं। वैदिक वाङ्मय में जिस प्रकार वेदों का स्थान सर्वोपरि है वैसे ही जैन आगम ग्रंथों में आचारांग का सर्वोच्च स्थान है। नियुक्तिकार के अनुसार आचारांग सभी अंगों का सार है। इसका अपर नाम वेद भी मिलता है। टीकाकार आचार्य शीलांक इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ करते हुए कहते हैं कि इससे हेयोपादेय पदार्थों का ज्ञान होता है इसलिए यह वेद है। इसके अध्ययनों को बह्मचर्य कहा है। स्थानांग और समवायांग' में भी ‘णवबंभचेरा पण्णत्ता' उल्लेख मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रथम श्रुतस्कंध का 'नवब्रह्मचर्य' नाम भी आचारांग नाम जितना ही प्रसिद्ध था इसीलिए नियुक्तिकार ने ब्रह्म और चर्य (चरण) शब्द की लम्बी व्याख्या की है। नियुक्तिकार ने आचारांग के दस पर्यायवाची नामों का उल्लेख किया है। मूलत: ये पर्यायवाची नाम आयार (आचार) के हैं पर आचार प्रधान ग्रंथ होने से उपचार से इनको आचारांग के पर्यायवाची भी मान लिया गया है। व्यवहार भाष्य में आचारांग का महत्त्व प्रतिपादित करते हए कहा गया है कि प्राचीनकाल में शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन से नवदीक्षित श्रमण की उपस्थापना की जाती थी तथा इसके अध्ययन से ही श्रमण स्वतंत्र रूप से भिक्षा करने की योग्यता प्राप्त कर सकता था। नियुक्तिकार के अनुसार इस ग्रंथ के अध्ययन से क्षांति आदि श्रमणधर्म ज्ञात होते हैं अत: आचार्य को आचारधर होना आवश्यक है। रचनाकार आचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध पंचम गणधर सुधर्मास्वामी द्वारा प्रणीत है क्योंकि ग्रंथ के प्रारम्भ में वे कहते हैं—'सुयं मे आउसं' इसका तात्पर्य है कि मूल अर्थरूप वाणी भगवान् महावीर की है और बाद में गणधरों ने सूत्र रूप में इसे ग्रथित किया। द्वितीय श्रुतस्कंध के बारे में अनेक मत प्रचलित हैं पर इतना निश्चित है कि आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कंध भाषा-शैली और विषय की दृष्टि से प्रथम श्रुतस्कंध जितना प्राचीन नहीं है। नियुक्तिकार के अनुसार स्थविरों ने शिष्यों पर अनुग्रह कर उनका हित-सम्पादन करने हेतु आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध से आचाराग्र (आचारचूला) का नि!हण किया। चूर्णिकार ने स्थविर शब्द का अर्थ गणधर तथा वृत्तिकार ने चतुर्दशपूर्ववित् किया है। कुछ विद्वान् स्थविर शब्द का प्रयोग आचार्य भद्रबाहु के लिए मानते हैं। नियुक्तिकार ने यह भी उल्लेख किया है कि कौन से अध्ययन से कौन सी चूला निर्मूढ है। उनके अनुसार प्रथम श्रुतस्कंध के द्वितीय अध्ययन लोकविजय के पांचवें उद्देशक और आठवें अध्ययन विमोक्ष के दूसरे उद्देशक से प्रथम चूलिका के पिंडैषणा, शय्या, वस्त्रैषणा, पात्रैषणा तथा अवग्रहप्रतिमा आदि उद्देशक निर्मूढ हैं। पांचवें अध्ययन लोकसार के चौथे उद्देशक से ईर्या तथा छठे अध्ययन (धुत) के पांचवें उद्देशक से भाषाजात का नि!हण किया गया। सातवें अध्ययन महापरिज्ञा से १. आनि १६ । २. आनि ११ । ३. आटी प्र. ४: विदन्त्यस्माद्धेयोपादेयपदार्थानिति वेदः । ४. आनि ११ । ५. ठाणं ९/२, सम. ९/३ । ६. आनि ७। ७. व्यभा १५३१, १५३२ । ८. आनि १०। ९. आनि ३०७। १०. आचू पृ. ३२६, आटी पृ. २१३ । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ नियुक्तिपंचक दूसरी चूला सप्तसप्तिका, प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा से तीसरी चूला भावना तथा छठे धुत अध्ययन के दूसरे और चौथे उद्देशक से चौथी विमुक्ति चूला निर्मूढ है। पंचम चूला आचारप्रकल्प—निशीथ का निर्वृहण प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु के आचार नामक बीसवें प्राभृत से हुआ। इस प्रकार आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध से आचारचला का संग्रहण हआ है। ऐतिहासिक किंवदंती के अनुसार आचारचूला की तीसरी और चौथी चूला स्थूलिभद्र की बहिन साध्वी यक्षा महाविदेह क्षेत्र से सीमंधरस्वामी के पास से लाई थी। साध्वी यक्षा ने वहां से चार चूलाएं ग्रहण की थीं, उनमें दो दशवैकालिक के साथ तथा दो आचारांग के साथ जोड़ी गयीं। डॉ० हर्मन जेकोबी के अनुसार आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध में गद्य के मध्य आने वाले पद्य उस समय के प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथों से उद्धत किए गए हैं। रचनाकाल __आचारांगनियुक्ति के अनुसार तीर्थ-प्रवर्तन के समय सर्वप्रथम आचारांग की रचना हुई, उसके बाद अन्य अंगों की। चूर्णिकार जिनदासगणी भी इस मत से सहमत हैं। एक अन्य मत का उल्लेख करते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि आचारांग में स्थित होने पर ही शेष अंगों का अध्ययन किया जाता है इसीलिए इसका प्रथम स्थान रखा है। नंदीचूर्णि के अनुसार पहले पूर्वगत की देशना हुई इसलिए इनका नाम पूर्व पड़ा । बाद में गणधरों ने आचारांग को प्रथम क्रम में व्यवस्थित किया। आचार्य मलयगिरि ने भी स्थापना क्रम की दृष्टि से आचारांग को प्रथम अंग माना है न कि रचना के कम से।' मतान्तर प्रस्तुत करते हुए नंदी के चूर्णिकार कहते हैं कि तीर्थकरों ने पहले पूर्वो की देशना की और गणधरों ने भी पूर्वगत सूत्र को ही सर्वप्रथम ग्रथित किया। आचारांगनियुक्ति और नंदीचूर्णि की विसंगति का परिहार करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ का मानना है कि संभव है नियुक्तिकार ने अंगों के निर्वृहण की प्रक्रिया का यह कम मान्य किया हो कि सर्वप्रथम आचारांग का नि!हण और स्थापन होता है तत्पश्चात् सूत्रकृत आदि अंगों का। इस संभावना को स्वीकार कर लेने पर दोनों धाराओं की बाह्य दूरी रहने पर भी आंतरिक दूरी समाप्त हो जाती है ।१० वस्तुत: आचारांग को प्रथम स्थान देने का कारण नियुक्ति में यह बताया है कि इसमें मोक्ष का उपाय वर्णित है तथा इसे प्रवचन का सार कहा गया है। भाषा-शैली की दृष्टि से भी यह आगम प्राचीन प्रतीत होता है। १. आनि ३०८-११, पंकभा २३ । २. परिशिष्ट पर्व ९/९७, ९८ । ३. The sacred books of the east, vo. xx ii introduction p. 48 5 आनि ८। ५. आचू पृ.३ सव्वतित्थगरा वि आयारस्स अत्थं पढमं आक्खंति, ततो सेसगाणं एक्कारसण्हं अंगाणं । ६. आचू प्र. ४; तत्थ ठितो सेसाणि अंगाणि अहिज्जइ तेण सो पढम कतो। ७. नंदीचूर्णि पृ. ७५ । ८. नंदीमटी प. २११; स्थापनामधिकृत्य प्रथममङ्गम्। ९. नंदीचूर्णि पृ. ७५ । १०. आचारांगभाष्यम्, भूमिका पृ. १७ । ११. आनि ९। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण भाषा एवं रचना-शैली ___ आचारांग सूत्र अर्धमागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध ग्रंथ है। भाषा की दृष्टि से यह ग्रंथ अन्य आगमों से विलक्षण है। इसके प्रथम और द्वितीय श्रुतस्कंध की भाषा में भी पर्याप्त अंतर है। प्रथम श्रुतस्कंध की भाषा सूत्रात्मक, सुगठित एवं अर्थगाम्भीर्य से युक्त है। वर्तमान में उपलब्ध आचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध गद्यबहुल अधिक है, पद्यभाग बहुत कम है। पाश्चात्य विद्वान् शूबिंग के अनुसार इसमें पद्य बहुत थे किन्तु कालान्तर में लुप्त हो गए। अनेक खंडित पद्य तो आज भी इसमें मिलते हैं। जैसे—एयं कुसलस्स दंसणं, माई पमाई पुणरेइ गब्भं आदि । आचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध चौर्ण शैली में निबद्ध आगम ग्रंथ है। दशवैकालिकनियुक्ति के अनुसार जो अर्थबहुल, महान् अर्थ, हेतु-निपात-उपसर्ग से गंभीर, विराम सहित तथा बहुपाद आदि लक्षणों से युक्त हो, वह चौर्णशैली का ग्रंथ माना जाता है। इसमें ये सभी लक्षण घटित होते हैं। जो गद्य, पद्य मिश्रित हो, वह भी चौर्ण कहलाता है। इस दृष्टि से भी यह आगम चौर्ण शैली में निबद्ध माना जा सकता है। इसके अनेक सूक्त गत-प्रत्यागत शैली में निबद्ध हैं। उन सूक्तों की व्याख्या विभिन्न नयों से की जा सकती है। यह संक्षिप्त शैली में निबद्ध किन्तु गूढ अर्थ को अभिव्यक्त करने वाला आगम ग्रंथ है। इसमें अनेक स्थलों पर लाक्षणिक शब्दों का प्रयोग भी हुआ है। इसका दूसरा श्रुतस्कंध विस्तृत शैली में लिखा गया है। अध्ययन एवं विषयवस्तु आचारांग के दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध में नौ अध्ययन तथा द्वितीय में पांच चूलाएं हैं। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के अध्ययन के नामों के क्रम में कुछ भिन्नता पाई जाती है। वह इस प्रकार है. आचारांगनियुक्ति सत्थपरिण्णा लोगविजय सीओसणिज्ज सम्मत्त लोगसार धुत महापरिणा विमोक्ख उवहाणसुय स्थानांग सत्थपरिणा लोगविजय सीओसणिज्ज सम्मत्त आवंती समवायांग सत्थपरिणा लोगविजय सीओसणिज्ज सम्मत्त आवंती धुत विमोहायण उवहाणसुय महापरिणा आवश्यकसंग्रहणी सत्थपरिणा लोगविजय सीओसणिज्ज सम्मत्त लोगसार धूत विमोह उवहाणसुय महापरिण्णा विमोह महापरिण्णा उवहाणसुय १. दशनि १५०। २. आनि ३१, ३२। ३. ठाणं ९/२। ४. सम ९/३। ५. आवश्यकसंग्रहणी हाटी प . ६६०, ६६१ । ६. पांचवें अध्ययन का मूल नाम लोगसार' है पर आदानपद (आदिपद) के आधार पर इसका एक नाम आवंती भी है। किन्तु नियुक्तिकार ने 'लोगसार' को गौण नाम माना है (आनि २३९)। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक समवाओ के वृत्तिकार ने स्पष्ट किया है कि वस्तुतः महापरिज्ञा अध्ययन सातवां ही है लेकिन उसका विच्छेद हो गया इसलिए इसको अंतिम क्रम में रखा है । ४० प्रथम श्रुतस्कंध का पद-परिमाण नियुक्तिकार के समय तक अठारह हजार था। लेकिन कालान्तर में इसका लोप होता गया अतः आज यह बहुत कम परिमाण में मिलता है। प्रथम श्रुतस्कंध के ५१ उद्देशक हैं । प्रारम्भ में आचारांग केवल नौ अध्ययन तक सीमित था लेकिन बाद में इसमें चूलिकाएं और जोड़ दी गयीं। चार चूलाएं जुड़ने से इसका पद-परिमाण १८ हजार से बहु हो गया तथा पांचवीं चूला निशीथ जुड़ने से बहुतर हो गया। नंदी, समवाय आदि में जहां भी आचारांग के अध्ययन और उद्देशकों का वर्णन है, वहां केवल २५ अध्ययन और ८५ उद्देशकों का वर्णन मिलता है ।" निशीथ छब्बीसवें अध्ययन के रूप में अपना अस्तित्व रखता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में निशीथ का स्वतंत्र अस्तित्व था लेकिन बाद में विषय-साम्य और इसके महत्त्व को बढ़ाने के लिए इसे आचारांग के साथ जोड़ दिया। इसका दूसरा नाम आचारप्रकल्प भी प्रसिद्ध है । द्वितीय श्रुतस्कंध की पांच चूलाओं के नाम नियुक्तिकार ने इस प्रकार बतलाये हैं— जावोरगह पडिमाओ, पढमा सत्तेक्कगा बिइयचूला । भावण विमुत्ति आयारपकप्पा तिन्नि इति पंच ।। प्रथम चूला के सात अध्ययन इस प्रकार हैं— १. पिंडैषणा २. शय्या ३ ईर्या ४ भाषाजात ५. वस्त्रैषणा ६ पात्रैषणा ७. अवग्रहप्रतिमा । " द्वितीय चूला का नाम सप्तैकका है। उसके सात अध्ययन इस प्रकार हैं १. स्थान - सप्तैकका, २. निषीधिका (निशीथिका ) सप्तैकका, ३. उच्चार- प्रस्रवण- सप्तैकका, ४. शब्द- सप्तैकका, ५. रूप- सप्तैकका, ६. परक्रिया - सप्तैकका, ७. अन्योन्यक्रिया - सप्तैकका चूर्णिकार ने रूप सप्तैकका को चौथा तथा शब्द - सप्तैकका को पांचवा अध्ययन माना है । तीसरी चूला का भावना तथा चौथी चूला का विमुक्ति नामक एक ही अध्ययन है। इस प्रकार प्रथम श्रुतस्कंध के ९ तथा द्वितीय के ७+७+१+१=२५ । कुल मिलाकर आचारांग के २५ अध्ययन और ८५ उद्देशक हैं।' आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध की विषयवस्तु का नियुक्तिकार ने संक्षेप में उल्लेख किया है— १. शस्त्रपरिज्ञा- जीव-संयम का निरूपण । २. लोकविजय —— कर्मबंध एवं कर्ममुक्ति की प्रक्रिया का अवबोध । ३. शीतोष्णीय — सुख - दुःख की तितिक्षा का अवबोध । ४. सम्यक्त्व—सम्यक्त्व की दृढ़ता का निरूपण । ५. लोकसार — रत्नत्रय से युक्त होने की प्रक्रिया । १. समटी. प. ६७ । २. आनि ११, कपा. भा. १ चू. पृ. ८५; आयारंगे अट्ठारहपदसहस्साणि । 2 सम ५१ / १, आनि ३६७ । आनि ११ । ५ नंदी ८९, सम ८५ / १ । ६. आनि ३११ । ७. आनि ३१७ । ८. विस्तृत वर्णन हेतु देखें आनि ३१८-४२ । ९. आनि ३६७, ३६८ । १०. आनि ३३, ३४ । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण ६. धुत- निस्संगता का अवबोध । ७. महापरिज्ञा–मोह से उद्भूत परीषह और उपसर्गों को सहने की विधि । ८. विमोक्ष—निर्याण अर्थात् अंतक्रिया की आराधना। ९. उपधानश्रुत—आठ अध्ययनों में प्रतिपादित अर्थों का महावीर द्वारा अनुपालन । समवायांग एवं नंदी के अनुसार इस ग्रंथ में श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए ज्ञानादि पांच आचार, भिक्षाविधि, विनय, विनय का फल, ग्रहण-आसेवन रूप शिक्षा, भाषा-विवेक, चरणव्रतादि, करा तथा संयम-यात्रा के निर्वाह हेतु आहार के विवेक का वर्णन है। इन सब बातों का नंदी सूत्रकार ने पांच आचार में समावेश कर दिया है। आचार्य उमास्वाति ने प्रशमरतिप्रकरण में प्रत्येक अध्ययन का विषय संक्षेप में प्रतिपादित किया १. षड्जीवनिकाय की यतना। १४. वस्त्र की एषणा-पद्धति। २. लौकिक संतान का गौरव-त्याग। १५. पात्र की एषणा-पद्धति । ३. शीत-उष्ण आदि परीषहों पर विजय । १६. अवग्रह-शुद्धि। ४. दृढ़ श्रद्धा। १७. स्थान-शुद्धि। ५. संसार से उदवेग। १८. निषद्या-शुद्धि। ६. कर्मो को क्षीण करने का उपाय। १९. व्युत्सर्ग-शुद्धि। ७. वैयावृत्त्य का उद्योग। २०. शब्दासक्ति-परित्याग। ८. तप का अनुष्ठान। २१. रूपासक्ति-परित्याग। ९. स्त्रीसंग का त्याग। २२. परकिया-वर्जन। १०. विधि-पूर्वक भिक्षा का ग्रहण। २३. अन्योन्यक्रिया-वर्जन। ११. स्त्री, पशु, क्लीब आदि से रहित शय्या। २४. पंच महाव्रतों में दृढ़ता। १२. गति-शुद्धि। २५. सर्वसंगों से विमुक्तता। १३. भाषा-शुद्धि। आचारांग में केवल आचार का ही वर्णन नहीं, अपितु अध्यात्म प्रधान दर्शन का विशद विवेचन हुआ है। सूत्रकृतांग की भांति इसमें तर्क की प्रधानता नहीं अपितु आत्मानुभूति के स्वर अधिक हैं। आचारांग नियुक्ति आचारांगनियुक्ति की रचना का क्रम चौथा है लेकिन विषय-निरूपण की दृष्टि से इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। उत्तराध्ययननियुक्ति में निक्षेपों के वर्णन में प्राय: एकरूपता है, इससे पाठक को कोई नया ज्ञान प्राप्त नहीं होता लेकिन आचारांगनियुक्ति इसकी अपवाद है। इसमें चरण, दिशा, ब्रह्म, गुण, मूल, कर्म, सम्यक् आदि शब्दों की निक्षेपपरक व्याख्या में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों का प्रतिपादन हुआ प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा की नियुक्ति में शस्त्र और परिज्ञा का विवेचन नि:शस्त्रीकरण की १. समप्र. ८९, नंदी ८१। २. प्रशमरतिप्रकरण ११४-१७ । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अनुभव संज्ञा के १६ भेदों का उल्लेख मनोविज्ञान की मौलिक मनोवृत्तियों के साथ तुलनीय है साथ ही मानवविज्ञान के क्षेत्र में नयी दृष्टियां उद्घाटित करने वाला है। दिशा के भेद-प्रभेदों एवं उसके उद्भव का इतना विस्तृत वर्णन अन्यत्र दुर्लभ है। भौगोलिक दृष्टि से यह पूरा वर्णन अनेक नए रहस्यों को खोलने वाला है। जातिस्मृति उत्पन्न होने के कारणों का उल्लेख परामनोवैज्ञानिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। नियुक्तिकार ने इस अध्ययन में पृथ्वी आदि षड्जीवनिकायों के निक्षेप, प्ररूपणा, लक्षण, परिमाण, उपभोग, शस्त्र, वेदना, वध और उसकी निवृत्ति आदि ९ द्वारों का विस्तृत वर्णन किया है। इनमें प्ररूपणा, लक्षण, परिमाण, उपभोग, वेदना आदि का वर्णन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। आगे भूमिका में हम इस बारे में विस्तृत चर्चा करेंगे। षड्जीवनिकाय का जितना कमबद्ध और व्यवस्थित वर्णन आचारांगनियुक्ति में हुआ है, उतना अन्य ग्रंथों में नहीं मिलता। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह वर्णन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। द्वितीय उद्देशक में लोक और विजय के निक्षेप के पश्चात् मूलसूत्र में आए 'जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे' सूक्त में आए गुण, मूल और ठाण-इन तीन शब्दों का निक्षेप के माध्यम से विस्तृत वर्णन हुआ है। संसार का मूल है कर्म, उसकी उत्पत्ति कषाय से होती है। नियुक्तिकार ने दस प्रकार के निक्षेपों के माध्यम से कर्म का विशद विवेचन किया है। तीसरे शीतोष्णीय अध्ययन में शीत और उष्ण की विविध दृष्टियों से व्याख्या की है तथा बाईस परीषहों में कितने शीत परीषह और कितने उष्ण इसका उल्लेख किया है। चौथे सम्यक्त्व अध्ययन में गुणश्रेणी-विकास की अवस्थाओं का वर्णन तात्त्विक एवं सैद्धान्तिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। ऐतिहासिक दृष्टि से गुणश्रेणी-विकास का प्राचीनतम वर्णन आचारांगनियुक्ति में मिलता है। अहिंसा का सार्वभौम एवं सार्वकालिक महत्त्व बताने के बाद नियुक्तिकार ने रोहगुप्त की कथा का संकेत किया है, जिसमें अनेक भिक्षुओं से समस्यापूर्ति करवाई गयी है। नियुक्तिकार ने आसक्त और अनासक्त के कर्मबंध की प्रक्रिया को बहुत सुंदर एवं व्यावहारिक रूपक से समझाया है। ___ पांचवें लोकसार नामक अध्ययन की प्रारम्भिक नियुक्ति-गाथाओं में उद्देशकों की विषय-वस्तु का निरूपण है। निर्यक्तिकार के अनुसार आदानपद से इस अध्ययन का नाम आवंति तथा गौण नाम लोकसार बताया गया है। प्रसंगवश नियुक्तिकार ने अनेक दृष्टियों से लोक में सारभूत वस्तुओं का वर्णन किया है। प्रश्नोत्तर के माध्यम से नियुक्तिकार कहते हैं कि सम्पूर्ण लोक का सार धर्म, धर्म का सार ज्ञान, ज्ञान का सार संयम तथा संयम का सार निर्वाण है। छठे धुत अध्ययन की नियुक्ति में द्रव्यधुत और भावधुत का वर्णन है। सातवें महापरिज्ञा अध्ययन की नियुक्ति में अध्ययनों की विषय-वस्तु के साथ महा और परिण्णा शब्द के निक्षेपों का उल्लेख है। आठवें विमोक्ष अध्ययन की नियुक्ति में निक्षेप के माध्यम से विमोक्ष का प्रतिपादन है। नियुक्तिकार ने भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण और प्रायोपगमन को भाव-विमोक्ष के अंतर्गत माना है। प्रायोपगमन मरण के अंतर्गत आर्य वज्र, आर्य समुद्र तथा व्याघातिम मरण के अंतर्गत आचार्य तोसलि का उदाहरण दिया है। नियुक्तिकार ने बारह वर्ष की संलेखना का सुंदर कम वर्णित किया है, जो साधना की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण उपधानश्रुत नामक नवें अध्ययन की नियुक्ति में बताया गया है कि जब जो तीर्थंकर होते हैं, वे अपने तीर्थ में उपधानश्रुत अध्ययन में अपने तप:कर्म का वर्णन करते हैं। सभी तीर्थंकरों का तप:कर्म निरुपसर्ग तथा वर्धमान का तप:कर्म सोपसर्ग रहा। द्वितीय श्रुतस्कंध का नाम आयारग्ग भी प्रसिद्ध है अत: नियुक्तिकार ने 'अग्ग' शब्द की निक्षेप के माध्यम से विस्तृत चर्चा की है। प्रारम्भ में आयारो के प्रथम श्रुतस्कंध के कौन से अध्ययन से कौन सी चूला निर्मूढ है, इसका उल्लेख किया गया है। प्रथम चूला में पिंड, शय्या, ईर्या, वस्त्र, पात्र, अवग्रह आदि के बारे में चर्चा है। द्वितीय चूला सप्तैकक में रूप, पर आदि के निक्षेप हैं। तीसरी चूला भावना की नियुक्ति में दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वैराग्य आदि भावना का विस्तृत विवेचन है। चौथी विमुक्ति चूला में विमुक्ति अध्ययन के पांच अधिकारों की चर्चा करते हुए देशविमुक्त और सर्वविमुक्त का उल्लेख किया गया है। अंत में पांचवीं निशीथ चूला का वर्णन आगे किया जाएगा, ऐसी नियुक्तिकार ने प्रतिज्ञा की है। महापरिज्ञा अध्ययन एवं उसकी नियुक्ति दिगम्बर परम्परा के अनुसार वीर-निर्वाण ६८३ वर्ष के बाद आचारांगधर का विच्छेद हो गया। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार आचारांग का पूर्ण रूप से विच्छेद नहीं हुआ लेकिन १८ हजार पद-परिमाण वाला वह आचारांग वर्तमान में बहुत अल्प पद-परिमाण में रह गया। इसमें अनेक खंडित पद्य मिलते हैं, इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कालान्तर में 'आयारधर' आचार्यों के अभाव अथवा विस्मृति वश इसका काफी अंश लुप्त हो गया। वर्तमान में इसका सातवां महापरिज्ञा अध्ययन विलुप्त है। नियुक्ति, चूर्णि' एवं टीका के अनुसार आचारांग का सातवां अध्ययन महापरिज्ञा है जबकि ठाणं और, समवाओ में नौवां तथा नंदी टीका एवं आवश्यक संग्रहणी में इसे आठवां अध्ययन माना है। समवाओ के वृत्तिकार ने स्पष्ट करते हुए लिखा है कि महापरिज्ञा अध्ययन वस्तुत: सातवां अध्ययन था लेकिन उसका विच्छेद हो गया इसलिए इसको अंत में रखा गया है। शूबिंग और जेकोबी ने इसे सातवां अध्ययन माना है। विद्वानों के अनुसार इस अध्ययन की नियुक्ति लुप्त हो गयी अथवा नियुक्तिकार के समय तक यह अध्ययन लुप्त हो गया, जिससे इसकी नियुक्ति नहीं लिखी जा सकी, किन्तु हस्तप्रतियों में प्राप्त गाथाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि नियुक्तिकार के समय तक महापरिज्ञा का अस्तित्व था। टीकाकार ने दोनों श्रुतस्कंधों के पश्चात् २६४-७० की सात गाथाएं दी हैं लेकिन प्राय: सभी हस्तप्रतियों में इस अध्ययन की अठारह नियुक्ति-गाथाएं मिलती हैं। ये गाथाएं अभी तक प्रकाश में नहीं आई थीं इसीलिए विद्वानों का ध्यान इस ओर आकृष्ट नहीं हो सका। यह निश्चित है कि चूर्णिकार और टीकाकार के समक्ष इस अध्ययन की नियुक्तिगाथाएं नहीं थीं १. आनि ३१। २. आचू पृ.७ । ३. आटी पृ. १७३। ४. ठाणं ९/२। ५. सम. ९/३। ६. नंदीहाटी. प्र. ७६। ७. आवश्यकसंग्रहणी टी. प. ६६०, ६६१ । ८. समटी. प. ६७। ९. Acaranga sutra, preface page 261 १०. Sacred books of the east, Vo 22, page 49। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ नियुक्तिपंचक इसीलिए उन्होंने इन गाथाओं की व्याख्या नहीं की। फिर भी महापरिज्ञा के विच्छेद का प्रामाणिक समय अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है। आवश्यकनियुक्ति के अनुसार आचार्य वज्र ने महापरिज्ञा से गगनगामिनी विद्या सीखी। प्रभावक चरित्र में भी ऐसा उल्लेख मिलता है। यह संभावना की जा सकती है कि आर्य वज्रस्वामी के पश्चात् तथा आचार्य शीलांक से पूर्व इस अध्ययन का विच्छेद हो गया क्योंकि आचार्य शीलांक ने स्पष्ट रूप से इस अध्ययन के विच्छेद का उल्लेख किया है। लगभग वीर-निर्वाण की छठी शताब्दी के बाद महापरिज्ञा का लोप हो गया। चर्णिकार के अनुसार महापरिज्ञा अध्ययन अयोग्य को नहीं पढ़ाया जाता था। पंडित दलसुखभाई मालवणिया का अभिमत है कि अध्ययन-अध्यापन में अधिकारी की अपेक्षा रहने से इसका वाचन कम हो गया और धीरे-धीरे इसका लोप हो गया। इसके अतिरिक्त इसमें नाना मोहजन्य दोषों का वर्णन होने से सर्वसाधारण के लिए पठनीय नहीं रहा अत: कालकवलित हो गया। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार नियुक्ति में वर्णित विषय-वस्तु के आधार पर ज्ञात होता है कि महापरिज्ञा अध्ययन में महान् परिज्ञा का निरूपण था। कालान्तर में सभी शिष्यों को उसका ज्ञान देना उचित प्रतीत नहीं हुआ इसलिए इस अध्ययन का पाठ विस्मृत हो गया। डॉ. हर्मन जेकोबी के अनुसार यह अध्ययन साधु जीवन का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत करता था, जिसका वर्णन आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध में विस्तार से हुआ है। संभव है इसी कारण से इस अध्ययन को अलग कर दिया क्योंकि यह अध्ययन पुनरुक्त दोष वाला हो गया था। गणाधिपति तुलसी भी इसी मत का समर्थन करते हुए कहते हैं कि नियुक्तिकार के अनुसार आचारचूला की प्रथम चूला के सात अध्ययन (सप्तैकक) महापरिज्ञा के सात उद्देशकों से निर्मूढ हैं। इस उल्लेख के आधार पर सहज ही यह अनुमान किया जा सकता है कि जो विषय महापरिज्ञा से उद्धृत सात अध्ययनों (सप्तककों) में हैं, वे ही विषय महापरिज्ञा अध्ययन में रहे होंगे। ऐसी संभावना की जा सकती है कि महापरिज्ञा से उद्धृत सात अध्ययनों के प्रचलन के बाद उसकी आवश्यकता न रही हो फलत: वह असमनुज्ञात और कमश: विच्छिन्न हो गया हो। आचारांग सूत्र की चिंतामणि टीका में भी महापरिज्ञा अध्ययन के बारे में श्रुतानुश्रुत परम्परा का उल्लेख है। टीकाकार ने इसका वर्णन इस प्रकार किया है—'इस महापरिज्ञा अध्ययन में जल, स्थल, आकाश और पाताल में विहार करने वाली विद्या, परकायप्रवेश विद्या तथा सिंह, व्याघ्र आदि का शरीर धारण कर रूप-परिवर्तन करने की विद्या का वर्णन था। इस विषय में गुरु-परम्परा से यह घटना प्रसिद्ध है कि एक आचार्य अपने शिष्य को महापरिज्ञा अध्ययन पढ़ा रहे थे। शौचक्रिया की बाधा होने पर आचार्य १. आवनि ७६९; जेणुद्धरिया विज्जा, आगाससमा महापरिणाओ। ६. आचारांगभाष्यम्, पृ. ३५१; नियुक्तिवर्णितविषय वंदामि अज्जवइरं, अपच्छिमो जो सुयधराणं।। वस्त्वाधारेण ज्ञायते तस्मिन् महती परिज्ञा २. प्रभावकचरित; महापरिज्ञाध्ययनादाचारांगान्तरस्थितात्। निरूपिता आसीत्। कालान्तरे सर्वशिष्येभ्यः श्रीवजेणोद्धृता विद्या तदा गगनगामिनी।। तस्या:प्रदानं नोचितं प्रतीतम्। तेन तस्याध्यय३. आटी पृ. १७३: अधुना सप्तमाध्ययनस्य महापरिज्ञाख्यस्यावसरः, नस्य पाठ: विस्मृतिं नीतः। तच्च व्यवच्छिन्नमिति। ७. Acāranga surta, perface page 50 | ४. आचू पृ. २४४; महापरिण्णा न पढिज्जइ असमणुण्णाया। ८. आचारांगभाष्यम् भूमिका पृ. १९ । ५. श्रमण १९५७; आचारांग सूत्र : एक परिचय। ९. आचारांग चिंतामणि टीका पृ. ३६३-६५ । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण शौचार्थ बाहर चले गए। शिष्य ने चंचलतावश महापरिज्ञा में वर्णित विद्या के आधार पर सिंह का रूप धारण किया। शिष्य वापिस मूल रूप में आने की विद्या से अपरिचित था इसलिए वह असली रूप में नहीं आ सका। आचार्य जब वापिस आए तब शिष्य को सिंह रूप में देखा। आचार्य ने उसे वापिस मुनि रूप में परिवर्तित कर दिया। इस घटना को देख आचार्य ने विचार किया कि पंचम काल में इस अध्ययन के पठन-पाठन से लाभ नहीं, अनर्थ होने की संभावना अधिक है अत: उसी समय से इसका वाचन स्थगित कर दिया। बाद में इसका संकलन भी नहीं हुआ और कालान्तर में इसका विच्छेद हो गया। टीकाकार ने अंत में उल्लेख किया है कि यह बात उन्हें अपने आचार्य से ज्ञात हुई। महापरिज्ञा शब्द का अर्थ एवं उसमें वर्णित विषयवस्तु महापरिज्ञा में दो शब्द हैं—महा+परिज्ञा। नियुक्तिकार ने महा शब्द के दो अर्थ किए हैं—१. प्रधान या विशेष २. परिमाण में बृहद् । यहां महा शब्द प्रधान अर्थ का द्योतक है। नियुक्तिकार ने परिज्ञा शब्द के भी दो भेद किए हैं....१. ज्ञ परिज्ञा २. प्रत्याख्यान परिज्ञा। मूलगुण और उत्तरगुण के आधार पर भावपरिज्ञा के भेद-प्रभेद किए गए हैं। मूलत: परिज्ञा शब्द ज्ञान और आचरण का समन्वित रूप है। नियुक्तिकार ने महापरिज्ञा अध्ययन के सात उद्देशकों का उल्लेख किया है। वर्तमान में महापरिज्ञा अध्ययन में वर्णित विषय-वस्तु को जानने के निम्न साधन हमारे समक्ष हैं १. नियुक्तिकार ने प्रारम्भिक गाथाओं में जहां सभी अध्ययनों के विषयों का संक्षेप में वर्णन किया है, वहां महापरिज्ञा अध्ययन के लिए कहा है कि इसमें मोहजन्य परीषह और उपसर्गों का वर्णन है। चूर्णिकार और टीकाकार ने भी इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि इन उपसर्गों को जानकर कर्म प्रत्याख्यान परिज्ञा से कर्म क्षीण करने चाहिए। मोह से उत्पन्न परीषह स्त्री के प्रति आसक्ति से उत्पन्न खतरे की ओर संकेत देता है। स्वयं नियुक्तिकार ने सबसे अंतिम गाथा में कहा है कि दैवी, मानुषी और तिर्यंच स्त्री के प्रति आसक्ति का मन, वचन और काया से परित्याग कर देना चाहिए, यही महापरिज्ञा अध्ययन का सार है। २. आचारांगनियुक्ति के अनुसार सप्तैकक चूलिका के सात उद्देशक महापरिज्ञा अध्ययन से निर्मूढ हैं अत: इस अध्ययन के आधार पर भी महापरिज्ञा की विषय-वस्तु का सामान्य ज्ञान हो सकता है। ३. प्रशमरतिप्रकरण के अनुसार इस अध्ययन में मूलगुण और उत्तरगुणों को भलीभांति जानकर तंत्र-मंत्र तथा आकाशगामिनी ऋद्धि का प्रयोग न करने का तथा प्रत्याख्यान परिज्ञा से हेय का त्याग कर ज्ञान, दर्शन, चारित्र में रमण करने का विधान है। ४. इस अध्ययन की विषय-वस्तु जानने का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन महापरिज्ञा अध्ययन की नियुक्ति है। इसकी प्रारम्भिक ग्यारह गाथाओं में इसके उद्देशकों में वर्णित विषय-वस्तु का उल्लेख १. आनि २६४; पाहण्णे महसदे, परिमाणे चेव होइ नायव्वो। ६. आचू पृ. २४४, आटी पृ. १७३ । २. आनि २६५, तेसि महासद्दो खलु, पाहण्णेणं तु निप्फण्णो। ७. आनि २७०। ३. आनि २६७, २६८। ८. आनि ३१०: सत्तेक्कगाणि सत्त वि निज्जूढाई ४. आनि ३६७। __महापरिण्णाओ। ५. आनि ३४: मोहसमुत्था परीसहुवसग्गा। ९. प्रशमरतिप्रकरण गा. ११५ टी. पृ. ७७। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ नियुक्तिपंचक मिलता है। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि इसमें साधु-जीवन की कठोर चर्या का उल्लेख था, यह नियुक्ति गाथाओं में वर्णित विषय-वस्तु से स्पष्ट है। लगता है इतनी कठोर चर्या का पालन असंभव समझकर धीरे-धीरे पठन-पाठन कम होने से इसका लोप हो गया। श्रुति-परम्परा के अनुसार इ अध्ययन में चमत्कार और ऋद्धि-सिद्धि का वर्णन था। संभव है योनिप्राभृत की भांति काललब्धि के अनुसार इसकी वाचना का परिणाम अच्छा नहीं रहा इसलिए समयज्ञ एवं बहुश्रुत आचार्यों ने इसकी वाचना देनी बंद कर दी हो। किन्तु यह बात नियुक्ति-गाथाओं के आधार पर प्रामाणिक नहीं लगती। यह भी संभव है कि आचार्यों ने वज्रस्वामी की गगनगामिनी विद्या वाली घटना के आधार पर इस अध्ययन की विषय-वस्त के बारे में यह कल्पना की हो। यह भी संभावना की जा सकती है कि उस समय महापरिज्ञा नाम का कोई स्वतंत्र ग्रंथ रहा होगा, जिसमें चमत्कार एवं ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने की विविध विद्याओं का वर्णन होगा। कालान्तर में वह ग्रंथ लुप्त हो गया और नाम-साम्य के कारण आचारांग के इस अध्ययन के साथ यह बात जुड़ गई हो। फिर भी इस विषय में अनुसंधान की आवश्यकता है कि महापरिज्ञा अध्ययन लुप्त क्यों हुआ तथा उसकी विषय-वस्तु क्या थी? सूत्रकृतांग एवं उसकी नियुक्ति सूत्रकृतांग दूसरा अंग आगम है। यह आचारप्रधान और दार्शनिक ग्रंथ है। चूर्णिकार ने इसकी गणना चरण-करणानुयोग में तथा आचार्य शीलांक ने इसे द्रव्यानुयोग के अंतर्गत माना है। इसमें स्वमत की प्रस्थापना के साथ परमत का खंडन भी किया गया है अत: इस ग्रंथ के अध्ययन से तत्कालीन प्रचलित विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं का सहज ज्ञान किया जा सकता है। इस ग्रंथ की तुलना बौद्ध ग्रंथ अभिधम्म पिटक से की जा सकती है। नियुक्तिकार ने इसको भगवान् विशेषण से अभिहित किया है, जो इसकी विशेषता का स्वयंभू प्रमाण है। सूत्रकृत में दो शब्द हैं—सूत्र और कृत। सूत्र शब्द की व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार ने श्रुतज्ञानसूत्र के चार भेद किए हैं—१. संज्ञासूत्र २. संग्रहसूत्र ३. वृत्तनिबद्ध ४. और जातिनिबद्ध । सूत्रकृतांग में चारों प्रकार के सूत्रों का उल्लेख है पर मुख्यतया वृत्तनिबद्ध का प्रयोग अधिक हुआ है क्योंकि यह वृत्तछंद में निबद्ध है। कृत शब्द के संदर्भ में करण की व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार ने श्रुत के मूलकरण का अर्थ त्रिविध योग और शुभ-अशुभ ध्यान किया है। नियुक्तिकार के अनुसार इस सूत्र में कुछ अर्थ साक्षात् सूत्रित हैं और कुछ अर्थ अर्थापत्ति से सूचित हैं। ये सभी अर्थ युक्तियुक्त हैं तथा ये आगमों में अनेक प्रकार से प्रयुक्त, प्रसिद्ध और अनादि हैं।५ - १. देखें आनि २५३-२७० तक की गाथाओं का अनुवाद। संख्या कम में इन गाथाओं को नहीं जोड़ा गया है। गा.२५३-६३ तक की प्रारम्भिक ग्यारह गाथाएं प्रकाशित २५३ से २७० तक की महापरिज्ञा अध्ययन की नियुक्ति टीका में उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन २६४-७० तक की गाथाएं सभी आदर्शों में मिलती हैं। सात गाथाएं दोनों श्रूतस्कंधों की टीका के अंत में दी गयी २. सूनि १।। हैं। टीकाकार ने 'अविवृता नियुक्तिरेषा महापरिज्ञाया:' ३. सूनि ३। मात्र इतना ही उल्लेख किया है। प्रकाशित टीका में चालू ४. सूनि १६ । ५. सूनि २१ । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण नामकरण नियुक्तिकार भद्रबाहु ने सूत्रकृतांग के तीन गुणनिष्पन्न नाम बताए हैं—सूतगड (सूत्रकृत) सुत्तकड (सूत्रकृत) सूयगड (सूचाकृत)। टीकाकार शीलांक ने इन तीनों नामों की सार्थकता पर विचार किया है। यह अर्थ रूप में तीर्थंकरों द्वारा सूत—उत्पन्न है तथा गणधरों द्वारा कृत—ग्रथित है अत: इसका नाम सूतगड है। इसमें सूत्र के अनुसार तत्त्व-बोध किया जाता है अत: इसका नाम सूत्रकृत है। इसमें स्वसमय और परसमय की सूचना दी गयी है अत: इसका नाम सूचाकृत है। आचार्य तुलसी ने इन तीनों नामों के बारे में अपनी टिप्पणी प्रस्तुत की है। उनके अनुसार सूत, सुत्त और सूय-ये तीनों सूत्र के ही प्राकृत रूप हैं। आकारभेद होने के कारण तीन गुणात्मक नामों की परिकल्पना की गयी है। सभी अंग मौलिक रूप से भगवान् महावीर द्वारा प्रस्तुत तथा गणधर द्वारा ग्रंथ रूप में प्रणीत हैं फिर केवल प्रस्तुत आगम का ही नाम सूतकृत क्यों? इसी प्रकार दूसरा नाम भी सभी अंगों के लिए सामान्य है। प्रस्तुत आगम के नाम का अर्थस्पर्शी आधार तीसरा है क्योंकि प्रस्तत आगम में स्वसमय और परसमय की तुलनात्मक सूचना के संदर्भ में आचार की प्रस्थापना की गयी है, इसलिए इसका संबंध सूचना से है। सत्रकतांग शब्द की व्याख्या करते हए नियुक्तिकार कहते हैं कि तीर्थंकरों के मत-मातकापद को सुनकर गणधरों ने क्षयोपशम और शुभ अध्यवसायों से इस सूत्र की रचना की है इसलिए यह सूत्रकृत कहलाया। प्रकारान्तर से सूत्रकृत का निरुक्त करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि अक्षरगुण से मतिज्ञान की संघटना तथा कर्मों का परिशाटन—इन दोनों के योग से सूत्र की रचना हुई अत: यह सूत्रकृत है।' टीकाकार इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जैसे-जैसे गणधर सूत्र करने का उद्यम करते हैं, वैसे-वैसे कर्म-निर्जरा होती है, जैसे-जैसे कर्म-निर्जरा होती है, वैसे-वैसे सूत्ररचना का उद्यम होता है।६ इसके प्रथम श्रुतस्कंध में सोलह अध्ययन हैं अत: इसका एक नाम गाथाषोडशक (गाहासोलसग) भी प्रसिद्ध है। व्यवहार में इस आगम का नाम प्राकृत में सूयगडंग तथा संस्कृत में सूत्रकृतांग अधिक प्रचलित है। दिगम्बर परम्परा में शौरसैनी भाषा में सुद्दयड, सूदयड और सूदयद—ये तीन नाम मिलते हैं। रचनाकार एवं रचनाकाल नियुक्तिकार ने सूत्रकृतांग के रचनाकार का नामोल्लेख नहीं किया है लेकिन गणधारी शब्द का प्रयोग गणधर की ओर संकेत करता है। सूत्रकृतांग के रचनाकार की कार्मिक अवस्था विशेष का वर्णन करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं..."रचनाकार गणधरों के कर्मों की स्थिति न जघन्य थी और न उत्कृष्ट । कर्मों का अनुभाव-विपाक मंद था। बंधन की अपेक्षा से कर्मों की प्रकृतियों का मंदानुभाव से बंध करते हुए, निकाचित तथा निधत्ति अवस्था को न करते हुए, दीर्घ स्थिति वाली कर्म प्रकृतियों को अल्प स्थिति वाली करते हुए, बंधने वाली उत्तर प्रकृतियों का संक्रमण करते हुए, उदय में आने वाली १. सूनि २। २. सूटी पृ. २ सूतमुत्पन्नमर्थरूपतया तीर्थकृद्भ्य: तत: कृतं ग्रंथरचनया गणधरैरिति तथा सूत्रकृतमिति सूत्रानुसारेण तत्त्वावबोध: क्रियतेऽस्मिन्निति तथा सूचाकृतमिति स्वपरसमयार्थसूचनं सूचा सास्मिन् कृतेति। ३. सूयगडो भाग १, भूमिका पृ. १७ । ४. सूनि १८। ५. सूनि २०। सूटी पृ. ५। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ नियुक्तिपंचक कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा करते हुए, आयुष्य कर्म की अनुदीरणा करते हुए, पुंवेद का अनुभव करते हुए तथा क्षायोपशमिक भाव में वर्तमान गणधरों ने इस सूत्र की रचना की।"१ पाश्चात्य विद्वान् विंटरनित्स के अनुसार भाषा की दृष्टि से सूत्रकृतांग का प्रथम श्रुतस्कंध अधिक प्राचीन है। दूसरा श्रुतस्कंध परिशिष्ट के रूप में बाद में संकलित किया गया है। यह मान्यता भी प्रचलित है कि प्रथम श्रुतस्कंध के विषयों का ही द्वितीय श्रुतस्कंध में विस्तार हुआ है। विषय-निरूपण एवं भाषा-शैली की दृष्टि से इसका समय महावीर के समकालीन कहा जा सकता है। उस समय प्राकृत जनभाषा थी अत: नियुक्तिकार कहते हैं कि तीर्थंकरों ने अपने वाग्योग से अर्थ की अभिव्यक्ति की तथा अनेक योगों के धारक गणधरों ने अपने वचनयोग से जीव के स्वाभाविक गुण अर्थात् प्राकृत भाषा में इसको निरूपित किया। अध्ययन एवं विषय-वस्तु सूत्रकृतांग के दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम अध्ययन के १६ तथा द्वितीय श्रुतस्कंध में सात अध्ययन हैं। इसके प्रथम अध्ययन के चार, दूसरे अध्ययन के तीन, तीसरे अध्ययन के चार तथा चौथे और पांचवें अध्ययन के दो-दो उद्देशक हैं। शेष ग्यारह अध्ययनों तथा दूसरे श्रुतस्कंध के सात अध्ययनों के एक एक उद्देशक हैं। इस प्रकार दोनों श्रुतस्कंधों के कुल मिलाकर २३ अध्ययन तथा तेतीस उद्देशक हैं। इसका पद-परिमाण आचारांग से दुगुना अर्थात् ३६ हजार श्लोक प्रमाण था लेकिन वर्तमान में इसका काफी भाग लुप्त हो गया। सूत्रकृतांग का अधिकांश भाग पद्य में है किन्तु कुछ भाग गद्य में भी है। नंदी के अनुसार इसमें लोक, अलोक, लोकालोक, जीव, अजीव, जीवाजीव, स्वसमय, परसमय तथा स्वसमय-परसमय का निरूपण है। समवाओ के अनुसार इसमें स्वसमय, परसमय तथा जीव आदि नौ पदार्थों की सूचना है। इसके अतिरिक्त इसमें १८० क्रियावादी, ८४ अक्रियावादी, ६७ अज्ञानवादी तथा ३२ विनयवादी दर्शनों अर्थात् ३६३ मतवादों का उल्लेख है। सूत्रकृतांगनियुक्ति (२४-२८) में इसके प्रत्येक अध्ययन की विषय-वस्तु का संक्षेप में निरूपण किया है। उसके अनुसार प्रथम श्रुतस्कंध के सोलह अध्ययनों के अर्थाधिकार इस प्रकार हैं १. स्वसमय और परसमय का निरूपण। २. स्वसमय का बोध । ३. संबुद्ध व्यक्ति का उपसर्ग में सहिष्णु होना। ४. स्त्री-दोषों का विवर्जन। ५. उपसर्गभीरु तथा स्त्री के वशवर्ती व्यक्ति का नरक में उपपात । ६. जैसे महावीर ने कर्म और संसार का पराभव कर विजय के उपाय कहे, वैसा प्रयत्न करना। ७. नि:शील तथा कुशील को छोड़कर सुशील और संविग्नों की सेवा करने वाला शीलवान् । ८. दो प्रकार के वीर्य को जानकर पंडितवीर्य में यत्न करना। ९. यथावस्थित धर्म का कथन। १. सूनि १७ । २. History of Indian Literature, Vo2, Page 421 । ३. सूनि १९ । ४. सूनि २२ ५. नंदी ८२। ६. समप्र. ९०। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण १०. समाधि का प्रतिपादन । ११. सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रात्मक मोक्षमार्ग का निरूपण। १२. क्रियावाद, अक्रियावाद आदि ३६३ तत्त्वों का निराकरण । १३. कुमार्ग का निरूपण। १४. शिष्यों के गण और दोषों का कथन तथा नित्य गरुकलवास में रहने का उपदेश। १५. पूर्व उपन्यस्त आदानीय पद का संकलन । १६. पूर्वोक्त अध्ययनों में अभिहित सभी अर्थों का संक्षिप्त कथन ।' तत्त्वार्थ राजवार्तिक के अनुसार सूत्रकृतांग में ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कल्प्याकल्प्य, छेदोपस्थापना और व्यवहार धर्मकिया का निरूपण किया गया है। आचार्य वीरसेन ने इसके अतिरिक्त स्वसमय और परसमय के प्रतिपादन का उल्लेख भी किया है। कषायपाहुड़ की चूर्णि के अनुसार सूत्रकृतांग में स्वसमय, परसमय, स्त्रीविलोकन, क्लीवता, अस्फुटत्व, मन की बात को स्पष्ट न कहना, काम का आवेश, विलास, आस्फालन-सुख तथा पुरुष की इच्छा करना आदि स्त्री लक्षणों का प्ररूपण है।" सूत्रकृतांग नियुक्ति निर्यक्ति-रचना के क्रम में पांचवां स्थान सत्रकतांग निर्यक्ति का है। आकार में यह अत्यंत लघकाय है। इसमें सूत्रकृतांग में आए शब्दों की व्याख्या न करके नियुक्तिकार ने अध्ययनगत शब्दों की व्याख्या अधिक की है। नियुक्ति के प्रारम्भ में सूत्रकृतांग ग्रंथ के नाम के आधार पर सूत्र एवं कृत—करपा शब्द की व्याख्या की गयी है। कालकरण की व्याख्या ज्योतिष की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इस नियुक्ति में मुख्य रूप से समय, उपसर्ग, स्त्री, पुरुष, नरक, स्तुति, शील, वीर्य, धर्म, समाधि, मार्ग आदि शब्दों का निक्षेप के माध्यम से विशद विवेचन हुआ है। इसमें समय, वीर्य, मार्ग आदि शब्दों की व्याख्या अनेक आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक रहस्यों को प्रकट करने वाली है। सूत्रकृतांग के प्रथम अध्ययन में अनेक वादों का वर्णन है पर नियुक्तिकार ने पंचभूतवाद और अकारकवाद—इन दो वादों के खंडन में अपने हेतु प्रस्तुत किए हैं। पांचवें अध्ययन में पन्द्रह परमाधार्मिक देवों के कार्यों का वर्णन रोमांच पैदा करने वाला है। द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रथम पोंडरीक अध्ययन की नियुक्ति में संसार में विविध क्षेत्रों की सर्वश्रेष्ठ वस्तुओं की गणना करा दी गयी है। आहारपरिज्ञा नामक तीसरे अध्ययन की नियुक्ति में आहार-अनाहार से संबन्धित सैद्धान्तिक विवेचन हुआ है। नियुक्तिकार का शैलीगत वैशिष्ट्य है कि वे कथा का विस्तार नहीं करते लेकिन छठे अध्ययन में आर्द्रककुमार की विस्तृत कथा दी है। अंतिम अध्ययन की नियुक्ति में नालंदा में हुई गौतम और पार्वापत्यीय श्रमण उदक की चर्चा का संकेत है। दशाश्रुतस्कंध एवं उसकी नियुक्ति । छेदसूत्रों में प्रथम स्थान दशाश्रुतस्कंध का आता है। इनको छेदसूत्र क्यों कहा गया इस बारे में १. सूनि २४-२८। २. तत्त्वार्थ राजवार्तिक १/२० पृ. ७३ । ३. षट्खंडागम धवला भाग १ पृ. ९९ । ४. कपा, चू. भाग १ पृ. ११२ । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक विद्वानों ने एक कल्पना यह की है कि इनमें छेद प्रायश्चित्त से संबंधित वर्णन है अत: इनका नाम छेदसूत्र पड़ गया पर वर्तमान में उपलब्ध छेदसूत्रों की विषय-वस्तु देखते हुए यह बात काल्पनिक और निराधार प्रतीत होती है। निशीथभाष्य में छेदसूत्रों को उत्तमश्रुत कहा गया है। निशीथ चूर्णिकार इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि इनमें प्रायश्चित्त-विधि का वर्णन है, इनसे चारित्र की विशोधि होती है, इसलिए छेदसूत्र उत्तमश्रुत हैं। इसके अतिरिक्त ये पूर्वो से निर्मूढ हुए इसलिए भी आगम-साहित्य में छेदसूत्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। छेदसूत्रों में मुख्यत: उत्सर्ग, अपवाद, दोष और प्रायश्चित्त—इन चार विषयों का वर्णन है। दशाश्रुतस्कंध उत्सर्गप्रधान छेदसूत्र है, इसमें मुख्यत: मुनि के सामान्य आचार का वर्णन हुआ है। छेदसूत्रों की संख्या के बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। जीतकल्प चूर्णि में छेदसूत्रों के रूप में इन ग्रंथों का उल्लेख मिलता है—१. कल्प २. व्यवहार ३. कल्पिकाकल्पिक ४. क्षुल्लकल्प ५. महाकल्प, पीथ आदि।चर्णिकार ने दशाश्रतस्कंध का उल्लेख नहीं किया अत: आदि शब्द से यहां संभवत: दशाश्रुतस्कंध ग्रंथ का संकेत होना चाहिए। कल्पिकाकल्पिक, महाकल्प एवं क्षुल्लकल्प आदि ग्रंथ आज अनुपलब्ध हैं। फिर भी चूर्णि के इस उल्लेख से यह नि:संदेह कहा जा सकता है कि ये प्रायश्चित्तसूत्र थे और इनकी गणना छेदसूत्रों में होती थी। सामाचारी शतक आगमाधिकार में छेदसूत्रों के रूप में छह ग्रंथों के नामों का उल्लेख मिलता हैदशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ, जीतकल्प और महानिशीथ । पंडित कैलाशचन्द्र शास्त्री ने जैनधर्म पुस्तक में जीतकल्प के स्थान पर पंचकल्प (अनुपलब्ध) को छेदसूत्रों के अंतर्गत माना है। पाश्चात्य विद्वान् विंटरनित्स ने विस्तार से छेदसूत्रों की संख्या एवं उनके प्रणयन के क्रम की चर्चा की है। हीरालाल कापड़िया के अनुसार पंचकल्प का लोप होने के बाद जीतकल्प छेदसूत्रों में गिना जाने लगा। जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग २ में छेदसूत्रों के अंतर्गत इन सूत्रों की परिगणना की गयी है—१. दशाश्रुतस्कंध, २. बृहत्कल्प ३. व्यवहार ४. निशीथ ५. महानिशीथ ६. पंचकल्प अथवा जीतकल्प। तेरापंथ की परम्परा में छेदसूत्रों के अंतर्गत चार ग्रंथों को अंतर्निविष्ट किया है—१. दशाश्रुतस्कंध २. बृहत्कल्प ३. व्यवहार ४. निशीथ। दिगम्बर साहित्य में कल्प, व्यवहार और निशीथइन तीन ग्रंथों का ही उल्लेख है। वहां दशाश्रुतस्कंध का उल्लेख नहीं है। चूर्णिकार ने छेदसूत्रों में दशाश्रुतस्कंध को प्रमुख रूप से स्वीकार किया है। इसको प्रमुख स्थान देने का संभवत: यही कारण रहा होगा कि इसमें मुनि के लिए आचरणीय और अनाचरणीय तथ्यों का कमबद्ध वर्णन है। शेष तीन सूत्र इसी के उपजीवी हैं। छेदसूत्रों के नामकरण के बारे में विस्तृत वर्णन देखें,व्यवहारभाष्य, भूमिका पृ. ३४।। पंचकल्प भाष्य के अनुसार कुछ आचार्य दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार इन तीनों को एक श्रुतस्कंध मानते थे तथा कुछ आचार्य दशाश्रुत को प्रथम तथा कल्प और व्यवहार को दूसरे श्रुतस्कंध के १. निभा ६१८४ भाग ४ चू. पृ.२५३; छेयसुयमुत्तमसुयं । २. जीचू पृ. १; कप्प-ववहार-कप्पियाकप्पिय-चुल्लकप्प महाकप्पसुय-निसीहाइएसु छेदसुत्तेसु अइवित्थरेण पच्छित्तं भणियं। ३. सामाचारी शतक, आगमाधिकार। ४. जैनधर्म पृ. २५९ । ५. History of Indian Literature,Vo2 page 446। ६. A History of the Canonical---Page 371 ७. जैन सा....... भाग २ पृ. १७३ । ८. दचू प. २; इमं पुण छेदसुत्तपमुहभूतं । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवक्षण रूप में स्वीकृत करते थे। नामकरण स्थानांग सूत्र में दशाश्रुतस्कंध का दूसरा नाम आयारदसा भी मिलता है। आयारदशा और दशाश्रुतस्कंध ये दोनों ही नाम ग्रंथ की विषय-वस्तु को सार्थक करते हैं। दश श्रुतों—अध्ययनों का स्कंध अर्थात् समूह को दशाश्रुतस्कंध कहा गया है। जिसमें दश प्रकार के आचार का वर्णन हो, वह आयारदशा है। यहां दशा शब्द अवस्था का वाचक नहीं अपित संख्या का द्योतक है. ऐसा निर्यक्तिकार ने स्पष्ट किया है। निक्षेप के माध्यम से दशा की व्याख्या करते हुए भावदशा के दो प्रकार बताए गए । और अध्ययनदशा। आयविपाकदशा के दस तथा अध्ययनदशा के दो प्रकार बताए हैं—छोटी अध्ययनदशा के लिए दशाश्रुतस्कंध के दस अध्ययनों की ओर संकेत किया है तथा बड़ी अध्ययन दशा ज्ञाताधर्मकथा को माना है। नियुक्तिकार कहते हैं कि जिस प्रकार वस्त्र की विभूषा के लिए उसकी दशा-किनारी होती है, वैसे ही ये दशाएं हैं। रचनाकार छेदसूत्रों के रचनाकार चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाहु थे। पंचकल्पभाष्य तथा दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति की प्रथम गाथा में भद्रबाहु को वंदना करते हुए कहा गया है कि दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प और व्यवहार इन तीन छेदसूत्रों के कर्ता प्राचीनगोत्री आचार्य भद्रबाहु हैं । चतुर्दशपूर्वी आवश्यकता होने पर पूर्वो से सूत्रों का नि!हण करते हैं अत: धृति, स्मृति एवं संहनन आदि की क्षीणता देखकर आचार्य भद्रबाहु ने पूर्वो से छेदसूत्रों का निर्मूहण किया। निशीथ का निर्वृहण नौवें पूर्व के प्रत्याख्यानपूर्व की तृतीय आचारवस्तु से हुआ। अध्ययन एवं विषयवस्तु ____ दशाश्रुतस्कंध के दश अध्ययनों के नाम नियुक्तिकार के अनुसार इस प्रकार हैं-१. असमाधि २. सबलत्व ३. अनाशातना ४. गणिगुण ५. मन:समाधि ६. श्रावकप्रतिमा ७. भिक्षुप्रतिमा ८. कल्प (पज्जोसवणाकप्प) ९. मोह १०. निदान । ठाणं सूत्र में संख्या के साथ अध्ययनों के नामों का उल्लेख १. बीस असमाधिस्थान ६. ग्यारह उपासकप्रतिमा २. इक्कीस शबलदोष ७. बारह भिक्षुप्रतिमा ३. तेतीस आशातना ८. पर्युषणाकल्प ४. अष्टविध गणिसंपदा ९. तीस मोहनीयस्थान ५. दश चित्तसमाधिस्थान १०.आजातिस्थान । दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति छेदसूत्रों पर यह स्वतंत्र रूप से नियुक्ति मिलती है। अन्य छेदसूत्रों पर लिखी गयी नियुक्तियां १. पंकभा. २५ । २. ठाणं १०/११५ ॥ ३. दनि ५। ४. दनि ५। ५. दचू प. ३। ६. आनि ३११। ७. दनि ८। ८. ठाणं १०/११५ । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक ५२ भाष्य के साथ मिल गयीं हैं। आकार में यह सबसे छोटी नियुक्ति है पर संक्षिप्त शैली में आचार विषयक अनेक विषयों का वर्णन इसमें हुआ । नियुक्ति के प्रारम्भ में दशा शब्द की विस्तृत व्याख्या की गयी 1 निर्युक्तिकार ने समाधि, स्थान, शबल, आशातना, गणी, संपदा, चित्त, उपासक, प्रतिमा आदि शब्दों की निक्षेपपरक व्याख्या की है । उपासकप्रतिमा नामक षष्ठ अध्ययन में उपासकों के भेदों का वर्णन है, साथ ही उपासक और श्रावक क्या अंतर है, इसका तात्त्विक विवेचन किया गया है । नियुक्तिकार ने प्रसंगवश अनेक प्रकार की प्रतिमाओं का भी उल्लेख किया है । एकलविहारप्रतिमा स्वीकार करने वाले मुनि के गुण विशिष्ट साधुत्व के पैरामीटर हैं। आठवीं पज्जासवणा दशा में पर्युषणाकल्प का व्याख्यान किया गया है। नियुक्तिकार ने साधु के विहार- कल्प, वर्षावास स्थापित करने एवं विहार न करने के कारणों का विस्तार से वर्णन किया है तथा जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट वर्षावास के विकल्प भी प्रस्तुत किए हैं । द्रव्य स्थापना में आहार, विगय, मात्रक आदि सात द्वारों की विस्तृत विवेचना की गयी है । पर्युषणा का मूल अर्थ है— कषाय का उपशमन । पर्युषणाकाल में यदि मुनि को अधिकरण या कषाय का वेग आ जाए तो सांवत्सरिक उपशमन करना चाहिए। अधिकरण के प्रसंग में नियुक्तिकार ने दुरूतक, प्रद्योत एवं द्रमक के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। कषाय के अंतर्गत कोध आदि कषायों के चार-चार भेदों का उल्लेख किया है— क्रोध, मान, माया और लोभ के दोषों को बताने के लिए नियुक्तिकार ने मरुक, अत्वंकारीभट्टा, पांडुरा तथा आचार्य मंगु की कथाओं का निर्देश किया है। अंत में संयम - क्षेत्र की विशेषता तथा वर्षा में भिक्षा की आपवादिक विधि का उल्लेख किया गया है । नौवीं दशा की नियुक्ति में मोह के निक्षेप तथा कर्म शब्द के एकार्थकों का उल्लेख है । नियुक्तिकार ने महामोहनीय कर्मबंध के कारणों का वर्जन करने की प्रेरणा दी है क्योंकि इनसे अशुभ कर्म का बंध होता है, जो दुःख का कारण बनते हैं 1 दसवीं निदानस्थान दशा का दूसरा नाम आजातिस्थान भी है। इसमें जाति, आजाति और प्रत्याजाति की परिभाषाओं के साथ मोक्षगमन के योग्य साधु की विशेषताओं का उल्लेख किया गया है । नियुक्तिकार ने निक्षेप के माध्यम से बंध का विस्तृत वर्णन किया है तथा अंत में संसार - समुद्र से तरने के पांच उपाय बताए हैं। कहा जा सकता है कि यह नियुक्ति आचार विषयक अनेक विषयों का स्पष्टीकरण करने वाली है । निर्युक्तियों की गाथा-संख्या : एक अनुचिंतन प्रस्तुत ग्रंथ में संपादित पांचों निर्युक्तियों की उपलब्धि के तीन स्रोत प्राप्त होते हैं - १. नियुक्ति की हस्तलिखित प्रतियां । २. चूर्णि में प्रकाशित नियुक्ति - गाथाएं ३. टीका में प्रकाशित निर्युक्ति-गाथाएं ।' दशवैकालिक और उत्तराध्ययननियुक्ति की जितनी भी हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त हुईं, उनमें भाष्य और नियुक्ति की गाथाएं भी साथ में लिखी हुई थीं अतः उनके आधार पर गाथाओं का सही निर्णय करना संभव नहीं था। चूर्णि और टीका की गाथा - संख्या में भी पर्याप्त अंतर है । दशवैकालिक की प्रकाशित १. दशाश्रुतस्कंध की टीका अभी प्रकाशित नहीं हुई है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण टीका में ३७२ नियुक्ति-गाथाएं हैं, जबकि प्रकाशित अगस्त्यसिंहचूर्णि में मात्र २७१ नियुक्ति-गाथाएं ही हैं। जिनदासचूर्णि में गाथाओं का केवल संकेत मात्र है अत: उसमें गाथाओं के व्यवस्थित कमांक नहीं हैं। हमारे द्वारा संपादित दशवैकालिकनियुक्ति में ३४९ गाथाएं हैं। गाथा-संख्या में इतना अंतर कैसे आया तथा व्याख्याकारों में इतना मतभेद कैसे रहा? यह ऐतिहासिक दृष्टि से शोध का विषय है। गाथा भाष्य की होनी चाहिए या नियुक्ति की, यह निर्णय प्राय: प्राचीनता की दृष्टि से चूर्णिकार को आधार मानकर किया गया है। अनेक भाष्य गाथाओं को तर्कसंगत प्रमाण देकर नियुक्ति गाथा के क्रम में रखा है तथा अनेक नियुक्ति गाथाओं को भाष्यगाथा के रूप में भी सिद्ध किया है। कुछ नियुक्ति-गाथाएं भी मूलसूत्र के साथ मिल गयी हैं, जैसे-वयछक्क.....(दशनि २४४) गाथा दशवैकालिक के छठे अध्ययन में भी मिलती है। इसी प्रकार उत्तराध्ययननियुक्ति (गा. २४९) की 'जहा लाभो तहा लोभो' गाथा कालान्तर में उत्तराध्ययन सूत्र के साथ जुड़ गई। सम्मिश्रण का एक कारण स्मृति-दोष भी रहा होगा क्योंकि मूलसूत्र के साथ नियुक्ति भी कंठस्थ होने से कहीं-कहीं गाथाओं में विपर्यय हो गया। व्याख्याग्रंथों की गाथाओं का मूलसूत्र के साथ तथा नियुक्ति की गाथाओं का भाष्य के साथ सम्मिश्रण इतना सहज हो गया है कि उनका पृथक्करण करना अत्यंत जटिल कार्य है। गाथाओं में अंतर रहने का एक कारण यह भी बना कि अनेक स्थलों पर चूर्णिकार ने गाथा को सरल समझकर उसका उल्लेख नहीं किया। जिनदासचूर्णि में अनेक स्थलों पर तिण्णि गाहाओ भाणियव्वाओ, सुगम चेव' का उल्लेख मिलता है। कहीं-कहीं गाथा की व्याख्या होने पर भी उसका संकेत नहीं दिया गया है। संभव है लिपिकर्ताओं द्वारा संकेत लिखना छूट गया हो। दशवैकालिकनियुक्ति एवं उसके भाष्य की गाथाओं का सही-सही निर्णय करना अत्यंत कठिन कार्य था क्योंकि हरिभद्र द्वारा मान्य कुछ भाष्य गाथाओं को स्थविर अगस्त्यसिंह ने अपनी चूर्णि में नियुक्ति-गाथा माना है। इसके अतिरिक्त हरिभद्र की प्रकाशित टीका में जिन गाथाओं के आगे 'भाष्यम्' का उल्लेख है, वह भी अनेक स्थलों पर सम्यक् प्रतीत नहीं होता। अनेक नियुक्ति गाथाओं के आगे भी 'भाष्यम्' का उल्लेख है तथा कहीं-कहीं भाष्य की गाथाओं को भी नियुक्ति गाथा के क्रम में जोड़ दिया है। हरिभद्र ने अपनी टीका में भाष्य गाथा के लिए 'आह' भाष्यकार:' ऐसा संकेत प्राय: नहीं दिया है। निर्युक्ति-गाथा के संपादन-काल में अनेक चिंतन के बिंदु उभरकर सामने आए, जिनके आधार पर हमने गाथाओं के बारे में निर्णय लिया है कि यह प्राचीन होनी चाहिए या प्रक्षिप्त. भाष्यगाथा होनी चाहिए अथवा नियुक्तिगाथा। यद्यपि गहन चिंतन-मनन के बाद भाष्य और नियुक्ति की गाथाओं का पथककरण किया गया है फिर भी इसे अंतिम प्रमाण नहीं कहा जा सकता। प्रकाशित होने पर अनेक गाथाओं के बारे में स्पष्ट अनुभूति हुई कि ये गाथाएं प्रक्षिप्त होनी चाहिए। लेकिन प्रकाशित होने के बाद उनके क्रम में अंतर करना संभव नहीं था अत: यहां कुछ गाथाओं के बारे में विमर्श प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है,साथ ही गाथा-संख्या के निर्धारण में प्रयुक्त मुख्य बिंदुओं को भी प्रस्तुत किया जा रहा है १. किसी गाथा के लिए जहां चूर्णिकार ने 'एत्थ निज्जुत्तिगाहा' का उल्लेख किया है, वहां १.उ.८/१७। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ निर्युक्तिपंचक टीकाकार ने 'एतदेव व्याचिख्यासुराह भाष्यकार:' का संकेत दिया है । ऐसी विवादास्पद गाथाओं को हमने चालू प्रसंग, पौर्वापर्य एवं चूर्णि की प्राचीनता – इन सब दृष्टियों को ध्यान में रखते हुए नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है । उदाहरणार्थ देखें गा दशनि २२० । इसी प्रकार दशनि गा. ३४५ के लिए दोनों चूर्णिकारों ने इमा उवग्घातनिज्जुत्तिपढमगाहा तथा टीकाकार ने 'एतदेवाह भाष्यकार:' का उल्लेख किया है। इस गाथा को भी हमने नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है । दशवैकालिकनियुक्ति में कुछ गाथाएं ऐसी भी हैं, जिनको हमने भाष्यगाथा के क्रम में रखा है। ये गाथाएं प्रकाशित टीका में नियुक्ति - गाथा के क्रम में हैं, किन्तु चूर्णि में इन गाथाओं का कोई संकेत नहीं मिलता। हमने हेतु पुरस्सर उनको भाष्यगाथा सिद्ध किया है । देखें – ८९/१, ९५/३, ९६/२, ९७/१, १२०/१, १२३/१, १५१/१, २१७/१, २१८/१ गाथाओं के टिप्पण । ये गाथाएं केवल व्याख्यारूप हैं, इनको मूल क्रम में न रखने से भी चालू विषय-वस्तु में कोई अंतर नहीं आता । उदाहरणार्थ गा. ९७/१ भाष्य की होनी चाहिए क्योंकि गाथा के उत्तरार्ध में 'गुरुराह अतएव' का उल्लेख किया है। भाष्यकार ही नियुक्तिकार के बारे में ऐसा कह सकते हैं अन्यथा नियुक्तिकार यदि इस शब्दावलि को कहें तो मूल सूत्र साथ इसका कोई संबंध नहीं जुड़ता, दूसरी बात इस गाथा की विषय-वस्तु अगली गाथा में प्रतिपादित है अत: यह भाष्यगाथा होनी चाहिए । 1 २. कहीं-कहीं टीका की मुद्रित प्रति में गाथाओं के आगे 'भाष्यम्' का उल्लेख है किन्तु चूर्णि में वे गाथाएं स्पष्ट रूप से नियुक्तिगाथा के रूप में व्याख्यात हैं । छंद, विषय-वस्तु और रचना-शैली की दृष्टि से भी ये निर्युक्ति - गाथा की कसौटी पर खरी उतरती हैं । हरिभद्र ने अपनी व्याख्या में इन गाथाओं के बारे में कोई संकेत नहीं दिया है कि ये निर्युक्ति की गाथाएं हैं अथवा भाष्य की ? लगता है मुद्रित टीका में संपादक ने स्वयं ही गाथाओं के आगे 'भाष्यम्' का उल्लेख कर दिया है अतः उसको प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। दशवैकालिकनिर्युक्ति में अनेक भाष्य गाथाओं को हमने सप्रमाण एवं सतर्क नियुक्ति गाथा के क्रम में रखा है । देखें दशनि गा. ९०, ९१,१९६, १९७, २०१ - २०६, २०९, २१०, २१६ । उत्तराध्ययननियुक्ति २०३ - २७ तक की गाथाओं के लिए टीकाकार ने वैकल्पिक रूप से भाष्यगाथा का उल्लेख किया है। यद्यपि ये भाष्य-गाथाएं अधिक संभावित हैं पर हमने इनको नियुक्ति - गाथा के क्रम में रखा है। उनि गा. २२७ में 'सगलनिउणे पयत्ये जिणचउदसपुव्वि भासंति' का उल्लेख भी स्पष्ट करता है कि ये गाथाएं बाद में किसी आचार्य द्वारा रचित हैं । अन्यथा चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु अपने बारे में ऐसा उल्लेख नहीं करते। हमने इनको निर्युक्तिगाथा के क्रम में रखा है । ३. दशवैकालिकनिर्युक्ति में कहीं-कहीं द्वारगाथाओं में उल्लिखित द्वार के आधार पर भी हमने गाथाओं का निर्णय किया है। जैसे- दशनि गा. १३, १४, १८ ये तीन गाथाएं चूर्णि में निर्दिष्ट नहीं हैं । पं. दलसुखभाई मालवणिया ने इन्हें हरिभद्रकृत माना है किन्तु इन्हें हरिभद्र की रचना नहीं माना जा सकता क्योंकि हरिभद्र ने १३ वीं गाथा के प्रारम्भ में 'अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं नियुक्तिकार एव यथावसरं वक्ष्यति' का तथा गा. १४ वीं के प्रारम्भ में 'चाह नियुक्तिकारः' का उल्लेख किया है । यदि वे स्वयं रचना करते तो ऐसा उल्लेख नहीं करते। ये दोनों नियुक्ति की गाथाएं हैं, इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि १२ वीं द्वारगाथा के 'जत्तो' द्वार की व्याख्या वाली गाथाएं जब चूर्णि में नियुक्ति के क्रम में Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण हैं तब 'जेण' और 'जावंति' द्वार का स्पष्टीकरण करने वाली गाथाएं भी नियुक्तिकार द्वारा रचित होनी चाहिए। चूर्णि में निर्दिष्ट न होने पर भी हमने इनको नियुक्ति-गाथा के क्रम में रखा है। ४. दशवैकालिकनियुक्ति की अनेक गाथाएं चूर्णि में गाथा रूप में निर्दिष्ट नहीं हैं किन्तु उनका भावार्थ चूर्णि में मिलता है। ऐसी गाथाओं के बारे में दो विकल्प उभरकर सामने आते हैं (क) चूर्णि की व्याख्या के आधार पर बाद के आचार्यों ने गाथा की रचना कर दी हो। (ख) अथवा लिपिकार द्वारा चूर्णि में गाथा का संकेत छूट गया हो। उदाहरण स्वरूप गा. ४०, ४२ से ४५ इन पांचों गाथाओं का चूर्णि में भावार्थ एवं व्याख्या है पर गाथा का संकेत नहीं है किन्तु ये गाथाएं नियुक्ति की होनी चाहिए क्योंकि इनमें सूत्रगत शब्दों की व्याख्या है। इसके अतिरिक्त अगस्त्यसिंह चूर्णि पृ. ११ पर २० वीं गाथा की व्याख्या में कहा है कि संयम और तप नियुक्ति विशेष से कहे जाएंगे। इन गाथाओं में धर्म, संयम एवं तप की व्याख्या है। गा. ३९ में लौकिक धर्म का निरूपण है अत: लोकोत्तर धर्म की व्याख्या करने वाली ४० वीं गाथा भी नियुक्ति की होनी चाहिए। इसी प्रकार ५०' से ८५ तक की ३६ गाथाओं का भी चूर्णि में भावार्थ है पर गाथाएं नहीं हैं। हमने विषय की संबद्धता एवं टीकाकार की व्याख्या के आधार पर इनको नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है। ५. कहीं-कहीं किसी गाथा की व्याख्या चूर्णि एवं टीका दोनों में नहीं मिलती लेकिन हस्तप्रतियों में वह गाथा मिलती है। ऐसी गाथाओं को हमने प्राय: नियुक्तिगाथा के क्रम में नहीं जोड़ा है क्योंकि हस्त आदर्शों में लिपिकारों द्वारा प्रसंगवश नियुक्ति-गाथा के साथ अन्य अनेक गाथाएं भी लिख दी गयी हैं। जैसे—देखें गा. दशनि २२१/१, २७४/१, उनि २८/१, दनि ३३/१,२,४४/१, ६४/१ आदि । लेकिन कहीं-कहीं व्याख्याकारों द्वारा व्याख्यात न होने पर भी आदर्शगत गाथा को भाषा-शैली एवं विषय की संबद्धता की दृष्टि से नियुक्ति-गाथा के क्रम में रखा है। जैसे—दशनि १४५, २८५, उनि ४८, ३२०, आनि २९४, दनि २३ आदि। कहीं-कहीं कोई गाथा एक ही प्रति में मिली है तो भी विषय की संबद्धता के आधार पर उसे नियुक्ति-गाथा के क्रम में जोड़ दिया है। जैसे—दशनि गा ३३९ केवल ब प्रति में मिलती है। ६. कहीं-कहीं भाष्य या अन्य व्याख्याग्रंथों की गाथाएं भी नियुक्ति गाथाओं के साथ मिल गयी हैं। लिपिकर्ताओं द्वारा स्मृति के लिए हासिए में प्रसंगवश विषय से संबद्ध गाथाएं लिख दी गयीं जो बाद में मूलग्रंथ के साथ मिल गयीं। अनेक स्थलों पर ऐसी गाथाओं को हमने नियुक्ति के क्रमांक में नहीं जोड़ा है। जैसे दशनि ९/१. १५७/१। इसी प्रकार दशनि २५/१. २ ये दोनों गाथाएं विशेषावश्यक भाष्य की हैं किन्तु टीका में इनके लिए 'आह नियुक्तिकारः' का उल्लेख है। इस उल्लेख से संभव लगता है कि हरिभद्र के समय तक ये गाथाएं नियुक्तिगाथा के रूप में प्रसिद्ध हो गयी थीं लेकिन हमने इनको नियुक्तिगाथा के क्रम में नहीं रखा है। चूर्णि में भी ये गाथाएं नियुक्तिगाथा के रूप में निर्दिष्ट नहीं हैं। ७. कहीं-कहीं चूर्णि में गाथा का उल्लेख एवं व्याख्या नहीं है लेकिन टीकाकार ने उन गाथाओं को 'आह नियुक्तिकार:' 'अधुना नियुक्तिकारो', 'नियुक्तिकृदाह', 'चोक्तं नियुक्तिकारेण' आदि उल्लेखपूर्वक नियुक्तिगाथा रूप में स्वीकृत किया है। संभव है कि टीकाकार के समय तक ये गाथाएं नियुक्ति-गाथा के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं अत: टीकाकार को प्रमाण मानकर हमने ऐसी गाथाओं को Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ नियुक्तिपंचक नियुक्ति-गाथा के क्रम में रखा है। जैसे-दशनि गा. १-७, ११, १०६-१३, उनि गा. ६५, सूनि गा. ५१-५३ आदि। कहीं-कहीं टीकाकार ने गाथा के संबंध में कुछ निर्देश न भी दिया हो तो भी कुछ गाथाओं को केवल प्रकाशित टीका और हस्तप्रतियों के आधार पर नियुक्ति के क्रम में स्वीकार किया है जैसे दशनि गा. ९३ । गा. ९३ विषय की दृष्टि से गा. ९४ से संबद्ध है। इसको नियुक्ति-गाथा के क्रम में नहीं रखते से विषयक्रम में असंबद्धता का अनुभव होता है। कहीं-कहीं स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि चूर्णिकार द्वारा गाथा का संकेत छूट गया है अथवा गाथा को सरल समझकर उसकी व्याख्या नहीं की गयी है। जैसे दशनि १४५, ३०५ । लेकिन कहीं-कहीं हस्तप्रतियों और टीका में संकेतित तथा चूर्णि में अनुल्लिखित और अव्याख्यात गाथाओं को विषय-वस्तु की असंबद्धता और व्याख्यापरकता के आधार पर नियुक्ति-गाथा के कम में नहीं भी जोड़ा है जैसे दशनि गा. २४०/१, ३०७/१, ३१५/१। ८. चूर्णि में नियुक्ति के क्रम में प्रकाशित गाथा को भी कहीं-कहीं हमने नियुक्ति के क्रम में नहीं रखा है। इसका कारण है विषय-वस्तु एवं भाषा-शैली की भिन्नता। जैसे—दशनि गा. २११/१ को आचार्य हरिभद्र ने वृद्धास्तु व्याचक्षते' उल्लेखपूर्वक उद्धृत गाथा के रूप में रखा है। यह गाथा चूर्णिकार द्वारा रचित है अथवा काय के प्रसंग में पहेली के रूप में बाद के किसी आचार्य द्वारा जोड़ी गयी है। इसे मूल क्रमांक में न रखने पर भी चालू विषय-वस्तु के क्रम में कोई अंतर नहीं आता है। ९. दशवैकालिकनियुक्ति की कुछ गाथाओं का संकेत जिनदास चूर्णि में है किन्तु अगस्त्यसिंह चूर्णि में नहीं है। ऐसी गाथाओं को जिनदास चूर्णि एवं हारिभद्रीय टीका के आधार पर नियुक्ति-गाथा के कम में रखा है। जैसे गा. २६-३० इन पांच गाथाओं के बारे में अगस्त्यसिंह चूर्णि में कोई उल्लेख नहीं है लेकिन आचार्य जिनदास ने 'अज्झप्पस्साणयणं गाहाओ पंच भाणियव्वाओं का उल्लेख किया है। १०. कहीं-कहीं अन्य नियुक्तियों की भाषा-शैली के आधार पर भी नियुक्ति-गाथा का निर्धारण किया है। जैसे दशवैकालिकनियुक्ति की २४ वी गाथा चूर्णि में उपलब्ध होने पर भी मुनि पुण्यविजयजी ने इसे उपसंहारात्मक एवं संपूर्ति रूप मानकर नियुक्ति-गाथा के क्रम में नहीं रखा है लेकिन हमने उत्तराध्ययन नियुक्ति (गा.२७) की भाषा-शैली के आधार पर इसे नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है। ११. दशवैकालिकनियुक्ति की ३३ वीं गाथा अगस्त्यसिंह चूर्णि में नियुक्ति के क्रम में नहीं है। पंडित दलसुखभाई मालवणिया का अभिमत है कि चूर्णि में पुष्प के एकार्थक शब्दों के आधार पर हरिभद्र ने इसे पद्यबद्ध कर दिया। पर यह संभव नहीं लगता क्योंकि यदि वे स्वयं इस गाथा को बनाते तो 'पुष्पैकार्थिकप्रतिपादनायाह' ऐसा उल्लेख नहीं करते। इसके नियुक्ति-गाथा होने का दूसरा हेतु यह भी है कि प्रथम अध्ययन का नाम दुमपुफियं है अत: द्रुम शब्द के एकार्थक के पश्चात् पुष्प के एकार्थक यहां प्रासंगिक हैं। सभी हस्तप्रतियों में भी यह गाथा मिलती है। १२. टीकाकार ने जिस गाथा को भिन्नकर्तृकी के रूप में स्वीकार किया है, उसे भी विषय की संबद्धता एवं चूर्णि के आधार पर नियुक्ति-गाथा के क्रम में रखा है, जैसे दशनि गा. १०५ । १३. कहीं-कहीं एक ही कथा का भाव पुनरुक्ति के साथ दो गाथाओं में मिलता है। वहां यह संभव लगता है कि चूर्णि की कथा के आधार पर कथा की स्पष्टता के लिए बाद में गाथा जोड़ दी गयी क्योंकि Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ निर्युक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण ५७ नियुक्तिकार कथा का संकेत मात्र करते हैं । जैसे – दशनि १६३ / १ गाथा में उल्लिखित कथा को १६४ वगाथा से भी समझा जा सकता है । चूर्णि में भी १६३/१ गाथा का संकेत नहीं है अत: हमने इसे निर्युक्ति-‍ - गाथा के क्रम में नहीं जोड़ा है । अनेक स्थलों पर पुनरुक्ति के आधार पर भी गाथा का निर्धारण किया गया है । गा. ४७/१ में प्रतिपादित विषय की पुनरुक्ति अगली गाथाओं में हुई है। दोनों चूर्णियों में भी इस गाथा का संकेत नहीं है अत: हमने इसे नियुक्ति - गाथा के क्रम में नहीं रखा। १४. दशवैकालिक की प्रथम चूलिका की चूर्णि में दो गाथाएं ( ३३७, ३३८) मिलती हैं किन्तु टीका में उसके स्थान पर एक ही गाथा मिलती है । व्याख्या की दृष्टि से टीकाकार ने चूर्णि में आई गाथाओं की ही व्याख्या की है अतः हमने चूर्णि के आधार पर टीका वाली गाथा को पादटिप्पण में देकर उसे निर्युक्ति क्रम में संलग्न नहीं किया है 1 १५. उत्तराध्ययननिर्युक्ति में कथाओं के विस्तार वाली गाथाओं का प्रायः चूर्णि में संकेत नहीं है। अधिक संभव लगता है कि वे गाथाएं कथा को स्पष्ट करने के लिए बाद में जोड़ी गयी हों । लेकिन हमने कथानक की सुरक्षा एवं ऐतिहासिक दृष्टि से उन गाथाओं को नियुक्ति - गाथा के क्रम में जोड़ा है, जैसेउनि ३५६-६६। इसी प्रकार आषाढभूति की कथा ( उनि १२४ - ४१) में १८ गाथाएं स्पष्टतया बाद में जोड़ी गयी प्रतीत होती हैं क्योंकि २२ परीषहों की प्राय: कथाएं १ या २ गाथाओं में निर्दिष्ट हैं । ये गाथाएं भाषा-शैली एवं छंद की दृष्टि से भी अतिरिक्त प्रतीत होती हैं। लेकिन हमने इनको नियुक्ति ग - गाथा के क्रमांक में जोड़ा है। १६. कुछ गाथाएं प्रकाशित टीका में निगा के क्रम में होने के बावजूद स्पष्ट रूप से प्रक्षिप्त लगती हैं। जैसे पांचालराज नग्गति इंद्रकेतु को देखकर प्रतिबुद्ध हुए लेकिन उनके बारे में चन्द्रमा की हानि - वृद्धि तथा महानदी की पूर्णता और रिक्तता का उदाहरण बताने वाली गाथा टीका में मिलती है। संभव है कि अनित्यता को दर्शाने वाली यह गाथा बाद में जोड़ी गयी हो, देखें उनि २६२ / १ । उसी प्रकार उनि गा. ४७८/१,२ ये दोनों गाथाएं भी आवश्यकनिर्युक्ति या उत्तराध्ययन सूत्र से लिपिकारों या अन्य आचार्यों द्वारा बाद में जोड़ी गयी हैं । १७. कहीं-कहीं संग्रह गाथाओं को भी नियुक्तिकार ने अपने ग्रंथ का अंग बना लिया है। भगवती एवं पण्णवणा आदि ग्रंथों की कुछ संग्रहणी गाथाओं का नियुक्तियों में समावेश है। उन गाथाओं को हमने नियुक्ति - गाथा के क्रम में संलग्न किया है, जैसे – उनि गा. ४१९-२१ । १८. कहीं-कहीं प्रसंगवश अतिरिक्त गाथाएं भी नियुक्ति का अंग बन गयी हैं। जैसे—अचेल परीषह के अंतर्गत आर्यरक्षित की कथा में उनि गा. ९५, ९६ अप्रासंगिक या बाद में प्रक्षिप्त सी लगती हैं। चूर्णि और टीका में इन दोनों गाथाओं से संबन्धित कथा का उल्लेख नहीं है। ये गाथाएं दनि गा. ९५, ९६ की संवादी हैं । इन गाथाओं से संबंधित कथाएं निशीथ चूर्णि में विस्तार से मिलती हैं। १९. उत्तराध्ययन के अकाममरणीय अध्ययन की नियुक्ति में २०३ से २२७ तक की गाथाएं प्रक्षिप्त अथवा बाद के किसी आचार्य द्वारा रचित होनी चाहिए क्योंकि आगे के अध्ययनों में नियुक्तिकार ने किसी Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ नियुक्तिपंचक भी विषय की इतनी विस्तृत व्याख्या नहीं की है तथा गाथा २१९ में २२८ वी गाथा के विषय का ही पुनरावर्तन हुआ है। २०. मंगलाचरण की कुछ गाथाएं बाद के आचार्यों द्वारा जोड़ी गयी प्रतीत होती हैं। इसका प्रमाण है आचारांगनियुक्ति की प्रथम मंगलाचरण की गाथा। यह गाथा केवल टीका एवं हस्तप्रतियों में मिलती है। चूर्णिकार ने इस गाथा का न कोई संकेत दिया है और न ही व्याख्या प्रस्तुत की है। तीसरी गाथा के बारे में चूर्णिकार ने 'एसा बितियगाहा' का उल्लेख किया है। वैसे भी मंगलाचरण की परम्परा बहुत बाद की है अत: बहत संभव है कि यह गाथा बाद के आचार्यों या द्वितीय भद्रबाह द्वारा जोडी गयी हो। लेकिन वर्तमान में यह गाथा नियुक्ति के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी है अत: हमने इसको नियुक्ति-गाथा के क्रम में जोड़ा है। २१. आचारांगनियुक्ति की अनेक गाथाओं का चूर्णि में कोई संकेत एवं व्याख्या नहीं है क्योंकि वह संक्षिप्त शैली में लिखी गयी है अत: अनेक स्थानों पर ‘णवगाहा कंठ्या' अथवा 'निज्जुत्तिगाहाओ पढियसिद्धाओ' मात्र इतना ही उल्लेख है। इसलिए ऐसा अधिक संभव लगता है कि संक्षिप्तता के कारण चूर्णिकार ने अनेक सरल गाथाओं के न संकेत दिए और न व्याख्या ही की। पर हमने उनको नियुक्ति-गाथा के क्रम में रखा है। २२. उद्देशकाधिकार तथा अध्ययनगत विषय या शब्द की व्याख्या करने वाली गाथाओं के क्रम में कहीं-कहीं चूर्णि एवं टीका में कम-व्यत्यय है। आचारांग एवं सूत्रकृतांग नियुक्ति के अंतर्गत चूर्णि में पहले उद्देशकों की विषय-वस्तु निरूपण करने वाली गाथाएं हैं तथा बाद में अध्ययन से संबंधित गाथाएं हैं। टीका में इससे उल्टा कम मिलता है। औचित्य की दृष्टि से हमने चूर्णि का क्रम स्वीकृत किया है, देखें सूनि गा. २९-३२ तथा ३६-४१ । ऐसा अधिक संभव लगता है कि टीकाकार ने व्याख्या की सुविधा के लिए क्रम-व्यत्यय कर दिया हो। आचारांगनियुक्ति में एक स्थल पर टीका का क्रम स्वीकार किया है लेकिन वहां भी चूर्णि का क्रम सम्यग् लगता है, देखें आनि गा. ३२९-३५ । गाथाओं के क्रम-व्यत्यय वाले स्थल में विषय की संबद्धता के आधार पर भी गाथा के क्रम का निर्धारण किया है, जैसे—आनि २९७ का संकेत चूर्णि में गा. ३०३ के बाद है पर औचित्य की दृष्टि से टीका और हस्तप्रतियों का क्रम ठीक प्रतीत हुआ अत: हमने उसी क्रम को स्वीकृत किया है। २३. आचारांगनिर्यक्ति की गा. १९७ को हमने नियुक्ति के मल क्रमांक में जोडा है पर वस्तत: यह बाद में उपसंहार रूप में किसी आचार्य द्वारा प्रक्षिप्त की गयी है। इसका कारण यह है कि १९७ वीं गाथा में द्वितीय अध्ययन के उद्देशकों की विषय-वस्तु का वर्णन है जबकि उद्देशकों की विषय-वस्तु का वर्णन तो आनि गा. १७३ में पहले ही किया जा चुका है अत: यह पुनरुक्त सी प्रतीत होती है। टीकाकार ने इस गाथा के लिए नियुक्तिकारो गाथयाचष्टे' का उल्लेख किया है अत: हमने इसे नियुक्ति-गाथा के क्रम में रखा है। आचारांगनियुक्ति में २२८ से २३५ तक की गाथाएं भी बाद में जोड़ी गयी प्रतीत होती हैं क्योंकि गा. २२७ के अंतिम चरण में स्पष्ट उल्लेख है कि 'सम्मत्तस्सेस निज्जुत्ती' अर्थात् यह सम्यक्त्व अध्ययन की नियुक्ति है। ऐसा उल्लेख करने के पश्चात् कथापरक इन सात गाथाओं का उल्लेख अप्रासंगिक सा Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण लगता है। कथा से संबंधित इन गाथाओं को नहीं रखने से विषय-वस्तु की दृष्टि से कोई अंतर नहीं आता। चूर्णि में भी ये गाथाएं निर्दिष्ट एवं व्याख्यात नहीं हैं। ___ आचारांगनियुक्ति गा. २७९ भी बाद में किसी आचार्य या लिपिकार द्वारा प्रसंगवश जोड़ दी गयी प्रतीत होती है। चालू प्रसंग में मोक्ष का वर्णन है अत: बंध का स्वरूप प्रकट करने वाली यह गाथा स्मृति के लिए आदर्शों में लिखी गयी होगी, जो कालान्तर में हस्त-आदर्शों में मूल के साथ जुड़ गयी। इस गाथा को नियुक्ति के कमांक में न जोड़ने पर भी चालू विषय-वस्तु में कोई व्यवधान नहीं आता। इस गाथा का चूर्णि और टीका दोनों व्याख्या ग्रंथों में उल्लेख नहीं है। ३१८-२० तक की तीन गाथाएं भी भाषा-शैली की दृष्टि से भिन्न प्रतीत होती हैं अत: बाद में प्रक्षिप्त होनी चाहिए। इसी प्रकार सूत्रकृतांगनियुक्ति गा. १५२ को यद्यपि हमने नियुक्ति-गाथा के कमांक में जोड़ा है लेकिन ये बाद में प्रक्षिप्त प्रतीत होती हैं क्योंकि टीका में यह मूल क्रमांक में न होकर टिप्पण में दी गई है। इसके अतिरिक्त यह गा. १४७ की संवादी है अत: पुनरुक्त सी प्रतीत होती है। २४. सूत्रकृतांगनियुक्ति में ११-१३ ये तीन गाथाएं प्रकाशित चूर्णि में उद्धृत गाथा के रूप में हैं लेकिन ये नियुक्तिगाथाएं होनी चाहिए क्योंकि दसवीं गाथा के उत्तरार्ध में 'ओहेण नामतो पुण भवंति एक्कारसक्करणा' का उल्लेख है अत: ग्यारह करणों के नामोल्लेख वाली ये तीनों गाथाएं नियुक्ति की होनी चाहिए। दूसरा विकल्प यह भी संभव है कि करण के प्रसंग में उत्तराध्ययननियुक्ति में ये गाथाएं आ चुकी हैं अत: पुनरुक्ति भय से इन गाथाओं को सूत्रकृतांगनियुक्ति में सम्मिलित न किया हो। २५. प्रकाशित चूर्णि में कहीं-कहीं गाथा की व्याख्या एवं गाथा-संख्या मिलती है पर मिलती। संपादक मुनि पुण्यविजयजी ने गाथा न होने पर भी व्याख्या के आधार पर गाथा-संख्या का क्रमांक लगा दिया है। टीका और आदर्श में गाथा न मिलने के कारण ऐसे संदर्भो में हमने गाथा का क्रमांक नहीं लगाया है,देखें सूनि गा. २२ का टिप्पण। २६. सूनि गा. १६३-६५ तक की तीन गाथाएं भी बहुत संभव है कि बाद में जोड़ी गयी हों क्योंकि मूल कथ्य गा. १६२ में आ गया है। लेकिन टीकाकार ने इन गाथाओं के लिए नियुक्तिकृद्दर्शयितुमाह का उल्लेख किया है। इस उल्लेख से स्पष्ट है कि उनके समय तक ये गाथाएं नियुक्ति-गाथा के रूप में प्रसिद्धि पा चुकी थीं। वर्तमान में ये नियुक्ति का अंग बन गयी हैं अत: हमने इनको नियुक्ति-गाथा के कम में जोड़ दिया है। २७. दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति के पज्जोसवणाकप्प की नियुक्ति का पूरा प्रकरण निशीथभाष्य में भी मिलता है। निशीथभाष्य में कहीं-कहीं बीच में अतिरिक्त गाथाएं भी हैं। दनि गा. ८८ का संकेत चूर्णि में न होने पर भी व्याख्या उपलब्ध है। हस्तप्रतियों में भी यह गाथा नहीं है परन्तु भाषा-शैली एवं विषय-वस्तु से संबद्ध होने के कारण निशीथभाष्य (३१७५) में प्राप्त इस गाथा को हमने नियुक्ति के कमांक में जोड़ा है। संभव है लिपिकारों द्वारा मूल प्रति में किसी कारणवश इसका संकेत छूट गया हो। कुछ अतिरिक्त गाथाएं,जो हमें चालू क्रम में विषय-वस्तु के प्रतिकूल या व्याख्यापरक लगीं, उनको १. मुनि पुण्यविजय की संपादित चूर्णि में २० का कमांक है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० नियुक्तिपंचक हमने नियुक्ति के क्रम में नहीं जोड़ा है, जैसे—दनि ८२/१ (निभा ३१६९), १०४/१ (निभा ३१९२)। यद्यपि गाथा-संख्या का निर्धारण पाठ-संपादन से भी जटिल कार्य है किन्तु हमने कुछ बिंदुओं के आधार पर गाथाओं के पौर्वापर्य एवं उनके प्रक्षेप के बारे में विमर्श प्रस्तुत किया है। भविष्य में इस दिशा में चिंतन की दिशाएं खुली हैं, इस संदर्भ में और भी चिंतन किया जा सकता है। नियुक्ति में निक्षेप-पद्धति निक्षेप व्याख्यान—अर्थ-निर्धारण की एक विशिष्ट पद्धति रही है। न्यास और स्थापना इसके पर्यायवाची शब्द हैं। निक्षेप शब्द का निरुक्त करते हुए जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण कहते हैं कि शब्द में नियत एवं निश्चित अर्थ का न्यास करना निक्षेप है। जीतकल्पभाष्य के अनुसार जिस वचन-पद्धति में अधिक क्षेप/विकल्प हों, वह निक्षेप है। अनुयोगद्वारचूर्णि में अर्थ की भिन्नता के विज्ञान को निक्षेप कहा है। धवलाकार के अनुसार संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय में स्थित वस्तु को उनसे हटाकर निश्चय में स्थापित करना निक्षेप है। आचार्य तुलसी ने शब्दों में विशेषण के द्वारा प्रतिनियत अर्थ का प्रतिपादन करने की शक्ति निहित करने को निक्षेप कहा है। भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में निक्षेप जैन आचार्यों की मौलिक देन है। पांडित्य प्रदर्शित करने का यह महत्त्वपूर्ण उपक्रम रहा है। इस पद्धति से गुरु अपने शिक्षण को अधिक समृद्ध बनाता है। वह शब्दों का अर्थों में तथा अर्थों का शब्दों में न्यास करता है अत: किसी भी वाक्य या शब्द का अर्थ करते समय वक्ता का अभिप्राय क्या है तथा कौन-सा अर्थ किस परिस्थिति में संगत है, यह निश्चय करने में निक्षेप की उपयोगिता है। निक्षेप के बिना व्यवहार की सम्यग् योजना नहीं हो सकती क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनंत पर्यायात्मक है। उन अनंत पर्यायों को जानने के लिए शब्द बहुत सीमित हैं। एक शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है अत: पाठक या श्रोता विवक्षित अर्थ को पकड़ नहीं पाता। अनिर्णय की इस स्थिति का निराकरण निक्षेप-पद्धति के द्वारा किया जा सकता है। निक्षेपों के माध्यम से यह ज्ञान किया जा सकता है कि अमुक-अमुक शब्द उस समय किन-किन अर्थों में प्रयक्त होता था। जैसे समाधि शब्द का अर्थ आज चित्तसमाधि या प्रसन्नता के लिए किया जाता है लेकिन सूत्रकृतांग नियुक्ति में किए गए निक्षेपों के माध्यम से विविध संदर्भो में समाधि के विभिन्न अर्थों को समझा जा सकता है। जैसे मनोहर शब्द आदि पांच विषयों की प्राप्ति होने पर जो इंद्रियों की तुष्टि होती, उसे समाधि कहा जाता था। परस्पर अविरुद्ध दो या अधिक द्रव्यों के सम्मिश्रण से जो रस की पुष्टि होती, उसे भी समाधि कहा जाता था। जिस द्रव्य के खाने या पीने से शक्ति या सुख प्राप्त होता,उसे समाधि शब्द से अभिहित किया जाता था। तराजू के ऊपर जिस वस्तु को चढ़ाने से दोनों पलड़े समान हों, उसे भी समाधि की संज्ञा दी जाती थी। जिस क्षेत्र अथवा काल में रहने से चित्त को शांति मिलती उसे समाधि कहा जाता तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप में स्थिति को भी समाधि कहा जाता था। १. विभा ९१२। निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः।। २. जीतभा ८०९; खिव पेरणे तु भणितो अहिउक्खेवो तु निक्खेवो। ५. जैनसिद्धान्तदीपिका १०/४;शब्देषु विशेषण३. अनुद्वाचू: निक्खेवो अत्थभेदन्यास। बलेन प्रतिनियतार्थप्रतिपादनशक्तेनिक्षेपणं ४. धवला; संशयविपर्यय अनध्यवसाये वा स्थितस्तेभ्योऽपसार्य निक्षेपः। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण इस प्रकार समाधि शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता था। कहा जा सकता है कि निक्षेपों के माध्यम से हम उस शब्द का इतिहास जान सकते हैं। धवला में निक्षेप की उपयोगिता के चार कोण बताए हैं १. पर्यायार्थिक दृष्टि वाला अव्युत्पन्न श्रोता है तो अप्रकृत अर्थ का निराकरण करने के लिए निक्षेप करना चाहिए। २. द्रव्यार्थिक दृष्टि वाले श्रोता के लिए प्रकृत अर्थ का निरूपण करने के लिए निक्षेप करना चाहिए। ३. व्युत्पन्न होने पर भी यदि संदिग्ध है तो उसके संदेह का निराकरण करने के लिए निक्षेप करना चाहिए। ४. यदि श्रोता विपर्यस्त है, तो तत्त्वार्थ-विनिश्चय के लिए निक्षेप करना चाहिए। निक्षेप वस्तुत: अनुयोग का ही एक प्रकार है, जिसके अंतर्गत उपक्रम, अनुगम और नय का भी समावेश किया गया है। उपोद्घातनियुक्ति में १२ प्रकार से किसी भी विषय की व्याख्या की जाती है, उसमें निक्षेप को प्रथम स्थान प्राप्त है। यद्यपि निक्षेप अतिप्राचीन व्याख्या पद्धति है क्योंकि भगवती जैसे आगम ग्रंथ में इस पद्धति का उपयोग हुआ है पर नियुक्तिकार ने शाब्दिक ज्ञान कराने हेतु इस पद्धति का बहुलता से उपयोग किया है। एक ही प्राकृत शब्द के कई संस्कृत रूप संभव हैं अत: निक्षेप-पद्धति के द्वारा नियुक्तिकार उस शब्द के सभी अप्रासंगिक अर्थों का ज्ञान कराकर प्रासंगिक अर्थ का ज्ञान कराते सामान्यतया आवश्यकता के अनुसार अनेक निक्षेप किए जा सकते हैं लेकिन इसके चार भेद प्रसिद्ध हैं—१. नाम २. स्थापना ३. द्रव्य ४. भाव । अनुयोगद्वार में मुख्यत: चार प्रकार के निक्षेपों की चर्चा है पर नियुक्ति-साहित्य में उत्तर, समय, स्थान आदि शब्दों के उत्कृष्टत: १५ निक्षेप भी किए गए हैं। शान्त्याचार्य के अनुसार इन चार निक्षेपों में सभी निक्षेपों का समावेश हो जाता है। इनसे अधिक निक्षेप करने के दो प्रयोजन हैं १. शिक्षार्थी की बुद्धि को व्युत्पन्न करना। २. सब वस्तुओं के सामान्य-विशेष और उभयात्मक अर्थ का प्रतिपादन करना। चार निक्षेपों में प्रथम दो-नाम और स्थापना का उपयोग एवं व्याख्या बहुत सीमित है किन्तु द्रव्य और भाव निक्षेप की विस्तृत व्याख्या मिलती है। सामान्यतया शब्द किसी व्यक्ति या वस्तु का वाचक होता है। शब्द के इस स्वरूप को प्रकट करने के लिए ही नाम निक्षेप की कल्पना की गयी। नाम निक्षेप जाति, गुण, द्रव्य और किया से निरपेक्ष होता है। यह निक्षेप शुद्ध भाषात्मक पक्ष है। कल्पना के माध्यम से किसी आकार में वस्तु का आरोप करना स्थापना निक्षेप है। ये दोनों निक्षेप वास्तविक अर्थ से शून्य होते हैं। वस्तु की त्रैकालिक स्थिति को प्रकट करने वाला द्रव्य निक्षेप है अत: इसकी परिधि बहत व्यापक है। भाव निक्षेप जैन साधना-पद्धति का १. धवला १/१, १, १/३०,३१; अवगतनिवारणटुं, पयदस्स परूवणानिमित्तं च । संसयविणासणटुं, तच्चत्थवधारणटुं च।। २. बृभा १४९; निक्खेवेगट्ठ-निरुत्त-विहि-पवित्ती य केण वा कस्स । तद्दार-भेय-लक्खण, तदरिहपरिसा य सुत्तत्थो।। ३. आनि ४; जत्थ य ज जाणेज्जा, निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थ वि य ण जाणेज्जा, चउक्कगं निक्खिवे तत्थ।। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक बोधक है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप का बोध इसी के द्वारा होता है। कोई भी शब्द या ज्ञान तब तक केवल द्रव्य तक सीमित है, जब तक उसमें उपयोग की चेतना या तन्मयता नहीं जुड़ती। भाव निक्षेप में भाषा और भाव की संगति होती है। संसार का सारा व्यवहार निक्षेप-पद्धति से चलता है। बच्चा जब जन्म लेता है,तब वह केवल नाम निक्षेप के जगत् में जीता है। थोड़ा बड़ा होने पर वह उसमें कल्पना द्वारा किसी वस्तु की स्थापना करता है, जैसे--प्लास्टिक की गुड़िया में मां या बहिन की स्थापना। धीरे-धीरे वह त्रैकालिक ज्ञान करने में सक्षम हो जाता है और बाद में बुद्धि की सूक्ष्मता और समझ विकसित होने पर वह भावनिक्षेप द्वारा व्यवहार चलाता है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने पर्याय के आधार पर नाम आदि चार निक्षेपों की एक ही वस्तु में अवस्थिति स्वीकार की है। अर्थात् वस्तु का अपना अभिधान नाम निक्षेप है। वस्तु का आकार स्थापना निक्षेप है। वस्तु भूत और भावी पर्याय का कारण है अत: वह द्रव्य निक्षेप है। कार्य रूप में विद्यमान वस्तु भावनिक्षेप है। निक्षेप अनेकान्त का व्यावहारिक प्रयोग है, जैसे अतीत में कोई धनी था, उसे वर्तमान में भी सेठ कहा जाता है, यह असत्य बात हो सकती है लेकिन द्रव्य निक्षेप द्वारा यह भी संभव है। निक्षेप न्याय शास्त्र तथा भाषा-विज्ञान के अंतर्गत अर्थ विकासविज्ञान (सेमेनेटिक्स) का महत्त्वपूर्ण अंग है। नियुक्तिकार ने ही अपनी व्याख्या-पद्धति में इसे अपनाया, परवर्ती व्याख्याकारों ने इस पर इतना ध्यान क्यों नहीं दिया, यह एक खोज का विषय है। अनुयोगद्वार के कर्ता आर्यरक्षित नियुक्ति की निक्षेप-पद्धति से प्रभावित रहे हैं, यह स्पष्ट है। कुछ विद्वान् अनुयोगद्वार को नियुक्ति से पूर्व की रचना मानते हैं। नियुक्ति-साहित्य के अंतर्गत निक्षेप-पद्धति के बारे में यह एक चिंतन का विषय है कि प्राय: शब्दों का एक समान निक्षेप करने से क्या नियुक्ति की महत्ता कम नहीं हुई? जैसे उत्तराध्ययननियुक्ति में प्राय: सभी अध्ययनों के प्रारम्भ में निक्षेपपरक दो-तीन गाथाएं हैं, जो सभी अध्ययनों की समान हैं। इन गाथाओं के स्थान पर यदि मूलसूत्र के महत्त्वपूर्ण शब्दों या विषयों की व्याख्या होती तो इसका महत्त्व और अधिक बढ़ जाता। गहराई से विमर्श करने पर प्रतीत होता है कि यह व्याख्या की विशिष्ट एवं वैज्ञानिक पद्धति रही। शब्द का सर्वांगीण ज्ञान कराने हेतु इसका प्रयोग किया जाता था, जिससे मंदबुद्धि शिष्य भी शब्द एवं अर्थ का सर्वतोमुखी ज्ञान करने में सक्षम हो सके। नियुक्तिकार ने निक्षेप के माध्यम से तात्कालीन सभ्यता, संस्कृति एवं परम्पराओं का भी निर्देश किया है जैसे सुत्त—सूत्र शब्द के निक्षेप में उस समय होने वाले अण्डज, पोंडज आदि विविध सूत्रों का ज्ञान कराया है। ब्रह्म शब्द के निक्षेप में स्थापना ब्रह्म के अंतर्गत उस समय की प्रचलित अनेक वर्ण एवं वर्णान्तर जातियों का उल्लेख है। इसी प्रकार कर्म, गुण, समय, अग्र, अंग, संयोग, धर्म, स्थान, करण आदि शब्दों के निक्षेप अनेक नई जानकारियां प्रस्तुत करते हैं। निक्षेप पद्धति से नियुक्तिकार ने केवल शब्द १. विभा ७३; जं वत्थुमत्थि लोए, चउपज्जायं तयं सव्वं । २. विभा ६०; अहवा वत्थुभिहाणं, णाम ठवणा य जो तदागारो। कारणया से दव्वं, कज्जावन्नं तयं भावो ।। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवक्षण और अर्थ के बीच होने वाली विसंगति का ही निराकरण नहीं किया बल्कि निक्षेपों के भेद-प्रभेदों से एक शब्दकोश भी तैयार कर दिया है। नियुक्ति-साहित्य से यदि निक्षिप्त गाथाओं को निकाल दिया जाए तो पीछे आधा भाग भी नहीं बचेगा। यदि नियुक्ति-साहित्य के निक्षिप्त शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत की जाए तो एक बृहद् शोधग्रंथ प्रस्तुत किया जा सकता है। यहां हम केवल वीर्य, सम्यक् और शुद्धि—इन तीन शब्दों की निक्षेपपरक संक्षिप्त व्याख्या प्रस्तुत कर रहे हैं वीर्य नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र ___ काल भाव सचित्त अचित्त मिश्र द्विपद चतुष्पद अपद आहारवीर्य आवरणवीर्य प्रहरणवीर्य रसवीर्य विपाकवीर्य क्षेत्रवीर्य-- जिस क्षेत्र की जो शक्ति होती है, वह क्षेत्रवीर्य कहलाती है। अथवा जिस क्षेत्र में वीर्य की व्याख्या की जाती है, वह भी क्षेत्रवीर्य है। जैसे देवकुरु आदि क्षेत्र में सभी पदार्थ उस क्षेत्र के प्रभाव से उत्तम वीर्य वाले होते हैं। अथवा दुर्ग आदि विशिष्ट क्षेत्र में वीर्य अत्यधिक उल्लसित होता है, वह क्षेत्रवीर्य है। कालवीर्य—जिस काल में जो शक्ति होती है, वह कालवीर्य है। जैसे एकान्त सुषमा-प्रथम आरा कालवीर्य है। विभिन्न ऋतुओं में विभिन्न द्रव्यों की विशिष्ट शक्ति होती है। उदाहरणार्थ वैद्यक शास्त्र में कहा गया है-वर्षाकाल में लवण, शरद में जल, हेमन्त में गाय का दूध, शिशिर में आंवले का रस, बसन्त में घी और ग्रीष्म में गुड़ अमृत के समान है। इसी प्रकार हरीतकी हरड़ के भी काल के साथ विविध प्रयोग हैं। ग्रीष्म ऋतु में हरडे के साथ बराबर गुड, वर्षाकाल में नमक, शरद् ऋतु में शक्कर, हेमन्त में सोंठ, शिशिर में पीपल तथा बसन्त ऋतु में मधु का सेवन करने से पुरुषों के समस्त रोग दूर हो जाते हैं। भाववीर्य-वीर्यशक्ति वाले जीव में वीर्य संबंधी अनेक लब्धियां होती हैं। भाववीर्य के मुख्यत: तीन प्रकार हैं—१. शारीरिक बल २. इंद्रिय बल ३. आध्यात्मिक बल। शारीरिक बल-इसके अंतर्गत मनोवीर्य, वाक्वीर्य, कायवीर्य और आनापानवीर्य आदि का समावेश होता है। यह संभव और संभाव्य—दो प्रकार का होता है। संभव वीर्य , जैसे--तीर्थकर और अनुत्तरविमान के देवों का मनोद्रव्य अत्यंत पटु और शक्तिशाली होता है। वचनबल में तीर्थंकरों की वाणी योजनगामिनी होती है तथा कायबल में चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव १. वीर्य की विस्तृत व्याख्या हेतु देखें—सूनि ९१-९७; सूचू १ पृ. १६३-६५, सूटी पृ. ११०-१२। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ नियुक्तिपंचक आदि का बल जानना चाहिए। संभाव्य वीर्य में आज जो ग्रहण करने में पटु नहीं है, उसकी बुद्धि का परिकर्म होने पर वह ग्रहण-पटु हो जाता है। इंद्रिय बल-पांच इंद्रियों का अपने-अपने विषय के ग्रहण का सामर्थ्य इंद्रिय-बल है। आध्यात्मिक बल—भावनात्मक चैतन्य जगाने वाले तत्त्व आध्यात्मिक वीर्य हैं। नियुक्तिकार के अनुसार आध्यात्मिक वीर्य के ९ प्रकार हैं, जो व्यक्तित्व-विकास के महत्त्वपूर्ण सूत्र हैंउद्यम वीर्य—ज्ञानोपार्जन एवं तपस्या आदि के अनुष्ठान में किया जाने वाला प्रयत्न। धृति वीर्य-संयम में स्थिरता, चित्त की उपशान्त अवस्था। धीरता वीर्य कष्टों को सहने की शक्ति । शौंडीर्य वीर्य-त्याग की उत्कट भावना, आपत्ति में अखिन्न रहना तथा विषम परिस्थिति में भी प्रसन्नता से कार्य को पूरा करना। क्षमा वीर्य—दूसरों द्वारा अपमानित होने पर भी सम रहना। गाम्भीर्य वीर्य-चामत्कारिक अनुष्ठान करके भी अहंभाव नहीं लाना। उपयोग वीर्य-चेतना का व्यापार करना। योग वीर्य—मन, वचन और काया की अकुशल प्रवृत्ति का निरोध तथा कुशल योग का प्रवर्तन । तपो वीर्य-बारह प्रकार के तप से स्वयं को भावित करना तथा सतरह प्रकार के संयम में रत रहना। नियुक्तिकार ने प्रकारान्तर से भाववीर्य के तीन भेद किए हैं—१. पंडितवीर्य २. बालवीर्य ३. बाल-पंडितवीर्य। अथवा अगारवीर्य और अनगारवीर्य ये दो भेद भी किए जा सकते हैं। ___ निशीथ पीठिका में पांच प्रकार के वीर्य का उल्लेख मिलता है—१. भववीर्य २. गुणवीर्य ३. चारित्रवीर्य ४. समाधिवीर्य ५. आत्मवीर्य । भववीर्य - चारों गतियों से संबंधित विशेष सामर्थ्य भववीर्य कहलाता है, जैसे—यंत्र, असि, कुंभी, चक, कंडु, भट्टी तथा शूल आदि से भेदे जाते हुए महावेदना के उदय में भी नारकी जीवों का अस्तित्व विलीन नहीं होता। अश्वों में दौड़ने की शक्ति तथा पशुओं में शीत, उष्ण आदि सहन करने का सहज सामर्थ्य होता है। मनुष्यों में सब प्रकार के चारित्र स्वीकार र करने का सामर्थ्य होता है। देवों में पांच पर्याप्तियां पूर्ण होते ही यथेप्सित रूप विकुर्वणा करने की शक्ति होती है। वज्र-प्रहार होने पर भयंकर वेदना की उदीरणा में भी उनका विलय नहीं होता, यह सारा भववीर्य है। गुणवीर्य - तिक्त, कट, कषाय, मधुर आदि औषधियों में जो रोगापनयन की शक्ति होती है, वह गुणवीर्य है। नियुक्तिकार के अनुसार इसे द्रव्यवीर्य के अंतर्गत रसवीर्य और विपाकवीर्य में रखा जा सकता है। चारित्रवीर्य—सम्पूर्ण कर्मक्षय करने का सामर्थ्य तथा क्षीरास्रव आदि लब्धि उत्पन्न करने की शक्ति । समाधिवीर्य—मन में ऐसी समाधि उत्पन्न करना, जिससे कैवल्य की उत्पत्ति हो अथवा सर्वार्थसिद्धि १. सूनि ९७ २. निभा ४७, चू. पृ. २६, २७। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण ६५ देवलोक में उत्पत्ति हो। इसके अतिरिक्त मन के अप्रशस्त समाधान से सातवीं नारकी का आयुष्य बंध करना भी समाधिवीर्य हैं । आत्मवीर्य आत्मवीर्य दो प्रकार का है-- १. वियोगात्मवीर्य २. अवियोगात्मवीर्य संसारी जीवों के मन आदि योग वियोगात्मवीर्य हैं। अवियोगात्मवीर्य उपयोग कहलाता है, वह असंख्य आत्म-प्रदेशों युक्त है । से प्रकारान्तर से निशीथ भाष्यकार ने वीर्य के पांच भेद किए हैं— १. बालवीर्य - असंयत का वीर्य । २. पंडितवीर्य - संयत का वीर्य, संयमवीर्य या पंडितवीर्य । ३. मिश्रवीर्य — श्रावक का वीर्य इसे संयमासंयम वीर्य भी कहते हैं । ४. करणवीर्य - उत्थान, कर्म, बल एवं शक्ति का प्रयोग करना अथवा मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति करना । ५. लब्धिवीर्य -जो संसारी जीव अपर्याप्तक अथवा खड़े रहने आदि की शक्ति से यक्त होते हैं, वह लब्धिवीर्य है । जैसे भगवान् महावीर ने त्रिशला की कुक्षि को एक देश से चलित कर दिया था। चूर्णिकार के अनुसार इन पांच प्रकार के वीर्य से सर्वानुपाती वीर्य ख्यापित होता है। निशीथभाष्य में वीर्य के जो भेद हैं, उनमें गुणवीर्य को छोड़कर शेष सभी भेद नियुक्तिकार द्वारा निर्दिष्ट भाववीर्य के अंतर्गत रखे जा सकते हैं । सम्यक् सम्यक् का अर्थ है सही लगना । सात कारणों से कोई भी चीज सम्यक् - अच्छी बनती है। किसी अपूर्व या विशिष्ट वस्तु का निर्माण, जैसे- रथ आदि का निर्माण । कृ संस्कृत -- जीर्ण-शीर्ण वस्तु को संस्कारित करना । संयुक्त — दो द्रव्यों का संयोग, जो मन के लिए प्रीतिकर हो, जैसे- - दूध और शर्करा का संयोग । प्रयुक्त - जिसका प्रयोग लाभ अथवा समाधि के लिए हो । त्यक्त - जिसको छोड़ना मानसिक प्रसन्नता का कारण हो, जैसे— शिर पर रखे भार को उतारना । भिन्न - जिन द्रव्यों का अलग होना मानसिक समाधि का हेतु हो, जैसे – दही का पात्र टूटने पर कौवे का प्रसन्न होना । छिन्न--- अतिरिक्त वस्तु को अलग करना, जैसे-अधिक मांस को काटना। ये सब शारीरिक या मानसिक समाधि के हेतु हों तो सम्यक् हैं, अन्यथा असम्यक् हैं। शुद्ध दर्शन के क्षेत्र में शौचवादी परम्परा का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । ज्ञाताधर्मकथा में इसकी विस्तृत चर्चा प्राप्त है। जैन दर्शन बाह्य शुद्धि को धर्म के साथ नहीं जोड़ता अतः भावशुद्धि को अधिक महत्त्व दिया गया है । दशवैकालिकनियुक्ति में निक्षेप के माध्यम से शुद्धि का व्यावहारिक और सैद्धान्तिक विवेचन किया है। वहां द्रव्यशुद्धि के तीन भेद हैं— १. निभा ४८, पीठिका पृ. २६, २७ । २. आनि २१८, टी. पृ. ११७ । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक १. तद्द्रव्य शुद्धि २. आदेशद्रव्य शुद्धि ३. प्राधान्यद्रव्य शुद्धि । जो वस्तु किसी अन्य द्रव्य से असंयुक्त रहकर शुद्ध रहती है, वह तद्रव्य शुद्धि है, जैसे--- दूध, दही आदि, इनमें दूसरी वस्तुओं का मिश्रण विकृति पैदा कर देता है। आदेशद्रव्य शुद्धि के दो प्रकार हैं— अन्य आदेशशुद्धि और अनन्य आदेशशुद्धि । शुद्ध कपड़े वाले व्यक्ति की शुद्धि अन्य आदेशद्रव्य शुद्धि है क्योंकि इसमें अन्य द्रव्य के साथ शुद्धि जुड़ी हुई है । जिसमें अन्य द्रव्य की अपेक्षा न हो, वह अनन्य आदेशद्रव्य शुद्धि है, जैसे शुद्ध दांतों वाला व्यक्ति । अपने-अपने अभिप्राय के अनुसार जिसको जो अनुकूल लगे, वह प्राधान्यद्रव्य शुद्धि है । प्रायः शुक्ल वर्ण, मधुर रस, सुरभि गंध और मृदु स्पर्श उत्कृष्ट और कमनीय माने जाते । इसी प्रकार भावशुद्धि के भी तद्रव्य शुद्धि आदि तीन भेद हैं । कहा जा सकता है कि निक्षेप-पद्धति के प्रयोग से नियुक्ति की शैली एवं अर्थ कथन में एक नयी गरिमा प्रकट हो गयी है । आगमिक भाषा में इसे विभज्यवादी शैली कहा जा सकता है। निर्युक्तिपंचक का रचना - वैशिष्ट्य 1 किसी भी शास्त्र की विशेषता उसकी भाषा-शैली, विषय-वस्तु तथा मौलिकता के आधार पर निर्धारित की जाती है। आगमों की मूल भाषा अर्धमागधी है पर नियुक्ति - साहित्य पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री दोनों का प्रभाव परिलक्षित होता है । निर्युक्ति की भाषा प्रायः सरल और सरस है पर कहींकहीं अत्यन्त संक्षिप्त शैली में होने के कारण इसकी भाषा जटिल हो गयी है । दार्शनिक विषयों के विवेचन में भी इसकी भाषा लाक्षणिक एवं गूढ बन गयी है अतः व्याख्या - साहित्य के बिना नियुक्तियों को समझना अत्यंत कठिन है। परवर्ती व्याख्याकारों ने मूल आगम के साथ नियुक्ति - गाथाओं की भी विस्तृत व्याख्या की है। प्राकृत भाषा में निबद्ध होने पर भी नियुक्तियों में संस्कृत से प्रभावित प्रयोग भी मिलते हैं— ददति गुरुराह अत एव ( दशनि ९७ / १ ) प्रसंगवश शब्दों के एकार्थक लिखना नियुक्तिकार का भाषागत वैशिष्ट्य है । अनेक महत्त्वपूर्ण एवं नए एकार्थकों का प्रयोग नियुक्ति - साहित्य में हुआ है, जो सामान्य कोश - साहित्य में नहीं मिलते। निर्युक्तिकार ने सूत्रगत अध्ययन के नाम पर भी एकार्थक लिखे हैं, जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं । द्रुमपुष्पिका के तेरह एकार्थक हैं ( दशनि ३४ ) । टीकाकार ने इनको एकार्थक माना है पर चूर्णिकार ने इनको अर्थाधिकार माना है क्योंकि इनमें मुनि की माधुकरी वृत्ति को विभिन्न दृष्टांतों से समझाया गया है। निर्युक्तिगत एकार्थकों का संकलन परिशिष्ट सं. ३ में कर दिया गया है । | विभिन्न भाषी शिष्यों को ध्यान में रखते हुए तथा शिष्यों की शब्द-संपदा बढ़ाने के लिए निर्युक्तिकार ने अनेक देशी शब्दों का प्रयोग किया । नियुक्तिपंचकगत देशी शब्दों का सार्थ संकलन हमने परिशिष्ट सं. ४ में कर दिया है । ६६ | सूक्तियों के प्रयोग से भाषा में सरसता और प्रभावकता उत्पन्न हो जाती है। नियुक्तिकार ने प्रसंगवश अनेक मार्मिक सूक्तियों का प्रयोग किया है, जिससे भाषा मार्मिक एवं व्यंजक हो गयी है षड्जीवनिकाय - वध के कारणों के प्रसंग में श्लोकार्ध कितनी मार्मिक सूक्ति के रूप में प्रकट हुआ --- सातं गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरेंति- अर्थात् अपने सुख की गवेषणा में व्यक्ति दूसरों को दु:ख पहुंचाता है। परिशिष्ट सं. ८ में निर्युक्तिगत सूक्तियों का संकलन किया गया है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण ६७ प्रसंगवश नियुक्तिकार ने व्याकरण संबंधी विमर्श भी प्रस्तुत किए हैं। अनेक स्थलों पर अवयवों का अर्थ-संकेत भी हुआ है। संक्षेप में सु और कु का अर्थ-बोध द्रष्टव्य है—सु त्ति पसंसा सुद्धे, कु त्ति दुगुंछा अपरिसुद्धे (सूनि८८)। इसी प्रकार 'अलं' अव्यय के तीन अर्थों का संकेत किया गया है—१. पर्याप्तिभाव-सामर्थ्य, २. अलंकृत करना ३. प्रतिषेध । पज्जत्तीभावे खलु, पढमो बितिओ भवे अलंकारे। ततिओ वि य पडिसेहे, अलसद्दो होइ नायब्यो ।।(सूनि २०३) इसी प्रकार 'सकार' निर्देश, प्रशंसा और अस्तिभाव-इन तीन अर्थों में प्रयुक्त है। • निद्देसपसंसाए अत्थीभावे य होति तु सकारो। (दशनि ३०६) नियुक्ति-साहित्य में अनेक नए अवयवों का प्रयोग भी हुआ है जैसे निश्चय अर्थ में र अवयव का प्रयोग। (दशनि १२३/१०) __भाषा की दृष्टि से अनेक स्थलों पर विभक्तिरहित तथा विभक्तिव्यत्यय के प्रयोग भी मिलते हैं। अलाक्षणिक मकार भी अनेक स्थलों पर प्रयुक्त है, जैसे—अक्खरसंजोगमादीओ (उनि ४५)। नियुक्तिकार ने चयनित एवं पारिभाषिक शब्दों की निक्षेप-पद्धति से विस्तृत एव सर्वांगीण व्याख्या प्रस्तुत की है। यह उनकी व्याख्या की एक विशिष्ट शैली रही है, जिसके माध्यम से शब्दों के अनेक अर्थ बताकर प्रस्तुत प्रकरण में उस शब्द का क्या अर्थ है, यह भी स्पष्ट किया है। पाश्चात्य विद्वान् एल्फ्सडोर्फ ने लिखा है कि जैन आचार्यों ने भारतीय वैदुष्य के क्षेत्र में निक्षेप-पद्धति का सबसे अधिक मौलिक योगदान दिया है। एक प्राकृत शब्द के अनेक संस्कृत रूपान्तरण संभव हैं। जैसे 'आसायणा' शब्द के संस्कृत रूप आसादना—प्राप्त करना और आशातना—गुरु के प्रति अविनय—ये दोनों बनते हैं। नियुक्तिकार ने इन दोनों की व्याख्या प्रस्तुत की है। इसी प्रकार शीत और उष्ण शब्द की व्याख्या भी अनेक कोणों से की गयी है। ऐसी व्याख्या किसी भी कोश-साहित्य में नहीं मिलती। नियुक्तिकार ने सूत्रगत प्रत्येक शब्द की व्याख्या या विमर्श प्रस्तुत न करके केवल कुछ विशिष्ट शब्दों की ही निक्षेपपरक व्याख्या प्रस्तुत की है। उत्तराध्ययन सूत्र में अनेक पारिभाषिक एवं विशिष्ट शब्द हैं पर नियुक्तिकार ने प्रथम गाथा के प्रथम शब्द 'संजोग' की लगभग चौंतीस गाथाओं में व्याख्या प्रस्तुत की है। नियुक्तिकार का यह शैलीगत वैशिष्ट्य है कि किसी भी विषय का विस्तृत वर्णन करने से पूर्व एक गाथा में प्रकृत विषयों का द्वार के रूप में निर्देश दे देते हैं, जिसे द्वारगाथा कहा जाता है। उसके बाद एक-एक द्वार की व्याख्या करते हैं। जैसे आनि गा. २ में ९ द्वारों का संकेत है। इन द्वारों की व्याख्या आगे ६० गाथाओं (आनि गा. ३-६२) में की गयी है। इसी प्रकार आनि गा. ६८ द्वारगाथा है, जिसमें ९ द्वार निर्दिष्ट हैं। इन द्वारों की आगे ३६ गाथाओं (आनि ६९-१०५) में व्याख्या की गयी है। उत्तराध्ययन नियुक्ति में २२ परीषहों से संबंधित कथाओं के संकेत दो अनुष्टुप् गाथाओं (उनि ८८, ८९) में दिए हैं। बाद में प्रत्येक कथा की विस्तृत जानकारी ५१ गाथाओं (उनि ९०-१४१) में दी गयी है। इसी प्रकार मरणविभक्ति अध्ययन की नियुक्ति (उनि २०३, २०४) में मरण के बारे में ९ द्वारों का संकेत है, जिसकी व्याख्या २५ गाथाओं (उनि २०५-२९) में हुई है। १. दनि १५-१९ । २. उनि ३०-६४। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ नियुक्तिपंचक नियुक्तिकार ने अनेक सूत्रगत अध्ययनों के अपर नामों का तथा कहीं-कहीं उन अध्ययनों के नामों की सार्थकता पर भी प्रकाश डाला है। जैसे सूत्रकृतांग के पन्द्रहवें अध्ययन का नाम यमकीय है। लेकिन नियुक्तिकार ने इस अध्ययन के आदानीय नाम की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहा है कि इस अध्ययन के श्लोकों में प्रथम श्लोक का अंतिम पद दूसरे श्लोक का आदि पद है इसलिए इस अध्ययन का अपर नाम आदानीय है। चूर्णिकार ने इस अध्ययन का नाम संकलिका तथा वृत्तिकार ने संकलिका और यमकीय—इन दो नामों का उल्लेख किया है। उपमाओं एवं उदाहरणों से विषय का स्पष्टीकरण नियुक्तिकार की शैलीगत विशेषता है। देश और काल के अनुरूप उपमाओं से यह साहित्य समृद्ध है, जिससे गंभीर विषय भी सरस, सरल एवं वेधक बन गए हैं। दशवैकालिक नियुक्ति में भिक्षु को अनेक उपमाओं से उपमित किया है। उसमें अधिकांश उपमाएं प्राणिजगत् से संबंधित हैं। नियुक्तिगत उपमाओं का संकलन परि. सं. ८ में समाविष्ट है। न्याय और दर्शन जैसे गहन विषय को सरलता से समझाने के लिए नियुक्तिकार ने अनेक कथाओं का प्रयोग किया है। कुछ कथाएं सामाजिक परिवेश को प्रस्तुत करने वाली हैं तो कुछ राज्य-व्यवस्था एवं राजनीति से संबंधित हैं। कुछ कथाएं साध्वाचार से संबंधित हैं तो कुछ लोक-व्यवहार के साथ जुड़ी हुई हैं। अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का संकेत भी नियुक्तिकार ने किया है। आषाढ़भूति की कथा को नियुक्तिकार ने रूपक के माध्यम से अभिव्यक्ति दी है। पृथ्वीकाय आदि स्थावरकायों ने कथा के माध्यम से अपने बारे में सुंदर अभिव्यक्ति दी है। आचारांग नियुक्ति की सकुंडलं वो वयणं न व त्ति—इस पाद की पूर्ति करने वाली कथा उस समय की सांस्कृतिक एवं धार्मिक स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डालती है। उत्तराध्ययन नियुक्ति की अनेक कथाएं कुछ परिवर्तन के साथ महाभारत और जातक कथा में भी मिलती हैंउत्तराध्ययननियुक्ति महाभारत जातक १. हरिकेशबल मातंग (सं. ४९७) २. चित्र-संभूत चित्त-संभूत (सं. ४९८) ३. भृगु पुरोहित शांति पर्व, अ. १७५, २७७ हस्तिपाल (सं. ५०९) ४. नमि-राजर्षि शांति पर्व, अ. १७८, २७६ महाजन (सं. ५३९) X महाभारत में जैसे अनेक स्थलों पर प्रश्नोत्तर के रूप में तत्त्व का निरूपण है, वैसे ही नियुक्तिकार ने अनेक स्थलों पर प्रश्नोत्तर शैली को अपनाया है। नियुक्ति में प्रश्न और उत्तर दोनों ही बहुत संक्षिप्त शैली में हैं। जैसे अंगाणं किं सारो, आयारो तस्स किं हवति सारो। अणुयोगत्थो सारो, तस्स वि य परूवणा सारो।। (आनि १६) १. सूनि १३३। २. सूचू १ पृ. २३८, सूटी पृ. १६८ । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.५ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण इस एक गाथा में तीन प्रश्नोत्तरों का समाहार हो गया है। माधुकरी भिक्षा के प्रसंग में दशवैकालिकनियुक्ति में भी अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तरों का समाहार है। उत्तराध्ययननियुक्ति गा. ६९ में नौ प्रश्नों का समाहार संक्षिप्त शैली का उदाहरण है। कहीं-कहीं नियुक्तिकार ने ऐसे सैद्धान्तिक प्रश्नों का संकलन किया है, जिनके उत्तर एक समान हों। आचारांगनियुक्ति में एक ही गाथा में चार प्रश्नों का समाहार है, पर उनके उत्तर एक समान हैं। जैसे • एक समय में पृथ्वीकाय से कितने जीवों का निष्क्रमण होता है? • एक समय में पृथ्वीकाय में कितने जीवों का प्रवेश होता है? • एक समय में पृथ्वीकाय में परिणत जीव कितने हैं? • उनकी कायस्थिति कितनी है? इन चारों प्रश्नों का उत्तर है—असंख्येय लोकाकाश प्रदेश परिमाण। कहीं-कहीं पहेली के रूप में भी प्रश्न उपस्थित किए गए हैं। नियुक्तिकार ने व्याख्या में संक्षेप और विस्तार-इन दोनों शैलियों को अपनाया है। एक ओर सूत्रकृतांग के 'वीरत्थुई' जैसे महत्त्वपूर्ण अध्ययन पर मात्र तीन नियुक्ति गाथाएं लिखी हैं तो दूसरी ओर उत्तराध्ययननियुक्ति में संजोग' शब्द पर लगभग ३४ गाथाएं हैं। अनेक स्थलों पर तो अत्यंत महत्त्वपूर्ण विषयों को बिना व्याख्यात किए ही छोड़ दिया है। जैसे—दशाश्रुतस्कंध में आचार विषयक अनेक महत्त्वपूर्ण विषय हैं, लेकिन इसकी नियुक्ति अत्यंत संक्षिप्त है। इसी प्रकार उत्तराध्ययन मूल सूत्र में करीब २००० गाथाएं हैं, जबकि उसकी नियुक्ति गाथाएं ५५४ ही हैं, जिनमें १०० से ऊपर गाथाएं केवल निक्षेपपरक हैं। सब अध्ययनों की निक्षेपपरक गाथाएं प्राय: एक समान हैं। प्रत्येक अध्ययन का एक ही भाषा में निक्षेप किसी मंदबुद्धि छात्र के लिए तो उपयोगी हो सकता है पर व्युत्पन्न छात्र के लिए इसकी कोई उपयोगिता प्रतीत नहीं होती। संक्षिप्त शैली के उदाहरण के रूप में निम्न गाथा को प्रस्तुत किया जा सकता है, जिसमें एक ही गाथा में चार दर्शनों का उल्लेख बहुत कुशलता से किया गया है अत्थि त्ति किरियवादी, वदंति नत्थि त्ति अकिरियवादी य। अण्णाणी अण्णाणं, विणइत्ता वेणइयवादी।।(सूनि ११८) नियुक्तियों की रचना-शैली लगभग एक समान है। नियुक्तिकार ने जिस ग्रंथ पर नियुक्ति लिखी है, उस ग्रंथ के नाम की सार्थकता और मूलस्रोत पर विचार करके उसके अध्ययनों की संख्या एवं उनके नाम प्रस्तुत किए हैं। उसके पश्चात् समस्त ग्रंथ के अध्ययनों का संक्षिप्त विषयानुक्रम सूचित किया है। फिर प्रत्येक अध्ययन के नामगत शब्दों की व्याख्या करके अध्ययनगत महत्त्वपूर्ण शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत की है। मूलत: नियुक्तिकार ने अध्ययनगत नाम के शब्दों की व्याख्या अधिक की है, जैसेदशवैकालिकनियुक्ति में प्रथम एवं द्वितीय अध्ययन के अलावा अध्ययन के नामगत शब्दों की ही व्याख्या अधिक है। मूलसूत्र की गाथा में आए शब्दों की व्याख्या कम है। दशवैकालिक के छठे अध्ययन का मूल नाम 'महायारकहा' प्रसिद्ध है लेकिन इसका दूसरा नाम 'धम्मत्थकाम' भी मिलता है। नियुक्तिकार ने १. दशनि ९४-१०४। २. आनि ९०। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० नियुक्तिपंचक धर्म, अर्थ और काम की व्याख्या बाईस गाथाओं में की है तथा अंत में धर्मार्थकाम को मुनि का विशेषण बताते हुए कहा है कि धर्म का फल मोक्ष है। साधु मोक्ष की कामना करते हैं अत: वे धर्मार्थकाम कहलाते आचार विषयक ग्रंथ होने के कारण नियुक्ति साहित्य में काव्य की भांति अलंकारों का प्रयोग नहीं है। फिर भी स्वाभाविक रूप से शब्दालंकार और अर्थालंकार-इन दोनों अलंकारों का प्रयोग नियुक्तियों में देखने को मिलता है। अन्त्यानुप्रास के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं • तण्हाइओ अपीओ (उनि ९१)। • जलमाल कद्दमालं (सूनि १६२)। रूपक अलंकार के प्रयोग भी यत्र तत्र देखने को मिलते हैं• अभयकरो जीवाणं, सीयघरो संजमो भवति सीतो (आनि २०७) । नियुक्तिकार ने उपमा एवं दृष्टांत अलंकार का बहुलता से प्रयोग किया हैसो हीरति असहीणेहि सारही इव तुरंगेहिं (दशनि २७४) । जह खलु झुसिरं....... (आनि २३५)।। • मन्नामि उच्छुफुल्लं व निष्फलं तस्स सामण्णं (दशनि २७७)। • सो बालतवस्सी विव,गयण्हाणपरिस्समं कुणति (दशनि २७६) । • निद्दहति य कम्माई,सुक्कतिणाई जहा अग्गी (दशनि २८३) । छंद-विमर्श छंदशास्त्र में मुख्यत: तीन प्रकार के छंद प्रसिद्ध हैं—१. गणछंद २. मात्रिक छंद ३. अक्षरछंद। नियुक्तियां पद्यबद्ध रचना है अत: ये मात्रिक छंद के अंतर्गत आर्याछंद में निबद्ध हैं। आर्या के अतिरिक्त कहीं कहीं मागधिका, स्कंधक, वैतालिक, इन्द्रवज्रा, अनुष्टुप् आदि छंदों का प्रयोग भी हुआ है। आर्या छंद की अनेक उपजातियां हैं। जैसे—पथ्या, विपुला, चपला, रीति, उपगीति आदि। नियुक्तिपंचक में यत्र तत्र आर्या की इन उपजातियों का प्रयोग भी मिलता है। नियुक्तिकार का मूल लक्ष्य विषय-प्रतिपादन था, किसी काव्य की रचना करना नहीं अत: उन्होंने छंदों पर ज्यादा ध्यान न देकर भावों के प्रतिपादन पर अधिक बल दिया है। छंद की दृष्टि से पश्चिमी विद्वान् डॉ. ल्यूमन ने दशवैकालिक का तथा एल्फ्सडोर्फ ने उत्तराध्ययन का अनेक स्थलों पर पाठ-संशोधन एवं पाठ-विमर्श किया है। उन्होंने छंद तकनीक को उपकरण के रूप में काम में लिया। जेकोबी ने छंद के आधार पर गाथा की प्राचीनता एवं अर्वाचीनता का निर्धारण किया। उनके अनुसार आर्या छंद में निबद्ध साहित्य अर्वाचीन तथा वेद छंदों में प्रयुक्त गाथाएं प्राचीन हैं। हमने पाठ-संपादन में छंद की दृष्टि से पाठभेदों पर विमर्श किया है। अनेक स्थलों पर छंद के आधार पर ही पाठ की अशुद्धियां पकड़ में आई हैं क्योंकि छंद की यति-गति आदि की अवगति के बिना गाथाओं के पाठ का शुद्ध संपादन संभव नहीं था। छंद की दृष्टि से संभाव्य पाठ का उल्लेख हमने पादटिप्पण में कर दिया है। उदाहरणार्थ उनि १४० का प्रतियों में 'राईसरिसवमित्ताणि' पाठ मिलता है। १. दशनि २४१। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण ७१ यह गाथा अनुष्टुप् छंद में निबद्ध है। अनुष्टुप् के प्रत्येक चरण में आठ वर्ण होते हैं किन्तु यहां नौ वर्ण हैं अत: 'सरिसव' के स्थान पर 'सस्सव' पाठ अधिक संगत लगता है । 'सस्सव' पाठ से मौलिक अर्थ का ह्रास भी नहीं होता क्योंकि सर्षप के लिए सस्सव और सरिसव दोनों शब्दों का प्रयोग मिलता है । इसी प्रकार 'अगणी निव्वेय मुग्गरे' (उनि ८८ ) में नौ वर्ण होते हैं, जिसमें पांचवां वर्ण दीर्घ है, जबकि अनुष्टुप् में पांचवां वर्ण ह्रस्व होना चाहिए। यहां 'अग्गी निव्वेय मुग्गरे' पाठ छंद की दृष्टि से सम्यक् प्रतीत होता है। हस्तप्रतियों में पाठ न मिलने के कारण परिवर्तन का निर्देश हमने मूलपाठ में न करके टिप्पण में कर दिया है। मूल पाठ में परिवर्तन न करने का एक मुख्य कारण यह रहा कि बिना प्रमाण परिवर्तन करने से ग्रंथ की मौलिकता और रचनाकार के प्रति न्याय नहीं होता। दूसरा कारण यह भी है कि वेदों में सात, नौ और दस वर्णों के अनुष्टुप् चरण भी मिलते हैं अत: यह भी संभव है कि स्वयं रचनाकार ने ही ऐसे प्रयोग किए हों । निर्युक्ति - साहित्य में भी ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जैसेदोमासकए कज्जं (उनि २४९) में सात ही वर्ण हैं । छंद की दृष्टि से नियुक्तिकार ने अनेक स्थलों पर दीर्घ मात्रा का ह्रस्वीकरण एवं ह्रस्व मात्रा का दीर्घीकरण भी किया है, जैसे कम्मे नोकम्मे या(उनि ६७) यहां अकार का आकार हुआ है। ते होंती पोंडरीगा उ (सूनि १४८) यहां इकार का ईकार हुआ है। सरिराई ( आनि २४० ) यहां ईकार का इकार हुआ है I कहीं कहीं वर्णों का द्वित्व भी हुआ है, जैसे—– सच्चित्त आदि । अनेक स्थलों पर छंद के कारण विभक्ति एवं वचन में व्यत्यय भी मिलता । कहीं-कहीं टीकाकार ने इसका उल्लेख भी किया है। छंद की दृष्टि से नियुक्ति में अनेक स्थलों पर निर्विभक्तिक प्रयोग भी मिलते हैं। छंदानुलोम के कारण अनेक स्थलों पर इ, जे, मो, च, य आदि पादपूर्ति रूप अवयवों का प्रयोग भी हुआ है। प्राकृत साहित्य में अलाक्षणिक मकार के प्रयोग तो अनेक मिलते हैं लेकिन नियुक्तिकार ने छंद की दृष्टि से अलाक्षणिक बिंदु का प्रयोग भी किया है। मज्जाउज्जं (उनि १४५) कहीं कहीं मात्रा कम करने के लिए बिंदु का लोप भी हुआ है अरई अचेल इत्थी' (उनि ७६) कसाय वेदणं* (उनि ५३) कहीं कहीं नियुक्तिकार ने छंदों का मिश्रण भी किया है। एक ही गाथा में अनुष्टुप् और आर्या— दोनों का प्रयोग हुआ है। जैसे तीन चरण आर्या के और एक चरण अनुष्टुप् का । इसी प्रकार कहीं तीन अनुष्टुप् के तथा एक चरण आर्या का, जैसे—– आनि ३६४ में प्रथम चरण अनुष्टुप् तथा शेष तीन चरण आर्या में हैं। १. वैदिक ग्रंथों में जिस चरण में एक अक्षर कम या अधिक पाताल १७/२) । होता है, उसे क्रमश: निचित और भूरिक कहा जाता है २. उशांटी प १४२; मज्जाउज्जं बिंदोरलाक्षणिकत्वात् । उसे विराज ३. उशांटी प. ७६; अचेल त्ति प्राकृतत्वाद् बिंदुलोपः । प्रातिशाख्य ४. उशांटी प ३४ कसाय वेदनं प्राकृतत्वाद् बिंदुलोपः । तथा जिसमें दो अक्षर कम या अधिक हों और स्वराज्य कहते हैं ( शौनकॠक Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक छंदानुलोम से अनेक स्थलों पर सप्तमी विभक्ति बोधक ए प्रत्यय का इ भी स्वीकृत किया है। विशेषत: उत्तराध्ययन नियुक्ति में ऐसा अधिक हुआ है, जैसे- महुराए > महुराइ, अट्ठमे > अट्ठमि । छंद की दृष्टि से मात्रा को ह्रस्व करने के लिए हमने चिह्न का प्रयोग भी किया है, जैसे—दव्वेसणाएँ आदि। अनेक स्थलों पर भावों के अनुरूप भी छंद का उपयोग हुआ है, जैसे—उत्तराध्ययन नियुक्ति में आषाढभूति की कथा के अंतर्गत अनुष्टुप् और मागधिका छंद का प्रयोग तथा आचारांग नियुक्ति में रोहगुप्त मंत्री द्वारा दी गयी समस्या-पूर्ति की कथा में इंद्रवज्रा छंद का प्रयोग । पाठ-संपादन में हमने छंद को ध्यान में रखा है किन्तु मूल विषय का प्रतिपादन, उसकी मौलिकता और सहज प्रवाह नष्ट न हो, यह भी ध्यान में रखा है। यद्यपि नियुक्तिकार ने प्रसंगवश अनेक विषयों की व्याख्या की है लेकिन यहां पांचों नियुक्तियों में वर्णित कुछ विशेष विषयों की प्रस्तुति की जा रही हैं - १. निर्जरा की तरतमता के स्थान ८. भिक्षु का स्वरूप २. भावनाएं ९. भिक्षाचर्या ३. प्रणिधि/प्रणिधान १०. दिशाएं ४. साधना के बाधक तत्त्व ११. करण ५. त्रिवर्ग १२. काव्य ६. वर्ण-व्यवस्था एवं वर्णसंकर जातियां १३. यातायात-पथ ७. स्थावरकाय निर्जरा की तरतमता के स्थान आचारांग के सम्यक्त्व अध्ययन की नियुक्ति में गुणश्रेणी-विकास की दश अवस्थाओं का वर्णन है। इन अवस्थाओं में पूर्व अवस्था की अपेक्षा उत्तरवर्ती अवस्था में असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा होती है। गुणश्रेणी-विकास की दश अवस्थाओं के नाम इस प्रकार हैं १. सम्यक्त्व-उत्पत्ति—उपशम या क्षयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति । २. श्रावक अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से आंशिक विरति का उदय। ३. विरत–प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से सर्वविरति का उदय। ४. अनंतकर्मांश-अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क का क्षय। ५. दर्शनमोहक्षपक–दर्शनमोह की सम्यक्त्व मोहनीय आदि तीन प्रकृतियों का क्षय । ६. उपशमक–चारित्र मोह की प्रकृतियों के उपशम का प्रारम्भ। ७. उपशांत मोह—मोह का पूर्णत: उपशम । ८. क्षपक-चारित्र मोह की प्रकृतियों के क्षय का प्रारम्भ । ९. क्षीणमोह—चारित्र मोह का सम्पूर्ण क्षय । १०. जिन—कैवल्य-प्राप्ति । १. आनि २२३, २२४ । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण ७३ भगवती तथा पण्णवणा जैसे सैद्धांतिक ग्रंथों में इन अवस्थाओं का उल्लेख न मिलने से यह स्पष्ट है कि इन दश अवस्थाओं की अवधारणा बाद में विकसित हुई। दश अवस्थाओं का सबसे प्राचीन उल्लेख आचारांग नियुक्ति में मिलता है। आ. उमास्वाति ने नौवें अध्याय में इन अवस्थाओं का उल्लेख किया गुणश्रेणी-विकास की इन दश अवस्थाओं का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य भद्रबाहु ने किया, इस कथन की पुष्टि इस बात से की जा सकती है कि आत्मा की निर्मलता या निर्जरा की तरतमता का ज्ञान या तो तीर्थंकर अपने अतिशायी ज्ञान से जान सकते हैं अथवा चतुर्दशपूर्वी अपने श्रुतज्ञान के वैशिष्ट्य से। निर्जरा की तरतमता सामान्यज्ञानी के लिए जानना असंभव है अत: कहा जा सकता है कि गुणश्रेणी विकास की दश अवस्थाएं आचार्य भद्रबाहु की मौलिक देन है। सम्यक्त्व की उपलब्धि अनंत निर्जरा का कारण है अत: आचारांग की सम्यक्त्व अध्ययन की नियुक्ति में इन अवस्थाओं का वर्णन प्रासंगिक लगता है किन्तु तत्त्वार्थ सूत्रकार ने विषय को महत्त्वपूर्ण समझकर संवर के अंतर्गत तप के प्रसंग में निर्जरा का तारतम्य बताने वाली इन अवस्थाओं का समाहार किया है। वहां यह वर्णन प्रासंगिक जैसा नहीं लगता। - आचार्य उमास्वाति ने प्रथम अवस्था सम्यक्त्व-उत्पत्ति के स्थान पर सम्यग्दृष्टि तथा चौथी अवस्था अनंतकर्माश के स्थान पर अनंतवियोजक नाम का उल्लेख किया है। परवर्ती श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्य में कुछ अंतर के साथ इन अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है। नामों के सूक्ष्म अंतर को निम्न चार्ट के माध्यम से जाना जा सकता है श्वेताम्बर परम्परा शिवशर्मकृत कर्मग्रंथ चन्द्रर्षिकृत पंचसंग्रह देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रंथ १. सम्यक्त्व-उत्पत्ति सम्यक्त्व सम्यक् २. श्रावक देशविरति दरविरति ३. विरत सम्पूर्ण विरति सर्वविरति ४. संयोजना-विनाश अनंतानुबंधी विसंयोग अनंतविसंयोग ५. दर्शनमोहक्षपक दर्शनमोहक्षपक दर्शनक्षपक ६. उपशमक उपशमक शम ७. उपशांत उपशांत शांत १. तत्त्वार्थसूत्र ९/४७; सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानंतवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपक-क्षीणमोहजिना: क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जरा। २. कर्मप्रकृति (उदयकरण) गा. ३९४, ३९५; सम्मत्तप्पा सावय, विरए संयोजणाविणासे य। दंसणमोहक्खवगे. कसाय-उवसामगवसंते।। खवगे य खीणमोहे, जिणे य दुविहे हवे असंखगुणा। उदयो तद्विवरीओ, कालो संखेज्जगुणसेढी।। ३. पंचसंग्रह, बंधद्वार गा. ३१४, ३१५; सम्मत्तदेससंपुन्नविरइउप्पत्ति अणविसंजोगे। दंसणखवणे मोहस्स, समणे उवसंत खवगे य।। खीणाइतिगे असंखगुणियसेढिदलिय जहकमसो। सम्मत्ताईणेक्कारसण्ह कालो उ संखंसे।। ४. शतक, पंचम कर्मग्रंथ गा. ८२; सम्मदरसव्वविरई, अणविसंजोयदंसखवगे य। मोहसमसंतखवगे, खीण-सजोगियर गुणसेढी।। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ नियुक्तिपंचक शिवशर्मकृत कर्मग्रंथ चन्द्रर्षिकृत पंचसंग्रह देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रंथ ८. क्षपक क्षपक क्षपक ९. क्षीणमोह क्षीणमोह क्षीण १०. द्विविध जिन सयोगी केवली सयोगी (केवली) (सयोगी एवं अयोगी) अयोगी केवली अयोगी (केवली) (ई. सन् पांचवीं शती) (ई. सन् आठवीं शती) (विक्रम की पांचवीं शती) दिगम्बर परम्परा स्वामीकुमारकृत कार्तिकेयानुप्रेक्षा' षट्खंडागम, गोम्मटसार (जीवकाण्ड)२ १. मिथ्यादृष्टि १. सम्यक्त्व-उत्पत्ति २. सद्वृष्टि २. श्रावक ३. अणुव्रतधारी ३. विरत ४. ज्ञानी महाव्रती ४. अनंतकर्माश ५. प्रथमकषायचतुष्कवियोजक ५. दर्शनमोहक्षपक ६. दर्शनमोहत्रिक क्षपक ६. कषायउपशमक ७. उपशमक ७. उपशांत ८. क्षपक ८.क्षपक ९. क्षीणमोह ९. क्षीणमोह १०. सयोगी (नाथ) १०. जिन ११. अयोगी (नाथ) (ई. सन् पांचवीं शती) (विक्रम की पांचवीं शती) उमास्वाति के बाद लगभग सभी आचार्यों ने जिन के सयोगी और अयोगी—ये दो भेद करके ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख किया है। स्वामीकुमारकृत कार्तिकेयानुप्रेक्षा में उपशांत अवस्था का उल्लेख नहीं है। उन्होंने सम्यग्दृष्टि से पूर्व की अवस्था मिथ्यादृष्टि को माना है तथा जिन के स्थान पर नाथ का प्रयोग करके उसके सयोगी और अयोगी—ये दो भेद किए हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के टीकाकार शुभचन्द्र ने उपशांत अवस्था की व्याख्या की है। १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा ९/१०६-१०८; मिच्छादो सद्दिट्ठी, असंखगुणकम्मनिज्जरा होदि। तत्तो अणुवयधारी, तत्तो य महव्वई णाणी।। पढमकसायचउण्ह, विजोजओ तह य खवणसीलो य। दंसणमोहतियस्स य तत्तो उवसमग चत्तारि।। खवगो य खीणमोहो, सजोइणाहो तहा अजोईया। एदे उवरि उवरिं, असंखगुणकम्मणिज्जरया।। २. (क) षट्खंडागम, वेदनाखंड, गा. ७, ८ पृ. ६२७ । (ख) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गा. ६६, ६७; सम्मत्तुप्पत्तीये, सावयविरदे अणंतकम्मसे। दंसणमोहक्खवगे, कसायउवसामगे य उवसंते।। खवगे य खीणमोहे, जिणेसु दव्वा असंखगुणिदकमा। तव्विवरीया काला, संखेज्जगुणक्कमा होति।। ३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, पृ. ५२। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण ७५ गुणश्रेणी-विकास की दश अवस्थाओं में नौ की तो पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती अवस्थाएं हैं, जिनमें पूर्ववर्ती अवस्था की अपेक्षा उत्तरवर्ती अवस्था में असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा होती है लेकिन सम्यग्दृष्टि की पूर्ववर्ती अवस्था का उल्लेख नहीं हुआ है। स्वामीकुमार ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा में मिथ्यात्वी की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि की असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा स्वीकार की है। उनके अनुसार यह संभावना की जा सकती है कि सम्यग्दृष्टि की पूर्ववर्ती अवस्था मिथ्यादृष्टि है क्योंकि उन्होंने मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि की असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा स्वीकार की है। यहां एक प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि क्या मिथ्यादष्टि के भी निर्जरा संभव है? इस प्रश्न के समाधान में कहा जा सकता है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से मिथ्यात्वी की मिथ्यादृष्टि क्षयोपशम भाव है अत: वह जो कुछ सही जानता या देखता है, वह निर्जरा का कारण है। यदि मिथ्यादृष्टि आत्मिक उज्ज्वलता या निर्जरा का हेतु नहीं होती तो गुणस्थान-सिद्धान्त में प्रथम तीन भेदों को स्थान नहीं मिलता। आचार्य भिक्षु और जयाचार्य ने इस मत की पुष्टि में अनेक हेतु दिए हैं। लेकिन कुछ परम्पराएं मिथ्यादृष्टि को निर्जरा का हेतु नहीं मानतीं। आचारांग के टीकाकार आचार्य शीलांक ने सम्यक्त्व-उत्पत्ति से पूर्व की कुछ अन्य अवस्थाओं का वर्णन किया है। उनके अनुसार मिथ्यादृष्टि जीव, जिनके देशोन कोटाकोटि कर्म बाकी रहे हैं तथा जो ग्रंथिभेद के समीप पहुंच गए हैं, वे निर्जरा की दृष्टि से तुल्य होते हैं। मिथ्यादृष्टि के बाद की निम्न पांच अवस्थाएं टीकाकार ने बताई हैं, जिनमें क्रमश: पूर्ववर्ती की अपेक्षा उत्तरवर्ती अवस्था में असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा होती है १. धर्मपृच्छा के इच्छुक २. धर्मपृच्छा में संलग्न ३. धर्म को स्वीकार करने के इच्छुक ४. धर्मक्रिया में संलग्न ५. पूर्वप्रतिपन्न धार्मिक नियुक्तिकार ने काल की दृष्टि से भी निर्जरा की तरतमता का संकेत दिया है किन्तु काल की दृष्टि से इसमें कम विपरीत हो जाता है। टीकाकार शीलांक इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि एक अयोगी केवली जितने काल में जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म एक सयोगी केवली उससे संख्येय गुणा अधिक काल में खपाता है। इसी प्रकार सयोगी केवली जितने काल में जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म क्षीणमोह उससे संख्येय गुणा अधिक काल में खपाता है। काल की संख्येय गुणा वृद्धि प्रतिलोम कम से चलती है। इन दश अवस्थाओं को देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि नियुक्तिकार का मुख्य उद्देश्य निर्जरा की तरतमता बताने वाली तथा मोक्ष के सम्मुख ले जाने वाली अवस्थाओं का वर्णन करना था न कि विकास की भूमिका पर कमिक आरोहण करने वाली भूमिकाओं का वर्णन करना। यह सत्य है कि हर पूर्व अवस्था की अपेक्षा उत्तर अवस्था में असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा है पर ये अवस्थाएं कृमिक ही आएं, यह आवश्यक नहीं है। स्पष्टत: कहा जा सकता है कि सम्यक्त्व-प्राप्ति मोक्ष का प्रथम सोपान है और जिन १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा ९/१०६ । ३. आनि २२३; तद्विवरीतो काले,संखेज्जगुणाए सेढीए। २. आचारांगटीका पृ. ११८। ४. आचारांग टीका पृ. ११८। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ नियुक्ति पंचक होने के बाद व्यक्ति कृतार्थ हो जाता है फिर उसके लिए कुछ भी करणीय शेष नहीं रहता। विद्वानों ने इन दश अवस्थाओं को गुणस्थान - विकास की पूर्वभूमिका के रूप में स्वीकार किया है । डॉ. सागरमलजी जैन ने विस्तार से इस संदर्भ में चिन्तन किया है। लेकिन सैद्धान्तिक दृष्टि से यदि गुणस्थानों के साथ इन अवस्थाओं की तुलना करें तो संगति नहीं बैठती । प्रथम तीन गुणस्थानों का इन दश अवस्थाओं में कहीं भी समाहार नहीं है । गुणस्थान - विकास की दृष्टि से विरत के बाद अनंतवियोजक की स्थिति आए, यह आवश्यक नहीं है । यह स्थिति अविरतसम्यग्दृष्टि अर्थात् चौथे गुणस्थान में भी प्राप्त हो सकती है। चौथे गुणस्थान में गुणश्रेणी - विकास की प्रथम, चतुर्थ और पंचम – इन तीन अवस्थाओं का समावेश सकता है क्योंकि चौथे गुणस्थान में भी व्यक्ति अनंतानुबंधी चतुष्क और दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों का क्षय कर क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है। जबकि गुणश्रेणी - विकास की अवस्थाओं में विरत के बाद अनंतवियोजक और दर्शनमोहक्षपक की स्थिति है । इन दश अवस्थाओं के आधार पर यह मानना पड़ेगा कि व्यक्ति उपशमश्रेणी लेने के बाद क्षपकश्रेणी लेता है अर्थात् छठी, सातवीं अवस्था में पहले चारित्रमोह का उपशम फिर आठवीं, नवीं अवस्था में चारित्र मोह की प्रकृतियों का क्षय करता है पर गुणस्थान सिद्धांत के अनुसार यह बात संगत नहीं बैठती । गुणस्थान कमारोह अनुसार यह आवश्यक नहीं कि व्यक्ति उपशमश्रेणी लेने के बाद क्षायकश्रेणी ले। वहां दोनों विकल्प संभव हैं, व्यक्ति पहले कषायों का उपशमन करता हुआ उपशम श्रेणी भी ले सकता है और क्षय करता हुआ क्षपकश्रेणी भी प्राप्त कर सकता है अतः कहा जा सकता है कि गुणश्रेणी - विकास की ये अवस्थाएं गुणस्थान - सिद्धान्त की पूर्व भूमिकाएं नहीं हैं । तत्त्वार्थ सूत्र को ध्यान से देखने पर यह स्पष्ट अवधारणा बन जाती है कि गुणस्थान एवं गुणश्रेणी विकास की अवस्थाएं — इन दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व था । उमास्वाति ने गुणस्थानों के अनेक नामों का उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र में किया है। उदाहरण के लिए कुछ नामों को प्रस्तुत किया जा सकता है— तत्त्वार्थसूत्र गुणस्थान-नाम १. अविरत (चौथा गुणस्थान) २. देशविरत (पांचवां गुण० ) ३. प्रमत्तसंयत (छठा गुण० ) ४. अप्रमत्तसंयत (सातवां गुण० ) तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् । (९ / ३५) तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् । (९/३५) तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् । ( ९ / ३५ ) आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य । (९/३७) (९/१२) बादरसम्पराये सर्वे । सूक्ष्मसंपरायच्छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश । ( ९/१०) उपशांतक्षीणकषाययोश्च (९ / ३८ ) । उपशांतक्षीणकषाययोश्च ( ९ / ३८ ) । परे केवलिनः (९/४०) ५. बादरसम्पराय (आठवां, नवां गुण० ) ६. सूक्ष्मसंपराय (दसवां गुण ० ) ७. उपशांतकषाय ( ग्यारहवां गुण० ) ८. क्षीणकषाय (बारहवां गुण० ) ९. केवली (तेरहवां, चौदहवां गुण० ) १. श्रमण, जनवरी - मार्च १९९२, गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव और विकास । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ওও नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण उमास्वाति ने इन नामों का उल्लेख संयत के विशेषण के रूप में किया है अत: इन नामों को देखकर यह कहा जा सकता है उमास्वाति के समय तक गुणस्थान-सिद्धांत पूर्ण रूप से विकसित नहीं था पर उसकी मान्यता बीज रूप में प्रचलित हो रही थी। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से गुणश्रेणी-विकास की अवस्थाएं एवं गुणस्थान-इन दोनों का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। गुणश्रेणी-विकास की अवस्थाएं निर्जरा की तरतमता बताने वाले स्थानों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती हैं। ये अवस्थाएं कमिक ही हों, यह आवश्यक नहीं है किन्तु गुणस्थानों में आत्मा की कमिक उज्ज्वलता का दिग्दर्शन है अत: वहां उत्तरोत्तर कृमिक अवस्थाओं का वर्णन है। भावनाएं चित्त को अच्छे विचारों से बार-बार भावित करना भावना है। मस्तिष्कीय धुलाई में भावना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भगवान् महावीर ने मुनि के लिए 'भावियप्पा' विशेषण का प्रयोग किया है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार ध्यान के योग्य चेतना का निर्माण करने वाली ध्यान के अभ्यास की क्रिया का नाम भावना है। प्रशस्त भावनाओं के रूप में अनित्य आदि बारह भावनाएं, पांच महाव्रत की पच्चीस भावनाएं, मैत्री, प्रमोद आदि चार भावनाएं जैन साधना-पद्धति में अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। बारह भावनाओं पर अनेक स्वतंत्र ग्रंथों की रचना हुई है। उत्तराध्ययन सूत्र में कांदी, किल्विषिकी आदि अप्रशस्त भावनाओं का वर्णन मिलता है। नियुक्तिकार ने प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, कोध, मान, माया तथा लोभ आदि की भावना को अप्रशस्त भावभावना माना है। नियुक्तिकार ने प्रशस्त भावना के रूप में उत्तराध्ययन सूत्र में संकेत मात्र से निर्दिष्ट ज्ञान आदि भावनाओं का स्वरूप स्पष्ट किया है। उन्होंने इसमें वैराग्यभावना का और समावेश कर दिया है। दर्शन भावना युगप्रधान आचार्य, केवलज्ञानी, अवधिज्ञानी आदि अतिशायी एवं ऋद्धिधारी मुनियों के अभिमुख जाना, वंदन करना, दर्शन करना, कीर्तन एवं स्तुति करना दर्शन भावना है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने ध्यान शतक में धर्मध्यान के साथ भावनाओं का संबंध जोड़ा है। उनके अनुसार जो अपने आप को शंका आदि दोषों से रहित तथा प्रशम स्थैर्य आदि गुणों से युक्त कर लेता है, उसकी दर्शन-विशुद्धि होने के कारण ध्यान में स्थिरचित्तता हो जाती है। ज्ञानभावना अपने आपको ज्ञान से भावित करना ज्ञानभावना है। जीव आदि नवतत्त्व, बंध, बंधहेतु, १. दश ९/५०। २. आवहाटी २ पृ. ६२; भाव्यत इति भावना ध्यानाभ्यासक्रियेत्यर्थः । ३ उ. ३६/२६३-६६ । ४. उ. १९/९४; एवं नाणेण चरणेण दसणेण तवेण य। भावणाहि य सुद्धाहिं, सम्म भावित्तु अप्पयं ।। ५. आनि ३५२-५४ । ६. आवहाटी २ पृ.६७, गा.३२ । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ नियुक्तिपंचक बंधन तथा बंधनफल-इनको अच्छी तरह जानना ज्ञानभावना है। वाचना, पृच्छना आदि पांच प्रकार के स्वाध्याय में उपयुक्त रहना तथा ज्ञान-प्राप्ति के लिए नित्य गुरुकुलवास में रहना भी ज्ञानभावना है। साधक को 'मुझे विशिष्ट ज्ञान होगा' यह भावना प्रतिपल करते रहना चाहिए। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के अनुसार ज्ञान का नित्य अभ्यास, ज्ञान-प्राप्ति में चित्त की स्थिरता, सूत्र और अर्थ की विशुद्धि तथा ज्ञान के माहात्म्य से परमार्थ को जान लेना ज्ञानभावना है। इससे व्यक्ति का चित्त स्थिर हो जाता है और सहज ही ध्यान में प्रवेश होने लगता है। चारित्रभावना अहिंसा आदि पांच महाव्रतों का निरतिचार पालन करना चारित्र भावना है। नियुक्तिकार के अनुसार वैराग्य, अप्रमाद और एकत्व भावनाएं भी चारित्र भावना की अनुगत हैं। ध्यान शतक के अनुसार नए कर्मों का अग्रहण, पुराने बंधे हुए कर्मों का निर्जरण तथा शुभ कर्मों का ग्रहण चारित्र भावना है। इस भावना से बिना प्रयत्न किए भी ध्यानावस्था प्राप्त होने लगती है। तपोभावना विविध प्रकार के तप-अनुष्ठान में संलग्न रहना तपोभावना है। नियुक्तिकार ने तपोभावना को आत्मचिंतन के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया है। उनके अनुसार मेरा दिन तपस्या से अवंध्य कैसे हो? मैं कौन सी तपस्या करने में समर्थ हूं? मै किस द्रव्य के योग से कौन सा तप कर सकता हूं? मैं कैसे क्षेत्र और काल में तथा किस अवस्था में तप कर सकता हूं? इस चिंतन से स्वयं को जोड़ने वाला तपोभावना से भावित होता है। वैराग्य भावना अनित्य आदि बारह भावनाओं से स्वयं को भावित करना वैराग्य भावना है। ध्यान शतक के अनुसार जो जगत् के स्वभाव को जानता है, निस्संग (अनासक्त) है, अभय है, आशंसा से मुक्त है, वह वैराग्य भावना से भावित चित्त वाला होता है। ध्यान में सहज ही उसकी निश्छलता सध जाती है। प्रणिधि/प्रणिधान दशवकालिकनियुक्ति के आठवें अध्ययन में वर्णित प्रणिधि का वर्णन आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। प्रणिधि का एक अर्थ खजाना होता है लेकिन साधना की दृष्टि से प्रणिधि या प्रणिधान शब्द एकाग्रता या समाधि का वाचक है। साधना के क्षेत्र में एकाग्रता प्रथम सोपान है, जिसके माध्यम से साधक अपने लक्ष्य की ओर गति करता है। बिना प्रणिधान के मन, वचन और काया को समाहित नर्ह किया जा सकता। नियुक्तिकार ने भाव प्रणिधि के दो भेद किए हैं-इंद्रिय-प्रणिधि औ नोइंद्रिय-प्रणिधि। शब्द, रस, रूप, गंध और स्पर्श में राग- द्वेष नहीं करना प्रशस्त इंद्रिय-प्रणिधि है। इसके विपरी १. आनि ३५७-५९। २. आवहाटी २ पृ. ६७ गा. ३१ । ३. आनि ३६०, ३६१।। ४. आवहाटी २ पृ. ६८ गा. ३३ । ५. आनि ३६२। ६. आनि ३६३ । ७. आवहाटी २ पृ. ६८ गा. ३४ ८. दशनि २७० Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण उच्छृखल एवं शब्द आदि विषयों में मूर्छित इंद्रियां अप्रशस्त इंद्रिय-प्रणिधि है। दुष्प्रणिहित इंद्रिय वाले व्यक्ति की स्थिति को उपमा के माध्यम से स्पष्ट करते हए नियुक्तिकार कहते हैं—'तप आदि करने पर भी जिसकी इंद्रियां दुष्प्रणिहित होती हैं, वह मोक्षमार्ग से वैसे ही भटक जाता है,जैसे उच्छृखल अश्व वाला सारथि ।'२ क्रोध, मान आदि चार कषायों का निरोध करना नोइंद्रिय प्रणिधि है।३।। बाह्य और आभ्यन्तर चेष्टा से इंद्रिय और कषाय का निरोध करना प्रणिधि है। प्रणिधान संयमी जीवन का मूल है लेकिन यदि माया या अहंकार के वशीभूत होकर साधक इंद्रिय या नोइंद्रिय का निग्रह करता है तो वह अप्रशस्त प्रणिधि है। अप्रशस्त प्रणिधि वाला मुनि कर्मों को बांध कर स्वयं भारी बन जाता है। जैसे कंटकाकीर्ण गड्ढे में गिरने वाला व्यक्ति अपने अंगभंग कर लेता है,वैसे ही दुष्प्रणिहित साधक अपने प्रव्रजित जीवन को खंडित कर लेता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप संयम की साधना के लिए प्रशस्त प्रणिधि का प्रयोग करने वाला साधक अपने कर्मों को वैसे ही भस्म कर देता है,जैसे सूखे तिनकों को अग्नि । साधना के बाधक तत्त्व आचार्य भद्रबाहु आध्यात्मिक परम्परा का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिनिधि पुरुष थे। उनकी अध्यात्म-चेतना की रश्मियों का प्रकाश नियुक्ति-साहित्य पर भी पड़ा। नियुक्तियों में निरूपित आध्यात्मिक तत्त्व जीवन को नयी दिशा देने वाले हैं। नियुक्तिकार ने स्थान-स्थान पर कषाय के उपशमन की प्रेरणा दी है। उनके अनुसार तप करते हुए भी जिसके कषाय उत्कट हैं, वह बाल तपस्वी हस्ति-स्नान के समान व्यर्थ परिश्रम करता है तथा उसका श्रामण्य इक्षु-पुष्प की भांति निष्फल होता नियुक्तिकार ने अध्यात्म-विकास में बाधक १३ तत्त्वों की चर्चा की है—आलस्य, मोह, अवज्ञा, जड़ता, कोध, प्रमाद, कृपणता, भय, शोक, अज्ञान, व्याक्षेप, कुतूहल और क्रीड़ा । ये सभी हेतु अध्यात्म के क्षेत्र में आगे बढ़ने वाले व्यक्ति के सामने बाधा बनकर उपस्थित होते हैं किन्तु इन कारणों के आलोक में स्वयं का निरीक्षण कर व्यक्ति अपनी अध्यात्म-साधना को प्रशस्त कर सकता है। महर्षि पतञ्जलि ने भी चित्त में विक्षेप पैदा करने वाले नौ कारणों का उल्लेख किया है—व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रांतिदर्शन, अलब्धभूमिकता और अनवस्थितता। इन नौ हेतुओं को पतञ्जलि ने योगमल, योगप्रतिपक्ष और योगान्तराय के रूप में स्वीकार किया है। आचार्य तुलसी ने 'मनोनुशासनम्' में बाधक तत्त्वों का उल्लेख न करके समाधिस्थ व्यक्ति के सात विशेषणों का निर्देश दिया है। नियुक्तिकार द्वारा उल्लिखित तेरह बाधक तत्त्वों को यदि विलोम करके लिखा जाए तो मनोनुशासनम् में वर्णित सातों गुण इनमें समाहित हो जाते हैं। नियुक्ति की भाषा में इनको विघ्न रूप में इस प्रकार रखा जा सकता है—१. रोग, २. शारीरिक अक्षमता, ३. अविनय, ४. १. दशनि २७१-२७३ । २. दशनि २७४। ३. दशनि २७५ । ४. दशनि २७९-८३ । ५. दशनि २७६, २७७ । ६. उनि १६३, १६४ । ७. पातञ्जलयोगदर्शन; १/३० । ८. मनो. १/२; आरोग्यवान् दृढ़संहननो विनीतोऽकृतकलहो रसाप्रतिबद्धोऽप्रमत्तोऽनलसश्च ।। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० निर्युक्तिपंचक कलह, ५ आसक्ति, ६. प्रमाद, ७. आलस्य । मनुष्य जन्म की दुर्लभता के दश दृष्टान्त भी आध्यात्मिक चेतना को झकझोरने वाले हैं। ये दृष्टान्त न केवल जीवन की दुर्लभता का ज्ञान कराते हैं वरन् सार्थक एवं आध्यात्मिक जीवन जीने की प्रेरणा भी देते हैं । मूलतः ये दृष्टान्त आवश्यकनियुक्ति में उल्लिखित हैं लेकिन प्रासंगिक होने के कारण यहां भी इनकी पुनरुक्ति हुई है । त्रिवर्ग उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने एवं उच्चतर आदर्शों को प्राप्त करने के लिए भारतीय मनीषियों ने चार पुरुषार्थों की कल्पना की, उन्हें चतुर्वर्ग भी कहा जाता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – ये चार पुरुषार्थ भारतीय संस्कृति के प्राण तत्त्व रहे हैं । यद्यपि नियुक्तिकार निवृत्तिपरक धर्म-परम्परा का वहन करने वाले आचार्य थे पर उन्होंने अपने साहित्य में धर्म और मोक्ष के साथ अर्थ और काम का भी विशद विवेचन किया है। आचार्य वात्स्यायन ने कामसूत्र के प्रारम्भ में धर्म, अर्थ और काम को नमस्कार किया है।' ऐसा संभव लगता है कि नियुक्तिकार के समय तक भी त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ और काम का ही प्रचलन रहा । मोक्ष को इसके साथ नहीं जोड़ा गया। मोक्ष को न जोड़ने का एक कारण यह भी रहा कि मोक्ष की प्राप्ति सबके लिए संभव नहीं थी। बाद के आचार्यों ने इनमें मोक्ष को जोड़कर चार पुरुषार्थों की प्रस्थापना की और इनको साध्य और साधन के रूप में प्रतिष्ठित किया । धर्म और अर्थ को साधन के रूप में तथा मोक्ष और काम को साध्य के रूप में अंगीकार किया। धर्म का साध्य है मोक्ष और अर्थ का साध्य है काम । भारतीय मनीषियों ने धर्म को जीवन का नियामक सिद्धान्त, अर्थ को जीवन के भौतिक साधन का आधार, काम को जीवन की उचित कामनाओं की तृप्ति तथा मोक्ष को सर्व बंधनों से मुक्ति के रूप में स्वीकार किया । नियुक्तिकार ने त्रिवर्ग- धर्म, अर्थ और काम का व्यवस्थित विवेचन किया है तथा मोक्ष को धर्म का फल स्वीकार किया है । कुछ धार्मिक परम्पराओं में धर्म, अर्थ और काम को विरोधी तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया लेकिन नियुक्तिकार के अनुसार धर्म, अर्थ और काम -- ये तीनों युगपद् विरोधी से लगते हैं परन्तु जिनेश्वर भगवान् के वचनों में अवतीर्ण होकर ये अविरोधी बन जाते हैं। आचार्य वात्स्यायन ने इसी बात को प्रकारान्तर से - 'धर्मानुकूलो अर्थकामौ सेवेत' अर्थात् धर्म के अनुकूल अर्थ और काम का सेवन करना चाहिए। कौटिलीय अर्थशास्त्र के अनुसार व्यक्ति भले ही ऐश्वर्य प्राप्त करे, धन संचय करे, उसका उपभोग करे पर वह धर्मानुकूल हो । त्रिवर्ग में से किसी एक का असंतुलित उपभोग बड़ा दुःखदायी होता है । कहने का तात्पर्य है व्यक्ति धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों का उपभोग इस प्रकार करे कि ये तीनों एक दूसरे से संबद्ध भी रहें और परस्पर विघ्नकारी भी न हों। भारतीय ऋषियों ने मोक्ष को परम पुरुषार्थ के रूप में स्वीकार किया है। निर्युक्ति-साहित्य में मोक्ष का वर्णन विकीर्ण रूप में अनेक स्थानों पर मिलता है। यहां संक्षेप में नियुक्तिगत त्रिवर्ग - धर्म, कहा- ' १. कामसूत्र १ / १ / १ ; धर्मार्थकामेभ्यो नमः । २. दशनि २४१ । ३. दशनि २४० । ४. कौटि. १/३/६/३; धर्मार्थाविरोधेन कामं सेवेत । न निःसुखः स्यात् । समं वा त्रिवर्गमन्योन्यानुबन्धनम् । एको ह्यत्यासेवितो धर्मार्थकामानामात्मानमितरौ च पीडयति । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवक्षण अर्थ और काम का वर्णन किया जा रहा है। धर्म दशवैकालिक की भांति नियुक्तिकार ने भी धर्म को उत्कृष्ट मंगल के रूप में स्वीकार किया है। ठाणं सूत्र में धर्म के तीन प्रकार मिलते हैं—१. श्रुतधर्म, २. चारित्रधर्म, ३. अस्तिकाय धर्म ।' आचार्य भद्रबाहु ने धर्म का वर्णन अनेक स्थानों पर किया है पर उनके भेद-प्रभेदों के वर्णन में एकरूपता नहीं है। कहीं संक्षिप्त नय से तथा कहीं विस्तार से वर्णन हुआ है। आवश्यकनियुक्ति के चतुर्विंशतिस्तव में आए धर्म शब्द की व्याख्या में धर्म के दो भेद किए गए हैं—द्रव्य और भाव । नियुक्तिकार ने द्रव्यधर्म को अनेक दृष्टियों से व्याख्यायित किया है - • द्रव्य का धर्म जैसे वस्तु का तिक्त आदि धर्म। • अनुपयुक्त–उपयोग रहित व्यक्ति का धार्मिक अनुष्ठान । (यहां अनुपयुक्त को द्रव्य कहा है।) • द्रव्य ही धर्म जैसे धर्मास्तिकाय। • गम्यधर्म आदि दशधर्म जैसे किसी देश में मातुल-दुहिता गम्य होती है। • कुतीर्थिकों-एकान्तवादियों का धर्म । भावधर्म के श्रुत और चारित्र दो भेद हैं। श्रुतधर्म में स्वाध्याय आदि का तथा चारित्र धर्म में क्षमा आदि दश श्रमणधर्मों का समाहार होता है। दशवैकालिकनियुक्ति में धर्म के मुख्यत: दो भेद किए हैं—अगारधर्म और अनगारधर्म। अगारधर्म बारह प्रकार का तथा अनगारधर्म दश प्रकार का है। कुल मिलाकर धर्म के बाईस भेद हो जाते हैं। दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन की नियुक्ति में वर्णित धर्म के भेद-प्रभेदों को निम्न चार्ट से जाना जा सकता है धर्म भावधर्म अस्तिकाय धर्म (धर्मास्तिकाय आदि) प्रचारधर्म (इंद्रिय-विषय) लौकिक कुप्रावनिक लोकोत्तर गम्य पशु देश राज्य पुरवर ग्राम गण गोष्ठी राज श्रुतधर्म चारित्र धर्म १. दशनि ८८, १२०/२। ४. आवनि १०६४ । २. ठाणं ३/४१०। ५. दशनि २२३-२५ । ३. आवनि १०६३, हाटी पृ. ५। ६. धर्म के विस्तृत वर्णन हेतु देखें, दशनि ३६-४०, अचू पृ. १०, ११, हाटी प. २१-२३ । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ सूत्रकृतांग निर्युक्ति (सूनि १००, १०१ ) के अनुसार धर्म के भेद-प्रभेद इस प्रकार हैं धर्म मति नामधर्म सचित्तधर्म अचित्तधर्म मिश्रधर्म अवधि स्थापनाधर्म औपशमिक गृहस्थधर्म मनः पर्यव सास्वादन द्रव्यधर्म गृहस्थधर्म ज्ञानधर्म केवल १. मभा. शांतिपर्व १६७/११, १२ । २. कामसूत्र, १/२/८; विद्या- भूमि- हिरण्य-पशु-धान्य- भाण्डोपस्करमित्रादीनामर्जनमर्जितस्य विवर्धनमर्थः । भावधर्म लौकिकधर्म लोकोत्तरधर्म अन्यतीर्थधर्म दर्शनधर्म क्षायोपशमिक वेदक क्षायिक निर्युक्तिपंचक सामायिक छेदोपस्थापनीय परिहारविशुद्ध सूक्ष्मसंपराय यथाख्यात अर्थ सांसारिक प्राणी के लिए भौतिक सुख-सुविधा की सामग्री अर्थ से ही संभव है । महाभारत में कृषि, वाणिज्य और गो-पालन को अर्थ कहा गया है क्योंकि इनके मूल में अर्थ - प्राप्ति का लक्ष्य रहता है। आचार्य वात्स्यायन अर्थ को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि विद्या, भूमि, सुवर्ण, पशु, बर्तन, उपकरण, मित्र एवं अन्य वस्तुओं को प्राप्त करना तथा उनकी वृद्धि करना अर्थ है ।' महाभारत में धर्म और काम को अर्थ का ही अंग माना है। कौटिलीय ने भी अर्थ को धर्म और काम का मूल माना है। समय के अनुसार अर्थ के विनिमय एवं उसके स्वरूप में परिवर्तन होता रहा है। प्राचीन काल में सिक्कों का अस्तित्व होते हुए भी वस्तुओं का विनिमय प्रायः वस्तुओं से होता था। आज वह रुपयों से होने लगा । निर्युक्तिकार के समय अर्थ (सम्पत्ति) को छह रूपों में सुरक्षित रखा जाता था— धान्य, रत्न, स्थावर, द्विपद, चतुष्पद, कुप्य । धान्य — धान्य २४ प्रकार का होता है। रत्न— रत्न के भी २४ प्रकार हैं ।" नियुक्तिकार ने चंदन, शंख, अगरु, चर्म, दंत, केश के सौगंधिक चारित्रधर्म ३. मभा. शांतिपर्व १६७/१४, कौटि. १/३/६/३ अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति । ४. दशनि २२९, २३० निभा १०२९, १०३० । ५. दशनि २३१, २३२, निभा १०३१ । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण ८३ द्रव्य आदि को भी रत्नों के अंतर्गत माना है। कीमती होने के कारण संभवत: इनको रत्न के अंतर्गत रखा गया है। स्थावर-भूमि, घर और वन-सम्पदा—ये तीन स्थावरसम्पत्ति के अंतर्गत आते हैं। आज की भाषा में इन्हें अचल सम्पत्ति कहा जा सकता है। द्विपद-दो पहियों से चलने वाली गाड़ी एवं दास आदि। उस समय दास आदि को भी समृद्धि का प्रतीक माना जाता था क्योंकि दास खरीदे जाते थे। चतुष्पद-चतुष्पद के गाय आदि १४ प्रकार हैं। कुप्य—सामान्य रूप से प्रतिदिन घर में काम आने वाले सभी उपकरण । इस प्रकार चौंसठ प्रकार से सम्पदा का संग्रह या विनिमय किया जाता था। काम आगमों में जिन दश संज्ञाओं का उल्लेख है, उनमें मैथुन संज्ञा इसी का पर्याय है। विषय और इंद्रियों के सम्पर्क से उत्पन्न होने वाला मानसिक सुख काम है। महाभारत में अर्थ की समृद्धि से होने वाले आनंद को काम कहा गया है। वात्स्यायन के अनुसार आत्मा से संयुक्त मन से अधिष्ठित कान, त्वचा, आंख, जिह्वा और नाक आदि इंद्रियों का अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त होना काम है। उन्होंने उसी प्रवृत्ति को काम माना है, जो धर्म के अनुकूल हो । आधुनिक विचारकों में फ्रायड ने इस मनोवृत्ति पर सूक्ष्मता से चिन्तन किया और इसे मौलिक वृत्ति के रूप में स्वीकार किया। संसार से विरक्त एवं निवृत्ति मार्ग पर प्रस्थित होते हुए भी नियुक्तिकार ने काम की जिन अवस्थाओं का वर्णन किया है, वह उनके बाहुश्रुत्य एवं अन्य ग्रंथों के गहन अध्ययन की ओर संकेत करता है। दशवैकालिकनियुक्ति में काम के दो भेद मिलते हैं—१. असंप्राप्त काम २. संप्राप्त काम। संप्राप्त काम का अर्थ है—प्रिय व्यक्ति के सामने रहने पर होने वाली मानसिक एवं शारीरिक अवस्थाएं। असंप्राप्त काम का तात्पर्य है—प्रिय की अनुपस्थिति में होने वाली अवस्थाएं। असंप्राप्त काम की दश अवस्थाएं हैं १. अर्थ-किसी के रूप को सुनकर होने वाली आसक्ति। २. चिंता—बार-बार उसी के गुणों का चिन्तन । ३. श्रद्धा—प्रिय के प्रति पूर्ण समर्पणभाव, उससे मिलने की अभिलाषा । ४. संस्मरण—वियोग में बार-बार उसी की स्मृति। ५. विक्लवता—वियोग होने पर आहार आदि में अरुचि होना, बैचेनी होना। ६. लज्जा-परित्याग-गुरु-जनों के सामने भी बार बार उसी के नाम एवं गुणों का स्मरण। ७. प्रमाद—सब कार्यों को छोड़कर उसी का चिन्तन तथा शब्दादि विषयों में अरुचि। १. दशनि २३३। २. दशनि २३४। ३. दशनि २३५ । ४ मभा., वनपर्व ३७/८ । ५. कामसूत्र; १/२/११; श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिहाघ्राणानामात्मसंयुक्तेन मनसाधिष्ठितानां स्वेषु स्वेषु विषयेष्वानुकूल्यत: प्रवृत्ति: कामः.............. | आत्मसंयुक्तेन मनसा धर्मानुकूलेन प्रवृत्ति: कामः । ६. दशनि २३७, २३८ । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक ८. उन्माद—कार्य और अकार्य का ज्ञान न रहना तथा निरर्थक बकवास करना। ९. तद्भाव हर वस्तु में प्रिय का चिंतन करके उसका आलिंगन आदि करना। १०. मरण-उसकी याद में प्राण-परित्याग कर देना। चूर्णिकार ने मरण को नौवीं तथा तद्भाव को दसवीं अवस्था स्वीकार किया है किन्तु टीकाकार हरिभद्र ने तद्भाव को नौवीं तथा मरण को दसवीं अवस्था के रूप में स्वीकार किया है। अवस्थाओं की दृष्टि से टीकाकार हरिभद्र का कम अधिक संगत लगता है। बृहत्कल्प भाष्य में असंप्राप्त काम के दस लक्षणों का वर्णन कुछ अंतर के साथ मिलता है:१. चिन्ता ६. सभी विषयों के प्रति चित्त में अरुचि २. प्रिय को देखने की इच्छा ७. मूर्छा ३. स्मृति में दीर्घ नि:श्वास छोड़ना ८. उन्माद ४. कामज्वर ९. बेभान होना ५. दाह का अनुभव १०. मरण। उत्तराध्ययन की सुखबोधाटीका में इन अवस्थाओं का विस्तार से वर्णन है। स्थानांग टीका में काम के अभिलाषा, चिंता, सततस्मरण, उत्कीर्तन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और मृत्यु ये दश भेद मिलते हैं। वात्स्यायन ने कामसूत्र में काम के दस स्थान बताए हैं, उनमें शाब्दिक भिन्नता पर यदि ध्यान न दिया जाए तो अर्थ की दृष्टि से ये असंप्राप्त काम के संवादी हैं। १. आंखों में प्रेम की झलक। ६. लज्जा का भाग जाना। २. चित्त की आसक्ति। ७. अन्य विषयों में मन नहीं लगना। ३. संकल्प की उत्पत्ति। ८. उन्माद। ४. निद्रा का भाग जाना। ९. मूर्छा। ५. काम-भावना से दुर्बलता का अनुभव। १०. मृत्यु। नियुक्तिकार ने संप्राप्त काम के १४ भेदों का उल्लेख किया है - १. दृष्टिपात ८. नखनिपात २. दृष्टि सेवा (निरंतर उसी को देखना) ९. चुम्बन ३. संभाषण १०. आलिंगन ४. प्रणय प्रकट करने के लिए मुस्कराना ११. आदान-~-गोद में बिठाना ५. गीत, नृत्य आदि करना १२. करण-वस्त्र रहित करना ६. अवगूहन १३. आसेवन ७. आपस में दांत मिलाना १४. रतिक्रीड़ा १. दशअचू पृ. १४२, हाटी प. १९४ । २. बृभा २२५८; चिंता य दटुमिच्छइ, दीहं नीससइ तह जरो दाहो। चित्तअरोयग मुच्छा, उम्मत्तो न याणई मरणं।। ३. उसुटी प. ८५ । ४. स्थाटी प. ४२३, ४२४ । ५. कामसूत्र ५/१/२, ३, चक्षुःप्रीति: मन:संग: संकल्पोत्पत्ति र्निद्राच्छेद: तनुता विषयेभ्यो व्यावृत्ति: लज्जाप्रणाश: उन्माद: मूर्छा-मरण मिति तेषां लिंगानि। ६. दशनि २३८, २३९ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवक्षण ___ आचार्य बाभ्रवीय का कामसूत्र वर्तमान में अनुपलब्ध है लेकिन पंडित यशोधर एवं वात्स्यायन ने अपने ग्रंथों में इनके उद्धरण दिए हैं। बाभ्रवीय के अनुसार प्रिय की सन्निकटता में काम के मुख्यत: आठ तथा विस्तार से ६४ अंग होते हैं। आठ अंग इस प्रकार हैं—१. आलिंगन २, चुम्बन, ३. नखच्छेद, ४. दशनच्छेद, ५. सह शयन, ६. सीत्कार, ७. सम्भोग, ८. मुखसम्भोग। दक्षसंहिता में संप्राप्त और असंप्राप्त—इन दोनों ही कामों का समाहार आठों अंगों में किया गया है—१. स्मरण, २. कीर्तन, ३. क्रीड़ा, ४. स्नेह युक्त दृष्टिक्षेप, ५. गुप्त संभाषण, ६. संकल्प, ७. प्रिय-प्राप्ति के लिए अध्यवसाय, ८. क्रियानिष्पत्ति ।' मनुस्मृति में धर्म, अर्थ और काम की सर्वश्रेष्ठता के संबंध में अनेक मतों को प्रस्थापित कर अंत में त्रिवर्ग में तीनों को श्रेष्ठ माना है। भगवान् महावीर ने धर्म को शरण, गति और प्रतिष्ठा के रूप में स्वीकार किया है तथा इसे सर्वोच्च स्थान दिया है। वर्ण-व्यवस्था एवं वर्णसंकर जातियां वैदिक ग्रंथों में वर्ण-व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके विभाजन के पीछे ऋषियों का चिन्तन था आचार और कर्म का विवेक लेकिन जब यह वर्ण-व्यवस्था अधिकार के साथ जुड़ गयी तब इसमें विकृति का प्रवेश होने लगा। जाति या वर्ण के आधार पर व्यक्ति को पशु से भी बदतर माना जाने लगा, यह मानवीय अधिकार का दुरुपयोग था। भगवान् महावीर ने जाति एवं वर्ण-व्यवस्था के विरोध में अपनी आवाज को बुलन्द किया और कर्म के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जातियों का निरूपण किया। यद्यपि नियुक्तिकार ने 'मनुष्य जाति एक है' इस स्वर को बुलन्द किया है लेकिन वे अपने समकालीन तथा पूर्ववर्ती साहित्य एवं संस्कृति से बहुत प्रभावित भी रहे हैं। इसके अनेक उदाहरण नियुक्ति-साहित्य में मिलते हैं। वर्ण-व्यवस्था का जो वर्णन आचारांगनियुक्ति में मिलता है, उसमें वैदिक परम्परा का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। वर्ण-व्यवस्था एवं वर्णान्तर जाति के ऐसे भेदों का कोई उल्लेख जैन आगम-साहित्य में नहीं मिलता। ब्रह्म की व्याख्या में स्थापना ब्रह्म के अंतर्गत उस समय की प्रचलित अनेक वर्ण एवं वर्णान्तर जातियों का उल्लेख आचारांग नियुक्ति में मिलता है। सर्वप्रथम ऋग्वेद के दसवें मंडल पुरुष-सूक्त में वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति का संकेत मिलता है। यजुर्वेद के अनुसार सर्वप्रथम ब्राह्मण, फिर क्षत्रिय, वैश्य और अंत में शूद्र की उत्पत्ति हुई। ऋग्वेद के अनुसार विराट् पुरुष के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, ऊरु से वैश्य तथा पैर से शूद्र उत्पन्न हुए। उस विराट् पुरुष के सहस्र शिर, सहस्र आंखें तथा सहस्र पैर थे तथा वह भूत और भविष्य १. दक्षसंहिता; स्मरणं कीर्तनं केलिः, प्रेक्षणं गुह्यभाषणम्। संकल्पोऽध्यवसायश्च, क्रियानिष्पत्तिरेव च।। २. मनु. २/२२४; धर्मार्थावुच्यते श्रेय: कामार्थो धर्म एव च। अर्थ एवेह वा श्रेयस्त्रिवर्ग इति तु स्थितिः।। ३. उ. २३/६८। ४. उ. २५/३१; कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा।। ५. यजुर्वेद ३०.५, ब्रह्मणे ब्राह्मणं,क्षत्राय राजन्यं, मरुद्भ्यो वैश्य, तपसे शूद्रम्। ६. ऋग्वेद १०/१०/१२; ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्, बाहू राजन्य: कृतः । ऊरू तदस्य यद् वैश्य: पद्भ्यां शूद्रोऽजायत।।, Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ निर्युक्तिपंच था।' वैदिक परम्परा की इस मान्यता का जैन पुराण- साहित्य पर स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है । महापुराण एवं पद्मपुराण के अनुसार ऋषभदेव ने भुजाओं में शस्त्र धारण कर क्षत्रियों की सृष्टि की, ऊरुओं से देशाटन कर वैश्यों की रचना की क्योंकि वैश्य विभिन्न देशों की यात्रा कर व्यापार द्वारा आजीविका चलाते थे। शूद्रों की रचना पैरों से की क्योंकि वे सदा नीच वृत्ति में तत्पर रहते थे । ऋषभ के पुत्र भरत मुख से शास्त्रों का अध्ययन कराते हुए ब्राह्मणों का सृजन किया। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि चारों वर्णों की सृष्टि गुण और कर्म के आधार पर मैंने की है। इनका विनाश भी मेरे हाथ में है । निर्युक्तिकार के अनुसार भगवान् ऋषभ के राज्यारूढ़ होने से पूर्व एक ही (क्षत्रिय) जाति थी । ऋषभ के राजा बनने के बाद फिर क्रमश: शूद्र, वैश्य और श्रावक धर्म का प्रवर्त्तन करने पर ब्राह्मणों की उत्त्पत्ति हुई। टीकाकार ने नियुक्तिकार की संवादी व्याख्या की है किन्तु चूर्णिकार का मत नियुक्तिकार से भिन्न है। उनके अनुसार ऋषभदेव के समय जो उनके आश्रित थे, वे क्षत्रिय कहलाए । बाद में की खोज होने पर उन गृहपतियों में जो शिल्प और वाणिज्य का कर्म करने वाले थे, वे वैश्य कहलाए । भगवान् के दीक्षित होने पर भरत के राज्याभिषेक के बाद भगवान् के उपदेश से श्रावक धर्म की उत्पत्ति हुई। धर्मप्रय थे तथा 'मा हण' 'मा हण' रूप अहिंसा का उद्घोष करते थे अत: लोगों ने उनका नाम माहण— ब्राह्मण रख दिया । जो न भगवान् के आश्रित थे और न किसी प्रकार का शिल्प आदि करते थे, वे अश्रावक शोक एवं द्रोह स्वभाव से युक्त होने के कारण शूद्र कहलाए। शूद्र का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ शू अर्थात् शोक स्वभाव युक्त तथा द्र अर्थात् द्रोह स्वभाव युक्त किया है । " चूर्णिकार द्वारा किए गए क्रम-परिवर्तन में एक कारण यह संभव लगता है कि चूर्णिकार पर वैदिक परम्परा का प्रभाव पड़ा है। पद्मपुराण के अनुसार भगवान् ऋषभदेव ने जिन पुरुषों को विपत्तिग्रस्त मनुष्यों के लिए नियुक्त किया, वे क्षत्रिय कहलाए । जिनको वाणिज्य, खेती एवं पशुपालन आदि के व्यवसाय में लगाया, वे वैश्य कहलाए । जो निम्न कर्म करते थे तथा शास्त्रों से दूर भागते थे, उन्हें शूद्र संज्ञा से अभिहित किया गया। महापुराण में भी इसका संवादी वर्णन है । वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति के बारे में मुख्य रूप से पांच सिद्धांत प्रचलित हैं - १. देवी सिद्धांत २. गुण सिद्धांत ३. कर्म सिद्धांत ४. वर्ण एवं रंग का सिद्धांत ५ जन्म का सिद्धांत | वर्णसंकर जातियां चार वर्णों के बाद अनेक जातियां तथा उपजातियां उत्पन्न हुईं। इसका कारण अनुलोम- प्रतिलोम विवाह थे । महापुराण के अनुसार वर्णसंकर उत्पन्न करने वाले दंड के पात्र होते थे । ९ संयोग के आधार पर १६ जातियां उत्पन्न हुईं, जिनमें सात वर्ण तथा नौ वर्णान्तर कहलायीं ।" ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, क्षत्रियसंकर", वैश्यसंकर १२ और शूद्रसंकर ये सात वर्ण हैं । इन सात वर्णों में अंतिम तीन १. ऋग्वेद १०/९०/१, २; सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम् ।। २. महापु. १६/२४३-४६, पद्म ५ / १९४,१९५ । ३. गीता ४ / १३; चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ४. आनि १९ । ५. आचू पृ. ४, ५ । । ६. पद्म ३/२५६-५८, हरि. ९/३९ । ७. महापु. १६/१८३ । ८. विस्तार हेतु देखें प्राचीन भारतीय संस्कृति पृ. ३८४-९६ । ९. महापु. १६ / २४८ । १०. आनि २० । ११. ब्राह्मण तथा क्षत्रिय स्त्री से उत्पन्न । १२. ब्राह्मण तथा वैश्य स्त्री से उत्पन्न । १३. क्षत्रिय और शूद्र स्त्री से उत्पन्न । -- Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण अनंतर योग से उत्पन्न होते हैं इसलिए अंतिम वर्ण शूद्र का व्यपदेश होता है। नियुक्तिकार के अनुसार अम्बष्ठ आदि ९ वर्णान्तर जातियों की उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार है मागध सूत । क्षत्त । वैदेह | चाण्डाल वर्णान्तर | अम्बष्ठ | उग्र | निषाद/ | अयोगव परासर पुरुष ब्राह्मण क्षत्रिय ब्राह्मण वैश्या शूद्रा वैश्या वैश्य क्षत्रिय वैश्य | शूद्र ब्राह्मणी | ब्राह्मणी शूद्रा क्षत्रिया ब्राह्मणी क्षत्रिया मनुस्मृति में वर्णान्तर के स्थान पर वर्णसंकर शब्द का प्रयोग हुआ है। मनुस्मृतिकार ने वर्णसंकर संतान उत्पन्न होने के तीन कारण माने हैं—१. व्यभिचार २. एक गोत्र में विवाह ३. यज्ञोपवीत संस्कार आदि छोड़ना। मनुस्मृति में चार वर्णों से उत्पन्न निम्न वर्णसंकर जातियों का उल्लेख मिलता है क्षत्त | वैदेह चाण्डाल वर्णान्तर | अम्बष्ठ| उग्र | निषाद/ | अयोगव' | मागध | सूत पारशव पुरुष ब्राह्मण क्षत्रिय ब्राह्मण | शूद्र वैश्य क्षत्रिय स्त्री वैश्या शूद्रा वैश्या क्षत्रिया ब्राह्मणी वैश्य ब्राह्मणी क्षत्रिया ब्राह्मणी गौतमधर्म सूत्रकार ने विवाह के प्रसंग में अम्बष्ठ, उग्र, निषाद, दौष्मन्त और पारशव को अनुलोम विवाहों से उत्पन्न वर्णसंकर जातियां मानी हैं तथा सूत, मागध, अयोगव, कृत, वैदेह और चाण्डालइन छह को प्रतिलोम विवाह१५ से उत्पन्न वर्णसंकर जातियां स्वीकार की हैं ।१६ मनुस्मृति में कृत के स्थान पर क्षत्र/क्षत्त शब्द का प्रयोग मिलता है ।१७ गौतम सूत्र में इन वर्णसंकर जातियों की संख्या ग्यारह मिलती है। नियुक्तिकार और मनुस्मृतिकार ने निषाद और पारशव को एकार्थक माना है। जबकि गौतमसूत्र में इन दोनों को भिन्न माना है। गौतम सूत्र के अनुसार इनकी उत्पत्तिक्रम में भी कुछ १. आनि २१। १०. मनु. १०/१२। २. आनि २२-२५॥ ११. मनु. १०/११ ३. मनु १०/२४। १२. मनु. १०/१२ ४. मनु. १०/८। १३. अनुलोम विवाह का अर्थ है उच्च वर्ण के पुरुष का अपने से निम्न ५. मनु.१०/९। वर्ण की स्त्री से विवाह। ६. मनु. १०/८। १४. गौ. १/४/१४; अनुलोमा अनन्तरैकान्तरव्यन्तरासु जाता:सवर्णाम्बष्ठोग्र ७. (क) मनु. १०/१२ । निषाददौष्मन्तपारशवाः । (ख) मनुस्मृति में अयोगव के स्थान पर १५. प्रतिलोम विवाह का अर्थ है पुरुष का अपने से उच्च वर्ण की स्त्री आयोगव का प्रयोग हुआ है। से विवाह। ८. मनु. १०/११ । १६. गौ. १/४/१५ प्रतिलोमास्तु सूतमागधायोगवकृतवैदेहकचण्डालाः । ९. मनु. १०/११। १७. मनु. १०/२६ । १८. आचारांगनियुक्ति में पारशव का परासर नाम मिलता है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ नियुक्तिपंचक भिन्नता है, जो इस प्रकार है - वर्णान्तर अम्बष्ठ | उग्र पुरुष क्षत्रिय | वैश्य स्त्री वैश्या शूद्रा निषाद दौष्मन्त | पारशव | सूत | मागध अयोगव |कृत वैदेहक चाण्डाल ब्राह्मण क्षत्रिय ब्राह्मण | क्षत्रिय | वैश्य वैश्य वैश्या शूद्रा शूद्रा | ब्राह्मणी क्षत्रिया | वैश्या ब्राह्मणी | क्षत्रिया | ब्राह्मणी शूद्र इन जातियों का विस्तृत वर्णन महाभारत के अनुशासन पर्व में मिलता है। जैन पुराणों में भी अनेक जातियों एवं उपजातियों का उल्लेख मिलता है।' वर्णान्तर के संयोग से उत्पन्न जातियां नियुक्तिकार ने वर्णान्तर से उत्पन्न चार जातियों का उल्लेख किया है। उनके अनुसार उग्र पुरुष से क्षत्त स्त्री में उत्पन्न जाति श्वपाक, वैदेह पुरुष से क्षत्त स्त्री में उत्पन्न जाति वैणव, निषाद पुरुष से अम्बष्ठ अथवा शूद्र स्त्री में उत्पन्न जाति बुक्कस तथा शूद्र पुरुष और निषाद स्त्री से उत्पन्न जाति कुक्कुरक कहलाती है। मनुस्मृति में वर्णसंकर जातियों के संयोग से उत्पन्न अनेक जातियों का उल्लेख है। उनकी उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार है वर्णशंकर कुक्कुटक आवृत' | आभीर | धिग्वण" | पुक्कस' ब्राह्मण ब्राह्मण ब्राह्मण । निषाद उग्रा अम्बष्ठी अयोगवी | शूद्रा श्वपाक | वेण । | मैत्रेयक २ | मार्गव क्षत्त वैदेह । अम्बष्ठी | अयोगवी | अयोगवी पुरुष स्त्री वैदेह निषाद निषादी उग्रा मज्झिमनिकाय में बुक्कस और वैणव आदि पांच जातियों को हीन माना है। वैदिक ग्रंथों में और भी अनेक वर्णसंकर जातियों का उल्लेख मिलता है लेकिन यहां केवल नियुक्ति में आयी वर्णसंकर जातियों की तुलना के लिए ग्रंथान्तर के उद्धरण दिए हैं। चूर्णिकार ने इनको सच्छंदमतिविगप्पितं माना है अर्थात् वैदिक परम्परा में वर्ण एवं वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति के विषय में जो कुछ कहा गया है, वह स्वच्छंदमति की कल्पना है ।१५ स्थावरकाय आचारांग सूत्र का प्रारम्भ अस्तित्व-बोध की जिज्ञासा से होता है। भगवान् महावीर स्पष्ट कहते हैं कि पांच स्थावर जीवों के अस्तित्व के साथ ही अन्य प्राणियों का अस्तित्व टिका हुआ है। जो लोक (स्थावर जीवों) के अस्तित्व को नकारता है, वह अपने अस्तित्व को नकारता है ।१६ स्थावर जीवों में १. गौ. १/४/१४, १५ । २. मभा. अनुशासन पर्व । ३. जैन पुराणों का.........पृ. ५२, ५३। ४. आनि २६, २७। ५-७. मनु १०/१५ । ८, ९. मनु १०/१८। १०, ११. मनु १०/१९ । १२. मनु.१०/३३ । १३. मनु. १०/३४ मार्गव को दास और कैवर्त भी कहा जाता था। १४ मज्झिम २/५/३। १५. आचू पृ. ६। १६. आयारो १/६६। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण ८९ जीवत्व-निरूपण का मुख्य आधार है...प्रत्यक्ष दर्शन। महावीर ने प्रत्यक्ष ज्ञान (केवल ज्ञान, केवल दर्शन) के द्वारा इन अति सूक्ष्म जीवों का अस्तित्व देखा। आचार्य सिद्धसेन कहते हैं—भगवन्! आपकी सर्वज्ञता की सिद्धि में एक प्रमाण ही पर्याप्त है कि आपने षड्जीवनिकाय का निरूपण किया। समूचे भारतीय दर्शन में षड्जीवनिकाय का निरूपण महावीर की एक मौलिक प्रस्थापना है। वैदिक धर्म में पृथ्वी, जल आदि को देववाद के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। जैसे पृथ्वी देवता, जल देवता, अग्नि देवता आदि। कुछ दार्शनिकों ने इन्हें पंच भूतों के रूप में स्वीकार किया। इस संदर्भ में महावीर ने द्वादशांगी के प्रथम अंग आचारांग में अपना क्रान्त-स्वर मुखर करते हुए कहा-'पृथ्वी, पानी, अग्नि आदि के आश्रित तो अनेक त्रस जीव हैं ही पर ये स्वयं जीव हैं। पृथ्वीकाय आदि स्थावर जीवों की हिंसा करने वाला उनके आश्रित रहने वाले सूक्ष्म या बादर पर्याप्त या अपर्याप्त अनेक जीवों की हिंसा करता है। सृष्टि-संतुलन की दृष्टि से यह बहुत महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि किसी भी काय के जीवों की हिंसा से सम्पूर्ण जीव-मंडल प्रभावित होता है। ये स्थावर जीव मूक, अंध, बधिर प्राणी की भांति अपनी वेदना को व्यक्त करने में असमर्थ हैं पर इनकी वेदना को आत्मवत् स्वीकार करना चाहिए, यही अहिंसा की उत्कृष्टता है। जैसे कोई धतूरा मिश्रित द्रव पी ले तो मूर्छित होने के कारण उसमें चैतन्य या वेदना के लक्षण स्पष्ट दिखाई नहीं पड़ते वैसे ही स्त्यानद्धि रूप सघन मूर्छा के कारण इनमें चैतन्य स्पष्ट प्रतिभासित नहीं होता। ये जीव अमनस्क वेदना की अनुभूति करते हैं। नियुक्तिकार के अनुसार जैसे मनुष्यों के अंग-प्रत्यंगों का छेदन करने से उनको पीड़ा होती है, वैसे ही पृथ्वीकाय के अंगोपांग न होने पर भी अंगोपांग के छेदन-भेदन तुल्य वेदना होती है। आयारो में पुनरावृत्ति का खतरा उठाकर भी पृथ्वी आदि के स्वरूप एवं अस्तित्व-सिद्धि का पृथक्-पृथक् विस्तृत विवेचन किया गया है। महावीर कहते हैं कि व्यक्ति अपनी आसक्ति एवं अज्ञान के कारण सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर पाता। आचारांगनियुक्ति में स्थावर जीव में जीवत्व-निरूपण के प्रसंग में पर्यावरण-संरक्षण एवं सृष्टि-संतुलन के महत्त्वपूर्ण सूत्र उपलब्ध होते हैं । यद्यपि नियुक्तिकार ने पर्यावरण जैसे शब्द का प्रयोग नहीं किया लेकिन इस संदर्भ में जितनी गहराई से आचारांग सूत्र एवं उसकी नियुक्ति में चिंतन हुआ है, वैसा अन्य किसी प्राचीन ग्रंथ में मिलना दुर्लभ है। आचारांगनियुक्ति में शस्त्र की उत्पत्ति एवं हिंसा के मनोवैज्ञानिक कारण प्रस्तुत हैं। उनके अनुसार दुष्प्रयुक्त मन, वचन, काया तथा अविरति—ये सबसे बड़े शस्त्र हैं। आज मनोवैज्ञानिक.स्पष्ट रूप से इस बात की उद्घोषणा कर चुके हैं कि शस्त्र का निर्माण एवं युद्ध सर्वप्रथम मनुष्य के मस्तिष्क में होता है फिर युद्धक्षेत्र में लड़ा जाता है। आधुनिक जीव-वैज्ञानिकों ने अनेक प्रकार के जीवों की खोज की है किन्तु नियुक्तिकार ने जिस सूक्ष्मता से जीवों के भेदों का निरूपण किया है, वहां तक अभी विज्ञान की पहुंच नहीं हो सकी है। सभी स्थावरकाय के सूक्ष्म और बादर ये दो भेद मिलते हैं। सूक्ष्म जीव समूचे लोक में तथा बादर जीव.लोक १. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका १/१३ । २. आयारो १/२७, आनि १०२, १०३ । ३. आयारो १/२८, २९ । ४. आनि ९७, ९८। ५. आनि ३६। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० नियुक्ति पंचक के एक भाग में व्याप्त रहते हैं । पृथ्वीकाय में बादर पृथ्वी के दो भेद मिलते हैं—श्लक्ष्ण बादर पृथ्वी और खर बादर पृथ्वी । खर बादर पृथ्वी के बालुका, शर्करा आदि छत्तीस प्रकार हैं। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के भेद से पृथ्वीकाय आदि के अनेक भेद होते हैं । इसी के आधार पर पृथ्वीकाय की सात लाख योनियां होती हैं। पृथ्वी के एक, दो या संख्येय जीव दृष्टिगोचर नहीं होते । पृथ्वी का असंख्येय जीवात्मक पिंड ही दृष्टिगत होता है । अर्थात् पृथ्वीकाय के जीव इतने सूक्ष्म हैं कि असंख्य जीवों के पिंड ही चर्म चक्षुओं के लिए ग्राह्य हो सकते हैं । अनंतकाय वनस्पति में बादर निगोद के अनंत जीवों के शरीरों का पिंड दृग्गोचर हो सकता है किन्तु सूक्ष्म निगोद के अनंतानंत जीवों का संघात ही दृग्गोचर होता है । पृथ्वीकाय जीवों की सूक्ष्मता को जैन आचार्यों ने एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है । कोई चक्रवर्ती की दासी पृथ्वी या नमक के टुकड़े को वज्रमय शिलापुत्र से २१ बार पीसे तो भी कुछ जीव संघट्टित होते हैं, कुछ नहीं । कुछ जीव परितापित होते हैं, कुछ नहीं। कुछ जीव स्पृष्ट होते हैं, कुछ नहीं । वैज्ञानिक परीक्षणों से सिद्ध हो चुका है कि एक चम्मच मिट्टी में जितने सूक्ष्म जीव हैं, उतनी सम्पूर्ण विश्व की आबादी है। जूलियस हेक्सले ने अपनी पुस्तक 'पृथ्वी का पुनर्निर्माण' में इस तथ्य को उद्घाटित किया है कि एक पेंसिल की नोक से जितनी मिट्टी उठ सकती है, उसमें दो अरब से अधिक विषाणु होते हैं तथा पेंसिल की नोक के अग्र भाग पर स्थित मिट्टी में जीवों की संख्या विश्व के समस्त मनुष्यों की संख्या के बराबर है। भगवती सूत्र में भगवान् महावीर ने पृथ्वीकायिक जीवों की अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग बतलाई है । पृथ्वीकाय जीवों के परिमाण को रूपक के माध्यम से समझाते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर यदि एक-एक पृथ्वीकायिक जीव को रखा जाए तो वे सारे जीव असंख्य लोकों में समाएंगे। दूसरा रूपक देते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जैसे कोई व्यक्ति प्रस्थ, कुडव आदि साधनों से सारे धान्य का परिमाण करता है वैसे ही लोक को कुडव बनाकर पृथ्वीकायिक जीवों का परिमाण करे तो वे जीव असंख्येय लोकों को भर सकते हैं । साधारण वनस्पति के जीवों को प्रस्थ आदिसे माप कर अन्यत्र प्रक्षिप्त करे तो अनंत लोक भर जाएंगे। इसी प्रकार अन्य कायों के भेद एवं उनका परिमाण भी ज्ञातव्य है । स्थावर काय में जीवत्व - सिद्धि आचारांग सूत्र में वनस्पति में जीवत्व - सिद्धि के अनेक हेतु दिए हैं किन्तु अन्य पृथ्वी आदि स्थावर जीवों की जीवत्व-सिद्धि में तार्किक हेतु न देकर आज्ञागम्य करने का निर्देश किया है । " नियुक्तिकार ने पृथ्वी आदि पांच स्थावरों में जीवत्व - सिद्धि के अनेक तार्किक एवं व्यावहारिक हेतु प्रस्तुत किए हैं। स्थावरकाय की जीवत्व - सिद्धि में दिए गए तर्क नियुक्तिकार की मौलिक देन है तथा ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं । सैद्धान्तिक दृष्टि से भी उन्होंने जीवत्व के अनेक हेतु प्रस्तुत किए हैं। पृथ्वीकाय आदि में उपयोग, योग, अध्यवसाय, मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, अचक्षुदर्शन, लेश्या, संज्ञा, सूक्ष्म श्वास १. आनि ७२-७६ । २. आनि ७७, ७८ । ३. आनि ८२ । ४. आनि १४३ । ५. आनि ८७, ८८, १४४ । ६. आनि (क) १०८, ११८, १२७-३०, १६६ । आनि ( ख ) १०९, १२० १३४, १४५, १६८ । ७. आयारो १/३८ । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण नि:श्वास तथा कषाय आदि का अस्तित्व होता है।' नियुक्तिकार ने प्रत्येक स्थावरकाय के निक्षेप, प्ररूपणा, लक्षण, परिमाण, उपभोग, हिंसा के शस्त्र, वेदना, वध और निवृत्ति- इन ९ द्वारों का वर्णन किया है। ये सभी द्वार आधुनिक जीवविज्ञान की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। त्रस जीवों में गति, आगति, भाषा आदि के स्पष्ट चिह्न दिखाई देने से उनके चैतन्य में कोई संदेह नहीं होता पर पृथ्वीकाय आदि जीवों में चैतन्य के व्यावहारिक लक्षण दिखाई नहीं देते अत: उनकी सजीवता सहजगम्य नहीं होती। पृथ्वीकाय पृथ्वीकाय में चैतन्य-सिद्धि का हेतु देते हुए कहा गया कि जैसे मानव शरीर में मस्सा आदि समानजातीय मासांकुर उत्पन्न होते हैं, वैसे ही पृथ्वीकाय में समानजातीय वृद्धि होती है। खोदी हुई नमक की खान में नमक बढ़ता जाता है, समुद्र में मूंगा उत्पन्न होता है अत: पृथ्वी सजीव है। आधुनिक भूवैज्ञानिकों ने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि शिलाखंड, पर्वत आदि में हानि-वृद्धि होती है। वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार केदारनाथ और बद्रीनाथ तीर्थस्थानों की ऊंचाई में पिछले ७० वर्षों में १०६ मीटर की वृद्धि हुई है तथा हिमालय की पर्वत-श्रृंखलाएं एक शताब्दी में १० सेमी. की गति से ऊंची हो रही हैं। इसी प्रकार इंडोनेशिया के द्वीप समूह की भूमि भी ऊपर उठ रही है। द्वीप की भूमि का उठाव एवं पर्वतों की वृद्धि से पृथ्वी की सजीवता सिद्ध होती है। प्रश्न हो सकता है कि पृथ्वी इतनी कठोर है तो उसमें चैतन्य का लक्षण कैसे घटित हो सकता है, इसका उत्तर देते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जैसे शरीर में हड्डी कठोर होती है पर उसमें चेतना अनुगत होती है, वैसे ही कठोर होते हुए भी पृथ्वीकाय में चैतन्य है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र वसु तथा एफ. आर. एम. आदि विद्वानों ने अनेक प्रयोगों से यह सिद्ध कर दिया है कि पत्थर, तांबा, लोहा आदि उत्तेजित किए जा सकते हैं तथा थोड़ी देर उत्तेजित होने के बाद इनमें थकान के चिह्न भी देखे जाते हैं। पर्वत आदि में क्लान्ति, चयापचय और मृत्यु-चैतन्य के ये तीनों लक्षण पाए जाते हैं। पृथ्वी का मानव-स्वभाव पर भी आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है। भूवैज्ञानिक मानते हैं कि पृथ्वी में क्रोध, अहंकार, युद्ध, शांति, क्रूरता आदि स्वभाव होते हैं। उनके इस स्वभाव का प्रभाव मानव समुदाय पर स्पष्ट रूप से पड़ता है। जूलियस हेक्सले का मानना है कि केलिफोर्निया प्रांत या साइबेरिया भेजने पर मनुष्य अपनी हिंसकवृत्ति भूलकर गाय या बकरी की भांति पालतू बन जाते हैं। डॉ. चार्ल्स कैला के अनुसार अमरिकी गृहयुद्ध का कारण भूमि है। अप्काय पानी में जीव है इसे अनेक दार्शनिक स्वीकार करते थे पर पानी स्वयं जीव है, यह महावीर की नयी प्रस्थापना है। पानी में जीवत्व-सिद्धि का हेतु देते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जैसे तत्काल उत्पन्न (सप्ताह पर्यन्त) कललावस्था प्राप्त हाथी का द्रव शरीर सचेतन होता है, जैसे तत्काल उत्पन्न अंडे का मध्यवर्ती उदक-रस सचेतन होता है, वैसे ही अप्काय के जीव तरल होते हुए भी सजीव होते हैं।५ १. आनि ८४। २. आनि ६८। ३. षड्, टी पृ.२३८, भिक्षुन्यायकर्णिका ७/११ । ४. आनि ८५ । ५. आनि ११०। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक विज्ञान अभी तक तैजस्काय में जीवत्व के लक्षण नहीं खोज पाया है लेकिन भगवान् महावीर ने अपने ज्ञानचक्षुओं से इसमें चैतन्य के लक्षण देखे । नियुक्तिकार व्यावहारिक हेतुओं द्वारा तैजसका में जीवत्व के लक्षण प्रतिपादित करते हुए कहते हैं— 'जैसे रात्रि में खद्योत ज्योति करता है, वह उसके शरीर की शक्ति विशेष है । इसी प्रकार अंगारे में भी प्रकाश आदि की जो शक्ति है, वह तैजस्कायिक जीवों से आविर्भूत है। जैसे ज्वरित व्यक्ति की उष्मा सजीव शरीर में ही होती है, वैसे ही अग्निकायिक जीवों में प्रकाश या उष्मा उनके शरीर की शक्ति- विशेष है । जैसे आहार करने पर मनुष्य के शरीर की वृद्धि होती है,वैसे ही ईंधन आदि के द्वारा अग्नि बढ़ती जाती है अतः तैजस्काय सजीव है । जैसे मनुष्य ऑक्सीजन के आधार पर जीता है, वैसे ही अग्नि भी ऑक्सीजन के आधार पर ही प्रज्वलित रहती है अन्यथा वह बुझ जाती है । वायुकाय ९२ तैजस्काय वायु इंद्रियंगम्य नहीं, केवल अनुभूतिगम्य है । इसके अस्तित्व को सिद्ध करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं— 'जैसे देवताओं का शरीर चक्षुग्राह्य नहीं होता, जैसे—अंजन, विद्या तथा मंत्र - शक्ति से मनुष्य अंतर्धान हो जाता है, वैसे ही चक्षुग्राह्य न होने पर भी वायु का अस्तित्व है ।'' गाय, मनुष्य आदि की भांति किसी भी प्रेरणा के बिना ही वायु अनियमित रूप से इधर-उधर गति करती है, अत: वह सजीव है । १३ वनस्पतिकाय आचारांग सूत्र में वनस्पति और मानव की बहुत सुंदर तुलना की गयी है संभवत: इसीलिए पुनरुक्ति के भय से निर्युक्तिकार ने वनस्पति में जीवत्व - सिद्धि का कोई हेतु नहीं दिया। आयारो में वर्णित मनुष्य और वनस्पति की तुलना द्रष्टव्य है मनुष्य ९. मनुष्य जन्मता है । २. मनुष्य बढ़ता है। ३. मनुष्य चैतन्ययुक्त है । ४. मनुष्य छिन्न होने पर क्लान्त होता है । ५. मनुष्य आहार करता है। 1 ६. मनुष्य अनित्य है । ७. मनुष्य अशाश्वत | ८. मनुष्य उपचित और अपचित होता है। ९. मनुष्य विविध अवस्थाओं को प्राप्त होता है । १. आनि ११९ । २. भिक्षुन्यायकर्णिका ७/११ । वनस्पति वनस्पति भी जन्मती है 1 वनस्पति भी बढ़ती है । वनस्पति भी चैतन्ययुक्त 1 वनस्पति भी छिन्न होने पर क्लान्त होती है । वनस्पति भी आहार करती है । वनस्पति भी अनित्य I वनस्पति भी अशाश्वत I वनस्पति भी उपचित और अपचित होती है । वनस्पति भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होती है । ३. आनि १६७ । ४. आयारो १ / ११३ । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण चूर्णिकार के अनुसार वनस्पति में स्वप्न, दोहद, रोग आदि सभी लक्षण पाए जाते हैं। वनस्पति में जीवत्व के अनेक हेतु षड्दर्शनसमुच्चय की टीका में हैं। पौधों में अनुभूति, संवेदनशीलता और चेतना होती है, इसका सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य जगदीशचन्द्र वसु ने किया। उन्होंने यंत्र के माध्यम से पौधों की प्रतिक्रियाओं को ग्राफ पर उतारकर दिखलाया। उन्होंने देखा कि पौधों में हीनता और उच्चता के भाव भी होते हैं। उनमें हिंसक को देखकर भय तथा अपमान होने पर क्रोध संज्ञा जागृत होती है। आचार्य वसु ने पौधों को मदिरा पिलाई। पौधे पर मदिरा का वही असर हुआ, जो मानव पर होता है। पौधे ने अपनी मदहोशी ग्राफ पर अंकित कर दी। अमेरिका में यह खोज हो चकी है कि पौधों की अपनी भाषा होती है। वे अपनी सांकेतिक भाषा में आने वाले खतरों या कीड़े-मकोड़ों से बचने हेतु रसायन बनाते हैं तथा पड़ोसी पेड़ को सूचना देते हैं। अफ्रीका के घने जंगलों में कुछ ऐसे मासांहारी वृक्ष पाए जाते हैं, जिनकी शाखाओं पर ढालनुमा फूल लगते हैं तथा इन पर होने वाले कांटे दो फीट लम्बे होते हैं। जब कोई प्राणी ल से उधर से गजरता है तो ये अपनी कंटीली शाखाओं को फैलाकर प्राणी को घेर लेते हैं और अपने जहरीले कांटों से व्यक्ति का खून पी जाते हैं। आधुनिक वनस्पति विज्ञान के जनक कार्ल वान लिनिअस के अनुसार पौधे बोलने व कुछ सीमा तक गति करने के अलावा मानव से किसी भी अर्थ में कम नहीं होते। जापान का वैज्ञानिक हशीमोतो पौधों से बातचीत कर लेता था। वह पोलोग्राफ के चिह्नों को ध्वनि के रूप में रूपान्तरित करने में सफल हो गया था अत: उसने पौधों को एक से बीस तक की गिनती सिखा दी। जब पौधों से पूछा जाता कि दो और दो कितने होते हैं तो वह जिन ध्वनियों में उत्तर देता,उसे रेखाकृति में बदलने पर चार पृथक्पृथक् रेखाकृतियां उभर आतीं। नियुक्तिकार ने न केवल तर्क द्वारा स्थावर जीवों में जीवत्व-सिद्धि की है अपितु उनकी हिंसा न करने का भी निर्देश दिया है। उन्होंने बार-बार इस बात की उद्घोषणा की है कि व्यक्ति अपने सुख की खोज में इन पृथ्वी, अप् आदि जीवों की हिंसा करता है। स्थावरकाय में जीवत्व-निरूपण नियुक्तिकार की मौलिक एवं वैज्ञानिक देन है। भिक्षु का स्वरूप नियुक्तियां लगभग आचारपरक ग्रंथों पर लिखी गयीं अत: इनमें स्वत: आचार के अनेक विषयों का समावेश हो गया है। पंच आचार का सुंदर वर्णन दशवैकालिक नियुक्ति में मिलता है। इसी प्रकार पर्युषणाकल्प का वर्णन भी साध्वाचार की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मुनि के वर्षावास स्थापित करने के अनेक विकल्प उस समय की आचार-परम्परा का दिग्दर्शन कराते हैं। उत्तराध्ययननियुक्ति में वर्णित परीषह का विवरण कर्मशास्त्रीय एवं सैद्धान्तिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। नियुक्तिकार ने लगभग ९ द्वारों के माध्यम से परीषहों का सर्वांगीण वर्णन किया है। इसी प्रकार सामाचारी, विनय, समाधिमरण, षड्जीवनिकाय आदि का वर्णन भी जैन आचार की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। १. आचू पृ. ३५; सुयण-दोहल-रोगादिलक्खणा पज्जाया भाणियव्वा । २. षड्दर्शनसमुच्चय टी. पृ. २४२-४५ । ३. आनि ९४ । ४. दशनि १५४-६१। ५. दनि ५३-१२० । ६. उनि ६९-१४१। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ विस्तारभय से यहां केवल भिक्षु का स्वरूप एवं भिक्षाचर्या का ही वर्णन किया जा रहा है । भारतीय परम्परा में भिक्षु / संन्यासी का स्थान सबसे ऊंचा रहा है । प्रायः सभी धर्मों के आचार्यों ने भिक्षु के स्वरूप का निर्णय किया है। वैदिक परम्परा में मनुस्मृति, भगवद्गीता, महाभारत तथा उपनिषदों में अनेक स्थलों पर संन्यासी के गुणों एवं उसके स्वरूप का वर्णन मिलता है । बौद्ध परम्परा में 'धम्मपद' के अंतर्गत 'भिक्खुवग्ग' में भिक्षु के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। जैन परम्परा में प्राय: सभी आगम भिक्षु/ साधु को लक्ष्य करके लिखे गये हैं अत: स्फुट रूप से भिक्षु के गुणों एवं उसके करणीय-अकरणीय का स्थान-स्थान पर वर्णन मिलता किन्तु दशवैकालिक में 'स- भिक्खु' तथा उत्तराध्ययन में 'स-भिक्खुय' नामक स्वतंत्र अध्ययन हैं, जिनमें भिक्षु के स्वरूप, लक्षण, चर्या आदि का निरूपण किया गया है। दशवैकालिकनिर्युक्ति में 'स- भिक्खु' अध्ययन के नाम की व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि सकार तीन अर्थों में प्रयुक्त होता है – १. निर्देश, २. प्रशंसा और ३. अस्तिभाव । ' नियुक्ति पंचक 'स- भिक्खु ' — इस शब्द में सकार का प्रयोग निर्देश और प्रशंसा के अर्थ में हुआ है। जो दशवैकालिक में वर्णित अनुष्ठेय कार्यों का पालन करता है, वह (स) भिक्षु है । यहां सकार निर्देश के अर्थ में प्रयुक्त है, जिसका तात्पर्य यह है कि जो साधक / साधु इस आगम के पूर्ववर्ती नौ अध्ययनों में कथित आचार का पालन करता `तथा उसकी सम्यक् परिपालना और पुष्टि के लिए भिक्षा करता है, वह भिक्षु है। जो केवल उदरपूर्ति के लिए भिक्षाटन करता है; वह भिक्षु नहीं होता ।' 'स' और 'भिक्खु' (स-भिक्खु) इस यौगिक वाक्यांश में भिक्षु शब्द विशेष अर्थ में रूढ़ हो जाता है। इसके अनुसार भिक्षाशील व्यक्ति भिक्षु नहीं, किन्तु अहिंसक जीवन - निर्वाह के लिए शुद्ध एषणा करने वाला भिक्षु होता है।' दशवैकालिक के दूसरे अध्ययन की नियुक्ति में भिक्षु के २० तथा दशवें अध्ययन की नियुक्ति में २८ पर्यायवाची नामों की चर्चा करके उन सबको भिन्न-भिन्न निरुक्तों से समझाया गया है। निर्युक्तिकार ने द्रव्य और भाव भिक्षु के स्वरूप द्वारा भिखारी और भिक्षु में भेदरेखा स्पष्ट की है।' उनके अनुसार भिक्षु शब्द का एक निरुक्त है— जो भेदन करता है, वह भिक्षु है । इस अर्थ में जो कुल्हाड़ी से वृक्ष का छेदन - भेदन करता है, वह भी भिक्षु कहलाता है परन्तु वह द्रव्य भिक्षु है । भाव भिक्षु वह होता है, जो तपरूपी कुल्हाड़ी से युक्त होकर कर्मों का छेदन - भेदन करता है । जो भिक्षा मांगकर खाता है परन्तु स्त्री- सहित और आरंभी है, मिथ्यादृष्टि और हिंसक है, संचय करता है, सचित्तभोजी और उद्दिष्टभोजी है, अर्थ - अनर्थ पाप में प्रवृत्त होता है, वह द्रव्य भिक्षु है । यथार्थ भिक्षु वह होता है, जो भिक्षु के आचार का अक्षरश: पालन करता है और ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र की वृद्धि करता रहता है।" आचारांगनियुक्ति में अनगार के स्वरूप को इस भाषा में प्रकट किया है— 'जो गुप्तियों गुप्त, समितियों से समित, यतनाशील तथा सुविहित होते हैं, वे अनगार कहलाते हैं।“ आचारांग के अनुसार जो ऋजु होता है, मुक्तिपथ पर प्रस्थित होता है तथा अपनी शक्ति का गोपन नहीं करता, १. दशनि ३०६ । २. दशनि ३०७ । ३. दशनि ३०७ / १ । ४. दशनि १९३४, १३५, ३२०-२२ । ५. दशनि ३१४-१६ । ६. दशनि ३११, ३१७ । ७. दशनि ३१२- ३१४ । ८. आनि १०५ । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण वह अनगार कहलाता है। सूत्रकृतांग के अनुसार जो निरभिमानी, विनीत, पापमलप्रक्षालक, दान्त, रागद्वेषरहित, शरीर के प्रति अनासक्त, अनेक परीषहों से अपराजित, अध्यात्मयोगी, विशुद्ध चारित्र-सम्पन्न, सावधान, स्थितात्मा, यशस्वी, विवेकशील और परदत्तभोजी होता है, वह भिक्षु है। उत्तराध्ययन के सभिक्खुय अध्ययन की नियुक्ति में भिक्षु की निम्न कसौटियां बताई गई हैं—जो राग-द्वेष, मन, वचन, काया की अशुभ प्रवृत्ति, सावद्य योग, गौरवत्रय, शल्यत्रय, विकथा, आहार-भय आदि संज्ञाओं तथा कषाय और प्रमाद आदि का भेदन करता है, वह भिक्षु है। जैसे पीतल और सोना रंग से समान होने पर भी एक नहीं होते, वैसे ही केवल नाम और रूप की समानता तथा भिक्षा करने मात्र से भिक्षु नहीं हो सकता।' नियुक्तिकार ने भिक्षु के १७ मौलिक गुण निर्दिष्ट किए हैं, जो भिक्षुत्व के पैरामीटर कहे जा सकते हैं—संवेग, निर्वेद, विषय-विवेक, सुशीलसंसर्ग, आराधना, तप, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय, शांति, मार्दव, आर्जव, विमुक्ति, अदीनता, तितिक्षा और आवश्यक-परिशुद्धि ।' दशवैकालिकनियुक्ति में भिक्षु का स्वरूप बाईस उपमाओं से समझाया गया है। भिक्षु सर्प के समान एकदृष्टि, पर्वत के समान कष्टों में अप्रकंपित, अग्नि के समान तेजस्वी तथा अभेददृष्टि वाला, सागरसम गंभीर एवं ज्ञान-रत्नों से युक्त, नभ के समान स्वावलम्बी, वृक्ष के समान मान-अपमान में सम, भ्रमर के समान अनियतवृत्ति, मृग के समान अप्रमत्त, पृथ्वी के समान सहिष्णु, कमल की भांति निर्लेप, सूर्य के समान तेजस्वी, पवन की भांति अप्रतिबद्धविहारी, विष की भांति सर्वरसानुपाती, तिनिश की तरह विनम्र, वंजुल की तरह विषघातक, कणेर की तरह स्पष्ट, उत्पल की भांति सुगंधित, भ्रमर की भांति अनियतवृत्ति, चूहे की तरह उपयुक्त देश-कालचारी, नट की भांति प्रयोजन के अनुरूप परिवर्तन करने वाला, कुक्कुट की भांति संविभागी तथा कांच की तरह निर्मल हो। भिक्षु की आंतरिक साधना को प्रकट करने वाला एक महत्त्वपूर्ण विशेषण है -वोसठ्ठचत्तदेह । शारीरिक क्रियाओं का त्याग करने वाला वोसट्ठदेह तथा शरीर का परिकर्म-स्नान-मर्दन, उबटन आदि नहीं करने वाला चत्तदेह' कहलाता है। ये दोनों शब्द भिक्षु की आंतरिक और बाह्य दोनों साधना के द्योतक हैं तथा 'इमं सरीरं अणिच्चं' की आत्मगत भावना को व्यक्त करते हैं। भिक्षु वह होता है, जो निदान नहीं करता। निदान का अर्थ है भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिए साधना का विनिमय कर देना। भिक्षु भावी फलाशंसा से विरत होता है। वह अपनी साधना के बदले ऐहिक फल-प्राप्ति की कामना नहीं करता। उसका स्व होता है आत्मा पदार्थ उसके लिए आदर्श नहीं होते। वे मात्र उपयोगिता की दृष्टि से गृहीत होते हैं। . पर-निन्दा और आत्म-श्लाघा—ये दो महान् दोष हैं। वास्तविक भिक्षु इन दोनों से बचकर चलता है। उसका आलंबन सूत्र होता है—पत्तेयं पुण्णपावें । प्रत्येक प्राणी के अपना-अपना पुण्य और पाप तथा १. आ. १/३५; अणगारे उज्जुकडे नियागपडिवण्णे अमायं कुव्वमाणे वियाहिए। २. सू. १/१६/५। ३. उनि ३७१, ३७२। ४. दशनि ३२५ । ५. दशनि ३२३, ३२४ । ६. दशनि १३२, १३३, अचू पृ.३६,३७ । ७. दश १०/१३ । ८. दश १०/१३। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक अपनी-अपनी क्षमता-अक्षमता होती है। जो इस मर्म को समझ लेता है, वह पर-निन्दा और आत्म-श्लाघा से बच जाता है। जो इस मर्म को नहीं पहचानता, वह प्रव्रजित हो जाने पर और भिक्षाजीवी भिक्षु हो जाने पर भी परनिन्दा और आत्म-श्लाघा से नहीं बच सकता। नियुक्तिकार ने भिक्षु के आंतरिक और व्यावहारिक गुणों का सुन्दर निरूपण किया है। भिक्षाचर्या श्रमण संस्कृति में भिक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मुनिचर्या के साथ भिक्षाचरी का गहरा संबंध है। 'भिक्खावित्ती सुहावहा', 'उपवासात् परं भक्ष्यम्-ये सूक्त भिक्षावृत्ति के महत्त्व को प्रदर्शित करने वाले हैं। माधुकरी भिक्षा उत्कृष्ट अहिंसक जीवन शैली का उदाहरण है। यद्यपि वैदिक और बौद्ध साहित्य में भी माधुकरी भिक्षा का उल्लेख मिलता है पर प्रायोगिक रूप से भगवान् महावीर ने जिस प्रकार की असावद्य--पापरहित भिक्षावृत्ति का उपदेश दिया, वह अद्भुत है। जो आजीविका के निमित्त दीन, कृपण, कार्पटिक आदि भिक्षा के लिए घूमते हैं, वे द्रव्य भिक्षु हैं, वास्तविक नहीं। अत: भिक्षाचर्या और भिखारीपन दोनों अलग-अलग हैं। __ वैदिक परम्परा में भिक्षा के संदर्भ में अजगरी एवं कापोती वृत्ति का उल्लेख भी मिलता है। भागवत में ऋषभ की भिक्षावृत्ति को अजगरी वृत्ति के रूप में उल्लिखित किया है। मांगे बिना सहज रूप से जो मिले, उसमें संतुष्ट रहना अजगरी वृत्ति है। संभव है अनियतता और निश्चेष्टता के आधार पर इस भिक्षावृत्ति का नाम अजगरी वृत्ति पड़ा होगा। ऋषभ के लिए गो, मृग और काक आदि वृत्तियों का भी संकेत मिलता है।" जैन आगम साहित्य में गोचरी और मृगचारिका (उ. १९/८३,८४) का उल्लेख मिलता है। महाभारत में ब्राह्मण के लिए कापोती वृत्ति का संकेत मिलता है। इसे उञ्छवृत्ति भी कहा जाता था। अनेषणीयशंकिता के आधार पर कापोती वृत्ति का उल्लेख उत्तराध्ययन में मिलता है। कबूतर की भांति साधु को एषणा आदि दोषों से शंकित रहना चाहिए। दशवकालिक सूत्र का प्रथम अध्ययन माधुकरी भिक्षा के साथ प्रारम्भ होता है। वहां साधु की भिक्षा को भ्रमर से उपमित किया गया है। नियुक्तिकार ने सूत्र की गाथाओं के आधार पर अनेक प्रश्नोत्तरों के माध्यम से माधुकरी भिक्षा के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। भ्रमर की उपमा साधु की भिक्षावृत्ति पर पूर्णत: लागू नहीं होती। प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि भ्रमर तो अदत्त ग्रहण करते हैं तथा असंयत होते हैं अत: इस उपमा को देने से श्रमण को असंयत मानना पड़ेगा। इस प्रश्न का समाधान देते हुए नियुक्तिकार स्पष्ट कहते हैं कि उपमा एकदेशीय होती है। जिस प्रकार चन्द्रमुखी दारिका कहने पर १. (क) धम्मपद, पुष्फवग्ग ४/६; यथापि भमरो पुप्फ, वण्णगंधं अहेठयं । पलेति रसमादाय, एवं गामे मुनी चरे।। (ख) मभा, उद्योगपर्व ३४/१७; यथा मधु समादत्ते, रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः । तद्वदर्थान् मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया।। २. दश ५/१/९२; अहो जिणेहिं असावज्जा, वित्ती साहूण देसिया। ३. दशनि ३१२। ४. भाग. ५/५/३२। ५. भाग. ५/५/३४; एवं गो-मृग-काकचर्यया व्रजस्तिष्ठन्नासीनः............ ६. मभा. शांतिपर्व २४३/२४; कुम्भधान्यैरुञ्छशिलै: कापोती चास्थितास्तथा । यस्मिश्चैते वसन्त्यहस्तिद् राष्ट्रमभिवर्धत।। .७. उ. १९/३३; कावोया जा इमा वित्ती। ८. दशनि ११४, ११५ । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण दारिका के मुख की चन्द्रमा की सौम्यता से तुलना की जाती है न कि कलंक आदि अन्य चीजों से। इसी प्रकार भ्रमर की उपमा देने के दो हेतु हैं---अनियतवृत्ति और अहिंसा का अनुपालन ।२ दशवैकालिक सूत्र एवं उसकी नियुक्ति के अनुसार भ्रमर की तुलना से साधु की भिक्षा की तुलना करने पर निम्न बातें फलित होती हैं १. जैसे भ्रमर अपने जीवन-निर्वाह के लिए पुष्प आदि को म्लान या क्लान्त नहीं करता, वैसे ही मुनि दूसरों को कष्ट पहुंचाए बिना स्वयं की आवश्यकता-पूर्ति करते हैं । २. जैसे मधुकर पुष्पों से सहज निष्पन्न रस को ग्रहण करता है, वैसे ही मुनि गृहस्थों से सहजनिष्पन्न आहार को ग्रहण करते हैं। सहज निष्पन्नता के सदर्भ में नियुक्तिकार ने पूर्वपक्ष के रूप में एक शंका उठाई है कि यदि कोई यह कहे कि गृहस्थ श्रमणों की अनुकम्पा अथवा पुण्योपार्जन के निमित्त से सुविहित श्रमणों के लिए भोजन बनाते हैं अत: पाकोपजीवी होने के कारण हिंसाजन्य दोष से लिप्त होते हैं। शंका समाधान के रूप में इसका उत्तरपक्ष प्रस्तुत करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जैसे तृणों के लिए वर्षा नहीं होती, मृगों के लिए तृण नहीं बढ़ते तथा भ्रमरों के लिए शतशाखी पुल नहीं फलते वैसे ही गृहस्थ भी साधु के लिए भोजन नहीं पकाते। जैसे वृक्ष स्वभावत: फलते-फूलते है. वैसे ही गृहस्थ भी स्वभावत: पकाते एवं पकवाते हैं अत: भ्रमर की भांति मुनि सहज निष्पन्न आहार की गवेषणा करते हैं। दूसरा विकल्प प्रस्तुत करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जंगल में, दुर्भिक्ष में और महामारी में भी मुनि रात्रि-भोजन नहीं करते। फिर भी गृहस्थ रात में भोजन बनाते हैं। इसके अतिरिक्त अनेक ऐसे ग्राम एवं नगर हैं, जहां न तो साधु जाते हैं और न रहते हैं फिर भी वहां गृहस्थ भोजन पकाते हैं अत: स्पष्ट है कि गृहस्थ स्वभावत: स्वयं के लिए तथा अपने परिजनों के लिए समय पर भोजन पकाते हैं।" ३. जैसे भ्रमर अनेक फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस ग्रहण करता है, वैसे ही श्रमण अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करता है। ४. जैसे मधुकर किसी एक वृक्ष या फूल पर ही आश्रित नहीं रहता, वैसे ही श्रमण भी किसी एक गांव, घर या व्यक्ति पर आश्रित न रहकर अनियत रूप से सामुदानिक भिक्षा ग्रहण करता है। ५. जैसे भ्रमर दूसरे दिन के लिए कुछ भी संग्रह करके नहीं रखता, वैसे ही श्रमण भी आवश्यकता- पूर्ति के लिए ग्रहण करता है, संचय के लिए नहीं। भ्रमर अदत्त भोजन ग्रहण करते हैं किन्तु श्रमण अदत्त की इच्छा भी नहीं करते ।१०।। साधु परकृत, परनिष्ठित (परार्थ निष्पन्न) तथा विगतधूम आहार की एषणा करते हैं। वे नवकोटि से परिशुद्ध तथा उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से रहित आहार ग्रहण करते हैं।११ १. दशनि ९२। २. दशनि ११६ । ३. दशनि ११९, दश. १/२; न य पुष्फ किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं । दश. १/४ वयं च वित्तिं लब्भामो, न य कोइ उवहम्मई। ४. दश १/४; अहागडेसु रीयंति, पुप्फेसु भमरा जहा। ५. दशनि ९४, ९५ ६. दशनि ११७, ११८ । ७. दशनि १००-१०३ । ८. दश. १/२; जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं । ९. दश. १/५; महकारसमा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया। णाणापिंडरया दंता, तेण वुच्चंति साहुणो ।। १०. दश. १/३; दाणभत्तेसणे रया, दशनि ११४ । ११. दशनि १०४, १०५ । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन का नाम द्रुमपुष्पिका है। नियुक्तिकार ने द्रुमपुष्पिका, आहारएषणा, गोचर, त्वक्, उञ्छ आदि चौदह शब्दों को प्रथम अध्ययन के एकार्थक के रूप में प्रस्तुत किया है। टीकाकार ने एक अन्य मत का उल्लेख किया है, जिसके अनुसार ये प्रथम अध्ययन के अर्थाधिकार हैं। ये नाम अर्थाधिकार और एकार्थक दोनों ही प्रतीत नहीं होते। वस्तुत: इन नामों में त्रिविध एषणाओं को रूपकों के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया गया है। ये नाम भोजन के ग्रहण एवं उपभोग से संबंधित हैं। चूर्णिकार आचार्य जिनदास के अनुसार इन उपमाओं से मुनि की माधुकरी वृत्ति को उपमित किया गया है, इस दृष्टि से ये दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन के नाम हैं। द्रुमपुष्पिका में मुनि की माधुकरी भिक्षा का उल्लेख है। संभव है इसीलिए अर्थ की निकटता के कारण इन शब्दों को द्रुमपुष्पिका शब्द के एकार्थक के रूप में ग्रहण कर लिया गया। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार माधुकरी वृत्ति का मूलकेन्द्र द्रुम-पुष्प है। उसके बिना वह नहीं सधती । द्रुमपुष्प की इस अनिवार्यता के कारण 'द्रुमपुष्पिका' शब्द समूची माधुकरी वृत्ति का योग्यतम प्रतिनिधित्व करता है । द्रुमपुष्पिका के एकार्थक इस प्रकार हैंआहार-एषणा–तीनों एषणाओं से युक्त। गोचर-गोचर शब्द माधुकरी वृत्ति का द्योतक है। गाय की भांति अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा चरना, आहार ग्रहण करना। दोनों चूर्णिकारों ने गोचर शब्द की व्याख्या भिन्न संदर्भ में की है। उन्होंने एक कथा के माध्यम से इसे स्पष्ट करते हुए कहा कि जैसे बछड़ा घास डालने वाली कुलवधू के बनाव, श्रृंगार या रूप में आसक्त नहीं होता, उसकी दृष्टि अपने चारे पर रहती है, वैसे ही मुनि भिक्षा की दृष्टि से घरों में परिव्रजन करे पर रूप आदि को देखने में आसक्त न हो। भिक्षा-शुद्धि के संदर्भ में तत्त्वार्थ राजवार्तिक में गोचरी का यही अर्थ सम्मत है।" त्वक त्वक् की भांति असार भोजन करने का सूचक। उंछ–अज्ञातपिंड का सूचक। मेष-अनाकुल रहकर शांति से एषणा करने का सूचक। जोंक—प्रद्विष्ट दायक को उपदेश से शांत करने का सूचक । चूर्णिकार जिनदास ने जोंक के रूपक को अनैषणा में प्रवृत्त दायक को मृदुभाव से निवारण करने का सूचक माना है। सर्प—आहार में प्रवृत्त मुनि की संयम के प्रति एक दृष्टि तथा अनासक्त होने का सूचक। व्रण—व्रण पर लेप करने की भांति अनासक्त भाव से भोजन करने का सूचक । अक्ष—गाड़ी के अक्ष पर स्नेह-लेपन की भांति संयम-भार निर्वहण के लिए भोजन करने का सूचक । इषु—जैसे इषु-बाण लक्ष्यवेधक होता है, वैसे ही भिक्षु के लिए लक्ष्यप्राप्ति हेतु भोजन करने का सूचक । गोला-लाख के गोले का निर्माण अग्नि से न अति दूर और न अति निकट रहकर किया जाता है अत: गोचराग्र गत मुनि के मितभूमि में स्थित रहने का सूचक। १. दशजिचू पृ. ११, १२ एतेहिं उवम्मं कीरइ त्ति काउं ताणि भवणंति नामाणि तस्स अज्झयणस्स। २. दसवेआलियं पृ. ४। ३. दशनि ३४, अचू पृ. ७, ८। ४. दशजिचू पृ. १२, दशअचू पृ. ८। ५. रावा. ९/६ पृ. ५९७ । ६. दशअचू पृ. ८। ७. दशजिचू पृ. १२। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवक्षण पुत्र—यह परिभोगैषणा की विशेषता का वाचक शब्द है। चूर्णिकार अगस्त्यसिंह ने पुत्र की व्याख्या में ज्ञाताधर्मकथा की सुंसुमा कथा की ओर संकेत किया है, जिसमें पिता और पुत्रों ने परिस्थितिवश केवल जीवित रहने की आशंसा से अपनी पुत्री का मांस खाया था। संयुक्त निकाय में बुद्ध ने कथा के माध्यम से भिक्षुओं को बताया है कि किस दृष्टि से एवं किस उद्देश्य से भोजन करना चाहिए। उदग-तृषापनयन के लिए परिस्थितिवश दुर्गन्धयुक्त पानी पी लेना। यह अस्वादवृत्ति का सूचक है। दिगम्बर साहित्य में भी भिक्षावृत्ति के कुछ नाम मिलते हैं—१. उदराग्निशमन २. अक्षम्रक्षण ३. गोचरी ४. श्वभ्रपूरण ५. भ्रामरी। ये सभी नाम द्रुमपुष्पिका के एकार्थक की भांति साधु की भिक्षाचरी के प्रतीक हैं। जैसे भंडार में आग लग जाने पर शुचि और अशुचि कैसे भी पानी से उसे बुझा दिया जाता है, उसी तरह भिक्षु जठराग्नि को शांत करने के लिए भोजन करे। गाड़ी के चक्र में तैल लगाने की भांति शरीर की आवश्यकता-पूर्ति हेतु भोजन करे। जिस प्रकार गाय शब्द आदि विषयों में गृद्ध नहीं होती हुई आहार ग्रहण करती है,उसी प्रकार साधु भी आसक्त न होते हुए सामुदानिक रूप से आहार ग्रहण करे। श्वभ्रपूरण को गर्तपूरक भिक्षावृत्ति भी कहते हैं। जिस किसी प्रकार से पेट रूपी गड्ढा भरने हेतु साधक सरस और नीरस आहार करे तथा भ्रमर की भांति फूलों को क्लांत किए बिना थोड़ा-थोड़ा आहार अनेक घरों से ग्रहण करे। माधुकरी भिक्षा जैन साधु की उत्कृष्ट अहिंसक जीवन-शैली का निदर्शन है। साधु अपने जीवननिर्वाह हेतु किसी भी प्रकार का आरम्भ समारम्भ न करता है, न करवाता है और न ही अनुमोदन करता है। नियुक्तिकार ने अनेक तार्किक हेतुओं से माधुकरी भिक्षा के स्वरूप को स्पष्ट किया है। १. एक आदमी अपने इकलौते पुत्र के साथ परिवार सहित प्रवास कर रहा था। चलते-चलते वे एक दुर्गम एवं गहन जंगल में पहुंचे। भोजन के बिना प्राणान्त की स्थिति आने लगी। पुत्र ने कहा-पिताश्री! आप मुझे मारकर शरीर को पोषण दें। आप रहेंगे तो सारा परिवार सुरक्षित रहेगा।' पिता ने विवशता में पुत्र के मांस का भक्षण किया और परिवार सहित अरण्य के बाहर निकल गया। कथा के माध्यम से बुद्ध ने प्रेरणा देते हुए कहा कि जैसे पिता ने स्वाद अथवा बल, शक्ति, लावण्य वर्धन हेतु अपने पुत्र के मांस का भक्षण नहीं किया। केवल शरीर में चलने का सामर्थ्य आ सके इसलिए मांसभक्षण किया, वैसे ही संसार रूपी जंगल को पार करने के लिए परिमित और धर्मप्राप्त भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। स्वाद, सौन्दर्य या बलवर्धन हेतु नहीं। अधिक संभव लगता है कि परिभोगैषणा के संदर्भ में नियुक्तिकार ने बौद्ध साहित्य से यह रूपक ग्रहण किया हो। २. दशअचू प्र. ८; किसी वणिक ने परदेश में छह रत्नों को अर्जित किया। बीच में चोरों की अटवी होने से उन्हें सरक्षित ले जाना संभव नहीं था। रत्नों की सुरक्षा के लिए उसने एक उपाय सोचा। उसने फटे-पुराने कपडे पहनकर पत्थर के टुकड़ों को हाथ में ले लिया और मूल रत्नों को कहीं छिपा दिया। 'रत्न वणिक् जा रहा है' इस प्रकार बोलता हुआ वह पागलों की भांति आचरण करने लगा। चोरों ने उसे तीन बार पकड़कर छोड़ दिया। उन्होने उसे पागल समझ लिया। चौथी बार वह अपने मूल रत्नों को लेकर भागने में सफल हो गया। रास्ते में उसे तीव्र प्यास की अनुभूति हुई। 'प्राण-रक्षा के लिए उसने मृत पशु-पक्षी वाली दुर्गन्धयुक्त छोटी तलाई का पानी पीया और रत्न सहित सकुशल अपने घर पहुंच गया। इसी प्रकार मुनि को पांच महाव्रत रूपी रत्नों की विषय रूप चोरों से रक्षा के लिए आहार करना चाहिए। ३. रयणसार गा. १००; उदरग्गिसमणक्खमक्खण-गोयरि-सब्भपूरणं भमरं। णाऊण तप्पयारे, निच्चेवं भुंजए भिक्खू।। ४. रावा. ९/६ पृ. ५९७ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक आगम- साहित्य में दिशा के बारे में बहुत विमर्श हुआ है । दिशाएं व्यक्ति के मानस को प्रभावित करती हैं इसीलिए बैठने, सोने या शुभकार्य करने में दिशा का ध्यान रखने की बात अनेक स्थानों पर निर्दिष्ट है। भगवान् महावीर ने उत्तरपुरत्थिम - उत्तर पूर्व अर्थात् ईशाण कोण को सर्वश्रेष्ठ दिशा माना है तथा मांगलिक एवं शुभ कार्यों को इसी दिशा में सम्पन्न करने का निर्देश दिया है। ठाणं सूत्र में दिशा के तीन भेद मिलते हैं - १. ऊर्ध्व दिशा २. अध: दिशा ३. तिर्यक् दिशा । वहां उत्तर और पूर्व दिशा में प्रव्रज्या देने, आहार- मंडली में सम्मिलित करने, स्वाध्याय करने, आलोचना-प्रतिक्रमण करने तथा तप रूप प्रायश्चित्त करने का निर्देश है । आचारांगनिर्युक्ति में दिशा के बारे में बहुत विस्तृत एवं व्यवस्थित विवेचन मिलता है। नियुक्तिकार ने दिशा के सात निक्षेप किए हैं – १. नाम दिशा २. स्थापना दिशा ३. द्रव्य दिशा ४ क्षेत्र दिशा ५ ताप दिशा ६ प्रज्ञापक दिशा ७ भाव दिशा । द्रव्य दिशा १०० दिशा जो दश दिशाओं के उत्थान का कारण है, वह द्रव्य दिशा है । यह जघन्यत: तेरह प्रदेशी और तेरह आकाश प्रदेशों में अवगाढ़ तथा उत्कृष्टत: अनंत प्रदेशी और असंख्यात आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होती है । तेरह प्रदेशों की स्थापना का क्रम इस प्रकार रहता है-मध्य में एक और चार विदिशाओं में एक-एक पांच प्रदेशावगाढ़ पांच परमाणु तथा चार दिशाओं में आयत रूप में स्थित दो-दो परमाणुइस प्रकार जघन्यत: तेरह आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ तेरह प्रदेशी स्कन्ध दश दिशाओं के उत्थान के हेतु हैं, यही द्रव्य दिशा कहलाती है। तेरह प्रदेशों की स्थापना इस प्रकार है ० ● ० ० O O ० 1° ० ० O ० १. ठाणं ३/३२० । २. ठाणं २/१६७, १६८ । ३. आनि ४० । ४. आनि ४१, विभा २६९८ महेटी पृ. ५३६; उक्कोसमणंतपएसियं च सा होइ दव्वदिसा । ० ० O ० o ० ० ० ० ० कुछ आचार्य दश परमाणुओं को दश दिशाओं में स्थापित कर उन्हें दिशाओं के उत्थान का हेतु मानते थे लेकिन टीकाकार शीलांक ने इसका खंडन किया है क्योंकि दश दिशाओं का आकार चतुरस्र होता है और वह दश परमाणुओं से संभव नहीं है अत: तेरह परमाणु ही दश दिशाओं के उत्थान के कारण हैं, न्यून या अधिक नहीं ।" विशेषावश्यक भाष्य में अन्य मतों का उल्लेख भी मिलता है । " क्षेत्रदिशा Q तिर्यक् लोक के मध्य में मेरु के मध्यभाग में आठ रुचक प्रदेश हैं । ये रुचक प्रदेश चार ऊपर तथा चार नीचे गोस्तन आकार वाले हैं। ये रुचक प्रदेश दिशाओं तथा विदिशाओं के उत्पत्ति-स्थल हैं । ७ e ५. आटी पृ. ९, न पुन र्दशप्रदेशिकं यत् कैश्चिदुक्तमिति, प्रदेशाः परमाणवस्तै र्निष्पादितं कार्यद्रव्यं तावत्स्वेव क्षेत्रप्रदेशेष्ववगाढं जघन्यं द्रव्यमाश्रित्य दशदिग्विभागपरिकल्पनातो द्रव्यदिगियमिति । ६. विभा २६९९, २७०० टी पृ. ५३६ - ५३८ । ७. ठाणं १०/३०, आनि ४२ टी. पृ. ९ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण क्षेत्र दिशाओं के दश प्रकार हैं....१. ऐन्द्री २. आग्नेयी ३. याम्या ४. नैर्ऋती ५. वारुणी ६. वायव्या ७. सोमा ८. ईशाणी ९. विमला १०. तमा। इनमें ऐन्द्री (पूर्व), याम्या (दक्षिण), वारुणी (पश्चिम) और सोमा (उत्तर)—ये चार महादिशाएं तथा आग्नेयी, नैर्ऋती, वायव्या और ईशाणी—ये चार विदिशाएं कहलाती हैं। ये चार दिशाओं के चार कोणों में होती हैं। विमला को ऊर्ध्व तथा तमा को अध: दिशा कहा जाता है। रुचक प्रदेश के विजयद्वार से ऐन्द्री दिशा निकलती है अर्थात् जहां विजयद्वार है, वहां पूर्व दिशा होती है। उसके वाम पार्श्व से आग्नेयी फिर क्रमश: याम्या, नैर्ऋती, वारुणी, वायव्या, सोमा और उत्तर दिशाएं निकलती हैं। आचार्य मलयगिरि के अनुसार ये तिर्यक् दिशाएं रुचक प्रदेशों से निकलती हैं अत: इन्हें तिर्यदिशा कहा जाता है। रुचक के ऊर्ध्व में विमला तथा नीचे तमा दिशा होती है। प्रकाशयुक्त होने के कारण ऊर्ध्व दिशा को विमला तथा अंधकार युक्त होने के कारण अधोदिशा को तमा कहते हैं। मलयगिरि ने तमा के स्थान पर तामसी शब्द का प्रयोग किया है। पूर्वदिशा का स्वामी इंद्र है, इसलिए उसे ऐन्द्री कहा जाता है। इसी प्रकार अग्नि, यम, नैर्ऋत, वरुण, वायु, सोम और ईशाण आदि देव होने के कारण इन दिशाओं को क्रमश: आग्नेयी, याम्या, नैर्ऋती, वारुणी, वायव्या, सोमा और ऐशाणी कहते हैं। भगवती सूत्र में क्षेत्र दिशा आदि भेद न करके दिशा के पूर्व, पूर्वदक्षिण आदि दश भेद किए हैं। वहां प्रश्न उपस्थित किया गया है कि इन ऐन्द्री आदि दिशाओं की आदि क्या है? इनकी उत्पत्ति कहां से होती है? ये कितने प्रदेशों से प्रारम्भ होती हैं? आगे इनके कितने प्रदेश होते हैं? ये कहां पर्यवसित होती हैं तथा इनका संस्थान क्या है? इन प्रश्नों के समाधान में महावीर कहते हैं कि ऐन्द्री आदि चार दिशाएं मेरु पर्वत के रुचक प्रदेशों से दो प्रदेशों से प्रारम्भ होकर दो-दो के कम से बढ़ती जाती हैं अर्थात् पूर्व आदि दिशाएं पहले दो प्रदेशों से प्रारम्भ होती हैं फिर चार-चार, छह-छह और आठ-आठ-इस प्रकार दो-दो के क्रम से इनके प्रदेशों में वृद्धि होती जाती है। लोक की अपेक्षा से ये असंख्येय प्रदेशात्मिका तथा अलोक की अपेक्षा से अनंत प्रदेशात्मिका होती हैं। लोक की अपेक्षा से ये सादि और सपर्यवसित हैं किन्तु अलोक की अपेक्षा सादि और अपर्यवसित हैं। लोक के अनुसार इनका संस्थान मुरव जैसा तथा अलोक की अपेक्षा शकटोर्द्धि—शकट के आगे के भाग जैसा है। १. भ. १३/५१, ठाणं १०/३१, आनि ४३ । २. आवमटी प. ४३८, ४३९ । ३. आवमटी प. ४३९; एताश्चाष्टावपि रुचकात् प्रव्यूढत्वात् तिर्यग्दिश इति व्यवह्रियन्ते । ४. आवमटी प. ४३८ । ५. भ.१३/५२। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक चार विदिशाओं की आदि भी मेरु पर्वत के रुचक प्रदेशों से होती है। इनकी आदि एक प्रदेश से होती है तथा आगे भी अलोक तक ये एक प्रदेश विस्तीर्ण ही होती हैं । इनके प्रदेशों में वृद्धि नहीं होती । सम्पूर्ण लोक की अपेक्षा से ये असंख्येय प्रदेशात्मिका तथा सादि सपर्यवसित होती हैं । अलोक की अपेक्षा अनंत प्रदेशात्मिका तथा सादि अपर्यवसित होती हैं । एक प्रदेशात्मिका होने के कारण ये छिन्न मुक्तावलि के आकार वाली होती हैं ।' विमला और तमा का वर्णन भी दिशा और विदिशाओं की भांति ही है । अंतर केवल इतना है कि इनकी उत्पत्ति चार प्रदेशों से होती है। ये दोनों दिशाएं चतुरस्र दण्डाकार होती हैं अत: इनका संस्थान रुचक प्रदेशों जितना है । भगवती के अनुसार ऐन्द्री आदि चार महादिशाएं जीव के देश रूप तथा प्रदेश रूप हैं पर आग्नेयी आदि चार विदिशाएं एक प्रदेशात्मिका होने के कारण जीव रूप नहीं हैं क्योंकि जीव का अवगाह असंख्यात प्रदेशों में ही संभव है। नियुक्तिकार ने संक्षेप में भगवती सूत्र का संवादी वर्णन किया है । ४ १०२ संस्थान के बारे में चर्चा करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि सभी दिशाएं मध्य में आदि सहित तथा बाह्य पार्श्व में अपर्यवसित — अंतरहित होती हैं। बाह्य भाग में अलोकाकाश के कारण अपर्यवसित होती हैं। इन सभी दिशाओं की आगमिक संज्ञा 'कडजुम्म' है ।' भगवती सूत्र में चार महादिशाओं का लोक और अलोक की अपेक्षा से अलग-अलग संस्थान का उल्लेख किया है जबकि नियुक्तिकार ने इन्हें केवल शकटोर्द्धि-गाड़ी की उद्धि ( ओढण) संस्थान वाला बताया है । विदिशाओं तथा ऊर्ध्व और अधः दिशाओं के संस्थान भगवती सूत्र जैसे ही हैं। तापदिशा सूर्य के आधार पर जिन दिशाओं का निर्धारण होता है, वे तापदिशाएं कहलाती हैं। आवश्यकनिर्युक्ति में तापदिशा के स्थान पर तापक्षेत्रदिशा का उल्लेख मिलता है। सूर्य की किरणों के स्पर्श से उत्पन्न प्रकाशात्मक परिताप से युक्त क्षेत्र तापक्षेत्र कहलाता । उससे सम्बन्धित दिशाएं तापक्षेत्रदिशा कहलाती हैं। ये दिशाएं सूर्य के अधीन होने के कारण अनियत होती हैं । ' जिस क्षेत्र में जिस ओर सूर्य उदित होता है, उस क्षेत्र के लिए वह पूर्व दिशा है । जिस ओर सूर्य अस्त होता है, वह पश्चिम दिशा है। उसके दक्षिण पार्श्व में दक्षिण दिशा तथा उत्तर पार्श्व में उत्तर दिशा है। ऐरवत, पूर्वविदेह, अपरविदेह में निवासी मनुष्यों के उत्तर प्रज्ञापक दिशा कोई प्रज्ञापक जहां कहीं स्थित होकर दिशाओं के आधार पर किसी को निमित्त अथवा सूत्रार्थ का कथन करता है, वह जिस ओर अभिमुख है, वह पूर्व दिशा है। उसकी पीठ के पीछे वाली पश्चिम दिशा १. भ. १३/५३ । २ भ. १३/५४ । ३. भ. १०/५, ६ । ४ आनि ४४ । ५. आनि ४५ । ६. आनि ४६ । ७. आवनि ८०९; खेत्तदिसा तावखेत्त पन्नवए । ये चार तापदिशाएं कहलाती हैं । भरत, मेरु तथा दक्षिण में लवण समुद्र है । १० ४३९; तपनं तापः सूर्यकिरणस्पर्शाज्जनितः परितापः तदुपलक्षितं क्षेत्रं तापक्षेत्रं तदेव तापयतीति तापः सविता तदनुसारेण क्षेत्रात्मिका दिक् तापक्षेत्रदिक् सा च सूर्यायत्तत्वादनियता । ८. आमटी प प्रकाशात्मकः दिक्, अथवा ९. आनि ४७, ४८, विभा २७०१ । १०. आनि ५०, आवमटी प. ४३९ । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण १०३ है। उसके दक्षिण पार्श्व में दक्षिण दिशा तथा बाईं ओर उत्तर दिशा है। इन चार दिशाओं के अंतराल में चार विदिशाएं हैं। इन आठ दिशाओं के अंतराल में आठ अन्य दिशाएं हैं। इन सोलह तिर्यग् दिशाओं का पिण्ड शरीर की ऊंचाई के परिमाण वाला होता है। पैरों के नीचे अधो दिशा तथा मस्तक के ऊपर ऊर्ध्वदिशा है। ये अठारह प्रज्ञापक दिशाएं हैं। इन प्रकल्पित अठारह दिशाओं के नाम इस प्रकार हैं१. पूर्व २. पूर्व दक्षिण ३. दक्षिण ४. दक्षिण पश्चिम ५. पश्चिम ६. पश्चिम उत्तर ७. उत्तर ८. उत्तर पूर्व ९. सामुत्थानी १०. कपिला ११. खेलिज्जा १२. अभिधर्मा १३. पर्याधर्मा १४. सावित्री १५. प्रज्ञा (पूर्णा) १६. वृत्ति १७. अध: दिशा १८. ऊर्ध्व दिशा। आचारांगनियुक्ति (गा. ५७) में आए पण्णवित्ती शब्द को यदि प्रज्ञापनी' मानकर एक शब्द माना जाए तो प्रज्ञापक दिशा के केवल १७ नाम ही होते हैं। पण्णवित्ती को यदि दो शब्द माने तो प्रज्ञा और वृत्ति—ये दो संस्कृत रूपान्तरण संभव हैं। पण्णवित्ती के स्थान पर यदि पुण्णवित्ती पाठ को स्वीकार करें तो पूर्णा और वृत्ति—ये दो नाम हो सकते हैं। चूंकि ये आठ नाम आचारांगनियुक्ति के अतिरिक्त और कहीं नहीं मिलते अत: केवल संभावना ही व्यक्त की जा सकती है, निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। दिशाओं के इन नामों के बारे में यह संभावना व्यक्त की जा सकती है कि ये नाम नक्षत्र विशेष से संबंधित रहे होंगे अथवा ज्योतिष की दृष्टि से इनका कोई विशेष महत्त्व रहा होगा। डॉ. सागरमलजी जैन का अभिमत है कि सामुत्थानी आदि आठ नाम सूर्य की सूर्योदय से सूर्यास्त तक की विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं। प्रज्ञापक दिशाओं में प्रारम्भिक सोलह तिर्यक् दिशाएं शकटोर्द्धि संस्थान वाली हैं। ऊंची और नीची—ये दो दिशाएं सीधे और ओंधे मुंह रखे हुए शरावों के आकार वाली होती हैं। भावदिशा जिससे या जिसमें पृथ्वी, नारक आदि के रूप में संसारी प्राणियों का व्यपदेश किया जाता है, वह भावदिशा है। कर्मों के वशीभूत होकर जीव इन भाव दिशाओं में गमन एवं आगमन करते हैं। अठारह भाव दिशाएं इस प्रकार हैं१. पृथ्वी ७. अग्रबीज १३. समूच्छिम मनुष्य २. जल ८. पर्वबीज १४. कर्मभूमिज मनुष्य ३. अग्नि ९. द्वीन्द्रिय १५. अकर्मभूमिज मनुष्य ४. वायु १०.त्रीन्द्रिय १६. अन्तर्वीपज मनुष्य ५. मूल बीज ११.चतुरिन्द्रिय १७. नारक ६. स्कन्ध बीज १२.तिर्यंच पंचेन्द्रिय १८. देव १. आनि ५१, ५२, विभा २७०२ । २. आनि ५५-५८। ३. आनि ५९। ४ (क) आवमटी प.४३९;दिश्यते अयममुक:संसारीति यया सा दिग् भाव:--पृथिवीत्वादिलक्षण:पर्याय: स एव दिग् भावदिक् । (ख) विभामहेटी पृ. ५३८; येषु पृथिव्यादिस्थानेषु कर्मपरतंत्रस्य जीवस्य गमागमौ संपद्येते सा भावदिगुच्यते। ५. आनि ६०, विभा २७०३, २७०४; पुढवि-जल-जलण-वाया, मूला खंधग्ग-पोरबीया य। बि-ति-चउ-पंचिंदिय, तिरिय-नारगा-देवसंधाया।। संमुच्छिम कम्माकम्मभूमगनरा तहतरद्दीवा। भावदिसा दिस्सइ जं संसारी निययमेयाहिं।। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्ति पंचक आगमों में आसुरी दिशा का उल्लेख भी मिलता है। नारकीय दिशा आसुरिका दिशा कहलाती है । भवनपति तथा व्यन्तर देवों से सम्बन्धित दिशा को भी आसुरी या आसुरिका दिशा कहा जाता है । ' आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार रौद्रकर्मकारी मनुष्य असुर होते हैं । वे अपनी आसुरी वृत्ति के कारण उस दिशा में जाते हैं, जहां क्रोध और रौद्र कर्म के परिणाम भुगतने की परिस्थितियां होती हैं । उत्तराध्ययन में हिंसक, असत्यभाषी, ठग तथा मांसाहार जैसे क्रूर कर्म करने वाले को आसुरी दिशा में जाने वाला बतलाया है। सूयगडो के अनुसार हिंसापरायण आत्मघाती, विजन में लूटने वाले व्यक्ति चिरकाल तक आसुरी -- नरकदिशा में रहते हैं। १०४ बृहत्कल्पभाष्य और आवश्यकनियुक्ति की हारिभद्रीय टीका में शव के परिष्ठापन के प्रसंग में दिशाओं के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है । शव के परिष्ठापन के लिए दक्षिण-पश्चिमदिशा अर्थात् नैर्ऋती दिशा को श्रेष्ठ माना है। उसके अभाव में दक्षिण, उसके अभाव में पश्चिम, उसके अभाव में आग्नेयी (दक्षिण पूर्व), उसके अभाव में वायव्य ( पश्चिम उत्तर ), उसके अभाव में पूर्व, उसके अभाव में उत्तर तथा उसके अभाव में उत्तरपूर्व दिशा का उपयोग करना चाहिए। किस दिशा में मृतक साधु का शव परिष्ठापित करने का क्या असर होता है, इसका वर्णन व्याख्या साहित्य में मिलता है । नैर्ऋत दिशा में शव का परिष्ठापन करने से अन्न-पान और वस्त्र का प्रचुर लाभ होता है और समूचे संघ में समाधि होती है। दक्षिण दिशा में परिष्ठापन करने से अन्न-पान का अभाव होता है । पश्चिम दिशा में उपकरणों की प्राप्ति दुर्लभ होती है, आग्नेयी दिशा में परिष्ठापित करने से साधुओं में परस्पर तू-तू, मैं-मैं होती है। वायव्य दिशा में साधुओं में परस्पर तथा गृहस्थ एवं अन्यतीर्थिकों के साथ ह होता है । पूर्वदिशा में परिष्ठापन गण-भेद एवं चारित्र - भेद का कारण बनता है । उत्तरदिशा में करने से रोग तथा पूर्वउत्तर दिशा में परिष्ठापन करने से अन्य कोई साधु मृत्यु को प्राप्त होता है । दिशाएं और वास्तुशास्त्र वास्तुशास्त्र दिशाओं पर आधारित विद्या विशेष है, जिसमें दिशाओं के आधार पर गृह आदि का निर्माण एवं उसके प्रभाव पर विस्तार से चिंतन किया गया है। वास्तुशास्त्र में आठ दिशाओं का उल्लेख मिलता है—१. पूर्व २. पश्चिम ३. उत्तर ४. दक्षिण ५. ईशाणकोण, ६. अग्निकोण, ७. नैर्ऋतकोण ८. वायव्य कोण । वास्तु- विशेषज्ञों के अनुसार पूर्वदिशा अग्नितत्त्व को इंगित करने वाली दिशा है। पश्चिम दिशा वायु तत्त्व को इंगित करती है । इसका स्वामी वरुण है । इस दिशा का प्रभाव अस्थिर एवं चंचल माना गया है। उत्तरदिशा में जल तत्त्व विद्यमान रहता है। इस दिशा का स्वामी कुबेर है । वास्तु-शास्त्री चिंतन-मनन के लिए उत्तरदिशा को उत्तम मानते हैं क्योंकि यह दिशा ध्रुव तारे की भांति स्थिरता की द्योतक है। दक्षिण दिशा में पृथ्वी तत्त्व माना है, जिसका स्वामी यम है। ईशाण कोण को वास्तु शास्त्र में ईश्वर तुल्य महत्त्व दिया गया है क्योंकि यह उत्तर और पूर्व दो शुभ दिशाओं के मध्य है । १. सूयगडो भाग १ पृ. १२० । २. उ. ७/५-१० । ३. सू. १/२/६३ । ४. आवहाटी २ पृ. ९३, ९४ । ५. बृभा ५५०५, ५५०६; चेव ।। दिस अवरदक्खिणा दक्खिणा य अवरा य दक्खिणापुव्वा । अवरुत्तरा य पुव्वा, उत्तर पुव्वुत्तरा समाही य भत्तपाणे, उवकरणे तुमतुमा य कलहो य । भेदो गेलन्नं वा, चरिमा पुण कड्ढए अण्णं ।। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण १०५ वैशेषिक दर्शन में दिशा को द्रव्य रूप में स्वीकार किया है लेकिन महावीर ने इसे आकाश विशेष के रूप में स्वीकार किया क्योंकि दिशाएं आकाश विशेष का ही एक भाग है । स्वरविज्ञान एवं ज्योतिष्विद्या में दिशाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। दिशाओं के बारे में वैज्ञानिकों ने अपनी शोध प्रस्तुत की है कि दिशाओं के भी अपने विकिरण होते हैं, जो व्यक्ति के मानस को बहुत अंशों में प्रभावित करते हैं। भौगोलिक एवं दिशाओं की उत्पत्ति की दृष्टि से जैन आगम - साहित्य में जितनी सूक्ष्मता से चिंतन हुआ है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है । दिशाओं का वर्णन नियुक्तिकार के बाहुश्रुत्य को प्रकट करने वाला है। करण ज्योतिष्-शास्त्र में करण का महत्त्वपूर्ण स्थान है । सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययननियुक्ति में 'करण' का वर्णन मिलता है। वहां कालकरण के अंतर्गत ज्योतिष् में प्रसिद्ध 'करण' के ग्यारह भेद मिलते हैं— १. बव २. बालव ३. कौलव ४. स्त्रीविलोकन' ५. गरादि ६. वणिज ७ विष्टि ८. शकुनि ९ चतुष्पाद १०. नाग ११ किंस्तुघ्न । इनमें प्रथम सात चल तथा शेष चार स्थिर करण हैं । तिथि के अनुसार करण-चक्र एक तिथि में दो करण होते हैं अतः तिथि के आधे भाग को करण कहा जाता है। सूर्य से चन्द्रमा की प्रति ६ अंश की दूरी एक करण का बोधक है क्योंकि तिथि १२ अंश के अंतर पर होती है । चल करणों की एक माह में प्रत्येक की आठ बार आवृत्ति होती है । शकुनि आदि शेष चार स्थिर करण हैं, ये माह में केवल एक बार आते हैं। इनकी तिथियां और उनके भाग निश्चित होते हैं इसलिए ये ध्रुवकरण कहलाते हैं। कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के उत्तरखंड में सदा 'शकुनिकरण' होता है। अमावस्या के प्रथम अर्धभाग में ‘चतुष्पादकरण' और दूसरे अर्धभाग में 'नागकरण' होता है। शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के प्रथम अर्धभाग में 'किंस्तुघ्नकरण' होता | शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के उत्तरार्ध से बव, बालव, कौलव आदि करणों की क्रमश: आवृत्ति होती है। इस प्रकार हर महीने में लगभग ६० करण होते हैं । करण निकालने की विधि शुक्लपक्ष की तिथि को दो से गुणा करके उसमें दो घटाकर सात का भाग देने से जो शेष बचे, वह दिन का करण होता है । रात्रि में इसी विधि से एक जोड़ने पर वह रात्रि का करण होता है । जैसे शुक्लपक्ष की चतुर्थी का करण जानना है— ४x२=८ - २ = ६÷७ शेष ०=६ । अतः छठा करण वणिज होगा। रात्रि में एक बढ़ाने से इससे अगला करण विष्टि होगा । कृष्णपक्ष में २ को घटाया नहीं जाता, जैसे - कृष्णा दशमी में दो का गुणा करने पर २० होते हैं सात का भाग देने पर छह अवशेष रहते हैं अतः उस दिन वणिज नामक दैवसिक करण होगा । करण का समाप्ति काल जानने की विधि तिथि के प्रारम्भिक काल व समाप्ति काल के मध्य करण का समाप्ति काल होता है । तिथि के समाप्ति काल में से प्रारम्भिक काल घटाने पर तिथि का ठहराव घंटा मिनट में आ जाता है । इस १. स्त्रीविलोकन का दूसरा नाम तैत्तिल भी मिलता है । २. उनि १९०, १९१, सूनि ११, १२, जंबू ७/१२३ । ३. सूनि १३, उनि १९२ । ४. उनि १९२/१, विभा ३३४९ टी पृ. ६३९ । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णपक्ष १०६ नियुक्तिपंचक ठहराव का आधा समय तिथि के प्रारम्भिक काल में जोड़ने या समाप्ति काल में से घटाने पर करण का समाप्ति काल आ जाता है। जिन तिथियों में विष्टिकरण होता है, उन तिथियों को भद्रा तिथि कहा जाता है। भद्रातिथि में शुभकार्य वर्जित रहते हैं। विष्टि के अतिरिक्त शेष करण शुभ माने जाते हैं। ध्रुवकरण शुभ नहीं माने जाते। जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति में कौन सी तिथि को कौन सा करण होता है, इसका उल्लेख मिलता है। उसका चार्ट इस प्रकार है शुक्लपक्ष तिथि पूर्वार्द्धकरण उत्तरार्धकरण तिथि। पूर्वार्द्धकरण उत्तरार्धकरण बालव कौलव किंस्तुघ्न बव स्त्रीविलोकन गर बालव कौलव वणिज विष्टि स्त्रीविलोकन बालव वणिज विष्टि कौलव स्त्रीविलोकन बव बालव वणिज कौलव स्त्रीविलोकन विष्टि बव गर वणिज बालव कौलव विष्टि स्त्रीविलोकन गर बालव कौलव वणिज विष्टि स्त्रीविलोकन गर बालव वणिज विष्टि स्त्रीविलोकन बव बालव १३. गर वणिज कौलव स्त्रीविलोकन १४. विष्टि शकुनि गर वणिज १५. चतुष्पाद नाग विष्टि and mx 5 w a vaan oma बव कौलव १५ बव नियुक्तिकार ने यह प्रसंग ज्योतिष्-शास्त्र से प्रसंगवश लिया है। यद्यपि उन्होंने करण की विस्तृत व्याख्या नहीं की है लेकिन जितना वर्णन है, वह ज्योतिष्-विद्या की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। काव्य नियुक्तिकार को काव्य-साहित्य का भी गहरा ज्ञान था। समकालीन अनेक काव्य ग्रंथ उनके दृष्टिपथ से गुजरे, ऐसा प्रतीत होता है। ‘पद' का वर्णन करते हुए प्रसंगवश उन्होंने काव्य के अनेक तत्त्वों पर विस्तृत प्रकाश डाला है। नियुक्तिकार ने काव्य के अंतर्गत ग्रथित पद के चार भेद किए हैं:१. गद्यकाव्य २. पद्यकाव्य ३. गेयकाव्य ४. चौर्णकाव्य। ठाणं सूत्र में काव्य के चार भेदों में चौर्ण के स्थान पर कथ्य काव्य नाम मिलता है। कथ्य काव्य कथात्मक होता है। मुख्यत: काव्य के दो ही प्रकार होते हैं—गद्य और पद्य । आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार चौर्ण और गेय काव्य के स्वतंत्र प्रकार नहीं हैं अत: ये गद्य के ही अवान्तर भेद हैं। फिर भी स्वरूप की विशिष्टता ३. ठाणं ४/६४४। १. जंबू ७/१२५ । २. दशनि १४६ । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण १०७ के कारण इन्हें स्वतंत्र स्थान दिया गया है। गेय काव्य संगीतात्मक होता है अत: इसे काव्य की श्रेणी में रखना औचित्य की दृष्टि से ठीक है। गद्यकाव्य विश्वनाथ के अनुसार छंदबंधहीन शब्दार्थ योजना को गद्य काव्य कहा जाता है। दशवैकालिकनियुक्ति में साहित्यिक दृष्टि से गद्यकाव्य का स्वरूप प्रकट किया गया है। उसके अनुसार जो सूत्र आदि के विभाग से क्रमश: ग्रथित, मधुर, हेतुयुक्त, पादविहीन—चरण आदि से रहित, विरामसंयुक्त, अंत में अपरिमित अर्थात् बृहद् आकार वाला तथा जिसका पाठ मृदु हो, वह गद्यकाव्य कहलाता है। पद्यकाव्य छंद की दृष्टि से पद्यकाव्य के तीन भेद अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं —सम, अर्धसम और विषम । अनुयोगद्वारसूत्र में पद्य के स्थान पर वृत्त शब्द का प्रयोग मिलता है। जिसके चारों चरण समान अक्षर, विराम और मात्रा वाले हों, वह समपद्य कहलाता है। टीकाकार ने मतान्तर प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जहां चारों पादों में समान अक्षर हों, वह समपद्य कहलाता है। जिसके प्रथम और तृतीय तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में समान अक्षर, विराम और मात्रा हों, वह अर्धसमपद्य कहलाता है।" विषम पद्य का अर्थ है—सभी पादों में अक्षर, मात्रा और विराम विषम-असमान हों।' गेयकाव्य जो गाया जाता है. उसे गेय कहते हैं। आधनिक काव्यशास्त्रियों ने गेयकाव्य की अनेक परिभाषाएं तथा अनेक भेद किए हैं। संगीत रत्नाकर में दशांश लक्षणों से लक्षित स्वर सन्निवेश, पद, ताल एवं मार्ग इन चार अंगों से युक्त गान को गीत कहा है। नियुक्तिकार ने गेय काव्य के पांच भेद किए हैं १. तंत्रीसम-वाद्यों के तारों पर अंगुलि-संचार के साथ गाया जाने वाला गीत। २. वर्णसम—जहां दीर्घ अक्षर आने पर गीत का स्वर दीर्घ, ह्रस्व अक्षर आने पर ह्रस्व, प्लुत अक्षर आने पर प्लुत तथा सानुनासिक अक्षर आने पर गीत का स्वर सानुनासिक हो, वह वर्णसम कहलाता है। ३. तालसम-ताल-वादन के अनुरूप स्वर में गाया जाने वाला गीत। ४. ग्रहसम_वीणा आदि द्वारा गृहीत स्वरों के अनुसार गाया जाने वाला गीत। ५. लयसम-वाद्यों को आहत करने पर जो लय उत्पन्न होती है, उसके अनुसार गाया जाने वाला गीत ।११ १. साहित्यदर्पण ६/३३० । ७. दशअचू पृ. ४०; जस्स पढम ततिया बितिय चउत्था य पादा २. दशनि १४७। समक्खर-विराम-मत्ता तं अद्धसमं । ३. दशनि १४८। ८. दशअचू प्र. ४०; जस्स चत्तारि वि पादा विसमा तं विसमं । ४. अनुद्वा ३०७/१०। ९. संगीत-रत्नाकार, टीका पृ. ३३ । ५. दशअचू पृ.४०; तत्थ चउसु वि पादेसु समक्खर- १०. दशनि १४९ । विराममत्तं समं । ११. वंश-शलाका से तंत्री का स्पर्श किया जाता है और नखों ६. दशहाटी प.८८; अन्ये तु व्याचक्षते समं यत्र से तार को दबाया जाता है, तब जो एक भिन्न प्रकार का चतुर्ध्वपि पादेसु समान्यक्षराणि। स्वर उठता है, उसे 'लय' कहते हैं। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ नियुक्तिपंचक ठाणं' और अनुयोगद्वार' में गेयकाव्य के सात प्रकार मिलते हैंठाणं अनुयोगद्वार तंत्रीसम अक्षरसम तालसम पदसम पादसम तालसम लयसम लयसम ग्रहसम ग्रहसम नि:श्वसितोच्छ्वसितसम नि:श्वसितोच्छ्वसितसम संचारसम संचारसम अनुयोगद्वार में तंत्रीसम के स्थान पर अक्षरसम तथा पादसम के स्थान पर पदसम का उल्लेख है। स्वर के अनुकूल निर्मित गेयपद के अनुसार गाया जाने वाला गीत पादसम, सांस लेने और छोड़ने के क्रम का अतिक्रमण न करते हुए गाया जाने वाला गीत नि:श्वसितोच्छ्वसितसम तथा सितार आदि के साथ गाया जाने वाला गीत संचारसम कहलाता है। चौर्णकाव्य जो गद्य और पद्य मिश्रित होता है, वह चौर्णकाव्य कहलाता है। विश्वनाथ ने चौर्ण को गद्यकाव्य का भेद माना है। आचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध चौर्णकाव्य में निबद्ध है। गद्यकाव्य की लगभग विशेषताएं इसमें घटित होती हैं। चौर्णकाव्य की निम्न विशेषताएं हैं - • जो अर्थबहुल हो अर्थात् जिसमें एक-एक पद के अनेक अर्थ हों। • जो महान् अर्थ वाला हो,जो अनेक नयवादों की गंभीरता से महान् हो। • जो हेतुयुक्त हो। • जो च, वा, ह आदि निपातों से युक्त हो। • जो प्र, परा, सं आदि उपसर्गों से युक्त हो। • जो बहुपाद अर्थात् जिसके चरणों का कोई निश्चित परिमाण न हो। • जो अव्यवच्छिन्न-विरामरहित हो। • जो गम शुद्ध हो अर्थात् जिसमें सदृश अक्षर वाले वाक्य हों। • जो नय शुद्ध हो अर्थात् जिसका अर्थ नैगम आदि विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रतिपादित हो। यातायातपथ प्राचीनकाल में आज की भांति यातायात सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं लेकिन फिर भी नियुक्तिकार ने मार्ग शब्द की व्याख्या में द्रव्य मार्ग के अंतर्गत तत्कालीन यातायात के अनेक मार्गों का स्पष्ट संकेत किया है। ये मार्ग उस समय की भौगालिक एवं सांस्कृतिक स्थिति को स्पष्ट करने वाले हैं। नहां कीचड अधिक होता या गढ़ों को पार करना होता वहां उसे पार करने के लिए लकड़ी के फलक बिछा दिए जाते, उसे फलक मार्ग कहा जाता था। १. ठाणं ७/४८/१३ । २. अनुद्वा ३०७/८। ३. साहित्यदर्पण ६/३३० । ४. दशनि १५०। ५. सूनि १०८। ६. सूचू १ पृ. १९३। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण १०९ २. लतामार्ग - चूर्णिकार के अनुसार नदियों में होने वाली लताओं का आलम्बन लेकर पार करने का मार्ग। जैसे—चारुदत्त लता के सहारे नदी के एक किनारे से दूसरे किनारे पहुंचा था। जंगलों में पथिक भी लताओं को पकड़कर इधर से उधर चले जाते थे। ३. आंदोलनमार्ग - यह संभवत: झूलने वाला मार्ग रहा होगा। विशेषत: यह मार्ग दुर्ग आदि पर बनाया जाता था, जहां खाई आदि की गहराई झूलकर पार की जाती अथवा झूले के सहारे एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर जाने वाला मार्ग । कभी-कभी व्यक्ति वृक्षों की शाखाओं को पकड़कर झूलते और दूसरी ओर पहुंच जाते । वर्तमान में भी नदियों को पार करने के लिए कहीं-कहीं ऐसे मार्ग मिलते हैं,जैसे हरिद्वार में लक्ष्मण-झूला । ४. वेत्रमार्ग - नदियों को पार करने में सहायक मार्ग। जहां नदियों में वेत्र-लताएं सघन होतीं, वहां पथिक उन लताओं के सहारे एक किनारे से दूसरे किनारे तक पहुंच जाता था। ५. रज्जुमार्ग – मोटे रस्सों के सहारे एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचने का मार्ग। यह पर्वत जैसे अति दुर्गम स्थानों को पार करने के काम आता था। आज भी पहाड़ी स्थानों पर ऐसे मार्ग देखे जाते हैं। चूर्णिकार के अनुसार गंगा आदि नदियों को पार करने में रज्जु मार्ग का सहारा लिया जाता था। पथिक एक किनारे पर रज्जु को वृक्ष से बांध देते और उस लम्बे रज्जु के सहारे तैरते हुए दूसरे किनारे पहुंच जाते। ६. दवनमार्ग – दवन का अर्थ है—यान-वाहन। सभी प्रकार के वाहनों के यातायात में यह मार्ग काम आता था। इस पथ पर हाथी, घोड़े, रथ, बैल आदि सहजतया आते-जाते थे। ये मार्ग मुख्य रूप से शहरों को जोड़ने वाली सड़कों का कार्य करते थे। ७. बिलमार्ग - गुफा के आकार वाले मार्ग, जिनको मूषिक पथ भी कहा जाता था। यह मार्ग सामान्यतया पर्वतों पर होता था। पर्वतीय चट्टानों को काटकर चूहों के बिल जैसी छोटी-छोटी सुरंगें बनायी जाती थीं। अंधकारयुक्त होने के कारण इनमें दीपक लेकर प्रवेश करना पड़ता था। ८. पाशमार्ग - चर्णिकार के अनसार यह वह मार्ग है. जिसमें व्यक्ति अपनी कमर को रज्ज से बांधकर रज्जु के सहारे आगे बढ़ता था। सोने आदि की खदान में इसी के सहारे नीचे गहन अधंकार में उतरा जाता था और रज्जु के सहारे ही बाहर आया जाता था। टीकाकार के अनुसार जिस मार्ग में पक्षियों को फंसाने के लिए पाश डाल दिए जाते, वह पाशमार्ग कहलाता था।१० ९. कीलकमार्ग -वह मार्ग, जहां स्थान-स्थान पर कीले गाड़े जाते थे। पथिक उन कीलों या खंभों की १. सूचू १ पृ. १९३ २. सूटी पृ. १३१ । ३. सूचू १ पृ १९४। ४. सूटी पृ. १३१ । ५. सूटी पृ. १३१ ६. सूचू १ पृ. १९४; रज्जुहिं गंगं उत्तरति। ७. सूटी प. १३१; बिलमार्गो यत्र तु गुहाद्याकारेण बिलेन गम्यते। ८. सूचू १ पृ. १९४; बिलं दीवगेहिं पविसंति। ९. सूचू १ पृ. १९४। १०. सूटी पृ. १३१; पाशमार्गः पाशकूटवागुरान्वितो मार्ग इत्यर्थः । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक पहचान से अपने मार्ग पर आगे बढ़ता जाता था। दिग्भ्रम न हो इस दृष्टि से ये मार्ग विशेष रूप से मरुप्रदेश में बनाए जाते थे, जहां बालू के टीलों की अधिकता होती थी। १०. अजमार्ग इतना संकरा पथ, जिसमें केवल अज (बकरी) या बछड़े के चलने जितनी पगडंडी मात्र होती थी। यह मार्ग विशेषत: पहाड़ों पर होता था, जहां बकरों या भेड़ों पर यातायात किया जाता था। इसे मेंढपथ भी कहा जाता था। इन मार्गों पर दो व्यक्ति एक साथ नहीं चल सकते थे। टीकाकार के अनुसार चारुदत्त इसी मार्ग से स्वर्णभूमि पहुंचा था। चूर्णिकार ने इसे लोहे से जटिल पथ माना है, यह पथ स्वर्णभूमि में था। ११. पक्षिपथ- भारुण्ड आदि विशालकाय पक्षियों के सहारे होने वाला आकाशमार्गीय यातायात। यह मार्ग सर्वसुलभ नहीं था। ऐसा संभव लगता है कि मांत्रिक या तांत्रिक लोग इन विशालकाय पक्षियों का उपयोग वाहन के रूप में करते थे। आज भी शतुर्मुर्ग का वाहन के रूप में उपयोग किया जाता है। पाणिनी का हंसपथ, महानिद्देस का शकुनपथ और कालिदास का खगपथ और सुरपथ इसी पक्षिपथ के वाचक हैं। १२. छत्रमार्ग ऐसा मार्ग, जहां छत्र के बिना आना-जाना निरापद नहीं होता था। संभव है यह . जंगल का मार्ग हो, जहां हिंस्र पशुओं का भय रहता हो। पशु छत्ते के डर से इधर-उधर भाग जाते अथवा धूप से रक्षा के लिए इनका उपयोग किया जाता था। जहाज नौका आदि से यातायात करने का मार्ग।५ इसे वारिपथ भी कहा जाता था। १४. आकाशमार्ग—चारणलब्धि सम्पन्न मुनियों, विद्याधरों तथा मंत्रविदों के आने-जाने का मार्ग । इसे देवपथ' भी कहा जाता था। प्राचीनकाल में रथ के लिए विशिष्ट मार्ग बनाए जाते थे, जो चौड़े और समतल होते थे। शकट संकरे मार्ग पर भी चल सकते थे। उत्पथ पर तीव्र गति से शकट चलाने पर वे भग्न हो जाते थे। जल को पार करने हेतु भस्त्रा का प्रयोग किया जाता था। चमड़े को सीकर उसमें हवा भर दी जाती थी, जो डनलप के चक्रों के समान पानी पर तैरती थी। भस्त्रा से रास्ता तय करने वाले को भास्त्रिक कहते थे। धार्मिक संस्कृति . आगम-साहित्य को पढ़ने से तत्कालीन देश, काल और संस्कृति का ज्ञान हो जाता है क्योंकि वे विस्तृत शैली में लिखे गए हैं। नियुक्तिकार का मूल लक्ष्य सूत्र में आए पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करना था अत: उन्होंने सलक्ष्य इस विषय में कोई रुचि नहीं ली किन्तु प्रसंगवश धर्म, समाज, राजनीति, १३. जलमार्ग १. सूटी पृ. १३१; कीलकमार्गो यत्र बालुकोत्कटे मरकादिविषये ५. सूटी पृ. १३१; जलमार्गे यत्र नावादिना गम्यते। कीलकाभिज्ञानेन गम्यते। ६. सूचू १ पृ. १९४; आगासमग्गो चारण-विज्जाहराणं । २. सूटी पृ. १३१। ७. दशअचू पृ. ५२। ३. सूचू १ पृ. १९४।। ८. महाभाष्य ४/४/१६ । ४ सूटी पृ. १३१, छत्रमार्गो यत्र छत्रमन्तरेण गंतु न शक्यते। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण १११ संस्कृति, इतिहास और विज्ञान आदि का वर्णन किया है। यहां हम नियुक्ति एवं उनके व्याख्या - साहित्य के आधार पर इन विषयों की संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं । नियुक्तिकार के समय धर्म का सर्वोपरि महत्त्व था । उसे उत्कृष्ट मंगल के रूप में स्वीकार किया जाता था। धर्म के नाम पर लोगों को भ्रमित भी किया जाता था । परिव्राजक लोग धार्मिक सिद्धांतों के नाम पर लोगों को ठगा करते थे । अंधविश्वास के आधार पर देवी-देवताओं की अंधपूजा की जाती थी। परिस्थितिवश मलोत्सर्ग पर डाले गए फूलों को देखकर हिंगुशिव की उत्पत्ति इसका प्रत्यक्ष निदर्शन है । कार्य विशेष की पूर्ति हेतु लोग मनुष्यों की बलि भी देते थे। कुछ संन्यासी या भिक्षु सप्त व्यसनों से आक्रान्त होते थे। ब्राह्मण यदि किसी प्राणी को रोषपूर्वक या निर्दयता से मार देता तो उसे प्राणदंड तक का प्रायश्चित्त दिया जाता था । " साधु-साध्वियों को तत्त्व विषयक शंका होने पर श्रावक तथा राजा आदि उनको प्रतिबोध एवं प्रेरणा देते थे । यदि वाचना अधूरी रह जाती तो आगाढ योग में प्रतिपन्न शिष्यों का अध्यापन पूरा कराने हेतु कभी - कभी दिवंगत होकर भी आचार्य पुनः दिव्य प्रभाव से उस शरीर में प्रवेश कर वाचना पूर्ण करते थे । शक्ति प्राप्त करने अथवा शंका-समाधान हेतु संघ आचार्य सहित देवता का कायोत्सर्ग करता था, जैसे—– आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र ने गोष्ठामाहिल द्वारा शंका उपस्थित किए जाने पर कायोत्सर्ग का प्रयोग कर देवता का आह्वान किया । " साधु-संन्यासी एवं परिव्राजक धार्मिक वाद-विवादों में वृश्चिक, सर्प आदि विद्याओं तथा मायूरी, नाकुली आदि प्रतिपक्ष विद्याओं का प्रयोग करते थे ।" साधु लोग कभी - कभी ऐसी विद्याओं का प्रयोग भी कर लेते थे, जिससे दूसरों का अनिष्ट हो जाता था । " चोर उन्नामिनी - अवनामिनी विद्या में प्रवीण होते थे। चोर आदि भी उपदेश देने पर सरलता से प्रतिबुद्ध होकर प्रव्रजित हो जाते थे, जैसे—कपिल मुनि के द्वारा प्रतिबोध देने पर बलभद्र आदि पांच सौ चोर प्रतिबुद्ध हो गए। छोटे से निमित्त को पाकर राजा लोग प्रतिबुद्ध हो जाते थे, जैसे – वृद्ध बैल को देखकर करकंडु, इंद्रकेतु की दुर्दशा देखकर दुर्मुख, कंकण की आवाज सुनकर नमि राजर्षि तथा आम्रवृक्ष की श्रीहीनता को देखकर गांधार राजा नग्गति प्रतिबुद्ध हो गए । १२ अनशन से पूर्व बारह वर्ष की संलेखना का बहुत सुंदर कम आचारांगनियुक्ति में प्रतिपादित है । १३ प्रसंगवश नियुक्तिकार ने वैदिक क्रियाकाण्डी मान्यताओं का भी हेतुपुरस्सर खंडन किया है । अग्नि में घी की आहूति डालने से सूर्यदेवता प्रसन्न होकर वर्षा करते हैं । इस मान्यता का खंडन करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि होम करने से वर्षा होती है तो फिर दुर्भिक्ष क्यों होता है? यदि यह कहा जाए कि दुरिष्ट (बुरा नक्षत्र) या अविधिपूर्वक होम करने से दुर्भिक्ष होता है तो फिर जहां दुरिष्ट या अविधि से होम किया जाए वहीं दुर्भिक्ष होना चाहिए, सब जगह दुर्भिक्ष क्यों होता है? वर्षा का कारण १. दशनि ८८, ८४, देखें कथा सं. २२ पृ. ४८३ । २. दशनि ६३ । ३. दशनि ७९ । ४. दशनि ७९ । ५. दनि १०५ । ६. उनि १७२/२-५ । ७. उनि १७२/४ । Jain Education international ८. आचू पृ. ६१; पसत्थदेवबले दुब्बलियपूसमित्तप्पमुहेण संघेण देवयाए बलनिमित्तं काउस्सग्गो कओ । ९. उनि १७२/८, ९ । १०. उनि ११९ । ११. उनि २५१ । १२. उनि २५८ । १३. आनि २८८ - ९४ । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ नियुक्तिपंचक इंद्र है तो क्या निर्घात, दिग्दाह आदि से इंद्र के कार्य में विघ्न नहीं होता? इन हेतुओं से यह मानना चाहिए कि स्वाभाविक रूप से ऋतु के अनुसार वर्षा होती है। दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक तथ्य माधुकरी भिक्षा के प्रसंग में ईश्वरकर्तृत्व के बारे में पूर्वपक्ष के साथ उसका हेतु-पुरस्सर उत्तरपक्ष प्रस्तुत किया गया है। ब्रह्मा ने हर प्राणी को आजीविका दी है इसीलिए वृक्ष भी भ्रमरों के लिए फलते-फूलते हैं। वैदिकों के इस मंतव्य का नियुक्तिकार ने सैद्धान्तिक दृष्टि से तो खंडन किया ही साथ ही व्यावहारिक तर्क देते हुए कहा कि अनेक ऐसे वनखंड हैं,जहां न तो भ्रमर जाते हैं और न वहां निवास करते हैं फिर भी वनखंड में वृक्ष फलते-फूलते हैं अत: फलना और फूलना वृक्षों का स्वभाव है। दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन की नियुक्ति में दश अवयवों की चर्चा तथा उदाहरण एवं हेतु के भेद-प्रभेदों का वर्णन न्याय-दर्शन की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। न्याय एवं दर्शन के क्षेत्र में तर्क, हेतु और उदाहरणों का प्रवेश नियुक्तिकाल में हुआ संभव लगता है। पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने 'आगम युग का जैन दर्शन' पुस्तक में विस्तार से इनका वर्णन किया है। चौथे अध्ययन की नियुक्ति में १४ द्वारों के द्वारा जीव की व्याख्या की गयी है, जिसमें आत्मा का अस्तित्व, पुनर्जन्म, आत्मा की परिणमनशीलता, आत्मा का देहव्यापित्व एवं आत्मकर्तृत्व आदि अनेक सिद्धांतों की चर्चा हुई है। दशवैकालिकनियुक्ति में सैद्धान्तिक दृष्टि से जीव के २० लक्षणों की चर्चा की गयी है। वहां सैद्धान्तिक दृष्टि से जीव के तीन भेद किए गए हैं.–१. ओघजीव २. भवजीव ३. तद्भवजीव । आयुष्य कर्म के होने पर जीव जीता है, आयुष्य कर्म के क्षीण होने पर मृत या सिद्ध हो जाता है, वह ओघजीव है। जिस आयुष्य के आधार पर जीव किसी भव में स्थित रहता है अथवा उस भव से संक्रमण करता है, वह भवायु है। तद्भव आयु जीव दो प्रकार के होते हैं—तिर्यञ्चतद्भव आयु और मनुष्यतद्भव आयु क्योंकि तिर्यञ्च और मनुष्य ही मरकर पुन: तिर्यञ्च और मनुष्य में उत्पन्न हो सकते हैं। संकुचित और विकसित होना जीव का मूल गुण है। वह अपने असंख्येय प्रदेशात्मक गुण के कारण समुद्घात के समय सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है। सूत्रकृतांग की 'आहारपरिण्णा' अध्ययन की नियुक्ति में आहार संबंधी सैद्धान्तिक एवं तात्त्विक वर्णन हुआ है। जीव जन्म के समय पहले तैजस और कार्मण शरीर से आहार ग्रहण करता है। बाद में जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक औदारिकमिश्र और वैकियमिश्र से आहार ग्रहण करता है। आहार की दृष्टि से एकेन्द्रिय जीव, देवता और नारकी जीवों के प्रक्षेप—कवल आहार नहीं होता। केवली समुद्घात के समय जीव मंथान के प्रारम्भ और उपसंहार में (तीसरे और पांचवें समय में) तथा लोक को पूरित करते हुए चौथे समय में अनाहारक रहते हैं। इस प्रकार समुद्घात की अपेक्षा केवली १ दशनि ९५/१-३; यद्यपि यह प्रसंग बाद में जोड़ा गया है पर वर्तमान में ये निर्युक्ति-गाथा के रूप में प्रसिद्ध हैं। २. दशनि ९७। ३. दशनि १९३, १९४ । ४. दशनि १९९,२०० । ५. दशनि १९५-९७। ६. आनि १८१। ७. सूनि १७८। ८. सूनि १७४। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण तीसरे, चौथे और पांचवें समय में अनाहारक रहते हैं। चौदहवां गुणस्थान भी अनाहारक होता है। इस अतिरिक्त अंतराल गति में विग्रह गति करने वाला जीव एक या दो समय अनाहारक रहता है। दशवैकालिकनियुक्ति में वर्णित भाषा एवं उसके भेदों का वर्णन तथा सूत्रकृतांग नियुक्ति । परमाधार्मिक देवों के कार्यों का वर्णन सैद्धान्तिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति । उपासक और श्रावक का अंतर तात्त्विक दृष्टि से नए तथ्यों को प्रकट करने वाला है। सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक स्थितियां ... साहित्य समाज का दर्पण होता है। किसी भी साहित्य के आलोक में तत्कालीन सभ्यता एवं संस्कृति का ज्ञान किया जा सकता है। नियुक्तिकार ने कथाओं के माध्यम से प्रसंगवश सभ्यता, संस्कृति एवं सामाजिक परम्पराओं के अनेक तथ्यों की ओर इंगित किया है। सामाजिक दृष्टि से चार वर्णों की उत्पति का इतिहास अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। नियुक्तिकालीन सभ्यता में दासप्रथा का पूर्णरूपेण बहिष्कार नहीं हुआ था। व्यक्तियों का क्रय-विक्रय चलता था। बलिप्रथा प्रचलित थी। परिपूर्ण कलश को लौकिक मंगल के रूप में माना जाता था। कन्याएं स्वयंवर भी करती थीं, जैसे—मथुरा के राजा जितशत्रु की पुत्री निर्वृति ने स्वयं दूसरे स्थान पर जाकर स्वयंवर किया। बहुपत्नी प्रथा समृद्धि एवं गौरव का प्रतीक मानी जाती थी। राजा लोग अनेक रानियां रखते थे। गांधर्व विवाह भी प्रचलित थे। गर्भधारण, गर्भपात एवं गर्भ के पोषण की विधियां प्रचलित थीं। साधु उन विधियों को गृहस्थ को नहीं बता सकता था। गर्भवती पत्नी को छोड़कर घर का प्रमुख व्यक्ति दीक्षित हो जाता था। पिता अपनी पुत्री के साथ अकरणीय कार्य कर लेता था और उस कार्य में कभी-कभी पत्नी अपने पति का सहयोग भी कर देती थी।१२ दक्षिणापथ में मामा की बेटी गम्य मानी जाती थी अर्थात् उसके साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किया जा सकता था पर गोल्ल देश में यह संबंध निषिद्ध था।१३ धन के लिए बेटी अपनी मां की हत्या तक कर देती थी। ठगविद्या प्रकर्ष पर थी।५ चोरों द्वारा चुराई हुई वस्तु की पुन: प्राप्ति अशुभ मानी जाती थी।१६ इक्षुदंड को शुभ शकुन माना जाता था।१७ __ शिल्पी लोग अनेक कलात्मक चीजें बनाते थे। चित्रकला की दृष्टि से मिट्टी के मनोहारी फूल बनाए जाते थे। वस्त्र बुनते समय बुनाई में जुलाहा, हाथी, घोड़े आदि के चित्र बना देता था, जिसे वातव्य कहा जाता था।१९ वस्त-विनिमय के साथ-साथ रुपयों द्वारा भी लेन-देन चलता था।२० भारतीय व्यापारी विदेशों में व्यापारार्थ जाते थे। सार्थवाह पुत्र अचल वाहनों को भरकर पारसकुल (ईरान) १. सूनि १७६,१७७। २. दनि ३७-४०। ३. आनि १९ आचू. पृ. ५ । ४. दनि १०७, १०८, उनि २४७ । ५. दशनि ७९। ६. दशनि ४१ । ७. उशांटी प. १४८-५० । ८. उसुटी प १४२; राइणो अणेगाओ महादेवीओ,एगेगा वारएण रयणीए राइणो वासभवणे आगच्छइ । ९. उसुटी प. १९०; सा तेण गंधव्वविवाहेण विवाहिया। १०. आनि २५४। ११. दशअचू पृ. ४। १२. उनि १३५-३७। १३. दशअचू पृ. १०। १४. दशनि ५१। १५. दशनि ८५ । १६. दनि १६, दचू प. १२ । १७. उसुटी प. २३। १८. दशनि १४३ टी. प. ८७।' १९. दशनि १४३ टी प. ८७। २० उशांटी प. २०९ । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ नियुक्तिपंचक गया। चम्पा नगरी का वणिक् पुत्र पालित नौकाओं में माल भरकर पिहुण्ड नगर पहुंचा। विदेशी लोग भारत में रत्न खरीदने आते थे। एक बार एक व्यापारी के पुत्रों ने विदेशी व्यापारियों को सारे रत्न बेच दिए। अन्य देशों से आए माल की कड़ी जांच की जाती थी। ___ कपड़ों के लिए पक्का रंग जलौक के माध्यम से तैयार किया जाता था। जलौक को जीवित व्यक्ति के शरीर पर छोड़ दिया जाता। वह उसका रक्त चूसकर जो रंग बनाती, वह कपड़े आदि रंगने के काम आता था। सुगंधित द्रव्यों का चूर्ण बनाकर उसका प्रयोग वशीकरण एवं दूसरों को मोहित करने के लिए किया जाता था। मुकुन्द नामक वाद्य गंभीर स्वर के कारण वाद्यों में अपना विशिष्ट स्थान रखता था। सोलह सेर द्राक्षा, चार सेर धातकी के पुष्प और ढाई सेर इक्षु—इनको मिलाकर मद्य बनाया जाता था। शिक्षा के लिए विद्यार्थी अन्य स्थानों पर भी जाते थे। उनके भोजन-पानी एवं आवास की व्यवस्था धनी सेठ कर देते थे, जैसे---कपिल ब्राह्मण की व्यवस्था सेठ शालिभद्र ने की थी। शिक्षा पूर्ण कर लौटे विद्यार्थी का राजा सार्वजनिक सम्मान करता था। नगर को पताकाओं से सजाकर उसे हाथी पर बिठाकर ससम्मान घर पहुंचाया जाता तथा अनेक प्रकार के उपहार भी दिए जाते थे। सोमदेव ब्राह्मण के पुत्र रक्षित का ऐसा ही राजकीय सम्मान किया गया ।१०।। उत्तराध्ययननियुक्ति में ऋषभपुर, राजगृह और पाटलिपुत्र नगर की उत्त्पत्ति का संकेत मिलता है। इसी प्रकार दशपुर नगर के उत्त्पत्ति के कथानक का संकेत भी नियुक्तिकार ने दिया है ।१२ राजतंत्र होने से राजभय के कारण मुनि की आचार-परम्परा में राजा की आज्ञा को आपवादिक कारण में रखा जाता था।१३ राजा यदि किसी व्यक्ति की सरलता से प्रसन्न होता तो करोड़ों रुपये देने के लिए तैयार हो जाता। राजकुमार यदि दुर्व्यसनों में फंस जाता तो सर्वगुणसम्पन्न होते हुए भी राजा उसे देशनिकाला दे देता। उज्जैनी का राजपुत्र मूलदेव कला-मर्मज्ञ होते हुए भी जुए के व्यसन से आक्रान्त था अत: राजा ने उसे देशनिकाला दे दिया।१५ राजा लोग वेश्याओं को अंत:पुर में रख लेते थे। मथुरा के राजा ने काला नामक वेश्या को अपने अंत:पुर में रखा, जिससे कालवैशिक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।१६ गुप्तचर निरपराध मुनियों को भी चोर समझ कर उन्हें दंडित कर देते थे। उस समय राज्य की ओर से अठारह प्रकार के कर प्रचलित थे।८ नियुक्तिकार ने युद्ध के लिए केवल यान, कवच, प्रहरण और युद्ध-कौशल को ही आवश्यक नहीं माना, इसके अतिरिक्त नीति, दक्षता, प्रवृत्ति और शरीर का १. उसुटी प. ६४। २. उनि ४२६ । ३. उशांटी प. १४७। ४. उसुटी प. ६५। ५. दनि १०८ चू. प. १५१ । ६. उनि १४७, १४८। ७. उनि १५२, उशांटी प. १४३ । ८. उनि १५१। ९. उनि २४६, उसुटी प. १२४ । १०. उसुटी प. २३। ११. उनि १०१। १२. उनि ९६। १३. दनि ७३। १४. उनि २५०। १५. उसुटी प. ५९ । १६. उसुटी प. १२० । १७. उनि १०८, ११७ । १८. उशांटी प. ६०५ । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण ११५ आरोग्य—इन अंगों को भी आवश्यक माना है। चूर्णिकार ने इन अंगों के महत्त्व और उनके परस्पर संबंध पर सुंदर प्रकाश डाला है। व्यूह-रचना के द्वारा युद्ध किया जाता था। राजा चंडप्रद्योत और द्विर्मुख के बीच युद्ध में चंडप्रद्योत ने गरुड़-व्यूह एवं द्विर्मुख ने सागर-व्यूह की रचना की थी। आज वैज्ञानिक यह मानते हैं कि शस्त्र का निर्माण सर्वप्रथम मनुष्य के मस्तिष्क में होता है। नियुक्तिकार ने द्रव्य शस्त्रों की चर्चा करते हुए दुष्प्रयुक्त अंत:करण तथा मन और वाणी के असंयम को मूल भावशस्त्र के रूप में माना है। भावशस्त्र सक्रिय है तो द्रव्यशस्त्रों का निर्माण होता रहता है। सूत्रकतांगनियुक्ति में तीन प्रकार के शस्त्रों की चर्चा है—१. विद्याकत. २. मंत्रकत. ३. दिव्य। ये तीनों पांच प्रकार के होते हैं—१. पार्थिव २. वारुण ३. आग्नेय ४. वायव्य ५. मिश्र अर्थात् दो या तीन का मिश्रण, जैसे—पार्थिव और वारुण से निष्पन्न शस्त्र । चूर्णिकार के अनुसार जो साधे जाते हैं अथवा जिनका अभ्यास किया जाता है, वे विद्याकृत मंत्र हैं तथा जिनको साधने अथवा अभ्यास करने की अपेक्षा न हो, वे मंत्रकृत शस्त्र कहलाते हैं। स्थविर जिनदास ने भी अपनी चूर्णि में अनेक प्रकार के शस्त्रों की चर्चा की है—१. एक धार वाले–परशु आदि। २. दो धार वाले—बाण आदि। ३. तीन धार वालेतलवार आदि। ४. चार धार वाले-चतुष्कर्ण आदि। ५. पांच धार वाले—अजानुफल आदि । इतिहास नियुक्ति-साहित्य में ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक दोनों प्रकार के तथ्यों का संकलन मिलता है• भगवान् ऋषभ से पूर्व मनुष्य जाति एक थी, उसमें जातिकृत भेद नहीं था।' • हजार वर्ष तक उग्र तप करने वाले ऋषभ का कुल संकलित प्रमाद-काल एक अहोरान तथा बारह वर्ष से अधिक उग्र तप करने वाले महावीर का प्रमाद-काल अन्तर्मुहूर्त का था। • सूत्रकृतांग का दूसरा अध्ययन ऋषभ ने अष्टापद पर्वत पर अट्ठानवें पुत्रों को संबोधित कर प्रतिपादित किया, जिसे सुनकर वे सब प्रव्रजित हो गए।१० • पुष्कर तीर्थ की उत्पत्ति राजा प्रद्योत और उद्रायण की कथा से ज्ञात होती है। वासवदत्ता ने वशीकरण चूर्ण का प्रयोग करके उदयन को आकृष्ट किया था।१२ . विज्ञान वर्तमान में विज्ञान प्रकर्ष पर है पर नियुक्ति एवं चूर्णि-साहित्य में भी कुछ वैज्ञानिक तथ्य मिलते हैं। आज विज्ञान ने Space (क्षेत्र) और Time (समय) के बारे में काफी चिन्तन किया है। आइंस्टीन ने इस दिशा में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किए हैं लेकिन जैन दर्शन ने जिस सूक्ष्मता से इनके बारे में चिन्तन किया है, वहां तक विज्ञान की पहुंच नहीं हो सकी है। नियुक्तिकार के अनुसार काल से भी १. उनि १५५ । ८. आनि १९, विस्तृत वर्णन हेतु देखें इसी ग्रंथ में वर्ण २. उचू पृ. ९३ । व्यवस्था एवं वर्णान्तर जातियां पृ. ६९-७२। ३. उसुटी प.१३६;रइओ गरुडव्वूहो पज्जोएण, सागरव्वूहो दोमुहेण। ९. उनि ५१८, ५१९ । ४. आनि ३६ । १०. सूनि ४१। ५. सूनि ९८, सूचू १ पृ. १६५ । ११. उनि ९६। ६. सूचू १ पृ. १६५; विज्जा ससाहणा, मंतो असाहणो। १२. उनि १४८। ७. दशजिचू पृ. २२४ । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ नियुक्तिपंचक अधिक सूक्ष्म होता है क्षेत्र क्योंकि अंगुल श्रेणिमात्र क्षेत्र के प्रदेशों के अपहार में असंख्येय उत्सर्पिणियां और अवसर्पिणियां बीत जाती हैं। उस समय ऐसे द्रव्यों का संयोग किया जाता था, जिससे दीए की बाती बिना तेल के ही केवल पानी से जलती थी। काश्मीर आदि देशों में कांजी के पानी से दीया जलाया जाता था। चक्रवर्ती का गर्भगृह उष्णकाल में उष्ण तथा शीतकाल में शीत रहता था।३ नालिका आदि के द्वारा समय का सही ज्ञान कर लिया जाता था। जमदग्निजटा, तमालपत्र आदि गंध द्रव्यों को मल्लिका—चमेली पुष्प से वासित कर दिया जाता तो वह गंधद्रव्य करोड़ मूल्य वाला हो जाता था। सूत्रकृतांगनियुक्ति में पद्म का वर्णन आश्चर्य पैदा करने वाला है। विज्ञान के द्वारा यह खोज का विषय है कि ऐसा कमल कहां होता है और उसे कैसे पाया जा सकता है? नियुक्तिकार ने सोने के आठ गुणों का संकेत किया है। १. विषघाती विष का नाश करने वाला। २. रसायण-...यौवन बनाए रखने में समर्थ । ३. मंगलार्थ -मांगलिक कार्यो में प्रयुक्त। ४. प्रविनीत यथेष्ट आभूषणों में परिवर्तित होने वाला। ५. प्रदक्षिणावर्त --तपने पर दीप्त होने वाला। ६. गुरुसार वाला। ७. अदाह्म-अग्नि में नहीं जलने वाला। ८. अकुथनीय—कभी खराब न होने वाला। नियुक्तिकार ने सोने की कष, छेद, ताप, ताड़ना आदि चार कसौटियों का भी उल्लेख किया है। सोने को चमकाने के लिए सौराष्ट्रिक मिट्टी का प्रयोग किया जाता था। कृत्रिम सोना तैयार किया जाता था। वह शुद्ध सोने जैसा लगता पर कसौटियों पर खरा नहीं उतरता था।१० स्वास्थ्य-विज्ञान एवं आयुर्वेद नियुक्तिकार आयुर्वेद के भी विज्ञाता थे। प्रसंगवश उन्होंने तत्कालीन आयुर्वेद एवं चिकित्सा के अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों का संकेत दिया है। रोगी के फोड़े को काटकर उसकी सिलाई की जाती थी। गलयंत्र के द्वारा अपथ्य के प्रति कुत्सा पैदा की जाती थी, जिससे अजीर्ण-दोष की निवृत्ति हो जाती थी।११ जेठ और आषाढ़मास की वायु का शरीर में निरोध होने से व्यक्ति चलने-फिरने में असमर्थ हो जाता था ।१२ आज की भाषा में इसे लू लगना कहा जा सकता है। सांप, बिच्छू आदि काटने पर मंत्रों का प्रयोग किया जाता था।९३ दो रजनी पिंडदारु और हल्दी, माहेन्द्र फल, त्रिकटुक के तीन अंग-सूंठ, १. आनि ८९ । २. सूचू १ पृ. १६३; कस्मीरादिषु च काज्जिकेनापि दीपको दीप्यते । ३. सूचू १ पृ. १६३; चक्कवट्टिस्स गब्भगिहं सीते उण्ह उण्हे सीतं । ४. दशनि ५८। ५. उनि १४६ । ६. सूनि १६२-६५। ॐ दशनि ३२६ । ८. दशनि ३२७ । ९. दशजिचू पृ. १७९ । १०. दशहाटी प. २६३ । ११. दशनि३४१। १२. उनि १३०. १३१ । १३. दशहाटी प. २३६ । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण पीपल, कालीमिर्च, सरस—आर्द्रक तथा कनकमूल-बेल की जड़-इन सात द्रव्यों को पानी के साथ गोली बनाने से वह गोली खाज, तिरमिरा—आंख का रोग, आधासीसी (अर्ध शिरोरोग), समस्त शिरोरोग, तार्तीयीक (तीन दिनों से आने वाला ज्वर), चातुर्थिक (चार दिनों से आने वाला ज्वर) आदि रोगों को शान्त करती तथा चूहे, सांप आदि के काटने पर भी काम आती थी। पाणिनी ने दो दिन से आने वाले ज्वर को द्वितीयक, तीन दिन आने वाले ज्वर को तृतीयक और चार दिन से आने वाले ज्वर को चतुर्थक कहा है। उन्होंने ज्वर के कुछ और भेदों का भी उल्लेख किया है। सर्दी देकर चढ़ने वाला ज्वर शीतक तथा गर्मी से आने वाला ज्वर उष्मक कहा जाता था। इसी प्रकार विषपुष्प से उत्पन्न ज्वर विषपुष्पक तथा कासपुष्प से उत्पन्न ज्वर कासपुष्पक कहलाता था। शरदऋतु के प्रारम्भ में उत्पन्न ज्वर शारदिक कहलाता था। बल, रूप आदि को बढ़ाने के लिए वमन-विरेचन का प्रयोग किया जाता था। बाह्य और आंतरिक तप करने से शरीर में हल्कापन आता है तथा बाहु कृश होती हैं। क्षेत्र विशेष के प्रभाव से भी शरीर कृश होता है। खाद्य पदार्थों में तेल और दही का संयोग विरोधी है। तेल, घी आदि पीने से सौन्दर्य-वृद्धि होती थी। रंग-निखार आदि के लिए तैल-मर्दन तथा उद्वर्तन आदि किया जाता था। ऐसी गोलियों का निर्माण किया जाता था, जिनका सेवन करने से एक महीने तक भूख की अनुभूति नहीं होती और न ही शक्तिहीनता की प्रतीति होती थी। विष का प्रभाव नष्ट करने हेतु विशेष प्रकार के गंध या लेप तैयार किए जाते थे तथा बुद्धि बढ़ाने की औषधियां बनायी जाती थीं। इसी प्रकार लेप विशेष के प्रयोग से कांटे भी स्वत: निकल जाते थे।१ सद्य: बनाए हुए घेवर प्राणकारी, हृद्य और कफ का नाश करने वाले होते थे।१२ परवर्ती एवं अन्य ग्रंथों पर प्रभाव । नियुक्तियां आगमों की प्रथम व्याख्या है अत: इसमें वर्णित अनेक विषयों से परवर्ती रचनाकार प्रभावित हुए हैं। निर्जरा की तरतमता बताने वाली गुणश्रेणी-विकास की दश अवस्थाओं का सबसे प्राचीन उल्लेख आचारांगनियुक्ति में मिलता है।१३ गोम्मटसार और षट्खंडागम में शब्दश: ये गाथाएं उद्धृत की गयी हैं। मात्र उपशमक के आगे ‘कसाय' शब्द का प्रयोग अतिरिक्त मिलता है।१४ षट्खंडागम का वेदना खंड और गोम्मटसार का जीवकाण्ड देखने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि ये गाथाएं मूलग्रंथ का अंश नहीं अपितु कहीं से उद्धृत या प्रक्षिप्त की गयी हैं। उमास्वाति ने भी ये अवस्थाएं नियुक्तिकार से ली हैं, यह कहा जा सकता है ।१५ १. उनि १४९, १५०। २. अष्टाध्यायी ५/२/८१ । ३. अष्टाध्यायी ५/२/८१ । ४. दशजिचू पृ. ११५ । ५. आचू पृ. २२२ । ६. आचू पृ. २२१। ७. आचू प. १३०; विवरीतं असम्म जहा तिल्लदहीणं। ८. सूचू १ पृ. १०॥ ९. सूचू १ पृ. १६३। १०. सूचू १ पृ. १६३ । ११. सूचू १ पृ. १६३ । १२. सूटी पृ. १११; सद्य: प्राणकरा हृद्या घृतपूर्णा: कफापहाः । १३. आनि २२३, २२४ । १४. षट्. वेदनाखंड, गा. ७, ८, गोजी. ६६, ६७ । १५. विस्तार के लिए इसी ग्रंथ में देखें-निर्जरा की तरतमता के स्थान, पृ. ७२-७७ । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिप: । गुणश्रेणी विकास की ओं के अतिरिक्त आचार्य उमास्वाति ने परीषह का प्रसंग भी उत्तराध्ययननियुक्ति से लिया है क्योंकि दोनों के वर्णन में बहुत संवादिता है । उमास्वाति संवर के प्रसंग में परीषह का वर्णन किया है अतः वहां कितने परीषह किसमें पाए जाते हैं तथा किस कर्म के उदय से कौन से परीषह उदय में आते हैं, यह वर्णन अप्रासंगिक सा लगता है लेकिन निर्युक्तिकार ने परीषह के बारे में लगभग ९ द्वारों से सर्वांगीण व्याख्या प्रस्तुत की है अतः वहां यह वर्णन प्रासंगिक लगता है । नियुक्तिकार ने एक साथ एक जीव में उत्कृष्ट २० परीषह स्वीकार किए हैं? लेकिन तत्त्वार्थ सूत्रकार उत्कृष्टतः १९ परीषहों को स्वीकार किया है। आचार्य भद्रबाहु ने शीत और उष्ण तथा चर्या और निषद्या को विरोधी मानकर एक समय में एक व्यक्ति में २० परीषह स्वीकार किए हैं किन्तु तत्त्वार्थ सूत्रकार ने शीत और उष्ण में एक तथा चर्या, निषद्या और शय्या इन तीनों में एक परीषह को एक समय में स्वीकार किया है अत: एक समय में १९ परीषह एक जीव में प्राप्त होते हैं । नियुक्तिगाथा के संवादी तत्त्वार्थ के सूत्र इस प्रकार हैं तत्त्वार्थ ११८ उत्तराध्ययननिर्युक्ति १. सूक्ष्मसम्परायच्छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश (९ / १०) चउदस य सुहुमरागम्मि छउमत्थवीयरागे (८०) २. एकादश जिने (९/११) एक्कारस जिमि (८०) ३. बादरसम्पराये सर्वे (९/१२) बावीस बादरसम्पराये (८०) ४. ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने (९/१३ ) पण्णाऽण्णाणपरीसह नाणावरणम्मि हुति (७५) ५. दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ (९/१४) ६. चारित्रमोहे नाग्न्यारति- स्त्री- निषद्याक्रोश गा. ७५, ७८ अरती अचेल इत्थी, निसीहिया जायणा य अक्कोसे । सक्कारपुरक्कारे, चरितमोहम्म सत्तेए॥७६॥ एक्कारस वेयणिज्जम्मि (गा. ७९ ) ७. वेदनीये शेषा: (९ / १६ ) ८. एकादयो भाज्या युगपदैकोनविंशते: (९/१७) गा. ८३ नियुक्ति में प्रयुक्त निक्षेप-पद्धति का अनुसरण भी परवर्ती आचार्यों ने कुछ समय तक किया लेकिन बाद के आचार्यों ने इसे इतना उपयोगी नहीं माना, जैसे—– आचारांगनियुक्ति में कषाय के आठ निक्षेप किए गए हैं। वे ही आठ निक्षेप कषाय पाहुड़ में भी मिलते हैं। केवल उत्पत्ति कषाय के स्थान पर समुत्पत्ति कषाय का नाम मिलता है । कषायपाहुड़ के कर्त्ता ने ये निक्षेप आचारांगनिर्युक्ति से उद्धृत किए हैं, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है । पंच आचार, भाषा के भेद तथा विनय से संबंधित गाथाएं मूलाचार, भगवती आराधना, निशीथभाष्य आदि अनेक ग्रंथों में संक्रांत हुई हैं। ठाणं संकलन प्रधान अंग आगम है अतः बहुत संभव है कि नियुक्ति - साहित्य के अनेक विषय कालान्तर से उसमें प्रक्षिप्त हुए हैं । हमारे अभिमत के अनुसार कथा और हेतु के भेद-प्रभेद दशवैकालिक याचना-सत्कार-पुरस्कारा: (९/१५) १. उनि ८३ । २. त. ९/१७; एकादयो भाज्या युगपदैकोनविंशतेः । १९१ । ४. कपा, भाग १ पृ. २५७; कसाओ ताव णिक्खिवियव्वो णामकसाओ द्ववणकसाओ दव्वकसाओ पच्चयकसाओ समुप्पत्तियकसाओ आदेसकसाओ रसकसाओ भावकसाओ । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण ११९ नियुक्ति से ठाणं में संक्रांत हुए हैं। जातक' में भी नियुक्ति की कुछ गाथाएं संक्रांत हुई हैं। उदाहरणार्थ उत्तराध्ययननियुक्ति (गा. २५७) की संवादी गाथा द्रष्टव्य है---- करकण्डु नाम कलिङ्गानं, गन्धारानञ्च नग्गजी। निमिराजा विदेहानं, पञ्चालानञ्च दुमुक्खो।।२ नियुक्तिकार अपने समकालिक एवं पूर्ववर्ती आचार्यों की रचना से भी प्रभावित हुए हैं। नियुक्ति में वर्णित वर्णान्तर जातियों का उल्लेख वैदिक धर्म ग्रंथों से लिया गया प्रतीत होता है। महाभारत, गौतमसूत्र एवं मनुस्मृति आदि ग्रंथों में इनका पूरा वर्णन मिलता है। दशवैकालिकनियुक्ति में वर्णित असंप्राप्त और संप्राप्त काम के भेद एवं वात्स्यायन के कामसूत्र में वर्णित काम के अंगों में अद्भुत साम्य है। दशवैकालिकनियुक्ति में काव्य संबंधी वर्णन किसी काव्यशास्त्र के ग्रंथ से लिया गया है। नियुक्तिकार स्वयं भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि 'एव विहिण्णू कवी बेंति' अर्थात् विचक्षण कवियों ने ऐसा कहा है। आगम-संपादन का इतिहास महाराष्ट्र के मंचर गांव में पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी 'धर्मदूत' पत्र का अवलोकन कर रहे थे।उसमें बौद्ध ग्रंथों के संपादन एवं प्रकाशन की योजना थी। इस सूचना ने गुरुदेव के मन में टीस पैदा कर दी। उनके मन में विकल्प उठा कि जब बौद्ध आगमों का आधुनिक दृष्टि से संपादन हो सकता है तो फिर जैन आगमों का संपादन क्यों नहीं हो सकता? गुरुदेव के मन में एक संकल्प जागा कि आगमों की विशाल श्रुतराशि भी अच्छे ढंग से संपादित होकर जनता के समक्ष आनी चाहिए। गुरुदेव ने अपने मन की वेदना मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) आदि संतों के सम्मुख प्रस्तुत की। संतों ने गुरुदेव की कल्पना एवं वेदना को समझा और एक स्वर में कहा कि हम आपकी इस भावना को पूरा करेंगे। तप-अनुष्ठान से उज्जैन चातुर्मास में जो आगम-कार्य प्रारंभ हुआ, वह आज तक अनवरत गति से चल रहा है। आगम-कार्य प्रारंभ करने से पूर्व आचार्य तुलसी ने तीन बातों की ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया—१. वर्तमान परिस्थितियों का संदर्भ २. .युगानुरूप साहित्यिक सौन्दर्य ३. आकर्षक शैली। इसके साथ-साथ तटस्थता, प्रामाणिकता, समीक्षात्मक अध्ययन, तुलनात्मक अध्ययन और समन्वय-नीतिइन पांच मापदंडों को भी संपादन का आधार बनाने की प्रेरणा दी। आचार्य तुलसी की आगम-संपादन कार्य के प्रति कितनी तड़प थी, इसे इस घटना से जाना जा सकता है। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी गुजरात प्रवास पर थे। वैशाख महीने की चिलचिलाती धूप में १२ मील का विहार कर गुरुदेव लगभग सवा दश बजे सांतलपुर पहुंचे। स्थान पर पहुंचते ही गुरुदेव ने कायोत्सर्ग किया। संतों ने सोचा आज संभवत: आगम-संशोधन का कार्य स्थगित रहेगा पर दोपहर को नियत समय होते ही आचार्य श्री ने संतों को याद किया और पाठ-संशोधन का कार्य प्रारंभ कर दिया ! गुरुदेव ने अपनी टिप्पणी प्रस्तुत करते हुए कहा-“विहार चाहें कितना ही लम्बा क्यों न हो, आगम १. (क) कथा का वर्णन देखें दशनि गा. १६२-७९, ठाणं ४/२४६-५० । (ख) हेतु का वर्णन देखें दशनि गा, ४९-८५, ठाणं ४/४९९-५०४ । २. जातक ४०८/५ ३. दशनि १४८ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० नियुक्तिपंचक कार्य में कोई अवरोध नहीं आना चाहिए। आगम-कार्य करते समय मेरा मानसिक तोष इतना बढ़ जाता है कि समस्त शारीरिक क्लान्ति मिट जाती है। आगम-कार्य हमारे लिए वरदान सिद्ध हुआ है। यदि हम इसके लिए कुछ भी श्रम करते हैं तो यह हमारे लिए अत्यंत सौभाग्य की बात है। इससे बढ़कर दूसरा और कौन-सा पुण्य-कार्य होगा।' आचार्य तुलसी के इस फौलादी संकल्प, आचार्य महाप्रज्ञ के संपादन-कौशल एवं अन्य संतों की कार्यनिष्ठा से बत्तीसी का मूल पाठ प्रकाशित होकर विद्वानों के समक्ष पहुंच गया है। इसके अतिरिक्त अनेक आगमों का हिन्दी अनुवाद, भाष्य एवं टिप्पण का कार्य भी सम्पन्न हो चुका है। नियुक्ति-संपादन का इतिहास एकार्थक कोश का कार्य सम्पन्न हो चुका था। सन् १९८४ का चातुर्मासिक प्रवास जोधपुर था। उससे पूर्व गुरुदेव तुलसी एवं युवाचार्य श्री (आचार्य महाप्रज्ञ) का विराजना जैन विश्व भारती, लाडनूं में हुआ। अग्रिम कार्य की योजना में युवाचार्य प्रवर ने फरमाया— “नियुक्तियों पर अभी तक कोई काम नहीं हुआ है अत: अब इस कार्य को हाथ में लेना चाहिए।" नियुक्तियों के संपादन का कार्य मुझे सौंपा गया। हस्तप्रतियों से पाठ-संपादन के कार्य का अनुभव नहीं था अत: मन में सोचा कि यह कार्य तो बहुत सरल है क्योंकि प्रकाशित प्रतियों से शुद्ध पाठ उतारना है तथा कुछ परिशिष्ट तैयार करने हैं अत: दो तीन महीनों में यह कार्य सम्पन्न हो जाएगा। जोधपुर चातुर्मासिक प्रवास के दौरान चूर्णि और टीका में प्रकाशित सारी नियुक्तियों के क्रमांक आदि शुद्ध करके प्रतिलिपि कर आचार्य प्रवर एवं युवाचार्य श्री को फाइलें निवेदित की। फाइलें देखने के बाद आचार्य तुलसी ने फरमाया-अहमदाबाद में आवश्यक नियुक्ति पर कार्य हो रहा है, उसे देखने पर कार्य को एक दिशा मिल सकती है। गुरुदेव तुलसी का संकेत पाकर मैं और समणी सरलप्रज्ञाजी अहमदाबाद पहुंचे। वहां लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर में लगभग चार महीने तक काम करने का मौका मिला। पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने जब नियुक्तियों की फाइलें देखी तो सुझाव देते हुए कहा—'आगमों की प्रथम व्याख्या नियुक्ति है अत: यह बहुत महत्त्वपूर्ण साहित्य है। इसका हस्त-आदर्शों के माध्यम से पाठ-संपादन होना चाहिए।' उनकी प्रेरणा से वहीं पर हस्त-आदर्शों से पाठ-संपादन का कार्य प्रारम्भ कर दिया। लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर की लाइब्रेरी में हम लोग प्रात: आठ बजे से सांय ५ बजे तक कार्य करते। अहमदाबाद का चार महीने का प्रवास अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण रहा। लाडनूं आने के बाद मुनि श्री दुलहराजजी के निर्देशन में नियुक्तियों की गाथा-संख्या के बारे में पुन: एक बार पर्यालोचन किया गया। कितनी भाष्य-गाथाएं नियुक्ति गाथा में तथा नियुक्ति गाथाएं भाष्य-गाथाओं में मिल गयीं, इस संदर्भ में अनेक गाथाओं के बारे में पाद-टिप्पण लिखे तथा कितनी गाथाएं बाद में प्रक्षिप्त हुई इस बारे में भी विमर्श प्रस्तुत किया। ऐसी गाथाओं को मूल क्रमांक से अलग रखा। इस क्रम में टीका और चूर्णि में प्रकाशित नियुक्तियों एवं हमारे द्वारा संपादित नियुक्तियों की गाथा-संख्या में काफी अंतर आ गया। यद्यपि इन पांच नियुक्तियों के संपादन का कार्य सन् १९८५ में संपन्न हो गया था लेकिन बीच में देशी शब्द कोश, व्यवहारभाष्य आदि ग्रंथों के कार्य में संलग्न होने तथा पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी के 'हित्य से मांधित कुछ ग्रंथों के संपादन एवं प्रकाशन में समय लाने से नियुक्तिपंचक के प्रकाशन Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण १२१ में विलम्ब हो गया । विलम्ब होना भी देर आए दुरुस्त आए' उक्ति को चरितार्थ करने वाला रहा । उस समय नियुक्तियों का अनुवाद होना संभव नहीं था। बाद में मुनि श्री दुलहराजजी स्वामी की मानसिकता बनी और उन्होंने बहुत कम समय में पांचों नियुक्तियों का अनुवाद कर दिया । हस्तप्रतियों से पाठ - संपादन का कार्य अत्यंत दुरूह और जटिल है । बिना धैर्य और एकाग्रता व्यक्ति इस कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकता । पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी पाठ संपादन के कार्य को अत्यंत महत्त्व देते थे। जब-जब इस कार्य के प्रति मेरे मन में अरुचि या निराशा जागती, मेरे हाथ श्लथ होते, तब-तब गुरुदेव प्रेरणा - प्रोत्साहन देकर नए प्राणों का संचार कर देते । अनेकों बार उनके मुखारविंद से यह सुनने को मिला – “देखो! आगम का कार्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। इससे नया इतिहास बनेगा और धर्मसंघ की अपूर्व सेवा होगी।" पूज्य गुरुदेव पाठ संपादन को कितना महत्त्वपूर्ण मानते थे, यह निम्न घटना से स्पष्ट हो जाता है— एक बार आचार्य तुलसी के समक्ष आचारांग का वाचन चल रहा था। मुनि श्री नथमल जी ( आचार्य महाप्रज्ञ) आचारांग के गूढ़तम रहस्यों को खोल रहे थे । अनेक विद्यार्थी साधु-साध्वियां दत्तचित्त होकर व्याख्या सुन रही थीं। प्रसंगवश मुनि श्री दुलहराजजी ने आचार्य प्रवर को निवेदन किया‘पाठ-संपादन जैसे कार्य में मुनि श्री नथमलजी का इतना समय लगना कुछ अटपटा सा लगता है । इस कारण मुनि श्री को मौलिक सृजन के लिए अवकाश नहीं मिलता। ऐसी प्रतिभाएं यदा-कदा ही आती हैं अतः इनका समुचित लाभ उठाना चाहिए, जिससे संघ को अधिक लाभ मिल सके।' गुरुदेव तुलसी ने मुनि श्री के दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए कहा- "तुम पाठ - संशोधन को मौलिक कार्य नहीं मानते, यह तुम्हारी भूल है । मैं मानता हूं कि शोधकार्य का सबसे प्रमुख अंग है— मूल पाठ का निर्धारण । यह कार्य हर एक व्यक्ति नहीं कर सकता। दूसरी बात पाठ - संशोधन के क्रिया-काल में ये कितने लाभान्वित हुए हैं, यह बात इनके मुख से ही सुनो।" मुनि नथमलजी ने अपना मंतव्य प्रस्तुत करते हुए कहा“पाठ-निर्धारण में पौर्वापर्य का अनुसंधान अत्यंत अपेक्षित होता है और यह तभी संभव है जब एक-एक शब्द पर चिंतन केन्द्रित कर उसके हार्द को समझा जाए। इस प्रक्रिया से विचारों की स्पष्टता, चिंतन गूढ़ता और अर्थ - संग्रहण की प्रौढ़ता बढ़ती है । मैं इसे मौलिक अध्ययन मानता हूं । मेरा दृढ़ विश्वास है कि इसके परिपार्श्व में जो कुछ लिखा जाएगा, वह मौलिक ही होगा । " आचार्य तुलसी ने अपने जीवन में नारी - विकास के अनेक स्वप्न देखे और वे फलित भी हुए। एक स्वप्न की चर्चा करते हुए बीदासर में (१२/२/६७) गुरुदेव ने कहा- " मैं तो उस दिन का स्वप्न देखता हूं, जब साध्वियों द्वारा लिखी गई टीकाएं या भाष्य विद्वानों के सामने आएंगे। जिस दिन वे इस रूप में सामने आएंगी, मैं अपने कार्य का एक अंग पूर्ण समझंगा ।" पूज्य गुरुदेव तुलसी का यह स्वप्न पूर्ण रूप से सार्थक नहीं हुआ है, पर आचार्य महाप्रज्ञ के निर्देशन में इस दिशा में प्रयास जारी है। वर्तमान में अनेक साध्वियां आगम-संपादन एवं साहित्य-सृजन के कार्य में संलग्न हैं । भगवती जोड़ जैसे बृहत्काय ग्रंथ रत्न का संपादन भी महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा जी द्वारा सात खंड़ों में संपादित होकर प्रकाशित हो चुका है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ नियुक्तिपंचक पाठ-मपादन आधुनिक विद्वानों ने पाठानुसंधान के विषय में पर्याप्त प्रकाश डाला है। पाश्चात्य विद्वान् इस कार्य को चार भागों में विभक्त करते हैं—१. सामग्री संकलन २. पाठ-चयन ३. पाठ-सुधार ४. उच्चतर आलोचना। प्रस्तुत ग्रंथ के संपादन में हमने चारों बातों का ध्यान रखने का प्रयत्न किया है। पाठसंशोधन के लिए मुख्य दो आधार हमारे सामने रहे---- १. नियुक्ति की हस्तलिखित प्रतियां । २. नियुक्तियों पर लिखा गया व्याख्या-साहित्य (चूर्णि, टीका आदि) व्याख्याग्रंथ होने के कारण नियुक्तियों की ताड़पत्रीय प्रतियां कम मिलती हैं। पाठ-संपादन में हमने चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी में कागज पर लिखी प्रतियों का ही उपयोग किया है। पाठ-संशोधन में प्रतियों के पाठ को प्रमुखता दी गयी है किन्तु किसी एक प्रति को ही पाठ-चयन का आधार नहीं बनाया है और न ही बहुमत के आधार पर पाठ का निर्णय किया है। अर्थमीमांसा, टीका की व्याख्या एवं पौर्वापर्व के आधार पर जो पाठ संगत लगा, उसे मूलपाठ के अन्तर्गत रखा है। पाठ-संपादन की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि लिपिदोष के कारण जितने आदर्श उतने ही पाठ-भेद मिलते हैं। वैसी स्थिति में सही पाठ-निर्धारण करना कठिन हो जाता है। पांडुलिपि के लिपिदोष में अनवधानता आदि तो कारण बने ही किन्तु मुख्य कारण यह रहा कि प्रतिलिपि करने वाले लगभग लिपिक थे। वे आगमों में प्रतिपाद्य विषयों को नहीं जानते थे। अनभिज्ञता के कारण उनकी लिपि में अनेक त्रुटियां समाविष्ट हो गयीं। कहीं-कहीं विद्वान लिपिकों ने अपने पांडित्य को जोड़ना चाहा, इसलिए भी पाठ-भेद की वृद्धि हो गयी। पाठ-निर्धारण में चूर्णि और टीका का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। अनेक पाठ हस्तप्रतियों में स्पष्ट नहीं थे लेकिन चूर्णि एवं टीका की व्याख्या से स्पष्ट हो गए। कहीं-कहीं सभी प्रतियों में समान पाठ होने पर भी पूर्वापर के आधार पर चूर्णि एवं टीका के पाठ को मूलपाठ में रखा है तथा प्रतियों के पाठ को पाठान्तर में दिया है। कहीं-कहीं अन्य व्याख्या ग्रंथों में मिलने वाली गाथाओं से भी पाठ-निर्धारण किया है, जैसेउत्तराध्ययननियुक्ति की अनेक गाथाएं आवश्यकनियुक्ति में तथा दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति की गाथाएं निशीथ भाष्य में मिलती हैं। आचारांग आदि की चूर्णि में मूलपाठ के पाठ-भेद हेतु वाचना-भेद का उल्लेख मिलता है, जैसे'नागार्जुनीयास्तु एवं पठंति आदि। नियुक्ति गाथाओं के पाठ-भेद हेतु वाचना-भेद का उल्लेख नहीं मिलता केवल 'पाठान्तरस्तु', 'पाठान्तरे तु' ऐसा उल्लेख मिलता है। संभव है कि माथुरी एवं वलभीवाचना तक नियुक्ति के पाठों में पाठान्तरों का समावेश नहीं हुआ था। ____ पांचों नियुक्तियों में अनेक समान गाथाएं पुनरुक्त हुई हैं। उनमें जहां जैसा पाठ मिला, उसको वैसा ही रखा है। प्रामाणिकता की दृष्टि से अपनी ओर से पाठ को संवादी या समान बनाने का प्रयत्न नहीं किया है। केवल नीचे टिप्पण में संवादी संदर्भस्थल दे दिए हैं। __ प्राचीनता की दृष्टि से जहां कहीं हमें मूल व्यंजनयुक्त पाठ मिला, उसे मूलपाठ के रूप में स्वीकार किया है। लेकिन पाठ न मिलने पर यकार श्रुति के पाठ भी स्वीकृत किए हैं। इसलिए एक ही शब्द Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण के भिन्न-भिन्न पाठ भी मिलते हैं, जैसे – गजपुर - गयपुर, तित्थगर - तित्थयर आदि । हमने प्रायः व्यंजनों के पाठान्तर नहीं लिए हैं, जैसे सोधी > सोही । ध > ह - तध > तह, भ > ह - भू > पहू, विभू > विहू । कग एक एग। त > य -- तात > ताय, जात जाय । मात्रा संबंधी पाठान्तरों का भी कम उल्लेख किया है कहइ > कहई, देंति > दिंति, तेणोत्ति > तेणुत्ति आदि । हस्तप्रतियों में अनेक गाथाओं के आगे 'दारं' का उल्लेख है पर उन सबको द्वारगाथा नहीं माना जा सकता। फिर भी यदि एक भी प्रति में 'दारं' का उल्लेख है तो उस गाथा के आगे हमने 'दारं' का संकेत कर दिया है । उत्तराध्ययननिर्युक्ति में जहां निक्षेपपरक संवादी गाथाएं हैं, वहां लिपिकार ने गाथा पूरी न लिखकर केवल गाथा का संकेत मात्र कर दिया है पर हमने उन गाथाओं की पूर्ति कर दी है । ऐसा संभव लगता है कि समान पाठ होने के कारण लिपिकार ने अपनी सुविधा के लिए उसका संकेत मात्र कर दिया। फिर भी आगम-साहित्य की भांति नियुक्तियों में न जाव, वण्णग या जहा का प्रयोग हुआ और न ही अधिक संक्षेपीकरण हुआ । गाथा - निर्धारण में हमने इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि जो भी गाथाएं नियुक्ति की भाषाशैली से प्रतिकूल या विषय से असंबद्ध लगीं, उन्हें मूल क्रमांक के साथ नहीं जोड़ा है। ऐसी गाथाओं के बारे में हमने नीचे आलोचनात्मक टिप्पणी लिख दी है कि किस कारण से गाथा निर्युक्ति की न होकर बाद में प्रक्षिप्त हुई अथवा भाष्य - गाथा के साथ जुड़ गयी है । शोधविद्यार्थियों के लिए प्रत्येक शब्द की सूची का महत्त्व है पर नियुक्तिपंचक में हमने केवल महत्त्वपूर्ण एवं पारिभाषिक शब्दों का ही अनुक्रम परिशिष्ट सं. १२ में दिया है। सभी शब्दों की सूची देने से पुस्तक का कलेवर बढ़ जाता तथा अनेक विशेषण, क्रियाविशेषण, निपात एवं धातुओं की पुनरुक्ति भी होती। अन्य अनुदित आगमों की भांति नियुक्तिपंचक में हर पारिभाषिक शब्द पर टिप्प्णी प्रस्तुत नहीं की है। कहीं-कहीं विमर्शनीय शब्द पर पादटिप्पण में ही संक्षिप्त टिप्पणी दे दी है। १२३ निर्युक्तिपंचक में जो गाथाएं आपस में संवादी थीं, उनको हमने तुलनात्मक परिशिष्ट में समाविष्ट नहीं किया है क्योंकि उनको तो पदानुक्रम के द्वारा भी जाना जा सकता है । ग्रंथ के अंत में पन्द्रह परिशिष्ट दिए गए हैं। यद्यपि सभी परिशिष्ट महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन पहला, दूसरा, छठा, सातवां, ग्यारहवां, बारहवां एवं चौदहवां — ये सात परिशिष्ट विशेष महत्त्व के हैं। इन पांच निर्युक्तियों में दशवैकालिक और उत्तराध्ययन पर लघु भाष्य मिलते हैं । दशवैकालिक की प्रकाशित टीका और हमारे द्वारा संपादित भाष्य-गाथा की संख्या में काफी अंतर है । अत: प्रथम परिशिष्ट में विद्वानों की सुविधा के लिए भाष्य गाथाओं का समीकरण प्रस्तुत कर दिया है, जिससे वे सुविधापूर्वक टीका में भ्राष्य-गाथाएं खोज सकें । छठा और सातवां परिशिष्ट आकार में बृहद् होने पर भी महत्त्वपूर्ण हैं । छठे परिशिष्ट में नियुक्तिपंचक गत सभी कथाओं का हिंदी अनुवाद दे दिया है, जिससे कथा के क्षेत्र Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ नियुक्तिपंचक में काम करने वालों के लिए सुविधा हो सकेगी। सातवें परिशिष्ट में महत्त्वपूर्ण परिभाषाओं का सार्थ संकलन है। प्रत्येक नियुक्ति के प्रारम्भ में गाथाओं का हिंदी में विषयानुक्रम दिया गया है। तत्पश्चात् चूर्णि, टीका एवं हमारे द्वारा संपादित गाथाओं के समीकरण का चार्ट प्रस्तुत कर दिया है, जिससे सुगमता से चूर्णि या टीका में गाथा को खोजा जा सके। नियुक्तियों का अनुवाद एक भाषा का दूसरी भाषा में अनुवाद करना एक बहुत दुरूह और जटिल कार्य है। इसे विज्ञान की भाषा में स्रोतभाषा और लक्ष्यभाषा कहा जाता है। जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है, वह लक्ष्य भाषा तथा जिस भाषा की सामग्री अनुदित होती है, वह स्रोतभाषा कहलाती है। अनुवादक का स्रोतभाषा और लक्ष्यभाषा—इन दोनों पर पूरा अधिकार होना आवश्यक है। आधुनिक विद्वानों ने अनुवाद के चार भेद किए हैं? १. शाब्दिक अनुवाद ३. भावानुवाद २. शब्द-प्रतिशब्द अनुवाद ४. छायानुवाद नियुक्तिपंचक में किए गए अनुवाद में शाब्दिक अनुवाद के साथ भावानुवाद और छायानुवाद भी किया गया है। दशाश्रुतस्कंध की ‘पज्जोसवणा' कप्प की नियुक्ति का शब्दानुवाद करना अत्यंत कठिन था, वहां भावानुवाद से ही गाथा का हार्द स्पष्ट हुआ है। कुछ जटिल गाथाओं को छोड़कर प्राय: गाथाओं का अनुवाद पढते समय पाठक को यही प्रतीत होगा कि मानो वे मूलरचना ही पढ़ रहे हों अत: अनुवाद को जटिल न बनाकर सहज, सरल भाषा में प्रस्तुत किया है। अनुवाद के संदर्भ मे मुनि श्री दुलहराजजी ने पंडित बेचरदासजी की इस टिप्पणी को ध्यान में रखा है"मूल का अर्थ स्पष्ट करते समय मौलिक समय के वातावरण का ख्याल न रखकर यदि परिस्थिति का ही अनुसरण किया जाए तो वह मूल की टीका या अनुवाद नहीं, किन्तु मूल का मूसल जैसा हो जाता है। नियुक्तियों का अनुवाद अभी तक कहीं से भी प्रकाशित नहीं हुआ है अत: नियुक्तियों के प्रकाशन के समय चिंतन चला कि प्राकृत भाषा न जानने वाले अनुसंधित्सु एवं जन-सामान्य की सुविधा हेतु पाठ-संपादन के साथ अनुवाद भी दे दिया जाए। जिन गाथाओं को हमने मूल क्रमांक में नहीं जोड़ा, उन गाथाओं का भी पाठकों की सुविधा के लिए अनुवाद दे दिया है। नियुक्तिकार तो कथा का संकेत मात्र करते हैं अत: नियुक्तिकार द्वारा निर्दिष्ट अधिकांश कथाओं का अनुवाद चूर्णि या टीका के आधार पर किया है। उत्तराध्ययन की चूर्णि संक्षिप्त है अत: उत्तराध्ययननियुक्ति की कथाओं का अनुवाद नेमिचन्द्र की टीका सुखबोधा के आधार पर किया है। चित्रसंभूत के अंतर्गत ब्रह्मदत्त की कथा में नियुक्तिगाथा तथा सुखबोधा की टीका में अंतर मिलता है। नियुक्ति-गाथा में जो नाम या घटना प्रसंग हैं, वे सुखबोधा के संवादी नहीं हैं। दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति की सभी कथाओं का विस्तार उसकी चूर्णि में नहीं मिलता अत: उसकी कुछ कथाओं का अनुवाद निशीथचूर्णि के आधार पर किया गया है। १. अनुवाद कला पृ. २६ । २. जैन भारती, वर्ष १ अंक ६ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण १२५ प्रयुक्त प्रति-परिचय नियुक्ति की प्राय: हस्तप्रतियां स्पष्ट एवं साफ-सुथरी मिलीं। आचारांग एवं सूत्रकृतांग की नियुक्तियां दीमक लगने से कहीं-कहीं स्पष्ट नहीं थीं। कुछ प्रतियों के पन्नों में पानी या सीलन लगने से भी अक्षर अस्पष्ट हो गए थे। सूत्रकृतांगनियुक्ति की एक प्रति से अनेक प्रतियों की लिपि की गयी है फिर भी उनमें आपस में काफी अंतर है। यहां संपादन में प्रयुक्त हस्तप्रतियों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा हैदशवैकालिक नियुक्ति (अ) यह तेरापंथ धर्मसंघ के हस्तलिखित भंडार से प्राप्त है। यह २८ सेमी. लम्बी तथा ११ सेमी. चौड़ी है। इसमें कुल ९ पत्र हैं। अन्तिम पत्र खाली है। इसमें ४४४ ग्रंथान है। यह भाष्य मिश्रित नियुक्ति की प्रति है। इसके अंत में "श्री दशवैकालिकनियुक्ति: संवत् १४९५ वर्षे माघ सुदी १४ श्री पत्तनमहानगरेऽलेखि।।" का उल्लेख है। पत्र में अक्षर स्पष्ट हैं। (ब) यह लालभाई दलपतभाई विद्यामन्दिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। यह २५.५ सेमी. लम्बी तथा ११.५ सेमी. चौड़ी है। इसकी क्रमांक सं. १६२५६ है। इसमें कुल १२५ पत्र हैं, जिसमें १२०-२५ तक पांच पत्रों में दशवैकालिक नियुक्ति लिखी हुई है। पानी से भीगी तथा अक्षर महीन होने से इसके पाठन में असुविधा होती है। इसमें अंत में ग्रंथाग्र ४४४ बतलाया है। यह भी भाष्य मिश्रित नियुक्ति की प्रति है। इसमें लिपिकर्ता और लेखन-समय का कोई निर्देश नहीं है। अनुमानत: इसका लेखन-समय विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी होना चाहिए। (रा) यह राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, बीकानेर से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या १९२० है। यह ३१ सेमी. लम्बी तथा १२.५ सेमी. चौड़ी है। इस प्रति के प्रारम्भिक ३८ पत्रों में दशवैकालिक की टीका है। नियुक्ति ३९ वें पत्र से प्रारम्भ होकर ४७ वें पत्र पर समाप्त होती है। प्रति बहुत स्वच्छ एवं साफ-सुथरी लिखी हुई है। इसके अंत में “दसवेकालिकनिज्जुत्ती सम्मत्ता गाथा ४४८ श्लोक संख्या ५५८ शुभं भवतु” लिखा हुआ है। यह करीब पन्द्रहवीं शताब्दी की प्रति होनी चाहिए। . (अचू) अगस्त्यसिंह कृत चूर्णि, जो प्राकृत ग्रंथ परिषद्, अहमदाबाद से प्रकाशित है। इसके संपादक मुनि पुण्यविजयजी हैं। इसमें प्रकाशित नियुक्ति-गाथा के पाठान्तर 'अचू' से निर्दिष्ट हैं। (जिचू) स्थविर जिनदासकृत चूर्णि, जिसमें नियुक्ति-गाथा पूरी नहीं अपितु संकेत रूप से दी हुई है। यह ऋषभदेव केसरीलाल श्वे. संस्था, रतलाम से प्रकाशित है। इसके पाठान्तर जिचू से निर्दिष्ट हैं। (अचूपा.) अगस्त्यसिंह कृत चूर्णि के अंतर्गत पाठान्तर। (जिचूपा) जिनदासकृत चूर्णि के अंतर्गत उल्लिखित पाठान्तर। (हाटी) दशवकालिक की आचार्य हरिभद्रकृत टीका में स्वीकृत नियुक्ति-गाथा के पाठ। यह देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार से प्रकाशित है। (हाटीपा) हारिभद्रीय टीका के अंतर्गत संकेतित पाठान्तर। (भा) हारिभद्रीय टीका में प्रकाशित भाष्य गाथा के पाठान्तर । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ नियुक्तिपंचक उत्तराध्ययननियुक्ति (अ) यह लाडनूं जैन विश्व भारती के हस्तलिखित भंडार से प्राप्त है। इसमें आचारांग और उत्तराध्ययन-ये दो नियुक्तियां हैं। प्रारम्भ के ६ पत्रों में आचारांगनियुक्ति है। बीच के दो पत्र लुप्त हैं अत: उत्तराध्ययननियुक्ति २८९ गाथा से प्रारम्भ होती है। इसके अंत में “उत्तराध्ययननियुक्ति: संपूर्णा ग्रंथाग्र ६०७।। इत्येवमुत्तराध्ययनस्येमा सारयुक्ता नियुक्तिः" ।। का उल्लेख है। पन्द्रहवें पत्र में यह नियुक्ति सम्पन्न हो जाती है। अन्तिम पत्र में पीछे केवल दो लाइनें हैं, बाकी पूरा पत्र खाली है। (ला) यह लालभाई दलपतभाई विद्यामन्दिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसके अक्षर सुन्दर और स्पष्ट हैं। कुल १६ पत्रों में यह नियुक्ति सम्पन्न हो जाती है। अंत में “३६ उत्तरज्झयणाणं निज्जुत्ति समत्ताओ। ग्रंथाग्र ।।७०८।। श्री।।" का उल्लेख है। (ह.) मुनि पुण्यविजयजी द्वारा प्रकाशित शान्त्याचार्य की टीका में लिए गए पाठान्तर। यह पेन्सिल से संशोधित टीका लालभाई दलपतभाई विद्यामन्दिर पुस्तकालय में है। ह और ला प्रति में बहुत समानता है। संभव है मुनि पुण्यविजयजी द्वारा ला प्रति से ही पाठान्तर लिए गए हों। मुनिश्री ने आधी गाथाओं के ही पाठान्तरों का संकेत किया है, पूरी नियुक्ति का नहीं। (शां) उत्तराध्ययन की शान्त्याचार्य कृत टीका में प्रकाशित नियुक्ति-गाथा के पाठान्तर । (शांटीपा) शान्त्याचार्य टीका के अंतर्गत उल्लिखित पाठान्तर । (चू.) जिनदासकृत प्रकाशित चूर्णि के पाठान्तर। आचारांग नियुक्ति (अ) यह लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक सं. ८८ है। यह ३२.५ सेमी. लम्बी तथा १२.५ सेमी. चौड़ी है। इसमें कुल आठ पत्र हैं। इसके अंत में “आयारनिज्जुत्ती सम्मत्ता” ऐसा उल्लेख मिलता है। इसमें लिपिकर्त्ता और लेखन-समय का उल्लेख नहीं मिलता। यह बहुत जीर्ण प्रति है। दीमक लगने के कारण अनेक स्थलों पर अक्षर स्पष्ट नहीं हैं। यह तकार प्रधान प्रति है। हासिये में बांयी ओर आचा. नियुक्ति का उल्लेख है। पत्र के बीच में तथा दोनों ओर हासिये में रंगीन चित्र हैं। अनुमानत: इसका लेखन-समय चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी होना चाहिए। (ब) यह लाडनूं जैन विश्व भारती भंडार से प्राप्त है। यह २५.८ सेमी. लम्बी तथा १०.५ सेमी. चौड़ी है। इसमें आचारांग तथा उत्तराध्ययन दोनों की नियुक्तियां लिखी हुई हैं। इस प्रति का सातवां और आठवां पत्र लुप्त है अत: कुछ आचारांग की तथा कुछ उत्तराध्ययन की गाथाएं नहीं हैं। दोनों ओर हासिए में कुछ भी लिखा हुआ नहीं है। इसमें कुल १५ पत्र हैं। यह ज्यादा पुरानी नहीं है। अनुमानत: इसका लेखन-समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दी होना चाहिए। (म) यह प्रति भी लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या १९५४८ है। इसमें ३६७ ग्रंथान है। यह २५.५ सेमी. लम्बी तथा. १०.५ सेमी. चौड़ी है। अंत में “आचारांगनिज्जुत्ती सम्मत्ता” मात्र इतना ही उल्लेख है। इसमें ७२ से ८४ पत्र तक आचारांगनियुक्ति है। प्रारम्भ में मूलपाठ लिखा है। इसके चारों ओर हासिए में संक्षिप्त अवचूरि लिखी हुई है। पत्र के बीच में चित्रांकन है तथा अंतिम पत्र पर Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण १२७ (क) यह भी लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर से प्राप्त है । यह ३२ सेमी. लम्बी तथा ११ सेमी. चौड़ी है। इसकी क्रमांक संख्या १८७७२ है । इसमें कुल ५५ पत्र हैं । आचारांगनिर्युक्ति ४६ वें पत्र से प्रारम्भ होकर ५५ के प्रथम पत्र में समाप्त हो जाती है। अंत में ३६९ ग्रंथाग्र दिया है। हासिए के बायीं ओर आचानि-लिखा हुआ है । पाठ- संपादन के बाद मिलने के कारण क और ख प्रति से केवल महापरिज्ञा अध्ययन की नियुक्ति - गाथा के पाठान्तर ही लिए हैं। अनुमानतः इसका समय पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी होना चाहिए । (ख) यह लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है । इसकी क्रमांक सं. १९५१ है । इस प्रति में अक्षर बहुत साफ और आधुनिक लिपि के हैं। इसके अंत में ग्रंथाग्र ३६९ दिया है। यह २५.६ सेमी. लम्बी तथा १०.५ सेमी. चौड़ी है। इसके प्रारम्भिक ८ पत्रों में आचारांगनिर्युक्ति लिखी हुई है। अनुमानतः इसका समय सोलहवीं - सतरहवीं शताब्दी होना चाहिए । (चू.) ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था रतलाम से प्रकाशित जिनदास चूर्णि के पाठान्तर । (टी) मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशन से आचार्य शीलांककृत आचारांग और सूत्रकृतांग-ये दोनों टीकाएं संयुक्त रूप से प्रकाशित हैं। इसके सम्पादक मुनि जम्बूविजयजी हैं। यह नियुक्ति समेत टीका है । इसके पाठान्तर 'टी' से निर्दिष्ट हैं । ( टीपा ) आचारांग टीका के अंतर्गत पाठान्तर । सूत्रकृतांग निर्युक्ति (अ) यह लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है । इसकी क्रमांक संख्या ८९ है । यह ३३.७ सेमी. लम्बी तथा १२.७ सेमी. चौड़ी है। इसमें कुल ५ पत्र हैं । यह तकारप्रधान प्रति है । दीमक लग जाने से इसके अक्षर स्पष्ट नहीं हैं । प्रति के दोनों ओर हासिया तथा बीच में फूल की आकृति है । इसमें २०८ गाथाएं हैं । ग्रंथाग्र २६० है, ऐसा प्रति के अंत में उल्लेख मिलता है । प्रति में लिपिकर्त्ता और लिपि के समय का उल्लेख नहीं मिलता। इसका समय अनुमानतः चौदहवीं - पन्द्रहवीं शताब्दी होना चाहिए। ( ब ) यह भी लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या ८३६३ । यह ३३.१ सेमी. लम्बी तथा १२.७ सेमी चौड़ी है। इसमें कुल ४४ पत्र हैं । सूत्रकृतांग नियुक्ति चालीस से चवालीसवें पत्र तक है। दोनों ओर हासिए में चित्रांकन है। अंत में “२०८ सूयगडनिज्जुत्ती सम्मत्ता" उल्लेख के साथ निम्न पद्य लिखा हुआ है— पद्मोपमं पत्रपरम्परान्वितं वर्णोज्ज्वलं सूक्तमरंदसुंदरम् । मुमुक्षुभृंगप्रकरस्य वल्लभं जीयाच्चिरं सूत्रकृदंगपुस्तकम् ।। अनुमानत: इसका समय सोलहवीं शताब्दी होना चाहिए । (स) यह भी लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या १२१३८ है । यह २८.४ सेमी. लम्बी तथा ११.४ सेमी. चौड़ी है। इसमें कुल छह पत्र हैं । दोनों ओर हासिया तथा मध्य में लाल बिन्दु है। अंत में “सूयकडनिज्जुत्ती सम्मत्ता गाहाणं शत २५० ।। शुभं भवतु।।श्री।।" इतना उल्लेख है । अनुमानत: इसका समय सोलहवीं शताब्दी होना चाहिए । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ नियुक्तिपंचक (द) यह लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या १४४४३ है। यह २५.८ सेमी. लम्बी तथा १०.५ सेमी. चौड़ी है। अंत में ब प्रति में उल्लिखित पद्मोपमं... संस्कृत श्लोक लिखा हुआ है तथा उसके बाद अंत में “पूज्य वाचनाचार्यश्रेणिशिरोमणि हर्षप्रमोदगणिशिष्यआनन्दप्रमोदगणिना" ऐसा उल्लेख मिलता है। (क) यह भी लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या २९०९९ है। यह २५.५ सेमी. लम्बी तथा १०.९ सेमी चौड़ी है। इसमें कुल ४४ पत्र हैं। ३९ पत्र से ४४ पत्र तक नियुक्ति लिखी हुई है। प्रति के दोनों ओर हासिया तथा बीच में खाली स्थान है। अंत में "ग्रं २०८ सूयगडनिज्जुत्ती सम्मत्ता।" का उल्लेख है तथा ब प्रति वाला पद्मोपम......संस्कृत श्लोक पूरा लिखा हुआ है। इसकी स्याही बहुत गहरी है अत: अक्षर पढ़ने में असुविधा रहती है। (चू.) सूत्रकृतांग चूर्णि प्राकृत ग्रंथ परिषद् से प्रकाशित है। इसके संपादक मुनि पुण्यविजयजी हैं। इसमें नियुक्तिगाथागत पाठान्तर को 'चू.' संकेत से निर्दिष्ट किया गया है। (चूपा.) सूत्रकृतांग चूर्णि के अंतर्गत आए हुए पाठान्तर । (टी.) मोतीलाल बनारसीदास द्वारा प्रकाशित आचार्य शीलांक कृत सूत्रकृतांग टीका के अंतर्गत नियुक्ति-गाथा के पाठान्तर। यह मुनि जम्बूविजयजी द्वारा संपादित है। (टीपा) शीलांकाचार्य की टीका के अंतर्गत उल्लिखित पाठान्तर। दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति (अ) यह महिमा ज्ञान भक्ति भंडार से उपलब्ध है। इस प्रति में मूल नियुक्ति के साथ अन्य अनेक गाथाएं भी लिखी हुई हैं। वैसे भी दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति की किसी भी प्रति में गाथा-संख्या की एकरूपता नहीं है। (ब) यह लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर से प्राप्त है। यह २७ सेमी. लम्बी और १२.३ सेमी. चौड़ी है। इसमें मूलपाठ, नियुक्ति और चूर्णि सम्मिलित है। इसमें कुल १०६ पत्र हैं। ४६ से ४९ पत्र तक दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति लिखी हुई है। इसमें पूरी नियुक्ति नहीं है। प्रारम्भ में १ से ११ गाथाएं हैं। उसके बाद पज्जोसवणा की प्रारम्भिक सात गाथाओं को छोड़कर अंत तक पूरी गाथाएं हैं। यह प्रति बहुत नवीन है अत: अशुद्धियां बहुत हैं। अनेक स्थलों पर पाठान्तर नहीं लिए हैं। अधिकांश ह्रस्व इकार के स्थान पर दीर्घ ईकार है। इसकी क्रमांक संख्या २३१६७ है। अंत में “आयारदसाणं निज्जुत्ती” मात्र इतना ही उल्लेख है। (बी) यह राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, बीकानेर की प्रोत ह ।इसकी क्रमांक संख्या १३०३० है। प्रति में पहले चूर्णि तथा बाद में नियुक्ति है। नियुक्ति ४७ चे पत्र से प्रारम्भ होकर ५१ वें पत्र में समाप्त होती है। प्रति के अंत में केवल “आयारदसाणं निज्जुत्ती सम्मत्ता" का उल्लेख है। लेखक या समय का संकेत नहीं है। यह प्रति ज्यादा प्राचीन नहीं है। (ला) यह लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर की प्रति है। इसका क्रमांक २३१६७ है। प्रति साफ-सुथरी है। इसमें आयारदसा का मूलपाठ, नियुक्ति और चूर्णि—ये तीनों लिखे हुए हैं। नियुक्ति ७९ के दूसरे पत्र से प्रारम्भ होती है तथा ८३ के प्रथम पत्र में समाप्त हो जाती है। यह प्रति अनुमानत: Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवक्षण १२९ सोलहवीं शताब्दी की होनी चाहिए। (मु) जिनदास कृत चूर्णि में प्रकाशित नियुक्ति-गाथा के पाठान्तर। (चू.) मणिविजयजी गणिग्रंथमाला भावनगर से प्रकाशित दशाश्रुतस्कंध चूर्णि के पाठान्तर। दशवैकालिक की एक नई नियुक्ति । यह प्रति लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर के हस्तलिखित भंडार से मिली है। इसकी क्रमांक संख्या १९४१९ है। इसमें ३९ पत्र हैं। प्रारम्भ में दशवैकालिक मूल लिखा हुआ है। अंतिम पत्र में लिपिकर्ता ने दस गाथाओं वाली दशवैकालिकनियुक्ति लिखी है। इसकी प्रारम्भिक चार गाथाएं दशवैकालिकनियुक्ति की संवादी हैं। बाद की छह गाथाओं में चूलिका की रचना का संक्षिप्त इतिहास है। प्रति के अंत में “इति दशवैकालिकनियुक्ति: समाप्ता। संवत् १४४२ वर्षे कार्तिक शुक्ला ५ लिखितं ।” का उल्लेख है। यह प्रति नागेन्द्र गच्छ के आचार्य गुणमेरुविजयजी के लिए लिखी गयी थी। कृतज्ञता-ज्ञापन गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी का नाम मेरे लिए मंगलमंत्र है। हर कार्य के प्रारम्भ में आदि मंगल के रूप में उनके नाम का स्मरण मेरे जीवन की दिनचर्या का स्वाभाविक क्रम बन गया है। इसलिए मेरी हर सफलता का श्रेय गुरुदेव के चरणों में निहित है। ___आचार्य श्री महाप्रज्ञ एवं युवाचार्य श्री महाश्रमण मूर्तिमान श्रुतपुरुष हैं। उनके शक्ति-संप्रेषण, मार्गदर्शन और आशीर्वाद से ही यह गुरुतर कार्य सम्पन्न हो सका है। भविष्य में भी उनकी ज्ञान रश्मियों का आलोक मुझे मिलता रहे, यह अभीप्सा है। प्रस्तुत कार्य की निर्विघ्न संपूर्ति में महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी के निश्छल वात्सल्य एवं प्रेरणा का बहुत बड़ा योग रहा है। भविष्य में भी मेरी साहित्यिक यात्रा में उनका पथदर्शन और प्रोत्साहन निरन्तर मिलता रहे, यह आकांक्षा है। आगम-कार्य मे मुनि श्री दुलहराजजी का नि:स्वार्थ मार्गदर्शन मुझे कई सालों से उपलब्ध है। पाठ-संपादन एवं कथाओं के अनुवाद में मुनिश्री की बहुश्रुतता ने मेरे कार्य को सुगम बनाया है। अनेक परिशिष्ट की अनुक्रमणिका एवं पाठान्तरों के निरीक्षण तथा प्रूफ रीडिंग में मुनि श्री हीरालालजी स्वामी का आत्मीय सहयोग भी मेरे स्मृति-पटल पर अंकित है। समणी नियोजिका मुदितप्रज्ञाजी ने व्यवस्थागत सहयोग से इस कार्य को हल्का बनाया है। ग्रंथप्रकाशन के बीच में ही जैन विश्व भारती की लेटर प्रेस बंद होने से इसके प्रकाशन में अनेक जटिलताएं सामने आईं पर जैन विश्व भारती के अधिकारियों के उदार सहयोग एवं जगदीशजी के परिश्रम से इस ग्रंथ के प्रकाशन का कार्य सम्पन्न हो सका है। नियुक्तिसाहित्य: एक पर्यवेक्षण भूमिका के कम्पोज एवं सेटिंग में कुसुम सुराणा का सहयोग भी मूल्याह रहा है। ज्ञात-अज्ञात, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में जिन-जिनका सहयोग इस कार्य की संपर्ति में मिला है. उनके सहयोग की स्मृति करते हुए मुझे अत्यंत आत्मिक आह्लाद की अनुभूति हो रही है। भविष्य में भी सबका आत्मीय सहयोग मिलता रहेगा, इसी आशा और विश्वास के साथ। डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञा Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकालिक नियुक्ति Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अध्ययन १. २. ३. ४, ५. ६. ७. ८, ९. 3/2. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. २५. मंगलाचरण । आदि, मध्य और अंत मंगल । चार अनुयोगों का नामोल्लेख । चरणकरणानुयोग का अधिकार और उसके द्वार । दशवेकालिक का अनुयोग । दसकालिक - दस और काल के निक्षेप कथन की प्रतिज्ञा । एक और दश शब्द के निक्षेप । जीवन की बाला, क्रीड़ा आदि दश दशाएं । काल शब्द के निक्षेप । १८. अध्ययनों के विषय वर्णन की प्रतिज्ञा । १९-२२. अध्ययनों के विषयों का संक्षिप्त वर्णन । २३. दो चूलिकाएं एवं उनका प्रयोजन। २४. विषयानुक्रम दशवेकालिक नामकरण की सार्थकता । दशवेकालिक वक्तव्यता की द्वार गाथा । दशवैकालिक निर्यूहक आचार्य शय्यंभव को वंदना | प्रस्तुत रचना का कारण और उसका नियूँ हण काल । आत्मप्रवाद पूर्व से धर्मप्रज्ञप्ति (चौथा अध्ययन ) तथा कर्मप्रवाद पूर्व से पिषणा (पांचवां अध्ययन) के उद्धरण का संकेत । सत्यप्रवाद पूर्व से वाक्यशुद्धि तथा नवें पूर्व की तीसरी वस्तु से शेष सभी अध्ययनों के उद्धरण का संकेत । गणिपिटक - द्वादशांगी से दशवेकालिक के निर्यूहण का उल्लेख | - प्रत्येक अध्ययन की विषय-वस्तु के कथन की प्रतिज्ञा । प्रथम अध्ययन के चार द्वार। २५ / १,२. अध्ययन के चार प्रकार और दुमपुष्पिका के साथ उनकी संयोजना । २६, २७. अध्ययन शब्द के निरुक्त । २८. आचार्य को दीपक की उपमा । भाव आय लाभ का स्वरूप । भाव अध्ययन का स्वरूप । ३१,३२. द्रुम शब्द के निक्षेप तथा एकार्थक ३२. पुष्प शब्द के एकार्थक | ३४. दुमपुष्पिका अध्ययन के एकार्थक ३५. पृच्छा का महत्त्व । ३६. धर्म शब्द के निक्षेप और उनका नानात्व । ३७-३९. द्रव्य धर्म के भेद-प्रभेद । ४०. लोकोत्तर धर्म के भेद । ४१. ४२. द्रव्य और भाव मंगल का स्वरूप । अहिंसा का स्वरूप तथा उसके भेद । सतरह प्रकार के संयम का उल्लेख । बाह्यतप के भेद ४३. ४४. आभ्यंतर तप के भेद । शिष्य की ग्रहणशक्ति के आधार पर उदाहरण और हेतु का प्रयोग । न्याय के पांच और दश अवयवों का उल्लेख । २९. ३०. ४५. ४६. ४७. ४७ / १. उदाहरण और हेतु के भेद-प्रभेद । उदाहरण के एकार्थक । ४८. ४९. ५०. ५१. ५२. उदाहरण के दो भेद -चरित और कल्पित तथा उनके चार-चार भेद । आहरण के चार प्रकार | द्रव्य अपाय में दो वणिक भाइयों की कथा । क्षेत्र, काल और भाव अपाय की कथाओं का संकेत | ५३, ५४. द्रव्य आदि अपाय और पारलौकिक चिन्तन । ५५, ५६. द्रव्यानुयोग के आधार पर अपाय का चितन । ५७,५०. उपाय के चार प्रकार और उनके उदाहरणों का संकेत । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति ५९-६२. ६७,६८. ६९,७०. ७२. ७४. विभिन्न हेतुओं के द्वारा आत्मा के अस्तित्व ८८. धर्म उत्कृष्ट मंगल क्यों ? की सिद्धि। जिनशासन में पारमार्थिक धर्म की स्थापना कर्म में पौंडरीक और हिंगुशिव की प्रतिपालना। कथा। ८९/१-३. जिनशासन में ही शुद्ध धर्म का पालन क्यों? . द्रव्यानुयोग के आधार पर स्थापनाकर्म का मुनि की प्रासुक भिक्षाचर्या का उल्लेख । निरूपण । अप्रासुक भिक्षाचरी और उसका परिणाम । प्रत्युत्पन्नविनाश के प्रसग में गाधीवक ९२.९३. दष्टांत-शद्धि में भ्रमर का उदाहरण। आदि का उदाहरण । ९४-१०४. अनेक प्रश्नोत्तरों के द्वारा साधु की शुद्ध द्रव्यानुयोग के संदर्भ में प्रत्युत्पन्नविनाश का भिक्षाचर्या का उल्लेख । प्रतिपादन । नवकोटि शुद्ध भिक्षाचर्या का उल्लेख । आहरणतद्देश में अनुशिष्टि आदि चार भेदों दृष्टांत-शुद्धि और सूत्रनिर्दिष्ट उपसंहार का कथन और सुभद्रा का उदाहरण । वाक्य । आत्मकर्तृत्व की सिद्धि । १०७,१०८. द्रव्य और भाव विहंगम का स्वरूप । उपालम्भ में मृगावती की कथा का संकेत । १०९. कर्मगति के आधार पर विहंगम का वर्णन । आत्मा का अत्यन्त अभाव युक्त नहीं। ११०. विहायोगति आदि गति के आधार पर अर्थ और हेतु की पच्छा में कोणिक तथा विहंगम का स्वरूप। निश्रा वचन में गौतम का उदाहरण । १११. चलनकर्मगति के आधार पर विहंगम की नास्तिक को पूछा जाने वाला प्रश्न और व्याख्या। अन्यापदेश से वक्तव्यता । ११२. संज्ञासिद्धि से विहंगम का कथन । आहरणतहोस के भेद तथा उसके उदाहरणों ११३. . उपसंहार विशुद्धि का उल्लेख । का संकेत । ११४. अदत्त के अग्रहण में भ्रमर की उपमा । प्रतिलोम हेतु में अभय तथा गोविंदवाचक ११५. असंयत भ्रमर से श्रमण की उपमा असंगत । का उदाहरण। आत्म उपन्यास के अर्न्तगत पिंगल संन्यासी उपमा की एकदेशीयता का उल्लेख । ११६. का उदाहरण । ११७. भ्रमर अदत्त लेते हैं लेकिन मुनि अदत्त नहीं लेते। उपन्यास आहरण के भेदों का कथन । तद्वस्तुक में कार्पटिक का उदाहरण । ११८. सहज निष्पन्न आहार-ग्रहण में भ्रमर एवं उपन्यास के चौथे भेद 'प्रतिनिभ' में श्रमण की तुलना। परिव्राजक का उदाहरण । ११९. मुनि को 'मधुकरसम' कहने में आने वाली हेतु के यापक, स्थापक आदि चार भेदों का विप्रतिपत्ति का निराकरण । कथन । प्रथम अध्ययन में एषणा और ईर्या समिति यापक और स्थापक हेतु के उदाहरणों का के पालन का हेतु-निर्देश । संकेत । १२०/१,२. श्रमण और मधकर की समानता का व्यंसक और लूषक हेतु के उदाहरणों का उपसंहार द्वारा उल्लेख । संकेत । १२०/३,४. तीर्थान्तरीय साधओं एवं श्रमणों की चर्या धर्म के गुण तथा उसका महत्त्व । में अन्तर । दृष्टांत द्वारा धर्म के महत्त्व का कथन । १२१,१२२. साधु के लक्षण । ७७. ७८. १२०. ८६. ८७. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम न्याय के प्रतिज्ञा आदि दस अवयवों का नामोल्लेख । १२३ / १-११. प्रतिज्ञा आदि दस अवयवों की व्याख्या | प्रथम अध्ययन की नियुक्ति का उपसंहार । १२४. १२५. १२६. १२३. दूसरा अध्ययन १२७. १२८. १३६. १३७. १२९-३१. श्रमण का स्वरूप । १३२,१३३. श्रमण को सर्प, गिरि आदि की विविध उपमाएं । १३४,१३५. श्रमण शब्द के एकार्थक १३९. १४०. १४१. १४२. १४३-४५. १४६. १४७. १४८. १४९. १५०. १५१. नय का स्वरूप । नयों की बहुविध वक्तव्यता । १५३. १५४. १५५. श्रामण्य और पूर्वक शब्द के निक्षेप । द्रव्य और भाव श्रमण का स्वरूप । १५६. १५७. पूर्व शब्द के चौदह निक्षेप । काम शब्द के निक्षेप । द्रव्य काम का स्वरूप एवं भाव काम के भेद । इच्छाकाम और मदनकाम का स्वरूप | धर्म से विच्युति का हेतु कामभाव । काम की प्रार्थना रोग को निमंत्रण | पद शब्द के निक्षेप । पद के भेद-प्रभेदों का उल्लेख । ग्रथित पद के चार भेद । गद्य काव्य का स्वरूप । पद्म के भेदों का उल्लेख गेय के भेद-प्रभेद | १५१/१. १५२. तीसरा अध्ययन चूर्णपद का स्वरूप । इंद्रिय विषय आदि अपराध पदों का उल्लेख | अठारह हजार शीलांगों का निर्देश । अठारह हजार शीलांगों की निष्पत्ति । महद और क्षुल्लक शब्द के निक्षेप । आचार शब्द के निक्षेप । द्रव्याचार का स्वरूप । भावाचार के भेदों का कथन । दर्शनाचार के आठ भेदों का उल्लेख | १५७/१. १५८. १५९. १६०. १६१. १६२. १६३. १६३।१. १६४. १६५. १६६. १६७. १६८. १६९-७१. १७२. १७३. १७४. १७५. १७६. १७९. १८०. १८१. १८२. १८३. १८४. १८५-८७. निवेदनी कथा का स्वरूप । निर्वेदनी कथा का रस । संवेजनी और निर्वेदनी कथा की फलश्रुति । १७७,१७८. शिष्यों को कथा कहने का क्रम और उसका १८८. ५ तीर्थ के प्रभावक कौन ? ज्ञानाचार के आठ भेदों का उल्लेख । चारित्राचार के आठ भेदों का उल्लेख । तप आचार के बारह भेदों का उल्लेख | वीर्याचार का स्वरूप | कथा के भेदों का उल्लेख । अर्थकथा का स्वरूप | अर्थकथा से सम्बन्धित कथा का निर्देश | कामकथा का स्वरूप । धर्मकथा के आक्षेपणी आदि चार भेद । आक्षेपणी कथा के भेद | आक्षेपणी कथा का स्वरूप । विक्षेपणी कथा के भेद और स्वरूप | संवेजनी कथा के प्रकार । संवेजनी कथा का स्वरूप । फल । मिश्रकथा का स्वरूप । विकथा के प्रकार । प्ररूपक के आधार पर कथा का अकथा और विकथा होना । अकथा का स्वरूप । चौथा अध्ययन १८९. १९०. कथा का स्वरूप । विकथा का स्वरूप । श्रमण के लिए अकथनीय और कथनीय कथा का स्वरूप । क्षेत्र, काल, पुरुष और सामर्थ्य के आधार पर कथा कहने का निर्देश । चतुर्थ अध्ययन के अधिकारों का उल्लेख । छह, जीव और निकाय - इन शब्दों के निक्षेप कथन की प्रतिज्ञा । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति २०३. १९१. एक शब्द के निक्षेप । पांचवां अध्ययन १९२. षट् शब्द के छह निक्षेपों का उल्लेख । __ २१७/१. पिंड और एषणा की निक्षेप-प्ररूपणा का १९३,१९४. जीव के निक्षेप, प्ररूपणा, लक्षण आदि कथन। तेरह द्वारों का निर्देश । २१८. पिंड शब्द के निक्षेप तथा द्रव्यपिंड और १९५. जीव शब्द के निक्षेप तथा भेदों का कथन।। भावपिंड का उल्लेख । ओघजीव के जीवितव्य का कथन । २१८/१. पिंड शब्द की अर्थवत्ता। १९७. भवजीव एवं तद्भवजीव के जीवितव्य का २१८/२,३. द्रव्यषणा एवं भावैषणा का कथन । कथन । २१८/४. द्रव्यषणा के अधिकार में पिंडनियुक्ति का १९८. जीव के भेदों का कथन । कथन । १९९,२००. जीव के लक्षण । २१९. सम्पूर्ण पिंडषणा का नवकोटि में अवतरण । २०१. जीव के अस्तित्व की सिद्धि । २१९/१. नवकोटि के भेद-उद्गमकोटि और २०२. जीव के अस्तित्व को नकारने में होने वाली विशोधिकोटि । बाधा । २२०. उद्गमकोटि और विशोधिकोटि के भेद । जीव और शरीर के पृथक्त्व की सिद्धि । २२०/१. अविशोधिकोटि के भेद । २०४. वायु के उदाहरण द्वारा जीव के अस्तित्व २२१. कोटियों के भेद । की सिद्धि । २२१/१. राग, द्वेष आदि की योजना से २७० २०५. आत्मा के अमूर्त्तत्व की प्ररूपणा । कोटियों का उल्लेख। २०६. कारणाभाव आदि चार अभावों के आधार छठा अध्ययन पर आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि । महाचार कथा के विषय का निर्देश । तर्क द्वारा जीव के त्रिकालावस्थान की २२२. २०७. सिद्धि । २२३. अगार और अनगार धर्म के भेदों का २०८. जीव के नित्यत्व, अमूर्त्तत्व और अन्यत्व की निर्देश। सिद्धि। २२४. गृहस्थ धर्म के बारह भेदों का संकेत । २०९. जीव का परिमाण (संख्या)। २२५. श्रमण धर्म के क्षमा आदि दस भेदों का उपमा द्वारा जीव के परिमाण का निर्देश । नामोल्लेख । २१०. काय श-द के निक्षेपों का उल्लेख । २११. २२६. अर्थ शब्द के निक्षेप तथा भेदों का कथन । अपकाय के सम्बन्ध में एक पहेली। २२७. अर्थ के धान्य, रत्न आदि छह भेदों का २११/१. निकाय काय के साथ शेष नाम आदि कायों २१२ उल्लेख। २२८. अर्थ के भेद-उपभेद की संख्या का निर्देश । का उल्लेख । द्रव्य और भावशस्त्रों का उल्लेख । २१३. २२९,२३०. चौबीस प्रकार के धान्यों का नामोल्लेख । २१४. स्वकाय, परकाय और तभयकाय शस्त्रों २३१,२३२. चौबीस प्रकार के रत्नों का नामोल्लेख। का उल्लेख । २३३. स्थावर तथा द्विपद के भेदों का संकथन । २१५. योनिभूत बीज का विमर्श । २३४. चतुष्पद के दश भेदों का निर्देश । २१६. पृथिवी आदि कायों का यथाक्रम कथन । कुप्य के अनेक भेद तथा अर्थ के ६४ भेदों २१७. का संकेत । चतुर्थ अध्ययन के एकार्थक । २३५. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम २३६-२३९. संप्राप्त काम के चौदह और असंप्राप्त काम के दस प्रकारों का कथन । धर्म, अर्थ और काम की परस्पर विरोधिता अविरोधिता । २४०, २४०।१ २४१. २४२. २४३. २४५. २४६. २४७. २४८. श्रमण और धर्मार्थकाम विशेषण की सार्थकता । २४४. सातवां अध्ययन २४९. २५०. २५१. परलोक, मुक्तिमार्ग और मोक्ष की निश्चिति । वाक्य शब्द के निक्षेप वाक्य के एकार्थक | द्रव्य एवं भाव भाषा के भेदों का उल्लेख । द्रव्य और भाव भाषा के आधार पर आराधनी और विराधनी भाषा का विमर्श । सत्य भाषा के दस प्रकार । मृषा भाषा के दस प्रकार । सत्यामृषा (मिश्र) भाषा के प्रकार । २५२,२५३. असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा के भेदों का निर्देश । २५४. सभी भाषाओं के दो-दो भेद-पर्याप्त और अपर्याप्त । श्रुत विषयक भाव भाषा का कथन । अठारह असंयम स्थानों में से एक स्थान का भी सेवन करने वाला श्रमण नहीं | अठारह असंयम स्थानों का निर्देश । २६६. २६७. २६८. २५५-५७ २५८. २५९. २६०,२६१. द्रव्यशुद्धि के भेद । २६२,२६३ भाव शुद्धि के भेद । २६४. २६५. चारित्र विषयक भाव भाषा का कथन । शुद्धि शब्द के निक्षेप । भाव शुद्धि से ही वाक्य शुद्धि का निर्देश । भाषा के असंयम का परिज्ञान करने का निर्देश | मौन रहता हुआ भी वचनगुप्त नहीं । दिन भर बोलता हुआ भी वचनगुप्त । चिन्तनपूर्वक बोलने का निर्देश । आठवां अध्ययन २६९. २७०. २७१. प्रणिधि शब्द के निक्षेप । द्रव्य और भावप्रणिधि का उल्लेख | इन्द्रियप्रणिधि का स्वरूप । २७२,२७३. इन्द्रियों की उच्छृंखलता से होने वाले २७४. २७५. २७६. २७७. २७८. २७९. २८०. २८१. २८२. २८३. २८४. २८५. दोष | दुष्प्रणिहित इन्द्रिय वाले व्यक्ति की अवस्था का निर्देश । २९५. २९६. २९७. नोइन्द्रियप्रणिधि का स्वरूप । दुष्प्रणिहित व्यक्ति की तपस्या की व्यर्थता । उत्कट कषाय से श्रामण्य की निष्फलता । प्रणिधि के भेद | प्रशस्त और अप्रशस्त इन्द्रिय प्रणिधि का स्वरूप कथन । अप्रशस्त इंद्रियप्रणिधि से कर्मबंध तथा प्रशस्त से कर्मक्षय । संयम की साधना के लिए प्रणिधि का आसेवन और अनायतनों का वर्जन । दुष्प्रणिहित योगी के लक्षण । सुप्रणिहित योगी का स्वरूप | अप्रशस्त प्रणिधि के वर्जन का निर्देश । आचार प्रणिधि के चार अधिकारों का कथन । नौवां अध्ययन २८६. २८७. २८८. २५९. २९०. २९१. २९२. २९३. २९४. विनय तथा समाधि के निक्षेप । विनय के पांच भेदों का नामोल्लेख लोकोपचार विनय के प्रकार । अर्थविनय का प्रतिपादन । कामविनय और भयविनय का वर्णन । मोक्षविनय के भेदों का निर्देश । दर्शनविनीत का स्वरूप । ज्ञानविनीत की पहचान । चारित्रविनीत का लक्षण । तपविनीत का स्वरूप । अनाशातनाविनय का स्वरूप कथन । कायिक, वाचिक और मानसिक विनय के भेद-प्रभेद । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति २९८. कायविनय के आठ भेदों का कथन । ३३०. अध्ययन में वर्णित गुणयुक्त भिक्षु ही भाव २९९. वाचिक और मानसिक विनय के भेदों का भिक्षु । उल्लेख । ३३१. केवल भिक्षा करने मात्र से भिक्षु नहीं। ३००,३०१. प्रतिरूप और अप्रतिरूप विनय तथा ३३२. उहिष्टभोजी तथा हिंसक व्यक्ति भिक्ष अनाशातनाविनय के बावन प्रकार । कैसे? ३०२. विनय करने योग्य तेरह पदों का निर्देश। ३३३. वास्तविक भिक्षु की पहचान । ३०३. विनय के बावन भेदों का संकेत। प्रथम चूलिका ३०४. द्रव्यसमाधि और भावसमाधि का स्वरूप । ३३४. चूलिका शब्द के निक्षेप। ३३५. द्रव्यचूला तथा क्षेत्रचूला का स्वरूप । दसवां अध्ययन ३३६. भावचूला का स्वरूप । ३०५. सकार शब्द के निक्षेप । ३३७. द्रव्यरति के भेदों का कथन । द्रव्य सकार का स्वरूप तथा अध्ययन के ३३८. द्रव्यरति और भावरति । अधिकारों का निर्देश । ३३९. कर्म के उदय से अरति और परीषह सहन ३०७. भिक्षु कौन ? से निर्वति-सुख की प्राप्ति ।। ३०७/१. 'सकार' का प्रशंसा के अर्थ में प्रयोग । ३४०. प्रथम चूलिका के नामकरण की सार्थकता । ३०८. भिक्ष शब्द के निक्षेप, निरुक्त आदि पांच ३४१. रति नाम की सार्थकता। द्वारों का उल्लेख। ३४२. धर्म में रति और अधर्म में अरति की गुणभिक्षु शब्द के निक्षेप। कारित।। ३१०. भेदक, भेदन और भेत्तव्य का निरूपण । ३४३. मोक्ष-प्राप्ति के उपाय। ३११-३१५. द्रव्यभिक्षु का स्वरूप । ३४४. रति-अरति के स्थानों को जानने का ३१५/१. असाधु कौन ? निर्देश। ३१६. भावभिक्षु का स्वरूप । द्वितीय चलिका ३१७-३१९. भिक्षु शब्द के निरुक्त । ३४५. दुसरी चुलिका के कथन की प्रतिज्ञा । ३२०-३२२. भिक्षु शब्द के एकार्थक । अवगृहीत, प्रगृहीत आदि विहारचर्या का ३२३,३२४. भिक्षु की पहचान के तत्त्व । निर्देश। ३२५. भिक्षु को स्वर्ण की उपमा । ३४७. मुनि की प्रशस्त विहारचर्या का उल्लेख । स्वर्ण के आठ गुणों का नामोल्लेख । ३४८. दशवकालिक का अध्ययन : मनक के ३२७. स्वर्ण की चार कसौटियां। समाधिमरण का कारण । ३२८,३२९. स्वर्ण की भांति गुणयुक्त व्यक्ति ही वास्तविक ३४९. दशवकालिक की रचना के प्रयोजन का साधु । निर्देश । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाओं का समीकरण दशवकालिक नियुक्ति को गाथाएं चूणि एवं टीका दोनों में मिलती हैं पर उनकी गाथासंख्याओं में बहुत अन्तर है। संपादन में भी हमने गाथाओं के बारे में विमर्श किया है कि कितनी गाथाएं बाद में प्रक्षिप्त हुई हैं और कितनी मूल की थीं । अतः संपादित गाथा-संख्या भी टीका एवं चूणि में प्रकाशित गाथा-संख्या को संवादी नहीं है । पाठकों की सुविधा के लिए हम यहां चार्ट प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे गाथाओं को खोजने में सुविधा रहेगी। जिनदास कृत चूणि में नियुक्ति की गाथा संख्या का केवल संकेत-मात्र है, पूरी गाथा नहीं है, अतः समीकरण में उसका समावेश नहीं किया है। 1 संपादित हाटी संपादित हाटी X २२ २३ २४ २५ २५/१ २५/२ X X X X X X X X X X arxm x x x x X X X X X no mom mom X X ३४ ००M GM WW०० ३५ १८ . x wax is a ३८ .. ३९ ४० १. अचू के संपादक मुनि पुण्यविजयजी ने इस गाथा के अंक तो दिए हैं किंतु इसे निगा नहीं माना है। २. यह गाथा तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक की है। प्रसंगानुसार इसे उद्धृत किया गया है। हारिभद्रीया टीका में यह निगा के क्रम में है। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाटी दशवकालिक नियुक्ति .ur mox . . . USUFF १०४ १०३ १०५ ०४ ०००० . . . . . . r ro & XX ar an 5 X X X X X X X X X X X x mm x x x x x x x x m संपादित ८९/१ 7 m ९५ ९५।१ ९५२ ९॥३ ९७११ " ९६१ ९६२ ९९।१ 41 GMCKWWW.०ी ९८ १. टीका की मुद्रित प्रति में ८४ का अंक दो बार दिया हआ है। X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X संपादित ११५ : 5%***** KK Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाओं का समीकरण संपादित १०० १०१ १०२ १०३ *** १०५ १०६ १०७ १०८ १०९ ११० १११ ११२ ११३ ११४ ११५ ११६ ११७ ११८ ११९ १२० १२०११ १२०/२ १२०/३ १२०/४ १२१ १२२ १२३ १२३।१ १२३/२ १२३।३ १२३४ अचू ३९ ४० ४१ ४२ ४३ ४४ x x x x x x X X X X X X ४६ ४७ ४८ ४९ ५० ५१ X ५२ ५३ ५४ हाटी १११ ११२ ११३ ११४ ११५ X ११६ ११७ ११८ ११९ १२० १२१ १२२ १२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १२८ १२९ १३० १३१ १३२ १३३ १३४ १३५ १३६ १३७ १३८ १३९ १४० १४१ १. हाटी में इसे भिन्नकर्तृकी गाथा माना है । २. हाटी में १५१,१४९ और १५० की गाथा में कम व्यत्यय है । संपादित १२३।५ १२३/६ १२३/७ १२३१८ १२३/९ १२३।१० १२३।११ १२४ १२५ १२६ १२७ १२८ १२९ १३० १३१ १३२ १३३ १३४ १३५ १३६ १३७ १३८ १३९ १४० १४१ १४२ १४३ १४४ १४५ ૪૬ १४७ ૪૬ अच् X ५५ ५६ ५७ ५८ ५९ ६० ६१ ६२ ६३ ६४ ६५ * ६७ ६८ ६९ ७० ७१ ७२ ७३ ७४ ७५ X ७६ ७७ ७८ हाटी १४२ ** १४४ १४५ १४६ १४८ १५१' १४९ १५० १५२ १५३ १५४ १५५ १५६ १५७ x १५८ १५९ १६० १६१ १६२ १६३ १६४ १६५ १६६ १६७ १६८ १६९ १७. १७१ १७२ ११ ३. हाटी में इसके लिए "इयं च किल भिन्नकर्तृ की " ऐसा उल्लेख मिलता है । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति हाटी संपादित हाटी १७३ अचू १०७ १०८ २०८ १७४ ~ संपादित १४९ १५० १५१ १५१३१ १५२ १५३ १५४ १७५ १८२ १८३ १८४ १७६ २११ ० ० क 950 45. x xmx ur X Fir ११० १११ ११२ २१२ २१३ २१४ १७९ १८० १८१ १८६ १८७ १८८ १८९ ११४ २१५ ~ १५६ ११५ १५७ १८२ १९० ११६ १८३ १८४ १९१ १९२ १९३ १५७११ १५८ १५९ १६० १६१ १६२ १६३ १६३।१ १६४ १६५ " ०००/ x १९४ १९५ १९६ १९७ १९८ २१६ २१७ २१८ २१९ २२० २२१ २२२ भा.७ भा.८ भा.९ ११७ ११८ ११९ १२० १२१ १२२ १२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १२८ १८८ १८९ १९० १९१ १९२ १९३ १९४ २२३ xury २२४ भा. २५ भा. २८ १६७ १६८ २०० २०१ २०२ २०२।१ २०३ २०४ २०५ १२९ १९६ १९७ १३० १७० १७१ ९ १३१ १७२ १९८ १९९ २०० २०६ १३२ १७३ १०० १०१ २०७ १३३ १७४ २०१ १३४ १७५ १७६ २०८ २०९ २०२ २०३ २०४ भा. ३० भा. ३३ भा. ३४ २२५ २२६ २२७ भा.५६ भा. ५७ २२८ उगा २२९ २३० २१० १३६ १३७ १७७ १७८ १७९ १८० १०३ १०४ १०५ २०५ २११ २११११ २१२ २१३ २०६ २०७ १३९ १४० १. अचू में १२९ वीं गाथा का आंशिक उल्लेख है। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाओं का समीकरण हाटी संपादित अचू हाटी संपादित २१४ २१५ २१६ अचू १४१ १४२ २३१ २६५ २६६ २३२ भा.६० १४३ २४१ २४२ २४३ २४४ २४५ २६७ २६८ २१७ १४४ २३३ २३४ WU०० २६९ २४६ २४७ २४८ २७० २७१ २७२ २७३ Xxx xxx १७४ १७५ १७६ २५० २१७११ २१८ २१८१ २१८१२ २१८।३ २१८।४ २१९ २१९११ २२० २२०११ २२१ २२१११ २२२ २७४ २५१ २५२ १७७ १७८ १७९ २७५ २७६ २७७ २७८ २५३ १४७ २७९ २३५ २३६ २३७ २३८ २३९ २४० २४१ भा. ६२ २४२ २४३ २४४ २४५ २४६ २४७ २४८ २४९ २५० २५१ २५२ २५३ २५४ २५५ २५४ २५५ २५६ २५७ २५८ २५९ २६० १८१ १८२ १८३ २२३ १८४ १८५ १८६ २२४ २२५ २२६ २२७ २२८ २८० २८१ २८२ २८३ २८४ २८५ २८६ २८७ २८८ १४८ १४९ १५० १५१ १५२ १५३ १५४ १५५ १५६ १५७ १५८ १५९ १६० १६१ १८७ . २२९ २६२ २६३ २६४ २६५ २६६ २६७ २६८ १९२ १९३ २९० २९१ २९२ २९३ १९४ له २५६ २५७ २६९ २३० २५८ १९६ १९७ २५९ २९४ २९५ २३६ २३७ २३८ १९८ १६३ १६४ १६५ २७० २७१ २७२ २७३ .... २७४ २७४।१ . २७५... .. १९९ २६० २६१ २६२ २६३ २६४ . २९६ २९७ २९८ २३९ २०० १६६ २४. २४०११ * २०१ २९९ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संपादित २७६ २७७ २७८ २७९ २८० २८१ २८२ २८३ २८४ २८५ २८६ २८७ २८८ २८९ २९० २९१ २९२ २९३ २९४ २९५ २९६ २९७ २९८ २९९ ३०० ३०१ ३०२ ३०३ * ३०५ ३०६ ३०७ ३०७११ अचू २०२ २०३ २०४ २०५ २०६ २०७ २०८ २०९ २१० X २१०१ २११ २१२ २१३ २१४ २१५ २१६ २१७ २१८ २१९ २२० २२१ २२२ २२३ २२४ २२५ २२६ २२७ २२८१ २३० २३१ X हाटी ३०० ३०१ ३०२ ३०३ ३०४ ३०५ ३०६ ३०७ ३०८ X ३०९ ३१० ३११ ३१२ ३१३ ३१४ ३१५ ३१६ ३१७ ३१८ ३१९ ३२० ३२१ ३२२ ३२३ ३२४ ३२५ ३२६ ३२७ ३२८ ३२९ ३३० ३३१ संपादित ३०८ २०९ ३१० ३११ ३१२ ३१३ ३१४ ३१५ ३१५।१ ३१६ ३१७ ३१८ ३१९ ३२० ३२१ ३२२ ३२३ ३२४ ३२५ ३२६ ३२७ ३२८ ३२९ ३३० ३३१ ३३२ ३३३ ३३४ ३३५ ३३६ X ३३७ १. २१० का अंक अथ में दो बार दिया गया है। २. अचू में २२९ का अंक नहीं है । २२८ के बाद २३० का अंक है । अचू २३२ २३३ २३४ २३५ २३६ २३७ २३८ २३९ X २४० २४१ २४२ २४३ २४४ २४५ २४६ २४७ २४८ २४९ २५० २५१ २५२ २५३ २५४ २५५ २५६ २५७ २५८ दशर्वकालिक निर्मुक्ति हाटी ३३२ ३३३ २३४ ३३५ ३३६ ३३७ ३३८ २५९ २६० X २६१ ३३९ ३४० ३४१ ૨૪૨ ३४३ ३४४ ३४५ ३४६ ३४७ ३४८ ३४९ ३५० ३५१ ३५२ ३५३ ३५४ ३५५ ३५६ ३५७ ३५८ ३५९ ३६० ३६१ ३६२ X Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाओं का समीकरण १५ संपादित अचू हाटी अचू हाटी २६२ २६७ भा ६३ ३३९' ३४० संपादित ३४५ ३४६ ३४७ ३४८ ३४९ ३४९।१ ३४९।२ २६८ २६९ ३४१ ३६४ ३६५ ३७० २६३ २६४ २६५ ३४२ ३४३ ३४४ xxGG ३७१ xx २६६ ३६७ - १. यह गाथा केवल हस्तप्रतियों में है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक निर्युक्ति १. सिद्धिगतिमुवगाणं, कम्मविसुद्घाण सव्वसिद्धाणं । नमिऊणं दसका लियनिज्जुत्ति कित्तस्सामि ॥ २. आई मज्भवसाणे, काउं मंगलपरिग्गहं विहिणा । नामाइ मंगलं पि य, चउव्विहं पण्णवेऊणं ॥ ३. सुयनाणं अणुयोगेणाऽहिगयं र सो चउब्विहो होइ । चरणकरणाणुयोगे, धम्मे 'गणिए य" दविए य ।। ४. अपुहत्तपुहत्ता, निद्दिसिउं एत्थ होइ अहिगारो । चरणकरणाणुयोगेण, तस्स दारा इमे होंति । ५. निक्खेवेग - निरुत्त-विही पवित्तीय केण वा कस्स । तद्दार भेय-लक्खण, तदरिहपरिसा य सुत्तत्थो । ६. एयाई परूवेडं, कप्पे वण्णियगुणेण गुरुणा उ । अयोग दसवेयालियस्स विहिणा कहेयव्वो । ७. दसकालियं ति नामं, संखाए कालओ य निद्देसो । दसकालिय- सुयबंध, अज्भयणुद्देस निक्खिविरं ॥ ८. नामं ठवणा दविए, माउगपद - संग हेक्कए चेव । पज्जव - भावे य तहा, सत्तेते एक्कका होंति । दारं || १. प्रारंभ की सात गाथाएं दोनों चूर्णियों ( अगस्त्य सिंहस्थविरकृत तथा जिनदास महत्तरकृत) में निर्दिष्ट नहीं हैं । ये गाथाएं भद्रबाहु के बाद जोड़ी गई हैं, किन्तु टीकाकार हरिभद्र के समय तक ये निर्युक्तिगाथा के रूप में प्रसिद्ध हो गई थीं इसलिए प्रायः गाथाओं के आगे टीकाकार ने 'आह नियुक्तिकार : ' लिखा है । इन गाथाओं को बाद में जोड़ने का एक प्रमाण यह है कि गा. ६ में 'कप्पे' शब्द बृहत्कल्पभाष्य की ओर संकेत करता है । गा. ५ 'निक्खेवेग' बृहत्कल्पभाष्य (गा. १४९ ) की है। इसकी व्याख्या बृहत्कल्पभाष्य की पीठिका में विस्तार से की गई है। निर्युक्तिकार बृहत्कल्पभाष्य का अपने ग्रन्थ में संकेत नहीं करते क्योंकि वे भाष्य से पूर्ववर्ती हैं । अतः ये गाथाएं बाद में जोड़ी गई हैं, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है । २. गेण अहि० ( अ ) । ३. काले य (हा, रा), टीका में 'काले य' पाठ की व्याख्या है - 'काले चेति कालानुयोगश्च गणितानुयोगश्चेत्यर्थः ' (हाटी प. ४) । ४. अपुहुत्तपुहु (हा, जिचू ) । ५. भणिया (जिंचू ) । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ९. नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु निक्खेवो, दसगस्स उ छव्विहो होति ॥ ९।१. बाला 'मंदा किड्डा २, बला य पण्णा य हायणि पवंचा । पब्भार- मुम्मुही सायणी य, दसमी उ कालदसा' ।। देस-काल काले य । १०. दव्वे अद्ध- अहाउय, उवक्कमे तह य पमाणे वण्णे, भावे पगयं तु भावे || ११. सामाइयअणुकमओ, वण्णेउं विगयपोरिसीए ऊ । निज्जूढं किल सेज्जंभवेण दसकालियं तेणं ॥ + १२. 'जेण व जं व पडुच्चा जत्तो जावंति जन् य ते ठविया । सो तं च तओ ताणिय, तहा य कमसो कहेयव्वं ॥ दारं || १३. सेज्जंभवं गणधरं जिणपडिमादंसणेण पडिबुद्ध । मणगपियरं दसका लियस्स निज्जूहगं वंदे ॥ १. यह गाथा अचू और जिचू में व्याख्यात है किन्तु अचू की भूमिका में इस गाथा को निर्यक्तिगाथा के क्रम में नहीं माना है । ( अभूमिका पृ. ८) २. किड्डा मंदा (रा, हा) । ३. टीका में यह गाथा निर्युक्ति के क्रम में है किन्तु जिनदासचूर्णि में यह गाथा उद्धृत गाथा के रूप में उल्लिखित है यह गाथा मूलतः 'तंदुलवेयालिय' प्रकीर्णक (गा. ३१) की है किंतु बाद में यह नियुक्तिगाथा के रूप में लिपिकारों या टीकाकार द्वारा जोड़ दी गई है, ऐसा प्रतीत होता है । हमने इसे निगा के क्रम में नहीं रखा है। द्र. दश्रुनि ३, पंकभा २५२, निभा ३५४५, ठाणं १०।१५४ । ४. आवनि ६६० । ५. ० पोरसीए (अ), ०सीओ ( रा ) । निर्युक्तिपंचक ६. किर (हा ) । ७. यह गाथा अचू में संकेतित नहीं है किन्तु टीकाकार इस गाथा के लिए 'चाह निर्युक्तिकारः' लिखते हैं । इसके पूर्वापर संबंध को देखने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह गाथा अन्य आचार्यों द्वारा रची गई है क्योंकि इस गाथा की विषयवस्तु का ही पुनरावर्तन अगली गाथाओं में हुआ है । इस गाथा के बाद जिनदासकृत चूर्णि में 'इमाओ निरुत्तिगाहाओ चउरो अज्झष्पस्साणयणं, अहिगम्मन्ति व, जह दीवा", अहिं. इनका उल्लेख है लेकिन हस्तप्रतियों में ये गाथाएं आगे (गा २६, २७, २८, ३०) इस क्रम में मिलती हैं । ८. जेणेव जं च पडुच्च (जिचू) । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक नियुक्ति १४. मणगं पडुच्च सेज्जंभवेण निज्जहिया दसऽज्झयणा । वेयालियाइ ठविया, तम्हा दसकालियं नामं || दारं || १५. आयप्पवायपुव्वा, निज्जूढा होइ धम्मपण्णत्ती । कम्मप्पवायपुव्वा, पिंडस्स तु एसणा तिविधा || १६. सच्चप्पवायपुव्वा, निज्जूढा होति 'वक्कसुद्धी उ" । अवसेसा निज्जूढा, नवमस्स उ ततियवत्थूतो ॥ १७. बितिओविय आदेसो, गणिपिडगातो दुवालसंगातो । एयं किल निज्जूढं, मणगस्स अणुगट्ठाए || १८. दुमपुफियादओ खलु, दस अज्झयणा सभिक्खुयं जाव । अहिगारे वि य एतो, वोच्छं पत्तेयमेक्केक्के ॥ दारं ।। १९. पढमे धम्मपसंसा, सो य 'इह जिणसासणे न अन्नत्थ' " । fare facto सक्का, काउं जे एस धम्मो ति ॥ २०. ततिए आया कहा उ, 'खुड्डिया आय - संजमोवाओ' । तह जीवसंजमो विय, होति चउत्थम्मि अज्झयणे ।। १. दसवेयालियं ( स ) । २. १३, १४ ये दोनों गाथाएं दोनों चूणियों में संकेतित नहीं हैं किन्तु भावार्थ कथानक के रूप में है । पंडित दलसुखभाई के अनुसार ये हरिभद्रकृत हैं क्योंकि इनमें शय्यंभव को नमस्कार किया गया है । किन्तु इन गाथाओं के बारे में विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि ये गाथाएं स्वयं हरिभद्र द्वारा रचित होतीं तो १३वीं गाथा के प्रारम्भ में वे स्वयं 'अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं निर्मुक्तिकार एवं यथावसरं वक्ष्यति' (हाटी प १० ) तथा १४वीं गाथा के प्रारंभ में 'चाह निर्मुक्तिकारः' का उल्लेख नहीं करते। इसके अतिरिक्त गाथा १२ में जेण, जं, जत्तो और जावंति इन चार द्वारों के कथन की प्रतिज्ञा की है । इनमें जत्तो का उल्लेख करने वाली तीन गाथाएं १५, १६, १७ दोनों चूर्णियों में प्राप्त हैं, फिर 'जेण' का निरूपण करने वाली गाथाओं को निर्युक्तिगाथा क्यों नहीं मानी जाए ? संभव है कथानक देने से गाथाओं का संकेत चूर्णिकारों ने नहीं किया हो अथवा लिपिकर्त्ताओं द्वारा १९ गाथाओं का संकेत लिखना छूट गया हो या फिर जिन प्रतियों के आधार पर मुद्रित चूर्णि का संपादन किया गया उसमें संकेत नहीं दिये गये हों । सभी हस्तप्रतियों में ये गाथाएं मिलती हैं । ३.० द्धिति ( ब ) । ४. किर (हा, अचू) । ५. ० याइया (हा ), ० याइओ ( अ ) । ६. इस गाथा में गा. १२ के 'जावंति' द्वार का स्पष्टीकरण है अत: अचू और जिचू में व्याख्यायित न होने पर भी इसे नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है । ( देखें - टिप्पण गा. १३, १४) । ७. इहेव जिणसासम्मित्ति (हा, अचू), हरिभद्र ने टीका में 'जिनशासने धर्मो नान्यत्र' ऐसा उल्लेख किया है। इसी आधार पर टीका और चूर्णि का मुद्रित पाठ स्वीकृत न कर आदर्शों का पाठ स्वीकृत किया है । ८. जे इति पूरणार्थी निपातः (हाटी प. १३) । ९. खुड्डियायार संजमो० ( ब ) । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक २१. भिक्खविसोधी तव-संजमस्स गुणकारिया तु पंचमए। छठे आयारकहा, महती जोग्गा' महयणस्स ।। २२. वयणविभत्ती पुण सत्तमम्मि पणिहाणमट्ठमे भणियं । नवमे विणओ दसमे, समाणियं एस भिक्खु त्ति ।। २३. दो अज्झयणा चूलिय, विसीययंते थिरीकरणमेगं । बितिए' विवित्तचरिया, असीयणगुणातिरेगफला ।। २४. 'दसकालियस्स एसो'५, पिंडत्थो वण्णितो समासेणं । एत्तो एक्केक्कं पुण, अज्झयणं कित्तइस्सामि ।। २५. पढमज्झयणं दुमपुफियं ति चत्तारि तस्स दाराई । वण्णित्तुवक्कमाई, धम्मपसंसाइ अहिगारो ।। २५।१. ओहो जं सामन्नं, सुताभिहाणं चउन्विहं तं च । अज्झयणं अज्झीणं, आयज्झवणा य पत्तेयं ।। २५१२. नामादि चउन्भेयं, वण्णेऊणं सुयाणुसारेणं । दुमपुफिय आओज्जा, चउराँ पि कमेण भावेसु ।। १. जोग्गो (अ, ब)। ७. वनिउ० (अ), वण्णेउ० (हा)। २. ० हाण अट्ठमे (अ)। ८. दोनों चणियों में प्रस्तुत गाथा उल्लिखित ३. बीए (ब)। नहीं है, लेकिन इसका भावार्थ दोनों चूणियों ४. विवत्त० (अ)। में मिलता है। कुछ पाठांतर के साथ ५. दसवेयालियस्स उ (जिन्), दसकालियस्सेह उत्तराध्ययन नियुक्ति में भी ऐसी गाथा (अचू)। मिलती है। देखें- उनि २८ । ६. वन्नइ० (जिच), प्रस्तुत गाथा दोनों चूणियों ९. उनि २८।१।। में उपलब्ध है। किन्तु मुनि पुण्यविजयजी ने १०. २५॥१,२ इन दोनों गाथाओं का चणियों में अगस्त्यसिंह चणि के संपादन में इसे नियुक्ति कोई उल्लेख नहीं है। केवल 'तत्थ उवक्कमो गाथा के क्रम में न रखकर उद्धत गाथा के जहा आवस्सए' इतना ही उल्लेख है। रूप में प्रस्तुत किया है। पंडित दलसुखभाई ये गाथाएं विशेषावश्यकभाष्य (गा. ९५८, मालवणिया के अनुसार यह गाथा उपसंहारा ९५९) की हैं। हस्तलिखित आदर्शों में ये त्मक और संपूर्ति रूप है। टीका तथा आदों गाथाएं मिलती हैं। किन्तु ये गाथाएं व्याख्या में यह गाथा मिलती है। हमने इस गाथा को के प्रसंग में बाद में जोड़ी गई प्रतीत होती हैं नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है क्योंकि अन्य अतः इन्हें निगा के क्रम में नहीं रखा है। नियुक्तियों में भी ऐसी उपसंहारात्मक गाथाएं टीकाकार हरिभद्र ने इनके लिए 'चाह मिलती हैं नियुक्तिकारः' ऐसा उल्लेख किया है। उत्तरज्झयणाणेसो, पिंडत्थो वण्णितो समासेणं । एत्तो एक्केक्कं पुण, अज्झयणं कित्तइस्सामि ॥ (उनि २७) Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति २६. अज्झप्पस्साणयणं, कम्माणं अवचओ उवचियाणं । अणुवचओ य नवाणं, तम्हा अज्झयणमिच्छंति' ।। २७. अधिगम्मति व अत्था, इमेण अधिगं च नयणमिच्छंति। अधिगं च साहु गच्छति, तम्हा अज्झयणमिच्छंति' ।। २८. जह दीवा दीवसयं, पदिप्पए सो य दिप्पती५ दीवो। दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवेति ।। २९. नाणस्स दंसणस्स य', चरणस्स य जेण आगमो होइ। सो 'होइ भावआओ'६, आओ लाभो त्ति निद्दिट्ठो ।। ३०. अट्ठविधं कम्मरयं, पोराणं जं खवेइ जोगेहिं । एयं भावज्झयणं, णायव्वं' आणुपुवीए' ।। ३१. नामदुमो ठवणदुमो, 'दव्वदुमो चेव होति भावमो'१२ । एमेव य पुप्फस्स वि, चउव्विहो होति निक्खेवो । ३२. दुमा य पादवा रुक्खा, 'विडमी य अगा तरू' । कुहा महीरुहा वच्छा, रोवगा भंजगा४ वि य ।। १. उनि ६, अनुद्वा ६३१।१ । उल्लेख है । वहां १२वी गाथा के बाद भी गा. २. य (जिचू)। २६,२७,२८ और ३० का संकेत दिया है तथा ३. उनि ७ । 'इमाओ निरुत्तिगाहाओ चउरो' इतना उल्लेख ४. पइप्पई (रा)। है। इससे स्पष्ट है कि जिनदास के समक्ष ये ५. दिप्पई (हा), दिप्पए (अ, रा)। गाथाएं नियुक्तिगाथा के रूप में थीं। टीकाकार ६. अनुद्वा ६४३।१, उनि ८, चंदा ३० । ने इन पांचों गाथाओं की व्याख्या की है तथा ७. वि (हा)। आदर्शों में भी ये गाथाएं मिलती हैं। इनमें ८. होई (हा)। कुछ गाथाएं अक्षरशः उत्तराध्ययन नियुक्ति में ९. होई भावाओ (अ)। मिलती हैं। १०. नेयव्वं (अ, हा)। १२. खेत्त काल भाव दुमे (जिचू)। ११. २६-३० तक की गाथाओं का अचू में कोई १३. अगमा विडिमा तरू (हा), अगमा विडवी उल्लेख नहीं है। जिनदासचूणि में 'अज्झप्प- तरू (अ), अगमा विडिवा तरू (रा) । स्साणयणं गाहाओ पंच भाणियब्वाओ'---इतना १४. रुंजगा (हा), जम्भगा (अ)। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक ३३. पुप्फाणि य कुसुमाणि य, फुल्लाणि तहेव होंति पसवाणि । सुमणाणि य सुहमाणि, य 'पुप्फाणं होंति एगट्ठा" ।। ३४. 'दुमपुफिया य'२ आहारएसणा-गोयरे तया उंछ । मेस-जलोया' सप्पे, वणऽक्ख-'इसु-गोल-पुत्तुदए' ।। ३५. कत्थइ पुच्छति सीसो, कहिंच पुट्ठा कहंति आयरिया। सोसाणं तु हितठ्ठा, विपुलतरागं तु पुच्छाए ।। ३६. नाम ठवणाधम्मो, दव्वधम्मो य भावधम्मो य । __एतेसिं नाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए ।। ३७. दव्वं च 'अत्थिकायो, पयारधम्मो'" य भावधम्मो य । दव्वस्स पज्जवा जे, ते धम्मा तस्स दव्वस्स ।। ३८. धम्मत्थिकायधम्मो, पयारधम्मो य विसयधम्मो य । लोइय-कुप्पावयणिय, लोगुत्तर लोगऽणेगविहो ।। ३९. गम्म-पसु-देस-रज्जे, पुरवर-गाम-गण-गोट्टिराईणं । सावज्जो उ कुतित्थियधम्मो न जिणेहि" तु पसत्थो । १. एगट्टा पुप्फाणं होंति णायव्वा (अ, ब), प्रस्तुत के एकार्थक हैं। अतः प्रस्तुत गाथा नियुक्तिकार गाथा दोनों चूर्णियों में गाथा रूप में उल्लिखित द्वारा ही रचित प्रतीत होती है। सभी हस्तनहीं है । पुष्प के एकार्थक दोनों चूणियों में प्रतियों में यह गाथा उपलब्ध है। मिलते हैं अतः पंडित मालवणियाजी का २. ० फियं च (अच), ० प्फियाइ (ब)। कहना है कि चूणि के एकार्थक शब्दों के ३. जलूगा (जिचू, हा)। आधार पर हरिभद्र ने उसे पद्यबद्ध कर दिया ४. उसु-पुत्त-गोलुदए (अच) । हो, किन्तु ऐसा संभव नहीं लगता, क्योंकि ५ दिति (अ. रा अच) । स्वयं हरिभद्र अपनी टीका में 'पुष्पकाथिक- ६. तु० सूनि १००। प्रतिपादनायाह' ऐसा नहीं कहते तथा चूणि में ७. कायप्पयार० (हा) । तो मात्र तीन-चार एकार्थक शब्द हैं, गाथा में ८. ०वपणे (हा)। कुछ अन्य एकार्थक भी हैं। प्रथम अध्ययन का ९. गट्रि (अ, ब)। नाम 'दुमपुप्फिय' है। अतः द्रुम शब्द के १०. राईणं ति (जिचू)। एकार्थक के पश्चात् पुष्प के एकार्थक प्रासंगिक ११. जिणेस हैं। उसके बाद ३७वीं गाथा में प्रथम अध्ययन Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति ४०. दुविहो लोगुत्तरिओ, सुयधम्मो खलु चरित्तधम्मो य । सुयधम्मो सज्झाओ, चरित्तधम्मो समणधम्मो' ।। ४१. दव्वे भावे वि' य मंगलाणि दवम्मि पुण्णकलसादो । धम्मो उ भावमंगलमत्तो 'सिद्धि त्ति' काऊणं ।। ४२. हिंसाए पडिवक्खो, होइ अहिंसा चउव्विहा 'सा उ'५ । दव्वे भावे य तहा, अहिंसऽजीवाइवाओ त्ति ।। ४३. पुढवि-दग-अगणि मारुय, वणसइ बि-ति-चउ-पणिदि अज्जीवे । पेहोपेह-पमज्जण, परिठवण मणो-वई काए ।। ४४. अणसणमूणोयरिया, वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया, य बज्झो तवो होइ ।। ४५. पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं उस्सग्गो वि य, अभितरओ तवो होइ° ।। ४६. जिणवयणं 'सिद्धं चेव'', भण्णए१२ कत्थई उदाहरणं । आसज्ज उ सोयार, हेऊ वि कहिंचि भण्णेज्जा ।। ४७. कत्थइ पंचावयवं, दसहा वा सव्वहा न पडिसिद्धं । न य पुण सव्वं भण्णति, हंदी सवियारमक्खातं ।। १. मुनिश्री पुण्यविजयजी ने अपने द्वारा संपादित गाथा का संकेत न होने पर भी इनकी विस्तृत अचू में प्रस्तुत गाथा को नियुक्तिगाथा के व्याख्या मिलती है। कुछेक विद्वानों के अनुसार रूप में स्वीकृत नहीं किया है। इसका भावार्थ ये गाथाएं बाद में प्रक्षिप्त हुई हैं किन्तु गद्य रूप में दोनों चूणियों में उपलब्ध है। अगस्त्यसिंह चूणि (प.११) की २०वीं गाथा टीका तथा आदर्शों में भी यह नियुक्तिगाथा की व्याख्या में कहा है कि संयम और तप के क्रम में है अत: इसे प्रक्षिप्त नहीं नियुक्ति विशेष से कहे जाएंगे, अत. यहां इनका माना जा सकता। विषय की क्रमबद्धता उल्लेख नहीं है। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है की दृष्टि से भी यह गाथा यहां प्रासंगिक कि ये गाथाएं चूर्णिकार के सामने नियुक्तिलगती है। गाथा के रूप में थीं। २. ४ (जिच)। ८. वणस्सई (हा)। ३. ०लाई (हा)। ९. होही (हा), तु० उसू ३०।८ । ४. सिद्ध त्ति (ब)। १०. उसू ३०।३० । ५. हिंसा (अ, ब) । ११. सिद्धमेव (जिचू)। ६. ० अज्जीवा० (ब)। १२. भण्णती (अचू), भण्णइ (ब), भण्णई (अ)। ७.४२ से ४५ तक की गाथाएं टीका तथा सभी १३. कत्थ वि (जिच), कत्थति (अचु)। हस्तप्रतियों में उपलब्ध हैं। दोनों चणियों में Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ५२. नियुक्तिपंचक ४७।१. तत्थाहरणं दुविहं, चउन्विहं होइ एक्कमेक्कं तु । हेऊ चउव्विहो खलु, तेण उ साहिज्जए अत्थो' ॥ ४८. 'णातं आहरणं' ति य, दिळंतोवम्म निदरिसणं तह य । एगटुं तं दुविहं, चउव्विहं चेव नायव्वं ।। चरितं च कप्पितं या', दुविहं तत्तो चउविहेक्केक्कं । आहरणे तसे, तद्दोसे चेवुवन्नासे ।।दारं।। ५०. चउधा खलु आहरणं, होति अवाओ उवाय ठवणा य । तह य पडुप्पन्नविणासमेव पढमं चउविगप्पं ।। ५१. दवावाए दोन्नि उ, वाणियगा भायरो धणनिमित्तं । वहपरिणएक्कमेक्कं, दहम्मि मच्छेण निव्वेओ ।। ___ खेत्तम्मि अवक्कमणं, दसारवग्गस्स होइ अवरेणं । दीवायणो' य काले, भावे मंडुक्कियाखवओ ।। सिक्खगअसिक्खगाणं, संवेगथिरट्ठयाइ दोण्हं पि । दव्वाइयाइ एवं, दंसिज्जते 'अवाया उ' ।। ५४. दवियं कारणगहियं, विगिचियव्वमसिवाइ खेत्तं च । बारसहिं एस्सकालो, कोहाइविवेग भावम्मि ।। १. इस माथा का दोनों चणियों में कोई उल्लेख स्पष्ट लिखते हैं कि-'स्वरूपमेषां प्रपञ्चेन नहीं मिलता। यह गाथा प्रक्षिप्त प्रतीत होती भेदतो नियुक्तिकार एव वक्ष्यति' (हाटी प. है क्योंकि आगे की गाथा में पुनः इसी ३५) तथा गा. ५२ की व्याख्या में 'प्रकृतविषय की पुनरुक्ति हई है। यहां यह गाथा योजनां पुननियुक्तिकार एव करिष्यति, किमविषयवस्तु की दृष्टि से भी अप्रासंगिक लगती काण्डः एव नः प्रयासेन' (हाटी प. ३६)। इसके अतिरिक्त गा. ७९ की व्याख्या में भी २. नायमुदाहरणं (हा)। 'भावार्थस्तु प्रतिभेदं स्वयमेव वक्ष्यति नियुक्ति३. च (जिचू), वा (हा)। कारः' (हाटी प. ५५) कहा है। इन प्रमाणों ४. भवे चउहा (अ,ब), ५० से ८५ तक की से स्पष्ट है कि टीकाकार के सामने ये गाथाएं गाथाओं का दोनों चूर्णियों में कोई संकेत नहीं। निर्यक्तिगाथाओं के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी है किन्तु व्याख्या और कथानक मिलते हैं। थीं। अत: हमने इनको निर्यक्तिगाथा के क्रम मुनि पुण्यविजयजी ने ५६,७३ और ८२ इन में रखा है। तीन गाथाओं को उद्धृतगाथा के रूप में माना ५. देवा० (अ,ब)। है। ऐसा अधिक संभव लगता है कि चूणि ६. ० खमओ (ब)। की व्याख्या के अनुसार किसी अन्य आचार्य ७. अवायाओ (अ)। ने इन गाथाथों की रचना की हो किन्तु गाथा ८. एस० (अ)। ५०वीं की व्याख्या में टीकाकार हरिभद्र Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति ५५. दव्वादिएहि निच्चो, एगतेणेव 'जेसि अप्पा' उ। होति अभावो तेसि, सुह-दुहसंसारमोक्खाणं । ५६. सुहदुक्खसंपओगो, न 'विज्जई निच्चवायपक्खम्मि'। ___एगंतुच्छेयम्मि य, सुहदुक्खविकप्पणमजुत्तं ॥ ५७. एमेव चउविगप्पो, होइ उवाओ वि तत्थ दवम्मि । - 'धातुवाओ पढमो'५, नंगलकुलिएहि खेत्तं तु ।। ५८. कालो य नालियाइहिं', होइ भावम्मि पंडिओ अभओ। 'चोरनिमित्तं नट्टिय'", वड्डकुमारि परिकहेति ।। ५९. एवं तु इह आया, पच्चक्ख अणुवलब्भमाणो वि । सुहदुक्खमादिएहिं, गिज्झइ हेऊहिं अस्थि त्ति ।। ६०. जह वऽस्साओ" हत्थि, गामा नगरं तु" पाउसा सरयं । __ ओदइयाउ उवसमं, संकंती देवदत्तस्स ।। ६१. 'एवं सउ'१२ जीवस्स वि, दव्वादी संकमं पडुच्चा उ । । अत्थित्तं साहिज्जइ, पच्चक्खेणं परोक्ख पि" ।। ६२. एवं सउ जीवस्स वि, दव्वादी संकम पडुच्चा उ । परिणामे साहिज्जति, पच्चक्खेणं परोक्खे वि१४ ।। ६३. ठवणाकम्म एक्कं, दिद्रुतो तत्थ पोंडरीयं तु । अहवा वि सन्नढक्कण१५, हिंगुसिवकयं उदाहरणं ।। ६४. सध्वभिचारं१६ हेतुं, सहसा वोत्तुं तमेव अन्नेहिं । उववूहइ सप्पसरं, सामत्थं चऽप्पणो नाउं । १. जेसिमप्पा (अ) मुद्रित पाठ को पाठांतर में दिया है। २. ० दुह० (हा)। ८. अहं (अ)। ३. संभवति णिच्चपक्खवातम्मि (अच)। ९. प्रत्यक्षमिति तृतीयार्थे द्वितीया (हा)। ४. मुद्रित अचू में यह गाथा उद्धृत गाथा के रूप १०. अस्साओ (ब)। ११. च (ब)। ५. पाठांतरं वा-धातुव्वाओ भणिओ (हाटी)। १२. एवस्स उ (अ)। ६. ०याईहिं (ब,रा)। १३. अन्ये तु द्वितीयगाथापश्चाद्धं पाठान्तरोऽन्यथा ७. चोरस्स कए नट्रिय (रा), चोरस्स कए नदि व्याचक्षते । (हाटी प. ४३)। (हा), टीकाकार ने इस पद की व्याख्या न कर १४. यह गाथा रा और ब प्रति में नहीं है। 'चोरनिमित्तं नट्रिय' पद की व्याख्या की है। १५. ० ढंकणे हि (ब)। हमने इस पाठ को मूल मानकर टीका के १६. सविभि० (ब)। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ६५. होंति पडुप्पनविणासणम्मि गंधव्विया उदाहरणं । सीसो वि कवि' जइ, अज्झोवज्जिज्ज तो गुरुणा ।। ६६. वारेयव्वु उवाएण, जइ य' वाऊलिओ' वदेज्जाहि । सव्वे विनत्थि भावा, किं पुण जीवो स वत्तव्वो ।। ६७. जं भणसि नत्थि भावा, वयणमिणं अत्थि नत्थि ? जइ अत्थि । 'एव पइण्णाहाणी", असओ णु निसेहए को नु ? ।। 5.0 ६८. नो य विवक्खापुव्वो, सद्दोऽजीवुब्भवो त्ति न य सावि । जमजीवस्स उ सिद्धो, पडिसेहणीओ तो जीवो ॥ ६९. आहरणं तद्देसे, चउहा अणुसट्ठि तह उवालंभो" । पुच्छा निस्सावयणं, होइ सुभद्दाऽणुसट्ठीए || दारं ।। ७०. साहुक्कारपुरोगं, जह सा अणुसासिया पुरजणेणं । वेयावच्चाईसु वि, एव जयंतेववू हिज्जा ।। ७२. ७१. जेसिपि अस्थि आया, वत्तव्वा ते वि अम्ह विस अस्थि । किंतु " अकत्ता न भवइ, वेययई जेण सुहदुक्खं ॥ उवलम्भम्मि मिगावइ, नाहियवाई वि एव वक्तव्वो । नत्थि त्ति कुविण्णाणं, आयाऽभावे सइ अजुत्तं ॥ ७३. अस्थि ति जावितक्का, अहवा नत्थि त्ति जं कुविण्णाणं । अच्चतम भावे पोग्गलस्स, एयं चिय 'न जुत्तं ।। ७४. पुच्छाएकोणिओ खलु, निस्सावयणम्मि गोयमस्सामी । नाहियवाई" पुच्छे, जीवत्थित्तं अणिच्छंतं ।। ७५. केणं ति नत्थ आया, जेण 'परोक्खो त्ति' १४ तव कुविण्णाणं । होइ परोक्खं तम्हा, नत्थि त्ति निसेहए को णु ! | १. कत्थइ (अब) । २. वा (हा), व ( रा ) । ३. वेऊलिओ (रा) । ४. वोत्तव्वो (हा) । ५. एवं पइन्नहाणी (ब) । ६. उ (रा) । ७. उवलंभो ( रा ) । सिट्ठीए ( रा ) । ९. जयंते विवूहिज्जा (ब), जयं वज्जा (रा, हा) । १०. जीवो ( रा ) । निर्युक्तिपंचक ११. जं तु (ब) 1 १२. अजुत्तं ( अ, ब ), प्रस्तुत गाथा अचू में उद्धृत गाथा के रूप में प्रकाशित है । १३. ० वायं (ब) । १४. पक्खं ति ( अ ) । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति ७६. अन्नावदेसओ नाहियवाई जेसि नत्थि' जीवो उ। ___ दाणाइफलं तेसिं, न विज्जई. 'चउह तद्दोस ।। ७७. पढमं अधम्मजुत्तं, पडिलोमं अत्तणो उवन्नासं । दुरुवणियं तु चउत्थं, अधम्मजुत्तम्मि नलदामो' ।।दारं।। ७८. पडिलोमे जह अभओ, पज्जोयं हरइ अवहिओ संतो। - गोविंदवायगो वि य, जह परपक्खं नियत्तेइ ।। ७९. अत्तउवन्नासम्मि य, तलागभेयम्मि पिंगलो थवई । अणिमिसगिण्हण भिक्खुग, दुरूवणीए उदाहरणं ।। ८०. चत्तारि उवन्नासे, तव्वत्थु तयन्नवत्थुगे चेव । 'पडिनिभहेउम्मि य तत्थ होंति' इणमो उदाहरणा ।। ८१. तव्वत्युगम्मि पुरिसो, सव्वं भमिऊण साहइ अपुव्वं । तदअन्नवत्थुगम्मि वि, अन्नत्ते होइ एगत्तं ।। ८२. तुज्झ पिता मह पिउणो, धारेति अणूणगं पडिनिभम्मि। किं नु जवा किज्जते ? जेण मुहाए न लब्भंति'" ।। ८३. 'अहवा वि इमो हेऊ, विण्णेओ तत्थिमो चउविगप्पो'"। जावग थावग वंसग, लूसग हेऊ चउत्थो उ ।।दारं।। ८४. उब्भामिगा य महिला, जावगहेउम्मि उट्टलिंडाई१२ । लोगस्स मज्झजाणण, थावगहेऊ" उदाहरणं ।। ८५. सा सगडतित्तिरी१४ वंसगम्मि हेऊम्मि होइ नायव्वा । तउसग-वंसग-लूसग, हेउम्मि य मोयगो य पुणो५ ।। १. न अस्थि (रा)। गाथा के रूप में प्रकाशित है२. विज्जइ (हा)। तुझ पिता मज्झ पिऊ, ३. चतुर्धा तद्दोष इति, अनुस्वारस्त्वलाक्षणिकः धारेति अणूणतं सतसहस्सं । (हाटी प. ५२)। जदि सुतपुव्वं दिज्जतु, ४. नलदाहो (अ), ० दामा (रा)। अह ण सुतं खोरयं देहि ॥ ५. अणमि० (ब)। ११. अन्ये त्वेवं पठन्ति–हेउ त्ति दारमहुणा, ६. भिच्छुग (रा)। चउव्विहो सो उ होइ नायव्वो (हाटी)। ७. पडिनिभए हेउम्मि य होंति (हा) । १२. उंटलिंडाई (हा)। ८. सयसहस्सं (ब)। १३. ० हेउं (अ)। ९. किज्जती (अ)। १४. तित्तरी (अ,ब)। १०. दोनों चुणियों में यह गाथा निगा के क्रम में १५. इन हेतुओं के तुलनात्मक अध्ययन के लिए __ नहीं है। किंतु कुछ पाठभेद के साथ उद्धृत देखें ठाणं ४।४९९-५०४ । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ५. ६ ७. ८६. ८७. O ८८. उवसंहारो देवा, जह तह राया वि पणमति सुधम्मं । 'तम्हा धम्मो मंगलमुक्किट्ठे निगमणं एवं " ॥ बितिय इण्णा जिणसासणम्मि सार्हेति साहवो'धम्मं । हेऊ जम्हा सब्भाविएसुऽहिंसादिसु" जयंति || ८९ । १. जह जिणसास निरया, धम्मं पालेंति साहवो सुद्धं । न कुतित्थिए एवं दीसइ परिपालणोवाओ " ॥ ८९।२. तेसु विय धम्मसद्दो, धम्मं नियगं च ते पसंसंति । ओ सावज्जो, कुतित्थिधम्मो जिणवरेहिं ॥ ८९. धम्मो गुणा अहिंसादिया उ ते परममंगलपतिष्णा' । देवा वि लोगज्जा, पणमंति" सुधम्ममिति हेऊ ।। दिट्ठतो अरहंता', अणगारा य बहवे उ' जिणसिस्सा" । वत्तणुवत्ते णज्जति, जं नरवतिणो वि पणमंति || १. ०पइन्नो ( रा ) | २. पणमति (जिचू ) । ३. अरि ० ( अ ) । ४. ८९।३. जो तेसु धम्मसद्धो, सो उवयारेण निच्छएण इहं । जह सीहसद्दु सीहे, पाहवयारओन्नत्थ ।। (अचू, जिचू । सीसा (रा, हा, जिचू) । पणमंति (जिचू) | तम्हा मंगलमुक्किट्ठमिति निगमणं होति णायव्वं (जिचू), मंगल मुक्कट्ठमिइ अ निगमणं (हा ), ० मंगलमुक्कट्टमिइ निगमणं च ( अ, रा) । o ८. बीय (ब), बिइयपइन्ना (हा ) । ९. साहुणो ( अ, ब ) । १०. साभाविएसु अहिंसादिसु ( जिचू), साभावियं अहिंसादिसु (अ), अन्ये तु व्याचक्षते - भाविएहि० (हाटी) । ११. गा० ८९ के बाद ८९।१, २, ३ - इन तीन गाथाओं का दोनों चूर्णियों में कोई उल्लेख निर्युक्तिपंचक नहीं है । टीका में ये गाथाएं निर्युक्तिगाथा के क्रम में प्रकाशित हैं किन्तु पूर्वापर सम्बन्ध को देखते हुए ये गाथाएं भाष्य की प्रतीत होती हैं । ये तीनों गाथाएं ८९वीं गाथा की व्याख्या प्रस्तुत करती हैं । दूसरी बात यह है कि गा. ८९ के बाद ९० की गाथा का सीधा सम्बन्ध जुड़ता है। मुद्रित टीका में प्रथम भाष्यगाथा के रूप में 'एस पइण्णासुद्धि'.... गाथा है । इस गाथा में हेतुविशुद्धि का वर्णन है तथा प्रतिज्ञाशुद्धि की बात बताई जा चुकी है, इसका उल्लेख है। हाटी गा. ९३-९५ ( ८९ / १ - ३ ) इन तीन गाथाओं में प्रतिज्ञाशुद्धि का वर्णन है । भाष्यकार के उक्त कथन से ८९ / २-३ - इन तीनों गाथाओं को भाष्य गाथा मानने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं होती । (देखें परिशिष्ट १ गा. १-३) । १२. तेसि ( ब ) । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति ९०. जं भत्त-पाण-उवगरण-वसहि-सयणासणादिस जयंति'। फासुयमकयमकारियमणणुमतमणुद्दिसितभोई२ ॥ अप्फासुय'-कय-कारित-अणुमय-उद्दिट्ठभोइणो हंदि!। तस-थावरहिंसाए, जणा अकुसला उ लिप्पंति' ।। ९२. जह 'भमरो त्ति य एत्थं, दिलैंतो होति आहरणदेसे। चंदमुहिदारिगेयं', सोमत्तवधारणं ण सेसं ।। एवं भमराहरणे, अणिययवित्तित्तणं न सेसाणं । गहणं दिट्टतविसुद्धि, सुत्त भणिया इमा चऽन्ना' ।। ९४. एत्थ य भणेज्ज कोई, समणाणं कीरए" सुविहियाणं। पाकोवजीविणो'२ त्ति य, लिप्पंतारंभदोसेणं ।। ९५. 'वासति न'' तणस्स" कते, न तणं वड्ढति कते मयकुलाणं । न य रुक्खा सतसाहा१५, पुप्फंति१६ कते महुयराणं ।। ९५।१. अग्गिम्मि हवी हयइ, आइच्चो तेण पीणिओ संतो। वरिसइ पयाहियठें, तेणोसहिओ परोहंति ।। १. जयंती (अ)। ९. इस गाथा के बारे में दोनों चूणियों में कोई २. फासुय-अकय-अकारिय-अणणुमयाणुदिभोई उल्लेख नहीं है किन्तु विषयवस्तु की दृष्टि से य (हा) ० मकय अकारिय अणुमयमणुदिट्ठ- यह पूर्व गाथा से जुड़ी हुई है अतः संभव है भोई य (रा)। चणिकार ने सरल समझकर इसकी व्याख्या ३. अफासुय (हा), न फासुय (जिचू)। न की हो। इसके अतिरिक्त इसी गाथा की ४. ० भोय णो (हा)। 'इमा चन्ना' शब्द की व्याख्या में टीकाकार ५. ९०,९१ ये दोनों गाथाएं दोनों चूणियों में कहते हैं कि 'इयं चान्या सूत्रस्पशिकनियुकिनिर्यक्तिगाथा के रूप में निर्दिष्ट हैं। हरिभद्र ताविति', (हाटी प. ६५) अतः स्पष्ट है कि ने अपनी व्याख्या में इन गाथाओं के विषय में यह नियुक्तिगाथा है। 'भाष्यकृद' या 'नियुक्तिकद्'--ऐसा कोई १०. तत्थ (जिच)। उल्लेख नहीं किया है। किन्तु मुद्रित टीका ११. कीरई (अ,ब), कीरती (अच)। की प्रति में इन गाथाओं के आगे 'भाष्यम्' १२. पागोव ० (हा,ब) पावोव ० (रा)। का उल्लेख है। हमने इन्हें निगा के क्रम में १३. वासइ व (जिच)। रखा है। १४. तिणस्स (अ, रा)। ६. भमरा तू (जिचू)। १५. सयसाला (हा)। ७. ० दारुकेयं (रा)। १६. फुल्लेति (अचू), फुलंति (हा)। ८. सुत्ते (रा)। १७. परोहिंति (रा)। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० नियुक्तिपंचक ९५।२. किं दुब्भिक्खं जायइ ?, जइ एवं अह' भवे दुरिठं तु । कि जायइ सव्वत्था, दुब्भिक्खं अह भवे इंदो ? ।। ९५॥३. वासइ 'तो कि'२ विग्घं, निग्घायाइहि जायए तस्स । अह वासइ उउसमए, न वासई तो तणट्ठाए । ९६. 'किं च दुमा पुप्फती, भमराणं कारणा अहासमयं । ___मा भमर-महुगरिगणा, किलामएज्जा अणाहारा ।। ९६।१. कस्सइ बुद्धी एसा, वित्ती उवकप्पिया पयावइणा । सत्ताणं तेण दुमा, पुप्फती महुरिगणट्ठा ।। ९६।२. तं न भवइ जेण दुमा, नामागोयस्स पुव्वविहियस्स । उदएणं पुप्फफलं, निवत्तयंती इमं चऽन्न ।। ९७. अत्थि बहू वणसंडा, भमरा जत्थ न उति न वसंति । तत्थ वि पुप्फति दुमा, पगती एसा दुमगणाणं ।। १. इह (रा)। २. कि तो (रा)। ३. गाथा ९५ के बाद की तीन गाथाओं का दोनों चूणियों में कोई संकेत नहीं है किन्तु अचू में 'एत्थ चोदेति' तथा जिच में 'एत्यंतरे सीसो चोदेइ' कहकर इन तीनों गाथाओं का भावार्थ दिया है। इन तीनों गाथाओं में ९५वीं गाथा का ही विस्तार तथा व्याख्या है, अतः ये भाष्यगाथाएं प्रतीत होती हैं। मुद्रित टीका की प्रति में ये निर्यक्तिगाथा के क्रम में प्रकाशित हैं, किन्तु हरिभद्र ने अपनी व्याख्या में इन गाथाओं के बारे में कोई संकेत नहीं दिया है। हमने इनको भाष्यगाथा के रूप में स्वीकृत किया है। इन गाथाओं को निगा के क्रम में न रखें तो भी चाल विषयक्रम में कोई अंतर नहीं आता। विषय की दष्टि से ९५ की गाथा ९६ से सीधी जुड़ती है। (देखें परि० १ गा, ६-८) ४. किंतु (जिचू)। ५. ० फेंती (अचू), पुप्फति (हा) । ६. महुयर० (अ, ब) ७. निव्वयंति (रा)। ८. ९६/१-२ इन दोनों गाथाओं की संक्षिप्त व्याख्या चणि में मिलती है किंत गाथाओं का संकेत नहीं है। टीका में यह निगा के क्रम में व्याख्यात है। किन्तु यह गाथा भाष्य की होनी चाहिए। (देखें टिप्पण गा. ९५॥३) । ये गाथाएं रा प्रति में नहीं मिलती हैं। ये दोनों गाथाएं व्याख्यात्मक सी प्रतीत होती हैं। इन दोनों को निगा के क्रम में न रखने से भी चालू विषयक्रम में कोई अंतर नहीं पड़ता। ९६ की गाथा विषयवस्तु की दृष्टि से ९७ से सीधी जुड़ती है। (देखें परि १ गा. ९,१०) . जं च (हा)। ९ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति ९७।१. जइ पगई कीस पुणो, सव्वं कालं न देंति पुप्फफलं । जं काले पुप्फफलं, ददंति गुरुराह अत एव' ।। ९८. पगती एस दुमाणं, जं उउसमयम्मि आगए संते । पुप्फंति पादवगणा, फलं च कालेण बंधंति ।। किन्नु गिही रंधंती, समणाणं 'कारणा अहासमयं'२ । मा समणा भगवंतो, किलामएज्जा अणाहारा ॥ ९९।१. समणऽणुकंपनिमित्तं, पुण्णनिमित्तं च गिहनिवासी उ । कोई भणेज्ज पागं, करंति सो भण्णइ न जम्हा' ।। १००. कंतारे दुब्भिक्खे, आयंके वा महइ समुप्पन्ने । त्ति समणसुविहिया, सव्वाहारं न भुंजंति ।। १०१. अह कीस पुण गिहत्था, रति आदरतरेण रंधति । समणेहि सुविहिएहिं, चउव्विहाहारविरएहिं । १०२. अत्थि बह गाम-नगरा,समणा जत्थ न उवेंति न वसंति । तत्थ वि रंधंति गिही, पगती एसा गिहत्थाणं ।। १०३. पगती एस गिहीणं, जं गिहिणो गाम-नगर-निगमेसं । रंधति 'अप्पणो परियणस्स' 'अट्ठाए कालेणं ।। १०४. 'एत्थ समणा सुविहिया११,परकड-परनिट्रियं विगयधर्म । आहारं एसंती२, जोगाणं साहणट्ठाए ।। १. ९७४१ गाथा हाटी में निगा के क्रम में के क्रम में स्वीकृत नहीं किया है। यह गाथा प्रकाशित है । दोनों चूर्णियों में इस गाथा का भाष्य की होनी चाहिए क्योंकि यह व्याख्या संकेत न होने पर भी भावार्थ मिलता है। यह रूप है। (देखें परि०१ गा० १२) गाथा स्पष्ट रूप से भाष्य की प्रतीत होती है ४. दुभिक्खे (जिचू)। क्योंकि इसमें ९७ की गाथा का ही ५. महया (अ,ब), महई (अचू) । स्पष्टीकरण है तथा इस गाथा के उत्तरार्ध में ६. आयात ० (रा०)। स्पष्ट रूप से कहा है कि 'गुरुराह अत एव'। ७. इस गाथा का जिच में कोई उल्लेख नहीं है। भाष्यकार ही नियुक्तिकार के बारे में ऐसा ८. देमा (अचू)। उल्लेख कर सकते हैं। (देखें परि. १ ९. परियणस्स अप्पणो (रा)। गा. ११) १०. कालेण अट्ठाए (अ,ब,रा)। २. कारणे सुविहियाणं (जिचू), कारणा सुवि- ११. एत्य य समणसुवि ० (अचू), लत्थ समणा हियाणं (अचू)। तवस्सी (हा,रा)। ३. यह गाथा टीका में निगा के क्रम में व्याख्यात १२. एसंति (हा)। है। मुनि पुण्यविजयजी ने अचू में इसे निगा Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक १०५. नवकोडीपरिसुद्धं, उग्गम-उप्पायणेसणासुद्धं । छट्ठाणरक्खणट्ठा, अहिंस-अणपालणट्ठाए' ।। १०६. दिळेंतसुद्धि एसा, उवसंहारो य सुत्तनिट्टिो । संती विज्जती त्ति य, संति सिद्धिं च साहति ।। १०७. धारेइ तं तु दव्वं, तं दव्वविहंगमं वियाणाहि । भावे विहंगमो पुण, गुणसण्णासिद्धिओ दुविहो । १०८. विहमागासं' भण्णइ, गुणसिद्धी तप्पइडिओ लोगो। तेण उ विहंगमो सो, भावत्थो वा गई दुविहा ।। १०९. भावगई कम्मगई, भावगई पप्प अत्थिकाया उ । सव्वे विहंगमा खलु, कम्मगईए इमे भेया ।। ११०. विहगगई चलणगई, कम्मगई उ समासओ दुविहा । तदुदयवेयगजीवा, विहंगमा पप्प विहगगई ।। १११. 'चलणं कम्मगई खलु, पडुच्च संसारिणो भवे जीवा । पोग्गलदव्वाइं वा, विहंगमा एस गुणसिद्धी ।। ११२. सण्णासिद्धि पप्पा, विहंगमा होति पक्खिणो सव्वे । इहइं पुण अहिगारो, विहायगमणेहि' भमरेहिं ।। ११३. दाणेति दत्त गिण्हण, भत्ते भज-सेव फासुगेण्हणया । एसणतिगम्मि निरया, उवसंहारस्स सुद्धि इमा ।। ११४. अवि भमरमधुकरिगणा", अविदिण्णं आवियंति कुसुमरसं । समणा पुण भगवंतो, नादिण्णं भोत्तुमिच्छंति ।। १. टीकाकार हरिभद्र ने इस गाथा को कारेणाभ्यधायि (हाटी प ६९) का उल्लेख 'भिन्न कर्तृ की' माना है। दोनों चूणियों में किया है। इन उल्लेखों से यह तो स्पष्ट है यह नियुक्ति गाथा के क्रम में व्याख्यात है। कि हरिभद्र के समक्ष ये गाथाएं नियुक्तिगाथा यह गाथा मूलाचार में भी है। हमने इसे के रूप में प्रसिद्ध थीं। चूणि में इन गाथाओं निगा के रूप में स्वीकृत किया है। का उल्लेख न होने का कोई स्पष्ट कारण २. १०६-१३ की गाथाओं का दोनों चूणियों में प्रतीत नहीं होता। कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु टीकाकार हरि- ३. विजहाति विमुञ्चति जीवपुद्गलानिति विहं भद्र ने नियुक्ति गाथा के रूप में इनकी व्याख्या की है। गा. १०६ की व्याख्या में ४. चलनं कम्मगइं (ब,हा)। टीकाकार कहते हैं--चोक्तं नियुक्तिकारेण ५. विहासग ० (हा)। संति विज्जति त्ति य (हाटी प६८) तथा ६. दाणिति (अ), दाणे त्ति (ब)। १०७वीं गाथा के प्रारंभ में भी--अवयवा) ७. ० महुयरगणा (हा, रा), सूत्रस्पशिकनियुक्त्या प्रतिपादयति (हाटी प ८. आदियंति (जिचू)। ६८) १०८वीं गाथा के बारे में भी नियुक्ति Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकालिक नियुक्ति ११५. ११६. ११७. जह दुमगणा उ तह नगर जणवया पयण पायणसभावा । जह भमरा तह मुणिणो, नवरि' 'अदत्तं न भुंजंति५ ।। कुसुमे सभावपुष्फे, आहारंति भमरा जह तहेव" । भत्तं सभावसिद्धं, समणसुविहिता गवेसंति ॥ उवसंहारो भमरा, जह तह समणा वि अवधजीवि त्ति । दंत त्ति पुण पदम्मी, 'णातव्वं वक्कसेस मिणं' ।। 'जह एत्थ चेव इरियादिएसु सव्वम्मि दिक्खियपयारे । तस थावरभूय हियं, जयंति सभावि साहू || १२०।१. उवसंहारविसुद्धी, एस समत्ता उ निगमणं तेणं । वुच्चति साहुणोति य, जेणं ते महुयरसमाणा " ॥ १२०।२. तम्हा दयाइगुणसुट्ठिएहि भमरोव्व अवहवित्तीहि । साहूहि साहिउ त्ति, उक्किट्ठ मंगलं धम्मो || १२० । ३. निगमणसुद्धी तित्यंतरा वि धम्मत्थमुज्जया विहरे । भण्णइ कायाणं ते, जयणं न मुणंति न कुणंति" ॥ १२०।४. न य उग्गमाइसुद्धं भुजंती महुयरा वऽणुवरोही | नेव य तिगुत्तिगुत्ता, जह साहू निच्चकालं पि ॥ ११८. ११९. १२०. असंतेहिं' भमरेहि, जदिसमा संजता खलु भवंति । एयं उवमं किच्चा, नृणं अस्संजता समणा || उमा खलु एसकता, पुव्वुत्ता देसलक्खणो वयणा' । अणितवित्तिनिमित्तं, अहिंसअणुपालद्वाए ॥ १. अस्संज ( अचू ), अस्संजएहिं (हा ), असंज ० एहि (जिचू ) । २. एवं (हा, अ ) । ३. तृतीयार्था चेह पंचमी (हाटी प ७३) ४. वर (जिचू ) | ५. अदिण्णं न गेव्हंति (अचू ) । ६. सहावफुल्ले (हा, ब ) । ७. तहा उ ( हा) । दत्त (अब), दंति (अ) 1 ८. ९. णायव्वों वक्कसेसोऽयं (हा ) । १०. जो एत्येवं (जिचू ) । ११. १२० १-४ ये चार गाथाएं हाटी में निगा के क्रम में प्रकाशित हैं । किन्तु दोनों चूर्णियों में ३३ इन गाथाओं का कोई संकेत नहीं मिलता । इन गाथाओं में उपसंहार विशुद्धि और निगमनशुद्धि का उल्लेख है । ये गाथाएं व्याख्यात्मक हैं, अतः भाष्य की होनी चाहिए क्योंकि नियुक्तिकार प्रायः इतने विस्तार से किसी भी विषय की व्याख्या नहीं करते । तथा इन चार गाथाओं को नियुक्ति के क्रम में न रखने पर भी विषयवस्तु की क्रमबद्धता में कोई अंतर नहीं आता । (देखें परि १ गा. १३-१६) १२. ० तरी ( रा ) । १३. करेंति ( रा ) । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ नियुक्तिपंचक १२१. कायं वायं च मणं च, इंदियाइं च पंच दमयंति' । धारेंति बंभचेरं, संजमयंती कसाए य ।। १२२. जं च तवे उज्जुत्ता, तेणेसिं साधुलक्खण' पुण्णं । तो साधुणो त्ति भण्णंति, साहवो निगमणं चेयं ।। १२३. ते उ 'पतिण्ण-विभत्ती', हेउ-विभत्ती विवक्खपडिसेहो । दिलैंतो आसंका, तप्पडिसेहो निगमणं च ॥ १२३३१. धम्मो मंगलमुक्किट्ठ ति, पइण्णा अत्तवयणनिद्देसो । सो य इहेव जिणमए, नन्नत्थ पइण्णपविभत्ती ।। १२३१२. सुरपूइओ त्ति हेऊ, धम्मद्राणे ठिया उ जं परमे। हेउविभत्ती निरुवहि, जियाण अवहेण य जियंति ।। १२३।३. जिणवयणपदुढे वि हु, ससुराईए अधम्मरुइणो वि । मंगलबुद्धीइ जणो, पणमइ आई दुयविपक्खो ।। १२३।४. बितियदुयस्स विवक्खो, सुरेहिं पुज्जति 'जण्णजाई वि'"। बुद्धाई वि सुरनया, वुच्चंते१२ णायपडिवक्खो ।। १२३॥५. एवं तु अवयवाणं, चउण्ह पडिवक्खु पंचमोऽवयवो। एत्तो छट्ठोऽवयवो, विवक्ख पडिसेह तं" वोच्छं ।। १२३।६. सायं समत्त पुमं, हास-रई आउनामगोयसुहं । धम्मफलं आइदुगे, विवक्खपडिसेह मो१४ एसो।। १. दमइंति (हा)। कहते हैं कि- 'व्यासार्थं तु प्रत्यवयवं वक्ष्यति २. व्यंति (रा, हा)। ग्रंथकार एव' इस वाक्य से यह स्पष्ट होता है ३. साहू ० (अ, ब, हा)। कि भाष्यकार ने गा. १२३ की व्याख्या में ४. भन्नइ (अ, ब)। इन गाथाओं की रचना की हो। ये गाथाएं ५. साहुणो (रा)। निगा की नहीं होनी चाहिए क्योंकि नियुक्ति६. पइण्णविसुद्धी (जिचू)। कार किसी भी विषय की इतनी विस्तृत ७. ध्वं (ब)। व्याख्या नहीं करते। (देखें परि. १ गा. ८. पाठांतरं वा साध्यवचननिर्देश इति (हाटी १७-२७)। १०. बीय ० (रा)। ९. १३३/१-११ ये ११ गाथाएं टीका में निगा ११. जहण्णजाईहि (रा)। के क्रम में व्याख्यात हैं किन्तु चूर्णि में इनका १२. वृत्तंते (अ)। कोई संकेत नहीं मिलता। गा. १२३वीं गाथा १३. गं (रा)। की व्याख्या ही इन ११ गाथाओं में की गई १४. मो इति निपातो वाक्यालंकारार्थे (हाटी प७८) है। १२३११ बी गाथा के प्रारंभ में टीकाकार Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिक नियुक्ति १२३।७. अजिइंदिय सोवहिणो, वधगा जइ ते वि नाम पुज्जति । अग्गी वि होज्ज सीओ, हेउविभत्तीण पडिसेहो || १२३।८. बुद्धाई उवयारे, पूयाठाणं जिणा उ सब्भावं । दिट्ठत डिस्सेहो, छट्टो एसो अवयवो १२३।९. अरहंत' मग्गगामी, दिट्ठतो साहुणो विसमचित्ता । पागरएसु गिहीसुं, एसंते अवमाणा १२४. १२३।१०. तत्थ भवे आसंका, उद्दिस्स जई वि कोरए पागो । तेण र विसमं नायं, वासतणा तस्स पडसे || १२३।११. तम्हा उ सुरनराणं, पुज्जत्ता मंगलं सया धम्मो । दसमो एस अत्रयवो, पइण्णहेऊ पुणो वयणं ॥ 'दुमपुप्पियनिज्जत्ती, समासओ वण्णिया विभासाए । जिण - चउदसपूवी', वित्थरेण कहयंति से अत्थं । णाम गियिव्वे अगिहियव्वम्मि चेव अत्थमि। जइयव्वमेव इयर जो, उवदेसो सो नयो नाम ।। सव्वेसि पि नयाणं, बहुविहवत्तव्वयं निसामेत्ता । तं सव्वनयविसुद्धं, जं चरणगुणट्टिओ साहू ।। दुमपुष्पियनिज्जुत्ती सम्मत्ता १२५. १२६. १. अरि ० ( अ ) । २. दुमपुफिया ए विभासा य (अचू, ब ) । ३. चोट्स ० ( अ ) | ४. अट्ठ (अचू, हा) । इस गाथा से स्पष्ट है कि यह गाथा भद्रबाहु प्रथम के बाद जोड़ी गई है । क्योंकि यदि वे स्वयं लिखते तो 'जिण उद्दeyoवी वित्थरेण कहयंति से अत्थं, ऐसी बात नही कहते। यह गाथा हाटी में नहीं मिलती। णिज्जुत्तिसमासो वणिओ उ ।। उ ॥ ३५ ५. इति ( अ, ब ) । ६,७. देखें अनुद्वा ७१५ ५, ६ ये दोनों गाथाएं प्रायः सभी अध्ययनों के अंत में संकेत रूप में मिलती हैं । लेकिन सभी स्थलों पर इनको नियुक्ति गाथा के क्रम में नहीं जोड़ा है। जहां चूर्णि - टीका या आदर्शो में पूरी गाथाएं दी हुई हैं वहीं हमने इनको नियुक्ति गाथा संख्या के क्रम में जोड़ा है । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ १. २. १२७. सामण्णपुव्वगस्स' तु', निक्खेवो होइ नामनिप्फन्नो । सामण्णस्स चउक्को, तेरसगो पुव्वगस्स भवे ॥ १२८. समणस्स उ निक्खेवो, चउव्विहो' होति' आणुपुवीए । दव्वे सरीर भविओ, 'भावेण उ५ संजो समणो ॥ १२९. जह मम न प्रियं दुक्खं, जाणिय एमेव सब्वजीवाणं । तिन हणावेति य सममणई' तेण सो समणो" ।। १३०. नत्थि 'य सि कोई वेसो, पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होति समणो, एसो अन्नो वि पज्जाओ" ।। १३१. तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ न होति पावमणो । सयणे यजणे य समो, समो य माणाव माणेसु" ।। १२ १३२. उरग - गिरि-जलण- सागर नभतल - तरुगणसमो 'य जो " होइ । भमर-मिग-धरणि जलरुह - रवि-पवणसमो 'य सो१४ समणो १५ ।। १३३. विस- तिणिस - वात" - वंजुल, कणियारुप्पल समेण" समणेणं । भमरुंदर - नड- कुक्कुड, अद्दा समेण भवितव्वं ॥ १३४. पव्वइए अणगारे, पासंडी परिवायए य समणे, • पुव्वयस्स (जिचू ) । = (ET) | ३. चउक्कओ (हा ) । 8. ETE (ET) I ५. भावे उण (जिचू ) । ६. समं अणइ ( ब ) सम अणए ( रा ) । ७. अनुद्वा ७०८३, विभा ३३१५ । ८. से कोति ( अचू), सि तस्य (हा ) । ९. वेस्सो ( विभा) 1 १०. अनुद्वा ७०८२६, आवनि ८६८, विभा ३६१६ । ११. अनुद्वा ७०८|४, आवनि ८६७, विभा ३३१७ । १२. गगण ( अचू), नहयल ( रा ) । १२. जड़ (अ) । चरक तावसे भिक्ख । निग्गंथे संजते मुते ॥ निर्युक्तिपंचक १४. जओ (हा), यतो ( अ, रा, अचू) 1 १५. अनुद्वा ७०८५ | १६. वाउ (अचू), वाउ (जिचू ) । १७ कणवीरु ० ( अचू ) । १८. होयव्वं (हा ) होइव्वं ( रा ) यह गाथा दोनों चूर्णियों में नियुक्तिगाथा के रूप में व्याख्यात है । टीकाकार ने इस गाथा की व्याख्या तो की है किन्तु 'इयं किल गाथा भिन्नकर्तृकी अतः पवनादिषु न पुनरुक्तदोष : ' - ऐसा उल्लेख किया है । यह गाथा सभी हस्तप्रतियों में मिलती है। हमने इसे निगा के क्रम में रखा है । १९ पाडे (हा ) | २०. परिवाइए (हा), परिश्वायओ (जिचू ) । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकालिक नियुक्ति १३५. 'तिणे ताई दविए", मुणी य खंते य दंत विरए य । लूहे तीरट्ठी'ऽवि य, हवंति समणस्स नामाई || १३६. नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले' दिसि ताव खेत्ते य । पण्णवग पुव्ववत्थू, पाहुड-अइपाहुडे भावे ।। १३७. नामं ठवणाकामा दव्वकामा य भावकामा य। एसो खलु कामाणं, 'निक्खेबो चउविहो होइ ६ ।। १३८. सद्द-रस-रूव-गंधा, फासा उदयंकरा य जे दव्वा । दुविधा य भावकामा, इच्छाकामा ® मदणकामा || १३९. इच्छा पसत्थमपसत्थिगा य मयणम्मि 'वेद उवओगो' । हिगारो तस्स उ, वदंति धीरा निरुत्तमिणं ।। १४०. विसयसुहेसु पसतं, अबुहजणं कामरागपडिबद्धं । उक्कामयंति जीवं", धम्मातो तेण ते कामा ।। १४१. अन्नं पि य सिं" नामं, कामा रोग त्ति पंडिया बेंति । कामे पत्थमाणो रोगे, पत्थेति खलु जंतू ॥ १४२. नामपदं ठवणपदं दव्वपदं चेव होति भावपदं । एक्क्कं पि य एत्तो, णेगविहं होति नायव्वं ॥ १४३. 'आउट्टिम उक्कण्णं २, ओणेज्जं पीलियं १४ च रंगं च । थिम - वेढिम- पूरिम-वातिम संघातिमं छेज्ज १५ ।। १४४. भावपदं पि य दुविहं, अवराहपदं च नो य अवराहं । 'दुविहं नोअवराहं माउग नोमाउगं चेव ॥ १. तिष्णो ताती या (जिचू), तिष्णे णेया दविए (अचू ) । २. तीरट्ठे (हा ) । ३. काल (अचू ) । ४. पव्ववग ( रा ) । ५ ब प्रति में यह गाथा नहीं मिलती । इस गाथा के बाद जिचू में 'दव्वपुव्वयं गाहा' मात्र इतना ही उल्लेख मिलता है तथा इसकी व्याख्या भी मिलती है । किन्तु इस गाथा का संकेत किसी भी आदर्श में नहीं मिलता। टीका और अचू में भी यह निर्दिष्ट नहीं है । ६. चव्विहो होइ णिक्खेवो ( अ, रा) । ७. ० कामा य (जिचू ) । ८. पसत्था अपसत्थाय (जिचू), • मपसत्थगा (अ), अनुस्वारोऽलाक्षणिक : (हाटी प ८६ ) । ९. वेदमुव ० ( अ, ब, अचू) । १०. अन्ये पठन्ति - उत्क्रामयन्ति ३७ यस्मादिति (हाटी प८६) । ११. य से (अ, ब, अचू, हा) । १२. आओडिममुक्किण्ण ( अचू ) । १३ उणिज्जं (ब, जिचू), उण्णेज्जं (हा), उवणिज्जे ( रा ) । १४. पीलिमं ( अ, हा) । १५. संघाइमच्छेज्जं (ब, हा) । १६. नोअवराहं दुविहं (रा, हा) । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ १४५. १४६. १४७. १४८. १४९. १५०. १५१. १५१।१. अट्ठारस उ सहस्सा, १५२. नोमाउगं पि दुविहं, गहियं च पइण्णगं च बोधव्वं । गहियं चउप्पयारं, पइण्णगं होइ णेगविहं' || गज्जं पज्जं गेयं, चुण्ण च चउव्विहं तु गहियपदं तिसमुद्वाणं सव्वं इति बेंति सलक्खणा कइणो ।। मधुरं हेतुनिजुत्तं', गहितमपादं विरामसंजुत्तं । अपरिमियं चवसाणे, कव्वं गज्जं ति नायव्वं ।। पज्जं तु होति तिविहं, सममद्धसमं च नाम विसमं च । पाएहि अक्खरेहि य एव विहण्णू कवी बेंति ।। तंतिसमं 'वण्णसमं, तालसमं " गहसमं लयसमं च । कव्वं तु होइ गेयं, पंचविहं गेयसण्णाए || अत्थबहुलं महत्थं, उनिवाओवसग्गगंभीरं । बहुपायमवोच्छिन्नं गम-णयसुद्धं च चुण्णपदं ॥ इंदिविस - कसाया, परीसहा" 'वेयणा पमादा य" । एत्ते अवराहपया, जत्थ विसीयंति दुम्मेहा ॥ सीलंगाणं जिणेहिं पण्णत्ता । तेसिं" परिरक्खणट्ठा", अवराहपयाणि "वज्जेज्जा" ।। जोगे करणे सण्णा, इंदिय-भोमादि समणधम्मे य । सीलिंगसहस्साणं, अट्ठारसगस्स निष्पत्ती " ॥ सामण्णपुण्यगनिज्जुत्ती सम्मत्ता ७. बहुपयम ० ( अचू) । ८. तु ( रा ) 1 ९. विसया (जि) | ० १. इस गाथा का संकेत दोनों चूर्णियों में नहीं है किन्तु भावार्थ है । यह अधिक संभव लगता है। कि लिपिकर्ताओं द्वारा इस गाथा का संकेत छूट गया हो अथवा स्वयं चूर्णिकार ने ही सरल समझकर इसका संकेत न दिया हो, अन्यथा विषय और क्रमबद्धता की दृष्टि से यह प्रासंगिक लगती है । अतः यह निर्युक्तिगाथा ही होनी चाहिए। मुनि पुण्यविजयजी ने इसे निगा नहीं माना है । २. इय ( रा ) । ३. ० निउत्तं (अ, रा, अचू) । ४.पि ( अचू, जिचू ) । ५. तालसमं वण्णसमं ( अ, रा, हा) । ६. गीयसन्नाए ( अ, हा) । १०. ० सहे (रा) । ११. वेयणा य उवसग्गा (रा, जिचू, हा) । १२, सि ( अ ) । १३. पडिर ० नियुक्तिपंचक (हा) । १४. ० प उ ( हा) । १५. यह गाथा दोनों चूर्णियों में संकेतित नहीं है किन्तु चूर्णि में इस गाथा का भाव एक वाक्य में निर्दिष्ट है । यह भाष्य की गाथा होनी चाहिए । १६. उप्पत्ती (अचू, जिचू), पंवगा ११६३ । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति १५३. नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले पहाण पइभावे । एएसि महंताणं, पडिवक्खे खुड्डया होति ।। १५४. पतिखुड्डएण पगतं, आयारस्स तु चतुक्कनिक्खेवो। नाम ठवणा दविए, भावायारे य बोधव्वे' ॥ १५५. नामण-धोवण-वासण-सिक्खावण सुकरणाऽविरोधीणि । दव्वाणि जाणि लोए, दव्वायारं वियाणाहि' ।। १५६. दंसण-नाण-चरित्ते , तव आयारे य वीरियायारे । एसो भावायारो, पंचविहो होइ नायव्यो ।। १५७. निस्संकिय-निक्कंखिय, निग्वितिगिच्छा 'अमूढदिट्ठी य'। उववूह-थिरीकरणे, वच्छल्ल-पभावणे अट्ठ। १५७।१. 'अइसेस इड्डियायरिय, वाइ-धम्मकहि'६ खमग-नेमित्ती। विज्जा रायागणसम्मता, य तित्थं पभाति ।। १५८. काले विणए 'बहुमाणे, उवधाणे'६ तहा अनिण्हवणे । वंजण-अत्थ-तदुभए, अट्ठविधो नाणमायारो' । १५९. पणिधाणजोगजुत्तो, पचहि समितीहि 'तिहि य'१२गुत्तीहि । एस चरित्तायारो. अट्ठविहो होइ नायव्वो" ॥ १६०. बारसविहम्मि वि तवे, सबिभतरबाहिरे कुसलदिठे । अगिलाइ" अणाजीवी, नायव्वो सो तवायारो५ ।। १. बोद्धव्वे (अचू, हा)। द्वार की व्याख्या रूप है। यहां यह प्रसंगवश २. होवण (अचू), धावण (ब, रा, हा)। लिपिकारों द्वारा लिख दी गई है। यदि यह ३ निभा ६ । नियुक्ति की मानें तो नियुक्तिकार केवल एक ४. चरित्तं (जिचू)। ही द्वार की व्याख्या क्यों करते? शेष सभी ५. ० दिट्ठि य (निभा २३) । द्वारों की व्याख्या भी करते। इस गाथा को ६. इड्ढि धम्मकहि-वादि-आयरिय (निभा ३३)। निगा के क्रम में नहीं माना है। ७. रायगणसम्मया (हा)। ९. ० माणोवहाणे (रा)। ८. इस गाथा का दोनों चूर्णियों में कोई उल्लेख १०. तह य (हा)। नहीं है। टीका में यह नियुक्तिगाथा के क्रम में ११. मकार अलाक्षणिकः निभा ८ । प्रकाशित है। मूलतः यह गाथा निशीथभाष्य १२. तिहिं य (अ, निभा), तीहिं (ब, रा)। (गा. ३३) की है। वहां निस्संकिय (१५७) १३. निभा ३५ । द्वारगाथा के प्रत्येक द्वार की विस्तृत व्याख्या १४. ० लाए (निभा, अच)। की गई है। १५७।१ गाथा आठवें प्रभावना- १५. निभा ४२, पंकभा १२१४, तु पंवगा ५६२ । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियक्तिपंचक १६१. अणिग्रहितबलविरिओ, परक्कमति जो जहुत्तमाउत्तो' । जुंजइ य जहत्थाम, नायव्वो वीरियायारो' ।। अत्थकहा कामकहा, धम्मकहा चेव मीसिया य कहा। एत्तो एक्केक्का वि य, णेगविहा होइ नायव्वा ।। १६३. विज्जा-सिप्पमुवाओ, अणिवेओ संचओ य दक्खत्तं । सामं दंडो भेओ, उवप्पयाणं च अत्थकहा ।। १६३।१. सत्थाहसुओ, दक्खत्तणेण सेट्ठीसुओ य रूवेणं । बुद्धीए अमच्चसुओ, जीवइ पुण्णेहि रायसुओ ।। १६४. दक्खत्तणगं° पुरिसस्स, पंचगं सइकमाहु' सुंदेरं । बुद्धी पुण साहस्सा, सयसहस्साइं पुण्णाई ।। रूवं वयो य वेसो, दक्खिण्ण१२ सिक्खियं च विसएसुं । दिट्ठ सुयमणुभूय, च संथवो चेव कामकहा। १६. धम्मकहा बोधव्वा, चउव्विहा धीरपरिसपण्णत्त अक्खेवणि विक्खेवणि, संवेगे चेव निव्वेगे" ।। १६७. आयारे ववहारे, पण्णत्ती चेव दिट्ठिवाए य । एसा चउन्विहा खलु, कहा उ अक्खेवणी होइ४ ॥ १६८. विज्जा चरणं च तवो५, पुरिसक्कारो य समिति-गुत्तीओ। उवदिस्सइ खलु जहियं, कहाइ अक्खेवणीइ रसो ।। १.० तमुवउत्तो (रा)। न कर मात्र संकेत करते हैं। अगली गााया २. जहाथामं (अ, अचू, हा)। से भी कथानक समझा जा सकता है । ३. निभा ४३, तु. पंकभा ११३६, मूला. ४१३ । १०. ० गये (जिचू), ० णयं (हा)। ४. एव (जिचू)। ११. सयग ० (अ)। ५. मिस्सिया (अ, ब)। १२. दक्खत्तं (हा)। ६. सिप्पे उवाओ (जिचू)। १३. निव्वेगो (ब), निव्वेए (अचू), तु. ठाणं ७. अणुप्प ० (ब)। ४।२४६ । ८. बुद्धीएँ (हा, रा)। १४. यह गाथा अचू में व्याख्यात है लेकिन गाथा ९. इस गाथा की कथा दोनों चूणियों में उपलब्ध के रूप में इसका उल्लेख नहीं है। जिचू, है। मुनि पुण्यविजयजी ने इसे नियुक्तिगाथा टीका और सभी हस्त आदर्शों में यह गाथा के रूप में स्वीकृत नहीं किया है। हस्तप्रतियों नियुक्तिगाथा के क्रम में मिलती है। में यह गाथा मिलती है किन्तु ऐसा संभव है तु. ठाणं ४।२४७ । कि चूणि की कथा के आधार पर यह गाथा १५. ततो (अचू)। टीका में बाद में जोड़ दी गई हो। नियुक्तिकार १६. पुरिसाकारो (रा)। इतने विस्तार से किसी भी कथा का उल्लेख Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति १६९. कहिऊण ससमयं तो कहेइ परसमयमह विवज्जासो' । मिच्छा 'सम्मावाए, एमेव हवंति दो भेया'२ ॥ १७०. जा ससमयवज्जा खलु, होइ कहा लोगवेयसंजुत्ता । परसमयाणं च कहा, एसा विक्खेवणी नाम ।। १७१. जा ससमएण पुट्वि, अक्खाया तं छुभेज्ज परसमए । परसासण वक्खेवा, परस्स समयं परिकहेति ।। १७२. आय-पर सरीरगया, इहलोए चेव तह य परलोए । एसा चउव्विहा खलु, कहा उ संवेयणी होइ ।। १७३. वीरिय विउव्वणिड्डी, नाण-चरण-दसणाण तह इड्डी । उवदिस्सइ खलु जहियं, कहाइ संवेयणीइ रसो।। १७४. पावाणं कम्माणं, असुभविवागो कहिज्जए जत्थ । इह य परत्थ य लोए, कहा उ निव्वेयणी नाम ।। १७५. थोवं पि पमायकयं, कम्म साहिज्जए जहिं नियमा। पउरासुहपरिणाम", कहाइ निव्वेयणीइ रसो१२ ।। १७६. सिद्धी य देवलोगो, सुकुलुप्पत्ती य होइ संवेगो। नरगो तिरिक्खजोणी, कुमाणुसत्तं च निव्वेओ" ।। १७७. वेणइयस्स पढमया, कहा उ अक्खेवणी कहेतव्वा । तो ससमयगहितत्थे, कहेज्ज विक्खेवणि पच्छा ।। १. विवच्चासा (हा)। ५. विउव्वणड्ढी (ब)। २ • वाओ एवं वि य हुंति (अ), ६. दंसणस्स (अचू)। • एवं वि य होइ च भेओ (ब), १६९-१७२ ७. संवेइणी (ब)। तक की गाथाओं की व्याख्या जिच में उप- ८. अहिज्जए (ब)। लब्ध है लेकिन गाथाओं का उल्लेख नहीं है। ९. तु. ठाणं ४।२५० । अचू में भी १६९ तथा १७२ गाथा की १०. ० ज्जई (रा,हा)। व्याख्या है, पर गाथाओं का उल्लेख नहीं है। ११. वहुयासुह ० (अ,ब,रा)। टीका और सभी आदर्शों में ये गाथाएं उप- १२. इस गाथा का दोनों चणियों में कोई उल्लेख लब्ध हैं। विषयवस्तु की दृष्टि से ये गाथाएं नहीं है। किन्तु टीका और आदर्शों में यह पूर्वापर की गाथाओं से जुड़ी हैं, अतः इनको गाथा मिलती है। यहां यह गाथा विषयवस्तु निगा के क्रम में जोड़ा है। की दृष्टि से भी प्रासंगिक लगती है। तु. ठाणं ४।२४८ । १३. जिच में इस गाथा का कोई संकेत नहीं है। ३. सरीरम्मी (अ,ब,रा)। १४. ० वणी (अचू, हा)। ४. नाम (ब,रा), तु. ठाणं ४।२४९ । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक १७८. अक्खेवणि' अक्खित्ता, जे जीवा ते लभंति सम्मत्तं । विक्खेवणीऍ भज्ज, गाढतरागं च मिच्छत्तं ।। १७९. धम्मो अत्थो कामो, उवइस्सइ जत्थ सुत्तकम्वेसु । लोगे वेदे समए, सा उ कहा मीसिया नाम ।। १८०. इत्थिकहा भत्तकहा रायकहा चोर-जणवयकहा य । नड-नट्ट जल्ल-मुट्ठिय कहा उ एसा भवे विकहा ।। १८१. एता चेव कहाओ५, ‘पण्णवग परूवर्ग'६ समासज्ज । अकहा कहा य विकहा 'व होज्ज' पुरिसंतरं पप्प ।। १८२. मिच्छत्तं वेदंतो, 'जं अण्णाणी कह' परिकहेति । लिंगत्थो व गिही वा, सा अकहा देसिया समए ।। १८३. तव संजम गुणधारी, जं चरणरया कहेंति सब्भाव । सव्वजगज्जीवहियं, सा उ कहा देसिया समए । १८४. जो संजतो" पमत्तो, रागद्दोसवसगओ परिकहेइ । सा उ विकहा पवयणे, पण्णत्ता धीरपुरिसेहिं ।। १८५. सिंगाररसुत्तइया१२ मोहकुवित फुफुगा" हसहसंती । जं सुणमाणस्स कहं, समणेण न सा कहेयव्वा ।। १८६. समणेण कहेतव्वा, तव-नियम-कहाविरागसंजुत्ता। जं सोऊण मणुस्सो५, वच्चइ संवेगनिव्वेद६ ।। १८७. अत्थमहंती वि कहा, अपरिकिलेसबहुला'कहेतव्वा । हंदि६ महया चडगरत्तणेण अत्थं कहा हणइ२ ।। . १. ० वणी (हा)। ११. संजमो (जिचू)। २. जिचू में इस गाथा का कोई उल्लेख नहीं है। १२. ० रसुग्गुतिया (अचू), • रसुत्तुइया (रा), ३. जिचू में इस गाथा के स्थान पर मीसिया • रसुत्तरिया (अ)। कहा-लोइय वेइय गाहा---ऐसा उल्लेख है। १३. फुफगा (अ), फंफेगा (रा)। ऐसा प्रतीत होता है कि पश्चार्द्ध गाथा का १४. सहासिंति (हा), हसहसेंति (अचू), • हसिंती 'लोगे वेदे' के स्थान पर यह पाठ रहा है। (रा)। ४. य (रा)। १५. मणूसो (अ, ब)। ५. कहातो (अचू)। १६. • निव्वेगं (अचू)। ६. पण्णवयपरूवगे (हा)। १७. व (अ,ब)। ७. व (अचू)। १८. अपरिक्स ० (अच, अ)। ८. हविज्ज (हा), व हुज्ज (अ)। १९. हंति (ब)। ९. अन्नाणी जं कहं (अ,रा)। २०. कहइ (ब)। १०. चरणत्थ (हा)। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति १८८. 'खेत्तं कालं पुरिसं'', सामत्थं चऽप्पणो वियाणेत्ता। समणेण उ अणवज्जा, पगयम्मि कहा कहेयव्वा ।। खुड्डियायारकहानिज्जुत्ती सम्मत्ता १८९. जीवाऽजीवाभिगमे', चरित्तधम्मो तहेव जयणा य । - उवएसो धम्मफलं, छज्जीवणियाइ अहिगारा ।। १९०. छज्जीवणिकाए खलु, निक्खेवो होइ नामनिप्फन्नो । एएसि तिण्हं पि उ, पत्तेय परूवणं वोच्छं ।।दारं।। १९१. नामं ठवणा दविए, माउगपद संगहेक्कए चेव । पज्जव-भावे य तहा, सत्तेते एक्कका होति ।। १९२. नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो उ छक्कगस्सा, निक्खेवो छव्विहो होइ ।। १९३. जीवस्स उ निक्खेवो परूवणा लक्खणं च अस्थित्तं । अन्नाऽमुत्तत्तं निच्चकारगो" य देहवावित्तं ।।दारं।। १९४. गुणिउड्वगतित्ते१२ या निम्मयसाफल्लया य परिमाणे । जीवस्स तिविहकालम्मि परिक्खा होइ कायव्वा ।।दारं।। १९५. नामं ठवणाजीवो 'दव्वे जीवो'" य भावजीवो य । 'ओहे भवगहणम्मि' १४ य तब्भवजीवे य५ भावम्मि ।। १. खेनं देसं कालं (जिचू), देसं खेत्तं कालं (अचू)। २. व पुणो (ब)। ३. • वाहिगमो (हा, अचू)। ४. ० याए (अचू)। ५. य (अ,ब)। ६. यह गाथा यहां पुनरुक्त हुई है। (देखें दशनि ८. चउव्विहो (रा)। ९. अत्तामुत्तत्ते (अ,ब)। १०. ० कारए (अ,ब)। ११. ० बावित्ति (ब)। १२. ० उद्धगतित्ते (जिचू)। १३. दव्वजीवी (हा, रा, अचू)। १४. ओह भवग्गह ० (हा, अचू), ० भवगहणम्मी ७. छक्कगस्स उ (अ,ब,रा)। १५. उ (अ,ब)। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक १९६. संते आउयकम्मे, धरती तस्सेव जोवती उदए । ___ तस्सेव निज्जराए, मओ त्ति सिद्धो' नयमएणं ।। १९७. जेण य धरति भगवतो, जीवो जेण उ भवाउ संकमई। जाणाहि तं भवाउ, चउब्विहं तब्भवे दुविहं ।। १९८. दुविधा य होंति जीवा, सुहुमा तह बायरा य लोगम्मि। सुहुमा य सव्वलोए, दो चेव य बायरविहाणे ।। १९९. आदाणे परिभोगे, जोगुवओगे कसाय-लेसा य । आणापाण इंदिय, बंधोदय निज्जरा चेव ।।दारं।। २००. चित्तं चेयण सण्णा, विण्णाणं धारणा य बुद्धी य । ईहा मती वितक्का, जीवस्स उ लक्खणा एए ।।दार।। १. सिद्धा (अ)। २. १९६,१९७ इन दो गाथाओं के आगे टीका में 'भाष्यम्' (हाटी भागा ७,८) लिखा हुआ है। यद्यपि टीकाकार हरिभद्र ने अपनी व्याख्या में इन गाथाओं के भाष्य होने का कोई उल्लेख नहीं किया है किन्तु मुद्रित प्रति में इनको नियुक्तिगाथा के क्रम में नहीं जोड़ा गया है। आदर्शों में नियुक्ति और भाष्य की गाथा साथ में ही लिखी गयी है अत: उनके आधार पर निर्णय नहीं किया जा सकता। दोनों चूणियों में ये गाथाएं नियुक्तिगाथा के रूप में व्याख्यात हैं। विषयवस्तु और क्रमबद्धता की दृष्टि से भी ये नियुक्तिगाथा प्रतीत होती हैं। ३. ० मइ (अ)। ४. दुविहा (हा, अचू)। ५. प्रस्तुत गाथा के आगे टीका की मुद्रित प्रति में 'भाष्यम्' (हाटी भागा ९) लिखा है लेकिन यह गाथा नियुक्ति की है, उसके कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं (१) दोनों चूणियों में यह नियुक्ति गाथा के रूप में व्याख्यात है। (२) इससे अगली गाथा भाष्य की है, जिसको पढ़ने मात्र से स्पष्ट हो जाता है कि १९८ की गाथा भाष्य की न होकर नियुक्ति गाथा हैसुहुमा य सव्वलोए, परियावन्ना भवंति नायव्वा । दो चेव बायराणं, पज्जत्तियरे य नायव्वा ।। (हाटी प १२२) भाष्यकार प्रायः नियुक्ति की व्याख्या करते हैं। कहीं-कहीं पूरा चरण अपनी व्याख्या में ले लेते हैं, इसमें भी ऐसा ही है । (३) गा. १९३ और १९४ में जीव से संबं धित निक्षेप आदि १३ द्वारों का उल्लेख है। आगे सभी द्वारों की नियुक्तिकार ने संक्षिप्त व्याख्या की है, फिर इस प्ररूपणा द्वार की व्याख्या भी नियुक्तिकार की ही होनी चाहिए। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकालिक नियुक्ति २०१. सिद्ध जीवस्स अत्थित्तं, नासतो भुवि भावस्स, सद्दो भवति' २०२. मिच्छा भवेउ सव्वत्था, जे केई पारलोइया । कत्ता चेवोपभोत्ता य, जदि जीवो न विज्जई ।। सद्दादे वाणुमीयते । केवलो ॥ २०२।१. लोग सत्थाणि.... १. हवइ (हा, अ, ब ) 1 २. मुद्रित टीका की प्रति में गा. २०१,२०२ के आगे भी 'भाष्यम्' (हाटी प १२६) लिखा हुआ है। दोनों चूर्णियों में ये गाथाएं नियुक्ति के क्रम में व्याख्यात हैं । यह गाथा निम्न प्रमाणों के आधार पर नियुक्ति की प्रतीत होती है ( १ ) गा. १९३, १९४ में जीव के १३ द्वारों का उल्लेख है । निक्षेप, प्ररूपणा और लक्षण का वर्णन १९५-२०० तक की गाथाओं में हो गया अतः अब चौथे द्वार 'अस्तित्व' की व्याख्या इन दो गाथाओं में हुई है । ( २ ) गा. २०१ की अगली भाष्यगाथा में टीकाकार ने स्पष्ट लिखा है कि 'एतद्विवरणायैवाह भाष्यकार:' (हाटी प १२६) इससे स्पष्ट है कि २०१ गाथा निर्युक्ति की है और इसकी व्याख्या इस गाथा में भाष्यकार ने की है । ३. विज्जइ (हा, अ, ब ) । इस गाथा के आगे भी टीका में 'भाष्यम्' लिखा है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह 'भाष्यम्' टीका की मुद्रित प्रति में संपादक द्वारा लिखा गया 1 अन्यथा टीका की व्याख्या तथा हस्त आदर्शो में कहीं भी यह ४५ गाथा भाष्य गाथा के रूप में संकेतित नहीं है । इससे अगली गाथा स्पष्ट रूप से भाष्य की है क्योंकि भाष्य गाथा २९ (हाटी प १२७ ) की गाथा में २०२ की गाथा का अंतिम चरण 'जइ जीवो न विज्जई' पूरा चरण ले लिया है तथा २०२ की गाथा की ही व्याख्या की है । भाष्यकार की यह विशेषता है कि वे अनेक स्थलों पर नियुक्ति गाथा का पूरा चरण अपनी गाथा में ले लेते हैं । यदि २०२ की गाथा भाष्य की मानी जाये तो फिर भागा २९ (हाटी प १२७ ) की गाथा में भाष्यकार इतनी पुनरुक्ति नहीं करते । इस प्रमाण से चूर्णि की प्राचीनता के आधार पर हमने २०१,२०२ की गाथा को नियुक्ति गाथा के क्रम में रखा है । (देखें - १९६ तथा १९८ का टिप्पण) । ४. २०२ की गाथा के बाद दोनों चूर्णियों में केवल 'लोगसत्थाणि' इतना ही संकेत मिलता है। मुनि पुण्यविजयजी ने पूरी गाथा उपलब्ध न होने पर भी इसे नियुक्ति गाथा के क्रमांक में जोड़ा है । (गा. १३९ अचू पृ ६८ ) । यह किसी भी हस्तप्रति में नहीं मिलती अत: इसे निगा के क्रम में नहीं रखा है । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ २०३. 'लोइगा वेइगा" चेव, तहा सामाइया विऊ । निच्चो जीवो पिहो देहा, इति सव्वे ववत्थिया || गिज्झती कायसंसितो | गिज्झती' कायसंसितो || २०४. फरसेण जहा वाऊ, नाणादीहिं तहा जीवो, २०५. अणिदिगुणं जीवं, दुष्यं खुणा । सिद्धा पासंति सव्वण्णू, नाणसिद्धा य साहुणो ॥ २०६. कारण विभाग कारणविणास बंधस्स पच्चयाभावा । विरुद्ध अत्थस्सा ऽ पादुब्भावा ऽ विणासा यर । दारं ॥ १. लोइया वेइया (हा ) । २. ववट्टिया ( अ ) । इस गाथा का अचू में कोई उल्लेख नहीं है किन्तु जिचू में यह गाथा मिलती है। मुद्रित टीका की प्रति में इसके आगे 'भाष्यम्' लिखा है किन्तु यह नियुक्ति की गाथा है क्योंकि इसमें अन्यत्व नामक पाचवें द्वार की व्याख्या है तथा इससे अगली गाथा के प्रारंभ में टीकाकार ने स्पष्ट लिखा है कि एतदेव व्याचष्टे ( भा. ३१ हाटी प १२७) अर्थात् इसी गाथा की व्याख्या अगली भाष्यगाथा में की है । भाष्य की व्याख्या से भी वह गाथा स्पष्ट रूप से निर्युक्ति की प्रतीत होती है । भाष्य गाथा इस प्रकार हैलोगे अच्छेज्ज भेज्जो, वे सपुरीसदद्धगसियालो । समए ज्जह्मासि गओ, तिविहो दिव्वाइ संसारो ॥ ( भा. ३१ हाटी प १२७ ) ३. गिज्झई (हा), गेज्झती ( अचू ) । ४. २०४, २०५ की गाथा हाटी में भाष्यगाथा के निर्युक्तिपंचक क्रम में हैं किन्तु दोनों चूर्णियों में निर्युक्तिगाथा के रूप में व्याख्यात हैं । पिछली गाथाएं पूर्वलिखित प्रमाणों से तो निर्युक्तिगाथा हैं ही । साथ ही छंद रचना की दृष्टि से भी निर्युक्ति की सिद्ध होती हैं। टीका में २५, २८,३०,३३,३४ (हाटी प १२६, १२७ ) की गाथाएं भाष्यगाथा के क्रम में हैं । ये सभी श्लोक अनुष्टुप छंद में हैं । इनके अतिरिक्त अन्य सभी भाष्यगाथाएं आर्या छंद में हैं । इस प्रमाण से स्पष्ट है कि टीका की मुद्रित प्रति के आधार पर इनको भाष्यगाथा नहीं माना जा सकता । अतः इन पांच गाथाओं को ( २०१,२०५) हमने नियुक्तिगाथा माना है । ५. पिछली गाथाओं की भांति यहां भी गा. २०६ की व्याख्या में ११ भाष्य गाथाएं लिखी गयी हैं (भा. ३७-४७ हाटी प १२८१३१) । २०६वीं गाथा की व्याख्या में टीकाकार कहते हैं - " वक्ष्यति च नियुक्तिकारः जीवस्य सिद्धमेवं निच्चत्तममुत्तमन्नत्तं (गा. २४०) व्यासार्थस्तु भाष्यादवसेयः (हाटी प १२८) । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति २०७. निरामयाऽऽमयभावा', बालकयाणुसरणा दुवत्थाणा । सोताईहि' अगहणा, जातीसरणा थणभिलासा ।।दारं।। २०८. सव्वण्णुवदिद्वता, सकम्मफलभोयणा अमुत्तत्ता । जीवस्स सिद्धमेवं, निच्चत्तममुत्तमन्नत्तं ।।दार।। २०९. 'जीवस्स उ परिमाणं'८, वित्थरओ जाव लोगमेत्तं तु । ओगाहणा य सुहुमा, तस्स पदेसा असंखेज्जा ।। २१०. पत्थेण व कुडवेण' व, जह कोइ मिणेज्ज सव्वधन्नाई। एवं मविज्जमाणा, हवंति लोगा अणंता उ१ ।। २११. नामं ठवणसरीरे१२, गती निकायत्थिकाय दविए य । माउग-'पज्जव-संगह-भारे तह भाव-काए य ।। १. निरामय आमय ० (ब,रा)। क्योंकि गाथा १९३,१९४ में जीव के १३ २. दुवट्ठाणा (अचू)। द्वारों का उल्लेख है। उनमें प्राय: सभी द्वारों ३. सुत्ताईहिं (हा), सोयाईहि (अ,ब) । का नियुक्तिकार ने वर्णन किया है । कुछ द्वारों ४. अग्गहणं (जिचू)। का वर्णन भाष्यकार ने किया है। इसका ५. जाईसरणं (जिचू)। स्पष्ट उल्लेख टीका में मिलता है। २०९, 'प्रकृतसंबद्धामेव नियुक्तिगाथामाह' (हाटी २१० की गाथा में अंतिम द्वार 'परिमाण' प १३१) इस गाथा की व्याख्या में दो भाष्य- की व्याख्या है, अतः यह निगा होनी गाथाएं (४९.५० हाटी प १३२) लिखी गयी चाहिए। हैं। टीका के अनुसार भी--एतामेव नियुक्ति जिनदास चूणि में इस गाथा से पूर्व गाथां लेशतो व्याचिख्यासुराह भाष्यकार: 'एगस्स अणेगाण य' गाथा का संकेत है। यह (हाटी प १३२)। गाथा पूर्णरूप से किसी भी आदर्श में नहीं ६. ० भोयणं (जिचू)। मिलती है तथा हाटी और अचू में भी निर्दिष्ट ७. सिद्धिमेवं (अ)। नहीं है। ८. जीवत्थिकायमाणं (जिचू)। १०. कुलएण (हा,अ), कुलवेण (जिचू) । ९. २०९,२१० की गाथा टीका की मुद्रित प्रति ११. हाटी भागा ५७ । में भाष्यगाथा के क्रम में उपलब्ध है। लेकिन १२. ० सरीरी (रा)। अच में यह नियंक्तिगाथा के क्रम में व्याख्यात १३. संगह-पज्जव (अ)। है। यह गाथा नियुक्ति की होनी चाहिए Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ नियुक्तिपंचक २११।१. एगो कायो दुहा जातो, एगो चिट्ठति एगो मारितो। जीवंतो मएण मारितो, तं लव माणव ! केण हेतुणा' ?।। २१२. एत्थं पुण अधिकारो, निकायकायेण होति सुत्तम्मि । उच्चारितत्थ सदिसाण, कित्तणं सेसगाणं पि ।। दव्वं सत्थग्गि-विसं नेहंबिल-खार-लोणमाईयं । भावो तु दुप्पउत्तो, वाया काओ अविरई य ।। २१४. किंची सकायसत्थं, किंची परकाय-तदुभयं किंचि । एतं तु दव्वसत्थं, 'भावे य असंजमो' सत्थं ।। २१५. 'जोणिब्भूते बीए'६, जीवो वक्कमति सो व अन्नो वा । जोवि य मूले जीवो, सो 'वि य पत्ते पढमयाए । सेसं सुत्तप्फासं, काए काए अहक्कम बूया । अज्झयणत्था पंच य", पगरण-पद-वंजणविसुद्धा१२ ।। २१७. जीवाजीवाभिगमो, आयारो चेव धम्मपण्णत्ती। तत्तो चरित्तधम्मो, चरणे धम्मे य एगट्ठा ।। छज्जोवणियानिज्जुत्ती सम्मत्ता १. मुनि पुण्यविजयजी ने इस गाथा को नियुक्ति ५. आनि ९६,११४,१२४,१५० । गाथा के क्रम में रखा है। जिच में भी इस गाथा ६. बीए जोणिब्भूए (हा,अ,ब,रा)। का संकेत व व्याख्या मिलती है। टीकाकार ७. बुक्कमइ (हा), वकमइ (ब)। हरिभद्र ने 'वृद्धास्तु व्याचक्षते' ऐसा कहकर ८. य (हा)। इसे उद्धृत गाथा के रूप में प्रस्तुत किया है। ९. चिय (आनि १३८)। भाषाशैली की दृष्टि से यह गाथा नियुक्ति १०. इस गाथा की व्याख्या दो भाष्य गाथाओं में की प्रतीत नहीं होती तथा यह गाथा यहां की गयी है। (हाटी प १४०,१४१)। प्रासंगिक भी नहीं लगती। अधिक संभव है ११. उ (रा)। कि बाद के आचार्यों ने यह गाथा लिखी हो १२. यह गाथा मुद्रित टीका में भाष्यगाथा के क्रम जैसा कि हरिभद्र ने उल्लेख किया है। में तथा अचू में नियुक्ति गाथा के क्रम में है। २. सरिसाण (अ,ब)। हस्त आदर्शों में भी यह गाथा प्राप्त है। चूर्णि ३. आनि ३६ । के आधार पर इसे हमने भी निगा के क्रम में ४, भावे अस्संजमो (अचू, हा)। रखा है। (हाटी भागा ६०) Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकालिक नियुक्ति २१७११. पिंडो एसणा या, दुपयं नामं तु तस्स नायव्वं । चउचउनिक्खेवेहि, परूवणा तस्स कायव्वा' ।। २१८. नामं ठवणापिंडो, 'दव्वे भावे य होति णातव्वो । गुड' - ओदाइ' दव्वे, भावे कोहादिया चउरो ।। १२ २१८ ।१. पिडि संघाए जम्हा, ते संघाययति जीवं, २१८।२. दव्वेसणा उ तिविहा, दुपय- चउप्पय अपया, २१८ । ३. भावेसणा उ दुविहा, नाणाई पसत्था, एत्थं २१८।४. भावस्सुवगारित्ता, तीइ पुण अत्थजुत्ती, उइया संहया य संसारे । कम्मेणटुप्पगारेण ।। दारं ।। सच्चित्ताचित्त- मी सदव्वाणं । नर-गय-करिसावण- दुमाणं ।। पसत्थ - अपसत्थगा य नायव्वा । अपसत्था को हमादी || १. दोनों चूर्णियों में इस गाथा का कोई उल्लेख नहीं है । टीका में यह नियुक्ति गाथा के क्रमांक में है । इस गाथा से पूर्व टीका में भाष्य गाथा है । यह गाथा विषयवस्तु की दृष्टि से भाष्यगाथा के साथ जुड़ती है । यह निर्युक्ति की प्रतीत नहीं होती । क्योंकि नियुक्तिकार प्रायः 'णामं ठवणा' वाली गाथा से ही अध्ययन का प्रारंभ करते हैं । २. दव्वपिंडो य भावपिंडो य (जिचू, अ, ब ) | ३. गुल ( अ, ब, अचू, रा) । ४. ओयणाय ( अ, ब ) । ५. पिंडनियुक्ति में कुछ अंतर के साथ निम्न गाथा मिलती है नाम ठेवणाfपंडो, एसो खलु पिंडस्स उ, दव्वे खेतेय काल भावे य । दव्वेसणाइ अहिगारो । वत्तव्वा पिंडनिज्जुत्ती ॥ freat aforहो होइ ॥ (पिनि ५) ४९ ६. २१८१-४ तक की गाथाओं का दोनों चूर्णियों में कोई उल्लेख नहीं है । गा. २१८ के बाद दोनों चूर्णिकारों ने मात्र इतना संकेत किया है कि- 'नाम निष्फण्णे पिंडनिज्जुत्ती भाणियव्वा' (जिचू पृ. १६५) 'नाम निष्कण्णे fisनिज्जत्ती सव्वा' (अचू पृ. ९८ ) ये चार गाथाएं नियुक्ति की हैं या नहीं, यह विवादास्पद है । अन्य अनेक स्थलों पर टीकाकार 'आह निर्युक्तिकार : या आह भाष्यकार: ' उल्लेख करते हैं वैसा इन गाथाओं के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता । हमने इन्हें निगा के क्रम में नहीं रखा है । ये भाष्यगाथा ज्यादा संगत लगती हैं। फिर भी इनके बारे में गहन चिन्तन की आवश्यकता है । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० नियुक्तिपंचक २१९. पिंडेसणा य' सव्वा, संखेवेणोयरइ नवसु कोडीसु । न हणइ न पयइ न किणइ, कारावण -अणुमईहिं नव ।। २१९।१. सा नवहा दुह कीरइ, उग्गमकोडी विसोहिकोडी य । छसु पढमा ओयरई, कीय-तिगम्मी विसोही उ' । २२०. कोडोकरणं दुविहं, उग्गमकोडी विसोधिकोडी य । उग्गमकोडी छक्कं, विसोधिकोडी 'भवे सेसा ।। २२०११. कम्मुद्देसिय चरिम तिग, पूतियं मीस चरिम पाहुडिया । अझोयर अविसोही, विसोहिकोडी भवे सेसा ।। २२१. नव 'चेवट्टारसगं, सत्तावीसं'६ तहेव चउपण्णा । नउती दो चेव 'सता उ सत्तरा होंति' कोडीणं ।। २२१६१. रागाई मिच्छाई, रागाई समणधम्म नाणाई । नव नव सत्तावीसा, नव नउईए य गुणगारा।। "पिडेसणानिज्जुत्ती समत्ता १. उ (अ,ब)। ५. इस गाथा का भी चूणि में काई उल्लेख नहीं २. करावण (ब,रा)। है। यह गाथा २२० की व्याख्या में लिखी इस गाथा का भावार्थ दोनों चूणियों में गई है ऐसा संभव लगता है अतः यह भाष्यमिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि गा. गाथा होनी चाहिए। २१८ के बाद यह गाथा नियुक्ति की होनी ६. ० सगा सत्तावीसा (हा)। चाहिए क्योंकि चूणि में २१८ की गाथा के ७. नउई (हा,अ,ब,रा)। बाद केवल इसी गाथा की संक्षिप्त व्याख्या ८. सया सत्तरिया हुंति (हा), सया सत्तरी होति मिलती है। हमने इसको नियुक्तिगाथा के क्रम में संलग्न किया है। ९. इस गाथा की व्याख्या टीका और चुणि ३. इस गाथा का चूणि में कोई उल्लेख नहीं है। दोनों में नहीं मिलती। मुद्रित टीका के इस गाथा को हमने निगा के क्रम में सम्मि- टिप्पण में 'प्रतिभातीयं प्रक्षिप्तप्राया' ऐसा लित नहीं किया है। क्योंकि अगली गाथा में उल्लेख है फिर भी संपादक ने इसको नियुक्ति भी इसी गाथा का भाव प्रतिपादित हुआ है। गाथा के क्रमांक में जोड़ा है। यह गाथा ४. अणेगविहा (अ,रा)। हस्त आदर्शों में मिलती है किन्तु किसी भी इस गाथा की उत्थानिका में स्थविर व्याख्याकार ने इसको व्याख्यायित नहीं किया अगस्त्यसिंह ने 'एत्थ निज्जुत्तिगाहा' का है, इसलिए हमने इसको नियुक्तिगाथा के उल्लेख किया है। किंतु आचार्य हरिभद्र ने क्रम में संलग्न नहीं किया है। आदर्शों में तो इसे स्पष्ट रूप से भाष्य गाथा मानते हुए लिपिकारों द्वारा निर्यक्तिगाथा के साथ लिखा है-'एतदेव व्याचिख्यासुराह भाष्य- प्रसंगवश अन्य अनेक गाथाएं भी लिखी गयी कारः' (हाटी प १६२ भागा ६२) चालू हैं अतः उनको पूर्ण प्रामाणिक नहीं माना जा प्रसंग एवं पौर्वापर्य के औचित्य के आधार पर सकता। यह नियुक्ति की गाथा होनी चाहिए । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति २२२. 'जो पुम्वि" उद्दिट्ठो', आयारो सो अहीणमइरित्तो। _____ 'सा चेव' य होइ कहा, आयारकहाइ महईए । २२३. धम्मो बावीसतिविहो, अगारधम्मोऽणगारधम्मो य । पढमो य बारसविहो, दसहा पुण बितियओ होति ।। २२४. पंच य अणुव्वयाई, गुणव्वयाइं च होति तिन्नेव । सिक्खावयाइ चउरो, गिहिधम्मो बारसविहो उ ।। २२५. खंती य मद्दवऽज्जव, मुत्ती तव-संजमे य बोधव्वे । सच्चं सोचं अकिंचणं च, बंभं च जइधम्मो । २२६. धम्मो एसुवदिट्ठो, अत्थस्स चउव्विहो उ निक्खेवो । ओहेण छविहऽत्थो, चउसट्ठिविहो विभागेण ।। २२७. धन्नाणि रतण थावर, दुपद चउप्पद तहेव कुवियं च । ओहेण छविहऽत्थो, एसो धीरेहिं पण्णत्तो" ॥दारं।। २२८. 'चउवीसं चउवीसं१२, तिग-दुग-'दसहा अणेगहा चेवं''। 'सव्वेसि पि इमेसि', विभागमह संपवक्खामि ।। २२९. धन्नाणि५ चउव्वीसं११, जव-गोधुम'"-सालि-वीहि सट्ठीया'८। कोद्दव अणुका कंगू, रालग तिल मुग्ग मासा य२० ॥ १. जह चेव य (अचू), पुव्वं जधा य (जिचू)। १२. चउवीसा चउवीसा (हा, जिचू, ब, रा)। २. निद्दिट्टो (रा)। १३. दसहा य होयणेगविहो (अचू) दसहा ३. सच्चेव (अ,ब,हा)। अणेगविधं (निभा) दसहा अणेगविह एव ४. ० कहाए (अचू)। ५. बावीसविहो (जिचू, हा, अ)। १४. ० विभागमहयं पवक्खामि (हा), एएसि तु ६. बीयओ (हा,अ,ब), बीइओ (रा)। पदाणं पत्तेयपरूवणं वोच्छां (अ,रा) तु. ७. ० वया य (अचू)। निभा १०२८ । ८. य (हा)। १५. धन्नाई (हा)। १६. चउवीसं (व)। १०. धण्णाइं (निभा)। १७. गोहुम (हा, अ, ब, निभा)। ११. तु. निभा १०२८ । निभा की १०२८ की गाथा १८. सट्रिया (निभा)। के दो चरण २२७ के पूर्वार्द्ध तथा दो चरण १९. अणया (निभा), अणुया (हा, अ, ब)। २२८ के उत्तरार्ध में आए हैं। २०. देखें-निभा १०२९ । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ नियुक्तिपंचक २३०. अतसि-हरिमंथ तिपुडग'-'निप्फाव सिलिंद" रायमासा य । इक्खू मसूर तुवरी५, कुलत्थ तह धन्नग कलाया ।।दारं।। २३१. रयणाणि चतुव्वीसं, 'सुवण्ण-तउ'-तंब-रयय-लोहाई। सीसग-हिरण्ण-पासाण-वइर'-मणि-मोत्तिय-पवालं ।। २३२. संखो तिणिसाऽगरु"-चंदणाणि वत्थाऽऽमिलाणि कट्टाणि। तह 'चम्म-दंत'" बाला, गंधा दव्वोसहाइं च ।।दारं।। २३३. 'भूमी घर-तरुगणा य४, तिविधं पुण थावरं मुणेयव्वं५ । चक्कार बद्ध माणुस, दुविधं पुण होति दुपयं तु६ ॥दारं।। २३४. गावी 'महिसी उट्टी'१७, अय-एलग-आस-आसतरगा य । घोडग-गद्दभ-हत्थी, 'चतुप्पदा होति दसधा तु'१६ ।।दारं।। २३५. नाणाविहोवकरणं, णेगविहं कुप्पलक्खणं होति । एसो अत्थो भणितो, छव्विह चतुसट्ठिभेओ उ" ।। २३६. कामो चउवीसतिहो२२, संपत्तो खलु तहा असंपत्तो। संपत्तो चउदसहा२२, दसहा पुण होयऽसंपत्तो । १. हरिमिथ (अचू), हिरिमंथ (निभा), हरि- भूमी घरा य तरुगण (हा)। __ मित्थ (रा)। १५. तु नायव्वं (अ, ब), समासेणं (निभा)। २. तिउडग (हा,ब)। १६. निभा १०३३ । ३. निप्फावऽलिसिंद (अचू), निफाव अलसिंद १७. उट्टी महिसी (निभा), ० उट्टा (हा, जिचू)। (निभा)। १८. गद्दह (हा, अ, ब)। ४. आसुरि (अचू)। १९. चउप्पयं होति दसहा उ (अचू, हा) निभा ५. तुयरी (रा)। १०३४ । ६. धाणग कलाय (निभा १०३०)। २०. ० वगरण (हा, अ, ब, जिच)० विहसुवगरणं ७. ० णाई (अचू), • णाइ (निभा, ब)। (रा)। ८. चउवीसं (जिचू)। २१. य (अ,ब), निभा (१०३५) में यह कुछ अंतर ९. सुवण्ण-तवु (निभा)। के साथ मिलती है१०. वयर )अ), वेर (निभा १०३१)। णाणाविहं उपकरणलक्खण ११. संख (निभा), संखे (ब) । कुप्पं समासतो होति । १२. तिणिसो अगरु (अचू), तिणिसा गुरु (हा, चतुसट्ठिपडोगारा, __ जिचू), • अगुलु (निभा)। एवं भणितो भवे अत्थो । १३. दंत चम्म (निभा १०३२)। २२. चउवीसविहो (हा, अ, ब, रा)। १४. भूमि-घर-तरुगणादि (निभा), भूमीघरं तरु- २३. चोद्दसहा (अचू)। गणा (अचू), ० घराइं तरुगण (अ, ब, रा), Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति २३७. 'तत्थ असंपत्तऽत्थो", चिता तह सद्ध संभरणमेव । विक्कवय लज्जनासो, पमाय उम्माय तब्भावो' ।। २३८. मरणं च होइ दसमो, 'संपत्तं पि' य समासओ वोच्छं । दिट्ठीए संपातो, दिट्ठीसेवा य संभासो' ।। २३९. 'हसित ललितोऽवगूहित'६, 'नह' -दंत-निवाय-चुंबणं चेव। 'आलिंगण-आदाणं', 'करसेवणऽणंग-कीडा य'" ।। २४०. धम्मो अत्थो कामो, तिन्नेते" पिंडिता पडिसवत्ता। जिणवयणं ओतिण्णा२, असवत्ता होंति नातव्वा ।। २४०।१. जिणवयणम्मि परिणए, अवत्थविहि आणुठाणओ धम्मो। सच्छासयप्पयोगा, अत्थो वीसंभओ कामो" । २४१. धम्मस्स फलं मोक्खो, सासयमउलं सिवं अणाबाहं । तमभिप्पेया४ साहू, तम्हा धम्मत्थकाम त्ति ।। २४२. 'परलोगु मुत्तिमग्गो'१५, नत्थि हु'६ मोक्खो त्ति बेंति अविहिण्णू । सो अत्थि अवितहो'८, जिणवयम्मि पवरो न अन्नत्थ ॥ २४३. अट्ठारसठाणाई, आयारकहाइ जाइं२° भणियाई । तेसिं अन्नतरागं, सेवतो२१ न होइ सो समणो । १. तत्थासं० (अ, ब), • पत्तोऽत्थी (अचू)। १२. उत्तिन्ना (हा), ओइन्ना (अ)। २. संसरण ० (हा)। १३. इस गाथा का चूर्णिद्वय में कोई उल्लेख नहीं ३. तब्भावणा य (अचू, जिचू)। है। टीका तथा हस्तआदर्शों में यह उपलब्ध ४. संपत्तम्मि (अ, ब)। है । यह गाथा २४० की संवादी है। संभव है ५. २३७,२३८ की तुलना वात्स्यायन काम- यह बाद में जोड़ी गई हो। सूत्र से। १४. तमभिप्पिया (अच)। ६. हसिअ-ललिअ-उवगूहिअ (हा, जिचू), • ललि- १५. परलोग मुत्तिमंतो (अचू)। उव ० (ब)। १६. हि (ब)। ७. दंत नह (हा, अचू, रा)। १७. ते (अचू)। ८. होइ (हा, अचू)। १८. अवितहा (अचू)। ९. ० गणमायाणं (हा, अचू)। १९. पवरा (अच)। १०. करऽणंग अणंगकिड्डा य (अचू) ० सेवण संग- २०. जा य (रा)। किड्डा अ (हा) ० कीला य (ब)। २१. सेवंतो (अचू,रा)। ११. भिन्ने ते (हा)। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ २४४. वयछक्कं कायछक्क, अपो गहिभायणं । 'पलियंक निसेज्जा य१, सिणाणं सोभवज्जणं ।। 'धम्मत्थकामनिज्जुत्ती समत्ता २४५. २४६. २४७. 'दव्वे तिविधा गहणे य, निसिरणे'' तह भवे पराघाते । भावे दव्वे य सुते, चरित्तमाराहणी" चेव || दारं ॥ २४८. आराहणी उ दब्वे, सच्चामोसा विराहणी होंति । सच्चामोसा मीसा, असच्चमोसा य पडिसेधो" ॥ ‘जणवय-सम्मय-ठवणा", नामे रूवे पडुच्च सच्चे य । ववहार भाव जोगे, दसमे ओवम्मसच्चे य" । दारं ।। कोधे माणे माया, लोभे पेज्जे तहेव दोसे य । हास भए अक्वाइय, उवघाते निस्सिता दसमा ||दारं || उप्पन्न - विगत १४ - मीसग, जीवमजीवे य जीव अज्जीवे५ । 'तहत मीसया " खलु, परित्त अद्धा य अद्धद्धा | दारं ।। आमंतणी आणवणी", जायणि तह पुच्छणी य पण्णवणी । पच्चक्खाणी भासा, भासा इच्छाणुलोमा य ॥ २४९. २५०. २५१. २५२. निक्खेव तु चक्को, वक्के' 'दव्वं तु' भासदव्वाई | भावे भासादव्वो, तस्स य एगट्टिया इमो ॥ वक्कं वयणं च गिरा, सरस्वती भारतीय गो वाणी । भासा पण्णवणी देसणी य, वइजोग" जोगे य ॥ १. व्यंको गिहिणिसेज्जा ( अचू ) । २. सोह० ( अचू, हा) यह गाथा कुछ प्रतियों में सूत्र गाथा के रूप में निर्दिष्ट है। दोनों चूर्णियों तथा टीका में इसके लिए स्पष्ट रूप से निर्युक्तिगाथा का संकेत है । ३. महल्लियायारकहज्भयणनिजुज्ती (अचू) । ४. (हा, ब) | ५. वक्को ( अ ) । ६. दव्वम्मि ( अ, ब ) । ७. भारही (हा), भारई ( अ, ब ) । सम्मत्ता ८. वजोग (हा ) । ९. १०. चरित आरा ० ( बरा) । ११. ०सेहा (हा) | १२. जणवत समुति वणा ( अचू ) । दव्वे भावे तिविहा गहणे अ निसिरणे (जिचू) । निर्युक्तिपंचक १३. तु. मूलाचार ५।३०८ । १४. विगय (हा, अ, ब ) । १५. छंद की दृष्टि से यहां अज्जीव पाठ है । १६. तह मिस्सिया अनंता (रा) । १७. आणमणी ( अचू) । १८. तु. मूला ५।३१५ । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ दशवकालिक नियुक्ति २५३. अणभिग्गहिता भासा, भासा य अभिग्गहम्मि बोधव्वा'। संसयकरणी भासा, 'वोगड अव्वोगडा'२ चेव ॥ २५४. 'सव्वा वि" य सा दुविधा, पज्जत्ता खलु तहा अपज्जत्ता। पढमा दो पज्जत्ता, उवरिल्ला दो अपज्जत्ता ॥दा।। २५५. सुतधम्मे पुण तिविधा, सच्चा मोसा असच्चमोसा य । सम्मद्दिट्ठी 'तु सुते, उवउत्तो भासए' सच्चं ।। २५६. सम्मनिटी, सम्मट्ठिी तु सुतम्मि, अणुवउत्तो अहेतुगं चेव । जं भासति सा मोसा, मिच्छादिट्ठी वि य तहेव ॥ २५७. 'भवति तु'५ असच्चमोसा, सुतम्मि उवरिल्लए तिनाणम्मि। जं उवउत्तो भासति, एत्तो वोच्छं चरित्तम्मि ।।दारं।। २५८. पढम-बितिया चरित्ते, भासा दो चेव होंति नायव्वा । सचरित्तस्स तु भासा, सच्चामोसा तु इयरस्स ॥दारं।। २५९. 'नाम ठवणासुद्धी'८ दव्वसुद्धी य भावसुद्धी य । एतेसिं पत्तेयं, परूवण होति कायव्वा ।। 'तिविधा य'१० दव्वसुद्धी, तद्दन्वादेसतो पहाणे य । 'तद्दव्वं आदेसो'', अनन्नमीसा हवति सुद्धी । २६१. वण्ण-रस-गंध-'फासेसु मणुण्णा'१२ सा पहाणओ सुद्धी । तत्थ तु सुक्किल मधुरा तु सम्मया चेव उक्कोसा ॥ २६२. एमेव भावसुद्धी, 'तब्भावाऽऽदेसतो पधाणे'" य । तब्भावगमादेसो", अनन्नमीसा हवति सुद्धी ।। २६३. दसण-नाण-चरित्ते, तवोविसुद्धी पधाणमादेसो५ । जम्हा तु विसुद्धमलो, तेण विसुद्धो भवति सुद्धो॥ १. बोद्धव्बा (हा,अ)। ९. काइव्वा (ब)। २. वोकड अव्वोकडा (अचू), वायड अव्वायडा १०. तिविहा उ (हा, जिचू)। (हा), व्याकृता-स्पष्टा, अव्याकृता- ११. तद्दव्वगमाएसो (हा, जिचू), तद्दविग ० (अ, अस्पष्टा (हाटी प. २१०)। ब) तद्दव्वगमादेसे (रा)। ३. सच्चा वि (जिचू)। १२. फासे समणुण्णा (हा,ब) । ४. सुओवउत्तु सो भासई (हा)। १३. ० वाएसओ पहाणे (हा)। ५. हवद उ (अ,ब,जिचू,हा) । १४. तब्भाविग ० (अ,ब)। ६. तु नाणम्मि (ब)। १५. ०मातेसो (अचू)। ७. बीयाइ (रा)। १६. सिद्धो (हा)। ८. णामट्ठवणा ० (अचू)। २६०. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्यक्तिपचक २६४. जं वक्कं वदमाणस्स, संजमो सुज्झई न पुण हिंसा। न य अत्तकलुसभावो, तेण इहं वक्कसुद्धि त्ति ।। २६५. वयणविभत्तीकुसलस्स, 'संजमम्मि य'' उवट्टितमतिस्स' । दुब्भासितेण होज्ज हु, विराधणा तत्थ जातितव्वं ।। २६६. वयणविभत्तिअकुसलो, वओगतं बहुविधं अजाणतो। जइ' वि न भासति किंची, 'न चेव वइगुत्तयं पत्तो ।। २६७. वयणविभत्तिकुसलो, वओगतं बहुविधं वियाणंतो। ‘दिवसमवि भासमाणो, अभासमाणो व वइगुत्तो'५ ।। २६८. पुव्वं बुद्धीइ पेहित्ता', 'ततो वक्कमुदाहरे'८ । 'अचक्खुओ व' नेतारं, बुद्धिमन्नेउ ते गिरा ।। वक्कसुद्धिनिज्जुत्ती समत्ता २६९. जो पुव्वं उवदिट्ठो'१२, आयारो सो अहीणमतिरित्तो। दुविधो य होति पणिधी, दव्वे भावे य नायव्वो ॥ २७०. दवे निधाणमादी, मायपउत्ताणि" चेव१४ दव्वाणि । भाविदिय नोइंदिय, दुविहो उ 'पसत्थ-अपसत्थो'१५ ।। २७१. सद्देस य रूवेस य गंधेस रसेस तह य फासेस । न वि रज्जति न वि दुस्सति'६, एसा खलु इंदियप्पणिधी ।। २७२. 'सोइंदियरस्सीहि उ, मुक्काहिं'१८ सद्दमुच्छितो जीवो। आदियति'६ अणाउत्तो, सद्दगुणसमुत्थिते२० दोसे ।। १. संजमम्मी (अचू,हा)। १०. इस गाथा का जिचू में कोई उल्लेख नहीं है। २. समुज्जुयमइस्स (हा), समुज्जयमयस्स (ब, ११. सो (जिचू)। १२. पुवि उद्दिट्टो (हा,अ,ब,रा)। ३. जति (अचू)। १३. माइपउत्ताणि (ब)। ४. तहा वि न वयिगुत्तयं (जिच), • वयगुत्तयं १४. वेह (रा)। (हा) ० वतिगुत्तयं (अच)। १५. पसत्थमण० (अचू)। ५. दिवसं पि भासमाणो तहा वि वयगुत्तयं पत्तो १६. दूसइ (अ,रा)। (अ,ब,हा)। १७. एसो (अचू)। ६. पुनि (अचू)। १८. ० रस्सीयुम्मुक्काहिं (अच) रस्सीहि मुक्का . ७. पासित्ता (अचू)। (रा)। ८. पच्छा वयमुयाहरे (हा,अ)। १९. आइयइ (अ,ब,हा), आययइ (रा)। ९. अचम्खुअव्व (अ,ब) । २०. ० समुट्टिए (हा,ब)। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकालिक नियुक्ति २७३. 'जह एसो " सद्देसुं, एसेव कमो तु सेस एहि पि । चउहि पि इंदिएहि, रूवे गंधे रसे फासे ॥ २७४. जस्स 'पुण दुप्पणिहिताणि २ इंदियाइं तवं चरंतस्स । सो हीरति असहीणेहि, सारही इव तुरंगेहिं || २७४।१. अहवा वि दुप्पणिहिदियो उ मज्जार-बग समो होइ । अप्पणिहिइंदियो पुण, भवइ उ अस्संजओ चेव ।। २७५. कोहं माणं मायं, लोभं च महाभयाणि चत्तारि । जो रुंभइ सुद्धप्पा, एसो नोइंदियप्पणिधी ॥ वि दुप्पणिहिता, होंति कसाया तवं करेंतस्स । सो बालतवस्ती विव', गयण्हाणपरिस्समं " कुणति ।। सामण्णमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होंति । मन्नामि 'उच्छुफुल्लं व'", निष्फलं तस्स सामण्णं ॥ 'एसो दुविहो पणधी, सुद्धो" जदि ४ दोसु तस्स तेसि च । 'एत्तो सत्थमपसत्थ' १५, लक्खणऽज्झत्थनिप्फन्नं" ।। दारं ।। मायागारवसहितो, इंदियनोइं दिएहि अपसत्थो । धम्मट्ठाय ७ पसत्थो, इंदि-नोइंदिप्पणिधी ॥ २८०. अट्टविधं कम्मरयं, बंधति अपसत्थपणिहिमाउत्तो ! तं चेव खवेति पुणो, पसत्थपणिहिसमायुत्तो ॥ २७६. २७७. २७८. २७९. १. जहा एसो ( जिचू ), एसो जह ( ब ) । ८. २. खलु दुप्पणिहिआणि ( राहा, रा), ० दुप्पणिहि - ९. याई (ब) । ३. असहीणे ( अ, ब ), 1 ४. वा (हा, अचू) । ५. यह गाथा मुनि पुण्यविजयजी ने टिप्पण में दी है । इस गाथा की किसी भी व्याख्याकार ने व्याख्या नहीं की है तथा अ, ब और रा आदर्श में भी नहीं है । इसलिए इसे निर्युक्तिगाथा के क्रम में नहीं रखा है । ६. महन्भ ० ( हा, अचू, जिचू, रा) । ७. त (अ) । चरंतस्स (हा, अ, ब, रा) । विय ( रा ) । ५७ १०. गतण्हात ० ( अचू ) । ११. ० फुल्ल मिव ( अचू), ० पुप्फं व (रा), ० पुप्फं च ( अ, ब ) । १२. चारितं ( ब ) । १३. एसा दुविधा पणिही सुद्धा ( रा ) । १४. जइ ( अ, ब, हा) । १५. एत्तो य पसत्थऽपसत्थ ( रा ) । १६. ०खणमज्झ० (अ, ब, हा) । १७. धम्मत्थाए (अचू ), धम्मत्था य (हा, जिचू ) । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक २८३. २८१. दंसण-नाण-चरित्ताणि', संजमो तस्स साधणट्ठाए। पणिधी पउजितव्वोऽणायतणाई' च वज्जाणि' ।। २८२. दुप्पणिधियजोगी पुण, लंछिज्जति संजमं अयाणंतो। वीसत्थ 'निसिटुंगो व', कंटइल्ले जह पडतो । सुप्पणिधितजोगी पुण, न लिप्पती पुव्वभणितदोसेहिं । निद्दहति य कम्माइं, सुक्कतिणाई जहा अग्गी ।। २८४. __ तम्हा तु अप्पसत्थं, पणिधाणं उज्झिऊण समणेणं । पणिधाणम्मि पसत्थे, 'भणितो आयारपणिधि त्ति' ।। २८५. छक्काया समितीओ, तिण्णि य गुत्तीओ पणिहि दुविहा उ । आयारप्पणिहीए, अहिगारा 'होति चउरेते'८ ॥ आयारप्पणिहिनिज्जुत्ती समत्ता २८६. २८७. विणयस्स समाधीए', 'मिक्खेवो होइ दोण्ह वि चउक्को' । दव्वविणयम्मि तिणिसो', 'सुवण्णमिच्चादि दव्वाणि'१२।। लोगोवयारविणयो, अत्थनिमित्तं च कामहेउं च । भय-विणय-मोक्खविणयो, विणओ खलु पंचहा होइ ।। अन्भट्ठाणं अंजलि आसणदाणं च५ अतिधिपूया य । लोगोवयारविणयो, देवयपूया य विभवेणं ।। २८८. १. चरित्तं च (अचू)। आचार्यों ने जोड़ दिया हो। मुनि पुण्यविजयजी २. पउंजिअव्वो अणायणाई (हा,ब,रा)। ने चूणि में इस गाथा को टिप्पण में दिया ३. वज्जाइं (अ,जिचू,हा)। है। किन्तु भाषा शैली की दृष्टि से यह ४. निसटुंगो व्व (रा, अचू, हा) ० ठंगुव्व नियुक्ति की गाथा प्रतीत होती है। (अ,ब)। ९. समाधीय य (रा,अचू), य सुत्तस्स य (उशांटी ५. सुक्खमिव तणं (अचू), सुक्कतणाई (हा)। ६. भणितं आयार पणिधाणं (अचू) भणिया आ० १०. य दोण्ह वि निक्खेवतो चउक्को य (अचू) । (ब)। ११. तिणसो (रा)। ७. उ (अ)। १२. ० मिच्चेवमाईणि (हा), ० मिच्चाइ दव्वाइ ८. हुंतिमे चउरो (अ), होइ चउरो (रा)। (ब)। यह गाथा केवल नियुक्ति की हस्तप्रतियों में १३. मुक्ख० (हा,ब,रा) सर्वत्र । उपलब्ध है। व्याख्याकारों ने इसके बारे में १४. भणिओ (अ,रा), णेओ (उशांटी प १६), कोई उल्लेख नहीं किया है। संभव है इसको १५. ४ (हा)। सरल समझकर छोड़ दिया हो अथवा बाद के १६. विह० (हा)। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ २९०. दशवकालिक नियुक्ति २८९. अब्भासवत्ति' छंदाणुवत्तणं देस-कालदाणं च । अब्भुट्ठाणं अंजलि, आसणदाणं च अत्थकते ।। __ एमेव कामविणयो, भये य 'नायव्वु आणुपुवीए'२ । मोक्खम्मि वि पंचविधो, ‘परूवणा तस्सिमा होति" । दसण-नाण-चरित्ते, तवे य तह ओवयारिए चेव । एसो उ मोक्खविणयो, पंचविधो होइ नायव्वो। २९२. दव्वाण सव्वभावा, उवदिवा जे जहा जिणवरेहिं । ते तह सद्दहति नरो, दंसणविणओ भवति तम्हा ।। २९३. नाणं सिक्खति नाणी, गुणेति नाणेण कुणति किच्चाणि। नाणी नवं न बंधति, नाणविणीओ भवति तम्हा ।। २९४. अविधं कम्मचर्य, जम्हा 'रित्तं करेति' जयमाणो । नवमन्नं च न बंधति, चरित्तविणीओ भवति तम्हा ।। २९५. अवणेति तवेण तमं, उवणेति य मोक्खमग्गमप्पाणं । तव-विणय-निच्छितमती", तवोविणीओ हवति तम्हा ।। २९६. अध ओवयारिओ२ पुण", दुविहो विणओ समासतो होति । पडिरूवजोग 'जुंजण, तह य अणासातणाविणओ'१४ ।। २९७. पडिरूवो खलु विणओ, कायियजोगे य वाय५-माणसिओ। अट्ठ चउव्विह दुविहो, परूवणा तस्सिमा होति ।। २९८. अब्भुट्ठाणं अंजलि-आसणदाणं 'अभिग्गह-किती'१६ य । 'सुस्सूसण-अणुगच्छ'१७-संसाधण-काय अट्ठविहो ।। १. ० सवित्ति (अ, हा)। १०. सग्गमोक्खम० (अ,ब,हा)। २. णेयव्वो आणु ० (अचू), नेयव्वमाणु ० (हा), ११. निच्छयमई (हा,अ)। नेयव्वु आणु ० (अ,ब)। १२. ओवगारिओ (अचू)। ३. विणओ खलु होइ नायव्वो (रा)। १३. खलु (जिचू)। ४. य (हा)। १४. जुंजणओऽणच्चासतणा विणओ (अचू), मुंजण ५. किच्चाई (अ,ब,हा)। तह अणसा० (रा)। ६. कम्मरयं (अ)। १५. वाइ (हा)। ७. रित्तीकरेति (ब)। १६. गहा किई (ब)। ८. जइमाणो (अ,ब)। १७. ०सणमणु० (हा,अ)। ९. विणओ (हा)। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक २९९. हित-मित-अफरुसभासी', अणुवीईभासि वाइओ विणओ। अकुसलमणोनिरोहो', कुसलमणउदीरणा' चेव ।। ३००. पडिरूवो खलु विणओ, पराणुवित्तीपरो' मुणेयवो । अप्पडिरूवो विणओ, नायब्वो केवलीणं तु ।। ३०१. एसो भे परिकहितो, विणओ पडिरूवलक्खणो तिविधो। बावन्न विधिविधाणं, 'बति अणासातणाविणयं५ ।। तित्थकर -सिद्ध-कूल-गण-संघ-किरिय"-धम्म-नाण-नाणीणं । आयरिय-थेरुवज्झायः-गणीणं तेरस पदाणि ॥ ३०३. अणसातणा' य भत्ती, बहुमाणो तह य वण्णसंजलणा। तित्थगरादी तेरस, चतुग्गुणा" होति१२ बावन्ना ।। ३०४. दव्वं जेण व दवेण, समाधी आहितं" च जं दव्वं । भावसमाधि चउविध, सण-नाण-तव-चरित्ते१४ ।। विणयसमाहिनिज्जुत्ती समत्ता ३० ३०५. नामं ठवणसकारो, दव्वे भावे य होति नायव्वो । 'दव्वम्मि पसंसाई'१५, भावे जीवो तदुवउत्तो'६ ।। ३०६. निद्देसपसंसाए", अत्थीभावे य होति तु सकारो। निद्देसपसंसाए, 'अहिगारो एत्थ अज्झयणे'१८ ॥ १. रुसावाई (अ,ब,हा)। १३. आधितं (अचू), आहिरं (हा,ब)। २. ० चित्तनिरोहो (रा, हा), ० मणनिरोहो १४. तु. दश्रुनि ९।। (जिचू)। १५. दव्वे पसंसमाई (हा)। ३. कुसलस्स उदी० (ब), रणं (रा)। १६. इस गाथा की व्याख्या गद्य रूप में दोनों ४. ० णुअत्तिमइओ (अ, हा), • णुवित्तीमओ चूणियों में मिलती है किन्तु गाथा का संकेत नहीं मिलता। टीका तथा आदर्शों में यह ५. बेंतऽणच्चासा ० (अचू)। गाथा उपलब्ध है। अच में यह निगा के क्रम ६. तित्थगर (हा), तित्थयर (अ,ब)। में प्रकाशित नहीं है किन्तु विषयवस्तु की ७. किया (हा)। दृष्टि से यह गाथा यहां प्रासंगिक लगती है ८. थेरओझा (हा)। तथा भाषाशैली की दृष्टि से भी यह निगा ९. पयाई (रा)। की प्रतीत होती है। १०. अणासा० (अ,ब,रा,जिचू)। १७ तद्देस प ० (अ)। ११. चउगुणा (अ)। १८. य वट्टमाणेण अधिगारा (अचू)। १२. होति (अचू), हुंति (अ)। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति ३०७. जे भावा 'दसकालिय सुत्ते'', करणिज्ज वण्णिय जिणेहि। तेसि समाणणम्मी', जो 'भिक्खू भण्णति'' स भिक्खू ।। ३०७।१. चरग-मरुगादियाणं, भिक्खुजीवीण काउणमपोहं । अज्झयणगुणनिउत्तो, होइ पसंसाइ उ सभिक्खू ।। ३०८. भिक्खस्स य निक्लेवो, निरुत्त एगट्रियाणि लिंगाणि । ' अगुणट्ठिओ न भिक्खू, अवयवा पंच दाराई ।। ३०९. नामं ठवणाभिक्खू दवभिक्खू य भावभिक्खू य । दवम्मि आगमादी, अन्नोऽवि य पज्जवो इणमो ।। ३१०. भेदतो भेदणं चेव, भिदितव्वं तहेव य । एतेसिं तिण्हं पि य, पत्तेय परूवणं वोच्छं ।। ३११. जध दारुकम्मकारो, भेदण भेत्तव्वसंजुतो भिक्खू । अन्ने वि दव्वभिक्खू, जे जायणगा" अविरता य ।। ३१२. 'गिहिणो विसयारंभग'११, अज्जुप्पण्णं जणं विमग्गंता । जीवणिय दीण-किविणा, ते विज्जा दव्वभिक्खु त्ति ।। ३१३. मिच्छादिट्ठी१२ तसथावराण, पुढवादिबेंदियादीणं'। निच्चं वधकरणता, अबंभचारी य संचइया ।। ३१४. दुपय-चतुप्पय-धण-धन्न-कुविय-तिग-तिग-परिग्गहे निरता। सच्चित्तभोइ१५ पयमाणगा य उद्दिट्ठभोई१६ य । १. दसवेयालिअम्मि (हा,अ,ब,जिचू)। ७. भिक्खु त्ति (अचू)। २. समाणणे (रा), समावणम्मि ति (अ,हा)। ८. पज्जयो (अचू)। ३. भिक्खू इति भवति (अचू), भिक्खू इइ भण्णइ ९. भेयव्व० (अ), भित्तव्व (हा,ब) । (ब,रा)। १०. जातणका (अचू)। इस गाथा का दोनों चूणियों में कोई उल्लेख ११. गिहिणो वि सया ० (हा), हरिभद्र ने गृहिणोनहीं है। केवल टीका तथा हस्त आदी में ऽपि सदारंभका इस प्रकार पदच्छेद करके यह गाथा मिलती है। यह गाथा प्रसंगानुसार व्याख्या की है (हाटी प २६०)। बाद के आचार्यों द्वारा जोड़ी गई प्रतीत १२. मिच्छट्रिी (अ,ब,हा)। होती है। इस गाथा को निगा न मानने से भी १३.० बिइंदियाणं (अ), ० बेइंदियाणं (ब,रा)। विषयवस्तु की क्रमबद्धता में कोई अंतर नहीं १४. ० ईया (अ)। आता। १५. ० भोति (अचू), • भोइ य (अ)। ५. उ (अ,ब)। १६. ० भोती (अचू)। ६. मेग० (रा)। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ३१५. ३१५।१ . इत्थी परिग्गहाओ, आणा - दाणाइ भाव संगाओ । सुद्धतवाऽभावाओ, कुतित्थियाऽबंभचारि त्ति' ॥ आगमतो उवउत्ते, तग्गुण 'संवेदए तु भावम्मि | निरुत्तं भेद-भेदण-भेत्तव्वएण तिधा ॥ भेत्ताऽऽगमोवउत्तो, दुविहं तवो भेदणं च भेत्तव्वं । अट्टविधं कम्मखुहं, तेण निरुत्तं स भिक्खु ति ॥ तस्स ३१६. ३१७. ३१८. ३१९. ३२०. ३२१. ३२२. करणतिए जोगतिए, सावज्जे आयहेतु पर उभए । अट्ठाऽणवत्ते, 'ते विज्जा" दव्वभिक्खुत्ति ॥ - १२ भितो 'यह'" खुधं, भिक्खू जतमाणो जती होति । संजमचरओ चरओ, भवं खवेंतो" भवंतो तु" ।। जं भिक्खमेतवित्त २, तेण व " भिक्खु खवेति जं व अणं । 'तव - संजमे १४ तवस्सि त्ति, वावि अन्नो विपज्जाओ || तिण्णे तायो" दविए, वती य खते य दंत विरतेय । मुणि-तावस' 'पण्णव गुजु भिक्खु"बुद्धे जति विदूय ॥ पव्वइए अणगारे, पासंडी चरग बंभणे चेव । 'परिवायगे य १६ समणे, निग्गंथे संजते मुत्ते ॥ साधू लूहे यतधा, तीरट्ठी 'होति चेव'२" नातव्वे । नामाणि एवमादीणि, होंति तव-संजमरताणं ।। १. विज्जा ते ( रा ) । २. ०चेर (रा) । ३. इस गाथा का दोनों चूर्णियों में कोई उल्लेख नहीं है किन्तु टीकाकार ने द्रव्यभिक्षु के क्रम में इस गाथा की व्याख्या की है। आदर्शों में यह गाथा मिलती है पर अधिक संभव है कि प्रसंगानुसार यह गाथा बाद में जोड़ी गई है । विषयवस्तु की दृष्टि से भी अप्रासंगिक सी लगती है अतः इसको निगा के क्रम में नहीं रखा है । • दओ य (ब, हा) । तहा (ब), तिहा ( अ, हा) । ४. ५. ६. भित्ता० ( अ ) । ७. तस्स (जि) । ८.यावि ( अ ) । । ९. खुदं ( जिचू ) । १०. खिवंतो (हा), खवंतो ( अ, ब ) । ११. य (ब) । १२. ० मत्तरिती (हा ) । १३. वि (अ) । १४. संजम तवे ( रा ) । निर्युक्तिपंचक १५. ताती (अ) । १६. तावत (अचू) । १७. मण्णवगज्जु (ब), ० गुज्जु (अचू, अ ) । १८. भिक्खु ( अ, ब ) । १९. परिव्वाये ( अचू ) । २०. चेव होइ ( अ, ब ) । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति ३२३. संवेगो निव्वेओ, विसयविरागो' सुसीलसंसग्गो । आराधणा तवो नाण-दसण-चरित्त-विणए य ।। ३२४. खंती य मद्दवज्जव, विमुत्तया' 'तह अदीणय' तितिक्खा । आवस्सगपरिसुद्धी य होंति भिक्खुस्स लिंगाणि ।। ३२५. अज्झयणगुणी भिक्खू, न सेस 'इति एस णे पतिण्णत्ति'। अगुणत्ता इति हेतू, को दिळंतो? सुवण्णमिव ।। ३२६. विसघाति रसायण मंगलत विणिए° पयाहिणावत्ते । गुरुए अडज्झऽकुच्छे", अट्ठ सुवण्णे गुणा भणिता ।। १. • विवेगो (हा,अ,रा)। २. ० संसग्गी (ब,अचू)। ३. विमुत्तिया (रा)। ४. तह य अदीण (अ)। ५. लिंगाइ (अ,ब,हा)। ६. इइ णो पइन्न-को हेऊ (ब,रा,हा), इय णो० (अ)। ७. पंचवस्तु में “एत्तोच्चिय णिद्दिट्ठो 'पुवायरि एहिं' भावसाहु त्ति"- ऐसा उल्लेख करके दशवकालिक नियुक्ति के दसवें अध्ययन की नियुक्तिगाथाएं उद्धृत की हैं। टीकाकार ने पुवायरिएहिं का अर्थ भद्रबाहुप्रभृति किया है। कुछ गाथाओं में पाठ भेद भी मिलता है। जैसेतु.-सुत्तत्थगुणी साहू ण, सेस इह णो पइण्ण इह हेऊ । अगुणत्ता इति णेओ, दिळंतो पुण सुवण्णं च ॥ (पंचवस्तु गा. ११९१) ८. ० घाय (ब), घाइ (जिचू)। ९. मंगलत्थ (अ,ब,हा)। १०. विणए (पंव)। ११. अडज्जु० (अ), • कुत्थे (अ,ब,हा), पंव ११९२ । १२. हुंति (रा)। __ पंचवस्तु में विसघाति" (दशनि गा.३२६) की गाथा के बाद तीन गाथाएं और हैं जो दशवकालिकनियुक्ति में नहीं हैं। इन गाथाओं के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि 'पुवायरिएहि' शब्द में अन्य आचार्यों का समावेश भी हो जाता है। इन तीनों गाथाओं में विसघाइ""(दशनि ३२६) की व्याख्या है अतः यह भी संभव है कि स्वयं पंचवस्तुकार ने इन गाथाओं की रचना कर दी हो । वे गाथाएं इस प्रकार हैं इय मोहविसं घायइ, सिवोवएसा रसायणं होइ । गुणओ य मंगलत्थं, कुणइ विणीओ य जोगत्ति ॥ मग्गाणुसारि पयाहिण, गंभीरो गुरुयओ तहा होइ । कोहग्गिणा अडज्झो, अकुत्थ सइ सीलभावेण ॥ एवं दिद्रुतगुणा सज्झम्मि, वि एत्थ होंति णायव्वा । ण हि साहम्माभावे, पायं जे होइ दिळेंतो॥ (पंचवस्तु-११९३-९५) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ २२७. २२८. 'तं कसिणगुणोवेतं ४, होति सुवण्णं न सेसणं जुत्ती । न हि नामरूवमेत्तं एवमगुणो हवति भिक्खु" ।। जुत्ती सुवण्णगंपुण, सुवण्णवण्णं तु जइ वि की रेज्जा । न हु होति तं सुवणं, सेसेहि गुणेहऽसंतेहि" ।। ३३०. 'जे अज्झयणे भणिता, भिक्खुगुणा तेहि होति सो भिक्खू'" | वणेणं जच्चसुवण्णगं, व संते गुणनिधिम्मि || गुणरहितो, भिक्ख" हिंडति" न होति सो भिक्खू । वणेणं जुत्तिसुवण्णगं व असती" गुणनिधिम्मि६ ।। ३३२. उद्दिकडं भुंजति, छक्कायपमद्दओ " घरं कुणति । पच्चक्खं च जलगते, जो पियति कहं नु सो भिक्खू ? २१ || ३२९. ३३१. चतुकारणपरिसुद्धं, कस - छेदण' - ताव - ताडणाए य । 'जं तं विसघाति रसायणादि गुणसंजुतं होति ॥ १. छेय ( पंव १९९६) । २. तालणाए (रा, अचू, हा) । ३. तं विसघाय- रसायण गुरुगमडज्भं अकुच्छं च (रा) । इन गाथाओं के क्रम में पंचवस्तु में दशनि ३२७ की गाथा के बाद एक अतिरिक्त गाथा और मिलती है । वह इस प्रकार है इयरम्मि कसाईया, विसिलेसा तहेगसारतं । अवमारिणि अणुकंपा, वसणे अइनिच्चलं चित्तं ॥ (पंचवस्तु गा. १९९७, द्र टिप्पण गा. ३२६) ४. तं निहसगुणोवेयं ( जिचू ) । ५. वि (रा), य ( अचू ) । ६. ० मत्तेणं (अचू) । ७. पंच १९९८ । ८. इह (रा) । ९. कीरिज्जा ११९९) । १०. गुणेहिं संतेहि ( अ, ब, रा) । ११. जे इह सुत्ते भणिया साहुगुणा तेहि होइ सो ( अ, ब, हा), साहू ( पंव १२०० ) । १२. साहू ( पंव) सर्वत्र । १३. भेक्ख (अ) । १४. गहइ (ब, हा) । १५. संते ( रा ) । १६. द्र पंव १२०१ । १७. ० ( हा) । १८. ०पमणो (अचूरा, पवं ) । १९. हिं ( रा ) । २०. कह (हा) । २१. पंव १२०२ । निर्युक्तिपंचक कीरिता ( पंव Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति ६५ ३३३. तम्हा जे 'अज्झयणे, भिक्खुगुणा'' तेहि होति सो भिक्खू । तेहि य' सउत्तरगुणेहि, होइ' सो भाविततरो उ ।। सभिक्खुनिज्जुत्ती समत्ता ३३४. दवे खेत्ते काले, भावम्मि य चुलियाय निक्खेवो । तं पुण उत्तरतंतं, सुत गहितत्थं तु संगहणी ।। ३३५. दवे सच्चित्तादी, कुक्कुड चूडामणी मयूरादी । खेत्तम्मि लोगनिक्कुड', 'मंदरचूडा य कूडादी" । ३३६. अतिरित्त अधिगमासा, अधिगा 'संवच्छरा य" कालम्मि। भावे खयोवसमिए, इमा उ 'चूडा मुणेयव्वा'१२ ।। १. इह सत्थे साहुगुणा (पंव १२०४) । ५. x (जिचू)। २. उ (अ)। ६. संघयणी (अ,ब)। ३. चेव (अचू)। ७. कुक्कड (अ)। ४. पंव में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है- ८. चुलामणी (अच)। अच्चंतपरिसुद्धे हि मोक्खसिद्धि त्ति काऊणं । ९. निवखुड (अचू) । इस गाथा के बाद रा प्रति में निम्न गाथा १०. मंदरचूला य कूडा य (अचू) ० चूलाइकुडाई मिलती है (ब)। संजम-चरित्त-तव-विणय-नियम- ११. संवच्छराइ (ब)। गुणकलिय सीलकलिए य । १२. चूलाउ णेयव्वा (अचू) ० चूला मु० (ब)। अज्जव मद्दव लाघव, खंती य समन्निओ चेव ।। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ३३७. ३३८. ३३९. ३४०. ३४१. व्रती खलु दुविहा, कम्मरती चेव 'नो य कम्मरतो" । कम्मरतिवेदणी', नोकम्मरती तु सद्दादी || सद्द - रस- रूव-गंधा, फासा रइकारगाणि दव्वाणि । दव्वरती भावरती, उदए एमेव अरती वि ॥ उदएण समुप्पज्जइ, परीसहाणं तु सा भवे अरई । निव्वुइसुहं तु काउं, सम्म अहियासणिज्जा उ' ।। वक्कं तु पुव्वभणियं, धम्मे रइकारगाणि वक्काणि । 'जेण इहं चूडाए तेण निमित्तेण रइवक्का' ।। जध नाम आतुरसिह * सीवणछेज्जेसु जंतणमपत्थकुच्छा मदोस विरती १. नोकम्म ० ( अ ) । २. ० रईवेयणियं ( अ ) । हरिभद्र टीका की मुद्रित पुस्तक में ३३७३८ दोनों गाथाएं नियुक्तिगाथा के क्रम में नहीं हैं । किन्तु टीकाकार हरिभद्र की व्याख्या से प्रतीत होता है कि उन्होंने इन्हीं दोनों गाथाओं की व्याख्या की है (हाटी प. २७० ) । अगस्त्य सिंह तथा जिनदास ने भी इन गाथाओं को आधार मानकर व्याख्या की है। पुण्यविजयजी ने भी इन्हीं दो गाथाओं को स्वीकृत किया है। कुछ आदर्शों में ये गाथाएं नहीं मिलती। टीका में इन दो गाथाओं के स्थान पर यह गाथा मिलती है- दवे हा उम्मे नोकम्मरई य सदव्वाई । भावरई तस्सेव उ, उदए एमेव अरई वि ॥ (हाटी प २७० ) किसी किसी प्रति में इस गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार हैदव्वेयरवेयणियं णोकम्मे सद्दमाइ रइजणगा । ४. ५. ६. ७. कीरमाणेसु । हितकरी तु ॥ ३. यह गाथा केवल 'ब' प्रति में प्राप्त है। किंतु गद्य में भावार्थ दोनों चूर्णियों में है । विषयवस्तु की दृष्टि से यह अप्रासंगिक नहीं लगती तथा हस्तआदर्श में भी मिलती है । इसलिए इसको नियुक्तिगाथा के क्रम में जोड़ा है । जेणमिमीए तेणं रइवक्केसा हवइ चूडा (हा ) । यह गाथा दोनों चूर्णियों में अनुपलब्ध है किन्तु यह टीका तथा दोनों हस्त आदर्शों में मिलती है । यह निर्युक्तिगाथा प्रतीत होती है । संभव है चूर्णिकार ने सरल समझकर इसकी व्याख्या न की हो। सुनि पुण्यविजयजी ने इसे नियुक्तिगाथा के क्रम में नहीं रखा है । आउरिस्सह (रा) । ८. यह गाथा दोनों चूर्णियों में तथा 'अ' प्रति में निर्दिष्ट नहीं है । गा. ३३७-३८ का भाव ही इस गाथा में है अतः टीका में उपलब्ध होने पर भी इसको निर्युक्ति गाथा में सम्मिलित नहीं किया है । निर्यक्तिपंचक सिव्वण ० ( अचू ) । ० मवच्छ० (अचू ) । ० विरुती ( अचू ) । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति ३४२. अट्ठविहकम्मरोगाउरस्स, जीवस्स' 'तह चिगिच्छाए। धम्मे रती अधम्मे अरती, गुणकारिणी' होति ।। ३४३. सज्झाय-संजम-तवे, वेयावच्चे य झाणजोगे य । जो रमति न रमति, 'असंजमम्मि सो पावए सिद्धि'।। ३४४. तम्हा धम्मे रतिकारगाणि अरइकारगाणि य अहम्मे । ठाणाणि ताणि जाणे, जाई भणिताणि अज्झयणे ।। रइवक्कानिज्जुस्ती समत्ता ३४५. अधिगारो पुव्वुत्तो, चतुव्विहो बितियचूलियज्झयणे । सेसाणं दाराणं, अहक्कम घोसणा होति ।। ३४६. दवे' सरीरभविओ, भावेण य१ संजतो इहं तस्स । ओगहिता२ पग्गहिता, विहारचरिया" मुणेतव्वा ॥ ३४७. अणिएयं पतिरिक्क अण्णातं सामुदाणियं उछ । अप्पोवधी अकलहो, विहारचरिया इसिपसत्था ।। विवित्तचरियानिज्जुत्ती समत्ता १. जीअस्स (हा)। उल्लेख किया है। यहां चणिकार का मत २. तवतिग० (अचू), तह तिगि० (हा)। सम्यक् प्रतीत होता है। इसके पश्चात् दोनों ३. ०कारिया (अ,ब,रा), कारिता (अचू)। चूणियों में दो सुत्तफासिया गाधाओ सुत्ते ४. नो (हा)। चेव भणिहिति' ऐसा उल्लेख मिलता है। ५. अस्संजमम्मि सो वच्चई सिद्धि (हा,अ,ब, मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार ये दो गाथाएं रा)। 'उद्देसे निद्देसे...' तथा 'कि कइविहं.' सुत्त६. धम्मम्मि (जिचू)। फासिय है। लेकिन उनका मत संगत नहीं ७. उ (हा)। लगता। यहां ये दो गाथाएं दब्वे सरीर... ८. ०ताई (अ,ब,हा)। (३४६) अणिएतं (३४७) सूत्रस्पशिक होनी ९. फासणा (रा,हा,भा)। चाहिए क्योंकि इन दोनों गाथाओं में सूत्र के यह गाथा विवादास्पद है। टीकाकार ने विषय का ही संक्षिप्त विवेचन है। इसके बारे में 'एतदेवाह भाष्यकार:' ऐसा १०. दव (अचू)। उल्लेख किया है। अतः इसे नियुक्ति के क्रम ११. उ (रा)। में नहीं जोड़ा है। किन्तु दोनों चूर्णिकारों ने १२. उग्गहिया (अ,हा)। 'इमा उवग्घातनिज्जुसि पढमगाहा' ऐसा १३. चरिता (अचू)। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ३४८. ३४९. छहि' मासेहि अधीतं अज्झयणमिणं तु अज्जमणगेणं । छम्मासा परियाओ, अह कालगतो समाधीए । आनंद असुपात कासी' सेज्जंभवा तहि थेरा । जस भद्दा र पुच्छा, 'कधणा य वियालणा संघे '६ ।। दसकालियनिज्जुत्ती समत्ता ३४९ । १. णायम्मि गिहियब्वे अगिहियव्वम्मि चेव अत्थम्मि । जयव्वमेव इति जो, उवदेसो सो नयो ताम ॥ ३४९ । २. सव्वेसि पि नयाणं, बहुविहवत्तव्वयं निसामेत्ता । तं सव्वनयविसुद्धं, जं चरणगुणट्टओ साहू ।। १. छह (हा ), ब प्रति में स्थानाभाव के कारण केवल प्रथम पद ही मिलता 1 २. ०प्पा ( ब ) । ३. काही ( स ) । ४. जसभस्स ( अ, रा, हा) । ५. X ( स ) । ६. वियारणा कया संघे ( स ) । ७. ३४९ । १,२ ये दोनों गाथाएं अगस्त्यसिंह चूर्णि नियुक्तिपंचक के अंत में दी हुई हैं लेकिन गाथाओं के क्रम में नहीं जोड़ा है। आदर्शों में ये गाथाएं मिलती हैं तथा टीका में भी इन दोनों की व्याख्या की गई है । ये गाथाएं दशनि १२५, १२६ में आयी हुई हैं इसलिए पुनरुक्ति के कारण उन्हें पुनः निगा के क्रम में नहीं जोड़ा है Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति हिन्दी अनुवाद Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अध्ययन : द्रुमपुष्पिका १. कर्मों से मुक्त, सिद्धि गति को प्राप्त सब सिद्धों को नमस्कार कर मैं दशवकालिक सूत्र की नियुक्ति करूंगा। २. ग्रन्थ के आदि, मध्य और अंत का विधिवत् मंगलाचरण करने के लिए नाम, स्थापना आदि चार मंगलों की प्ररूपणा कर मैं आगे का क्रम बताऊंगा। ३. श्रुतज्ञान में अनुयोग का अधिकार है । वह अनुयोग चार प्रकार का है- चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग। ४-५. अनुयोग दो प्रकार का होता है-अपृथक्त्व अनुयोग (जिसमें सब अनुयोगों की एक साथ चर्चा हो) और पृथक्त्व अनुयोग (जिसमें पृथक रूप से एक ही अनुयोग की चर्चा हो)। अनुयोग का निर्देश करने के बाद इस प्रसंग में चरणकरणानुयोग का अधिकार आता है। उसके ११ द्वार ये हैंनिक्षेप, एकार्थक, निरुक्त, विधि, प्रवत्ति, किसके द्वारा? किसका? उसके द्वारभेद, लक्षण, तद्योग्यपरिषद् और सूत्रार्थ । ६. इन निक्षेप आदि द्वारों की प्ररूपणा कर, बृहत्कल्प सूत्र में वर्णित गुणों से युक्त आचार्य को विधिपूर्वक दशवकालिक का अनुयोग कहना चाहिए । ७. 'दशवकालिक' यह नाम संख्या और काल के निर्देशानुसार किया गया है। दशकालिक, श्रुतस्कन्ध, अध्ययन और उद्देशक आदि का निक्षेप करने के लिए अनुयोग अपेक्षित है। ८. (दश के प्रसंग में)' एक के सात निक्षेप होते हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, मातृकापद, संग्रह, पर्याय और भाव । ९. 'दश' शब्द का छह प्रकार से निक्षेप होता है-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। ९।१. काल के आधार पर जीवन की दस अवस्थाएं होती हैं-बाला, मंदा, क्रीड़ा, बला, प्रज्ञा, हायनी, प्रपञ्चा, प्राग्भारा, मृन्मुखी और शायनी। १०. काल शब्द का निक्षेप द्रव्यकाल--वर्तना लक्षण वाला काल । अद्धाकाल-चन्द्र-सूर्यकृत काल । यथायुष्ककाल-देवता आदि का आयुष्य । उपक्रमकाल-अभिप्रेत अर्थ के समीप ले जाने वाला। १. एक का अभाव होने पर दस का अभाव भी होता है। दस आदि सारे एक के अधीन हैं। २. प्रत्येक अवस्था का कालमान दस-दस वर्ष का है। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ नियुक्तिपंचक देशकाल-अवसर । कालकाल-मरणकाल । प्रमाणकाल-दिवस आदि का विभाग । वर्णकाल-श्वेत, कृष्ण आदि वर्णगत काल । भावकाल-औदयिक आदि भाव। प्रस्तुत प्रकरण में भावकाल का प्रसंग है। ११. सामायिक (आवश्यक का प्रथम अध्ययन) के अनुक्रम से वर्णन करने के लिए आचार्य शय्यंभव ने दिन के अंतिम प्रहर में इस आगम का नि!हण किया, इसलिए इसका नाम दशवकालिक १२. जिस आचार्य ने, जिस वस्तु (प्रकरण) को अंगीकार कर, जिस पूर्व से, जितने अध्ययन, जिस क्रम से स्थापित किए हैं, उस आचार्य का, उस प्रकरण का, उस पूर्व का, उतने अध्ययनों का क्रमशः प्रतिपादन करना चाहिए। १३. मैं दशवकालिक के निर्यहक गणधर शय्यंभव को वंदना करता है। वे मनि मनक के पिता थे और स्वयं जिनेश्वर भगवान् की प्रतिमा देखकर प्रतिबुद्ध हुए थे। १४. आचार्य शय्यंभव ने अपने पुत्र शिष्य मुनि मनक के लिए दस अध्ययनों का निर्यहण किया । निर्वृहण विकाल में हुआ इसलिए इस ग्रंथ का नाम दश-वैकालिक हुआ। १५,१६. आत्मप्रवाद पूर्व से धर्मप्रज्ञप्ति (चतुर्थ अध्ययन), कर्मप्रवाद पूर्व से तीन प्रकार की पिण्डैषणा (पंचम अध्ययन), सत्यप्रबाद पूर्व से वाक्यशुद्धि (सप्तम अध्ययन) तथा शेष अध्ययनों (१,२,३,६,८,९,१०) का नवमें प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु से नि!हण हुआ है। १७. दूसरे विकल्प के अनुसार शय्यंभव ने अपने पुत्र मुनि मनक को अनुगृहीत करने के लिए संपूर्ण दशवकालिक का नि!हण द्वादशांगी-गणिपिटक से किया। १८. 'द्रुम-पुष्पिका' से 'सभिक्षु' पर्यन्त दस अध्ययन हैं। अध्ययनों के अधिकार के प्रसंग में प्रत्येक अध्ययन का मैं पृथक्-पृथक् रूप से वर्णन करूंगा। १९-२२. प्रथम अध्ययन में जिनशासन में प्रचलित धर्म की प्रशंसा है। दूसरे अध्ययन में धति का वर्णन है । धुति से ही व्यक्ति धर्म की आराधना कर सकता है। तीसरे अध्ययन में आत्म-संयम में हेतुभूत लघु आचार कथा का, चौथे अध्ययन में जीव संयम का, पांचवें अध्ययन में तप और संयम में गुणकारक भिक्षा की विशोधि का, छठे अध्ययन में महान् संयमी व्यक्तियों द्वारा आचरणीय महती आचारकथा का, सातवें अध्ययन में वचन-विभक्ति (बोलने का विवेक) का, आठवें अध्ययन में आचार-प्रणिधि का, नौवें अध्ययन में विनय का तथा अंतिम दसवें अध्ययन में भिक्ष का स्वरूप प्रतिपादित है। २३. इस आगम के दो अध्ययन और हैं, जिन्हें चूला कहा जाता है। पहली चूला में संयम में विषाद-प्राप्त साधु को स्थिर करने के उपाय निर्दिष्ट हैं और दूसरी में अत्यधिक प्रसादगुण फलवाली विविक्त चर्या-अप्रतिबद्ध चर्या का निर्देश है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ दशवकालिक नियुक्ति २४. दशवकालिक आगम का यह संक्षिप्त वाच्यार्थ है। अब एक-एक अध्ययन का क्रम से वर्णन करूंगा। २५. प्रथम अध्ययन का नाम 'द्रुमपुष्पिका' है। इसके चार अनुयोगद्वार हैं। उपक्रम आदि का वर्णन करने के पश्चात् अब धर्म-प्रशंसा का अधिकार है। २१. (निक्षेप तीन प्रकार का है-ओघनिष्पन्न, नामनिष्पन्न और सूत्रालापकनिष्पन्न) ओघ निष्पन्न का अर्थ है-सामान्य श्रुत । उसके चार प्रकार हैं-अध्ययन, अक्षीण, आय और क्षपणा । २५।२. श्रुत (अनुयोगद्वार सूत्र) के अनुसार अध्ययन के नाम, स्थापना आदि चार भेदों का वर्णन कर अध्ययन, अक्षीण, आय और क्षपणा-इन चारों से द्रुमपुष्पिका की सम्बन्ध-योजना करनी चाहिए। २६. अध्ययन का अर्थ है-अध्यात्म का आनयन । उपचित (संचित) कर्मों का अपचय और नए कर्मों का अनुपचय, यह सारा अध्यात्म का आनयन है । यही अध्ययन है। २७. जिससे अर्थ-बोध होता है, वह अधिगम-अध्ययन है अथवा जिससे अर्थबोध में अधिक गति होती है, वह अध्ययन है। इससे मुनि संयम के प्रति तीव्र प्रयत्न करता है, इसलिए (भव्य जन) अध्ययन की इच्छा करते हैं। २८. जैसे दीपक स्वयं प्रज्वलित होता हुआ अन्य सैकड़ों दीपकों को प्रज्वलित करता है, (वैसे ही) दीपक के समान आचार्य स्वयं प्रकाशित होते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं। २९. आय का अर्थ है लाभ। जिससे ज्ञान, दर्शन और चारित्र की प्राप्ति होती है वह भाव आय है। ३०. पूर्व संचित आठ प्रकार की कर्मरजों को मन, वचन और काया की प्रवृत्ति से क्षीण करना क्षपणा है । इस भाव अध्ययन को क्रमशः अध्ययन, अक्षीण, आय और क्षपणा के साथ योजित करना चाहिए। ___३१. 'द्रुम' और 'पुष्प' शब्द के चार-चार निक्षेप हैं-नाम द्रुम, स्थापना द्रुम, द्रव्य द्रुम और भाव द्रुम तथा नाम पुष्प, स्थापना पुष्प, द्रव्य पुष्प और भाव पुष्प । ३२. द्रुम, पादप, वृक्ष, अगम, विटपी, तरु, कुह महीरुह, वच्छ, रोपक और रुजक-ये द्रुम के पर्यायवाची शब्द हैं।। ३३. पुष्प, कुसुम, फुल्ल, प्रसव, सुमन और सूक्ष्म (सूक्ष्मकायिक)-ये पुष्प के एकार्थक शब्द ३४. द्रुमपुष्पिका, आहार-एषणा, गोचर, त्वक्, उञ्छ, मेष, जोंक, सर्प, व्रण, अक्ष, इषु, लाख का गोलक, पुत्र (पुत्र मांस) और उदक-गे मब प्रथम अध्ययन के एकार्थक हैं। (अन्य मान्यता Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ روا नियुक्तिपंचक के अनुसार ये प्रथम अध्ययन के अधिकार हैं)।' ३५. कहीं शिष्यों के पूछने पर और कहीं न पूछने पर भी आचार्य शिष्यों के हित के लिए अर्थ का निर्देश करते हैं। शिष्यों के पूछने पर होने वाला निर्देश अधिक लाभप्रद और विस्तृत होता है। ३६. नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-ये धर्म के चार निक्षेप हैं। इनके भेदों का यथाक्रम से वर्णन करूंगा। ३७. धर्म के चार प्रकार हैं-द्रव्यधर्म, अस्तिकायधर्म, प्रचारधर्म और भावधर्म । द्रव्य के जो पर्याय हैं, वे उस द्रव्य के धर्म हैं।। ३८. धर्मास्तिकाय अस्तिकाय धर्म है और प्रचारधर्म विषयधर्म है। भावधर्म के तीन प्रकार हैं-लौकिक, कुप्रावनिक और लोकोत्तर । लौकिक धर्म अनेक प्रकार का है। ३९. गम्य, पशु, देश, राज्य, पुरवर, ग्राम, गण, गोष्ठी और राज-ये लौकिक धर्म हैं। कुतीथिकों का धर्म कुप्रावनिक धर्म है। पर सावध होने के कारण जिनेश्वर भगवान द्वारा प्रशंसित नहीं है। ४०. लोकोत्तर धर्म दो प्रकार का है-श्रुत धर्म और चारित्र धर्म । श्रत धर्म स्वाध्याय रूप है । क्षमा, मुक्ति आदि दश श्रमण धर्मों का समावेश चारित्र धर्म में होता है। ४१. 'मंगल' शब्द के चार निक्षेप हैं-नाममंगल, स्थापनामंगल, द्रव्यमंगल और भावमंगल । परिपूर्ण कलश आदि द्रव्यमंगल हैं । धर्म से सिद्धि प्राप्त होती है, इसलिए वह भावमंगल है। १. हाटी प० १९ : एवमेतान्यकाथिकानि, अर्थाधिकारा एवान्ये। १. आहार-एषणा-तीनों एषणाओं से युक्त । २. गोचर-गाय की तरह चरना-घर-घर जाकर आहार लेना। ३. त्वक्त्व क् की भांति असार भोजन का सूचक। ४. उंछ-अज्ञात पिंड का सूचक । ५. मेष-अनाकुल रहकर एषणा करने का सूचक । ६. जोंक-अनैषणा में प्रवृत्त दायक को मृदुभाव से निवारण करने का सूचक ।। ७. सर्प-गोचर में प्रविष्ट मुनि की संयम के __ प्रति एकदृष्टि होने का सूचक । ८. व्रण-व्रण पर लेप करने की भांति भोजन करने का सूचक । ९. अक्ष-अक्ष पर लेपन की भांति संयमभार निर्वहन के लिए भोजन करने का सूचक । १०. इषु--तीर लक्ष्य-वेधक होता है। मुनि के लिए लक्ष्यवेध के लिए भोजन करने का सूचक। ११. गोला-लाख का गोला-गोचराग्रगत मुनि के मितभूमि में स्थित रहने का सूचक। १२. पुत्र-पुत्रमांस की भांति अस्वादवृत्ति से भोजन करने का सूचक । १३. उदक-दुर्गन्धयुक्त पानी को पीना केवल तृषापनयन के लिए। यह अस्वादवृत्ति का सूचक । । ये सभी उदाहरण अर्थ की निकटता के कारण द्रुमपुष्पिका अध्ययन के एकार्थक माने गए हैं। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति ७५ ४२. हिंसा का प्रतिपक्षी तत्त्व अहिंसा है। उसके चार विकल्प हैं १. द्रव्यतः अहिंसा भावतः अहिंसा । २. द्रव्यतः अहिंसा भावतः हिंसा । ३. द्रव्यत: हिंसा भावतः अहिंसा । ४. द्रव्यतः हिंसा भावतः हिंसा। ४३. संयम के सतरह भेद हैं-पृथ्वी संयम, पानी संयम, अग्नि संयम, वायु संयम, वनस्पति संयम, द्वीन्द्रिय संयम, त्रीन्द्रिय संयम, चतुरिन्द्रिय संयम, पंचेन्द्रिय संयम, अजीव (उपकरण) संयम, प्रेक्षा संयम, उपेक्षा संयम, प्रमार्जन संयम, परिष्ठापन संयम, मन संयम, वचन संयम और काय संयम। ४४. बाह्य तप के छह प्रकार हैं-अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता। ४५. आभ्यन्तर तप के छह प्रकार हैं- प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग । ४६. वीतराग के वचन सत्य ही हैं फिर भी श्रोता की अपेक्षा से कहीं उदाहरण और कहीं हेतु भी दिया जाता है। ४७. यह हेतु कहीं-कहीं पंच अवयवात्मक (प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन) होता है और कहीं-कहीं दस अवयवात्मक भी होता है। हेतु और उदाहरण सर्वथा प्रतिषिद्ध नहीं हैं, फिर भी यहां इन सबका विवेचन नहीं किया गया है, क्योंकि दूसरे आगमों में इनका विश्लेषण पक्षप्रतिपक्ष सहित किया गया है । ४७११. आहरण (उदाहरण) के दो भेद हैं। वे दोनों भेद चार-चार विभागों में विभक्त हैं। हेतु के चार भेद हैं । इससे प्रतिज्ञात अर्थ की सिद्धि होती है। ४८. दो और चार भेदों में विभक्त उदाहरण के ये एकार्थक शब्द हैं-ज्ञात, उदाहरण, दृष्टान्त, उपमा और निदर्शन । ४९. उदाहरण के दो भेद हैं-चरित और कल्पित । इन दोनों में प्रत्येक के चार-चार भेद हैं-आहरण, तहेश, तद्दोष और उपन्यास । ५०. आहरण के चार भेद हैं-अपाय, उपाय, स्थापना और प्रत्युत्पन्न-विनाश । अपाय के चार भेद हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । ५१. द्रव्य अपाय का उदाहरण-दो वणिक् भाई धनार्जन के लिए दूर देश गए। जब वे अजित धन को लेकर स्वदेश आने लगे तब धन के लोभ से उनमें एक-दूसरे को मारने का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ। धन को अनर्थकारक समझकर उन्होंने उसको तालाब में फेंक दिया। उसे एक मत्स्य निगल गया। उस मत्स्य के पेट से निकले हुए धन से अपनी मां की मृत्यु देखकर वे विरक्त हो गए और अन्त में मुनि बन गए। १. देखें-परि० ६, कथा सं० १। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक ५२. क्षेत्र अपाय का उदाहरण है-दशाह वर्ग का दूसरे क्षेत्र में अपक्रमण । काल अपाय में द्वैपायन ऋषि और भाव अपाय में क्षपक मेंढकी का उदाहरण ज्ञातव्य है। ५३. शैक्ष और अशैक्ष-दोनों प्रकार के मुनियों में मोक्ष की अभिलाषा उत्पन्न करने और उनके स्थिरीकरण हेतु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव अपाय का निदर्शन किया जा रहा है। ५४. विशिष्ट प्रयोजन से गृहीत द्रव्य का प्रयोजन की निवृत्ति हो जाने पर त्याग कर देना चाहिए । इसी प्रकार अकल्याणकारी क्षेत्र का परित्याग कर देना चाहिए । भविष्य में अनिष्ट की संभावना हो तो बारह वर्ष पहले ही उस स्थान को छोड़ देना चाहिए। यह क्षेत्र अपाय है । क्रोध आदि अप्रशस्त भावों का परित्याग करना भाव अपाय है। ५५. जो वादी द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि की दृष्टि से आत्मा को एकान्त नित्य मानते हैं उनके लिए सुख-दुःख, संसार और मोक्ष का सर्वथा अभाव हो जायेगा। ५६. एकान्त नित्यवाद के पक्ष में सुख-दुःख का प्रयोग घटित नहीं होता। इसी प्रकार एकान्त उच्छेदवाद में भी सुख-दुःख की कल्पना संगत नहीं बैठती। ५७. उपाय के भी चार प्रकार होते हैं-द्रव्य उपाय, क्षेत्र उपाय, काल उपाय और भाव उपाय। द्रव्य उपाय में प्रथम अर्थात् लोकिक है-धातुवाद । उसमें सुवर्ण आदि धातुओं को विशेष प्रयोग से शुद्ध करना होता है । लांगल (हल), कुलिका आदि द्वारा क्षेत्र की शुद्धि करना क्षेत्र उपाय है। ५८, नालिका आदि साधनों से काल का ज्ञान किया जाता है, यह काल उपाय है। भाव उपाय में बुद्धिमान् अभयकुमार का निदर्शन है। चोर को पकड़ने के लिए अभयकुमार नर्तक द्वारा खेल दिखाने से पूर्व जनता को वृद्धकुमारी का कथानक कहता है।' ५९. आत्मा प्रत्यक्ष प्रमाण से अनुपलब्ध है फिर भी सुख-दुःख आदि हेतुओं द्वारा उसके अस्तित्व का बोध होता है। ६०,६१. जिस प्रकार देवदत्त नामक व्यक्ति की घोड़े से हाथी पर, ग्राम से नगर में, वर्षा ऋत से शरद ऋतु में और उदय भाव से उपशम भाव में संक्रांति होती है उसी प्रकार सत जीव का द्रव्य. क्षेत्र. काल और भाव आदि में संक्रमण होता है । इस अपेक्षा से भी जीव का अस्तित्व प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों से साधा जाता है। ६२. सत जीव का द्रव्य आदि में संक्रमण होता है। इस अपेक्षा से ही आत्मा के परोक्ष होने पर भी उसकी परिणमनशीलता प्रत्यक्षतः सिद्ध होती है। ६३. स्थापना कर्म के उदाहरण में दो दृष्टांत हैं-पौंडरीक तथा मालाकार। एक मालाकार मार्ग में शारीरिक बाधा से पीड़ित हो गया। उसने मलोत्सर्ग कर करंडक में संगहीत पुष्प उस पर डाल दिए । लोगों ने कारण पूछा तो वह बोला-मैंने प्रत्यक्ष देखा है कि यहां हिंगुशिव नामक व्यन्तर देव प्रगट हुआ है । उसकी पूजा करने के लिए मैंने ऐसा किया है।' १. देखें-परि० ६, कथा सं० ४ । ३. देखें-सूयगडो २॥१॥ २. देखें-परि०६, कथा सं० ५। ४. देखें-परि० ६, कथा सं० ७ । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति ৬৩ ६४. किसी तत्त्व की सिद्धि के लिए तत्काल सव्यभिचारी हेतु दिया जाता है तथा स्वपक्ष और परपक्ष का प्रज्ञाबल जानकर उसे अभिव्यक्ति देते हुए दूसरे हेतुओं से उसी हेतु का समर्थन किया जाता है। ६५,६६. प्रत्युत्पन्नविनाश में गान्धविकों (संगीतकारों) का उदाहरण है। इसी प्रकार यदि शिष्य किसी भी महिला के प्रति आसक्त हो जाए तो गुरु ऐसा उपाय करे कि दोष का निवारण हो जाए। (यह लौकिक चरणानुयोग का उदाहरण है)। द्रव्यानुयोग के अनुसार यदि कोई वातूलिक नास्तिक कहे कि घट-पट आदि पदार्थों का अस्तित्व नहीं है, फिर जीव का अस्तित्व कैसे होगा? ६७. इस प्रश्न के समाधान में आचार्य कहते हैं-तुमने कहा 'पदार्थ नहीं हैं' तुम्हारा यह वचन सत् है या असत् ? यदि सत् है तो प्रतिज्ञाहानि (स्वीकृत पक्ष की असिद्धि) होती है और वचन असत् है तो भावों का निषेधक कौन होगा ? ६८. विवक्षापूर्वक बोला गया शब्द अजीव से उत्पन्न नहीं हो सकता और अजीव की विवक्षा नहीं हो सकती। अत: आत्मा का प्रतिषेध करने वाली शब्द ध्वनि 'आत्मा नहीं है' से ही जीवत्व की सिद्धि होती है। ६९ आहरणदेश के चार प्रकार हैं-अनुशिष्टि, उपालम्भ, पृच्छा और निश्रावचन । अनुशिष्टि के प्रसंग में सुभद्रा का उदाहरण है।' ७०. जैसे सुभद्रा नागरिकों द्वारा साधुकार (धन्यवाद) पुरस्सर सम्मानित हुई वैसे ही वैयावृत्य आदि में संलग्न मुनियों का भी आचार्य सद्गुण-कीर्तन से सम्मान करे । ७१. कुछ दार्शनिक आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करते हैं पर उसे अकर्ता मानते हैं । हम कहते हैं 'आत्मा है' यह सत्य है किंतु वह अकर्ता नहीं है। क्योंकि अकर्ता को सुख-दुःख का बोध नहीं होता । आत्मा सुख-दुःख का वेदन करती है, इसलिए वह कर्ता है। ७२. उपालम्भ द्वार की विवक्षा में मृगावती का उदाहरण है।' नास्तिकवादी को भी ऐसे ही कहना चाहिए कि 'आत्मा नहीं है'--.-आत्मा के अस्तित्व का निषेध करने वाला यह ज्ञान आत्मा के अभाव में संगत कैसे हो सकेगा ? ७३. आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए जो तर्क हैं और नास्तित्व विषयक जो कुविज्ञान है, वह जीव के अत्यन्त अभाव में संगत नहीं हो सकता। ७४,७५. पृच्छा के प्रसंग में कोणिक तथा निश्रावचन के प्रसंग में गौतम स्वामी का उदाहरण है । जीव के अस्तित्व को अस्वीकार करने व ले नास्तिकवादी से यह प्रश्न पूछा जाए–'आत्मा नहीं है' इस कथन के पीछे हेत क्या है? यदि परोक्ष प्रमाण को हेतु मानते हो तो यह तुम्हारा कुविज्ञान है क्योंकि परोक्ष तो परोक्ष ही है, वह 'आत्मा नहीं है' ऐसा निषेध कैसे कर सकता है ? ७६. किसी दूसरे हेत से नास्तिकवादी से यह कहना चाहिए कि जिन वादियों की मान्यता से आत्मा नहीं है उनके लिए दान, होम, यश आदि के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले स्वर्ग, मोक्ष आदि भी नहीं हैं। १. देखें-परि० ६, कथा सं० ८ । ४. देखें-परि० ६, कथा सं० ११ । २. देखें-परि० ६, कथा सं०९। ५. देखें-परि०६, कथा सं० १२ । ३. देखें-परि० ६, कथा सं० १० । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ नियुक्तिपंचक ७७. उदाहरण (आहरण) के चार दोष हैं-अधर्मयुक्त, प्रतिलोम, आत्मोपन्यास और दुरुपनीत । अधर्मयुक्त-उदाहरणदोष में नलदाम का उदाहरण है। ७८. प्रतिलोम-उदाहरणदोष में अभयकुमार का उदाहरण है । अभयकुमार ने राजा प्रद्योत का हरण किया और गोपेन्द्र (अथवा. गोविन्द) वाचक ने परपक्ष का निवर्तन किया। ७९. आत्मोपन्यास-उदाहरणदोष में पिंगल स्थपति का उदाहरण है, जिसको तालाब फटने के प्रसंग में जीवित ही गड़वा दिया था। दुरुपनीत-उदाहरणदोष में मत्स्य-वधक भिक्षक का उदाहरण ५०. उपन्यास-उदाहरणदोष के चार प्रकार हैं-तद्वस्तु-उपन्यास, अन्यवस्तु-उपन्यास, प्रतिनिभ-उपन्यास और हेतु-उपन्यास । इनके उदाहरण ये हैं - ८१. तद्वस्तु-उपन्यास में व्यक्ति सब जगह घूमकर अपूर्व अर्थ का कथन करता है । तदन्यवस्तु-उपन्यास में अन्यत्व में एकत्व का प्रतिभास होता है। (जैसे .....'अन्य: जीव: अन्यच्च शरीरम'यहां अन्य शब्द साधारण है, अतः जीव और शरीर में एकत्व है।) ८२. प्रतिनिभ-उपन्यास में-तम्हारे पिता ने मेरे पिता से एक लाख मुद्राएं कर्ज में ली थी। हेतु-उपन्यास-तुम यह यव (धान्य विशेष) क्यों खरीद रहे हो ? उत्तर दिया-क्योंकि यव मुफ्त नहीं मिल रहे हैं। ८३. अथवा हेतु के चार प्रकार हैं-यापक, स्थापक, व्यंसक और लषक । ८४. यापक हेत का उदाहरण- एक उद्भ्रामिका (व्यभिचारिणी) महिला ने अपने पति को उष्ट्र लिण्डिका (ऊंट की मींगणी) देकर व्यापार करने के लिए भेजा। स्थापक हेतु का उदाहरण--- एक परिव्राजक ने लोक का मध्य भाग बताया। ८५. व्यंसक हेतु में शकट तित्तिरी का उदाहरण ज्ञातव्य है । पुष-व्यंसक प्रयोग में तथा पुनः लषक हेतु में मोदक का उदाहरण है।" ८६ 'अहिंसा, तप आदि गुणों से युक्त धर्म ही परम मंगल है',--यह प्रतिज्ञा वचन है। देव तथा लोकपूज्य पुरुष भी सुधर्म को नमस्कार करते हैं, यह हेतु है। ___८६. इस सन्दर्भ में दृष्टांत है- अर्हत् भगवान् और अर्हत् भगवान् के अनेक अनगार शिष्य देवादिपूजित थे। इसका निश्चय कैसे किया गया ? वर्तमान के आधार पर अतीत जाना जाता है। वर्तमान में नरपति आदि विशिष्ट व्यक्ति भी भाव साधु को नमस्कार करते हैं। ८८. उपनय--जैसे तीर्थंकरों को देव नमस्कार करते हैं वैसे ही राजा भी सुधर्म के प्रति नत होते हैं । इसलिए धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है, यह निगमन वचन है । १. देखे-परि० ६, कथा सं० १३ । २. देखें-परि० ६, कथा सं० १६ । ३. देखें-परि० ६, कथा सं० १७ । ४. देखें--परि० ६, कथा सं० १८ । ५. देखें-परि० ६, कथा सं० १९ । ६. देखें--परि० ६, कथा सं० २० । ७. देखें--परि०६, कथा सं० २१ । ५. देखें... परि० ६, कथा सं० २२ । ९. देखें - परि० ६, कथा सं० २३ । १०. देखें-परि०६ कथा सं. २४ । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति ८९. दूसरा प्रतिज्ञा-वचन है-जिन शासन में प्रवजित मुनि धर्मोपदेश करते हैं। उसका हेतुवचन है—'क्योंकि वे पारमार्थिक अहिंसा आदि तत्त्वों के आचरण में प्रयत्नशील रहते हैं। ८९.१. जैसे जिन शासन में निरत मुनि शुद्ध धर्म का पालन करते हैं, वैसे धर्म की परिपालना के उपाय अन्यतीथिकों में नहीं देखे जाते । ८९।२. उन अन्यतीथिकों में भी धर्म शब्द प्रचलित है और वे अपने-अपने धर्म की प्रशंसा भी करते हैं किंतु जिनेश्वर भगवान् ने कुतीथिकों के धर्म को सावध बताया है। ८९.३. अन्यतीथिकों में जो धर्म शब्द है, वह मात्र औपचारिक है। निश्चय धर्म तो जिनशासन में ही है। जैसे-सिंह शब्द प्रधानतः सिंह के अर्थ में ही प्रयुक्त होता है पर उपचार से इसका प्रयोग अन्यत्र किसी नाम आदि में भी होता है। ९०. जिनेश्वर भगवान के शासन में प्रव्रजित मुनि भक्त, पान, उपकरण, वसति, शयन, आसन आदि में यतना का व्यवहार करते हैं तथा वे प्रासुक, अकृत, अकारित, अननुमत और अनुद्दिष्ट भोजी होते हैं। ९१. (चरक आदि) अन्यतीथिक अप्रासुक, कारित, अनुमत और उद्दिष्ट भोजी होते हैं तथा वे अकुशल व्यक्ति त्रस और स्थावर के हिंसा-जनित पापकर्म से लिप्त होते हैं। ९२,९३. उदाहरणदेश में भ्रमर का उदाहरण दिया जाता है। जैसे---चन्द्रमुखी दारिका--- बालिका का मुंह चन्द्रमा जैसा है। यहां दृष्टान्त में चन्द्रमा के सौम्यत्व का अवधारण है पर उसके शेष धर्म-कलङ्क आदि का ग्रहण नहीं है। इसी प्रकार भ्रमर के उदाहरण में उसकी अनियतवृत्तित्व का ग्रहण है, शेष धर्मों का नहीं। यह दृष्टांत-विशुद्धि सूत्रकथित है और यह दूसरी दृष्टान्त-विशुद्धि सूत्रस्पशिकनियुक्ति में भी निर्दिष्ट है। ९४. कोई व्यक्ति यह कहे कि गृहस्थ सुविहित श्रमणों के लिए ही रसोई करते हैं, भोजन बनाते हैं अतः सुविहित श्रमण यदि वह भिक्षा ग्रहण करते हैं तो वे 'पाकोपजीवी' होने के कारण हिंसाजन्य दोष से लिप्त होते हैं । (इसके उत्तर मे कहा गया--) ९५. तृणों के लिए वर्षा नहीं होती, मृगकुल के लिए तृण नहीं बढ़ते और भ्रमरों के लिए शतशाखी बृक्ष पुष्पित नहीं होते। इसी प्रकार गृहस्थ भी साधु के लिए भोजन नहीं बनाते। ९५१. अग्नि में घी की आहुति डाली जाती है । उससे प्रसन्न होकर सूर्यदेव लोकहित के लिए वर्षा करता है और उस वर्षा से औषधियां उत्पन्न होती हैं। ९५२,३. होम करने से वर्षा होती है तो फिर दुर्भिक्ष क्यों होता है ? यदि दुभिक्ष का निमित्त दुरिष्ट (बुरा नक्षत्र) या अविधि से किया यज्ञ है तो सब जगह दुभिक्ष क्यों होता है ? (दुरिष्ट तो नियत देश में होता है)। यदि वर्षा का कारण इन्द्र है तो क्या निर्धात, दिग्दाह आदि से इन्द्र के काम में विघ्न होता है ? मानना चाहिए कि वर्षा ऋतु के अनुसार ही होती है। वह धान्य, तृण आदि के लिए नहीं होती। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक ९६. आहार न मिलने के कारण भ्रमर और मधुकरीगण क्लांत न हो जाएं, क्या इसीलिए समय पर वृक्ष फलते-फूलते हैं ? ९६।१. किसी की बुद्धि में यह बात भी आ सकती है कि प्रजापति ने हर प्राणी को आजीविका दी है अतः वृक्ष भी मधुकरी-गण के लिए ही फलते-फूलते हैं। ९६।२. ऐसा नहीं होता, क्योंकि वृक्ष तो जन्मान्तरों में अजित नामगोत्रकर्म के उदय से फूलतेफलते हैं । दूसरा कारण यह है ९७. अनेक ऐसे वनखंड हैं जहां न तो कभी भ्रमर कहीं से आते हैं और न वहां निवास करते हैं, फिर भी उस वनखंड के वृक्ष फूलते हैं । फूलना-फलना वृक्षों की प्रकृति है । ९७/१,०८. यदि वृक्षों की प्रकृति ही ऐसी है तो वे हर समय फल-फूल क्यों नहीं देते । वे समय पर ही फल-फूल क्यों देते हैं ? आचार्य ने कहा-क्योंकि वृक्षों की प्रकृति ही ऐसी है कि वे अनुकूल ऋतु में ही फूलते हैं और काल-परिपाक से ही फलवान् बनते हैं। ९९. आहार न मिलने के कारण श्रमण भगवान् क्लान्त न हो जाएं, क्या इसी उद्देश्य से गृहस्थ यथासमय श्रमणों के लिए आहार बनाते हैं ? ९९।१,१००,१०१. कोई यह कहे कि श्रमणों की अनुकम्पा अथवा पुण्योपार्जन के निमित्त से गृहस्थ मुनि के लिए आहार बनाते हैं, यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि जंगल में, दुर्भिक्ष में और महान् आतंक (महामारी) में भी तपस्वी श्रमण रात्रिभोजन नहीं करते । तपस्वी श्रमण रात्रि में चारों प्रकार के आहार से विरत होते हैं। फिर भी गृहस्थ अत्यन्त प्रसन्नता से रात में भोजन क्यों पकाते हैं ? १०२. अनेक ग्राम और नगर ऐसे भी हैं जहां न तो साधु जाते हैं और न रहते हैं फिर भी वहां गृहस्थ भोजन तो पकाते ही हैं, क्योंकि गहस्थों की यह प्रकृति है। १०३. गृहस्थों की यह प्रकृति है कि वे ग्राम, नगर और निगम में अपने लिए तथा परिजनों के लिए समय पर भोजन पकाते हैं । १०४. वहां पर तपस्वी श्रमण संयम योगों की साधना के लिए परकृत (परार्थ आरब्ध), परनिष्ठित (परार्थ निष्पन्न) और विगतधूम (धूम, अंगार आदि आहार के दोषों से रहित) आहार की एषणा करते हैं। १०५. साधु अहिंसा की परिपालना के लिए नवकोटि से परिशुद्ध' तथा उद्गम, उत्पादन एवं एषणा के दोषों से रहित आहार ग्रहण करे । वह छह कारणों से आहार करे । १. नवकोटि परिशुद्ध-भोजन के लिए न स्वयं हिंसा करे, न करवाए और न अनुमोदन करे। भोजन न खरीदे, न खरीदाए, न खरीदने वाले का अनुमोदन करे। भोजन न पकाए, न पकवाए और न पकाने वाले का अनुमोदन करे। २. आहार करने के छह कारण ये हैं-क्षुधा की वेदना को शांत करने के लिए, सेवा के लिए, पंथगमन के लिए, संयम पालन के लिए, प्राणों को टिकाए रखने के लिए तथा धर्म चिन्ता के लिए । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति ६१ १०६. यह दृष्टांत-शुद्धि है। उपसंहार सूत्र में ही निर्दिष्ट है । संति का अर्थ है-हैं। वे मुनि शांति और सिद्धि को साध लेते हैं । १०७. जो द्रव्य-विहंगम की उत्पत्ति के हेतुभूत कर्म-को धारण करता है, वह द्रव्य विहंगम है। भाव विहंगम के दो प्रकार हैं---गुणसिद्धि विहंगम और संज्ञासिद्धि विहंगम । १०८-११०. विह का अर्थ है---आकाश । लोक आकाश-प्रतिष्ठित है । जिस कारण से विह को आकाश कहा गया है उसी कारण से गुण सिद्धि अर्थात् अन्वर्थ संबंध से भावविहंगम का कथन हुआ है। अथवा गति के दो प्रकार हैं - भावगति और कर्मगति । धर्मास्ति काय आदि चार अस्तिकायों की गति है-भावगति । चारों अस्तिकाय विहंगम हैं-सभी आकाश में अपने अस्तित्व को धारण किए रहते हैं। कर्मगति के दो भेद हैं-विहायोगति और चलनगति । कर्मगति के ही ये दो भेद हैं. भावगति के नहीं। विहायोगतिकर्म के उदय का वेदन करने वाले जीव विहायोगति के कारण विहंगम कहलाते हैं। १११. चलनकर्मगति की अपेक्षा से संसारी जीव तथा पुद्गल द्रव्य विहंगम हैं । प्रस्तत में गण सिद्धि अन्वर्थ संबंध से भावविहंगम का कथन है । ११२. संज्ञासिद्धि की अपेक्षा से सभी पक्षी विहंगम हैं। प्रस्तुत सूत्र में यहां आकाश में गमन करने वाले भ्रमरों का प्रसंग है । ११३. प्रस्तत श्लोक में 'दान' शब्द 'दत्तग्रहण'—दिए हुए का ग्रहण करने के अर्थ में तथा 'भज सेवायां' धातु से निष्पन्न 'भक्त' शब्द प्रासुक भोजन-ग्रहण का वाचक है। मुनि तीन प्रकार की एषणाओं--गवेषणा, ग्रहणषणा और परिभोगैषणा में निरत रहते हैं। उपसंहार-शुद्धि का कथन इस प्रकार है ११४. भ्रमर तथा मधुकरीगण तो अदत्त ---बिना दिया हुआ मकरंद पीते हैं किंत ज्ञानी श्रमण अदत्त भोजन ग्रहण करने की इच्छा भी नहीं करते । ११५. यदि संयमी मुनि असंयत भ्रमरों के समान होते हैं तो इस उपमा से यह निष्कर्ष निकलता है कि श्रमण असंयत ही होते हैं । ११६. मुनि को भ्रमर की उपमा पूर्वोक्त देशलक्षण उपनय से दी गई है । इस उपमा का निर्देश केवल अनियतवत्ति बताने के लिए है । यह अहिंसा के पालन का संकेत भी देती है। ११७. जैसे वक्ष स्वभावतः फलते-फूलते हैं, वैसे ही गृहस्थ भी स्वभावतः पकाते और पकवाते हैं। जैसे भ्रमर हैं वैसे ही मुनि हैं। दोनों में अंतर इतना ही है कि मुनि अदत्त आहार का उपभोग नहीं करते, भ्रमर करते है । ११८. जैसे भ्रमर सहज विकसित फलों का रस लेते हैं वैसे ही सुविहित श्रमण भी सहज निष्पन्न आहार की गवेषणा करते हैं । ११९. जैसे भ्रमर अवधजीवी हैं, वैसे ही श्रमण भी अवधजीवी हैं। यह उपसंहार है। 'दांत' शब्द का पुनः प्रयोग केवल वाक्यशेष ही जानना चाहिए । - Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक १२०. जैसे इस अध्ययन में एषणा समिति के विषय में मुनि आचरण करते हैं, वैसे ही ईर्या समिति आदि तथा समस्त श्रमण धर्म के विषय में मुनि यतनाशील रहते हैं। परमार्थ रूप में मुनि बस और स्थावर प्राणियों के हित के लिए यतनाशील होते हैं। १२०११. यह उपसंहार-विशुद्धि समाप्त है । अब निगमन का अवसर है । वह इस प्रकार है- 'इसलिए मुनि मधुकर के समान कहे गए हैं। १२०१२. इसलिए दया आदि गुणों में सुस्थित तथा भ्रमर की तरह अवधजीवी मुनियों के द्वारा प्रतिपादित धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है । १२०१३,४. निगमन-शुद्धि इस प्रकार है-चरक, परिव्राजक आदि अन्यतीथिक भी धर्म के लिए उद्यतविहारी हैं, फिर वे साधु क्यों नहीं हैं ? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि अन्यतीथिक पृथ्वी आदि छह काय की यतना नहीं जानते और ज्ञान के अभाव में तदनुरूप आचरण भी नहीं करते । वे न उद्गम आदि दोषों से रहित शुद्ध भोजन ग्रहण करते हैं, न भ्रमर की तरह प्राणियों के अनुपरोधी होते हैं और न मुनियों की भांति सदा तीन गुप्तियों से गुप्त होते हैं। (इसलिए वे साधु की श्रेणी में नहीं आते ।) १२१. मुनि शरीर, वाणी, मन तथा पांचों इंद्रियों का दमन करते हैं । वे ब्रह्मचर्य को धारण करते हैं तथा कषायों का नियमन करते हैं। १२२. जो मुनि तप में उद्यमशील हैं तथा साधु-लक्षणों से परिपूर्ण हैं वे ही 'साधु' शब्द से अभिहित किए जाते हैं । यह निगमन वाक्य है । १२३. प्रस्तुत अध्ययन के अर्थाधिकार के दश अवयव ये हैं-१. प्रतिज्ञा २. प्रतिज्ञाविभक्ति . हेतु ४. हेतुविभक्ति ५. विपक्ष ६. प्रतिषेध ७. दृष्टांत ८ आशंका ९. आशंका-प्रतिषेध और १०. निगमन । १२३।१. 'धर्म उत्कृष्ट मंगल है'यह प्रतिज्ञा है। यह आप्तवचन का निर्देश है। वह धर्म इस जिनमत में ही है अन्यत्र नहीं, यह प्रतिज्ञाविभक्ति है। १२३१२. 'देवों द्वारा पूजित'-यह हेतु है। जो व्यक्ति उत्कृष्ट धर्म में स्थित है, वे ही देवों द्वारा पूज्य हैं । जो व्यक्ति निष्कषाय हैं और जीवों को पीड़ा नहीं पहुंचाते हए जीते हैं वे ही परम धर्मस्थान में स्थित हैं --यह हेतुविभक्ति है । १२३१३. जो जिनवचनों के प्रति प्रद्विष्ट हैं, अधर्मरुचि वाले हैं तथा जो श्वसुर, माता, पिता आदि ज्येष्ठ जन हैं, इन सबको व्यक्ति मंगलबुद्धि से नमस्कार करता है, यह आद्यद्वय-प्रतिज्ञा और प्रतिज्ञाशुद्धि का विपक्ष है। १२३।४. यज्ञ-याग करने वाले भी देवों द्वारा पूजे जाते हैं - यह हेतु और हेतशुद्धि का विपक्ष है। बुद्ध, कपिल आदि भी देवपूजित कहे जाते हैं-यह ज्ञात-दृष्टांत प्रतिपक्ष है। १२३।५. इन चार अवयवों का प्रतिपक्ष पांचवां अवयव है-'विपक्ष' । इसके बाद विपक्षप्रतिषेध नामक छठा अवयव कहूंगा। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति १२३।६. सातवेदनीय, सम्यक्त्वमोहनीय, पुंवेदमोहनीय, हास्यमोहनीय, रतिमोहनीय, शुभआयुष्य, शुभनाम और शुभगोत्र---ये सब धर्म के ही फल हैं। इसलिए धर्म ही मंगल है। यह प्रतिज्ञा और प्रतिज्ञाशुद्धि का विपक्षप्रतिषेध है। १२३१७. अजितेन्द्रिय, सोपाधिक मायावी और परिग्रही तथा हिंसक व्यक्ति भी पूजे जाते हैं तब तो अग्नि भी शीतल हो जाए। यह हेतु तथा हेतुविभक्ति का विपक्षप्रतिषेध है। १२३।८. बुद्ध, कपिल आदि तो औपचारिक रूप से पूजा के पात्र हैं। वास्तविक पूजा के पात्र तो जिनेश्वर भगवान् ही हैं । यह दृष्टांत-विपक्ष-प्रतिषेध नामक छठा अवयव है। १२३।९ अरिहंत भगवान तथा उनके मार्गानुवर्ती समचित्त साधु भी यहां दृष्टांत स्वरूप हैं । वे मुनि पाकरत गृहस्थों के घरों में अहिंसक वृत्ति से आहार की एषणा करते हैं । यह दृष्टान्तवाक्य है । १२३।१०. यहां एक तर्क उपस्थित होता है कि यदि गहस्थ अपने परिजनों के साथ मुनि को भी उद्दिष्ट करके आहार पकाता है तो उससे क्या? यह विषम दृष्टांत है, क्योंकि इससे साधुओं की अनवद्यवृत्ति का अभाव हो जाता है। यह आठवां अवयव है। नौवां अवयव है-दृष्टांतप्रतिषेध । जैसे-वर्षा ऋतु में सहज निष्पन्न तृण । १२३।११. अत: देवों और मनुष्यों के द्वारा पूजनीय होने के कारण धर्म ही शाश्वत मंगल है । यह प्रतिज्ञाहेतु का पुनर्वचन अर्थात् निगमन नामक दसवां अवयव है। १२४. यह द्रुमपुष्पिका की नियुक्ति संक्षिप्त में व्याख्यात है। इसका अर्थविस्तार अर्हत् और चतुर्दशपूर्वी बता सकते हैं। १२५. अर्थ को भलीभांति जान लेने पर उपादेय के ग्रहण और हेय के अग्रहण में प्रयत्न करना चाहिए, यह जो उपदेश है, वह नय है।' १२६. सभी नयों की अनेक प्रकार की वक्तव्यता सुनकर जो चारित्र और क्षमा आदि गुणों में स्थित है, साधु है, वह सर्वनयसम्मत होता है । दूसरा अध्ययन : श्रामण्यपूर्वक १२७. 'श्रामण्यपूर्वक' यह नामनिष्पन्न निक्षेप है । 'श्रामण्य' शब्द के चार निक्षेप हैं तथा 'पूर्वक' शब्द के तेरह निक्षेप हैं। १२८. श्रमण शब्द के क्रमश: चार निक्षेप ये हैं-१. नामश्रमण २ स्थापनाश्रमण ३. द्रव्यश्रमण ४. भावश्रमण । द्रव्यश्रमण के दो भेद हैं-आगमत: द्रव्यश्रमण और नोआगमत: द्रव्यश्रमण । भावश्रमण संयत मुनि ही हैं। १२९. जैसे मुझे दुःख अप्रिय है वैसे ही सब जीवों को है - ऐसा जानकर जो व्यक्ति न हिंसा करता है, न करवाता है तथा जो समता में गतिशील होता है, वह समण है । गाथा क्रियानय की अपेक्षा से व्याख्यात है। १. हारिभद्रीया वत्ति पत्र ८० में यह गाथा ज्ञानमय की अपेक्षा से तथा पत्र ८१ में यही Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ नियुक्तिपंचक १३०. सब जीवों में जिसके लिए कोई प्रिय या अप्रिय नहीं होता, वही 'समन'—समान मन वाला होता है। यह श्रमण का दूसरा पर्यायवाची नाम है । १३१. इसलिए जो सुमन वाला होता है, भाव से पापमन वाला नहीं होता, स्वजन-परजन तथा मान और अपमान में सम होता है, वह 'समण' है। १३२. जो मुनि सर्प के समान (एक दृष्टि), पर्वत के समान (कष्टों में अप्रकंपित), अग्नि के समान (अभेददृष्टि), सागर के समान (गंभीर और ज्ञान रत्नों से युक्त), नभस्तल के समान (स्वावलंबी), वक्ष के समान (मान-अपमान में सम), भ्रमर के समान (अनियतवृत्ति), मृग के समान (अप्रमत्त), पृथ्वी के समान (सहिष्णु), कमल के समान (निर्लेप), सूर्य के समान (तेजस्वी) और पवन के समान अप्रतिबद्धविहारी होता है, वही वास्तविक श्रमण है। १३३ मुनि को विष की तरह सर्व रसानुपाती, तिनिश की तरह विनम्र, पवन की तरह अप्रतिबद्ध, वंजुल की तरह विषघातक, कणेर की तरह स्पष्ट, उत्पल की तरह सुगंधित, भ्रमर की भांति अनियतवृत्ति, चूहे की भांति उपयुक्त देश-कालचारी, नट की तरह प्रयोजन के अनुरूप परिवर्तन करने वाला, कुक्कुट की भांति संविभागी और कांच की तरह निर्मल होना चाहिए। १३४,१३५. प्रव्रजित, अनगार, पाषण्ड, चरक, तापस, भिक्षु, परिव्राजक, श्रमण, निर्ग्रन्थ, संयत, मुक्त, तीर्ण, त्रायी, द्रव्य, मुनि, क्षान्त, दान्त, विरत, रूक्ष और तीरार्थी-ये श्रमण के पर्यायवाचक शब्द हैं। १३६. पूर्व शब्द के तेरह निक्षेप हैं-१. नाम २ स्थापना ३. द्रव्य ८. क्षेत्र ५. काल ६. दिशा ७. तापक्षेत्र ८. प्रज्ञापक ९. पूर्व १०. वस्तु ११. प्राभूत १२. अतिप्राभूत और १३. भाव । १३७. काम शब्द के चार निक्षेप हैं -नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । १३८. शब्द, रस, रूप, गंध, स्पर्श और मोहोदय में निमित्त बनने वाले पदार्थ द्रव्यकाम हैं। भावकाम के दो प्रकार हैं-इच्छाकाम और मदनकाम। १३९ इच्छा प्रशस्त भी होती है और अप्रशस्त भी (प्रशस्त इच्छा है - धर्मेच्छा, मोक्षेच्छा आदि । अप्रशस्त इच्छा है-युद्धेच्छा, राज्येच्छा आदि) । मदनकाम का अर्थ है- वेद का विपाकोदय । प्रस्तुत प्रसंग में मदनकाम का अधिकार है, धीरपुरुष उसका निरुक्त बतलाते हैं। १४०. विषयजन्य सुखों में आसक्त, कामराग में प्रतिबद्ध तथा अज्ञानी व्यक्तियों को धर्म से उत्क्रांत-दूर कर देने के कारण ये 'काम' कहलाते हैं । १४१. बुद्धिमान व्यक्ति 'काम' का अपर नाम रोग बतलाते हैं । क्योंकि जो व्यक्ति काम की अभिलाषा करता है, वह वास्तव में रोग की अभिलाषा करता है । १४२. पद के मुख्य रूप से चार प्रकार हैं-नामपद, स्थापनापद, द्रव्यपद और भावपद । प्रत्येक पद अनेक प्रकार का है, यह ज्ञातव्य है। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति ६५ १४३. द्रव्यपद के ११ प्रकार हैं १. आकोट्रिम ---रुपए आदि के सिक्के को दोनों ओर से कूटकर बनाना , २. उत्कीर्ण-प्रस्तर आदि में नाम आदि उत्कीर्ण करना । ३. उपनेय-बकुल आदि के संस्थान में मिट्टी के फूल बनाना । ४. पीडित--संवेष्टित वस्त्र में सलवटें । ५. रंग-वस्त्र का रंग । ६. ग्रथित- गूंथी हुई माला । ७. वेष्टिम---पुष्पमय मुकुट । ८. पूरिम -छिद्रमय पुष्पकरंडक । ९. वातव्य-जुलाहे द्वारा वस्त्र बुनते समय उसमें अश्व आदि का रूप बुनना । १०. संघात्य-अनेक जोडों से बनाया हुआ वस्त्र, कंचुकी आदि । ११. छेद्य-पत्रछेद्य आदि । १४४. भावपद के दो प्रकार हैं-अपराधपद तथा नो-अपराधपद। नो-अपराधपद दो प्रकार का है-मातृकापद (त्रिपदी) और नो-मातृकापद । १४५. नो-मातृकापद के भी दो प्रकार हैं-ग्रथित और प्रकीर्णक । ग्रथितपद चार प्रकार का है तथा प्रकीर्णक के अनेक प्रकार हैं। १४६. ग्रथितपद के चार प्रकार ये हैं-गद्य, पद्य, गेय और चौर्ण। इनके लक्षणों को जानने वाले लक्षणज्ञ कवि इन सबको त्रिसमुत्थान अर्थात् धर्म, अर्थ और काम-इन तीन विषयों से उत्पन्न बतलाते हैं। १४७. जो मधुर, सहेतुक, क्रमश: ग्रथित, चरणरहित, विरामसंयुक्त तथा अन्त में अपरिमित होता है, वह गद्य काव्य कहलाता है। १४८. पद्य तीन प्रकार का होता है-सम, अर्धसम और विषम । 'सम' का तात्पर्य है-. पादों में सम तथा अक्षरों में सम। कुछ कहते हैं -सम का अर्थ है-चारों पादों में समान अक्षर हों। अर्धसम का अर्थ है-पहले तथा तीसरे तथा दूसरे और चौथे पाद में समान अक्षर हों। विषम का अर्थ है ---- सभी पादों में अक्षरों की संख्या विषम हो। ऐसा विधिज्ञ-छन्दशास्त्र के ज्ञाता कहते हैं। १४९. गीत संज्ञक गेयकाव्य के पांच प्रकार हैं-- १. तंत्रीसम-जो वीणा आदि तंत्री शब्दों के साथ गाया जाता है । २. तालसम--जो ताल के साथ गाया जाता है। ३. वर्णसम-जो निषाद आदि वर्गों के साथ गाया जाता है। ४. ग्रहसम--जो उत्क्षेप के साथ गाया जाता है। ५. लयसम-जो तंत्री की विशेष ध्वनि के साथ गाया जाता है । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक १५०. जो अर्थबहुल, महान् अर्थ का घोतक, हेतु तथा निपात और उपसर्गों से युक्त होने के कारण गंभीर, अपरिमित पादवाला, अव्यवच्छिन्न तथा गम (अक्षरों का उच्चारण) और नयों से शुद्ध हो-वह चौर्णपद कहलाता है।' १५१. इन्द्रिय, विषय, कषाय, परीषह, वेदना तथा उपसर्ग-ये अपराधपद हैं। अज्ञानी व्यक्ति इनमें विषाद को प्राप्त होते हैं। १५१३१. जिनेश्वर भगवान् ने अठारह हजार शीलांगों (भाव समाधि के भेदों अथवा कारणों) की प्ररूपणा की है। उनकी रक्षा के लिए अपराधपदों का वर्जन करना चाहिए। १५२. अठारह हजार शीलांगों की निष्पत्ति के आधारभूत तत्व ये हैं-योग तीन, करण तीन, संज्ञा चार, इंद्रिय पांच, भौम आदि पांच स्थावर तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय तथा अजीवनिकाय और दस प्रकार के श्रमण धर्म । तीसरा अध्ययन : क्षुल्लिकाचारकथा १५३. नाम महद्, स्थापना महद्, द्रव्य महद्, क्षेत्र महद्, काल महद्, प्रधान महद्, प्रतीत्य महद् तथा भाव महद्-ये महद् के निक्षेप हैं । इनके प्रतिपक्षी क्षुल्लक होते हैं। १५४. यहां प्रतीत्य-क्षुल्लक आचार का अधिकार है। आचार के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । १५५. द्रव्य आचार अर्थात् द्रव्य का उस-उस अवस्था में परिणमन । द्रव्य आचार के छह प्रकार हैं-नामन (झकना), धावन (धोना), वासन (सुगंध देना), शिक्षापण (शिक्षण), सुकरण (सरलता से रूपान्तरित करना), अविरोध (अविरुद्ध मिश्रण-गुड़, दही आदि का)। १५६. भाव आचार के पांच प्रकार हैं - दर्शन आचार, ज्ञान आचार, चारित्र आचार, तप आचार तथा वीर्य आचार । १५७. दर्शन आचार के आठ प्रकार हैं- नि:शंकित, नि:कांक्षित, निविचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपबृंहण, स्थिरीकरण. वात्सल्य और प्रभावना। १५७.६१. अतिशेष अर्थात अवधि आदि ज्ञान से युक्त, ऋद्धि सम्पन्न, आचार्य, वादी, धर्मकथक, क्षपक, नैमित्तिक, विद्यासिद्ध, राजसम्मत और गणसम्मत व्यक्ति तीर्थ की प्रभावना करते हैं। १५८. ज्ञान आचार के आठ प्रकार हैं-काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिण्हवण, व्यंजन, अर्थ और तदुभय। १५९. चारित्र आचार के आठ प्रकार हैं-पांच समितियों तथा तीन गुप्तियों से प्रणिधानयोगयुक्त होना। १६०. तीर्थंकरों द्वारा दृष्ट, बाह्य और आभ्यन्तर भेदों से प्ररूपित बारह प्रकार के तप में अग्लान और निस्पृह रहना तप आचार है। ब्रह्मचर्याध्ययनपदवदिति, पत्र ८८ । १. वृत्तिकार ने ब्रह्मचर्य अध्ययन अर्थात् आचारांग को चौर्णपद माना है-चौर्णपदं Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति ८७ १६१. जो अपने बल और वीर्य का गोपन नहीं करता, जो शास्त्रोक्त विधि से आचार में पराक्रम करता है तथा अपने सामर्थ्य के अनुसार स्वयं को उसमें नियोजित करता है, वह वीर्याचार है। १६२. कथा के मुख्यतः चार प्रकार हैं- अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा तथा मिश्रकथा । प्रत्येक कथाविभाग के अनेक प्रकार हैं। १६३. विद्या, शिल्प, उपाय, अनिर्वेद, संचय, दक्षता, साम, दंड, भेद और उपप्रदान-ये अर्थार्जन के हेतु हैं। इनकी कथा करना अर्थकथा है। १६३।१. सार्थवाहपुत्र ने अपनी दक्षता से, श्रेष्ठीपुत्र ने अपने रूप से, अमात्यपुत्र ने अपनी बुद्धि से तथा राजपूत्र ने अपने पूण्य से अर्थार्जन किया। १६४. सार्थवाहपुत्र ने दक्षता से पांच रुपयों का, श्रेष्ठीपुत्र ने सौन्दर्य से सौ रुपयों का, अमात्यपुत्र ने बुद्धि से हजार रुपयों का तथा राजपुत्र ने पुण्य से लाख रुपयों का लाभ कमाया।' १६५. सुंदर रूप, उदग्र अवस्था, उज्ज्वल वेष, दक्षता, विषयकला की शिक्षा, दृष्ट, श्रुत, अनुभूत और संस्तव--ये कामकथा के हेतु हैं। १६६. तीर्थंकरों द्वारा प्रज्ञप्त धर्मकथा के चार प्रकार हैं-आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निवेदनी। १६७. आक्षेपणी कथा के चार प्रकार हैं-आचार विषयक, व्यवहार विषयक, प्रज्ञप्ति विषयक-संशय निवारण के लिए प्रज्ञापना, दृष्टिवाद विषयक-सूक्ष्म तत्त्वों का प्रतिपादन । १६८. विद्या, चारित्र, तप, पुरुषार्थ, समिति तथा गुप्ति का जिस कथा में उपदेश दिया जाता है, वह आक्षेपणी कथा का रस (सार) है। १६९. अपने सिद्धान्तों का निरूपण करके, पर-सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना अथवा परसिद्धान्तों का प्रतिपादन कर स्व-सिद्धान्तों का निरूपण करना-ये विक्षेपणी कथा के दो भेद हैं। अथवा मिथ्यावाद का प्रतिपादन कर सम्यग्वाद का प्रतिपादन करना या सम्यगवाद का प्रतिपादन कर मिथ्यावाद का प्रतिपादन करना -ये विक्षेपणी कथा के दो भेद हैं। १७०. जो कथा स्वसिद्धान्त से शून्य केवल रामायण, वेद आदि से संयुक्त है तथा परसिद्धान्त का कथन करने वाली है, वह विक्षेपणी कथा है। १७१. अपने सिद्धान्तों में जो बात कही गई है, उसका दूसरे सिद्धान्तों में क्षेपण करना तथा कथ्यमान परशासन के व्याक्षेप के द्वारा पर-समय का कथन करना-यह विक्षेपणी कथा है । १७२. संवेजनी कथा के चार प्रकार हैं-स्वशरीरविषयक, परशरीरविषयक, इहलोकविषयक तथा परलोकविषक । १७३. जिसमें वीर्य, वैक्रियऋद्धि, ज्ञानऋद्धि, चरणऋद्धि, दर्शनऋद्धि बताई जाती है, वह संवेजनी कथा का रस (सार) है। १. देखें-परि० ६, कथा सं० २५ । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक १७४. जिस कथा में पापकर्मों के अशुभविपाकों का कथन हो, वह निवेदनी कथा है । उसके चार विकल्प हैं १. इहलोककृत कर्म - बंधन - इहलोक में वेदनीय । २. इहलोककृत कर्म बंधन ३. परलोककृत कर्म बंधन ४ परलोककृत कर्म बंधन परलोक में वेदनीय । इहलोक में वेदनीय । परलोक में वेदनीय । कर्मों का भी प्रचुर अशुभ परिणामों का कथन होता है, वह ८८ १७५. जहां अल्प प्रमादकृत निवेदनी कथा का सार है । १७६. सिद्धि देवलोक, सुकुल में उत्पत्ति-यह संवेग का कारण है । 1 तथा कुमानुषत्व निर्वेद का कारण है । १७७. शिष्य को सबसे पहले आक्षेपणी कथा कहनी चाहिए। जब स्व सिद्धान्त का पूरा ज्ञान हो जाए तब विक्षेपणी कथा कहनी चाहिए । १७८. आक्षेपणी कथा से प्रेरित जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं । विक्षेपणी कथा से सम्यक्त्व का लाभ हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता । इस कथा से मंदमति जीव गाढतर मिथ्यात्व को भी प्राप्त हो सकता है । १७९ जिन सूत्रों तथा काव्यों में तथा लौकिक ग्रन्थों - रामायण आदि में, यज्ञ आदि क्रियाओं में तथा सामयिक ग्रन्थों-तरंगवती आदि में धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों का कथन किया जाता है वह मिश्रकथा है । १८०. स्त्रीकथा, भक्तकथा, राजकथा, चोरकथा, जनपदकथा, नटकथा, नृत्यकथा, जल्लकथा ( डोर पर करतब दिखाने वाले की कथा ) तथा मल्लकथा -- ये विकथा के प्रकार हैं । नरक, तिर्यञ्चयोनि १८१. ये कथाएं ही प्रज्ञापक- प्ररूपक तथा श्रोता की अपेक्षा से अकथा कथा वा विकथा होती हैं । १८२. मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का वेदन करता हुआ जो अज्ञानी प्रज्ञापक कथा कहता है वह विकथा है, ऐसा तीर्थंकरों ने प्रवचन में कहा है । वह अज्ञानी लिंगस्थ - द्रव्य मुनि भी हो सकता है। और गृहस्य भी । । १८३. तप, संयम आदि गुणों के धारक, चारित्ररत श्रमण संसारस्थ प्राणियों के लिए जो हितकर तथा परमार्थ का उपदेश देते हैं, वही प्रवचन में 'कथा' कही गयी है । १८४. जो संयमी मुनि प्रमाद तथा राग-द्वेष के वशीभूत होकर कथा कहता है, वह विकथा है - ऐसा तीर्थंकर आदि धीर पुरुषों ने प्रवचन में कहा है। १८५. जिस कथा को सुनकर श्रोता के मन में श्रृंगार रस की भावना उत्तेजित होती है, मोहजनित उद्रेक होता है, कामाग्नि प्रज्वलित होती है, श्रमण ऐसी कथा न कहे। १८६. श्रमण को तप, नियम और वैराग्य से संयुक्त कथा कहनी चाहिए, जिसको सुनकर मनुष्य संवेग और निर्वेद को प्राप्त कर सके। १८७. महान् अर्धवाली कथा को भी इस प्रकार कहना चाहिए कि उसको सुनने वाले को परिक्लेश न हो क्योंकि अति विस्तार से कही जाने वाली कथा का भावार्थ नष्ट हो जाता है। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति १८८. क्षेत्र, काल, पुरुष (श्रोता) तथा अपने सामर्थ्य को जानकर श्रमण प्रकृत (समयानुकूल) विषय में पापानुबंधरहित कथा करे । चौथा अध्ययन : षड्जीवनिकाय १८९. प्रस्तत षड्जीवनिकाय के अधिकार में जीव और अजीव का ज्ञान, चारित्रधर्म, यतना का कथन, उपदेश तथा धर्मफल का निरूपण किया गया है। १९०. षड्जीवनिकाय शब्द का नाम-निष्पन्न निक्षेप होता है। अब इन तीनों (षड्, जीव और निकाय) पदों की पृथक्-पृथक् प्ररूपणा करूंगा। १९१. एक शब्द के सात निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, मातृकापद, संग्रह, पर्याय और भाव। १९२. षट् शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । १९३,१९४. 'जीव' शब्द के निक्षेप, प्ररूपणा, लक्षण, अस्तित्व, अन्यत्व, अमूर्त्तत्व, नित्यत्व, कर्तृत्व, देहव्यापित्व, गुणित्व, ऊर्ध्वगतित्व, निर्मयता (विकार रहितत्व), साफल्य, परिमाण आदि के द्वारा जीव की त्रिकालविषयक परीक्षा करणीय है। १९५. जीव शब्द के चार निक्षेप हैं--नामजीव, स्थापनाजीव, द्रव्यजीव और भावजीव । ओघजीव, भवजीव, तद्भवजीव-ये भावजीव के तीन निक्षेप हैं । १९६. आयुष्य कर्म के होने पर, जिस ओघआयुष्य कर्म के उदय से जीता है, वह जीव है। उसी आयुष्य कर्म के क्षीण हो जाने पर उसे नय की अपेक्षा से 'सिद्ध' या 'मृत' कहा जाता है। यह ओघजीव की व्याख्या है। १९७. जिस आयुष्य के आधार पर जीव किसी भव में स्थित रहता है अथवा उस भव से संक्रमण करता है, वह भवायु है । भवायु चार प्रकार की है-नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव । तद्भवआयु दो प्रकार की है-तिर्यञ्च तद्भवआयु, मनुष्य तद्भवआयु ।' १९८. लोक में जीव दो प्रकार के हैं- सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म जीव संपूर्ण लोक में व्याप्त हैं । बादर जीव के दो प्रकार हैं पर्याप्त और अपर्याप्त । १९९,२००. आदान, परिभोग, योग, उपयोग, कषाय, लेश्या, आनापान, इन्द्रिय, बंध, उदय, निर्जरा, चित्त, चेतना, संज्ञा, विज्ञान, धारणा, बुद्धि, ईहा, मति, वितर्क-ये जीव के लक्षण हैं। २०१. जीव का अस्तित्व सिद्ध है । 'जीव' इस शब्द से ही जीव के अस्तित्व का अनुमान किया जा सकता है। जो असत् है, जिसका कोई अस्तित्व नहीं है उसके विषय का केवल कोई शब्द नहीं होता। २०२. यदि कर्मों के कर्ता और भोक्ता जीव का कोई अस्तित्व न हो तो सारी पारलौकिक क्रियाएं (पुण्य, पाप आदि) मिथ्या हो जाएंगी। १. तिर्यञ्च और मनुष्य ही मरकर पुनः तिर्यञ्च तस्मिन्नेवोत्पन्नस्य यत तदुच्यत इति और मनुष्य के रूप में उत्पन्न हो सकते हैं, हाटी पत्र १२२। दूसरे नहीं- तद्भवजीवितं च तस्मान् मृतस्य Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियंक्तिपचक २०३. लौकिक, वैदिक तथा सामयिक विद्वानों का यह मानना है कि जीव नित्य है और वह शरीर से पृथक् है। २०४. देह से संस्पृष्ट वायु का जैसे स्पर्श से ज्ञान होता है, वैसे ही देह-संगत ज्ञान आदि से जीव का ज्ञान होता है। २०५. जीव इंद्रियग्राह्य गुणों से रहित है। वह मांसचक्षु-छमस्थ के द्वारा दुर्जेय है । सिद्ध और सर्वज्ञ तथा ज्ञानसिद्ध-केवलज्ञानी श्रमण ही उसे जानते-देखते हैं। २०६. कारणविभाग का अभाव तथा कारणविनाश का अभाव, बंध के हेतु का अभाव, विरुद्ध अर्थ की अनुत्पत्ति तथा सत् का अविनाश- इन कारणों से जीव का नित्यत्व सिद्ध होता है। नित्यत्व से अमूर्त्तत्व और अमूर्तत्व से शरीर से पृथक्त्व सिद्ध होता है। २०७. निरामय व्यक्ति आमययुक्त (रोगयुक्त) हो जाता है। बचपन में किए गए कार्यों की स्मृति होती है, उपस्थान-कृतकर्मों का फल भोगा जाता है, श्रोत्र आदि इन्द्रियों से उसका ग्रहण न होने पर भी स्वसंवेदन से उसकी सिद्धि होती है। जाति-स्मृति ज्ञान तथा जन्मते ही बालक की स्तनपान की अभिलाषा भी आत्मा के नित्यत्व की साक्षी है। २०८. सर्वज्ञ द्वारा यह उपदिष्ट है कि आत्मा नित्य, स्वकर्मफलभोक्ता तथा अमूर्त है। अतः आत्मा का नित्यत्व, अमूर्त्तत्व तथा अन्यत्व स्वयं सिद्ध है। २०९. जीव का परिमाण विस्तार की अपेक्षा लोक जितना है।' उसकी अवगाहना सूक्ष्म तथा उसके प्रदेश असंख्येय हैं। २१०. यदि कोई व्यक्ति प्रस्थ' अथवा कुडव' से सभी प्रकार के धान्यों का परिमाण करता है, इस प्रकार मापे जाने पर लोक अनन्त होते हैं। २११. निकाय (अथवा काय) पद के बारह निक्षेप हैं-नामकाय, स्थापनाकाय, शरीरकाय, गतिकाय, निकायकाय, अस्तिकाय, द्रव्यकाय, मातृकाकाय, पर्यायकाय, सग्रहकाय, भारकाय तथा भावकाय । २११/१. एक कांवरिया अपने कांवर में पानी से भरे दो घड़ों को रखकर जा रहा था। एक ही अप्काय दो घड़ों में विभक्त था। कांवरिये का पैर फिसला। एक घड़ा फूट गया। उसका अप्काय मर गया। संतुलन न रहने के कारण दूसरा घड़ा भी नीचे गिर कर फूट गया। उसका अप्काय भी मर गया। मरे हुए अप्काय ने जीवित अप्काय को मार डाला। मनुष्य ! बोल, इसका हेतु क्या है ? २१२. प्रस्तुत सूत्र में निकाय काय का प्रसंग है। शेष कायों का कथन उच्चरित अर्थ की सदृशता से है। २१३. शस्त्र के दो प्रकार हैं-द्रव्यशस्त्र तथा भावशस्त्र । अग्नि, विष, स्नेह, अम्ल, क्षार, लवण आदि द्रव्यशस्त्र हैं। दुष्प्रयुक्त वचन, दुष्प्रयुक्त काया तथा अविरति-ये भावशस्त्र हैं। १. लौकिक-इतिहासज्ञ । वैदिक-त्रिविद्य के २. केवली समुद्घात के चौथे समय की अपेक्षा से । ज्ञाता। सामयिक-बौद्ध आदि दार्शनिक- ३. प्रस्थ--चार कुडव प्रमाण । हाटी प० १२७ । ४. कुडव-चार सेतिका प्रमाण । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति २१४. द्रव्यशस्त्र के तीन प्रकार हैं-किंचित् स्वकायशस्त्र, किंचित् परकायशस्त्र और किंचित् उभयकायशस्त्र । असंयम भावशस्त्र है। २१५. योनीभूत बीज में जो जीव उत्पन्न होता है, वह पूर्व बीज का जीव भी हो सकता है और अन्य जीव भी । जो मूल जीव होता है वही प्रथम पत्र रूप में परिणत होता है। २१६. शेष सूत्रानुसार प्रत्येक काय का यथाक्रम अध्ययनार्थ कहना चाहिए । वे अध्ययनार्थ पांच हैं (देखें-गाथा १८९)। इनको प्रकरण, पद और व्यंजन से विशुद्ध करके कहना चाहिए। २१७. जीवाजीवाभिगम, आचार, धर्मप्रज्ञप्ति, चारित्रधर्म, चरण और धर्म-ये शब्द एकार्थक पांचवां अध्ययन :पिण्डेषणा २१७११. पिंडैषणा शब्द में दो पद हैं-पिड और एषणा। इन दोनों पदों की चार-चार निक्षेपों से प्ररूपणा करनी चाहिए । २१८. पिंड शब्द के चार निक्षेप हैं-नामपिंड, स्थापनापिंड, द्रव्यपिड तथा भावपिंड । गुड, ओदन आदि द्रव्यपिंड है तथा क्रोध, मान, माया और लोभ यह भावपिंड है। २१८।१ पिडि धातु संघात अर्थ में है। क्रोध आदि उदय में आकर विपाकोदय और प्रदेशोदय से संहत-योजित होकर ही आठ प्रकार के कर्मों से जीवों को प्रवृत्त करते हैं। अतः क्रोध आदि कषायपिंड हैं। २१८।२. द्रव्यषणा के तीन प्रकार हैं-"सचित्तद्रव्यषणा, अचित्तद्रव्यषणा तथा मिश्रद्रव्यषणा। सचित्तद्रव्यषणा के तीन प्रकार हैं-(१) द्विपद-मनुष्य आदि । (२) चतुष्पद हाथी आदि । (३) अपद-द्रम आदि । अचित्तद्रव्यषणा-कार्षापण आदि । मिश्रद्रव्यषणा-- अलंकृत द्विपद आदि । २१८।३. भावैषणा के दो प्रकार हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त । ज्ञान आदि की एषणा प्रशस्त भावैषणा है तथा क्रोध आदि की एषणा अप्रशस्त भावैषणा है। २१८१४. ज्ञान आदि की उपकारी होने के कारण यहां द्रव्यषणा का प्रसंग है। उसकी अर्थयोजना में पिंड निर्यक्ति यहां वक्तव्य है। २१९. सभी प्रकार की पिंडैषणा संक्षेप में नवकोटि में समवतरित होती है। जैसे-न हिंसा करना, न पकाना, न खरीदना । कराने और अनुमोदन के भंगों से इसके नौ विकल्प होते हैं।' २१९।१. उस नवकोटि के दो भेद हैं- उद्गमकोटि और विशोधिकोटि । प्रथम छह कोटि में उदगमकोटि का समवतार होता है और शेष क्रीतत्रिक में इस विशोधिकोटि का समावेश होता है। २२०. कोटिकरण के दो प्रकार हैं ---उद्गमकोटि और विशोधिकोटि । उद्गमकोटि के छह भेद हैं और शेष विशोधिकोटि के अन्तर्गत हैं। १. हिंसा न करना, न कराना और न अनुमोदन अनुमोदन करना । न खरीदना, न खरीदवाना करना। न पकाना, न पकवाना और न और न अनुमोदन करना । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक २२०।१. आधाकर्म, औद्देशिक, पूतिकर्म, मिश्र, चरमप्राभृतिका और अध्यवपूरक-ये अविशोधिकोटि में हैं तथा शेष विशोधिकोटि में हैं। २२१. राग, मिथ्यात्व आदि की योजना से ये-नौ कोटियां' ही अठारह, सत्तावीस, चौपन, नब्बे और दो सौ सत्तर कोटियां हो जाती हैं। २२१११. नौ कोटि को राग, द्वेष-इन दो भेदों से गुणन करने पर (९४२) अठारह भेद होते हैं । मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति से गणन करने पर (९४३) सत्तावीस भेद होते हैं। सत्ताबीस भेदों को राग, द्वेष इन दो से गुणन करने पर चौपन भेद होते हैं । नवकोटि को दसविध श्रमण धर्म से मृणा करने पर नब्बे भेद होते हैं। तथा नब्बे भेदों को ज्ञान, दर्शन, चारित्र से गणन करने पर दो सौ सत्तर कोटियां होती हैं। छठा अध्ययन : महाचारकथा २२२. तीसरे अध्ययन में जिस आचार का निर्देश दिया गया है, वही आचार यहां अन्यूनातिरिक्त रूप में इस महाचारकथा में बताया जाएगा। २२३. धर्म के मुख्य दो प्रकार हैं-अगार धर्म और अनगार धर्म । अगार धर्म बारह प्रकार का है और अनगार धर्म दस प्रकार का है। इस प्रकार धर्म के बावीस प्रकार हैं । २२४. पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत-यह बारह प्रकार का गृहिधर्म या अगार धर्म है। २२५. क्षान्ति, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शोच, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य-- यह दस प्रकार का यतिधर्म है, अनगार धर्म है। २२६. यह धर्म तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट है। 'अर्थ' शब्द के चार निक्षेप हैं-नामअर्थ, स्थापना अर्थ, द्रव्यअर्थ तथा भावअर्थ । संक्षेप में द्रव्यअर्थ छह प्रकार का है तथा विस्तार में उसके चौंसठ भेद हैं। २२७. तीर्थकरों तथा गणधरों ने छह प्रकार के अर्थ की प्रज्ञापना दी है-धान्य, रत्न, स्थावर, (भूमि, गृह आदि अचल सम्पत्ति) द्विपद, चतुष्पद तथा कुप्य-ताम्रकलश आदि उपकरण । २२८. धान्य के चौबीस, रत्न के चौबीस, स्थावर के तीन, द्विपद के दो, चतष्पद के दस तथा कूप्य के अनेक प्रकार हैं। इन सब प्रकारों की मैं प्ररूपणा करूंगा। २२९,२३०. धान्य के चौबीस प्रकार१. यव (जी) ९. रालक १७. मोठ २. गेहूं १०. तिल १९. राजमाष ३. शालि ११. मूंग १९. इक्षु ४. ब्रीहि १२. उडद २०. मसूर ५. साठी चावल १३. अलसी २१. अरहर ६. कोद्रव १४. हरिमंथ (काला चना) २२. कुलथी ७. अणुक १५. तिपूटक (मालव देश में प्रसिद्ध धान्य) २३. धनिया ८. कांगणी १६. निष्पाव २४. मटर Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति २३१,२३२. रत्नों के चौबीस प्रकार१. स्वर्ण ९. वज्र १७. वस्त्र २ पु (कलई) १०. मणि १८. अमिला (ऊनी वस्त्र) ३. ताम्र ११. मुक्ता १९. काष्ठ ४. चांदी १२ प्रवाल २०. चर्म (महिष, सिंह आदि का) ५. लोह १३. शंख २१. दांत (हाथी के) ६. सीसा १४. तिनिश २२. बाल (चमरी गाय के) ७. हिरण्य (रुपया) १५. अगर २३. गंध (सौगंधिक द्रव्य) ८. पाषाण १६. चन्दन २४. द्रव्य (पीपर आदि औषधि) २३३. स्थावर के तीन प्रकार हैं- भूमि, गृह तथा वृक्ष समूह । द्विपद के दो प्रकार हैंचक्रारबद्ध (दो पहियों से चलने वाली गाड़ी, रथ आदि) तथा मनुष्य (दास, भृतक आदि)। २३४. चतुष्पद के दस प्रकार हैं- गौ, महिष, उष्ट्र, अज, भेड़, अश्व, अश्वतर, घोड़ा, गर्दभ और हाथी। २३५. प्रतिदिन घर के काम में आने वाले विविध प्रकार के उपकरण कुप्य कहलाते हैं। धान्य आदि छह प्रकार के द्रव्यों के ये ६४ प्रकार हैं। २३६. काम के दो प्रकार हैं-संप्राप्त और असंप्राप्त । मंप्राप्त काम के चौदह भेद हैं तथा असंप्राप्त के दस भेद हैं । २३७-२३९. असंप्राप्त काम के दस भेद ये हैं-- अर्थ, चिन्ता, श्रद्धा, संस्मरण, विक्लवता, ज्लजानाश, प्रमाद, उन्माद, तद्भावना तथा मरण। संप्राप्त काम के संक्षेप में चौदह भेद ये हैंदृष्टि-संपात, दृष्टि-सेवा (दृष्टि से दृष्टि मिलाना), संभाषण, हसित, ललित, उपगृहित, दन्तनिपात, नखनिपात, चुंबन, आलिंगन, आदान, करण, आसेवन और अनंगक्रीड़ा। २४०. धर्म, अर्थ और काम- ये तीनों यूगपत विरोधी से लगते हैं, परंतु ये जिनेश्वर भगवान् के वचनों में अवतीर्ण होकर अविरोधी बन जाते हैं। २४०।१. जिनवचन में यथावत् परिणत होने पर अपनी योग्यता के अनुसार अनुष्ठान करने से 'धर्म' होता है। स्वच्छ आशय के प्रयोग से तथा पूण्यबल से 'अर्थ' और विश्रम्भ-उचित पत्नी को अंगीकार करने से 'काम' होता है। २४१. धर्म का फल है-मोक्ष । वह शाश्वत, अतुलनीय, कल्याणकर और अनाबाध है। मुनि उस मोक्ष की अभिलाषा करते हैं, इसलिए वे 'धर्मार्थकाम' हैं । २४२ 'परलोक नहीं है, मुक्ति का मार्ग नहीं है और मोक्ष नहीं है'-यह बात न्यायमार्ग को न जानने वाले लोग कहते हैं। किंतु जिनप्रवचन में ये सब सत्य रूप में स्वीकृत हैं तथा ये पूर्वापरअविरोधी हैं। वीतराग प्रवचन से अन्यत्र अन्य दर्शनों में ऐसा नहीं है। २४३. आचारकथा में जिन अठारह स्थानों का कथन किया है, उनमें से एक का भी सेवन करने वाला श्रमण नहीं होता। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्मुक्तिपंचक २४४. वे अठारह स्थान ये हैं-छह व्रत, छह काय, असल्य, गृहस्थ भाजन, पलंग, निषद्या, स्नान और शोभा का वर्जन । सातवां अध्ययन वाक्यशुद्धि ९४ २४५. 'वाक्य' शब्द के चार निक्षेप हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । भाषक के द्वारा गृहीत भाषा के योग्य पुद्गल 'द्रव्य वाक्य' हैं तथा शब्द रूप में परिणत भाषा के शब्द 'भाव वाक्य' हैं । २४६. 'वाक्य' के ये एकार्थक हैं—-वाक्य, वचन, गिरा, सरस्वती, भारती, गौ, वाक्, भाषा, प्रज्ञापनी, देशनी, वाक्योग तथा योग । २४७ द्रव्यभाषा के तीन प्रकार हैं ग्रहणद्रव्यभाषा', निसर्गद्रव्यभाषा तथा पराधातद्रव्यभाषा' भावभाषा के तीन प्रकार है- द्रव्यभावभाषा श्रुतभावभाषा और चारित्रभावभाषा । इसे ही सामान्यतः आराधनी कहा जाता है । २४८. द्रव्यविषयक सत्य भाषा आराधनी भी होती है और विराधनी भी होती है। मृषा भाषा विराधनी है। सत्यमृषा भाषा ( मिश्र भाषा) आराधनी और विराधनी - दोनों हैं। असत्यामृषा अर्थात व्यवहार भाषा न आराधनी है और न विराधनी । २४९. सत्य भाषा के दस प्रकार हैं १. जनपद सत्य २. सम्मत सत्य ३. स्थापना सत्य ४. नाम सत्य ५. रूप सत्य २५०. मृषा भाषा के दस भेद हैं १. क्रोधनिसूत २. माननिसृत ३. मायानसूत ४. लोभनिसूत ५. रागनिसूत २५१. सत्यमृषा (मिश्र) भाषा के दस भेद हैं १. उत्पन्नमिश्रित २. विगत मिश्रित ३. उत्पन्न विगत मिश्रित ४. जीव मिश्रित ५. अजीव मिश्रित १. काययोग के द्वारा भाषा द्रव्यों का ग्रहण २. वाक्योग के द्वारा भाषा द्रव्यों का उत्सर्ग ६. प्रतीत्य सत्य ७. व्यवहार सत्य ८. भाव सत्य ९. योग सत्य १०. औपम्य सत्य । ६. द्वेषनिसृत ७. हास्यनिसृत ८. भयनिसृत ९. आख्यायिकानित १०. उपघातनिसृत ६ जीव अजीव मिश्रित ७. अनन्त मिश्रित ८. प्रत्येक मिश्रित ९. अध्वा मिश्रित १०. अध्वा अध्वा मिश्रित । ३. निसृष्ट भाषा के द्रव्यों से अन्य द्रव्यों का तथाविध परिणाम आपादित करना । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकालिक नियुक्ति २५२. असत्यामृषा ( व्यवहार भाषा ) के बारह प्रकार हैं १. आमंत्रणी २. आज्ञापनी ३. याचनी o ४. प्रच्छनी ५. प्रज्ञापनी ६. प्रत्याख्यानी २५३. असत्यामृषा भाषा के ये प्रकार हैं अनभिगृहीतभाषा - किसी अर्थ की ओर संकेत न करनेवाली, जैसे - डित्थ आदि । अभिगृहीतभाषा- किसी अर्थ का स्पष्ट संकेत करनेवाली, जैसे-- घट आदि । ७. इच्छानुलोमा ८. अभिगृहीता ९. अभिगृहीता १०. संशयकारिणी ११. व्याकृत १२. अव्याकृत । ० ० संशयकरणीभाषा - अनेक अर्थ देनेवाली भाषा, जैसे— सैन्धव शब्द । इसके दो अर्थ हैं - नमक और अश्व | • व्याकृत भाषा - स्पष्ट अर्थ देने वाली भाषा । • अव्याकृत भाषा — अस्पष्ट भाषा, जैसे- बच्चों द्वारा थपथप करना आदि । ९५ २५४. सभी भाषाएं दो-दो प्रकार की हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त । प्रथम दो भाषाएं - सत्य और मृषा--- ये पर्याप्त हैं तथा दो भाषाएं- सत्यमृषा और असत्यामृषा - ये अपर्याप्त हैं । २५५. श्रुत धर्म विषयक भावभाषा के तीन प्रकार हैं-सत्यभाषा, मृषाभाषा तथा व्यवहारभाषा । श्रुतोपयुक्त सम्यग्दृष्टि व्यक्ति सत्य भाषा बोलता है । २५६. श्रुत में अनुपयुक्त सम्यग्दृष्टि जो अहेतुक भाषा बोलता है, वह मृषा भाषा है । मिथ्यादृष्टि व्यक्ति भी श्रुतोपयुक्त या श्रुत-अनुपयुक्त होकर जो कुछ बोलता है, वह मृषा भाषा है । २५७. जो श्रुत - आगम का परावर्तन करता है तथा जो अंतिम तीन ज्ञानों - अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान में उपयुक्त होकर बोलता है वह असत्यमृषा (व्यवहार) भाषा चारित्र विषयक भाव-भाषा का कथन करूंगा । | अब आगे २५८. चारित्र विषयक भावभाषा के दो प्रकार हैं-- सत्यभाषा और मृषाभाषा । सचरित्र - चरित्रपरिणामवाले व्यक्ति की तथा चारित्र की वृद्धि करनेवाली भाषा सत्य तथा अचरित्र - चरित्र - परिणाम से शून्य व्यक्ति की तथा अचरित्र की वृद्धि करनेवाली भाषा मृषा होती है । २५९. शुद्धि के चार प्रकार हैं- नामशुद्धि, स्थापनाशुद्धि, द्रव्यशुद्धि तथा भावशुद्धि | अब इनकी पृथक्-पृथक् प्ररूपणा करणीय है । २६०,२६१. द्रव्यशुद्धि के तीन प्रकार हैं- तद्-द्रव्यशुद्धि, आदेश - द्रव्यशुद्धि, प्राधान्यद्रव्यशुद्धि | जो द्रव्य अन्य द्रव्यों से असंयुक्त होकर ही शुद्ध होता है, वह 'तद् - द्रव्यशुद्धि' है (जैसेदूध, दही आदि ) | आदेश - द्रव्यशुद्धि के दो भेद हैं- अन्यत्व शुद्धि - शुद्ध वस्त्रों वाला व्यक्ति । अनन्यत्व शुद्धि-शुद्ध दांतों वाला व्यक्ति । प्राधान्यशुद्धि का तात्पर्य है - वर्ण, रस, गंध और स्पर्श १. पर्याप्त का अर्थ है जिस भाषा का एक पक्ष - सत्य या मृषा में निक्षेप होता हो । इससे विपरीत भाषा अपर्याप्त है । (हाटी० प० २१० ) Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक की मनोजता। जैसे-वर्ण शुक्ल, रस मधुर, गंध सुरभि और स्पर्श मृदु। ये उत्कृष्ट और कमनीय माने जाते हैं। २६२. द्रव्यशुद्धि की भांति भावशुद्धि भी तीन प्रकार की है-तद्भावशुद्धि, आदेशभावशुद्धि तथा प्रधानभावशुद्धि । तद्भावशुद्धि अन्य भावों से निरपेक्ष होती हैं । आदेशभावशुद्धि सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों होती हैं। २६३. दर्शन ज्ञान, चारित्र तथा तप विषयक विशुद्धि ज्ञानादि की अपेक्षा से प्रधानभावशुद्धि है। ज्ञान आदि की शुद्धि से ही आत्मा कर्ममल से विशुद्ध होती है और वह विशुद्ध आत्मा मुक्त होती है। २६४. जिस वाक्य को बोलने से संयम की शुद्धि होती है, हिंसा नहीं होती, आत्मा में कालुष्य नहीं होता, वह वाक्य-शुद्धि है। २६५. जो वचन-विभक्ति (वाच्य और अवाच्य का विवेक) में कुशल होता है, जो संयम में प्रवत्त चित्त बाला है, वह भी असद् वचनों से विराधक बन जाता है, इसलिए मुनि को असद् वचनों ----वर्जनीय वचनों का परिज्ञान कर लेना चाहिए। २६६. जो वचन-विभक्ति में अकुशल है, बहुविध वाग्योग से अजानकार है, वह कुछ भी नहीं बोलने पर भी वारगुप्त नहीं होता। २६७. जो वचन-विभक्ति में कुशल है, अनेक प्रकार के वचोयोग का ज्ञाता है, वह दिन भर बोलता हुआ भी वाग्गुप्त होता है । २६८. पहले बुद्धि से सोचकर, फिर वचन बोले। जैसे अंधा व्यक्ति अपने नेता-हाथ पकडकर ले जानेवाले--का अनुगमन करता है, वैसे ही वाणी बुद्धि का अनुगमन करती है। आठवां अध्ययन : आचारप्रणिधि २६९. जिस आचार का तीसरे अध्ययन में प्रतिपादन कर चुके हैं, वह न्यूनातिरिक्त प्रस्तुत अध्ययन में भी जान लेना चाहिए। प्रणिधि के दो प्रकार हैं--द्रव्यप्रणिधि और भावप्रणिधि । २७०. निधान आदि द्रव्य तथा मायाप्रयक्त द्रव्य द्रव्यप्रणिधि कहलाते हैं। भावप्रणिधि के दो प्रकार हैं- इन्द्रियप्रणिधि और नोइन्द्रियप्रणिधि । इन्द्रियप्रणिधि के दो प्रकार हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त । . २७१. शब्द, रूप, गंध, रस तथा स्पर्श में न राग हो और न द्वेष हो. वह प्रशाम्त गि प्रणिधि है। २७२,२७३. उच्छंखल श्रोत्रेन्द्रिय की रज्जु से बंधा हुआ शब्द-मूच्छित जीव अनुपयुक्त होकर शब्दगुणों से समुत्थित दोषों को ग्रहण करता है। जैसा शब्दविषयक यह दोष है वैसा ही क्रम अन्य सभी इन्द्रियों के विषय में है। व्यक्ति शेष चारों इन्द्रियों के रूप, गंध, रस और स्पर्श विषयगत दोषों को ग्रहण करता है। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति २७४. तपश्चरण करने पर भी जिस व्यक्ति की इन्द्रियां दुष्प्रणिहित (असमाहित) होती हैं, वे इन्द्रियां उसको निर्वाण से दूर ले जाती हैं, जैसे-उच्छंखल अश्व सारथि को उत्पथ पर ले जाते हैं। २७४११. अथवा दुष्प्रणिहित इंद्रिय वाला व्यक्ति मार्जार और बक के समान होता है। अप्रणिहित इंद्रिय वाला असंयमी ही होता है। २७५. क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार महाभय हैं। जो शुद्धात्मा इनका निरोध करता है, वह नोइन्द्रियप्रणिधि है। २७६. तपश्चरण करते हुए भी जिस व्यक्ति के कषाय दुष्प्रणिहित -- अनिरुद्ध होते हैं, वह बाल-तपस्वी की भांति 'गजस्तान" जैसा परिश्रम करता है। २७७. श्रामण्य का अनुपालन करने पर भी जिस मुनि के कषाय उत्कटतीव्र होते हैं, मैं मानता है कि उसका श्रामण्य इक्ष पुष्प की भांति निरर्थक है। २७८. यदि बाह्य और आभ्यन्तर चेष्टा से इन्द्रिय तथा कषायों का सम्यग निरोध हो जाता है तो वह दोनों प्रकार की प्रणिधि शुद्ध है। तथा जहां निरोध नहीं होता वह प्रणिधि अशुद्ध है। इस प्रकार यह प्रशस्त और अप्रशस्त का लक्षण अध्यात्म निष्पन्न अर्थात् अध्यवसान से उत्पन्न है। २७९. जो व्यक्ति माया और गौरवत्रिक से युक्त होकर इन्द्रिय और नो-इन्द्रिय (मन) का निग्रह करता है, वह अप्रशस्त प्रणिधि है। जो माया और गौरवत्रिक से रहित होकर इन्द्रिय और नो-इन्द्रिय का निग्रह करता है, वह प्रशस्त प्रणिधि है। २८०. अप्रशस्त प्रणिधि में आयुक्त मुनि आठ प्रकार के कर्मों का बंधन करता है। प्रशस्त प्रणिधि में आयुक्त मुनि उन्हीं आठ प्रकार के कर्मों का क्षय क २८१. दर्शन, ज्ञान और चारित्र-यह संपूर्ण संयम है। संयम की साधना के लिए प्रशस्त प्रणिधि का प्रयोग करना चाहिए और उसके अनायतन-वर्जनीय स्थानों का वर्जन करना चाहिए। २८२. जैसे विश्रब्ध (निर्भीक) और निसष्ट (शरीर के प्रति अजागरूक) व्यक्ति कंटकाकीर्ण गढे आदि में गिरकर अंग-भंग कर लेता है, वैसे ही दुष्प्रणिहित (असमाहित) संयमी संर जानता हुआ प्रव्रजित जीवन को खण्डित कर देता है। २८३. सुप्रणिहितयोगी पूर्व उल्लिखित दोषों से लिप्त नहीं होता। वह अपने कर्मों को वैसे ही भस्मसात् कर डालता है जैसे सूखे तिनकों को अग्नि । २८४. इसलिए श्रमण अप्रशस्त प्रणिधान को छोड़कर प्रशस्त प्रणिधान में प्रयत्न करे। इसीलिए आचारप्रणिधि का कथन किया गया है । १. जैसे हाथी सरोवर में स्नान करता है और तट पर आकर पुनः धुल उछाल कर अपने शरीर को धूलमय कर देता है, वैसे ही वह तपस्वी तपश्चरण रूप स्नान करने पर भी अन्यान्य कारणों से प्रभूत कर्मों का अर्जन कर लेता है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक ८५. आचारप्रणिधि के ये चार अधिकार हैं-षड्काय, पांच समितियां, तीन गुप्तियां और हा प्रकार की प्रणिधियां । नौवां अध्ययन : विनयसमाधि २८६. 'विनय' और 'समाधि'-इन दोनों पदों के चार-चार निक्षेप हैं। द्रव्यविनय में तिनिश (वक्ष विशेष) और स्वर्ण आदि के उदाहरण दिए जाते हैं। २८७. भावविनय के पांच प्रकार हैं-लोकोपचार विनय, अर्थ निमित्तक विनय, कामहेतुक विनय, भयनिमित्तक विनय और मोक्षनिमित्तक विनय । २८८. लोकोपचार विनय के पांच प्रकार हैं-अभ्युत्थान, हाथ जोड़ना, आसन देना, अतिथि पूजा और वैभव के अनुसार देवपूजा। २८९ अर्थ की प्राप्ति के लिए राजा आदि के पास रहना, उनकी इच्छा का अनुवर्तन करना, देशकालदान-राजा आदि को देश, काल आदि के विषय में सुझाव देना, अभ्युत्थान करना, हाथ जोड़ना, आसनदान आदि-यह अर्थविनय है। २९०,२९१. इसी प्रकार कामविनय और भयविनय भी ज्ञातव्य है। मोक्षविनय के पांच प्रकार ये हैं --दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और औपचारिक विनय । २९२. जिनेश्वर देव के द्वारा द्रव्यों की जितनी पर्यायें जिस प्रकार उपदिष्ट हैं उन पर वैसी ही श्रद्धा रखने वाला मनुष्य दर्शनविनय से संपन्न होता है। २९३. ज्ञानी ज्ञान को ग्रहण करता है, गहीत ज्ञान का प्रत्यावर्तन करता है, ज्ञान से कार्य संपादित करता है। इस प्रकार ज्ञानी नए कर्मों का बंध नहीं करता । वह ज्ञान विनीत अर्थात् ज्ञान से कर्मों का अपनयन करने वाला होता है। २९४. चारित्र विनय से युक्त संयम में यतमान मुनि आठ प्रकार के कर्मसमूह को रिक्त करता है और दूसरे नए कर्मों का बंध नहीं करता । वह चारित्रविनीत अर्थात् चारित्र से कर्मों का अपनयन करने वाला होता है। २९५. तपोविनय में निश्चलबुद्धि वाला जीव तपस्या से अज्ञान को दूर करता है तथा आत्मा को स्वर्ग और मोक्ष के निकट ले जाता है। वह तपोविनीत अर्थात् तपस्या से कर्मों का अपनयन करने वाला होता है। २९६. औपचारिक विनय संक्षेप में दो प्रकार का है-प्रतिरूपयोगयोजनविनय तथा अनाशातनाविनय । २९७. प्रतिरूपयोगविनय के तीन प्रकार हैं- कायिक योग, वाचिक योग तथा मानसिक योग । कायिकयोगविनय के आठ प्रकार, वाचिकयोगविनय के चार प्रकार और मानसिकयोगविनय के दो प्रकार हैं। उनकी प्ररूपणा इस प्रकार है २९८. कायविनय के आठ प्रकार हैं-- अभ्युत्थान, अंजलीकरण, आसनदान, अभिग्रह, कृतिकर्म--वन्दन, शुश्रूषा, अनुगमन और संसाधन । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति २९९. हितभाषी, मितभाषी, अपरुषभाषी और अनुवीचिभाषी- यह वाचिक विनय है। अकुशल मन का निरोध और कुशल मन की उदीरणा (प्रवृत्ति) यह मानसिक विनय है। ३००. यह परानुवृत्यात्मक प्रतिरूप (उचित) विनय प्राय: छद्मस्थों के होता है और अप्रतिरूपविनय केवली के होता है। ३०१. यह तीन प्रकार का प्रतिरूपलक्षण विनय बताया गया है। अनाशातना विनय के बावन प्रकार हैं। ३०२,३०३. तीर्थंकर, सिद्ध, कुल, गण, संघ, क्रिया, धर्म, ज्ञान, ज्ञानी, आचार्य, स्थविर, उपाध्याय और गणी-ये तेरह पद अनाशातना, भक्ति, बहमान तथा वर्णसंज्वलना (सद्भूत गुणोत्कीर्तना)-इन चारों से गुणित होने पर बावन हो जाते हैं--१३४४=५२ । ३०४. द्रव्य स्वयं ही अथवा जिस द्रव्य से समाधि होती है वह द्रव्य अथवा जो द्रव्य तुला को सम करता है, वह द्रव्य द्रव्यसमाधि है । भावसमाधि के चार प्रकार हैं-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप। दसवां अध्ययन : सभिक्षु ३०५. 'सकार' के चार निक्षेप हैं-नामसकार, स्थापनासकार, द्रव्यसकार और भावसकार । द्रव्यसकार प्रशंसा आदि विषयक होता है तथा भावसकार है-सकारोपयुक्त जीव । ३०६. निर्देश, प्रशंसा और अस्तिभाव-इन तीन अर्थों में 'सकार' का प्रयोग होता है। प्रस्तुत अध्ययन में निर्देश-सकार और प्रशंसा-सकार का अधिकार है। ३०७. तीर्थंकरों ने दशवकालिक सूत्र में जिन भावों को अनुष्ठेय बतलाया है, उनका अन्त तक आचरण करने वाला भिक्षणशील भिक्षु ही भिक्षु कहलाता है । ३०७११. चरक (परिव्राजक). मरुक (ब्राह्मण) आदि भिक्षोपजीवी व्यक्तियों का निरसन करने के लिए बताया गया है कि जो भिक्षु इस अध्ययन में अभिहित गुणों से युक्त होता है, वह सद्भिक्षु होता है । यहां 'सकार' प्रशंसा अर्थ में निर्दिष्ट है। ३०८. भिक्षु शब्द के निक्षेप, निरुक्त, एकार्थक, लिंग (संवेग आदि) तथा जो भिक्षु अगुणों में अवस्थित है, वह भिक्षु नहीं होता-ये सारे द्वार कथनीय हैं। इस प्रसंग में प्रतिज्ञा आदि पांच अवयवों का कथन भी होगा। ___३०९. भिक्षु शब्द के चार निक्षेप हैं - नामभिक्षु, स्थापनाभिक्षु, द्रव्यभिक्षु और भावभिक्षु । द्रव्यभिक्षु के दो भेद हैं-आगमतः द्रव्यभिक्षु तथा नो-आगमत: द्रव्यभिक्षु । द्रव्यभिक्षु का एक भेद और है, जो आगे कहा जा रहा है। ३१०. भेदक होता है पुरुष । भेदने का साधन होता है---परशु आदि । भेत्तव्य होता हैकाष्ठ आदि । इन तीनों की पृथक्-पृथक् प्ररूपणा करूंगा। ३११. जैसे लकड़ी का काम करने वाला वर्धकी भेदन और भेत्तव्य से संयुक्त होकर द्रव्यभिक्षु कहलाता है उसी प्रकार अन्यान्य याचक तथा अविरत लोग भी द्रव्यभिक्षु हैं । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० नियुक्तिपंचक ३१२. जो गृहस्थ का जीवन यापन करते हुए विषयों में आसक्त रहते हैं, ऋजुप्रज्ञ (भोले) व्यक्तियों के पास याचना करते हैं, वे द्रव्य भिक्षु हैं। तथा जो आजीविका के निमित्त दीन-कृपण अर्थात् कार्पटिक आदि भिक्षा के लिए घूमते हैं, वे भी द्रव्यभिक्षु हैं। ३१३. जो मिथ्यादृष्टि हैं, सदा पृथिवी आदि स्थावर जीवों तथा द्वीन्द्रिय आदि बस जीवों की हिंसा में रत रहते हैं, जो अब्रह्मचारी और संचयशील हैं, वे भी द्रव्यभिक्षु हैं । ३१४. जो द्विपद, चतुष्पद, धन, धान्य तथा कुप्य आदि को ग्रहण करने के लिए तीन करण और तीन योग से निरत हैं, जो सचित्तभोजी हैं, जो पचन-पाचन में रत हैं तथा जो उद्दिष्टभोजी हैं, वे द्रव्यभिक्ष हैं। ३१५. जो तीन करण और तीन योग से, अपने लिए, दूसरों के लिए अथवा दोनों के लिए, प्रयोजनवश या अप्रयोजनवश पाप कार्यों में प्रवत्त रहते हैं, वे द्रव्य भिक्ष हैं। ३१५३१. स्त्री-दासी आदि का ग्रहण करने से, आज्ञा-दान आदि भावसंग से--- परिणामी की अशुद्धि से और शुद्ध तपश्चरण का अभाव होने से कुतीथिक अब्रह्मचारी' हैं अर्थात अतपस्वी है। ३१६. भावभिक्षु दो प्रकार का होता है--- आगमतः और नोआगमतः । भिक्ष पदार्थ का ज्ञाता तथा उसमें उपयुक्त व्यक्ति आगमतः भावभिक्ष है। जो भिक्षगुण का संवेदक है, वह नो-आगमतः भावभिक्ष है। भिक्ष शब्द के तीन निरुक्त हैं-भेदक, भेदन और भेत्तव्य । 9. जाम , ३१७. आगमतः उपयुक्त मुनि भेदक है। दोनों प्रकार का तप-बाह्य और आभ्यन्तर भेदन (साधन) है और आठ प्रकार के कर्म भेत्तव्य है। आठ प्रकार के कर्मों का भेदन करने वाला भिक्ष होता है-यह भिक्ष का निरुक्त है। ३१८. कर्मों का भेदन करता हुआ मुनि भिक्षु होता है, संयम-गुणों में यतना करने वाला यति होता है। सतरह प्रकार के संयम का अनुष्ठान करने वाला संयम-चरक होता है। भव---संसार का अन्त करता हुआ वह भवान्त होता है। ३१९ भिक्षामात्रवृत्ति होने से मुनि भिक्षु कहलाता है। अण-- कर्मों का क्षय करने के कारण 'क्षपण', तथा तप-संयम में उद्यमशील होने से तपस्वी होता है। इस प्रकार भिक्ष के अन्यान्य पर्याय भी होते हैं। ३२०-३२२. तीर्ण, वायी, द्रव्य, व्रती, क्षान्त, दांत, विरत, मुनि, तापस, प्रज्ञापक, ऋजु, भिक्ष, बुद्ध, यति, विद्वान्, प्रव्रजित, अनगार, पाषण्डी, चरक, ब्राह्मण, परिव्राजक, श्रमण, निर्ग्रन्थ, संयत, मुक्त, साधु, रूक्ष, तीरार्थी-ये तप-संयम में रत भावभिक्षु के पर्यायवाची नाम हैं । ३२३,३२४. संवेग, निर्वेद, विषय-परित्याग, सुशील-संसर्ग, आराधना, तप, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय, क्षान्ति, मार्दव, आर्जव, विमुक्ति, अदीनता, तितिक्षा और आवश्यक-परिशुद्धि-ये भावभिक्ष के लिंग-चिह्न हैं। १. हाटी प० २६१ : अबह्मचारिण इति, ब्रह्मशब्देन शुद्धं तपोभिधीयते । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति १०१ ३२५. इस अध्ययन में कथित गुणों वाला व्यक्ति भावभिक्षु होता है और इन गुणों से रहित मुनि भावभिक्ष नहीं होता--यह प्रतिज्ञा वाक्य है। हेतु है-अगुणत्वात्-मुनि के योग्य गुणों का अभाव होने से और दृष्टान्त है-सुवर्ण । ३२६. स्वर्ण के आठ गुण हैं--- १. विषघाति-विष को नष्ट करने में समर्थ । ९. रसायन-वयस्तंभन करने वाला। ३. मंगलार्थ मांगलिक प्रयोजनों में प्रयुक्त। . ४. विनीत--परिवर्तित होने की क्षमता । ५. प्रदक्षिणावर्त्त--तप्त होने पर जिसका आवर्त दक्षिण की ओर हो । ६. गुरुक - सारसंपन्न । ७. अदाह्य- अग्नि में न जलने वाला। ८. अकुथनीय - कभी कुथित न होने वाला। ३२७. जो स्वर्ण कष, छेद, ताप और ताडना-इन चार कारणों से परिशुद्ध होता है, वही विषघातक, रसायन आदि गुणों से युक्त होता है । ३२८. जो समस्त गुणों से समन्वित होता है, वही स्वर्ण होता है। जो कष, छेद आदि से परिशुद्ध नहीं होता, वह युक्तिसुवर्ण-कृत्रिम स्वर्ण होता है। इसी प्रकार नाम और रूप मात्र से मुनिगुणों से विकल कोई भी मुनि भिक्षु नहीं होता। ३२९ युक्तिसुवर्ण अर्थात कृत्रिम स्वर्ण को भी जात्य स्वर्ण के वर्ण जैसा कर दिया जाता है. पर उसमें शेष गुण कप, छेद आदि न होने से वह यथार्थ में सोना नहीं होता। ३३०. प्रस्तुत अध्ययन में भिक्षु के जो गुण बताए गए हैं, उनके द्वारा ही वह भावभिक्ष होता है। पीत वर्ण वाले जात्यस्वर्ण में अन्यान्य गुण होने से ही वह शुद्ध स्वर्ण होता है । ३३१. जो भिक्षु भिक्षु-गुणों से शून्य है, वह भिक्षा ग्रहण करने मात्र से भिक्षु नहीं हो जाता। जैसे कष आदि गुणों के अभाव में वर्णवान् कृत्रिम स्वर्ण शुद्ध स्वर्ण नहीं हो जाता । ३३२. जो उद्दिष्टकृत भोजन करता है, षड्जीवनिकाय की हिंसा करता है तथा प्रत्यक्षतः सजीव जल पीता है, वह भिक्ष कैसे हो सकता है ? ३३३. इसलिए इस अध्ययन में भिक्षु के जो गुण बतलाए हैं, उन गुणों से युक्त मुनि ही भावभिक्ष होता है। वह उन मूल और उत्तर गुणों की आराधना से भाविततर-चारित्रधर्म में भावित होता है। प्रथम चूलिका : रतिवाक्या ३३४. 'चूडा' शब्द के चार निक्षेप हैं-द्रव्यचूडा, क्षेत्रचूडा, कालचूडा और भावचूडा । दशवकालिक श्रुत का यह 'उत्तरतंत्र' है। इसमें दशवकालिक श्रत से ही अर्थ का ग्रहण तथा संग्रहणी-उक्त तथा अनुक्त अर्थ का संक्षिप्त संग्रह है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक ३३५. द्रव्यचूडा के तीन प्रकार हैं- सचित्त, अचित्त और मिश्र । कुक्कुट चूडा सचित्त है । मणिचूडा अचित्त है । मयूरशिखा मिश्र है । क्षेत्रचूडा है - लोकनिष्कुट, मन्दरचूडा तथा कूट आदि ।' १०२ ३३६. अतिरिक्त अधिक मासों और अधिक संवत्सरों को कालचूडा कहते हैं । भावचूडा क्षायोपशमिक भाव है । इस प्रकार ये चूडाएं ज्ञातव्य हैं । ३३७. द्रव्यरति के दो प्रकार हैं-कर्मद्रव्यरति और नोकर्मद्रव्यरति । अनुदय प्राप्त रतिवेदनीय कर्मद्रव्यरति है और शब्द आदि द्रव्य नोकर्मद्रव्यरति है । ३३८. शब्द, रस, रूप, गंध और स्पर्श- ये रतिकारक द्रव्य हैं । यह द्रव्यरति है । कर्मों के उदय से होने वाली रति भावरति है । इसी प्रकार अरति को समझना चाहिए । ३३९. परीषहों के उदय से अरति उत्पन्न हो सकती है। मोक्षसुख की आकांक्षा से उसे सम्यक् रूप से सहन करना चाहिए । ३४०. वाक्य के विषय में पहले ( सप्तम अध्ययन में ) कहा जा चुका है । प्रस्तुत चूडा में धर्म में रति उत्पन्न करने वाले वाक्य हैं, इसलिए इसका नाम 'रतिवाक्या' है । ३४१, ३४२. जिस प्रकार रोगी के फोडे का सीवन छेदन किया जाना उसके लिए हितकर होता है तथा गलयंत्र आदि से अपथ्य का प्रतिषेध तथा आमदोषविरति करना उसके आरोग्य के लिए होता है वैसे ही आठ प्रकार के कर्मरोग से पीड़ित जीव की चिकित्सा के लिए धर्म में रति तथा अधर्म में अरति का होना गुणकारक है । ३४३. जो मुनि स्वाध्याय, संयम, तप, वैयावृत्त्य और ध्यानयोग में रमण करता है तथा असंयम में रमण नहीं करता, वह सिद्धि को प्राप्त होता है । ३४४. इसलिए धर्म में रतिकारक और अधर्म में अरतिकारक जो स्थान इस अध्ययन में निर्दिष्ट हैं, उनका सम्यग् अवबोध करना चाहिए । दूसरी चूलिका : विविक्तचर्या ३४५. दूसरी चूलिका - अध्ययन में पूर्वोक्त चार प्रकार का अधिकार है। शेष द्वारों का क्रमशः कथन किया जाएगा । ३४६. साधु की विहारचर्या के आधार पर साधु के दो भेद हैं- द्रव्यतः साधु - शरीरभव्य तथा भावतः साधु- संयत अर्थात् संयतगुण का संवेदक भावसाधु । प्रस्तुत अध्ययन में भावसाधु की अवगृहीता-अनियत तथा प्रगृहीता - अभिग्रहों से युक्त विहारचर्या का प्रतिपादन है । १. आदि शब्द से वृत्तिकार ने अधोलोक के सीमन्तक, तिर्यग्लोक के मन्दर पर्वत तथा ऊर्ध्वलोक के ईषत्प्राग्भारा का ग्रहण किया है । (हाटी प० २७० ) २. प्रथम चूलिका में द्रव्यचूडा, क्षेत्रचूडा, काल चूडा और भावचूडा का ग्रहण है (गाथा ३३४) । वृत्तिकार ने यहां नामचूडा, स्थापनाचूडा, द्रव्यचूडा और भावचूडा का ग्रहण किया है । (हाटी प० २७८ ) Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक नियुक्ति ३४७. अनिकेतवास, प्रतिरिक्तता (एकान्तवास), अज्ञात तथा सामुदानिक भिक्षा, अल्प उपधि, अकलह-यह ऋषियों की प्रशस्त विहारचर्या/जीवनचया है। ___३४८. मुनि मनक ने इस दशवकालिक सूत्र को छह महीनों में पढ़ लिया। उसका प्रव्रज्याकाल इतना ही था। उसके बाद वह समाधिमरण को प्राप्त हो गया। ३४९. मुनि मनक के दिवंगत होने पर आचार्य शय्यंभव की आंखों में आनन्द के आंसू आ गए। यशोभद्र आदि प्रमुख शिष्यों ने इसका कारण पूछा तो आचार्य शय्यंभव ने मुनि मनक को अपना संसारपक्षीय पुत्र बताते हुए उसकी शिक्षा-दीक्षा तथा दशवकालिक सूत्र के निQहण का इतिवृत्त कह सुनाया। दशवकालिक सूत्र को अब सुरक्षित रखा जाए या नहीं, इस प्रसंग पर संघ में विचार-विमर्श चला और इस आगम को भव्य जीवों के लिए बहुत कल्याणकारी बताया गया । तब से आज तक इस आगम का अध्ययन जैन परम्परा में अविच्छिन्न रूप से चल रहा है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन निर्युक्ति Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. २. ३. ४. ५. ६,७. उत्तर शब्द के निक्षेप उत्तर और अनुत्तर का स्वरूप उत्तराध्ययन के अध्ययन का क्रम । उत्तराध्ययन के स्रोत । अध्ययन शब्द का निक्षेप तथा एकार्थक | अध्ययन शब्द की व्युत्पत्ति । आचार्य की दीपक से उपमा । भाव आय का स्वरूप तथा एकार्थक । १०. द्रव्यक्षपणा का स्वरूप | ११. भावक्षपणा का स्वरूप । श्रुतस्कन्ध के निक्षेप । १२. १३-१७. उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों के नाम । १८-२६. अध्ययनों की विषयवस्तु । २७. प्रत्येक अध्ययन के व्याख्या की प्रतिज्ञा । पहला अध्ययन २८. विनयश्रुत के उपक्रम आदि द्वार । २८ । १, २. अध्ययन के चार प्रकार और विनयश्रुत के साथ उनकी संयोजना । ८. ९. २८।३, ४. अध्ययन शब्द का निरुक्त । श्रुत शब्द के निक्षेप । २९. ३०. संयोग शब्द के छह निक्षेप । ३१-६४. संयोग के भेद - प्रभेद । ६५. दुष्ट और आकीर्ण घोड़े के एकार्थक । दूसरा अध्ययन ६६-६८. परीषह के निक्षेप । ६९. भावपरीषह के द्वार | ७०. कर्मप्रवाद पूर्व में परीषहों का वर्णन । ७१, ७२. परीषहों का अधिकारी । ७३. परीषहों का समवतरण । ७४-७९. कर्मप्रकृति और परीषहों का सम्बन्ध | किस साधु में कितने परीषह ? ८१,८२. परीषह और नय । ८०. विषयानुक्रम ८३. ८४. ८५. ८६. ८७. 55,58. ९०. ९१. ९२. ९३. ९४. ११६. एक समय में की संख्या । उष्ण परीषह में अर्हन्नक की कथा । दंशमशक परीषह में सुमनभद्र मुनि की घटना । ९५-९८. वस्त्र परीषह में सोमदेव मुनि का उदाहरण । ९९,१००. रति- अरति परीषह का उदाहरण । १०१-१०६. स्त्री परीषह में मुनि स्थूलभद्र का उदाहरण । चर्या परीषह में संगम आचार्य का उदाहरण । १०८. नैधिकी परीषह में कुरुदत्त की कथा । १०९, ११०. शय्या परीषह की कथा का संकेत । १११. आक्रोश परीषह में अर्जुनमाली का कथानक । ११२ - ११४. वध परीषह में स्कन्दक आचार्य की कथा । ११५. याचनापरीषह में बलदेव तथा अलाभ परीषह १०७. में ढंढण मुनि का उदाहरण | रोग परीषह में ११७. ११८. ११९. १२०. 'एक व्यक्ति में उत्कृष्ट परीषहों परीषहों का कालमान । सनत्कुमार चक्रवर्ती द्वारा सात सौ वर्षों तक परीषह-सहन । परीषहों का क्षेत्र- विमर्श | उद्देश आदि तीन द्वारों का कथन । बावीस परीषहों की कथाओं का संकेत । क्षुधा परीषह में हस्तीभूति का उदाहरण । तृषा परीषह में धनशर्मा मुनि का कथानक । शीत परीषह में भद्रबाहु के शिष्यों का उदाहरण । उदाहरण । तृणस्पर्श परीषह के अन्तर्गत भ्रद्र मुनि की घटना । मैल परीषह में सुनंद श्रावक की कथा | सत्कार परीषह में इंद्रदत्त पुरोहित की कथा । प्रज्ञा परीषह का उदाहरण । १२१,१२२. ज्ञान परीषह के अन्तर्गत दो कथाओं का संकेत । कालवैशिक मुनि का Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ उत्तराध्ययन नियुक्ति १२३-१४१. दर्शन परीषह में आचार्य आषाढ़भूति की १८०,१८१. विस्रसाकरण की व्याख्या और प्रकार । कथा तथा अन्य अनेक कथानक । १८२. प्रयोगकरण के दो प्रकार । तीसरा अध्ययन १८२/१,२. शरीर के अंग और उपांग । १८३,१८४. जीवमूलप्रयोगकरण । १४२. एक शब्द के सात निक्षेप । १८५,१८६. उत्तर प्रयोगकरण के भेद । १४३. संख्या शब्द के निक्षेप । १८७. अजीव प्रयोगकरण के भेद । १४४. अंग शब्द के चार निक्षेप । १८७/१. द्रव्यकरण के भेद-प्रभेद । १४५. द्रव्य अंग के प्रकार । १८८. क्षेत्रकरण का स्वरूप । १४६-१४८. गन्ध द्रव्य के निर्माण की विविधता और १८९. कालकरण का स्वरूप । उनकी फलश्रुति । वासवदत्ता एवं उदयन का १९०-१९२/१. प्रकारान्तर से करण के ग्यारह भेद तथा उदाहरण। १४९,१५०. औषधि के अंग प्रतिपादन में अनेक रोगों को ध्रुवकरण और चलकरण । १९३-९६. भावकरण के भेद-प्रभेद । हरने वाली गुटिका के निर्माण की विधि । १९७. अप्रमत्त रहने का निर्देश । मद्यांग के निर्माण की विधि । १९८,१९९. द्रव्यदीप तथा भावदीप के भेद-प्रभेद । १५२. आतोद्य अंगों के प्रकार। पांचवा अध्ययन १५३,१५४. शरीर के अंग और उपांग । १५५. युद्धांग के प्रकार। २००,२०१. काम और मरण शब्द के निक्षेप । १५६,१५७. भाव अंग के भेद-प्रभेद । २०२. द्रव्यमरण, भावमरण आदि का स्वरूप । १५८. शरीरांग के एकार्थक । २०३,२०४. प्रस्तुत अध्ययन के द्वारों का निर्देश । १५९. भावांग--संयम (दया) के एकार्थक । २०५-२०७. मरण के अवीचि आदि १७ भेदों के नाम । १६०. संसार में दुर्लभ क्या ? २०८. अवीचि के एकार्थक तथा उसके भेद । मानव जीवन की दुर्लभता के दस दृष्टांत । २०९. अवधिमरण का स्वरूप । १६२. मानव जीवन के दुर्लभ अंग । २१०. वलन्मरण तथा वशात मरण का स्वरूप । १६३,१६४. धर्म श्रवण में होने वाले व्याक्षेप । २११-२१३. अन्त:शल्यमरण का स्वरूप तथा उसकी १६५,१६६. मिथ्यादृष्टि और सम्यक दष्टि जीव का गति । २१४,२१५. तद्भवमरण का स्वरूप । लक्षण। १६७-१७२. निह्नव प्रकरण --निह्नवों के वाद, प्रवर्तक, २१६. बालमरण, पंडितमरण तथा मिश्रमरण का नगर तथा उनका अस्तित्व-काल । स्वरूप। २१७. छदमस्थमरण और केवलिमरण के चौथा अध्ययन अधिकारी। १७३. प्रमाद और अप्रमाद शब्द के चार-चार २१८. गृध्रपष्ठ और वैहायस मरण का स्वरूप । निक्षेप। २१९,२२०. भक्तपरिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन मरण १७४. पांच प्रकार के प्रमाद और अप्रमाद । का प्रतिपादन । १७५. प्रमादाप्रमाद अध्ययन का निरुक्त । २२१,२२२. एक समय में कितने मरण संभव ? असंस्कृत शब्द की नियुक्ति । २२३. एक समय में होने वाले मरण की संख्या । १७७. करण शब्द के छह निक्षेप । २२४. प्रशस्त और अप्रशस्त मरण कितनी बार ? १७८. द्रव्यकरण के दो प्रकार । २२५,२२६. 'कतिभाग' मरणद्वार का प्रतिपादन । १७९. नोसंज्ञाकरण के दो प्रकार प्रयोगकरण २२७. अध्ययन की नियुक्ति का उपसंहार । और विस्रसाकरण । २२८. प्रशस्त मरण के भक्तपरिज्ञा आदि तीन भेद । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम १०९ mm २२९. सकाम मरण की प्रशंसा । २७७. शाल-महाशाल का पृष्ठचंपा में आगमन । छठा अध्ययन २७८. गागलि की प्रव्रज्या । २३०. महत और क्षल्लक शब्द के निक्षेप । २७९-२९९. भगवान महावीर का उपदेश तथा गौतम २३१,२३२. निग्रंथ शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद-प्रभेद । द्वारा सिद्ध पर्वत की यात्रा। दत्त, २३३. निग्रंथों के प्रकार। कौडिन्य तथा शैवाल-तीनों तापसों का २३४. बाह्य और आभ्यन्तर ग्रंथ के भेद । प्रसंग, गौतम द्वारा प्रव्रज्या, तीनों की कैवल्योत्पत्ति के कारणों का निर्देश तथा २३५. चौदह प्रकार के आभ्यन्तर ग्रन्थों (बंधनों) गौतम की अधति और उसका समाधान । का नामोल्लेख । ३००-३०२. पांडुर पत्र तथा कोंपल के संवाद की अर्थ२३६. दस प्रकार के बाह्य ग्रंथों (बंधनों) का। नामोल्लेख। वत्ता तथा उपमा का उल्लेख । २३७. क्षुल्लक निग्रंथीय अध्ययन का निष्कर्ष । क्षुल्लक नि ग्यारहवां अध्ययन सातवां अध्ययन बह, श्रत और पूजा-इन तीनों शब्दों के २३८,२३९. उरभ्र शब्द के निक्षेप तथा भेद-प्रभेद । निक्षेप तथा द्रव्यबहु का उल्लेख । औरभ्रीय अध्ययन का निरुक्त। भाव बहु का वर्णन । २४०. २४१. प्रस्तुत अध्ययन के काकिणी आदि पांच द्रव्यश्रुत और भावश्रुत का स्वरूप । भव्य और सम्यक दृष्टि का श्रुत है सम्यक् दृष्टान्तों का उल्लेख । श्रत तथा कर्मनिर्जरा का कारण । २४२. प्रस्तुत अध्ययन का निष्कर्ष । ३०७. मिथ्यादृष्टि और अभव्य का श्रुत है मिथ्या२४२/१. दीर्घायु का लक्षण । श्रुत तथा कर्मबंध का कारण । आठवां अध्ययन ३०८. द्रव्यपूजा का स्वरूप । २४३,२४४. कपिल शब्द के निक्षेप तथा उसके भावपूजा का स्वरूप। भेद-प्रभेद । ३१०. भावपूजा के अधिकारी। २४५. कापिलीय अध्ययन का निरुक्त । बारहवां अध्ययन २४६-५२. कपिल के गृहस्थ और मूनि जीवन की कथा ३११.३१२. हरिकेश शब्द के निक्षेप तथा उसके भेदका उल्लेख । प्रभेद । नवां अध्ययन ३१३. हरिके शीय अध्ययन का निरुक्त । २५३,२५४. नमि शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद-प्रभेद ।। । ३१४,३१५. हरिकेश का पूर्वभत्र तथा उसके वैराग्यो२५५. नमिप्रव्रज्या अध्ययन का निरुक्त । त्पत्ति का कारण । २५६. प्रव्रज्या शब्द के निक्षेप तथा द्रव्य और भाव चंडाल शब्द के एकार्थक । प्रव्रज्या का स्वरूप । ३१७-३२१. हरिकेश के वर्तमान जन्म की कथा, विरक्ति २५७.२७२. करकंडु, दुर्मख, नमी तथा नग्गति राजाओं का कारण तथा अभिनिष्क्रमण । के वैराग्योत्पत्ति के कारणों का निर्देश । तेरहवां अध्ययन दसवां अध्ययन ३२२,३२३. चित्र और संभूत शब्द के निक्षेप तथा उसके २७३,२७४. द्रुम शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद-प्रभेद ।। भेद-प्रभेद । २७५. भावद्रुम की व्याख्या तथा पत्र शब्द के ३२४. चित्रसंभूत अध्ययन का निरुक्त । निक्षेप । ३२५-३५२. चित्र और संभूत के पूर्वभव का वर्णन तथा २७६. द्रुमपत्र अध्ययन के नाम की सार्थकता । ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के जीवन-संकेत । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति ३७४. चौदहवां अध्ययन ३८८-३९८. नरपति 'संजय' की जीवन-कथा, आचार्य ३५३,३५४. इषकार शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद गर्दभाली का प्रतिबोध और महाराज संजय प्रभेद। की प्रव्रज्या। ३५५. इषुकारीय अध्ययन का निरुक्त । उन्नीसवां अध्ययन ३५६-३६६. इषकार आदि के पूर्वभव तथा वर्तमान भव ३९९,४००. मृग शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद-प्रभेद । के कथा-संकेत । ४०१. भावमृग का वर्णन तथा पुत्र शब्द के निक्षेप । पन्द्रहवां अध्ययन ४०२. मृगापुत्रीय अध्ययन का निरुक्त । ३६७,३६८. भिक्षु शब्द के निक्षेप, उसके भेद-प्रभेद तथा तथा ४०३-४१५. मृगापुत्र का जीवनवृत्त, जातिस्मृति से . निरुक्त। बोधिलाभ, माता-पिता की अनुज्ञा से संयम३६९,३७०. द्रव्यभेत्ता और भावभेत्ता । ग्रहण, उत्कृष्ट धामण्य का पालन, मोक्ष३७१. राग, द्वेष, विकथा आदि आठ पदों की क्षुध् गमन । (क्षधा) संज्ञा । बीसवां अध्ययन ३७२. उत्तम भिक्षु की पहचान । ४१६. क्षुल्लक और महत् शब्द के निक्षेप । सोलहवां अध्ययन ४१७,४१८. निर्ग्रन्थ शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद प्रभेद । ३७३. एक शब्द के सात निक्षेप । दश शब्द के निक्षेप तथा उसकी व्याख्या। ४१९-४२१. निग्रन्थ क प्रज्ञापना, वद आदि ३७द्वार । ३७५. ब्रह्म शब्द के निक्षेप तथा द्रव्यब्रह्म का। ४२२. महानिर्ग्रन्थीय अध्ययन का निष्कर्ष । स्वरूप। इक्कीसवां अध्ययन ३७६. भावब्रह्म का स्वरूप और वर्जनीय स्थान । ४२३. समुद्रपाल शब्द के निक्षेप तथा भेद-प्रभेद । ३७७. चरण शब्द के छह निक्षेप तथा द्रव्यचरण ४२४. समुद्रपालीय अध्ययन का निरुक्त । आदि का स्वरूप। ४२५-४३६ समुद्रपाल की जन्मकथा, विवाह, ३७८. समाधि के निक्षेप तथा द्रव्य और भाव वैराग्योत्त्पति का कारण, दीक्षा तथा मोक्षसमाधि का स्वरूप। प्राप्ति । ३७९. स्थान शब्द के पन्द्रह निक्षेप । बावीसवां अध्ययन सतरहवां अध्ययन ४३७,४३८. रथनेमि शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद प्रभेद । ३८०. पाप शब्द के निक्षेप तथा द्रव्यपाप आदि ४३९. रथनेमीय अध्ययन का निरुक्त। का स्वरूप । ४४०,४४१, रथनेमि के माता, पिता, भाई आदि के ३८१. भावपाप का स्वरूप। नाम। ३८२. श्रमण शब्द के निक्षेप तथा द्रव्य और भाव ४४२. अरिष्टनेमि तीर्थंकर । रथनेमि और श्रमण का स्वरूप । सत्यनेमि-दोनों प्रत्येक बुद्ध । ३८३. पापश्रमण कौन ? ४४३,४४४. रथनेमि तथा राजीमती का पर्याय परिमाण ३८४. पापस्थान वर्जन का फल । आदि । अठारहवां अध्ययन तेवीसवां अध्ययन ३८५,३८६.संजय शब्द का निक्षेप तथा उसके भेद । ४४५,४४६. गौतम शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद३८७. संजतीय अध्ययन का निरुक्त। प्रभेद । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम भावगीतम का स्वरूप तथा केशी शब्द के निक्षेप । ४४८. केशीगौतम अध्ययन का निरुक्त । ४४९-४५१. केशीगोतम के संवाद के विषयों का संकेत । ४४७. चौबोसर्वा अध्ययन ४९२,४५३. प्रवचन शब्द के निक्षेप और उसके भेदप्रभेद । ४५४, ४५५ माता शब्द के निक्षेप और उसके भेदप्रभेद । प्रवचनमाता अध्ययन का निरुक्त । ४५६. पच्चीसवां अध्ययन ४५७, ४५८. यज्ञ शब्द के निरुक्त और उसके भेद-प्रभेद । ४५९. यज्ञीय अध्ययन का निरुक्त । ४६०-४७६. जयघोष और विजयघोष मुनि की कथा । छब्बीसवां अध्ययन ४७७,४७८. साम शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद प्रभेद । ४७८।१२. सामाचारी के दश भेदों का नामोल्लेख। ४७९,४८०. आचार शब्द के निक्षेप तथा प्रभेद । उसके भेद सामाचारी अध्ययन का निरुक्त। ४८१. सत्ताईसवां अध्ययन ४६२,४८३. खलुंक शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद प्रभेद । खलुंक (दुष्ट) बैस के लक्षण । द्रव्य खलुंक का स्वरूप | वक्र कभी ऋजु नहीं हो सकते । अविनीत शिष्य को मच्छर आदि की उपमा । ४८८,४८९. खलुंक - अविनीत शिष्य के लक्षण । ४९०. खलुंक भाव को छोड़कर ऋजु बनने की प्रेरणा । अट्ठाईसवां अध्ययन ४८४. ४८५. ४५६. ४८७. ४९१,४९२. मोक्ष शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद-प्रभेदों का वर्णन । ४९३,४९४. मार्ग शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद-प्रभेदों का वर्णन । १११ ४९५,४९६. गति शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद-प्रभेदों का वर्णन । ४९७. मोक्षमार्गगति अध्ययन का निरुक्त | उनतीसवां अध्ययन ४९८. प्रस्तुत अध्ययन के तीन नाम ४९९,५००. अप्रमाद शब्द के निक्षेप, उसके भेद-प्रभेद तथा भाव अप्रमाद का स्वरूप । ५०१,५०२. श्रुत शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद - प्रभेद । ५०३. भावबूत के प्रकार । ५०४. अप्रमाद अध्ययन के नाम की सार्थकता । तीसवां अध्ययन ५०५,५०६. तप शब्द के निक्षेप, उसके भेद-प्रभेद तथा भावतप के प्रकार । मार्ग और गति के निक्षेप का पूर्वोल्लेख तपोमार्गगति अध्ययन का निरुक्त | ५०७. ५०८. इकतीसवां अध्ययन ५०९.५१०. चरण शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद-प्रभेदों का उल्लेख । ५११, ५१२ विधि शब्द के निक्षेप तथा उसके भेदप्रभेद । ५१३. बत्तीसवां अध्ययन ५१४,५१५. प्रमाद शब्द के निक्षेप तथा उसके भेदप्रभेद । ५१६. ५१७. ५१८. ५१९. चरणविधि के अनुसार आचरण करने का निर्देश । ५२०. ५२१. स्थान शब्द के पन्द्रह निक्षेप प्रमाद को छोड़कर अप्रमत्त रहने का निर्देश | हजार वर्ष उग्र तपश्चरण करने वाले आदिकर ऋषभ के एक अहोरात्र प्रमादकाल का कथन । भगवान् महावीर के साधिक बारह वर्ष के साधनाकाल में अन्तर्मुहूर्त काल मात्र के प्रमाद का कथन । प्रमाद से संसार - भ्रमण | प्रमाद को छोड़कर ज्ञान, दर्शन, चारित्र में अप्रमत्त रहने का निर्देश । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ तेतीसवां अध्ययन ५२२-५२४. कर्म शब्द के निक्षेप और उसके भेद-प्रभेदों का उल्लेख । ५२५-५२७. प्रकृति शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद-प्रभेदों का उल्लेख | कर्म प्रकृतियों के संवरण तथा निर्जरा का उपदेश | ५२८. चौतीसवां अध्ययन ५२९,५३०. लेश्या शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद-प्रभेदों का उल्लेख । ५३१. जीवलेश्या के भेद । ५३२, ५३३. अजीवद्रव्यलेश्या के दस प्रकार तथा उनके नामोल्लेख । द्रव्यकर्मलेश्या के कृष्ण, नील आदि छह प्रकार । ५३५,५३६. भावलेश्या के प्रकार और उनका स्वरूप । नोकर्मा के भेद । अध्ययन शब्द के निक्षेप तथा भेद-प्रभेद । ५३४. ५३७. ५३८. ५३९. ५४०. भाव अध्ययन का स्वरूप । अप्रशस्त लेश्या को छोड़कर प्रशस्त लेश्या में यत्न करने का निर्देश | पंतीसवां अध्ययन J ५४१.५४२. अनगार शब्द के निक्षेप उसके भेद-प्रभेदों का उल्लेख तथा भाव अनगार का स्वरूप | मार्ग और गति के निर्देश निशेष के पूर्वोल्लेख का ५४३. छत्तीसवां अध्ययन ५४४,५४५. जीव शब्द के निक्षेप, उसके भेद-प्रभेद तथा भाव जीव के दस परिणामों का उल्लेख उत्तराध्ययन निर्युक्ति ५४६,५४७. अजीव शब्द के निक्षेप, उसके भेद-प्रभेद तथा भाव अजीव के दस परिणामों का उल्लेख ५४८, ५४९. विभक्ति शब्द के निक्षेप तथा उसके भेदप्रभेद । सिद्ध आदि की विभक्ति का निरूपण । भावविभक्ति का उल्लेख तथा प्रस्तुत अध्ययन में द्रव्यविभक्ति के अधिकार का उल्लेख ५५२५५३. उत्तराध्ययन को पढ़ने के अधिकारी और अनधिकारी कौन ? ५५०. ५५१. ५५४. गुरु प्रसाद से इसका सांगोपांग अध्ययन संभव । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गायाओं का समीकरण उत्तराध्ययन नियुक्ति की गाथाएं चणि और शान्त्याचार्य की टीका दोनों में मिलती हैं। पर प्रकाशित चूणि में गाथा का केवल संकेतमात्र हैं उसमें गाथा संख्या नहीं है । संपादन में हमने कुछ गाथाओं के बारे में विमर्श किया है अतः संपादित गाथा संख्या और टीका की गाथा संख्या में कुछ अंतर होना स्वाभाविक है। पाठकों की सुविधा के लिए हम यहां संपादित गाथा एवं प्रकाशित शान्त्याचार्य की टीका में आई गाथाओं का चार्ट प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे टीका की गाथा खोजने में सुविधा हो सके। संपादित उटी संपादित संपादित उटी ४९ worm » rur , u 2 x , . ..x x 2224. MAR . " Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४. उत्तराध्ययन निर्यक्ति संपादित उटी संपादित ਰਣੀ संपादित ७२ १०५ १०४ १०५ ७४ ७३ ७४ १०६ १०७ १०८ १०९ १०७ १०८ १३७ १३८ १३९ १४० १४१ १४२ ११२ ११० १११ १३७ १३८ १३९ १४० १४१ १४२ १४३ १४४ १४५ १४६ १४७ १४८ १४९ १४३ ११२ १४४ ११३ ११४ ११५ ११३ ११४ ११६ ११७ ११५ ११६ ११८ ११७ १४५ १४६ १४७ १४८ १४९ १५० १५१ १५२ १५३ ११९ ११८ १२० १२० १२१ १५१ १५२ १५३ १२२ १५४ १२३ १५५ १२४ १२५ १५६ १२६ १५४ १५५ १५६ १५७ १:८ १२७ १२१ १२२ १२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १२८ १२९ १३० १३१ १३२ १३३ १३४ mrxu9. १५७ १५८ १५९ १६० १६१ १२८ १५९ १६० १२९ १३० १३१ १६२ १६३ १३२ १६४ १०१ १३३ १६२ १३४ १०३ १०४ १०२ १०३ १६५ १६६ १६७ १३५ १३५ १६४ १. टीका में ११८ के बाद १२० का अंक है । २. टीका में १६० का अंक दो बार आया है । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाओं का समीकरण उटी संपादित १६८ १६९ १७० १७१ १७२ १७२।१ १७२/२ १७२।३ १७२/४ १७२/५ १७२।६ १७२।७ १७२।१२ १७२।१३ १७२।१४ १७२।१५ १६७ १६८ १६९ १७० १७१ १७२ १७२८ १७३ १७२१९ १७४ १७२।१० १७५ १७२।११ १७६ १७७ १७८ भा १ भा २ १७९ १८० १७४ १७५ १७६ १७७ १७८ १७९ १८० १८१ १८२ १८२।१ १८२/२ १८३ Ex १८५ १८६ १८७ १६५ १६६ X X X १८१ १८२ १८३ १८४ १८५ १८६ १८७ १८८ १८९ १९० १९१ १९२ १९३ १९४ १९५ संपादित १८८ १८९ १९० १९१ १९२ १९२।१ १९३ १९४ १९५ १९६ १९७ १९८ १९९ २०० २०१ २०२ २०३ २०४ २०५ २०६ २०७ २०८ २०९ २१० २११ २१२ २१३ २१४ २१५ २१६ २१७ २१८ २१९ २२० उटी १९६ १९७ १९८ १९९ २०० उगा २०१ २०२ २०३ २०४ २०५ २०६ २०७ २०८ X २०९ २१० २११ २१२ २१३ २१४ २१५ २१६ २१७ २१८ २१९ २२० २२१ X २२२ २२३ २२४ २२५ २२६ संपादित २२१ २२२ २२३ २२४ २२५ २२६ २२७ २२८ २२९ २३० २३१ २३२ २३३ २३४ २३५ २३६ २३७ २३८ २३९ २४० २४१ २४२ २४२।१ २४३ २४४ २४५ २४६ २४७ २४८ २४९ २५० २५१ २५२ २५३ २५४ २५५ उटी २२७ २२८ २२९ २३० २३१ २३२ २३३ २३४ २३५ २३६ २३७ २३८ २३९ २४० २४१ २४२ २४३ २४४ २४५ २४६ २४७ २४८ २४९ २५० २५१ २५२ २५३ २५४ २५५ २५६ २५७ २५८ २५९ २६० २६१ २६२ ११५ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ उत्तराध्ययन नियुक्ति संपादित उटी संपादित उटी संपादित उटी २५६ २६३ २९२ ३१६ २६४ २५७ २५१ २५९ २९३ २९४ ३१७ ३१८ ३२३ ३२४ ३२५ xxx २९५ ३१९ ३२६ २९६ ३२० ३२१ ३२७ २६० २६१ २६२ २६२।१ २६३ २७२ २९७ २९८ २९९ ३२२ r mr mmmmmmm mm २७३ ३२३ ३३१ २६६ २८५ २८६ २८७ २८५ २८९ २९० २९१ २९२ २९३ २९४ २९५ २९६ २९७ २९८ २९९ ३०० ३०१ ३०० ३२४ ३२५ २६४ २६७ ३२६ २६५ २६८ २६९ २७० ३०१ ३०२ ३०३ ३३४ ३३५ २६६३१ ३०४ ३२७ ३२८ ३२९ ३३० २६७ २७४ ३०५ r mmmmmm m mr mm. ३०७ ३३१ ३३२ २६८ २६९ २७० २७१ २७२ २७३ ३४१ ३०२ ३०९ ३३३ ३३४ २७५ २७६ २७७ २७८ २७९ २८० २८१ २८२ २८३ २८४ ३०३ ३१० ३४२ ३४३ ३४४ الله ३३६ २७४ الله ३०५ ३११ ३१२ ३१३ ३१४ ३३७ ३४५ الله ०००००० ३३८ الله २७५ २७६ २७७ २७८ २७९ ३३९ ३१५ २८५ ३१६ ३४७ ३४८ ३४९ ३५० ३५१ ३५२ २८६ ३१० ३४० ३४१ ३४२ ३४३ ३४४ ३४५ २८० २८७ 9 २८१ २८८ २८९ ३१७ ३१८ ३१९ ३२० ३२१ ३२२ ३१२ ३१३ ३१४ ३१५ २८२ २९० ३४६ २८३ २८४ २९१ ३५४ ३५५ ३४७ १. २५८-२६७ तक गाथाओं की व्याख्या में चूणि और टीका में क्रमव्यत्यय है। २. २७३ की गाथा के स्थान पर टीका में "णामं ठवणा दविए" का संकेत है। ३. टीका में ३२७ के बाद ३३० का अंक है। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाओं का समीकरण संपादित उटी संपादित उटी संपादित उटी ३४८ ३४९ ३७७ ३७८ ३८३ ३८४ ४१० ४११ ३५६ ३५० ३८५ ४०६ ४०७ ४०८ ४०९ ४१० ३८७ ४१३ ३५१ ३५२ ३५३ ३८० ३८१ ३८२ ३८८ ४१४ ३८९ EEEEEEEEEEEE ४११ ४१५ ३५८ ३५९ ३६० ३६१ ३६२ ३६३ ३६४ ३५४ ३८३ ३९० ४१२ ४१३ ३८४ ३५५ ३५६ ४१६ ४१७ ४१८ ३८५ ४१४ ३५७ ३९१ ३९२ ३९३ ३९४ ३९५ ४१५ ३८६ ३८७ ४१९ ४२० ३५८ ३५९ ३६६ ३८८ ४१६ ४१७ ४१८ ४२१ ३६० ३६७ ३६८ ३९७ ३९० ३९१ ४१९ १६९ ३९८ ४२० ३९२ ३९९ ३७० ३७१ ३९३ ४०० ४२१ ४२२ ४२३ ४२४ ४२२ ४२३ ४२४ ४२५ ४२२१ ४२३ ४२४ ४२५ ३९५ ३९६ ४२५ ३६२ ३६३ ३६४ ३६५ ३६६ ३६७ ३६८ ३६९ ३७० ३७१ ३७२ ३७३ ३७४ ३७५ ३७६ ३७२ ३७३ ३७४ ३७५ ३७६ ३७७ ३७८ ३९७ ४२६ ३९८ ३९९ ० ० ० SH G.MGKUW00 ४२६ ४२७ ४२७ ४०० ४२८ ३७९ ४२९ مه له ४२९ ४३० ३७९' ४३० ३८० ४३१ ४०८ ४०७५ ४०८ ४०९ ४३१ ० ४०३ ४०४ ४०५ ३८१ ४३२ ४३२ ४३३ ३८२ १. ३५५ का अंक टीका में दो बार दिया हुआ है। २. टीका में ३७९ का अंक दो बार दिया है। ३. टीका में ३८६ का अंक नहीं है। ४. टीका में ४०१ का अंक दो बार दिया है। ५. टीका में ४०८ के बाद पूनः ४०७ का अंक है। ६.टीका में ४२५ के बाद पुनः ४२२ का अंक है। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ संपादित ૪૪ ४३५ ४३६ ४३७ ४३८ ४३९ ૪૪૦ ૪૪ ४४२ ४४३ ४४४ ४४५ ४४६ ४४७ ४४८ ४४९ ४५० ४५१ ४५२ ४५३ ૪૪ ४५५ ४५६ ४५७ ४५८ ४५९ ४६० ૪૬. ४६२ ૪૬૨ ४६४ ४६५ ४६६ उटी ४३४ ४३५ ४३६ ४३७ ४३८ ४३९ ४४३' ૪૪૪ ४४५ ४४६ ४४७ ४४८ ४४९ ४५० ४५१ ४५२ ४५३ ૪૫૪ ४५५ ४५६ ४५७ ४५८ ४५९ ४६० ४६१ ४६२ ४६३ XX ४६५ ४६६ ४६७ ૪. ४६९ संपादित ४६७ ४६८ ४६९ ४७० ४७१ ४७२ ४७३ ४७४ ४७५ ४७६ ४७७ ४७८ ४७८ १ ४७८/२ ४७९ ४८० * ४८२ ४८३ ४८४ ४८५ ४८६ ४८७ ४८८ * ४९० ४९१ ४९२ ४९३ ४९५ ४९६ ४९७ १. टीका में ४३९ के बाद ४४३ का अंक है । उटी ४७० ' ४७२ ४७३ r ४७५ ४७६ ४७७ ४७८ ४७९ ४८० ૪ ४८२ ४८३ ४८४ ४८५ ४८६ ४८७ ४८८ ४८९ ४९० ४९१ ४९२ ४९३ ४९४ ४९५ ४९६ ४९७ ४९८ ४९९ ५०० ५०१ ५०२ संपादित ४९८ ४९९ ५०० ५०१ ५०२ ५०३ ५०४ ५०५ ५०६ ५०७ ५०८ ५०९ ५१० ५११ ५१२ ५१३ ५१४ ५१५ ५१६ ५१७ ५१८ ५१९ ५२० ५२१ ५२२ ५२३ ५२४ ५२५ ५२६ ५२७ ५२८ ५२९ उत्तराध्ययन निर्युक्ति ਕਣੀ ५०३ ५०४ ५०५ ५०६ ५०७ ५०८ ५०९ ५१० ५११ ५१२ ५१३ ** ५१५ ५१६ ५१७ ५१८ ५१९ ५२० ५२१ ५२२ ५२३ ५२४ ५२५ ५२६ ५२७ ५२८ ५२९ ५३० ५३१ ५३२ ५३३ ५३४ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादित उटी संपादित ਬਣੀ उत्तराध्ययन नियुक्ति संपादित उटी ५३० ५३५ ५३१ ५३६ ५३२ ५३७ ५३३ ५३८ ५३९ ५४० ५३६ ५४१ ५३७ ५४२ ५३८ ५४३ ५३९ ५४० ५४१ ५४४ ५४५ ५४६ ५५२ ५५३ ५५४ ५४२ ५४७ ५४७ ५४८ ५४९ ५५० ५५१ ५५२ ५५३ ५४३ ५३५ ५४४ ५४५ ५४८ ५४९ ५५० ५५१ ५५६ ५५७ ५५८ ५५११ १. टीका में ५५८ के बाद पुनः ५५१ का अंक है। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन-नियुक्ति १. नामं ठवणा दविए, खेत्त दिसा ताव खेत्त पण्णवए । पति' काल-संचय-पहाण-नाण-कम गणणतो भावे ।। २. जहन्नं सुत्तरं' खलु, उक्कोसं वा अणुत्तरं होइ । सेसाणि उत्तराई, अणुत्तराइं च नेयाणि ॥ ३. 'कम उत्तरेण पगतं, आयारस्सेव उवरिमाई तु । तम्हा उ उत्तरा खलु, अज्झयणा होति नायव्वा ।। ४. अंगप्पभवा जिणभासिया य पत्तेयबुद्धसंवाया। बंधे मोक्खे य कया, छत्तीसं उत्तरज्झयणा ।। ५. नामं ठवणज्झयणे, दव्वज्झयणे य भावअज्झयणे । एमेव य अज्झोणे, आयज्झवणे वि य तहेव ।। ६. अज्झप्पस्साणयणं, कम्माणं 'अवचओ उवचियाणं ॥ अणुवचओ य" नवाणं, तम्हा अज्झयणमिच्छंति१२ । १. पय (ह)। तस्स फल-जोग-मंगल, २. कयपवयणप्पणामो, वोच्छं धम्माणयोगसंगहियं । समुदायत्था तहेव दाराई । उत्तरज्झयणणुयोगं, गुरूवएसाणुसारेणं ।।१।। तब्भेय निरुत्त-क्कम तस्स फल-जोग-मंगल, समुदायत्था तहेव दाराई। पयोयणाइं च वच्चाई। तब्भेय-निरुत्तिक्कम, पयोयणाइं च वच्चाई।।२।। (विभाकोटि गा• १,२) ये दोनों गाथाएं चणि तथा किसी हस्तप्रति ३. सउत्तरं (ला, ह, चू)। में 'मामं ठवणा दविए' गाथा से पूर्व मिलती ४. सेसाई (शां)। हैं। टीकाकार ने इनकी व्याख्या नहीं की है। ५. नेयाई (ला, ह)। यह चर्णिकार का मंगलाचरण भी हो सकता ६. कमुत्त० (च)। है। ये दोनों गाथाएं विशेषावश्यक भाग्य में ७. ० माई (ला)। शब्दान्तर से मिलती हैं ८. खलुः वाक्यालंकारेऽवधारणे वा (शांटी प ५)। कतपवयणप्पणामो, वोच्छं चरणगुणसंगहं सयलं। ९. आएज्झ० (ला, ह)। आवासयाणुयोगं, गुरूवदेसाणुसारेणं । १०. उवचओवचि० (ह)। ११. व (ला, शां)। १२. देखें-अनुदा ६२१११, दशनि २६ । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ७. अधिगमंति व अत्था, अणेण' अधिगं व गयणमिच्छति । अधिगं वर साहु गच्छति, तम्हा अज्भयणमिच्छति ॥ ८. जह दीवा दीवसयं, पदिप्पए सो य दिप्पती' दीवो । दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवेंति ॥ ९. भावे पसत्थमियरो, नाणादी कोहमादिओ कमसो | आउत्ति आगमोत्ति य, लाभोत्ति य होंति एगट्ठा || १०. पल्हत्थिया अपत्था", तत्तो उप्पिट्टणा अपत्थयरी | निप्पीलणा अपत्था, तिन्नि अपत्थाई पोत्तीए || ११. अट्ठविहं कम्मरयं. पोराणं जं" खवेइ जोगेहि । एयं भावज्झयणं १२, णेयव्वं Sagar || १२. सुतखंधे ३ निक्खेवं णामादि चउव्विहं परूवेउं ॥ 'नामाणि य अहिगारे १४, अज्झयणाणं पवक्खामि १५ ।। १३. विणयसुयं च परीसह, चउरंगिज्जं असंखयं चेव'" । अकाममरणं नियंठि ̈, ओरब्भं काविलिज्जं च ॥ १४. नमिपव्वज्ज६ दुमपत्तयं च, बहुसुयपुज्जं तहेव हरिएसं ॥ 'चित्तसंभूति उसुयारिज्ज २०, सभिक्खु" "समाहिठाणं २२ च । मियचारिया नियंठिज्जं । केसिगोतमिज्जं च ॥ १५. पावसमणिज्जं तह संजइज्जं समुद्दपालिज्जं १. इमेण (ला, ह) । २. (ला) । ३. दशनि २७ । ४. ०प्पई (ला, ह) । ५. दिप्पए (शां) । ६. अप्पं च (शां) । ७. दीवंति (शां), अनुद्वा ६४३ | १, दशनि २८ । ८.० मादितो (ला), मकारस्यालाक्षणिकत्वात् क्रोधादिकः (शांटी प ६ ) ९. आतोत्ति (ला) । १०. अमत्था (ह) । ११. जो (ह) । १२. ०झयणं (शां) । १३. सुतक्खंधे (ला) । रहनेमिज्ज२४ १४. णामाणहिगारे विय (ह) । १५. इस गाथा का चूर्णि में संकेत नहीं है किन्तु संक्षिप्त व्याख्या प्राप्त है । १६. होइ (ह) । १७. नियंठिज्जं (ह) । १८. १३-१७ तक की गाथाओं के लिए चूर्णि में "विणयसुयं च परीसह जाव जीवाजीवाभिगमोत्ति" मात्र इतना उल्लेख है । निर्युक्तिपंचक १९. ०पवज्जा (ह) | २०. चित्तसंभूतोसुया० (ला), ०संभूय उसु० (ह) । २१. भिक्खु (ला, ह) । २२. ० हिट्ठाणं (ला) । २३. संजईज्जं (शां) । २४. ०मीयं (शां, ह) । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययननियुक्ति १६. समिईओ' मोक्खगति इज्जं अप्पमादो, सामायारी 'तहा खलुंकिज्जं । तव चरण-पमायठाणं च'± ॥ १७. कम्मप्पगडी लेसा, बोधव्वे खलुऽणगारमग्गे ४ य । जीवाजीवविभत्ती', छत्तीसं उत्तरज्झयणा ॥ १८. पढमे विणओ 'बितिए, परीसहा' अधिगारो 'य चउत्थे", होइ ८. १९. मरणविभत्ती पुण पंचमम्मि विज्जाचरणं च 'छट्ट अज्झयणे'। रसगेहिपरिच्चाओ, सत्तमे अट्टमे " 2399 11 'अलाभो २०. निक्कंपया य नवमे २ दसमे अणुसासणोवमा पूया, तरिद्धी चेव " एक्कारसमे २१. तेरसमे य णियाणं, अनियाणं चेव होइ भिक्खुगुणा पन्नरसे४, सोलसमे २४. 'बंभगुणा पणवी से २१, सत्तावीसे असढया, दुल्लभंगता ततिए । 'पमादप्पमाए त्ति' ॥ २२. पावाण वज्जणा खलु, सत्तर से" भोगिड्डि विजहणद्वारे" । 'एगूणे अपsिकम्म १७, अाया चेव इमे ॥ २३. 'चरिया य विचित्ता' एक्कवीसे बावीसमे तेवीस मे धम्मो, १. ० इओ (शां) । २. खलंक मोक्खगती । अप्पमादो तवो मग्गो चरणविहि पमायठाणं च (ला, ह) । ३. बोद्धव्वे (शां) । ० अणगार० (ला, ह) । ६ १८ ४. ५. ० विभक्ति (शां) । ६. बीए परि० (शां) । ७. उ उत्थम्मि (ला) । ०माण (ला, ह), १८ से २६ तक की गाथाओं के लिए चूर्णि में "पढमे विणओ गाहा, एवं अत्याहिगारगाहा भाणियव्वाओ" मात्र इतना उल्लेख है । ९. छट्टए भणियं (ला, ह) । १०. अट्ठमि (शां) । चवीसइमे सामायारी अट्ठावीसे य भणिया । बारसमे || चउदसमे । भओ । 'थिरं चरणं' २० । समितीओ ॥ य य होइ छव्वीसे । मक्खी ॥ ११. य लोभे (ला) । १२. नवमं (ह) । १३. चोइसमे (ह, ला) । १४. पन्नरसमे (ला) । १५. यहां सत्तर शब्द रखने से छंद भंग नहीं होता है । लेकिन सभी प्रतियों में सत्तरसे पाठ उपलब्ध है । १२३ १६. ० विचयणद्वारे (ला, ह) १७. एकूणे अपडिकम्म (ह), ०अप्परिकम्मे (शां) । १८. चरियविचित्ता (ला, ह) । १९. बावीसतिमे (ह) । २०. द्वितीय चरणं च (ला, ह) । २१. बंभगुण पन्नवी से (शां) । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक एगुणतोसे' आवस्सगप्पमादो तवो य होइ तीसइमे । चरणं च एक्कतीसे, बत्तीसे पमायठाणाई ।। तेत्तीसइमे कम्म, चउतीसइमे य होंति लेसाओ। भिक्खुगुणा पणतीसे, जीवाजीवा य छत्तीसे ।। २७. 'उत्तरज्झयणाणेसो, पिंडत्थो वण्णितो समासेणं ॥ एत्तो एक्केक्कं पुण, अज्झयणं कित्तइस्सामि ।। २८. तत्थऽज्झयणं पढम, विणयसुतं तस्सुवक्कमादीणि । दाराणि परूवे, अधिगारो एत्थ विणएणं' ।। २८।१. ओहो जं सामन्नं, सुताभिहाणं चउव्विहं तं च । अज्झयणं अज्झीणं, आयो झवणा य पत्तेयं" ।। २८१२. नामादिचउन्भेयं, वण्णेऊणं सुयाणुसारेणं । विणयसुयं आउज्ज, चउसु पि कमेण भावेसुं ।। २८॥३. जेण सुहप्पज्झयणं, अज्झप्पाणयणमहियणयणं वा। बोधस्स संजमस्स य, मोक्खस्स व तो तमज्झयणं । २८१४. अक्खीणं दिज्जतं, अव्वोच्छित्तिणयतो अलोगो व। आओ नाणादीणं, झवणा पावाण कम्माणं ।। २९. विणयो२ पुन्वदिवो, सुतस्स चउक्कओ उ निक्खेवो । दव्वसुयनिण्हगादी, भावसुय सुए उ उवउत्तो ।। ३०. संजोगे निक्खेवो, छक्को दुविहो उ दव्वसंजोगे। संजुत्तगसंजोगो, नायवियरेयरो चेव ।। १. एगुणत्तीसइमे (ला,ह)। ये नियुक्ति गाथा के क्रम में न होकर उद्धृत २. गम्पमदो (ह), पमातो (ला)। गाथा के रूप में स्वीकृत हैं। मूलतः ये गाथाएं ३. X (ह)। विशेषावश्यक भाष्य की हैं। संभव है लिपि४. ठाणाई (ला)। कर्ताओं ने इनको भी नियुक्ति गाथाओं के ५. चोत्तीसतिमे (ला,ह)। साथ जोड़ दिया है। उनि १५ में अध्ययन के ६. पणु० (ह)। एकार्थक दिए हैं, वही बात २८।१ की गाथा ७. उत्तरज्झयणाण पिंडत्थे (चू)। में है। नियुक्तिकार ऐसी पुनरुक्ति नहीं करते। ८. पन्नवेउं (शां)। इसके अतिरिक्त विषय की दृष्टि से भी २८वीं ९. तत्थ (ला,ह)। गाथा के बाद २९वीं गाथा क्रमबद्ध लगती है। १०, चणि में यह गाथा रूप में संकेतित नहीं है, १२.विनय का वर्णन देखें दशनि २८६-३०१ तक। केवल भावार्थ प्राप्त है। शांत्याचार्य की टीका में ये गाथाएं उधत ११.२८।१-४ तक की चार गाथाएं 'ला' और 'ह' गाथा के रूप में हैं। (देखें शांटी प १६,१७)। आदर्शों में उपलब्ध हैं। टीका और चूर्णि में Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ उत्तराध्ययन नियुक्ति ३१. संजुत्तगसंजोगो, सच्चित्तादीण' होइ दवाणं ।। दुममणु सुवण्णमादी, संततिकम्मेण जीवस्स ।। ३२. मूले-कंदे-खंधे, तयाय साले पवालपत्तेहिं । पुप्फ-फले बीएहि य, संजुत्तो होइ दुममादी ।। ३३. एगरस एगवण्णे, एगे गंधे तहा दुफासे य । परमाणू खंधेहि य, दुपदेसादीहि विण्णेयो ।। ३४. जह धातू कणगादी, सभावसंजोगसंजुया होंति । इय संततिकम्मेणं, अणाइसंजुत्तओ जीवो। इतरेतरसंजोगो परमाणूणं तहा पदेसाणं ।। अभिपेयमणभिपेओ", अभिलावो चेव संबंधो । दुविहो परमाणूणं, हवति य संठाणखंधतो चेव । संठाणे पंचविहो, दुविहो पुण होइ खंधेसु ।। परमाणुपुग्गला खलु", दोन्नि व बहुगा य संहता संता । निव्वत्तयंति खधं, तं संठाणं अणित्थंत्थं ॥ परिमंडले य वट्टे, तंसे 'चउरंस आयए'१३ चेव । घणपयर" पढमवज्ज, ओयपदेसे य जुम्मे य॥ पंचग बारसगं खलु, सत्तग बत्तीसगं च५ वट्टम्मि । तिय छक्कग पणतीसा, चत्तारि य होंति तंसम्मि ॥ ४०. नव चेव तहा चउरो, सत्तावीसा य अट्ठ चउरसे । तिग-दुग पन्नरसे वि" य, छच्चेव य आयए होति ।। १. सचित्ता० (ला)। ९. संबद्धतो (ला)। २. दुमअणु (ह), मकारस्यालाक्षणिकत्वात् (शांटी १०. अभिप्पेय अभिप्पेतो (ला)। प२३)। ११. खलुशब्दोऽत्र विशेष द्योतयति (शांटी प २६)। ३. ०क्खंधे (ला) ."स्कन्धे इति सर्वत्र सूत्रत्वात् १२. अणिच्छत्तं (ह)। ततीयार्थे सप्तमी (शांटी प २३)। १३. मायए (शां)। ४. 'शाले'त्ति एकारोऽलाक्षणिक: (शांटी प २४)। १४. घनप्रतरं, प्राकृतत्वात् बिन्दुलोपः (शांटी ५. पत्ते य (ह)। प२७)। ६. 'दुममाइ'त्ति मकारोऽलाक्षणिकः (शांटी १५. तु (शां), ३९-४१ तक की गाथाओं का चूणि प२४)। में गाथा रूप में संकेत नहीं मिलता किन्तु ७. गंधे त्ति (ह)। व्याख्या प्राप्त है। + णेयम्बो (ला), णापम्यो (शां)। १६. व (हाला)। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक ४१. 'पणयालीसा बारस'', छब्भेया आययम्मि संठाणे। वीसा चत्तालीसा, परिमंडलगे उ संठाणे ।। ४१।१ णिद्धस्स णिद्धेण दुहाहिएण, लुक्खस्स लुक्खेण दुहाहिएण। णिद्धस्स लुक्खेण उवेति बंधो, जहन्नवज्जो विसमो समो वा ।। धम्मादिपदेसाणं, पंचण्ह उ जो पदेससंजोगो। तिण्ह पुण अणादीओ, सादीओ होति दोण्हं तु ।। अभिपेतमणभिपेतो, पंचसु विसएसु होति नायव्यो। अणुलोमोऽभिप्पेतो', अणभिप्पेतो यः पडिलोमो ।। सव्वा ओसधजुत्ती, गंधजुत्ती य भोयणविही" य । रागविहि गीतवादितविही, अभिप्पेतमणुलोमा ।। अभिलावे संजोगो, दवे खेत्ते य कालभावे य । दुगसंजोगादीओ, अक्खरसंजोगमादीओ ।। संबंधणसंजोगो, सच्चित्ताचित्तमीसओ चेव । दुपदादि हिरण्णादी, रह-तुरगादी य बहुधा उ ॥ खेत्ते काले य तहा, दोण्ह वि दुविहो उ होइ संजोगो । भावम्मि होइ दुविहो, आदेसे चेवणादेसे ।। आदिट्ठो आदेसंसि, बहुविहे सरिसनाण-चरणगते । सामित्त पच्चयाइम्मि चेव किंचित्तओ वोच्छं ।। 'ओदइय" ओवसमिए, खइए य तहा खओवसमिए य१२ । परिणाम-सन्निवाए, य छविहो होतऽणादेसो'३ ।। ४९. पणयाला बारसगं (ह)। २. प्रस्तुत गाथा प्रज्ञापना सूत्र (१३।२२।२) की है। टीकाकार और चर्णिकार ने इसकी व्याख्या नहीं की है । ला और ह प्रति में यह गाथा प्राप्त है। यह गाथा निगा की नहीं होनी चाहिए। ३. तिन्नि (ह,ला)। ४. अणुलोमं अभिपेतो (ला,ह) । ५. उ (ह)। ६. तोसध० (ला)। ७. होयण० (ला)। ८. विही य (ला,ह)। ९. ०प्पेत अणु० (ह)। १०. 'ला' तथा अन्य हस्त आदर्शों में यह गाथा उपलब्ध ह लाकन टाकाकार आर चूाणकार ने न इसकी सूचना दी है और न व्याख्या की है। टीका के संपादक ने 'क्वचिदत्र प्राक' इतना उल्लेख करके इस गाथा को टिप्पण में दिया है। किन्तु प्रसंग के अनुसार यह निगा की होनी चाहिए। क्योंकि गाथा में निर्दिष्ट प्रतिज्ञा के अनुसार इस गाथा की व्याख्या उनि गा. ६० एवं ६१ में है। ११. क्वचित्तु उदयिए' त्ति पठ्यते (शांटी प ३३)। १२. उदइय-उवसम-खइएसु तह खइए य उवसमिए १३. होति णा० (चू)। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ उत्तराध्ययन नियुक्ति ५०. आदेसो पुण दुविधो, अप्पियववहारऽणप्पितो चेव । एक्केक्को पुण तिविहो, अप्पाण' परे तदुभए य ।। ५१. ओवसमिए' य खइए, खयोवसमिए य पारिणामे य । एसो चउव्विहो खलु, नायव्वो अत्तसंजोगो ।। ५२. जो सन्निवाइओ खलु, भावो उदएण वज्जितो होइ । एक्कारससंजोगो, एसो चिय' अत्तसंजोगो । लेसा-कसायवेदण, वेदो अण्णाण मिच्छ मीसं च। जावइया ओदइया, सव्वो सो बाहिरो जोगो । जो सन्निवाइओ" खलु, भावो उदएण मीसितो होइ । पन्नारससंजोगो, सव्वो सो मीसओ जोगो । ५५. बितिओ वि य* आदेसो, अत्ताणे बाहिरे तदुभए य । संजोगो खलु भणिओ, तं कित्तेऽहं समासेणं ।। ओदइय' ओवसमिए१२, खइए य तहा खओवसमिए य । परिणाम-सन्निवाए य छव्विहो अत्तसंजोगो । ५७. नामम्मि'३ य खेत्तम्मि य, नायव्वो बाहिरो उ१४ संजोगी। कालेण बाहिरो खलु, मिस्सो'५ वि य तदुभए होइ ।। ५८. आयरिय सीस पुत्तो, पिया य जणणी य होइ धूया य। भज्जा पति सीउण्हं, 'तमुज्ज छायाऽऽतवे चेव' । ५९ आयरिओ तारिसओ, जारिसओ नवरि होज्ज सो चेव । आयरियस्स वि सीसो, सरिसो सव्वेहि वि गुणेहिं ।। १. अत्ताण (शां) अत्ताण त्ति आर्षत्वादात्मनि ८. मीसिओ (शां)। (शांटी प. ३३)। ९. बीओ (शां)। २. उवसमेण (चू)। १०. ४ (च)। ३. खलु वाक्यालंकारे (शांटी प ३४)। . ११. उदइओ (ला,ह), ओदयिय (च) । ४. च्चिय (ला)। १२. उवस० (ह)। ५. कषायवेदनं प्राकृतत्वादिबदुलोपः (शांटी प १३. प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे सप्तमी (शाटी ५ ३४)। ३७)। ६. तोद० (ला), ला प्रति तकार बहुल है अतः १४. य (ला,शां)। ऐसे पाठान्तर प्राय: नहीं लिए हैं । १५. मीसो (शां)। ७. सन्निवाओ (चू)। १६. तमुज्जुछाया तहेव च (ला), तमुज्जु० (ह)। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ६०. ६१. ६२. ६३. ६४. ६५. ६६. ६७. एवं नाणे चरणे, सामित्ते अपणो य' पिउणो त्ति । 'मज्झकुले कुलगस्स य अहंगं अब्भंतरो म्हि य" ।। पच्चयओ य बहुविहो, निव्वित्ती पच्चओ जिणस्सेव । देहाय बद्धमुक्का, 'माइ - पिति सुयादि '3 य हवंति ॥ संबंध संजोगो, कसायबहुलस्स होइ जीवस्स | 'पहुणो वा अपहुस्स व मज्भं ति ममज्जमाणस्स ५ ।। संबंधण संजोगो, संसाराओ अणुत्तरणवासो | तं छितु विमुक्का 'साधू मुक्का ततो तेणं' ' ।। संबंधण संजोगे, खेत्तादीणं विभास जा भणिया । खेत्तादिसु संजोगो, सो चेव विभासितव तु ।। गंडी गली. मराली, अस्से गोणे य होंति एगट्ठा । आइण्णेय विणीए, य भए यावि एगट्ठा" ॥ विणयसुयस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता ६ णासो परीसहाणं, चउन्विहो 'य दुविहो उ दव्वम्मि" । आगम- नोआगमतो, नोआगमतो य" सो तिविहो ॥ जाणगसरीर भविए, तब्वतिरित्ते य से भवे दुविहे । कम्मे नोकम्मे या४, कम्मम्मि य अणुदओ भणितो ।। १. उ (शां) । २. मज्भं कुलेऽयमस्स य अहयं अभिंतरो मित्त (शां), मज्झायं कुलयस्स य अहयं अब्भंतरोम्हि ति ( शांति प ४० ) । ३. माय पिय- सुयादय (ला, ह) । ४. बहुणो व अप्पहुस्स (ला) । ५ ममिज्ज० (ला) । ६. माइ- पिइ सुआइ (शां) ला प्रति में यह गाथा नहीं है । ७. य (शां) । ८. आसे (ला, ह) । ९. वाबि (शां) । १०. चूर्णि में इस गाथा का संकेत नहीं है लेकिन टीकाकार ने (वृत्ति प ४९) इस गाथा के लिए 'निर्युक्तिकृद्' ऐसा उल्लेख किया है। संभव है यह गाथा बाद की रचना हो क्योंकि प्रायः निर्युक्तिकार अध्ययन के प्रारम्भ में ही निर्युक्ति लिखते हैं बीच में नहीं । यह केवल अकेली गाथा सूत्रगाथाओं के बीच में आयी है । ११. दव्वे होइ दुविहो उ (ला, ह), दुब्बिहो य दव्वंमि (शां) । १२. उ (ला, ह) । १३. सो (ह) । निर्य क्तिपंचक १४. च: समुच्चए, दीर्घत्वं च प्राकृतलक्षणात् (शांटी प ७२) Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ उत्तराध्ययन नियुक्ति ६८. नोकम्मम्मि य तिविहो, सच्चित्ताचित्तमीसओ' चेव । भावे कम्मस्सुदओ, तस्स उ 'दारा इमे होंति'२ ।। ६९. कत्तो कस्स व दव्वे,[समोतारे] अहियास नए य वत्तणा कालो । खेत्तुद्देसे पुच्छा, निद्देसे सुत्तफासे य ।। ७०. कम्मप्पवायपुव्वे, सत्तरसे पाहुडम्मि जं सुत्तं । सणयं सउदाहरणं, तं चेव इहं पि णातव्वं ॥दार।। तिण्हं पि नेगमणओ, परीसहो जाव उज्जुसुत्ताओ। तिण्हं सद्दणयाणं, परीसहो संजए होइ ।। ७२. पढमम्मि अट्ठभंगा, संगह जीवो व अहव नोजीवो। ववहारे नोजीवो, जीवद्दव्वं तु सेसाणं ।।दा।। समुतारो खलु दुविहो, पगडी'° पुरिसेसु चेव नायव्यो । एएसिं नाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुवीए । नाणावरणे वेदे, मोहम्मि य अंतराइए चेव । एएसुं 'कम्मेसुं, बावीसपरीसहा होति'" । पण्णाऽण्णाण परीसह, नाणावरणम्मि होंति दुन्नेते । एक्को य अंतराए, अलाभपरीसहो होइ । अरती अचेल इत्थी, निसीहिया जायणा' य अक्कोसे । सक्कारपुरक्कारे, 'चरित्तमोहम्मि सत्तेए'" । ७७. 'अरतीइ दुगुंछाए'५, पुंवेय भयस्स चेव माणस्स । कोहस्स य लोहस्स य, उदएण परीसहा सत्त ।। ५. १. सचित्ता० (ला)। ९. समोयारो (शां, ला)॥ २. दाराणिमे हुंति (शां)। १०. पयडि (शां)। ३. कयरे (ह)। ११. बावीसं परीसहा हुंति णायव्वा (शां)। ४. समोआर (शां), समोतारो (चू), 'समोतारे' १२. दोन्नेते (ह) । शब्द न रहने से छंदभंग नहीं होता। १३. जाइणा (ह)। ५. ०पुवा (चू)। १४. सत्तेए चरित्तमोहम्मि (ला), सत्तेव चरि० ६. सोदा. (ला, शां, चू)। ७. य (ह)। १५. अरतीए० (ला), अरईइ० (हा), अरई ८. चूर्णि में इस गाथा की व्याख्या है, किंतु दुगुंछा य (चू)। गाथा-संकेत नहीं है। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ७८. ७९. ८०. ८१. ८२. ८३. 58. ८५. ८६. ८७. दंसणमोहे दंसणपरीसहो, सेसा परीसहा पुण', १. खलु (शां) । २. व (शां) । ३. जलमेव (शां) । ८. इ (ह) | ९. तू (ला) । ४. चोट्स (ला, ह) | x (ला) । ० मणेसणेज्जं (चू ) । पंचेव आणुपुव्वी, चरिया सेज्जा वधे य रोगे य । तण - फास 'जल्ल एव" य, एक्कारस वेयणिज्जम्मि || बावीस बादरसंपराए, चउदस य' सुहुमरागम्मि । छउमत्थवीयरागे, चउदस एक्कारस जिणम्मि || एसणमणेस णिज्जं तिन्हं अग्गहणऽभोयण नयाणं । अहियासण बोधव्वाँ, फासुग सदुज्जुसुत्ताणं || जं पप्प नेगमनओ, परीसहो वेयणा य दोहं तु । वेयण पडुच्च जीवे, उज्जुसुओ सद्दस्स पुर्ण आया ॥ दारं || वीसं उक्कोसपदे, वट्टति जहन्नतो भवति एगो । सीउसिण- चरियं, निसीहिया य जुगवं न वासग्गसो" य तिन्हं, मुहुत्तमं तं " च होति सद्दस्स एग समय, परीसहो हो वट्टति । दारं ॥ ५. ६. ७. बोद्धव्वा (शां) । नियमसो भवे एगो । एक्का रस वेणज्जमि || कंडू अभत्तछंदो", अच्छीणं वेयणा तहा कुच्छी । कासं ३ सासं च जरं, अहियासे सत्तवाससए | दारं || लोगे संथारम्मिय, परीसहा जाव उज्जुसुत्ताओ । तिन्हं सहनयाणं, परीसहा होंति अत्ता ॥ उद्देो गुरुवयणं, पुच्छा सीसस्स " निद्देसो पुणिमे १४ खलु, उ मुणेयव्वा । बावीसं सुत्तफासे य५ ।। उज्जुसुए । नायव्वो । नियुक्तिपंचक १०. वासग्गसो यत्ति आर्षत्वाद्वर्षाग्रतः प७८) । (शांटी ११. मुहुत्तम (ला, ह), मुहुत्तमंतं च इति प्राकृतत्वादन्तर्मुहूर्त (शांटी प७८ ) । १२. अभत्तच्छंदो (चू) 1 १३. खासं (ला) । १४. निद्देसे य इमे (ला, ह) । १५. उ (ला) । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति १३१ ८८. कुमारए नदी लेणे, सिला पंथे महल्लए । तावस पडिमा सीसे, अगणी' निव्वेय मुग्गरे ।।दारं।। ८९. वणे रामे पुरे भिक्खा, संथारे मल्लधारणे । अंगविज्जा सुए भोमे, सीसस्सागमणे इय ॥दारं।। उज्जेणि' हत्थिमित्तो, भोयडपुर' हत्थिभूइ खुड्डो य । अडवीय वेयणट्टो, पादोवगओ य सादिव्वं ॥दारं।। उज्जेणी धणमित्तो, पुत्तो से खुड्डुओ य धणसम्मो । 'तण्हाइओ अपीओ", कालगओ एलगच्छपहे ।।दारं।। रायगिहम्मि वयंसा, सीसा चउरो उ८ भद्दबाहुस्स । वेभारगिरिगुहाए, सीतपरिगता समाधिगता ।। तगराएँ अरहमित्तो', दत्तो" अरहन्नओ य भद्दा य । वणियमहिलं चइत्ता", तत्तम्मि सिलायले विहरे ।। चंपाए सुमणभद्दो'२ जुवराया धम्मघोससीसो य । पंथम्मि मसगपरिपीतसोणितो सो वि कालगतो।। वीयभय'३ देवदत्ता, गंधारं सावगं पडियरित्ता । लहइ सयं गुलियाणं, पज्जोतेणाणि उज्जेणि ।। दठूण चेडिमरणं, पभावई पव्वइत्तु कालगया । पुक्खरकरणं गहणं, दसपुर पज्जोयमुयणं५ च ।। ९७. माया य रुद्दसोमा'६, पिया य नामेण 'सोमदेवो त्ति'१७ । भाया य८ फग्गुरक्खिय, तोसलिपुत्तो य आयरिया ॥ १. अगणि (शां), छंद की दृष्टि से अग्गी पाठ १०. x (ला) उचित लगता है। इससे पंचम वर्ण ह्रस्व हो ११. चत्ता (ला)। जाता है और आठ वर्ण भी पूरे हो जाते हैं। १२. सुमिण० (ह, चू) । २. भिक्खे (शां)। १३. ० भयं (चू), भए (ला) । ३. ०धारणं (शां)। १४. पडियरत्ता (ह)। ४. वि य (ला)। १५. ० मुवणं (ला)। ५. उज्जेणी (शां)। १६. भद्द० (ला)। ६. भोगपुरे (शां)। १७. ०देवत्ति (शां)। ७. ० इत्तोऽपीओ (शां)। १८. ४ (ला)। ८. य (ह)। १९. देखें आवनि ७७५ । ९. अरिह० (शां, चू)। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक ९८. सोहगिरि भद्दगुत्तो, वइरक्खमणा' पढित्तु पुव्वगयं । पव्वावितो य भाया, रखियखमणेहि जणओ य ।। अयलपुरे जुवराया', सीसो राघस्स नगरिमुज्जेणि । अज्जा राहक्खमणा, पुरोहितो रायपुत्तो य ।। १००. कोसंबीए सेट्टी, आसी नामेण तावसो तहियं । मरिऊण सूयरोरग, जातो पुत्तस्स 'पुत्तो ति॥ १०१. उसभपुरं रायगिह, पाडलिपुत्तस्स होइ उप्पत्ती । नंदे सगडाले थूलभद्द सिरिए वररुई य" ।। १०२. तिण्हं अणगाराणं, अभिग्गहो आसिफ चउण्हमासाणं । वसहीमेत्तनिमित्तं, 'को कहि वुत्थो' ? निसामेह । १०३. गणियाघरम्मि एक्को, 'बितिओ वुत्थो'' उ वग्घवसहीए । सप्पवसहीए" ततिओ, को दुक्करकारओ इत्थं२ ।। १०४. वग्यो वा सप्पो वा, सरीरपीडाकरा'३ उ भइयव्वा । नाणं च४ दंसणं वा, 'चरियं व'१५ न पच्चला भेत्तुं । १०५ भगवं पि थूलभद्दो, तिक्खे चकम्मिओ न पुण' छिन्नो । अग्गिसिहाए वुत्थो, चाउम्मासे न पुण७ दड्डो ॥ १०६. अन्नो वि य अणगारो, भणमाणो हं पि थूलभद्दसमो । कंबलओ चंदणियाएँ, मइलितो एगराईए । १०७. कोल्लयरे'६ वत्थव्वो, 'दत्तो सीसो य हिंडओ तस्स'२० । उवहरइ धाइपिंडं, अंगुलिजलणा" य सादिव्वं ।। १, वयर० (शां)। १०. वुत्थो बीओ (शां)। २. जुगराया (ला)। ११. हीइ (शां)। ३. राहस्स (शां)। १२. एत्थ (ला)। ४. नगरमु० (ला), नगरीमु० (शां)। १३.०पीला० (ला)। ५. राहणखमणा (ला)। १४. व (ला, शां)। ६. सो पुत्तो (ला)। १५. चरणं च (ह), चरित्तं व (शां)। ७. चूर्णि में १०१ की गाथा संकेत के बाद १०२ से १६,१७. उण (शां)। १०६ तक की गाथाओं के लिए 'पंच गाहाओ १८. चंदणयाइ (शां)। भाणियव्वाओ' मात्र इतना उल्लेख किया है। १९. कोल्लइरे (ला), कोल्लतिरे (निभा ४३९३) ८. आसी (ला)। २०. दत्तो आहिंडितो भवे सीसो (निभा)। ९. जो जहिं बुच्छो (ला)। २१. जलणे (ह)। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययननियुक्ति १०८. निवखतो गयपुरातो, कुरुदत्तसुओ गओ य साकेयं । मिस्स कुडिया, 'अग्गोसोसम्म जालेंति ।। १०९. कोसंबी' जण्णदत्तो, सोमदत्तो य सोमदेवो य । आयरिसोमभूती, दोन्हं पि य होइ नायव्वो । ११० सण्णातिगमण' 'वियडे, वेरग्गा' ६ दो वि ते पादोवगता नदिपूरण उदधि तु १११. 'रायगिहे मालारोप, अज्जुणओ तस्स मुग्गरपाणी गोट्ठी, सुदंसणो ११२. सावत्थी जितसत्तू, धारिणिदेवी य खंदओ पुत्तो । धूया पुरंदरजसा, दत्ता" सा दंडगी " रण्णो ॥ १. पडिमं ठियस्स (ला) । २. अग्गिसी० (ह), आगया अग्गी जालिति ११३. मुणिसुव्वयंतवासी, दगमुहा य देवी पुरंदरजसा, दंडइ पालक्क " ११४. पंचसया जंतेणं, वधिता तु पुरोहिएण रागद्दो तुलग्गं, समकरणं ११५. जायण परीसहम्मी ७, बलदेवो एत्थ किसि पारासर ढंढो, अलाभए 'होइ ११६. महुराएँ राया ० सन्नाग (ह), सन्नातग (ला) । ६. वियडवेर ० (शां) । भज्ज खंदसिरी । वंदओ णीति ॥ कालवेसिय, जंबुय अहिउत्थ पडसे, जंबु ७. चूर्णि में यह गाथा रूप में संकेतित नहीं है किन्तु कथानक के रूप में इसका भावार्थ दिया हुआ है। संभव है यह गाथा बाद में जोड़ी गई है। नदीतीरे । उवणीया" || दारं ॥ ८. ० गिहि मालगारो (शां), ०गिह मालगारो (चू) । कुंभकारकडे । मरुगे य४ ॥ 43 (शां) । ३. कोसंब ( चू) । ४. ० रिओ० (ह), रितो० (ला) । ५. स्वज्ञातिगमनं इत्यर्थे (शांटीप १११), १४. निभा ३९६४ । १५. रागदोस (ह) । रुट्ठे । चितयंतेहिं ।। १६ होइ आहरणं । आहरणं' '६ ॥ दारं ॥ १६ मुग्गसेलपुरं । उवसग्गं ॥ ९. धारणि ० (शां) । १०. दिण्णा (ला ह) । ११. दंडगी (ह) । १२. पालग्गि (ह), पालग्ग (ला) । १३. मरुए (शां), मरुओ (ह) । १६. निभा ३९६५ । १७. ०हम्मि (शां) । १८. इत्थ (शां), तत्थ (ला) । १९. होउदाहरणं (ह) । २०. पुरीसोवेती (ला) । १३३ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ११७. सावत्थी कुमारो, भद्दो सो चारिओ ति वेरज्जे । खारेण तच्छियंगो, तिणफासपरीसहं' विसहे ।। ११८. चंपाऍ सुनंदो नाम, सावओ जल्लधारणदुगंछी । कोसंबीय' दुगंधी" उववन्नो तस्स सादिव्वं ॥ ११९. महुराएँ इंददत्तो, पुरोहितो साधुसेवओ सेट्ठी । पासाय विज्ज पाडण, पादच्छिज्जेदकीले य ॥ १२०. उज्जेणि कालखमणा, सागरखमणा" सुवण्णभूमीय" । इंदो आउयसेसं, पुच्छइ सादिव्वकरणं च ॥ १२१. परिततो वायणाएँ, गंगाकूले पिया असगडाए । संवच्छ रेहऽहिज्जइ, बारसहि असंखयज्भणं || १. तण ० (शां) । २. विसए (ह) । ३. दुगंछी (ला) . ४. ० १२२. इमं च एरिसं तं च इय भणइ थूलभद्दो, १२३. ओधाविउकामोवि" य, अज्जासाठो उ पणियभूमी" | काऊण रायख्वं, पच्छा सीसेण अणुसिट्ठो " ॥ १२४. जेण" भिक्खं बलिं देमि, जेण पोसेमि नायगे । भयं ॥ १७ सा मे मही अक्कमति, जातं सरणतो As (शां) । ५. दुगंधी (ला, ह) । ६. उप्पण्णी (शां) । ७. पडणं (ला) 1 • छिज्जिदखी ले (ला, ह) । ८. ९. उज्जेणी (शां) । १०. ० खवण (ह) । ११. ० मीए (शां) । १२. असगडयाए (ला) । १३. ला और ह प्रति में गाथा में क्रमव्यत्यय है । १४. ओहाइओ० (ला, ह) । १५. पणीय० (शां) । तारिसं पेच्छ केरिसं जायं । सन्नाइघरं गतो संतो" ॥ १२२ और १२३ की निर्युक्तिपंचक १६. अणुट्ठो (ला), ० सट्ठे (ह). १२३ से १४१ तक की गाथाओं में दर्शन - परीषह के अन्तर्गत आषाढ़भूति की कथा है। इनमें १२३ से १४० तक की गाथाएं बाद में जोड़ी गई प्रतीत होती हैं। क्योंकि प्रायः सभी परीषहों की कथा नियुक्तिकार ने १-२ गाथाओं में ही दी है । फिर इस परीषह की कथा के लिए इतनी गाथाएं क्यों ? यह एक चिन्तनीय प्रश्न है । भाषा शैली तथा छन्द की दृष्टि से भी ये गाथाएं अतिरिक्त-सी प्रतीत होती हैं । निशीथ भाष्य की चूर्णि में भी ये गाथाएं मिलती | केवल उनि की गाथा १२३, १२५, १३१ और १४० – ये चार गाथाएं नहीं मिलती तथा १३३ और १३४ की गाथा में क्रमव्यत्यय है । १७. जत्ती (निचू पृ २० ) । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ उत्तराध्ययन नियुक्ति १२५. बहुस्सुतं' चित्तकह, गंगा वहति पाडलं । वुज्झमाणग ! भदं ते, लव' किंचि सुभासियं ।। १२६. जेण रोहंति बीयाणि, जेण जीवंति कासपा । तस्स मज्झे विवज्जामि, जातं सरणतो भयं ।। १२७. जमहं दिया य रातो, तप्पेमि महुसप्पिसा । तेण मे उडओ दड्डो, जातं सरणतो भयं ।। १२८. वग्धस्स मए भीतेण, पावगो सरणं कतो । तेण 'दड्ढे ममं अगं', जातं सरणतो भयं । १२९. लंघण-पवण-समत्थो, पुव्वं होऊण 'संपयं कीस'८ । दंडगहियग्गहत्थो, वयंस ! किं नामओ वाही ।। १३०. 'जेट्ठासाढेसु मासेसु, जो सुहो वाति मारुतो'१ । तेण मे भज्जते अंगं, जातं सरणतो भयं ।। १३१. जेण जीवंति१२ सत्ताणि, निरोहम्मि अणंतए । तेण मे भज्जते3 अंगं, जातं सरणतो भयं ॥ १३२. जाव वुत्थं१४ सुहं वुत्थं,१५ पादवे निरुवहवे । मूलातो उठ्ठिया१६ वल्ली, जातं सरणतो भयं ॥ १३३. अभितरगा खुभिता, पेल्लंति८ बाहिरा जणा । दिसं भयह मायंगा, जातं सरणतो भयं ।। १३४. जत्थ राया सयं चोरो, भंडओ६ य पुरोहितो । दिसं भयह नागरगा, जातं सरणतो भयं ।। १. बहुसुत्तं (ला)। ११. जेट्ठामूलम्मि मासम्मि, मारुओ सुहसीयलो २. लव ता (ला, शां)। (निचू १ पृ २१)। ३. मरीहामि (निचू १ पृ २०) । १२. जीयंति (ह)। ४. हुणामि (निचू १ पृ० २०)। १३. भज्जंती (चू)। ५. उडुओ (ह)। १४,१५. वुच्छं (शां, चू, ला)। ६. अंगं महं दड्ढे (निचू १ पृ २०)। १६. उडिया (ला)। ७. पुम्वि (ला, ह, चू)। १७. ०तरा य (ला)। ८. संपइं० (शां), किण्ण चाएसि (निचू १ पृ २०) १८. पेलेंति (ला)। ९. दंडलतियग्गहत्थे (निचू), दंडयगहि० (शां)। १९. भंडिओ (शां)। १०. को (शां)। २०. नायरिया (शां) Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक १३५. १३६. १३७. १३८. 'अचिरुग्गतए य सूरिए", चेइयथूभगए य वायसे । घरभित्तिगए य आयवे, सहि ! सुहिओ' हु जणो न बुज्झती ।। तुममेव य 'अंब हे ! ५ लवे, मा हु विमाणय जक्खमागयं । जक्खाहडए हु तायए, 'अनि दाणि'६ विमर। तातयं ।। 'नवमासा कुच्छिधालिए'", पासवणे पुरिसे य महिए। 'धूया में''° गेहिए हडे, सलणएऽसलणए१ मे य जायए१२ ।। सयमेव य लुक्ख१३ लोविया, अप्पणिया ह वियड्डि४ खाणिया। ओवाइयलद्धओ असी, किं छगला५ बेबेति वाससी ।। 'कडगे ते कुंडले य ते १६, अंजियक्खि 'तिलए य ते कते'१७ । पवयणस्स उड्डाहकारिए, 'दुट्ठ सेहि ! कत्तोऽसि''८ आगता ।। राईसरिसवमेत्ताणि,१६ परछिद्दाणि° पाससि । अप्पणो बिल्लमत्ताणि, पासंतो वि न पाससि ।। समणो सि२१ संजतो असी२, बंचारी२३ समलेठ्ठकंचणो । वेहारिय२४ वायओ य ते, जेट्ठज्ज किं ते पडिग्गहे२५ ॥ परीसहज्झयणस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता १३९. १४०. १४१. १. अतिलुग्गए य सूलिए (ला, ह)। १३. रुक्ख (शांटीपा)। २. भित्तीगयए (शां, निच), ० भित्तिगए १४. देशी वचनतः-तडागिका (शांटी प १३८) (ला, ह)। १५. छेला (ला, शां)। ३. सुहित्ते (निचू १ पृ २१)। १६. कडए य ते० (ला, ह), कडते य ते कुंडलए ४. सयमेव (निचू), तुम एव (चू)। (निचू १ पृ २१)। ५. अम्म हे (शां), अम्मए (निचू, चू)। १७. तिलयते य ते (शां), तिलए ते य कए (ला)। ६. अन्नं दाणि (ह), अन्नं दाइ (ला)। १८. दुट्ठा सेहि कतोऽसि (शां)। ७. नवमास कुच्छीइ धालिता (शां, चू)। १९. छंद की दृष्टि से सरिसव के स्थान पर ८. पासु० (ला)। 'सस्सव' पाठ होना चाहिए। ९. पुलिसे (शां)। २०.०च्छिंदाइं (ला)। १०. धूता य मे (ला, ह)। २१,२२. य सी (ला)। ११. सलणए य अस० (शां)। २३. चारि (ला)। १२. निच में यह गाथा कुछ अंतर के साथ मिलती २४. वेहारुय (ह, निचू), वेहाभय (ला)। २५. पडिगाहते (निचू १ पृ २१) । नवमासा कुच्छिधालिए, सयं मुनपुलीसगोलिए। धूलियाए मे हडे भत्ता, जायं सरणतो भयं ।। (निचू १५२१) Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययननियुक्ति १४२. १४३. १४४. १४५. १४६. १४७. १४८. १४९. १५०. १५१. णामं ठवणा दविए माउगपद पज्जव' भावे य तहा, सत्तेते संगहेक्कए चेव । एक्का होंति । णामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य गणण भावे य । निक्खेवो उ चउण्हं, गणणा संखाए अहिगारो ॥ णामंग ठवणंग, दव्वंगं चेव होइ भावंगं । चउव्विहो होइ ॥ एसो खलु अंगस्सा, निक्खेवो गंग मोगर मज्जारज्जं सरीर- जुद्धंगं । एत्तो एक्केक्कं पि य, गविहं होइ णायव्वं ॥ जमदग्गजडा हरेणुया सबरनियंसणियं " सपिणियं । रुक्खस्य बाहिरातया, मल्लियवासित कोड अग्घती ॥ 'ओसिर - हरिबेराणं, पलं पलं सतपुप्फाणं भागो, भागो एयं ण्हाणं एयं विलेवणं वासवदत्ताइ" कओ', १. पज्जय (ला) । २. दशनि ८ । एस चेव पडवासो" । उदयणमभिधारयंतीए ४ ॥ च तिणिय समूसणंगाई । गुलिया ॥ 'दो रयणीओ महिंदफलं सरसं च कणगमूलं, एसा उदगमा एसा 'उ हणइ कंडु ६, तिमिरं अवहेडगं " सिरोरोगं । तेइज्जगचाउत्थिंग', मूसगसप्पावरद्धं च ॥ दारं ॥ सोलस दक्खा भागा, चउरो भागा य धायगीपुप्फे " । आढगमो मागमाण मज्जंगं || दारं || उच्छुरसे, ३. य (शां) । ४. गणण (शां) । ५. गंधंग ओस० (ला) । ६. ०णुअ (शां) । ७. सबरियं सणयं (ला) । ८. बाहितया (शां) । ९. कोडी (शां) । १०. ओसीर० (ला), ओसीर हरि० (शां) । ११. पडिवास (ह) । भद्ददारुणो करिसो । य तमालपत्तस्स ।। १२. • त्ताउ (ह), ०ताए (ला) । १३. कए (ह) । १४. धारवंतीए (ला) । १५. दुन्नि य रयणी माहिंद० (शां) । १६. हणतो कंडूं (चू), उ हरइ० (शां) । १७. अवभेदगं (ला) । १८. ० चा उत्थग (ला, ह) । १९. धाउगी ० (शां), धायती० (ह) । २०. आढगमो त्ति आर्षत्वादाssढककः (शांटीप १४३) । १३७ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ १५२. एग एगं १५३. १५४. १५५. १५६. १५७. १५८. १५९. मुकुंदा' तूरं, सामलिपोंड 3, 'सीसं उरो य उदरं, अट्ठगा एते १. मगुंदा (ह) । २. अहिमारुदा० (शां) । ३. सामालिय० (ला), सामलीपुंडं (शां) । एगं अहिमारदारुयं बद्ध आमेलओ पिट्ठी' बाहाय दोन्नि खलु, 'गोवंगाइ ४. सीसमुरो य ( चू) । ५. पट्ठी (ला, ह), पिट्ठित्ति प्राकृतत्वात्पृष्ठं (शांटीप १४३) । ६. बाहातो (ला) । ७. दो (ह) । ८. सेसाणि भवे उवंगाणि ( सूचू पृ ६) । ९. जंघ हत्थ पाया (शांटी प १४३) । १०. मंस (ला) । ११. अंगवंगाओ (ला), प्रकाशित टीका में यह गाथा उद्धृत है तथा चूर्णि में यह संकेतित नहीं है । सभी आदर्शों में यह उपलब्ध है । आगे इसी निर्युक्ति में ये दोनों गाथाएं (गाथा १५३, १५४) पुनरुक्त हुई हैं लेकिन हमने उनको निगा के क्रम में नहीं रखा है । देखें टिप्पण १८२।१२ । सूत्रकृतांग चूर्णि (पु६) में यह गाथा इस होंति उवंगा कण्णा, नासच्छी 'हत्थ - पाद - जंघा' य । नह - केस - मंसु - अंगुलि, ओट्ठा खलु अंगण" || दारं || जाणावरणपहरणे, जुद्धे कुसलत्तणं च नीति च । दक्खत्त ववसाओ, सरीरमा रोग्गता चेव३ ।। दारं ।। भावंगं पिय दुविधं सुतमंगं १४ चेव नोसुतंगं १५ च । सुतमंगं बारसहा, चउब्विहं नोसुयंगं १७ तु ॥ माणुस्सं धम्मसुती, सद्धा-तव-संजमम्मि विरियं च । एए भावंगा खलु, दुल्लभगा होंति संसारे ॥ अंग दस भाग भेदे, 'अवयव असगल य चुण्णिया खंडे २० । देस २१ पदे से पव्वे, साहर पडल पज्जव खिले य ।। संजमे लज्जा, दुगंछाछलणा इय । तितिक्खा य अहिंसा य, हिरी एगट्टिया पदा || दया य अग्गी । होति || दारं || उरुया य । सेसाई'" ।। प्रकार मिलती है होंति उवंगा अंगुलि, ह - केस दंत मंसू निर्युक्तिपंचक कण्णा नासा य पजणणं चेव । १२. ० मारोगया (ला) । १३. आवनि ८४३ । १४. सुयमंतं (ला), सुयं अंगं (ह) । १५. नोयं अंग (ला, ह) । १६. मकारश्च सर्वत्रालाक्षणिक (शांटी प १४४ ) । १७. नोशब्दस्य अश्रुतांगम् (शांटी प १४४) । अंगोवंगेवमादीणि ॥ सर्व निषेधार्थत्वात् २२. साहा (ला, ह) । २३. विरती (ह, ला, चू) । १८. च (शां) । १९. वीरियं (च) । २०. व्यवाऽसगल चुण्ण खंडे य (शां) । २१. देसे (ला) । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययननियुक्ति १६०. १६१. १६२. १६३. १६४. १६५. १६६. १६७. १६८. O माणुस्स खेत्त जाती, कुल - 'रूवाऽऽरोग्ग आउयं" बुद्धी । सवणोग्गह सद्धा, संजमो य लोगम्मि दुलहाई ।। चोल्लग पासग धन्ने, जूए रयणे य सुमिण चक्के य । चम्म जुगे परमाणू, दसदिट्ठता मणुयलंभे ॥ इंदियलद्वी निव्वत्तणा य पज्जत्ति निरुवहय खेमं । धातारोग्गं सद्धा, गाहग उवओग अट्ठो य' ।। किवणत्ता | रमणा ॥ माणुस्सं । आलस्स मोहवण्णा, थंभा कोहा - पमाद भय-सोगा अण्णाणा, वक्खेव-कुतूहला एतेहि कारणेहिँ, लद्घण 'सुदुल्लहं पि' न लभइ 'सुई हियर्कार, संसारुतारिणि " जीवों" ।। मिच्छादिट्ठी १२ जीवो, उवइट्ठ पवयणं न सद्दहइ | उवइट्ठ वा अणुवइट्ठ ३ ।। 93 सद्दहइ असब्भाव, सम्म जीवो, सद्दहइ असब्भावं, उवइट्ठ पत्रयणं तु सद्दहइ । गुरुनियोगा वा ॥ अणभोगा ४ १. रोगमाउ० (ला, ह) । २. टीकाकार के अनुसार कहीं-कहीं इस गाथा के स्थान पर (इंदियलद्धी १६२ ) की गाथा मिलती है - केचिदेतत् स्थाने पठन्ति ... इंदियलद्धी (द्र उनि १६२ का टिप्पण, शांटीप १४५), द्र. आवनि ८३१ । ३. सिमिण ( आवनि ८३२) । ४. निअत्तणा ( चू) । ५. धाणारो० (शां) । ६. टीकाकार ने प्रस्तुत गाथा की मूलपाठ के रूप में व्याख्या नहीं की है लेकिन गा. न. १६० की व्याख्या करके 'क्वचिदेतत् स्थाने पठन्ति' कहकर इसकी पूर्ण व्याख्या की है । चूर्णिकार ने इसका इसी क्रम में संकेत दिया है। हस्त आदर्शों में यह गाथा इसी क्रम में मिलती बहुरय-पदेस - अव्वत्त, समुच्छ" दुग तिग 'एतेसि निग्गमणं, वोच्छामि जीवपदेसा बहुरय जमालिपभवा, अव्वत्ताssसाढाओ, .. 'अबद्धिगा चेव १६ । अहाणुपुव्वी १७ ॥ यतीसगुत्ताओ । सामुच्छेदाऽऽसमित्ताओ" | है, विभा ३२४८ । किवि० (शां), किमणत्ता ( आवनि ८४१ ) | सुदुल्लभम्मि (ला) । १३९ ७. ८. ९. सुयं हियकारी (ह), सुइ हियकरं (ला) । १०. ०त्तारणी (ला, ह) । ११. आवनि ८४२ । १२. मिच्छद्दिट्ठी (ला, ह) । १३. ०वउट्ट (ह) । १४. अणा० (ला) । १५. समुच्छा (ला, आवनि, निभा) । १६. ०द्धियाणं च (ह), अवट्टिया चेव (ला) | १७. सत्तेते निण्हगा खलु वुग्गहो होंतऽवक्कता ( निभा ५५९६), सत्तेते निण्हगा खलु, तित्थम्मि उ वद्धमाणस्स ( आवनि ७७८ ) । १८. आवनि ७७९ । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति चक ____ गंगाए' दोकिरिया, छलुगा तेरासियाण उप्पत्ती। थेरा य गोट्ठमाहिल, पुट्ठमबद्धं परूति' ।। १७०. सावत्थी उसभपुरं, सेयविया मिहिल उल्लुगातीरं । पुरिमंतरंजि दसपुर, रहवीरपुरं च नगराइं ।। १७१. चोद्दस सोलस वासा, चोइसवीसुत्तरा य दोण्णि सया। अट्ठावीसा य दुवे, पंचेव सया उ चोयाला ॥ १७२. पचसया चुलसीया, छच्चेव सया णवुत्तरा होति । णाणुत्पत्तीय दुवे, उप्पण्णा णिव्वुए सेसा ।। १७२।१. चोदसवासाइं तदा, जिणेण उप्पाडितस्स णाणस्स । तो बहुरयाण दिट्ठी, सावत्थीए समुप्पन्ना। १७२।२. जेट्ठा सुदंसण जमालिऽणोज्ज सावत्थि तिदुगुज्जाणे । पंचसया य सहस्सं, ढंकेण जमालि मोत्तूणं ।। १७२।३. रायगिहे गुणसिलए, वसु चउदसपुन्वि तीसगुत्ते य । आमलकप्पा नगरी, मित्तसिरी कूर पिउडाई ।। १७२।४. सेयवि पोलासाढे, जोगे तद्दिवस हिययसूले य । सोधम्म-नलिणिगुम्मे, रायगिहे मुरिय बलभद्दे ।। १. गंगातो (च), गंगातो (विभा २७८४)। टीकाकार ने भी इन गाथाओं के बारे में २. आवनि ७८०, गाथा १६९ के बाद कहीं भी 'आह नियुक्तिकारः' या नियुक्तिकृद् 'सावत्थी उसभरं' आदि तीन गाथाओं ऐसा कोई उल्लेख नहीं किया है तथा गाथाओं का संकेत चूणि में मिलता है। टीका की व्याख्या न करके मात्र सम्प्रदाय का में ये तीनों गाथाएं तथा १७२।१ गाथा विस्तृत विवेचन दिया है जो किसी प्राचीन उल्लिखित और व्याख्यात नहीं हैं। १६७ से ग्रंथ से उद्धृत है। १७२।१-१३ इन १३ १७२ तक की गाथाएं आवश्यकनियुक्ति की गाथाओं में १६८ एवं १६९ वीं गाथा की ही हैं। १७२।२-१३ की गाथाएं टीका में नियुक्ति व्याख्या है। गाथा के क्रम में व्याख्यात हैं किन्तु ये गाथाएं ३. निभा ५६२२, विभा २७८ । तथा १७२११ गाथा विशेषावश्यक भाष्य की ४. निभा ५६१८, विभा २७८: । हैं अत: इनको निगा के क्रम में नहीं जोड़ा है। इन गाथाओं के बारे में चूर्णिकार ने ६. टीका में निह्नववाद के चाल क्रम में यह _ 'चोद्दस वासा तइया' 'जेट्ठा सुदंसण' गा. गाथा नहीं मिलती है किन्तु चूणि में इसका १७२११,२ इन दो गाथाओं का संकेत देकर संकेत मिलता है। देखें विभा २७८८, निभा 'एवं सत्तण्ह वि निण्हयाण वत्तव्बया भाणियव्वा ५६११ । जहा सामाइयनिज्जुतीए केइ पुण निण्हए एत्थ ७. निभा ५५९७, विभा २७८९। आलावगे पडिकहंति' का उल्लेख किया है। ८. निभा ५५९८, विभा २८१६ । ये गाथाएं विभा से यहां उधत की हैं क्योंकि ९. निभा ५५९९, विभा २८३९। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ उत्तराध्ययन नियुक्ति १७२।५. मिहिलाए लच्छिघरे, महगिरि कोडिन्न आसमित्ते य । उणियणुप्पवाए, रायगिहे खंडरक्खा य' ।। १७२।६. नदि-खेड जणव उल्लुग, महगिरि धणगुत्त अज्जगंगे य । किरिया दो रायगिहे, महातवो तीरमणिणाए ॥दारं।। १७२।७. पुरिमंतरंजि भुयगुह, बलसिरि सिरिगुत्त रोहगुत्ते य । परिवाय पोट्टसाले, घोसण पडिसेहणा वाए । १७२।८. विच्छ्य सप्पे मूसग, मिगी वराही य कागि पोयाई । एयाहिं विज्जाहि, सो उ परिव्वायगो कुसलो । १७२।९. मोरी नउलि बिराली, वग्घी सीही य उलुगि ओवाइ । एयाओ विज्जाओ, गिण्ह परिव्वाय महणीओ ॥दारं।। १७२।१०. दसपुर नगरुच्छुघरे, अज्जरक्खिय पुसमित्त-तियगं च । गोट्ठामाहिल नव अट्ठमेसु पुच्छा य विझस्स । १७२।११. पुट्ठो जहा अबद्धो, कंचुइणं कंचुओ समन्नेति । एवं पुट्ठमबद्धं, जीवो कम्मं समन्नेति ॥ १७२।१२. पच्चक्खाणं सेयं, अपरीमाणेण होइ कायव्वं । जेसिं तु परीमाणं, तं दुह्र होइ आसंसा ॥दार।। १७२।१३. रहवीरपुरं नयरं, दीवगमुज्जाण अज्जकण्हे य । सिवभूइस्सुवहिम्मि य, पुच्छा थेराण कहणा य॥ १७२।१४. ऊहाए पण्णत्तं, बोडिय सिवभूइ उत्तराहि इमं । मिच्छादसणमिणमो, रहवीरपुरे समुप्पन्न" । १. निभा ५६००, विभा २८७२ । २. निभा ५६०१, विभा २९०७ । ३. निभा ५६०२, विभा २९३४। ४. निभा ५६०३, विभा २९३५ । ५. निभा ५६०४, विभा २९३६ । ६. निभा ५६०७, विभा २९९२ । ७. जीवं (शां, निभा)। ८. निभा ५६०८, विभा २९९९ । ९. विभा ३०३४ । १०. निभा ५६०९, बिभा ३०३४ । ११. निभा ५६१०, विभा ३०३३ । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ निर्यक्तिपंचक १७२।१५. बोडिय सिवभूतीए, कोडिण्णकोट्टवीरा', बोडियलिंगस्स होइ उप्पत्ती। परंपरा फासुमुप्पन्ना ।। 'चउरंगिज्जस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता १७३. नामं ठवणपमादे, दव्वे भावे य होइ नायव्वो। एमेव अप्पमादो, चउव्विहो होइ नायव्वौ ॥ १७४. मज्जं विसय-कसाया, निद्दा विगहा य पंचमी भणिया। इइ पंचविहो एसो, होइ ‘पमादोऽपमाओ'६ य ।। १७५. पंचविहो य पमादो, इहमज्झयणम्मि* अप्पमादो य । वणिज्जती उ जम्हा, तेण पमायप्पमायं ति ।। १७६. उत्तरकरणेण कयं, जं किंची संखयं तु नायव्वं । सेसं असंखयं खलु, असंखयस्सेस निज्जुत्ती ।। १७७. नामं ठवणा दविए० खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु करणम्मी, णिक्खेवो छविहो होइ" ।। १७८. दव्वकरणं तु१२ दुविहं, सण्णाकरणं च नो य सण्णाए। कडकरणमट्ठकरणं, 'पेलूकरणं च सण्णाए'१४ ।। १७९. नोसण्णाकरणं पुण, पयोगसा वीससा य बोधव्वं । सादीयमणादीयं५, दुविहं पुण वीससाकरणं'५ ।। १. कौण्डिन्यकोट्टवीरौ इति नामद्वयम् (शांटी ८. ज्जए (शां)। प १८१)। ९. असंखयस्स (ला, ह)। २. १७२।१४,१५ ये दोनों गाथाएं विभा (गा. १०. करणं (शां)। ३०३३,३०३५) की हैं। नियुक्ति की आदर्श ११. ला प्रति में 'णामं ठवणा' केवल इतना ही प्रतियों में ये गाथाएं मिलती हैं लेकिन टीका- पाठ है। कार ने 'भाष्यगाथे' कहकर इनकी व्याख्या १२. च (ला, ह)। की है । चूणि में भी इसका कोई उल्लेख नहीं १३. वेलू० (शां)। है अतः हमने निगा के क्रम में नहीं माना १४. पेलुकरणं च सन्नाते 'ला' प्रति में इतना ही है, विभा ५६२० । पाठ है। ३. ठवणा० (च)। १५. साईअणाईअं (शां)। ४. निक्खेवो (ला, ह)। १६. विस्ससा० (शां)। १७९-१८४ तक की ५. इय (ह, शां)। गाथाओं का चूणि में संकेत नहीं है किन्तु ६. पमाओ य अपमाओ (शां)। संक्षिप्त व्याख्या प्राप्त है। ७. मकार अलाक्षणिकः । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनः निर्युक्ति अब्भरुक्खेसुः । धमाधम्मागासं', एयं तिविहं भवे चक्खु अचक्खु फासे, एयं दुविहं तु खंधेसु य दुपदेस दिएस अब्भेसु निप्फण्णगाणि दव्वाणि जाणि तं वीससाकरणं ।। दुविहं पओगकरणं, जीवेतर मूल उत्तरे 'मूले पंचसरीरा', तिसु अंगोवंग नामं १८२।१. सीसं उरो य उदरं पिट्ठी बाहाय दोन्नि उरुया य । एते अट्ठगा खलु, अंगोवंगाणि साणि ॥ १८२।२. होंति उवंगा कण्णा, नासच्छी हत्थ पाद- जंघा य । नह- केस-मंसु-अंगुलि-ओट्ठा खलु अंग ।। तेसि उत्तरकरणं, बोधव्वं कण्णखंधमादीयं | 'इंदियकरणा च तहा'", उवघायविसोहिओ" होंति ॥ १८०. १८१. १८२. १८३. १८४. १८५. १८६. १. ०गासा (शां) । २. चक्खुमच० ( ला, ह), मकार अलाक्षणिकः । ३. विज्जुमादीसुं (ला), विज्जमा ० (शां, सूनि ) । ४. णिव्वत्तगाणि (ला) । ५. जाण ( सूटी ) । ६. सूनि ८ । ७. मूलं पंचसरीरं (ला, ह) । ८. ये दोनों गाथाएं प्रकाशित चूर्णि में उद्धृत गाथा के रूप में हैं। टीकाकार ने इन्हें निगा के क्रम में रखा है। किंतु इन गाथाओं की इसी निर्युक्ति में पुनरुक्ति हुई है इसलिए इन्हें निगा के क्रम में नहीं रखा है । (दे. उनि १५३, १५४, निभा ५९३,५९४) संघाण १२ - परिसाडण, उभयं तिसु दोसु नत्थि संघातो । कालंतराइ तिण्हं, जहेव सुत्तम्मि निद्दिट्ठा " || एत्तो उत्तरकरणं, सरीरकरणप्पओग १४ निप्फन्नं । तं भेदाऽणेगविहं ५, विहमि समासेणं ॥ संघातणाय परिसाडणा, य मीसे तधेव पडिसेहे । पड-संख-सगड-थूणा-उड्ड" - तिरिच्छा" करणं च ।। अणादीयं । सादीयं ॥ जीवे । च ॥ १४३ ९. बोद्धव्वं (शां) । १०. इंदियकरणा ताणि य (शां), इंदियकरणं च तहा (शांटीपा ). ०करणाइ तहा (ला) । ११. उवग्घाय ० ( ला ) । १२. संघयण (ह) | १३. निद्दिट्ठ (शां) । १४. ०करणं पओग (शां) 1 १५. ० विहं तं (ह) | १६. संघाडणा ( निभा ) । १७. उत्थ (ह) । १८. तिरिच्छादि ( निभा १०८४, सूनि ७ ) 1 १९. तु (सूचू) । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ १८७. १८८. १८९. १९०. १९१. १९२. १९३. वण्णादियाण पंचन्हं । अजीव पयोगकरणं', दव्वे चित्तकरण' 'कुसुंभाईसु विभासा ' उ सेसाणं || न विणा आगासेणं, कीरति जं किंचि खेत्तमागासं । वंजणपरियावन्नं, उच्छुकरणमादि बहु || किण्ह - चउसिरति, सउणी पडिवज्जती "सदा करणं । एतो अहक्कमं खलु, चउप्पयं नाग किंसुग्धं ॥ दारं || १९२।१. पक्खतिधयो दुगुणिता, दुरूवहीणा य सुक्कपक्खमि । सतहिए देवसिय तं चिय रूवाहियं रति" ॥ कालो जो जावइओ, जं कीरइ जम्मि जम्मि कालम्मि । ओहेण नामतो पुण, भवंति एक्कारसक्करणा ।। बवं च बालवं चेवं, कोलवं थीविलोयणं । गरादि वणियं 'चेव, विट्ठी हवति सत्तमा" ।। सउणि च उप्पय नागं, किसुग्धं च करणं भवे एयं । एते चत्तारि धुवा, सेसा " करणा चला सत्त" ॥ भावकरणं तु‍ दुविहं, तत्थ जमजीवकरणं‍, १. अजियप्पओग (शां), अजीवप्प ० ( चू) । २ चित्तकर (ह, शां) । ३. कुंभादिसु भासा (ह) । ४. सूनि ९ । ५. सूनि १० । ६. तेत्तिलं तहा ( सूनि ११) । ७. विट्ठी, सुद्धपडिवए णिसादीया ( सूचू), विभा ४०७४। ८. सउणी (ला) । ९. चउपयं (शां) । १०. अन्ने (शां) । ११. सूनि १२, विभा ४०७६ । १२. चाउ सिरसीए (सूनि १३ ) । १३. सउणि (शां) । जीवाजीवेसु होइ नायव्वं । पंचविहं तु नायव्वं ॥ तं निर्युक्तिपंचक १४. ०ज्जए (शां, सूनि ) । १५. ततो ( सूनि ) । १६ किछुग्धं (शां), किथुग्धं (ह) । इस गाथा का संकेत चूर्ण में नहीं है । १७. प्रस्तुत गाथा का संकेत चूर्णि में मिलता है लेकिन टीकाकार ने 'पूर्वाचार्यगाथा' कहकर उद्घृत गाथा के रूप में इसकी व्याख्या की है । निर्युक्ति की हस्तप्रतियों में यह गाथा नहीं मिलती है तथा सूत्रकृतांग टीका में भी इसको निगा न मानकर टिप्पण में दिया है । हमने इसको निगा के क्रम में नहीं रखा है। विभा ४०७५ । १५. च (च्) । १९. उ अजीब ० (शां), अजीव ० (ला) । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययननिर्मुक्ति १९४. १९५. १९६. १९७. १९८. १९९. २००. २०१. वण्ण-रस- 'गंध-फासे, संठाणे" चेव होइ नायव्वं । पंचविहं पंचविहं, 'दुविहट्ठविहं च ' पंचविहं ॥ जीवकरणं तु दुविहं, सुतकरणं चेव नो य सुयकरणं । बद्धमबद्धं च सुए, निसीहमनिसीहबद्धं तु ॥ नोकरणं दुविहं गुणकरणं गुण-तव-संजम - जोगा, जुंजण कम्मगसरीरकरणं, आउयकरणं असंखयं तं तु । 'तेऽधिगारो तम्हा, उ अप्पमादो' ५ चरितम्मि | दारं || तह य जुंजणाकरणं । मण वयण - काए य ।। दुविहो य होइ दीवो, दव्वदीवो य raat far दुविहो, आसास - पगास नायव्वे | संदीणमसंदीणो, संधियमस्संधिए य आसास-पगासे या, 'भावे दुविहो ह पुणेक्क्को" ।। असंखयस्स निज्जुती सम्मत्ता १. फास - गंधे सट्ठाणे (ह) । २. दुविहं अट्ठविहं (ह) । ३. सुयं (शां) । ४. वा (शां) । ५. तम्हा उ अप्पमादो, कायव्वो इह (ला) । ६. X (ला) । ० संधिए (ला) । कामाण" तु णिक्खेवो, चउव्विहो छव्विहो य मरणस्स । कामा १२ वुद्दिट्ठा, पगयमभिप्पे कामेहिं । नामं ठवणा दविए खेत्ते काले मरणस्य उ निक्खेवो, नायव्वो ७. ८. बोद्धव्वे (शां) । ९. भावम्मि दुहा (ला) । १०. १९८, १९९ की गाथा चूर्णि में नहीं है पर टीकाकार ने निर्मुक्तिकृत् माना भावदीवो य । दीवो य ॥ तहेव भावे य । छव्विहो एसो३ ॥ (शांटीप २११) । १४५ ११. कामा (चू । १२. काम का वर्णन दर्शन गा. १६२-१६६ में है । १३. प्रस्तुत गाथा की व्याख्या टीका और चूर्णि दोनों में मिलती है । टीका के संपादक ने इसे मूल निर्युक्ति क्रमांक में न रखकर टिप्पण में दी है । हस्तप्रतियों में यह गाथा मिलती है तथा प्रसंगानुसार भी यह निगा प्रतीत होती है | Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ २०२. २०३. २०४. २०५. २०६. २०७. २०८. २०९. २१०. २११. २१२. दव्वमरणं कुसुंभा दिएसु भावे' आउक्खओ मुणेयव्वो । ओहे भवतब्भविए, मणुस्सभविएण अहिगारो || मरणविभत्तिपरूवण, अणुभागो" चेव तह पदेसग्गं । कति मरइ एगसमए, कतिखुत्तो वावि एक्केक्कं । दारं ॥ मरणम्मि एगमेगे, कतिभागो मरइ सव्वजीवाणं । अणुसमय संतरं वा, एक्केक्कं केच्चिरं कालं ? ।। दारं । । आवीचि - ओहि अंतिय, अंतोसल्लं छउमत्थमरण' - केवलि - वेहाणस - गिद्धपिट्टमरणं" च । मरणं भत्तपरिण्णा, इंगिणि" पाओवगमणं च ॥ सत्तरसविहाणाई, मरणे गुरुणो भांति गुणकलिया । तेसि नामविभत्ति", वोच्छामि अहाणुपुब्वीए ॥ अणुसमयनिरंतरमवी चि ४ सन्नियं तं भांति दव्वे खेत्ते काले, भवे य भावे य पंचविहं । संसारे ॥ वलायमरणं वसट्टमरणं च । तब्भव, बालं तह पंडियं मीसं ॥ एमेव ओहिमरणं, जाणि मतो ताणि चेव मरइ 'एमेव आइयंतियमरणं १५ न वि मरइ ताणि १. भावि (शां) । २. तब्भवमरणे (शांटीपा ), भवे तब्भविए (ह) । ३. मणुयभ० (ला) । ४. मरणम्मी विभत्ती ० (च्) । ५. अणुभावो (शां) । संजमजोगविसण्णा, मरंति जे तं इंदिय विसयवसगता, मरंति जे लज्जाऍ "गारवेण य', 'बहुस्सुयमएण वावि' 'दुच्चरियं । जेन कहंति गुरूणं, न हु ते आराहगा होंति ।। ६. ० समयं (शां) । ७. इक्कमिक्के (शां) । ८. यंतिय उ (ह) । ९. ० मरणं (ह) । १०. गपट्ट ० ( ह, ला) । गारवपंकनिबुड्डा, अइयारं जे परस्स न कहति । दंसण - णाण-चरिते, ससल्लमरणं हव तेसिं ॥। पुणो । पुणो ॥ वलायमरणं तु । तं वसट्टं तु ॥ ११. इंगिणी (शां) । १२. पाउवगमरणं (ला) । १३. ० विभत्ती (ह) | १७. लज्जाइ (शां)। १८ व (ला) : १४. ० मावीचि (ह) । १५. एमेवाइमं मरणं (ह) । १६. वाइ (शां) । १९. ० मएणावि (ह) । २०. कहति (ह), कहेति (ला) । निर्युक्ति पंचक Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन निर्युक्ति २१३. एतं ससल्लमरणं, सुचिरं भमंति 'मोतुं अकम्मभूमग' नर- तिरिए सुरगणे य नेरइए । सेसाणं जीवाणं, तब्भवमरणं तु सिचि ॥ चेव । यव्वा ।। अविरमरणं 'बालमरणं ति', विरयाण पंडियं बेंति । जाहि बालपंडियमरणं पुण देसविरयाणं ॥ मणपज्जवो हिनाणी, सुतमतिनाणी मरंति जे समणा । छउमत्थमरणमेयं, केवलमरणं तु केवलिणो ॥ २१४. २१५. २१६. २१७. २१८. २१९. २२०. २२१. मरिऊण जीवा, मोत्तूण ओहिमरणं, आवीची आइयं तु सेसा मरणा सव्वे, तब्भवमरणेण १. महाभ ए (ला) । २. सुइरं (शां) । ३. मोत्तूण कम्मय ० (च्) । ४. केसि च (ला) । ५. टीकाकार ने प्रत्यन्तरेषु ' मोत्तूण ओहिमरणं' इत्यादि गाथा दृश्यते, न चास्या भावार्थ: सम्यगवबुध्यते, नापि चूर्णिकृताऽसौ व्याख्यातेति उपेक्ष्यते' - ऐसा कहकर इसकी व्याख्या नहीं की है । चूर्णिकार ने भी इसका उल्लेख नहीं किया है । हस्तप्रतियों में यह गाथा मिलती तथा प्रसंगानुसार यह निगा के क्रम में उपयुक्त है । अतः व्याख्याकारों द्वारा महब्भए ' दुरंत संसारकंतारे | गिद्धादिभक्खणं 'गिद्ध पिट्ठ, वेहासं । एए दोन्नि वि मरणा, कारणजाए अणुष्णाया ॥ भत्तपरिण्णा - इंगिण, पाओवगमं च तिणि मरणाई | कन्नस-मज्झिम-जेट्ठा, धिति-संघयण उ विसिट्टा ॥ सोवक्कमो य निरुवक्कमो य दुविहोऽणुभावमरणम्मि | आउ कम्मपदेसग्गणंतणंता पदेसेहिं ॥ दोन्नि व " तिन्निव चत्तारि, पंच मरणाइ अवीचिमरणम्मि । कति मरति एगसमयं सि४, विभासावित्थरं जाणे ॥ ६. ७. ८. ९. ७ उब्बंधणाई' " अस्वीकृत होने पर भी हमने इसे निगा के क्रम में रखा है । बालं मरणं (शां) । गद्धपट्ट उल्लंबणाइ ( ला ) | इंगिणी (शां) । कणिस (ला), कण्णस त्ति सूत्रत्वात् (शांटीप २३५) । १०. वसिट्ठा (ला), वसिद्धा (ह) । ११. x (ला) । १२. य (चू) । १३. मरणा (ला, ह) । १४. ० समए त्ति (ह), ० समए वि (ला) | १४७ कनिष्ठ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ २२६. नियुक्तिपंधक २२२. सव्वे भवत्थजीवा, मरंति आवोइयं सदा मरणं । ओधिं च आइयंतिय, दोन्नि वि एताइ भयणाए । २२३. ओधिं च आइयंतियः, बालं तह पंडियं च मीसं च । छउमं केवलिमरणं, अन्नोन्नेण विरुज्झति ।। २२४. संखमसंखमणंता, कमो उ एक्केक्कगम्मि अपसत्थे । 'सत्तट्ठगअणुबंधो', पसत्थए केवलिम्मि सई ।। २२५. मरणे अणंतभागो, एक्केक्के मरति आदिम मोत्तुं । अणुसमयादी नेयं, तु पढम-चरिमंतरं नत्थि ।।दारं।। सेसाणं मरणाणं, नेओ संतरनिरंतरो उ गमो। सादी सपज्जवसिया, सेसा पढमिल्लुगमणादी ।। २२७. सव्वे ‘एते दारा'५, मरणविभत्तीऍ वण्णिया कमसो । सगलनिउणे पयत्थे, जिण-चउदसपुवि भासंति।। २२८. एगंतपसत्था तिण्णि, एत्थ मरणा जिणेहि पण्णत्ता। भत्तपरिण्णा इंगिणि, पायवगमणं च कमजेह्र ।। २२९. इत्थं पुण अधिगारो, नायव्वो होइ मणुयमरणेणं । मोत्तुं अकाममरणं, सकाममरणेण मरियव्वं ।। अकाममरणस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता २३०. नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले पहाण पति भावे । एतेसि महंताणं, पडिवक्खे खुल्लया" होति ।। २३१. निक्खेवो नियंठम्मि२,चउव्विहो दुविहो य होइ दव्वम्मि। आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। १. आवीवियं (ला,ह)। गाथाओं को नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है २. आदियंती (ला,ह)। क्योंकि इन द्वारगाथाओं के बाद टीकाकार ३. सत्तट्ठतोऽणु ० (ला)। स्वयं कहते हैं कि 'भावार्थस्तु स्वत एव वक्ष्यति ४. णेत (ला), णेतं (ह)। नियुक्तिकारः' इस उद्धरण से स्पष्ट है कि ५. दारा एते (चू,ला)। दोनों द्वारगाथाएं तथा उनकी व्याख्या ६. पसत्थे (ह)। नियुक्तिकार द्वारा ही की जानी चाहिए। ७. ०पुव्व (ह)। ९. इंगिणी (ला)। ८. टीकाकार ने २०३ से २२७ तक की गाथाओं १०. पाउवग ० (शां), पाओवगम (ह)। के लिए विकल्प से भाष्यगाथा का उल्लेख ११. खुड्डिगा (ह), खुड्डगा (ला)। किया है—भाष्यगाथा वा द्वारगाथाद्वयादारभ्य १२. णियंठम्मी (ला)। लक्ष्यन्त इति (शांटीप २४०)। हमने इन १३. दुन्विहो (शां)। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ उत्तराध्ययन नियुक्ति २३२. जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य निण्हगादीसु' । भावम्मि नियंठो खलु, पंचविहो होइ नायव्वो' ।। २३३. उक्कोसो उ नियंठो, जहन्नओ चेव होइ नायव्वो । अजहन्नमणुक्कोसा, होति नियंठा असंखेज्जा ।। ३३४. दुविधो य होइ गंथो, बज्झो अभितरो य नायव्यो। अतो य चउदसविहो', दसहा पुण बाहिरो गंथो । ३३५. कोहे माणे माया, लोभे पेज्जे५ तहेव दोसे य । मिच्छत्त-वेद-अरती, रति-हास-सोग-भय-दुगुंछा ।। २३६. खेत्तं-वत्थू धण-धन्नसंचयो मित्त-णातिसंजोगो। जाण-सयणासणाणि य, दासी दासं च कुवियं च ।। सावज्जगंथमुक्का, अभितरबाहिरेण गंथेण । एसा खलु निज्जुत्ती, खुड्डागनियंठसुत्तस्स ।। खुड्डागनियंठिज्जस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता २३८. २३९. निक्लेवो उ उरब्भे, चउव्विहो 'दुविहो य' होइ दव्वम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य सो पुणो तिविहो । एगभविय-बद्धाउय,५ अभिमुहओ नामगोत्ते य ॥ उरभाउणामगोयं२, वेदंतो भावतो 'उरब्भो उ१४ । तत्तो समुट्ठियमिणं, ओरब्भिज्जं५ ति अज्झयणं ।। २४०. १. गाईसुं (शां)। ७. वत्थु (ह)। २. इस गाथा के बाद हस्तआदर्शों और टीका ८. जाणासय० (ला) । पत्र २५७,२५८ में कुछ भाष्यगाथाएं हैं। ९. ०तरा बाहि० (ह) यहां उनका उल्लेख नहीं किया जा रहा है। १०. दुविहो (ह), दुव्विहो य (शां)। देखें परि० १। ११. ० बद्धाऊ (शां)। ३. उक्कोसओ (ह)। यह गाथा ला प्रति में १२. उरभाउ ० (ला,चू), उरभाऊ ० (ह) । ___नहीं है। १३. वेदितो (ला)। ४. चउद्दस० (ह)। १४. उ ओरब्भो (शां)। ५. पिज्जे (शां)। १५. उरब्भिज्जं (शां)। ६. दुकुच्छा (ला)। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० नियुक्तिपंचक २४१. ओरब्भे' य कागिणीअंबएँ य ववहार सागरे चेव । पंचेते दिलैंता, ओरब्भिज्जम्मि' अज्झयणे ।। २४२. आरंभे रसगिद्धी, दुग्गतिगमणं च पच्चवाओ य । उवमा कया. उरब्भे, ओरब्भिज्जस्स निज्जुत्ती ।। २४२॥१. आउरचिण्णाइं एयाई, जाइं चरइ नंदितो। सुक्कत्तिणेहिं लाढाहिं, एयं दीहाउलक्खणं ।। उरन्भिज्जस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता २४३. २४४. २४५. निक्खेवो कविलम्मी, चउविहो 'दुविहो य होइ'८ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य सो पुणो तिविहे । एगभविय-बद्धाउय, अभिमुहओ' नामगोत्ते" य ।। कविलाउणामगोतं,११ वेदंतो भावतो भवे कविलो। तत्तो समुट्ठियमिणं, अज्झयणं काविलिज्जं ति ॥ कोसंबि कासव जसा, कविलो सावत्थि इंददत्तो१२ य । इब्भे य सालिभद्दे, धणसेट्टि पसेणई राया ।। कविलो निच्चियपरिवेसियाइ आहारमेत्तसंतुट्ठो । वावारितो 'दुहिं मासेहिं',१३ सो निग्गओ रत्ति ॥ २४६. २४७. १. उरब्भे (ला)। जोड़ा है तथा एक कथानक का संकेत दिया २. कागणी (ला)। है । चूर्णि में इस गाथा का कोई संकेत नहीं ३. ओरब्भीयम्मि (ह)। है, अत: हमने इसे निगा के क्रम में नहीं रखा ४. गिद्धि (चू), गेही (ह,ला)। ५. उरब्भि० (शां, चू)। ७. कविलम्मि (ह)। ६. यह गाथा बाद में प्रक्षिप्त हुई है क्योंकि ८. दुविहो य (शां)। गा. २४२ के अंतिम चरण 'ओरब्भिज्जस्स ९. मुहो (ह)। निज्जूत्ती' से स्पष्ट है कि इस अध्ययन की १०. गोए (शां)। नियुक्ति यहीं समाप्त हो जाती है । इसके ११. गोयं (शां,च) । अतिरिक्त टीकाकार ने मूल उत्तराध्ययन सूत्र १२. इंदणामो (ला)। की पहली गाथा के साथ इस गाथा का संबंध १३. य बिहिं मासएहिं (ला), छहिं मासेहिं (ह)। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन निर्युक्ति २४८. २४९. २५०. २५१. २५२. २५३. २५४. २५५. दक्खिणं' पत्थंतो, बद्धो य तओर य अप्पितो रण्णो । राया से देति वरं, 'किं देमी केण ते ४ अट्ठो' ।। जहा लाभो तहा लोभो, लाभा लोभो पवड्डति । दोमासक कज्ज, ७ कोडीए वि ननिट्ठिय ॥ 'कोडि पि देमि अज्जो त्ति, भणति राया पहिट्ठमुहवण्णो" । सो वि चइऊण कोडिं, 'जातो समणो ११ समियपावो || छम्मा से १२ छउमत्थो, अट्ठारसजोयणाइ रायग बलभद्दप्पमुहाणं, १३ इक्कडदासाण१४ पंचसया ।। अतिसेसे उप्पन्ने, होही " अट्टो इमो त्ति नाऊणं । अद्धाणगमणचित्तं, करेइ धम्मट्ठया गीयं ॥ काविलीयस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता निक्खेव उ नमिम्मी, चउव्विहो 'दुविहो य होइ ७ दव्वम्मि । आगम- नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो || जाण सरीरभविए, तव्वतिरित्ते य 'सो पुणो तिविहो" । एगभविय बद्धाउय, अभिमुओ नामगोत् य ॥ नमिआउणामगोत्तं वेदंतो भावतो नमी होइ । तस्स य खलु, १६ पव्वज्जा, नमिपव्वज्जं ति अज्झयणं ।। १. दक्खिण्णे (शां) । २. हतो (ला, ह) । ३. विसे (ला) । ४. कि तेण ते (ला) । ५. अत्थो (शां) । २४७, २४८ इन दो गाथाओं का चूर्ण में संकेत नहीं है। किंतु कथानक के रूप में व्याख्या प्राप्त 1 ६. लाहो (शां) । ७. तीसरे चरण में छंदभंग है ७ वर्ण तथा पंचम गुरु है । ८. यह गाथा मूल उसू ८१७ में भी मिलती है । हस्त प्रतियों में तथा चूर्णि में 'सो भणइ' उल्लेख के साथ यह गाथा कपिल के मुख इस से कहलाई है । पाश्चात्त्य विद्वान एल्सडोर्फ के अनुसार यह गाथा निर्युक्ति की है । ९. कोडी वि (ह) । १०. पट्ट० (ह, ला, चू) । ११. समणो जाओ (शां) । १२ छम्मासा (चू) । १३. भद्दपमु ० ( ला) । १४. ० दोसाण (ह) | १५. पंचयमे (शां) । १६. होहिति (ला, ह) । १७. दुविहो होइ (ला) । १८. से भवेतिविहे (ला) । १९. खलू (ला, ह) | १५१ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ २५६. २५७. २५८. २५९. २६०. २६१. २६३. पव्वज्जानिक्खेवो, भावम्मि उ करकडू नमीराया वसभे य इंदकेऊ, करकंडु 'दुम्मुहस्स गोट्ठगणस्स दरिता १. अत्थि (ह) । २. ३. दुम्मुहस्सा (शां) । ४. से सुजायं (शां) । चविहो पव्वज्जा, कलिंगेसु, विदेहेसु ०कंड ( चू, ला) । सहइ ॥ १७ पोराण य यदप्पो, गलतनयणो चलंत वसहोट्टो | सो चेव इमो वसभो, पड्डु - परिघट्टणं २६२. जो 'इंदकेउं समलंकियं तु दट्ठे पडतं पविलुप्पमाणं । रिद्धि अरिद्धि समुपेहिया ण, पंचालराया वि समिक्ख धम्मं ॥ २६२।१. वुद्धिं च हाणि च ससीव दट्ठ, पूरावरेगं च महानईणं । अहो अनि अधुवं च नच्चा, पंचालराया वि समिवख धम्मं " ।। मिहिलापतिस्स नमिणो, छम्मासातंक वेज "डिहो । कत्तिय सुविणग - दंसण, अहि-मंदर नंदिघोसे य ।। 1 'सेतं सुजातं ' सुविभत्तसिंगं, जो पासिया वसहं गोम रिद्धि अरिद्धि 'समुपेहिया णं ५, कलिंगराया वि समिवख धम्मं ।। स मज्झे, जस्स मम्मि | वि दत्तवसभा, सुतिक्खसिंगा समत्यो वि । निर्युक्तिपंचक दव्वे ॥ अन्न'- तिथिगा आरंभपरिग्गहच्चाओ ॥ पंचालेसु गंधारे ५. समुपेहमाणो (शांटीपा प० ३०५ ) । ६. २६०,२६१ ये दोनों गाथाएं टीका में नियुक्ति क्रम में नहीं हैं किन्तु व्याख्या में इनका संकेत मिलता है । चूर्णि में भी 'सेयं सुजायं गाहाओ तिन्नि' के उल्लेख के साथ इन गाथाओं को स्वीकृत किया है । सभी आदर्शों में ये प्राप्त हैं । विषय की क्रमबद्धता की दृष्टि से भी ये निगा प्रतीत होती हैं । वलए अंबे य पुप्फिए बोही । गंधाररण्णो य ॥ य', अ नमिस्स य य नग्गती || ७. ० केऊ अलं० (ह) । ८. दिट्ठ (ह) । ९. समिक्ख त्ति आर्षत्वात् समीक्षते, पर्यालोचयति अनेकार्थत्वादङ्गीकुरुते ( उशांटी प० ३०५ ) | १०. यह गाथा टीका में निर्युक्ति गाथा के क्रम में मिलती है। ला और ह प्रति में तथा चूर्णि में यह गाथा निर्दिष्ट नहीं है । ऐसा संभव लगता है कि प्रसंगवश यह गाथा बाद जोड़ दी गई है। ११. विज्ज० (शां) । १२. सुमिण (शां) । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययननियुक्ति २६४. २६५. २६६. २६७. २६६।१. पुप्फुत्तरातो चवणं, पत्ते बुद्ध केवल, २६८. २६९. २७०. २७१. २७२. दोन्निविनमी विदेहा', रज्जाई पर्याहिऊण पव्वइया । एगो नमितित्थगरो, एगो पत्तेयबुद्धो य ॥ जो सो' नमितित्थयरो, 'सो साहस्सिय परिव्वुड भगवं । गंथमवहाय पव्वइ, पुत्तं रज्जे ठवेऊ ।। बितिओ वि नमीराया, रज्जं चइऊण गुणगणसमग्गं । गंथमवहाय पव्वइ, अहिगारो एत्थ बितिणं ॥ य असद्दयं । बहुयाणं सद्दयं सोच्चा, एगस्स " वलयाण नमीराया, निक्खतो महिला हिवो ॥ जो चूतरुक्खं तु मणाभिरामं समंजरी - पल्लव - पुप्फचित्तं । रिद्धि रिद्धि समुपेहिया णं, गंधारराया वि समिक्ख धम्मं ॥ रज्जं च रट्ठ च पुरं अंतेउरं तहा । सव्वमेयं परिच्चज्ज, संचयं किं करेसिमं ? ॥ जदा ते पेतिए " रज्जे, कता किच्चकरा बहू । तेसि किच्चं परिच्चज्ज, 'अज्ज किच्चकरो भव" ।। जदा जया सव्वं परं मोक्खमग्गपवन्नेसु", अहियत्थं १. वेदेहा (ह) । २. रज्जाई (ला), रज्जाइ (ह) । ३. से (ह)। ४. सो साहसीय ( ला ) । परिच्चज्ज, मोक्खायं घडसी " भवं । गरह से कीस" ?, अत्तनी से सकारए" | 93 ६. बीओ (शां) । ७. गुणसयस ० (शां) । ५. २६५, २६६,२६६।१ इन तीन गाथाओं के लिए चूर्णि में मात्र 'गाहाओ तिष्णि कंठ्‌या' इतना ही उल्लेख है । निवारेंतो, पव्वज्जा होइ सिद्धिगया ८. एक्कस्स (ह) । ९. महिला० (ह), २५८ से २६७ तक की गाथाओं की व्याख्या में चूर्णि ओर टीका में एगसमएणं । एसमए ॥ साहूसु Sarfi | न दोसं वत्तुमरहसि ।। नमिपव्वज्जाए निज्जुत्ती सम्मत्ता ११. X (ला) १२. पडसी (ला) । क्रम व्यत्यय है । हमने चणि का क्रम स्वीकृत किया है । १०. पतिते (चू) पैतृके इत्यर्थः । १३. ०हसी (शां) । १४. केण (ला) । १५३ १५. ० निस्सेस० (ह, शांटीपा ) । १६. ० मग्गं पवन्नेसु (शां, ला), ० मग्गपवण्णाणं (च्) । १७. ०मरिहसि (शां) । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक २७३. निक्खेवो उ दुमम्मी', चउम्विहो 'दुविहो य होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। २७४. जाणगसरीरभविए, तब्बतिरित्ते य 'सो पुणो तिविहो' । एगभविय-बद्धाउय, अभिमुहओ नामगोत्ते य । २७५. दुमआउणामगोत्तं,५ वेदंतो भावतो दुमो होइ । एमेव य पत्तस्स वि, निक्खेवो चउव्विहो होइ । २७६. दुमपत्तेणोवम्म, अहाठिईए उवक्कमेणं च । एत्थ कयं 'आदिम्मी, तो तं दुमपत्तमज्झयणं ।। मगहापुरनगराओ, वीरेण विसज्जणं तु सीसाणं । सालमहासालाणं, पिट्ठीचंपं च आगमणं ।। पव्वज्ज गागिलिस्स य, नाणस्सय उप्पया उ तिण्हं पि। आगमणं चंपपुरि, वीरस्स ‘य वंदणं'१२ तेसिं ।। २७९. चंपाएँ पुण्णभद्दम्मि, चेइए नायओ पहियकित्ती । आमतेउं समणे, कहेति भगवं महावीरो ।। २८०. अट्ठविहकम्ममहणस्स, तस्स 'पगई विसुद्धलेसस्स'१३ । अट्ठावए नगवरे, निसीहिया निट्ठियट्ठस्स ॥ २८१. उसभस्स भरहपिउणो, तेलोक्कपगासनिग्गयजसस्स५ । जो आरोढुं वंदइ, चरिमसरीरो य१६ सो साहू ।। २७७ २७६. १. दुमंमि (शां)। अज्झयणस्स उपोद्धातो जहा निज्जुत्तिगाहाहिं' २. ४ (ला)। मात्र इतना उल्लेख है। इस वाक्य से सभी ३. चणि में इस गाथा के स्थान पर 'णामं ठवणा' नियुक्ति गाथाओं का ग्रहण हो जाता है। इतना प्रतीक दिया है। ९. x (ला)। से पुणे तिविहे (ला)। १०. पवज्ज (ह), पवज्जा (शां)। ५. दुमआउयनाम० (ह)। ११.४(ला)। तेणोवमियं (ह)। १२ अवंदणं (शां)। ७. अधादिट्ठीए (ला)। १३. पवत्तीए सुद्ध० (ला), पयईए विसुद्ध (ह) । ८. आदिम्मि तो दुमपत्तं तु अज्झयणं (ला), १४. ०हिए (शां)। • दुमपत्तं ति अज्झयणं (ह), २७६-२९९ तक १५. तेलुक्कपयास० (शां)। की गाथाओं के बारे में चूणि में 'एतस्स पुण १६. उ (ला)। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४. उत्तराध्ययन नियुक्ति २८२. साधं संवासेती', य असाधु' न किर संवसावेति । अह सिद्धपव्वतो सो, पासे वेयड्ढसिहरस्स ।। २८३. चरिमसरीरो साहू, आरुहती नगवरं न अन्नो त्ति । एयं तु उदाहरणं, कासीय तहि जिणवरिदो ।। सोऊण तं भगवतो, गच्छति तहिं गोतमो पहितकित्ती । आरुहइ तं नगवरं, पडिमाओ वंदइ जिणाणं ।। २८५. अह आगतो सपरिसो, सव्विड्डीए तहिं तु वेसमणो । वंदित्तु चेइयाई, अह वंदइ गोयमं भगवं ।। २८६. अह पोंडरीयनाम, कहेति तहि गोयमो पहियकित्ती । दसमस्स य पारणए, 'पव्वावेसी य” कोडिन्न ।। तस्स य वेसमणस्सा, परिसाए सुरवरो पतणुकम्मो । तं पुंडरीयनाम", गोयमकहियं निसामेति ।। २८८. 'घेत्तूण पोंडरीयं११, वग्गुविमाणातो२ सो चुओ संतो । तुंबवणे१३ धणगिरिस्स", अज्जसुनंदा सुतो जातो ।। 'दिन्ने कोडिन्ने या'५, सेवाले चेव होइ तइए उ१६ । एक्केक्कस्स य७ तेसिं, परिवारो८ पंच पंच सया ।। हेढिल्लाण चउत्थं, मझिल्लाणं तु होति छठें तु । अट्ठममुवरिल्लाणं, आहारो तेसिमो होइ ।। कंदादी सच्चित्तो, हेछिल्लाणं तु होति आहारो । बितियाणं२० अच्चित्तो", ततियाणं सुक्कसेवालो ।। २८७. २९१. १. संवासेइ (शां)। ११. चित्तूण पुंडरीअं (शां)। २. अस्साहू (ह), असाहुं (शां)। १२. विग्गु० (अ)। ३. ०वेइ (अ), वेई (शां)। १३. ०वण (ह)। ४. अप्रति के पाठ इस गाथा से प्राप्त होते हैं। १४. गिरिस्सा (शां,ह,ला)। इसके प्रारंभ के पत्र लुप्त हैं। १५. दिन्ने य कोडिन्ने यं (ह)। ५. आरुज्झइ (ह,अ)। १६. य (शां,अ)। ६. पुंडरीयनायं (शां), ०यनाई (ला)। १७. x (ह)। ७. पवावेसिय (ह), ०वेसीअ (शां)। १८. वारो य (ह)। ८. कोडीहिं (ला)। १९. सचित्तो (ला,ह)। ९. य तणुकम्मो (ह), पयणुकंपो (ला)। २०. बीआणं (शां)। १०. ०नायं (शां)। २१. अचित्तो (ला)। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक २९२. तं पासिऊण इड्डि, गोतमरिसिणो ततो तिवग्गा वि । अणगारा पव्वइया, सपरीवारा' विगतमोहा ।। २९३. एगस्स खीरभोयण, हेऊ. नाणुप्पया मुणेयव्वा । एगस्स या परिसादसणेण एगस्स य जिणम्मि ।। २९४. केवलिपरिसं तत्तो, वच्चंता गोतमेण 'ते भणिया' । इह एह वंदह जिणं, कयकिच्च जिणेण सो भणितो ॥ २९५. सोऊण तं अरहतो, हियएणं गोतमो वि चितेइ । नाणं मे न उप्पज्जइ, भणिते य जिणेण सो ताहे ।। २९६. चिरसंसट्ठ चिरपरिचियं च चिरमणुगयं च मे जाण । देहस्स उ भेदम्मी, दोन्नि वि तुल्ला भविस्सामो॥ २९७. जह मन्ने एतमढें, अम्हे जाणामु खीणसंसारा । तह मन्ने एतमळं, विमाणवासी वि जाणंति ।। जाणगपुच्छं पुच्छति, अरहा किर गोतमं पहितकित्ती । किं देवाणं वयणं, गिज्झं आतो° जिणवराणं ।। २९९. सोऊण तं भगवतो, मिच्छाकारस्स सो उवट्ठाति । तन्निस्साए" भगवं, सीसाणं देति अणुसिटुिं१२ । ३००. परियट्टियलावणं, चलंतसंधि मुयंतबिंटागं । पत्तं वसणप्पत्तं, कालप्पत्तं भणति गाहं५ ।। ३०१. जह तुब्भे तह अम्हे, तुम्हे वि य होहिहा जहा अम्हे । अप्पाहेइ पडतं, पंडुरपत्तं किसलयाणं८ ।। २९८. १. सप्परि० (शां,अ), सपरि० (ला)। ११. तन्नीसाए (शां)। २. हेउं (ला)। १२. अणुसट्टि (ह,ला)। ३. ४ (शां)। १३. ०लायण्णं (अ)। ४. भणिया य (शां,अ)। १४. पत्तं च (शां)। ५. इतो (ह), एय (ला), इउ (शां)। १५. गाहा (अहला) यह गाथा अनुयोगद्वार में ६. परिचयं (ह)। कुछ अंतर के साथ मिलती है७. ४(शां)। परिजरियपेरंतं, चलंतबेटं पड़तनिच्छीरं । ८. य (शां)। पत्तं वसणप्पत्तं, कालप्पत्तं भणइ गाहं ।। अनुद्वा ५६९।२ ९. भेयंमि य (शां)। १६. होहिया (ह)। १.. आतो त्ति आर्षत्वाद् आहोस्वित् (शांटी प १७. पंडुरवत्तं (शां), पंड्यपत्तं (ह) । ३२३)। १८. अनुदा ५६९।३। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययननियुक्ति ३०२. ३०३. ३०४. ३०५. ३०६. ३०७. ३०८. ३०९. ३१०. faffaोही', उल्लावो किसलपंडुपत्ताणं । उवमा खलु एस कया, भवियजणविबोहणट्टाए || दुमपत्तस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता बहु सुए 'पूजाए 's, तिण्हं पि चउक्कओ उ निक्खेवो । दव्वबहुगेण बहुगा जीवा तह पुग्गला चेव ॥ भावबहुगेण बहुगा, चउदसपुव्वा' अणंतगमजुत्ता । भावे खओवसमिए, खइयम्मि य केवलं नाणं || दारं || दव्वसुय' पोंडगादी", अहवा लिहियं तु पोत्थगादीसु । भावसुयं पुण दुविहं सम्मसुयं चेव मिच्छसुयं ॥ भवसिद्धिया उ जीवा, सम्मद्दिट्ठी उ जं अधिज्जंति तं सम्मसुएण सुयं, कम्मट्ठविधस्स सोहिकरं ॥ मिच्छद्दिट्ठी जीवा, अभव्वसिद्धी य जं अधिज्जंति । तं मिच्छसुएण सुयं, कम्मादाणं च तं भणितं ॥ ईसर - तलवर - माडंबियाण सिव- इंद-खंद- विण्हूणं । जाकिर कीरइ पूया, सा पूया" दब्वतो होइ ॥ तित्थगर केवलीणं, सिद्धायरियाण सव्वसाहूणं । जाकिर कीरइ पूया, सा पूया भावतो होइ" ।। जे १२ किर चउदसपु०वी १३, सव्वक्खरसन्निवाइणो निउणा । जा तेसि पूया खलु सा भावे ताइ अधिगारो || बहुस्सुयपूयाए निज्जुत्ती सम्मत्ता १. X (ला) । २. होहिति (ला), होई (ह) | देखें – अनुद्वा ५६९।४ । ३. पुज्जाए य (ला), पव्वज्जाए ( अ ), पज्जयाए (ह) । ४. य (शां, अ ) । ७. बोंडगादी (ला), पुंड० (ह), पोंडयादी (शां) । ८ पुत्थयाईसुं (शां), पोत्ययादीयं (ह) । ९. तामिच्छादिट्ठी (चू) । १०. X (ला) । ५. चोइस० (ला, ह) । ६. दव्वसुयत्ति अनुस्वारलोपात् द्रव्यसूत्रम् १२. जो (ह) । ( उशांटी १० ३४२ ) । ११. ३०९,३१० की गाथा चूर्णि में निर्दिष्ट नहीं है fig संक्षिप्त व्याख्या है । १५७ १३. चोट्स ० (ला), चउद्दसवि (ह) । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक ३११. ३१२. ३१३. ३१४. हरिएसे निक्खेवा, चउन्विहो दुविहो य होइ दव्वम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य सो पुणो तिविहो। एगभविय-बद्धाउय, अभिमुहओ नामगोत्ते य ।। हरिएसनामगोयं, वेदंतो भावओ उ हरिएसो। तत्तो समुट्टियमिणं, हरिएसिज्ज ति अज्झयणं ।। पुव्वभवे संखस्स उ, जुवरण्णो अंतियं तु पव्वज्जा। जातीमदं तु काउं, हरिएसकुलम्मि आयातो ।। महुराए संखो खलु, पुरोहियसुओ य* गयपुरे आसी। दळूण पाडिहेरं, हुयवहरत्थाए निक्खंतो।। हरिएसा चंडाला, सोवाग मयंग बाहिरा पाणा। साणधणा य मयासा, सुसाणवित्ती य नीया य ।। जम्मं मतंगतीरे, वाणारसि, गंडि६ तिदुगवणं च । 'कोसलिए य' सुभद्दा, इसिवंता जण्णवाडम्मि । बलकोट्टे बलकोट्टो, गोरी गंधारि सुविणगवसंतो । नाम निरुत्ती छणसप्प, संभवो 'दुंदुभे बोही''" । भद्दगेणेव होयव्वं, पावति भद्दाणि भद्दओ। सविसो हम्मती१ सप्पो, भेरुंडो तत्थ मुंचति१२ ।। ३१६. ३१७. ३१८. ३१९. १. टीका में इस गाथा के स्थान पर 'नाम ठवणा ५. मायंग (अ)। दविए' इतना ही पाठ प्राप्त है। लेकिन आदर्शों . ६. गंड (अ)। में गाथा उपलब्ध है। प्रसंगानुसार यही गाथा ७. कोसलिएसु (शां), लिओ उ (ह)। संगत लगती है। ८. गोरि (अ)। २. अ (शां)। ९. सुवणे य सुवसंतो (अ)। ३. आयाओ (अ,शां), ३१४-३२० तक की १०. दुंदुहे बीओ (शां), x (ला)। गाथाओं का चूर्णि में संकेत नहीं है किन्तु ११. हम्मए (शां)। कथानक के रूप में गाथाओं का भावार्थ १२. मुच्चति (अ, चू, शां), मुच्चई (ह)। उपलब्ध है। प्रकाशित चूणि में यह गाथा उगा के रूप में ४. x (ह)। संकेतित है। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ उत्तराध्ययन नियुक्ति ३२०. उज्जाणे तिदुगम्मि,' गंडयजक्खो त्ति विस्सुतो आसि । तो गंडि तिदुगवणं, उज्जाणं होइ नायव्वं ।। ३२१. इत्थीण कहत्थ वट्टती, जणवयराय कहत्थ वट्टती । पडिगच्छह रम्मतिदुर्ग, अइ ! ६ सहसा बहुमुंडिए जणे ।। हरिएसिज्जस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता ३२२. ३२४. चित्ते संभूयम्मि य, निक्खेवो 'चउक्कओ दुहा दव्वे'''। आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य सो पुणो तिविहो । एगभविय-बद्धाउय,११ अभिमुहओ नामगोत्ते य ।। चित्ते संभूताउं,१२ वेदंतो'३ भावतो य१४ नायव्यो । तत्तो५ समुट्ठियमिणं, अझयणं चित्तसंभूयं ।। सागेते चंडवडिसयस्स, पुत्तो य६ आसि मुणिचंदो। सो वि य सागरचंदस्स अंतिए पव्वए समणो ।। तण्हाछुहाकिलंतं, समणं ठूण अडविनीहुत्तं । पडिलाभणा य बोही, पत्ता गोवालपुत्तेहिं ।। तत्तो दोन्नि दुगुंछ,८ काउं 'दासा दसण्ण'१६ आयाया। दोन्नि य उसुयारपुरे, अहिगारो बंभदत्तेण ।। ३२५. ३२६. ३२७. १. तेंदुगम्मि य (अ), तिदुगम्मी (ला)। १०. चउक्को दुविहो य होइ दव्वम्मि (अ), २. गंडतिज ० (ला), गंडज (ह)। चउक्को दुविहो दव्वम्मि (ला)। ३. वीसुतो (ला), वीसओ (ह)। ११. बद्धाऊ (शां)। ४. टीका में यह गाथा नियुक्ति गाथा के क्रम में १२. संभूताई (ला) । नहीं है । लेकिन चूणि में इस गाथा का १३. वेइंतो (ह), वेअंतो (शां)। भावार्थ मिलता है। सभी आदर्शों में यह १४. उ (ह)। गाथा उपलब्ध है तथा क्रमबद्धता की दृष्टि से १५. तेसु उ (ला), तेसु (ह) । भी यह निगा की प्रतीत होती है। १६. उ (ह)। ५. कहित्थ (शां)। १७. ०णीभूयं (ला), नीहयं (ह), अटवीनिष्क्रान्त ६. कहियत्थ (अ)। मित्यर्थः (शांटीप ३७५) । ७. वट्टइ य (अ)। १८. दुगंछं (शां)। ८. पतिगच्छह (अ)। १९. दास दसन्ने (ह), दसन्नि (शां)। ९. 'अयी'त्यामंत्रणे (शांटी प ३५५)। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८. ३२९. ३३०. ३३१. ३३२. नियुक्तिपंचक राया य तत्थ बंभो, कडओ तइओ कणेरुदत्तो' त्ति । राया य पुप्फचूलो, दीहो पुण होइ कोसलिओ' | एए पंच वयंसा, सव्वे सह दारदरिसिणो होत्था । 'संवच्छरं अणूणं,' वसंति एक्केक्करजम्मि ।। राया य बंभदत्तो, धणुओ सेणावती य वरधणुओ। इंदसिरी 'इंदजसा, इंदवसू' 'चुलणिदेवी य॥ चित्ते य विज्जुमाला, विज्जूमती चित्तसेणओ भद्दा : पंथग' नागजसा पुण, कित्तिमई कित्तिसेणो य ।। देवी य नागदत्ता, जसवइ रयणवइ जक्खहरिलो य । वच्छी य चारुदत्तो, उसभो कच्चाइणी य सिला ।। धणदेवो वसुमित्ते, सुदंसणे दारुए य नियडिल्ले । पुत्थी पिंगल पोते, सागरदत्ते या दीवसिहा ।। कंपिल्ले मलयवती, वणराई सिंधुदत्त सोमा य । तह सिंधुसेण पज्जुन्नसेण," वाणीर पतिगा य ।। हरिएसा गोदत्ता, करेणुदत्ता" करेणुपदिगा य । कुंजर करेणुसेणा, इसिवुड्डी१२ कुरुमती देवी। 'कंपिल्लं गिरितडगं,'१४ चंपा हत्थिणपुरं च साएयं । समकडगं नंदोसा,५ वंसीपासाय समकडगं ।। समकडगातो अडवी, तण्हा वडपायवम्मि संकेतो। गहणं वरधणुगस्स य, बंधणमक्कोसणं चेव ।। ३३३. ३३४. ३३५. ३३६. ३३७. १. कणेरदत्तो (अ,शां)। ६. पंथा (ह)। २. ३२८-३५२ तक की गाथाओं का चूणि में कोई ७. ४(ह)। संकेत नहीं है किन्तु चूर्णिकार ने 'सव्वा ८. व (ह)। बंभदत्ती हिंडी भाणियव्वा' ऐसा उल्लेख किया ९. राई (ला)। है । हिंडी शब्द से ये सभी गाथाएं निगा के १०. ०सेणा (ह)। रूप में निर्दिष्ट हैं तथा टीकाकार ने भी ११. कणेरु ० (शां) सर्वत्र । 'हरिकेशववक्तव्यतामाह नियुक्तिकृद्' ऐसा १२. ०वुड्ढी (अ,ला)। उल्लेख किया है। १३. कुरुवती (अ)। ३. भोच्चा (शां)। १४. ०ल्लगिरितडागं (ह)। ४. इंदवसू इंदजसा (अ)। १५. ओसाणं (ह,शां)। ५. देवी उ (अ), देवीओ (शां)। १६. सतिण्ह (अ), तम्हा (ह) । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति १६ ३३८. सो हम्मती' अमच्चो, देहि कुमारं 'कहिं तुमे'२ नीतो ? । गुलियविरेयणपीतो, कवडमओ छड्डितो तेहिं । तं सोऊण कुमारो, भीओ अह उप्पहं पलायित्था । काऊण थेररूवं, देवो वाहेसिय कुमारं ।। __ वडपुरगबंभथलयं, वडथलगं चेव होइ कोसंबी। वाणारसि रायगिह,५ गिरिपुर-महुरा य अहिछत्ता ।। वणहत्थी य कुमारं, जणयइ आहरणवसणगुणलुद्धो । वच्चंतो 'वडपुरओ, सावत्थी'६ अंतरा गामो । ३४२. गहणं नंदीकुडंग, गहणतरागाणि पुरिसहिययाणि । देहाणि पुण्णपत्तं,° पियं खु नो दारओ जातो ।। ३४३. सुपतिढे कुसकुंडि, भिकुंडिवित्तासियम्मि जियसत्तू । महुरातो अहिछत्तं, वच्चंतो अंतरा लभति ।। इंदपुरे रुद्दपुरे,१२ सिवदत्त विसाहदत्त3 'धूया य । बडुगत्तणेण लभती, कन्नाओ दोन्नि रज्जं च ।। ३४५. रायगिह-मिहिल-हत्थिणपुरं च चंपा तहेव सावत्थी'६ । एसा उ नगरहिंडी, बोधव्वा बंभदत्तस्स ।। रयणुप्पया य विजओ, बोधव्वो दीहरोस मोक्खे य । संभरण 'नलिणिगुम्मे, जातीय'१८ पगासणं चेव ।। जातीपगासण' निवेयणं च, जातीपगासणं चित्ते । चित्तस्स य आगमणं, इड्डिपरिच्चाग सुत्तत्थो । ३४४. ३४७. १. हम्मही (अ), हम्मई (शां)। ११. कुसुकुंडी (ह)। २. कहित्तु मे (ह)। १२. भद्दपुरे (ह,ला)। ३. पहारत्था (ह) । १३. विसाददत्त (ला)। ४. वडपूरग बंभ ... .''ला प्रति में इतना ही पाठ १४. धया उ (अ), धूआओ (शां)। मिलता है। १५. महिल (ला)। ५. गिहि (शां)। १६. सावत्थि (ह)। ६. य पुराओ अहिछत्तं (शां,ह)। १७. बुद्धन्वा (अ), बोद्धव्वा (शां)। ७. ला प्रति में यह गाथा नहीं है । १८. नलिणिगुम्म जाईइ (शां), जाइय (अ)। ८. ल्याइं (अ), पुरिससहियाणि (ह)। १९. जाईइ पगास (शां), जाइय प ० (अ), जाईए ९. देहाणि (शां)। पगासणं (ह)। १०. पुण्णवत्तं (अ)। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ नियुक्तिपंचक ३४८. ३४९. ३५०. इत्थीरयण पुरोहिय, भज्जाणं' 'विग्गहो विणासम्मि'२ । सेणावइस्स भेदो, वक्कमणं चेव पुत्ताणं ।। संगामे अत्थि भेदो, मरणं पुण च्यपादवुज्जाणे । कडगस्स य निब्भेदो, दंडो य पुरोहियकुलस्स ।। जतुघरपासादम्मि य, दारे य सयंवरे ‘य थाले य । तत्तो य आस-रह-हत्थिए, य तह कुंडए चेव ।। कुक्कुडरव तिलपत्ते, सुदंसणे दारुए य नयणिल्ले । पत्तच्छिज्ज सयंवर, 'कला उ'" तह आसणे चेव ।। कंचुगपज्जुण्णम्मिय, 'हत्थो वण कुंजरे'१३कुरुमती य । एते कन्नालंभा, बोधव्वा बंभदत्तस्स" ।। चित्तसंभूइज्जस्स निज्जुत्तो सम्मत्ता ३५१. ३५२. ३५३. ३५४. उसुयारे निक्खेवो, चउब्विहो दुविहो य होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य सो पुणो तिविहो । एगभविय-बद्धाउय, अभिमुहओ नामगोत्ते य ।। उसुयारनामगोयं", वेदेंतो भावतो य उसुयारो। तत्तो समुट्ठियमिणं, उसुयारिज्जं ति अज्झयणं ।। ३५५. १. भिज्जाणं (शां), विज्जाणं (अ) । २. वुग्गहो विणासंमि (शां)। ३. उवकमणं (अ)। ४. चोय ० (ला), धोय ०(ह)। ५. कुलस्सा (ह)। ६. जहा जे य (अ)। ७. तत्तो य आसए हथिए (शां), तत्तो आसए य हथिए (ला)। ८. कुक्कडरह (अ)। ९. नियडिल्ले (ला)। १०. ०वरी (ला)। ११. कालो उ (ला)। १२. ०पज्जत्तम्मि (१) । १३. हत्था मणकुं ० (ला,अ,ह)। १४. टीकाकार ने इन पांच गाथाओं (३४८ ३५२) को निगा के क्रम में रखा है तथा उनके लिए ऐसा उल्लेख किया है-'नियुक्तिगाथा: पञ्चः "" ""विशिष्टसंप्रदायाभावान्न विवियन्ते' (शांटीप ३८३)। हमने इन्हें निगा माना है। यह भी संभावना की जा सकती है कि ये पांचों गाथाएं बाद में जोड़ी गई हों। १५. ४ (ला) । १६. ०गोए (शां,चू)। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ उत्तराभ्ययन निर्मुक्ति ३५६. पुन्वभवे संघडिया,' संपीया अन्नमन्नमणुरता। 'भोत्तण कामभोगे,'२ निग्गंथा पव्वए समणा ।। ३५७. काऊण य सामण्णं, पउमगुम्मे विमाणे उववन्ना । ___ 'पलिओवमा य' चउरो, 'ठिती य'५ उक्कोसिया तेसि ।। ३५८. तत्तो य चुता संता, कुरुजणवयपुरवरम्मि उसुयारे । छप्पि* जणा उववन्ना, चरिमसरीरा विगयमोहा ।। ३५९. राया उसुयारो या, ,'कमलावइदेवि' अग्गमहिसी से । भिगुनामे य पुरोहिय, वासिट्ठा" भारिया तस्स ।। ३६०. उसुयारपुरे नगरे, उसुयारपुरोहिओ य" अणवच्चो । पुत्तस्स कए बहुसो, परितप्पंती 'दुयग्गा वि'१२ ।। ३६१. काऊण समणरूवं, तहियं देवो पुरोहियं भणइ । होहिंति तुझ पुत्ता, दोन्नि जणा देवलोगचुया ।। तेहि य पव्वइयव्वं, जहा य न करेह अंतरायं ण्हे। ते पव्वइया संता, बोहेहंती" जणं बहुगं ।। ३६३. तं वयणं सोऊणं, नगराओ नेति१५ ते वयग्गामं । वड्ढंति य ते तहियं, गाहेति य णं असब्भावं ।। ३६४. एए समणा धुत्ता,१७ पेय-पिसाया य पोरुसादा१८ य । मा तेसिं अल्लियहा,१६ मा भे पुत्ता ! विणासेज्जा ।। ३६२. . १. घडियाओ (शांटीपा), संघडिय त्ति देशीपद- ९. य (अ) । मव्युत्पन्नमेव मित्राभिधायि (शांटीप ३९४)। १०. वासिट्ठी (अ)। २. भुत्तूण भोगभोए (शां)। ११. उ (अ, ला)। ३. ३५६-६६ तक की गाथाओं का चणि में कोई १२. इयत्ता वि (अ) । 'यग्गावि' त्ति देशीपदं संकेत नहीं है किन्तु कथानक रूप में गाथाओं प्रक्रमाच्च द्वावपि दम्पती (शांटीप ३९४)। का संक्षिप्त भावार्थ है। टीकाकार ने इन १३. 'ण्हे' त्ति अनयोः (शांटीप ३९४)। गाथाओं के लिए नियुक्तिकृत् का उल्लेख १४. बोहेहिंती (शां)। किया है। १५. निति (शां), निग्गओ (ला)। ४. ०वमाइं (शां)। १६. ० ग्गामे (शां)। ५. द्विती उ (ला), ठिइ य (अ), ठिई (शां)। १७. वुत्ता (अ)। ६. पुरम्मि (अ)। १८. पुरुषसम्बन्धिमांसभक्षका राक्षसा इति ७. छावि (ला,शा)। (शांटीप ३९४)। ८. जसवतिदेवी य (ला)। १९. अल्लिहहा (अ)। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ नियुक्तिपंचक ३६५. दठ्ठण तहिं समणे, जाइं पोराणियं च सरिऊणं । बोहितऽम्मापियरं,' उसुयारं रायपत्ति' च ।। सीमधरो य राया, भिगू य वासिट्र रायपत्ती य । बंभणी दारगा चेव, छप्पेते परिनिव्वुडा ।। उसुयारिज्जस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता ३६७. निक्लेवो भिक्खुम्मी, चउब्विहो दुविहो य होइ दव्वम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो" य सो तिविहो । ३६८. जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य निण्हगादीसु । जो भिदेइ खुहं खलु, सो भिक्खू° भावतो होइ ।। ३६९. भेत्ता य भेयणं वा, नायव्वं भिदियव्वयं चेव । एक्केक्कं पि य दुविहं, दवे भावे य नायव्वं ।। ३७०. रहकार-परसुमादी, दारुगमादी य दव्वतो होति । साधू' कम्मट्टविहं, तवो य भावम्मि१२ नायव्वं ।। ३७१. 'रागहोसा दंडा, जोगा'३ तह गारवा य सल्ला य । विकहाओ४ सण्णाओ, खुहं कसाया पमाया'५ य ।। ३७२. एताई तु खुहाई, जे१६ खलु भिदंति सुव्वया रिसओ। ते भिन्नकम्मगंठी,१७ उविति अयरामरं ठाणं ।। सभिक्खुयस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता ३७३. नामं ठवणा दविए, माउगपद संगहेक्कए चेव । पज्जव-भावे य तहा, सत्तेते एक्कगा होति ।। १. बोहितेऽम्मापियरो (अ)। २. रायपुत्तं (शां)। ३. एए (अ)। ४. निव्वुआ (शां)। ५. भिक्खुम्मि (ह)। ६. x(ला,अ)। ७. x (ला)। ८. तिविहो य (ला)। ९. भिदा (ह)। १०. ४ (अ)। ११. होति (अ) । १२. भावं ति (ला)। १३. रागद्दोसा छुहं दंडा (ला, शांटीपा) १४. विगहाओ (शां)। . १५. पमाओ (अ)। १६. जं (अ)। १७. ०गंठिं (ह)। १८. देखें वशनि । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ उत्तराभ्ययन निमुक्ति ३७४. ___ 'दससु य छक्के'' दव्वे, नायध्वो दसपदेसिओ खंधो। ओगाहणा ठिईए, नायवो पज्जवदुगे य ।। ३७५. · बंभम्मी' उ चउक्क, ठवणाबभम्मि बभणुप्पत्ती। दव्वम्मि वत्थिनिग्गह, अन्नाणीणं मुणेयव्वो ॥ ३७६. भावे उ वािनग्गहो, नायव्वो तस्स रक्खणट्ठाए । ठाणाणि ताणि वज्जेज्ज, जाणि भणियाणि अज्झयणे ।। ३७७. चरणे छक्को दव्वे, गइ-चरणं५ चेव 'भक्खणे चरणं । खेत्ते काले जम्मि य, 'भावे उ' गुणाण आचरणं ।। ३७८. 'समाधीए चउक्क'८ दव्वं दव्वेण जेण उ समाही। भावम्मि नाण-दसण, तवे चरित्त य नायव्वं ।। ३७९. नाम ठवणा दविए, खेत्तद्धा उड्ढ 'उवरती वसधी' । संजम-पग्गह-जोहे, अचल-गणण-संधणा भावे ।। बंभचेरसमाहिठाणस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता ३८१. ३८०. पावे छक्कं दव्वे, सच्चित्ताचित्तमीसगं० चेव । खेत्तम्मि निरयमादी, काले अइदुस्समादीओ। भावे पावं इणमो, हिस-मुसा-चोरियं च अब्बभं"। तत्तो परिग्गहे च्चिय, अगुणा भणिया उजे सुत्ते ।। समणे चउक्क निक्खेवओ", उ५ दव्वम्मि निण्हगादीया । नाणी संजमसहिओ, नायव्वो भावतो समणो । ३८२. १. ४ (ला)। ९. उवरई वसही (शां)। २. ४(ला)। १०. सचित्ता (अ,शां)। ३. ०दुवे (अ,ला)। ११. अबंभं (ला)। ४. बंभम्मि (शां)। १२. गुणा (अ)। ५. चरणे (ला)। १३. य (शां)। भक्खणे चरणं ति एकारोऽलाक्षणिकस्ततो १४. निक्खेवो (अ) । भक्षणचरणं (उशांटी प ४२१)। १५. य (ला)। भावओ (अ)। १६. गादी य (ला)। ८. ०धीए उ चउक्को (चू), समाहीइ चउक्कं (शां)। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ३८३. ३८४. ३८५. ३८६. ३८७. ३८८. ३८९. ३९०. जे भावा अकरणिज्जा, 'इह अज्झयणम्मि'' वण्णिय' जिणेहिं । ते भावे सेवतो, नायव्वो पावसमणो त्ति ॥ खलु वज्जंति सुव्वया रिसओ । सिद्धिमविग्घेण वच्चति ॥ पावसमणिज्जस्त निज्जुत्ती सम्मत्ता एताइं पावाई, जे पावकम्ममुक्का, १. इहमज्झ ० ( शां) । २. कित्तिय ( अ ) । निक्खेवो संजइज्जम्मि, 'चउव्विहो दुविहो य४ दव्वम्मि | आगम- नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ॥ जाण सरीरभविए, तव्वतिरित्ते य एगभविय बद्धाउय, अभिमुओ 'संजयनामं गोत्तं', ६ वेदेतो" तत्तो मुट्ठियमि अभयणं कंपिल्लपुरवरम्मि य, ध् नाणं संजतो नरवरिंदो । सो सेणाए सहितो, नासीरं" निग्गतो" कदाइ " || हयमारुढो राया, मिए छुभित्ताण सज्जा | तत्थ उ'३ उत्तत्ये४, वहेति रसमुच्छितो संतो ॥ अह केसरमुज्जाणे, नामेण गद्दभालि अणगारो । 'अप्फोवमंडवम्मि य, १५ भायति झाणं भवियदोसो" ।। ३. पावंति (ला) । ४. चउक्कतो दुविहो होइ (ला) । ५. ० हो ( अ ) । ६. ० नामगोतं ( अ ) । ७. वेयंतो (शां) । ८.०ज्जत्ति ( अ ) । ९. x (ला) । १०. नासीरं - मृगयां प्रति (शांटीप ४३८ ) । ११. णागतो (ला) । निर्युक्तिपंचक सो पुणो तिविहो । नामगोत् य ॥ भावसंजतो होइ । 'संजइज्ज fall १२. चूर्णि में ३७७ - ३९८ तक की गाथाओं का उल्लेख या व्याख्या नहीं है, किन्तु चूर्णिकार ने स्पष्ट लिखा है 'निर्युक्तिगाथा: सूत्र - गाथाश्च प्रायसः प्रकटार्था एवं नियुक्तिकारः सूत्रोक्तमेवार्थं क्वचिदनुवर्तते' इस वाक्य से स्पष्ट है कि चूर्णिकार के सामने ये गाथाएं थीं । १३. x (ला) । १४. उत्तित्थो ( अ ) । १५. अप्फोय० ( अ ) ० मंडवम्मी (ला) । १६. झरिय० ( अ ) । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ उत्तराध्ययन नियुक्ति ३९१. अह आसगतो राया, तं पासिय संभमागतो तत्थ । भणति य हा' जह दाणि, इसिवज्झाए मणालित्तो।। ३९२. वीसज्जिऊण आसं, अह अणगारस्स एति सो पास । विणएण वंदिऊणं, अवराहं तो खमावेति ।। ३९३. अह मोणमस्सितो सो, अणगारो नरवई न वाहरइ। तस्स तव-तेयभीतो, इणम→ सो उदाहरइ ।। कंपिल्लपुराहिवई, नामेणं संजतो अहं राया। तुज्झ सरणागतो म्हि', निद्दहिहा मा मि तेएणं ।। अभयं तुज्झ नरवती !, जलबुब्बुयसंन्निभे य माणुस्से । कि हिंसाएँ" पसज्जसि, जाणतो अप्पणो दुक्खं ? || ३९६. सव्वमिणं चइऊणं, अवस्सं जदा य होइ" गंतव्वं । किं भोगेसु पसज्जसि? किंपागफलोवमनिभेसु ।। सोऊण य सो धम्म, तस्सऽणगारस्स अंतिए राया । अणगारो पव्वइतो, रज्जं चइउं गुणसमग्गं ।। काऊण तवच्चरणं१२, बहूणि वासाणि सोधुयकिलेसो। तं ठाणं संपत्तो, जं संपत्ता न सोयंती ।। ___ 'संजइज्जस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता' ३९५. ३९७. ३९८. ३९९. निक्खेवो य" मियाए, चउक्कओ दुविहो य होइ दव्वम्मि। आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो'५ ।। जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य सो पुणो तिविहो । एगभविय-बद्धाउय, अभिमुहओ नामगोत्ते य॥ ४००. १. 'हा' इति खेदे (शांटीप ४४०)। २. इण्हि (शां)। ३. मणालग्गो (अ)। ४. वीसज्जेऊण (ला)। ५. ते (शां)। ६. मोणमासितो (ला, ह)। ७. ०वई (अ)। ८. मि (ला), म्मि (ह)। ९. मे (ला), 'मि' इति मां (शांटी प ४४०)। १०. हिंसाइ (शां)। ११. होति (ला)। १२. तवं चरणं (अ)। १३. तो (ला)। १४. उ (ला)। १५. ३९९-४०१ तक की गाथाओं के लिए चणि में 'गाथात्रयं गतार्थ' इतना ही संकेत दिया है। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ नियुक्तिपंचक ४०२. ४०४. ४०५. ४०१. मिगआउनामगोयं', वेदेतो भावतो मिगो होइ । एमेव य पुत्तस्स वि, चउक्कओ होइ निक्खेवो । मिगदेवोपुत्ताओ, बलसिरिनामा समुट्ठियं जम्हा । तम्हा मिगपुत्तिज्ज, अज्झयणं होइ नायव्वं ।। ४०३. सुग्गीवे नयरम्मि य, राया नामण आसि बलभद्दो । तस्सासि अग्गर्माहसी, 'इट्ठा देवी मिगा'३ नाम । तेसि दोण्ह वि पुत्तो, आसो नामेण बलसिरी धिइम । वयरोसभसंघयणो, जुवराया चरमभवधारी ।। उन्नदमाणहियओ", पासाए नंदणम्मि सो रम्मे । कीलइ पमदासहितो, देवो दोगुंदगो चेव ।। ४०६. अह अन्नया कयाई, पासादतलम्मि सो ठितो संतो। आलोएति पुरवरे, रुदे मग्गे गुणसमग्गे ॥ ४०७. अह पेच्छइ रायपहे, वोलंत समणसंजय तत्थ । तव-नियम-संजमधर, सुतसागरपारगं धीरं ।। ४०८. अह देहति रायसुतो, तं समणं अणमिसाएँ दिट्ठीए । कहि एरिसयं रूवं, दिळं 'मन्ने मए पुव्वं ।। ४०९. 'एवं चितयंतस्स'११, सण्णीनाणं तहिं समुप्पन्न । पुन्वभवे सामण्णं, मए वि एवं कयं आसि ।। ४१०. सो लद्धबोहिलाभो, चलणे जणगाण वंदिउ भणइ । वीसज्जिउमिच्छामोर, काहं समणत्तणं तात! ॥ ४११. नाऊणनिच्छयमती, एव'करेहि त्ति तेहि सो भणितो। धन्नो सि तुमं पुत्तो'६! जंसि विरत्तो सुहसएहि ।। १. मिगाउणा० (ला)। १०. मज्झे मए पुदिव (ला)। २. x(ला)। ११. एवमणुचित ० (शां)। ३. देवी उ मिगावई (शां)। १२. ०ज्जिउं इच्छामो (अ)। ४. कुमारो (अ), धीमं (शां)। १३. ताया (शां)। ५. जुगराया (ला)। १४. नाऊणं (ला)। ६. चरिम ० (अ,ला)। १५. एवं (ला)। उवनंदमाण (अ), ओनंदमाण (ला)। १६. पुत्ता (शां)। ८. किलई (शां)। १७. ०सएसु (अ,शां)। ९. दुगुंदगो (शां)। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययननियुक्ति ४१२. ४१३. ४१४. ४१५. ४१६. ४१७. ४१८. सोहत्ता निक्खमिउं, सोहत्ता चेव विहरसू पुत्ता ! | जह नवरि' धम्मकामा, विरत्तकामा उ विहरति ।। नाणेण दंसणेण य, चरित्त-तव-नियम -संजम गुर्णाह । खतीए मुत्तीए, होहि तुमं 'वड्डुमाणो उ४ ।। संवेगजणितहासो", मोक्खगमणबद्धचिधसन्नाहो । अम्मा पिऊण वयणं, सो पंजलितो परिच्छाय ॥ इड्डी निक्खतो, काउ समणत्तण परमघोरं । तत्थ गतो सो धोरो, जत्थ गया खीणसंसारा ।। 'मिगापुत्तिज्जस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता' नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले पहाण - पति-भावे । खुड्डगाणं, पडवक्ख" महतगा होति ॥ १० निक्खेवो नियंठम्मि, 'चउब्विहो दुविहो य' होइ दव्वम्मि | आगम- नोआगमतो, आगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य निगादीसु । भावे पंचविहे खलु, इमेहिँ दारेहिँ सो नेओ ॥ १. नवरं (शां) । २. य ( ला ) । ३. मुत्तयाए (ला) । ४. वट्टमाणेणं (ला), वट्टमाणा उ ( अ ) । ५. ० जणियसद्धो (शांटीपा ) । ६. पर्याच्छिउ ( अ ) । ७. ०घोरुं (अ) । वीरो (ला) । ८. ९. ४०३ - ४१५ तक की गाथाओं में मृगापुत्र की कथा है। चूर्णिकार ने इन गाथाओं के लिए १६९ स्पष्ट उल्लेख किया है कि 'सूत्रोक्तमप्यर्थं नियुक्तिकारः पुनरपि ब्रवीति कि ? द्विर्बद्धं सुबद्धं भवतीति' इसलिए इन गाथाओं की व्याख्या चूर्णिकार ने नहीं की है और न ही कथानक दिया है । टीकाकार ने इन गाथाओं के लिए 'निर्युक्तिकृद्' का उल्लेख किया है । १०. अ ठाण (शां), य पहाण ( अ ) । ११. पडिवक्खु (अ) । १२. चउक्कओ दु० (शां), चउव्विहो दुव्विहो य (अ) 1 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२०. नियुक्तिपंचक पण्णवण वेद रागे, कप्प चरित्त पडिसेवणा नाणे । 'तित्थे लिंग सरीरे", खेत्ते काल 'गति (ठिति) संजम निगासे ।। जोगुवओग-कसाए, लेसा-परिणाम 'बंधणे उदए'५ । कम्मोदीरण उवसंपजहण सण्णा य आहारे ।। भव-आगरिसे कालंतरे समुग्घाय' खेत्त फुसणा य। भावे परिणामे खलु, ‘महानियंठाण अप्पबहू'८॥ सावज्जगंथमुक्का, अभितरबाहिरेण गंथेण। एसा खलु निज्जुत्ती, महानियंठस्स सुत्तस्स ।। महानियंठस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता ४२१. ४२२. ४२३. ४२४. "समुद्देण पालियम्मि'६, निक्खेवो चउक्कओ दुविह" दव्वे । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । समुद्दपालिआउं" य, वेदेतो भावतो य नायव्वो । तत्तो समुट्ठियमिणं, समुद्दपालिज्जमज्झयणं ।। चंपाएँ सत्थवाहो, नामेणं आसि पालिगो'२ नाम । वीरवरस्स भगवतो, सो'३ सीसो खीणमोहस्स" ।। ४२५. १. तित्थलिंग सरीर (शां)। ७. समघाय (अ)। २. खित्ते (शां,अ)। ८. महानिग्गंथांण अप्पबहुं (शां), अप्पाबहुयं ३. गइ ठिति (शां), ठिति शब्द न रहने से छंद नियंठाणं (भ २०२७८।३)। भंग नहीं होता। ९. पालियम्मी (ला), समुद्दे पालियम्मि य ४. भ २५४२७८।१, ४१९-२१ तक की (अ), पालिअंमि अ (शां)। गाथाओं के लिए चूर्णिकार ने 'पण्णवण वेय १०. दुविहो (ला), दुविहो (अ)। रागे इत्यादि गाथात्रयसंग्रहीतानि' ऐसा ११. समुद्देण ० (अ), ०पालिआऊ (शां)। उल्लेख किया है। संभव है ये गाथाएं १२. पालगो (ला)। भगवती सूत्र (२५।२७८।गा. १-३) मे १३. ४ (ला)। निर्यक्तिकार ने उदधत की हों। ये तीनों १४. ४२५-४३६ तक की गाथाओं में समद्रगाथाएं नियुक्ति का अंग बन गई हैं क्योंकि पाल की कथा है। चर्णिकार ने इन गाथाओं ४१८ की गाथा में नियुक्तिकार में स्पष्ट का संकेत और व्याख्या न करके मात्र इतना उल्लेख किया है कि 'इमेहिं दारेहिं सो उल्लेख किया है कि 'सूत्रोक्तमेवार्थ यत्पुनः नेओ।' नियुक्तिकारो ब्रवीति' तथा टीकाकार ने भी ५. बंध वेदे य (भ २५।२७८२)। इन गाथाओं के लिए...'वदन्नाह नियुक्ति६. उवसंपज्जण (ला), उवसंपजहण्ण (भ)। कारः' का उल्लेख किया है। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययननियुक्ति ४२६. ४२७. ४२८. ८. ४२९. ४३०. ४३१. ४३२. ४३३. ४३४. ४३५. ४३६. अह अन्नया कयाई', पोएणं गणिम धरिम भरिएणं । तो नगरं संपत्तो, पिहुंड नाम नाणं ॥ ववहरमाणस्स तहिं पिहुंडे देइ वाणिओ धूयं । तं पिय पत्ति घेत्तूण, पत्थितो र सो ससस्स ।। अह सा सत्थाहसुया, समुद्दमज्झम्मि पसवती पुत्ततं । पियदंसणसव्वंगं, नामेण 'समुद्दपाल ति' ।। खेमेणं संपत्तो, सो पालियसावगी घरं नियय । धातीदसद्धपरिवुडो, अह वडति सो उदधिनामो ।। बावत्तरिकलाओ' य, सिक्खितो नीतिकोविओ जाहे । तो जोवणसं पुन्नो, जातो पियदंसणो अहियं ॥ अह तस्स पिया पत्ति, आणेती 'रूविणि त्ति" नामेणं । चट्टगुणोवेतं, अमरवधूण सरिसरूवं ॥ अह रूविणी सहिओ, कीलइ सो भवणपुंडरीयम्मि । 'दोगुंदगो व' देवो, किंकरपरिवारितो निच्चं " ॥ अह अन्नया कयाई, ओलोयणसंठिओ" सदेवीओ । 'वज्भं नीणिज्जंत, पेच्छइ तो सो जणसएहि २ ॥ अह भणति सन्निनाणी, भीतो संसारियाण दुक्खाणं । नीयाण ४ पावकम्माण, हा जहा पावगं इणमो ॥ संबुद्धो सो भगवं, संवेगमणुत्तरं च संपत्तो । आपुच्छिऊण जणए, निक्खतो खाय - जस- कित्ती ॥ १. काई ( अ ) । २. निग्गओ (शां, अ ) । ३. ०पालि त्ति (शां), ०पाल त्ति (अ) । ४. नियबं ( अ ) । काऊण तवच्चरणं, बहूणि वासाणि सो धुतकिलेसो । तं ठाणं संपत्तो, जं संपत्ता न सोयंति ।। समुद्दपालीयस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता ५. बावर्त्तार० (शां) 1 ६. जुव्वणमप्फुन्नो (शां) । ७. रुविणी य ( अ ) । ० णीइ (शां) । ९. दोगुंदगुव्व ( शां, अ)। १०. चेव ( अ ) । १७१ ११. ०यणदिट्टिओ (ला) । १२. वज्ती णिज्जंतं ० (ला), वज्यं णीणीब्जंत पेच्छइ तो सो जणवएहि (शांटीपा ) । १३. भणति (ला) । १४. नीयाणं (ला) । १५. संपत्ती (ला) । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ नियुक्तिपंचक ४३७. ४३८ ४३९. ४४०. ४४१. रहनेमी निक्खेवो, चउक्कओ दुविह' होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। जाणगसरीरभविए, तवा रित्ते य 'सो पुणो तिविहो । एगभविय-बद्धाउय, अभिमुहओ नामगोत्तेय ।। रहनेमिनामगोयं, वेदेतो भावतो य रहनेमी। तत्तो समुट्ठियमिणं, रहनेमिजं ति अज्झयणं ।। सोरियपुर(म्म नगरे, आसी राया समुद्दविजओ त्ति। तस्सासि अग्गमहिसी, सिव त्ति देवी अणोज्जंगी ।। तेसि पुत्ता चउरो, अरिटनेमी तहेव रहनेमी। तइओ य सच्चनेमो, चउत्थओ होइ दढने मी ।। जो सो अरिटुनेमी, बावोसइमो अहेसि सो अरहा। रहनमि सच्चनमी, एए पत्तेयबुद्धा उ ।। रहने मिस्स भगवतो, 'गिहत्थऍ चउर' हवंति वाससया। संवच्छर छउमत्थो, पंचसए केवली होति" ।। नववाससए वासाहिए उ सव्वाउगस्स नायव्वं । एसो 'चेव उ'१२ कालो, 'रायमतीए वि'१३ नायव्वो। रहनेमिज्जस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता ४४२. ४४३. ४४४. ४४५. निक्खेवो गोतमम्मि, चउक्कओ दुविहो य होइ दव्वम्मि। आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। १. दुन्विहो (अ)। २. चूणि में ४३७-३९ तक की गाथाओं के लिए "रहनेमी निक्खेवो इत्यादि गाथात्रयं गतार्थ' -मात्र इतना ही संकेत है। ३. से भवे (अ,ला)। ४. अभिमुहो (अ)। ५. गोए (अ)। ६. वेयंतो (शां)। ७. उ (ला)। ८. अणुज्जगी (अ,शां), ४४०-४४ तक की गाथाओं का संक्षिप्त भावार्थ चणि में है किन्तु गाथा रूप में संकेत नहीं है। टीकाकार ने इन गाथाओं के लिए 'सम्प्रति नियुक्ति रनुश्रियते' का उल्लेख किया है। ९. अहेसि त्ति अभूत् (शांटी प ४९७)। १०. गिहत्थत्तं चउर (ला), गिहत्थ चउरो (अ) । ११. होइ (ला)। १२. उ चेव (शां)। १३. ० मईए उ (शां)। १४. ४४५-४७ तक की गाथाओं के लिए चणि में निक्खेवो गोअमम्मी..." इत्यादि गाथात्रयं गतार्थ' मात्र इतना उल्लेख है। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ ४४८. उत्तराध्ययन नियुक्ति ४४६. जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य सो पुणो' तिविहो। एगभविय-बद्धाउय, अभिमुहओ नामगोत्ते य॥ ४४७. गोतमनामागोयं, वेदेंतो भावगोयमो होति । एमेव य केसिस्स वि, निक्खेवों चउक्कओ होइ ।। गोतमकेसीओ या, संवादसमुट्टियं तु जम्हेयं । तो केसिगोयमिज्ज, अज्झयणं होइ नायव्वं ।। सिक्खावए य लिंगे य, सत्तणं च पराजए । पासावगत्तणे चेव, तंतूद्धरणबंधणे ॥दारं।। अगणीणिव्वावणे चेव, तहा दुट्ठस्स निग्गहे । तहा पहपरिण्णा य, महासोत निवारणे ॥दारं।। ४५१. संसारपारगमणे, तमस्स ‘य विघायणे' । ठाणोवसंपया चेव, एवं 'बारससू कमो" ॥दारं।। केसिगोयमिज्जस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता ४४९. ४५०. ४५२. ४५३. निक्खेवो पवयणम्मि, चउविहो 'दुविहो य' होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते कुतित्थियादीसु । भावे दुवालसंगं, गणिपिडगं होइ नायव्वं ।। मातम्मि उ निक्खेवो, चउव्विहो 'दुविहों य'१२ होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य भायणे दव्वं । 'भावम्मि य'४ समितीओ, मातं खलु पवयणं जत्थ ।। ४५४. ४५५. १. भवे (अ)। ८. ०णम्मी (ला), पवयणे य (अ) । २. यह गाथा 'ला' प्रति में नहीं है । ९. X(ला)। ३. छंद की दृष्टि से 'नामागोयं' पाठ मिलता १०. कुतित्थिमाईसु (शां)। ११. ४ (अ)। ४. तणं (अ)। १२. दुन्विहो (ला)। ५. छंद की दृष्टि से अग्गी पाठ होना चाहिए। १३. रित्तं (ला)। ६. वि विग्घायणे (अ), य विघाडणे (ला)। १४. भावेणं (अ)। ७. बारम्सुक्कमो (ला)। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.४ ४५६. नियुक्तिपंचक अट्ठसु वि' समितीसु यः, दुवालसंगं समोयरइ जम्हा । तम्हा पवयणमाया, अज्झयणं होइ नायव्वं ।। पवयणमायाए निज्जुत्ती सम्मत्ता ४५८. ४५९. ४६०. निक्खेवो 'जण्णम्मि य', चउक्कओ दुविहो या होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य माहणादीसु । तव-संजमेसु जयणा, भावे जण्णो मुणेयव्वो ।। जयघोसा अणगारा, विजयघोसस्स जण्णकिच्चम्मि। तत्तो समुट्ठियमिणं, अज्झयणं जण्णइज्जं ति।। वाणारसिनगरीए, दो विप्पा आसि कासवसगोत्ता । धण-कणग-विपुलकोसा, छक्कम्मरया चउव्वेया ।। दो वि य जमला भाउग, संपीया अन्नमन्नमणुरत्ता। जयघोस-विजयघोसा, आगमकुसला सदाररया ।। अह अन्नया कदाई", जयघोसो हाइउं गतो गंगं । अह 'पेच्छति मंडुक्कं'", सप्पेण तहिं गसिज्जतं१२ ।। सप्पोवि य कुररेणं१३, उक्खित्तो पाडिओ य भूमीए । सोवि य कुललो सप्पं, अक्कमिउं अच्छती" तत्थ ।। सप्पो वि 'कुललवसगो, मंडुक्क'१५ खाइ चिचयायंत" । सोवि य कुललो 'सप्पं, खायई१७ चंडेहि गासेहिं ।। ४६१. ४६२. ४६३. १. इ (चू)। 'तत्रोपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमान्तर्गतं किञ्चिद२. ४(अ)। भिधित्सुराह' का उल्लेख किया है। ३. समिईओ सम्मत्ताओ (ला)। १०. कयाइ (अ)। ४. अण्णम्मी (चू)। ११. पिच्छइ मंडूक्कं (शां)। ५. दुठिवहो (अ)। १२. गलिज्जतं (अ)। ६. x(ला)। १३. कुललेणं (शां)। ७. ०णाईसु (शां)। १४. अच्छए (शां,अ)। किच्चं पि (अ)। १५. ०लवसगओ मंडूक्कं (शां)। ९. ४५९-४७६ तक की गाथाओं के लिए चूणि १६. चिचियाइयं (शां), चिचियाइतं (अ)। में 'अध्ययननियुक्तिगाथा जयघोसा इत्यादि' १७. खाइय सप्पं (शां)। मात्र इतमा ही उल्लेख है। टीकाकार ने Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराष्पयन नियुक्ति ४६५. तं अन्नमन्नघायं, जयघोसो पासिऊण पडिबुद्धो। गंगाओ उत्तरिउं, समणाणं आगतो वसधिं' ।। सो समणो पव्वइओ, निग्गंथो सव्वगंथउम्मुक्को। वोसरिऊण असारे, केसेहिं सम परिकिलेसो' ।। पंचमहव्वयजुत्तो, पंचिदियसंवुडो गुणसमिद्धो। घडणजयणप्पहाणो, जाओ समणो समियपावो । ४६८. अह एगराइयाए, पडिमाए सो मुणी विहरमाणो। वसुहं दूइज्जतो', पत्तो वाणारसिं नरिं ।। ४६९. सो उज्जाणनिसन्नो, मासक्खमणेण खेदितसरीरो। भिक्खट्ठ बंभणिज्जे, उवट्टिओ जण्णवाडम्मि ।। अह भणई जयघोसं५, कीस तुम आगतो? इहं भंते! । न हु ते दाहामि इतो', जायाहि हु अन्नतो भिक्खं ।। ४७१. सो एवं पडिसिद्धो, जण्णवाडम्मि य जायगेण तहिं । परमत्थदिट्ठसारो, नेव य तुट्ठो न वि य रुट्ठो। ४७२. अह भणई अणगारो, जं जायग! आउसो निसामेहि। वय-चरिय-भिक्खचरिया, दिट्ठा साहूण चरणम्मि ।। ४७३. रज्जाणि उ अवहाया, रायरिसी अणुचरंति भिक्खाए। समणस्स उ मुत्तस्सा", भिक्खा चरणं च करणं च ॥ ४७४. संजाणंतो भणती, जयघोसं जायगो विजयघोसो। अत्थि उ पभूतमन्नं, भुंजउ भगवं ! पगामाए । ४७५. भिक्खेण न मे कज्ज, मज्झं" करणं तु धम्मचरणेणं । पडिवज्ज धम्मचरणं, मा संसारम्मि हिंडिहिसि ।। ४७०. १. वसहिं (अ,शां)। २. परिक्से (शां)। ३. वसहं (अ)। ४. ०ज्जंतं (अ)। ५. जायगेणं (अ)। ६. इमं (अ), इओ (शां)। ७. जायाधि (ला)। ८. निसामेह (शां)। ९. रायसिरि (शां), रायरिसिं (अ)। १०. मुक्कस्सा (शां), अकारोऽलाक्षणिकः (शांटीप ५३२)। ११. मज्झ (शां)। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक ४७६. सो समणो पव्वइओ, धम्मं सोऊण तस्स समणस्स । जयघोस-विजयघोसा, सिद्धिगया खीणसंसारा ॥ जण्णइज्जस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता ४७८. ४७७. निक्खेवो सामम्मि य, चउव्विहो 'दुविहो य'' होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य सक्करादीसु । भावम्मि दसविहं खलु, इच्छामिच्छादियं होति ।। ४७८।१. इच्छा मिच्छा तहक्कारो, आवस्सिया य निसीहिया । आपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य निमंतणा' ।। ४७८।२. उवसंपया य काले, सामायारी भवे दसविहा उ। एएसि तु पयाणं, पत्तेयपरूवणं वोच्छं ।। आयारे निवखेवो, चउक्कओ दुविहो य होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । ४८०. जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य नमणमादीसु। भावम्मि दसविधाए, सामायारीय आयरणा ।। ४८१. इच्छादिसाममेसुं, आयरणं वण्णियं तु जम्हेत्थ । तम्हा सामायारी, अज्झयणं होइ नायव्वं ।। सामायारीनिज्जुत्ती सम्मत्ता ४७९. १. दुब्विहो (शां)। लिखते । इसके अतिरिक्त ४७८/२ में 'पत्तेय २. कोष्ठकवर्ती दोनों गाथाओं का संकेत चणि परूवणं वोच्छं' के उल्लेख से भी स्पष्ट है कि में नहीं मिलता है। वृत्तिकार शान्त्याचार्य ये गाथाएं उत्तराध्ययन सूत्र से बाद में (प. ५३२) तथा नेमिचंद्र (प. ३१०) ने इनको जोड़ी गयी हैं क्योंकि उत्तराध्ययन में दसों नियुक्तिकृद् माना है। ये दोनों गाथाएं आव- सामाचारियों का विस्तृत वर्णन है। यहां तो श्यक नियुक्ति ६६६,६६७ की हैं। ऐसा संभव केवल नामोल्लेख मात्र है। लगता है कि प्रसंगवश लिपिकारों या आचार्यो ३. आवनि ६६६, अनुद्वा २३९।१। द्वारा ये गाथाएं बाद में जोड़ दी गई हैं। ४. आवनि ६६७, अनुद्वा २३९।२। इसका प्रबल प्रमाण है कि ४७८ की गाथा ५. ४७९-८१ तक की तीन गाथाओं के लिए के अंतिम चरण में 'इच्छामिच्छादियं होति' चणि में 'आयारे निक्खेवो इत्यादिगाथात्रयं' का उल्लेख है। यदि नियुक्तिकार दसों का मात्र इतना उल्लेख है। नामोल्लेख करते तो यह चरण अलग से नहीं ६. ०णाईसुं (शां)। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययननियुक्ति ४८२. ४८३. ४८४. ४८५. ४८६. ४८७. ४८८. ४८९. ४९०. निक्खेवो खलुकम्मि', चउव्विहो 'दुविहाँ य" होइ दव्वम्मि । आगम- नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । जाण सरीरभविए, तव्वतिरित्ते इल्लमा । पडिलोमो सव्वत्थेसु, भावतो होइ उ खलुंको ॥ अवदाली उत्तसओ", जोत्त जुगभंज तुत्तभंजे य । उप्पध - विप्पहगामी, एय खलुंका भवे गोणा ॥ जं कि दव्वं खुज्जं, कक्कडगुरुयं तहा दुरवणामं । तं दव्वेसु खलुंकं, वक - कुडिल- वेढमाइद्धं ॥ 'सुचिरं पिवंकुडाई', होहिति करमं दिदारुगाई, 'गयंकुसाई १. खलुंकिज्जम्मि (चू) । २. दुव्विहो (ला) । ३. ० माईसुं ( अ, शां) । ४. स ( अ ) । च जे होंति । 43 दंसमसगस्समाणा, जलूक - विच्छुगसमा " य ते किर होंति" खलुंका, तिक्खम्मिउ-चंड - मविया || जे किर गुरुपडिणीया २, सबला असमाहिकारगा पावा । 'अहिगरणकारगं वा १३ जिणवयणे ते किर खलुंका" ।। पिसुणा परोवतापी, भिन्नरहस्सा परं परिभवंति । 'निव्वय - निस्सील - सढा १५, जिणवयणे ते किर खलुंका ।। खलुंकभावं, चइऊणं पंडितेण कायव्वा होइ मती, तम्हा पुरिसेणं । उज्जुसभावम्मि ६ भावेणं ॥ खलुंकिज्जस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता ५. उत्तमतो (ला) । ६. एए (ला) । ७. दुरोणामं (ला) । ८. सुचिरम्मि वंकडाई (ला) | ९. गयंकुसा इव बिटाई (शां) । १०. जलुयक विच्छ्य० (शां) । ११. X (ला) । १२. ०पडणीया (अ,ला) । अणुज्जइज्जमाणाई | बें ॥ १७७ १३. ०कारगप्पा (शां) । १४. ४८८-९० तक की गाथाओं के लिए चूर्णि में 'जे किर गुरुपडिणीया इत्यादिगाथात्रयं' मात्र इतना ही उल्लेख है । १५. निव्विअणिज्जा य सढा (शां), णिव्वया णिस्सील० (ला), पाठान्तरतो निर्गता वचनीयाद् -उपदेशवाक्यात्मकाद् ये ते निर्वचनीयाः, चः समुच्चये भिन्नक्रमश्च ततः 'शठाश्च' मायाविनः, पठ्यते च - णिव्वया णिस्सील सढ' त्ति (शांटी प. ५४९ ) । १६. उज्जुयभा० ( अ ) 1 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९१. ४९२. ४९३. ४९४. नियुक्तिपंचक निक्लेवो मोक्खम्मि य, चउब्विहो दुविहो य होइ दव्वम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य नियलमादीसु' । अट्ठविहकम्ममुक्को, नायव्वो भावतो मोक्खो ।। निक्खेवो मग्गम्मि वि, चउन्विहो दुविहो य होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य जल-थलादीस् । भावम्मि नाण-दसण-तव-चरणगुणा मुणेयव्वा ।। निक्खेवो उ गतीए, चउक्कओ दुविहो य होइ दव्वम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य पोग्गलादीसु । भावे पंचविहो खलु, मोक्खगतीए अहीगारो ।। मोक्खो मग्गो य गती, वण्णिज्जइ जम्ह एत्थ अज्झयणे । तं एवं अज्झयणं, नायव्वं मोक्खमग्गगती ॥ मोक्खमग्गगईए निज्जुत्ती सम्मत्ता ४९५. ४९७. ४९८. ४९९. आयाणपदेणेदं सम्मत्तपरक्कम ति अज्झयणं । गोण्णं तु अप्पमायं, एगे पुण वीयरागसुयं ।। निक्खेवो अप्पमाए", चउव्विहो दुविहाँ य होइ दवम्मि। आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते अमित्तमादीस । भावे 'अण्णाण असंवरादीस' होति. नायव्वो ।। ५००. १. ०माईसुं (शां, अ)। ५. इत्थ (शां)। २. x (अ)। ६. ०पएणेयं (शां)। ३. ४९५-९७ तक की गाथाओं के लिए चूर्णि में ७. अपमाए (शां)। 'निक्खवो उ गतीए इत्यादि गाथात्रयं' मात्र ८. जाणगभवियसरीरे (शां)। इतना उल्लेख है। ९. अणाणमसंव० (ला)। ४. अहि. (ला)। १०. होंति (अ)। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ उत्तराध्ययन नियुक्ति ५०१. निक्खेवो य' सुयम्मी, चउक्कओ' दुविहो य होइ दत्वम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। ५०२. जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य से३ उ पंचविधे । 'अंडय-बोंडय-वालय'', वागय तह कीडए चेव ।। भावसुयं पुण दुविहं, सम्मसुयं चेव होइ मिच्छसुयं । अधिगारो सम्मसुए, इहमज्झयणम्मि नायव्वो ।। ५०४. सम्मत्तमप्पमादो, 'इह अज्झयणम्मि' वण्णितो जेण । तम्हेतं अज्झयणं, नायव्वं अप्पमादसुयं ।। सम्मत्तपरक्कमस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता ५०३. ५०५. ५०६. ५०७. निक्खेवो उ तवम्मी', चउव्विहो दुविहो य होइ दव्वम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य पंच तवमादी । भावम्मि होइ दुविहो, बज्झो अभितरो चेव१२ ।। मग्गगतीणं दोण्ह वि, पुवुद्दिट्ठो चउक्कनिक्खेवो । पगतं तु भावमग्गे, सिद्धिगतीए उ नायव्वं ।। दुविह तवोमग्गगती, वणिज्जइ जम्ह एत्थ अज्झयणे । तम्हा एयज्झयणं, तवमग्गगइ त्ति नायव्वं ।। तवमग्गगईए निज्जुत्ती सम्मत्ता ५०८. १. उ (ला)। २. चउव्विहो (अ)। ३. सो (शां)। ४. वालय-अंडय-बोंडय (अ), पोंडय० (ला)। ५. मिच्छाइयं (ला)। अहियारो (शां)। कायव्वो (ला)। ८. इहमज्झ० (शां)। ९. तवम्मि (शां)। १०.४ (ला)। ११. ५०५-५०८ तक की गाथाओं की व्याख्या न देकर चर्णिकार ने मात्र इतना ही संकेत किया है कि 'निक्खेवो उ तवम्मीत्यादि गाथा चतुष्टयं'। १२. भवे (ला)। १३. ०व्वो (शां,अ)। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ५०९. ५१०. ५११. नियुक्तिपंचक निक्खेवो चरणम्मी', चउब्विहो दुविहो य होइ दव्वम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते गति-भिक्खमादीसु । आचरणे आचरणं, भावे चरणं'५ तु नायव्वं ।। निक्लेवो उ विहीए, चउव्विहो दुविहो य होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य इंदियत्थेसु । भावविही पुण दुविहा, संजमजोगो तवो चेव ।। पगयं तु भावचरणे, भावविहीए य होइ नायव्वं । चइऊण अचरणविहिं, चरणविहीए उ जइयव्वं ।। चरणविहीए निज्जुत्ती सम्मत्ता ५१२. ५१३. ५१४. ५१५. निक्खेवो उपमाए, चउविहो दुविहो या होइ दव्वम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। जाणगसरीरभविए, तव्वतिरित्ते य मज्जमादीसु । निद्दा-विकह-कसाए, विसएसुं भावतो पमदो० ॥ नामं ठवणा दविए, खेत्तद्धा उड्ड११ उवरती वसधी । संजम-पग्गह जोहे, अचल-गणण-संधणा-भावे ।। भावप्पमायपगयं, संखाजुत्ते य भावठाणम्मि । चइऊणं ति५ पमायं, जइयव्वं अप्पमादम्मि ।। ५१६. ५१७. १. चरणम्मि (शां, चू); चरणम्मि (ला)। की व्याख्या व संकेत न देकर मात्र निक्खेवो २. दुन्विहो (ला)। उपमाते इत्यादि गाथा अष्ट' इतना उल्लेख ३. चणि में ५०९-५१३ तक की गाथाओं के किया है। लिए पहली गाथा का संकेत देकर "इत्यादि १०. छंद की दृष्टि से पमादो के स्थान पर पमदो गाथा पंच" मात्र इतना ही निर्देश है। पाठ स्वीकृत किया है। ४. गतिरुक्ख० (ला)। ११. x (ला)। ५. भावाचरणं (शां)। १२. वसही (अ,शां)। ६. ४ (ला)। १३. दशनि ३। ७. अ (शां)। १४. प्पगओ (अ)। ८. x (ला)। १५. तु (अ), च (शां)। ९. चूर्णिकार ने ५१४ से ५२१ तक की गाथाओं Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ उत्तराध्ययन नियुक्ति ५१८. वाससहस्सं उग्गं, तवमाइकरस्स आयरंतस्स । जो किर पमायकालो, आहोरत्तं तु संकलियं ।। ५१९. बारसवासे अहिए, तवं चरंतस्स वद्धमाणस्स । जो किर पमायकालो, अंतमुहुत्तं' त संकलियं ।। ५२०. जेसिं तु पमाएणं, गच्छइ कालो निरत्थओ धम्मे । ते संसारमणतं, हिंडंति पमाददोसेणं ।। ५२१. तम्हा खलुप्पमायं, चइऊणं पंडिएण पुरिसेण । दंसण-नाण-चरित्ते, कायव्वो अप्पमादो उ ।। पमायट्ठाणस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता ५२२. कम्मम्मि य निक्खेवो, चउव्विहो दविहो य होइ दव्वम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । ५२३. जाणगसरीरभवियं, तव्वतिरित्तं च तं भवे दुविहं । कम्मे नोकम्मे या, कम्मम्मि य अणुदओ भणितो । ५२४. नोकम्मदव्वकम्म, नायव्वं लेप्पकम्ममादीयं । भावे उदओ भणितो, कम्मट्ठविहस्स नायवो ।। ५२५. निक्खेवो पगडीए, चउत्विहो दुविहो य होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। ५२६. जाणगभवियसरीरा, तन्वतिरित्ता ‘य सा पुणो दुविहा' । कम्मे नोकम्मे या, कम्मम्मि य अणुदओ भणितो ।। ५२७. नोकम्मे दव्वाइं, गहणप्पाउग्गमुक्कगाई' च । भावे उदओ भणितो, मूलपगडि उत्तराणं च ।। १. अंतोमुहुनं (अ)। हैं। आठवीं गाथा अन्वेषणीय है। २. अंतोमुहुत्तं (ला)। ५. लेप० (ला), लेव० (अ) । ३. य (अ)। ६. य होइ दुविहो उ (अ)। ४. ५२२-२८ तक की गाथाओं का चूर्णि में ७. x (ला)। गाथा रूप में संकेत नहीं है किन्तु गाथाओं की ८. गहणपाउग्ग० (शां), गहणं पाओगमुक्कगायं संक्षिप्त व्याख्या मिलती है तथा 'कम्मम्मि (अ)। निक्खेवो इत्यादि गाथा अष्ट' का उल्लेख है। ९. मूलप्पगडी (ला), मूलप्पयडि (अ) । किन्तु इस अध्ययन की मात्र सात ही गाथाएं Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ५२८. ५२९. ५३०. ५.३१. ५३२. ५३३. ५३४. ५.३५. ५३६. ५३७. 'पगति - द्विति" अणुभागो, पदेसकम्मं च सुट्ठ नाऊणं । एतेसि संवरे खलु, 'खवणे उ सयावि' जतितव्वं ॥ कम्मप्पयडीए निज्जुत्ती सम्मत्ता लेसाणं निक्खेवो, चउक्कओ दुविह होइ नायव्वो । आगम- नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो" ।। जाण सरीरभविया, ' तव्वतिरित्ता य सा पुणो तिविहा । कम्मे नोकम्मे या, नोकम्मे होंति दुविहा उ ॥ जीवाणमजीवाण य, दुविहा जीवाण होइ नायव्वा । भवमभवसिद्धियाणं, दुविहाण वि होइ सत्तविहा || अजीवकम्म नोदव्वलेसा, सा दसविहा तु नायव्वा । चंदाण य सूराण य, गह गण-नक्खत्त-ताराण || आभरणच्छायणाऽऽदंसगाण, मणि-कागिणीण जा लेसा । अज्जीवदव्वलेसा, नायव्वा दस विहा एसा || जा दव्वकम्मलेसा, 5 सा नियमा छव्विहा उ' नायव्वा । किण्हा नील! काऊ, तेऊ पम्हा य सुक्का य ।। दुविहा उ" भावलेसा, विसुद्धलेसा तहेव अविसुद्धा । दुविहा विसुद्धलेसा, उवसमखइया कसायाणं ॥ अविसुद्धभावलेसा, सा दुविहा नियमसो उ नायव्वा । पेज्जम्मि य दोसम्मि य, अहिगारो कम्मलेसाए || नोकम्मदव्वलेसा, पओगसा वीससा उ" नायव्वा । भावे उदओ भणितो, छण्हं लेसाण जीवेसु ॥ १. पग इठिइ (शां), पयतिट्ठिति ( चू), पगिइठिइ (अ) । २. खमणे विसया तु ( अ ) । ३. दव्वम्मि (ला) । ४. ३४वें अध्ययन की १२ निर्युक्तिगाथाएं ( ५२९-४० ) हैं । चूर्णिकार ने 'लेसाणं निक्खेवो इत्यादि दश' इतना उल्लेख किया है तथा कुछ गाथाओं का संक्षिप्त भावार्थ भी दिया है। अंतिम दो ५. ६. ७ गाथाओं (गा. ५३९,५४० ) का वहां कोई उल्लेख नहीं है । ० सरीरभविए (ला, अ ) । निर्युक्तिपंचक मस्यालाक्षणिकत्वात् (शांटीप ६४९ ) । ताराओ ( अ ) । कम्मदव्व ० ( अ, ला) । ८. ९. X ( अ ) । १०. य (अ, ला) । ११. य ( ला ) । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ उत्तराध्ययन नियुक्ति ५३८. अज्झयणे निक्खेवो, चउक्कओ 'दुविह होइ नायब्वो' । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । ५३९. जाणगसरीरभवियं, तव्वतिरित्तं च पोत्थगादीसुं । अज्झप्पस्साणयणं, नायव्वं भावमझयणं ।। ५४०. एयासि लेसाणं, नाऊण सुभासुभं तु परिणामं । चइऊण अप्पसत्थं, पसत्थलेसासु जतितव्वं ॥ लेसज्झयणस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता ५४१. अणगारे निक्खेवो, चउविहो 'दुविहो य'५ होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। ५४२. जाणगसरीरभविए तव्वतिरित्ते य निण्हगादीसु । भावे सम्मद्दिट्ठी, अगारवासा विणिम्मुक्को ।। ५४३. मग्गगईणं दोण्ह वि, पुवुट्ठिो चउक्कनिक्खेवो । अहिगारों भावमग्गे, सिद्धिगईए उ नायवो।। ___ अणगारमग्गगईए निज्जुत्ती सम्मत्ता ५४४. निक्खेवो 'जीवम्मि य, चउत्विहो दुविहो य होइ दवम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । ५४५. जाणगसरीरभवियं, तव्वतिरित्तं च जीवदव्वं तु । भावम्मि दसविहो खलु, परिणामो जीवदव्वस्स१२ ।। ५४६. निक्खेवो 'उ अजीवे',१३ चउविहो 'दुविहो य होइ दत्वम्मि'१४ । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो ।। १. दुविहो होइ दव्वम्मि (ला)। चरण मिलता है। २. भवियसरीरं (शां)। ८. य (ला)। ३. पुत्थगाइसु (अ)। ९. अ प्रति में ५४३,५४४ ये दोनों गाथाएं नहीं ४. एएसि (ला)। ५. दुव्विहो (अ)। १०. जीवम्मि (ला)। ६. ५४१-४३ तक की गाथाओं के लिए चणि में ११. अ (शां)। 'अणगारे निक्खेवो इत्यादि गाथात्रयं'-मात्र १२. अ प्रति में गाथा का केवल उत्तरार्ध है। इतना ही संकेत है। १३. अजीवम्मि (शां,अ)। ७. विणिमुक्को (ला)। अ प्रति में केवल एक १४. दुविह होइ नायव्वो (शां)। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ नियुक्तिपंचक ५४७. जाणगसरीरभविए तत्वतिरित्ते अजीवदवम्मि' । भावम्मि दसविहो खलु, परिणामो अजीवदत्वस्स ।। ५४८. निक्खेवो विभत्तोए, चउन्विहो 'दुविह होइ'३ दत्वम्मि । आगम-नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो । ५४९. जाणगसरीरभविया तत्वतिरित्ता य सा५ भवे दुविहा । जोवाणमजीवाण यां, जीवविभत्तो तहिं दुविहा ।। ५५०. सिद्धाणमसिद्धाण य, अज्जीवाणं तु होइ 'दुविहा उ'८ । रूवीणमरूवीण य, विभासियत्वा जहासुत्ते ।। ५५१. भावम्मि विभत्ती खलु, नायव्वा छविहम्मि भावम्मि । अहिगारो एत्थं पुण, दत्वविभत्तीएँ अज्झयणे ।। जीवाजीवविभत्तीए निज्जुत्ती सम्मत्ता ५५२. जे किर भवसिद्धीया, परित्तसंसारिया य भविया य । ते किर पढंति धीरा, छत्तीसं उत्तरज्झयणा ॥ ५५३. जे 'होति अभवसिद्धा' १९, गंथियसत्ता' अणंतसंसारा । ते संकिलिट्ठकम्मा'२, 'अभविय ते उत्तरज्झाए'३ ।। ५५४. तम्हा जिणपण्णत्ते, अणंतगमपज्जवेहिं संजुत्ते । अज्झाएँ जहाजोगं१४, 'गुरुप्पसाया अहिज्जति'५ ।। उत्तरज्झयणस्स निज्जुत्तो सम्मत्ता १. अजीवदव्वं तु (शां)। ७. अजीवाणं (ला)। २. ०दव्वम्मि (अ)। ८. दवाओ (ला)। ३. दुम्विहो य होइ (अ)। ९. उत्तरज्झाए (ला), ज्झयणे (शां)। ४. ५४८-५४ तक की गाथाओं के लिए चूणि १०. हुंति अभवसिद्धीया (शा), सिद्धी (ला)। में 'निक्खेवो विभत्ती इत्यादि गाथा सप्त' का ११. गंठिय० (ला)। उल्लेख किया है। इन सात गाथाओं के १२. संकिलट्र (ला) । अन्तर्गत अंतिम गाथा 'तम्हा जिणपण्णत्ते भी १३. अभविया उत्त० (ला), भव्वा वि ते अणंते आ जाती है किन्तु चूणिकार ने इसे उद्धृत- (शांटीपा प ७१३)। गाथा भी माना है। १४. जहजोग्गं (चू)। ५. से (शां)। १५. ०पसाया अहिज्झिज्जा (शां), ०पसाया ६. व (अ)। अहिज्जेज्जा (अ)। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति हिन्दी अनुवाद Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अध्ययन : विनयश्रुत १. उत्तर शब्द के १५ निक्षेप हैं१. नाम उत्तर ६. तापक्षेत्र उत्तर ११. प्रधान उत्तर २. स्थापना उत्तर ७. प्रज्ञापक उत्तर १२. ज्ञान उत्तर ३. द्रव्य उत्तर ८. प्रति उत्तर १३. क्रम उत्तर ४. क्षेत्र उत्तर ९. काल उत्तर १४. गणना उत्तर ५. दिशा उत्तर १०. संचय उत्तर १५. भाव उत्तर। २. प्रत्येक जघन्य वस्तु 'सोत्तर'-उत्तर सहित होती है और उत्कृष्ट वस्तु 'अनुत्तर'उत्तर रहित होती है । शेष मध्यम वस्तु 'सोत्तर-अनुत्तर' दोनों होती हैं । ३. प्रस्तुत प्रसंग में क्रम-उत्तर का प्रसंग है। ये उत्तर-अध्ययन (उत्तराध्ययन) आचारांग सूत्र के उत्तरकाल-पश्चात् पढ़े जाते थे इसलिए ये अध्ययन 'उत्तर' शब्द से वाच्य हए हैं। ४. ये अध्ययन दष्टिवाद आदि अंगों से उत्पन्न हैं, जिनभाषित हैं, प्रत्येकबुद्ध मुनियों तथा परस्पर संवादों से समुत्थित हैं । इनमें बन्धन और बन्धन-मुक्ति का विवेक है। ये सारे छत्तीस उत्तराध्ययन हैं। ५. अध्ययन शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम अध्ययन, स्थापना अध्ययन, द्रव्य अध्ययन तथा भाव अध्ययन । इसी प्रकार अक्षीण, आय और क्षपणा के भी ये चार-चार निक्षेप होते हैं। ६. अध्यात्म का आनयन अर्थात् आत्मा का अध्ययन । उपचित कर्मों का अपचय तथा नए कर्मों का अनुपचय-यह अध्ययन का प्रयोजन है । ७. जिससे जीव आदि पदार्थों का ज्ञान होता है, ज्ञान आदि की अधिक प्राप्ति होती है, मुक्ति की शीघ्र साधना की जाती है, वह अध्ययन है। ८. जैसे एक दीपक से सौ दीपक जलाए जाते हैं और वह दीपक भी जलता रहता है, वैसे ही आचार्य दीपक के समान होते हैं जो स्वयं को और दूसरों को प्रकाशित करते हैं । ९. भाव अध्ययन प्रशस्त और द्रव्य अध्ययन अप्रशस्त होता है। जिससे ज्ञान आदि की प्राप्ति होती है, वह प्रशस्त और जिससे क्रोध आदि की जागृति हो, वह अप्रशस्त है। आय, आगम, लाभ-ये एकार्थक हैं। १०. वस्त्र की पर्यस्तिका, उत्पिढ़ना और उत्पीड़ना-ये द्रव्य क्षपणा हैं। ये तीनों ही क्रमशः अपथ्य, अपथ्यतर तथा अपथ्यतम हैं। ११. शुभ योगों के द्वारा जो बंधे हुए चिरन्तन आठ कर्मरजों को विनष्ट करता है, यह परम्परा से भावक्षपण है। इस भाव अध्ययन को आगे से आगे जानना चाहिए। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ नियुक्तिपंचक १२. श्रुतस्कंध शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। अब मैं अध्ययनों के नाम तथा उनका अर्थाधिकार बताऊंगा। १३-१७. उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययन हैं। उनके नाम क्रमशः ये हैं.(१) विनयश्रुत (१३) चित्रसंभूत (२५) यज्ञीय (२) परीषह (१४) इषुकारीय (२६) सामाचारी (३) चतुरंगीय (१५) सभिक्षु (२७) खलुंकीय (४) असंस्कृत (१६) समाधि-स्थान (२८) मोक्षगति (५) अकाममरण (१७) पापश्रमणीय (२९) अप्रमाद निर्ग्रन्थीय (१८) संयतीय (३०) तप औरन (१९) मृगचारिका (३१) चरण (८) कापिलीय (२०) निर्ग्रन्थता (३२) प्रमादस्थान (९) नमिप्रव्रज्या (२१) समुद्रपालीय (३३) कर्मप्रकृति (१०) द्रुमपत्रक (२२) रथमेमिक (३४) लेश्या (११) बहुश्रुत पूज्य (२३) केशिगौतमीय (३५) अनगारमार्ग (१२) हरिकेशीय (२४) समिति (३६) जीवाजीवविभक्ति । १८-२६. छत्तीस अध्ययनों के अर्थाधिकार-विषय इस प्रकार हैं(१) विनय (१३) निदान (२५) ब्रह्मचर्य के गुण (२) परीषह (१४) अनिदान (२६) सामाचारी (३) दुर्लभ अंग (१५) भिक्षुगुण (२७) अशठता (४) प्रमाद-अप्रमाद (१६) ब्रह्मचर्यगुप्ति (२८) मोक्षगति मरण-विभक्ति (१७) पाप-वर्जन (२९) आवश्यक अप्रमाद (६) विद्या-चरण (१८) भोग ऋद्धि का परित्याग (३०) तप (७) रसगृद्धि का परित्याग (१९) अपरिकर्म (३१) चारित्र (८) अलाभ (२०) अनाथता (३२) प्रमादस्थान (९) निष्कंपता (२१) विविक्तचर्या (३३) कर्म (१०) अनुशासन की उपमा (२२) स्थिरचरण (३४) लेश्या (११) पूजा (२३) धर्म (३५) भिक्षुगुण (१२) तपःऋद्धि (२४) समितियां (३६) जीव-अजीव २७. उत्तराध्ययनों के समुदयार्थ का संक्षेप में यह वर्णन है। यहां मैं आगे एक-एक अध्ययन का प्रतिपादन करूंगा। २८. उनमें पहला अध्ययन है-विनयश्रुत। उसका उपक्रम आदि द्वारों से प्ररूपण करना चाहिए। प्रस्तुत अध्ययन में विनय का अधिकार है, प्रसंग है। २८।१. (निक्षेप तीन प्रकार का है- ओघनिष्पन्न, नामनिष्पन्न और सूत्रालापकनिष्पन्न) ओघनिष्पन्न का अर्थ है-सामान्य श्रुत। उसके चार प्रकार हैं-अध्ययन, अक्षीण, आय और क्षपणा। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययननिर्युक्ति १८९ २८१२. श्रुत (अनुयोगद्वार सूत्र ) के अनुसार अध्ययन के नाम, स्थापना आदि चार भेदों का वर्णन करके अध्ययन, अक्षीण, आय और क्षपणा - इन चारों से विनयश्रुत की सम्बन्ध योजना करनी चाहिए | २८ । ३. जिससे आत्मा में शुभ की अत्यधिक प्राप्ति होती है, अध्यात्म का आनयन तथा संबोध, संयम और मोक्ष का अत्यधिक लाभ होता है, वह अध्ययन है । २८।४. अव्यवच्छित्ति नय अर्थात् द्रव्यास्तिकनय के अनुसार दीयमान अध्यात्म अलोक की भांति अक्षीण है । इससे ज्ञान आदि की प्राप्ति होती है तथा पाप कर्मों का क्षय होता है । २९. विनय का पहले वर्णन किया जा चुका है। श्रुत शब्द के चार निक्षेप हैं । द्रव्यश्रुत है - श्रुत का ग्रहण और श्रुत का निह्नवन करना और भावश्रुत है— श्रुत में उपयुक्त तन्मय । ३०. संयोग शब्द के छह निक्षेप हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । द्रव्य संयोग दो प्रकार का होता है - संयुक्तकसंयोग तथा इतरेतरसंयोग । द्रुम ३१. संयुक्तकसंयोग सचित्त, अचित्त तथा मिश्र द्रव्यों का होता है । सचित्त द्रव्य जैसे— ' आदि । अचित्त द्रव्य जैसे - अणु आदि । मिश्र द्रव्य जैसे स्वर्ण आदि तथा कर्मसंतति उपलक्षित जीव । ३२. सचित्तसंयुक्तद्रव्यसंयोग - द्रुम आदि मूल, कंद, स्कन्ध, त्वक्, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल तथा बीज से संयुक्त होता है । ३३. एक रस, एक वर्ण, एक गंध तथा दो स्पर्श- यह परमाणु का लक्षण है । वे द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों में संयुक्त होते हैं । यह अचित्तसंयुक्तकसंयोग है । ३४. मिश्रसंयुक्तद्रव्यसंयोग - जैसे स्वर्ण आदि धातुएं स्वभाव से ही संयोग-संयुक्त होती हैं। इसी प्रकार जीव कर्म-संतति से अनादि संयुक्तक है । ३५. इतरेतरसंयोग का अर्थ है- परस्पर संयोग । परमाणुओं और प्रदेशों का इतरेतरसंयोग होता है । वह दो प्रकार का है- अभिप्रेत तथा अनभिप्रेत । अभिलाप है - वाचक शब्द का सम्बन्ध | ३६. परमाणुओं में दो प्रकार का इतरेतरसंयोग होता है— संस्थान से सम्बन्धित तथा स्कन्ध से सम्बन्धित | संस्थान विषयक संयोग के पांच प्रकार तथा स्कन्ध विषयक संयोग दो प्रकार का है । ३७. दो या अधिक परमाणु पुद्गल एकत्रित होकर स्कन्ध बनते हैं । उनका संस्थान अनित्थंस्थ होता है । ३८. परिमण्डल, वृत्त, त्यस्र, चतुरस्र और आयत- इन पांचों संस्थानों में प्रथम परिमंडल को छोड़कर चारों संस्थान धन और प्रतर के द्वारा दो-दो भागों में बंटते हैं- ओजः प्रदेशघनवृत्त और युग्मप्रदेश घनवृत्त ओजःप्रदेश प्रतरवृत्त और युग्मप्रदेश प्रतरवृत्त | इसी प्रकार त्यस्र आदि के भी दो-दो भेद होते हैं । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्ति पंचक ३९-४१. परिमंडल आदि संस्थान जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से दो-दो प्रकार के हैं । उत्कृष्टत: असंख्य प्रदेशावगाढ वाले ही होते हैं । जघन्यतः वृत्तसंस्थान का ओजः प्रदेश प्रत्तरवृत्त पांच प्रदेशावगाढ का होता है । युग्मप्रदेश प्रतरवृत्त १२ प्रदेशावगाढ का होता है । ओजःप्रदेशघनवृत्त ७ प्रदेशावगाढ का होता | युग्मप्रदेश घनवृत्त ३२ प्रदेशावगाढ का होता है । इसी तरह त्यस्र संस्थान के क्रमश ३, ६, ३५ और ४ प्रदेशावगाढ हैं । चतस्र संस्थान के क्रमशः ९,४,२७ और 5 प्रदेशावगाढ हैं । आयतओजः प्रदेश श्रेण्यायत संस्थान के ३, २, १५ और ६ प्रदेशावगाढ हैं । आयत संस्थान के ओजः प्रदेश घनायत के क्रमशः ४५, १२ और ६ प्रदेशावगाढ हैं। परिमंडल संस्थान के २० और ४० प्रदेशों का अवगाढ है ।" १९० ४१।१. स्निग्ध परमाणुओं का स्निग्ध के साथ तथा रूक्ष परमाणुओं का रूक्ष परमाणुओं के साथ अर्थात् सदृश परमाणुओं का एकीभाव तब होता है, जब वे दो गुण अधिक अथवा इससे अधिक गुण वाले हों । स्निग्ध परमाणुओं का रूक्ष परमाणुओं के साथ अथवा रूक्ष परमाणुओं का स्निग्ध परमाणुओं के साथ अर्थात् विसदृश परमाणुओं का एकीभाव तब होता है, जब वे अजघन्य गुण वाले होते हैं, फिर चाहे वे विषम हों या सम । ४२. धर्मास्तिकाय आदि पांचों के प्रदेशों का जो संयोग है, वह इतरेतरसंयोग है । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय - इन तीनों का संयोग अनादि है और शेष दो - जीव और पुद्गल का संयोग आदि होता है । ४३. शब्द, रस, रूप, गंध, स्पर्श आदि पांच विषयों के साथ अभिप्रेत और अनभिप्रेत संयोग होता है । अभिप्रेत अनुकूल है और अनभिप्रेत प्रतिलोम है । ४४. समस्त औषध द्रव्यों की संयुति, गन्ध-द्रव्यों की संयुति, भोजन विधि अर्थात् भोजन के विभिन्न भेद, राग-विधि, गीत-वादित्र विधि - ये सारे अनुलोम – अभिप्रेत संयोग हैं । ४५. अभिलाप संयोग तीन प्रकार का है - १. शब्द का अर्थ के साथ । (द्विक संयोग ) २. अर्थ का अर्थ के साथ | ३. अक्षर का अक्षर के साथ । शब्द का अर्थ के साथ जो संयोग होता है, वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार का है । द्रव्य संयोग - घट शब्द का घट पदार्थ के साथ वाच्यवाचक संबंध । क्षेत्र संयोग - शब्द का आकाश के साथ अवगाह संबंध | काल संयोगसमय आदि शब्द का वर्तना लक्षण वाले काल के साथ संबंध भावसंयोग — ओदयिक आदि भाव का तत्सम अवस्था के साथ सम्बन्ध । ४६. सम्बन्धनसंयोग तीन प्रकार का होता है- सचित्त, अचित्त और मिश्र । सचित्तसम्बन्धनसंयोग के तीन प्रकार हैं- द्विपद-पुत्री आदि, चतुष्पद गोमान् आदि, अपदसंयोग - पनस - वान् आदि । अचित्तसम्बन्धनसंयोग - हिरण्य आदि का संयोग । मिश्रसम्बन्धनसंयोग - रथ में योजित तुर आदि । इसके और भी अनेक प्रकार हैं । ४७. क्षेत्र, काल और भाव- इन तीनों के दो-दो प्रकार के सम्बन्धनसंयोग होते आदेश (विशेष) और अनादेश (सामान्य) । १. विस्तार के लिए देखें श्री भिक्षु आगम विषय कोश पृ० ६६४, ६६५ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति १९१ ४८. सदृश ज्ञान-चारित्रगत आदेश (विशेष) के अनेक प्रकार बताए जा चुके हैं। स्वामित्व तथा प्रत्यय (ज्ञान का कारण) के विषय में कुछ आगे बताया जाएगा। ४९. भाव विषयक अनादेश के छह प्रकार हैं-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक तथा सान्निपातिक। ५०. भाव विषयक आदेश के दो प्रकार हैं-अर्पित व्यवहार' और अनर्पित व्यवहार'। प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं-स्व, पर और तदुभय । ५१. आत्मसंयोग (स्वसंयोग) चार प्रकार का होता है-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक तथा पारिणामिक । ५२. जो सान्निपातिक भाव औदयिकभाव से रहित होता है, वह ग्यारह संयोगात्मक होता है, यही आत्मापितसंयोग है। ५३. लेश्या, कषाय, वेदना, वेद, अज्ञान, मिथ्यात्व, मिश्र आदि जितने भी औदयिक परिणाम हैं, वे सारे बाह्यापितसंयोग हैं। ५४. जो सान्निपातिक भाव औदयिकभाव से मिश्रित होता है, वह पन्द्रह संयोगात्मक होता है। वह सारा उभयापितसंयोग है। ५५. इसके प्रतिपादन का दूसरा आदेश-प्रकार भी है । उसके अनुसार संयोग तीन प्रकार का है-आत्मसंयोग, बाह्यसंयोग और तदुभयसंयोग । इसका मैं संक्षेप में कथन कर रहा है। ५६. आत्मसंयोग छह प्रकार का है-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक तथा सान्निपातिक । ५७. बाह्यसंयोग तीन प्रकार का है-नामसंयोग, क्षेत्रसंयोग तथा कालसंयोग । आत्मसंयोग और बाह्यसंयोग के मिश्रण से तदुभयसंयोग होता है। ५८. प्रकारान्तर से आचार्य-शिष्य, पिता-पुत्र, जननी-पुत्री, भार्या-पति, शीत-उष्ण, तमउद्योत, छाया-आतप आदि का पारस्परिक संबंध बाह्यसंबंधनसंयोग है। ५९. आचार्य के सदश आचार्य ही हो सकता है, अनाचार्य नहीं। आचार्य के सभी सामान्य गुणों से जो सदश है, वह शिष्य होता है। अथवा जो शिष्य के सभी गुणों से अन्वित होता है, वह शिष्य होता है। ६०. ज्ञान का ज्ञेय के साथ, चारित्र का चर्यमाण के साथ, स्वामी का सेवक के साथ, पिता का पुत्र के साथ - ये लौकिक संबंध हैं । लोकोत्तर सम्बन्ध जैसे-मेरे कुल में अमुक साधु है और मैं इसके कुल में हं इत्यादि । ये सारे उभयसम्बंधनसंयोग हैं। १. अर्पित अर्थात विवक्षित, जैसे क्षायिक आदि भाव की ज्ञाता में विवक्षा करना। २. अनर्पित अर्थात् अविवक्षित, जैसे क्षायिक भाव में सब भाव होते हुए भी अनर्पित हैं। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ नियुक्तिपंचक ६१.प्रत्ययज्ञान का कारण बहुविध होता है। वह छद्मस्थ के होता है। केवली का ज्ञान निवृत्ति प्रत्यय-निरालम्ब होता है। (केवली के ज्ञान की उत्पत्ति ही उसके ज्ञान का कारण है, घट पट आदि बाह्य सामग्री नहीं) छदमस्थ के ज्ञान में उभयसम्बन्धनसंयोग होता है। वर्तमान जन्म में देह जीव से सम्बद्ध है और अन्य जन्म में जीव द्वारा त्यक्त है । इसी प्रकार माता, पिता, पुत्र आदि में भी उभयसम्बन्धसंयोग होते हैं। ६२. कषायबहलजीव के संबंधनसंयोग होता है। जो जीव समर्थ है अथवा असमर्थ-दोनों में यह संयोग होता है क्योंकि दोनों में 'यह मेरा है'-यह ममकार समान होता है। ६३. संसार से अनुत्तरण और उसमें अवस्थान का कारण है-संबंधनसंयोग । माता, पिता, बेटा आदि के संबंधनसंयोग का छेदन कर अनगार मुक्त हो जाते हैं। ६४. संबंधनसंयोग क्षेत्र आदि के भेद से तथा आदेश-अनादेश आदि विभाषा-भेदों से प्रतिपादित किया गया है। प्रस्तुत पहली गाथा में क्षेत्र आदि संबंधनसंयोग ही सूचित है। उसकी ही यहां विवेचना करनी चाहिए। ६५. गंडी-अमार्ग में कूदते हुए चलने वाला, गली-बिना श्रम ग्लान होने वाला, मरालीलात मारने वाला, रथ में जोतने पर बार-बार जमीन पर बैठने वाला ये अविनीत अश्व और बैल के एकार्थक है । आकीर्णक, विनीत और भद्र-ये विनीत अश्व और बैल के एकार्थक शब्द हैं। दूसरा अध्ययन : परीषह प्रविभक्ति ६६,६७. परीषह के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य परीषह के दो प्रकार हैं-आगमत: और नो-आगतमतः । नो-आगमतः के तीन प्रकार हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर तथा तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के दो प्रकार हैं-कर्म तथा नोकर्म । कर्म के रूप में है-परीषह वेदनीय कर्म के उदय का अभाव । ६८. नोकर्म के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र । भाव परीषह है-कर्म का उदय । उसके ये द्वार-व्याख्येय संदर्भ हैं। ६९. परीषह कहां से उद्धृत हैं ? किस संयती के होते हैं ? किस द्रव्य से पैदा होते हैं ? किस पुरुष या कर्म-प्रकृति में ये संभव हैं ? इनका अध्यास-सहन कैसे होता है ? कौन से नय से कौन सा परीषह वर्णित है ? एक साथ एक व्यक्ति में कितने परीषह होते हैं ? परीषहों का अस्तित्वकाल कितना है ? किस क्षेत्र में कितने परीषह होते हैं ? उद्देश का अर्थ है-गुरु का सामान्य उपदेश । पृच्छा का अर्थ है-शिष्य की जिज्ञासा। निर्देश का अर्थ है-गुरु द्वारा शिष्य की जिज्ञासा का समाधान । सूत्रस्पर्श का अर्थ है-सूत्र में सूचित अर्थ-वचन-ये सारे व्याख्या-द्वार हैं। ७०. कर्मप्रवादपूर्व के सतरहवें प्राभत में गणधरों द्वारा ग्रथित श्रत को नय और उदाहरण सहित यहां प्रस्तुत जान लेना चाहिए। यह परीषह अध्ययन वहीं से समुद्धृत है। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति ७१. परीषह अविरत, विरताविरत तथा विरत-तीनों के होते हैं। यह तथ्य नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र—ये चारों नय स्वीकार करते हैं। तीन शब्दनयों-शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत के अनुसार परीषह केवल विरत–संयत के ही होते हैं । ७२. नैगम नय के अनुसार परीषहों की उदीरणा के आठ विकल्प हैं-जीव द्वारा, जीवों द्वारा, अजीव द्वारा, अजीवों द्वारा, जीव-अजीव द्वारा, जीव-अजीवों द्वारा, जीवों-अजीव द्वारा तथा जीवोंअजीवों द्वारा । संग्रह नय के अनुसार जीव अथवा अजीव द्रव्य के द्वारा, व्यवहार नय के अनुसार केवल नोजीव-अर्थात अजीव द्रव्य के द्वारा तथा शेष नयों के अनुसार केवल जीव द्रव्य के द्वारा परीषहों की उदीरणा होती है । ७३. परीषहों का समवतार विषय-भेद से दो प्रकार का है-प्रकृति' समवतार और पुरुष समवतार । इनका नानात्व मैं क्रमशः बताऊंगा। ७४. ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय और अन्तराय-इन चार कर्मों की नाना प्रकृतियों में बावीस परीषहों का समवतार होता है। ७५. प्रज्ञा और अज्ञान-ये दो परीषह ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होते हैं। एक अलाभ परीषह अंतराय कर्म के उदय से होता है। ७६. अरति, अचेल, स्त्री, नषेधिकी, याचना, आक्रोश और सत्कार-पुरस्कार-ये सात परीषह चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं। ७७. (चारित्र मोहनीय कर्म की अनेक प्रकृतियां हैं।) उनमें अरति मोहनीय के उदय से अरति, जुगुप्सा मोहनीय से अचेल, पुरुषवेद से स्त्री, भय से नषेधिकी, मान से याचना, क्रोध से आक्रोश तथा लोभ से सत्कार-पुरस्कार परीषह उत्पन्न होता है। ७८. दर्शन मोहनीय के उदय से दर्शन परीषह का उदय होता है । शेष ग्यारह परीषह वेदनीय कर्म के उदय से होते हैं। ७९. क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और जल्लये ग्यारह परीषह वेदनीय कर्म के उदय से होते हैं। ८०. बादर सम्पराय गुणस्थान (नवमें) तक बावीस परीषह, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान (दसवें गुणस्थान) में चौदह परीषह, छमस्थ वीतराग गुणस्थान (ग्यारहवें) में चौदह' परीषह तथा केवली में ग्यारह परीषह होते हैं। ८१. तीन नयों अर्थात् नैगम, संग्रह और व्यवहार के अनुसार एषणीय और अनेषणीय भोजन आदि का अग्रहण और अपरिभोग अध्यासना है । तीन शब्द नयों अर्थात् शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत और ऋजुसूत्रनय के अनुसार मुनि द्वारा प्रासुक अन्न आदि का ग्रहण तथा परिभोग भी अध्यासना है। १. ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की प्रकृतियां । ये आठ परीषह वहां नहीं होते। २,३. चारित्रमोहनीय कर्म-प्रतिबद्ध सात परीषह ४. वेदनीय कर्म-प्रतिबद्ध क्षत, पिपासा आदि तथा दर्शनमोहनीय कर्म प्रतिबद्ध एक परीषह- ग्यारह परीषह होते हैं। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ नियुक्तिपंचक ८२. नैगम नय के अनुसार परीषहोत्पादक द्रव्य ही परीषह है। संग्रह और व्यवहार नय के अनुसार वेदना परीषह है । ऋजुसूत्र नय जीव को परीषह मानता है क्योंकि वेदना जीव के ही होती है। शब्दनय-शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत नय आत्मा को परीषह मानते हैं। ५३. एक प्राणी में एक साथ उत्कृष्टरूप में बीस परीषह तथा जघन्यतः एक परीषह हो सकता है। शीत और उष्ण तथा चर्या और निषद्या-इन दोनों युगलों में से एक साथ एक-एक परीषह ही होता है। ८४. नेगम, संग्रह और व्यवहारनय के मतानुसार परीषहों का कालमान है-वर्षों का, ऋजुसूत्र के अनुसार अन्तर्मुहूर्त का और तीन शब्दनयों के अनुसार एक समय का है। ८५. सनत्कुमार चक्रवर्ती ने खाज, भोजन की अरुचि, अक्षिवेदना, कुक्षिवेदना, खांसी, श्वास और ज्वर-इन परीषहों को सात सौ वर्षों तक सहन किया। ८६. नेगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से परीषह लोक, संस्तारक आदि स्थानों में होते हैं । शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत-इन तीन शब्द नयों की अपेक्षा से परीषह आत्मा में होते हैं। ८७. गुरु का (विवक्षित विषय का सामान्य रूप से निरूपक) वचन उद्देश कहलाता है। गुरुवचन के प्रति शिष्य की विशिष्ट जिज्ञासा पृच्छा कहलाती है। शिष्य के प्रश्न को उत्तरित करने वाला गुरु का निर्वचन निर्देश कहलाता है। निर्देश के अन्तर्गत बावीस परीषहों का उल्लेख है। अब सूत्रस्पर्श अर्थात् सूत्रालापक का प्रसंग है। ८८,८९. बावीस परीषहों के ये उदाहरण (कथानक) हैं-कुमारक, नदी, लयन, शिला, पंथ महल्लक, तापस, प्रतिमा, शिष्य, अग्नि, निर्वेद, मुद्गर, वन, राम, पुर, भिक्षा, संस्तारक, मल्लधारण, अंग, विद्या, श्रुत, भौम, शिष्य का आगमन । ९०. उज्जयिनी में हस्तिमित्र नाम का गाथापति रहता था। उसका पुत्र था हस्तिभूति । दोनों प्रवजित हुए । एक बार वे दोनों उज्जयिनी से भोगपुर जा रहे थे । वृद्ध मुनि अटवी में क्षुधा परीषह से दुःखी हुआ । उसका प्रायोपगमन संथारे में देवलोक गमन ।' ९१. उज्जयिनी में धनमित्र वणिक था। उसके पुत्र का नाम था धनशर्मा । दोनों प्रवजित हए। एलकाक्षपथ के रास्ते में बाल मुनि ने प्यास से आर्त होने पर भी सचित्त जल नहीं पीया। तृषा परीषह सहन करते हुए वह दिवंगत हो गया।' ९२. राजगृह में चार मित्र आचार्य भद्रबाहु के शिष्य बने। वे सभी एकलविहार प्रतिमा स्वीकार कर विहरण करने लगे। राजगृह में पुनरागमन । उनका वैभारगिरि पर्वत की गुफा में स्थित भद्रबाह के दर्शनार्थ जाना। हेमंत ऋतु में शीत परीषह को सहनकर चारों रास्ते में समाधिस्थ हो गए। १. देखें परि० ६, कथा सं०१ २. वही, कथा सं० २ ३. वही, कथा सं. ३ ४. वही, कथा सं०४ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ उत्तराध्ययन नियुक्ति ९३. तगरा नगरी । अर्हन्मित्र आचार्य । उनके पास दत्त वणिक् अपनी भार्या भद्रा एवं पुत्र अर्हन्नक के साथ प्रवजित हुआ। दत्त का स्वर्गगमन । मुनि अर्हन्नक एक वणिक् महिला में आसक्त होकर उत्प्रवजित । साध्वी माता द्वारा प्रतिबोध । अर्हन्नक द्वारा तप्त शिलापट्ट पर उष्ण परीषह सहन करते हुए प्रायोपगमन संथारे में स्वर्गगमन।' ९४. चंपानगरी में सुमनोभद्र युवराज ने धर्मघोष मुनि का शिष्यत्व स्वीकार किया। एक बार वह एकाकी विहार स्वीकार कर अटवी में स्थित हो गया। रात में मच्छरों का उपद्रव । मच्छरों द्वारा रक्त पी डालने के कारण समाधिमृत्यु की प्राप्ति ।। ९५,९६. वीतभय नगरी में देवदत्ता दासी ने गंधार श्रावक की परिचर्या कर सौ गुटिकाएं प्राप्त की।' महाराजा प्रद्योत उसे उज्जयिनी ले गए। दासी का मरण देखकर रानी प्रभावती दीक्षित हो गयी और कालान्तर में कालधर्म को प्राप्त हो गयी। देव प्रभावती द्वारा तीव्र वर्षा, पूष्कर तीर्थ की स्थापना, दशपुर नगर की उत्पत्ति तथा राजा प्रद्योत की बंधन-मुक्ति। ९७,९८. आर्य वज्रस्वामी के पिता का नाम सोमदेव, माता का नाम रुद्रसोमा, भाई का नाम फल्गुरक्षित तथा आचार्य का नाम तोसलिपुत्र था। सिंहगिरि, भद्रगुप्त और आर्य वज्र के पास ९ पूर्व तथा दसवें पूर्व का कुछ अंश पढ़कर आर्यरक्षित दशपुर नगर में आए तथा भाई और पिता को प्रव्रजित किया। ९९. अचलपुर नगर के जितशत्रु राजा का युवराज राधाचार्य के पास प्रवजित हुआ। आचार्य के सद्यःअंतेवासी आर्य राधक्षमण उज्जयिनी में विहरण कर रहे थे। पूछा-क्या क्षेत्र निरुपद्रव है ? कहा-पुरोहित और राजपुत्र बाधा उपस्थित करते हैं। १००. कौशाम्बी नगरी में तापस नाम का श्रेष्ठी मरकर अपने ही घर में सूकर की योनि में उत्पन्न हुआ। पुत्रों ने मार डाला । पुनः उसी घर में उरग । उसे भी मार डाला। पुनः उसी घर में पुत्र का पुत्र ।' १.१-१०६. ऋषभपुर, राजगृह तथा पाटलिपुत्र नगर की उत्पत्ति । नन्द, शकडाल, स्थूलभद्र, श्रीयक तथा वररुचि । तीन अनगारों ने चार महीनों तक वसतिमात्र निमित्तक अभिग्रह किया। एक अनगार गणिका के घर में, दूसरा अनगार व्याघ्र की गुफा में, तीसरा अनगार सांप की बिंबी पर। इन तीनों में दुष्करकारक कौन ? व्याघ्र और सर्प तो शरीर को पीडा पहुंचाने वाले ही हैं। वे ज्ञान, दर्शन, चारित्र को नष्ट नहीं कर पाते। गणिका गृहवासी भगवान् स्थूलभद्र ने तीक्ष्ण असिधारा पर चंक्रमण किया पर वे छिन्न नहीं हुए। उन्होंने चार मास तक अग्निशिखा में निवास किया पर जले नहीं। सिंहगुफावासी अनगार ने कहा-मैं भी स्थूलभद्र के समान गणिकागह में वास करूंगा। वह कोशा के पास गया । वेश्या ने रत्नकंबल की याचना की। उसे लाने वह मुनि नेपाल गया। रत्नकंबल लाकर गणिका को दी। उसने उसे मलमूत्र विसर्जन के स्थान पर फेंक कर मलिन कर डाला। मुनि स्त्रीपरीषह से पराजित हो गया।' १. देखें-परि० ६, कथा सं०५ ४. देखें-परि० ६, कथा सं० ७ २. वही, कथा सं०६ ५. वही, कथा सं०८ ३. निशीथ चूर्णि में आठ सौ गुटिकाएं प्राप्त की, ६. वही, कथा सं० ९ ऐसा उल्लेख मिलता है। ७. वही, कथा सं०१० Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ नियुक्तिपंचक १०७. कोल्लकेर नगर में स्थविर आचार्य का स्थायी निवास था। दत्त उनका शिष्य था। वह घुमक्कड़ था। आचार्य ने उसे धातृपिण्ड दिलाया । आचार्य की अंगुली का देवयोग से प्रज्वलन । गुरु ने चर्या-परीषह सहन किया। १०८. कुरुदत्त का पुत्र प्रवजित हुआ। वह गजपुर से साकेत गया। चोर-गवेषक ने उसको चोर समझकर शिर पर अग्नि जलाई। मुनि ने समतापूर्वक नषेधिकी परीषह सहन किया।' १०९,११०. कौशाम्बी नगरी में यज्ञदत्त ब्राह्मण के दो पुत्र थे-सोमदत्त और सोमदेव । दोनों आचार्य सोमभूति के पास दीक्षित हो गए। वे स्वज्ञाति (संज्ञात) पल्ली में आए। विकट (मद्य) के कारण उनको वैराग्य हो गया। दोनों ने नदी के तीर पर जाकर प्रायोपगमन संथारा कर लिया। नदी के प्रवाह ने उन्हें समुद्र में ला ढकेला । उन्होंने समता से शय्या-परीषह को सहन किया।' १११. राजगृह में अर्जुन मालाकार । उसकी पत्नी थी स्कन्दश्री। मुद्गरपाणि यक्ष का मंदिर । गोष्ठी के सदस्यों द्वारा स्कन्दश्री पर बलात्कार । भगवान का आगमन । सदर्शन का भगवद वंदना के लिए जाना। दीक्षित होकर उसने समभाव से आक्रोश-परीषह को सहन किया। ११२-१४. श्रावस्ती नगरी। जितशत्रु राजा। धारिणी देवी। स्कन्दक पुत्र । पुरन्दरयशा पुत्री । उसका विवाह दंडकी नामक राजा के साथ हुआ। कुंभकारकटक नगर में तीर्थंकर मुनिसुव्रत के शिष्य स्कन्दक पांच सौ मुनियों के साथ वहां आए। देवी पदरयशा वहीं थी। महाराज दंडकी का पुरोहित पालक था। उसने रुष्ट होकर पांच सौ मुनियों को कोल्ह में पिलबा दिया। उन्होंने माध्यस्थभाव के चिन्तन से राग-द्वेष के तुलान को सम कर वध परीषह सहते हुए अपना कार्य सिद्ध कर लिया। ११५. याचना परीषह में बलदेव' का उदाहरण तथा अलाभ परीषह में कृषिपारासर अर्थात ढंढणकुमार' का उदाहरण ज्ञातव्य है। ११६. मथुरा में कालवेशिक पुत्र प्रवजित होकर मुद्गलपुर में एकलविहारप्रतिमा में स्थित हुआ। सियाल द्वारा भक्षण । राजा द्वारा सियालों को भगाना पर सियालों का उपसर्ग । मुनि ने ममभावपूर्वक रोग परीषह को सहन किया। ११. श्रावस्ती के भद्र नामक राजकुमार को राज्य में गुप्तचर समझकर शरीर को क्षतविक्षत कर नमक छिड़का और दर्भ से वेष्टित किया। उसने समतापूर्वक तृणस्पर्श परीषह को सहन किया। ११८. चंपा नगरी में सुनन्द श्रावक । वह जल्ल-धारण में जुगुप्सी था। वह मरकर कौशाम्बी नगरी में धनी के घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। कालान्तर में वह प्रवृजित हुआ। उसके शरीर में दुर्गध लेकिन देवयोग से फिर मूल रूप में आ गया। १. देखें-परि० ६, कथा सं० ११ २. वही, कथा सं० १२ ३. वही, कथा सं० १३ ४. वही, कथा सं० १४ ५. वही, कथा सं० १५ ६. वही, कथा सं० १६ ७. वही, कथा सं० १७ ८. वही, कथा सं० १८ ९. वही, कथा सं० १९ १०. वही, कथा सं० २० Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति १९७ ११९. मथुरा में इन्द्रदत्त पुरोहित । साधु का सेवक एक श्रेष्ठी। प्रासाद को विद्या से ध्वंस करना । इन्द्रकील द्वारा पादच्छेद । १२०. उज्जयिनी में आचार्य कालक । उनके पौत्र शिष्य आचार्य सागर का सुवर्णभूमि में विहरण । इन्द्र ने आकर आयुष्क-शेष पूछा । (वृत्ति में निगोद जीवों के विषय में पूछा ।) इन्द्र द्वारा दिव्य चमत्कार । १२१. वाचना से खिन्न । गंगा के कूल पर अशकट कन्या का पिता । बारह वर्षों में 'असंखयं' अध्ययन (उत्तराध्ययन का चौथा अध्ययन) मात्र सीखना ।' ___ १२२. स्थूलभद्र मुनि अपने अत्यंत प्रिय मित्र के घर गए। वहां जाकर कहा-यह ऐसा है । वह वैसा है । देख, यह कैसा हुआ ? मुनि ज्ञान परीषह से पराजित हो गए। १२३. आर्य आषाढ ने मुनि जीवन को छोड़ उत्प्रवजित होने का मानस बना लिया। उस समय वे व्यवहारभूमि-हट्ट के मध्य थे। उनके शिष्य ने राजा का रूप बनाकर उन्हें प्रतिबोध दिया। १२४. सर्वप्रथम शिष्य ने पृथ्वीकाय का रूप बनाकर कहा- 'जिससे मैं साधुओं को भिक्षा देता हूं, देवताओं को बलि चढाता हूं, ज्ञातिजनों का पोषण करता हूं, वही पृथ्वी मुझे आक्रान्त कर रही है। ओह ! शरण से भय उत्पन्न हो रहा है।' १२५,१२६. अपकाय ने उदाहरण देते हुए कहा-एक बहुश्रुत तथा नाना प्रकार की कथाओं कहने वाला पाटल नामक व्यक्ति नदी के प्रवाह में बहा जा रहा था। एक व्यक्ति ने पूछा-अरे ओ! बहमे वाले! क्या तुम्हारे सुख-शांति है ? जब तक तुम बहते-बहते दूर न निकल जाओ, तब तक कुछ सुभाषित वचन तो कहो। उसने कहा—'जिस पानी से बीज उगते हैं, कृषक जीवित रहते हैं, उस पानी से मैं मर रहा हूं । ओह ! शरण से भय उत्पन्न हो रहा है । १२७. तेजस्काय ने कहा-'जिस अग्नि को मैं रात-दिन मधु-घृत से सींचता रहा है, उसी अग्नि ने मेरी पर्णशाला जला डाली। ओह ! शरण से भय हो रहा है। १२८. व्याघ्र से भयभीत होकर मैं अग्नि की शरण में गया। अग्नि ने मेरे शरीर को जला डाला । ओह ! शरण से भय हो रहा है। १२९. वायुकाय ने उदाहरण देते हुए कहा-'मित्र ! तुम पहले कूदने-दौड़ने में समर्थ थे । अब तुम हाथ में दंड लेकर क्यों चलते हो? कौन से रोग से पीडित हो ?' १३०. वायू रोग से पीड़ित मित्र ने कहा-'जेठ और आषाढ मास में जो सुखद वायु चलती थी, उसी वायु ने मेरे शरीर को तोड़ दिया है । ओह ? शरण से भय हो रहा है ।' १३१. जिस वायु से सभी प्राणी जीवित रहते हैं। उस वायु के अपरिमित निरोध के कारण मेरा सारा शरीर टूट रहा है । ओह ! शरण से भय हो रहा है। १. देखें-परि०६, कथा सं० २१ ४. वही, कथा सं० २४ २. वही, कथा सं० २२ ५. वही, कथा सं० २५ ३. वही, कथा सं० २३ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ नियुक्तिपंचक १३२. वनस्पतिकाय ने दृष्टान्त देते हुए कहा कि एक विशाल वृक्ष पर अनेक पक्षी सुखपूर्वक रह रहे थे। उसी वृक्ष के निकट से एक लता उठी और वह वृक्ष के लिपटती हई ऊपर तक चढ गई। एक बार एक सर्प उस लता के सहारे ऊपर चढा और पक्षियों के अंडों को खा गया। तब शेष पक्षियों ने कहा-'हम इस वृक्ष पर रहते थे। यह निरुपद्रव था। मूल से लता उठी तब यह शरण देने वाला वृक्ष भी भय का कारण बन गया।' १३३. त्रसकाय ने दृष्टान्त देते हुए कहा-'शत्रु सेना से क्षुब्ध होकर नगर के भीतरी लोग बाहर रहने वालों को बाहर ही रोक रहे थे । ओ मातंगो! तुम अब दिशा की शरण लो। ठीक है, जो नगर शरण-स्थल था वही भय का स्थान बन गया।' १३४. जहां का राजा चोर हो और पुरोहित भंडक हो वहां नागरिकों को दिशाओं की ही शरण लेनी चाहिए क्योंकि शरण स्वयं भय-स्थान बन रहा है। १३५,१३६. हे मित्र ! उदित होते हुए सूर्य का, चैत्य-स्तूप पर बैठे कौए का तथा भौंत पर आए आतप का सुख की बेला में पता नहीं चलता। (इस कथन से ब्राह्मणी ने अपना दुःख प्रगट किया। पति के विरह में उसे रात भर नींद नहीं आई।) पुत्री बोली-'मां ! तुमने ही तो मुझे कहा था कि आए हुए यक्ष की अवमानना मत करना। पिता का यक्ष ने हरण कर लिया है । अब तुम दूसरे पिता की अन्वेषणा करो।' १३७. जिसको मैंने नव मास तक गर्भ में धारण किया, जिसका मैंने मल-मूत्र धोया, उस पुत्री ने मेरे भर्ता का हरण कर लिया। शरण मेरे लिए अशरण हो गया। १३८. तुमने स्वयं ही तो वृक्ष रोपा और तालाब खुदवाया। अब देव के भोग का अवसर आया तब क्यों चिल्ला रहे हो? १३९. आर्य आषाढ़ आगे चले। मार्ग में उन्होंने एक अलंकृत-विभूषित साध्वी को देखकर कहा-'अरे ! तुम्हारे हाथों में कटक हैं, कानों में कंडल हैं, आंखों में अंजन आंज रखा है, ललाट पर तिलक है। हे प्रवचन का उड्डाह कराने वाली दुष्ट साध्वी ! तूं कहां से आई है ?' वह बोली १४०. हे आर्य! तुम दूसरों के राई और सर्षप जितने छोटे छिद्रों-दोषों को देखते हो किंतु अपने बिल्व जितने बड़े दोषों को देखते हुए भी नहीं देखते । १४१. तुम श्रमण हो, संयत हो, ब्रह्मचारी हो, मिट्टी के ढेले और कंचन को समान समझने वाले हो, तुम वायु की भांति अप्रतिबद्धविहारी हो। ज्येष्ठार्य ! आपके पात्र में क्या है, बताएं। तीसरा अध्ययन : चतुरंगीय १४२. एक शब्द के सात निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, मातृकापद, संग्रह, पर्यव और भाव । १४३. चतुर् शब्द के सात निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, गणना और भाव । यहां गणन संख्या का अधिकार है। १४४. अंग शब्द के चार निक्षेप हैं-नामांग, स्थापनांग, द्रव्यांग और भावांग । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति १४५. द्रव्यांग के छह प्रकार हैं-गंधांग, औषधांग, मद्यांग, आतोद्यांग, शरीरांग और युद्धांग । प्रत्येक के अनेक प्रकार ज्ञातव्य हैं।। १४६-४८. गंधांग के ये प्रकार हैं-जमदग्निजटा, हरेणुका-प्रियंगु, शबरनिवसनकतमालपत्र, सपिन्निक-ध्यामक गंधद्रव्य युक्त, वृक्ष की बाह्य त्वा-चातुर्जात-ये गंधद्रव्य मल्लिका से वासित होकर अर्थात् चूर्ण बनकर कोटि मूल्य के हो जाते हैं, बहुमूल्य वाले हो जाते हैं। ओसीर और ह्रीबेर (सुगंधित द्रव्यविशेष) का एक पल तथा देवदारु का एक कर्ष, शतपुष्पा तथा तमाल-पत्र-दोनों का एक-एक पलिका मात्र-इन गन्ध द्रव्यों को पीस कर एक चूर्ण बनाया जाता था। इसी चूर्ण से स्नान, विलेपन और पटबास किया जाता था। चंडप्रद्योत की पुत्री वासवदत्ता ने इनका प्रयोग कर उदयन को मोहित किया था। १४९,१५०. औषधांग-दो रजनी-पिंडदारु और हल्दी, माहेन्द्रफल-कुटज के बीज, समूषण-त्रिकटक के तीन अंग-सुंठ, पीपल, काली मिरच, सरस-आर्द्रक, कनकमूल-बिल्वमूल इनके साथ आठवां उदक-इससे जो गोली बनती है, वह खाज, तिमिर-तिरमिरा (आंख का रोग), आधा सीसी (अर्ध शिरोरोग), तार्तीयीक (तीन दिनों से आने वाला ज्वर), चातुर्थिक (चार दिनों से आने वाला ज्वर)-इन सभी रोगों को शांत करती है तथा चूहे, सर्प आदि के काटने पर काम आती है। १५१. मद्यांग-सोलह भाग द्राक्षा, चार भाग धातकी पुष्प (धव के फूल) और एक आढक (मागध के मान से) इक्षुरस-ये मद्यांग हैं। १५२. आतोद्यांग-एकमुकुंदा-वादित्र विशेष का आतोद्यांग है तूर्य । एक अभिमारक नामक वृक्षविशेष का काठ अग्नि का अंग है । वह अग्नि का उत्पादक है। शाल्मली पुष्पों का बद्ध गुच्छा आमोडक होता है। वह गुच्छा आमोडकांग है । १५३,१५४. शरीरांग-शिर, छाती, उदर, पीठ, दोनों भुजाएं तथा दो उरू-ये शरीर के आठ अंग हैं । शेष अर्थात् कान, नाक, आंख, हाथ, पैर, जंघा, नख, केश, दाढी, मूंछ, अंगुली, होठये अंगोपांग हैं। १५५. युद्धांग-यान, आवरण-कवच आदि, प्रहरण-तलवार आदि, युद्ध-कौशल, नीति, दक्षता, व्यवसाय प्रवृत्ति, शरीर, आयोग्य-ये सारे मिलकर युद्धांग होते हैं । १५६. भावांग-भावांग के दो प्रकार हैं- श्रुतांग और नोश्रुतांग । श्रुतांग के आचारांग आदि बारह भेद हैं तथा नोश्रुतांग अर्थात् अश्रुतांग के चार भेद हैं । १५७. मनुजत्व, धर्मश्रुति, श्रद्धा और तप-संयम में पराक्रम-ये भावांग संसार में दुर्लभ हैं। १५८. अंग, दशभाग, भेद, अवयव, असकल, चूर्ण, खंड, देश, प्रदेश, पर्व, शाखा, पटल तथा पर्यवखिल-ये सब अंग के पर्यायवाची शब्द हैं। १५९. दया, संयम, लज्जा, जुगुप्सा, अछलना, तितिक्षा, अहिंसा और ह्री-ये सारे भावांग अर्थात संयम के पर्यायवाची शब्द हैं। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्ति पंचक १६०. लोक में इनकी प्राप्ति दुर्लभ है- मनुष्यता, आर्यक्षेत्र, जाति, कुल, रूप, आरोग्य, आयुष्य, बुद्धि, धर्म-श्रवण, धर्म का अवधारण, श्रद्धा और संयम । २०० १६१. १. चुल्लक ( बारी-बारी से भोजन), २. पाशक, ३. धान्य, ४. द्यूत, ५. रत्न, ६. स्वप्न, ७. चक्र, ८ चर्म, ९. युग तथा १०. परमाणु - मनुजत्व की प्राप्ति के ये दश दृष्टान्त हैं । ' १६२. निम्नोक्त की प्राप्ति भी दुर्लभ है— इन्द्रियों की प्राप्ति, इन्द्रियों की निर्वर्तनापूर्ण रचना, पर्याप्ति की समग्रता, अंग- उपांगों की पूर्णता, देश का सौस्थ्य, सुभिक्ष अथवा विभव की प्राप्ति, आरोग्य, श्रद्धा, ग्राहक अर्थात् गुरु, उपयोग - स्वाध्याय आदि में उपयुक्तता, अर्थ-धर्म विषयक जिज्ञासा आदि । १६३,१६४. दुर्लभ मनुष्य जन्म को प्राप्त करके भी जीव कुछेक कारणों से हितकारी और संसार से पार लगाने वाली धर्मश्रुति को प्राप्त नहीं कर सकता। वे कारण ये हैं- आलस्य, मोह, अवज्ञा, अहंकार, क्रोध, प्रमाद, कृपणता, भय, शोक, अज्ञान, व्याक्षेप, कुतूहल तथा रमण - कुक्कुट आदि की क्रीडाएं आदि । १६५. मिथ्यादृष्टि जीव उपदिष्ट प्रवचन पर श्रद्धा नहीं करता । वह उपदिष्ट अथवा अनुपदिष्ट असद्भाव अर्थात् कुप्रवचन पर श्रद्धा कर लेता है । १६६. सम्यग्दृष्टि जीव उपदिष्ट प्रवचन पर तो श्रद्धा करता ही है, किन्तु वह अज्ञानवश अथवा गुरु-नियोग - गुरु के विश्वास पर असद्भाव- कुप्रवचन पर भी श्रद्धा कर लेता है । १६७. ० बहुरतवादी - क्रिया की निष्पत्ति में बहुत समय लगते हैं, ऐसा मानने वाले । जीवप्रदेशवादी अन्त्य प्रदेश ही जीव है अथवा अन्त्यप्रदेशजीववादी । ० O ० ० अव्यक्तवादी - सब कुछ अव्यक्त है, ऐसा मानने वाले । समुच्छेदवादी - एक क्षण के पश्चात् सर्वथा नाश मानने वाले । द्विक्रियवादी - एक समय में दो क्रियाओं को स्वीकार करने वाले । राशिकवादी तीन राशि जीव, अजीव, नोजीव मानने वाले । · अबद्धिकवादी -कर्म आत्मा से नहीं बंधते, ऐसा मानने वाले । मैं क्रमश: इनका निर्गमन अर्थात् उत्पत्ति का कथन करूंगा । ० १६८,१६९. बहुरतवाद जमालि से उद्भूत हुआ । जीवप्रदेशवाद तिष्यगुप्त से, अव्यक्तवाद आचार्य आषाढ से, समुच्छेदवाद अश्वमित्र से, द्विक्रियवाद आचार्य गंग से, त्रैराशिकवाद षडुलूक (रोहगुप्त ) से तथा स्पृष्ट अबद्धिकवाद स्थविर गोष्ठामाहिल से उद्भूत हुआ । १७०. निह्नवों से सम्बंधित नगर क्रमश: इस प्रकार हैं - श्रावस्ती, ऋषभपुर, श्वेतविका, मिथिला, उल्लुकातीर, अंतरंजिका, दशपुर और रथवीरपुर । १. देखें परि० ६, कथा सं. २६-३५ । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति २०१ १७१,१७२. महावीर की ज्ञान उत्पत्ति के १४ वर्ष बाद बहुरतवाद की, १६ वर्ष पश्चात् जीवप्रदेशवाद की, २१४ वर्ष पश्चात् अव्यक्तवाद की, २२० वर्ष पश्चात् समुच्छेदवाद की, २२५ वर्ष पश्चात् द्विक्रियवाद की, ५४४ वर्ष बाद पैराशिकवाद की तथा ५८४ वर्ष बाद अबद्धिकवाद की उत्पत्ति हुई। १७२।१. भगवान् महावीर की कैवल्य-प्राप्ति के १४ वर्ष पश्चात् श्रावस्ती नगरी में बहुरतवाद की उत्पत्ति हुई। १७२।२. महावीर की ज्येष्ठा भगिनी सुदर्शना का पुत्र जमालि तथा भगवान् की पुत्री अनवद्यांगी (प्रियदर्शना) डेढ़ हजार व्यक्तियों के साथ प्रवजित हुए। श्रावस्ती नगरी के तिदुक उद्यान में जमालि विप्रतिपन्न । ढंक श्रावक द्वारा प्रतिबोध । जमालि को छोड़कर सुदर्शना महावीर के शासन में आ गई। १७२।३. राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में चतुर्दशपूर्वी आचार्य वसु का आगमन हुआ। उनका शिष्य तिष्यगुप्त आचार्य को छोड़कर आमलकल्पा नगरी में आया। वहां मित्रश्री नामक श्रमणोपासक द्वारा कर पिंड आदि का अंतिम अंश देकर प्रतिबोध देना। १७२।४. श्वेतविका नगरी के पोलास उद्यान में आर्य आषाढ़ का प्रवास। उनके शिष्य आगाढ़ योग-प्रतिपन्न थे । आचार्य का हृदयशूल की पीड़ा में अचानक कालगत होना । उनकी सौधर्म देवलोक के नलिनीगुल्म विमान में उत्पत्ति । राजगृह नगर में मौर्यवंशी बलभद्र नामक राजा द्वारा प्रतिबोध।" १७२१५. मिथिला नगरी के लक्ष्मीगृह चैत्य में आचार्य महागिरि। उनका शिष्य कौंडिन्न । उसका शिष्य अश्वमित्र। अनुप्रवादपूर्व के नैपुणिक वस्तु की वाचना। राजगृह में खंडरक्ष आरक्षक श्रमणोपासकों द्वारा प्रतिबोध।' १७२।६. नदीखेट जनपद के उल्लुकातीर नगर में आचार्य महागिरि का शिष्य धनगुप्त । उनका शिष्य आर्य गंग । नदी में उतरते हुए द्विक्रियवाद की प्ररूपणा। राजगृह में आगमन । महातपस्तीर से उद्भूत झरना । मणिनाग नामक नाग द्वारा प्रतिबोध । १७२।७. अंतरंजिका नगरी में भूतगृह नामक चैत्य । बलश्री राजा। श्रीगुप्त आचार्य । शिष्य रोहगुप्त । परिव्राजक पोट्टशाल । घोषणा । प्रतिषेध । वाद के लिए ललकारना।' १७२।८. परिव्राजक वृश्चिक, सर्प, मूषक, मृगी, वराही, काक और पोताकी-इन विद्याओं में कुशल था। १७२।९. तब आचार्य ने अपने शिष्य से कहा-'तुम मायूरी, नाकुली, विडाली, व्याघ्री, सिंही उलकी तथा उल्लावकी-इन विद्याओं को ग्रहण करो। ये विद्याएं परिव्राजक द्वारा प्रयुक्त विद्याओं की प्रतिपक्षी हैं तथा उसके द्वारा अहननीय हैं। १. देखें परि० ६, कथा सं ३६ । २. वही, कथा सं. ३७ । ३. वही, कथा सं. ३८ । ४. वही, कथा सं. ३९ । ५. वही, कथा सं. ४०। ६. वही, कथा सं. ४१ । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक १७२/१०. दशपुर नगर के इक्षुगृह में आर्यरक्षित घृतपुष्यमित्र, वस्त्रमित्र, दुर्बलिका पुष्यमित्र गोष्ठा माहिल आदि शिष्यों के साथ विराजमान । आठवें तथा नवें पूर्व की वाचना । विध्य द्वारा जिज्ञासा । २०२ १७२।११. जैसे कंचुकी पहने हुए पुरुष से कंचुकी स्पृष्ट होने पर भी बद्ध नहीं है, वैसे ही कर्म जीव से स्पृष्ट होने पर भी बद्ध नहीं होते । १७२।१२. जो प्रत्याख्यान अपरिमाण अर्थात् तीन करण तीन योग से यावज्जीवन के लिए किया जाता है, वह श्रेयस्कर है । परिमित समय के लिए किया गया प्रत्याख्यान आशंसा के दोष से दूषित होता है । १७२।१३. रथवीरपुर नगर के दीपक उद्यान में आचार्य कृष्ण के पास शिवभूति ने दीक्षा स्वीकार की । गुरु से जिनकल्पी सम्बन्धी उपधि का विवेचन सुनकर शिवभूति द्वारा जिज्ञासा, गुरु का समाधान । १७२ १४,१५. गुरु द्वारा प्रज्ञप्त सिद्धान्त पर उसे विश्वास नहीं हुआ । रथवीरपुर नगर में बोटिक शिवभूति द्वारा बोटिक नामक मिथ्यादृष्टि का प्रवर्त्तन हुआ । उसके कौडिन्न और कोट्टवीर नामक दो शिष्य हुए। यह परम्परा आगे भी चली। चौथा अध्ययन : असंस्कृत १७३. अप्रमाद शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । १७४. प्रमाद के पांच प्रकार हैं- मद्य, विषय, कषाय. निद्रा और विकथा । ठीक इनके विपरीत अप्रमाद है । १७५. इस अध्ययन में पांच प्रकार के प्रमाद और पांच प्रकार के अप्रमाद का वर्णन है अतः इस अध्ययन का नाम प्रमादाप्रमाद है । १७६. जो कुछ उत्तरकरण' के द्वारा किया जाता है, उसे संस्कृत जानना चाहिए । शेष सारा असंस्कृत अर्थात् संस्कार के लिए अनुपयुक्त होता है । यह असंस्कृत की नियुक्ति है । १७७. करण शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । १७८. द्रव्यकरण के दो प्रकार हैं- संज्ञाकरण और नोसंज्ञाकरण । संज्ञाकरण के उदाहरण - कटकरण, अर्थकरण - सिक्कों की निर्वर्तक अधिकरणी आदि, वेलूकरण - रूई की पूणी का निर्वर्तक चित्राकारमय वेणुशलाका आदि । - १७९. नोसंज्ञाकरण के दो भेद हैं-प्रयोगकरण तथा विस्रसाकरण । विस्रसाकरण के दो प्रकार हैं- सादिक और अनादिक । १८०. धर्म, अधर्म और आकाश - ये तीनों परस्पर संवलित होने के कारण सदा अवस्थित रहते हैं अतः अनादिकरण हैं । चक्षुस्पर्श (स्थूल परिणति वाले पुद्गलद्रव्य) तथा अचक्षुस्पर्श (सूक्ष्म परिणति वाले पुद्गलद्रव्य ) - ये दो सादिकरण हैं । ३. १. देखें परि ६, कथा सं. ४२ । २. वही, कथा सं. ४३ । अपने मूल हेतुओं से उत्पन्न वस्तु का उत्तरकाल में विशेष संस्कार करना उत्तरकरण है । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययननियुक्ति २०३ १८१. द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी आदि स्कन्ध, अभ्र ( विद्युत् आदि ) तथा अभ्रवृक्ष ( इन्द्रधनुष आदि) जो निष्पन्न द्रव्य हैं- विस्रसाकरण हैं । (यह चाक्षुष, अचाक्षुष द्रव्यों का सादि विस्रसाकरण है | ) १८२. प्रयोगकरण के दो प्रकार हैं—जीवप्रयोगकरण तथा अजीवप्रयोगकरण । जीवप्रयोगकरण दो प्रकार का है - मूलकरण तथा उत्तरकरण । मूलकरण में पांच शरीरों का समावेश होता है । उत्तरकरण है - अंगोपांगनामकर्म । इसके अन्तर्गत तीन शरीर हैं—औदारिक, वैक्रिय और आहारक | ( इन तीनों के ही अंगोपांग होते हैं ।) १८२।१२. शिर, छाती, उदर, पीठ, दोनों भुजाएं तथा दो उरू - ये आठ अंग हैं तथा कान, नाक, आंख, जंघा, हाथ, पैर, नख, केश, डाढ़ी-मूंछ, अंगुली - ये उपांग हैं । १८३. प्रथम तीन शरीरों-औदारिक, वैक्रिय और आहारक' का उत्तरकरण होता है । जैसे कानों की वृद्धि करना, कंधों को दृढ़ करना तथा उपघात और विशुद्धि से इन्द्रियों की अवस्था में परिवर्तन करना । यह उत्तरकरण है । १८४. करण के दो प्रकार ओर हैं- संघातनाकरण और परिशाटनाकरण । ये दोनों प्रथम तीन शरीरों के होते हैं। शेष दो शरीरों- तेजस और कार्मण के संघात नहीं होता, (इसलिए संघातनीकरण भी नहीं होता तथा परिशाटनाकरण तो शैलेशी अवस्था के चरम समय में होता है ।) संघातना, परिशाटना तथा दोनों का कालान्तर जैसा सूत्र में निर्दिष्ट है, चाहिए । वैसा जान लेना १८५,१८६. मूलप्रयोगकरण के पश्चात् उत्तरकरण की व्याख्या की जा रही है। शरीरकरण के प्रयोग से निष्पन्न उत्तरकरण कहलाता है। इसके अनेक भेद हैं । संक्षेप में इसके चार भेद ये है - संघातनाकरण, परिशाटनाकरण, मिश्र संघातना परिशाटनाकरण तथा प्रतिषेध-संघातनापरिशाटनाशून्य । इनके उदाहरण ये हैं ――― ० पट (वस्त्र) - इसमें तन्तुओं की संघातना होती है । शंख – इसमें परिशाटना होती है । O • शकट — इसमें संघातना और परिशाटना दोनों होती है—कीलिका आदि की संघातना और लकड़ी को छीलने की परिशाटना । स्थूणा ( स्तंभ ) – इसमें दोनों का अभाव होता है । ऊर्ध्वकरण और तिर्यक्करण तथा नमनकरण और उन्नमनकरण - ये भी उत्तरकरण हैं । १८७. जीव-प्रयोग के द्वारा पांच वर्ण आदि द्रव्यों में तथा कुसुंभे आदि में जो चित्रकरण होता है, वह अजीवप्रयोगकरण है । शेष गन्ध, रस आदि के विषय में भी यही जान लेना चाहिए। १. आहारक शरीर के ये उपांग नहीं होते । २. . इसकी निष्पत्ति शरीरापेक्ष होती है, अतः परन्तु उसके गमन आदि का उत्तरकरण होता यह उत्तरकरण है । है । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ नियुक्तिपंचक १८८. आकाश के बिना कुछ भी निर्वर्तित नहीं होता अत: आकाश ही क्षेत्र है। व्यञ्जनपर्याय' को प्राप्त इक्षुक्षेत्रकरण आदि के बहुत प्रकार हैं । यह क्षेत्रकरण है। १८९. जिस क्रिया के लिए जितना काल अपेक्षित होता है, वह उसका कालकरण है। अथवा जिस-जिस काल में जो करण निष्पन्न होता है, वह उसका कालकरण है। यह कालकरण का सामान्य उल्लेख है। नाम आदि के आधार पर कालकरण ग्यारह प्रकार का है। १९०,१९१. ग्यारह करण ये हैं१. बव ५. गरादि ९. चतुष्पद २. बालव ६. वणिज १०. नाग ३. कोलव ७. विष्टि ११. किंस्तुध्न । ४. स्त्रीविलोकन ८. शकुनि इनमें प्रथम सात चल हैं और अंतिम चार ध्रव हैं। १९२. कृष्णपक्ष की चतुर्दशी की रात्रि में सदा 'शकुनि' करण होता है। उसके पश्चात अमावस्या के दिन में 'चतुष्पद' करण तथा रात्री में 'नाग' करण होता है। प्रतिपदा (एकम) के दिन 'किंस्तुघ्न' करण होता है । १९२११. शुक्लपक्ष में तिथि को दो से गुणा करके उसमें से दो घटाकर सात का भाग देने से जो शेष बचे, वह दिन का करण होगा। रात्रि में इसी विधि से एक जोड़ने पर वह रात्रि का करण होगा।' १९३,१९४. भावकरण के दो प्रकार हैं-जीवविषयक भावकरण तथा अजीवविषयक भावकरण । अजीवकरण के पांच प्रकार हैं ---- (१) वर्णविषयक, (२) रसविषयक, (३) गन्धविषयक. (४) स्पर्श विषयक तथा (५) संस्थानविषयक । वर्ण के पांच प्रकार, रस के पांच प्रकार, गन्ध के दो प्रकार, स्पर्श के आठ प्रकार तथा संस्थान के पांच प्रकार हैं। ये सभी करण के विषय है. अन्तःकरण के भी इतने ही भेद हो जाते हैं। १९५. जीवकरण के दो प्रकार हैं-श्रुतकरण और नोश्रुतकरण । श्रुतकरण दो प्रकार का है- बद्धश्रत और अबद्धश्रुत । बद्धश्रुत के दो भेद हैं--निशीथ तथा अनिशीथ ।' अबद्धश्रत के दो प्रकार हैं-लौकिक और लोकोत्तर। १. व्यञ्जनं-शब्दस्तस्य पर्याय:-अन्यथा च भवनं-व्यञ्जनपर्यायः तमापन्नं-प्राप्त व्यञ्जनपर्यायापन्नम् । (शांटीप. २०२) २. 'बव' आदि सात करणों की व्याख्या के लिए देखें-शांटीप. २०३।। ३. जैसे शुक्लपक्ष की चतुर्थी का करण जानना है--४४२८ -२-६-७ शेष ०-६ । अतः छठा करण है 'वणिज'। रात्रि में एक बढाने से इससे अगला करण है 'विष्टि'। (शांटीप. २०३) ४. वृत्तिकार (पत्र २०४) ने इनके लौकिक और लोकोत्तर-दो भेद किए हैं। निशीथ के भेद में निशीथ सूत्र को लोकोत्तर तथा बृहदारण्यक को लौकिक माना है। अनिशीथ में आचारांग आदि को लोकोत्तर तथा पुराण आदि लौकिक हैं। ५. देखें शांटीप. २०४ । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययननियुक्ति २०५ - १९६. नोश्रुतकरण दो प्रकार का है— गुणकरण और योजनाकरण | तपःकरण और संयमकरण ये गुणकरण हैं। मन, वचन, काया की प्रवृत्ति को आत्मा के साथ योजित करना योजनाकरण है। सत्यमनोयोग आदि चार प्रकार का मनोयोग, सत्यवचन आदि चार प्रकार का वचनयोग, औदारिक काययोग आदि सात प्रकार का काययोग - ये पन्द्रह योजनाकरण हैं । १९७. कार्मणशरीरकरण के अनेक भेद हैं। उसमें आयुष्यकरण असंस्कृत है- वह उत्तरकरण के द्वारा भी साधा नहीं जा सकता । प्रस्तुत अध्ययन में उसी का प्रसंग है । अतः अप्रमाद को ही चरित्र का विषय बनाना चाहिए। १९८. द्वीप के दो प्रकार है- द्रव्यद्वीप और भावद्वीप दोनों के दो-दो भेद हैं- आश्वासद्वीप और प्रकाशद्वीप | १९९. आश्वासद्वीप के दो भेद हैं- संदीनद्वीप' और असंदीनद्वीप । प्रकाशद्वीप के दो भेद हैं - संयोगिम' तथा असंयोगिम । यह द्रव्यद्वीप की अपेक्षा से है । भावद्वीप की अपेक्षा से आश्वासद्वीप और प्रकाशद्वीप प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं । पांचवां अध्ययन : अकाममरणीय २००. काम शब्द के चार निक्षेप हैं तथा मरण शब्द के छह निक्षेप हैं। काम की व्याख्या पहले (दशवेकालिक के दूसरे अध्ययन में) की जा चुकी है। प्रस्तुत में अभिप्रेतकाम इच्छाकाम का प्रसंग है । २०१. मरण के ये छह निक्षेप हैं - ( १ ) नाममरण (२) स्थापनामरण ( ३ ) द्रव्यमरण (४) क्षेत्रमरण (५) कालमरण (६) भावमरण | २०२. द्रव्य का मरण द्रव्यमरण है । जैसे - कुसुम्भ आदि का मरण अर्थात् कुसुम्भ का रंगने के सामर्थ्य का अभाव, उसका मरण है। भावमरण है आयुष्य का क्षय उसके तीन प्रकार है- ( १ ) ओषमरण - सर्व प्राणियों का होने वाला मरण, (३) भवमरण-उस-उस भव में होने वाला मरण, (३) तद्भवमरण - उस भव में मरकर पुन: उसी भव में उत्पन्न होना । प्रस्तुत प्रसंग में मनुष्य भविक मरण का अधिकार है । २०३-२०४. जब हम मरण के विभागों की प्ररूपणा, आयुष्यकर्म का अनुभाव, आयुष्यकर्म के प्रदेशाग्र, मरणों के कितने प्रकार से प्राणी मरता है ? प्राणी एक समय में कितनी बार मरता है ? एक-एक मरण में कितनी बार मरता है ? वक्ष्यमाण मरण-भेदों में एक-एक में कितने भागों में मरण होता है ? संसार के सभी जीवों के ये मरण निरन्तर होते हैं या व्यवहित ( सान्तर) होते हैं ? एक-एक मरण का कालमान कितना है? आदि का वर्णन करेंगे । १. द्वीप- जो जल प्रवाह में नष्ट हो जाता है, ३. संयोगिम तेल, बर्ती, अग्नि के संयोग से वह संदीप द्वीप है। प्रकाश करने वाला । २. - असंदीन द्वीप - वह द्वीप, जो जल प्रवाह में ४. असंयोगिम — सूर्य का बिम्ब आदि । नष्ट नहीं होता । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ नियुक्तिपंचक २०५,२०६. मरण के सतरह प्रकार हैं(१) आवीचिमरण (९) पंडितमरण (२) अवधिमरण (१०) मिश्रमरण (३) अत्यन्तमरण (११) छद्मस्थमरण (४) वलन्मरण (१२) केवलिमरण (५) वशार्त्तमरण (१३) वैहायसमरण (६) अन्तःशल्यमरण (१४) गृध्रपृष्ठमरण (गृध्रस्पृष्ट) (७) तद्भवमरण (१५) भक्तपरिज्ञामरण (८) बालमरण (१६) इंगिनीमरण (१७) प्रायोपगमनमरण । २०७. गुणशील गुरुओं -तीर्थंकरों, गणधरों ने सतरह प्रकार के मरणों का प्रतिपादन किया है । अब मैं उन सभी का नामोल्लेखपूर्वक अर्थ-विस्तार कहूंगा। २०८. जो प्रतिसमय, निरन्तर होता है तथा तरंगों की भांति चारों ओर व्याप्त होता है, वह आवीचिमरण है । उसके पांच प्रकार हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव । २०९. अवधिमरण भी द्रव्य, क्षेत्र आदि के भेद से पांच प्रकार का है। प्राणी जिन आयुष्यकर्म के दलिकों को भोग कर मरता है, उन्हीं कर्मदलिकों को पुनः ग्रहण कर, भोग करके मरेगा यह अवधिमरण है। आत्यन्तिकमरण भी द्रव्य, क्षेत्र आदि के भेद से पांच प्रकार का है । इसमें आयुष्यकर्म के भुक्त दलिकों को पुनः नहीं भोगा जाता। २१०. जो प्राणी संयमयोगों से विषण्ण होकर मरता है, वह वलन्मरण है। जो इन्द्रिय-विषयों के वशवर्ती होकर मरण प्राप्त करते हैं, उनका मरण वशार्त्तमरण है। २११,२१२. जो लज्जा, गौरव तथा बहुश्रुत के मद से अपने दुश्चरित्र को गुरु के समक्ष नहीं कहते, वे आराधक नहीं होते। वे अहंकार के कीचड़ में निमग्न व्यक्ति अपने ज्ञान, दर्शन और चारित्र विषयक अतिचार-अपराध को आचार्य आदि के समक्ष प्रगट नहीं करते, उनका सशल्यमरण होता २१३. इस प्रकार सशल्यमरण करने वाले प्राणी महान् भयावह, दुरन्त इस दीर्घ संसार रूपी अटवी में चिरकाल तक भ्रमण करते हैं । २१४. अकर्मभूमि में उत्पन्न मनुष्य और तिर्यञ्च तथा देवनिकाय और नारकों के अतिरिक्त जीवों में से कुछेक जीवों के तद्भवमरण होता है । २१५. अवधिमरण और आवीचि मरण को छोड़कर शेष पन्द्रह मरण तद्भवमरण कहलाते हैं। २१६. अविरत व्यक्तियों का मरण बालमरण कहलाता है और विरत व्यक्तियों का मरण पंडितमरण कहलाता है। देशविरत व्यक्तियों का मरण बालपंडितमरण है। वाले । देखें, शांटी० प० २३३ । १. शेष जीवों अर्थात् कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यञ्च । उनमें भी संख्यय वर्ष की आयुष्य Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति २०७ २१७. मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और मतिज्ञानी श्रमण जिस मरण को प्राप्त होते हैं, वह छद्मस्थमरण है तथा केवलज्ञानी का मरण केवलिमरण है। २१८. गध्र आदि पक्षियों के द्वारा खाये जाने पर होने वाला मरण गृध्रपृष्ठमरण कहलाता है।' फांसी लगाकर मरना वैहायसमरण है । ये दोनों प्रकार के मरण विशेषकारण से अनुज्ञात हैं, तीर्थंकरों द्वारा अनुमत हैं। २१९. भक्तपरिज्ञा, इंगिनी तथा प्रायोपगमन-ये तीन प्रकार के मरण क्रमशः कनिष्ठ, मध्यम और उत्कृष्ट हैं। इनको स्वीकार करने वाले व्यक्ति धृति और संहनन में विशिष्ट, विशिष्टतर और विशिष्टतम होते हैं। २२०. अनुभावमरण के दो प्रकार हैं-सोपक्रम और निरुपक्रम । आयुष्यकर्म के प्रदेशाग्र अनन्तानन्त हैं। प्रत्येक आत्मप्रदेश अनन्त-अनन्त प्रदेशों से आवेष्टित हैं। २२१,२२२. आवीचिमरण में एक साथ दो, तीन, चार या पांच मरण हो सकते हैं। एक समय में कितने मरते हैं-इनका भेद-प्रभेद विस्तार से जानना चाहिए । सभी भवस्थजीव सदा आवीचिमरण से मरते हैं। अवधिमरण तथा आत्यन्तिक मरण-ये दोनों मरण भजना अर्थात् सदा नहीं होते, जब आयुक्षय होता है तभी ये संभव होते हैं।' २२३. अवधिमरण-आत्यन्तिकमरण-बालमरण-पंडितमरण, बालपंडितमरण, छपस्थमरणकेवलिमरण-ये सब पस्पर विरोधी हैं क्योंकि ये युगपद् नहीं होते। २२४. प्रत्येक अप्रशस्त मरण में संख्यात, असंख्यात और अनन्त बार मरण होता है। प्रशस्तमरण अनुबंध अर्थात् नैरंतर्य से सात-आठ भव तक हो सकता है। केवलिमरण एक बार ही होता २२५. आवीचिमरण को छोड़कर शेष सभी मरणों में एक-एक मरण में अनन्तभाग मरते हैं। आदिमरण-आवीचिमरण सतत होता है । प्रथम और चरम मरण में व्यवधान नहीं होता अर्थात ये दोनों मरण सदा रहते हैं।' २२६. शेष मरण सान्तर और निरन्तर-दोनों रूप में प्ररूपित हैं। पहला आवीचिमरण अनादि है, शेष १६ मरण सादि-सपर्यवसित हैं। २२७. 'मरणविभक्ति' अध्ययन के ये सभी द्वार क्रमशः कहे गए हैं । समस्त पदार्थों को विशेषरूप से जानने वाले अर्हत तथा चतुर्दशपूर्वी स्पष्टरूप से इन प्रशस्त आदि मरणों का निरूपण करते हैं। (मंदबुद्धिवाला मैं वैसा निरूपण नहीं कर सकता।) १. मरने का इच्छुक व्यक्ति हाथी अथवा ऊंट आदि बृहतकाय जानवरों के शव में स्वयं को प्रविष्ट कर लेता है। उन शवों को खाने के लिए गृध्र शृगाल आदि आते हैं। शव के मांस-भक्षण के साथ-साथ उस प्रविष्ट मूनि का भी भक्षण हो जाता है। यह मरण विशेष सत्त्वसम्पन्न व्यक्ति ही कर सकते हैं। _ (शांटीप २३४) २. विस्तार के लिए देखें-श्रीभिक्षु आगम विषय कोश पृ. ५२६, ५२७ ।। ३. आवीचिमरण सदा सम्भव है। चरममरण अर्थात् केवलिमरण में पुनर्भरण नहीं होता। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ नियुक्तिपंचक २२८. जिनेश्वरदेव ने इन तीन मरणों को एकान्त प्रशस्त बतलाया है-भक्तपरिज्ञा, इंगिनी तथा प्रायोपगमन । ये क्रम ज्येष्ठ हैं-उत्तरोत्तर प्रधान हैं । २२९. प्रस्तुत प्रसंग में मनुष्य के मरण का अधिकार है। अकाममरण को छोड़कर उसे सकाममरण मरना चाहिए। छठा अध्ययन : क्षुल्लकनिग्रंथीय २३०. महत् शब्द के आठ निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, प्रधान, प्रति और भाव । महत् का प्रतिपक्ष शब्द क्षुल्लक है। २३१.२३२. निर्ग्रन्थ शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना. द्रव्य और भाव । द्रव्य निर्ग्रन्थ के दो भेद हैं-आगमत: और नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन प्रकार हैं-ज्ञशरीरनिर्ग्रन्थ, भव्यशरीरनिर्ग्रन्थ तथा तद्व्यतिरिक्तनिर्ग्रन्थ । इसमें निह्नवों का समावेश होता है। भावनिर्ग्रन्थ पांच प्रकार के हैं--(पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक)। २३३ निर्ग्रन्थ उत्कृष्ट भी होता है और जघन्य भी। अजघन्य-अनुत्कृष्ट निर्ग्रन्थ असंख्येय होते हैं। यह कथन संयमस्थानों की अपेक्षा से है। २३४. ग्रंथ के दो प्रकार हैं-बाह्य और आभ्यन्तर । आभ्यन्तर ग्रन्थ के चौदह और बाह्य ग्रंथ के दस प्रकार हैं। २३५. आभ्यन्तर ग्रंथ के चौदह प्रकार हैं-क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मिथ्यात्व, वेद, अरति, रति, हास्य, शोक, भय और जुगुप्सा। २३६ बाह्य ग्रंथ के दस प्रकार हैं-क्षेत्र, वास्तु, धन-धान्य का संचय, मित्र-ज्ञाति का संयोग, यान, शयन, आसन, दासी, दास तथा कुप्य । २३७. जो सावध ग्रन्थों से तथा बाह्य-आभ्यन्तर ग्रन्थों से मुक्त है, वह निर्ग्रन्थ है। यह क्षुल्लकनिर्ग्रन्थ सूत्र की नियुक्ति है । सातवां अध्ययन : उरभ्रीय २३०,२३९. उरभ्र शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। द्रव्य निक्षेप के दो प्रकार हैं-आगमतः और नो-आगमतः । नो-आगमतः द्रव्य निक्षेप के तीन प्रकार हैंज्ञशरीर, भव्यशरीर और तव्यतिरिक्त । तव्यतिरिक्त के तीन भेद हैं-एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र । २४०. उरभ्र के आयु, नाम और गोत्र का वेदन करने वाला भावउरभ्र होता है। उस भावउरभ्र से उत्पन्न होने के कारण इस अध्ययन का नाम उरभ्रीय है। __ २४१. प्रस्तुत उरभ्रीय अध्ययन में ये पांच दृष्टांत हैं-उरभ्रं', काकिणी', आम्र', व्यवहार' और समुद्र । १-४. देखें परि० ६, कथा सं० ४४-४७ । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति २०९ २४२. उरभ्र के विषय में आरम्भ-हिंसा, रसगृद्धि, दुर्गतिगमन और प्रत्यपाय की उपमा दी गई है । यह उरभ्रीय अध्ययन की नियुक्ति है । २४२११. मेमने को अच्छा और पुष्ट भोजन खिलाना उसके रोग और मृत्यु का चिह्न है । बछड़े का शुष्क तृणों का आहार उसकी दीर्घायु का लक्षण है। आठवां अध्ययन : कापिलीय २४३,२४४. कपिल शब्द के चार निक्षेप हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं-आगमतः तथा नो-आगमतः । नो-आगमत: के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन भेद हैं--एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र । २४५. कपिल के आयुष्य, नाम और गोत्र का वेदन करने वाला भावतः कपिल होता है। भाव कपिल से समुत्थित यह कापिलीय अध्ययन है । २४६. कौशाम्बी नगरी । काश्यप पुरोहित । उसकी पत्नी यशा और पुत्र कपिल । श्रावस्ती नगरी में इन्द्रदत्त ब्राह्मण । शालिभद्र सेठ । धन श्रेष्ठी और प्रसेनजित राजा। २४७. प्रतिदिन नियुक्त भक्तदासी से प्रेरणा पाकर आहार मात्र से संतुष्ट रहने वाला कपिल दो मासा सोना पाने के लिए रात्रि के समय ही घर से निकल पड़ा। २४८. दक्षिण दिशा की ओर जाते हुए उसको आरक्षकों ने पकड़ लिया और राजा के सामने उपस्थित किया। राजा ने उसकी स्थिति समझकर वरदान देते हुए कहा---'मैं तुझे क्या दं? ते प्रयोजन कितने अर्थ से पूरा होगा?' २४९. कपिल ने स्वयं को धिक्कारते हुए कहा-'जैसे लाभ होता है वैसे लोभ बढ़ता है। दो मासा सुवर्ण से पूरा होने वाला कार्य कोटि सुवर्ण से भी पूरा नहीं हो सका।' २५०. राजा प्रसन्न होकर बोला-'हे आर्य ! मैं तुम्हें एक कोटि सुवर्ण भी दे सकता हूं पर कपिल प्रतिबुद्ध हो चुका था इसलिए वह कोटि सुवर्ण का त्याग कर पापों का शमन करने वाला श्रमण बन गया। २५१. कपिल मुनि छह महीने तक छद्मस्थ रहा । राजगह नगर के समीप अठारह योजन की अटवी में इक्कडदास नाम के पांच सौ चोर रहते थे । उनका प्रमुख था बलभद्र । २५२. कपिल ने अतिशय ज्ञान से जाना कि ये प्रतिबद्ध होंगे, ऐसा समझ उस अटवी के मार्ग से जाने का मन बनाया। वहां जाकर 'अधूवे असासयंमि संसारे......... 'इस गीत से उनको प्रतिबोध दिया। वे पांच सौ चोर प्रतिबुद्ध होकर प्रवजित हो गए। नौवां अध्ययन : नमिप्रव्रज्या २५३,२५४. नमि शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य नमि के दो निक्षेप हैं-आगमत: नो-आगमतः । नो-आगमतः द्रव्य नमि के तीन प्रकार हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तदव्यतिरिक्त । तदव्यतिरिक्त द्रव्यनमि के तीन भेद हैं-एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र। १ देखें परि०६, कथा सं० ४८ । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० निर्यक्तिपंचक २५५. नमि के आयुष्य, नाम, गोत्र का वेदन करने वाला भावनमि होता है। इस अध्ययन में नमि की प्रव्रज्या का वर्णन होने के कारण इसका नाम नमिप्रव्रज्या है। २५६. प्रव्रज्या शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । अन्यतीथिकों की द्रव्य प्रव्रज्या है और भाव प्रव्रज्या है-आरम्भ तथा परिग्रह का त्याग । २५७. कलिंग में करकंडु, पांचाल में दुर्मुख, विदेह में नमीराजा और गंधार देश में नग्गती राजा प्रतिबुद्ध होकर प्रवजित हुए। २५८. करकंडु की बोधि का निमित्त था वृषभ, दुर्मुख की बोधि का निमित्त था इन्द्रकेतु, नमिराजा की बोधि का निमित्त था कंकण और गंधारराजा (नग्गति) की बोधि का निमित्त था आम का पुष्पित वृक्ष। २५९. गोकूल में श्वेत वर्ण वाले, अहीन अंगोपांग वाले और सुविभक्त सींग वाले बैल की ऋद्धि--बलोपचयता तथा अवद्धि-शक्तिहीनता का सम्यग् पर्यालोचन कर कलिंग राजा ने मुनि धर्म को स्वीकार किया। २६०,२६१. करकंड ने गोबाड़े में एक हृष्टपुष्ट बैल को देखा । उसकी गर्जना सुनकर सूतीक्ष्ण सींगों वाले सशक्त, दृप्त और बलिष्ठ वृषभ भी पलायन कर जाते थे। कुछ समय बाद राजा करकंड पुनः गोबाड़े में उसी बैल को देखने गया। उसने देखा वही बैल शक्तिहीन, धंसी आंखों वाला, प्रकंपित थभ और होठों को चबाने वाला तथा तत्र स्थित सामान्य भैंसों के संघट्टन को सहन करने वाला हो गया है। २६२. समलंकृत इन्द्रध्वज को इधर-उधर गिरते हुए और लोगों द्वारा लटे जाते हए देखकर उसकी ऋद्धि-पूर्णता और अवृद्धि-रिक्तता को सोचकर पंचालराजा ने भी मूनि धर्म स्वीकार कर लिया। २६२।१. चन्द्रमा की हानि और वृद्धि एवं महानदी की पूर्णता और रिक्तता को देखकर तथा यह सोचकर कि यहां सब कुछ अनित्य और अध्रुव है, पंचाल राजा ने भी मुनि धर्म को स्वीकार कर लिया। २६३. मिथिलापति नमिराजा छह मास से दाह रोग से पीड़ित था। राजा का यह रोग वैद्यों द्वारा भी अचिकित्स्य हो गया । कार्तिक पूर्णिमा के दिन राजा ने स्वप्न में शेषनाग और मेरुपर्वत को देखा । तत्पश्चात् नंदी तूर्य का घोष सुनकर प्रतिबुद्ध हो गया। २६४. विदेह के दो नमिराजा राज्य को छोड़कर प्रवजित हुए थे। उनमें एक तीर्थकर हुए और एक प्रत्येकबुद्ध । २६५. वे भगवान् नमितीर्थकर अपने पुत्र को राज्य देकर परिग्रह छोड़कर, हजार व्यक्तियों से परिवृत होकर प्रवजित हुए। १. देखें-परि० ६, कथा सं ४९ २. वही, कथा सं० ५० ३. वही, कथा सं० ५१ ४. वही, कथा सं० ५२ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति २६६. दूसरे नमिराजा भी शतशः गुण समन्वित राज्य को छोड़कर, परिग्रह का त्याग करके प्रवजित हुए। यहां दूसरे नमिराजा का अधिकार है। २६६।१. करकंड आदि चारों राजाओं का पुष्पोत्तर विमान से च्यवन, एक-एक हेतू से प्रतिबोध, प्रव्रज्या, कैवल्य-प्राप्ति तथा सिद्धिगमन-ये सारे एक ही समय में अर्थात समसमय में हुए २६७. बहुत कंकणों का शब्द सुनकर तथा एक कंकण का अशब्द जानकर मिथिलाधिपति नमि राजा ने अभिनिष्क्रमण कर दिया । २६८. मंजरियों, पल्लवों और पुष्पों से उपचित एक मनोभिराम आम्रवृक्ष की (बसंत में) ऋद्धि और (पतझड़ में) अऋद्धि को देखकर गधार राजा न मुनि धर्म स्वीकार कर लिया। २६९. दुर्मुख ने करकंडु से कहा- 'तुम राज्य, राष्ट्र, पुर, अन्तःपुर आदि का त्याग कर प्रवजित हुए हो तो फिर संचय क्यों करते हो ? (कंडूयक को छिपाकर क्यों रखते हो ?)। २७०. तब नमि ने दुर्मुख से कहा - 'तुम्हारे पैतृक राज्य में अनेक कर्मकर थे, जो दूसरों के अपराध, दोष आदि का ध्यान रखते थे। प्रव्रज्या लेकर तुमने उन कर्मकरों के कृत्य को छोड दिया । आज तुम दूसरों का दोष देखने वाले कैसे बन गए ?' २७१. तब गंधारराजा ने नमि से कहा-'तुम सब कुछ त्याग कर मोक्ष के लिए प्रयत्नशील बने हो तथा आत्मा से आबद्ध कर्मों का सर्वथा नाश करने वाले हो तो फिर तुम दूसरों की गर्दा क्यों करते हो?' २७२. तब करकंडु ने कहा- 'जिन्होंने मोक्षमार्ग को स्वीकार किया है, जो मुनि हैं, ब्रह्मचारी हैं-ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना करने वाले हैं, वे यदि अहित का निवारण करते हैं तो उसे दोष नहीं कहा जा सकता है।' दसवां अध्ययन : द्रुमपत्रक २७३,२७४. द्रुम शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य द्रुम के दो निक्षेप हैं-आगमत: और नो-आगमतः । नो-आगमत: द्रम के तीन प्रकार हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन भेद हैं-एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र । २७५. द्रुम आयुष्य, नाम, गोत्र का वेदन करता हुआ भावद्रुम होता है। इसी प्रकार पत्र शब्द के भी चार निक्षेप होते हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । २७६. आयुष्य को द्रुमपत्र की उपमा दी गई है। जैसे द्रुमपत्र काल का परिपाक होने पर स्वतः वक्ष से गिर जाता है अथवा उपक्रम--- वायु आदि के द्वारा वृक्ष से अलग हो जाता है, वैसे ही आयुष्य की स्थिति पूरी होने पर अथवा आयुष्य का उपक्रम पूर्ण होने पर प्राणी मर जाता है। इस अध्ययन के प्रारम्भ में द्रमपत्र शब्द है, इसलिए इस अध्ययन का नाम द्रुमपत्रक है । २७७. मगधदेश के राजगह नगर से भगवान महावीर ने शाल, महाशाल शिष्यों को गौतम स्वामी के साथ भेजा । वे वहां से विहार कर पृष्ठचंपा पहुंच गए। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ नियुक्तिपंचक २७८. पृष्ठचंपा में गागलि अपने माता-पिता के साथ प्रवजित हुआ। मार्ग में तीनों को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। वे चंपापुरी पहुंचे । गौतम स्वामी ने भगवान को वन्दन किया पर उन तीनों ने वन्दन नहीं किया । २७९-८१. चंपापुरी के पुण्यभद्र चैत्य में यशस्वी जगनायक भगवान महावीर ने श्रमणों को आमंत्रित कर कहा--'आठ प्रकार के कर्मों को मथने वाले, स्वभावत: विशुद्धलेश्या वाले तथा कृतकृत्य भगवान् ऋषभ की निर्वाण भूमि अष्टापद पर्वत है । वे भरत के पिता ऋषभ तीन लोक में आलोक फैलाकर यशस्वी बने । जो अष्टापद पर्वत पर आरोहण कर भगवान की वंदना-स्तुति करता है, वह मुनि चरमशरीरी होता है। २८२. वैताढ्यशिखर के पास सिद्धपर्वत है । वहां साधु की ही अवस्थिति होती है, असाधु की नहीं। २८३. चरमशरीरी साधु ही उस पर्वत पर चढ़ सकता है, दूसरा नहीं । यह उदाहरण भगवान् महावीर ने दिया था। २८४. भगवान् के वचन को सुनकर प्रथितकीर्ति गौतम वहां गए और उस श्रेष्ठ पर्वत पर चढ़कर जिनभगवान की प्रतिमाओं को वन्दना की। २८५. उस समय सर्वऋद्धिसम्पन्न वैश्रमण देव अपनी परिषद के साथ वहां आया। उसने चैत्यों की वन्दना कर भगवान गौतम को वन्दन किया। २८६. प्रथितकीर्ति गौतम स्वामी ने वहां पुण्डरीक वृत्तांत की प्रज्ञापना की और दसमभक्त (चार दिन के उपवास) के पारणे में कौडिन्य तापस को प्रव्रजित किया। २८७,२८८. उस वैश्रमण की सभा में अल्पकर्मा इंद्र ने गौतम द्वारा प्ररूपित पुण्डरीक का वृत्तान्त सुना । उससे बोध प्राप्त कर वल्गुविमान से च्युत हो वह इन्द्र तंबवन में धनगिरि की पत्नी सुनन्दा का पुत्र हुआ। २८९-९९. दत्त, कौडिन्य और शैवाल-ये तीनों तापस पांच-पांच सौ परिवार के साथ अष्टापद पर्वत पर चढ़ने के लिए आए । कौडिन्य तापस चतुर्थ भक्त के पारणे में कंड़ आदि सचित्त आहार करता । (वह अष्टापद के नीचे की मेखला तक ही चढ़ पाया ।) दत्त तापस पारणे में अचित्त आहार करता । (वह पर्वत की मध्य मेखला तक ही चढ़ पाया ।) तीसरा शैवाल तापस अष्टम भक्त के पारणे में शुष्क शैवाल का आहार करता । (वह पर्वत की ऊपरितन मेखला तक ही चढ़ पाया।) गौतम स्वामी की ऋद्धि देखकर वे तीनों विगतमोह अनगार होकर प्रवजित हो गए । प्रथम तापस को क्षीर भोजन के चितन से, दूसरे को परिषद् देखने से तथा तीसरे को जिन भगवान के दर्शन करने से केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। सभी गौतम के साथ भगवान महावीर को वंदना करने उपस्थित हए । जब तीनों तापस केवली-परिषद् की ओर जाने लगे तब गौतम स्वामी ने कहा-'इध भगवान को वंदन करो।' गौतम के ऐसा कहने पर भगवान् ने गौतम से कहा-'गौतम ! ये तो कृतकृत्य हो गए हैं। भगवान् के वचन सुनकर गौतम दुःखी हुए। वे सोचने लगे-मुझे केवलज्ञान क्यों नहीं हो रहा है? तब भगवान् बोले-'गौतम ! तुम मेरे चिरसंसष्ट हो, चिरपरिचित हो, चिरकाल से अनुगत हो । जब तुम्हें देह का भेदज्ञान होगा तब हम दोनों एक समान हो जायेंगे। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति २१३ जैसे पुनर्भव न करने वाले क्षीणसंसारी हो जायेंगे । हम इस अर्थ को जानते हैं, वैसे ही विमानवासी देव भी इस तत्व को समझते हैं। सब कुछ जानते हुए भी भगवान महावीर ने प्रथितकीति गौतम से पूछा- गौतम ! देवों के वचन ग्राह्य हैं अथवा जिनेश्वर देव के ? भगवान की वाणी सुनकर गौतम अपने मिथ्याचार का प्रतिक्रमण करने के लिए उत्कंठित हए । उनकी निश्रा में भगवान ने शिष्यों को अनुशिष्टि प्रदान की। ३००-३०२. लावण्यविहीन, शिथिल संधियों वाला, वृन्त से टूटकर नीचे गिरता हुआ आपद्ग्रस्त तथा कालप्राप्त वृक्ष का पांडुर पत्ता किसलय से बोला—'अब जैसे तुम हो, वैसे ही हम भी थे । अब जैसे हम हैं, वैसे ही तुम भी बनोगे ।' पांडुरपत्र और किसलय का ऐसा उल्लाप न हुआ है और न होगा। यह केवल भव्यजनों को प्रतिबोध देने के लिए उपमा दी गई है। ग्यारहवां अध्ययन : बहुश्रुतपूजा ३०३. बहु, श्रुत और पूजा-इन तीनों शब्दों के चार-चार निक्षेप हैं-- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य बहुत्व में जीव और पुद्गल का बहुत्व विवेचित है। ___३०४. भावबहुत्व में अनन्त गमों से युक्त चौदह पूर्व बहुक हैं । ये क्षयोपशम भाव में बरतते हैं। क्षायिकभाव में वर्तमान केवलज्ञान भी भावबहक है क्योंकि उसके अनन्त पर्याय हैं। ३०५. द्रव्यश्रुत पुण्डज आदि हैं अथवा अक्षररूप में लिखित पुस्तक आदि द्रव्यश्रत हैं। भावश्रुत के दो भेद हैं-सम्यकश्रुत और मिथ्याश्रुत । ३०६. भवसिद्धिक जीव तथा सम्यक् दृष्टि जीव जिस श्रुत को पढ़ते हैं, वह सम्यकुश्रुत होने के कारण भावश्रुत है । यह भावश्रुत आठ प्रकार के कर्मों का शोधक है, शुद्धिकारक है। ३०७. अभव्यसिद्धिक मिथ्यादृष्टि जीव जो अध्ययन करते हैं, वह मिथ्याश्रुत है। मिथ्याश्रुत कर्मबंधन का हेतु है। ३०८. ईश्वर (धनपति), तलवर (राजा आदि), माडम्बिक (जलदुर्ग का अधिपति), शिव, इन्द्र, स्कन्ध, विष्णु आदि की जो पूजा की जाती है, वह द्रव्य पूजा होती है । ३०९. तीर्थकर, केवली, सिद्ध, आचार्य और समग्र साधुओं की जो पूजा की जाती है, वह भाव पूजा है। ३१०. जो चतुर्दश पूर्वधर और निपुण सर्वाक्षरसन्निपाती हैं, उनकी पूजा भी भाव पूजा है। यहां इसी भावपूजा का अधिकार है। १. देखें-परि०६, कथा सं० ५३ २. शांटी, पत्र ३४४ : सर्वाणि-समस्तानि यान्यक्षराणि-अकारादीनि तेषां सन्निपातनं तत् तदर्थाभिधायकतया सांगत्येन घटनाकरणं सर्वाक्षरसन्निपातः, स विद्यते अधिगम विषयतया येषां तेऽमी सर्वाक्षरसन्निपातिनः । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ निर्यक्तिपंचक बारहवां अध्ययन : हरिकेशीय ३११,३१२. हरिकेश शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं-आगमत:, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त द्रव्य निक्षेप के तीन भेद हैं-एकभविक, बद्वायुष्क और अभिमुखनामगोत्र। ३१३. हरिकेश नाम, गोत्र का वेदन करता हुआ भावतः हरिकेश होता है । हरिकेश से उद्भूत होने से इस अध्ययन का नाम हरिकेशीय है । ३१४. हरिकेश ने पूर्व भव में प्रव्रजित शंख युवराज के पास दीक्षा ली थी। किन्तु जातिमद के प्रभाव से वह हरिकेश कुल में उत्पन्न हुआ। ३१५. मथुरा में प्रव्रजित शंखमुनि विहार करते हुए गजपुर नगर में गए। वहां एक पुरोहित पुत्र को मार्ग पूछा। उसने द्वेषवश अग्नि के समान उष्ण मार्ग बता दिया। उस मार्ग पर पाडिहेरद्वारपाल की भांति सदा एक देव सन्निहित रहता था। मुनि उस मार्ग से गए। (देवयोग से वह शीतल हो गया ।) ३१६. हरिकेश, चण्डाल, श्वपाक, मातंग, बाह्य, पाण, श्वानधन, मृताश, श्मशानवृत्ति और नीच-ये एकार्थक शब्द हैं। ३१७. हरिकेश का जन्म 'मृतगंगा' (सूखे प्रवाह वाली गंगा) के तट पर हुआ । प्रवजित होकर वे वाराणसी के तिन्दुक वन में ठहरे। वहां गंडीतिन्दुक यक्ष का मंदिर था। कौशलिक राजा की कन्या सुभद्रा वहां पूजा करने आई । उसने मुनि का रूप देखकर घृणा से उस पर थूक दिया । उसका मुनि के साथ विवाह । मुनि द्वारा परित्यक्त। मुनि का यज्ञवाट मे भिक्षा के लिए जाना । ३१८. बलकोट नामक हरिकेशों का अधिपति बलकोट था। उसके दो स्त्रियां थीं-गौरी और गान्धारी । गौरी ने स्वप्न में बसन्त मास देखा । बलकोट में उत्पन्न होने के कारण पुत्र का नाम 'बल' रखा । उत्सव में सर्प के आने पर उसे मार डाला गया । दूसरी बार भेरुण्ड सर्प का (दुमुही) निकलना । उसे नहीं मारा गया। ३१९. मनुष्य को भद्र होना चाहिए । भद्र मनुष्य कल्याण को प्राप्त होता है। सविष सर्प मारा जाता है और निविष भेरुण्ड सर्प छोड़ दिया जाता है। ३२०. वाराणसी नगर के तिदुक उद्यान में तिंदुक नामक यक्षायतन था। वहां गंडीतिंदुक यक्ष रहता था। उसी के कारण उस उद्यान का नाम गंडीतिंदुकवन पड़ा । ३२१. एक दूसरा यक्ष गंडीतिंदुक यक्ष को अपने उद्यान में ले गया। गंडी यक्ष ने कहा-'अरे ! यहां तो मुंडितमात्र होने वाले दीक्षित व्यक्तियों की जमात है। यहां तो स्त्रीकथा, जनपदकथा और राजकथा हो रही है । चलो, हम तिन्दुक उद्यान में लौट चलें।" १. देखें परि०६, कथा सं० ५४ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन निर्युक्ति तेरहवां अध्ययन : चित्रसंभतीय द्रव्य ३२२,३२३. चित्र, संभूत शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । निक्षेप के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन भेद हैं- एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुख - नामगोत्र | २०५ उन ३२४. चित्र और संभूत के आयुष्य का वेदन करने वाले भावतः चित्र और संभूत हैं । दोनों के नाम से समुत्थित यह अध्ययन 'चित्रसंभूतीय' है । ३२५. साकेत नगर में चन्द्रावतंसक राजा का पुत्र था मुनिचन्द्र । सागरचन्द्र के साथ मुनिचन्द्र प्रव्रजित होकर श्रमण बन गया । ३२६. अटवी में तृष्णा और क्षुधा से व्याकुल श्रमण (मुनिचन्द्र ) को देखकर गोपालकों ने प्राक अन्न से उसे प्रतिलाभित किया। फिर मुनि के उपदेश से वे चारों गोपालक पुत्र बोधि को प्राप्त हो गए । ३२७. मुनि के मलदिग्ध शरीर को देखकर दो गोपालक पुत्रों को घृणा हो गई । जुगुप्सा करने के कारण वे दोनों मरकर दशार्ण जनपद में दास रूप में उत्पन्न हुए और शेष दो गोपालकपुत्र इषुकारपुर के ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए। यहां ब्रह्मदत्त का अधिकार है । ३२८,३२९. पांचाल जनपद का राजा ब्रह्म, काशी जनपद का राजा कटक, कुरु जनपद का राजा कणेरदत्त, अंग जनपद का राजा पुष्पचूल, कौशल जनपद का राजा दीघं - ये पांचों मित्र राजा थे । इन सभी ने एक ही समय में पाणिग्रहण किया था अर्थात् ये सभी समवयस्क थे । ( राजा ब्रह्म के मर जाने पर) चारों मित्र राजा एक-एक वर्ष उस राज्य की सार-संभाल करने के रहने लगे । लिए वहां ३३०. ब्रह्मराज के चार स्त्रियां थीं इन्द्रश्री, इन्द्रयशा, इन्द्रवसु और चुलनीदेवी । चुलनी देवी ने ब्रह्मदत्त नामक पुत्र को जन्म दिया । उसी दिन धनु नामक सेनापति के वरधनु नामक पुत्र हुआ । कन्या भद्रा, कन्या देवी, नागदत्ता, ३३१-३५. चित्र राजा की कन्या विद्युत्माला और विद्युत्मती, चित्रसेनक की पन्थक राजा की कन्या नागयशा, कीर्तिसेन की कन्या कीर्तिमती, यक्षहरिल राजा की यशोमती और रत्नवती, चारुदत्त राजा की कन्या वच्छी, कात्यायनगोत्रीय वृषभ राजा की कन्या शिला, धनदेव, वणिक्, वसुमित्र, सुदर्शन और मायावी दारुक ये चारों कुक्कुट युद्ध के प्रसंग में परस्पर मिले थे, वहां की पुस्ती नामक कम्या, पोत राजा की कन्या पिंगला, सागरदत्त वणिक् की कन्या दीपशिखा, काम्पिल्य की पुत्री मलयवती, सिन्धुदत्त की कन्या वनराजि और सोमा, सिन्धुसेन की कन्या वानीरा, प्रद्युम्नसेन की कन्या प्रतिका- ये सभी ब्रह्मदत्त की रानियां थीं। हरिकेशा, गोदत्ता, करेणुदत्ता, करेणुप्रदिका, कुंजरसेना, करेणुसेना, ऋषिवृद्धि, कुरुमती - ये आठों ब्रह्मदत्त के अन्तःपुर की प्रधान रानियां थीं। महारानी कुरुमती स्त्रीरत्न थी । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ निर्युपिंचक ३३६,३३७. ब्रह्मदत्त काम्पिल्यपुर, गिरितटक, चम्पा, हस्तिनापुर, साकेत, समकटक, अवश्यानक, वंशीप्रासाद, समकटक आदि नगरों में घूमता हुआ अटवी में पहुंचा। वहां पर तृषा से अभिभूत हो गया । उसने वरधनु से कहा तो वह ब्रह्मदत्त को एक वटवृक्ष की छाया में लेटाकर बोला - 'मैं एक संकेत दूंगा तब तुम यहां से पलायन कर जाना ।' यह कहकर वह स्वयं पानी की खोज में निकला । वह जल लेकर वापस लौट रहा था तब दीर्घपृष्ठ के अनुचर कुमार को खोजते हुए वहां पहुंच गए। उन्होंने वरधुन को पकड़ लिया फिर उसे बंधन से बांधकर आक्रोश दिखलाया, दुष्टवचनों से उसकी भर्त्सना की । ३३८. अनुचरों ने वरधनु को पीटते हुए पूछा - 'बोलो, कुमार कहां है ? तुम उसे कहां ले गए हो ?' वरधनु ने एक संकेत किया और पानी के साथ एक विरेचन की गुटिका ले ली । उस गुटिका से बेहोशी आ गई और मुंह में भाग आ गए। उसने कपटमृत्यु का वरण कर लिया । गुप्तचरों ने उसे मृत समझकर छोड़ दिया । ३३९. इधर कुमार वरधनु की सांकेतिक भाषा को समझकर, भयभीत होता हुआ उत्पथ से पलायन कर गया । मार्ग में एक देव ने उसके सामर्थ्य की परीक्षा करने के लिए स्थविर का रूप बनाकर उसे धोखे में डाल दिया । ३४०. वहां से घूमता हुआ कुमार वटपुर, ब्रह्मस्थल, वटस्थल, कोशाम्बी, वाराणसी, राजगृह, गिरिपुर, मथुरा और अहिछत्रा आदि नगरों में पहुंचा । ३४१. कुमार अहिच्छत्रा से चला और एक महान् अटवी में पहुंच गया। वहां उसने आभरण, वस्त्र एवं गुणों से युक्त एक वनहस्ती देखा। वह उस पर आरूढ़ हो गया। हाथी कुमार को भयंकर वन में ले गया । कुमार अटवी से बाहर निकलकर वटपुर गया । वटपुर से श्रावस्ती के लिए प्रस्थान किया । चलते-चलते एक छोटे गांव में पहुंचा । ३४२. नदी और अरण्य गहन होते हैं पर पुरुषों के हृदय उससे भी अधिक गहन होते हैं । आप अपना पुण्यपत्त' दें। हमारे प्रिय पुत्र हुआ है । ३४३. वहां से कुमार सुप्रतिष्ठानपुर में पहुंचा। वहां भिकुंडी राजा से निष्कासित कन्या कुसकुण्डी जितशत्रु राजा के पास से मथुरा से अहिच्छत्रा जा रही थी। वह बीच के एक गांव में मिली । ३४४,३४५. इन्द्रपुर में शिवदत्त तथा रुद्रपुर में विशाखदत्त- इन दोनों की दो पुत्रियां कुमार को विट वेष में प्राप्त हुईं। उसे वहां राज्य भी प्राप्त हुआ। वहां से कुमार राजगृह, मिथिला, हस्तिनापुर, चंपा, श्रावस्ती आदि नगरों में घूमा । यह कुमार ब्रह्मदत्त के नगर भ्रमण ( नगर हिडी) का अवलोकन है । ३४६. कुमार को चक्ररत्न की उत्पत्ति हुई । वह दिविजयी बन गया । दीर्घपृष्ठ राजा का रोष भी शांत हो गया । (देवताओं द्वारा कल्पवृक्ष के फूलों की माला अर्पित करने पर) कुमार को जातिस्मृति हुई कि मैं नलिनीगुल्म में देव रूप में उत्पन्न हुआ था । १. आनन्द से हृत वस्त्र । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति ३४७. ब्रह्मदत्त ने जातिस्मति ज्ञान द्वारा अपनी पूर्वजन्म की जातियों का दो पद्यों में प्रकाशन किया तथा उस श्लोक की पूर्ति का निवेदन किया। मुनि चित्र ने यह सुना और वहां आए । चित्र मुनि ने ब्रह्मदत्त को ऋद्धि के परित्याग का उपदेश दिया। यही सूत्र के अर्थ की परम्परा है ।' ४८-५२. बृहद् वृत्तिकार शान्त्याचार्य ने इन पांचों गाथाओं के विषय में लिखा है-इन श्लोकों की परम्परा ज्ञात न होने के कारण इनका विवरण नहीं दिया गया है। आचार्य नेमिचन्द्र द्वारा उत्तराध्ययन सूत्र पर निर्मित 'सुखबोधा' वृत्ति (पत्र १८५-९७) में तविषयक विस्तृत कथानक है। उसी में से इन पांच श्लोकगत संक्षिप्त तथ्यों का विस्तार से आकलन किया जा सकता है।' चौदहवां अध्ययन : इषुकारीय ३५३,३५४. इषकार शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो निक्षेप हैं--आगमत:, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन निक्षेप हैं-ज्ञशरीर, भव्य शरीर और तद्व्यतिरिक्त । तदव्यतिरिक्त के तीन भेद हैं-एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र । ३५५. इषुकार नाम, गोत्र का वेदन करने वाला भाव इषुकार होता है। इषुकार से उद्भूत होने के कारण इस अध्ययन का नाम इषकारीय है। __ ३५६. पूर्वभव के स्नेह से संबद्ध, प्रीतिभाक्, परस्पर अनुरक्त छह व्यक्ति भोग्य भोगों को भोगकर, ग्रन्थिरहित होकर प्रवजित हो श्रमण बन गए। ३५७. श्रामण्य का पालन कर वे पद्मगुल्म नामक विमान में उत्पन्न हुए। वहां उनकी उत्कृष्ट स्थिति चार पल्योपम की थी। ३५८. वहां से च्युत होकर वे छहों व्यक्ति कुरुजनपद के इषुकार नगर में उत्पन्न हुए। वे चरमशरीरी और विगतमोह थे। ३५९. इषुकार नगर में इषुकार राजा था। कमलावती देवी अग्रमहिषी थी। उसके पुरोहित का नाम भगु और उसकी पत्नी का नाम वाशिष्ठी था। ३६०. इषुकार नगर में इषुकार राजा के पुरोहित के कोई संतान नहीं थी। वे दोनों पतिपत्नी पुत्र के लिए बहुत व्याकुल रहते थे। ३६१. गोपपुत्र देवों ने श्रमण का रूप बनाकर पुरोहित को बताया कि देवलोक से च्युत होकर दो देव तुम्हारे पुत्ररूप में उत्पन्न होंगे। ३६२. तुम्हारे वे दोनों पुत्र प्रवजित होंगे। तुम उनकी प्रव्रज्या में बाधक मत बनना क्योंकि वे प्रवजित होकर बहुत लोगों को प्रतिबोध देंगे। ३६३,३६४. उनका वचन सुनकर वह पुरोहित अपनी पत्नी के साथ दूसरे गोकुल ग्राम में चला गया। वहां उसके दो पुत्र हुए। वे बढ़ने लगे। पूरोहित उनको असदभाव-श्रमणों के प्रति मिथ्या धारणा की शिक्षा देने लगा। वह कहता-पुत्रों! ये श्रमण धर्त हैं, प्रेत-पिशाचरूप हैं और नरमांस के भक्षक हैं । तुम उनकी संगति कभी मत करना । पुत्रों ! तुम नष्ट-भ्रष्ट मत हो जाना।' १. देखें परि०६, कथा सं० ५५ २. वही, कथा सं० ५६ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ नियुक्तिपंचक ३६५,३६६. संयोगवश दोनों लड़कों ने वहां श्रमणों को देखा। जातिस्मृति ज्ञान से प्रबुद्ध हुए। फिर उन्होंने अपने माता-पिता को प्रतिबोध दिया। कमलावती रानी प्रबुद्ध हुई। उसने इषुकार राजा को प्रबोध दिया। इस प्रकार सीमाधर राजा इषुकार, भृगु पुरोहित, भृगुपत्नी वाशिष्ठी, राजपत्नी कमलावती और दोनों भृगुपुत्र-ये छहों व्यक्ति प्रवजित होकर परिनिर्वृत हो गए।' पन्द्रहवां अध्ययन : सभिक्षुक ३६७,३६८. भिक्षु शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य भिक्षु के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । आगमतः के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त भिक्षु निह्नवादि हैं । जो क्षुत्-कर्म का भेदन करता है, वह भावभिक्षु है । ३६९. भेत्ता, भेदन और भेत्तव्य-इन तीनों के दो-दो भेद हैं-द्रव्य और भाव । ३७०. द्रव्य-भेत्ता है तक्षक, भेदन है परशु और भेत्तव्य है काष्ठ। भाव-भेत्ता है साधु, भेदन है तपस्या और भेत्तव्य हैं आठ प्रकार के कर्म । ३७१. राग, द्वेष, तीन करण, तीन योग, गौरव, शल्य, विकथा, संज्ञा, क्षुत्-आठ प्रकार के कर्म, कषाय और प्रमाद-ये सभी क्षुत् हैं। ३७२. जो सुव्रती ऋषि इन क्षुत् शब्द वाच्य अवस्थाओं का भेदन करते हैं, वे कर्मग्रंथि का भेदन कर अजरामर स्थान-मोक्षपद को प्राप्त होते हैं। सोलहवां अध्ययन : ब्रह्मचर्य समाधि-स्थान ३७३. एक के बिना दश नहीं होता अतः एक के ये निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, मातृकापद, संग्रह, पर्याय और भाव-ये सात पृथक्-पृथक् होते हैं । ३७४. दश शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । दश प्रादेशिक स्कन्ध द्रव्यदश है। अवगाहना स्थिति से दश प्रदेशावगाढ़ स्कन्ध क्षेत्रदश है। दश समय की स्थिति कालदश है । दश संख्या से विवक्षित पर्याय भावदश है। ३७५. ब्रह्म शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। किसी की ब्रह्म संज्ञा नामब्रह्म है। स्थापना ब्रह्म में ब्राह्मण की उत्पत्ति तथा द्रव्यब्रह्म में अज्ञानियों का वस्तिनिग्रह ज्ञातव्य ३७६. ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए वस्तिनिग्रह करना भावब्रह्म है। उसके लिए इस अध्ययन में विविक्त-शयनासनसेवन आदि जो स्थान निरूपित हैं, उनका वर्जन करना चाहिए। ३७७. चरण शब्द के छह निक्षेपों में द्रव्यचरण है-गतिरूप चरण तथा भक्षणरूप चरण । जिस क्षेत्र और काल में चरण की व्याख्या की जाती है, वह क्षेत्रचरण और कालचरण है। मूल और उत्तर गुणों का आचरण भावचरण है। १.देखें परि० ६, कथा सं० ५७ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन निर्यक्ति २१९ ३७८. समाधि के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । माधुये आदि गुणों से युक्त द्रव्य से जो समाधि मिलती है, वह द्रव्यसमाधि है। ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र-यह भावसमाधि है। ३७९. स्थान शब्द के पन्द्रह निक्षेप हैं१. नामस्थान । ९. संयमस्थान-संयम में अवस्थिति । २. स्थापनास्थान । १०. प्रग्रहस्थान-आयुध-ग्रहण का स्थान । ३. द्रव्यस्थान। ११. योधस्थान-युद्ध में आयुध-प्रहार हेतु की जाने वाली मुद्रा। ४. क्षेत्रस्थान-आकाश १२. अचलस्थान-स्थिर स्थान । ५. कालस्थान-समयक्षेत्र । १३. गणनास्थान-दो से शीर्षप्रहेलिका तक की गणना । ६. ऊर्ध्वस्थान-कायोत्सर्ग । १४. संधानस्थान-त्रुटित का संधान । ७. उपरतिस्थान--सर्वसावध विरति । १५. भावस्थान-औदयिक आदि भावों का स्थान । ८. वसतिस्थान-यतिनिवास । सतरहवां अध्ययन : पापश्रमणीय __३८०. पाप शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं-आगमतः और नो-आगमतः । नो-आगमत: के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तदव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त द्रव्य के तीन भेद हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र । सचित्त द्रव्यपाप-जीवों की असुन्दरता। अचित्त द्रव्यपाप --चौरासी पाप प्रकृतियां । मिश्र द्रव्यपाप-पापप्रकृति युक्त जीव । क्षेत्रपाप-नरक आदि पाप-प्रकृति का उदयभूत स्थान । कालपाप-दुष्षमादि काल, जिसके प्रभाव से पाप उदित होता है। ३८१. हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य, परिग्रह तथा आगमों में निरूपित मिथ्यात्व आदि अगुण-ये सभी भाव पाप हैं। ३८२. श्रमण शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य श्रमण में निह्नव आदि का ग्रहण होता है तथा भाव श्रमण में संयमसहित ज्ञानी का समावेश होता है। ३८३. जिनेश्वर देव ने प्रस्तुत अध्ययन में जिन अकरणीय भावों का निरूपण किया है, उनका सेवन करने वाला मुनि पापश्रमण कहलाता है। ३८४. जो सुव्रती ऋषि इन पापों का वर्जन करते हैं, वे पापकर्म से मुक्त होकर निर्विघ्नरूप से सिद्धि को प्राप्त करते हैं । अठारहवां अध्ययन : संजयीय ३८५,३८६. संजयीय शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य संजयीय के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमत: के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन भेद हैं-एकभविक, बदायुष्क और अभिमुखनामगोष। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक ३८७. संजय नाम, गोत्र का वेदन करता हुआ भावसंजय होता है । भावसंजय से समुत्थित होने के कारण इस अध्ययन का नाम संजयीय हुआ है । २२० ३८८३८९. कांपिल्यपुर नगर का राजा संजय सेना सहित मृगया के लिए निकला । वह घोड़े पर सवार होकर मृगों को केसर उद्यान की ओर खदेड़ कर ले गया। वहां एकत्रित मृग अत्यन्त भयभीत हो रहे थे । वह रसलोलुप राजा उन्हें वहां व्यथित करने लगा । ३९०. वहां केसरउद्यान में दोषमुक्त गर्दभालि अनगार छाए हुए मंडप में ध्यान कर रहे थे । ३९१. घोड़े पर सवार राजा ने मुनि को देखा और आकुल व्याकुल होकर बोला- अहो ! खेद है, मैं अभी ऋषिहत्या से लिप्त हो जाता पर बच गया । ३९२-९४. राजा घोड़े को छोड़कर अनगार के पास गया । विनम्रता से वन्दना करके अपराध के लिए क्षमा मांगने लगा । अनगार मौन धारण किए हुए थे इसलिए राजा को कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया । तब राजा इनके तेज-तप से घबराकर इस प्रकार बोला- 'भंते ! मैं कांपिल्यपुर का अधिपति हूं । मेरा नाम संजय है । मैं आपकी शरण में आया हूं । आप मुझे अपने तपोजनित तेज से न जलाएं ।' ३९५-९७. मुनि बोले— 'राजन् ! मैं तुझे अभय देता हूं। तुम इस पानी के बुद्बुदे के समान अनित्य मनुष्य जीवन में अपने दुःखजनक मरण को जानकर भी हिंसा को प्रश्रय देते हो । क्या यह उचित है ? संसार में सब कुछ छोड़कर एक दिन अवश्य जाना होगा। फिर इन किपाकफल के समान भोगों में क्यों आसक्त होते हो ?' राजा ने मुनि से धर्म का रहस्य जाना और समग्र वैभव से युक्त राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या स्वीकार कर ली । ३९८. बहुत वर्षों तक तपश्चरण के द्वारा सारे क्लेशों - राग-द्वेष आदि को नष्ट कर राजा ऐसे स्थान को प्राप्त हो गया, जहां जाकर किसी प्रकार का शोक नहीं करना पड़ता अर्थात् शारीरिक और मानसिक दुःखों से ग्रस्त नहीं होना पड़ता उन्नीसवां अध्ययन : मृगापुत्रीय ३९९,४००. मृगा शब्द के चार निक्षेप हैं— नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं- ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन भेद हैं- एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र । ין ४०१. मृगा के आयु, नाम, गोत्र का वेदन करने वाली भावमृगा होती है । इसी प्रकार पुत्र शब्द के भी चार निक्षेप हैं । ४०२. मृगादेवी महारानी के पुत्र बलश्री से यह अध्ययन समुत्पन्न हुआ इसलिए इसका नाम मृगापुत्रीय है । ४०३-१०. सुग्रीव नगर में बलभद्र नाम का एक राजा था । उसकी पटरानी का नाम मृगावती था । उन दोनों के बलश्री नाम का पुत्र था । वह धीमान् वज्रऋषभसंहनन वाला तथा तद्भवमुक्तिगामी था । उसे युवराज बना दिया गया। वह विकसित हृदयवाला युवराज रमणीक और १. देखें परि० ६, कथा सं० ५८ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति २२१ आनन्दमय प्रासाद में प्रमदाओं के साथ दोगुंदक देवों की भांति क्रीड़ारत रहता था। एक बार वह प्रासाद के झरोखे में बैठा-बैठा नगर के विस्तीर्ण, ऋजू तथा सम विपणि-मार्गों को देख रहा था। उस समय राजमार्ग में उसने श्रुतसागर के पारगामी, धीर-गंभीर, तप, नियम तथा संयम के धारक संयती मुनि को देखा । राजपुत्र उस मुनि को अनिमेषष्टि से देखता रहा । उसे लगा कि ऐसा रूप मैंने पहले भी कभी देखा है । ऐसा विचार करते-करते उसे संज्ञिज्ञान-जातिस्मृतिज्ञान उत्पन्न हुआ और उसे स्मृति हो आई कि पूर्वभव में मैंने भी ऐसा साधु-जीवन स्वीकार किया था । इस प्रकार बोधिलाभ प्राप्त कर वह माता-पिता के चरणों में प्रणिपात कर बोला- 'पिताजी! मैं इस गहस्थ जीवन को छोड़कर श्रमणत्व-प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूं।' ४११-१५. माता-पिता ने सोचा कि बलश्री (मृगापुत्र) अपने निर्णय के अनुसार करेगा ही तब उन्होंने कहा--पुत्र ! तुम धन्य हो, जो सुख-सामग्री की विद्यमानता में विरक्त हए हो। पूत्र ! तुम सिंह की तरह अभिनिष्क्रमण कर सिंहवत्ति से ही उसे निभाना। धर्म की कामना रखते हुए काम-भोगों से विरक्त होकर विहरण करना । वत्स ! तुम ज्ञान से, दर्शन से, चारित्र से तथा तपसंयम और नियम से, क्षांति, मुक्ति आदि से सदा वर्धमान रहना । संवेगजनित हर्ष से हर्षित और मोक्षगमन के लिये उत्कंठित बलश्री ने माता-पिता के आशीर्वादात्मक वचन को हाथ जोड़कर स्वीकार किया। परम ऐश्वयं से अभिनिष्क्रमण कर परमघोर श्रामण्य का पालन करके वह धीर पुरुष वहां गया, जहां संसार को क्षीण करने वाले जाते हैं, अर्थात् वह मोक्ष चला गया।' बीसवां अध्ययन : महानिर्ग्रन्थीय ४१६. क्षुल्लक शब्द के आठ निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, स्थान, प्रति और भाव । इन क्षुल्लकों का प्रतिपक्षी है-महत् । उसके भी आठ निक्षेप हैं । __ ४१७,४१८. निर्ग्रन्थ शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमत: के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त में निह्वव आदि आते हैं । भाव निक्षेप पांच प्रकार का है, जो निम्नांकित द्वारों से ज्ञातव्य है ४१९-२१. प्रज्ञापना, वेद, राग, कल्प, चारित्र, प्रतिसेवना, ज्ञान, तीर्थ, लिंग, शरीर, क्षेत्र, काल, गति, स्थिति, संयम, सन्निकर्ष, योग, उपयोग, कषाय, लेश्या-परिणाम, बंधन, उदय, कर्मोदीरण, उपसंपद् ज्ञान, संज्ञा, आहार, भव, आकर्ष, काल, अन्तर, समुद्घात, क्षेत्र, स्पर्शना, भाव, परिणाम इत्यादि द्वारों से निर्ग्रन्थ ज्ञातव्य हैं तथा महानिर्ग्रन्थों का अल्प-बहुत्व भी ज्ञातव्य है। ४२२. निर्ग्रन्थ वे होते हैं, जो बाह्य और आभ्यन्तर सावध ग्रन्थ से मुक्त होते हैं। यह महानिर्ग्रन्थीय अध्ययन की क्ति है। इक्कीसवां अध्ययन : समुद्रपालीय ४२३. समुद्रपाल शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य निक्षेप के दो भेद है-आगमतः, नो-आगमत । नो-आगमतः के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर १. देखें परि०६, कथा सं० ५९ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ नियुक्तिपंचक और तद्व्यतिरिक्त। ४२४. समुद्रपाल की आयु का वेदन करता हुआ भाव समुद्रपाल होता है। समुद्रपाल से समुत्थित होने के कारण इस अध्ययन का नाम समुद्रपालीय है । ४२५-३५. चंपा नगरी में पालित नाम का सार्थवाह रहता था। वह वीतराग भगवान महावीर का अनुयायी था । वह सामुद्रिक व्यापारी था। एक बार वह गणिम-सुपारी आदि तथा धरिम-स्वर्ण आदि वस्तुओं से भरे जहाज को लेकर पिहुंड नाम के नगर में पहुंचा और वहां वस्तुओं का क्रय-विक्रय करने लगा । एक वणिक ने अपनी पुत्री के साथ उसका विवाह कर दिया । वह अपनी पत्नी को लेकर स्वदेश की ओर चल पड़ा । उस वणिकपुत्री अर्थात् पालित की पत्नी ने समुद्र-मार्ग में ही एक पुत्र को जन्म दिया। वह सांग सुन्दर और मनोहारी था । उसका नाम समुद्रपाल रखा गया । वह पालित श्रावक सकुशल अपने घर पहुंचा । शिशु समुद्र पांच धायों के बीच में बड़ा होने लगा। उसने बहत्तर कलाएं सीखीं। वह न्याय-नीति में निपुण हो गया। यौवन में प्रवेश कर अत्यधिक सुन्दर दीखने लगा । उसके पिता पालित ने उसका विवाह रूपिणी नामक कन्या से कर दिया। वह स्त्रियों के चौसठ गुणों से युक्त तथा देवांगना सदश रूपवती थी। जैसे दोगन्दक देव क्रीड़ारत रहते हैं, वैसे ही समुद्रपाल अपनी पत्नी रूपिणी के साथ पंडरीक भवन में क्रीडारत रहता था। वह सदा नौकरों से घिरा रहता था। एक बार वह अपने पत्नी के साथ भवन के झरोखे में बैठा था। उसने राजमार्ग पर राजपुरुषों द्वारा एक वध्य को ले जाते देखा । उसके पीछे सैकड़ों व्यक्ति चल रहे थे। उसको देखते ही सम्यक्त्व और ज्ञान के धनी कुमार ने सांसारिक दुःखों से भयभीत होकर सोचा-हाय ! यह निकृष्ट पापकर्मों का प्रत्यक्ष फल है। संबोध प्राप्त कर कुमार समुद्रपाल अनुत्तर वैराग्य से संपृक्त हो गया। प्रख्यात यश-कीर्ति वाले उस कुमार ने मातापिता की आज्ञा लेकर अभिनिष्क्रमण कर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। ४३६. अनेक वर्षों तक तपश्चर्या द्वारा क्लेशों का क्षय करके उसने उस स्थान को प्राप्त किया, जिस स्थान को प्राप्त कर कोई शोक नहीं रहता। बावीसवां अध्ययन : रथनेमीय ४३७,४३८. रथनेमि शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन प्रकार हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन प्रकार हैं-एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र । ४३९. रथनेमि नाम, गोत्र का वेदन करने वाला भावरथनेमि होता है। उसी से समुत्थित यह अध्ययन रथनेमीय कहलाता है । ४४०-४४. शौर्यपुर नगर में समुद्रविजय नाम का राजा था । उसके सर्वांग सुन्दर शिवा नाम की महारानी थी। उनके चार पुत्र हुए-अरिष्टनेमि, रथनेमि, सत्यनेमि और दृढ़नेमि । अरिष्टनेमि बावीसवें तीर्थंकर हुए तथा रथनेमि और सत्यनेमि प्रत्येकबुद्ध हुए। रथनेमि चार सौ वर्ष गृहस्थावास में रहे। एक वर्ष छद्मस्थ पर्याय में और पांच सौ वर्ष केवली पर्याय में रहे। उनका समग्र आयुष्य ९०१ वर्ष का था। राजीमती का भी कालमान इतना ही जानना चाहिए। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययननियुक्ति तेवीसवां अध्ययन : केशि- गौतमीय ४४५,४४६. गौतम शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं—ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन भेद हैं- एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र । २२३ ४४७,४४८. गौतम नाम, गोत्र का वेदन करता हुआ भावगोतम होता है । इसी तरह केशी के भी चार निक्षेप होते हैं । गौतम और केशी के संवाद से समुत्थित इस अध्ययन को केशगौतमीय कहा गया है । ४४९-५१. शिक्षाव्रत, लिंग वेप, शत्रुपराजय, पाशावकर्तन, तंतुबन्धन- उद्धार - तृष्णाक्षय, अग्नि-निर्वापन, दुष्ट का निग्रह, पथ- परिज्ञान, महास्रोतनिवारण, संसार-पारगमन, तम का विघातन, स्थानोपसंपदा - ये केशी और गौतम के बारह चर्चनीय विषय थे । चौबीसवां अध्ययन : प्रवचनमाता ४५२, ४५३. प्रवचन शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं - आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं- ज्ञशरीर, भव्यशरीर तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त में कुतीर्थिक आदि का ग्रहण होता है । भावप्रवचन में द्वादशांग का समावेश है । इसे गणिपिटक भी कहा जाता है I ४५४-५६, मातृ शब्द के चार निक्षेप हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद -आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त । द्रव्यमात है— भाजन में द्रव्य अर्थात् मोदक आदि । समितियां आदि को भावमात कहा जाता है । इनमें द्वादशांग रूप प्रवचन समाविष्ट है इसलिए इस अध्ययन का नाम प्रवचनमाता है । पच्चीसवां अध्ययन : यज्ञीय ४५७-५९. यज्ञ शब्द के चार निक्षेप हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमत: के तीन भेद हैं- ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त में ब्राह्मण आदि के यज्ञ आते हैं । तप, संयम का अनुष्ठान और आदर करना भावयज्ञ है । विजयघोष की यज्ञक्रिया में जयघोष अनगार आए । यज्ञ से समुत्थित होने के कारण इस अध्ययन का नाम 'यज्ञीय' हो गया । ४६०, ४६१. वाराणसी नगरी में काश्यपगोत्रीय दो विप्र थे । उनके पास धन और स्वर्ण का विपुल कोष था । वे षट्कर्मरत थे और चारों वेदों के ज्ञाता थे । उन दोनों जुड़वां भाइयों में परस्पर बाह्य प्रीति और आंतरिक अनुरक्ति थी। एक का नाम जयघोष और दूसरे का नाम विजयघोष था । वे आगमकुशल और स्वदाररत थे । ४६२-६७. एक दिन जयघोष गंगानदी पर स्नान करने गया। वहां उसने देखा कि सर्प मेंढक को निगल रहा है और सर्प को कुरर पक्षी ने पकड़ रखा है। सर्प को भूमि पर गिराकर उस पर Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ नियुक्तिपंचक आक्रमण कर उसे स्तंभित कर दिया है । कुरर पक्षी के वशीभूत वह सर्प 'चींची' करते हए मेंढक को खाने का प्रयत्न कर रहा है और वह कुरर पक्षी रौद्र रूप से सर्प का खण्ड-खण्ड कर खाए जा । रहा है। कूरर, सर्प और मंडक के परस्पर घात-प्रत्याघात को देखकर जयघोष प्रतिबुद्ध हआ। गंगा को पारकर श्रमणों के निवास-स्थान पर आया और करुणा से ओतःप्रोत होकर वह बाह्य तथा आभ्यन्तर ग्रन्थियों से मुक्त होकर, असार केशों के साथ-साथ समस्त क्लेशों का परित्याग कर, प्रवजित हो गया, निर्ग्रन्थ बन गया। वह पांच महाव्रतों से युक्त, पांच इन्द्रियों से संवत, संयम गुणों से संपन्न, पापों का शमन करने वाला तथा संयमयोगों में चेष्टा करने वाला तथा उन्ही में यतनाशील रहकर प्रवर श्रमण बन गया । ४६८-७६. जयघोष मुनि एकरात्रिकी प्रतिमा को स्वीकार कर, विहार करते-करते वाराणसी नगरी पहुंचे। वहां एक उद्यान में ठहरे । मासखमण की दीर्घ तपस्या के कारण उनका शरीर क्षीण हो गया था । वे भिक्षा के लिए ब्राह्मणों के यज्ञवाट में उपस्थित हुए। विजयघोष ने जयघोष से कहा-भंते ! आप यहां क्यों आएं हैं ? हम आपको यहां कुछ नहीं देंगे । आप अन्यत्र जाकर भिक्षा मांगें । याजक के द्वारा यज्ञवाट में जाने से रोकने पर भी परमार्थ का सार वाले मुनि न संतुष्ट हुए न रुष्ट हुए। मुनि ने याजक से कहा--'आयुष्यमान् ! सुनो, साधु के आचार में व्रतचर्या और भिक्षाचर्या निर्दिष्ट है । जो व्यक्ति राज्य और राज्यश्री को छोड़कर प्रवजित होते हैं, वे भी भिक्षाचर्या का अनुसरण करते हैं क्योंकि निस्संग श्रमण के लिए भिक्षाचर्या चरण-करण का हेतुभूत तत्त्व है।' इन सब तथ्यों को समझकर याजक विजयघोष ने जयघोष से कहा-'भगवन् ! हमारे यहां बहुत भोजन सामग्री है । आप कृपा करके भिक्षा लें।' जयघोष ने कहा-'मुझे अभी भिक्षा से प्रयोजन नहीं है। मुझे धर्माचरण से ही मतलब है। तुम धर्माचरण कर तथा संसार-भ्रमण की परम्परा का अन्त करो।' जयघोष मुनि का धर्मोपदेश सुनकर विजयघोष भी प्रजित हो गया। जयघोष और विजयघोष-दोनों ही कर्मों को क्षीण कर सिद्धिगति को प्राप्त हो गए । छब्बीसवां अध्ययन : सामाचारी ४७७,४७८. साम शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य निक्षेप के दो भेद हैं --आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तदव्यतिरिक्त । तदव्यतिरिक्त में शर्करा आदि द्रव्य साम हैं। भावसाम में इच्छा, मिच्छा आदि दस प्रकार गिनाए गए हैं। ४७८।१,२. इच्छाकार, मिच्छाकार, तथाकार, आवश्यकी, नषेधिकी, आपच्छना, छंदना, उपसंपदा, निमंत्रणा-ये दस प्रकार की सामाचारियां हैं, जो यथाकाल की जाती हैं। इन सबकी पृथक्-पृथक् प्ररूपणा की जाएगी। ४७९.४८०. आचार शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमत:। नो-आगमतः के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त आचार में नामन आदि क्रियाएं आती हैं। भाव-आचार में दसविध सामाचारी का आचरण प्राप्त है। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययननिर्मुक्ति २२५ ४८१. प्रस्तुत अध्ययन में इच्छा आदि साम का आचरण वर्णित है, इसलिए इसका नाम सामाचारी अध्ययन है । सत्तावीसवां अध्ययन : खलुंकीय ४८२,४८३, खलुंक शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद है— आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमत के तीन भेद हैं- ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त खलंक में बैल, अश्व आदि हैं। यह द्रव्य खलुंकता है । समग्र पदार्थों में जो प्रतिकूलता है, वह भाव खलुंकता है । ४८४. द्रव्य खलुंक बेल के अनेक प्रकार हैं--- (१) अवदारी बैल गाड़ी को तोड़नेवाला अथवा अपने स्वामी को मार डालने वाला । (२) उत्रसक बैल - यत्किंचित् देखकर चौंकने वाला । (३) योत्रयुगभञ्जक - जोती और जुआ को तोड़ने वाला । (४) तोत्र भञ्जक – चाबुक आदि को तोड़ने वाला । (५) उत्पथ - विपथगामी - उन्मार्ग और विपथ में जाने वाला । ४८५, ४८६. जिस द्रव्य में 'कुब्जता, कर्कशता, भारीपन, दुःखनामिता (अकड़न ) आदि होते हैं, यह द्रव्य की खलुंकता है। इसी तरह वक्र, कुटिल और गांठों से व्याप्त पदार्थ भी खलुंकता में आते जैसेहैं । कुछ पदार्थ चिरकाल से वक्र ही होते हैं और कुछ पदार्थों को वक्र किया जाता है । करमर्दी (एक प्रकार का गुल्म) का काष्ठ, हाथी का अंकुश और वृन्त । कुछ पदार्थ सरल रूप में अनुपयोगी होते हैं, उन्हें कुटिल बनाया जाता है । ४८७-८९. कुछ शिष्य दंश-मशक, जलौका तथा बिच्छू के समान होते हैं । वे भाव खलुंक हैं । तीक्ष्ण-- असहिष्णु, मृदु-कार्य करने में अलस, चंड- क्रुद्ध, मार्दविक - अत्यन्त आलसी, गुरु के प्रत्यनीक, शबल दोष लगाने वाले, असमाधि पैदा करने वाले, पापाचरण करने वाले, कलहकारी ये सारे जिनशासन में खलुंक कहे जाते हैं । जो पिशुन, परपीड़ाकारी, गुप्त रहस्यों का उद्घाटन करने वाले हैं, दूसरों का परिभव करने वाले हैं, जो व्रत एवं शील से रहित हैं तथा शठ हैं - वे भी जिनशासन में खलुंक माने जाते हैं । ४९०. इसलिए खलुंकभाव को छोड़कर पंडितपुरुष ऋजुभाव में स्वयं को नियोजित करे । अट्ठाईसवां अध्ययन : मोक्षमार्गगति ४९१.४९२. मोक्ष शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं- आगमतः, नो-आगमतः । नो- आगमतः के तीन भेद हैं- ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त में कारागृह, बेड़ी तथा श्रृंखला आदि से मुक्त होना द्रव्यमोक्ष है । आठ प्रकार के कर्मों से मुक्त होना भावमोक्ष है । ४९३,४९४. मार्ग शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य निक्षेप के दो भेद हैं- आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं- शशरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ निर्युक्तिपंचक तदव्यतिरिक्त मार्ग में जलमार्ग, स्थलमार्ग आदि प्राप्त हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ये भाव मार्ग हैं | - ४९४४९६. गति शब्द के चार निक्षेप है--नाम, स्थापना, द्रश्य और भाव द्रव्य के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमत नो आगमतः के तीन भेद हैं ज्ञशरीर भव्यशरीर तद्व्यतिरिक्त तद्व्यतिरिक्त में पुद्गलगति का समावेश होता है। भाव गति के पांच प्रकार हैं- नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, देवगति और मोक्षगति सिद्धिगति । यहां मोक्षगति का अधिकार है, इसलिए उसी का विस्तार है । ४९७. इस अध्ययन में मोक्ष, मार्ग और गति का वर्णन है इसलिए इस अध्ययन का नाम मोक्षमार्गगति जानना चाहिए । उनतीसवां अध्ययन : सम्यक्त्व-पराक्रम ४९८-५००. आदानपद के आधार पर इस अध्ययन का नाम सम्यक्त्व - पराश्रम है । इसका गौण नाम है— अप्रमाद । इसको वीतरागश्रुत भी कहा जाता है । अप्रमाद शब्द के चार निक्षेप हैं --- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव द्रव्य के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमत के तीन भेद हैं-शरीर भव्यशरीर तद्व्यतिरिक्त तद्व्यतिरिक्त अप्रमाद उसे कहते हैं, जो शत्रुजनों के प्रति बरता जाता है । अज्ञान और असंवर आदि में अप्रमाद रखना भावअप्रमाद है । ५०१५०२. श्रुत शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव द्रव्य के दो भेद हैं - आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन प्रकार हैं- ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त सूत्र पांच प्रकार का है १. अंडजहंस आदि के अंडों से उत्पन्न सूत्र । २. बोंडज - कपास का सूत्र । ३. बालज भेड़ आदि के ऊन का सूत्र । ४. बल्कज ( वाकज) - सन का सूत्र । ५. कीट कीट की लाला से उत्पन्न सूत्र पट्टसूत्र । - ५०३, ५०४, भावश्रुत के दो प्रकार है-सभ्यश्रुत, मिथ्याश्रुत इस अध्ययन में ५०३,५०४. । सम्यक्त का अधिकार है । इसमें सम्यक् श्रुत और अप्रमाद का वर्णन किया हुआ है, इसलिए इसका नाम अप्रमादत है । तीसवां अध्ययन : तपोमागंगति । । ५०५, ५०६. तप शब्द के चार निक्षेप हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव द्रव्य के दो भेद हैं - आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं-शशरीर, भव्यशरीर तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त तप में पंचाग्नि आदि तप आते हैं। भाव तप दो प्रकार का है- बाह्य और आभ्यन्तर । , ५०७,५०८. मार्ग और गति शब्द के भी बार-चार निक्षेप हैं, जो पूर्व निर्दिष्ट हैं । प्रस्तुत प्रसंग में भावमार्ग - सिद्धिगति को जानना चाहिए । इस अध्ययन में दो प्रकार के तप तथा मार्ग और गति का वर्णन है इसलिए इस अध्ययन का नाम तपोमागंगति है । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति २२७ इकतीसवां अध्ययन : चरण-विधि ५०९,५१०. चरण शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य चरण के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त चरण में भिक्षा आदि की गति अर्थात् भक्षण लिया गया है । आचार को क्रियान्वित करना भावचरण है । ५११,५१२. विधि शब्द के चार निक्षेप हैं -नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य विधि के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तव्यतिरिक्त । तदव्यतिरिक्त विधि में इन्द्रियों की विषयचारिता ज्ञातव्य है । भाव विधि दो प्रकार की है-संयमोपयोग और तपोयोग। ५१३. प्रस्तुत अध्ययन में भाव चरण और भाव विधि का प्रसंग है। अतः अचरणविधि को छोड़कर चरणविधि में उद्यम करना चाहिए। बत्तीसवां अध्ययन : प्रमाद-स्थान ५१४,५१५. प्रमाद के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। द्रव्य प्रमाद के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः। नो-आगमतः के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर. तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त प्रमाद मथ आदि जनित है। भाव प्रमाद है-निद्रा, विकथा, कषाय और विषय । ५१६. स्थान शब्द के चौदह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, अद्धा, ऊर्च, उपरति, वसति, संयम, प्रग्रह, योध, अचल, गणना और संधना। ५१७. यहां भावप्रमाद और संख्या युक्त भावस्थान का अधिकार है अतः प्रमाद को छोड़कर अप्रमाद में प्रयत्न करना चाहिए। ५१८. हजार वर्ष तक उग्रतप तपने वाले आदिनाथ ऋषभ का संकलित प्रमादकाल अर्थात् समस्त प्रमादकाल एक अहोरात्र का था। ५१९. बारह वर्ष से अधिक उग्र तप तपने वाले चरम तीर्थंकर महावीर का संकलित प्रमादकाल अन्तर्मुहूर्त का है। ५२०. धर्म के प्रयोजन से शून्य जिनका काल निरर्थक बीतता है, वे प्राणी प्रमाद के दोष से अनन्तकाल तक संसार में चक्कर लगाते हैं। ५२१. इसलिए पंडित पुरुष को प्रमाद छोड़कर ज्ञान, दर्शन, चारित्र में अप्रमाद करना चाहिए। तेतीसवां अध्ययन : कर्मप्रकृति ५२२,५२३. कर्म शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य मिक्षेप के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः। नो-आगमतः के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त। तद्व्यतिरिक्त के दो भेद हैं-कर्म, नोकर्म । कर्म में कर्म की अनुदयावस्था गृहीत है। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ नियुक्तिपंचक ५२४. नोकर्म का अर्थ है द्रव्यकर्म । वह लेप्यकर्म, काष्ठकर्म आदि के रूप में गहीत है। आठों ही कर्मों के उदय को भावकर्म कहते हैं । ५२५,५२६. प्रकृति के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमत: । नो-आगमत: के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्य शरीर, तव्यतिरिक्त । तदव्यतिरिक्त के दो भेद हैं-कर्म और नोकर्म । यहां कर्म को अनुदय रूप माना है। यह द्रव्य प्रकृति है। ५२७. नोकर्म द्रव्य में ग्रहणप्रायोग्य कर्म तथा मुक्तकर्म गृहीत हैं। भाव में मूल और उत्तर प्रकृतियों का उदय प्राप्त है। ५२८. प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश---कों की इन अवस्थाओं को भली प्रकार से जानकर सदा इनके संवर और क्षपण के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए । चौतीसवां अध्ययन : लेश्या अध्ययन ५२९-३१. लेश्या शब्द के चार निक्षेप हैं .-- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। द्रव्य के दो भेद हैं --आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं -- ज्ञशरीर, भव्य शरीर, तव्यतिरिक्त। तद्व्यतिरिक्त के दो भेद हैं-कर्मले श्या, नोकर्मलेश्या। नोकर्म लेश्या के दो भेद हैं-जीवलेश्या, अजीवलेश्या । जीवलेश्या के दो प्रकार हैं-भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक । दोनों के सात-सात प्रकार हैं । (कृष्ण आदि छह लेश्याएं तथा सातवीं लेश्या है संयोगजा।) ५३२,५३३. अजीव लेश्या के दो भेद हैं-कर्मलेश्या, नोकर्मलेश्या। नोकर्म द्रव्यलेश्या के दस प्रकार हैं-चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा, आभरण, आच्छादन, आदर्शक- दर्पण, मणि और काकिणी-चक्रवर्ती के रत्नविशेष की प्रभा। यह दश प्रकार की अजीव द्रव्यलेश्या है। ५३४. द्रव्यकर्म-लेश्या के छह प्रकार हैं-कृष्ण, नील, कापोत, तेजः, पद्म और शुक्ल । ५३५. भावलेश्या के दो प्रकार हैं विशुद्ध और अविशुद्ध । विशुद्ध भावलेश्या के दो भेद हैंउपशान्त कषाय और क्षीण कषाय । ५३६. अविशुद्ध भावलेश्या के नियमित दो भेद हैं-राग और द्वेष । यहां कर्मलेश्या का अधिकार है। ५३७. नोकर्मलेश्या के दो भेद हैं--प्रायोगिक और वैससिक । जीव के छहों लेश्याओं के उदय को भावलेश्या कहते हैं। ५३८,५३९. अध्ययन शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं - आगमत:, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तदव्यतिरिक्त। तदव्यतिरिक्त अध्ययन में पुस्तकें आदि गृहीत हैं। अध्यात्म का आनयन भाव अध्ययम है। ५४०. इन लेश्याओं का शुभ-अशुभ परिणाम जानकर अप्रशस्त को छोड़कर प्रशस्त लेश्याओं में प्रयत्नशील रहना चाहिए। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति पैतीसवां अध्ययन : अनगार-मार्ग-गति ५४१-४३. अनगार शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त अनगार में निहव आदि का ग्रहण होता है। भाव अनगार वह होता है, जो सम्यकदष्टि और अगारवास से मुक्त होता है। मार्ग और गति शब्द के भी चार-चार निक्षेप हैं, जो पूर्व निर्दिष्ट हैं । प्रस्तुत में भावमार्ग और सिद्धगति का प्रसंग है। छत्तीसवां अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति ५४४,५४५. जीव शब्द के चार निक्षेप हैं--नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। द्रव्य जीव के दो भेद हैं -- आगमतः, नो-आगमत: । नो-आगमत: के तीन भेद हैं--ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त जीवद्रव्य है । जीवद्रव्य के दस प्रकार के परिणाम भावजीव हैं। ५४६.५४७. अजीब शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं--आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमत: के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त अजीवद्रव्य है । अजीव के दस प्रकार के परिणाम भाव-अजीव हैं। ५४८-५०. विभक्ति शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं-आगमत:, नो-आगमतः। नो-आगमत: के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के दो भेद हैं- जीव विभक्ति और अजीव विभक्ति । जीव विभक्ति के दो भेद हैं --सिद्ध विभक्ति, असिद्ध विभक्ति । अजीव द्रव्य विभक्ति के भी दो भेद हैं-रूपी द्रव्य विभक्ति, अरूपी द्रव्य विभक्ति । ५५१. भाव विभक्ति में छह प्रकार के भाव ज्ञातव्य हैं। प्रस्तुत अध्ययन में द्रव्य विभक्ति का अधिकार है। ५५२,५५३. जो जीव भवसिद्धि क हैं, परीत संसारी हैं और भव्य हैं, वे धीर मुनि इन छत्तीस उत्तर अध्ययनों का अध्ययन करते हैं। जो मुनि अभवसिद्धिक हैं, ग्रंथियों में आसक्त हैं, अनन्त संसारी हैं, वे संक्लिष्टकर्मा व्यक्ति उत्तराध्ययनों के अध्ययन के लिए अयोग्य हैं। ५५४. इसलिए जिनेश्वर द्वारा प्रज्ञप्त अनन्त अर्थों और पर्यवों से युक्त इन उत्तराध्ययनों का गुरुकृपा से यथायोग-विधियुक्त अध्ययन करना चाहिए। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचारांग निर्युक्ति Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम - ३०. m * ४१. ४२. *2 मंगलाचरण एवं आचारांग निर्यक्ति के कथन २९. की प्रतिज्ञा। आचार, अंग, श्रतस्कंध आदि के निक्षेपों की ३१,३२. प्रतिज्ञा । ३३,३४. चरण और दिशा शब्द के निक्षेप का संकेत।। निक्षेप के उपयोग की विधि । भावाचार के निरूपण की प्रतिज्ञा। ३७. आचार शब्द के एकार्थक, प्रवर्तन आदि सात द्वारों के कथन की प्रतिज्ञा । ४०. आचार शब्द के एकार्थक । आचारांग का रचनाकाल । आचारांग की विषयवस्तु । ४३. आचारधर प्रथम गणिस्थान (गणिसंपदा)। ४४,४५. ११. आचारांग का बाह्य परिचय । ४६. पहला अध्ययन : शस्त्रपरिज्ञा ४७,४८. १२. आचारांग (चूलिका) का आचारांग या शस्त्रपरिज्ञा में समवतरण । ४९,५०. १३. शस्त्रपरिज्ञा तथा षट्जीवनिकाय का ५१-५८. समवतरण । १४,१५ महावतों का समवतरण । ६०. १६,१७ अंग आदि के सार के विषय में जिज्ञासा एवं ६१. समाधान। ६२. १८. ब्राह्मण आदि वर्णों की उत्पत्ति । मनुष्य जाति की एकता तथा वर्णों की ६३. उत्पत्ति का इतिहास । २०. स्थापना ब्रह्म की संख्या का उल्लेख । सात वर्णों का उल्लेख । २२-२५. अंबष्ठ आदि नौ वर्णान्तर जातियों का ६७. वर्णन। २६,२७. वर्णान्तरों के संयोग से होने वाली उत्पत्ति । २८. द्रव्य और भाव ब्रह्म का स्वरूप । चरण शब्द के निक्षेप । भावचरण के प्रकार । आचारांग के अध्ययनों के नाम । अध्ययनों की विषयवस्तु । शस्त्रपरिज्ञा के अधिकार । द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र का स्वरूप। द्रव्यपरिज्ञा और भावपरिज्ञा का स्वरूप । द्रव्यसंज्ञा और भावसंज्ञा के भेद । संज्ञाओं के सोलह भेद । दिशा शब्द के निक्षेप । द्रव्यदिशा का स्वरूप । दिशा तथा अनुदिशाओं का उत्पत्तिस्थल । दिशाओं के नाम। दिशाओं का निरूपण । दिशाओं का संस्थान (आकृति) । पूर्व-पश्चिम आदि चार ताप दिशाओं का वर्णन। मेरुपर्वत के साथ दिशाओं का सम्बन्ध । प्रज्ञापकदिशा के १८ भेद तथा नाम । प्रज्ञापकदिशाओं के संस्थान । भावदिशा के भेद। दिशाओं की कुल संख्या । प्रज्ञापकदिशा में ही जीव और पुदगल की गति। अस्तित्व-बोध के कुछ प्रश्न । अन्तरप्रज्ञा अथवा अतीन्द्रियज्ञानी द्वारा जातिस्मृति अथवा विशिष्ट ज्ञान की उपलब्धि । अस्तित्व-बोध के अन्य साधन । पृथ्वीकाय के निक्षेप, प्ररूपणा आदि नौ अधिकार । पृथ्वी शब्द के निक्षेप । ५९. १९. २१ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ नियुक्तिपंचक ८४. ~ ८६. - ~ ७०. द्रव्यपृथ्वी और भावपृथ्वी का स्वरूप । १०४. यथार्थ-बोध द्वारा पृथ्वीकाय की हिंसा से ७१. पृथ्वीकाय के भेद। विरति । ७२. बादरपृथ्वी के श्लक्ष्ण और खर आदि दो १०५. अणगार की विशेषताएं । भेद । अपकाय के द्वार। ७३-७६. खर पृथ्वी के छत्तीस भेदों का नामोल्लेख । १०७. अप्काय जीवों के भेद । ७७,७८. वर्ण, गंध आदि के द्वारा पथ्वीकाय के १०८. बादर अपकाय के पांच भेद । अनेक भेद । अपकाय जीवों का परिमाण । सूक्ष्म और बादर पृथ्वीकाय के पर्याप्त और ११०. हाथी की उपमा द्वारा अपकाय में जीवत्वअपर्याप्त भेद । सिद्धि । ८०,८१. वक्ष और औषधि आदि के उदाहरण से अपकाय के उपभोग के प्रकार । पृथ्वीकाय के नानात्व का निरूपण । ११२. उपभोग के कारणों से अपकाय की हिंसा। ८२. पृथ्वीकाय जीवों की सूक्ष्मता का निरूपण । ११३. अप्काय जीवों के शस्त्र । सूक्ष्म पृथ्वीकाय के अस्तित्व को जिन-आज्ञा ११४. द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र । से स्वीकृत करने का उल्लेख । ११५. पृथ्वीकाय की भांति अन्य द्वारों के विवेचन का कथन । पृथ्वीकाय के लक्षण । तैजसकाय के द्वारों का निर्देश । ८५. पृथ्वीकाय में जीवत्व-सिद्धि का उदाहरण । ११७. तंजसकाय जीवों के भेद । पृथ्वीकाय जीवों का परिमाण। ११८. बादर तैजसकाय के पांच भेद । ८७,८८. उदाहरण द्वारा परिमाण का निर्देश । उपमा द्वारा तैजसकाय में जीवत्व-सिद्धि । ८९,९०. क्षेत्र और काल की दृष्टि से पृथ्वीकाय का १२०. तैजसकाय जीवों का परिमाण । परिमाण। १२१. तैजसकाय जीवों के उपभोग के प्रकार । ९१. पृथ्वीकाय का अवगाहन । १२२. उक्त उपभोग के कारणों से तैजसकाय की ९२,९३. पृथ्वीकाय का उपभोग कितने प्रकार से ? हिंसा । उपर्युक्त उपभोग के कारणों से पृथ्वीकाय की १२३,१२४. तैजसकाय जीवों के शस्त्र । हिंसा का निर्देश । पृथ्वीकाय की भांति अन्य द्वारों के कथन पृथ्वीकाय के शस्त्र । का निर्देश। स्वकायशस्त्र, परकायशस्त्र और भावशस्त्र १२६. पृथ्वीकाय की भांति वनस्पतिकाय के द्वारों का निरूपण। के कथन का निर्देश । ९७,९८. उदाहरण द्वारा पृथ्वीकाय की वेदना का १२७-३०. वनस्पतिकाय के भेद-प्रभेद । निरूपण। १३१-३३. प्रत्येक वनस्पति का दृष्टांत द्वारा लक्षण कथन । पथ्वीकाय का वध करने वाला अणगार १३४. प्रत्येक वनस्पति जीवों का परिमाण । नहीं। १३५. आज्ञा द्वारा इन जीवों के अस्तित्व की १००. हिंसा करने वाले अणगार के दोष । स्वीकृति । १०१. कृत, कारित, अनुमोदन द्वारा पृथ्वीकाय का १३६-४०. साधारण वनस्पति के लक्षण । वध । १४१. अनन्तकाय जीवों के भेद । . १०२,१०३. पृथ्वीकाय के वध से तन्निश्रित अनेक जीवों १४२. प्रत्येक वनस्पति की सूक्ष्मता का निर्देश । की हिंसा। १४३. निगोद के जीवों की सूक्ष्मता का निर्देश । १२५. Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति २३५ १८४. १९०. १६४.. १४. सूक्ष्म अनन्तकाय वनस्पति का प्रस्थ के १८३. मूल शब्द का छह प्रकार से निक्षेप । दृष्टांत द्वारा परिमाण-निर्देश । भावमूल के प्रकारों का निर्देश । १४५. बादर निगोद के परिमाण का निर्देश । १८५. स्थान शब्द के पन्द्रह प्रकार से निक्षेप । १४६,१४७. वनस्पति के उपभोग के प्रकार । १८६. पंच इन्द्रिय-विषयों में राग-द्वेष से संसार की १४८. उक्त उपभोग के कारणों से वनस्पति की वृद्धि। हिंसा। १८७. वृक्ष की उपमा से संसार के मूल का १४९,१५०. वनस्पतिकाय के शस्त्र । निर्देश । १५१. पृथ्वीकाय की भांति अन्य द्वारों के निर्देश १८८. अष्ट कर्मों का मूल मोहनीय कर्म, उसका का कथन । मूल काम तथा काम का मूल संसार । १५२. त्रसकाय के द्वारों का निर्देश । १८९. मोह के भेद । १५३-५५. सकाय के भेद-प्रभेद । संसार का मूल कर्म, कषाय, स्वजन आदि । १५६,१५७. सकाय के लक्षण । १९१. कषाय शब्द के निक्षेप । १५८,१५९. प्रसकाय जीवों का परिमाण । १९२ संसार शब्द के निक्षेप । १६०-६२. प्रसकाय की वेदना, उपभोग तथा हिंसा के १९३,१९४. कर्म शब्द के निक्षेप तथा भेद । कारणों का निर्देश । १९५,१९६. संसार से मुक्ति के लिए कर्म, कषाय तथा १६३. पृथ्वीकाय की भांति ही अन्य द्वारों के कथन । स्वजनों से मोह के परित्याग का निर्देश । का निर्देश । १९७. संयम में अरति का मूल कारण-अध्यात्मवायुकाय के द्वारों का कथन । दोष । १६५. वायुकाय के भेद । तीसरा अध्ययन : शीतोष्णीय १६६. बादर वायुकाय के पांच भेद । १६७. उपमा द्वारा वायू में जीव के अस्तित्व की १९८,१९९. शीतोष्णीय अध्ययन के उद्देशकों की विषय सिद्धि । वस्तु का संक्षेप में कथन । १६८. वायुकाय का परिमाण । २००. शीत और उष्ण शब्द के निक्षेपों का कथन । १६९. वायुकाय के उपभोग के प्रकार । २०१. द्रव्य और भाव शीत तथा उष्ण का कथन । १७०,१७१. वायुकाय के शस्त्र । २०२,२०३. उष्ण परीषह तथा शीत परीषह के भेद । १७२. पृथ्वीकाय की भांति अन्य द्वारों के कथन २०४. उष्ण तथा शीत परीषह का स्वरूप । का निर्देश। २०५. शीत और उष्ण की दृष्टि से प्रमाद की व्याख्या। दूसरा अध्ययन : लोकविजय २०६. उपशांत शब्द के एकार्थक । १७३. लोकविजय अध्ययन के उद्देशकों की विषय- २०७. संयम सीतघर के समान तथा असंयम वस्तु का निर्देश। उष्ण । १७४. लोक, विजय, गुण, मूल तथा स्थान आदि २०८. निर्वाण-सुख के एकार्थक । शब्दों के निक्षेप की प्रतिज्ञा। २०९. तीव्र कषाय का फल । १७५. द्वितीय अध्ययन के नाम का निर्देश । २१०. द्रव्य और भाव परीषह-कथन का १७६,१७७. लोक शब्द के निक्षेप । अभिप्राय । १७८. भावलोक के विजय का फल । २११. शीत और उष्ण परीषह-सहन करने तथा १७९. गुण शब्द का पंद्रह प्रकार से निक्षेप । काम का सेवन न करने का निर्देश । १८०-८२. द्रव्यगुण, क्षेत्रगुण आदि की व्याख्या। २१२. ज्ञानी और अज्ञानी की पहचान । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक २१३. सुप्त एवं मत्त व्यक्ति के दुःख का निर्देश । २४७,२४८. क्षेत्रचार, भावचार आदि का स्वरूप । २१४. जागृत एवं विवेकी व्यक्ति की दुःख से मुक्ति। २४९. मुनि के आचार का निर्देश । चौथा अध्ययन : सम्यक्त्व छठा अध्ययन : धुत २१५,२१६. सम्यक्त्व अध्ययन के उद्देशकों के विषयों . २५०,२५१. धुत अध्ययन के उद्देशकों की विषय-वस्तु का संक्षेप में संकेत । । २१७. सम्यक् शब्द के निक्षेप। का संक्षिप्त कथन । २१८. २५२. द्रव्य सम्यक् का स्वरूप । भावधुत का स्वरूप । २१९. भाव सम्यक के भेद । सातवां अध्ययन : महापरिज्ञा २२०,२२१. धार्मिक क्रिया करते हए भी मिथ्यादष्टि की। २५३-६३. महापरिज्ञा अध्ययन के विषयों का निर्देश । सिद्धि संभव नहीं। २६४. पाहण्ण और परिमाण शब्द के निक्षेप का २२२. सम्यग्दर्शन की महत्ता । कथन। २२३,२२४. गुणस्थानों का क्रमारोह । २६५. प्रधान शब्द के निक्षेप तथा अर्थ-कथन । २२५. श्रमण के लिए माया न करने का निर्देश ।। महद् शब्द के निक्षेप तथा अर्थ-कथन । २२६. तीर्थंकरों द्वारा तीनों कालों में अहिंसा के उपदेश का कथन । २६७,२६८. परिज्ञा शब्द के निक्षेप तथा उनका स्वरूप । २२७. षटकाय जीवों की सर्वथा हिंसा न करने का २६९. महापरिज्ञा की स्पष्टता । उपदेश । २७०. देवी, मानुषी तथा तिर्यञ्च स्त्री का सर्वथा . २२८-३२. रोहगुप्त की कथा का संकेत । त्याग। २३३.२३४. कर्मबंधन में मिट्टी के दो गोलकों का आठवां अध्ययन : विमोक्ष दृष्टांत । २३५. कर्मक्षय करने में शुष्क काष्ठ की उपमा। २७१-७५. विमोक्ष अध्ययन के उद्देशकों के विषयों का संक्षेप में निर्देश। पांचवां अध्ययन : लोकसार विमोक्ष शब्द के छह प्रकार से निक्षेप । २३६-३८. लोकसार अध्ययन के उद्देशकों के विषयों का २७७,२७८. द्रव्यविमोक्ष तथा भावविमोक्ष के भेद । संक्षिप्त कथन। २७९,२८०. बंध तथा मोक्ष का स्वरूप । २३९. प्रस्तुत अध्ययन के नाम का कारण तथा लोक २८१. भाव विमोक्ष की परिभाषा । और सार शब्द के निक्षेप । २८२. समाधि-मरण मरने का निर्देश । २४०. द्रव्यसार की व्याख्या। २८३. सपराक्रम मरण में आर्यवज्र का २४१. भावसार का स्वरूप । उदाहरण। २४२. लोक में ज्ञान , दर्शन चारित्र ही सार । २८४. अपराक्रम मरण में उदधि आचार्य का २४३. शंका छोड़कर सारपद -ज्ञान-दर्शन स्वीकार उदाहरण । करने का संकेत । २८५ व्याघातिम मरण में तोसलि आचार्य का २४४. लोक आदि का सार क्या है ? उदाहरण। २४५. लोक का सार धर्म, धर्म का सार ज्ञान, २८६. अव्याघातिम मरण का प्रतिपादन । ज्ञान का सार संयम तथा संयम का सार २८७. द्रव्य संलेखना में कथा का निर्देश । है-निर्वाण । २८८-९१. संलेखना के क्रम का निर्देश । चार, चर्या शब्द के एकार्थक तथा निक्षेप। २९२. तपःकर्म पंडित के विषय में जिज्ञासा । २४६. Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग निर्यक्ति २३७ ३२४. २९३. धीरे-धीरे सम्पूर्ण आहार के त्याग का ३२०. शय्या, ईर्या, अवग्रह, पिंड, भाषा और पात्र निर्देश । के निक्षेप का निर्देश। २९४. देश विमोक्ष का स्वरूप । ३२१. शय्या के निक्षेप तथा संयती के योग्य शय्या नौवां अध्ययन : उपधानश्रुत के विषय में जिज्ञासा। ३२२,३२३. द्रव्य शय्या के भेद तथा वल्गूमती का २९५. तीर्थंकरों द्वारा अपने तीर्थ में उपधानश्रुत उदाहरण । अध्ययन में तपस्या का उपदेश ।। भावशय्या के भेद । अन्य तीर्थंकरों का निरुपसर्ग तथा महावीर । ३२५. बचन-विशोधि के कारणों के कथन की का सोपसर्ग/कष्टबहल तपःकर्म का निर्देश । प्रतिज्ञा । २९७. तीर्थकरों का तप में उद्यम । ३२६,३२७ शय्यैषणा अध्ययन के उद्देशकों की विषय २९८. दुःखबहुल मानव जीवन में तप का महत्त्व । वस्तु का निर्देश। २९९. उपधान श्रुत के उद्देशकों की विषय-वस्तु ३२८. ईर्या शब्द के छह प्रकार से निक्षेप । का कथन । ३२९. द्रव्य ईर्या के भेद । ३००. उपधान तथा श्रुत शब्द के निक्षेप । ३३०. भाव ईर्या के भेद। ३०१. द्रव्य उपधान तथा भाव उपधान का स्वरूप।। ३३१.३३२. ईया की शुद्धि के प्रकार । ३०२. भाव उपधान के विषय में मलिन वस्त्र की ३३३-३५. ईयषणा अध्ययन के उद्देशकों की विषय वस्तु उपमा । का निर्देश। ३०३. ओधुणण शब्द के एकार्थक । भाषा शब्द के निक्षेप तथा दशकालिक की ३०४. महावीर के पथ पर चलने से सिद्धि-प्राप्ति वाक्य-शुद्धि नियुक्ति की भांति इसकी का निर्देश । नियुक्ति करने का निर्देश। द्वितीय श्रतस्कंध : आचारचूला ३३७. भाषाजात अध्ययन के उद्देशकों की विषय वस्तु का वर्णन । ३०५,३०६. द्रव्य और भाव अग्र का स्वरूप । ३३८. वस्त्रषणा अध्ययन के उद्देशकों की विषय३०७. आचाराग्र/आचारचूला के निर्दृहण का वस्तु का निर्देश तथा पात्र के निक्षेप। उद्देश्य । ३३९-४२. अवग्रह शब्द के निधोप तथा अवग्रह के भेद३०८,३०९. आचारचुला के उद्देशकों की विषय वस्तु का प्रभेद । कथन । ३१०,३११. अध्ययनों के निर्यहण-स्थल का निर्देश । दूसरी चूला : सप्तसप्तिका ३१२-१४. एकविध संयम का विस्तार कैसे ? ३४३. द्वितीय चला के अध्ययनों की विषय वस्तु । ३१५. महाव्रत पांच ही क्यों ? ३४४. उच्चार और प्रस्रवण शब्द का निरुक्त । महाव्रतों की सुरक्षा के लिए पांच-पांच ३४५. मुनि को अहिंसा की दृष्टि से उच्चारभावनाओं का निर्देश । प्रस्रवण विधि में अप्रमत्त रहने का निर्देश । ३१७. पंच चूलिकाओं का नामोल्लेख । ३४६. द्रव्यशब्द और भावशब्द का स्वरूप । पहली चूला : पिण्डषणा ३४७. पर और अन्य श-द के निक्षेप । ३४८. यतमान और निष्प्रतिकर्म का पर से संबंध । ३१८. पिंडषणा नियुक्ति की भांति शय्या, वस्त्र, पात्र आदि की नियुक्ति का कथन । तीसरी चला : भावना दशवकालिक के वाक्य-शुद्धि अध्ययन की ३४९. द्रव्य भावना का स्वरूप तथा भाव भावना भांति भाषा-विवेक का कथन । के भेद। ३१९. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५०. अप्रशस्त भावना के प्रकार । ३५१. प्रशस्त भावना के प्रकार । ३५२-५६. दर्शन भावना का लक्षण तथा स्वरूप । ३५७-५९. ज्ञान भावना का लक्षण तथा स्वरूप । ३६०,३६१. चारित्र भावना का लक्षण तथा स्वरूप । ३६२. तप भावना का स्वरूप। ३६३. वैराग्य भावना का प्रतिपादन । नियुक्तिपंचक चौथो चूला : विमुक्ति ३६४. विमुक्ति अध्ययन के अधिकारों का निर्देश । मोक्षवत् विमुक्ति के निक्षेप का कथन तथा देशमुक्त और सर्व मुक्त कौन ? पंचम चला-निशीथ की नियुक्ति करने की प्रतिज्ञा । ३६७,६६८. आचारांग के अध्ययनों के उद्देशकों की संख्या का निर्देश। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाओं का समीकरण आचारांग नियुक्ति की गाथाएं चूणि और टीका दोनों में व्याख्यात हैं। प्रकाशित चुणि में गाथाओं का केवल संकेत मात्र है । अनेक स्थानों पर तो दश गाथाओं के लिए भी केवल 'दसगाहाओ भाणियव्वाओं' ऐसा उल्लेख मात्र मिलता है अतः समीकरण में चूणि का संकेत देना संभव नहीं हो सका । टीका में आयारचूला की नियुक्ति में गाथा संख्या के क्रमांक संलग्न नहीं हैं लेकिन हमने पूरी आचारांग नियुक्ति की संख्या के क्रमांक संलग्न रूप से लगाए हैं । पाठकों की सुविधा के लिए हम आचार्य शीलांक की टोका में आई गाथा संख्या एवं संपादित गाथा संख्या का समीकरण प्रस्तुत कर रहे हैं । इस चार्ट के माध्यम से पाठक सुविधा से टीका की गाथा संख्या खोज सकेंगे। संपादित संपादित आटी संपादित आटी २३ ४५ २४ आटी ४५ ५६ 4Mmmmmmmmmmm»» Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० नियुक्तिपंचक संपादित आटी आटी संपादित १३७ १०२ संपादित १०२ १०३ १०४ आटी १३७ १३८ १३९ r १०३ १०४ १३९ १४० १०५ ० x १४१ १०६ १४१ १०६ १०७ १०७ ४ १४२ १४३ है १०८ १०८ RRC ० ४०१ १४५ १४५ 99.99502 mrur . ० ० ११० १११ १४६ ११० १११ ११२ १४६ 68 ११२ १४८ १४९ ११४ ११५ ११६ ११३ ११४ ११५ ११६ ११७ ११८ ११९ १४८ १४९ १५० १५१ १५२ ~ Voor my x W Voor My x W9 Vorm X X W SO १५० १५१ १५२ १५३ १५४ १५५ ११८ ११९ १२० १५३ १५४ " ~ १५५ १२० १२१ १५६ ur 9 ~ १२२ १५७ १५८ १५९ १२४ १२५ १२६ १२२ १२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १२८ १२९ . 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" 2 १६६ १६७ १६८ १६९ १३२ १३३ १३४ १३५ १३६ . १०० १०१ १७० १७१ १७० १०१ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधारंग निर्मुक्ति संपादित १७२ १७३ . १७४ १७५ १७६ १७७ १७८ १७९ १८० १८१ १८२ १८३ * १८५ १८६ १८७ १८८ १८९ १९० १९१ १९२ १९२।१ १९३ १९४ १९५ १९६ १९७ १९८ १९९ २०० आटी १७१ १६३ १६४ १६५ १६६ १६७ १६८ १६९ १७० १७१ १७२ १७३ १७४ १७५ १७६ १७७ १७८ १७९ १५० {=? १८२ x १८३ १८४ १८५ १८६ १९७१ १९८ १९९ २०० संपादित २०१ २०२ २०३ २०४ २०५ २०६ २०७ २०८ २०९ २१० २११ २१२ २१३ २१४ २१५ २१६ २१७ २१८ २१९ २२० २२१ २२२ २२३ २२४ २२५ २२६ २२७ २२८ २२९ २३० २३१ १. टीका में १६३ से संख्या का पुनरावर्तन हुआ है। २. टीका में १८६ के बाद १९७ क्रमांक आया है। ३. टीका में २२७ का क्रमांक दो बार आया है । ४. टीका में २३४ के बाद २३६ का क्रमांक आया है। आटो २०१ २०२ २०३ २०४ २०५ २०६ २०७ २०८ २०९ २१० २११ २१२ २१३ २१४ २१५ २१६ २१७ २१८ २१९ २२० २२१ २२२ २२३ २२४ २२५ २२६ २२७ २२७' २२८ २२९ २३० संपादित २३२ २३३ २३४ २३५ २३६ २३७ २३८ २३९ २४० २४१ २४२ २४३ २४४ २४५ २४६ २४७ २४८ २४९ २५० २५१ २५२ २५३ २५४ २५५ २५६ २५७ २५८ २५९ २६० २६१ २६२ आटी २३१ २३२ २३३ २३४ २३६४ २३७ २३८ २३९ २४० २४१ २४२ २४३ २४४ २४५ २४६ २४७ २४८ २४९ २५० २५१ २५२ X X X X X X X २४१ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ नियुक्तिपंचक आटी आटी आटी संपादित संपादित २६३ संपादित २९१ २९२ २६४ २७३ २७४ २७५ २६५ २६६ २९३ २९४ ३१८ ३१९ ३२० ३२१ ३२२ ३२३ ३२४ 3xx * २९५ २९६ २९७ २९८ २७६ २७७ २७८ २९८ २९९ ३०० २७९ ३२५ ३२६ ३०२ २९९ mr mr m ३०३ ३०० २८१ २५५ ३०१ ३०२ २८२ २५६ ३०४ ३०५ ३०६ २६७ २६८ २६९ २७० २७१ २७२ २७३ २७४ २७५ २७६ २७७ २७८ २७९ २८० २८१ २८२ २८३ २८४ २८५ २८६ २८७ २८३ २८४ २८४२ ३०७ ३०४ ३०८ २५७ २५८ २५९ २६० २६१ २६२ २६३ ३२७ ३२८ ३२९ ३३० ३३१ ३३२ ३३३ ३३४ ३३५ ३३६ ३३७ ३०९ ३०५ ३०६ ३०७ ३०८ ३१० xr, ३११ ३१२ २६४ २६५ ३१० ३११ ३१३ ३१४ ३१५ ३१६ ३१७ ३१२ ३३९ ३४० २६७ २६८ २६९ २७. ३१३ ३१४ ३४१ २९६ ३१५ 24x ३४२ २८९ ३४३ २९० २७२ ३२० ३२१ १. महापरिज्ञा अध्ययन की ये गाथाएं टीका की समाप्ति पर दी गई हैं । (आटीप. ४३२) २. टीका में २८४ का क्रमांक पुनरुक्त हुआ है। ३.टीका में आचारांग द्वितीय श्रतस्कंध की नियुक्ति ४ क्रमांक से प्रारम्भ होती है। टीका में मंगलाचरण की गाथाओं को भी इसके अन्तर्गत गिन लिया है। ४. २९८-३०१ तक चार गाथाएं टीका में शुद्धाशुद्धि पत्र में दी हैं तथा यहां से पुन: संयुक्त संख्या दी Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघारांग निर्मुक्ति २४३ संपादित आटी संपादित आटी ३२२ संपादित ३५३ ३४५ ३४६ आटी ३३९ ३४० ३४१ ३५४ ३२३' ३२४ ३३२ ३३३ ३३४ ३६२ ३६३ ३५५ ३५६ ३४२ ३३५ ३६५ ३४७ ३४८ ३४९ ३५० ३५१ ३२५ ३२६ ३२७ ३२८ ३५७ ३५८ ३५९ ३६० ३३६ ३३७ ३४३ ३४४ ३४५ ३६७ ३२९ ३३० १. टीका में ३२३ और ३२४ के क्रमांक में समान गाथा दी हुई है। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति बंदित्तु सव्वसिद्धे, जिणे य अणुयोगदायगे सव्वे । आयारस्स भगवतो, निज्जुत्ति कित्तइस्सामि' ।। आयार अंग सुयखंध', बंभ-चरणे तहेव सत्थे य । परिणाए सण्णाए, निक्खेवो तह' दिसाणं च ।। चरण-दिसावज्जाणं, निक्खेव 'चउव्विहो उ' नायव्वो। चरणम्मि छव्विहो खलु, सत्तविहो होइ उ दिसाणं ।। जत्थ य जं जाणेज्जा, निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थ वि य न जाणेज्जा, चउक्कगं निक्खिवे तत्थ ।। 'आयारे अंगम्मि य, पुव्व हिटो'८ चउक्क निक्खेवो। नवरं पुण नाणत्तं, भावायारम्मि तं वोच्छं ।। तस्सेगट्ठ पवत्तण, पढमंग गणी तहेव परिमाणे । समोतारे सारे य", सत्तहि दारेहि नाणत्तं ।। आयारो आचालो, आगालो आगरो य आसासो। आदरिसो अंगं 'ति य", आइण्णाऽऽजाइ आमोक्खा ॥दारं।। सम्वेसि आयारो, तित्थस्स पवत्तणे पढमयाए। सेसाई अंगाई, एक्कारस आणुपुवीए ।।दारं।। १. यह गाथा बाद जोड़ी गई प्रतीत होती है ४. चउक्कओ य (टी.), विहं० (अ) । क्योंकि यह गाथा केवल टीका और हस्त- ५. दिसाओ (अ)। प्रतियों में प्राप्त है। चर्णिकार ने इस गाथा ६. तु (चू)। का कोई संकेत व व्याख्या नहीं की है। इसके ७. अनुद्वा. ७ । अतिरिक्त 'चरणदिसावज्जाणं' इस तीसरी ८. आचार के वर्णन के लिए देखें दशनि १५४गाथा के बारे में बिसियगाहा-यह दूसरी १६२, अंग के वर्णन के लिए देखें उनि. गाथा है ऐसा उल्लेख है। इससे भी स्पष्ट है १४४-५८ । कि मंगलाचरण की यह गाथा चुणि के बाद ९. पढमं अंग (अ)। में जोड़ी गई है। १०. या (ब)। २. सुयक्खंध (अ,ब)। ११. चिय (ब)। ३. तहा (अ)। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ नियुक्तिपंचक आयारो अंगाणं, पढमं अंग दुवालसण्हं पि। एत्थ य मोक्खोवाओ, एस य सारो पवयणस्स ।।दा।। आयारम्मि अहीए, 'जं नाओ' होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो, भण्णति पढम गणिट्ठाण ॥दा।। नवबंभचेरमइओ, अट्टारसपदसहस्सिओ वेदो। हवइ य सपंचचूलो, बहुबहुतरओ पदग्गेणं' ।।दा।। आयारग्गाणत्थो", बंभच्चेरेसु सो समोयरइ । सो वि य सत्थपरिणाए पिंडियत्थो समोयरइ ।। सत्थपरिण्णा अत्थो, छस्सु वि काएसु सो समोयरति । छज्जीवणिया अत्थो, पंचसु वि वएस ओयरति ।। पंच य महन्वयाई, समोयरते य• सव्वदव्वेसुं । सव्वेसि पज्जवाणं, अणंतभागम्मि ओयरति" ।। छज्जीवणिया पढमे, 'बितिए चरिमे य'१२ सव्वदम्वाइं। सेसा महत्वया खलु, तदेक्कदेसेण दव्वाणं ।।दारं।। अंगाणं किं सारो ?, आयारो तस्स 'किं हवति" सारो। अणुयोगत्थो सारो, तस्स वि य परूवणा सारो ।। सारो परूवणाए, चरणं तस्स वि य होइ निव्वाणं । निव्वाणस्स य५ सारो, अव्वाबाहं जिणा बैंति ।।दार।। 'बंभम्मी उ'१६ चउक्कं, ठवणाए होइ" बंभणुप्पत्ती। सत्तण्हं'८ वण्णाणं, नवण्ह वण्णंतराणं च ॥ १. जन्नाओ (ब)। १२. चरिमे बितिए (ब)। २. य (अ)। कुछ पाठ भेद के साथ यह गाया आवश्यक३. वुच्चइ (ब,म)। नियुक्ति (७९१) में भी मिलती है४. दश्रुनि २६ । पढमम्मि सव्वजीवा, बिइए चरिमे य ५. ०मइतो (अ)। सव्वदव्वाइं। निभा. १। सेसा महव्वया खलु, तदेक्कदेसेण दवाणं ॥ ७. आयारमग्गणत्यो (अ)। १३. हवः किं (टी)। ८. बंभचेरसु (ब)। १४. जेव्वाणं (अ)। ९. १२-१४ तक की गाथाओं के लिए चूर्णि में १५. उ (ब,टी)। 'तिण्णिगाहाओ पढियव्वाओ' मात्र इतना १६.बंभम्मि ऊ (ब,अ,म), ०म्मी य (टी)। उल्लेख है। १७. होंति (अ)। १०. उ (अ,ब)। १८. सत्तण्ह य (अ,ब,म)। ११. ओबइंति (ब), ज्यइंति (प)। १८. Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ आचारांग नियुक्ति एगा मणुस्सजाई', रज्जुप्पत्तीय दो कया उसभे । तिण्णेव सिप्प वणिए, सावगधम्मम्मि चत्तारि ।। संजोगे सोलसगं, सत्त य 'वण्णा उ'२ नव य अंतरिणा' । एते दोन्नि' विगप्पा, ठवणा बंभस्स नायव्वा ।। पगती५ चउक्कगाणंतरे य ते होंति सत्तवण्णा उ । 'आणंतरेसु चरमो'", वण्णो खलु होति नायवो ।। अंबढुग्ग-निसाया, अजोगवं मागहा य सूया य । खत्ता वेदेहा' वि य, चंडाला नवमगा होति ॥ एगंतरिए इणमो, अंबढो" चेव होति 'उग्गो य'१२ । बिइयंतरिय निसाओ, परासरं तं च पुण एगे ।। पडिलोमे सुद्दादी, अजोगवं मागहा य५ सूए य । एगंतरिए खत्ता, वेदेहा चेव नायव्वा ।। बितियंतरिए नियमा, चण्डालो एस" होइ नायवो। अणुलोमे पडिलोमे, एवं एते भवे भेदा ।। उग्गेणं खत्ताए, सोवागो वेणवो विदेहेणं । अंबट्ठीए सुद्दीय, बुक्कसो'६ जो निसाएणं ।। सुद्देण° निसादीए, कुक्कुरओ' सो उ२२ होति नायव्वो। एसो 'वि य पइभेओ'२३, चउन्विहो होति नायव्वो ।। १. माणुस० (अ,ब)। १२. उग्गेयं (म)। २. वण्णाओ (अ)। १३. बीयंत० (अ), बियंतरियं (म) । ३. अंतरिणो (टी,ब) । १४. वेगे (टी), एगो (अ)। ४. दो वि (टी)। १५. उ (ब)। ५. एग तिग (अ)। १६. ०यंतरे (टी)। ६. ४(अ)। १७ सोवि (टी), सो य (म,ब)। ७. ०तरे उ चरिमो (अ), तरिओ चरिमो १८. सुद्दीए (अ), सुद्दीए य (म), सुतीए य (ब)। १९. बोक्कसो (अ,ब), ३२६,३२७ इन दोनों ८. निसाया य (टी)। गाथाओं का संकेत चूणि में नहीं है लेकिन ९. वतिदेहा (अ), विदेहा (म,टी)। गाथाओं की संक्षिप्त व्याख्या मिलती है। १०. २२-२५ तक की गाथाओं के लिए चूणि में २०. सूएण (अ,टी)। 'चत्तारि गाहाओ पढियव्वाओ' मात्र इतना २१. कुक्कूडओ (ब,म)। ही उल्लेख है। २२. वि (टी)। ११. अंबोट्टो (अ), अंबुट्ठो (म)। २३. बीओ भेओ (टी)। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० निर्यक्तिपंचक २८. ३२. दव्वं सरीर-भविओ, अण्णाणी' वत्थिसंजमो चेव । भावे उ वत्थिसंजम', नायव्वो संजमो चेव ॥दारं। चरणम्मि होति छक्कं, गतिभाहारे गुणे य 'चरणे य । 'खेत्तं तु जम्मि खेत्ते, काले कालो जहिं 'जो उ'५ ।। भावे 'गति आहारे'६, गुणो गुणवओ पसत्थमपसत्था । गुणचरणेण पसत्थेण, बंभचेरा नव हवंति ॥ सत्थपरिण्णा लोगविजओ य सीओसणिज्ज सम्मत्तं । तह लोगसारनाम, 'धुत तह महापरिण्णा य॥ अट्ठमए य विमोक्खो, उवहाणसुतं च नवमगं भणियं । इच्चेसो आयारो, आयारग्गाणि सेसाणि ।। जियसंजमो य लोगो, जह बज्झति जह य तं पजहियव्वं । सुह-दुक्खतितिक्खा वि य, सम्मत्तं लोगसारो य । निस्संगया य छठे, मोहसमुत्था परीसहुवसग्गा । निज्जाणं अट्ठमए, नवमे य जिणेण१२ एवं३ ति ।।दा।। जीवो छक्कायपरूवणा य, तेसि 'वहे य'१४ बंधो त्ति । विरईए अहिगारो, सत्थपरिणाएँ कायव्वो५ ।। दव्वं सत्थग्गि-विसं, नेहंबिल-खार-लोणमादीयं । भावो य१७ दुप्पउत्तो, वाया काओ अविरती य८ ।। दव्वं जाणण-पच्चक्खाणे दविए सरीर-उवगरणे । भावपरिण्णा जाणण, पच्चक्खाणं च भावेणं ।। ३५. ३७. १. अन्नाणो (अ)। १०. विजहि ० (अ), पइहि ०(म)। २. संजमु (अ)। ११. निव्वाणं (ब)। ३. चरणं च (म), चरणं वा (ब)। १२. जिणाण (अ)। ४. खेत्तम्मि (ब,म,टी)। १३. एयं (म)। ५. होति (अ)। यह गाथा चूणि में निर्दिष्ट नहीं १४. वहेण (अ,म)। १५. णायव्वो (टी)। ६. गइमाहारो (म,टी)। १६. दव्वे (अ)। ७. धुवं तह मह ० (अ), धुत्तं तह महापरिण्णा य १७. उ (ब,म)। (म)। १८. या (टी), दशनि २१३ । ८. होइ (ब)। १९. ०क्खाणं (ब)। ९. इस एसो (अ), एएसो (ब)। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ आचारांग नियुक्ति ३८. दवे सच्चित्तादी', भावे अणुभवण जाणणा सण्णा । मति होति 'जाणणा पुण', अणुभवणा कम्मसंजुत्ता ।। आहार-भय-परिग्गह, मेहण-सह-दुक्ख-मोह-वितिगिच्छा । 'कोह-माण'४-माय-लोभे, सोगे लोगे य धम्मोघे ॥ नामं ठवणा दविए, खेत्ते तावे य पण्णवग भावे । एस दिसानिक्खेवो, सत्तविहो होति नायव्वो ।। ४१. तेरसपदेसियं खलु, तावतिएसं भवे पदेसेसुं । जं दव्वं ओगाढ, जहण्णगं तं दसदिसाग ।। ४२. अट्रपदेसो रुयगो, तिरियं लोगस्स मझयारम्मि । 'एस पभवो' दिसाण, एसेव भवे अणुदिसाणं ।। ४३. इंदग्गेयी जम्मा, य नेरुती वारुणो य वायव्वा । सोमा ईसाणा वि य, विमला य तमा" य बोधव्वा ।। दुपएसादि दुरुत्तर, एगपदेसा अणुत्तरा एव । चउरो चउरो य दिसा, चउराइ२ अणुत्तरा दोन्नि'३ ।। अंतो सादीयाओ, बाहिरपासे अपज्जवसियाओ। सव्वाणंतपदेसा, 'सव्वा य भवति'१४ कडजुम्मा ।। सगडुद्धिसंठियाओ,१५ महादिसाओ हवंति१६ चत्तारि । 'मुत्तावली य'' चउरो, दो चेव हात रुयर्गानभा ।। ४७. जस्स जओ आइच्चा, उदेति८ सा तस्स होति पुवदिसा । जत्तो य अत्थमेई२०, अवरदिसा सा उ नायव्वा ।। १. सचित्ता (अ,म)। ११. चेव (टी)। २. जाणणाए (चू)। १२. चउरो य (क)। ३. ०ग्गहा (चू)। १३. इस गाथा का चूर्णि में संकेत नहीं है । ४. कोहे माणे (ब)। १४. सव्वाओ हवंति (अ)। ५. ४१ से ५० तक की गाथाएं चणि में अव्या- १५. सगुडु ० (ब), सगडुद्धी ० (टी)। ख्यात हैं। १६. य होंति (म,ब)। ६. रुहागो (अ), रुयओ (ब)। १७. मुत्तावलिया (म)। ७. एसप्प . (म)। १८. उवेति (अ)। ८. एसो य (ब,म)। १९. पुवाओ (अ)। ९. नेरईए (क), णेरतीए (अ), नेरुईए (ब)। २०. ० मेइ उ (टी)। १.. यमा (म)। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक दाहिणपासम्मि य 'दाहिणा दिसा' उत्तरा उ वामेणं । एया चत्तारि दिसा, तावक्खेत्ते उ अक्खाता ।। जे मंदरस्स पुवेण, मणुस्सा दाहिणेण अवरेणं । जे यावि उत्तरेणं, सव्वेसिं उत्तरो मेरू ।। सव्वेसि उत्तरेणं, मेरू लवणो य होति दाहिणओ। पुवेणं 'तु उदेती', 'अवरेण य'८ अत्थमइ सूरो ।। जत्थ य जो पण्णवगो, कस्स वि साहति'१० दिसाण उ''निमित्तं । जत्तो मुहो य ठायइ१२, सा पुव्वा पच्छओ अवरा'३ ।। दाहिणपासम्मि उ१४ दाहिणा दिसा उत्तरा य५ वामेणं । एतासिमंतरेणं, अन्ना चत्तारि विदिसाओ । एतासि चेव अट्ठण्हमंतरा अट्ट होंति अन्नाओ। सोलस ‘सरीरउस्सय'१६, बाहल्ला सव्वतिरियदिसा ।। हेट्ठा पादतलाणं, अहोदिसा सीस उवरिमा उड्डा । एया अट्ठारसवी, पण्णवगदिसा मुणेयव्वा ।। एवं विकप्पियाण", दसह भट्टण्ह चेव य दिसाणं । नामाइं१८ वोच्छामी, जहक्कम आणुपुवीए ।। पुव्वा य पुव्वदक्खिण२०, दक्खिण तह दक्खिणापरा१ चेव । अवरा य अवर-उत्तर, उत्तर पुव्वुत्तरा चेव ।। ५७. सामुत्थाणी कविला, खेलेज्जा खलु तहेव अभिधम्मा । परियाधम्मा य तहा, सावित्ती पण्णवित्ती२२ य । १. दाहिणदिसा (अ)। १३. ५१-५९ तक की गाथाओं के लिए चूणि में २. य (अ,ब,म)। ___"णव गाहा कंठ्या" मात्र इतना उल्लेख है । ३. वेणं (म)। १४. य (अ,ब,म)। ४. मणूसा (अ,ब,म)। १५. उ (टी)। दक्खिणेण (अ)। १६. सरीरुस्सय (म)। ६. इस गाथा का चूणि में संकेत नहीं है। १७. पकप्पि० (टी)। ७. उठेई (टी), तु उवेई (अ)। १८. नामाई (अ)। ८. अवरेणं (टी)। १९. अह. (अ)। ९. अत्थमे (अ), अत्थमय (ब) । २०. ०दाहिण (ब)। १०. य साहेति (अ)। २१. ०णावरा (ब,म,टी)। ११. दिसासु य (अ,म,टी)। २२. पुण्ण० (म)। १२. ठाई (अ,टी)। १८. .( Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A आचारांग नियुक्ति ५८. ५९. ६०. ८. ९. ६१. ६२. ६३. ६४. ६५. ६६. ६७. ६. य ( अ ) । ७. हेट्ठा नेरइयाणं, अहोदिसा उवरिमा य' देवाणं । एयाई नामाई, पण्णवगस्सा दिसाणं तु ॥ 'सोलस विय तिरियदिसा' २, सगडुद्धीसंठिया मुणेयव्वा । दो मल्लगमूलाओ, उड्ढे च अहे विय दिसाओ ।। मणुया तिरिया काया, तहग्गबीया चउक्कगा चउरो । देवा नेरइया वा, अट्ठारस हवंति भावदिसा || पण्णवर्गादिसद्वारस, भावदिसाओ वि तत्तिया चेव । एक्क्कं विधेज्जा, हवंति अट्ठारसद्वारा® ।। पण्णवर्गादिसाए पुण, अहिगारो एत्थ होति नायव्वो । जीवाण पोग्गलाण य, एयासु गयागई अस्थि ॥ सिचि नाणसण्णा, अत्थि उ" केसिचि नत्थि जीवाणं । कोहं परम्मि लोए, आसी कयरा दिसाओ वा ? जाणति सयं मतीए, जागजणपण विओ, एत्थ य सहसम्मुइयत्ति ओही -मण- पज्जव-नाण ३. उड्ढ ( अ ) । ४. तह अग्ग ० ( म ) । ५. ० दिस अट्ठा० (म) । १. उ (टी) । १०. X (बम) | २. सोलस्स ० ( अ ), सोलस तिरियदिसाओ (टी), ११. वा ( ब ) । सोलस वी तिरियदिसा ( ब ) । अन्नेसि वावि" अंतिए सोच्चा । जीवं तह जीवकाये य२ ॥ परवइ वागरणं पुण, जिणवागरणं जिणा परं नत्थि । अन्नेसि 'सोच्चं ति' १५ य, जिणेहि सव्वो परो अन्नो || तत्थ अकारि करिस्सं, ति बंधचिता कया पुणो होति । सहसम्मुइया " जाणति, कोई पुण हेतुजुत्तीए ॥ दारं || १७ 'जं पदं तत्थ जाणणा होई१४ । केवले जातिसरणे य ॥ ६१,६२ की गाथा का संकेत चूर्णि में नहीं है । केवल संक्षिप्त भावार्थ गद्य में है । कायव्वो ( अ, ब, म) 1 अत्थि सण्णा ० ( चू) । १२. वा (टी) । इस गाथा का चूर्णि में संकेत नहीं है। २५१ १३. सम्मुइयाए (ब), ०सम्मइया (च्) । १४. य जं पयं सुए तत्थ जाणणा होइ ( अ ) 1 १५. सोच्चत्ति (म) | १६. ६६,६७ की गाथा चूर्णि में निर्दिष्ट और व्याख्यात नहीं है । १७. ०सम्मइया (टी), ० सम्मुयया (म) । १८. कोइ ( अ, ब ) । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ निर्यक्तिपंचक पुढवीए निक्खेवो, परूवणा लक्खणं परीमाणं । उवभोगो सत्थं वेयणा य वहणा निवित्ती' य।। नामं ठवणापुढवी, दत्वपुढवी य भावपुढवी य। एसो खलु पुढवीए, निक्खेवो चउविहो होति ।। दव्वं सरीरभविओ, 'भावेण य' होति पुढविजीवो उ" । जो पुढविनामगोयं, कम्मं वेदेति सो जीवो ।।दारं।। दुविहा य पुढविजीवा, सुहमा तह बायरा य लोगम्मि । सुहुमा य सव्वलोए, दो चेव य बादरविहाणा ।। दुविहा बादरपुढवी, समासओ सण्हपुढवि-खरपुढवी । सण्हा य पंचवण्णा, 'खरा य" छत्तीसइविहाणा ।। पुढवी य सक्करा बालुगा य उवले सिला य लोणू से । अय-तंब-तउय-सीसग-रुप्प-सुवण्णे य वइरे य ।। हरियाले० हिंगुलए", मणोसिला सासगंजण-पवाले । अब्भ-पडलऽब्भ-बालुय, बादरकाए मणिविहाणा ।। गोमेज्जए य रुयगे१२, अंके फलिहे य लोहियक्खे य । 'मरगय-मसारगल्ले, भुयमोयग-इंदनीले य'१३ ।। चंदप्पभ वेरुलिए, जलकते चेव सूरकते य। एते खरपुढवीए, नामा१४ 'छत्तीसया होति'१५ ।। ७७. वण्ण-रस-गंध-फासे, जोणिप्पमुहा भवंति ६ संखेज्जा। णेगाइ१७ सहस्साइं, होंति विहाणम्मि एक्केक्के ।। १. नियत्ती (अ)। १०. हिरि ० (म)। २. चउव्विहो (अ,ब)। ११. हिंगुलुए (म, उ. ७४ प. १।२०१२) । ३. भावेणं (अ,म)। १२. रुयय (ब)। ४. ०जीवाओ (अ)। १३. उ. ७५, प. २०१३ चंदण-गेरुय-हंसग, ५. च्चेव (ब)। भयमोय मसारगल्ले य (ब)। चंदण-गेस्य ६. यह गाथा चूणि में व्याख्यात नहीं है। हंसग, भुयगे य मसारगल्ले य (अ)। ७. अवरा (ब,म,टी)। १४. नाम (अ, ब, टी)। ८. ०सय ०(ब)। १५. छत्तीसयं होइ (टी), बत्तीसते .(अ)। तु. उ. उ. ७३, प. १।२०।१ ७३ से ७६ तक की ७६, प. १०२०।४। चार गाथाएं चणि में अव्याख्यात हैं। मात्र १६. हवं ति (अ,म) । 'चत्तारि गाहाओ जाव जलकंतो सूरकतो' १७. ०ग्गाइं (अ), गाई (म)। इतना उल्लेख है। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति ७८. ७९. ५०. ८१. ८२. ८३. ८४. ८५. ८६. ८७. ८८. एक्केक्के ४ ।। aणमय एक्क्के, गंधम्मि रसम्मि 'तह य फासम्मि" । 'नाणत्तं कायव्वं', विहाणए होति' जे बादरे विधाणा, पज्जत्ता तत्तिया सुहुमा वि होंति दुविहा, पज्जत्ता चेवऽपज्जत्ता ॥ रुक्खाणं गुच्छाणं, गुम्माण लयाण अपज्जत्ता । वलिवलयाणं । जह दीसति नाणत्तं, पुढवीकाए तहा जाण ॥ ओस हि तण सेवाले, पणगविहाणे य कंद-मूले य । जह दीसति नाणत्तं पुढवीकाए तहा जाण ॥ एस दोह तिह व, संखेज्जाण व न पासिउं सक्का | 'दीसंति सराई, पुढविजियाणं असंखाणं " || एतेहि सरीरेहिं, पच्चक्खं ते परूविया होंति । सेसा आणा गिज्झा, चक्खफासं न 'ते एंति" ।। उवजोग-जोग - अज्झवसाणे, अहिले सा १. X (म ) 1 २. नाणते का० (ब), नाणती कायव्वा (टी) । ३. होइ ( बम, टी) । ४. इस गाथा का चूर्णि में संकेत और व्याख्या नहीं है । ५. ०य लयाणं ( अ ) । ६. नाणती ( अम) | ७. ओसही (च) । ८. नाणत्ती ( अ, म) । मति सुय अचक्खुद से य । कसाए य ॥ सा जहा सरीरम्मि, अणुगतं चेयणं खरं जीवाणु पुढविसरीरं खरं अट्टी दिट्ठ । एवं जे १८ होति ॥ बादरपज्जत्ता, पयरस्स 'असंखभागमेत्ता ते १५ । सेसा तिन्नि वि रासी, वीसं" लोया असंखेज्जा | पत्थेण व कडवेण व जह कोड मिणेज्ज सव्वधन्नाणि । एवं मविज्जमाणा, हवंति लोया असंखेज्जा ।। लोगागासपदेसे, एक्केक्कं निक्खिवे हवंति लोगा १७ १ पुढविजीव" । असंखेज्जा ।। एवं मविज्जमाणा", ११. जं इंति (टी), एंति त्ति ( अ ) । १२. सम्मुस्सा से (म ) । १३. अट्ठि (च्) । १४. जीवमण ० (म) । १५. ०मेत्ताए ( अ, ब ) । १६. वसु (अ) । १७. कुलएण ( अ, ब, चू) । १८. ०धन्नाई (टी), ० धन्नाइ (म) । १९. गणिज्ज ० ( अ, म ) । ९. एक्क ० ( म ), इक्क ० (टी) । २०. ०जीयं (म) । १०. पुढवीजीवसरीरा, जो विभत्ती असंखेज्जा ( अ ) । २१. गणिज्ज ० ( अ ) । २५३ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ नियुक्तिपंचक ८९. निउणो उ' हवति कालो, तत्तो निउणयरयं हवति खेत्तं । अंगुलसेढीमेत्ते, ओसप्पिणिओ असंखेज्जा ।। अणुसमयं च पवेसो, निक्खमणं चेव पुढविजीवाणं । काए कायट्ठितिया, चउरो लोगा असंखेज्जा ।। बायरपुढविक्काइय, पज्जत्तो अन्नमन्नमोगाढो । सेसा ओगाहंते, सुहुमा पुण सव्वलोगम्मि ।।दा।। चंकमणे य 'ठाणे निसीयणे तुयट्टणे य° कयकरणे । उच्चारे पासवणे, उवकरणाणं च" निक्खिवणे ॥ आलेवण१२ पहरण भूसणे य कय विक्कए किसीए य । भंडाणं पि य करणे, उवभोगविही मणुस्साणं ।। ९४. एएहि कारणेहि, हिंसंती'४ पुढविकाइए जीवे । सातं गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरंति ।।दारं।। हल-कुलिय-विस-कुद्दालालित्त५ मिगसिंग-कट्ठमग्गी य । उच्चारे पासवणे, एतं तु समासओ सत्थं ॥ किंची सकायसत्थं, किंची१७ परकाय तदुभयं किंचि । एतं तु दव्वसत्थं, भावे य असंजमो सत्थं ८ ।।दार।। पायच्छेयण' भेयण, जंघोरु तहेव' अंगुवंगेसुं"। जह होंति नरा दुहिया, पुढवीकाए२२ तहा जाण ।। ९८. नत्थि य 'सि अंगवंगा'२३, तयाणरूवा य वेयणा तेसि । केसिंचि उदीरंति केसिंचऽतिवायए'२४ पाणे ॥दारं।। १. य (ब,म,चू)। १३. विक्केय (म)। २. होइ (चू,टी)। १४. हिंसंति (टी)। ३. सतो (म)। १५. ० लित्तय (टी)। ४. निउणयरं (म, ब)। १६. कट्ठअग्गी (ब)। ५. ०क्काविय (अ)। १७. किंचि वि (म)। ६. अन्नअन्न ० (अ) मकार अलाक्षणिकः । १८. दशनि २१४ । ७. गाहंती (अ,ब,म)। १९. पायछे ० (म)। ८. यह गाथा चूणि में अव्याख्यात है। २०. तह य (ब)। ९. ठाणे निसीयण (अ,ब,टी)। २१. अंगमंगेसु (अ,ब) सअंगमंगा (चू)। १०. ४(म)। २२. पुढवीक्काए (अ)। ११. तु (म), पि (अ)। २३. सिअंगमंगा (ब,म) सियंगमंगा (च,अ)। १२. ०वणा (चू)। २४. केसिंचाइवा ० (ब), केसिंचि अइवा ० (अ)। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति २५५ ९९. पवदंति य अणगारा, न य 'तेसु गुणेसु'' जेहिं अणगारा। पुढवि विहिंसमाणा, न 'हु ते'२ वायाहि अणगारा ।। १००. अणगारवादिणो पुढविहिंसगा निग्गुणा अगारिसमा। निद्दोस त्ति य मलिणा, विरतिदुगुंछाइ मलिणतरा ॥ केई सयं वधेति, केई अन्नेहिं उ वधावेंति । केई अणुमन्नंती, पुढविक्कायं वहेमाणा ।। जो° पुढवि समारभति," अन्ने विह२ सो समारभति काए । अनियाए य नियाए, दिस्से य तहा अदिस्से य ।। पुढवि समारभंता, हणंति तन्निस्सिए बहू' जीवे । सुहुमे य बायरे या," पज्जत्ते वा५ अपज्जत्ते ॥दारं।। एयं वियाणिऊणं, पुढवीए निक्खिवंति जे दंडं । तिविहेण सव्वकालं, मणेण वायाएं कारणं ॥ गुत्ता गुत्तीहिं सव्वाहिं, समिया समितीहिं संजया । जयमाणगा सुविहिता, एरिसगा होंति अणगारा ॥दार।। आउस्स वि दाराई, ताई जाई१७ भवंति पुढवीए । नाणत्ती उ विहाणे, परिमाणुवभोग-सत्थे य८ ।। दुविहा उ आउजीवा, सुहमा तह बायरा य लोगम्मि । सुहुमा य सव्वलोगे, 'पंचेव य बायरविहाणा'२० ।। १०८. सुद्धोदगे य ओसा,' हिम य महिया य हरतणू चेव । बादरआउविहाणा, पंचविहा वणिया एते ॥दारं।। १. तेहि गुणेहि (टी), तेसिं गुणेहिं (म)। १३. य बहु (टी), ते बहु (ब)। २. होति (ब,म)। १४. य (टी), वा (म)। ३. वायाए (म), वायाइ (ब)। १५. या (टी)। ४. अ प्रति में गाथा का पूर्वार्द्ध नहीं है। १६. एवं (चू)। ५. निगुणा (म)। १७. जायं (म)। ६. मइला (अ,म,टी)। १८. १०६ से १०९ तक की गाथाओं की व्याख्या ७. वहंति (अ), वहंती (टी)। चूमि में नहीं है । मात्र 'निज्जुत्तिगाहाओ ८. वहाविति (अ,टी)। पढियसिद्धाओ' इतना ही उल्लेख है। ९. पुढविकायं (अ,ब,टी)। १९. य (अ,ब,म)। १०. जे (अ)। २०. पंचविहा पुण बायरा (अ)। ११. समारंभति (अ)। २१. उस्सा (टी)। १२. य (टी)। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ नियुक्तिपंचक १०९. ११०. १११. ११२. ११३. जे बादरपज्जत्ता, पयरस्स असंखभागमेत्ता ते । सेसा तिन्नि वि रासी, वीसुं लोगा असंखेज्जा । जह हथिस्स सरीरं, कललावत्थस्स' अहुणोववन्नस्स । होति उदगंडगस्स या, एसुवमा आउजीवाणं ।। पहाणे पियणे तह धोवणे, य भत्तकरणे य सेए य । आउस्स उप परिभोगो, गमणागमणे य जाणेणं ।। एएहि कारणेहिं हिंसंती आउकाइए जीवे । सातं गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरंति ।।दारं।। 'उस्सिचण-गालण'-धोवणे' य उवगरण-कोसभंडे" य । बादरआउक्काए, एतं तु समासतो सत्थं ।। किची सकायसत्थं, किंची१२ परकाय तदुभयं किंचि । एयं तु दव्वसत्थं, भावे य' असंजमो सत्थं ॥दारं।। सेसाई१४ दाराई, ताइं जाई. हवंति पुढवीए । एवं आउद्देसे, निज्जुत्ती कित्तिया एसा ।। 'तेउस्स वि दाराई, ताई जाइं हवंति पुढवीए । नाणत्ती उ विहाणे, परिमाणुवभोग'६ सत्थे य ।। दुविहा य८ तेउजीवा१६, सुहमा तह बायरा य लोगम्मि । सुहुमा य सव्वलोए, पंचेव य बादरविहाणा ।। इंगाल अगणि अच्ची, जाला तह मुम्मुरे य बोधव्वे । बादरतेउविहाणा, पंचविहा वण्णिया एते ।।दा।। ११४. ११५. ११७. ११८. १. कललकलियस्स (अ)। ११. मत्तभंडे (टी)। २. व (ब)। १२. किंचि य (अ)। ३. तउवमा (म)। १३. तु (अ)। ४. सव्वजी० (टी)। १४. सेसाणि उ (अ)। ५. धोयणे (ब)। १५. होति (म) ११५ से ११८ तक की गाथाएं ६. य (अ)। चूणि में नहीं हैं। ७. नावाणं (अ,म), जीवाणं (टी) १११,११२ १६. परमा ० (ब)। ये दो गाथाएं चूणि में निर्दिष्ट नहीं हैं। १७ व (ब)। ८. रेंति (म), उईरंति (अ)। १८. उ (ब)। ९. उस्सिचणा य पाणे (च) । १९. ०जीया (ब)। १०. धोयणे (म)। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति ११९. १२०. १२१. १२२. १२३. १२४. १२६. १२७. १२८. जह' देहपरीणामोर, रति खज्जोयगस्स सा उवमा । जरितस्स 'य जह उम्हा ४, एसुवमा तेउजीवाणं || दारं ।। 'असंखभागमेत्ता जे बादरपज्जत्ता, पलियस्स ते'" । सेसा तिणि वि रासी, वीसुं लोगा असंखेज्जा" ।। दह पावणे पगासणे 'भत्तकरणे य सेएय १० । भोगगुणा माणं ॥ बादर उक्काए, हिंसंती" तेउकाइए जीवे । परस्स दुक्खं उदीरंति || १२५. सेसाई दाराई, ताई जाई एते हि सातं गवेसमाणा, कारणेह पुढवी " आउक्काए, उल्ला य३ वणस्सती तसा पाणा । बादर उक्काए, एयं तु समासओ सत्यं ॥ ८. डहणे (म) । किंची सकायसत्थं, किंची परकाय तदुभयं एयं तु दव्वसत्थं, भावे य असंजमो हवंति एवं तेउद्देसे, निज्जुत्ती कित्तिया १. जहा (म) । २. ०प्र० (टी) । ३. रत्ति ( अ ) । पुढवीए जे दारा, वणप्फतीए १६ वि होंति ते चेव । नाणत्ती विहाणे, परिमाणुवभोग - सत्थे य ।। उ ४. वा जउम्हा ( अ ) । ५. तओवमा (टी), ततोवमा ( अ ), तउवमा (म) । ६. ०मित्ता उ (टी), ० मेत्ताओ (बम) | ७. १७ दुविह" वणस्पतिजीवा, सुहुमा तह बायरा य लोगम्मि । सुहुमा य सव्वलोए, 'दो चेव य' २० बारविहाणा || पत्तेगा साधारण, बादरजीवा समासतो दुहि । बारसविणेगविहा, समासतो छव्विहा होंति" ।। १२०-२५ तक की गाथाएं चूर्णि में निर्दिष्ट और व्याख्यात नहीं हैं । ९. ०वण ( अ, टी) । १०. य सेए य भत्तकरणे य (टी) । किची । सत्थं ।। पुढवीए । एसा || १६. वणसइकाए ( अ ) । १७. दुविहा ( अम) । १८. वसति० ( अ ) 1 ११. हिंसंति (म) । १२. पुढवीय (म) । १३. ते (अ) । १४. X (म) । १५. यह गाथा अ, ब और म प्रति में नहीं है । २५७ १९. वि ( अ ) । २०. दोच्चैव य (बम), दो य भवे ( अ ) । २१. होति (म) । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ नियुक्तिपंचक ا س १३३. १२९. रुक्खा गुच्छा गुम्मा, लया य वल्ली य पव्वगा' चेव । तण-वलय-हरिय-ओसहि-जलरुह-कुहणा य बोधव्वा ।। १३०. अग्गबिया मूलबीया, खंधबिया चेव पोरबीया य। बीयरुहा समुच्छिमा, समासओ वणसई जीवा ।। १३१. जह सगलसरिसवाणं, सिलेसमिस्साण वत्तिया वट्टी। पत्तेयसरीराणं, तह होंति सरीरसंघाया ।। जह वा तिलसक्कुलिया, बहूहि तिलेहि मेलिया संती। पत्तेयसरीराणं, तह होति सरीरसंघाया ।। नाणाविहसंठाणा, दीसंति एगजीविया पत्ता। खंधावि एगजीवा, ताल-सरल-नालिएराणं ।। पत्तेया पज्जत्ता, सेढीय 'असंखभागमेत्ता ते'" । 'लोगासंखा पज्जत्तगाण',१२ साधारणाणंता ।। एतेहि सरीरेहि, पच्चक्खं ते परूविया जीवा । सेसा आणागिज्झा, चक्खुणा जे न दीसंति । ___साहारणमाहारो, साधारण आणपाणगहणं१४ च । साहारणजीवाणं, साहारणलक्खणं एयं । एगस्स 'उ जं गहणं',१५ बहूण साहारणाण तं चेव । जं बहुयाणं१६ गहणं, समासओ तं पि एगस्स ।। १३८. जोणिन्भूते बीए, जीवो वक्कमति सो व अन्नो वा। जो वि य मूले जीवो, सो चिय पत्ते पढमयाए । س سه س १३७. १. परवगा (ब)। १०. सेढीए (ब,टी)। २,३. ०बीया (टी), यहां छंद की दष्टि से हस्व ११. मेत्ताए (ब)।। इकार स्वीकृत किया है। १२. लोगा संखप्पज्ज० (टी)। ४. वणफई (अ)। १३. ० रणमणंता (अ)। ५. मीसाण (अ)। १४. आणुपाणु ०(ब,म), माणपाण. (अ)। ६. बहुएहिं (अ,ब,टी)। १५. अणुगहणं (ब,म)। ७. जाण (ब)। १६. बहुवाणं (ब)। ८. खंधे य (अ)। १७. दशनि २१५। ९. ०एरीणं (म,ब,टी)। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ आचारांग नियुक्ति १३९. चक्कागं' भज्जमाणस्स, गंठी चुण्णघणो भवे । पुढविसरिसभेदेणं, अणंतजीवं वियाणाहि ॥ १४०. गूढसिरागं पत्तं, सच्छीरं जं च होइ निच्छीरं । जं पुण' पणट्ठसंधि, अणंतजीवं वियाणाहि ।। १४१. सेवाल-कत्थ-भाणिय", अवए पणए य 'किण्हए य हडे'८ । एते अणंतजीवा, 'भणिया अन्ने अणेगविहा' ।। १४२० एगस्स दोण्ह तिण्ह व, संखेज्जाण व" तहा असंखाणं । पत्तेयसरीराण, दीसंति सरीरसंघाया१२ ।। १४३. एगस्स 'दोण्ह तिण्ह' व, संखेज्जाण व न पासिउं सक्का । दीसंति सरीराइं, निगोयजीवाणऽणंताणं ।। पत्थेण व कुडवेण४ व, जह कोइ मिणेज्ज सव्वधन्नाई । एवं मविज्जमाणा, हवंति लोगा अणंता उ ॥दारं।। १४५. जे बादरपज्जत्ता, पतरस्स असंखभागमेत्ता ते । सेसा 'तिन्नि वि रासी, असंख साहारणमणंता'१५ ॥ १४६. आहारे उवकरणे, सयणासण-जाण-जुग्गकरणे-य । आवरण 'पहरणेसु य", सत्थविहाणेसु 'हु बहूसु' ।। आउज्ज कट्टकम्मे, गंधंगे वत्थ-मल्ल'८ जोगे य । झावण'-वियावणेसु य, तिल्लविहाणे य• उज्जोए" ॥ १४८. एतेहिं कारणेहिं, हिंसंति वणस्सई बहू जीवे । सातं गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरंति ।।दा।। १४४. १. चक्कं व (ब)। ११. वि (ब)। २. पुढवी० (अ)। १२. अ प्रति में यह गाथा स्पष्ट नहीं है। ३. ०णेहि (टी)। १३. दो व तिण्हि (ब) । ४. पि य (अ)। १४. कुडएण (ब)। ५. ०संधितं (म), संधि (अ) ०संधिय (टी)। १५. असंखलोया तिन्नि वि साहारणाणता (टी)। ६. गब्भ (अ), कथ (ग)। १६. ०णेसु (अ, ब)। ७. भाणीय (ब), भाणी (अ), हाणीय (म)। १७. अ बहुसुं (टी)। ८. किं नए ० (टी), किण्ह ते हदे (अ)। १८. मल्लो (अ), मल्ले (ब)। ९. जे या वन्ने तहाविहा (अ), भणिया वन्ने १९. भासण (अ)। अणे०(म)। २०. व (ब)। १०. दो व (ब)। २१. उज्जोवे (अ, ब)। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० नियुक्तिपंचक १४९. . कप्पणि-कुहाडि'-असियग, दत्तिय-कुद्दाल-वासि परसू य । सत्था वणस्सईए, हत्था पाया मुहं अग्गी ।। १५०. किंची सकायसत्थं, किंची परकाय तदुभयं किंची। एतं तु दव्वसत्थं, भावे य असंजमो सत्थं ।। १५१. सेसाइं दाराई, ताई जाइं हवंति पुढवीए । एवं वणस्सईए, निज्जुत्ती कित्तिया एसा ।।दारं।। १५२. ___ तसकाए दाराई, ताई जाइं हवंति पुढवीए । नाणत्तो५ उ विहाणे, परिमाणुवभोग-सत्थे यः ॥ १५३. दुविहा खलु तसजीवा, लद्धितसा 'तह य गतितसा चेव । लद्धीय तेउ-वाऊ, तेणऽहिगारो इहं नत्थि ।। नेरइय-तिरिय-मणुया, सुरा य गतीय चउन्विहा 'उ तसा । पज्जत्ताऽपज्जत्ता, नेरइयाई' 'य नायव्वा'१२ ।। १५५. तिविहा तिविहा जोणी, 'अंडा-पोया'१3-जराउया चेव । बेइंदिय-तेइंदिय, चउरो पंचिंदिया चेव ॥दार।। दसण-नाण-चरित्ते, चरिताचरिते य दाण-लाभे य । उवभोग-भोग-वीरिय, इंदियविसए य 'लद्धी य१४ ।। १५७. उवओग-जोग-अज्झवसाणे वीसु च 'लद्धिओ उदया'१५ । अट्ठविहोदयलेस्सा, सण्णुस्सासे" कसाए य८ ॥ १५४. १५६. १. कुहाणि, (टी) कुहट्ठि (अ)। ९. गइओ (टी)। २. उद्दाले (ब)। १०. चेव (टी), तस्स (अ)। फरसू (ब, म)। ११. नेरई० (म)। ४. सत्था (म)। १२. उ नेयव्वा (अ)। नाणत्ति (म)। १३. अंडय पोअअ (टी)। ६. १५५,१५६ इन दो गाथाओं को छोड़कर १४. लद्धीओ (ब), ०द्धीए (म), अ प्रति में गाथा १५२-१६३ तक की गाथाओं का चणि में का उत्तरार्ध नहीं है। संकेत नहीं है। किंतु 'तसकायनिज्जुत्तीए नव १५ लद्धी ओदइया (णं उदया) (टी)। दाराई वणेउ पठितसिद्धाइं' इतना उल्लेख १६.०लेसा (ब, टी)। मिलता है। १७. सन्नुसासे (टी)। ७. चेव (टी)। १८. व (अ)। ८. लद्धीओ (ब)। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ आचारांग नियुक्ति १५८. लक्खणमेयं' चेव उ, पयरस्स असंखभागमेत्ता ते । निक्खमणे य पवेसे, 'एगादीया वि' एमेव ।। १५९. निक्खम-पवेसकालो', समयादी एत्थ आवलियभागो । अंतोमुहुत्तऽविरहो, उदहिसहस्साहिए दोन्नि ।।दारं।। १६०. मंसादी परिभोगो, सत्थं सत्थादियं अणेगविहं । सारीर-माणसा वेयणा य दुविहा बहुविहा य ।।दारं ।। मंसस्स केइ अट्ठा, केई चम्मस्स केइ रोमाणं । पिच्छाणं पुच्छाणं, दंताणढा वहिज्जति ।। १६२. केई वहंति अट्ठा, केइ अणट्ठा पसंगदोसेणं । कम्मपसंगपसत्ता, बंधंति वहंति मारेंति ।। १६३. सेसाई दाराई, ताई जाइं हवंति पुढवीए । एवं तसकायम्मी, निज्जुत्ती कित्तिया एसा ।। १६४. वाउस्स वि दाराई, ताई जाइं हवंति पुढवीए । नाणत्ती उ विहाणे, परिमाणुवभोग-सत्थे य" ।। १६५. दुविहा उ वाउजीवा, सुहुमा तह बायरा उ" लोगम्मि । सुहुमा य सव्वलोए, पंचेव य बायरविहाणा ।। १६६. उक्कलिया मंडलिया, गुंजा घणवाय-सुद्धवाया य । बादरवाउविहाणा, पंचविहा वणिया एते ।।दारं।। १६७. जह देवस्स सरीरं, अंतद्धाणं व अंजणादीसुं । 'एओवम आदेसो',१२ वाएऽसते वि रूवम्मि ।।दारं।। १६८. जे बायरपज्जत्ता, पयरस्स असंखभागमेत्ता ते । सेसा तिन्नि वि रासी, वीसुं लोगा असंखेज्जा ।।दारं।। १. मेवं (टी)। २. उ (म, टी)। ३. एगबीयावि (म)। ४. निग्गम० (ब)। ५. आवली. (टी)। ६. दोण्हि (ब)। ७. केई (म)। ८. हणंति (अ, म)। ९. सेसाई (म)। १०. १६४-७२ तक की गाथाएं चूणि में निर्दिष्ट नहीं हैं। ११. x (ब, म)। १२. एतोवमादेसो (अ)। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ नियुक्तिपंचक वियणधमणाभिधारण, उस्सिचण'-'फुकारआणुपाणू य२ । बादरवाउक्काए, उवभोगगुणा मणुस्साणं ।।दार।। १७०. वियणे य तालविटे, सूवसिए' पत्त चेलकण्णे" य । 'अभिधारणा य बाहिं', गंधग्गी वाउसत्थाई ॥ १७१. किची सकायसत्थं, किंची परकाय तदुभयं किंची। एतं तु दव्वसत्थं, भावे य असंजमो सत्थं ॥ १७२. सेसाइं दाराई, ताई जाई हवंति पुढवीए । एवं वाउद्देसे, निज्जुत्ती कित्तिया एसा ।। सत्थपरिण्णाए निज्जुत्ती सम्मत्ता १७३. सयणे अदढत्तं बोयगम्मि माणो य अत्थसारो य । भोगेसु लोगनिस्साइ, लोगे 'अममिज्जता चेव'८ ॥ १७४. लोगस्स य विजयस्स य, गुणस्स मूलस्स तह य ठाणस्स । निक्खेवो कायव्वो, जं मूलागं च संसारो।। १७५. लोगो त्ति य 'विजयो त्तिय, 'अज्झयणे लक्खणं तु निप्फन्न ।। गुणमूलट्ठाणं" ति य, 'सुत्तालावे य'१२ निप्फन्नं ।। १७६. लोगस्स य निक्खेवो, अट्ठविहो छठिवहो उ३ विजयस्स । भावे कसायलोगो, अहिगारो तस्स विजएणं ॥ १७७. लोगो भणितो दव्वं, खेत्तं कालो य भावविजओ य । भव-लोग भावविजओ, पगयं तह बज्झए'१४ लोगो।। १७८. विजितो कसायलोगो, सेयं खु ततो नियत्तिउं१५ होति । कामनियत्तमई खलु, संसारा मुच्चए'६ खिप्पं ॥ १. उस्सिघण (अ, ब, म)। ८. अममिज्ज भावे य (ब)। २. फुसण आणु (टी), फुसणाणपाणू (अ,म)। ९. विजअ त्ति (टी)। वायुकाय के प्रसंग में 'एएहिं कारणेहिं' वाली १०. ०यण सलक्ख० (अ) । गाथा नहीं मिलती है। ११. गुणमूलं ठाणं (टी)। ३. ०वंटे (टी)। १२.०लावेण (म)। ४. सुप्पसिय (टी), सूवसिय (अ)। १३. य (अ)। ५. कन्नचेले (ब)। १४. ०बज्झई (ब, म), जह बज्झई (टी)। ६. ०धारणाहिं पायं (ब)। १५. ०त्तिओ (अ)। . ७. यह गाथा केवल 'म' प्रति में प्राप्त है। वहाँ १६. मुच्चई (ब, म, टी)। भी 'किंची सकाय' इतना ही प्रतीक दिया गया है। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ १८०. आचारांग नियुक्ति १७९. दवे खेत्ते काले, फल-पज्जव-गणण-करण-अब्भासे । गुणअगुणे अगुणगुणे, भव-सीलगुणे य भावगुणे ।। दव्वगुणो' दव्वं चिय, गुणाण जं तम्मि संभवो होति । __'सच्चित्ते अच्चित्ते', मीसम्मि य होति दवम्मि । १८१. संकुचित-विगसितत्तं, एसो जीवस्स होति जीवगुणो । पूरेति हंदि लोग, बहुप्पएसत्तणगुणणं ।। १८२. देवकुरु सुसमसुसमा, सिद्धी निब्भय दुगादिया चेव । कल भोयणुज्जु वंके, जीवमजीवे य भावम्मि । १८३. मूले छक्कं दवे, 'ओदइउवएस'८ आइमूलं च । खेत्ते काले मूलं, भावे मूलं भवे तिविहं । १८४. ओदइयं उवदिट्ठा, आइतिगं मूलभाव' ओदइगं । आयरिओ उवदिट्ठा, विणय-कसायादिओ आदी ॥दारं।। नाम ठवणा दविए, खेत्तद्धा उड्ड उवरती वसही । संजम-पग्गह-जोहे", अचल-गणण-संधणा भावे१२ ।। १८६. पंचसु 'कामगुणेसु य१, सद्दप्फरिस-रस-रूव-गंधेसुं । जस्स कसाया वटंति, मूलट्ठाणं तु संसारे ।। जह सव्वपायवाणं, भूमीए पतिट्ठियाणि मूलाणि । इय कम्मपायवाणं, संसारपतिट्ठिया मूला।। १८८. अट्टविहकम्मरुक्खा, सव्वे ते मोहणीयमूलागा" । 'कामगुणमूलगं वा१५, तम्मूलागं च संसारो ।। १८९. दुविहो य होति मोहो, दंसणमोहो चरित्तमोहो य । कामो चरित्तमोहो, तेणऽहिगारो इहं सुत्ते ।। १८५. १८७. १. ० गुणा (ब)। २. चेव (चू)। ३. सचित्ते अचित्ते (ब)। ४. सुसुम० (ब)। ५. हिया (ब,म), तिया (अ)। ६. ०णुज्ज (अ)। ७. दिठे (अ)। ८. ओदइओव• (म), ओदइय उव० (अ)। ९. उदईओ (ब)। १०. मूलजीव (ब)। ११. जोए (म)। १२. दश्रुनि १०। १३. ० गुणेसुं (अ,ब)। १४. मोहणिज्ज० (ब, म, टी)। १५. ० मूलियागव्व (ब), • मूलियागं वा (अ)। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ १९०. १९१. १९२. १९२।१. दव्वे खेत्ते काले, १९३. १९४. १९५. १९६. संसारस्स उ' मूलं, कम्मं तस्स वि य' 'होंति उकसाया । ते सयण-'पेस- अत्थाइएसु४ अज्झत्थिए * य ठिया ॥ नामं ठवणा दविए, उप्पत्ती पच्चए य आदेसे | रस-भाव- कसाए य', 'को नयो" कोहादिया चउरो ।। 'दब्वे खेत्तं काले'", भव संसारे य भावसंसारे । पंचविहो संसारो, ' जत्थेते संसरति जिया" ।। भवसंसारे १६ कम्मेण य संसारो, तेणऽहिगारो नामं ठवणाकम्मं, 'दव्वं कम्म १२ समुदाणिरियावहियं १३, आहाकम्मं १४ कितिकम्म" भावकम्मं, दसविहकम्मं " समासतो होति । अट्ठविहेण उ कम्मेण एत्थ होही" अहीगारो ॥ संसारं छेत्तुमणो, कम्मं उम्मूलए तदट्ठाए । उम्मूलेज्ज कसाए, तम्हा उ चएज्ज सयणादी || माया मे१त्ति पिया मे, भगिणी भाया य पुत्त दारा मे । अत्थम्मि चेव गिद्धा, जम्मण-मरणाणि २२ पावेंति ।। १. य ( चू), x (म ) । २. x (टी) । ३. होति उ ( अ ), हुंति य (टी) । ४. पेसण अट्ठाइ० (च्) । ५. ० त्थओ (ब, म, टी), अण्णत्थओ (चू) । ६. या ( अ, टी) । ७. तेण य (टी) । ८. यह गाथा चूर्णि में अनिर्दिष्ट और अव्याख्यात है । ९. नामं ठवणा दविए ( चू) । १०. जत्थ य ते संसारजीवा ( अ ) । ११. यह गाथा केवल 'म' प्रति में उपलब्ध होती है । यह १९२वीं गाथा की संवादी है अतः य भावसंसारे । इहं सुत्ते " ॥ पयोगकम्मं च । तवोकम्मं५ ।। इसे निर्युक्तिगाथा की संख्या के क्रम में नहीं रखा है। १२. दव्वकम्मं ( अ, टी) । १३. समुयाणरिया० ( ब ) । १४. आह० (म) । १५. तओकम्मं ( ब ) । निर्युक्तिपंचक १६. ०कम्मं ( अ ) । १७. दसविहा सयं (अ) 1 १८. होई (बटी), होइ (ब) 1 १९. संसारे (ब) । २०. १९५,१९६ इन दोनों गाथाओं का चूर्णि में कोई संकेत नहीं है । २१. मि ( ब ) । २२. ०णाई ( अ ) । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग निर्मुक्ति १९७. १९८. १९९. २००. २०१. २०२. २०३. २०४. २०५. बितिउसे अदढो, उ' संजमे कोइ होज्ज अरतीए । अन्नाण-कम्मलोभादिएहि अज्झत्थदोसेहिं" ।। लोगविजयस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता पढमे सुत्ता अस्संजत त्ति बितिए' दुहं अणुहवंति । तइए न हु दुक्खेणं, अकरणयाए व समणोति ॥ उद्देसम्म चउत्थे, अहिगारो उ वमणं कसायाणं । पावविरईओ विदुसो य" संजमो एत्थ मोक्खो त्ति ।। नामं ठवणासीयं दव्वे भावे य होइ नायव्वं । एमेव य उहस्स वि, 'चउव्विहो होति निक्खेवो'" ।। दब्वे सीतलदव्वं, दव्वण्हं चेव 'उण्हदव्वं तु' । भावे उ पुग्गलगुणो, जीवस्स गुणो अणेगविहो || सीतं परीसह पमादुवसम-विरती" सुहं च उन्हं तु" । परीसह तवज्जम - कसाय - 'सोग-वेदारती' १२ दुक्खं ।। दारं ।। इत्थी सक्कारपरीसहो य दो भावसीतला एए । सेसा 'वीसं उण्हा १३, परीसहा होंति नायव्वा || जे 'तिब्वपरीणामा' १४ जे 'मंदपरीणामा' १५, धम्मम्मि जो पमायति, परोसहा ते भवंति उण्हा उ । परीसहा ते भवे सीया" ।। दारं ।। अत्थे वा सीयलो त्ति तं बेंति । उज्जुत्तं पुण अन्नं तत्तो उण्हं ति णं बेंति" | दारं ।। १. य ( अ ) । २. इस गाथा में द्वितीय अध्ययन के विषय का संक्षिप्त विवेचन है । इस गाथा का चूर्णिकार ने कोई उल्लेख नहीं किया है। टीकाकार ने इस गाथा को नियुक्तिकृत् मानते हुए कहा है - 'निर्युक्तिकारो गाथयाचष्टे' । ३. असंजति (चू) । ४. बिइय ( ब ), बीए ( अ ) । ५. पुहं ( अ ) । ६. वियणो (ब), पियणे (अ), विउणो (टी) । ७. ० (बम) | 0 निक्खेवो चउब्विहो होइ ( अ ) । होइ उण्हं तु (म) । ८. ९. १०. विरइ ( ब ) | ११. च (म) । २६५ १२. सोगाहि वेयारई (टी), सोगवेया रई (बम) । १३. विसं उहा य (अ) । १४. तिव्वपरि० (बटी, चू) । १५. मंद परि० (टी) । १६. बीया ( अ ) । १७. चूर्णि में इस गाथा का संकेत नहीं है, किंतु भावार्थ प्राप्त है । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ नियुक्तिपंचक २०६. २०७. २०८. २१०. सीतीभूतो परिनिव्वतो य संतो तहेव पल्हाओ'। होउवसंतकसाओ, तेणुवसंतो भवे सीओ ।।दा।। अभयकरो जीवाणं, सीयघरो संजमो भवति सीतो। अस्संजमो५ च उण्हो, एसो अन्नो वि पज्जाओ ।।दा।। निव्वाणसुहं सायं, सीतीभूयं पयं अणाबाहं । इहमवि जं किंचि सुहं, तं सीयं दुक्खमवि उण्हं ।। डझति तिव्वकसाओ, सोगाभिभूओ उदिण्णवेदो य । उण्हतरो होइ तवो, कसायमाई वि जं डहई ।। सीउण्हफास-सुह-दुह, परीसह-कसाय-वेय-सोगसहो। होज्ज समणो सया उज्जुओ य तव-संजमोवसमे ।। सीयाणि य उण्हाणि य, भिक्खणं होंति विसहियवाणि। 'कामा न सेवियव्वा'' सीओसणिज्जस्स निज्जुत्ती ॥ सुत्ता अमुणिओ सया, मुणिओ सुत्ता वि जागरा होति । धम्मं पडुच्च एवं, निद्दासुत्तेण भइयव्वं" ।। जह सुत्त मत्त मुच्छिय, असहीणो पावती बहुं दुक्खं । तिव्वं अप्पडियारं, पि वट्टमाणो तहा लोगो । एसेव य उवदेसो, पदित्त पवलाय१५ पंथमादीस । अणुहवति जह सचेओ, सुहाइं समणो वि तह चेव ।। सीओसणिज्जस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता पढमे सम्मावाओ, बितिए'धम्मप्पवादियपरिक्खा। ततिए अणवज्जतवो, न हु बालतवेण मोक्खो त्ति ।। २१२. २१३. २१४. २१५. १. पण्हाणो (टी)। २. जीवो (टी)। ३. सीयहरो (अ)। ४. हवंति (अ)। ५. असंजमो (ब)। ६. नेव्वाणं० (अ)। ७. भूओ य (अ)। ८. भवे (अ)। ९. महइ (म)। १०. कामं निसेवियव्वा (अ) । ११. भणिय० (अ)। १२. x (चू)। १३. पावए (ब,टी)। १४. पलित्त (अ,ब,म)। १५. पयलाय (ब,टी)। १६. बीए (म,टी)। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग निर्युक्ति २१६. २१७. २१८. २१९. २२०. २२१. २२२. २२३. २२४. २२५. उद्देसम्म उत्थे, समासवयणेण नियमणं भणियं । तम्हा य नाण- दंसण- तव चरणे होति जतितव्वं ॥ नामं ठवणासम्मं, दव्वं सम्मं च भावसम्मं च । एसो खलु सम्मस्सा, निक्खेवो चउन्विहो होइ ॥ अह दव्वसम्म इच्छाणुलोमियं तेसु तेसु दव्वे | कयसंखतसंजुत्तो, पउत्त' जढ भिण्ण छिण्णं वा ॥ तिविहं तु भावसम्मं, दंसण नाणे तहा चरिते य । दंसण चरणे तिविहं, 'नाणे दुविहं" तु नायव्वं ॥ कुमाणो विकिरियं परिच्चयंतो वि सयण धण - भोए । दितो वि दुहस्स उरं, न जिणति अंधो पराणीयं ।। कुणमाणो विनिवित्ति, परिच्चयतो वि सयण धण - भोए । दितो" वि दुहस्स उरं, मिच्छद्दिट्टी न सिज्झइ उ ॥ तम्हा कम्माणीयं ", जेतुमणो दंसणम्मि पयएज्जा । 'दंसणवओ हि' १२ सफलाणि, होंति तव-नाण-चरणाई || सम्मत्तुप्पत्ती'" सावए य विरए अणंतकम्मंसे४ । दंसणमोहक्खवणे, उवसामंते १५ य वसंते ।। खवगे य खीणमोहे, जिणे य सेढी भवे असंखेज्जा । तव्विवरीतो काले, संखेज्जगुणा ऍ६ सेढीए" ।। केतवियं" । आहार - उवहि-पूया इड्डीसु य गारवेसु एमेव बारसविधे तवम्मि न हु कइतवे समणो ।। १. नायव्वं (म) । २. ० स्स ( ब ) । ३. हत्थाणु ० (म ), ०लोमिया ( ब ) । ४. उवत्त ( टीपा ) । ५. च (म) । ६. X ( अ ) । ७. दुविहं नाणे ( अ ) । ८. दंतो ( अम) । ९. निर्यात (चू), नियत्ति (म ) । १०. दंतो (अ,म) । २६७ ११. ०णीवं (ब) : १२. ०ण वायाहि ( ब ) । १३. ०त्पत्ती ( ब, टी) 1 १४. ०कम्मंसि (म ) । १५. उवसमंते (अ,म) । १६. ०णाइ (टी) । १७. चूर्णि में इस गाथा का संकेत न होने पर भी इसकी संक्षिप्त व्याख्या प्राप्त है । १८. कतियवे (म), केयवं ( अ ) । १९. यह गाथा चूर्ण में अव्याख्यात है । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ निर्यक्तिपंचक २२६. २२७. २२८. २२९. २३०. जे जिणवरा अतीता, जे संपति जे अणागए काले । सव्वे वि ते अहिंसं, वदिसु वदिहिति ‘य वयंति" ।। 'छप्पिय जीवनिकाये'२, णो वि हणे णो वि आहणावेज्जा। नो वि य अणुमन्नेज्जा, सम्मत्तस्सेस निज्जुत्ती॥ खुड्डग पायसमासं, धम्मकहं पि य अजंपमाणेणं । छन्नेण अन्नलिंगी, परिच्छिया रोहगुत्तेणं ॥ 'भिक्खं पविट्ठण'"मएऽज्ज दिळं, पमदामुहं कमलविसालनेत्तं । वक्खित्तचित्तेण न सुट्ठ नाय, सकुंडलं वा वयणं न व ति ॥ फलोदएणं म्हिगिहं१२ पविट्रो, तत्थासणत्था पमदा मि दिदा । वक्खित्तचित्तेण न सुट्ठ नायं, सकुंडलं वा वयणं न व त्ति ॥ 'मालाविहारम्मि मएऽज्ज'१५ दिट्ठा, उवासिया कंचणभूसियंगी। वक्खित्तचित्तेण न सुट्ठ नायं, सकुंडलं वा वयणं न व त्ति६ ॥ खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स, अज्झप्पजोगे गयमाणसस्स । किं मझ' एएण विचितएणं, सकुंडलं वा वयणं न व त्ति ।। उल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलया मट्टिया मया । दो वि आवडिया कुड्डे'८, जो उल्लो सोऽत्थ लग्गती ॥ एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गति, जहा से सुक्कगोलए२१ ।। २३१. २३२. २३३. २३४. १. विवदिति (ब,टी)। २. छज्जीवनिकाय (चू)। ३. य हणान्वे० (टी), याहणा० (ब)। ४. खुद्दग (अ,ब)। ५. ०समासा (चू)। ६. राह० (ब)। ७. भिक्खप्पवि० (अ,ब) । ८. मये (अ)। ९. दिळं (अ)। १०. २२९-३१ तक की गाथाएं चूणि में निर्दिष्ट और व्याख्यात नहीं हैं। ११. मि (म,टी)। १२. गिहे (म,अ)। १३. दि8 (अ)। १४. किसी प्रति में अंतिम चरण का 'सकं' केवल . इतना ही संकेत मिलता है। १५. मालाविहारे मयि अज्ज (अ)। १६. म प्रति में यह गाथा नहीं है। १७. मज्झि (म)। १८. कुंडे (अ)। १९. तत्थ (टी)। २०. उसू २५।४० । २१. ०लया (ब), उसू २५।४१ । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०. २४१. आचारांग नियुक्ति २६९ २३५. जह खलु झुसिरं कळं, 'सुचिरं सुक्क'' लहुं डहइ अग्गी। तह खलु खति' कम्म, सम्मच्चरणट्ठिया साहू ।। सम्मत्तस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता २३६. हिंसग-विसयारंभग, एगचरो त्ति न मुणी पढमगम्मि । विरओ मुणि त्ति बितिए, अविरयवादी परिग्गहिओ ।। २३७. ततिए एसो अपरिग्गहो त्ति निविण्णकामभोगो य । अव्वत्तस्सेगचरस्स, पच्चवाया चउत्थम्म । २३८. हरउवमा तव-संजमगुत्ती निस्संगया य पंचमए । उम्मग्गवज्जणा छट्ठगम्मि तह रागदोसे य" ।। आदाणपएणावंति, गोण्णनामेण१२ लोगसारो त्ति । लोगस्स य सारस्स य'३, चउक्कओ होति निक्खेवो ॥ सव्वस्स थूल४ गुरुए५, मज्झे देसप्पहाण सरिराई१६ । घण-एरंडे वइरे. खइरं च जिणादुरालाई१८ ॥दारं।। भावे फलसाहणता, फलतो सिद्धी सुहुत्तम-वरिट्ठा । साहणय नाण-दसण-संजम-तवसा तहि° पगयं ।। २४२. लोगम्मि कुसमएसु२१ य, काम-परिग्गहकुमग्गलग्गेसुं । सारो हु नाण-दसण-तव-चरणगुणा हियट्ठाए । चइऊणं२२ संकपयं, सारपयमिणं२३ दढेण घेत्तन्वं । अत्थि जिओ२४ परमपयं, जयणा२५ जा रागदोसेहिं ।। १. सुक्कं सुचिरं (अ)। १३. या (ब)। २. खवंति (टी), खविति (म)। १४. मूल (ब)। ३. सम्मं च० (अ), ०च्चरणे ठिया (ब,म,टी)। १५. भारिय (अ,चू)। ४. चूर्णि में यह गाथा खुड्डगपायसमासं (आनि १६. सिरिराइं (म), सिरिराई (ब)। २२८) के बाद है। १७. व (ब,म)। ५. व्यारंभो (म)। १८. जिणा उरालं च (म)। ६. बीए (अ)। १९. वरट्ठा (अ)। ७. य (ब,म,टी)। २०. हियं (ब)। ८. हरओवमो (टी)। २१. य सुमएसु (ब)। ९. संजमा० (अ)। २२. काऊणं (ब), जहिऊण (चू) । १०. २३८,२३९ इन दो गाथाओं का संकेत चूणि २३. सारयमिदं णं (ब)। में नहीं है किंतु भावार्थ प्राप्त है । २४. जीवो (अ)। ११. ०णावत्ती (ब,म)। २५. जयमाणा (ब) । १२. गोत्त० (म)। २४३. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक २४४. लोगस्स य' को सारो, तस्स य सारस्स को हवति सारो। तस्स य सारो सारं, जइ जाणसि पुच्छितो साह ।। २४५. लोगस्स धम्मसारो, धम्म पि नाणसारियं बेंति । नाणं संजमसारं, संजमसारं च निव्वाण ।। २४६. चारो चरिया चरणं, एगळं वंजणं तहिं छक्कं । दव्वं तु दारुसंकम, जल-थल-चारादियं बहुहा ।। २४७. खेत्तं तु जम्मि खेत्ते, ‘कालो काले जहिं भवे चारो। भावम्मि नाण-दसण-चरणं तु पसत्थमपसत्थं ।। २४८. लोगे चउन्विहम्मी, समणस्स चउन्विहो कहं चारो ?। होइ' धिती" अहिगारो, विसेसतो खेत्तकालेसुं ।। पावोवरते१२ अपरिग्गहे य 'गुरुकुलनिसेवए जुत्ते । उम्मग्गवज्जए रागदोसविरते य से विहरे" ।। लोगसारस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता २५०. पढमे नियगविधुणणा, कम्माणं बितियए तइयगंसि५ । उवगरणसरीराणं, चउत्थए गारवतिगस्स ।। २५१. उवसग्गा सम्माणय, विधूताणि पंचगम्मि'६ उद्देसे । दव्वधुतं वत्थादी, भावधुतं कम्मअट्ठविहं१८ ।। २५२. ___ अहियासित्तवसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे'६ य । जो विहुणइ कम्माई२०, भावधुतं तं वियाणाहि ।। धुयस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता २४९. १. उ (ब,म,टी)। ११. धिति (ब,म)। २. साहु (ब)। १२. ०वरिए (म)। ३. धम्मो सारो (चू), सारधम्मो (टी)। १३. निवेसए कुत्तो (अ)। ४. नेव्वाणं (अ,म)। १४. इस गाथा का निर्देश चूर्णि में नहीं है। ५. वयणं (चू)। १५. तइयते य (अ), तइगम्मि (टी)। ६. काले कालो (अ)। १६. पंचमम्मि (ब,म,टी)। ७. व (अ)। १७. ०धुवं (अ)। ८. इस गाथा के पूर्वार्द्ध का निर्देश चूणि में नहीं १८. यह गाथा चूणि में निर्दिष्ट नहीं है। है, किन्तु व्याख्या उपलब्ध है। १९. तिरिच्छे (टी)। ९. विहम्मि (चू)। २०. ०माई (ब)। १०. होई (अ,म)। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ आचारांग नियुक्ति २५३. गाहावतिसंजोगे, कुसीलसेवा तहेव य सपक्खे । परिण्णाए' विवेगो, पढमुद्देसम्मि अहिगारो । २५४. बितिए मग्गविजहणा, देहविभूसा य मेहुणासेवा । 'गब्भस्स य आदाणं',४ परिसाडण पोसणा चेव ।। २५५. ततिए खलुकभावो, आमिसपुच्छा य 'विसहणा सयणे । पासवणुच्चारविही,८ किरिया धुवणं च वत्थस्स ।। २५६. 'विधुवण वेहाणस' हत्थकम्म इत्थीण विप्पजहणा य । देहस्स य परिकम्म, तिसमुट्ठाणं पहियव्वं ॥ २५७. चउत्थम्मि' धुवणविहीर, परिहरणविही य होइ वत्थस्स। तस्सेव वण्णकरणं, 'अणुन्नवण उग्गहस्सेव' ।। २५८. कडगासण५ परिभोगो,६ सेज्जायरपिंडवज्जणं चेव। . सपरिग्गहपरिमाणं, विवज्जणा सन्निहिस्सेव ।। २५९. पंचमए अट्ठपदेणं, जिणधम्मम्मि'१७ तहा समुट्ठाणं । थावरकायाण८ दया, अक्कोसवधेऽहियासणया' ।। २६०. तसकायसमारंभण,२० गिहमत्तविवज्जणं न तित्थीणं । जे यावि य अविदिन्ना, ठाणा तेसि च सव्वेसि ।। १. ०णाए य (क,म)। ७. विजहणावसाणे (अ), विसणे० (ब)। २. गाथा २५३ से २७० तक की गाथाएं 'महा- ८. ०च्चाराणं (अ)। परिज्ञा' अध्ययन की हैं । २५३ से २६३ तक ९. ०वण वहाण (अ)। की गाथाएं टीका में उपलब्ध नहीं हैं । लेकिन १०. त्ति जइयव्वं (अ)। २६४ से २७० तक की गाथाएं दूसरे श्रत- ११. वत्थम्मी (अ)। स्कंध की टीका के अन्त में दी हैं। टीकाकार १२. धुयण ०(क,ख)। ने 'अविवता निर्यक्तिरेषा महापरिज्ञायाः' १३. परिट्रवणविही (ख)। मात्र इतना ही उल्लेख किया है। २५३ से १४. ०वण वेगाहस्सेव (अ), ०वणा उ गहणस्स २७० तक की गाथाएं सभी आदर्शों में (ब)। मिलती हैं। १५. करमा ०(अ)। ३. विअयणा (ब)। १६. पडिभोगो (ब)। ४. गब्भस्सादायाणं (ब), गब्भस्स य आदाणाय १७. अज्जं णं धम्मे (ब,म)। (ब)। १८. थावरकाए य (ब), थावरकाएण (क,ख,म)। ५. साडणा (अ)। १९. आउस ० (अ)। ६. ४(म)। २०. समारंभो (अ), समारभणं (म)। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ नियुक्तिपंचक २६१. २६२. २६३. २६४. २६५. २६६. छठे पडिघाओ' संजमाओ 'तइयम्मि जो'२ य अहिगारो। आसेवणया य ‘भवे, सिणाण'' परिभोग वज्जणया ।। 'सत्तमे य तिन्नि' पलया, सीयपरीसहऽहियासणं धुवणं । सूईमादीयाणं, सन्निही अट्ठवडियाए ।। आसंदी य अकरणं, उवएसाणं निकायणा चेव । 'संलेहणिया या१० भत्तपरिण्णंतकिरिया य ।। पाहण्णे महसद्दे, परिमाणे चेव होइ नायव्वो। पाहण्णे परिमाणे, य छव्विहो होइ निक्खेवो । दव्वे खेत्ते काले, भावम्मि य२ होंति जे पहाणा उ । तेसि महासद्दो खलु, पाहण्णेण तु निप्फण्णो ।। दवे खेत्ते काले, भावम्मि य जे भवे महंता उ । तेसु महासद्दो खलु, पमाणओ होति निप्फण्णो ।। दव्वे खेत्ते काले, भावपरिण्णा य होति बोद्धव्वा । जाणणओ पच्चक्खाणओ य दुविहा पुणेक्केक्का ।। भावपरिण्णा दुविहा, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । मूलगुणे पंचविहा, दुविहा पुण उत्तरगुणेसु ॥ पाहण्णेण उ पगयं, भावपरिणाए 'तह य'१५ दुविहाए । परिणाणेसु पहाणे, महापरिण्णा तओ होइ ।। देवीणं मणुईणं, तिरिक्खजोणीगयाण इत्थीणं । तिविहेण परिच्चाओ, महापरिण्णाए निज्जुत्ती ।। ____महापरिणाए निज्जुत्तो सम्मत्ता २६७. २६८. २६९. २७०. १. पडिमाओ (ब), पडिवाओ (क), परिवारो ९. यहां आएसाणं पाठ होना चाहिए। १०. ०लेहणीय णेया (क), संलेहण निहाणेया २. ते तइयम्मि (ख)। ३. आसेवणा (क)। ११. महासहो (म)। ४. भवे सणाण (क), भवेसिणा (अ)। १२. या (ब)। ५. पडिभोग (ख)। १३. तेसि (म)। ६. सत्तमे निश्च (अ), सत्तम्मि तिन्नि (ख)। १४. होंति (टी)। ७. हियासवणं (ब), हीयासणं (ख,म)। १५. तहेव (अ)। ८. सुयमाईयाण च (ब)। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ आचारांग नियुक्ति २७१. 'असमणुण्णस्स विमोक्खो, पढमे बितिए अकप्पिय विमोक्खो। पडिसेहणा' य रुट्ठस्स, चेव सब्भावकहणा य॥ २७२. ततियम्मि अंगचेट्टा, भासिय आसंकिते उ कहणा य । सेसेसु अहीगारो, उवकरण-सरीरमोक्खेसु ॥ २७३. उद्देसम्मि चउत्थे, वेहाणस-गिद्धपिट्ठमरणं च । पंचमए गेलण्णं, भत्तपरिण्णा य बोधव्वा । २७४. छट्ठम्मि उ एगत्त, इंगिणिमरणं च” होइ बोधव्वं । सत्तमए पडिमाओ, पायवगमणं च नायव्वं ।। अणुपुग्विविहारीणं, भत्तपरिण्णा य इंगिणीमरणं । पायवगमणं च तहा, अहिगारो होति' अट्ठमए ।। २७६. 'नामं ठवणविमोक्खो, दव्वे'१२ खेत्ते य काल-भावे य । एसो उ विमोक्खस्सा, निक्खेवो छव्विहो होइ ।। दव्वविमोक्खो निगलादिएसु'३ खेत्तम्मि चारगाईसुं । काले चेइयमहिमादिएसु अणघायमादीसु१४ ।। २७८. दुविहो भावविमोक्खो,१५ देसविमोक्खो य सव्वमोक्खो य। देसविमोक्खा६ साहू, सव्वविमोक्खा भवे सिद्धा ।। २७९. कम्मयदव्वेहि समं, संजोगो होति जो उ६ जीवस्स। सो बंधो नायव्वो, तस्स वियोगो भवे मोक्खो२० ।। २७५. २७७. १. •णुन्न विमुत्तो० (ब), ०णुण्णस्स विमुक्खो० १२. नामं ठविओ मोक्खो दव्वमोक्खो य (च)। (टी)। १३. नियलाइएसु (टी), लातिएहिं (चू)। २. परिसे ० (अ), पडिसहणा (म) । १४. अमलायमाईसु (अ), अमाघायमादीओ (म, ३. रुक्खस्स (अ)। ४. य (अ,टी)। १५. य भाव ०(अ)। ५. गद्धपट्ठम० (अ,म)। १६,१७. विमुक्का (अ,म)। ६. एगत्ते (चू)। १८. कम्मय० (अ,टी)। ७. व (म)। १९. य (अ)। ८. पाययग० (अ)। २०. यह गाथा धणि में निर्दिष्ट नहीं है। इसके ९. अणुपुत्व ० (ब)। बाद चणि में 'रागेण य' गाथा का संकेत १०. पाओग० (अ)। मिलता है किन्तु यह टीका तथा किसी भी ११. होति (अ)। हस्तप्रति में नहीं मिलती है। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ २८०. २८१. २८२. २८३. २८४. नियुक्तिपंचक जीवस्स अत्तजणितेहिं, चेव कम्मेहि पुत्वबद्धस्स । जावस्स सव्वविवेगो' जो तेण, तस्स अह एत्तिओ मोक्खो ।। भत्तपरिणा-इंगिणि-पायवगमणं च होति नायव्वं । जो मरति चरिममरणं, भावविमोक्खं वियाणाहि ॥ 'सपरक्कमे य अपरक्कमे य वाघाय आणुपुत्वीए । सुत्तत्थजाणएणं, समाहिमरणं तु कायव्वं ।। सपरक्कममादेसो", जह मरणं होइ अज्जवइराणं । 'पायवगमणं च'८ तहा, एयं सपरक्कम मरणं ।। अपरक्कममादेसो ६, जह मरणं होइ उदहिनामाणं । पायवगमणे" वि तहा, एयं अपरक्कमं१२ मरणं ।। वाघातिममादेसो, अवरद्धो१४ होज्ज अन्नतरएणं । तोसलि महिसीय५ हओ, एयं वाघातिमं१६ मरणं ॥ अणुपुब्विगमादेसो, पव्वज्जा सुत्तअत्थकहणं१८ च । वीसज्जितो य६ णितो, मुक्को तिविहस्स निच्चस्स । पडिचोदितो य२१ कुविओ, रण्णो जह तिक्ख-सीयला आणा। तंबोले य विवेगो, घट्टणया जा पसाओ य२२ ॥ निप्फाइया य सीसा, सउणी जह अंडगं पयत्तेणं । बारससंवच्छरियं, सो संलेहं अह करेति ।। २८५. २८६. २८७. २८८. १. वियोगो (अ), २. ते य (अ)। ३. पाउवग० (म)। ४. जे (ब)। ५. चरण० ब)। ६. सपरिक्कमे य अपरि० (टी)। ७. सपरि (म)। ८. पाउवगमे वि (अ,म)। ९. अपरि ० (ब), मआदेसो (म)। १०. ०नामेणं (ब)। ११. पाउव० (म), पाउवगमणं (चू)। १२. अपरि ०(ब)। १३. वाघाइयमाएसो (टी), वाघाइम० (ब,म), ___.तिम आदेसो (चू)। १४. अवरुद्धो (अ)। १५. ०सीए (ब), ०सीइ (टी)। १६. वाघाइयं (टी)। १७ णाम (अ)। १८. अत्थकरणं (टी), अत्थगहणं (ब,म,चू) । १९. तु (म), उ (ब)। २०. नीयस्स (टी)। २१. उ (अ)। २२. इस गाथा का संकेत चणि में नहीं है किन्तु कथा के रूप में व्याख्या उपलब्ध है। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति २७५ २८९. २९०. २९१. २९२. २९३. चत्तारि विचित्ताइं, विगई निज्जूहियाणि' चत्तारि । 'संवच्छरे य'२ दोन्नि उ, एगंतरियं तु आयाम ॥ नातिविकिट्टो उ तवो, छम्मासे परिमियं च आयाम । अन्ने वि य छम्मासे, होति विगिळं तवोकम्मं ।। वासं कोडीसहियं, आयाम काउ आणुपुवीए। गिरिकंदरम्मि" गंतुं, पायवगमणं अह करेति ।। कह नाम सो 'तवोकम्मपंडिओ जो न''"निच्चजुत्तप्पा"। लहुवित्तिपरिक्खेवोर, वच्चति जेमंतओ३ चेव ।। आहारेण विरहिओ, अप्पाहारो य संवरनिमित्तं । हासंतो हासंतो, एवाहारं निरंभेज्जा ।। देसविमोक्खो४ पगयं, 'उवकरणसरीरमाइ एसो य'१५ । निस्संगया'६ विजहणा, करणेणं आउकालं च ।। विमोक्खस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता जो जइया तित्थगरो, सो तइया अप्पणम्मितित्थम्मि । वण्णेइ तवोकम्मं, उवहाणसुयम्मि• अज्झयणे ।। सव्वेसिँ तवोकम्म, निरुवस्सग्गं तु वण्णिय जिणाणं । नवरं" तु वद्धमाणस्स, सोवसग्गं मुणेयव्वं२२ ।। २९४. २९५. २९६. १. परिवज्जियाइं (अ) •हियाइं (टी)। १३. जेमणतवो (अ)। २. संवच्छराई (अ)। १४. विमुक्को (ब)। ३. नाइविगिट्ठो (टी)। १५. सरीरयाए एसो (अ)। ४. य (अ)। १६. निस्संकया (ब)। ५. तु (टी)। १७. करणिज्ज (ब)। ६. इस गाथा का चूर्णि में संकेत नहीं है। १८. यह गाथा टीका तथा चूणि दोनों में व्याख्यात ७. ०कंदरं तु (अ)। नहीं है किंतु यह विषय से सम्बद्ध है। यह ८. चूणि में यह गाथा निर्दिष्ट नहीं है किंतु - सभी हस्तप्रतियों में मिलती है। संक्षिप्त व्याख्या है। १९. अप्पणो य (टी)। ९. किह० (म,क,चू)। २०. ओहाण. (ब,म,टी)। १०. तवोकम्म पडिमो न (अ)। २१. नवरि (अ)। ११. निच्चजुत्त० (टी)। २२. २९६,२९७ ये दो गाथाएं चूर्णि में व्याख्यात १२. लहुवित्ती० (टी)। नहीं हैं। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ १. २. २९७. २९८. २९९. ३००. ३०१. ३०२. ३०३. ३०४. ० महिऊ (म) । धुम्मि ( ब ) । तित्थगरो चउनाणी, सुरमहिओ' सिज्भियन्वय धुम्मि । afra for बलविरिओ', तवो विहाणम्मि उज्जमइ' ।। किं पुण अवसेसेहि, दुक्खक्खयकारणा सुविहिते हि । 'होइ परक्कमियव्वं'", सपच्चवायम्मि माणुस्से || चरिया सेज्जा य परीसहा य आयंकिते" 'तिमिच्छा य' । तव चरणेणऽहिगारो", चउद्दे नायव्वो" ।। नामं ठवणुवहाणं २ दव्वे भावे य होइ नायव्वं " । एमेव य सुत्तस्स वि, निक्खेवो चउव्विहो होइ ॥ दव्वु वहाणं सयणे, भाववहाणं तवो चरित्तस्स । तम्हा उ नाण- दंसण-तव- 'चरणेहि इहाहिगयं ४ || जह खलु मलिणं वत्थं, सुज्झइ उदगादिएहि देहि । एवं भाव वहाणेण, सुज्झती" 'कम्मअट्टविहं ।। ओणण' धुणण नासण, विणासणं भवण खवण सोहिकरं । छेयण भेयण फेडण, डहणं धुवणं" च कम्माणं २२ ।। एवं समणुचिण्णं वीरवरेणं महाणुभावेणं । जं अणुचरितु धीरा ४, सिवमचलं ॥ जंति निव्वाणं ॥ ११८ तु उवहाणसुयस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता ३. अणगू ० ( ब ) । ४. विहाणे ( अ ) । ५. इस गाथा का संकेत चूर्णि में ३०३ की गाथा के बाद है पर हमने टीका और हस्तप्रतियों की गाथा -क्रम का अनुसरण किया है। ६. ०करणे (म), करणा (टी) । ७. होइ न उज्जमियव्वं ( अ, टी) । ८. अलंकिए ( क ) | ९. चिच्छिा य ( म, टी), तिमिच्छाए (चू) । १०. ० चरणहियारो (क) । ११. कायव्वो (अ) । १२. ०हाणे ( ब ) । १३. बोधव्वो (अ) । 23 १४. ० रणेणाहिगारे तु (म) । १५. मइलं (ब,म, टी,चू) । १६. सुज्झइ तु (अ) । १७. सुज्झए (टी) । १८. कम्ममट्ठ० ( अ, टी) । १९. ओहुणण (म ), ओधू ० (टी), उवहणण (चू) । २०. ०सणा ( अ ) निर्युक्तिपंचक २१. धुणं (म) । २२. चूर्णि में इस गाथा के बाद ' तित्थगरो चउनाणी' (आनिगा० २९७ ) का संकेत है | २३. अणुचरेदु (च्) । २४. वीरा (अ,चू) । २५. ०मउलं (बम) । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति २७७ ३०५. ३०६. ३०७. ३०८. ३०९. आयारचूला दव्वोगाहण' आदेस, काल-कम-गणण-संचए भावे । अग्गं भावे तु पहाण, बहुग उवयारतो तिविधं ॥ उवयारेण उ पगयं, आयारस्सेव उवरिमाइं तु । रुक्खस्स पव्वयस्स य', जह अग्गाइं तहेताई ।। थेरेहिऽणुग्गहट्टा, सीसहियं होउ पागडत्थं च । आयाराओ अत्थो, आयारग्गेसु पविभत्तो ।। 'बितियस्स य पंचमए', 'अट्रमगस्स बितियम्मि' उहेसे। भणितो पिंडो सेज्जा, वत्थं पाउग्गहे चेव ।। पंचमगस्स चउत्थे, इरिया वणिज्जते° समासेणं । छट्ठस्स य पंचमए", भासज्जायं१२ वियाणाहि ॥ सत्तेक्कगाणि सत्त वि, निज्जूढाई१३ महापरिण्णाओ। सत्थपरिण्णा भावण, निज्जूढाओ४ धुय-विमुत्ती५ ॥ आयारपकप्पो पुण, पच्चक्खाणस्स तइयवत्थूओ। आयारनामधेज्जा, वीसइमा पाहुडच्छेया'६ ।। अव्वोगडो उ भणिओ, सत्थपरिण्णाय'७ दंडनिक्लेवो । सो पुण विभज्जमाणो, तहा तहा होइ नायव्वो ॥ एगविहो पुण सो संजमो त्ति अज्झत्थ-बाहिरो 'य दुहा'८। मण-वयण-काय तिविहो, चउन्विहो 'चाउजामो उ१६ ॥ ३१०. ३११. ३१२. ३१३. १. णामग्गं (चू) दव्वोग्गहणग (निभा ४९)। १०. वणिज्जए (अ), जई (टी), ०ज्जइ (ब) । २. ०स्स य (टी)। ११. पंचमंते (अ)। ३. वा (चू)। १२. ०जाए (ब), जाया (म)। ४. ० रेहि अणु ० (क, अ, चू), • अणुग्गहत्था १३. विच्छूढाइं (अ) । १४. निज्जूढा उ (म,टी)। ५. सीसाणं (अ)। १५. धुववि० (ब,म)। ६. आयारंगेसु (टी)। १६. पाहुडच्छेज्जा (ब)। ७. बीयस्स य पंचमंते (अ)। १७. ०ण्णाए (ब,म)। ८. अट्ठमए बीयम्मि (ब,म)। १८. दुविहो (अ)। ९. पंचमस्स (चू)। १९. जामो त्ति (अ)। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ३१६. तेनि नियुक्तिपंचक ३१४. पंच य महव्वयाई, तु 'पंचहा राइभोयणे'' छट्ठा । सोलंगसहस्साणि य, आयारस्सप्पवीभागा' ।। ३१५. आइक्खिउ विभइउं, विण्णाउं चेव सुहतरं होइ । एतेण कारणेणं, महव्वया पंच पण्णत्ता ।। तेसिं 'च रक्खणढाय,'५ भावणा पंच पंच एक्केक्के । ता सत्थपरिण्णाए, एसो अभितरो होई ।। ३१७. जावोग्गहपडिमाओ, पढमा सत्तक्कगा बितियचूला । भावण-विमुत्ति-आयारपकप्पा तिन्नि इति पंच" ।। ३१८. पिंडेसणाएँ जा निज्जुत्ती,' 'सा चेव' होइ सेज्जाए । वत्थेसण पाएसण, उग्गहपडिमाएँ३ ‘सा चेव'१४ ।। ३१९. सव्वा वयणविसोही, निज्जुत्ती जा उ वक्कसुद्धोए । सच्चेव५ निरवसेसा, भासज्जाए६ वि नायव्वा ।। ३२०. सेज्जा इरिया तह उग्गहे य तिण्हं पि छक्क निक्खेवो । पिंडे भासा वत्थे, पाए य चउक्कनिक्खेवो ॥ पिण्डेसणाए निज्जुत्ती सम्मत्ता ३२१. दवे खेत्ते काले, भावे सेज्जा य जा तहिं पगयं । केरिसिया सेज्जा खलु, संजयजोग त्ति नायव्वा ।। ३२२. 'तिविहा य८ दव्वसेज्जा, सच्चित्ताऽचित्तमीसगा चेव । खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते, काले 'कालो जहिं जो उ'१६ ।। १. पंचह राय० (ब,म)। ११. निजुत्ती (ब)। २. •सहस्साण (अ)। १२. सव्वे वा (अ)। ३. अट्ठारगस्स निप्फत्ती (अ,क)। चूणि में इस १३. अग्ग० (अ,म)। गाथा का संकेत न होने पर भी व्याख्या प्राप्त १४. सव्वेव (अ), सच्चेव (ब), सा च्चेव (म)। १५. सव्वे वि (म,ब)। ४. आतिक्खेउ (चू)। १६. भासज्जायाण (अ)। ५. चेव रक्खणट्ठाए (चू)। १७. चउक्कगं जाण (अ), ३१८ से ३२० इन तीन ६. तो (ब)। गाथाओं की टीकाकार ने कोई व्याख्या नहीं ७. होइ (ब,म)। की है। केवल 'सर्वा पिण्डनियुक्तिरत्र भणनी८. बीय० (म)। येति' मात्र इतना उल्लेख किया है । इन तीनों ९. इअ (टी)। गाथाओं का संकेत चूणि में नहीं है। १०. यह गाथा चणि में निर्दिष्ट और व्याख्यात १८. तिविहाओ (अ)। नहीं है। १९. जा जम्मि कालम्मि (म)। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति ३२३. ३२४. ३२५. ३२६. ३२७. ३२८. ३२९. ३३०. ३३१. ३३२. उक्कल कलिंग गोतम, वग्गुमती' चेव होइ नायव्वा । एयं तु उदाहरणं, नायव्वं दव्वसेज्जाए || दुविहाय भावसेज्जा, कायगते छव्विहे य भावम्मि । भावे जो जत्थ जया, सुह- दुहगब्भादिसेज्जासु ।। सव्वे विय सेज्जविसो हिकारगा तह वि अत्थि उ विसेसो । उद्देसे उद्देसे, वोच्छामि समासओ किंचि ॥ उग्गमदोसा पढमिल्लुगम्मि संसत्त पच्चवाया य । बीयम्मि सोयवादी, बहुविहसेज्जाविवेगं । य ।। ततिए जयंतछलणा", सज्झायस्सऽणुवरोहि जइयव्वं । विमादी य, सम निज्जरट्ठाए । सेज्जेसणाए निज्जुत्ती सम्मत्ता । नामं ठवणाइरिया, दव्वे खेत्ते य काल भावे एसो खलु इरियाए निक्खेवो छव्विहो होइ ॥ दव्वइरियाओं तिविहा, सच्चित्ताऽचित्तमी सगा चेव । खेत्तम्मि जम्मि" खेत्ते, काले कालो जहि 'जो उ"" ।। भावइरियाओं दुविहा, चरणरिया" चेव संजमरिया " य । समणस्स कहं" गमणं, निद्दोसं होति परिसुद्धं ? ॥ आलंबणे य काले, मग्गे जयणाय १५ चेव परिसुद्धं । भंगेहिं 'सोलसविधं, जं परिसुद्धं १६ पसत्थं तु ॥ चउकारणपरिसुद्धं, 'अहवा वी" होज्ज" कारणज्जाए । आलंबणजयणाए, मग्गे य जयब्वं ॥ १. वल्लम ० ( अ ) | २. बोधव्वा ( अ ) । ३. जे ( अ ) । ४. त्थि ( अ ) । ५. ० विहे सिज्जा (म), ० विवागो ( अ ) | ६. उ (म ) । ७. ० छलिगा ( अ ) । ८ मणा (मक) । ९. सचित्ता० (टी) । सुद्धं १०. तम्मि ( अ ) । ११. होइ (टी), होउ ( अ ) ३२९-३५ तक की गाथाओं की व्याख्या चूर्णि में व्युत्क्रम से है । १६ २७९ चूर्ण में पहले उद्देशकाधिकार वाली गाथाएं हैं तथा बाद में अध्ययन के विषयवस्तु वाली गाथाओं की व्याख्या है। हमने टीका के क्रम को स्वीकृत किया है । १२. चरणगई (मक) । १३. ० मगई ( म, क ) । १४. कहिं (मक) । १५. ० जयणाइ (क, टी), ०णाए (म) । १६. सोलसंगं परिसुद्धं विहं जं ( अ ) । १७. अहवा वि (टी) । १८. होति ( अ ) । १९. काले ( म,क, टी) । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४. २८० निऍक्तिपचक ३३३. 'सव्वे वि ईरिय'' विसोहिकारगा तह वि अत्थि उ विसेसो। उद्देसे उद्देसे, वोच्छामि जहक्कम किंचि ।। पढमे उवागमण निग्गमो य अद्धाण नावजयणा य । बितिऍ 'आरूढ छलणं', जंघासंतार पुच्छा य । ३३५. ततियम्मि अदायणया, अप्पडिबंधो" य होइ उवहिम्मि । वज्जेयव्वं च सया, संसारिगरायगिहगमणं ।। ३३६. जह वक्कं तह भासा, जाए छक्कं तु होति नायव्वं । उप्पत्तीए तह पज्जवंतरे जायगहणे य° ॥ . ईरिएसणाए निज्जुत्ती सम्मत्ता ३३७. सव्वे वि यवयणविसोहिकारगा तह वि अस्थि उ विसेसो। वयणविभत्ती पढमे, उप्पत्ती१२ वज्जणा बीए । भासज्जायस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता ३३८. पढमे गहणं बीए, धरणं3 पगयं तु दव्ववत्थेणं । एमेव होइ पायं, भावे 'पायं तु१४ गुणधारी ।। वत्थ-पाएसणाए निज्जुत्ती सम्मत्ता ३३९. दवे खेत्ते काले, भावे वि य उग्गहो चउद्धा उ । देविंद-राय-उग्गह-गिहवइ१५-सागारि-साहम्मी७ ॥ ३४०. दवुग्गहो उ तिविहो, सच्चित्ताऽचित्तमीसगा'८ चेव । खेत्तुग्गहो वि तिविहो, दुविहो कालुग्गहो होति ।। ३४१. मइउग्गहे य गहणग्गहे य भावुग्गहो दुहा होति । इंदिय-नोइंदिय अत्थवंजणे उग्गहे दसहा । १. सव्वे य इरिय० (म,क) सम्वेविरिय० (चू)। ११. उ (अ) । २. समासतो (अ), समासओ (म,क)। १२. उप्पत्ति य (अ)। ३. य उवागम (म,क,अ)। १३. वरणं (अ)। ४. बीतीए (अ)। १४. वा गयं (अ)। ५. आरुढच्छलं (अ)। १५. गह ० (म,अ)। ६. अदावण ० (अ)। १६. सागार (अ)। ७. डिवके (अ)। १७.३३९-४२ तक की गाथाओं का भावार्थ ८. रायगिहवइसु (अ)। चणि में है किन्तु ये गाथा रूप में निर्दिष्ट ९. च (म,क,टी)। ___ नहीं हैं। १०. वि (म,क), ३३६,३३७ ये दोनों गाथाएं १८. सचित्ताचित्तमीसओ (टी,क), सचित्ता० (अ)। चूणि में निर्दिष्ट नहीं हैं। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग निर्युक्ति ३४२. ३४३. ३४४. ३४५. ३४६. ३४७. ३४८. ३४९. ३५० हग्गहम्मि' अपरिग्गहस्स समणस्स गहणपरिणामो । कह पाडिहारिगमपाडिहारिएर होइ जयव्वं ॥ डिमा निज्जुत्ती सम्मत्ता सत्तेक्कगाणि एक्कसरगाणि पुव्वभणियं तहिं ठाणं । उद्धट्ठाणे पगयं, निसीहियाए तहि छक्कं ॥ उच्चवर सरीराओ, उच्चारो पसवइ त्ति पासवणं । तं कह" आयरमाणस्स, होइ सोही 'न अतियारो' " ॥ मुणिणा छक्कायदयावरेण, सुत्तभणियम्मि ओगासे । उच्चारविउस्सग्गो, काव्वो अप्पमत्तेणं ।। सभावो य । कित्ती य" ।। ६. पास ० ( अ ) । कह ( अ ) । दव्वं संठाणादी, भावो वण्ण कसिणं दव्वं सद्दपरिणयं भावो उ" गुणा य छक्कं परएक्वकं २, 'तदन्न - आदेस १३ कम - बहु- पहाणे १४ । अन्ने छवकं तं पुण, तदन्नमादेसतो चेव ॥ जयमाणस्स परो जं, करेति तत्थ जयणा य अहिगारो । निप्पडिकम्मस्स उ अन्नमन्नकरणं अजुत्तं तु" ।। सत्तिक्काणं निज्जुत्ती सम्मत्ता १. गहणेगूहम्मि ( अ ) । २. ०हारियाsपाडि ० (टी) । दध्वं गंधंग-तिलाइए, सह-विहणादी । भावमि होइ दुविहा, पसत्थ तह अप्पसत्था य ।। पाणवह'"- मुसावाए, अदत्त- मेहुण - परिग्गहे चेव । कोहे माणे माया, लोभे य 'हवंति अपसत्था १६ ।। ३. इक्कस्सर ०(टी) । ४. ठाण के लिए देखें आनि गा. १८५ । ५. ३४३, ३४४ इन दो गाथाओं का चूर्णि में संकेत नहीं है पर व्याख्या है । ७. ८. ईयारो (अ), न अती ० ( म, क ) । ९. चूर्णि में 'उच्यते' उल्लेख के साथ इस गाथा का संकेत दिया है । १०. य ( अ ) । ११. मुद्रित टीका में यह गाथा दो बार प्रकाशित है । ३२३, ३२४ (आटी पृ २७५, २७६ ) में यह पुनरुक्त हुई है । १२. पारए ० (अ), परइक्किक्कं (टी) । १३. ०न्नमाएस (म, अ, टी ) । १४. पाणी ( अ ) । २८१ १५. पडि ० ( अ ) । o १६. ३४६-४८ तक की तीन गाथाओं का चूर्णि में निर्देश नहीं है किंतु संक्षिप्त व्याख्या है । १७. पाणि० (टी) | १८. अदिन्न ( अ ) । १९. होंति अप्पसत्था य ( अ ) । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ३५१. ३५२. ३५३. ३५४. ३५५. ३५६. ३५७. ३५८. ३५९. १. जो (म ) । २. तासि ( अ ) । पसत्था । दंसण - नाण-चरिते तव वेरग्गे य होइ उ जाय जहा 'ता य'" तहा, लक्खण वोच्छं सलक्खणतो || तित्थगराण भगवओ, पवयण पावयणि अइसइड्ढीणं । अभिगमण गमियर दरिसण, कित्तण संपूयणा' थुणणा ॥ जम्मा भिसेग निक्खमण, चरण - नाणुप्पया " य निव्वाणे । दिय लोगभवण - मंदर, नंदीसर भोमगरे । अट्ठावयमुज्जिते, गयग्गपयए य धम्मचक्के य । चमरुप्पायं च वंदामि || पास रहावत्तनगं", गणियं निमित्त " जुत्ती, संदिट्ठी" अवितहं इमं नाणं । इय एगंतमुवगया'३, गुणपच्चइया ४ इमे अत्था || ३. ०राणं (चू) । ४. अइसयड्ढीणं ( अ ) । दिट्ठा । गुणमाहप्पं इसिनाम कित्तणं सुर-नरिदपूया य । पोराचेइयाणि य, इति एसा दंसणे होति १७ ॥ दारं || तत्तं जीवाजीवा, नायव्वा जाणणा इहं इह कज्ज - करण" - कारगसिद्धी इह बंधमोक्खे य६ ।। बद्धो य बंधहेऊ, बंधण बंधप्फलं " सुकहियं तु" । संसारपवंचो विय, इहयं २२ कहिओ जिणवरेहिं || नाणं भविस्सई 23 एवमाइगा वायणाइयाओ" य । सज्झाए आउत्तो,‍ गुरुकुलवासे य इति‍ नाणो ॥ ७ ५. गमण - नमण (टी) । ६ तु पूयणा (म) । ७. ०प्पिया (म) | ६. व्वाणं ( अ ) । ९. मंदिर ( म क ) । १०. ० रहावत्तं विय ( अ ), ०वत्तं चिय (क) । ११. निमित्तं ( अ ) | । १२. संदिट्ठे ( अ ) १३. एगंतमणु ० ( अ ) । १४. ० पच्चईया (म) निर्युक्तिपंचक १५. ० चेइयाण ( क ) । १६. इय (टी), इइ ( कम ) | १७. यह गाथा चूर्णि में निर्दिष्ट नहीं है । १८. कारण ( अ ) । १९. ३५७-५९ तक की गाथाओं की चूर्णि में संक्षिप्त व्याख्या प्राप्त है । २०. बंधफलं (क,अ) । २१. च (अ) । २२. इह (क), इहइ (म ) । २३. सति ( अ ) | २४. वाइणा० (म) | २५. भाउज्भो ( अ ) । २६. इय (टी) । २७. नाणी (म) । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति २८३ ३६०. 'साधु अहिंसाधम्मो, सच्चमदत्तविरई ‘य बंभं'२ च । साहु परिग्गहविरई, साहु तवो बारसंगे य॥ वेरग्गमप्पमाओ, एगग्गे भावणा य परिसंगं । इति चरणमणुगयाओ, भणिया एत्तो तवो वोच्छं ।। ३६२. किह मे 'होज्ज अवंझो', दिवसो ? किं वा पभू तवं काउं । को इह दवे जोगो, खेत्ते काले समय-भावे ।। ३६३. उच्छाहपालणाए,८ इई तवे संजमे य संघयणे । वेरग्गेऽणिच्चादी, होइ चरित्ते इहं पगयं ।। भावणज्झयणस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता ३६४. अणिच्चे पव्वए रुप्पे,° भुयगस्स तहा१ महासमुद्दे य२ । एते खलु अहिगारा, अज्झयणम्मी विमुत्तीए१३ ।। जो चेव होति मोक्खो, सा उ विमुत्ति पगयं तु भावेणं' १५॥ देसविमुक्का साहू, सम्वविमुक्का भवे सिद्धा ।। ३६६. आयारस्स भगवतो, चउत्थचूलाइ एस१६ निज्जुत्ती। पंचमचूलनिसीहं, तस्स य उरि भणीहामि ।। विमुत्तीए निज्जुत्ती सम्मत्ता ३६७. सत्तहिँ छहिं चउचउहि, य पंचहि अट्ठ चउहि नायव्या । उद्देसेहि'८ पढमे, सुयखंधे नव य अज्झयणा ।। १. साहुमहिं ० (टी)। ११. तया (क)। २. अबंभं (अ)। १२. या (अ)। ३. एगत्ता (म,टी), एगंत (अ)। १३. विमुत्ताए (अ)। ४. इय (टी,म)। १४. विमुत्ती (म)। ५. ०मणुवगया (आटीपा)। १५. भावविमुत्तीए (म,क)। ६. यह गाथा चूणि में व्याख्यात है पर गाथा १६. एसा (म)। रूप में इसका संकेत नहीं है। १७. भणीहामो (म), क प्रति में यह गाथा नहीं ७. हविज्जवंझो (टी)। है तथा म और अ प्रति में यह सबसे अन्तिम ८. ओच्छाह ० (चू)। में है। इसके पहले ३६७,३६८ क्रमांक की ९. इति (एव) (टी)। गाथाएं हैं। १०. कप्पे (म)। १८. उद्देसएहिं (टी)। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ३६८. एक्कारसति ति दो दो, दो दो उद्देसएहि नायव्वा । सत्य अट्ठय नवमा, इक्कसरा होंति अज्झयणा' ।। आयारस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता १. नंदी हारिभद्रीय टीका में इन दोनों गाथा का संकेत देने वाली संग्रह गाथा मिलती है । परन्तु उसके अध्ययन के उद्देशकों की संख्या में भिन्नता है 'सत्त य छच्चउ चउरो छ एक्कार ति ति य दो दो निर्युक्तिपंचक पंच अट्ठेव सत्त चउरो य । दो दो सत्तेक्क एक्को य ॥ ' Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचारांग नियुक्ति हिन्दी अनुवाद Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अध्ययन : शस्त्रपरिज्ञा १. सभी सिद्धों, तीर्थंकरों तथा अनुयोगदायकों को वन्दना कर मैं आचारांग की नियुक्ति का प्रतिपादन करूंगा। २. आचार, अंग, श्रुतस्कंध, ब्रह्म, चरण, शस्त्र, परिज्ञा, संज्ञा, दिशा-इन सब के निक्षेप करने चाहिए। ३. चरण और दिशा को छोड़कर सबके चार-चार निक्षेप होते हैं। चरण शब्द के छह तथा दिशा शब्द के सात निक्षेप होते हैं । ४. जिस शब्द के जितने निक्षेप ज्ञात हों उसके वे सभी निक्षेप करने चाहिए। जिसके सभी निक्षेप ज्ञात न हों, वहां चार निक्षेप-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-अवश्य करने चाहिए। ५. आचार' तथा अंग का वर्णन किया जा चुका है। इनके चार-चार निक्षेप होते हैं। भावाचार के निक्षेप भिन्न हैं। उनका नानात्व मैं बताऊंगा। ६. भावाचार के एकार्थक शब्द, उसका प्रवर्तन, उसकी प्रथमाङ्गता, गणिस्थान, परिमाण, समवतार तथा सार-इन सात द्वारों से उसका नानात्व है। ७. आचार, आचाल, आगाल, आकर, आश्वास, आदर्श, अंग, आचीर्ण, आजाति तथा आमोक्ष-ये भावाचार के एकार्थक हैं। ८. सभी तीर्थकरों के तीर्थ-प्रवर्तन के समय पहले आचार (आचारांग) का प्रवर्तन होता है। शेष ग्यारह अंगों का प्रणयन क्रमशः होता है। ९. बारह अंगों (द्वादशांगी) में 'आचार' प्रथम अंग है। इसमें मोक्ष का उपाय-चरण करण का निरूपण है और यह प्रवचन का सार है। १०. 'आचार' को पढ़ लेने पर सारा श्रमण-धर्म परिज्ञात हो जाता है। इसलिए 'आचारधर' को पहला गणिस्थान कहा जाता है । ११. इस आचार (ग्रंथ) के ब्रह्मचर्य नामक नो अध्ययन हैं । इसके अठारह हजार पद हैं। (इससे हेयोपादेय जाना जाता है इसलिए यह वेद है। इसकी पांच चूलिकाएं हैं। पद-परिमाण से यह बहु बहुतर है। १२-१४. आचाराग्र अर्थात् चूलिकाओं के अर्थ का समवतार नौ ब्रह्मचर्य (आचारांग) के अध्ययनों में होता है । उनका पिडितार्थ शस्त्र-परिज्ञा में समवतरित होता है। शस्त्र-परिज्ञा का अर्थ षड़जीवनिकाय में तथा षड्जीवनिकाय का अर्थ पांच व्रतों (महाव्रतों) में समवतरित होता है । पांच महाव्रतों का समवतार धर्मास्तिकाय आदि समस्त द्रव्यों में तथा समस्त पर्यायों के अनन्तवें भाग में होता है। १. दशवकालिक नियुक्ति, गाथा १५४-६२। से बहु (पद-परिमाण वाला)। २. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा १४४-५८ । ४. पांचवीं चलिका-निशीथ के प्रक्षेप से बहतर ३. चार चूलिकात्मक द्वितीय श्रतस्कंध के प्रक्षेप (पद-परिमाण वाला)। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ नियुक्तिपंचक १५. पाचों महाव्रतों का सभी द्रव्यों में अवतरण होता है। जैसे-पहले महाव्रत में षड़जीवनिकाय का, दूसरे तथा पांचवें महाव्रत में सभी द्रव्य तथा तीसरे और चौथे महाव्रत में द्रव्यों के एकदेश का समवतरण होता है। १६,१७. अंगों का सार क्या है ? वह है आचार । उसका सार क्या है? वह है अनुयोगार्थ-व्याख्यानभूत अर्थ । उसका सार है-प्ररूपणा। प्ररूपणा का सार है-चारित्र । उसका सार है-निर्वाण और निर्वाण का सार है-अव्याबाध (सुख)--ऐसा जिन भगवान् कहते हैं। १८. ब्रह्म शब्द के नाम, स्थापना आदि चार निक्षेप होते हैं । स्थापना निक्षेप में ब्राह्मण की उत्पत्ति कही जाती है। उसी प्रसंग में सात वर्णों तथा नौ वर्णान्तरों की उत्पत्ति कथनीय है। १९. पहले मनुष्य जाति एक थी। ऋषभ के राजा बनने के पश्चात् मनुष्य जाति दो भागों में विभक्त हुई-क्षत्रिय और शूद्र । शिल्प और वाणिज्य का प्रवर्तन होने पर उसके तीन भाग हो गए-क्षत्रिय, शूद्र और वैश्य । (भगवान् के केवलज्ञान के पश्चात्) श्रावक-धर्म का प्रवर्तन होने पर मनुष्य जाति चार भागों में बंट गई-क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य और ब्राह्मण अथवा श्रावक । २०. इन चारों के संयोग से सोलह वर्णों की उत्पत्ति हुई। उनमें सात वर्ण और नौ वर्णान्तर हैं । वर्ण और वर्णान्तर ये दोनों विकल्प स्थापना ब्रह्म के जानने चाहिए। २१. मूल चार प्रकृतियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) के अनन्तर योग से सात वर्ण (४+३) उत्पन्न होते हैं।' अनन्तर योग से उत्पन्न होने वालों में चरम वर्ण का व्यपदेश होता है।' २२. नौ वर्णान्तर ये हैं-अम्बष्ठ, उग्र, निषाद, अयोगव, मागध, सूत, क्षत्त, वैदेह और चाण्डाल । (इनकी उत्पत्ति इस प्रकार है-) २३-२५. ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से अम्बष्ठ, क्षत्रिय पुरुष और शूद्र स्त्री से उग्र, ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री से निषाद अथवा पारासर या परासर, शूद्र पुरुष और वैश्य स्त्री से अयोगव, वैश्य पुरुष और क्षत्रिय स्त्री से मागध, क्षत्रिय पुरुष और ब्राह्मण स्त्री से सूत, शूद्र पुरुष और क्षत्रिय स्त्री से क्षत्त, वैश्य पुरुष और ब्राह्मण स्त्री से वैदेह तथा शूद्र पुरुष और ब्राह्मण स्त्री से चाण्डाल की उत्पत्ति होती है। २६,२७. वर्णान्तरों के संयोग से उत्पन्न जातियां-उन पुरुष और क्षत्त स्त्री से उत्पन्न जाति श्वपाक, वैदेह पुरुष और क्षत्त स्त्री से उत्पन्न जाति वैणव, निषाद पुरुष और अम्बष्ठ स्त्री वा शूद्र स्त्री से उत्पन्न जाति बुक्कस तथा शूद्र पुरुष और निषाद स्त्री से उत्पन्न जाति कुक्कुरक कहलाती है। अन्य प्रकार से जातियों के ये चार भेद भी जान लेने चाहिए। १. सात वर्ण-देखें, श्लोक २१ । २. नौ वर्णान्तर-देखें, श्लोक २२। ३. (१) द्विज पुरुष और क्षत्रिय स्त्री से उत्पन्न, (२) क्षत्रिय पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न तथा (३) वैश्य पुरुष और शूद्र स्त्री से उत्पन्न-ये अनन्तर योग से तीन वर्ण उत्पन्न होते हैं। ४. जैसे-ब्राह्मण पुरुष से क्षत्रिय स्त्री में उत्पन्न क्षत्रिय होगा। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग निर्मुक्ति २८९ २५. ज्ञशरीर, भव्यशरीर तथा तद्व्यतिरिक्त अज्ञानियों का वस्तिनिरोध द्रव्य ब्रह्मचर्य है, यह संयम ही है। साधुओं का वस्तिसंयम भाव ब्रह्मचर्य है (इसके अठारह प्रकार हैं। ') २९. चरण शब्द के छह निक्षेप होते हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, क्षेत्र और काल । द्रव्य चरण के तीन प्रकार हैं-गति, आहार और गुण जिस क्षेत्र में गति, आहार आदि किया जाता है, वह क्षेत्रचरण है । जिस काल में गति, आहार आदि का आचरण या व्याख्या की जाती है, वह कालचरण है । . ३०. भावचरण तीन प्रकार का है—१. गति भावचरण साधु का ईयसमितिपूर्वक चलना, २. भक्षण भावचरण - शुद्ध पिणापूर्वक आहार करना ३ गुण भावचरण गुण भावचरण दो प्रकार का है- - प्रशस्त तथा अप्रशस्त । आचारांग के नौ अध्ययन प्रशस्त गुण भावचरण हैं । ३१-३४. आचार के नौ अध्ययन तथा उनका विषय इस प्रकार है१. वस्त्रपरिज्ञा जीवसंयम का निरूपण । २. लोकविषय कर्मबंध तथा कर्म मुक्ति की प्रक्रिया का अवबोध | ३. शीतोष्णीय सुख-दुःख की तितिक्षा का अवबोध । - ४. सम्यक्त्व- - सम्यक्त्व की दृढ़ता का अवबोध । ५. लोकसार - रत्नत्रयी से युक्त होने की प्रक्रिया ६. धुत - निस्संगता का अवबोध । ७. महापरिज्ञा - मोह से उद्भुत परीषह और उपसर्गों को सहने की विधि । ८. विमोक्ष निर्माण अर्थात् अन्तक्रिया की आराधना । ९. उपधानभूत-आठ अध्ययनों में प्रतिपादित अर्थों का महावीर द्वारा अनुपालन ये नौ अध्ययन आचार कहलाते हैं तथा शेष (आधारचूला) अध्ययन आचाराय कहलाते - ३५. प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिक्षा के सात उद्देशक हैं- प्रथम उद्देशक में जीव के अस्तित्व का प्रतिपादन तथा शेष छह उद्देशकों में षड्जीवनिकाय की प्ररूपणा जीववध से कर्मबंध का निरूपण तथा विरति का प्रतिपादन है । ३६. शस्त्र के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य शस्त्र हैं- खड्ग, अग्नि, विष, स्नेह, अम्लता, क्षार, लवण आदि । भावशस्त्र हैं- दुष्प्रयुक्त भाववाणी और काया की अविरति । -अन्तःकरण, के ३७. परिज्ञा शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य परिज्ञा मुख्य दो प्रकार हैं-ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा । व्यतिरिक्त द्रव्य प्रत्याख्यान परिक्षा है-शरीर और उपकरण का परिज्ञान भावपरिक्षा के भी दो प्रकार है-शपरिक्षा और प्रत्याख्यान परिज्ञा । १. आटी, पृ० ६ : दिव्यात् कामरतिसुखात्, त्रिविधं त्रिविधेन विरतिरिति नवकम् । औदारिकादपि तथा, तद् ब्रह्माष्टादशविकल्पम् ॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० निर्युक्तिपंचक ३८. संज्ञा के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य संज्ञा है-सचित्त आदि । भाव संज्ञा के दो प्रकार हैं- अनुभवसंज्ञा तथा ज्ञानसंज्ञा । मतिज्ञान आदि पांच ज्ञान ज्ञान संज्ञाएं हैं। अनुभवसंज्ञा अपने किए हुए कर्मों के उदय से उत्थित होती है । ३९. अनुभव संज्ञा के सोलह प्रकार हैं- १. आहारसंज्ञा, २. भयसंज्ञा, ३. परिग्रहसंज्ञा, ४. मैथुनसंज्ञा, ५. सुखसंज्ञा, ६. दुःखसंज्ञा, ७ मोहसंज्ञा, ८. विचिकित्सा संज्ञा, ९. क्रोधसंज्ञा, १०. मानसंज्ञा, ११. मायासंज्ञा, १२. लोभसंज्ञा, १३ शोकसंज्ञा, १४. लोकसंज्ञा', १५. धर्मसंज्ञा, १६. ओघसंज्ञा * । ४०. दिशा शब्द के सात निक्षेप ज्ञातव्य हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, ताप, प्रज्ञापक तथा भाव । ४१. द्रव्यदिग् तेरह प्रदेशात्मक होती है तथा तेरह आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ होती है । जो द्रव्य दश दिशाओं के उत्थान का कारण है, वह द्रव्यदिशा है । ४२. तिर्यग् लोक के मध्य में अष्ट प्रदेशात्मक रुचक प्रदेश हैं ।" वे ही दिशाओं और अनुदिशाओं के उत्पत्ति-स्थल हैं । ४३. ऐन्द्री (पूर्व), आग्नेयी, याम्या (दक्षिण), नैऋती, वारुणी (पश्चिम), वायव्वा, सोमा (उत्तर), ईशानी, विमला (ऊर्ध्व), तमा ( अध: ) - ये दश दिशाएं हैं । ४४. द्विप्रदेशात्मिका चार महादिशाएं दो-दो प्रदेशों की वृद्धिसहित होती हैं।" चार विदिशाएं एक प्रदेशात्मिका होती हैं और वृद्धिरहित होती हैं । ऊर्ध्व और अधः- ये दो दिशाएं चार आकाश प्रदेशात्मिका होती हैं । ये भी वृद्धिरहित होती हैं । ४५. सभी दिशाएं मध्य में आदि सहित हैं तथा बाह्यपार्श्व में अपर्यवसित - अन्तरहित हैं । ( बाह्य भाग में अलोकाकाश के आश्रय से अपर्यवसित हैं । सब दिशाएं उत्कृष्टतः अनन्त प्रदेशात्मिका हैं। सभी दिशाओं की आगमिक संज्ञा कडजुम्म" ( कृतयुग्म ) है । ४६. चार महादिशाएं शकटोद्धि के संस्थान वाली होती हैं । चार विदिशाएं मुक्तावलि के आकार वाली तथा ऊंची और नीची- ये दो दिशाएं रुचक के समान आकार वाली होती हैं। १. मननं मतिः - अवबोधः सा च मतिज्ञानादि पंचधा । तत्र केवलसंज्ञा क्षायिकी, शेषास्तु क्षायोपशमिक्य: । ( आटी पृ८) २. चित्तविप्लुति । ३. लौकिक आचार-व्यवहार । ४. अव्यक्त उपयोग -- वल्लरी का वृक्ष पर चढ़ना । ५. तिर्यक्लोक के मध्य में रत्नप्रभापृथिवी के ऊपर बहुमध्यदेश भाग में मेरु पर्वत के अन्तर दो सर्व क्षुल्लक प्रतर हैं । उनके ऊपर तथा नीचे चार-चार प्रदेश हैं । यह आठ आकाश प्रदेशात्मक चतुष्कोण रुचक प्रदेश हैं । ६. मेरु के मध्य अष्टप्रदेशी रुचक हैं। वहां चार दिशाओं में से प्रत्येक दिशा के प्रारंभ में दो-दो प्रदेश निकलते हैं, फिर चार-चार, छह-छह, आठ-आठ - इस प्रकार दो-दो के क्रम से उनकी वृद्धि होती जाती है । ७. आटी ९: सर्वासां दिशां प्रत्येकं ये प्रदेशास्ते चतुष्क के नापह्रियमाणाश्चतुष्कावशेषा भवन्तीति कृत्वा तत्प्रदेशात्मिकाश्च दिश आगमसंज्ञया कडजुम्मत्ति शब्देनाभिधीयन्ते । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति २९१ ४७,४८. जिस क्षेत्र में जिस ओर सूर्य उदित होता है, वह उस क्षेत्र के लिये पूर्व दिशा है और जिस ओर सूर्य अस्त होता है वह अपर दिशा-पश्चिम दिशा है । उसके दक्षिण पार्श्व में दक्षिण दिशा और उत्तर पार्श्व में उत्तर दिशा है । ये चारों दिशाएं सूर्य के आधार पर 'तापदिक' कहलाती हैं। ४९. जो मंदर पर्वत के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर में मनुष्य हैं, उन सबके उत्तर में मेरु है। ५०. सबके उत्तर में मेरु तथा दक्षिण में लवण है । सूर्य पूर्व में उदित होता है और पश्चिम में अस्त होता है ५१-५८. कोई प्रज्ञापक जहां कहीं स्थित होकर दिशाओं के आधार पर किसी को निमित्त (ज्योतिष) का कथन करता है, वह जिस ओर अभिमुख है, वह पूर्व दिशा है । उसकी पीठ के पीछे वाली दिशा पश्चिम है । उसके दक्षिण पार्श्व में दक्षिण दिशा और बाईं ओर उत्तर दिशा है। इन चार दिशाओं के अन्तराल में चार विदिशाएं हैं। इन आठ दिशाओं के अन्तर में आठ अन्य दिशाएं हैं। इन सोलह तिर्यग दिशाओं का पिण्ड शरीर की ऊंचाई के परिमाण वाला है । पादतल के नीचे अधोदिशा तथा मस्तक के ऊपर ऊर्ध्वदिशा है। ये अठारह प्रज्ञापक दिशाएं हैं। इन प्रकल्पित अठारह दिशाओं के नाम यथाक्रम से मैं कहूंगा-पूर्व, पूर्व दक्षिण, दक्षिण, दक्षिण पश्चिम, पश्चिम, पश्चिम उत्तर, उत्तर, पूर्व उत्तर, सामुत्थानी, कपिला, खेलिज्जा, अभिधर्मा, पर्याधर्मा, सावित्री, प्रज्ञापनी, नीचे नैरयिकों की अधोदिशा तथा देवताओं की ऊर्वदिशा-ये सारे प्रज्ञापक दिशाओं के नाम हैं। ५९. सोलह तिर्यग् दिशाएं शकटोद्धि संस्थान वाली हैं । ऊंची और नीची-ये दो दिशाएं सीधे और ओंधे मुंह रखे हुए शरावों के आकार वाली हैं (शिरोमूल और पादमूल में संकरी तथा आगे विशाल)। ६०. भावदिशाएं अठारह हैंचार प्रकार के मनुष्य-सम्मूर्छनज, कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज तथा अन्तरद्वीपज । चार प्रकार के तिर्यञ्च-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय । चार प्रकार के काय-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय तथा वायुकाय । चार प्रकार के अग्रबीज-अग्रबीज, मूलबीज, स्कन्धबीज तथा पर्वबीज । एक नारकों की दिशा तथा एक देवताओं की दिशा। ६१,६२. प्रज्ञापक दिशाएं अठारह हैं तथा भाव दिशाएं भी अठारह हैं। एक-एक प्रज्ञापक दिशा को अठारह भावदिशाओं से गुणन करने पर (१८x१८) तीन सौ चौबीस दिशाएं होती हैं । प्रस्तुत प्रसंग में प्रज्ञापक दिशाओं का अधिकार है। जीव और पुद्गलों की इन दिशाओं में गति और आगति होती है। ६३. कुछेक जीवों में ज्ञानसंज्ञा होती है और कुछेक में नहीं होती। वे नहीं जानते-मैं पूर्व जन्म में क्या था तथा मैं किस दिशा (जन्म) से आया हूं? १. देखें-गाथा ५१ से ५८ । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ नियुक्तिपंचक ६४. प्राणी तीन हेतुओं से जीव तथा जीवनिकायों को जानता है- १. अपनी मति से, अपनी स्मृति से । २. तीर्थंकरों द्वारा प्रज्ञप्त वचन सुनकर । ३. अन्य (आप्त के अतिरिक्त) अतिशयज्ञानियों के पास सुनकर ।। ६५. प्रस्तुत प्रसंग में 'सह सम्मुइए' पद से ज्ञान का ग्रहण किया गया है। जानने वाले चार ज्ञान हैं-अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान तथा जातिस्मरणज्ञान । ६६. परवचन व्याकरण का तात्पर्य है-जिनेश्वर द्वारा व्याकृत-भाषित । जिनेश्वर से 'पर-उत्कृष्ट'-कोई और नहीं होता। 'दूसरों के पास सुनकर' का तात्पर्य है-जिनेश्वर के अतिरिक्त सारे पर हैं-दूसरे हैं, उनसे सुनकर । ६७. मैंने (कर्म बंधन की) क्रियाएं की हैं, करूंगा- इस प्रकार कर्मबंध की चिन्ता बार-बार होती है। कोई इसे सन्मति अथवा स्वमति' से जान लेता है और कोई हेतु-~युक्ति से जानता है। ६८. पृथ्वी के विषय में निक्षेप, प्ररूपणा, लक्षण, परिमाण, उपभोग, शस्त्र, वेदना, वध तथा निवृत्ति-इनका कथन करना चाहिए । ६९. पृथ्वी के चार निक्षेप हैं—नाम पृथ्वी, स्थापना पृथ्वी, द्रव्य पृथ्वी और भाव पृथ्वी । ७०. द्रव्य पृथ्वीजीव वह है जो भविष्य में पृथिवी का जीव होने वाला है, जिसके पृथ्वी का आयुष्य बंध गया है और जो पृथ्वी नाम-गोत्र के अभिमुख है। भावपृथ्वी जीव वह है, जो पथ्वी नाम आदि कर्म का वेदन कर रहा है। ७१,७२. पृथ्वी जीव दो प्रकार के हैं-सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म पृथ्वीजीव समूचे लोक में तथा बादर पृथ्वी जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। बादर पृथ्वी जीवों के दो प्रकार हैं-श्लक्ष्ण बादर पृथ्वी और खर बादर पृथ्वी । श्लक्ष्ण बादर पृथ्वी पांच वर्ण वाली होती हैकृष्ण, नील, रक्त, पीत और शुक्ल । खर बादर पृथ्वी के छत्तीस प्रकार हैं ७३-७६. (१) पृथ्वी (२) शर्करा (३) बालुका (४) उपल (५) शिला (६) लवण (७) ऊष (८) लोह (९) ताम्र (१०) त्रपुष (११) शीशा (१२) चांदी (१३) स्वर्ण (१४) वज्र (१५) हरिताल (१६) हिंगुलक (१७) मनःशिला (१८) शस्यक (१९) अंजन (२०) प्रवाल (२१) अभ्रपटल (२२) अभ्रबालुक (२३) गोमेदक (२४) रुचक (२५) अंक (२६) स्फटिक (२७) लोहिताक्ष (२८) मरकत (२९) मसारगल्ल (३०) भुजमोचक (३१) इंद्रनील (३२) चंदन (३३) चन्द्रप्रभ (३४) वैडूर्य (३५) जलकांत (३६) सूर्यकान्त । ये खर बादर पृथ्वी के छत्तीस प्रकार हैं।' ७७. वर्ण, रस, गंध तथा स्पर्श के भेद से पृथ्वी के अनेक भेद होते हैं। प्रत्येक के योनिप्रमुख संख्येय हैं अर्थात् इनके एक-एक वर्ण आदि के भेद से अनेक सहस्र भेद होते हैं। (इसी के आधार पर पृथ्वी सप्तलक्षप्रमाण वाली होती है।) ७८. वर्ण आदि के प्रत्येक भेद में नानात्व होता है। इसी प्रकार गंध, रस और स्पर्श के भेदों में भी नानात्व होता है। १. अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान, केवलज्ञान अथवा के तथा दो श्लोकों (७५,७६) में मणियों के __जातिस्मृतिज्ञान । भेदों का उल्लेख है। २. दो श्लोकों (७३,७४) में सामान्य पृथ्वी Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति २९३ ७९. बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक जीवों के जितने भेद हैं, उतने ही भेद अपर्याप्तक जीवों के हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव भी दो प्रकार के होते हैं पर्याप्तक और अपर्याप्तक । ८०. जैसे वनस्पति में वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, वलय आदि भेद पाए जाते हैं, वैसे ही पृथ्वी आदि में भी नानात्व है। ८१. जैसे वनस्पतिकाय में औषधि, तृण, शैवाल, पनक, कन्द, मूल आदि नानात्व दीखता है, वैसे ही पृथ्वीकाय में भी नानात्व है । ८२. पृथ्वीकाय के एक, दो, तीन अथवा संख्येय जीव दृग्गोचर नहीं होते। पृथ्वी का असंख्य जीवात्मक पिंड ही दश्य होता है। ८३. इन असंख्येय शरीरों के कारण ही वे प्रत्यक्षरूप से प्ररूपित होते हैं। जो आंखों से दिखाई नहीं देते वे आज्ञाग्राह्य-श्रद्धा से मान्य होते हैं। ८४. पृथ्वीकायिक आदि जीवों के उपयोग, योग, अध्यवसाय, मतिज्ञान, श्रतज्ञान तथा अचक्षदर्शन होता है। वे आठ कर्मों के उदय और बंधन से युक्त, लेश्या, संज्ञा, सूक्ष्म श्वास और निःश्वास से अनुगत तथा कषाययुक्त होते हैं । ८५. जैसे शरीरानुगत हड्डी सचेतन तथा खर- कठिन होती है, वैसे ही जीवानुगत पृथ्वीशरीर भी सचेतन तथा कठिन होता है । ८६. पृथ्वीकायिक जीव चार प्रकार के हैं (० बादरपृथ्वीकायिक के दो भेद-अपर्याप्त, पर्याप्त । ० सूक्ष्मपृथ्वीकायिक के दो भेद अपर्याप्त, पर्याप्त ।) इनमें बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक जीव लोक प्रतर के असंख्येय भाग मात्रवर्ती प्रदेशराशि प्रमाण वाले हैं। शेष तीन प्रकारों में प्रत्येक प्रकार असंख्येय लोक के आकाशप्रदेशराशि प्रमाण वाले ८७. जैसे कोई व्यक्ति प्रस्थ, कुडव, आदि साधनों से सारे धान्यों का परिमाण करता है वैसे ही लोक को कुडव बनाकर पृथ्वीकायिक जीवों का परिमाण करे तो वे जीव असंख्येय लोकों को भर सकते हैं। __८८. लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर यदि एक-एक पृथ्वीकायिक जीव को रखा जाए तो वे सारे जीव असंख्येय लोकों में समायेंगे। ___८९. काल निपुण --- सूक्ष्म होता है। क्षेत्र उससे भी निपुणतर-- सूक्ष्मतर होता है क्योंकि अंगुलि-श्रेणिमात्र क्षेत्र प्रदेशों के अपहार में असंख्येय उत्सपिणियां तथा अवसर्पिणियां बीत जाती हैं।' (इसलिए काल से क्षेत्र सक्ष्मतर होता है)। ९०. पृथ्वीकाय में जीव प्रतिसमय प्रवेश करते हैं और प्रतिसमय उससे निर्गमन करते हैं। (प्रस्तुत श्लोक में चार प्रश्न हैं)। १. अंगुल प्रमाण आकाश में जितने आकाश प्रदेश उस क्षेत्र को खाली होने में असंख्यात हैं, उनमें से यदि एक-एक समय में एक-एक उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी काल बीत जाएगा। आकाश प्रदेश का अपहरण किया जाये तो अत: काल से क्षेत्र सूक्ष्मतर है। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ नियुक्तिपंचक (१) एक समय में पृथ्वीकाय से कितने जीवों का निष्क्रमण होता है ? (२) एक समय में पृथ्वीकाय से कितने जीवों का प्रवेश होता है ? (३) विवक्षित समय में पृथ्वीकाय में परिणत जीव कितने होते हैं ? (४) उनकी कायस्थिति कितनी है ? प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार है (१-२) एक समय में असंख्येय लोकाकाश प्रदेश परिमाण जीवों का निष्क्रमण और प्रवेश होता है। (३) पृथ्वीकाय में परिणत जीव असंख्येय लोकाकाश प्रदेश परिमाण हैं। (४) पृथ्वीकायिक जीव असंख्येय लोकाकाश प्रदेश परिमाण काल तक उसी योनि में उत्पन्न हो सकता है--यह उनकी कायस्थिति है। इस प्रकार क्षेत्र और काल की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक जीवों का परिमाण प्रतिपादित है। ९१. जिस आकाश प्रदेश में एक बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक जीव अवगाहन करता है उसी आकाश प्रदेश में दूसरा बादर पृथ्वीकायिक जीव का शरीर अवगाहन कर लेता है। यह परस्पर अवगाहन है। शेष अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीव पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीव की निश्रा में उत्पन्न होते हुए उसी आकाशप्रदेश का अवगाहन कर लेते हैं। सूक्ष्म पर्याप्तक और अपर्याप्तक पथ्वीकायिक जीव सारे लोक का अवगाहन करते हैं। ९२,९३. पथ्वीकाय के आधार पर होने वाली मनुष्यों की उपभोग-विधि इस प्रकार हैचंक्रमण करना, खड़े होना, बैठना, सोना, कृतकरण, शौच जाना, मूत्र-विसर्जन करना, उपकरणों को रखना, आलेपन करना, प्रहरण करना, सजाना, क्रय-विक्रय करना, कृषि करना, पात्र आदि बनाना। ९४. मनुष्य इन कारणों से पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। वे अपने सुख के लिए दूसरों को दुःख देते हैं। ९५. (शस्त्र के दो प्रकार हैं-द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र । द्रव्यशस्त्र के दो प्रभेद हैंसमास द्रव्यशस्त्र और विभाग द्रव्यशस्त्र ।) हल, कुलिक, विष, कुद्दाल, आलित्रक, मृगशृंग, काष्ठअग्नि, उच्चार तथा प्रस्रवण - ये समास - संक्षेप में द्रव्य शस्त्र हैं। ९६. (विभाग द्रव्यशस्त्र) कुछ स्वकायशस्त्र होता है, कुछ परकायशस्त्र होता है और कुछ उभय-दोनों होता है । यह सारा द्रव्यशस्त्र है । भावशस्त्र है--असंयम । ९७. पैर, जंघा, उरू आदि शरीर के अंग-प्रत्यंगों के छेदन-भेदन से मनुष्यों को दुःख होता है, पीड़ा होती है, वैसे ही पृथ्वीकाय के छेदन-भेदन से उसके जीवों को पीड़ा होती है। ९८. यद्यपि पृथ्वीकायिक जीवों के अंगोपांग नहीं होते, फिर भी अंगोपांग के छेदन-भेदन तुल्य वेदना उनके होती है। (पृथ्वीकाय का समारंभ करने वाले पुरुष) पृथ्वीकाय के कुछेक जीवों के वेदना की उदीरणा करते हैं और कुछेक के प्राणों का अतिपात करते हैं। ९९. कुछेक अपने आपको अनगार कहते हैं। किन्तु जिन गुणों में अनगार प्रवृत्ति करते हैं, उन गुणों में वे प्रवत्तित नहीं होते। जो पृथ्वी के जीवों की हिंसा करते हैं, वे वाग्मात्र से भी अनगार नहीं होते। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ आचारांग निर्युक्ति १००. वे अनगारवादी - अपने आपको अनगार कहने वाले पृथ्वीकाय की हिंसा करते हैं । इसलिए वे निर्गुण हैं, गृहस्थ तुल्य हैं । वे अपने आपको निर्दोष मानते हैं इसलिए मलिन - कलुषित हृदय वाले हैं । वे विरति संयम से घृणा करते हैं, इसलिए मलिनतर हैं । १०१. कुछ व्यक्ति स्वयं पृथ्वीकाय का वध करते हैं, कुछ दूसरों से उसका वध करवाते हैं और कुछ वध करने वालों का अनुमोदन करते हैं । १०२. जो पृथ्वीकाय का समारंभ - व्यापादन करता वह अन्य व्यापादन करता है । जो अकारण या सकारण पृथ्वी के जीवों का व्यापादन अदृश्य जीवों का भी व्यापादन करता है । १०३. पृथ्वी की हिंसा करने वाला व्यक्ति उस पृथ्वी के आश्रित रहने वाले सूक्ष्म या बादर, पर्याप्त या अपर्याप्त अनेक जीवों का हनन करता है । १०४,१०५. यह जानकर जो मुनि पृथ्वीकायिक जीवों के व्यापादन से मन, वचन और काया से, कृत-कारित तथा अनुमति से यावज्जीवन के लिए उपरत होते हैं, वे तीन गुप्तियों से गुप्त, सभी समितियों से युक्त, संयत, यतना करने वाले तथा सुविहित होते हैं । वे वास्तविक अनगार होते हैं । १०६. जितने द्वार (प्रतिपादन के विषय) पृथ्वीकायिक के लिए कहे गये हैं, उतने ही द्वार अकायिक जीवों के लिए हैं । भेद केवल इन पांच विषयों में है - विधान (प्ररूपणा ), परिमाण, उपभोग, शस्त्र तथा लक्षण । १०७,१०८. अप्काय के जीव दो प्रकार के हैं- सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म समूचे लोक में तथा बादर लोक के एक भाग में व्याप्त हैं । बादर अप्कायिक जीव पांच प्रकार के हैं१. शुद्धोदक, ' २. अवश्याय (ओस ), ३. हिम, ४. महिका, ५. हरतनु' । जीवनिकाय का भी करता है वह दृश्य या १०९ बादर अप्कायिक पर्याप्तक जीवों का परिमाण है- संवर्तित लोक प्रतर के असंख्येय भाग प्रदेश राशि प्रमाण । शेष तीनों - बादर अप्कायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म अष्कायिक पर्याप्तक तथा सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तक- पृथक् पृथक् रूप से असंख्येय लोकाकाश प्रदेश राशि परिमाण जितने हैं ।" ११०. जैसे तत्काल उत्पन्न ( सप्ताह पर्यन्त ) कललावस्था प्राप्त हाथी का द्रव शरीर सचेतन होता है, जैसे तत्काल उत्पन्न अंडे का मध्यवर्ती उदक-रस सचेतन होता है, वैसे ही सारे अकायिक जीव भी सचेतन होते हैं । यही अप्कायिक जीवों की उपमा है । १. तालाब, समुद्र, नदी आदि का पानी । २. गर्भमासादिषु सायं प्रातर्वा धूमिकापातो महिका । (आटी पृ २७ ) ३. वर्षा तथा शरद ऋतु में हरिताकुंरों पर स्थित जलबिन्दु | ४. विशेष यह है बादर पृथ्वीकाय पर्याप्तक जीवों से बादर अप्काय पर्याप्तक जीव असंख्येय गुना अधिक हैं । बादर पृथ्वीकाय अपर्याप्तक जीवों से बादर अप्कायिक अपर्याप्तक जीव असंख्येय गुना अधिक हैं । सूक्ष्म पृथ्वीकाय अपर्याप्तक जीवों से सूक्ष्म अकायिक अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं । सूक्ष्म पृथ्वीकाय पर्याप्तक जीवों से सूक्ष्म अकाय पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं । आटी पृ २७ । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्मुक्तिपंचक १११. जीव निम्न कारणों से अष्काय का उपभोग करते हैं—स्नान करने, पीने, धोने, भोजन बनाने, सिंचन करने, यानपात्र तथा नौका में गमन - आगमन करने आदि-आदि में । ११२. इन्हीं कारणों से प्राणी अप्कायिक जीवों की हिंसा करते हैं। वे अपने सुख के लिए दूसरे जीवों के दुःखों की उदीरणा करते हैं, दुःख उत्पन्न करते हैं। १३. उत्सेचनकूप आदि से पानी निकालना, पानी को (सघन और चिकने वस्त्र से ) छानना, वस्त्र, उपकरण, मात्र मंडक आदि धोना – ये सारे सामान्य रूप से बादर अष्काय के शस्त्र हैं । -- २९६ - ११४. अष्काय विषयक शस्त्र तीन प्रकार के हैं १. स्वकायशस्त्र नदी का पानी तालाब के पानी के लिए शस्त्र है। २. परकाय शस्त्र - मृतिका क्षार आदि । ३. उभयशस्त्र — उदकमिश्रित मिट्टी उदक के लिए शस्त्र है । भावशस्त्र है - असंयम | ११५. अप्काय के शेष द्वार पृथ्वी की भांति ही जानने चाहिए। इस प्रकार अप्काय विषयक यह निर्मुक्ति प्रतिपादित है। ११६. जितने द्वार पृथ्वीकायिक के लिए कहे गए हैं, उतने ही द्वार तेजस्कायिक जीवों के लिए हैं । भेद केवल पांच विषयों में है— विधान, परिमाण, उपभोग, शस्त्र तथा लक्षण । ११७,११८. तेजस्काय के जीव दो प्रकार के हैं— सूक्ष्म और बादर सूक्ष्म सारे लोक में तथा बादर लोक के एक भाग में व्याप्त हैं । बादर तेजस्काय के पांच प्रकार हैं - अंगार, अग्नि, अचि, ज्वाला तथा मुर्मुर । ११९. जैसे रात्रि में खद्योत ज्योति बिखेरता है, वह उसके शरीर का परिणाम शक्ति विशेष है। इसी प्रकार अंगारे में भी प्रकाश आदि की जो शक्ति है, वह तेजस्कायिक जीव से आविर्भूत है । जैसे ज्वरित व्यक्ति की उष्मा सजीव शरीर में ही होती है, वैसे ही अग्निकायिक जीवों में प्रकाश या उष्मा उनके शरीर की शक्ति विशेष है। १२०. बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक जीव (क्षेत्र) पत्योपम के जितने परिमाण वाले हैं। तेजस्कायिक जीवों के शेष तीन प्रकार लोकाकाश प्रदेश राशि परिमाण जितने होते हैं । १२१. मनुष्यों के लिए बादर तेजस्काय के उपभोग गुण ये हैं जलाने के लिए, तपाने के लिए, प्रकाश करने के लिए, भोजन आदि पकाने के लिए तथा स्वेदन आदि के लिए । १२२. इन कारणों से मनुष्य तेजस्काय के जीवों की हिंसा करते हैं । वे अपने सुख के लिए दूसरे जीवों के दुःखों की उदीरणा करते हैं, दुःख उत्पन्न करते हैं । १२३. पृथ्वी, पानी, आई वनस्पति तथा त्रस प्राणी- ये सामान्यतः बादर तेजस्काय के शस्त्र हैं । असंख्येय भाग मात्र प्रदेशराशि पृथक-पृथक रूप से असंख्येव १२४. इनके शस्त्र तीन प्रकार के हैं— कुछ स्वकाय शस्त्र, कुछ परकाय शस्त्र तथा कुछ उभय शस्त्र । ये सारे द्रव्य-शस्त्र हैं । भावशस्त्र है - असंयम । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति २९७ १२५. तेजस्काय के शेष द्वार पृथ्वीकायिक की भांति ही होते हैं। इस प्रकार यह तेजस्काय संबंधी नियुक्ति निरूपित है। १२६. जितने द्वार पृथ्वीकायिक के लिए कहे गए हैं, उतने ही द्वार वनस्पति के लिए हैं । भेद केवल पांच विषयों में है--विधान, परिमाण, उपभोग, शस्त्र तथा लक्षण । १२७,१२८. वनस्पतिकाय के जीव दो प्रकार के हैं-सूक्ष्म और बादर। सूक्ष्म सारे लोक में तथा बादर लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। बादर के केवल दो ही प्रकार हैं-प्रत्येक वनस्पति और साधारण वनस्पति । प्रत्येकशरीरी बादर वनस्पति के बारह प्रकार हैं तथा साधारणशरीरी बादर वनस्पति के अनेक भेद हैं। संक्षेप में दोनों के छह प्रकार हैं। १२९. प्रत्येकशरीरी वनस्पति के बारह भेद ये हैं-वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, पर्वग, तृण, वलय, हरित, औषधि (गेहूं, ब्रीहि आदि), जलरुह तथा कुहण-भूमिस्फोट आदि । १३०. संक्षेप में वनस्पति के छह भेद हैं-- अग्रबीज, मूलबीज, स्कंधबीज, पर्वबीज, बीजरुह, समूर्च्छनज । १३१. जैसे अखंड (परिपूर्ण शरीर वाले) सरसों के दानों में किसी श्लेषद्रव्य (सर्जरसराल) को मिलाकर, फिर बंटकर वर्ती बना दी जाती है तो उस वर्ती के प्रत्येक प्रदेश में सरसों के दानों का अस्तित्व रहता है, वैसे ही प्रत्येक शरीरी वनस्पति के पृथक-पथक अवगाहन वाले, एकरूप दीखने वाले शरीर-संघात होते हैं।' १३२. जैसे तिलपपड़ी बहत तिलों से निष्पादित होती है, (फिर भी उसमें प्रत्येक तिल का स्वतंत्र अस्तित्व होता है), वैसे ही प्रत्येकशरीरी वनस्पति के पृथक्-पृथक् अवगाहन वाले एकरूप दीखने वाले शरीर-संघात होते हैं। १३३. जो अनेक प्रकार के संस्थान वाले पत्ते दिखाई देते हैं वे सभी एक जीवाधिष्ठित होते हैं । ताड़, चीड़, नारियल आदि वृक्षों के स्कंध भी एकजीवी होते हैं। १३४. प्रत्येकशरीरी वनस्पति के पर्याप्तक जीव लोक-श्रेणी के असंख्येय भागवर्ती आकाश प्रदेशों की राशि जितने परिमाण वाले हैं तथा अपर्याप्तक जीव असंख्येय लोकों के प्रदेश जितने परिमाण वाले होते हैं। साधारणशरीरी वनस्पति के जीव अनन्त लोकों के प्रदेश परिमाण जितने होते हैं। १३५. प्रत्यक्ष दीखने वाले इन शरीरों के आधार पर वनस्पति के जीवों का प्ररूपण किया • गया है। शेष जो सूक्ष्म हैं, वे चक्षुग्राह्य नहीं होते। उन्हें आज्ञाग्राह्य-भगवद्वचन के आधार पर मान लेना चाहिए। १. जैसे वर्तिका वैसे प्रत्येक वनस्पति के शरीर संघात. जैसे सर्षप वैसे उन शरीरों के अधिष्ठाता जीव और जैसे वह श्लेषद्रव्य वैसे राग-द्वेष से प्रचित कर्मपुदगलोदयमिश्रित जीव । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक १३६. साधारण' वनस्पतिकायिक अर्थात् अनन्तकायिक जीवों का साधारण लक्षण यह हैजिनमें आहार तथा प्राण अपान का ग्रहण एक होता है, वे साधारण वनस्पति जीव हैं । (एक जीव के आहार करने पर सभी जीवों का आहार संपन्न हो जाता है । एक जीव के उच्छ्वास - नि:श्वास लेने पर सभी जीवों का उच्छ्वास निःश्वास हो जाता है - यह इसका आशय है ।) २९८ १३७. साधारणशरीरी वनस्पति का एक जीव उच्छ्वास निःश्वास योग्य पुद्गल को ग्रहण करता है, वही ग्रहण अनेक साधारणशरीरी वनस्पति के जीवों का होता है तथा जो अनेक जीवों का ग्रहण होता है, वही एक जीव का ग्रहण होता है । १३८. योनिभूत - योनि अवस्था को प्राप्त बीज में प्राक्तन बीजजीव अथवा अन्य बीजजीव आकर उत्पन्न होता है। जो जीव मूल- जड़रूप में परिणत होता है वही प्रथम पत्ते के रूप में परिणत होता है । १३९. जिसके मूल, कन्द, त्वक्, पत्र, पुष्प, फल आदि को तोड़ने से चक्राकार समान टुकड़े होते हैं, जिसका पर्व स्थान चूर्ण - रजों से व्याप्त होता है अथवा जिसका भेदन करने पर पृथ्वी सदृश समान भंग होते हैं, वह अनन्तकाय वनस्पति होती है । १४०. जिसके पत्ते क्षीरमुक्त अथवा क्षीरशून्य तथा गूढ़ शिराओं वाले होते हैं, जिनकी शिराएं अलक्ष्यमाण होती हैं, जिनके पत्रार्ध की संधि दृग्गोचर नहीं होती, वे अनन्तजीवी होते हैं । १४१. शैवाल, कच्छभाणिक, अवक, पनक, किण्व, हठ ( हड या हढ ) — ये अनेक प्रकार के अनन्तजीवी जलरुह हैं । इसी प्रकार दूसरे भी अनेक प्रकार हैं । १४२. प्रत्येकशरीरी वनस्पति जो एक, दो, तीन, संख्येय अथवा असंख्येय जीवों से परिगृहीत होती है, उसके शरीर संघात चक्षुग्राह्य होते हैं । १४३. अनन्तजीव वाली वनस्पति के एक, दो, तीन, संख्येय अथवा असंख्येय शरीर दृग्गोचर नहीं होते । बादर निगोद के अनन्त जीवों के शरीरपिंड ही दृश्य होते हैं । (सूक्ष्मनिगोद के अनन्तजीवों का संघात भी दृश्य नहीं होता ।) धारणम् – १. साधारणं - समानं- एक, अंगीकरणं शरीराहारादेर्येषां ते साधारणाः । (आटी पृ ३९ ) २. जो बीज योनि-अवस्था को प्राप्त है, उसमें उत्पन्न होने वाला जीव प्राक्तन बीजजीव भी हो सकता है अथवा दूसरा जीव भी हो सकता है । प्राक्तन इस अर्थ में कि जिस बीजजीव ने अपना आयुष्य पूर्ण कर बीज का परित्याग कर दिया, उस बीज को पानी, हवा आदि का संयोग मिलने पर, वही पहले वाला बीजजीव मूल आदि नाम - गोत्र कर्म का बंध कर पुन: उसी बीज में आकर जन्म ले लेता है, परिणत हो जाता है । अथवा पृथ्वीकायिक आदि का जीव उस योनिभूत बीज में आकर जन्म लेता है, मूल जड़ आदि के रूप में परिणत होता है और वही प्रथम पत्र के रूप में परिणत होता है । इस प्रकार मूल और पत्ते का कर्ता एक ही जीव होता है । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग निर्मुक्ति २९९ १४४. कोई व्यक्ति प्रस्थ' अथवा कुडव' से सभी धान्य कणों को मापकर उनको अन्यत्र प्रक्षिप्त करे, वैसे ही यदि कोई साधारण वनस्पति के जीवों को प्रस्थ आदि से माप कर अन्यत्र प्रक्षिप्त करे तो अनन्त लोक भर जाएं । १४५. जो पर्याप्त बादर निगोद हैं, वे संवर्तित लोक प्रतर के असंख्येय भाग प्रदेश राशि जितने परिमाण वाले हैं शेष तीन अपर्याप्तक बादर निगोद, अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद तथा पर्याप्तक सूक्ष्म निगोद-ये प्रत्येक असंख्य लोकाकाशप्रदेश परिमाण जितने हैं । साधारण वनस्पति के जीव उनसे अनन्तगुना हैं । १४६, १४७. वनस्पति के फल, पत्र, पुष्प, मूल, कन्द आदि से निर्वर्तित भोजन, उपकरण-व्यजन, अगंला आदि शयन-मंचिका, पर्यक आदि आसन आसंदिका आदि, यान- पालकी आदि युग्यशकट आदि, आवरण फलक आदि प्रहरणलकड़ी आदि तथा अनेक प्रकार के शात्र, आतोय पटह, भेरी आदि, काष्ठकर्म प्रतिमा, स्तंभ, तोरणद्वार आदि, गंधान-प्रियंगु, देवदारु, ओशीर आदि वस्त्र - वल्कलमय कार्यासमय आदि मास्ययोगविविध पुष्पों की मालाएं, हमापन इंधन से जलाना, भस्मसात् करना, विज्ञापन सर्दी के अपनयन के लिए काठ आदि जलाकर अग्नि तपना, तैलविधान तिल, अतसी, सरसों आदि का तेल, उद्योत - वर्ती, तृण, चूड़ाकाष्ठ आदि से प्रकाश करना | वनस्पति के ये उपभोग-स्थान हैं । इन सभी में वनस्पति का उपयोग होता है । " १४८. मनुष्य इन कारणों से वनस्पति के बहुत जीवों की हिंसा करते हैं । वे अपने के सुख लिए दूसरे जीवों के दुःख की उदीरणा करते हैं । - १४९. कैबी, कुठारी, हंसिया, दांती, कुदाल, बच्छ, परशु सामान्यतः ये वनस्पति के शस्त्र हैं । इनके साथ हाथ, पैर, मुख तथा अग्नि ये भी शस्त्र हैं । १५०. वनस्पति के कुछ स्वकाय शस्त्र होते हैं, कुछ परकाय शस्त्र तथा कुछ उभय शस्त्र होते हैं । ये सारे द्रव्यशस्त्र हैं । भावशस्त्र है - असंयम । १५१. वनस्पति के शेष द्वार पृथ्वीकाय की भांति ही होते हैं। की नियुक्ति प्ररूपित है । १५२. जितने द्वार पृथ्वीकाय के लिए कहे गए हैं, उतने ही द्वार केवल पांच विषयों में है--- विधान परिमाण, उपभोग, शस्त्र तथा लक्षण । १५३. सजीव दो प्रकार के है- लब्धत्रस तथा गतिजस और वायुकाय प्रस्तुत में उनका (तेजो वायु का ) प्रसंग नहीं है। ' । १. प्रस्थ - बत्तीस पल का एक प्राचीन परिमाण । इस प्रकार यह वनस्पतिकाय १५४. गतिषस चार प्रकार के हैं-नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव । प्रकार हैं- पर्याप्त तथा अपर्याप्त । सकाय के लिए हैं । भेद लब्धिवस दो हैं - तेजस्काय इन चारों के दो-दो २. कुडव - बारह मुट्ठी धान का एक परिमाण । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियक्तिपचक १५५. योनियां तीन प्रकार की हैं- अंडज, पोतज तथा जरायुज-ये भी तीन-तीन प्रकार की योनियां हैं।' त्रस जीवों के चार प्रकार हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय । १५६,१५७. दर्शन, ज्ञान, चारित्र, चारित्राचारित्र (देशविरति) दान, लाभ, भोगोपभोग, वीर्य, इन्द्रियविषय, लब्धि, उपयोग, योग, अध्यवसाय, पृथक्-पृथक् लब्धियों (क्षीरास्रव, मध्वास्रव आदि) का प्रादुर्भाव, आठ कर्मों का उदय, लेश्या, संज्ञा, उच्छ्वास-निःश्वास, कषाय-ये सारे द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवों के लक्षण है। १५८. द्वीन्द्रिय जीवों के ये उपयुक्त लक्षण ही हैं। क्षेत्र की दृष्टि से पर्याप्त त्रसकाय का परिमाण संवर्तित लोकप्रतर के असंख्येय भागवर्तिप्रदेशराशि परिमाण जितना है। उनका निष्क्रमण और प्रवेश जघन्यतः एक, दो, तीन का होता है और उत्कृष्टतः प्रतर के असंख्येय भाग प्रदेश परिमाण जितना होता है। १५९. त्रसकाय में सतत निष्क्रमण और प्रवेश जघन्यतः एक समय में एक, दो, तीन जीवों का होता है। उत्कृष्टत: आवलिका के असंख्येय भाग काल में सतत निष्क्रमण या प्रवेश होता है। एक जीव के सातत्य की अपेक्षा से एक जीव त्रसकाय में जघन्यतः अन्तर्महर्त और उत्कृष्टतः दो हजार सागरोपम तक रह सकता है। १६०. त्रसकाय का मांस आदि मनुष्य के परिभोग में आता है। प्रसकाय का शस्त्र अनेक प्रकार का है। उनके शारीरिक और मानसिक- यह दो प्रकार की वेदना होती है तथा ज्वर, अतिसार आदि के रूप में अनेक प्रकार की होती है। १६१,१६२. कुछ लोग मांस के लिए त्रसजीव का वध करते हैं। कुछ चमड़ी के लिए, कुछ रोम के लिए, कुछ पांख के लिए, कुछ पूंछ और दांतों के लिए उनका वध करते हैं। कुछ लोग प्रयोजनवश उनका वध करते हैं और कुछ बिना प्रयोजन ही (केवल मनोरंजन के लिए) वध करते हैं। कुछ व्यक्ति प्रसंग-दोष से, कुछ कृषि आदि अनेक प्रवृत्तियों में आसक्त होकर प्रसजीवों को बांधते हैं, ताड़ित करते हैं और उनको मार डालते हैं । १६३. त्रसकाय के शेष द्वार पृथ्वीकाय की भांति ही होते हैं। इस प्रकार सकाय की नियुक्ति प्ररूपित है। १६४. जितने द्वार पृथ्वीकाय के कहे गए हैं, उतने ही द्वार वायुकाय के हैं। भेद केवल पांच विषयों में है--विधान, परिमाण, उपभोग, शस्त्र और लक्षण । १. योनियों के त्रिक -शीत, उष्ण, शीतोष्ण । स्नायु आदि। सचित्त, अचित्त, मिश्र। संवृत, विवृत, संवृत- ३. प्रसंगदोष का अर्थ है कि कोई व्यक्ति मृग को विवृत । स्त्री, पुरुष, नपुंसक ! कर्मोन्नत, मारने के लिए पत्थर, शस्त्र आदि फेंकता है शंखावर्त, वंशीपत्र । इस प्रकार योनियों के किन्तु मध्यवर्ती कपोत, कपिजल आदि पक्षी अनेक त्रिक हो सकते हैं। (देखें --आटी पु ४५) मारे जाते हैं, यह प्रसंग दोष है। २. आदि शब्द से चर्म, केश, रोम, नख, दांत, Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति ३०१ १६५,१६६. वायुकाय जीव दो प्रकार के हैं— सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म वायुकाय के जीव समस्त लोक में तथा बादर वायुकाय के जीव लोक के एक भाग में होते हैं। बादर वायुकाय के जीव पांच प्रकार के हैं— उत्कलिकावात, मंडलिकावात, गुंजावात, घनवात, शुद्धवात । १६७. जैसे देवताओं का शरीर चक्षुग्राह्य नहीं होता है, जैसे अंजन, विद्या तथा मंत्रशक्ति से मनुष्य अन्तर्धान हो जाता है वैसे ही वायु असद्रूप - चक्षुग्राह्यरूप वाली न होने पर भी उसका व्यपदेश किया जाता है । १६८. बादर पर्याप्तक वायुकाय संवर्तित लोकप्रतर के असंख्येय भागवर्तिप्रदेश राशि के परिमाण जितने हैं । शेष तीनों पृथक्-पृथक् रूप से असंख्येय लोकाकाश परिमाण जितने हैं । १६९. व्यजन, (पंखे आदि से हवा करना), धोंकनी से धमना, अभिधारणा, उत्सिंचन, फूत्कार, ( फूंक देना ) प्राण अपान - मनुष्यों की इन प्रवृत्तियों में बादर वायुकाय का उपभोग होता है । १७०. व्यजन, तालवृंट, सूर्प, चामर, पत्र, वस्त्र का अंचल, अभिधारणा - पसीने से लथपथ होने पर वायुप्रवेश के मार्ग पर बाहर बैठना, गंधद्रव्य, अग्नि- ये वायुकाय के द्रव्यशस्त्र हैं । १७१. वायुकाय के कुछ स्वकाय शस्त्र हैं, कुछ परकाय शस्त्र हैं और कुछ उभयशस्त्र हैं । ये सारे द्रव्यशस्त्र हैं । भावशस्त्र है -असंयम | १७२. वायुकाय के शेष द्वार पृथ्वीकाय की भांति ही होते हैं । इस प्रकार वायुकाय की निर्युक्ति प्ररूपित है । दूसरा अध्ययन : लोकविजय १७३. दूसरे अध्ययन के छह उद्देशक हैं । उनके अर्थाधिकार इस प्रकार हैं १. स्वजन में आसक्ति करने का निषेध | २. संयम में अदृढत्व - शैथिल्य करने का निषेध 1 ३. सभी मदस्थानों में अहं का निषेध तथा अर्थसार की निस्सारता का प्रतिपादन । ४. भोगों में आसक्त न होने का प्रतिपादन । ५. लोकनिश्रा का आलंबन । ६. लोक-संस्तृत तथा असंस्तृत व्यक्तियों में ममत्व का निषेध | १७४. लोक, विजय, गुण, मूल तथा स्थान - इनके निक्षेप करना चाहिए । संसार का मूल है कषाय, उसका भी निक्षेप करना चाहिए । १७५. लोक और विजय- ये अध्ययन के लक्षण से निष्पन्न हैं । गुण, मूल तथा स्थानये सूत्रालापक निष्पन्न हैं । १७६. लोक शब्द के आठ निक्षेप हैं (नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव तथा पर्यंत ) । विजय शब्द के छह निक्षेप हैं - ( नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ) । प्रस्तुत में औदयिक भाव कषायलोक के विजय का अधिकार है, प्रसंग है । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ नियुक्तिपंचक १७७. लोक के विषय में कहा जा चुका है।' विजय शब्द के छह निक्षेपों में नामविजय तथा स्थापनाविजय के अतिरिक्त शेष चार निक्षेप इस प्रकार हैं द्रव्यविजय-द्रव्य से विजय । क्षेत्रविजय-क्षेत्र पर विजय । भरत का छह खंडों पर विजय पाना । कालविजय-जितने समय या काल में विजय प्राप्त की जाती है। जैसे-भरत ने साठ हजार वर्षों में भारत पर विजय प्राप्त की। भावविजय-औदयिक आदि भावों पर विजय । प्रस्तुत में भवलोक अर्थात भावलोक पर भावविजय का प्रसंग है। यहीं प्राणिगण आठ प्रकार के कर्मों से बंधता है तथा मुक्त होता है। १७८. प्राणी कषायलोक से पराजित है, इसलिए उससे निवर्तित होना श्रेयस्कर है। साथसाथ जो 'काम' से निवर्तित होता है, वह शीघ्र ही संसार से मुक्त हो जाता है। १७९. गुण के पन्द्रह निक्षेप हैं-नामगुण, स्थापनागुण, द्रव्यगुण, क्षेत्रगुण, कालगुण, फलगुण, पर्यवगुण, गणनागुण, करणगुण, अभ्यासगुण, गुण-अगुण, अगुण-गुण, भवगुण, शीलगुण तथा भावगुण । १८०. स्वयं द्रव्य ही द्रव्यगुण है क्योंकि गुणों का (अस्तित्व) गुणी में संभव होता है । द्रव्य के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त तथा मिश्र । इनके अपने-अपने गुण स्वयं में तादात्म्य भाव से अवस्थित हैं। १८१. संकुचित होना, विकसित होना-ये जीव के आत्मभूत गुण हैं । वह अपने बहुप्रदेशात्मक गुण के कारण समुद्घात के समय संपूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है। १८२. क्षेत्र आदि गुणों का विवरण इस प्रकार है-- १. क्षेत्रगुण - देवकुरु, उत्तरकुरु आदि भूमियों का गुण (जैसे- वहां के मनुष्य अवस्थित यौवन वाले, निरुपक्रम आयुष्य वाले, स्वभाव से ऋजु, मृदु होते हैं। २. कालगुण -भरत, ऐरवत आदि क्षेत्रों में एकांत सुषमा आदि तीनों कालों में सदा यौवन आदि की अवस्थिति । ३. फलगुण - रत्नत्रयी की आराधना का अनाबाध सुख-सिद्धिरूपी फल । ४. पर्यवगुण-पर्याय का गुण है-निर्भजना-निश्चित विभक्त होते जाना। ५. गणनागुण-एक, दो आदि से इयत्ता का अवधारण । ६. करणगुण-कला-कौशल । १. लोक शब्द की व्याख्या आवश्यक नियुक्ति के के दो गुण हैं-अमूर्तत्व तथा अगुरुलघुपर्याय । चतुर्विशतिस्तव में की जा चुकी है। ये सभी अरूपी द्रव्यों में मिलते हैं। रूपी २. जैसे - सचित्त द्रव्य अथवा जीवद्रव्य का । द्रव्य का गुण हैं-मूर्त्तत्व । यह सभी रूपी लक्षण है-उपयोग। उससे पृथक् अन्य में द्रव्यों में मिलेगा। इस प्रकार द्रव्य और गुण ज्ञान आदि गुण नहीं मिलते। अचित्त द्रव्य के का तादात्म्य है। दो भेद हैं-रूपी और अरूपी। अरूपी द्रव्य Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति ७. अभ्यासगुण - सद्य:जात बालक का स्तनपान करना आदि । ८. गुण- अगुण - गुण का ही किसी में अगुणरूप से परिणत होना । जैसे—ऋजुता गुण है, वह मायावी में अगुण होता है । ९. अगुण - गुण - अगुण किसी में गुणरूप में परिवर्तित हो जाता है, जैसे-गलि बैल | १०. भवगुण – मनुष्य, नारक आदि भव से संबंधित गुण-दोष । ११. शीलगुण - अपना स्वभावगत गुण । १२. भावगुण - औदयिक आदि भावों का गुण । जीव-अजीव का गुण । १८३. मूल के छह निक्षेप हैं - ( नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ) । द्रव्यमूल तीन प्रकार का है ।' क्षेत्रमूल - जिस क्षेत्र में मूल जड़ उत्पन्न होती है । कालमूल - जिस काल में मूल उत्पन्न होती है या जितने काल तक मूल बनी रहती 1 १८४. भावमूल के तीन प्रकार ये हैं १. ओदयिकभावमूल - नाम - गोत्र-कर्म के उदय से वनस्पतिकाय के मूलत्व का अनुभव करने वाला मूलजीव । २. उपदेष्टुभावमूल— मूलत्व के कारणभूत कर्मों का उपदेष्टा आचार्य | ३. आदिभावमूल - मोक्ष और संसार का आदिभावमूल का उपदेष्टा । मोक्ष का आदिभाव मूल है- विनय और संसार का आदिभावमूल है कषाय आदि । १८५. स्थान शब्द के पन्द्रह निक्षेप हैं १. नामस्थान । ३०३ २. स्थापनास्थान । ३. द्रव्यस्थान — द्रव्यों का आश्रय | ४. क्षेत्रस्थान - भरत, ऐरवत आदि क्षेत्र । अथवा ऊर्ध्व, अधः, तिर्यक्लोक आदि । नरक १. भवगुण तथा शीलगुण का भावगुण में ग्रहण किया गया है । भवगुण - जीव का आदि भव । शीलगुण क्षांति आदि से युक्त जीव । २. औदयिक द्रव्यमूल वृक्षों के मूल (जढ़) ५. अद्धास्थान — कालस्थान, जैसे – जीवों की कार्यस्थिति, भवस्थिति आदि । ६. ऊर्ध्वस्थान — कायोत्सर्ग आदि । ७. उपरतिस्थान - श्रावक तथा साधुओं का विरति स्थान । ८. वसतिस्थान - ग्राम, गृह आदि निवास-स्थान । ९. संयमस्थान – पांच प्रकार के चारित्र के असंख्य संयमस्थान । १०. प्रग्रहस्थान - आदेय वाक्य वाले नायक का स्थान । इसके दो भेद हैं-लौकिक और लोकोत्तर । लौकिक हैं-राजा, युवराज, महत्तर, अमात्य और कुमार । लोकोत्तर हैं- आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणावच्छेदक । रूप में परिणत द्रव्य । उपदेशमूलचिकित्सक जिस रोग के उन्मूलन में जिस जड़ी-बूटी का उपदेश देता है वह, जैसे पिप्पलीमूल आदि । आदिमूल-वृक्ष की उत्पत्ति में आद्य कारण । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ११. योधस्थान - युद्धस्थल में स्वीकृत आलीढ, प्रत्यालीढ आदि अवस्थान । १२. अचलस्थान - सादिसपर्यवसान, सादिअपर्यवसान आदि । १३. गणनास्थान - एक, दो आदि शीर्षप्रहेलिका पर्यंत गणना । १४. संधानस्थान - संधान करने के स्थान । १५. भावस्थान - भाव विषयक संधान स्थान | निर्युक्तिपंचक १८६. शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध - ये पांच कामगुण हैं । इनके प्रति जिस प्राणी के कषाय प्रवर्तित होते हैं, यही संसार का मूलस्थान है । १८७. जैसे सभी वृक्षों के मूल भूमि में प्रतिष्ठित होते हैं, वैसे ही कर्मवृक्षों के मूल कषाय में प्रतिष्ठित हैं । १८८. कर्मवृक्ष आठ प्रकार के हैं । इन सबका मूल है - मोहनीय कर्म । कामगुणों का भी मूल है— मोहनीय कर्म और यही मोहनीय कर्म संसार का मूल है— अर्थात् संसार का आद्य कारण है । १८९. मोह के दो प्रकार हैं- दर्शनमोह और चारित्रमोह | कामगुण चारित्रमोह के प्रकार हैं । प्रस्तुत सूत्र में उनका अधिकार है अर्थात् उनका प्रतिपादन है । १९०. संसार का मूल है— कर्म । कर्म का मूल है - कषाय । कषाय स्वजन, प्रेष्य, अर्थधन आदि में विषयरूप में स्थित तथा आत्मा में विषयीरूप में स्थित है । १९१ कषाय शब्द के आठ निक्षेप हैं- नामकषाय, स्थापनाकषाय, द्रव्यकषाय, उत्पत्ति कषाय - जिनके आश्रय से कषाय उत्पन्न होते हैं । प्रत्ययकषाय - कषाय-बंध के कारण । आदेशकषाय - कृत्रिमरूप में भृकुटि तानना आदि । रसकषाय -- कषैलारस । भावकषाय-- क्रोध, मान, माया, लोभ आदि चार कषाय । १९२. संसार के पांच प्रकार हैं- द्रव्यसंसार, क्षेत्रसंसार, कालसंसार, भवसंसार तथा भावसंसार । जहां जीव संसरण करते हैं, वह संसार है । १९२।१. संसार के पांच प्रकार हैं- द्रव्यसंसार, क्षेत्रसंसार, कालसंसार, भवसंसार और भावसंसार । कर्म से संसार होता है अतः यहां सूत्र में उसी का अधिकार है । १९३,१९४. कर्म के दस निक्षेप हैं - नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समुदानकर्म, ईर्यापथिककर्म आधाकर्म, तपःकर्म, कृतिकर्म, भावकर्म । यह संक्षेप में दस प्रकार का कर्म है । ' प्रस्तुत प्रसंग में अष्टविध कर्म का अधिकार है । १९५. जो पुरुष संसार का उन्मूलन करना चाहता है, वह कर्मों का उन्मूलन करे । कर्मों के उन्मूलन के लिए वह कषायों का उन्मूलन करे । कषायों के अपनयन के लिए वह स्वजनों को छोड़े - स्वजनों के स्नेह का अपनयन करे । १९६. माता मेरी है । पिता मेरे हैं । भगिनी मेरी है। भाई मेरे हैं । पुत्र मेरे हैं । पत्नी मेरी है। इन सब में ममत्व कर तथा अर्थ-धन में गृद्ध होकर प्राणी जन्म-मरण को प्राप्त करते रहते हैं । १. विवरण के लिए देखें - आटी पृ ६१,६२ । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति ३०५ १९७. द्वितीय उद्देशक में संयम में अदृढ़ता का निरूपण है। कोई मुनि अरति के कारण संयम में शिथिल हो जाता है। यह अरति अज्ञान, काम, लोभ आदि अध्यात्मदोषों से उत्पन्न होती तीसरा अध्ययन : शीतोष्णीय १९८,१९९. तीसरे अध्ययन के चार उद्देशक हैं । उनके अर्थाधिकार इस प्रकार हैं१. पहले उद्देशक में सुप्त गृहस्थों के दोषों तथा जागृत गृहस्थों के गुणों का प्रतिपादन है। २. दूसरे उद्देशक का प्रतिपाद्य यह है- दुःखों का अनुभव वे ही असंयत मनुष्य करते हैं, जो भावनिद्रा ग्रस्त हैं। ३. तीसरे उद्देशक का प्रतिपाद्य है कि केवल दुःख सहने से ही नहीं, उसको न करने से श्रमण होता है। ४. चौथे उद्देशक में कषायों के वमन का उपदेश, पाप कर्मों से विरति तत्त्वज्ञ के ही संयम की निष्पत्ति तथा भवोपनाही कर्मों के क्षय से मोक्ष होता है - इनका प्रतिपादन है। २००. शीत और उष्ण के चार-चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । २०१. द्रव्यशीत--शीतल द्रव्य, द्रव्य उष्ण-उष्णद्रव्य । पुद्गलाश्रित भावशीत-पुद्गल का शीतगुण । पुद्गलाश्रित भावउष्ण पुद्गल का उष्णगुण । जीव का शीतोष्णरूप गुण अनेक प्रकार का है। (जैसे-जीव का औदयिक भाव उष्ण है, औपशमिक भाव शीत है, क्षायिकभाव भी शीत है अथवा समस्त कर्मों का दहन करने के कारण यह उष्ण है।) २०२. यहां शीत अर्थात् भावशीत का अर्थ है-जीव का परिणाम । प्रमाद-कार्यमैथिल्य शीतलविहारता, उपशम-मोहनीय कर्म का उपशम, विरति--सतरह प्रकार का संयम, सुख-सातवेदनीय का उदय - ये सारे अपीडाकारक होने से भावशीत हैं। सभी परीषह, तप में उद्यम, कषाय, शोक, वेदोदय, अरति तथा दु:ख--असातवेदनीय का उदय-ये सारे पीडाकारक होने के कारण भाव उष्ण हैं। २०३. स्त्री परीषह तथा सत्कार परीषह-ये दोनों मन के अनुकूल होने के कारण शीत परीषह हैं । शेष बीस परीषह (मन के प्रतिकूल होने के कारण) उष्ण होते हैं। २०४. जो तीव्र परिणाम वाले परीषह होते हैं, वे उष्ण तथा जो मंद परिणाम वाले परीषह हैं, वे शीत कहलाते हैं । २०५. जो धर्म में प्रमाद करता है तथा अर्थोपार्जन में शीतल है-वह शीत है। इसके विपरीत जो संयम के प्रति उद्यमशील है, वह उष्ण है। २०६. जिसके कषाय उपशांत हैं वह शीतीभूत, कषाय की ज्वाला बुझ जाने से परिनिर्वत, राग-द्वेष के उपशमन से उपशांत और कषाय के परिताप के उपशमन से प्रह्लादित होता है। यह सारा परिणाम उपशांत कषाय वाले के होता है, इसलिए उपशांत कषाय शीत होता है। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक २०७. संयम जीवों को अभय देने वाला तथा उनके लिए शीतघर--सुख का आवास है, इसलिए वह शीत है । असंयम उष्ण है। संयम तथा असंयम के आधार पर यह शीतोष्ण का अन्य पर्याय है। २०८. यथार्थ में निर्वाण सुख ही सुख है। उसके एकार्थक शब्द हैं----सात, शीतीभूत, पद, अनाबाध । संसार में जो कुछ सुख है, वह शीत है और जो कुछ दुःख है, वह उष्ण है। २०९. तीव्र कषायी, शोक से अभिभूत तथा उदीर्णवेदी--जिसकी काम-भावना विपाक में आ चुकी है---ये सब तीव्र ताप से जलते हैं । ये सब दाहक होने के कारण उष्ण हैं। तप इन सब से उष्णतर है। वह कषाय आदि को भी जला डालता है। २१०. जो शीत और उष्ण स्पर्श को सहन करता है, जो सुख-दुःख को सहन करता है, जो परीषह, कषाय, वेद, शोक आदि को सहता है, वह श्रमण होता है । वह सदा तप, संयम तथा उपशम में पराक्रमशील होता है । २११. भिक्षु को शीत और उष्ण--सभी परीषह सहने चाहिए। उसे कभी काम का सेवन नहीं करना चाहिए । यह शीतोष्णीय अध्ययन की नियुक्ति है। २१२. अमुनि----गृहस्थ सदा सुप्त होते हैं । मुनि सोते हुए भी सदा जागृत रहते हैं । सप्त और जागृत का कथन धर्म की अपेक्षा से है। जो निद्रा से सुप्त हैं, उनमें जागति की भजना होती २१३. जैसे सुप्त, मत्त, मूच्छित, अस्वाधीन व्यक्ति अप्रतिकारात्मक बहुत सारे दु:खों को पाता है। वैसे ही जो व्यक्ति भावनिद्रा- प्रमाद, कषाय आदि में रहता है, वह भी तीव्रतर दु:खों को प्राप्त होता है। २१४. जो विवेकी होता है, वह आग लगने पर पलायन करता हुआ तथा पंथ आदि के विवेक से युक्त होकर जैसे सुख का अनुभव करता है वैसे ही विवेकी श्रमण भी सुख का अनुभव करता है। यही उपदेश है। चौथा अध्ययन : सम्यक्त्व २१५,२१६. चौथे अध्ययन के चार उद्देशक हैं। उनके अधिकार इस प्रकार हैं--पहले उद्देशक में सम्यग्वाद, दूसरे में धर्मप्रवादूकों की परीक्षा, तीसरे में अनवद्य तप तथा बालतप से मुक्ति के निषेध का प्रतिपादन है। चौथे उद्देशक में संक्षेप में संयम का प्रतिपादन है। इसलिए मुमुक्ष को ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की परिपालना में यत्न करना चाहिए। २१७. सम्यक्त्व के चार प्रकार के निक्षेप हैं---नाम सम्यक्त्व, स्थापना सम्यक्त्व, द्रव्य सम्यक्त्व तथा भाव सम्यक्त्व । २१८. द्रव्य सम्यक् ऐच्छानुलोमिक--इच्छानुकुल होता है। जिन-जिन पदार्थों के प्रति भाव की अनुकूलता होती है, उसे इच्छानुलोमिक द्रव्यसम्यक कहा जाता है। वह सात प्रकार का है--१. कृत २. संस्कृत-संस्कारित ३. संयुक्त ४. प्रयुक्त ५. त्यक्त ६. भिन्न और ७. छिन्न । Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारोग नियुक्ति २१९. भावसम्यक् तीन प्रकार का है-दर्शन, ज्ञान और चारित्र । दर्शन और चारित्र के तीन-तीन भेद हैं तथा ज्ञान के दो प्रकार हैं। २२०. जैसे (कार्यकुशल) अंधा व्यक्ति शत्रसेना को नहीं जीत सकता, वैसे ही मिथ्यात्वी व्यक्ति क्रिया करता हुआ भी, स्वजन-धन और भोगों को छोड़ता हुआ भी तथा प्रचुर दुःख को सहता हुआ भी कार्यसिद्धि नहीं कर सकता। २२१. मिथ्यादष्टि वाला मनुष्य निवृत्ति करता हआ भी, स्वजन-धन और भोगों को छोड़ता हुआ भी तथा प्रचुर दुःखों को सहता हुआ भी सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता । २२२. इसलिए जो साधक कर्म-सेना को जीतना चाहता है, उसे सम्यग्दर्शन में प्रयत्नशील रहना चाहिए। सम्यग्दर्शनी साधक के ही तप, ज्ञान और चारित्र सफल होते हैं । २२३,२२४. प्रस्तुत दो श्लोकों में सम्यग्दर्शन तथा उसके पूर्व के गुणस्थानों का निर्जरा की दृष्टि से तारतम्य बताया गया है। सम्यग्दर्शन की विवक्षित उत्पत्ति तक असंख्येय गुण श्रेणिस्थान बताए गए हैं । (जैसे--मिथ्यादृष्टि तथा देशोनकोटिकोटिकर्म स्थितिवाले ग्रन्थिकसत्त्व (मिथ्यादष्टि)-दोनों कर्म-निर्जरा की अपेक्षा से तुल्य होते हैं। जिनमें धर्मपृच्छा की संज्ञा उत्पन्न हो जाती है, वे उनसे असंख्येय गुण अधिक निर्जरक होते हैं । उनसे भी असंख्येय गुण अधिक निर्जरक वे होते हैं जो धर्म की जिज्ञासा करने साधुओं के समीप जाते हैं। उनसे भी असंख्येय गुण निर्जरक होता है धर्म क्रिया को स्वीकार करने वाला। उससे भी असंख्येय गुण अधिक निर्जरक वे होते हैं जो पहले ही धर्मक्रिया में संलग्न हैं। यह सम्यक्त्व की उत्पत्ति की व्याख्या है।) उनसे विरताविरति को स्वीकार करने वाले श्रावक, उनसे सर्वविरत, उनसे अनन्तकाशों को क्षय करने के इच्छुक, उनसे दर्शनमोह की प्रकृतियों को क्षीण करने वाले, उनसे उपशांत कषाय, उनसे उपशांत मोह, उनसे चारित्रमोह के क्षपक उनसे क्षीणमोह, उनसे जिन-भवस्थकेवली, उनसे शैलेशी अवस्था प्राप्त जिन-ये सब उत्तरोत्तर असंख्येय गुना अधिक निर्जरक होते हैं। काल की दृष्टि से यह क्रम प्रतिलोम रूप से संख्येय गुना श्रेणी की अवस्थिति से व्यवहार्य होता है । यह अयोगी केवली से प्रारब्ध होकर प्रतिलोम रूप में धर्मपृच्छा तक चलता है । जैसे-जितने काल में जितने कर्मों का क्षय अयोगी केवली करता है, उतने कर्म सयोगी केवली संख्येय गुना अधिक काल में क्षीण करता है। २२५. आहार, उपधि, पूजा, ऋद्धि-आमर्ष औषधि आदि के निमित्त जो ज्ञान-चारित्र की क्रिया करता है तथा गौरवत्रिक से प्रतिबद्ध होकर जो क्रिया करता है, वह कृत्रिम क्रिया है। इसी प्रकार बारह प्रकार का तप भी आहार, उपधि आदि से प्रतिबद्ध होकर कृत्रिम हो जाता है। जो कृत्रिम अनुष्ठान में रत रहता है, वह श्रमण नहीं होता। २२६,२२७. जो जिनवर- तीर्थकर अतीत में हो गए हैं, जो वर्तमान में हैं और जो अनागत काल में होंगे उन सभी ने अहिंसा का उपदेश दिया है और देंगे। (अहिंसक व्यक्ति) छह जीवनिकायों की न स्वयं हिंसा करे, न दूसरों से हिंसा करवाए और न हिंसा करने वालों का अनुमोदन करे । यह सम्यक्त्व अध्ययन की नियुक्ति है। १. औपशमिक दर्शन, क्षायोपशमिक दर्शन, मन:पर्यव। क्षायिक ज्ञान-केवलज्ञान, देखें क्षायिक दर्शन । औपशमिक चारित्र, क्षायो- परि० ६ कथा सं० ४। पशमिक चारित्र, क्षायिक चारित्र । ३. विस्तार के लिए देखें-आटी पृ ११८। २. क्षायोपशमिक ज्ञान-मति, श्रुत, अवधि, वलज्ञान ३. विस्तारमा सं०४, । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ नियुक्तिपंचक २२८. प्रस्तुत श्लोक में क्षुल्लक की कथा कही गई है। रोहगुप्त मंत्री ने धर्मकथा न करते हुए भी गाथा के एक चरण से अप्रकट रूप में अन्यलिंगी तीथिकों की परीक्षा की। (राजा ने नगर में गाथा के एक चरण-'सकंडलं वा वयणं न व त्ति' को प्रचारित किया। उसकी पूर्ति के लिए विभिन्न तीथिक साधु राजा के समक्ष आए ।) २२९. (परिव्राजक ने गाथापूर्ति करते हुए कहा)—'मैं आज जब भिक्षा के लिए गया तब एक घर में विकसित कमल की भांति मनोहर नेत्रों वाली एक स्त्री का मुख देखा। उसे देख, मेरा चित्त चंचल हो गया । मैं भलीभांति नहीं जान सका कि उसका मुख कंडलसहित है या नहीं ? २३०. (तापस ने कहा)-फलों का पानी लेने के लिए मैं एक घर में गया। वहां एक महिला आसन पर बैठी थी। उसे देख मेरा मन विक्षिप्त हो गया। मैं भलीभांति नहीं जान सका कि उसका मुख कुंडलसहित है या नहीं ? २३१. (बौद्ध भिक्षु बोला)----मालाविहार [उपवन] में मैंने एक उपासिका को देखा, जो स्वर्णाभरणों से सजी हुई थी। उसे देख मेरा मन चंचल हो गया। मैं भलीभांति नहीं जान सका कि उसका मुख कुंडलसहित है या नहीं? २३२. जैन श्रमण ने कहा- मैं शान्त हूं, दान्त हूं, जितेन्द्रिय हूं। मेरा मन अध्यात्मयोग में लीन है, तब फिर इस चिन्तन से क्या प्रयोजन कि स्त्री का मुख कुंडलसहित है या नहीं ?' २३३,२३४. मिट्टी के दो गोले हैं। एक आर्द्र..गीला है और एक सूखा है। दोनों को भीत पर फेंका। जो गीला था वह भींत पर चिपक गया। जो सूखा था, वह भींत का स्पर्श कर नीचे गिर गया। इसी प्रकार दुर्बुद्धि मनुष्य काम-लालसा से पराभूत होकर संसार-पंक में डूब जाते हैं और जो विरक्त हैं, वे सूखे गोले की भांति कहीं चिपकते नहीं हैं। २३५. जैसे अग्नि पोले और अत्यंत सूखे काठ को शीघ्र जला देती है वैसे ही सम्यग चारित्र में स्थित साध भी कर्मों को शीघ्र जला डालता है, क्षीण कर देता है। पांचवां अध्ययन : लोकसार २३६-२३८. पांचवें अध्ययन के छह उद्देशक हैं। उनके अर्थाधिकार इस प्रकार हैंपहला उद्देशक-जो हिंसक, विषयारंभक और एकचर होता है, वह मुनि नहीं होता। दूसरा उद्देशक-जो विरत है, वह मुनि होता है । अविरतवादी परिग्रही होता है । तीसरा उद्देशक---विरत मुनि ही अपरिग्रही तथा कामभोगों से निविण्ण होता है। चौथा उद्देशक-अव्यक्त (अगीतार्थ) और एगचर मुनि के अपायों का दिग्दर्शन । पांचवां उद्देशक-ह्रद की उपमा, तप-संयम-गुप्ति तथा निस्संगता का निरूपण । छठा उद्देशक-उन्मार्ग की वर्जना तथा राग-द्वेष के परित्याग का प्रतिपादन । २३९. प्रस्तुत अध्ययन का आदानपद के आधार पर 'अवंति' नाम है तथा इसका गौण नाम है लोकसार । लोक और सार शब्द के चार-चार निक्षेप हैं :- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । १. देखें परि० ६ कथा सं०.५।। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराग नियुक्ति २४०. द्रव्यसार का प्रतिपादन-समस्त संपत्तियों में धन सार है। स्थूल पदार्थों में एरंड, भारी पदार्थों में वज्र, मध्यम पदार्थों में खदिर, देशप्रधान' में जिन तथा शरीरों में औदारिक शरीर (मुक्तिगमन की योग्यता के कारण) सार है । (आदि शब्द से स्वामित्व, करण और अधिकरण की सारता, जैसे-स्वामित्व-गोरस में सारभूत है घृत, करणत्व में सारभूत है-मणिसार वाले मुकुट से शोभित राजा, अधिकरण में सारभूत है-दही में घी, जल में सारभूत है पद्म आदि ।) २४१. भावसार के प्रसंग में फल-साधनता अर्थात् फल की प्राप्ति सार है। फलावाप्ति का सार है- उत्तम सुख वाली वरिष्ठ सिद्धि । उसके साधन हैं -- ज्ञान, दर्शन, संयम और तप । प्रस्तुत में उसी का अधिकार है। २४२. लोक में अनेक कुसमय- कुसिद्धान्त प्रचलित हैं। वे काम तथा परिग्रह से कुत्सित मार्ग वाले हैं। लोग उनमें लगे हुए हैं। संसार में सारभूत है-ज्ञान, दर्शन, तप तथा चारित्रगुण । ये सिद्धि-प्राप्ति के प्रयोजन को सिद्ध करने वाले हैं। २४३. शंका के निमित्त कारण को छोड़कर इस (ज्ञान, दर्शन, तप, चारित्रात्मक) सारपद को दढ़ता से ग्रहण करना चाहिए । जीव है, परमपद-मोक्ष है, यतना-राग-द्वेष का उपशमनसंयम है। इनमें कभी संदेह नहीं करना चाहिए । २४४. लोक का सार क्या है ? उस सार का सार कौनसा है ? उस सारसार का सार क्या है ? मैंने पूछा है, यदि तुम जानते हो तो बताओ। २४५. लोक का सार है-- धर्म । धर्म का सार है—ज्ञान । ज्ञान का सार है-संयम । संयम का सार है-निर्वाण । २४६. चार, चर्या और चरण-ये तीनों शब्द एकार्थक हैं। चार के नाम, स्थापना आदि छह निक्षेप हैं। द्रव्यचार-दारु संक्रम (लकड़ी का पुल), जलचार, स्थलचार आदि अनेक प्रकार का होता है। २४७. जिस क्षेत्र में चार होता है, उसे क्षेत्रचार कहा जाता है। जिस काल में चार होता है, उसे कालचार कहा जाता है। भावचार के दो प्रकार हैं-प्रशस्त तथा अप्रशस्त । प्रशस्त भावचार है-ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र । (शेष अप्रशस्त भावचार है।) १. प्रधान भाव तीन प्रकार का है-सचित्त, २. हियट्टाए-हिता-सिद्धिस्तदर्थत्वादिति । अचित्त और मिश्र । सचित्त के तीन प्रकार ३. जल में सेतु आदि का निर्माण, स्थल में गढों हैं-द्विपद, चतुष्पद तथा अपद । द्विपद में को लांघना आदि । जलचार है-नौका से जिन, चतुष्पद में सिंह तथा अपद में कल्पवृक्ष । यात्रा करना । स्थलचार-रथ आदि से गमन अचित्त में वैर्य मणि तथा मिश्र में विभूषित करना। आदि शब्द से प्रासाद आदि में तीर्थकर। टीकाकार ने देश और प्रधान को सोपानपंक्ति का निर्माण, जिससे एक स्थान से भिन्न भिन्न मानकर अर्थ किया है। उनके दूसरे स्थान की प्राप्ति होती है। यह द्रव्यअनुसार देश में सार आम्र तथा प्रधान में चार है। सार जिन हैं। (आटी पृ. १३१) Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० नियुक्तिपंचक २४८. लोक के चार प्रकार हैं-द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक । श्रमण के द्रव्य आदि चार प्रकार के चार कैसे होंगे ? इसके निर्वचन में कहा गया है-प्रस्तुत में पति का प्रसंग है । अरस-विरस द्रव्य में धृति रखना श्रमण का द्रव्यचार है। प्रतिकूल क्षेत्र में धृति रखना क्षेत्रचार है। दूष्काल आदि में यथालाभ --प्राप्ति से संतुष्ट रहना कालचार है। भावचार हैप्रतिकूलता में भी अनु विग्न रहना । विशेषतः क्षेत्र और काल की प्रतिकूलता में धुति रखना निर्दिष्ट है। २४९. मुनि के लिए पाप से उपरत रहना तथा अपरिग्रही रहना द्रव्यचार है। गुरुकुलवास में रहना क्षेत्रचार है। सर्वदा गुरुवचनों से युक्त रहना कालचार है। उन्मार्ग का वर्जन करना तथा राग-द्वेष से विरत रहना भावचार है। इस प्रकार श्रमण संयमानुष्ठान के साथ विचरण करे। छठा अध्ययन : धुत २५०,२५१. छठे अध्ययन के पांच उद्देशक हैं । उनके अर्थाधिकार इस प्रकार हैं१. पहले उद्देशक का अर्थाधिकार-स्वजन का विधूनन । २. दूसरे उद्देशक का अर्थाधिकार-कर्मों का विधूनन । ३. तीसरे उद्देशक का अर्थाधिकार-उपकरण तथा शरीर का विधूनन । ४. चौथे उद्देशक का अर्थाधिकार-तीन गौरवों का विधूनन । ५. पांचवें उद्देशक का अर्थाधिकार-उपसर्गों तथा सम्मानों का विधूनन । द्रव्यधुत है-- वस्त्रों को धुनना- रजों का अपनयन करना तथा भावधुत है--आठ प्रकार के कर्मों को धुनना। २५२. जो देवता संबंधी, मनुष्य संबंधी तथा तिर्यञ्च संबंधी उपसर्गों को अत्यधिक सहन कर कर्मों का धुनन करता है, वह भावधुत है । सातवां अध्ययन : महापरिज्ञा २५३. प्रथम उद्देशक के तीन अधिकार हैं-१. गहपतिसंयोग परिज्ञा २. कुशीलसेवा परिज्ञा ३. स्वपक्ष (साधर्मिक) संबंध के साथ विवेक । २५४. द्वितीय उद्देशक में कुमार्ग का त्याग, देहविभूषा, मैथुन-सेवन, गर्भ का आदान, परिशाटन तथा पोषण आदि के बारे में चर्चा करने के परित्याग का निर्देश है। २५५.२५६. तीसरे उद्देशक में अविनय, उइंडता का परिहार, आसक्ति के कारण और निवारण की पच्छा, शयन आदि में सहिष्णुता, प्रस्रवण तथा उत्सर्ग की विधि, क्रियाएं और वस्त्र धोने के विधान का वर्णन है । इसके अतिरिक्त पंखे आदि का प्रयोग, वैहानस (मरण का एक प्रकार), हस्तकर्म, स्त्रीसंसर्ग तथा देहपरिकर्म का वर्जन किया गया है। इस उद्देशक में साधना के विघ्नभात निमित्तों को छोड़ने का निर्देश भी है। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति २५७,२५८. चौथे उद्देशक में वस्त्र धोने, पहनने और रंगने की तथा स्थान की अनुज्ञा आदि लेने की विधि का वर्णन है। इसके अतिरिक्त औद्देशिक पिंड (साधु के निमित्त बनाया गया आहार) तथा शय्यातर पिड के परिभोग का वर्जन किया गया है और स्वपरिग्रह (उपधि आदि) का परिसीमन तथा सन्निधि --संचय करने का निषेध किया गया है। २५९,२६०. पांचवें उद्देशक में सूत्र के अर्थ के आधार पर जिनधर्म में पराक्रम का वर्णन है । स्थावर कायों के प्रति दया करने तथा स्वय के प्रति होने वाले आक्रोश तथा वध को सहन करने का निर्देश है। इसके साथ प्रसकाय का समारंभ और गृहस्थ के पात्र में आहार का निषेध किया गया है। अन्यतीथिक साधुओं के साथ होने वाले अननुज्ञात व्यवहार का निर्देश है । २६१. छठे उद्देशक में संयम के विघ्नों का तथा तीसरे उद्देशक की विषयवस्तु का विस्तृत वर्णन है। इसमें साधु के लिए आचरणीय स्थानों का निर्देश तथा स्नान एवं परिभोग आदि का निषेध है। २६२,२६३. सातवें उद्देशक में तीन पलय (?), शीत परिषह को सहने तथा कर्मरजों को प्रकंपित करने का निर्देश है । प्रयोजन होने पर सूई मात्र भी परिग्रह न करने का वर्णन है। सातवें उद्देशक के अंत में आसंदी-वर्जन का तथा अतिथि मुनियों को निमंत्रित करने का, संलेखना, भक्तपरिज्ञा तथा अंतक्रिया--सिद्धि का वर्णन है। २६४. महत् शब्द प्राधान्य और परिमाण के अर्थ में प्रयुक्त है। प्राधान्य और परिमाण का निक्षेप छह प्रकार का है । २६५. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो प्रधान होते हैं, उसमें महत् शब्द प्राधान्य के अर्थ में निष्पन्न है। २६६. द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव में जो महत् होते हैं, उनमें महत् शब्द प्रमाण (परिमाण) के अर्थ में निष्पन्न है। २६७. परिज्ञा के छह निक्षेपों में द्रव्य परिज्ञा, क्षेत्र परिज्ञा, काल परिज्ञा, भाव परिज्ञाइन चारों के ज्ञान तथा प्रत्याख्यान रूप दो-दो भेद हैं। २६८,२६९. भावपरिज्ञा के दो प्रकार हैं-मूलगुण विषयक भावपरिज्ञा तथा उत्तरगुण विषयक भावपरिज्ञा। मूलगुण विषयक भावपरिज्ञा पांच प्रकार की है तथा उत्तरगुण विषयक भावपरिज्ञा दो प्रकार की है। प्रस्तुत में भावपरिज्ञा के दो प्रकारों में प्राधान्य का प्रसंग है । जो परिज्ञाओं में प्रधान है, वह महापरिज्ञा है । २७०. देवियों, मनुष्य-स्त्रियों तथा तिर्यंञ्च-स्त्रियों का त्रिविध परित्याग-यह महापरिज्ञा अध्ययन की नियुक्ति है। आठवां अध्ययन : विमोक्ष २७१-७५. आठवें अध्ययन के आठ उद्देशक हैं । उनके अर्थाधिकार इस प्रकार हैं१. पहले उद्देशक में असमनोज्ञ प्रावादुकों के परित्याग का कथन है। २. दूसरे उद्देशक में अकल्पिक-आधाकर्म आदि का परित्याग करने का निर्देश तथा Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ नियुक्तिपंचक प्रतिषेध करने पर यदि दाता रुष्ट हो जाए तो उसे सिद्धान्तों के आधार पर सम्यक रूप से समझाने का कथन है। ३. तीसरे उद्देशक में मुनि की अंगचेष्टा- शरीर के प्रकंपन आदि को देखकर गहस्थ के कुछ कहने या आशंकित होने पर यथार्थ-कथन का निरूपण है। शेष पांच उद्देशकों में उपकरण तथा शरीर-परित्याग का निरूपण है। वह इस प्रकार है४. चौथे उद्देशक में वैहानस तथा गृद्ध पृष्ठ मरण का निरूपण है। ५. पांचवें उद्देशक में ग्लानता तथा भक्तपरिज्ञा का प्रतिपादन है । ६. छठे उद्देशक में एकत्व भावना तथा इंगिनी मरण का निरूपण है। ७. सातवे उद्देशक में भिक्षु प्रतिमाओं तथा प्रायोपगमन अनशन का प्रतिपादन है। ८. आठवें उद्देशक में अनुपूर्वीविहारी मुनियों के होने वाले भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण तथा प्रायोपगमन अनशनों का निरूपण है। २७६. विमोक्ष शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम विमोक्ष, स्थापना विमोक्ष, द्रव्य विमोक्ष, क्षेत्र विमोक्ष, काल विमोक्ष तथा भाव विमोक्ष । २७७,२७८ द्रव्य विमोक्ष है--बेड़ी, सांकल आदि से छुटकारा । क्षेत्र विमोक्ष है-जेल आदि से छूटना । काल विमोक्ष है-चैत्यमहिमा आदि उत्सव दिनों में हिंसा आदि न करने की घोषणा । भाव विमोक्ष के दो प्रकार हैं देशत: विमोक्ष -साधु । सर्वत: विमोक्ष-सिद्ध । २७९. जीव का कर्मपुद्गलों के साथ संबंध होना बंध है। उससे वियुक्त होना मोक्ष है। २८०. जीव स्व-अजित कर्मों से बद्ध है। उन पूर्वबद्ध कर्मों का सर्वथा पृथक्करण होना ही मोक्ष है। २८१. भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण तथा प्रायोपगमन-ये तीन प्रकार के अनशन हैं । जो चरम मरण अर्थात् इन तीनों में से किसी एक का आश्रय लेकर मरता है, वह भाव विमोक्ष है। २८२. पूर्वोक्त तीन प्रकार के मरणों के दो दो भेद हैं-सपराक्रम, अपराक्रम अथवा व्याघातिम, आनुपूर्विक (अव्याघातिम)। सूत्रार्थ के ज्ञाता मुनि को समाधिमरण को स्वीकार करना चाहिए। (तीन प्रकार के अनशनों में से किसी एक को स्वीकार कर मृत्यु का वरण करना चाहिए।) २८३. सपराक्रम प्रायोपगमन मरण का आदेश'-पारंपरिक उदाहरण है आर्य वचस्वामी जिन्होंने सपराक्रम प्रायोपगमन अनशन स्वीकार किया था। २८४. अपराक्रम प्रायोपगमन मरण का पारंपरिक उदाहरण है-आर्य समुद्र का। उन्होंने अपराक्रम प्रायोपगमन अनशन स्वीकार किया था।' २८५. व्याघातिम मरण-यह सिंह आदि के व्याघात अथवा अन्य किसी व्याघात से होता है। इसका पारंपरिक उदाहरण है- तोसलि आचार्य का, जो महिषी से हत होकर व्याघातिम मरण को प्राप्त हुए थे। १. आदेश-आचार्य की परंपरा से आगत अनुश्रुति/प्राचीन परंपरा। २. देखें--परि ६ कथा सं०६। . ३. वही, कथा सं० ७॥ ४. वही, कथा सं० ८ । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति ३१३ २६६. आनुपूर्वी मरण का क्रम यह है जो साधक मुमुक्षाभाव से उत्प्रेरित है, उसे पहले दीक्षा दी जाता है। फिर उसे सूत्र की वाचना और पश्चात् अर्थ की वाचना से अनुप्राणित किया जाता है । गुरु से अनुज्ञा प्राप्त कर जब वह तीन प्रकार के अनशनों में से किसी एक को ग्रहण करता है, तब वह आहार, उपधि और शय्या इन तीन के नित्य परिभोग से मुक्त हो जाता है ।" २८७. अनशन की आज्ञा लेने वाले मुनि को आचार्य पुनः संलेखना करने की प्रेरणा देते हैं पर वह कुपित हो जाता है। जैसे राजा की आज्ञा पहले तीक्ष्ण होती है बाद में शीतल बन जाती है। वैसे ही आचार्य की प्रेरणात्मक आज्ञा पहले तीक्ष्ण लगती है, बाद में कुछ शीतल बन जाती है । (यदि इतने पर भी मुनि का क्रोध शांत नहीं होता है तो) अन्य तंबोल पत्रों को सुरक्षित रखने के लिए जैसे कुथित तंबोल पत्र को बाहर निकाल दिया जाता है, वैसे ही उस मुनि को गण से बाहर कर दे । यदि वह आचार्य की आज्ञा मानता है तो उसकी पहले, कदर्थना करे, उसकी सहिष्णुता की परीक्षा करे और फिर उस पर प्रसाद अर्थात् अनशन की आज्ञा देने की कृपा करे। I २८- ९१. जैसे पक्षिणी अपने अंडों का प्रयत्नपूर्वक निष्पादन करती है वैसे ही गुरु शिष्यों को निष्पादित कर योग्य बनाकर बारह वर्षों की संलेखना स्वीकार करे। उस संलेखना का स्वरूप इस प्रकार है : १. प्रथम चार वर्षों तक विचित्र तप का अनुष्ठान अर्थात् उपवास, बेला - दो दिन का उपवास, तेला-तीन दिन का उपवास, चोला चार दिन का उपवास, पंचोलापांच दिन का उपवास करना होता है । इस काल में पारणक विगय सहित या विगय रहित किया जा सकता है । २. द्वितीय चार वर्षों में तपस्या के पारणक विगवरहित ही होते हैं। ३. नौंवें तथा दसवें वर्ष में एक उपवास, फिर आयंबिल - इस प्रकार दो वर्ष तक करने होते हैं । ४. ग्यारहवें वर्ष में पहले छह महीने में अतिविकृष्ट तप नहीं होता, उपवास या बेले के पारणक में नियमित आयबिल करना होता है । दूसरे छह महीने में विकृष्ट तपश्चरण के पारणक में आयंबिल करना होता है। ५. बारहवें वर्ष में कोटी सहित आचाम्ल' करना होता है (चातुर्मास शेष रहने पर करता है) इस प्रकार क्रमश: संलेखना करता । जाकर अपनी इच्छानुसार प्रायोपगमन (अथवा स्वीकार करता है।* अनशनकारी तेल के बार-बार कुल्ले हुआ साधक अंत में गिरिकन्दरा में इंगिनी या भक्तप्रत्याख्यान) अनशन १. यदि आचार्य अनशन करना चाहें तो वे सबसे पहले शिष्यों का निष्पादन कर, दूसरे आचार्य की स्थापना कर, औत्सर्गिक रूप से बारह वर्षों की संलेखना से अपने शरीर को कृश कर, गच्छ की अनुज्ञा से अथवा अपने द्वारा प्रस्थापित आचार्य से अनुज्ञा प्राप्त कर अनशन करने के लिए अन्य आचार्य की सन्निधि में जाए। इसी प्रकार संलेखना लेने वाले उपाध्याय, प्रवर्त्तक, स्थविर, गणावच्छेदक अथवा सामान्य मुनि आचार्य से अनुज्ञा प्राप्त कर अनशन स्वीकार करे २. देखें परि० ६, कथा सं० ९ । ३. कोटीसहित आचाम्ल - पूर्व दिन के आचाम्ल से अगले दिन के आचामल की श्रेणी को मिलाना । भावार्थ में प्रतिदिन आचाम्ल करता है । ४. विशेष विवरण के लिए देखें- श्री भिक्षु आगम विषय कोश पृ० ६६०, ६६१ । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युतिपंचक २९२. (शिष्य ने जिज्ञासा की ) जो प्रतिदिन तपस्या में उद्यमशील नहीं होता वह तपःकर्म में पंडित कैसे हो सकता है ? (गुरु ने समाधान दिया) जो भोजन करता हुआ भी निरंतर वृत्तिसंक्षेप-बत्तीस कवल परिमाण भोजन को कम करता जाता है वह तपःकर्म में पंडित होता है । ३१४ २९३. तप:कर्म में उद्यत मुनि बेले तेले आदि की तपस्या करता और अनशन के उद्देश्य से पारणे में अल्प आहार लेता है । वह अपने आहार को विधिपूर्वक क्रमशः कम करता हुआ अन्त में आहार का पूर्ण निरोध- अनशन कर लेता है । २९४. वह स्थान की प्रतिबद्धता से मुक्त, उपकरण, शरीर आदि परिकर्म से रहित, अनासक्त, त्यागी मुनि आयुष्य - काल की प्रतीक्षा करता है । नौवां अध्ययन : उपधानश्रुत २९५. प्रस्तुत अध्ययन का अर्थाधिकार यह है कि जब जो तीर्थंकर होते हैं, वे अपने तीर्थ में उपधानश्रुत अध्ययन में अपने तप कर्म का वर्णन करते हैं । २९६. सभी तीर्थंकरों का तपःकर्म निरुपसर्ग होता है । केवल भगवान् वर्धमान का तपःकर्म उपसर्ग सहित था । २९७. (केवलज्ञान से पूर्व ) तीर्थंकर चतु:ज्ञानी होते हैं । वे देवताओं द्वारा पूजित होते हैं । वे अवश्य ही सिद्ध होते हैं । फिर भी वे अपने बल और पराक्रम का गोपन किए बिना तप: उपधान में उद्यम करते हैं । २९८. मनुष्य जन्म अनेक आपदाओं तथा दुःखों से परिपूर्ण है । यह जानकर अवशिष्ट सुविहित मुनि अपने दुःखक्षय कर्मक्षय के लिए क्या तपः उपधान में उद्यम नहीं करेंगे ? २९९. प्रस्तुत अध्ययन के चारों उद्देशकों का अर्थाधिकार इस प्रकार है प्रथम उद्देशक में भगवान् महावीर की चर्या का निरूपण है । दूसरे उद्देशक में भगवान् महावीर की शय्या - वसति का स्वरूप निर्दिष्ट है । ० तीसरे उद्देशक में भगवान् महावीर के अनुकूल-प्रतिकूल परीषहों का प्रतिपादन है । • चौथे उद्देशक में (क्षुत्पीडा से) आतंकित होने पर चिकित्सा-विधि का निरूपण है । चारों उद्देशकों में भगवान् के तपश्चरण का अधिकार चलता है । O ० ३००. उपधान शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव | इसी प्रकार श्रुत शब्द के भी चार निक्षेप हैं । ३०१. द्रव्य उपधान - तकिया । भाव उपधान है— तप तथा चारित्र । इसलिए प्रस्तुत प्रसंग में ज्ञान, दर्शन, तप तथा चारित्र का अधिकार है । ३०२. जैसे मलिन वस्त्र पानी आदि द्रव्यों से शुद्ध होता है, वैसे ही आठ प्रकार का कर्मबंध भाव उपधान से शुद्ध होता है । ३०३. अवधूनन, धूनन, नाशन, विनाशन, ध्मापन, क्षपण, शुद्धिकरण (शोधिकरण ), छेदन, भेदन, स्फेटन अपनयन, दहन तथा धावन ये बारह क्रियाएं कर्मों की विभिन्न अवस्थाओं के अपनयन की हैं।" १. वृत्तिकार ने इन सब क्रियाओं का विस्तार से वर्णन किया है । देखें आटी पृ० १९८,१९९ । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाचारान नियुक्ति ३१५ ३०४. इस प्रकार वीरों में श्रेष्ठ, महान् प्रभावी महावीर (वर्द्धमान) ने भाव उपधान का सम्यक् प्रकार से आचरण किया । उसका अनुसरण कर धीर व्यक्ति शिव तथा अचल निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं । आचाराग्र : ( आचार-चूला ) ३०५. (अग्रशद के चार निक्षेप है-नाम अग्र स्थापना अग्र, द्रव्य अग्र और भाव अग्र । ) द्रव्य अग्र के आठ प्रकार हैं (१) द्रव्य अन (२) अवगाहन अग्र (३) आदेश अग्र भाव अग्र के तीन प्रकार है-(१) प्रधान अन (४) काल अग्र (५) क्रम अग्र (६) गणन अग्र ३०६. प्रस्तुत में उपकार अन उससे संबद्ध है। जैस वृक्ष और पवस (२) बहुक अग्र (३) उपकार अग्र का प्रसंग है। ये अध्ययन आचारांग के उत्तरवर्ती अर्थात् अग्र होते हैं, वैसे ही आचारांग के ये अन्न हैं । ३०७. स्थविरों ने शिष्यों पर अनुग्रह कर उनका हित-संपादन करने तथा तथ्यों की स्पष्ट अभिव्यक्ति करने के लिए इसका नियूहण किया है। आचारांग का समस्त अर्थ आचाराय ( आचारचूला) में विस्तार से निरूपित है। (७) संचय अग्र (८) भाव अग्र ३०८-३१२. आचारांग के दूसरे अध्ययन (लोक विजय ) के पांचवे उद्देशक से तथा आठवें अध्ययन (विमोक्ष) के दूसरे उद्देशक सपिडेपणा, शय्या, वस्त्रेषणा, पार्श्वषणा तथा अवग्रह प्रतिमा निर्यूढ है | पांचव अध्ययन लोकसार के चौथ उद्देशक से 'ईर्या' तथा छठे अध्ययन (धुत) के पांचवें उद्देशक से भापाजात का निण किया गया है। महापरिक्षा अध्ययन से सात सप्तकक, शस्त्र परिक्षा से भावना और धुत अध्ययन के दूसरे और फोन उसे विभुषित अध्ययन निर्यूड है। आचारप्रकल्प - निशीष का निर्यण प्रत्याख्यान का वृताय वस्तु क 'आधार' नाम वाले बीसवें प्राभूत से हुआ है। इस प्रकार आचारांग के अध्ययनात आचारचूला का संग्रहण हुआ है । ३१२. शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में दंडनिक्षेप संयम का अव्यक्त प्रतिपादन हुआ है। उसी संयम को विभक्त कर आठ अध्ययनों में अनेक प्रकार से यहां बतलाया ३१३, ३१४. संयम के विभिन्न वर्गीकरण :-- • एकविध संयम वरात की निवृत्ति । • दो प्रकार का संयम-अध्यात्म तथा बाह्य । जाता है । • तीन प्रकार का संयम – मनःसंयम, वचनसंयम, कायसंयम । • चार प्रकार का संयम ---चार याम । • पांच प्रकार का संयम -पांच महाव्रत । ● छह प्रकार का संयम पांच महाव्रत तथा रात्रिभोजन-विरमण व्रत । इस प्रकार आचार संयम विभक्त होता हुआ अठारह हजार शीलांग परिमाण वाला हो Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक ३१५. पांच महाव्रतों के रूप में व्यवस्थापित संयम का आख्यान करना, विभाग करना तथा उसको जानना सुखपूर्वक हो जाता है, इसलिए पांच महाव्रतों का प्रज्ञापन किया गया है । ३१६. उन महाव्रतों के संरक्षण के लिए प्रत्येक महाव्रत की पांच-पांच भावनाएं हैं। ये आचारचूला में प्रतिपादित हैं । इसलिए यह शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन के अभ्यन्तर है। ३१७. आचाराग्र की पांच चलाएं हैं-- ० पिण्डषणा अध्ययन से अवग्रह प्रतिमा अध्ययन तक के सात अध्ययन-पहली चूला। ० सात सप्तकक-दूसरी चूला। ० भावना--तीसरी चूला । • विमुक्ति चौथी चूला। ० आचार प्रकल्प (निशीथ)- पांचवीं चूला। ३१८,३१९. पिंडैषणा की जो नियुक्ति है, वही शय्या, वस्त्रषणा, पात्रषणा, अवग्रह प्रतिमा की है । समस्त वचन-विशोधि की नियुक्ति वही है, जो (दशवकालिक के सातवें अध्ययन) वाक्यशुद्धि की है । वही समस्तरूप से भाषाजात की नियुक्ति माननी चाहिए । ३२०. शय्या, ईर्या तथा अवग्रह के छह-छह निक्षेप हैं। पिडैषणा, भाषाजात, वस्त्रेषणा तथा पात्रषणा के चार-चार निक्षेप हैं। ३२१. शय्या के छह निक्षेप ये हैं--नामशय्या, स्थापनाशय्या, द्रव्य शय्या, क्षेत्रशय्या, कालशय्या तथा भावशय्या। इनमें से यहां द्रव्यशय्या का प्रसंग है। संयती मुनियों के लिए कौनसी द्रव्यशय्या उपयुक्त होती है, उसे जानना चाहिए। ३२२. द्रव्यशय्या तीन प्रकार की होती है-सचित्त, अचित्त और मिश्र । जिस क्षेत्र में शय्या की जाती है, वह क्षेत्रशय्या है । जिस काल में शय्या की जाती है, वह कालशय्या है । ३२३. द्रव्यशय्या के अन्तर्गत उत्कल, कलिंग आदि दो भाई, बहिन वल्गुमती तथा नैमित्तिक गौतम का कथानक ज्ञातव्य है।' ३२४. भावशय्या के दो प्रकार हैं-कायविषया और षड्भावविषया। जीव जब औदयिक आदि छह भावों में प्रवर्तित होता है, वह उसकी षड्भावविषया भावशय्या है तथा जब जीव स्त्री आदि की काया में गर्भ रूप में स्थित होता है, वह कायविषया भावशय्या है। ३२५. यद्यपि सभी उद्देशक शय्या-विशुद्धि के कारक हैं, फिर भी प्रत्येक उद्देशक में कुछ विशेष प्रतिपादन है । वह मैं संक्षेप में प्रस्तुत कर रहा हूं। ___ ३२६,३२७. पहले उद्देशक में शय्या-वसति के उद्गम दोषों तथा गृहस्थ आदि के संसर्ग से होने वाले अपायों का चिन्तन है। दूसरे उद्देशक में शौचवादी के दोषों तथा बहुविध शय्या-विवेक का चिन्तन है । तीसरे उद्देशक में संयमी की जो छलना होती है, उसके परिहार का विवेक तथा स्वाध्याय में बाधक न बनने वाले सम-विषम स्थान में श्रमण को निर्जरा के लिए रहना चाहिए-यह विवेक है। १. देखें-परि० ६ कथा सं० १० । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति ३२८. ईर्या शब्द का निक्षेप छह प्रकार का है-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । ३२९. द्रव्यर्या के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिथ। जिस क्षेत्र में जो ईर्या हो, वह क्षेत्र ईर्या है। जिस काल में जो ईर्या हो, वह काला है। ३३०. भावईर्या के दो प्रकार हैं-चरणर्या और संयमईर्या । संयमईर्या सतरह प्रकार के संयम का अनुष्ठान है। चरणईर्या है--गमनईर्या । श्रमण का किस प्रकार का गमन निर्दोष और परिशुद्ध होता है ? यह एक प्रश्न है ।। ३३१. आलंबन---प्रयोजन, काल, मार्ग और यतना---'इनके सोलह विकल्प होते हैं। यह सोलह प्रकार का गमन है। इसमें जो परिशुद्ध होता है, वही प्रशस्त गमन होता है। ३३२. चार कारणों से जो गमन होता है, वह परिशुद्ध होता है। चार कारण हैं--(१) आलंबन --प्रवचन, संघ, गच्छ, आचार्य आदि के प्रयोजन से, (२) काल-विहरणयोग्य अवसर, (३) मार्ग ... जनता द्वारा क्षुण्ण मार्ग, (४) यतना-गमन में भावक्रिया युक्त होकर युगमात्र दष्टि से चलना । अथवा अकाल में भी ग्लान आदि के प्रयोजन से यतनापूर्वक उपयुक्त मार्ग में गमन करना परिशुद्ध गमन है। ३३३. सभी उद्देशक ईर्या-विशोधि के कारक हैं । फिर भी प्रत्येक उद्देशक में कुछ विशेष है, वह मैं कहूंगा। ३३४.३३५. पहले उद्देशक में उपागमन- वर्षाकाल में एक स्थान पर रहना तथा शरद ऋतु में निर्गम और मार्ग में यतना का निरूपण है। दुसरे उद्देशक में नौका में आरूढ व्यक्ति का छलन-प्रक्षेपण-हलन-चलन तथा जंघा संतार-पानी में बरती जाने वाली यतना तथा नानाविध प्रश्नों के पूछे जाने पर साध के कर्तव्य का निरूपण है। तीसरे उद्देशक में अदर्शनता (कोई नदी के पानी आदि के विषय में पूछता है तो जानते हुए भी नहीं बताना) तथा उपधि में अप्रतिबद्ध होना--उपधि के चुराए जाने पर शिकायत के लिए स्वजन तथा राजगृह-गमन का वर्जन करने का निर्देश है । (किसी को चराए गए उपधि के विषय में कुछ न कहना।) ३३६. जैसे वाक्यशुद्धि अध्ययन में 'वाक्य' के निक्षेप किए थे वैसे ही भाषा शब्द के निक्षेप जानने चाहिए। जात शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । द्रव्यजात चार प्रकार का है-उत्पत्तिजात, पर्यवजात, अन्तरजात तथा ग्रहणजात ।' ३३७. भाषाजात अध्ययन के दोनों उद्देशक वचन-विशोधिकारक हैं। फिर भी दोनों में कछ विशेष है। पहले उद्देशक में वचनविभक्ति का प्रतिपादन है। दूसरे उद्देशक में क्रोध आदि की उत्पत्ति न हो-ऐसे वचनविवेक का निरूपण है। १. विस्तृत व्याख्या के लिए देखे, आटी पृ० २५७ । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक ३३८. वस्त्रैषणा के दो उद्देशक हैं। पहले में वस्त्रग्रहण करने की विधि का प्रतिपादन है और दूसरे में वस्त्रधारण करने की विधि निरूपित है। प्रस्तुत में द्रव्य वस्त्र का प्रसंग है। पात्र के विषय में भी यही निरूपण है। द्रव्यपात्र है-काष्ठ आदि से निर्मित पात्र और भावपात्र हैगुणधारी साधु। ३३९. अवग्रह के चार निक्षेप हैं-द्रव्य अवग्रह, क्षेत्र अवग्रह, काल अवग्रह और भाव अवग्रह । अथवा अवग्रह पांच प्रकार का है--देवेन्द्र का अवग्रह, राजा का अवग्रह, गृहपति का अवग्रह, सागारिक का अवग्रह तथा साधर्मिक का अवग्रह । ३४०. द्रव्य अवग्रह के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र । क्षेत्र अवग्रह के भी ये ही तीन प्रकार हैं। काल अबग्रह के दो भेद हैं-ऋतुबद्धकाल अवग्रह तथा वर्षाकाल अवग्रह। ३४१. भाव अवग्रह दो प्रकार का है-मति अवग्रह तथा ग्रहण अवग्रह । मति अवग्रह के दो भेद हैं-अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह । अर्थावग्रह पांच इन्द्रिय तथा नोइन्द्रिय के भेद से छह प्रकार का है। व्यंजनावग्रह मन और चाइन्द्रिय को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों का होता है। वह चार प्रकार का है। इस प्रकार सारा मतिभाय अवग्रह (६+४) दस प्रकार का है। ३४२. अपरिग्रही श्रमण का वस्त्र, पात्र आदि को ग्रहण करने का जो परिणाम है, वह ग्रहण अवग्रह है। प्रातिहारिक अथवा अप्रातिहारिक ग्रहण अवग्रह शुद्ध कैसे हो, इसके लिए उसे यतना करनी चाहिए। दूसरी चूला : सप्तकक ३४३. सप्तकक-सात अध्ययनों के कोई उद्देशक नहीं है। (पहला स्थान नामक अध्ययन है) स्थान का वर्णन पहले किया जा चका है। द्रव्य निक्षेप में ऊर्वस्थान का कथन है। (दस अध्ययन है-निशीथिका।) उसो छह निक्षेप हैं- (नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव)। ३४४. जो शरीर से प्रबलता से निकलता है, वह उच्चार है, विष्ठा है। जो प्रबलरूप से झरता है, वह प्रस्रवण-मूत्र है। मल-मूत्र विसर्जित करते हुए मुनि के अतिचार न होकर शुद्धि कैसे होती है ? ३४५. जो मुनि षड्जीवनिकाय की रक्षा के लिए उद्युक्त है, उसे अप्रमत्त रहते हुए सूत्रोक्त अवग्रह-स्थंडिल में उच्चार-प्रस्रवण का विसर्जन करना चाहिए। ३४६. रूप सप्तकक के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य रूप हैपांच संस्थान । भाव रूप के दो प्रकार हैं-वर्ण से, स्वभाव से । वर्ण से-पांचों वर्ण । स्वभाव से-क्रोध के वशीभूत होकर भ्रूभंग आदि शरीर की आकृति आदि । शब्द सप्तकक के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य है--- शब्द रूप में परिणत भाषा द्रव्य । भाव है .--- गुण और कीर्ति । ३४७. पर शब्द के नाम आदि छह निक्षेप हैं। द्रव्यपर आदि प्रत्येक के छह-छह प्रकार हैं-द्रव्यपर के छह प्रकार हैं -- तत्पर, अन्यपर, आदेशपर, क्रमपर, बहुपर तथा प्रधानपर। अन्यद शब्द के भी नाम आदि छह निक्षेप हैं। द्रव्य अन्यद् तीन प्रकार का है-तद्-अन्यद्, अन्य-अन्यद, आदेश-अन्यद । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग नियुक्ति ३१९ ३४८. यतमान मुनि का दूसरा मुनि यतनापूर्वक जो करता है, वह परक्रिया प्रासंगिक है । जो निष्प्रतिकर्म है, गच्छनिर्गत है, उसके लिए परक्रिया तथा अन्योन्यक्रिया ( पारस्परिक क्रिया) अयुक्त है। तीसरी चला : भावना ३४९. ( भावना शब्द के नाम आदि चार निक्षेप हैं ।) जाति कुसुम आदि सुगंधित द्रव्यों के द्वारा तिल आदि को वासित करना द्रव्यभावना है। इसी प्रकार शीत से भावित शीतसहिष्णु तथा उष्ण से भावित उष्णसहिष्णु और व्यायाम से पुष्ट देह व्यायामसहिष्णु आदि द्रव्यभावना है । भावभावना के दो प्रकार हैं- प्रशस्त तथा अप्रशस्त । ३५०. प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि की भावना अप्रशस्त भावभावना है । ३५१. दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वैराग्य आदि प्रशस्त भावभावना है। जो भावना जैसे प्रशस्त होती है, उसको उसी प्रकार लक्षण सहित निरूपित करूंगा । ३५२. जिनशासन - तीर्थंकर भगवान् का प्रवचन, प्रावचनिक- युगप्रधान आचार्य आदि, अतिशायी' और ऋद्धिधारी मुनि' – इनके अभिमुख जाना, वंदन करना, दर्शन करना, कीर्तन करना, पूजा करना तथा स्तुति करना यह दर्शनभावना है । ३५३, ३५४. तीर्थंकरों की जन्मअभिषेक-भूमि, निष्क्रमण-भूमि, दीक्षा भूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिभूमि तथा निर्वाण-भूमि और देवलोक भवनों में, मन्दर पर्वत में, नन्दीश्वर द्वीप में, भौम-पातालभवनों में जो शाश्वत चैत्य उन्हें मैं वन्दना करता हूं। इसी प्रकार अष्टापद पर्वत, उज्जयन्त पर्वत, दशार्णकूटवर्ती गजाग्रपद, तक्षशिला में स्थित धर्मचक्र स्थान, अहिच्छत्रा में अवस्थित पार्श्वनाथ और धरणेन्द्र के महिमा स्थान, रथावर्त पर्वत, जहां वज्रस्वामी ने प्रायोपगगन अनशन किया था तथा जहां श्री वर्धमानस्वामी की निश्रा में चमरेन्द्र ने उत्पतन किया था इन स्थानों में यथासंभव अभिगमन, वंदन, पूजन, उत्कीर्तन आदि करना दर्शनशुद्धि है । ३५५. प्राचनिक के ये गुणप्रत्ययिक विषय हैं- गणितज्ञता, निमित्तज्ञता, युक्तिमत्ता, समदर्शिता, ज्ञान की अवितथता - इनकी प्रशंसा करना प्रशस्त दर्शन भावना है । ३५६. आचार्य आदि के अन्यान्य गुणों का माहात्म्य प्रकट करना, ऋषियों का नामोत्कीर्त्तन करना, उनकी पूजा करने वाले देवता तथा राजाओं के विषय में बताना तथा चिरन्तन चैत्यों की पूजा करना - यह प्रशस्त दर्शन भावना है । ३५७-५९. तत्त्व दो - जीव और अजीव । दोनों को जानना चाहिए। यह परिज्ञान जैन शासन में ही उपलब्ध है। जैन प्रवचन में कार्य - लक्ष्य, करण - साधन ( सम्यग् ज्ञान आदि ) कारक -मुनि, सिद्धि - मोक्ष, इनका पूर्ण विवेचन है। यहां कर्मबंध तथा उससे मुक्ति का उपाय भी निर्दिष्ट है । ( इस प्रकार ज्ञान से वासित करना ज्ञान भावना 1) बंध बंधहेतु, बंधन तथा बंधन - फल - इनका समुचित विवेचन जैन प्रवचन में है । जैनशासन १. अतिशायी मुनि अर्थात् केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी । २. ऋद्धिसंपन्न अर्थात् आमर्ष औषधि आदि ऋद्धियों से सम्पन्न । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० नियुक्तिपंचक में संसार के प्रपंच का भी तीर्थंकरों ने प्रतिपादन किया है। 'मुझे विशिष्ट ज्ञान होगा'-यह ज्ञानभावना करनी चाहिए।' आदि शब्द से ज्ञान से एकाग्रचित्तता आदि गुण भी प्राप्त होते हैं। वाचना, पृच्छना आदि स्वाध्याय में उपयुक्त , रहना भी ज्ञानभावना है। ज्ञानभावना से सदा गुरुकुलवास में रहना भी ज्ञानभावना है। ३६०,३६१. अहिंसा धर्म अच्छा है। सत्य, अदत्तविरति, ब्रह्मचर्य, परिग्रहविरति तथा बारहविध तप-ये सब शोभन हैं। वैराग्य भावना, अप्रमाद भावना, एकत्व (एकाग्र) भावना, ये ऋषि के परम अंग हैं। ये सारी भावनाएं चारित्र के अनुगत हैं। आगे तपोभावना का निरूपण करूंगा। ३६२. मेरा दिन तपस्या से अवंध्य कैसे हो? मैं कौनसी तपस्या करने में समर्थ हैं? मैं किस द्रव्य के योग से कौनसा तप कर सकता हूँ? मैं कैसे क्षेत्र और काल में तथा किस भावअवस्था में तप कर सकता हूं? (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से स्वयं को तोलकर व्यक्ति यथाशक्ति तपोनुष्ठान में संलग्न हो।) ३६३. गृहीत तप के परिपालन में उत्साह रखना चाहिए। इसी प्रकार संयम और संहनन (जो तप का निर्वहन कर सके) की भावना करनी चाहिए। यह तप भावना है। अनित्य आदि बारह भावनाएं करना वैराग्य भावना है। प्रस्तुत में चारित्र भावना का प्रसंग है। चौथी चूला : विमुक्ति ३६४. विमुक्ति अध्ययन के पांच अधिकार हैं१. अनित्यत्व अधिकार । ५. महासमुद्र अधिकार। २. पर्वत अधिकार । ४. भुजगत्वग् अधिकार । ३. रूप्य अधिकार । ३६५. जो मोक्ष है, वही विमुक्ति है। प्रस्तुत में भाव-विमुक्ति का प्रसंग है। इसके दो भेद हैं-देशविमुक्त-भवस्थकेवलिपर्यन्त साधु तथा सर्व विमुक्त--सिद्ध । ३६६. आचारांग की चतुर्थ चूला की यह नियुक्ति है। उसकी पांचवीं चूला है-निशीथ । उसका वर्णन आगे करेंगे। ३६७. आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययन हैं। उनके उद्देशकों की संख्या क्रमश: इस प्रकार है -सात, छह, चार, चार, छह, पांच, आठ, आठ, चार। ३६८. दूसरे श्रुतस्कंध (आचारचूला) के पन्द्रह अध्ययन हैं। उनके उद्देशकों की संख्या क्रमशः इस प्रकार है-ग्यारह, तीन, तीन, दो, दो तथा दो। शेष अध्ययनों के कोई उद्देशक नहीं १. चार कारणों से ज्ञान का अभ्यास करना चाहिए-(१) ज्ञान के संग्रह के लिए, (२) निर्जरा के लिए, (३) श्रुत की अव्यवच्छित्ति के लिए, (४) स्वाध्याय के लिए। (आटी पृ० २८०) Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम - - * ; ११-१३. १४. ४०. मंगलाचरण तथा सूत्रकृतांग की नियुक्ति- पहला अध्ययन : समय कथन की प्रतिज्ञा। २९-३१. प्रथम अध्ययन के उद्देशकों की विषय-वस्तु सूत्रकृतांग के एकार्थक । का संकेत। सूत्र शब्द के निक्षेप तथा उसके भेद- ३२. समय शब्द के बारह निक्षेप । प्रभेद । ३३. चार्वाक दर्शन का निरूपण । करण, कारक और कृत शब्द के निक्षेप का ३४. अकारकवाद का निराकरण । निर्देश । ३५. आत्मा को सक्रिय मानने पर उठने वाली द्रव्य करण के भेद-प्रभेद । आशंकाएं। मूलकरण और उत्तरकरण का स्वरूप । दूसरा अध्ययन ! वैतालीय प्रयोगकरण का स्वरूप। ३६,३७ द्वितीय अध्ययन के उद्देशकों की विषयविस्रसाकरण का स्वरूप । वस्तु का संकेत । क्षेत्रकरण का स्वरूप। ३८. विदारक, विदारण तथा विदारणीय शब्द कालकरण का स्वरूप । के निक्षेपों का मात्र संकेत। प्रकारान्तर से करण के ११ भेद । ३९. द्रव्य और भाव विदारण का स्वरूप । भावकरण का स्वरूप । बैतालीय का निरुक्त तथा उक्त छंद का उल्लेख । विस्रसाकरण का स्वरूप । ४१. प्रस्तुत अध्ययन की रचना का इतिहास । श्रतज्ञान के आधार पर मूलकरण का द्रव्यनिद्रा, भावनिद्रा तथा भावसंबोध का निरूपण। स्वरूप। कर्मद्वार के आधार पर ग्रन्थ-रचना का ४१ संयम, तप आदि के अभिमान का तथा आठ प्रतिपादन। मदस्थानों के परिहार का निर्देश । सूत्रकृत नाम की सार्थकता। तीसरा अध्ययन : उपसर्ग-परिज्ञा सूत्रकृतांग तीर्थंकर द्वारा वाग्योग से ४५,४६. तीसरे अध्ययन के उद्देशकों की विषय-वस्तु भाषित एवं गणधरों द्वारा वाग्योग से का कथन। कृत। उपसर्ग शब्द के छह निक्षेप तथा द्रव्य सूत्रकृत का निरुक्त । उपसर्ग के भेद । सूत्र शब्द का निरुक्त। ४८-५०. क्षेत्र, काल, भाव तथा द्रव्य के भेद-प्रभेद । श्रुतस्कन्ध तथा अध्ययनों की संख्या का र उदासीनता से किए जाने वाले हिंसा आदि निर्देश। कार्य की समीक्षा में तीन दृष्टांत । गाथा, श्रुत तथा स्कन्ध शब्द के निक्षेप । चौथा अध्ययन : स्त्री-परिज्ञा सूत्रकृतांग के अध्ययन तथा उनकी विषय चौथे अध्ययन के उद्देशकों की विषय-वस्तु वस्तु का निर्देश । का संकेत। २२. २३. २४-२८. Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ३२४ नियुक्तिपंचक ५५. स्त्री शब्द के निक्षेप । मन, वचन आदि की क्रिया वीर्य द्वारा पुरुष शब्द के निक्षेप । संभव । स्त्रियों द्वारा छलित अभय, प्रद्योत तथा आध्यात्मिक वीर्य के प्रकार | कूलबाल मुनि के उदाहरण का संकेत । ९७. वीर्य के तीन भेद । स्त्रियों पर विश्वास नहीं करने का । ९८. शस्त्र के प्रकार । निर्देश । नौवां अध्ययन : धर्म नारी के वशीभूत होने के दुष्परिणाम । धर्म के विषय में पूर्व कथन का उल्लेख । ६०. वीर पुरुष की पहचान । १००. धर्म शब्द के निक्षेप तथा द्रव्य धर्म के पुरुषों के प्रति आसक्ति से भी उक्त दोषों भेद। की संभावना का निर्देश। . १०१. भावधर्म के लौकिक और लोकोत्तर भेदपांचवां अध्ययन : नरकविभक्ति प्रभेदों का उल्लेख । धर्म के अनधिकारी व्यक्ति की पहचान । १०२. नरक शब्द के छह निक्षेप । ६२. भाव नरक का स्वरूप तथा तप-चारित्र में दसवां अध्ययन : समाधि उद्यम करने का निर्देश । १०३. दसवें अध्ययन का आदान-पद से आप ६४. विभक्ति शब्द के छह निक्षेपों का वर्णन । तथा गौण रूप से समाधि नाम का उल्लेख । ६५. नारकीय वेदना का वर्णन । १०४. समाधि शब्द के छह निक्षेपों का उल्लेख । ६६,६७. परमाधामिक देवों का नामोल्लेख । १०५. द्रव्य समाधि, क्षेत्र समाधि और काल ६८-८२. अंब आदि परमाधार्मिक देवों द्वारा दी समाधि का स्वरूप। जाने वाली विविध वेदनाओं का वर्णन ।। भाव समाधि के चार प्रकार । छठा अध्ययन : महावीर-स्तुति ग्यारहवां अध्ययन : मार्ग महद् और बीर शब्द के निक्षेपों का १०७. मार्ग शब्द के छह निक्षेपों का उल्लेख। .. कथन । १०८. द्रव्य मार्ग के भेदों का नामोल्लेख। ८४. स्तुति शब्द के निक्षेप तथा द्रव्य और भाव १०९ क्षेत्र मार्ग आदि का स्वरूप-कथन तथा स्तुति का स्वरूप-वर्णन । भावमार्ग के भेद-प्रभेदों का निर्देश । ८५. महावीर-स्तुति अध्ययन का सार-यतना। १११. तीन सौ प्रेसठ प्रवादियों का उल्लेख । सातवां अध्ययन : कुशील-परिभाषित ११२. सम्यक् तथा मिथ्यामार्ग का स्वरूप८६,८७. शील शब्द के चार निक्षेप तथा उसके भेद निरूपण । प्रभेदों का स्वरूप-कथन । ११३. कुमा के उपदेष्टा के लक्षण । कुशील-परिभाषित अध्ययन की अन्वर्थता । ८८. ११४. सुमार्ग के उपदेष्टा के लक्षण । मोक्ष मार्ग शब्द के एकार्थक । ११५. शीलवादी कौन? ८९६१. हिंसा करने वाला अनगार कैसे? बारहवां अध्ययन : समवसरण ९०. विभिन्न परिव्राजकों का कथन । ११६. समवसरण शब्द के छह निक्षेपों का उल्लेख । आठवां अध्ययन : वीर्य ११७. भाव समवसरण के भेद ।। ९१-९४. वीर्य शब्द के षट निक्षेप तथा उसके भेद- ११ क्रियावादी, अक्रियावादी, वैनयिक तथा प्रभेदों का वर्णन । अज्ञानवादी का उल्लेख । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति ३२५ ११९. क्रियावादी आदि चारों वादों की भिन्न द्वितीय श्रुतस्कंध भिन्न संख्या का निर्देश । प्रथम अध्ययन : पौंडरीक १२०. प्रस्तुत अध्ययन के समवसरण नाम की १४२. महद् शब्द के छह निक्षेपों का कथन । सार्थकता। १४३. अध्ययन शब्द के निक्षेप । १२१. सम्यक और मिथ्यावादों का उल्लेख तथा १४४. पौंडरीक शब्द के आठ निक्षेपों का कथन । मिथ्यावाद को छोड़कर सम्यवाद को १४५,१४६. द्रव्य तथा भाव पौंडरीक का स्वरूप और अपनाने का निर्देश । उनके भेद। तेरहवां अध्ययन : याथातथ्य १४७. पौंडरीक और कंडरीक का लक्षण । १४८-५७. देव, मनुष्य आदि में 'पौंडरीक' तथा १२२. तथ्य शब्द के निक्षेप तथा उनका स्वरूप 'कंडरीक' का उल्लेख । कथन । १५८. द्रव्य पौंडरीक कमल और भाव पौंडरीक १२३. भाव तथ्य का स्वरूप। श्रमण का कथन। १२४. याथातथ्य का स्वरूप । १५९. उपमा और उपमेय की सिद्धि । १२५. परम्परा से प्राप्त आगम की यथार्थता का १६०. मनुष्य की ही जिनोपदेश से सिद्धि/मुक्ति। निर्देश। १६१. भारीकर्मा मनुष्य की भी जिनोपदेश से १२६. आत्मोत्कर्ष के वर्जन का निर्देश । उसी भव में सिद्धि । चौदहवां अध्ययन : ग्रन्थ १६२. पुष्करिणी की दुरवगाहता। १६३. पदम के उद्धरण में आने वाली विपत्ति । १२७-२९. शिष्य के भेद-प्रभेद । १६४. पद्म-उद्धरण के उपाय । १३०,१३१. आचार्य के प्रकार । १६५. उपसंहार पद । पंद्रहवां अध्ययन : यमकीय दसरा अध्ययन : क्रिया १३२. आदान और ग्रहण शब्द के निक्षेप । द्वितीय श्रतस्कंध के द्वितीय अध्ययन का १३३. प्रस्तुत अध्ययन के नाम 'आदाणिज्ज' नाम निर्देश तथा संक्षिप्त विषय-वस्तु का शब्द की सार्थकता। उल्लेख। १३४. आदि शब्द के निक्षेप तथा द्रव्म आदि का १६७. द्रव्यक्रिया तथा भावक्रिया का स्वरूप । स्वरूप-कथन । १६८. स्थान शब्द के १५ निक्षेपों का उल्लेख । १३५,१३६. भाव आदि के भेद-प्रभेद । १६९. क्रिया द्वारा प्रावादुकों की परीक्षा । तीसरा अध्ययन : आहार-परिज्ञा सोलहवां अध्ययन : गाथा १७०. आहार शब्द के पांच निक्षेप । १३७. गाथा शब्द के निक्षेप तथा द्रव्य गाथा का १७१. द्रव्य आहार आदि का स्वरूप-कथन । स्वरूप । १७२. ओज, रोम तथा प्रक्षेप आहार का कथन । १३८. भाव गाथा का स्वरूप। १७३. अपर्याप्तक और पर्याप्तक के आहार का १३९,१४०. गाथा शब्द का निरुक्त तथा स्वरूप-कथन । कथन । १४१. सोलहवें अध्ययन की विषय-वस्तु का १७४. प्रक्षेप आहार किसके ? निर्देश। १७५. जीव की अनाहारक अवस्था का समय । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ १७६,१७७. केवली समुद्घात में अनाहारक अवस्था का वर्णन | तेजस और कार्मण शरीर द्वारा आहारग्रहण | परिज्ञा शब्द के चार निक्षेप तथा उनके भेद-प्रभेद । १७८. १७९. चौथा अध्ययन : प्रत्याख्यान किया १८०. १०१. १८३. प्रत्याख्यान उल्लेख | प्रत्याख्यान और अप्रत्याख्यान क्रिया का स्वरूप । शब्द के छह निक्षेपों का पाचवा अध्ययन : अनगार श्रुत १८२. आचार और बुत शब्द के निक्षेपों का उल्लेख । अनाचार वर्जन का निर्देश । १८४. छठा अध्ययन आर्द्राय १८५. आर्द्र शब्द के चार निक्षेप । १०६,१५७. द्रव्य आई एवं भाव आर्द्र के भेद-प्रभेदों का उल्लेख | १८८-२००. आईक कुमार की कथा का वर्णन । राग के बंधन को तोड़ना जटिल । २०१. सातवां अध्ययन : नालंदीय 'अलं' शब्द के चार निक्षेप । अलं शब्द के चार भिन्न-भिन्न अर्थों का निर्देश | नालंदा की स्थिति का वर्णन प्रस्तुत अध्ययन 'नालंदीय' के नाम की सार्थकता का उल्लेख । प्रस्तुत अध्ययन की रचना का इतिहास । २०२. २०३. २०४. २०५ निर्बुक्तिपंचक प्रस्तुत अध्ययन ( आचारत) का अपर नाम अनगारत का उल्लेख २०६. Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति की गाथाएं चूर्णि एवं टीका दोनों में मिलती हैं पर कहीं कहीं उनके क्रम में अंतर है । पाठ-संपादन में हमने प्राचीनता की दृष्टि से चूर्णि के क्रम को प्राथमिकता दी है । समीकरण में सूत्रकृतांग चूर्णि के प्रथम श्रुतस्कन्ध को नियुक्ति-गाथा का ही संकेत दिया जा रहा है क्योंकि दूसरे श्रुतस्कन्ध को चूर्णि में गाथाओं का केवल संकेत मात्र है तथा उनके आगे गाथा संख्या भी नहीं है । अतः समीकरण में उनका संकेत नहीं किया है । संपादित टीका संपादित १ २४ २ २५ ३ २६ ४ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ चूर्णि १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० X X X ११ १२ १३ १४ १५. १६ गाथाओं का समीकरण १७ १८ १९' २१ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २७ २८ २९ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३९ ४० ४१ ४२ ४३ ४४ ४५ ४६ १. चूर्णि में २० नम्बर की गाथा के स्थान पर रिक्त स्थान है । चूर्णि २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ X X ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३९ ४० ४१ ४२ टीका २४ २५ २६ २७ २८ ३० ३१ ३२ २९ ३३ ३४ ३५ ४० ४१ ३६ ३७ ३८ ३९ ४२ ४३ ४४ ४९ ५० Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ संपादित ४७ ४८ ४९ ५० ५१ ५२ ५३ ५४ ५५ ५६ ५७ ५८ ५९ ६० ६१ ६२ * ६५ ६६ ६७ ६८ ६९ ७० ७१ ७२ ७३ ७४ ७५ ७६ ७७ ७८ ७९ चूर्णि Ex x x x ४३ ४४ ४५ ४६ x X ४७ ४८ ४९ ५० ५१ ५२ ५३ ५४ ५५ ५६ ५७ ५८ ५९ ६० ६१ ६२ ६३ ६४ ६५ ६६ ६७ ६८ ६९ ७० ७१ ७२ टीका xx ४६ ४७ ४८ ५३' *૪ ५५ ५८ ५६ ५७ ५९ ६० ६१ ६२ ६३ * ६५ ६६ ६७ ६८ ६९ ७० ७१ ७२ ७३ ७४ ७५ ७६ ७७ ७८ ७९ ८० ८१ संपादित O v m & or us ८१ ८२ ८३ ८४ ८५ ८६ ८७ ८८ ८९ ८९/१ ९० ९१ ९२ ९३ ९४ ९५ ९६ ९७ ९८ ९९ १०० १०१ १०२ १०३ १०४ १०५ १०६ १०७ १०८ १०९ ११० १११ १. टीका में ५० के बाद ५३ का क्रमांक है । २. टीका में क्रमांक ८४ के बाद पुनः ८३ से संख्या की पुनरावृत्ति हुई है। चूर्णि ७३ ७४ ७५ ७६ ७७ ७८ ७९ ८० ८१ ८२ X ८३ ८५ ८६ ८७ ८८ ८९ ९० ९१ ९२ ९३ ९४ ९५ ९६ ९७ ९८ ९९ १०० १०१ १०२ १०३ १०४ निर्युक्तिपंचक टीका ८२ ८३ ८४ ८३ ८४ ८५ ८६ ८७ ८८ ८९ X ९० ९१ ९२ ९३ ९४ ९५ ९६ ९७ ९८ ९९ १०० १०१ १०२ १०३ १०४ १०५ १०६ १०७ १०८ १०९ ११० १११ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति ३२९ चूणि संपादित टीका संपादित ११२ टीका ११२ १४३ १४३ १४४ ११४ १०५ १०६ १०७ १०८ १०९ ११४ ११५ १४५ १४६ १४४ १४५ १४६ १४७ १४८ १४९ १५० १५१ १११ ११७ ११८ ११९ १२० १४७ १४८ १४९ १५० १५१ १५२ १५३ १५४ ११२ ११३ ११४ ११५ १२१ १२२ १५२ ११६ ११६ ११७ ११८ ११९ १२० १२१ १२२ १२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १२८ १२९ १३० १३१ १३२ १३३ १५४ १५५ १५६ १५७ ११८ ११९ १२० १२१ १२२ १२३ १२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १२८ १२९ १३० १३१ १३२ १५८ १५६ १५७ १५८ १५९ १६० १६१ १६२ १६३ १५९ १६० १२४ १६२ १२५ १६४ १२६ १३३ १६५ १६४ १३४ १२७ १३४ १६५ ل १३५ १६७ १६७ ل १६८ १३५ १३६ १३७ १३८ १३९ १६८ १६९ १७० س WW. १३७ १३८ १७० १३९ १७२ १७१ १४० www. १४० १३३ १३४ १७३ १४१ १७२ १७३ بل १७४ १४२ १४२ १७५ १७४ १. मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित सूत्रकृतांग चूणि का प्रथम श्रुतस्कंध ही प्रकाशित है। उसके आगे ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था से प्रकाशित चूणि में गाथा संख्या का उल्लेख नहीं है अतः यहां से आगे चूणि की गाथा का संकेत नहीं दिया है। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० संपादित टीका १७६ १७५ १७७ १७६ १७८ १७७ १७९ ཏ༠ १८१ १८२ १८३ १८४ १८५ १८६ १७८ १७९ १८० १८१ १८२ १८३ १८४ १८५ संपादित १८७ १८८ १८९ १९० १९१ १९२ १९३ १९४ १९५ १९६ टीका १८६ = १८८ १८९ १९० १९१ १९२ १९३ १९४ १९५ संपादित १९७ १९८ १९९ २०० २०१ २०२ २०३ २०४ २०५ २०६ निर्युक्तिपंचक टीका १९६ १९७ १९८ १९९ २०० २०१ २०२ २०३ २०४ २०५ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति तित्थगरे य जिणवरे, सुत्तगरे गणधरे य नमिऊणं । सूयगडस्स' भगवतो, निज्जुत्ति कित्तइस्सामि ।। सूयगडं अंगाणं, बितियं तस्स य इमाणि नामाणि । 'सूतगडं सुत्तकडं', सूयगडं चेव गोण्णाणि ।। दव्वं तु पोंडगादी, भावे सुत्तमिह सूयगं' नाणं । सण्णा-संगह-वित्ते, जातिनिबद्धे च कत्थादी ।। करणं च कारगो या, कडं च तिण्हं पि छक्कनिक्खेवो । दवे खेत्ते काले, भावेण उ कारगो जीवो ।। दव्वे पओगवीसस, पयोगसा मूल उत्तरे चेव । उत्तरकरणं वंजण, अत्थो 'उ उवक्खरो" सव्वो ।। मूलकरणं सरीराणि, पंच तिसु कण्णखंधमादीयं । दविदियाणि परिणामियाणि विस-ओसधादीहिं" ।। संघातणा" य परिसाडणा य मोसे तधेव पडिसेहे । पड-संख-सगड-थूणा-उड्ढ-तिरिच्छाण करणं च ॥ खंधेसु 'य दुपदेसादिएसु'१५ अब्भेसु विज्जुमादीसु" । निप्फण्णगाणि" दवाणि, जाणि८ तं वीससाकरणं ।। १. सुत्तगडस्स (अ)। ९. तदुवक्खरो (अ)। २. सुत्तकडं (चू)। १०. तु उनि १९४ । ३. सूयगडं सुत्तगडं (क)। ११. संघायणे (क,टी)! ४. सूचाकृतं इति टीकाकारः। छंदानुलोम के १२. तहेव (अ,ब,द,क,टी)। कारण प्राकृत में दीर्घ का हस्व हो गया। १३. तिरिच्छादि (क,टी)। अतः सूतगडं और सूयगडं (सूचाकृतं) एक १४. उनि १९७ ।। नहीं है। १५. दुप्पएसा ० (टी)। ५. सुत्तमह (चू)। १६. अब्भरुक्खेसु (उनि १९०), विज्जमातीसु(चू)। ६. सूयतं (क)। १७. निष्फावगाणि (चू)। ७. वित्तं (द)। १८. जाण (टी)। ८. निबद्धं (द)। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ निर्युक्तिपंचक न विणा आगासेणं, कीरति जं किंचि खेत्तमागासं । वंजणपरियावण्णं, उच्छुकरणमादियं बहुहा' ।। कालो जो जावइओ, जं कीरइ जम्मि जम्मि कालम्मि। ओहेण नामतो पुण, ‘भवंति एक्कारसक्करणा' ।। बवं च बालवं चेव, कोलव' थीविलोयणं । गरादि वणियं 'चेव, विट्ठी हवति सत्तमा ।। सउणि चतुप्पय नागं, कित्थुग्घ च करणं भवे एयं । एते चत्तारि धुवा, 'सेसा करणा' चला सत्त" ।। चाउद्दसिरत्तीए,१ सउणी पडिवज्जती सदा करणं । तत्तो अहक्कम खलु, चउप्पयं२ नाग कित्थुग्धं ।। भावे पयोग वीसस, पयोगसा मूल उत्तरं चेव । उत्तर-कम-सुत जोव्वण, वण्णादी भोयणादीसु ॥ 'वण्णादिगा य'" वण्णादिगेसु जो कोइ वीससामेलो' । ते होंति थिरा अथिरा, छायाऽऽतव-दुद्धमादीसु ।। मूलकरणं पुण सुते२९, तिविधे जोगे सुभाऽसुभे झाणे । ससमयसुतेण पगतं, अज्झवसाणेण य सुभेणं ।। १. देखें उनि १९९ । सउणि चतुप्पय णागं, २. जावईओ (अ,द)। कित्थुगं च चतुरो धुवा करणा। ३. करणा एक्कारस हवंति (क,टी), करणे किण्हचउद्दसिरत्ति, एक्कारस भवंति (चू)। सउणी सेसं तियं कमसो । ४. कोडवं (चू)। ११. चाउद्दिसि ० (क), किण्हचउद्दसिरत्ति (ब)। ५. तेत्तिलं तहा (टी)। १२. ०प्पया (क)। ६. सुद्धपडिवए णिसादीया (चू) । ११-१३ ये १३. किंसुग्घं (टी), उनि १९२, तु. जंबु ७११२३ तीन गाथाएं चूणि में उद्धृत गाथा के रूप में २५ । हैं। मुनि पुण्यविजयजी ने इन्हें नियुक्तिगाथा १४. उत्तरे (क,टी)। के क्रम में स्वीकृत नहीं किया है। ये गाथाएं १५. कम्म (अ,ब)। सभी हस्तप्रतियों और टीका में मिलती हैं। १६. जोवण (टी)। ७. ०पयं (टी)। १७. ०दियाणि (अ)। ८. किंसुग्घं (टी,उनि २०२), कित्युग्धं (क)। १८. ० मेला (क)। ९. अन्ने करणा (टी), करणा सेसा (क)। १९. ०करणे (ब)। १०. सूत्रकृतांग चूणि (पृ० १०) में कुछ अन्तर २०. सुत्ते (अ)। के साथ यह गाथा मिलती है Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति १७. ठिति-अणुभावे बंधण-निकायण-निधत्त'-दीह-हस्सेस् । संकम-उदीरणाए, उदए। वेदे उवसमे य॥ सोऊण जिणवरमतं, गणधारी कातु तक्खओवसमं । अज्झवसाणेण कतं, सुत्तमिणं' तेण सूयगडं ॥ वइजोगेण पभासितमणेगजोगंधराण साधूणं । तो वइजोगेण कतं, जीवस्स सभावियगुणेहि ।। 'अक्खर-गुण-मतिसंघातणाए कम्मपरिसाडणाए य । तदुभयजोगेण कयं, सुत्तमिणं तेण सूयगडं" ।। सुत्तेण 'सूइत त्ति य", अत्था तह सूइता य जुत्ता य । जो बहुविधप्पजुत्ता, ससमयजुत्ता अणादीया ।। प्रथम श्रुतस्कंध २२. दो चेव सुतक्खंधा, अज्झयणाई हवंति४ तेवीसं । 'तेत्तीसं उद्देसा',५ आयारातो दुगुणमेतं ॥ २३. निक्लेवो गाधाए", चउव्विहो छव्विहो य सोलससु । निक्खेवो उ८ 'सुयम्मि य१६, खंधे य चउविहो होइ ।। ससमय-परसमयपरूवणा य नाऊण बुझणा चेव । 'संबुद्धस्सुवसग्गा, थीदोसविवज्जणा चेव ॥ १. निकायं निहत्तं (अ), निहत्ति (क)। १५. तेत्तीसुद्देसणकाला (क,टी), तेत्तीसं उद्देसं २. हुस्से य (चू)। ३. ४(ब)। १६. ०णमंगं (टी)। इस गाथा के बाद सूत्रकृतांग ४. सूत्त (टी)। चूणि के अनुसार एक नियुक्तिगाथा और होनी ५. सुत्तगडं (चू)। चाहिए । चूणि में उसकी व्याख्या तो मिलती ६. वयजो० (द)। है लेकिन यह गाथा किसी भी आदर्श तथा ७. जोगकरणाण (चू)। टीका में प्राप्त नहीं है। मुनि पूण्यविजयजी ८. वयजो ० (टी)। ने रिक्त स्थान देकर वहां २० का क्रमांक ९. गुणेण (अ,ब,क,टी)। लगाया है। टीकाकार ने इस गाथा के बारे १०. सूत्तगडं (टी), सुत्तकडं (चू ) । में कोई ऊहापोह नहीं किया है । संभव है ११. सुत्तिया चिय (टी), सुत्तयच्चिय (अ,ब)। कालांतर में किसी कारण से यह लुप्त हो गई १२. तो (क)। हो। १३. एय पसिद्धा अणा० (टी), पया य सिद्धा १७. गाहाए (टी)। अणा ० (क)। १८. य (क,चू,टी)। १४. च हुंति ० (क,टी)। १९. सुयम्मी (क)। २०. अ प्रति में गाथा का उत्तरार्ध नहीं है। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ नियुक्तिपंचक उवसग्गभीरुणो थीवसस्स नरगेसु होज्ज उववाओ। एव महप्पा वीरो, जयमाह तहा जएज्जाह ।। 'निस्सील-कुसीलजढो, सुसीलसेवी य' सीलवं चेव । नाऊण वीरियदुर्ग, पंडितविरिए पयतितव्वं ।। धम्मो समाहि मग्गो, समोसढा चउसु सव्ववादीसु । सीसगुण दोसकहणा, गंथम्मि सदा गुरुनिवासो ।। आदाणिय संकलिया, आदाणिज्जम्मि आयतचरितं । अप्पग्गंथे 'पिडियवयणे, गाधाए' अहिगारो ॥ मह पंचभूत एकप्पए य तज्जीवतस्सरीरी य । तध य अकारगवादी", आतच्छ8ो" अफलवादी ।। बितिए नियतीवाओ, अण्णाणिय तह य नाणवादी य । कम्मं चयं न गच्छति, चतुविधं भिक्खुसमयम्मि । ततिए आहाकम्म, कडवादी५ जध य ते पवादीओ" । किच्चुवमा य चउत्थे, परप्पवादी अविरतेसु ॥ नाम ठवणा दविए. खेत्ते काले कुतित्यि-संगारे । कुल-गण-'संकरसमए, गंडी तध'८ भावसमए य ।। ३२. १. परिचत्त निसील-कुसील-सुसील सेविया दुठ्ठ १३. अण्णाणी (चू)। (क)। १४. नाणवाईओ (अ,टी), नाणवाओ य (द)। परिचत्तनिसील-कुसील-सुसील-संविग्ग (टी)। १५. ०वाइ (ब), कडवायं (द)। परिचत्त निसील कुसील सुसीलसेवी य (चू)। १६. पवादी तु (चू), य वाईओ (टी)। २. .वीरिए (टी,द)। १७. कुतित्थ (टी), य कुतित्थ (क) । ३. पयट्टेइ (पयटिज्जा) (टी)। १८. संकरगंडी बोद्धव्वो (क,टी)। ४. आयाणीयम्मि (अ,द)। १९. प्रथम अध्ययन में चूणि एवं टीका में आई ५. आदयच० (टी)। नियुक्ति गाथाओं में क्रमव्यत्यय मिलता है। ६. पिंडकवयणे ० (चू), पिडियवयणेणं होइ (टी)। चूणि में चार उद्देशकों के विषय-वस्तु की ७. अहीयारो (ब)। गाथाएं पहले हैं तथा फिर 'समय' अध्ययन ८. मध (अ,ब,चू)। से संबंधित गाथाएं हैं। चणि का क्रम संगत ९. ०सरीरे (क)। प्रतीत होता है। हस्तप्रतियों में टीकाक्रम से १०. अगारगवाती (टी)। गाथाएं हैं। हमने चणि का क्रम स्वीकृत ११. अत्तच्छट्ठो (टी), आतछट्टो (अ,ब) । किया है। (देखें टिप्पण गाथा ३६ का।) १२. बीए (टी)। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति ३३. पंचण्हं संजोगे, अण्णगुणाणं च चेयणादिगुणो' । पंचेंदियठाणाणं, न अण्णमुणितं मुणति अन्नो ।। को वेदेई अकयं ?, कयनासो पंचहा गई नत्थि । देव-मणुस्सगयागइ, जाइस्सरणादियाणं च ॥ न हु अफलथोवनिच्छित कालफलत्तणमिहं अदुमहेऊ । नादुद्ध' थोवदुद्धत्तणे अगावित्तणे हेऊ ।। समयस्स निज्जुत्तो समत्ता पढमे संबोधि' अणिच्चयाय बितियम्मि माणवज्जणता । अहिगारो पुण भणिओ, तहा तहा बहुविहो तत्थ ।। उद्देसम्मि य ततिए, मिच्छत्तचित्तस्स अवचयो भणितो। वज्जेयन्वो य सया, सुहप्पमादो" जतिजणेणं ।। ३८. वेयालियम्मि१२ वेयालगो य वेयालणं वियालणियं । तिन्नि वि चउक्कगाई, वियालओ एत्थ पुण जीवो।। ३७. १. वेयणाइ० (अ,द)। भाणि"..."उद्देशार्थाधिकारं तु स्वत एव २. जाईसरणा ० (ब,टी), सरणादिठाणं (अ,द)। नियुक्तिकार उत्तरत्र वक्ष्यति ।' फिर भी ३. अफलत्तमनिच्छय (द), अफलथेव ०(ब)। यहां पहले कौनसी गाथा होनी चाहिये यह ४. णोदुद्ध (अ)। निर्णय करना कठिन है क्योंकि अन्य ५. गाथा ३४,३५ चूणि में अनुपलब्ध है। नियुक्तियों में कहीं उद्देशक के विषय-वस्तु टीकाकार ने 'अधुना नियुक्तिकारो' तथा वाली गाथाएं बाद में हैं तो कहीं पहले हैं। 'निर्यक्तिकदाह' ऐसा उल्लेख किया है । ये हस्त-आदर्शों में गाथाओं का क्रम टीका का दोनों गाथाएं सभी आदर्शों में मिलती हैं। ये संवादी है । हमने चूणि के अनुसार गाथाओं गाथाएं नियुक्ति की प्रतीत होती हैं । का क्रम रखा है। ६. संबोहो (अ,ब,द,क,टी)। ९. तु (स)। ७. बीयम्मि (अ,ब,टी)। १०. अन्नाणच्चियस्स(ब), अन्नाणचियस्स (क,टी)। ८. द्वितीय अध्ययन में भी नियुक्ति गाथाओं में ११.०प्पमाओ (अ,ब,द,टी)। क्रमव्यत्यय है। चूणि में सर्वप्रथम उद्देशकों १२. वेयालियं ति (क), वेदालियम्मि (द); के विषय-वस्त का निरूपण करने वाली वेतालियर्याम्म (चू) द आदर्श तथा चूणि में गाथाएं हैं तथा टीका में वैतालीय अध्ययन सभी स्थानों पर त का प्रयोग हुआ है। से सम्बन्धित गाथाएं हैं। टीकाकार स्वयं इस वेदालीय और वेतालीय ये दोनों पाठ शुद्ध बात का उल्लेख करते हुए कहते हैं'तत्राध्ययनार्थाधिकार प्रागेव नियुक्तिकारेणा- १३. वियालणगं (अ) Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्यक्तिपंचक दव्वं च परसुमादी, सण-नाण-तव-संजमा भावे ।। दव्वं च दारुगादी, भावे कम्म विदालणियं' ।। वेयालीयं इह देसितं ति वेयालिकं ततो होति । वेतालिकं इह वित्तमस्थि तेणेव य निबद्धं ।। कामं तु सासतमिणं, कधितं अट्ठावयम्मि उसभेण । अट्ठाणउतिसुताणं,५ 'सोऊण व ते वि पव्वइता ॥ दव्वं निद्दावेदो', सण-नाण-तव-संजमो भावे । अधिकारो पुण" भणितो, नाणे तह" दंसण-चरित्ते ।। तव-संजम-नाणेसु वि, जइ२ माणो वज्जितो महेसीहि । अत्तसमुक्कसणटुं", किं पुण हीला नु५ अन्नेसि ।। जइ ताव निज्जरमदो", पडिसिद्धो अट्ठमाणमहणेहिं । अवसेसमदट्ठाणा", परिहरतव्वा पयत्तेणं । वेयालीयस्स निज्जुत्ती समत्ता पढमम्मि य पडिलोमा, होंती'८ अणुलोमगा य बितियम्मि । ततिए अज्झत्थुवदंसणा'६ च परवादिवयणं च ॥ ४५. १. वियालणियं (क)। २. वेतालियं (चू), वेतालीयं (अ) । ३. वेदालिकं (द)। ४. तहा (क,टी)। ५. अट्ठाणवति० (द,स)। ६. सोऊणं (टी), सोऊण वि (अ,ब,द)। ७. निद्दाबोहो (अ)। ८. दरिसण (चू)। ९. संजमा (टी)। १०. पुव्व (स)। ११. तव (स,ब)। १२. जति (च)। १३. महेसीहिमा (स)। १४. ० मुक्करिसत्थं (अ,ब,टी)। १५. उ (अ,ब,क,टी)। १६. ०मतो (चू), मओ (अ,टी)। १७. अविसेस (टी)। १८. मायादि (चू)। १९. अज्झत्तविसोहणं (टी), अज्झत्थविसीदणा (अ,ब,स,क)। २०. तृतीय अध्ययन की नियुक्ति में भी चूणि और टीका की गाथाओं में क्रमव्यत्यय है। यद्यपि टीकाकार ने "उद्देशार्थाधिकारं तूत्तरत्र स्वयमेव नियुक्तिकार प्रतिपादयिष्यतीति, नामनिष्पन्नं तु निक्षेपमधिकृत्य नियुक्तिकृदाह' यह कहकर 'उवसग्गम्मि य छक्क' इस गाथा से नियुक्ति प्रारम्भ की है। ऐसा संभव है कि टीकाकार ने अपनी सुविधा के लिये क्रमव्यत्यय किया हो। प्राचीनता और क्रमबद्धता की दष्टि से हमने चणि के क्रम को मान्य किया है। (देखें टिप्पण गाथा ३६ का) Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ सूत्रकृतांग नियुक्ति हेउसरिसेहि' अहेतुएहिं, ससमयपडितेहिं निउणेहिं । सीलखलितपण्णवणा, कता चउत्थम्मि उद्देसे ।। उवसग्गम्मि य छक्कं, दव्वे चेयणमचेयणं दुविहं । आगंतुगो य पीलाकरो य जो सो उ उवसग्गो ।। खेत्ते५ बहुओघभयं', काले एगंतदूसमादीओ' । भावे कम्मस्सुदओ, सो दुविहो ओघुवक्कमिओ ।। 'उवकमिए संजमविग्धकारए तत्थुवक्कमे पगतं । दव्वे चउव्विधो देव-मणुस" तिरियाऽऽय" संवेओ'२ ॥ 'एक्केक्को य चउविहो', 'अट्टविहो वावि सोलसविहो वा १४ ॥ घडण जयणा य तेसि, एतो वोच्छं अहीयारे१५ ।। जध नाम मंडलग्गेण, सिरं छेत्तूण कस्सइ मणुस्सो । अच्छेज्ज पराहुत्तो, किं नाम ततो न धिप्पेज्जा ? ॥ जध वा विसगंडूसं, कोई घेत्तूण नाम तुण्हिक्को । अण्णेण अदीसंतो, किं नाम ततो न व मरेज्जा ? ॥ जह नाम१८ सिरिघराओ, कोई रयणाणि' नाम घेत्तूणं । अच्छेज्ज' पराहुत्तो, किं नाम ततो न घेप्पेज्जा ? ॥ उवसग्गपरिणाए निज्जुत्ती समत्ता ५३. १. हेऊसरि० (स)। १२. संवेत्तो (टी)। २. समयपतिएहिं (क)। १३. एवेक्केक्को चउब्विहो (चू)। ३. सीलखलियस्स० (स), सीलक्खलितप्प० (अ)। १४. दिव्वाई होइ सोलस० (क)। ४. उवम्सग्गो (चू,टी)। १५. अहियारं (टी)। ५. खेत्तं (क,चू,टी)। १६. ५१-५३ तक की गाथाओं का चूणि में कोई ६. .ओघपयं (अ,टी), टीकाकार ने 'बहओघपयं' उल्लेख नहीं है । टीकाकार ने स्पष्ट लिखा है को पाठांतर माना है लेकिन चुणि द्वारा कि "नियुक्तिकारो गाथात्रयेणोत्तरदानाउपर्युक्त पाठ सम्मत है । याह"।" चूणि में उल्लेख न होने पर भी ७. एगंतुदूस० (अ), एगंतदुस्समा० (स)। टीका और आदर्शों के आधार पर इन ८. कम्मन्मुदओ (टी)। गाथाओं को हमने नियुक्ति-गाथा के क्रम में ९. उवक्कमिओ संयमविग्घकरे तत्थु० (अ,ब,टी) रखा है। ओवक्कमिओ संजमविघायकरि तमुवक्कमे १७. वि (अ.स)। १८. वावि (स)। १०. मणुय (क)। १९. रयणाण (ब), रयणा य (अ)। ११. तिरिच्छाय (स)। २०. अत्थेज्ज (भ,ब)। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक पढमे संथवसंलावाइहि' 'खलणा उ होति सोलस्स'२ । बितिए' इहेव खलियस्स, विलंबणा कम्मबंधो य ।। दव्वाभिलावचिधे, वेदे भावे य इत्थिनिक्खेवो । अभिलावे जह सिद्धी, भावे वेदंसि उवउत्तो ।। नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले य पजणणे कम्मे । भोगे गुणे य भावे, दस एते पुरिसनिक्खेवा ।। सूरा मो मण्णता, कइतवियाहि उवधिप्पहाणाहि । गहिता हु१२ अभय-पज्जोत-कूलवालादिणो३ बहवे ।। तम्हा न हु४ वीसंभो, गंतव्वो निच्चमेव इत्थीणं५ । पढमुद्देसे भणिता, जे दोसा ते गणंतेणं ।। 'सुसमत्था वि असमत्था कीरंति अप्पसत्तिया पुरिसा । दीसंति'८ सूरवादी, नारीवसगा न ते सूरा ।। धम्मम्मि जो दढमती१६, सो सूरो सत्तिओ य वीरो य । न हु धम्मनिरुच्छाओ", पुरिसो सूरो सुबलिओ वि ।। एते चेव य दोसा, पुरिससमाए' वि इत्थिगाणं२२ पि । तम्हा तु अप्पमादो, विरागमगंसि3 'तासि पि । इत्थोपरिणाए निज्जुत्ती समत्ता ६१. १. ०वाइएहिं (चू), संलवमाइहि (क,टी)। १२. तु (चू)। २. सीलस्स होज्ज खलणाओ (स), खलणा उ १३. कूआधारादिणो (चू), कूलवारादिणो (क) । होज्ज सी० (क)। १४. उ (अ,ब,स,टी)। ३. बीए (द)। १५. इत्थीसु (क), इत्थीसुं (टी)। ४. वि एव (स)। १६. सुसमत्थाऽवऽसम० (टी)। ५. अवत्था (अ,ब,क,टी)। १७. कीरती (चू), करती (क)। ६. वेदम्मि (अ ब,चू,क,टी)। १८. दिस्संति (चू), दीसंती (टी)। उववन्नो (अ)। १९. दढामई (टी), दढमदी (क)। ८. पज्जणण (अ,टी), पजणणं (ब)। २०. ०णिरुस्साहो (टी)। ९. मो इति निपातो वाक्यालंकारार्थः (टी)। २१. पुरिसपमादे (चू)। १०. कतियवियाहिं (क)। २२. इथिकाणं (क)। ११. उवधिनियडिप्प० (च), नियहि शब्द रखने से २३ ० मग्गम्मि (टी)। छंद भंग होता है। २४. वासिंसु (अ), तासि तु (क,टी)। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति ६२. निरए छक्कं 'दम्वनिरया उ इहमेव' जे भवे असुभा । खेत्तं नरगावासा, कालो निरएस चेव ठिती।। भावे उ निरयजीवा, 'कम्मं वेदंति नरगपायोग । सोऊण नरयदुक्खं५, तव चरणे होति जइतव्वं ।। नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो उ विभत्तीए', निक्खेवो छविधो होति ।। पुढविप्फासं अण्णाणुवक्कम निरयपालवधणं च । तिसु वेदेति अताणा, अणुभावं चेव सेसासु ।। अंबे अंबरिसी० चेव, सामे 'सबले त्ति यावरे" । रोहोवरुद्द काले य, महाकाले त्ति आवरे"। 'असिपत्ते धणुं कुंभे', 'वाल वेतरणी ति य५ । खरस्सरे महाघोसे, एते६ पण्ण रसाऽऽहिते । धाडेंति पधाडेंति'८ य, हणं ति विधंति तह निसुंभंति । पाडिति" अंबरतले, अंबा खलु तत्थ नेरइया ।। ओहतहते य निहते', निस्सण्णे कप्पणीहि कप्पंति । बिदलग२२-चडुलग२३ छिन्ने, अंबरिसी तत्थ नेरइया२५ ।। १. दव्वं णिरया उ इहेव (क,टी), दव्वे निरया १४. असिपत्त धणुं कुंभे (असि असिपत्ते कुंभी) (अ)। (च), असिपत्त धणुं कुंभी (क)। २. णिरओगासो (क,टी)। १५. वालु वेयरणी वि य(क,टी),वालुए वेयरणीति ३. णरय० (चू,अ)। य (सम १५१।२), वालुए वेतरणी ति य ४. कम्मुदओ चेव णिरयपाओगो (क,टी)। (भग ३३२५९।२)। ५. णिरय० (टी)। १६. एवं (अ,टी), एमेते (सम) । ६. विवित्तीए (क)। १७. ०हिया (अ)। ७. पुढवीफासं (अ,ब,टी)। १८. य हाडेती (टी), पहाडेंति (अ)। ८. गिरयवालवहणं (टी), पालसहणं (क)। १९. मुंचंति (क)। ९. भागं (टी)। २०. मुंचंति (टी)। १०. अंबरिसे (चू)। २१. तहियं (अ,ब,क,टी)। ११. य सबले वि य (क,अ,टी), सम. १५४१, २२. विदुलग (ब,टी)। भग. ३।२५९ । २३. चतुलग (चू)। १२. रुद्दोवरुद्दो (चू,ब) ०वरोद्दो (अ)। २४. अंबरिसा (चू)। १३. यावरे (चू)। २५. णेरतिए (चू,अ)। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्यक्तिपंचक ७०. साडण-'पाडण-तोदण'१. विधण सामा नेरइयाणं', पवत्तयंती अपुण्णाणं ।। अंतगयफिप्फिसाणि य, हिययं कालेज्ज फुप्फुसे वक्के । सबला नेरइयाणं, 'कड्ढे ति तहिं अपुण्णाणं'५ ।। असि-सत्ति-कोत-तोमर-सूल-तिसूलेसु सूइयग्गेसु । 'पोयंति कंदमाणे, रुद्दा खलु तत्थ नेरइए' ।। भंजंति अंगमंगाणि, ऊरु-बाहू-सिराणि-कर-चरणे । कप्पंति कप्पणीहिं', उवरुद्दा पावकम्मरया ।। मीरासु° सुंठएसु य, कंड्सु" य पयणगेसु१२ य पयंति । कुंभीसु य लोहीसु३ य, पयंति काला तु नेरइया ।। कप्पंति कागिणीमंसगाणि छिदंति सीह-पुच्छाणि'५ । खावंति य नेरइया, महकाला पावकम्मरता ॥ हत्थे पादे ऊरू-बाहु-सिरा-पास अंगमंगाणि । छिदंति पगामं तू, असिनेरइया निरयपाला ।। कण्णोद-नास-कर-चरण-'दसण-थण'२०-'फिग्ग-ऊरु'२१-बाहणं । 'छेदण-भेदण'२२-साडण, असिपत्तधणूहि२३ पाडंति ।। १. तोडण तुत्तण (चू), पाडण तुत्तण (स), पाडण १२. पयंडएसु (टी)। तोडण (टी)। १३. लोहिएम (टी), लोहियसु (अ)। २. बंधण रज्जुल्लय० (टी), बंधण तह रज्जुलय० १४. णेरतिए (क)। (अ), विधणा रज्जू ० (क) ०पहारे य (स)। १५. सीसपु० (चू), सीहपुच्छा णि त्ति पृष्ठीवर्धाः ३. रति० (चू)। (सूटी प० ८४)। ४. अंते य फिफि• (स)। १६. ० रए (क,टी)। ५. कड्ढ-विक ड्ढंतपु० (चू,स)।। १७. सिरा तह य (क)। ६. सूइ चियगासु (क,टी), सूईसु हलीसु (चू)। १८. तु (स)। ७. पोयंति रुद्दकम्मा उ णरगपाला तहिं रोद्दा १९. कंठोट (क)। (क,टी), रोहे कम्मा रोहा खलु तत्थ नेरइया २०. दसणट्रण (ब,टी)। २१. पुतोरु (अ,क,ब,स,), फुग्ग ऊरु (टी)। ८. अंगमंगे (अ,ब,स,च)। २२. छिदण भिंदण (स)। ९. कप्पणीसु य (चू)। २३. ०धणूह (स)। १०. सीतेसु (चू)। २४. पाएंति (क)। ११. कुंडेसु (अ)। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति ७८. ७९. ८०. ८१. ८२. ८३. ८४. ८५. कुंभीय' पयणेसु य, लोहीसु य कंदु: - लोहि-कुंभीसु । कुंभी य* नरयपाला, हणंति पाचिति नरगेसु ॥ तडतडतडत्ति' भज्जंति, 'भायणे कलंब" वालुगापट्ठे । नेरइया, लोलंती अंबरतलम्मि || वालगा (वस ) - पूय - रुहिर के सऽट्ठि, वाहिणी कलकलंत वेयर निरयपाला", नेरइए ऊ १२. कति (चू) । १३. परप्परं ( स ) । १४. फरुस ० (चू) । परोप्परं कप्पंति करकएहि, तच्छिति २ सिबलितरुमारुति, खरस्सरा तत्थ भीते पलायमाणे ५, समंततो तत्थ पसुणो जधा " पसुवधे, महघोसा तत्थ ते १. X ( स ) । २. लोहियसु ( अ, ब, टी) । ३. कंडु (चू ), कुंदु (ब) । ४. उ ( क ) । ५. पाडंति ( चूक, टी), पयंति ( अ ) । ६. ० तडस्स (चूक, टी) । ७. भज्जणे कलंबु (क, टी), भंजणे ० ( स ) 1 ८. 'वस' शब्द रखने से छंद भंग नहीं होता । ९. कुलकु० (अ), कलकलित (स), कलकलेंत (टी)। १०. ०सोत्ता ( स ) । ११. ०रणि णिरय० ( चू, क, टी) । नरगविभत्तीए निज्जुत्ती समत्ता पाधन्ने महसद्दो, दव्वे खेत्ते य काल भावे य । वीरस्स उ निक्खेवो, चउक्कओ होति नायव्वो । श्रुति निक्खेवो" चउहा ", आगंतुग भूसणेहि दव्वथुती २२ । भावे सब्भूतगुणाण ३ कित्तणा जे जहिं भणिया ।। पुच्छिसु४ जंबुणामो, अज्जसुधम्मा २५ ततो कहेसी य । एव महप्पा वीरो जयमाह" तधा जएज्जाहरु ।। महावीरत्युईए निज्जुत्ती समत्ता १० जलसोया " । पवार्हति ॥ १४ परसुएहिं " । नेरइया ॥ णियत्तेंति" । नेरइया " || १५. य पलायंते ( अ, ब, क, टी) । १६. णिरुभंति (क, टी) । १७. X ( स ) । १८. नेरतिए ( क ) । १९. महा० (चू) 1 २०. थयणिक्खेवो (च्) । २१. चउद्धा (चू) । २२. दव्वथयो (चू) । २३. संताण गु० (क, टी) । २४. पुच्छंसु (स), पुच्छि ( अ ) । २५. ० सुधम्मो (चू) । २६. तह (स) । २७. जतमाहु (चू,स,द,क) । २८. जतेज्जाध (चू), ०ज्जाहिं (टी, क) । ૨૪o Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ८६. ८७. ८५. ८९. ८९/१. ९०. ९१. ९२. 'सीले चतुक्क'' दव्वे, पावरणाऽऽभरणभोयणादीसु' । भावे तु ओघसीलं, अभिक्खआसेवणा चेव ॥ ओघे 'सीलं विरती ४, विरताविरती य अविरति असीलं । धम्मे नाण-तवादी, अपसत्थ अधम्मकोधादी | परिभासिता कुसीला, य एत्थ जावंति अविरता केय" । सुति पसंसा सुद्धे, कुत्ति दुगंछा अपरिसुद्धे || 'अप्फासुयपडिसेवी, य नाम " भुज्जो य सीलवादी २ य । फासुं वदति सीलं, अफगा मो" अभंजंता १४ ।। अणगारवादिणो पुढविहिंसगा निग्गुणा अगारिसमा । निद्दोस त्तिय मलिणा, साघुपदोसेण मलिणतरा" ।। जह नाम गोतमा, रंडदेवता वारिभद्गा चेव । जे अग्गिहोमवादी १७, जलसोयं 'जे १८ इच्छंति ॥ कुसीलपरिभासियज्झयणस्स निज्जुत्ती सम्मत्ता विरिए छक्कं दव्वे, सच्चित्ताऽचित्तमी सगं चेव । 'दुपद - चतुष्पद - अपदं १६, एतं तिविधं तु२० सच्चित्तं ॥ अच्चित्तं पुण विरियं, जध ओसधीण भणितं, आहाराऽऽवरणपहरणादीसु । विरिय रसवीरियविवागे ॥ १. सील चउक्कं (ब, अ, स, क ) २. पाउरणा ० ( चूक, टी), ०रणे ० ( स ) । ३. ० मासेवणा ( कटी) । ४. विरती सीलं (चू) । ५. विरयाविरई (टी) । ६. अविरती (टी), अविरति ( क ) । ७. अहम्मकोवादी (टी, अ) । ८. केई (टी), केति (द, क ) । ९. सुरिति प्रशंसायां निपात इति (चू पू. १५१) । १०. दु (चू), दु: कुत्सायां (चू पृ १५१९) कुरित्ययमपि निपातो जुगुप्सायां ( सूटी प १०३ ) । ११. अफासु पडिसेविय णामं ( अ, ब, टी) । १२. विरयवादी ( स ) । १३. मो शब्दस्य निर्मुक्ति पंचक निपातत्वेनावधारणार्थत्वाद् ( सूटी पृ १०३) । १४. अभुंजंति (द), अभुंजतो ( स ) । १५. मइलतरा ( स ), प्रस्तुत गाथा केवल 'स' आदर्श में ही मिलती है। चूर्णिकार ने इसका उत गाथा के रूप में उल्लेख किया है । टीका में इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है । मूलतः यह गाथा आचारांग निर्युक्ति (१००) की है । १६. चंडी देवगा (टी), 'चंडीदेवगा' इति चक्रधरप्राया: ( सूटी पू १०३), चंडिदे० ( क ) । १७. ०होत्तवादी ( अ, ब, स, द, क) । १८. केइ (च्) । १९. दुपच उपयअपयं (टी) । २०.पि ( स ) । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ सूत्रकृताग नियुक्ति ९३. आवरणे' कवचादी, चक्कादीयं च पहरणे होति । खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते, काले जं जम्मि कालम्मि ।। ९४. भावे जीवस्स सवीरियस्स विरियम्मि लद्धिऽणेगविधा। ओरस्सिदिय अज्झप्पिगेसु बहुसो बहुविधीयं ।। मण-'वयण-काय'५ आणापाण संभव तधेव' संभवे । सोत्तादीणं सद्दादिगेस, विसएसु गहणं च ।। उज्जम-धितिः-धीरत्तं, सोंडीरत्तं खमा य गंभीरं । उवयोग-जोग-तव-संजमादिगं 'होति अज्झप्पं ।। 'सव्वं पि य तं तिविधं, पंडित बालविरियं च मीसं च । अधवा२ वि होति दुविधं, अगारअणगारियं चेव ।। सत्थं तू असियगादी,१४ विज्जा-मंते य देवकम्मकतं । पत्थिव 'वारुण अग्गेय'१५, वाउ'६ तह मीसग चेव ।। वीरियस्स निज्जुत्ती समत्ता 'धम्मो पुट्टिो '१७ 'भावधम्मेण एत्थ'८ अधिकारो । एसेव होति धम्मो'१६, 'एसेव समाधिमग्गो त्ति'२ ।। १००. नामं ठवणाधम्मो, दव्वधम्मो य भावधम्मो य । सचित्ताऽचित्तमीसे२१, गिहत्थदाणे दवियधम्मो ।। लोइयलोउत्तरिओ, दुविधो पुण होति भावधम्मो तु२२ । दुविधो वि दुविध तिविधो, पंचविधो होति णातव्वो ॥ १०१. १. ०रणं (स)। १२. अहवा (टी)। २. होंति (टी)। १३. अगारमण (स,अ)। ३. सवीरियम्मी (द)। १४. असिमादीयं (अ,ब,टी), असिगादीयं (स), ४. अज्झत्थिगेसु (स)। १५. वारुणमग्गेय (द)। ५. वइ-काया (टी), वतो काए (अ,ब,स)। १६. वाऊ (टी)। ६. .पाणु (अ,ब)। १७. धर्म की नियुक्ति के लिए देखें दशनि ३६७. तहा य (क,टी)। ४० । ८. धिती (अ)। १८. धम्मेणित्थं (स)। ९. सोडी• (अ,ब,क,चू)। १९. होइ धम्मे (मु,क)। १०. होइ अज्झप्पो (अ,टी)। २०. समाधि एसेव मग्गो य (स)। ११. सव्वं पि तयं तिविधं बाल तधा पंडितं च २१. मीसग (अ,ब,टी)। मिसितं च (च)। २२. य (द,स)। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ १०४. नियुक्तिपंचक १०२. पासत्थोसण्णकुसील, संथवो न किल' 'वट्टते कातुं । सूयगडे अज्झयणे, धम्मम्मि निकाइयं एयं ।। धम्मस्स निज्जुत्ती समत्ता १०३. आदाणपदेणाऽऽघ, गोण्णं नामं पुणो समाधि त्ति । निक्खिविऊण" समाधि, भावसमाधीएँ पगयं तु ।। नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य८ । एसो तु समाधीए, निक्खेवो छविधो होति ।। १०५. 'पंचसु वि य विसयेसुं, सुभेसु दत्वम्मि सा समाधि त्ति । 'खेत्तं तु"१ जम्मि खेत्ते, काले 'कालो जहिं जो उ१२ ।। १०६. _ 'भावसमाधि चतुम्विध''३, दंसण-नाणे तवे चरित्ते य । चउसु वि समाधितप्पा, सम्मं चरणट्ठितो साधू । समाधीए निज्जुत्ती समत्ता १०७. नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु मग्गस्सा,५ निक्खेवो छव्विधो होति ।। फलग१६-'लतंदोलण-वेत्त'१७-रज्जु-दवण बिल पास मग्गे य । खीलग-अय-पक्खिपहे, छत्त-जलाऽऽकास दवम्मि ।। खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते, काले कालो जहिं 'वहति मग्गो'१६ । भावम्मि होति दुविधो, पसत्थ तह अप्पसत्थो य ।। १०८. १. किर (अ,ब,क,चू,टी)। सुभेसु दवम्मि ता भवे समाहि त्ति (टी)। २. वट्टती काउं (टी)। ११ खेत्तम्मि (स)। ३. सूतकडे (चू)। १२. जो जम्मि कालम्मि (चू,स)। . ४. च हु सो (स)। १३. समाहि चउठिवह (अ,ब,क,टी)। ५. ०पदेणग्धं (अ,क,स)। १४. चतुर्हि (चू,स)। ६. गोणं (अ,ब,टी)। १५. मग्गस्स य (टी)। ७. निक्खिवित्ताण (स)। १६. फलगे (स), फलगं (क)। ८. उ (टी)। १७. लयंदोलणवित्त० (अ,ब,टी), लयं ९. दव्वेसु (द)। १८. बिलप्पास० (अ,ब,स)। १०. दव्वं जेण तु दव्वेण समाधि आधितं च जं दव्वं १९. हवइ जो उ (अ,ब,स,टी) भवे मग्गो (क), (चपा) चुणिकार ने अधवा कहकर उपर्युक्त हवा मग्गो (क)। पाठांतर की व्याख्या की है। पंचसु विसएसु Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ सूत्रकृतांग नियुक्ति ११०. दुविहम्मि वि' तिगभेदो, णेयो तस्स विविणिच्छओ' दुविहो। सुगतिफलदुग्गतिफलो, पगतं 'सुगती फलेणित्यं ।। १११. दुग्गतिफलवादीणं,' तिण्णि तिसट्ठा ‘सता पवादीणं' । खेमे य खेमरूवे, चउक्कगं मग्गमादीसु ।। सम्मप्पणीतमग्गो', 'नाणं तध दंसणं चरितं च । चरग-परिव्वायादी, चिण्णो मिच्छत्तमग्गो उ ।। इड्डि-रस-सात-गुरुगा, ‘छज्जीवनिकायघातनिरता य'१० । जे उवदिसंति मग्गं,' 'कुमग्गमण्णस्सिता जाण'१२ ।। तव-संजमप्पहाणा, गुणधारी जे वदंति सब्भावं । सव्वजगज्जीवहितं," तमाहु सम्मप्पणीतमिणं ।। पंथो ‘णायो मग्गो'१५, विधी धिती सोग्गती हित सहं च । पत्थं सेयं निव्वुति, निव्वाणं'८ सिवकरं चेव ।। मग्गस्स निज्जुत्ती समत्ता समोसरणे वि१६ छक्कं, सच्चित्ताऽचित्त-मीसगं दवे । खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते, काले जे जम्मि कालम्मि' ।। भावसमोसरणं पुण, नायव्वं२२ छविहम्मि भावम्मि । अधवा किरिय" अकिरिया, अण्णाणी चेव वेणइया४ ।। १. व (द)। १३. जगजीव० (स)। २. उ (टी)। १४, ०प्पणीतमवि (च)। ३. विणिच्छिओ (द)। १५. मग्गो णाओ (ब,टी) न्याय इति निश्चये४. पुण सुगती फलमग्गो (स)। नायन-विशिष्टस्थानप्राप्तिलक्षणं यस्मिन् ५. दोग्गति० (अ.स), दोग्गती० (क)। सति स न्याय: (सूटी प १३२) । ६ सताइ वादीणं (टी), सया य वा० (स)। १६. ठिती (स)। ७. सम्मप्पणिओ० (अ,ब,टी), सम्मपणीओ (क)। १७. सुगती (अ,ब,टी), सोगती (स)। ८. नाणे तह दंसणे चरित्ते य (अ,ब,मु,क,टी) १८. णेव्वुइ जेव्वाणं (चू), निव्वुई नि० (क) । नाणं तव दंसणं चेव (स)। १९. समोसरणम्मि (क)। ९. ति(चू), तु शब्दोऽस्य दुर्गतिफलनिबन्धनत्वेन विशेषणार्थ इति (सूटी पृ १३२) । २१. जावइयं (क)। १०. .घातणरता य (च) छज्जीवकायवधरता या (चूपा)। २३. किरिया (स)। ११. धम्म (चू)। २४. वेणईया (अ,द)। १२. कुमग्गमम्गस्सिता ते उ (क,टी)। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८. १२०. नियुक्तिपचक ___ अत्थि त्ति किरियवादी, वदंति नत्थि त्ति अकिरियवादी य । अण्णाणी अण्णाणं, विणइत्ता वेणइयवादी ।। ११९. असीतिसयं' किरियाणं, अकिरियाण' च होति चलसीति । 'अण्णाणिय सत्तट्ठो', वेणइयाण च बत्तीसा ।। तेसि मताणुमतेणं, पण्णवणा वण्णिता इहऽज्झयणे । सब्भावनिच्छयत्थं, समोसरणमाहु तेणं ति ।। १२१. सम्मट्टिी किरियावादी, मिच्छा य सेसगा वादी । चइऊण मिच्छवाद, सेवह 'वादं इम' सच्चं ।। ___समोसरणस्स निज्जुत्ती समता १२२. नामतहं ठवणतहं, दव्वतहं चेव होति भावतहं । दव्वतहं पुण जो जस्स सभावो होति दव्वस्स ।। १२३. भावतहं पुण नियमा, नायव्वं छव्विधम्मि° भावम्मि । अधवा वि णाण-दसण-चरित्त-'विणए य'' अज्झप्पे ।। १२४. जह सुत्तं तह अत्थो, 'चरणं तु जहा तहा य१२ नायव्वं । संतम्मि पसंसाए, असंत पगयं दुगुंछाए ।। १२५. आयरियपरंपरएण, आगतं जो उ छेयबुद्धीए१५ । कोवेति छेयवादी,'६ जमालिणासं स" णासिहिति ८ ।। १२६. न करेति दुक्खमोक्खं, उज्जममाणो वि 'संजम-तवेसु'२० । तम्हा अत्तुक्करिसो, वज्जेतव्वो जतिजणेणं ।। आहतहस्स निज्जुत्ती समत्ता १. असियसयं (चू,टी), असीय० (अ,ब,क)। २. अक्किरि० (च,टी), अकिरियवाईण (स,द)। ३. अण्णाणी सत्तट्टि (द)। ४. वेणईयाणं (द)। ५. तु (अ,ब,क,टी)। ६. सिद्धा (क)। ७. जहिऊण (अ,ब,टी)। ८. मिच्छा० (स)। ९. वादं ति तं (स)। १०. छव्विहम्मि (च,टी)। ११. विणएण (अ,ब,क,टी)। १२. चरणं चारो तह त्ति (अ,ब,क,टी), चरणं व जहा तव त्ति (स)। १३. असती (क,टी)। १४. दुगुच्छाए (स)। १५. अप्पबु० (च)। १६. छेयबुद्धी (चू)। १७. व (च)। १८. णासिहि त्ति (अ,ब,द)। १९. कुणेति (च)। २०. संजमपदेसु (चू)। २१. पयत्तेण (दश्रुनि २०)। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताग नियुक्ति १२७. १२८. १२९. १३०. १३१. १३२. १३३. १३४. १३५. "गंथो पुव्वुद्दिट्ठो", दुविधो सिस्सो य होति नायव्वा । पव्वावण - सिक्खावण, पगय सिक्खावणाए ४. ०णाए ( चू) । ५. ० गुणे (चू) । I सो सिक्खगो तु दुविधो, गहणे 'आसेवणा य बोधव्वो' 3 गहणम्मि होति तिविधो, सुत्ते अत्थे तदुभए य ।। आसेवणाय दुविधो, मूलगुणे चेव उत्तरगुणेय । मूलगुणे पंचविधो, उत्तरगुण बारसविधो तु 'आयरिओ पुण' दुविधो, पव्वावेंतो यह सिक्खावेंतो य । सिक्खावेंतो दुविधो, गणे आसेवणे चेव ॥ गाहावितो" तिविधो, सुत्ते अत्थे तदुभए चेव । 'मूलगुण- उत्तरगुणे, दुविधो आसेवणाए उ" ।। गंथस्स निज्जुत्ती समत्ता आदाणे गहणम्मिय, निक्खेवो 'होति दोह' १३ वि चउक्को । एगट्ठे नाणट्ठ, च होज्ज १४ पगतं तु आदाणे || जं पढमस्संतिमए, बितियस्स तु तं भवेज्ज आदिम्मि १५ । एतेणाऽऽदाणिज्जं, एसो अन्नो वि पज्जाओ || १. 'ग्रंथ' शब्द की नियुक्ति के लिए देखें उनि ३३४-३७ । २. य (क, टी) । नामादी ठवणादी, दव्वादी चेव होति भावादी । दव्वादी पुण दव्वस्स, जो सभावो सए ठाणे ।। ३. आसेवणाए नायव्वो ( क ), ० वणे य बोध० (चू) ०य णायव्वो (टी) । । आगम- 'नोआगमतो, भावादी तं" दुहा" ववदिसति नोआगमतो भावो, पंचविधो होति नायव्वो । ६. उ ( ब, टी), य ( द ) । ७. उ ॥ ० रिओ विय ( अ, ब, क, टी) । ८. व (टी) । ९. सिक्खिवंतो ( अ, क ) । १०. गाधेंतो वि य (च्) । ३४७ ११. आसेवाए दुविधो मूलगुणे उत्तरगुणे य (च्) छंद की दृष्टि से टीका का मुद्रित पाठ ठीक है । १२. ०दाणं (द) । १३. होंति दोन्हि (द) । १४. होति ( क ) । १५. आदाणे (स) । १६. ट्ठाणे ( अ, ब, द) । १७. ०गमियं भावाईयं ( स ) ० गमतो भावातीतं (चू) । १८. बुहा (टी), बुद्धा तीर्थंकरगणधरादयो (सूटी पृ १६९) । १९. उवदिसंति (चूक, टी) । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक १३६. आगमतो पुण आदो, गणिपिडगं होति बारसंगं तु । गंथ' सिलोगो 'पाद पद'२ अक्खराइं च तत्थादो ।। ___ जमईयस्स निज्जुत्ती समता १३७. नामं ठवणागाधा, दव्वगाधा य भावगाधा य । 'पोत्थग-पत्तग' लिहिता, 'होति इमा दव्वगाधा' त ।। १३८. होति पुण भावगाधा, सागारुवयोगभावनिप्फण्णा । मधुराभिधाणजुत्ता, 'तेणं गाह त्ति'५ णं बैंति ।। १३९. गाहीकता य अत्था, अधवा' सामुद्दएण छंदेण । एएण होति गाधा, एसो अन्नो वि पज्जाओ ।। १४०. पण्ण रसस अज्झयणेसु पिडितत्थेसु जो 'अवितह ति' । पिडितवयणेणऽत्थं, गहेति जम्हा१२ ततो गाधा ।। १४१. सोलसमे अज्झयणे, अणगारगुणाण वण्णणा भणिया । गाधासोलसनामं, अज्झयणमिणं ववदिसंति ।। गाहाए निज्जुत्ती समत्ता द्वितीय श्रुतस्कंध १४२. नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव' भावे य । एसो खलु महतम्मि, निक्खेवो छविहो होति" । १४३. नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव१५ भावे य । एसो खलु अज्झयणे, निक्खेवो छविहो होति । १४४. नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले य गणण१६ संठाणे । भावे य अट्ठमे खलु, निक्खेवो पोंडरीयस्स ।। १. गंथं (द)। २. पद पाद (स,टी)। ३. पोत्तग पत्थग. (अ)। ४. सा होइ दव्वगाहा उ (अ,ब,स,क)। ५. तेण य गाहं ति (चू)। ६. व (अ,ब,क,टी)। ७. अहव ण (अ,टी)। ८. होती (चू), होंति (क)। ९. जे (चू), एव (स)। १०. अवितह त्ति (ब,अ,क,टी)। ११. गेहिति (अ,क)। १२. तम्हा (टी)। १३. य हुंति (द,क), होति (अ,ब)। १४. १४२,१४३ की गाथा का संकेत चूर्णि में नहीं है किंतु व्याख्या मिलती है। १५. य होइ (अ,क)। १६. गहण (द)। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति १४५. १४६. ४. १४७. १४८. १४९. १५०. १५१. १५२. १५३. जो जीवो भविओ खलु, 'उववज्जिकामो पोंडरीएसु" । सो दव्वपोंडरीओ, भावम्मि 'य जाणओ भणिओ | उ (स) ' एगभवि य बढाउएँ य अभिमुहो य' नाम - गोए य । एते तिन्नि वि देसा, दव्वम्मि यर पोंडरीयस्स || 'रिच्छिगा मणुस्सा, देवगणा चेव होंति जे पवरा । ते होंति पोंडरीया, सेसा पुण 'कंडरीगा हु'" ॥ उ ।। ‘जलचर-थलचर-खचारिएस जे होंति पवरकंता य" । जे य सभावाणुमता, ते होंती" पोंडरीगा अरहंत" - चक्कवट्टी, चारण-विज्जाहरा जे अन्ने इडिमंता, ते १. ववज्जिकामो य पुंडरीयम्मि (टी) । २. विजाणओ (टी) । होंति भवणवति वाणमंतर - 'जोतिस वेमाणियाण जे 'तेसि पवरा"" खलु, ते कंसाणं दुसाणं, 'जे य अचित्ता अच्चित्तमी सगेसुं, ते होंति पोंडरीया, ३. एगभविय बद्धाउय अभिमुहा य ( अ ), ०अभिमुहिय (टी) । 'जाई खेत्ताइं """ खलु, देवकुरुमा दियाई, मणि - ' मोत्तिय - सिल पवालमादीण" । पवरा १५, ते होंति पोंडरीया उ ॥ य होंति पवरा दव्वेसुं जे सेसा पुण कंडरीया उ" ।। सुहाणुभावाइं" होंति लोगम्मि । खेत्ताई पराई ॥ ताई ५. व (द) | ६. तेरिच्छमणुस्साणं देवगणाणं व ( अ ) । ७. ० रोया उ (अ) । ८. जलयर थलयर खयरा, जे पवरा चेव होंति कंता य (टी) ०खयरा जे य पवरा जे य होंति कंताय ( स ) । ९. सभावेऽणु० ( ब, टी), सभाव अणु० (स), भावोऽणु ( अ ) । दसारा य । पोंडरीया उ ॥ देवानं १२ । होंती पोंडरीया उ ॥ १०. होंति (अ), छंद की दृष्टि से दीर्घ इकार है । ११. अरिहंत ( ब द ) । उ । ३४९ १२. जोतिसवासी विमाणवासीय ( स ) | १३. पवरा देवा (स) । १४. मुत्तिय - सिलप्पवाल ० ( स द ) । १५. जे तेसि पवरा खलु (ब, द, क ), अच्चित्ता जे य पवरा ( स ) । १६. यह गाथा प्रायः सभी हस्त आदर्शो में मिलती है । मुद्रित टीका की क्रम संख्या में यह गाथा नहीं है लेकिन टिप्पण में यह गाथा दी हुई है। टीकाकार ने 'मिश्रद्रव्यपोंडरीकं तु तीर्थकृच्चक्रवर्त्यादय एव प्रधान कटक उल्लेख किया है । यह गाथा प्रासंगिक है । हमने इसे नियुक्ति - गाथा के क्रम में जोड़ा है । १७. जाणि खेत्ताणि ( स ) । 1 १८. ०भागाणि (स), महाणुभावाई ( द ) । १९. खेत्ते ( ब, क ) । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४. १५५. १५६. १५७. १५८. नियुक्तिपंचक जीवा 'भवट्टितीए, कायठितीए' य होंति जे पवरा । ते होंति पोंडरीया, अवसेसा कंडरीगा उ॥दार।। गणणाए रज्ज खलु, संठाणं चेव होंति चउरस्सं । 'एयाणि पोंडरीगाणि'३, होति सेसाणि इयराई'५ ।।दारं।। 'ओदइय-ओवसमिए'६, खइए य तहा खयोवसमिए य । परिणाम-सन्निवाए, जे पवरा ते वि ते चेव ।।दारं।। अहवा वि नाण-दसण-चरित्त-विणए तधेव अज्झप्पे । जे पवरा होति मुणी, ते पवरा पोंडरीगा उ ।। एत्थं पुण अधिगारो, वणस्सतीकायपोंडरीएणं । भावम्मि य समणेणं, अज्झयणे पोंडरीयम्मि ।। उवमा पोंडरीएण१०, तस्सेव य उवचएण निप्फत्ती" । अधिगारो पुण भणितो, जिणोवदेसेण सिद्धि त्ति'२ ॥ सुर-मण्य-तिरिय'3-निरओवंगे 'मणुया पभू१५ चरित्तस्स"। अवि य महाजण 'नेय त्ति'१७ चक्कवट्टिम्मि अधिगारो॥ अवि य ह भारियकम्मा'१८, नियमा उक्कस्सनिरयठितिगामी । ते वि हु जिणोवदेसा, तेणेव भवेण सिझंति ।। जलमाल-कद्दमालं, बहविहवल्लिगहण२१ च पुक्खरिणि२२ । जंघाहि व बाहाहि व, 'नावाहि वा दुरवगाह'२३ ।। १५९. १६०. १६१. १६२. १. भवट्ठीए कायट्ठीए (स)। १३. तिरिया (स)। २. चउरंसं (अ,ब,क,टी) । १४. निरओमेसु (अ,ब)। ३. एयाइं पोंडरीगाइं (टी)। १५. मण्या पहू (द), मणुयपत्तस्स (म) । ४. सेसाइं (क,टी)। १६. चरित्तम्मि (टी)। ५. चणि में यह गाथा संकेतित नहीं है, पर १७. णेग त्ति (अ,क)। व्याख्यात है। १८. दुस्साहियकम्मा (चू)। ६. ०इए उवसमिए (मु), ओदईय उव० (अ)। १९. उक्कसट्टिती ० (अ,द) । ७. व (स)। २०. ० देसेण (टी)। ८. तह (क)। २१. ०वेल्ली ० (स)। ९. वणस्सति० (क,टी,द) । २२. पुक्खरणि (द), रणी (स)। १०. य पुंडरीए (टी)। २३. नावाए वा दुरोगाहं (द,क), नावा दुरोगाहं ११. निज्जुत्ती (टी)। (अ,ब), नावाहि व तं दुरव ० (स)। १२. सिद्ध त्ति (द)। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४. सूत्रकृतांग नियुक्ति १६३. पउम उल्लंघेउ', ओयरमाणस्स होज्ज' वावत्ती। कि नत्थि 'से उवाओ'३, जेणुल्लंघेज्ज अविवन्नो' ।। विज्जा व देवकम्म, अहवा' आगासिया विकुब्वणता। पउमं उल्लंघे, 'न एस उवाओ जिणक्खाओ ।। १६५. सुद्धप्पयोगविज्जा, सिद्धा तु जिणस्स जाणणा विज्जा । भवियजणपोंडरीया, उ जाए सिद्धिगतिमुवेति ।। पोंडरीयस्स निज्जुत्ती समत्ता 'किरियाओ भणियाओ'१०, 'किरियाठाण ति११ तेण अज्झयणं । अधिगारो पुण भणितो, बंधे तह मोक्खमग्गे य२ ।। १६७. दव्वे किरिएजणया, पयोगुवाय करणिज्ज समुदाणे । इरियावह सम्मत्ते, सम्मामिच्छे य मिच्छत्ते ।। १६८ नाम ठवणा दविए, खेत्तद्धा उड्ढ उवरती वसही । संजम-पग्गह-जोहे", अचल गणण संधणा भावे'५ ।। समुदाणियाणिह तओ, सम्मपउत्ते य भावठाणम्मि । किरियाहिं पुरिसपावादिका" तु सव्वे परिक्खेज्जा'८ । किरियाए निज्जुत्ती समत्ता १७०. नामं ठवणा दविए, खेत्ते भावे य होति बोधवे । एसो खलु आहारे, निक्लेवो 'होइ पंचविहो । १. उल्लंघेत्तुं (स,द,टी)। १०. क्रिया का वर्णन आवश्यक नियुक्ति में किया २. होइ (टी)। __ जा चुका है। ३. उवाओ सो (अ)। ११. ०ठाण त्ति (अ,ब,द), ठाणं च (स)। ४. उववन्नो (स), १६३-६५ इन तीनों १२. गाथारूप में इसका निर्देश चुणि में नहीं गाथाओं का चणि में कोई उल्लेख नहीं है। मिलता, किन्तु संक्षिप्त व्याख्या प्राप्त है। किन्तु सभी हस्तप्रतियों और टीका में यह १३. ०मिच्छा (टी) । गाथा मिलती है । टीकाकार ने इन गाथाओं १४. जोए (स.अ)। के बारे में 'निर्यक्तिकृदृर्शयितमाह' ऐसा १५. आनि १८५।। उल्लेख किया है। १६. णाओ (अ,ब,स)। ५. अधव ण (स)। १७. ०पावाइए (क,टी)। ६. उल्लंघेत्तुं (टी), ०घेऊ (द)। १८. इस गाथा का निर्देश चणि में नहीं है। किन्तु ७. इणमो (स,द)। व्याख्या मिलती है। ८. विज्जाएं (अ,ब)। १९. पंचहा होइ (अ)। ९. सिद्धिगई उति (द)। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ १७१. १७२. १७३. १७४. १७५. १७६. १७७. १७८. १७९. १. तयाए ( स ) । (टी)। ४. ५. होंति ( क ) दव्वे सच्चित्तादी, भावाहारो तिविहो, सरीरेणोयाहारो, पक्खेवाहारो पुण २. ० माहारो ( स ) | ३. आहारगा अपज्जत्ता ( स ), अप्पजत्तगा० ( अ, ब, क, टी) । । १५ ओयाहारा जीवा, सव्वे पज्जत्तगा तुम लोमे, 'अपज्जत्तगा पक्खेवे होति * साणं एगिदिय" - 'देवाणं, नेरइयाणं च' नत्थि 'जीवाणं, संसारत्थाण एक्कं च दो व समए, तिन्नि" व" समए सादीयमनिणं १२ वा", कालमणाहारगा एक्कं च दो व समए, केवलिपरिवज्जिया मंथम्म दोणि लोए४ य पूरिए तिन्नि अंतो मुहुत्तमद्धं, सेलेसीए भवे सादीयमहिणं पुण १७, सिद्धाणाहारगा तेण कम्मएणं, आहारेती अनंतरं तेण परं मिस्सेणं", जाव सरीरस्स निष्पत्ती" । नामं ठवणपरिण्णा, दव्वे भावे य होति नायव्वा ॥ दव्वपरिण्णा तिविधा, भावपरिण्णा भवे दुविहा" । जीवो । आहारपरिणाए निज्जुत्ती समत्ता ६. नायव्वा (क, टी) । ७. एगिंदी ( द ) 5. नारगाणं देवाणं चेव (चू) । ९. पक्खेवो संसारत्थाण जीवाणं (द, स, टी) । १०. तिहि ( स ) । ११. च (टी) । खेत्ते नगरस्स जणवओ होइ । ओए लोमे य पक्खेवे ॥ तयाय' फासेण कालिको होति १२. सादिय ० ( स ) | १३. पुण (टी) । १४. लोक (स) । निर्युक्त पंचक लोमआहारो | नायव्वो । १८ १५. ० मद्धा (स) । १६. सादिगम ० ( स ) । मुणेयव्वा'" । भइतव्वा ॥ मुहुत्तमद्धं वा । जीवा ॥ पक्खेवो । पक्खेवो'' ॥ अाहारा । समया तु ।। अणाहारा । होति ॥ १७. तु (स) । १८. सिद्धा यहा ० (टी), सिद्धमणा ० ( स ) । १९. जोएण (टी) । २०. मीसेणं (टी) । २१. पज्जत्ती (द, चू) । २२. चूर्णि में संक्षिप्त व्याख्या होने पर भी गाया का संकेत नहीं मिलता । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग निर्युक्ति १८०. १८१. १५२. १८३. १८४. १८५. १८६. १८७. १८८. नामं ठवणा दविए, अदिच्छ' एसो पच्चक्खाणस्स, छव्विहो होति पच्चक्खाणे इहं अधोगारो । 'अपचचक्खाण किरिया उ ॥ पच्चक्खाण किरियाए निज्जुत्ती समत्ता मूलगुणेय पयं होज्जहु तप्पच्चइया', दवे नामं ठवणायारे, एमेव य 'सुत्तस्स वि, 'नामद्दं ठवणद्दं', 5 दव्वद्दं एसो खलु 'अद्दस्स उ', 'आयार - सुतं भणियं ५, अबहुसुयस्स 'हु होज्जा' ६, विराहणा उदगद्दं सार, एतं दव्वद्दं खलु, पहिए य भावे य होति नायव्वो । चउव्विहो होति निक्खेवो ४ ॥ वज्जेयव्वा सया एतस्स उ पडिसेधो, इहमज्यणम्मि होति तो अणगारसुतं ति य, 'होइ नामं १. अदित्थ ( द ) | २. ० इयं (च) | ३. अपच्चक्खाणस्स • किरिया ( स ) | ४. सुत्तस्सा निक्खेवो चउविहो होति (टी) । ५. आचार के वर्णन हेतु देखें दशनि १५४-६१ तथा श्रुत के वर्णन हेतु देखें उनि० २९ । ६. हु होज्ज (टी), होज्जा हु ( क ) । ७. नामतो होइ अज्झयणं ( स ) । ८. नामं ठवणाअद्दं ( अ, द, टी) । छवियद्द 'भावेण अद्दपुरे अद्दसुतो", नामेण तत्तो समुट्ठियमिणं, अज्झयणं एत्थ नायव्वो । तु एतस्स'" ।। आयारसुस्त निज्जुत्ती समत्ता चेव होति चउव्विहो होति भावे य ! निक्खेवो ॥ वसद्द 'तहा उ" होति " 1७ अद्दगो" त्ति 'अद्दइज्जं एगभविय बद्धाउगे य अभिमुहए" य नामगोत्ते" य । दव्वद्दे एते तिन्नि पगारा, १५ होंति नायव्वा || अणायारा । जतितव्वं ॥ भावद्दं । निक्खेवो ॥ सिलेसद्दं" । रागद्दं ॥ अणगारो । ति" ।। किरियाओ ( द क ), ११. भावेणं (टी), भावेण य ( अ, ब, स ) । ९. अहस्सा (अ) द ), अम्मिय ( स ) । १०. खलु तहा सिले ० ( द ), खलु वसा सिले ० ( स ) | १२ होंति ( अ, ब ) । १३. मुहिय ( क ) । १४. ० गोए ( अ, क, टी) । १५. विदेसा (अ.स) क) । १६. असुया ( क ) । १७. अओ (टी), अद्दय ( अ ) । १८. ०ज्जत्ति ( ब ) । ३५३ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ १८९. १९०. १९१. १९२. १९३. १९४. १९५. १९६. १९७. १९८. पत्थवे (स) कामं दुवालसंगं, जिणवयणं सासतं महाभागं । सव्वज्झयणाणि' तहा, सव्वक्खरसन्निवाया यः ।। 1 तह विय कोई अत्थो, उप्पज्जति तम्मि तम्मि समयम्मि | 'पुब्वभणितो अणुमतो " य, होति इसिभासितेसु जहा ।। अज्जद्द एण गोसाल- भिक्ख-बंभवती* तिदंडीणं । जह हत्थितावसाणं, कहियं इणमो तहा वोच्छं || गामे बसंतपुरए, सामइओ' धरिणिसहितो भिक्खायरिया दिट्ठा, ओभासिय संवेगसमावन्नो, माई भत्तं चइत्तु चइऊणं अद्दपुरे, अद्दसुओ पीती य दोन्ह दूओ, पुच्छण अभयस्स पट्टवे" सो वि । 'तेण व' सम्मद्दिट्टित्ति, होज्ज पडिमा 'रहम्मि गता'' || दट्ठे संबुद्ध रक्खओ य आसाण पव्वइयंतो " धरितो, रज्जं न करेति को १. ० यणाई (ब, टी) । २. उ ( अ, ब ) १८९-२०० तक की गाथाओं का संकेत चूर्णि में नहीं मिलता, किन्तु कथानक के रूप में भावार्थ प्राप्त है । ३. भणिओऽणुमओ (अ), भणिओ तु तहाणुमओ (सब) । ४. ० वाति ( अ, द ) | ५. सामंतिओ ( अ ) । ६. (स) । ७. अगणेंतो निक्खतो, विहरति पडिमा 'दारिगा सुवरणवसुधाराओ, " रणो कणंच १२ निर्युक्तिपंचक तं नेति पिता तीसे, पुच्छण कहणं न वरण जाणाहि पादबिंब, आगमण १३ कहण पडमागतस्समीवे, सपरीवारा ̈ अभिक्ख 'भोगा सुताण पुच्छण, ६ सुतबंध पुणो १७ य १६ निक्खतो । भत्तवेहासं ॥ वाहण पलातो । अन्नो ? ।। दिलोए । जातो ॥ वरिओ" । देवी य ॥ दोवारे | निग्गमणं ॥ तेणावि (टी) । रहस्सगतं ( अ, ब, स, क) । १५ पडिवयणं ५ । निगमणं ॥ ८ ९. १०. पव्वावतो (टी) । ११ दारिगपतिओ ( अ, क ), दारिग वरिओ (ब, द) : १२. सुवण्णवसुहाराओ (टी) । १३. आगमण ( स ) । १४. सपरि ० ( स द क ), सप्परी० (टी) । १५. परिव ० ( स ) | १६. पुच्छं ( ब ) । १७. गोमुत्ते पुच्छण सुरूवं व पुच्छे ( स ) । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ सूत्रकृतांग निर्यक्ति १९९. २००. २०१. २०२. २०३. रायगिहागम' चोरा, रायभया कहण तेसि दिक्खा य । 'गोसाल-भिक्खु-बंभी-तिदंडिया तावसेहि सह वादो'२ ॥ वादे पराजियाए, सव्वे वि य सरणमब्भुवगता ते । अद्दगसहिया सव्वे, जिणवीरसगासे निक्खंता । न दुक्करं वा नरपासमोयणं,५ गयस्स मत्तस्स वणम्मि रायं । जहा 'उ वत्तावलिएण' तंतुणा, 'सुदुक्कर मे'", पडिभाति मोयणं ।। अद्दइज्जस्स निज्जुती समत्ता नामअलं ठवणअलं, दव्वअलं चेव होति भावअलं । एसो अलसद्दम्मि उ, चउविहो होइ निक्खेवो ।। पज्जत्तीभावे खलु, पढमो बितिओ भवे अलंकारे । ततिओ वि यः पडिसेहे, अलसद्दो होइ नायव्वो ।। पडिसेहेणऽगारस्सा, इत्थिसद्देण चेव• अलसद्दो। रायगिहे' 'नगरम्मि य',१२ नालंदा होति बाहिरिया ॥ नालंदाय समोवे, मणोरहे'3 'भासितिदभूतिणा उ१४ । अज्झयणं उदगस्स उ१५, तेणं नालंदइज्ज ति" ।। नालंदइज्जस्स निज्जुत्ती समत्ता पासावच्चिज्जो पुच्छिताइओ अज्जगोतम उदगो। सावगपुच्छा धम्म, सोतुं८ कहियम्मि उवसंता ॥ सूयगडस्स निज्जुत्ती समत्ता २०४. २०५. २०६. १. गमण (अ)। १०. च (स)। २. हत्थी य तेसि कहणं, जिणवीरसगास निक्ख- ११. ०गिहं (द) । मणं (अ,ब,द,क)। १२. णगरम्मी (टी,स)। ३. पराइइत्ता (टी), पराईयावे (अ),०इयाते(क)। १३. मणोहरे (द,क)। ४. य (स), उ (ब)। १४. भासियंदभूतीणं (अ,ब,क), भासिइंदभूइणा ५. रणपास (अ,ब,स)। उ (टी)। य वत्ता चलिएण (स)। १५. य (स)। ७. तं दुक्कर ज (द)। १६. एयं (टी,स)। ८. ०सद्दम्मी (स), सहस्सा (अ,ब,क)। १७. तु (ब)। ९. उ (टी)। १८. सोऊ (अ)। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकतांग नियुक्ति हिन्दी अनुवाद Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. तीर्थकर, अर्हत्, सूत्रकार तथा गणधरों को नमस्कार कर मैं सूत्रकृतांग की नियुक्ति का प्रतिपादन करूंगा । २. 'सूत्रकृत' यह अंगों में दूसरा अंग है। उसके ये गुणनिध्पन्न नाम हैं-सूतकृत, सूत्रकृत, सूचाकृत । ३. द्रव्यसूत्र है कार्पास से उत्पन्न सूत । भावसूत्र है-सूचक ज्ञान अर्थात् श्रुतज्ञान । श्रुतज्ञानसूत्र चार प्रकार का है-संज्ञासूत्र, संग्रहसूत्र, वृत्तनिवद्ध तथा जातिनिबद्ध । जातिनिबद्ध के चार प्रकार हैं- कथ्य, गद्य, पद्य तथा गेय आदि ।' ४. करण, कारक और कृत- इन तीनों के छह-छह निक्षेप हैं । कारक शब्द के छह निक्षेप हैं-- नामकारक, स्थापनाकारक, द्रव्यकारक, क्षेत्रकारक, कालकारक और भावकारक । भावकारक जीव है । । ५. द्रव्यकरण के दो प्रकार हैं- प्रयोगकरण तथा विसाकरण प्रयोगकरण दो प्रकार का है-मूलकरण तथा उत्तरकरण जिस उपस्कर सहकारी सामग्री से पदार्थ की अभिव्यक्ति होती है, वह उत्तरकरण है, (जैसे- दंड, चक्र आदि से घट की अभिव्यक्ति होती है) कर्त्ता का जो उपकारक है, वह सारा उपस्कर है । ६. औदारिक आदि पांच शरीर मूलकरण हैं औदारिक, वैक्रिय तथा आहारक इन तीन शरीरों के कर्ण, स्कंध आदि अंगोपांग की निष्पत्ति उत्तरकरण है । औदारिक शरीर की द्रव्येन्द्रियां मूलकरण है । विष, औषधि आदि से उनमें पटुता आदि का निष्पादन करना उत्तरकरण है । ७. अजीवाश्रितकरण के चार प्रकार हैं संघातकरण वस्त्र में ताने-बाने के रूप में तन्तुओं का संघात । परिशाटकरण -- करपत्र आदि से शंख का निष्पादन | मिश्रकरण (संघातपरिशाटकरण ) -- शकट' आदि । तदुभयनिषेधकरण-स्थूणा खंभे को ऊंचा तिरछा निष्पादित करना । ८. प्रदेशी आदि स्कन्धों में तथा अन विद्युत् आदि कार्यों में परिणत पुद्गल इभ्य विसाकरण है । ९ आकाश के बिना (उत्क्षेप, अवक्षेप आदि) कुछ भी नहीं किया जा सकता । अतः क्षेत्र आकाश है। यही क्षेत्रकरण है। व्यंजनपर्याय की अपेक्षा से क्षेत्र के इक्षुक्षेत्रकरण, शालिक्षेत्रकरण आदि अनेक भेद होते हैं। १. कथ्य -- उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्म कथा, ऋषिभाषित आदि । गद्य आचारांग आदि । पद्म-छन्दो निबद्ध । गेय- स्वर - संचार से गाया जाने वाला । जैसे—उत्तराध्ययन का आठवां कापिलीय अध्ययन | २. पुरुष की प्रवृत्ति से निष्पन्न । ३. शकट में कीलिका आदि की संघातना तथा लकड़ी को छीलने की परिशाटना होती है । ४. हल आदि से क्षेत्र को संस्कारित करना क्षेत्रकरण है। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० नियुक्तिपचक १०-१३. (काल का कोई मुख्य करण नहीं होता। उसका औपचारिक करण होता है) जिस क्रिया के लिए जितना काल अपेक्षित होता है, वह उसका कालकरण है। अथवा जिस-जिस काल में जो करण निष्पन्न होता है, वह उसका कालकरण है। यह कालकरण का सामान्य उल्लेख है। नाम आदि के आधार पर कालकरण ग्यारह प्रकार का है----- १. बव ५. गर ९. चतुष्पाद २ बालव ६. वणिज १०. नाग ३. कौलव ७. विष्टि ११. किस्तुघ्न ४. तेत्तिल ८. शकूनि इनमें प्रथम सात अध्रुव अर्थात् चल तथा शेष चार ध्रुव हैं । कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के उत्तरखंड में सदा 'शकूनिकरण' होता है। अमावस्या के प्रथम अर्धभाग में 'चतुष्पादकरण' और दसरे अर्धभाग में 'नागकरण' होता है । शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के प्रथम अर्धभाग में "किस्तुघ्नकरण' होता है । ये चार करण इन तिथियों के साथ निश्चित रहते हैं, इसलिए ये ध्रुवकरण हैं । 'विष्टिकरण' सदा वर्जनीय है। १४. भावकरण दो प्रकार का है-प्रयोगभावक रण तथा विस्रसाभावकरण । प्रयोगभावकरण दो प्रकार का है--मूलकरण तथा उत्तरकरण । उत्तरकरण के चार भेद हैं--क्रमकरण-शरीर की निष्पत्ति के पश्चात् होने वाली बाल्य, यौवन आदि अवस्थाएं। श्रुतकरण---आगे से आगे श्रुत का परिज्ञान । यौवनकरण-कालकृत अवस्था विशेष । वर्णगंधरसस्पर्शकरण---भोजन आदि में विशिष्ट वर्ण, रस, गन्ध आदि का निष्पादन करना वर्णकरण है। १५. जो वर्ण, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि दूसरे वर्णादिकों से मिलते हैं-वह विस्रसाकरण है। ये स्थिर भी होते हैं--असंख्येय काल तक रहते हैं तथा अस्थिर भी होते हैं---जैसे संध्या की लालिमा, इन्द्रधनुष आदि । छाया, आतप, दूध आदि पुद्गलों के विस्रसापरिणाम से होने वाला परिणाम विस्रसा भावकरण है। स्तन से निकलने के पश्चात् दूध प्रतिक्षण गाढा और अम्ल होता जाता है । यह दूध आदि का विस्रसा भावकरण है। १६. श्रुत का मूलकरण है--त्रिविध योग तथा शुभ-अशुभ ध्यान । प्रस्तुत में शुभ अध्यवसाय से प्रकृत स्वसिद्धान्त से युक्त यह ग्रन्थ सूत्रकृत प्रासंगिक है। १७. (सूत्रकृतांग के रचनाकार की कार्मिक अवस्था-विशेष का निरूपण) इस सूत्र की रचना गणधरों ने की है। उनके कर्मों की स्थिति न जघन्य थी और न उत्कृष्ट । कर्मों का अनुभाव-विपाक मंद था । बन्धन की अपेक्षा से कर्मों की प्रकृतियों का मंदानुभाव से बंध करते हए, निकाचित तथा निधत्ति अवस्था को न करते हुए, दीर्घ स्थिति वाली कर्मप्रकृतियो को अल्प स्थिति वाली करते हए. बंधने वाली उत्तर प्रकृतियों का संक्रमण करते हुए, उदय में आने वाले कर्मों की उदीरणा करते हुए तथा आयुष्य कर्म की अनुदीरणा करते हुए, मनुष्य गति, पंचेन्द्रिय जाति आदि कमों की उदयावस्था में वर्तमान, पुवेद का अनुभव करते हुए तथा क्षायोपशमिक भाव में वर्तमान गणधरों ने इस सत्र की रचना की। तक दो करण पूर्ण हो जाते हैं । १. तिथि का आधा कालमान 'करण' कहलाता है। तिथि के आरम्भ से तिथि की समाप्ति Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताग नियुक्ति ३६१ १८. तीर्थंकरों के मत -मातृकापद को गणधरों ने क्षयोपशम तथा शुभ अध्यवसायों सुनकर से इस सूत्र की रचना की । इसलिए यह सूत्रकृत कहलाया । १९. तीर्थंकरों ने अपने वाग्योग से अर्थ की अभिव्यक्ति की । अनेक योगों (लब्धियों) के धारक गणधरों ने अपने वचनयोग से जीव के स्वाभाविक गुण अर्थात् प्राकृतभाषा में उसको निरूपित किया । " २०. अक्षरगुण से मतिज्ञान की संघटना तथा कर्मों का परिशाटन -- इन दोनों के योग से सूत्र की रचना हुई, इसलिए यह 'सूत्रकृत' है ।' २१. सूत्र में कुछ अर्थ साक्षात् सूत्रित (पिरोए हुए) हैं, कुछ अर्थ अर्थापत्ति से सूचित हैं । वे सभी अर्थ युक्ति युक्त हैं । आगमों में अनेक प्रकार से प्रयुक्त वे अर्थ प्रसिद्ध, स्वतः सिद्ध और अनादि हैं । २२. सूत्रकृतांग आगम के दो श्रुतस्कन्ध तथा तेवीस अध्ययन हैं ( १६+७) । उसके तेत्तीस उद्देशन काल हैं । इसका पद-परिमाण आचारांग से दुगुना है । २३. (पहले श्रुतस्कंध का एक नाम है-गाथा षोडशक 1 ) 'गाथा' के चार निक्षेप हैंनाम, स्थापना, द्रव्य और भाव तथा ' षोडशक' शब्द के छह निक्षेप हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । 'श्रुत' तथा 'स्कन्ध' के चार-चार निक्षेप हैं । २४-२८. प्रथम श्रुतस्कंध के सोलह अध्ययनों का अर्थाधिकार (विषय) इस प्रकार है- १. स्वसमय तथा परसमय का निरूपण । २. स्वसमय का बोध । ३. संबुद्ध व्यक्ति का उपसर्ग में सहिष्णु होना । ४. स्त्री-दोषों का विवर्जन । ५. उपसर्ग भीरू तथा स्त्री के वशवर्ती व्यक्ति का नरक में उपपात । ६. जैसे महात्मा महावीर ने कर्म और संसार का पराभव कर विजय प्राप्त करने के उपाय कहे हैं, वैसा प्रयत्न करना । ७. जो मुनि निःशील तथा कुशील को छोड़कर सुशील और संविग्नों की सेवा करता है, वह शीलवान् होता है । १. स्वाभाविकेन गुणेन स्वस्मिन् भावे भवः स्वाभाविक: प्राकृत इत्यर्थः, प्राकृतभाषयेत्युक्तं भवति । ( सूटी पृ. ५) २. अथवा वाग्योग तथा मनोयोग से यह सूत्र कृत है, इसलिए सूत्रकृत है । अथवा यह द्रव्यश्रुत से भावश्रुत का प्रकाशन है । जैसे-जैसे गणधर सूत्र करने का उद्यम करते हैं, वैसे-वैसे कर्म - निर्जरा होती है । जैसे-जैसे कर्म निर्जरा होती है, वैसे-वैसे सूत्र - रचना का उद्यम होना है । (सूटी पृ. ५) ३. प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययनों के २६ उद्देशक इस प्रकार हैं- पहले अध्ययन के ४, दूसरे अध्ययन के ३, तीसरे अध्ययन के ४, चौथे और पांचवें अध्ययन के दो-दो तथा शेष ग्यारह अध्ययनों के एक-एक उद्देशक हैं । द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सात अध्ययनों के सात उद्देशक हैं । ४. आचारांग से दुगुना परिमाण अर्थात् छत्तीस हजार पद-परिमाण । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ नियुक्तिपचक ८. दो प्रकार के वीर्य (बालवीर्य और पंडितवीर्य) को जानकर पंडितवीर्य में प्रयत्न करना चाहिए। ९. यथावस्थित धर्म का कथन । १०. समाधि का प्रतिपादन । ११. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक मोक्षमार्ग का निरूपण । १२. चार वादों-क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद तथा वैनयिकवाद--में समवसत तत्त्वों का निराकरण । १३. सर्ववादियों के कुमार्ग के निरूपण का प्रतिपादन । १४. ग्रन्थ नामक अध्ययन में शिष्यों के गुणों तथा दोषों का कथन तथा नित्य गुरुकूलवास में रहने का उपदेश । १५. 'आदानीय' अध्ययन में पूर्व उपन्यस्त आदानीय पद का संकलन तथा सम्यक चारित्र का वर्णन। १६. पूर्वोक्त अध्ययनों में अभिहित सभी अर्थों का संक्षिप्त कथन । प्रथम अध्ययन : समय २९-३१. पहले अध्ययन के चार उद्देशक हैं। पहले उद्देशक के छह अर्थाधिकार हैं--१. पंच महाभूतों का वर्णन, २. एकात्मवाद (आत्मा-अद्वैतवाद), ३. तज्जीव-तच्छरीरवाद, ४. अकारकवाद, ५. आत्मषष्ठवाद, ६. अफलवाद । दूसरे उद्देशक के चार अर्थाधिकार हैं---१. नियतिवाद, २. अज्ञानवाद, ३. ज्ञानवाद, ४. भिक्षसमय अर्थात् शाक्य आगम में चारों प्रकार के कर्मों का उपचय नहीं होता, इसका प्रतिपादन। तीसरे उददेशक में दो अर्थाधिकार हैं--१. आधाकर्म तथा २. कृतवादियों के वाद का प्रतिपादन । चौथे उददेशक का अर्थाधिकार है--अविरत अर्थात् गृहस्थों के कृत्यों से परतीथिकों को उपमित करना। ३२. 'समय' शब्द के बारह निक्षेप हैं :-- १. नाम समय ५. काल समय ९. गण समय २. स्थापना समय ६. कुतीर्थ समय १०, संकर समय ३. द्रव्य समय ७. संगार समय ११. गंडी समय ४. क्षेत्र समय ८. कुल समय १२. भाव समय ३३. पृथ्वी आदि पांचों भूत अलग-अलग गुण वाले हैं। उनके संयोग से चेतना, भाषा, चंक्रमण आदि गुण उत्पन्न नहीं होते । पांच इन्द्रियों के पांच स्थान अथवा पांच उपादान कारण भी अचेतन हैं। उनके समुदाय से चैतन्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इन्द्रियां प्रत्येक भूतात्मक हैं। एक का जाना हुआ दूसरी नहीं जान सकती। (इनमें संकलनात्मक प्रत्यय नहीं होता ।) १. स्थानानि-अवकाशाः । स्थानानि-उपादान कारणानि। (सूटी पृ ११) इन्द्रियों के स्थान-उपादानकारण इस प्रकार हैं---श्रोत्रेन्द्रिय का आकाश, घ्राणेन्द्रिय का पृथ्वी, चक्षुइन्द्रिय का तेजस्, रसनेन्द्रिय का पानी, स्पर्शनेन्द्रिय का वायु । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताग नियुक्ति ३६३ ३४. अकृत का वेदन कौन करता है ? (यदि अकृत का वेदन हो तो) कृतनाश की बाधा आएगी। पांच प्रकार की गति--नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव तथा मोक्ष--भी नहीं होगी। देव या मनुष्य आदि में गति-आगति भी नहीं होगी। जातिस्मरण आदि क्रिया का भी अभाव होगा। ३. अफलत्व, स्तोकफलत्व तथा अनिश्चितकालफलत्व---ये अद्रम (वृक्ष का अभाव) के साधक हेतु नहीं हैं। अदुग्ध या स्तोकदुग्ध भी गोत्व का अभाव साधने वाले हेतु नहीं हैं। (इसी प्रकार सुप्त, मूच्छित आदि अवस्था में कथंचित् निष्क्रिय होने पर भी आत्मा को अक्रिय नहीं कहा जा सकता)। दूसरा अध्ययन : वैतालोय ३६,३७. दूसरे अध्ययन के तीन उद्देशकों का अर्थाधिकार इस प्रकार है--प्रथम उद्देशक में संबोधि तथा अनित्यत्व का कथन है। दूसरे उद्देशक में मान-वर्जन तथा अनेक प्रकार के अन्यान्य बहुविध विषय हैं। तीसरे उद्देशक में अज्ञान से उपचित कर्मों के अपचय का तथा यतिजनों के लिए सदा सुखप्रमाद के वर्जन का प्रतिपादन है। ३८. प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'विदारक' है। (यह क्रियापदवाचक नाम है। क्रियापद के सर्वत्र तीन घटक होते हैं--कर्ता, करण और कर्म)। इसके आधार पर विदारक, विदारण और विदारणीय-ये तीन घटक बनते हैं। इन तीनों के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-ये चार-चार निक्षेप हैं। द्रव्यविदारक वह है, जो काष्ठ आदि का विदारण करता है। भावविदारक है वह जीव, जो कर्मों का विदारण करता है। ३९. द्रव्य विदारण है---परशु आदि । भाव विदारण है--दर्शन, ज्ञान, तप और संयम (क्योंकि इनमें ही कर्म-विदारण का सामर्थ्य है।) द्रव्य विदारणीय है--काठ आदि तथा भाव विदारणीय है--आठ प्रकार का कम । ४०. प्रस्तुत अध्ययन में कर्मों के विदारण का निरूपण है, इसलिए इसका नाम 'विदारक' है। यह बैतालीय छन्द में निबद्ध है, इसलिए इसका अपर नाम वैतालीय है। ४१. यह अभ्युपगम है कि सारे आगम शाश्वत हैं और उनके अध्ययन भी शाश्वत हैं। फिर भी ऋषभदेव ने अष्टापद पर्वत पर अपने अदानवें पुत्रों को संबोधित कर इस अध्ययन का प्रतिपादन किया। इसको सुनकर वे सभी पुत्र भगवान के पास प्रवजित हो गए। ४२. द्रव्यनिद्रा है-निद्रावेद--निद्रा का अनुभव । भावनिद्रा है---ज्ञान, दर्शन, चारित्र की शून्यता । द्रव्यबोध है---द्रव्यनिद्रा में सोए व्यक्ति को जगाना। भावबोध है-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा संयम का भावबोध । प्रस्तुत में बोध-ज्ञान, दर्शन, तप तथा चारित्र का प्रसंग है । १. भगवान् ऋषभ अष्टापद पर्वत पर अवस्थित के प्रतिपादक प्रस्तुत अध्ययन को सुनाया । थे। चक्रवर्ती भरत द्वारा उपहत अद्रानवें पुत्र तब विषयों के कटविपाक तथा ऋषभ के पास आए और भगवान् से बोले-- नि:सारता को जान, मत्त हाथी के कर्ण की भंते ! भरत हमें आज्ञा मानने के लिए बाध्य भांति चपल आयु तथा गिरिनदी के वेग की कर रहा है। हमें अब क्या करना चाहिए ? तरह यौवन को जान, भगवद् आज्ञा ही भगवान् ने अंगारदाहक के दृष्टान्त के माध्यम श्रेयस्करी है, ऐसी अवधारणा कर वे सभी से बताया कि भोगेच्छा कभी शांत नहीं होती। पुत्र भगवान् के पास दीक्षित हो गए। वह आगे से आगे बढ़ती जाती है । इस अर्थ (सूटी. पृ. ३६) Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति चक ४३. महर्षियों ने अपने आत्म-उन्नयन के लिए जप, तप, संयम और ज्ञान में होने वाले मान को भी त्याग दिया है, तो भला आत्मोत्कर्ष हेतु दूसरों की निन्दा के त्याग की तो बात ही क्या है ? ४४. आठ मदों का मथन करने वाले अहतों ने निर्जरामद का भी प्रतिषेध किया है, इसलिए अवशिष्ट सभी मदस्थानों का प्रयत्नपूर्वक परिहार करना चाहिए। तीसरा अध्ययन : उपसर्ग-परिज्ञा ४५,४६. इस अध्ययन के चार उद्देशक हैं। पहले उद्देशक में प्रतिलोम तथा दूसरे उद्देशक में अनुलोम उपसर्ग प्रतिपादित हैं। तीसरे उद्देशक में अध्यात्म का विशेष उपदर्शन तथा परवादिवचनों का निरूपण है। चौथे उद्देशक में हेतु सदृश अहेतुओं के द्वारा जो अन्यतीथिकों से व्युद्ग्राहितप्रताड़ित हैं, उन शील-स्खलित व्यक्तियों की प्रज्ञापना है।। ४७. उपसर्ग शब्द के नाम, स्थापना आदि छह निक्षेप हैं। द्रव्य उपसर्ग के दो प्रकार हैं --चेतनकृत तथा अचेतनकृत। जो आगन्तुक उपसर्ग हैं, वह (शरीर तथा संयम का) पीड़ाकारी होता है। ४८. जिस क्षेत्र में सामान्यतः अनेक भयस्थान होते हैं, (जैसे---चोर, क्रूर व्याधि तथा लाढ आदि देश के क्षेत्र), वह क्षेत्र उपसर्ग है। काल उपसर्ग एकान्त दुष्षमाकाल आदि ।' कर्मों का उदय भाव उपसर्ग है। वह दो प्रकार का है-औधिक तथा औपक्रमिक । ४९. औपक्रमिक उपसर्ग संयम-विघातकारी होता है । द्रव्य औपक्रमिक उपसर्ग चार प्रकार का है-दैविक, मानुषिक, तैर्यश्चिक तथा आत्मसंवेदन । प्रस्तुत में औपक्रमिक उपसर्ग का प्रसंग है। ५० प्रत्येक के चार-चार प्रकार हैं।' दैविक आदि चार प्रकार के अनुकल तथा प्रतिकूल के भेद से आठ भेद होते हैं। दैविक आदि चार भेदों के चार-चार प्रकार करने से ४४४ सोलह भेद होते हैं । इन उपसर्गों का संबंध होनो तथा उनको सहने के प्रति यतना रखना--यह इस अध्ययन में प्रतिपादित है। यही इसका अर्थाधिकार है। ५१. कोई पुरुष मंडलाग्र से किसी मनुष्य का शिरच्छेद कर पराङ मुख होकर बैठ जाए तो क्या वह अपराधी के रूप में नहीं पकड़ा जाएगा? ५२. कोई व्यक्ति विष का घंट पीकर चुपचाप बैठ जाए और वह किसी के दग्गोचर भी न हो तो क्या वह उस विष के प्रभाव से नहीं मरेगा? ५३. कोई व्यक्ति भांडागार से रत्नों को चुराकर उदासीन होकर बैठ जाए तो क्या वह अपराधी के रूप में नहीं पकड़ा जाएगा? १. आदि शब्द से जो जिस क्षेत्र में दुःखोत्पादक प्रद्वेष से, विमर्श से तथा कुशील प्रतिसेवना हो (ग्रीष्म, शीत आदि)। से । तैर्यश्चिक-भय से, प्रद्वेष से, आहार से २. औधिक-अशुभ कर्म प्रकृति से उत्पन्न तथा संतान-संरक्षण से। आत्मसंवेदन भावोपसर्ग । औपक्रमिक-दण्ड, शस्त्र आदि घटना से, संश्लेष से, स्तंभन से तथा गिरने द्वारा असातवेदनीय का उदय होना। से । अथवा वात, पित्त, कफ तथा सन्निपात ३. दैविक-हास्य से, प्रद्वेष से, विमर्श से तथा से उत्पन्न । (सूटी पृ. ५२) पृथग विमात्रा से। मानुषिक-हास्य से, Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग निर्युक्ति चौथा अध्ययन : स्त्री-परिज्ञा ५४. चौथे अध्ययन के दो उद्देशक हैं। पहले उद्देशक का प्रतिपाद्य है-- स्त्रियों के साथ संस्तव तथा संलाप करने से शील की स्खलना होती है। दूसरे उद्देशक में स्खलित व्यक्ति की इसी जन्म में होने वाली अवस्था तथा कर्मबंधन का प्रतिपादन है । ५५. स्त्री शब्द के ये पांच निक्षेप हैं (१) द्रव्यस्त्री 1 (२) अभिलापस्त्री - स्त्रीलिंगी शब्द, जैसे- - सिद्धि, शाला, माला आदि । (३) चिह्नस्त्री --- चिह्नमात्र से जो स्त्री होती हैं । चिह्न हैं- स्तन, वेश आदि । अथवा जो स्त्रीवेद से शून्य हो गया है वैसा छद्मस्थ, केवली अथवा अन्य कोई स्त्री वेशधारी व्यक्ति । (४) वेदस्त्री -- पुरुषाभिलाष रूप स्त्रीवेदोदय । (५) भावस्त्री - स्त्रीवेद का अनुभव करने वाली । ५६. पुरुष शब्द के दस निक्षेप हैं (१) नामपुरुष - नाम का अर्थ है -- संज्ञा । जो पदार्थ पुल्लिंग - घट, पट आदि । अथवा जिसका नाम पुरुष हो । (२) स्थापनापुरुष -- प्रतिमा आदि । (३) द्रव्यपुरुष । (४) क्षेत्रपुरुष - तद्तद् क्षेत्र में होने वाला पुरुष- सोराष्ट्रिक आदि । (५) कालपुरुष -- जितने काल तक पुरुष वेद वेद्य कर्मों का वेदन करता है । (६) प्रजननपुरुष - प्रजनन का अर्थ है -- शिश्न -- लिंग । लिंग प्रधान पुरुष । (७) कर्मपुरुष - कर्मकर आदि । ३६५ (८) भोगपुरुष -- चक्रवर्ती आदि । (९) गुणपुरुष - पराक्रम, धैर्य आदि गुणयुक्त पुरुष । (१०) भावपुरुष -- पुंवेद के उदय का अनुभव करने वाला । ५७. अभयकुमार, प्रद्योत, कूलबाल आदि अनेक पुरुष अपने आपको शूर मानते थे । वे भी कृत्रिम प्रेम दिखाने में समर्थ तथा मायाप्रधान स्त्रियों के वशीभूत हो गए ।' ५८. स्त्री- संसर्ग से होने वाले दोषों का जो वर्णन प्रथम उद्देशक में है, दूसरे उद्देशक में भी उनकी पर्यालोचना कर स्त्रियों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए इसका प्रतिपादन है । ५९. सुसमर्थ व्यक्ति भी स्त्रियों के वशीभूत होकर असमर्थ और अल्पसत्त्व वाले हो जाते हैं। यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि अपने आपको शूर मानने वाले पुरुष नारी के वशीभूत होने पर शूर नहीं रहते । १. देखें परि. ६ कथा सं. १ ३ । अभयकुमार स्वयं को बहुत बुद्धिमान् मानता था । चंडप्रद्योत को अपने पराक्रम पर गर्व था और कूलवाल को तपस्वी होने का अहं था । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ निर्युक्तिपंचक ६०. धर्म में जो दृढमति वाला होता है, वही शूर है, सात्त्विक है और वीर है । धर्म के प्रति निरुत्साही व्यक्ति अत्यधिक शक्तिशाली होने पर भी शूर नहीं होता । ६१. स्त्री-संसर्ग से होने वाले जो दोष पुरुषों के से स्त्रियों के लिए कथित हैं। इसलिए विरागमार्ग में प्रवृत्त है । पांचवां अध्ययन : नरक-विभक्ति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । ६२, ६३ नरक शब्द के छह निक्षेप हैं--नाम, स्थापना, द्रव्यनरक -- जो इसी जन्म में पापकारी प्रवृत्तियों में संलग्न हैं, वे / अथवा नरक सदृश यातना के स्थान । क्षेत्रनरक -काल, महाकाल आदि नरकावास | कालनरक - नारकों की काल स्थिति । भावनरक-- जो जीव नरकायुष्क का अनुभव करते हैं अथवा नरक प्रायोग्य कर्मोदय । नरक के दुःखों को सुनकर तपश्चरण- संयमानुष्ठान में प्रयत्नशील रहना चाहिए । ६४. विभक्ति शब्द के छह निक्षेप हैं--नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । लिए कहे गए हैं, वे ही दोष पुरुष-संसर्ग स्त्रियों के लिए अप्रमाद ही श्रेयस्कर ६५. नारकीय प्राणी नरकावासों में तीव्र वेदना को उत्पन्न करने वाले पृथ्वी के स्पर्श का अनुभव करते हैं । वह वेदना दूसरों के द्वारा अचिकित्स्य होती है । पहले तीन नरकवासों में अत्राण नैरयिक परमाधार्मिक देवों द्वारा कृत वध - हनन का अनुभव करते हैं। शेष चार नरकावासों में नैरयिक क्षेत्र - विपाकी और परस्पर उदीरित वेदना का अनुभव करते हैं । ६६,६७. पन्द्रह परमाधार्मिक' देवों के नाम इस प्रकार हैं--- (१) अंब (६) उपरौद्र (२) अम्बरिसी (७) काल (८) महाकाल (९) असि (१०) असिपत्रधनु (३) श्याम (४) शबल (५) रौद्र ६८. अंब परमधार्मिक देव नैरयिकों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर दौड़ाते हैं, इधरउधर घुमाते हैं, उनका हनन करते हैं, शूलों में पिरोते हैं, गला पकड़कर भूमि पर ओंधे मुंह पटकते हैं, आकाश में उछालकर नीचे गिराते हैं । ६९. मुद्गरों से आहत, खड्ग आदि से उपहत तथा मूच्छित नारकियों को अंबरिषी परमाधार्मिक देव करवत से चीरकर या टुकड़े-टुकड़े कर छिन्न-भिन्न करते हैं । १. भवनपति देवों में अत्यंत अधम देवों को परमधार्मिक देव कहा जाता है-भवनपत्य (११) कुम्भी (१२) वालुका (१३) वैतरणी (१४) खरस्वर (१५) महाघोष | ७०. श्याम परमाधार्मिक देव तीव्र असातावेदनीय कर्म का अनुभव करने वाले नारकियों के अंगोपांग का छेदन करते हैं, पहाड़ से नीचे वज्रभूमि में गिराते हैं, शूल में पिरोकर व्यथित सुराधमविशेषाः परमधार्मिकाः । ( सूटी. पृ. ८३ ) Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति ३६७ करते हैं, रज्जु से बांधते हैं, लता आदि के प्रहारों से ताड़ित करते हैं। इस प्रकार की बहुविध प्रवृत्तियां करते हैं । ७१. शबल परमाधामिक देव पापी नरयिकों की आंतों के 'फिफिस' (मांस विशेष ) को, हृदय को, कलेजे को तथा फेफड़े को बाहर निकाल देते हैं तथा चमड़ी उधेड़ कर उन्हें कष्ट देते हैं । ७२. रौद्रकर्मकारी रौद्र नरकपाल नैरयिकों को शक्ति (सांग, तलवार ), भाला, तोमर-- भाले का एक प्रकार, हैं । विविध प्रकार के शस्त्रों असि, शूल, त्रिशूल, सूई आदि में पिरोते ७३. पापकर्म में रत उपरौद्र नरकपाल नैरयिकों के अंग और उपांगों को तथा शिर, ऊरू, बाहु, हाथ तथा पैरों को मरोड़ते हैं, तोड़ते हैं और करवत से उनको चीर डालते हैं । शुंठिकाओं - भाजन विशेषों, ७४. काल नरकपाल मीराओं - - दीर्घ चुल्लिकाओं कन्दुकाओं, प्रचंडकों में तीव्र ताप से नारकीय जीवों को पकाते हैं तथा कुम्भी-ऊंट की आकृति वाले बर्तन और लोहे की कडाहियों में उनको रखकर (जीवित मछलियों की भांति ) भूंजते हैं । ७५. पापकर्म में निरत महाकाल नरकपाल नैरयिकों के छोटे-छोटे टुकड़े करते हैं, ' पीठ की चमड़ी उधेड़ते हैं तथा उनको स्वयं का मांस खिलाते हैं । ७६. असि नामक नरकपाल नारकों के हाथ, पैर, ऊरू, वाह, सिर, पार्श्व आदि अंगप्रत्यंगों के अत्यधिक टुकड़े करते हैं ।" ७७. असिपत्रधनु नामक नरकपाल नारक जीवों के कर्ण, ओष्ट, नासिका, हाथ, चरण, दांत, स्तन, नितम्ब, ऊरू तथा बाह्र का छेदन-भेदन और शातन करते हैं । ७८. कुम्भ ( कुंभी ) -- नामक नरकपाल नारकों का हनन करते हैं तथा उनको कुम्भयों में, कडाहों में, लोहियों में-- लोह के भाजन विशेष में तथा कन्दुलोहिकुंभियों -- लोहमय पात्र - विशेष में पकाते हैं । ७९. वालुका नरकपाल नारकों को तप्त वालुका से भरे हुए बर्तन में 'तडतड' को आवाज करते हुए चनों की भांति भुनते हैं तथा कदम्ब पुष्प की आकृति वाले बर्तन के उपरितल में उन नारकों को गिरा कर आकाश में उछालते हैं । १. कागिणी मंसगाणि--छोटे-छोटे मांसखंड | (काकिणीमांसकानि -- श्लक्ष्णमांसखण्डानि-सूटी. पृ. ८४) । २. सीहपुच्छाणि - - पीठ की चमडी (सीहपुच्छानित्ति -- पृष्ठीवर्धास्तां-सूटी पृ. ८४) । ३. समवाओ में नौवें परमाधार्मिक का नाम 'असिपत्र' और दसवें का नाम 'धणु' है। सूनि में नौवें परमाधार्मिक का नाम 'असि' तथा दसवें का नाम 'असिपत्रधनु' है । ४. ये देव असिपत्र नामक वन की विकुर्वणा करते हैं । नारकीय जीव छाया के लोभ से उन वृक्षों के नीचे आकर विश्राम करते हैं । तब हवा के झोंकों से असिधारा की भांति तीखे पत्ते उन पर पड़ते हैं और वे छिद जाते हैं । ( सूटी. पृ. ८४ ) Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ नियुक्तिपंचक ८०. वैतरणी नरकपाल नारकों को वैतरणी नदी में बहाते हैं। वह नदी पीब, रुधिर, केश और हड्डियों से भरी रहती है। उसमें खारा-गरम पानी बहता है। वह कलकलायमान जलवाली महाभयानक नदी होती है। ८१. खरस्वर पग्माधामिक देव नारकों के शरीर को करवतों से चीरते हैं तथा नारकों को परशुओं से परस्पर छीलने के लिए प्रताड़ित करते हैं। ये उनको (वज्रमय भीषण कंटकों से समाकीर्ण) शाल्मली वृक्ष पर चढ़ने के लिए मजबूर करते हैं। ८२. जैसे पशुवध के समय पशु भयभीत होकर दौड़ते हैं तब बधक उनको वहीं रोक लेते है वैसे ही भयभीत होकर पलायन करने वाले नारकों को महाघोष नरकपाल चारों ओर से घेर कर वहीं रोक लेते हैं । छठा अध्ययन : महावीर-स्तुति ८३. महत् शब्द प्राधान्य अर्थ में है। इसके छह निक्षेप हैं--नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । वीर शब्द के चार निक्षेप हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। ८४. 'स्तुति' शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । आगन्तुक की स्तवना, कटक, केयूर, चन्दन, माला आदि भूषणों से की जाने वाली स्तवना द्रव्यस्तुति है। विद्यमान गुणों का कीर्तन करना भावस्तुति है। ८५. जम्बू ने आर्य सुधर्मा से भगवान् महावीर के गुणों के विषय में पूछा तब आर्य सुधर्मा ने महावीर के गुण बताए और कहा-महात्मा महावीर ने जिस प्रकार संसार पर विजय प्राप्त की तुम भी उसी प्रकार प्रयत्न करो। सातवां अध्ययन : कुशीलपरिभाषित ५६. 'शील' शब्द के बार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्यशील-- फलनिरपेक्ष होकर आदतन उन-उन क्रियाओं में प्रवर्तन करना, जैसे-प्रावरण का प्रयोजन न होने पर - १. महावीरस्तव इत्यत्र यो महच्छब्दः स प्राधान्ये __ वर्तमानो गृहीतः । (मूटी. पृ ९५) २. द्रव्यमहत्-यह सचित्त, अचित्त एवं मिश्र तीन प्रकार का होता है । सचित्त में तीर्थंकर, अचित्त में वैडूर्य आदि मणि तथा मिश्र में अलंकृत विभूषित तीर्थकर ।। क्षेत्रमहत--सिद्धिक्षेत्र । धर्माचरण की अपेक्षा से महाविदेह तथा सुखों की दृष्टि से देवकु रु. आदि क्षेत्र प्रधान होते हैं। कालमहत्-काल की दृष्टि से एकान्त सुषमा आदि काल प्रधान होता है। भावमहत्-पांचों भावों में क्षायिकभाव प्रधान होता है। ३. १. द्रव्यवीर--संग्राम में शूर अथवा वीर्यवान् द्रव्य । तीर्थकर, चक्रवर्ती आदि का बल अथवा विष आदि द्रव्यों का सामर्थ्य । २. क्षेत्रवीर-जो जिस क्षेत्र में असाधारण काम करने वाला है वह तथा जो जिस क्षेत्र में वीर माना जाता है। ३. कालवीर-जिस काल में जो वीर होता है, वह । ४. भाववीर-क्षायिक वीर्य सम्पन्न व्यक्ति जो कषायों एवं उपसर्गों से अपराजित होता Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति भी प्रावरण स्वभाव वाला होना प्रावरणशील है। इसी प्रकार आभरणशील तथा भोजनशील होते हैं। अथवा जिस द्रव्य का जो स्वभाव है, वह द्रव्यशील है। भावशील के दो प्रकार हैं-ओघशील तथा आभीक्ष्ण्यसेवनाशील अर्थात अनवरतसेवनाशील। ८७. ओघशील-ओघ का अर्थ है-सामान्य । जो सावध योग से विरत अथवा विरतअविरत है, वह ओघशीलवान् है । जो अविरत है, वह अशीलवान् है। जो निरन्तर या बार-बार शील का आचरण करता है, वह आभीक्ष्ण्यसेवनाशील है। उसके दो प्रकार हैं-प्रशस्त तथा अप्रशस्त । प्रशस्त भावशील है-धर्म विषयक प्रवृत्ति, अनवरत अपूर्व ज्ञानार्जन करना तथा विशिष्ट तपस्या करना । अप्रशस्तभावशील है-अधर्म तथा क्रोध आदि में प्रवत्ति करना । आदि शब्द से अवशिष्ट कषाय तथा चोरी, अभ्याख्यान, कलह आदि गृहीत हैं। ८८. प्रस्तुत अध्ययन में कुशील अर्थात् परतीथिको का तथा जो कोई अविरत हैं, उनका प्रतिपादन है । 'सु' यह प्रशंसा और शुद्ध विषय के अर्थ में निपात है, जैसे-सुराष्ट्र । 'कु' दुगुंछा तथा अशुद्ध विषय के अर्थ में निपात है, जैसे--कुराज्य ।। ८९. जो अप्रासुक प्रतिसेवी होते हैं, वे धृष्टता से अपने आपको शील वादी कहते हैं। यथार्थ में जो प्रासुकसेवी होते हैं, वे शीलवादी होते हैं । जो अप्रासुक का उपभोग नहीं करते, वे शीलवादी ९०. जो गौतम-गोव्रतिक' हैं, जो रंडदेवता'-यत्र-तत्र बर देने वाले अथवा हाथ में चक्र रखने वाले हैं, जो वारिभद्रक-सेवाल खाने वाले अथवा शौचवादी हैं, जो अग्निहोत्रवादी- अग्नि से ही स्वर्गगमन की इच्छा रखने वाले तथा जलशौचवादी-भागवत परिव्राजक आदि हैं-ये सारे अप्रासुकभोजी होने के कारण कुशील हैं। गाथा में 'च' शब्द से स्वयूथिक पार्श्वस्थ आदि गृहीत आठवां अध्ययन: वोर्य ९१. 'वीर्य" शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। द्रव्य वीर्य तीन प्रकार का है-सचित्त, अचित्त और मिश्र । सचित्त द्रव्यवीर्य के तीन भेद हैं१. द्विपद-अहंत, चक्रवर्ती, बलदेव आदि का वीर्य अथवा स्त्रीरत्न का वीर्य अथवा जिस द्रव्य का जो वीर्य हो वह । १. गौवतिक मशकजातीय धर्मसम्प्रदाय के मोक्ष की स्थापना करते थे। वे बार-बार संन्यासी होते हैं। वे प्रशिक्षित लघु बैल को हाथ पैर धोने, स्नान करने में रत रहते थे । लेकर भिक्षा के लिए घर-घर घूमने वाले वे जल से बाह्य शुद्धि के साथ आंतरित शुद्धि होते हैं। भी मानते थे। २. टीकाकार ने 'चंडदेवगा' पाठ स्वीकृत किया ४ 'वीर्य' विषयक विशेष जानकारी के लिए देखें-सूयगडो १, आठवें अध्ययन का ३. जलशौचवादी सचित्त जल के उपयोग में आमुख । Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० निर्युक्तिपंचक २. चतुष्पद - अश्वरत्न, हस्तिरत्न का वीर्य अथवा सिंह, व्याघ्र, शरभ आदि का वीर्य अथवा वहन करने, दौडने आदि का वीर्य । ३. अपद — गोशीर्षचन्दन आदि का शीत-उष्णकाल में उष्ण-शीतवीर्य परिणाम । ९२,९३. अचित्त द्रव्यवीर्य के तीन प्रकार हैं-- आहारवीर्य, आवरणवीर्य तथा प्रहरणवीर्य । ( ओषधि की शल्योद्धरण, व्रण-संरोहण, विषापनयन, मेधाकरण आदि जो शक्तियां हैं-वह रसवीर्य है ।) विपाकवीर्य के विषय में आयुर्वेद के चिकित्साशास्त्रों में जो वर्णन है, वह यहां ग्राह्य है । आहारवीर्य - आहार की शक्ति, जैसे -- सद्यः बनाए हुए 'घेवर' प्राणकारी, हृद्य तथा कफ का नाश करने वाले होते हैं । ० आवरणवीर्य -- कवच आदि के शस्त्र प्रहार को झेलने की शक्ति । प्रहरणवीर्य -- चक्र आदि शस्त्रों की प्रहार - शक्ति । क्षेत्रवीर्य -- क्षेत्रगत शक्ति, जैसे-— देवकुरु, उत्तरकुरु आदि क्षेत्र में उत्पन्न उत्कृष्ट शक्ति वाले होते हैं । अथवा दुर्ग आदि विशिष्ट क्षेत्र में अत्यधिक उल्लसित होता है, वह । अथवा जिस क्षेत्र में वीर्य की जाती है, वह क्षेत्रवीर्य है । 0 ० कालवीर्य -- एकान्त सुषमा आदि काल में अथवा विभिन्न ऋतुओं में विभिन्न द्रव्यों की विशिष्ट शक्ति । ९४,९५. भाववीर्य – वीर्यशक्ति से युक्त जीव में वीर्य विषयक अनेक प्रकार की लब्धियां होती हैं। उनके मुख्य तीन प्रकार हैं-औरस्यबल – शारीरिक बल, इन्द्रिय बल तथा आध्यात्मिक बल । ये तीनों बल बहुत प्रकार के होते हैं । १. शारीरिक बल के अन्तर्गत मनोवीर्य, वाक्वीर्य, कायवीर्य तथा आनापानवीर्य का समावेश होता है । यह वीर्य दो प्रकार का है— संभव और संभाव्य । २. इन्द्रिय बल - श्रोत्र आदि पांचों इन्द्रियों का अपने-अपने विषय के ग्रहण का सामर्थ्य | इसके भी दो भेद हैं— संभव और संभाव्य | १. ( क ) वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चामलकरसो, घृतं वसन्ते गुडश्चान्ते || ( ख ) ग्रीष्मे तुल्यगुडां सुसैन्धवयुतां मेघावनद्धेऽम्बरे, सभी द्रव्य जिसका वीर्य व्याख्या की तुल्यां शर्करा शरद्यमलया शुण्ठ्या तुषारागमे । पिप्पल्या शिशिरे वसन्तसमये क्षौद्रेण संयोजितां, पुंसां प्राप्य हरीतकीमिव गदा, नश्यन्तु ते शत्रवः ।। ( सुटीपृ. १११ ) २. संभव, जैसे - तीर्थंकर और अनुत्तरोपपातिक देवों के मनोद्रव्य अत्यन्त पटु होता है । वे तथा मनः पर्यवज्ञान प्रश्नों का उत्तर द्रव्य मन से ही देते हैं । अनुत्तरोपपातिक देवों का सारा व्यवहार मन से होता है । संभाव्य, जैसे- जो आज ग्रहण करने में पटु नहीं है, उसकी बुद्धि का परिकर्म होने पर वह ग्रहण-पट हो जाता है । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति ३७१ ९६. आध्यात्मिक बल के अनेक प्रकार हैं ० उद्यम--ज्ञान आदि के अनुष्ठान में उत्साह । ० धृति-संयम में स्थिरता, चित्त का समाधान । ० धीरत्व-कष्टों में अक्षुब्धता । ० शौण्डीर्य-त्याग करने का उत्कट सामर्थ्य, जैसे चक्रवर्ती का मन अपने षखंड राज्य ___ को छोडते समय भी नहीं कंपता। आपदाओं में अविषण्णता । ० क्षमा--दूसरों पर क्षुब्ध न होने का सामर्थ्य । ० गांभीर्य-परीषहों तथा उपसगों को सहने में अधष्टता अथवा अपने चमत्कारी अनुष्ठान में भी अहंकारशन्यता। ० उपयोग-आठ प्रकार के साकार उपयोग तथा चार प्रकार के अनाकार उपयोग से युक्त। ० योग-मनोवीर्य, वचनवीर्य तथा कायवीर्य से युक्त । ० तप-बारह प्रकार के तपोनुष्ठान को अग्लानभाव से करना । ० संयम---सतरह प्रकार के संयम में प्रवृत्ति ।' ९७ सारा भाववीर्य तीन प्रकार का है-पंडितवीर्य, बालवीर्य तथा बाल-पंडितवीर्य । अथवा वीर्य के दो प्रकार हैं-अगारवीर्य तथा अनगारवीर्य । ९८. (चौथे श्लोक के अन्तर्गत आए 'सत्थ (शस्त्र)' पद की व्याख्या) शस्त्र--खड़ग आदि प्रहरण । इसी प्रकार विद्याधिष्ठित, मंत्राधिष्ठित तथा दिव्यक्रियानिष्पादित--ये भी शस्त्र हैं। ये पांच प्रकार के हैं-पार्थिव, वारुण, आग्नेय, वायव्य तथा मिश्र । नौवां अध्ययन : धर्म ९९. धर्म का प्रतिपादन पहले किया जा चुका है ।' प्रस्तुत में भावधर्म का प्रसंग है । यही भावधर्म है और यही भावसमाधि तथा समाधिमार्ग है। १००. धर्म के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्यधर्म के तीन प्रकार हैं सचित्त, अचित्त और मिश्र । गहस्थों का कूलधर्म, ग्रामधर्म तथा जो उनका दानधर्म है, वह द्रव्यधर्म है। १०१. भावधम दो प्रकार का है-लौकिक तथा लोकोत्तर । लौकिक धर्म दो प्रकार का है-गृहस्थों का तथा अन्यतीथिकों का। लोकोत्तर धर्म के तीन प्रकार हैं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र । ये तीनों पांच-पांच प्रकार के हैं।' १. विद्याप्रवादपूर्व में अनन्त प्रकार के वीर्यों का वर्णन है। उसमें केवल वीर्य का ही प्रति पादन है। २. देखें-दशनिगा ३६-४० । ३. ज्ञान के पांच प्रकार-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव तथा केवल । दर्शन के पांच प्रकार-औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशामिक, वेदक और क्षायिक । चारित्र के पांच प्रकार-सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्ध, सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यात । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक १०२. मुनि के लिए पार्श्वस्थ, अवसन्न तथा कुशील मुनियों के साथ संस्तव करना उचित नहीं होता। इसलिए सूत्रकृतांग में इस 'धर्म' नामक अध्ययन में धर्म का नियमन किया है, उसकी सीमाओं का निर्धारण किया है। दसवां अध्ययन : समाधि १०३. आदानपद (प्रथम पद) के आधार पर इस अध्ययन का नाम है-आघ। इसका गुणनिष्पन्न नाम है-समाधि । इस अध्ययन में 'समाधि' शब्द के निक्षेप प्रस्तुत कर भाव समाधि का प्रतिपादन किया है। १०४. 'समाधि' शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । १०५,१०६. द्रव्यसमाधि-इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में तत्-तत विषय की प्राप्ति से उसउस इन्द्रिय की जो तुष्टि होती है, वह द्रव्यसमाधि है। जिस क्षेत्र में समाधि उत्पन्न होती है, वह क्षेत्रसमाधि है। जिस काल में समाधि प्राप्त होती है, वह कालसमाधि है। भावसमाधि के चार प्रकार हैं-दर्शन समाधि, ज्ञान समाधि, तपः समाधि और चारित्र समाधि ।' जो चतुर्विध भावसमाधि में समाधिस्थ है, वही मुनि सम्यक् चारित्र में व्यवस्थित है। अथवा जो सम्यक्चरण में व्यवस्थित है, वही चारों प्रकार की भावसमाधि में समाहित होता है। ग्यारहवां अध्ययन : मार्ग १०७. मार्ग शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव । १०८. द्रव्यमार्ग के चौदह प्रकार हैं१. फलकमार्ग ५. रज्जुमार्ग ९. कीलकमार्ग, २. लतामार्ग ६. दवनमार्ग १०. अजमार्ग, ३. आंदोलन मार्ग ७. बिलमार्ग ११. पक्षिमार्ग, ४. वेत्रमार्ग ८. पाशमार्ग १२. छत्रमार्ग १. ज्ञान समाधि-जैसे-जैसे व्यक्ति श्रुत का अध्ययन करता है, वैसे-वैसे अत्यन्त समाधि उत्पन्न होती है। ज्ञानार्जन में उद्यत व्यक्ति कष्ट को भूल जाता है। नये-नये ज्ञेयों की उपलब्धि होने पर उसका जो समाधान होता है, वह अनिर्वचनीय होता है। दर्शन समाधि-जिन-प्रवचन में जिसकी बुद्धि श्रद्धाशील हो जाती है, उसे कोई भ्रमित नहीं कर सकता। उसकी स्थिति पवनशून्य गृह में स्थित दीपक की भांति निष्कम्प हो जाती है। चारित्र समाधि-चारित्र समाधि की निष्पत्ति है-विषय सुखों से पराङ्मुखता । अकिंचन होने पर भी चरित्रवान् साधु परमसमाधि का अनुभव करता है। तपः समाधि--इससे साधक विकृष्ट तप करता हुआ भी खिन्न नहीं होता । वह क्षुत्, पिपासा आदि परीषहों से क्षब्ध नहीं होता। वह आभ्यन्तर तप में अभ्यस्त साधक ध्यान अवस्था में निर्वाणस्थ की भांति सुख-दुःख से बाधित नहीं होता। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति १३. जलमार्ग १४. आकाशमार्ग । १. १. फलकमार्ग-कीचड़ आदि के भय से फलक द्वारा पार किया जाने वाला मार्ग या गढ़ों को पार करने के लिए बनाया गया फलक मार्ग। २. लतामार्ग-नदियों में होने वाली लताओं (वेत्र आदि) का आलंबन लेकर पार करने का मार्ग । जैसे गंगा आदि नदियों को वेत्र लताओं के सहारे पार किया जाता था। ३. आंदोलनमार्ग--यह संभवतः झूलने वाला मार्ग रहा हो। विशेषतः यह मार्ग दुर्ग आदि पर बनाया हुआ होता था। व्यक्ति झूले के सहारे एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर पहुंच जाता । व्यक्ति वृक्षों की शाखाओं को पकड़कर झूलते और दूसरी ओर पहुंच जाते । ४. वेत्रमार्ग-यह मार्ग नदियों को पार करने में सहायक होता था। जहां नदियों में वेत्र लताएं (बेंत की लताएं) सघन होती थीं, वहां पथिक उन लताओं का अवष्टम्भ लेकर एक किनारे से दूसरे किनारे तक पहुंच जाता था। ५. रज्जुमार्ग-रस्सी के सहारे एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचने का मार्ग । यह अति दुर्गम स्थानों को पार करने के काम आता था। ६. दवनमार्ग-दवन का अर्थ है यान-वाहन । उसके आने-जाने का मार्ग दवनमार्ग है। सभी प्रकार के वाहनों के यातायात में यह मार्ग काम आता था। ७. बिलमार्ग---ये गुफा के आकार वाले मार्ग थे। इनको "मूषिक पथ" भी कहा जाता था। ये पहाड़ी मार्ग थे, जिनमें चट्टान काट कर चूहों के बिल जैसी छोटी-छोटी सुरंगें बनायी जाती थीं। इनमें दीपक लेकर प्रवेश करना होता था। ८. पाशमार्ग--चूर्णिकार के अनुसार यह वह मार्ग है, जिसमें व्यक्ति अपनी कमर को रज्जु से बांधकर रज्जु के सहारे आगे बढ़ता था। "रसकपिका" (स्वर्ण आदि की खदान) में इसी के सहारे नीचे गहन अंधकार में उतरा जाता था और रज्जु के सहारे ही पुनः बाहर आना होता था। ९. कीलकमार्ग—ये वे मार्ग थे, जहां स्थानस्थान पर खंभे बनाए जाते थे और पथिक उन खंभों के अभिज्ञान से अपने मार्ग पर आगे बढ़ता जाता था। ये खंभे उसे मार्ग भूलने से बचाते थे । विशेष रूप से ये मार्ग मरुप्रदेश में, जहां बालू के टीलों की अधिकता होती थी, वहां बनाए जाते थे। १०. अजमार्ग-यह एक ऐसा संकरा पथ होता था, जिसमें केवल अज (बकरी) या बछड़े के चलने जितनी पगडंडी मात्र होती थी। यह मार्ग विशेषतः पहाड़ों पर होता था। जहां बकरों और भेड़ों का यातायात होता था। इसे "मेंढपथ' भी कहा जाता था। ११. पक्षिपथ-यह आकाश-मार्ग था। भारुण्ड आदि विशालकाय पक्षियों के सहारे इस मार्ग से यातायात होता था। यह मार्ग सर्वसुलभ न भी रहा हो परन्तु कुछ श्रीमन्त या विद्याओं के पारगामी व्यक्ति इन विशालकाय पक्षियों का उपयोग वाहन के रूप में करते हों, ऐसा संभव लगता है। १२. छत्रमार्ग-यह एक ऐसा मार्ग था, जहां छत्र के बिना आना-जाना निरापद नहीं होता था। संभव है यह जंगल का मार्ग हो और जहां हिंस्र पशुओं का भय रहता हो। वे पशु छत्ते से डरकर इधर-उधर भाग जाते हों। १३. जलमार्ग-जहाज, नौका आदि से याता यात करने का मार्ग, जिसे “वारिपथ" भी कहा जाता है। १४. आकाशमार्ग-चारणलब्धि सम्पन्न मुनियों, विद्याधरों तथा मंत्रविदों के आनेजाने का मार्ग । इसे "देवपथ' भी कहा जाता था। (सूटी पृ १३१) Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ नियुक्तिपंचक १०९. जिस क्षेत्र में जो मार्ग है, वह क्षेत्रमार्ग है। जिस काल में जो मार्ग है, वह कालमार्ग है । भावमार्ग के दो प्रकार हैं-प्रशस्तभावमार्ग, अप्रशस्तभावमार्ग। दोनों के तीन-तीन प्रकार हैं। प्रशस्तभावमार्ग के तीन प्रकार सम्यकज्ञान, सम्यगदर्शन और सम्यग्चारित्र । अप्रशस्तभाव मार्ग के तीन प्रकार -मिथ्यात्व, अविरति तथा अज्ञान । ११०. इन दोनों मार्गों का विनिश्चय फल से होता है । प्रशस्त मार्ग सुगतिफल वाला होता है और अप्रशस्त मार्ग दुर्गतिफल वाला। यहां सुगतिफल वाला मार्ग प्रासंगिक है। १११. दुर्गतिफलवादियों के तीन सौ तिरसठ भेद हैं। (क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४ अज्ञानवादियों के ६७ तथा वैनयिकवादियों के ३२।५) द्रव्य मार्ग के चार विकल्प (१) क्षेम-क्षेमरूप-जैसे-चोर, सिंह आदि के उपद्रव रहित तथा वृक्ष आदि से आच्छन्न मार्ग। (२) क्षेम-अक्षेमरूप-जैसे-उपद्रवरहित किन्तु पथरीला, कण्टकाकीर्ण मार्ग । (३) अक्षेम-क्षेमरूप-जैसे-चोर आदि के भय से युक्त किन्तु सम मार्ग। (४) अक्षेम-अक्षेमरूप-जैसे-सिंह, चोर आदि के उपद्रव से युक्त तथा पथरीला और ऊबड़-खाबड़ मार्ग। भावमार्ग के चार विकल्पक्षेम-क्षेमरूप--ज्ञान आदि से समन्वित मुनि वेशधारी साधु । क्षेम-अक्षेमरूप-भावसाधु द्रव्यलिंग से रहित । अक्षेम-क्षेमरूप-निह्नव । अक्षेम-अक्षेमरूप-परतीथिक, गृहस्थ आदि । ११२. ज्ञान, दर्शन और चारित्र-यह तीन प्रकार का भावमार्ग सम्यगदृष्टि व्यक्तियों द्वारा आचीर्ण है। चरक, परिव्राजक आदि द्वारा आचीर्ण मार्ग मिथ्यात्व मार्ग है, अप्रशस्त मार्ग है। ११३. जो व्यक्ति ऋद्धि, रस, साता-इन तीन गौरवों से भारीकर्मा हैं, जो षड्जीवनिकाय की घात में निरत हैं, वे कुमार्ग का उपदेश देते हैं और उसी कुमार्ग का आश्रय लेते हैं। ११४. तप और संयम में प्रधान तथा गुणधारी मुनि जो सद्भाव-यथार्थ का निरूपण करते हैं, वह जगत् के सभी प्राणियों के लिए हितकारी है, वही सम्यक प्रणीत मार्ग है। ११५. मोक्षमार्ग के ये तेरह एकार्थक शब्द हैं १. पंथ-सम्यकत्व की प्राप्ति। २. न्याय—सम्यक् चारित्र की प्राप्ति । ३. मार्ग-सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति । ४. विधि-सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन की युगपद् प्राप्ति । ५. धति-सम्यग्दर्शन के होने पर सम्यगचारित्र की प्राप्ति । १. असियसयं किरियाणं, अकिरियवाईण होई चुलसीई । अण्णाणिय सत्तट्ठी, वेणइयाणं च बत्तीसं ॥ (सूटी. पृ. १३१) Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति ३७५ ६. सुगति-ज्ञान और क्रिया का संतुलन । ७. हित-मुक्ति या उसके साधनों की प्राप्ति । ८. सुख-उपशम श्रेणी में आरुढ़ होने का सामर्थ्य । ९. पथ्य-क्षायक श्रेणी में आरूढ़ होने का सामर्थ्य । १०. श्रेणी-मोह की सर्वथा उपशांत अवस्था । ११. निर्वृति-क्षीण मोह की अवस्था। १२. निर्वाण-केवलज्ञान की प्राप्ति । १३. शिवकर-शैलेशी अवस्था की प्राप्ति । बारहवां अध्ययन : समवसरण ११६. समवसरण' शब्द के नाम आदि छह निक्षेप हैं। द्रव्य समवसरण के तीन प्रकार हैं सचित्त, अचित्त तथा मिश्र । क्षेत्र समवसरण वह है, जहां द्विपद-चतुष्पद आदि समवसत होते हैं। जिस काल में जो समवसरण होता है, वह काल समवसरण है। ११७. भाव समवसरण है-औदयिक आदि भावों का समवसरण । अथवा क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी, वैनयिकवादी-इन चारों वादों का भेद-प्रभेद सहित आक्षेप कर जहां विक्षेप किया जाता है, वह भाव समवसरण है। ११८. जीव आदि पदार्थों का सद्भाव है--यह क्रियावादियों का कथन है। जीव आदि पदार्थों का सद्भाव नहीं है-यह अक्रियावादियों का कथन है। अज्ञान को ही श्रेयस्कर बताने वाले अज्ञानवादी हैं और विनय से हो स्वर्ग-मोक्ष मिलता है-ऐसा कहने वाले विनयवादी हैं। ११९. क्रियावादियों के १८० भेद हैं। अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानवादियों के ६७ और विनयवादियों के बत्तीस भेद हैं। १२०. प्रस्तुत अध्ययन में इन दर्शनों द्वारा स्वीकृत सिद्धान्तों का निरूपण है। उन सिद्धान्तों के परमार्थ का निश्चय करने के लिए समवसरण अध्ययन निरूपित है। १२१. क्रियावादी सम्यक्दृष्टि है। शेष तीनों वाद मिथ्यादृष्टि हैं। मिथ्यावाद का त्याग कर, इस सत्यवाद (क्रियावाद) को अंगीकार करना चाहिए। तेरहवां अध्ययन : याथातथ्य १२२. तथ्य शब्द के चार निक्षेप हैं-नामतथ्य, स्थापनातथ्य, द्रव्यतथ्य तथा भावतथ्य । द्रव्यतथ्य है-द्रव्य का स्वभाव, स्वरूप । १२३. अवश्यंभावतया औदयिक आदि छह प्रकार के भावों में होना भावतथ्य है। अथवा आन्तरिक भावतथ्य चार प्रकार का है-ज्ञानतथ्य, दर्शनतथ्य, चारित्रतथ्य और विनयतथ्य। १. समवसरण का अर्थ है-एकीभाव से मिलना, एकत्र मेलापक । Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक १२४. भावतथ्य दो प्रकार का है-प्रशस्त तथा अप्रशस्त । जैसा सूत्र वैसा ही अर्थ और वैसा ही आचरण -यह प्रशस्त भावतथ्य है। यही याथातथ्य है। वैसा न हो तो वह जुगुत्सित है । याथातथ्य नहीं है। १२५,१२६. आचार्य-परंपरा से जो आगत है, व्याख्यात है, उसको यदि कोई अपनी तर्कबुद्धि या निपुणबुद्धि से दूषित करता है तो वह छेकवादी-पंडितमानी जमालि निन्हव की भांति नष्ट हो जाता है, पथच्युत हो जाता है। वैसा व्यक्ति संयम और तप में पराक्रम करता हुआ भी (दुःखों से) मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए मुनि को आत्मोत्कर्ष-अहंकार का वर्जन करना चाहिए। चौदहवां अध्ययन : ग्रंथ १२७. ग्रंथ के विषय में पहले (उत्तराध्ययन के क्षुल्लक निग्रंथीय अध्ययन में) कहा जा चुका है।' शिष्य के दो प्रकार हैं :-प्रव्रज्याशिष्य, शिक्षाशिष्य । यहां शिक्षाशिष्य का प्रसंग है। १२८. शैक्ष दो प्रकार का होता है ग्रहणशैक्ष, आसेवनाशैक्ष। ग्रहणशैक्ष के तीन प्रकार हैं-सूत्रग्रहणशैक्ष, अर्थग्रहणशैक्ष, तदुभयग्रहणशक्ष। १२९. आसेवनाशैक्ष के दो प्रकार हैं-मूलगुण आसेवनाशैक्ष, उत्तरगुण आसेवना शैक्ष। मूलगुण आसेवना शैक्ष पांच प्रकार का है (पांच महाव्रतों के कारण)। उत्तरगुण आसेवनाशैक्ष के बारह प्रकार हैं। १३०. आचार्य के दो प्रकार हैं-प्रव्रज्या आचार्य तथा शिक्षक आचार्य । शिक्षक आचार्य के दो प्रकार हैं-ग्रहण शिक्षा आचार्य तथा आसेवनाशिक्षा आचार्य । १३१. ग्रहणशिक्षा आचार्य के तीन प्रकार हैं-सूत्र के ग्राहक आचार्य, अर्थ के ग्राहक आचार्य तथा तदुभय ग्राहक आचार्य । आसेवनाशिक्षा आचार्य के मूल तथा उत्तरगुण की अपेक्षा दो प्रकार हैं। पन्द्रहवां अध्ययन : आदानीय १३२. आदान तथा ग्रहण-इन दोनों शब्दों के चार-चार निक्षेप होते हैं। आदान और ग्रहण---ये एकार्थक भी हैं और अनेकार्थक भी। प्रस्तुत में आदान का प्रसंग है। १३३. प्रस्तुत अध्ययन के श्लोकों में प्रथम श्लोक का अंतिम पद दूसरे श्लोक का आदिपद होता है, इसलिए इस अध्ययन का नाम 'आदानीय' है। यह इस अध्ययन का अपर नाम है। १३४. आदि शब्द के चार निक्षेप हैं-नामआदि, स्थापनाआदि, द्रव्यआदि तथा भावआदि । द्रव्य की अपने पर्याय में जो प्रथम परिणति विशेष होती है, वह द्रव्यआदि है। १. उनिगा ३३४-३७ । २. समवायांग में इस अध्ययन का नाम 'यमकीय' मिलता है। चणिकार ने इसके दो नाम बताए हैं-आदानीय और संकलिका (सूचपृ २३८) वत्तिकार ने मुख्य नाम आदानीय तथा विकल्प में यमकीय और संकलिका-ये दो नाम माने हैं। (सूटीपृ १६९) Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ सूत्रकृतांग नियुक्ति १३५. गणधरों ने भावआदि के दो प्रकार बतलाए हैं-आगमतः तथा नोआगमतः । नोआगमतः भावआदि के पांच प्रकार हैं-(प्राणातिपात विरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुनविरमण, परिग्रह विरमण)। १३६. आगमतः भावआदि है-गणिपिटक, द्वादशांगी । द्वादशांगी के आदिग्रन्थ का आदिश्लोक, उसका आदिपद, उसका आदिपाद, उसका आदिअक्षर-ये सारे भावआदि हैं। सोलहवां अध्ययन : गाथा षोडशक । १३७. गाथा शब्द के चार निक्षेप हैं—नामगाथा, स्थापनागाथा, द्रव्यगाथा, भावगाथा । द्रव्यगाथा है-पुस्तक-पन्नों में लिखित अक्षर । १३८. क्षायोपशमिक भाव से निष्पन्न जो साकारोपयोग गाथा के प्रति व्यवस्थित है, वह भावगाथा है। वह मधुर उच्चारण से युक्त होती है इसलिए उसे गाथा कहा जाता है। १३९ जहां बिखरे अर्थों को पिंडीकृत–एकत्रित किया जाता है अथवा जो सामुद्रिकछन्द में निबद्ध होती है, उसे गाथा कहा जाता है। इसका दूसरा निरुक्त-तात्पर्यार्थ यह है जो गाया जाता है अथवा जो गाथीकृत है, वह गाथा है। १४०. पूर्व के पन्द्रह अध्ययनों में जो अर्थ एकीकृत है, पिंडित है, उसमें से यथावस्थित पिण्डितार्थवचन के द्वारा इस अध्ययन का ग्रन्थन हुआ है, इसलिए इसका नाम गाथा है । १४१. प्रस्तुत सोलहवें अध्ययन में (पूर्व अध्ययनों में उक्त) अनगार के गुणों का पिण्डितार्थ से वर्णन किया गया है। इसलिए गाथा षोडशक नाम वाले इस अध्ययन का प्रतिपादन करते हैं। दूसरा श्रुतस्कंध पहला अध्ययन : पुण्डरीक १४२. महत् शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। १४३. अध्ययन के भी छह निक्षेप हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव । १४४. पुण्डरीक शब्द के आठ निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, गणना, संस्थान और भाव। १४५. जो भव्य जीव पौण्डरीक (श्वेत कमल) में उत्पन्न होने वाला है, वह द्रव्य पुण्डरीक है। पुंडरीक का ज्ञाता भाव पौंडरीक है । १४६. प्रस्तुत तीन विकल्प द्रव्य पौण्डरीक के हैं-एकभविक, बद्धायुष्क तथा अभिमुखनामगोत्र । १४७. तिर्यञ्च, मनुष्य तथा देवताओं में जो श्रेष्ठ होते हैं, वे पौंडरीक हैं, शेष कंडरीक - - १. अनिबद्धं च यल्लोके, गाथेति तत्पण्डितैः प्रोक्तम्'—सूटी पृ १७५ २. एक भव के बाद पुंडरीक में उत्पन्न होने वाला एकभविक । जिस जीव के पंडरीक का आयुष्य बंध हो गया है, वह बद्धायुष्क तथा कुछ ही समय पश्चात् पुंडरीक में उत्पन्न होगा, वह अभिमुखनामगोत्र है। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ नियुक्तिपंचक १४८. जलचर, स्थलचर तथा खेचर में जो श्रेष्ठ और कान्त होते हैं और जो लोगों द्वारा स्वभावतः अनुमत होते हैं, वे तिर्यञ्चों में पौंडरीक होते हैं। १४९. अर्हत्, चक्रवर्ती, चारणश्रमण, विद्याधर, दशार और जो अन्य ऋद्धिमान् व्यक्ति हैं, वे मनुष्यों में पौंडरीक होते हैं। १५०. भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक देवों में जो प्रधान हैं, वे देवताओं में पौंडरीक होते हैं। १५१. जैसे धातुओं में कांस्य प्रधान है वैसे ही वस्त्र, मणि, मौक्तिक, शिला तथा प्रवालों में जो प्रधान हैं, वे अचित्त पौंडरीक होते हैं। ये सारे द्रव्य पौंडरीक हैं। १५२. अचित्त तथा मिश्र द्रव्यों में जो प्रवर हैं, वे पौंडरीक होते हैं, शेष कंडरीक होते १५३. लोक में जो क्षेत्र शुभ अनुभाव वाले होते हैं जैसे देवकुरु, उत्तरकुरु आदि-वे प्रवर क्षेत्रपौंडरीक होते हैं। १५४. जो प्राणी भवस्थिति' तथा कालस्थिति से प्रवर हैं, वे काल पौंडरीक होते हैं तथा शेष कंडरीक होते हैं। १५५. गणना में पौंडरीक है-रज्जु की संख्या। संस्थान में पौंडरीक है-समचतुरस्र संस्थान । ये सारे पौंडरीक और शेष सारे कंडरीक हैं। १५६. औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक तथा सान्निपातिकइन भावों में जो प्रवर होते हैं, वे भाव पौंडरीक हैं। १५७. अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय तथा अध्यात्म-धर्मध्यान आदि में जो मुनि प्रवर होते हैं, वे भाव पौंडरीक हैं। १५८. प्रस्तुत अध्ययन में द्रव्य पौडरीक-वनस्पतिकाय का तथा भाव पौंडरीक-श्रमण का अधिकार है। १५९. यहां पौंडरीक का दृष्टान्त दिया गया है । उसी पुंडरीक के उपचय अर्थात् सभी अवयवों की निष्पत्ति होने पर उसका उत्पाटन होता है। दार्टान्तिक अधिकार यह है कि चक्रवर्ती आदि भव्यों की सिद्धि-प्राप्ति जिनेश्वरदेव के उपदेश से होती हैं। १. भवस्थिति से पौंडरीक हैं-अनुत्तरोपपातिक देव क्योंकि वे उस पूरे भव में सुख का ही अनुभव करते हैं। उनमें शुभानुभाव ही होता है। २. कायस्थिति से शुभकर्म वाले मनुष्य जो सात आठ भव में निर्वाण प्राप्त करने वाले होते हैं, वे मनुष्यों में पौंडरीक हैं। ३. औदयिक भाव में तीर्थंकर तथा अनुत्तरी- पपातिकदेव, औपशमिक भाव में समस्त उपशान्तमोह वाले व्यक्ति, क्षायिक भाव में केवलज्ञानी, क्षायोपशमिक भाव में-विपूलमति, चौदह पूर्वधर, परम अवधिज्ञानी. पारिणामिक भाव तथा सान्निपातिक भाव में सिद्ध आदि प्रवर होते हैं। ४. देखें-परि. ६, कथा सं ४ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति ३७९ १६०. देव, मनुष्य, तिर्यञ्च तथा नैरयिक-इन चार गतिवाले प्राणियों के मध्य मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो चारित्र के स्वीकार और पालन में समर्थ होता है। उनमें भी महाजन के नेता चक्रवर्ती का यहां प्रसंग है। १६१. जो भारीकर्मा जीव हैं तथा निश्चित ही उत्कृष्ट नरक स्थिति का बंध कर नरकगामी जीव हैं, वे भी जिनेश्वर के उपदेश से उसी भव में सिद्ध हो जाते हैं । १६२,१६३. एक पुष्करिणी है। वह अत्यंत गहरी, पंकिल, अनेक प्रकार की वल्लियों से संकीर्ण है। वह जंघाओं, बाहुओं तथा नौकाओं से दुस्तर है। उसके बीच एक पद्म है । उसको पाने वाले व्यक्ति को प्राण गंवाने पड़ सकते हैं। क्या ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे कि पौंडरीक को प्राप्त कर पुष्करिणी को सकुशल पार किया जा सके ? १६४. (प्रज्ञप्ति आदि) विद्या के बल पर, देवता-कर्म के द्वारा अथवा आकाशगामिनी लब्धि से उस पद्मवर पौण्डरीक को लेकर सकुशल आया जा सकता है परंतु यह जिनाख्यात उपाय नहीं है। १६५. जिनेश्वर देव की विज्ञानरूप विद्या ही शुद्ध प्रयोग विद्या है । भव्यजन पौंडरीक उस विद्या-प्रयोग से सिद्धिगति को प्राप्त कर लेते हैं। दूसरा अध्ययन : क्रिया-स्थान १६६. (क्रियाओं का वर्णन पहले आवश्यक नियुक्ति में किया जा चुका है तथा) प्रस्तुत अध्ययन में क्रियाओं का प्रतिपादन है, इसलिए इस अध्ययन का नाम 'क्रियास्थान' है। (क्रिया स्थानों से कुछ व्यक्ति कर्मों से बंधते हैं और कुछ मुक्त होते हैं) इसलिए यहां बंधमार्ग और मोक्षमार्ग का प्रसंग है। १६७. द्रव्य क्रिया है-प्रकम्पन । भाव क्रिया के आठ प्रकार हैं-प्रयोगक्रिया, उपायक्रिया, करणीयक्रिया, समुदानक्रिया, ईर्यापथक्रिया, सम्यक्त्वक्रिया, सम्यमिथ्यात्वक्रिया तथा मिथ्यात्वक्रिया। १. १. प्रयोगक्रिया-मन, वचन और काया की सयोगिकेवली तक होने वाली क्रिया, प्रवृत्ति । ग्यारहवें गुणस्थान तक होने वाली सूक्ष्म २. उपायक्रिया-द्रव्य की निष्पत्ति से होने क्रिया। यह तीन समय की स्थिति वाली वाली उपायात्मक क्रिया। होती है-प्रथम समय में बंध, दूसरे में ३. करणीयक्रिया-जिस द्रव्य की निष्पत्ति जैसे संवेदन और तीसरे में निर्जरण। यह वीतहोती है वैसी क्रिया करना । जैसे-मिट्टी से राग अवस्था की क्रिया है। ही घर बनता है, पथरीली बाल से नहीं। ६. सम्यक्त्वक्रिया-सम्यग्दर्शनयोग्य ७७ ४. समुदानक्रिया-गृहीत कर्मपुद्गलों को प्रकृतियां हैं, उनको बांधने वाली क्रिया। प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेश रूप में ७. सम्यगमिथ्यात्वक्रिया-७४ प्रकृतियों का व्यवस्थित करना । यह क्रिया असंयत, संयत, बन्ध करने वाली क्रिया। अप्रमत्त संयत, सकषाय व्यक्ति के होती है। ८. मिथ्यात्वक्रिया-१२० प्रकृतियों का बन्ध ५. ईर्यापथक्रिया-उपशान्त मोहावस्था से करने वाली क्रिया । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० १६८. स्थान शब्द के पन्द्रह निक्षेप हैं १. नाम स्थान ६. ऊर्ध्वं स्थान २. स्थापना स्थान ७. उपरति स्थान ८. वसति स्थान ३. द्रव्य स्थान ४. क्षेत्र स्थान ९. संयम स्थान ५. काल स्थान १०. प्रग्रह स्थान १६९. प्रस्तुत प्रकरण में सामुदानिक क्रियाओं तथा सम्यक् है । इन सभी स्थानों और क्रियाओं से पूर्वोक्त सभी पुरुषों तथा चाहिए । तीसरा अध्ययन : आहारपरिज्ञा १७०. आहार शब्द के पांच निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र और भाव । निर्युक्तिपंचक ११. योध स्थान १२. अचल स्थान १३. गणना स्थान १४. संधना स्थान १७१,१७२. द्रव्य आहार के तीन भेद हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र । क्षेत्र आहार जिस क्षेत्र में आहार किया जाता है, उत्पन्न होता है, व्याख्यायित होता है, अथवा नगर का जो देश धान्य, इन्धन आदि से उपभोग्य होता है, वह क्षेत्र आहार है । ( जैसे - मथुरा का निकटवर्ती देश परिभोग्य होने पर वह मथुरा का आहार कहलाता है ।) भाव आहार (आहारक की अपेक्षा से) के तीन प्रकार हैं १. ओज आहार - अपर्याप्तक अवस्था में तैजस और कार्मण शरीर से लिया जाने वाला आहार, जब तक अपर औदारिक या वैक्रिय शरीर की निष्पत्ति नहीं हो जाती । २. लोम आहार - शरीर पर्याप्ति के उत्तरकाल में बाह्य त्वचा तथा लोम से लिया जाने वाला आहार | ३. प्रक्षेप आहार – कवल आदि के प्रक्षेप से किया जाने वाला आहार । १. पर्याप्तिबंध के उत्तरकाल में सभी प्राणी लो आहार वाले होते हैं । स्पर्शन इन्द्रिय से, उष्मा आदि से, शीतल वायु से, पानी आदि से गर्भस्थ प्राणी भी तृप्त होता है, यह सारा लोम आहार है । कवल आहार तो जब-तब लिया जाता है, सदा-सर्वदा नहीं होता । वह नियतकालिक है । लोम आहार वायु आदि के स्पर्श से निरंतर होता है। वह दृष्टिगत नहीं १५. भाव स्थान । प्रयुक्त भावस्थान का अधिकार प्रावादुकों का परीक्षण करना १७३. ओज आहार करने वाले सभी जीव अपर्याप्तक होते हैं । पर्याप्तक जीव लोम आहार वाले तथा प्रक्षेप आहार वाले अर्थात् कवलाहारी होते हैं ।" १७४. एकेन्द्रिय जीवों, देवताओं तथा नारकीय जीवों के प्रक्षेप आहार नहीं होता । शेष संसारी जीवों के प्रक्षेप आहार होता है । १७५. एक, दो अथवा तीन समय तक तथा अन्तर्मुहूर्त्त और सादिक - अनिधन - शैलेशी अवस्था से प्रारंभ कर अनन्तकाल तक जीव अनाहारक होते हैं । होता तथा वह प्रतिसमयवर्ती है । २. ये जीव पर्याप्तिबंध के बाद स्पर्शनेन्द्रिय से ही आहार ग्रहण करते हैं । देवताओं द्वारा मन से गृहीत शुभ पुद्गल संपूर्ण काया से परिणत होते हैं । इसी प्रकार नारकीय जीवों के अशुभ पुद्गल परिणत होते हैं। शेष सभी औदारिक शरीर वाले तिर्यञ्च और मनुष्य प्रक्षेप आहार करते हैं । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति ३८१ १७६. केवली के अतिरिक्त प्राणी एक अथवा दो समय तक अनाहारक होते हैं ।' केवली के समुद्घात के समय मन्यान के प्रारंभ में तथा उसके उपसंहार काल में (अर्थात् तीसरे तथा पांचवे समय में) दो समय तथा लोक को पूरित करते हुए चौथे समय में अनाहारक होते हैं। इस प्रकार केवली तीन समय अनाहारक रहते हैं । १७७. शैलेशी अवस्था का कालमान है—अन्तर्मुहूर्त सिद्धावस्था सादिक किंतु अनन्तकाल की होती है। सिद्ध अनाहारक होते हैं । १७८. जीव सबसे पहले तेजस और कार्मण शरीर से आहार ग्रहण करता है। तदनन्तर जब तक शरीर की निष्पत्ति नहीं हो जाती तब तक औदारिक मिश्र अथवा वैक्रियमिश्र से आहार ग्रहण करता है । वह काल अनाहारक होता है । १७९. परिक्षा शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम स्थापना द्रव्य तथा भाव द्रव्यपरिक्षा के तीन प्रकार हैं- सचित्त, अचित्त तथा मिश्र । भावपरिज्ञा के दो प्रकार हैं-ज्ञपरिज्ञा तथा प्रत्याख्यान परिज्ञा । चौथा अध्ययन : प्रत्याख्यानक्रिया १८० प्रत्याख्यान शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम प्रत्याख्यान, स्थापना प्रत्याख्यान, द्रव्य प्रत्याख्यान, अदित्सा प्रत्याख्यान, प्रतिषेध प्रत्याख्यान तथा भाव प्रत्याख्यान । पांचवा अध्ययन : आचारभुत I १८९ प्रस्तुत में भाव प्रत्याख्यान का अधिकार है। आदि प्राणातिपात आदि का प्रत्याख्यान करना आवश्यक है। नहीं होता है तो उसके निमित्त से अप्रत्याख्यान क्रिया उत्पन्न होती है करनी चाहिए)। मूलगुण हैं - प्राणातिपात विरमण यदि मूलगुण से संबंधित प्रत्याख्यान (इसलिए प्रत्याख्यान किया १०२. आचार तथा श्रुतइन दोनों शब्दों के चार चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । १८३. आचार' और श्रुत' का प्रतिपादन किया जा चुका है। करना चाहिए । अबहुश्रुत-अगीतार्थ की ही विराधना होती है। परिज्ञान में प्रयत्न करना चाहिए। आई | १. तीन समय वाली अथवा चार समय वाली विग्रहगति की अपेक्षा से । १८४. अनाचार का प्रतिषेध प्रस्तुत अध्ययन में प्रतिपादित है (अनगार सम्पूर्ण अनाचार का प्रतिषेध करता है) इसलिए इस अध्ययन का नाम 'अनगारश्रुत' भी है। छठा अध्ययन आर्द्रकीय : १८५. 'आर्द्र' शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम आर्द्र, स्थापना आर्द्र, द्रव्य आर्द्र तथा भाव अनाचार अनाचार का सदा वर्जन इसलिए सदाचार तथा उसके २. आचार के वर्णन हेतु देखें- दशनिगा १५४-६१ । ३. श्रुत के वर्णन हेतु देखें - उनिगा २९ । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ नियुक्तिपंचक १८६. द्रव्य आर्द्र के उदाहरण ० उदकाई-पानी से मिट्टी आदि द्रव्य को आर्द्र करना। सारा-बाहर से शुष्क तथा मध्य में आई. जैसे-श्रीपर्णी फल । ० छविआर्द्र-स्निग्ध त्वचा वाले द्रव्य, जैसे-मुक्ताफल, रक्त अशोक आदि । ० वसा-वसा-चर्बी से आर्द्र । ० श्लेषा-स्तंभ, कुडय आदि वज्रलेप से लिप्त । • ० भावा-राग भाव से आर्द्र । १८७. द्रव्यार्द्र के तीन प्रकार ये भी हैं० एकभविक-जीव स्वर्ग से आकर यहां मनुष्य भव में आर्द्रकुमार के रूप में उत्पन्न होगा। ० बद्धायुष्क-जिसने आर्द्रकुमार के रूप में उत्पन्न होने का आयुबंध कर लिया है। ० अभिमुखनामगोत्र-जो अनन्तर समय में ही आर्द्रक रूप में उत्पन्न होगा। १८८. आर्द्रकपुर में आर्द्र राजा का पुत्र आद्रक नाम वाला था। वह अनगार बना। इसलिए आर्द्रक से समुत्पन्न इस अध्ययन का नाम आर्द्रकीय हुआ।' १८९. द्वादशांग रूप जिनवचन शाश्वत है, महान् प्रभाव वाला है। इसी प्रकार सभी अध्ययन तथा सर्वाक्षर-सन्निपात भी शाश्वत हैं, प्रभावशाली हैं। १९०. यद्यपि यह द्रव्यार्थतः शाश्वत है, फिर भी इसका अर्थ उस-उस समय में, उस-उस काल में आविर्भूत होता है। पहले भी यही प्रकरण, किसी दूसरे नाम से प्रतिपादित तथा अनुमत हुआ है, जैसे- ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन आदि में। १९१. आर्द्रक अनगार ने गोशालक, भिक्षु, ब्रह्मवती, त्रिदण्डी तथा हस्तितापसों को जो कहा, उसी को मैं यहां कहूंगा। १९२. बसन्तपुर नामक गांव में सामयिक नाम का गृहपति अपनी पत्नी के साथ धर्मघोष आचार्य के पास प्रवजित हुआ। उसने अपनी पत्नी साध्वी को भिक्षा के लिए जाते देखा और पूर्वक्रीडित क्रीड़ाओं की स्मृति हुई। साध्वी भक्त-प्रत्याख्यान द्वारा पंडित मरण कर देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुई। (वहां से बसन्तपुर नगर में एक सेठ के घर पुत्री रूप में उत्पन्न हुई)। १९३. मुनि को संवेग उत्पन्न हुआ। उसने मायापूर्वक भक्त प्रत्याख्यान किया और मरकर देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहां से च्यवन कर आर्द्र कपुर नगर में आर्द्र राजा के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम आर्द्रककुमार रखा गया। १९४-२०१. एक बार आर्द्र ककुमार के पिता ने प्रीतिवश महाराज श्रेणिक के पास उपहार भेजा। आर्द्रककुमार ने पूछा-क्या श्रेणिक के कोई पुत्र हैं ? ज्ञात होने पर उसने भी उपहार भेजा। अभयकुमार ने पारिणामिकी बुद्धि से जान लिया कि आर्द्रक कुमार सम्यग्दृष्टि है। उसने आर्द्रक कुमार के लिए प्रतिमा भेजी। आर्द्रककुमार को प्रतिमा देखते ही जातिस्मृति ज्ञान हुआ। वह संबुद्ध हो गया। वह प्रव्रजित न हो जाए, इसलिए राजा के आदेश से पांच सौ राजपुत्र उसकी रक्षा करने लगे। वह अश्ववाहनिका के बहाने से पलायन कर गया। प्रव्रज्या के समय देवता ने कहा-अभी १. देखें परि. ६, कथा सं ५। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग निर्युक्ति ३८३ दीक्षित मत बनो । देवता के कथन की अवमानना कर वह प्रव्रजित हो गया। विहरण करते-करते वह बसन्तपुर नगर में आया और प्रतिमा में स्थित हो गया । पूर्वभव की पत्नी श्रेष्ठीपुत्री ने मुनि का वरण कर लिया। देवताओं ने हिरण्यवृष्टि की । राजा ने उस धन को ग्रहण करना चाहा, तब देवता ने निषेध किया । पिता ने उस हिरण्य का संगोपन कर रख लिया । उस दारिका का वरण करने के लिए अन्य लोग आए । लड़की ने अपने पिता से उन आगंतुकों के प्रयोजन के विषय में पूछा । पिता ने बात बताई । कन्या बोली - तात ! कन्या का विवाह एक बार ही होता है, दो बार नहीं । पिता ने पूछा- क्या तू अपने पति को पहचानती है ? उसने कहा- 'मैं उनको पैरों के चिह्नों से जानती हूं ।' मुनि का आगमन हुआ । दारिका ने पहचान कर अपने पिता से कहा । पश्चात् वह दारिका अपने परिवार के साथ प्रतिमा में स्थित मुनि के पास गई। मुनि ने उसे स्वीकार कर लिया । वह उसके साथ भोग भोगने लगा। एक पुत्र उत्पन्न हुआ। आर्द्रक ने तब अपनी पत्नी से कहा- अब तुम पुत्र के साथ रहो। मैं पुनः प्रव्रजित होना चाहता हूं । पुत्र ने तब आर्द्रक को सूत से बांध दिया। सूत के बारह बंध थे । आर्द्रक उतने वर्षों तक घर में रहा, अवधि पूर्ण होने पर वह घर से निकल कर प्रव्रजित हो गया । वह एकाकी विहार करता हुआ राजगृह की ओर प्रस्थित हुआ। आर्द्रक राजकुमार के पलायन कर जाने पर, राजा के भय से वे पांच सौ रक्षक राजपुत्र अटवी में आकर चोर बन गए । अटवी में उन्होंने मुनि आर्द्रक को देखा। पूछा । वे सभी पांच सौ चोर प्रतिबुद्ध होकर प्रव्रजित हो गए । राजगृह नगर - प्रवेश पर आर्द्रक मुनि ने गोशालक, बौद्धभिक्षु, ब्रह्मवादी, त्रिदंडी तथा तापसों के साथ वाद किया। सभी वाद में पराजित हो गए। वे सभी उसकी शरण में आ गए। मुनि आर्द्रक सहित वे सभी परतीर्थिक भगवान् महावीर के पास आए और भगवान् के शासन में प्रव्रजित हो गए । ( मुनि आर्द्रक के दर्शन मात्र से एक मदोन्मत्त हाथी मुक्त होकर वन में चला गया। राजा द्वारा गजबंधन मुक्ति के विषय में पूछने पर मुनि आर्द्रक बोले ) - राजन् ! मनुष्य के पाश से बद्ध मदोन्मत्त हाथी का मुक्त होकर वन में चले जाना उतना दुष्कर नहीं है जितना दुष्कर है धागों से आवेष्टित मेरा विमोचन । मुझे यह दुष्कर प्रतीत होता है । सातवां अध्ययन २०२. अलं शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम अलं स्थापना अलं, द्रव्य अलं और भाव अलं । -- २०३. अलं शब्द का प्रयोग तीन अर्थों में होता है (१) पर्याप्ति भाव सामर्थ्य, जैसे- अलं मल्लो मल्लाय । (२) अलंकार - अलंकृत करने के अर्थ में किया) । (३) प्रतिषेध - अलं मे गृहवासेन- - अब मैं गृहवास में रहना नहीं चाहता । २०४. प्रस्तुत में प्रतिषेधवाची अलं शब्द का प्रसंग है । नालंदा शब्द स्त्रीलिंगी है। नालन्दा राजगृह नगर का उपनगर था । अलंकृतं (देव महावीर ने ज्ञातकुल को अलंकृत Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्यक्तिपंचक २०५. नालंदा के समीप मनोरथ नाम के उद्यान में इन्द्रभूति ने निग्रंथ उदक के प्रश्न के समाधान में इस अध्ययन का कथन किया। नालन्दा के समीप उद्यान में इसका प्रतिपादन होने के कारण यह अध्ययन नालन्दीय कहलाया। २०६. पापित्यीय उदक ने आर्य गौतम से श्रावक के विषय में पूछा। गौतम से श्रावक का धर्म सुनकर उदक संदेहरहित हो गया। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम २७. * ; १०. छेदसूत्रकार प्रथम भद्रबाहु को नमन । चौथी दशा : गणि-संपदा द्रव्य तथा भावदशा का उल्लेख ।। द्रव्यगणी तथा भावगणी का स्वरूप । आयु के आधार पर जीव की दस २६. ज्ञात शब्द के एकार्थक तथा आचार्य के अवस्थाएं। ज्ञानी होने का निर्देश । अध्ययन दशा के कथन की प्रतिज्ञा । आचार्य के 'आचारधर' होने का उल्लेख । विविध प्रकार से दशा का उल्लेख । २८. गणि/आचार्य की विशेषता । आयारदशा का स्थविरों द्वारा निर्वृहण का । २९. संपदा शब्द के निक्षेप। संकेत । ३०,३१. आचार्य को हाथी की उपमा तथा उसका प्रस्तुत ग्रंथ के अध्ययनों के कथन की प्रतिज्ञा। उपसंहार। दश अध्ययनों के नाम । पांचवी दशा : चित्तसमाधिस्थान पहली दशा : असमाधिस्थान ३२. चित्त तथा समाधि शब्द के निक्षेप । द्रव्य तथा भाव-समाधि का स्वरूप । द्रव्य चित्त का स्वरूप । स्थान शब्द के पन्द्रह निक्षेप। ३३११. भाव चित्त का स्वरूप । बीस असमाधिस्थान के अतिरिक्त भी ३३१२. द्रव्य तथा भाव समाधि का स्वरूप । असमाधि स्थानों का उल्लेख । ३४. चित्त समाधि के स्थानों में यतना करने का दूसरी दशा : सबल दोष निर्देश । १२. द्रव्य तथा भाव सबल का स्वरूप । छठी दशा : उपासक-प्रतिमा १३. सबल दोष की मर्यादा । ३५. उपासकों के प्रकार तथा द्रव्य और तदर्थक १४. घड़े एवं वस्त्र की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं उपासक का स्वरूप । द्वारा विराधना का वर्णन । मोह उपासक का स्वरूप । तीसरी दशा : आशातना भाव उपासक का स्वरूप । १५. आशातना के दो भेदों का उल्लेख । केवली द्वारा अगार और अनगार धर्म का लाभ आसादना का स्वरूप । उपदेश। उपासक और श्रावक में अन्तर । ३९,४०. द्रव्य आदि आसादना का उल्लेख । ४१. प्रतिमाओं के भेद । छठे और आठवें पूर्व में 'आ' उपसर्ग के । उपासक तथा भिक्ष प्रतिमाओं की संख्या वर्णन का उल्लेख तथा आशातना का का उल्लेख। निरुक्त। गहस्थ धर्म तथा साधु धर्म का आशातना का स्वरूप ।। सुखावबोध । उत्कर्ष (अभिमान) के परित्याग का ४४. साधुओं को तप, संयम में उद्यम करने का निर्देश । निर्देश। भारीकर्मा जीव का स्वरूप। ४४/१. उपासक की बारह प्रतिमाओं का आशातना किसकी ? नामोल्लेख । हलुकर्मी जीव का स्वरूप । सातवीं दशा : भिक्ष-प्रतिमा २४. गुरु की आशातना से ज्ञान, दर्शन आदि ४५. भिक्षु, उपधान और प्रतिमा शब्द के का नाश तथा विराधना । निक्षेप । mr m m १७. ४२. २२. Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ निर्मुक्तिपंचक १०३. समाधि आदि पांच प्रतिमाओं का १०१. अनंतानुबन्धी क्रोध आदि कषायों का नामोल्लेख। उपशमन । आचारांग आदि आगमों में वर्णित १०२. अनंतानुबंधी क्रोध आदि चार कषायों की प्रतिमाओं की संख्या का निर्देश। स्थिति एवं गति । मान, माया और लोभ की उपमाओं का श्रुत-समाधि प्रतिमा तथा चारित्र-समाधि निर्देश। प्रतिमा का उल्लेख । १०४. क्रोध, मान आदि कषायों के उदाहरणों का भिक्ष और उपासक प्रतिमा का सूत्र में उल्लेख । वर्णन होने का निर्देश तथा विवेक प्रतिमा । १०४११. सद्गति हेतु नित्य उपशांत रहने का निर्देश । का उल्लेख। १०५-१२. क्रोध में मरुक, मान में अचंकारियभट्टा, प्रतिसंलीन तथा एकाकीविहार प्रतिमा का माया में साध्वी पोडरा तथा लोभ में मंगु उल्लेख । आचार्य का उदाहरण । ५१,५२. एकलविहार प्रतिमा ग्रहण करने वाले मुनि ११३. कषायों के दुष्परिणाम जानकर उनसे की विशेषताएं। निवृत्त होने का निर्देश । आठवी दशा : पर्युषणाकल्प ११४. चातुर्मास में प्रायश्चित्त वहन करने की ५३,५४ पर्युषणा शब्द के एकार्थक । सुविधा। ५५. स्थापना शब्द के निक्षेप । ११५. प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों की पर्युषणा ५६,५७. भावस्थापना का स्वरूप । का निर्देश । ५८. चातुर्मास में प्रवेश और विहार के नियमों ११६-१९. वर्षा के समय भिक्षाचर्या करने और न करने के कारणों का निर्देश । के कथन की प्रतिज्ञा । १२०. उत्तरकरण का स्वरूप । ५९-६३. चातुर्मास के अतिरिक्त विहार करने के नवी दशा : मोहनीयस्थान नियम। आषाढ़ी पूर्णिमा को वर्षावास स्थापित करने १२१. मोह शब्द के चार निक्षेपों का उल्लेख तथा भावस्थान का अधिकार ।। का निर्देश तथा मिगसर कृष्णा दशमी तक १२२. द्रव्य मोह के भेद-प्रभेद । वहां रहने का उल्लेख । १२३. आठौं कर्मों का पूर्वो में वर्णन का उल्लेख । ६४११. चातुर्मास योग्य क्षेत्र की विशेषताएं। १२४-२६. कर्म शब्द के एकार्थक । ६५-६९. चातुर्मास स्थापित करने के नियमों एवं १२७.१२८. महामोह कर्मबंध के कारणों का उल्लेख कारणों का निर्देश । तथा उनके वर्जन का उपदेश । ज्येष्ठावग्रह (छः मास तक एक स्थान पर दसवीं दशा : आजातिस्थान रहना) का उल्लेख । १२९. आजाति शब्द के निक्षेप । ७१-७५. वर्षावास के बाद विहार करने और न करने १३०. द्रव्य तथा भाव आजाति के भेद-प्रभेद । के कारणों का उल्लेख । १३१. जाति और आजाति का स्वरूप । ७६-७९. चातुर्मास काल में क्षेत्रावग्रह की मर्यादा। १३२. प्रत्याजाति का स्वरूप । ८०-८८. द्रव्य स्थापना के सात द्वार और उनका १३३ निदान से मोक्ष में बाधा। विवरण । १३४-१३६. मोक्ष-प्राप्ति के उपायों का उल्लेख । आचार की स्खलनाओं का प्रायश्चित्त तथा १३७. निदान शब्द के एकार्थक । कषाय के उपशमन का निर्देश। १३८. द्रव्य बंध के भेद । ९०,९१. वर्षाकाल में हिंसा की सम्भावना से समिति १३९. क्षेत्र और कालबंध का स्वरूप । आदि में जागरूकता का निर्देश । १४०,१४१. भावबंध के प्रकार । ९२-१००. कलहशमन में दुरूतक, प्रद्योत एवं द्रमक १४२. अनिदानता की श्रेष्ठता का उल्लेख । की कथा का निर्देश । १४३. संसार-सागर को पार करने के उपाय । ७०. Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. दशाश्रुतस्कन्ध निर्युक्ति वंदामि भद्दा, पाई सुत्तस्स कारगमिसि, दसासु आउविवागभयणाणि ५ भावओ दव्वओ उ वत्थदसा । दस आउविवागदसा, वाससयाओ दस ह छेत्ता ॥ बाला 'मंदा किड्डा'', बला य पण्णा य हायणि पवंचा । भार- 'मुम्मुही सयणी, नामेहि य लक्खणेहि दसा ॥ दस आउविवागदसा, नामेहि य लक्खणेहि एहिंति । अज्झयणदसा, अहक्क मं कित्तसामि || तो १. चरम (बी) । २. ० नाणी (पंचभा १ ) । ३. सुत्तत्थ (पंचभा ) । ४. हरीओ तु इमाओ, अज्झयणेसु महईओ अंगे । छसु Sarai, वत्थविभूसावसाणमिव ॥ चरिम - 'सयल सुयनाणि । कप्पे य ववहारे ॥ दसाण (पंचभा), दसाणु ( ब ) । Ε हरीओ तु इमाओ, निज्जूढाओ अणुगट्ठाए । थेरेहिं तु दसाओ, जो दसा जाणओ जीवो ॥ 'दसाणं पिंडत्थो'", एसो मे वणितो समासेणं । एत्तो एक्केक्कं 'पि य", अज्झयणं कित्तइस्सामि ॥ असमाहिय सबलत्तं, अणसादण १२ गणिगुणा मणसमाही । सावग - भिक्खुपडिमा कप्पो मोहो निदाणं च' ।। ५. ० ज्झयणा ( चू) । ६. किड्डा मंदा (पंचभा २५२ ) । ७. मुम्मुहुति सयणी ० ( अ ), मुम्मुही विय सयणी दसमा य णायव्वा (पंचभा), तंदुल ३१, ठाणं १०।१५४, निभा ( ३५४५ ) में यह गाथा कुछ अंतर के साथ मिलती है बाला मंदा किड्डा, पवंचा पब्भारा या, य हवंति (ला), x (बी) । पबला पण्णा य हायणी । मुम्मुही सायणी तहा ॥ ८. ९. णायादीसु (ला) । १०. एसो दसाणतोहो, (चू) । ११. पुण (चू । १२. अणा० ( अ ), छंद की दृष्टि से अणसादण पाठ स्वीकृत किया है । १३. चूर्णि की व्याख्या में सातवीं और आठवीं गाथा में क्रमव्यत्यय है । Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० नियुक्तिपंचक दव्वं 'जेण व दवेण, समाधी आहितं च जं दव्वं । भावो सुसमाहितया, जीवस्स पसत्थजोगेहिं ।। नाम ठवणा दविए, खेत्तद्धा उड्ड' उवरती' वसही । संजम-पग्गह-जोहे', अचल-गणण-संधणा भावे ।। वीसं तु" णवरि णेम्म, अइरेगाइं तु तेहि सरिसाइं । नायव्वा एएसु य, अन्नेसु य एवमादीसु ॥ असमाहिट्ठाणनिज्जुत्ती समत्ता दव्वे चित्तलगोणादि, एसु" भावसबलो खुतायारो। वतिक्कमे अइक्कमे, अतियारे" भावसबलो उ । अवराधम्मि पतणुए, जेण उ मूलं न वच्चए साहू । 'सबलेइ तं'१२ चरित्तं, तम्हा सबलत्तणं' बेंति ॥ बाले राई दाली, खंडे बोडे खुते" य भिन्ने य । कम्मासपट्टसबले,१५ सम्वा वि विराहणा भणिया ॥ सबलनिज्जुत्ती समत्ता आसायणा उ दुविहा, मिच्छापथ्विज्जणा य लाभे य । लाभे छक्कं तं पुण, इट्टमणिठं दुहेक्केक्कं ।। 'साधू तेणे ओग्गह,१७ कतार-वियाल-विसम सुहवाही । 'जे लद्धा ते ताणं, भणंति'१८ आसादणा तु जगे ।। दव्वं माणुम्माणं, होणहियं• जम्मि खेत्त जं कालं । एमेव छव्विहम्मी, भावे पगयं तु भावेण ॥ १. जेणेव(बी)। १२. लेई तं (मु), ०लेइमं (बी)। २. तु०दशनि ३०४ । १३. सबल त्ति णं (ला)। ३. उद्ध (अ)। १४. खुत्ते (मु)। ४. ओवरइ (अ), रई (मु)। १५. कम्मग० (बी)। ५. जोहो (बी, अ)। १६. ०पडिवत्तितो (चू)। ६. आनि १८५, उनि ३७९,५१६, सूनि १६८ ।। १७. साधू तेणोग्गह (च)। ७. ति (अ)। १८. जे लद्धा दव्वादी भणंति (ला), जे लद्धा ८. णेमं (अ)। दव्वादी इट्टाणिट्ठा (चूपा)। ९. दव्वं (ला, मु) १९. ०माणे (बी)। १०. एस (बी)। २०. हीणाहियं (बी, मु)। ११. तियारे (ला)। Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 दशाश्रुतस्कंध निर्युक्ति १८. १९. २०. २१. २२. २३. २४. २५. २६. २७. २८. छट्ठट्ठमपुब्वे, आउवसग्गो त्ति सव्वत्तिकओ । अत्थविसोहिकरो, दिन्नो आसायणा तम्हा || मिच्छापडिवत्तीए, जे भावा जत्थ होंति तेसिं तु वितहपडिवज्जणाए आसायणा न करेति दुक्खमोक्खं, उज्जममाणो वि तम्हा अत्तुक्करिसो, वज्जेतव्वो सब्भूता । तम्हा' ॥ संजम - तवेसु । पयत्तेनं ३ ।। जाणि भणिताणि सुत्ते, ताणि जो कुणति अकारणज्जाए । सो खलु भारियकम्मो, न गणेति गुरुं गुरुद्वाणे || दंसण - नाण-चरितं तवो य विणओ य होंति गुरुमूले । विणओ गुरुमूले त्ति य, गुरुणं * आसायणा तम्हा || जाई भणियाई सुत्ते, ताइं जो कुणइ कारणज्जाए । सो न हु भारियकम्मो, गणेती गुरुं गुरुट्ठाणे ।। सो गुरुमासातो, दंसण - णाणचरणेसु सयमेव । सीयति कतो आराहणा, से तो ताणि वज्जेज्जा ॥ आसायणनिज्जुत्ती समत्ता दव्वं सरीरभविओ, भावगणी गुणसमन्निओ दुविहो । गणसं गहुवग्गहकारओ य धम्म च जाणतो || १. निभा २६४८ । २. पदेसु ( सूनि ) । ३. जतिजणेणं ( सूनि १२६ ) । ४. गुरुहि (ला, बी) । नातं गणितं गुणितं गतं च एगट्ठ एवमादीयं । नाणी गणित्ति तम्हा, धम्मस्स वियाणओ भणिओ || आयारम्मि अधीते, जं नाओ होति समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो, भण्णइ पढमं गणिट्ठाणं ॥ गणसं गहु वग्गहकारओ, गणी जो पभू गणं धरिडं । तेण णओ छक्कं, संपयाएँ पगयं चउसु तत्थ ।। ५. गुरू ( अ ) । ६. प्रकाशित चूर्णि की गाथाओं के क्रम में यह ७. धरेउ (ला, बी) । ३९१ गाथा मिलती है लेकिन चूर्णिकार ने इस गाथा की व्याख्या नहीं की है। ला, अ और बी प्रति में यह गाथा उपलब्ध है । विषय की क्रमबद्धता की दृष्टि से यह गाथा नियुक्ति की होनी चाहिए। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ २९. ३०. ३१. ३२. ३३. नामं ठवणा चित्तं, दव्वे भावे य होइ बोधव्वं । एमेव समाहीए, 3 निक्खेवो व्हो होइ | जीवो तु दव्वचित्तं, जेहि च दव्वेहि जम्मि वा दव्वे । नाणादिसु सुसमाही, धुवजोगी भावओ चित्तं ॥ ३३।१. अकुसलजोगनिरोहो, कुसलाणं उदीरणं च जोगाणं । एयं तु भावचित्तं, होइ समाही इमा चउहा ।। दव्वं जेण व दव्वेण, समाही आहितं च जं दव्वं । भावे समाही चउब्विह, दंसण-नाण-तव-चरिते ॥ भावसमाधी चित्ते, ठितस्स ठाणा इमे विसितरा । होइ जओ पुण चित्ते, चित्तसमाहीए जइयव्वं ॥ चित्तसमाहिट्ठाणनिज्जुत्ती समत्ता दव्वतदट्ठोवासग मोहे भावे उवासगा चउरो । दव्वे " सरीरभविओ, ओ यादी || कुप्पवयणं कुधम्मं, उवास मोहुवासगो सो उ । हंदि तहि सो सेयं, मण्णति 'सेयं च' नत्थि तहि ॥ 'भावे उ" सम्मदिट्ठी, सम्ममणो जंध उवासए समणे । तेण" सो गोण्णं नाम, उवासगो सावगी वत्ति ॥ ३३।२. ३४. ३५. ३६. ३७. दव्वे भावे य सरीरसंपया छव्विधा य भावम्मि । दवे खेत्ते काले, भावम्मि य संगपरिणा ॥ गिरि-कंदर - कडग - विसमदुग्गे । निययसरी रुग्गए दंते ॥ तह पवयणभत्तिगओ, साहम्मियवच्छलो असढभावो । परिवह असgari, खेत्त-विसम-काल- दुग्गेसु ।। गणसंपयानिज्जुत्ती समत्ता जध गयकुलसंभूतो, परिवहइ अपरिततो, १. पंकभा १९१५, व्यभा १९४७ । २. पंकभा १९१६, व्यभा १९४८ । ३. ०हीण (बी) । ४. यह गाथा केवल 'अ' प्रति में मिलती है । चूर्णि में यह अव्याख्यात । संभव है अ हस्तप्रति में यह गाथा प्रसंगवश जोड़ दी गयी हो । ५. यह गाथा प्रकाशित चूर्णि में गाथा के क्रम में मिलती है लेकिन इसकी व्याख्या चूर्णिकार ने नहीं की है। आदर्शों में यह गाथा नहीं मिलती है । ६. दव्वं (बी, ला) । ७. x ( बी, चू) । भावओ (बी) । ८. ९. जो (बी) । १०. तेणं (बी) । निर्युक्तिपंचक Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • दशकंध नियुक्ति ३८. ३९. ४०. ४१. ४२. ४३. ४४. ४४।१. ४५. ४६. ४७. कामं दुवालसंगं, पवयणमणगारऽगारधम्मो य । ते केवलीहि पसूया, प-उवसग्गो सूर्यति ॥ तो ते सावग तम्हा, उवासगा तेसु होंति अविसेसम्म विसेसो, समणेसु पहाणया कामं तु निरवसेसं, सब्वं जो कुणति तेण तमिठिताओ समणा, नोवासगा सावगा दव्वम्मि सचित्तादी, संजतपडिमा ' तहेव जिणपडिमा | भावो संताण र गुणाण, धारणा जा जहि भणिया || सा दुविधा छव्विगुणा, भिक्खूण उवासगाण एगूणा । उवरि भणिया भिक्खूणुवासगाणं तु वोच्छामि || तत्यहिगारो तु सुहं णाउं आइक्खिओ व गिहिधम्मं । साहू च तव - संजमम्मी संवेगकरणाणि || दंसण-वय-सामाइय-पोसहपडिमा आरंभ-पेस- उद्दिवज्जए जता गिहिणो विय उज्जमंति नणु साहुणावि कायव्वं । सव्वत्थामो तव - संजमम्मि इय सुट्ठ नाऊणं ॥ अबंभ सच्चित्ते । समणभूए य ॥ उवास पडिमा निज्जुत्ती समत्ता भत्तिगया । भणिया || य, ५ समाधिओवा पडिलीणा य तहा, एगविहारे होइ कयं । गिहिणो || भिक्खूणं उवधाणे, पगयं तत्थ व हवंति निक्खेवा । तिन्नि य पुव्वुद्दिट्ठा, पगयं पुण भिक्खुपडिमाए | १. संजम ० ( बी, चू) । २. सभाव (बी), संताव ( अ ) । य आयारे बायाला, पडिमा सोलस य चत्तारि य ववहारे, मोए दो ३. सुद्ध (मु) । ४. चूर्णि की मुद्रित प्रति की गाथाओं में यह गाथा दो बार उल्लिखित है भी यह गाथा मिलती है । तथा आदर्शों में चूर्णिकार ने इस विवेगपडमाइया । पंचमिया ॥ ५. ६ वणिया ठाणे । चंदपडिमाओ || गाथा की व्याख्या नहीं की है। संभव है चूर्णिकार के सामने यह गाथा नहीं थी प्रसंगानुसार बाद के आचार्यों ने इसे बाद में जोड़ दी है । या (ला, बी) । ० पडिमाइ य ( अ ) । ३९३ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. ५३. नियुक्तिपंचक ___ एवं तू सुयसमाधिपडिमा छावट्ठिया य' पण्णता । सामाइयमाईया, चारित्तसमाहिपडिमाओ ॥ भिक्खणं उवहाणे, उवासगाणं च वण्णिया सूत्ते । गणकोवाइविवेगो, सब्भितरबाहिरो दुविहो ।। सोतिदियमादीया, पडिसंलीणा' चउत्थिया दुविहा । अट्ठगुणसमग्गस्स य, एगविहारिस्स पंचमिया ।। दढसम्मत्तचरित्ते, मेधावि बहुस्सुए य अयले य । अरइरइसहे दविए, खंता भयभेरवाणं च ।। परिजित५ कालामंतण, खामण-तव-संजमे य संघयणे । भत्तोवहिनिक्खेवे, आवन्ने लाभ-गमणे य॥ भिक्खुपडिमाए निज्जुत्ती समत्ता पज्जोसमणाए' अक्खराइं, होति उ इमाइ गोण्णाई । परियायववत्थवणा, पज्जोसमणा य पागइया ।। परिवसणा पज्जुसणा, पज्जोसमणा' य वासवासो य । पढमसमोसरणं ति य, ठवणा जेट्ठोग्गहेगट्ठा । ठवणाए निक्लेवो, छक्को दव्वं च दम्वनिक्खेवे । 'खेत्तं तु'८ जम्मि खेत्ते, काले कालो जहिं जो उ ॥ __ ओदइयादीयाणं," भावाणं जा" जहिं भवे ठवणा । भावेण जेण य पुणो, ठविज्जए१२ भावठवणा तु ॥ सामित्ते करणम्मि य, अहिगरणे चेव होंति छन्भेया। एगत्त-पुहत्तेहिं," दवे खेत्तऽद्ध५ भावे य ।। ५८. कालो समयादीओ, पगयं समयम्मि" तं परूवेस्सं । निक्खमणे य पवेसे, पाउस-सरए य वोच्छामि ।। १. च (मु)। ९. निभा ३१४०। २. सामाईय० (चू)। १०. उदइयाई (अ), उदइयाणं (ब)। ३. चरित्त० (बी)। ११. जो (निभा)। ४. पदिसलीणया (मु)। १२. ०वेज्जते (निभा), ठविज्जइ (ब)। २. परिचिय (मु)। १३. निभा ३१४१ । ६. ०सवणाए (बी, निभा ३१३८) सर्वत्र । १४. पुहुत्तेहिं (अ)। ७. ०सवणा (निभा, ३१३९) । १५. खेत्ते य (निभा ३१४२)। ८. वेत्तम्मि (ला)। १६. कालम्मि (निभा ३१४३) । ५७. m Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति ३९५ ऊणातिरित्तमासे, अट्ट विहरिऊण गिम्ह-हेमंते । एगाहं पंचाहं, मासं च जहासमाहीए' । काऊण मासकप्पं, तत्थेव उवागयाण कणा ते । चिक्खल्ल' वास रोहेण, 'वावि तेण' ट्ठिया ऊणा ॥ वासाखेत्तालंभे, अद्धाणादीसु 'पत्तमहिगा तु'५ । साधगवाघातेण व, अपडिक्कमित्तु जइ वयंति ।। पडिमापडिवन्नाणं, एगाह पंच होतऽहालंदे" । जिण-सुद्धाणं मासो, निक्कारणतो य थेराणं ।। ऊणातिरित्तमासा, एवं थेराण अट्ट" नायव्वा । 'इतरे अट्ठ विहरिउ,१२ नियमा चत्तारि अच्छंति" ॥ आसाढपुण्णिमाए, वासावासम्मि" होति ठातव्वं५ । मग्गसिरबहुलदसमीओ, जाव एक्कम्मि खेत्तम्मि ।। ६४।१. विज्जो ओसह निवयाहिवई पासंड भिक्ख सज्झाए । चिक्खल्ल पाणथंडिल्ल, वसही गोरसजणाउलो" । ६५. 'बाहिं ठिता'१८ वसभेहि, खेत्तं गाहेत्तु वासपाओग्गं । कप्पं कहेत्तु ठवणा, सावण सुद्धस्स' पंचाहे ।। १. निभा ३१४४ । १६. चिक्खिल्ल (ब)। २. उ (निभा ३१४५)। १७. प्रस्तुत गाथा चूणि में व्याख्यात नहीं है । ३. चिक्खिल्ल (ब)। किन्तु आदर्शों में प्राप्त है। निशीथ भाष्य ४. वावि तीए (निभा), दोवि तेण (बी)। में दशाश्रुतस्कन्ध के पज्जोसवणाकप्प ५. महिगातो (च) । की सभी नियुक्ति-गाथाएं उद्धृत ६. सावग० (ब)। हैं। चालू क्रम में यह गाथा निशीथ में भी अप्पडिकम्म तं (निभा ३१४६) । नहीं मिलती है, तथा विषयानुसार प्रासंगिक ८. ०पडिवन्नगाणं (अ)। भी नहीं है इसलिए हमने इसे नियुक्तिगाथा ९. एगाहो (निभा ३१४७) । के क्रम में नहीं जोड़ा है। आदर्शों में पूर्वाधं १०. हुतिहालंदे (ब)। चिक्खल्ल ....."है तथा उत्तरार्ध विज्जो... ११. हुंति (ब)। है। किन्तु छंद की दृष्टि से क्रमव्यत्यय होना १२. इतरेसु अट्ट रियितुं (ब)। चाहिए। १३. निभा ३१४८ । १८. बाहिट्ठिता (निभा), वसहिट्ठिया (बी)। १४. ०वासं तु (मु), ०वासासु (निभा ३१४९)। १९. सावणबहुलस्स (निभा ३१५०, बभा ४२८१)। १५. अतिगमणं (बृभा ४२८०) । Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ नियुक्तिपंचक एत्थं तु' अणभिग्गहियं, वीसतिराइं२ सवीसती मासं । तेण परमभिग्गहियं, गिहिणातं कत्तिओ जाव ।। असिवादिकारणेहिं, अहवा' वासं न सुट्ठ आरद्धं । अभिवड्ढियम्मि वीसा, इयरेसु सवीसती मासो । एत्थ तु पणगं पणगं, कारणियं जा सवीसती मासो । सुद्धदसमीठियाण व, आसाढीपुण्णिमोसरणं । 'इय सत्तरी'८ जहण्णा, असीति नउती दसुत्तरसयं च । जइ वासति मग्गसिरे, दस राया" तिनि उक्कोसा" ।। काऊण मासकप्पं, तत्थेव 'ठियाणऽतीएँ मग्गसिरे'१२ । सालंबणाण छम्मासितो तु जेट्ठोग्गहो होति ॥ जदि अत्थि पदविहारो, 'चउपाडिवयम्मि होइ गंतव्वं'१५ । अहवा वि 'अणितस्सा, आरोवण'१६ पुवनिद्दिट्ठा ।। ७२. काइयभूमी संथारए य संसत्त" दुल्लभे भिक्खे । एतेहि कारणेहिं, अप्पत्ते होति निग्गमणं'८ ।। ७३. राया 'सप्पे कुंथ',६ अगणि-गिलाणे य थंडिलस्सऽसती । एतेहि कारणेहिं, अप्पत्ते होति निग्गमणं ॥दारं।। १. य (ब, बृभा ४२८२) । रूप में कोई उल्लेख नहीं किया है। २. ०रायं (मु, बृभा))। पण्णासा पाडिज्जति, चउण्ह मासाण मज्झओ। ३. सवीसति (निभा ३१५१), सवीसगं (बृभा)। ततो उ सत्तरी होइ, जहण्णो वासुवग्गहो । ४. ०गहीयं (ब)। १२. ठियाण तीतमग्ग० (निभा ३१५६), ठियाण ५. अहव न (निभा ३१५२), बभा ४२८३ । जाव मग्ग० (ला)। ६. ०दसमिट्टियाण (ब, मु)। १३. भणितो (निभा), बृभा ४२८६ । ७. मोसवणा (निभा ३१५३, बृभा ४२८४)। १४. अह (बृभा ४२८७)। ८. ईय सत्तरि (ब)। १५. चउपडिवयम्मि होइ णिग्गमणं (निभा ९. मिग्ग० (मु)। __३१५७, बृभा)। १०. रायं (बी, ला)। १६. अणितस्स आरोवणा (निभा), यह गाथा ला ११. निभा ३१५४, बृभा ४२८५। निशीथ और बी प्रति में अनुपलब्ध है। भाष्य में पर्युषणाकल्प की सभी नियुक्ति- १७. संसत्तं (निभा ३१५९)। गाथाएं उद्धृत हैं। गाथा ६९ के बाद निभा १८. निशीथ भाष्य में ७२ और ७३ की गाथा में (३१५५) में निम्न गाथा मिलती है। यह क्रमव्यत्यय है। गाथा दशाश्रुतस्कंध की प्रतियों में उपलब्ध १९. कुंथू सप्पे (निभा ३१५८) । नहीं है। चूर्णिकार ने भी इसका गाथा के Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति वासं' व 'न उवरमती', पंथा वा दुग्गमा सचिक्खिल्ला । एतेहिं कारणेहिं, अइक्कते होति निग्गमणं' ।। असिवे ओमोयरिए, रायादुद्रु' भए व गेलण्णे । एतेहिं कारणेहिं, अइक्कते होयनिग्गमणं ।। उभओ वि अद्धजोयण, सअद्धकोसं च तं हवति खेत्तं । होति सकोसं जोयण, मोत्तूणं कारणज्जाए । उड्डमहे तिरियम्मि य, 'सकोसयं सव्वतो हवति'८ खेत्तं । इंदपदमादिएसं, छद्दिसि सेसेस" चउ पंच" ॥ तिण्णि दुवे एगा वा, वाघातेणं दिसा हवति खेत्तं । उज्जाणाउ परेणं, छिण्णमडवं तु अक्खेत्तं ।। दगघट्ट तिण्णि सत्त व, उडुवासासु ण हणंति तं खेत्तं । चउरट्ठाति हणंती, 'जंघद्धक्को वि तु परेणं ॥दारं।। दव्वट्ठवणाहारे, विगती-संथार-मत्तए लोए । सच्चित्ते अच्चित्ते, वोसिरणं गहण-धरणादो ।। पुवाहायोसवणं," जोगविवड्ढो य सत्तिउग्गहणं५ । 'संचइय असंचइए", दम्वविवड्ढो पसत्याओ" ॥ ८२. विगति विगतोमोतो, विगतिगयं जो उ भुंजते ८ भिक्खू । विगती विगयसभावं' विगतो विगति बला नेइ ।। १. वासा (बी)। ९. ०एसू (निभा)। २. न ओरमती (मु), णो रमई (ला)। १०. इयरेसु (अ)। ३. निभा ३१६०। ११. खेत्ते (निभा ३१६४)। ४. रायदुठे (अ, निभा ३१६१)। १२. ते (निमा ३१६५), ५. होइ निग्गमणं (मु), कुछ प्रतियों में इस गाथा १३. निभा ३१६६ । के पश्चात् 'काऊण मासकप्पं' (गा. ७१) १४, ०समणं (ला)। वाली गाथा है। १५. सत्तिोगहणं (निभा ३१६७) । ६. दहओ (व)। १६. ० इयमसंच ० (निभा)। ७. अद० (निभा ३१६२)। १७. पसत्था उ (मु)। ८. सक्कोसं हवंति सव्वतो (निभा ३१६३), १८. गिण्हए (अ,ब,बी,ला)। सकोसं होइ सवओ (ला)। १९. विगतिसहावा (निभा ३१६८)। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ ८२।१. ८३. ८४. ८५. ८६. ८७. ८५. ८९. ९०. निर्युक्तिपंचक गरहा पसत्थविगतिग्गहणं, तत्थ विय असंचइय उ जा उत्ता । संचय ण गेहंती, गिलाणमादीण कज्जट्ठा' ॥ पसत्थविगतिग्गहणं, गरहितविगतिग्गहो य कज्जम्मि | लाभपमाणे, पच्चयपावप्पडीघातो ॥ कारणओ उडुगहिते, उज्झिऊण गेव्हंति अण्णपरि साडी' । दाडं गुरुस्स तिणि उ, सेसा गेव्हंति एक्क्कं ॥ उच्चार पासवण खेलमत्तए, तिष्णि तिणि गेहति। आएट्ठा 'भुंजेज्जऽवसेस उभंति ॥ घुवलोओ उ जिणाणं, निच्चं थेराण वासवासासु" । असहू गिलाणगस्स व, 'नातिक्का मेज्ज तं रर्याणि ॥ मोत्तुं पुराण - भावितसड्ढे, संविग्ग सेसपडिसेहो" । ' मा होहिति निद्धम्मो', " भोयणमो य उड्डाहो ॥ दारं ॥ संजय डगलच्छारे लेवे, छड्डण गहणे तव धरणे य । पुंछण-गिलाण मत्तग, भायणभंगादिहेतु से १२ ॥ इरिएसण-भासाणं, मण - वयसा - काइए ३ अहिकरण-कसायाणं, संवच्छरिए कामं तु सव्वकालं, पंचसु समितीसु होति 'वासासु अहीगारो', ' बहुपाणा मेदिणी जेणं ५ ।। जतियव्वं । १४ १. ८२०१ की गाथा निभा ३१६९ में ही मिलती है । आयारदशा की हस्तप्रतियों में यह गाथा अप्राप्त है। चूर्णि में भी इस गाथा की व्याख्या नहीं मिलती है । इस गाथा के सम्बन्ध में दो बातें संभव है । प्रथम तो स्वयं निशीथ भाष्यकर ने स्पष्टता के लिए यह गाथा लिख दी हो। दूसरा यह भी संभव है कि आयारदशा नियुक्ति के लिपिकारों द्वारा यह गाथा छूट गई हो । पुष्ट प्रमाण के अभाव में इसे निर्युक्ति गाथा के क्रम में नहीं रखा है । २. विगतीए गहणम्मि वि ( निभा ३१७०) । ३. व ( निभा, ब ) । ४. कारणे ( निभा ३१७१) । ५. ० साडि ( निभा ), ०परिपाडी (बी) । ६. संजम (ला, निभा ३१७२ ) । ७. य ( अ, निभा ३१७३) । यदुच्चरिते । विओसवणं ॥ 5. ९. ०वासा उ (बी) । तं रर्याणि तु णऽतिक्कामे ( निभा ) । नातिकमेज्जा तं० (बी) । १०. सच्चित्त से० ( ला निभा ३१७४) । ११. मानिओ भविस्सइ (मु.अ ) । १२. प्रस्तुत गाथा आयारदशा की चूर्णि की मुद्रित पुस्तक में तथा कुछ आदर्शों में नहीं मिलती है । किन्तु चूर्णि में इसकी व्याख्या मिलती है । इसके अतिरिक्त निशीथ भाष्य (३१७५) में भी इस क्रम में यह गाथा उपलब्ध है । हमने इसे नियुक्ति गाथा के क्रम में सम्मिलित किया है । १३. कायए ( निभा ३१७६) । १४. वासावासं अहिगारो ( ब ) । १५. निभा ३१७७ । Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति ९१. भासणे' संपातिवहो,२ दुण्णेओ नेहछेए ततियाए । इरियचरिमासु दोसु वि, अपेह 'अपमज्जणे पाणा' । मण-वयण-कायगुत्तो, दुच्चरियाई तु खिप्पमालोए । 'अहिक रणम्मि दुरूयग', पज्जोए चेव दमए य ।। 'एगबइल्ला भंडी',८ पासह तुब्भे वि 'डज्झ खलहाणे' । 'हरणे झामणजत्ता, भाणगमल्लेण घोसणया" ।। अप्पिणह तं बइल्लं, दुरूतगा ! ११ तस्स ! कुंभकारस्स । मा भे डहीहि धण्णं, अन्नाणि वि सत्तवासाणि ।। ९५. चंपा ‘कुमार नंदी',५ पंचऽच्छर थेर नयण दुमऽवलए। विह१६ 'पास णयण'" सावग, इंगिणि उववाय णंदिसरे१८ ।। बोहण पडिमोद्दायण,६ पभावउप्पाय देवदत्तद्दे२० । मरणुववाते तावस, नयणं 'तह भीसणा'२१ समणा ।। गंधारगिरी देवय, पडिमा गुलिया गिलाण-पडियरणं२२ । पज्जोयहरण पुक्खर,२३ 'रणगहणे मेऽज्ज ओसवणा'२४ ।। दासो दासीवतिओ, छत्तट्ठो२५ जो घरे य वत्थव्वो२६ । आणं कोवेमाणे, तव्वो बंधियव्वो य ।। १. भासण (अ) १३. गाम (अ,मु)। २. संपाइम वहो (मु)। १४. ०वरिसाणि (निभा) । ३. ०छेद् (निभा ३१७८), नेहच्छेओ (ब)। १५. अणंगसेणो (निभा ३१८२) । ४. अपमज्ज पाणाणं (बी)। १६. विहि (ला)। च (बी,अ), व (T, निभा)। १७. पासणया (सु)। णिच्चमालोए (ब, निभा ३१७९)। १८. णदिवरे (निभा ३१८२)। ७. अहिक रणे तु दुरूवग (निभा) गरणे य० १९ पडिमा उदयण (अ) । (अ,बी)। २०. देवदत्ताते (अ,च), देवया अद्दे (ला,बी)। ८. एगबतिल्लं भंडि (निभा ३१८०), ०ल्ला २१. तहा भेयण (ला, बी)। गड्डी (अ)। २२. ०यरेण (अ)। ९. डझंतख० (निभा), सत्तख० (बी)। २३. दोक्खर (अ,मु)। १०. हरणेज्झामण भाणग, घोसणता मल्ल जुद्धेसु २४. रणगहणे णामओसवणा (निभा ३१८४), करणं (बी, निभा)। गहणेण ओसवणा (ला,बी)। ११. दुरूवगा (निभा ३१८१), दुरुवतग (बी)। २५. छत्तट्ठी (निभा ३१८५), छत्तट्ठिय (अ)। १२. डइहिदि (निभा)। २६. वत्तब्वो (निभा)। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ९९. १००. १०१. १०२. १०३. १०४. १०५. aarssदायि गेहे पायस 'दट्ठ दमचेडरूवाई" । पितरोभासण खीरे, जाइय 'रद्वेण सेणा उ । पायसहरणं छेत्ता, 'पच्चागय दमग असियए भाउय सेणा हिवसिणा, ' य सरणागतो वाओदएण राई, नासति कालेण सिगय नासति दगस्सराई, पव्वतराई तु सेलऽट्ठि - थंभ-दारुय, लता य वंसी" य 'मिढ गोमुत्तं " " । अहणिया किमिराग-कद्दम - कुसुंभय-हलिद्दा" ।। एमेव थंभकेयण, वत्थेसु परूवणा गतीओ य । 'मरुय - अचकारिय" पंडरज्ज-मंगू य आहरणा" ।। १०४।१. चउसु कसाएसु गती, नरय- तिरिय- माणुसे य उवसमह णिच्चकालं, सोग्गइमग्गं उदगसरिच्छा पक्खेणऽवेति चतुमासिएण सिगयसमा । वरिसेण पुढविराई, आमरणगती उ" पडिलोमा | अवहंत गोण मरुए, चउण्ह वप्पाण 'छोढुं मए मुट्ठाऽतिकोवे १७ सीसं । जत्थ || पुढवीणं । जा सेलो ॥ १२. मेंढ गोमुत्ती ( निभा) । १३. निभा ( ३१९१ ) में गाथा का उत्तरार्धं इस प्रकार है - अवलेहणि किमि कद्दम कुसुंभरागे इलिद्दा य । देवगती । वियाणंता" ।। १. दमचेडरूवगा दठ्ठे ( निभा ३१८६) दट्ठूण १४. मरुयऽच्चकारिय ( ब, मु ) । चेड० ( अ, मु) । १५. निभा ३१९० । २. लद्धे य तेणा उ ( अ, मु), रद्धे य तेणा तो (निभा) । ३. मसियए (बी) । ४. पच्छागय असियएण सीसं तु (निभा ३१८७ ) । ० खिसा ( निभा), सेणावतिखि ० ( मु ) | ६. वाओदएहि ( निभा ३१८८ ) । ५. ७. सिगइपु० (ला, बी), । ८. उदगस्स सति ( निभा), उदगस्स सती (मु) । ९. ० सरिच्छी (ला, बी) । १०. य (ल, बी, निभा ३१८९ ) । ११. वंसे ( निभा ) । उक्करो उवरि । १८ देमु६ पच्छित्तं ॥ निर्युक्तिपंचक निशीथ भाष्य में १०३ और १०४ की गाथा में क्रमव्यत्यय है । निभा में एमेव थंभ (३१९०) के बाद सेलऽट्टि (३१९१ ) की गाथा है । लेकिन विषय वस्तु की दृष्टि यह क्रम संगत नहीं लगता । १६. गाथाओं के चालू क्रम में प्रस्तुत गाथा केवल निशीथ भाष्य ( ३१९२ ) में मिलती है । आयारदशा की नियुक्ति में यह गाथा अप्राप्त है । संभव है यह निशीथ भाष्यकार द्वारा भाष्य में बाद में जोड़ दी गई हो । १७. छूढो मओ उबट्ठा अति० ( निभा ३१९३), सुट्ठाति ० ( ) | O १८. णो ( अ ) । १९. देसु (ला, बी) । Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कंध निर्युक्ति १०६. १०७. १०८. १०९. ११०. १११. ११२. ११३. ११४. धूयाऽकारियभट्टा ' 'वरग पडसे ह सचिवे, अट्टम मतो अणुयत्तीह निर्वाचित विकाल पडिच्छणा य दारं न देमि निवकणार | निसिनिग्गमणं, चोरा सेणावतीगहणं ॥ खिसा नेच्छति जलूगवेज्जगगहणं 'तंपि य अणिच्छमाणी उ" । 'गिण्हावेइ जलूगा, धणभाउग कहण मोयणा || सयगुणसहस्सपागं, वर्णभेसज्जं तिक्खुत्त दासिभिदण, न य पासत्थि पंडरज्जा, परिण 'पुच्छा तिपक्किमणे', ' पुव्वन्भासा गुरुमूल १. ० धूय अचंका० (अ), ०ध्याच्चं० (मु), ०धूय अचं (ला, बी), धणधूयमच्चका० ( निभा ३१९४) । refsaeमसोहम्मे, 'अभिओगा, देवि ' १३ हत्थिणि वायणिसग्गो, १४ गोतमपुच्छा २. चरणपडिसेव ( निभा ) । ३. ०यत्तीहि ( निभा ) । ४. दाणं ( बी, निभा ३१९५ ) । ५. ० कहणं ( निभा ) । ६. गमणं (ब), । ७. तम्मिय अणिच्छमाणम्मि ( अ, मु ) । ८. गिण्हावे जलूगवणा भाउयदूए कहण मोए (निभा ३१९६), गाहावइ जलूगा० (मु) । ९. वती ( अ, मु ) । १०. कोवो सय० ( अ ), कोहो सयं च दाणं च ( निभा ३१९७) । जाया । पदाण च ।। जति स जायणता । 'कोव सयंपदाणं च ' " 1 सक्कओसरणे । य१५ वागरणं । महरा मंगू आगम, बहुसुत वेरग्ग सड़ढपूया" य । सातादिलोभ णितिए, मरणे 'जीहा य १७ गिद्धमणे" ।। अब्भुवगत गतवेरे, णातुं गिहिणो वि माहु अधिगरणं । कुज्जा हु" कसाए वा अविगडितफलं च सि सोउ || पच्छित्तं बहुपाणा, कालो सज्झाय-संजम तवे, 'धणियं णातअभियोगा । चउत्थम्मि" ।। बलिओ चिरं तु" ठायव्वं । अप्पा' २२ नियतव्वो । ११. पुच्छति य पडि० (मु, ब, अ ) । १२. चउत्थं पि ( निभा, ३१९८ ) । १३. अभिउग्गा देव ( निभा ३१९९ ) । १४. वाउस्सग्गे (निभा), वाउनि० (ला, बी), १५. तु (निभा) १६. सद्धपूया ( अ ) । १७. जीहाइ ( निभा ३२०० ) । १८. णिद्धिमणे (मु) । १९. हि ( निभा ३२०१ ) । २०. च्छित्ते बहुपाणो (मु, बी) । २१. च ( निभा ३२०२ ) । २२. धणियप्पा ( ब ) । ४०१ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक ११७. ११८. ११९. पुरिम-चरिमाण' कप्पो, मंगल्लं' वद्धमाणतित्थम्मि । ता परिकहिया जिण-गणहराइथेरावलिचरित्तं ।। सुत्ते जहा निबद्धं,५ वग्घारिय भत्त-पाणअग्गहणं । णाणट्ठि तवस्सी, अणहियासि वग्घारिए गहणं ।। संजमखेत्तचुयाणं, णाणट्ठि-तवस्सि अणहियासाणं । आसज्ज भिक्खकालं, उत्तरकरणेण जतितव्वं ।। उण्णियवासाकप्पो, लाउयपायं च लब्भए" जत्थ । सज्झाएसणसोही, वरिसति" काले य तं खेत्तं ।। पुव्वाधीतं नासति, नवं च छातो अपच्चलो१२ घेत्तुं । खमगस्स य पारणए, वरिसति असहू य बालादी। बाले सुत्ते सूई, कुडसीसग छत्तए 'य पंचमए'१५ । णाणट्ठि-तवस्सी अणहियासि अह उत्तरविसेसो"। पज्जोसवणाकप्पस्स निज्जुत्ती समत्ता नामं ठवणा मोहो, दवे भावे य होति बोधव्वो। ठाणं पुव्वुद्दिळं, पगयं पुण भावठाणेणं ।। दव्वे" सच्चित्तादी, सयणधणादी दुहा हवइ मोहो। ओघेणेगा पगडी, अणेगपगडी भवे मोहो ।। अढविधं पि य कम्म, भणियं मोहो त्ति जं समासेणं । सो पुव्वगते भणिओ, तस्स य एगट्ठिया इणमो ।। पावे वज्जे वेरे, पणगे पंके खुहे असाए य । संगे सल्ले अरए, निरए धुत्ते य एगट्ठा८ ।। १२०. १२१. १२२. १२३. १२४. १. चरमाण (बी)। ११. वासति (अ,ला,बी)। २. तु मंगलं (निभा ३२०३)। १२. ण पच्चलो (निभा ३२०७)। ३. इह (अ,मु) । १३ वरसति (ला,बी,निभा) । ४. जिणपरिकहा य थेरावली वोच्छं (अ,ब) ।। १४. छित्तए (ब), य पच्छि० (निभा ३२०८)। ५. णिबंधो (निभा, चू)। १५. अपच्छिमए (अ,मु)। ६. ०मग्गहणं (निभा ३२०४), अग्गहणे (मु)। १६ ०विसेसा (निभा) । ७. णाणट्ठी (मु)। १७. दव्वं (ला, बी)। ८. यऽणहि० (निभा): १८. गा. १२४ से १३० तक की गाथाएं चणि में ९. निभा ३२०५ । व्याख्यात नहीं हैं । चूणि की मुद्रित प्रति में १०. लब्भती (निभा ३२०६) । तथा प्राचीन आदर्शों में ये गाथाएं उपलब्ध हैं। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाgतस्कंध निर्युक्ति १२५. १२६. १२७. १२८. १२९. १३०. १३१. १३२. १३३. १३४. १३५. १३६. कम्मे य किलिसे य, समुदाणे खलु तहा मइल्ले य । माइणो अप्पाए य, दुप्पक्खे तह संपराए य ।। असुभे' दुहाणुबंधे, दुम्मोए खलु चिरद्वितीए य । घण- चिक्कण- निव्वेया, मोहे य तहा महामोहे || पगासिया भारिया इमे बंधा । सेट्ठी-सेणावइवधेसु य ॥ कहिया जिणेहि लोगो, साहु-गुरु-मित्त-बंधव, एत्तो गुरुआसायण, जिणवयणविलोवणेसु पडिबंधं । असुहे दुहाण बंधीति, तेण तो ताइं वज्जेज्जा | मोहणिज्जस्स निज्जुत्ती समत्ता नामं ठवणाजाई दव्वे भावे य होइ बोधन्वा । 'ठाणं पुव्वुद्दिट्ठ', पग यं पुण भावठाणेणं ॥ a दव्वं दव्वसभावो, भावो अणुभवण ओहतो दुविहो । अणुभवण छव्विहो ओहओ उ ससारिओ जीवो ॥ पच्चाजाती य होइ बोधव्वा । आजाती जम्ममन्नयरं ॥ पुणो वि जह हवति जम्मं । मणुस्स- तेरिच्छिए होइ ॥ जाती आजातीया, जाती ससारत्था, जत्तो चुओ भवाओ, तत्थेव सा खलु पच्चाजाती", कामं असंजतस्सा, नथ हु मोक्खे ध्रुवमेव आजाई । केण विसेसेण पुणो, पावइ समणो अणायाई ॥ मूलगुण- उत्तरगुणे, अप्पडिमेवी भत्तोहि सयणास विवित्तसेवी अपबद्ध | पयओ || तित्थंगर-गुरु-साहूसु, भत्तिमं हत्थ - पाय संलीणो । पंचसमिओ कलह-झंझ-पिसुण- ओहाणविरओ य ॥ १. असुत्ते (ला, अ, मु) । २. दुह पुण बधा ( अ, बी) । ३. ठाणं की नियुक्ति गाथा के लिए देखें सूनि १६८, आनि १८५, दश्रुनि १० । इहं सया पाएण एरिसो सिज्झइ त्ति, कोइ पुण आगमेस्साए । केण हु दोसेण पावइ समणो वि आयाई ॥ पुणो, ४. हवंति (बी) । ५. ४०३ पच्चाजात्ति त्ति (ला, बी, अ) । ६. तेरिच्छए ( अ ) । ७. असंजमस्सा (ब), असंजइस्सा (ला) | Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ १३७. १३८. १३९. १४०. १४१. १४२. १४३. जाणि भणियाणि सुत्ते, संदाण निदाणं ति य, coatyar - वीस सप्पओग मूलसरीरसरीरी, भावे कसायबंधो, इहलोग - पारलोगिय, तहागएसुं 'नव य" निदाणाणि । पव्वत्तिय होंति एगट्ठा ॥ 'सादीय निगलादि उत्तरो वीससा उ साई अणादिओ चेव । खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते, काले कालो जहि जो उ ॥ दुविहो य भावबंधो, जीवमजीवे य होइ बोधव्वो । एक्क्को वि यतिविहो, विवाग- अविवाग-तदुभयगो' । अहिगारो बहुविहेसु अत्थे । परलोगिए बंधे || गयं १. तहा ( अ, मु) । २. आदर्शों में तथा मुद्रित चूर्णि की नियुक्ति गाथाओं में 'पव्वो' पाठ मिलता है । लेकिन चूर्णिकार ने 'संताणं ति वा निदाणं ति वा धोत्ति वा' ऐसा उल्लेख किया है। संभव है चूर्णिकार के सामने कोई भिन्न आदर्श था जहां पर्व के स्थान पर बंध पाठ होगा । अपासत्थाए अकुसीलयाए अणदाणयाइ साहू, पावइ धुवमायाति निदाणदोसेसु उज्जमंतो वि । , विणिवायं पि य पावइ, तम्हा अनियाणता सेया ।। ३. स-मूलउत्तरे दि ४ ५. ६. ७. ८. चेव । चेव ॥ अकसाय - अप्पमाए य । संसारमहण्णवं तरई ।। नियाणद्वाणस्स निज्जुत्ती समत्ता निर्युक्तिपंचक सादी उ अणा० > (ला), ०साती अणातिए ( अ ) । तदुभइगो (अ) । १४१ और १४२ की गाथा में ला और बी प्रति में क्रमव्यत्यय है । ० दोसेण (ला, बी) । अप्पा० (ला), ० त्था (बी) तरइ (ला) । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति हिन्दी अनुवार Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. मैं प्राचीनगोत्रीय, अन्तिम श्रुतज्ञानी (चतुर्दशपूर्वी-सकल श्रुतज्ञान के ज्ञाता) भद्रबाहु को वंदना करता हूं। वे दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प तथा व्यवहार-इन तीनों सूत्रों के कर्ता थे। २-४. (दशा शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ।) भावदशा के दो प्रकार हैं-आयुविपाकदशा तथा अध्ययनदशा। द्रव्यदशा है-वस्त्र की किनारी। आयुविपाकदशा के दस प्रकार हैं। शतायु व्यक्ति के आयुष्य के दस विभाग किए हैं। वे ये हैं(१) बालादशा (५) प्रज्ञादशा (९) मुन्मुखीदशा (२) मन्दादशा (६) हायनीदशा (१०) शायनीदशा (३) क्रीडादशा (७) प्रपंचादशा (४) बलादशा (८) प्रारभारादशा ये दस आयुविपाकदशाएं हैं। ये स्व-स्व नाम और लक्षणों से जानी जाती हैं। आगे क्रमशः मैं अध्ययनदशा-दशाश्रुतस्कन्ध के दस अध्ययनों का क्रमशः वर्णन करूंगा। ५. अध्ययनदशा के दो प्रकार हैं-छोटी और बड़ी। छोटी अध्ययनदशा है-प्रस्तुत आचारदशा। बड़ी अध्ययनदशा है-ज्ञाताधर्मकथा आदि छह अंग आगम-(ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण तथा विपाकश्रुत)। जिस प्रकार वस्त्र की विभूषा के लिए उसकी दशा-किनारी होती है, वैसे ही ये दशाएं हैं। ६. स्थविर-आचार्य भद्रबाहु ने शिष्यों पर अनुग्रह कर ये छोटी अध्ययनदशाएं इस आचारदशा में निर्यढ की हैं। जो जीव दशाओं को जानने में उपयुक्त है, वह भावदशा है । ७. मैंने दशा का समुच्चयार्थ संक्षेप में कहा है। अब प्रत्येक अध्ययन का वर्णन करूंगा। ८. प्रस्तुत सूत्र के दस अध्ययनों के नाम ये हैं(१) असमाधि (४) गणि-गुण (७) साधु-प्रतिमा (२) शबलत्व (५) मन:समाधि (८) कल्प (३) अनाशातना (६) श्रावक-प्रतिमा (९) मोह (१०) निदान प्रथमदशा : असमाधि स्थान ९. जिस द्रव्य से समाधि होती है, वह द्रव्य अथवा एक या अनेक द्रव्यों का परस्पर अविरध अथवा तुलारोपित द्रव्य के साथ जो द्रव्य आरोपित होकर तुला के दोनों पलड़ों को सम रखता है, वह द्रव्य, द्रव्यसमाधि है। जीव के प्रशस्त योगों से होने वाली सुसमाहित अवस्था भावसमाधि है। १. आचार्य भद्रबाहु ने दृष्टिवाद के नौवें पूर्व के असमाधिस्थान नामक प्राभत से 'असमाधिस्थान' का तथा अन्यान्य सभी दशाओं का उन-उन नाम वाले प्राभूतों से नि!हण किया। (दश्रुच प० ३) Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ १०. स्थान शब्द के १५ निक्षेप हैं ➖➖➖➖ १. नामस्थान २. स्थापनास्थान ३. द्रव्यस्थान ४. क्षेत्रस्थान ११. योधस्थान १२. अचलस्थान १३. गणणस्थान १४. संधनास्थान ५. अद्धास्थान १५. भावस्थान ११. प्रथम दशा में वर्णित बीस असमाधिस्थान केवल निम्म — आधारमात्र' हैं । इनके सदृश अन्य भी असमाधिस्थान हो सकते हैं । इस प्रसंग में तथा अन्यत्र भी ऐसा ही समझना चाहिए। दूसरी दशा : शबल ६. ऊर्ध्वस्थान ७. उपरतिस्थान ८. वसतिस्थान ९ संयमस्थान १०. प्रग्रहस्थान १२. शबल शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव द्रव्य शबल हैचितकबरा बैल आदि । आचार को चितकबरा करने वाला कुशील अथवा जो आधाकर्म आदि में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार का सेवन करता है, वह भाव शबल होता है । १३. अथवा लघु अपराध में शबलत्व होता है। प्रायश्चित्त को प्राप्त न होकर छेदपर्यन्त प्रायश्चित्त पाता है. देता है । उसे शबलचारित्री कहा जाता है । O १४. (अखंड घट जल से परिपूर्ण होता है ।) खंडित घट के अनेक रूप हैं • बाल-बाल जितने छिद्र वाला । ० राजि - छोटी सी दरार वाला । दालि-बड़ी दरार वाला । ० खंड – एक भाग खंडित । बोड - जिसमें एक भी कोना न हो । ० खुत-छिद्रों वाला । ० भिन्न- बड़े छिद्रों वाला फूटा हुआ घट | ० निर्युक्तिपंचक मूल जो मुनि प्रायश्चित्त के रूप में वह अपने चारित्र को भी शवल बना इन घड़ों से पानी क्रमशः अधिक, अधिकतर भरता है अतः ये दोषपूर्ण हैं । इसी प्रकार शबल दोषों से देश – आंशिक और सर्व विराधना होती है । यहां 'कम्मासपट्ट” के दृष्टांत से भी शबल और उससे होने वाली विराधना बताई गई है । ( पट्ट के कई प्रकार हैं- कम्मासपट्ट, वक्रदंडपट्ट, वृत्तपट्ट आदि । ) १. निम्मं – आधारमात्रं । दश्रुचू. प ६ । २. जैसी सूती वस्त्र पर छोटा या बड़ा धब्बा हो तो वह वस्त्र मलिन ही कहा जाता है । उसी १५. 'आसायणा' के दो प्रकार हैं- मिथ्याप्रतिपत्ति तथा लाभ । लाभ आसादना के छह निक्षेप हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । इनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद हैं- इष्ट और अनिष्ट | प्रकार चारित्र में भी छोटी बड़ी स्खलना से शबल दोष लगता है, जिससे आंशिक या सर्व विराधना होती है । Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति ४०९ १६. चोरों द्वारा साधुओं की चुराई हुई उपधि का पुनः लाभ होना अनिष्ट द्रव्य आसादना है। एषणा शुद्धि से उपधि की प्राप्ति इष्ट द्रव्य आसादना है। इसी प्रकार क्षेत्र, कान्तार, ग्रामानुग्राम विहरण, विषमदुभिक्ष आदि में अप्रासुक द्रव्य-ग्रहण अनिष्ट द्रव्य आसादना है तथा प्रासुक द्रव्य ग्रहण इष्ट द्रव्य आसादना है। दुर्भिक्ष आदि में आहारादि की प्राप्ति अनिष्ट द्रव्य आसादना तथा सुभिध में आहारादि की प्राप्ति इष्ट द्रव्य आसादना है। ग्लान आदि के लिए अनेषणीय की प्राप्ति अनिष्ट द्रव्य आसादना तथा एषणीय की प्राप्ति इष्ट द्रव्य आसादना है। इष्ट-अनिष्ट की प्राप्ति के आधार पर यहां आसादना कही गयी है। १७. मान-उन्मान-प्रमाण युक्त द्रव्य की प्राप्ति इष्ट-द्रव्य आसादना है तथा हीन-अधिक की प्राप्ति अनिष्ट द्रव्य आसादना है। जिस क्षेत्र और काल में इष्ट-अनिष्ट द्रव्य दिया जाता है अथवा उसका वर्णन किया जाता है. वह क्षेत्र और काल की इष्ट-अनिष्ट आसादना है। भाव आसादना के छह प्रकार हैं-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपश मिक, पारिणामिक और सान्निपातिक । यहां भाव आसादना का प्रकरण है। १८. छठे सत्यप्रवाद पूर्व के अक्षरप्राभृत में तथा आठवें कर्मप्रवाद पूर्व के आठवें महानिमित्तप्राभूत में 'आ' उपसर्ग वर्णित है। वह अपने अर्थ से युक्तिकृत पद के अर्थ का विशोधिकर है। यह अकस्मात् होने वाली लाभ आसादना है। १९. मिथ्याप्रतिपत्ति अर्थात् सम्यक् स्वीकार न करना। जो अर्थ जैसे सद्भूत होते हैं, उनको वितथरूप में स्वीकार करना आशातना है। २०. इस प्रकार आचरण करता हुआ शिष्य भले फिर वह संयम और तप में उधम कर रहा हो, वह दु:खमुक्त नहीं हो सकता। इसलिए मदस्थानों से होने वाले अपने आत्मोत्कर्ष को प्रयत्न-पूर्वक वर्जित करना चाहिए। २१. सूत्र में जिन आशातनाओं का वर्णन किया गया है, शिष्य बिना किसी कारण से उनका उपयोग न करे। जो शिष्य गुरु को गुरुस्थानीय नहीं मानता, गुरु के प्रति होने वाली आशातनाओं का वर्जन नहीं करता, वह भारीकर्मा होता है। २२ दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा विनय-ये गुरुमूलक होते हैं। विनय गुरुमूलक होता (तथा दर्शन आदि गुण गुणमूलक होते हैं ।) जो गुरु की आशातना करता है, वह इन गुणों की आशातना करता है २३. सूत्र में जो आशातनाएं वर्णित हैं, उनको जो शिष्य प्रयोजनवश करता है तथा जो गुरु को गुरुपद के उच्चस्थान पर गिनता है, वह भारीकर्मा नहीं होता। २४. जो गुरु की आशातना करता है, वह स्वयमेव दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि गुणों को प्राप्त नहीं कर सकता, उनका विकास नहीं कर सकता। उसके लिए ज्ञान, दर्शन आदि की आराधना की तो बात ही क्या ? इसलिए आशातनाओं का वर्जन करना चाहिए। २५. (गणी शाद के चार निक्षेप हैं—नामगणी, स्थापनागणी, द्रव्यगणी और भावगणी।) द्रव्यगणी है-गणिनामकर्म के अभिमुख आदि। भावगणी है-गणी की आठ संपदाओं से युक्त । वह दो प्रकार का है-आगमतः, नोआगमतः । नोआगमत: के दो प्रकार हैं-गणसंग्रहकारक, उपग्रहकारक तथा जो धर्म-गणिस्वभाव अर्थात गणिसंपदा को जानता है। Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० नियुक्तिपंचक २६. ज्ञात, गणित, गुणित और गत-ये सारे शब्द एकार्थक हैं। इसलिए जो धर्म-गणिसंपदाओं का ज्ञायक होता है, वह ज्ञानी गणी कहलाता है। २७. आचारांग को पढ़ने पर श्रमणधर्म ज्ञात होता है। इसलिए आचारधर-आचारांग को जानने वाला प्रथम गणिस्थान कहलाता है। २८. जो गणसंग्रहकारक तथा उपग्रहकारक'-दोनों होता है। वह गण को धारण करने में समर्थ होता है। उसी का प्रस्तुत में प्रसंग है। गणिसंपदा के छह निक्षेप हैं-नामसंपदा, स्थापनासंपदा, द्रव्यसंपदा, क्षेत्रसंपदा, कालसंपदा, भावसंपदा । प्रस्तुत में द्रव्य आदि चार संपदाओं का प्रसंग है। २९. संपदा के दो प्रकार हैं-द्रव्यसंपदा और भावसंपदा। (इसी प्रकार क्षेत्रसंपदा और कालसंपदा भी है।) द्रव्यसंपदा है-शरीरसंपदा। भावसंपदा के छह प्रकार हैं-औदयिक छह भाव । संग्रहपरिज्ञा के छह निक्षेप हैं-(नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव।) ३०,३१. जैसे गजकुल में उत्पन्न हस्ती अर्थात् अरण्यहस्ती अपने शरीर से उद्गत विशाल दांतों से अश्रान्त होता हुआ गिरि, कंदरा, कटक तथा विषम दुर्ग-स्थानों में उनको वहन करता है, वैसे ही प्रवचन-भक्ति से ओतःप्रोत, साधार्मिक वात्सल्य से परिपूर्ण, अशढभाव से युक्त तथा गणिसंपदाओं से संपन्न गणी असमर्थ साधु-संघ को अनार्य क्षेत्र, विषम काल, विषम पथ और दुर्ग में सुखपूर्वक वहन करता है। ३२. चित्त शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । इसी प्रकार समाधि शब्द के भी चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । ३३. द्रव्यचित्त है-जीव। चित्तोलादक द्रव्य अथवा जिन द्रव्यों में चित्त उत्पन्न होता है, वह भी द्रव्यचित्त है। भावचित्त है-ज्ञान आदि में सुसमाधि तथा ध्रुवयोग। ३३/१. अकुशल योगों का निरोध तथा कुशल योगों की उदीरणा-यह भी भावचित्त है । समाधि के ये चार प्रकार हैं। ३३/२. जिस द्रव्य से समाधि होती है, वह द्रव्य अथवा जिन द्रव्यों का अवलम्बन पाकर समाधि प्राप्त होती है, वह द्रव्यसमाधि है। भावसमाधि के चार प्रकार हैं-दर्शन, ज्ञान, तप और चारित्र। १. इसके चार विकल्प होते हैं १. कुछ गणसंग्रहकारक होते हैं, उपग्रहकारक __ नहीं होते। २. कुछ उपग्रहकारक होते हैं, गणसंग्रहकारक नहीं होते। ३. कुछ दोनों होते हैं। ४. कुछ दोनों नहीं होते। २. णओ--णउत्ति नीतिर्नयः अहिगार इत्यर्थः -दश्रुचू प १७ । ३. द्रव्यसंग्रहपरिज्ञा-संघ के लिए वस्त्र, पात्र आदि की याचना करना अथवा उनकी उपलब्धि के उपाय जानना । क्षेत्रसंग्रहपरिज्ञा-पथ (गमन) की विधियों को जानना। योग्य, अयोग्य क्षेत्र को जानना। कालसंग्रहपरिज्ञा-दुभिक्ष आदि की विधियों को जानना। भावसंग्रहपरिज्ञा-ग्लान आदि की सेवा-विधि को जानना। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति ३४. जब भावसमाधि में चित्त आहित (युक्त) और स्थित होता है तब ये सभी स्थान चित्त में विशिष्टतर होते जाते हैं । इसलिए चित्तसमाधि के लिए प्रयत्न करना चाहिए। ३५. उपासक के चार प्रकार हैं-द्रव्योपासक, तदर्थोपासक, मोहोपासक तथा भावोपासक । द्रव्योपासक है-उपासक नाम-गोत्र कर्म के बंध के कारण भविष्य में होने वाला उपासक। तदर्थोपासक वह है, जो ओदन आदि द्रव्य के लिए उपासना करता है। ३६. जो कुप्रवचन, कुधर्म की उपासना करता है, वह मोहोपासक है । खेद है, वह उसमें (कुधर्म में) अपना श्रेय मानता है, परन्तु वहां उसका श्रेय नहीं होता। ३७. जो सम्यग्दृष्टि है, सम मन वाला है तथा श्रमणों की उपासना करता है, वह भावोपासक है । इसके दो गौण नाम हैं-उपासक और श्रावक । ३८. द्वादशांगी प्रवचन में द्विविध धर्म का प्रतिपादन है-अनगारधर्म और अगारधर्म (श्रावकधर्म) । ये दोनों केवली से प्रसूत हैं । 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'पूङ प्राणिप्रसवे' से प्रसूत शब्द निष्पन्न होता है। ३९. केवली धर्म सुनाते हैं. इसलिए वे श्रावक हैं । साधु और गृहस्थ उनकी उपासना करते हैं, इसलिए उपासक हैं । उपासक धर्म सुनते हैं अतः वे भी धावक हैं । इस प्रकार साधु और गृहस्थ दोनों श्रावक हैं । विशेष यह है कि मुनि नित्यकालिक उपासक और श्रावक नहीं होते, गृहस्थ ही दोनों हो सकते हैं। ४०. यह सिद्ध है कि जो कार्य निरवशेष रूप से होता है, वही कृत माना जाता है । (मुनि निरवशेष रूप में अर्थात् नित्यकालिक न सुनते हैं और न उपासना करते हैं।') इसलिए मुनि न उपासक होते हैं और न श्रावक । गृहस्थ ही श्रावक और उपासक दोनों होते हैं। (असम्पूर्ण श्रुत के कारण गृहस्थ नित्य श्रवण और उपासना करते हैं अतः वे श्रावक हैं ।) __ ४१. (प्रतिमा शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव) । द्रव्य प्रतिमा के तीन भेद हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र । संयतप्रतिमा-प्रव्रज्या लेने के इच्छुक गृहस्थ अथवा उत्प्रव्रजित व्यक्ति का द्रव्य लिंग । जिनप्रतिमा तीर्थंकर की प्रव्रज्या । भावप्रतिमा-जिन प्रतिमाओं के जो गुण कहे गये हैं, उनको यथार्थरूप में धारण करना । ४२. भावप्रतिमा के दो प्रकार हैं-भिक्षप्रतिमा और उपासकप्रतिमा। भिक्षप्रतिमा के बारह तथा उपासकप्रतिमा के ग्यारह प्रकार हैं। भिक्ष प्रतिमाओं का वर्णन आगे किया जाएगा। उपासक प्रतिमाओं का वर्णन यहां करूंगा। ४३. उपासक और साधुओं के गुणों (प्रतिमाओं) का पृथक्-पृथक् निर्देश करने से ये साधु हैं तथा ये उपासक हैं, इस प्रकार सुखपूर्वक जान लिया जाता है। यह गृहस्थ धर्म है और यह साधुधर्म-यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है । साधुओं के लिए तप और संयम परम संवेग के साधन हैं। १. मुनि जब केवलज्ञानी हो जाते हैं, तब वे चतुर्दशपूर्वी हो जाते हैं तब किसी का नहीं किसी की उपासना नहीं करते और जब सुनते । वे कृतकृत्य हो जाते हैं। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ नियुक्तिपंचक ४४. यदि गृहस्थ भी तप-संयम आदि शीलगुणों (उपासक प्रतिमाओं के पालन) में प्रयत्न करते हैं तो फिर साधुओं को यह जानकर कि ऐसा आचरण उत्तम है, उन्हें अपने समस्त पराक्रम से तप, संयम में उद्यम करना चाहिए। ४४/१. उपासक की ग्यारह प्रतिमाएं ये हैं-दर्शन, व्रत, सामायिक, पौषध, एकरात्रिकी प्रतिमा, अब्रह्मवर्जन, सचित्तवर्जन, आर भवर्जन, प्रेष्यारंभवर्जन, उद्दिष्ट वर्जन और श्रमणभूत । ४५. प्रस्तुत में भिक्षु प्रतिमा का प्रसंग है । (भिक्षुप्रतिमा यह द्विपद शब्द है ।) भिक्षु और प्रतिमा के चार-चार निक्षेप हैं । तीन निक्षेपों का वर्णन पहले किया जा चुका है। प्रस्तुत में भावभिक्षुप्रतिमा का वर्णन है। ४६. प्रतिमा के पांच प्रकार हैं-समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, विवेकप्रतिमा, प्रतिसंलीनताप्रतिमा, एकलविहारप्रतिमा। ४७. आचाराग्र (आचारांग तथा चूलिका) में बयालीस प्रतिमाएं, स्थानांग में सोलह प्रतिमाएं, व्यवहार में चार प्रतिमाएं-दो मोकप्रतिमाएं तथा दो चंद्रप्रतिमाएं वर्णित हैं। ४८. इस प्रकार श्रुतसमाधि की छासठ प्रतिमाएं प्रतिपादित हैं तथा पांच चारित्रसमाधि की प्रतिमाएं हैं-सामायिकचारित्र प्रतिमा, छेदोपस्थापनीयचारित्र प्रतिमा, परिहारविशुद्धिचारित्र प्रतिमा, सूक्ष्मसंपरायचारित्र प्रतिमा तथा यथाख्यातचारित्र प्रतिमा। ४९. भिक्षु के उपधान-विशिष्टतप संबंधी ग्यारह प्रतिमाएं तथा उपासकों की बारह प्रतिमाएं सूत्र में वर्णित हैं । क्रोध आदि का अपहार करना विवेक प्रतिमा है। उसके दो प्रकार हैंआभ्यन्तर तथा बाह्य । आभ्यन्तर का संबंध क्रोध आदि से है तथा बाह्य का संबंध गण-संघ ५०. प्रतिसंलीनता प्रतिमा चौथी प्रतिमा है। उसमें श्रोत्रेन्द्रिय आदि पांचों इन्द्रियों का विषय-निरोध होता हैं। उसके दो प्रकार हैं-इन्द्रियप्रतिसंलीनता प्रतिमा तथा नोइन्द्रियप्रतिसंलीनता प्रतिमा। आठ गणिसंपदाओं (गुणों) से उपपेत भिक्ष की एकलविहार प्रतिमा पांचवी प्रतिमा है। ५१,५२. एकलविहार प्रतिमा को स्वीकार करने वाले के गृण-सम्यक्त्व और चारित्र में दृढ़ रहने वाला, मेधावी, बहुश्रुत, अचल, अरति और रति को सहन करने वाला, द्रव्य-राग-द्वेषरहित, क्षमाशील, भय तथा भैरव को सहन करने वाला, अपने आपको पांच तुलाओं-तप, सत्त्व, श्रुत, एकांत तथा बल से तोलने वाला, कालज्ञ, गण को आमंत्रित कर खमाने वाला, तपस्या में स्थिर, संयम कार्यों में अचपल, संहनन से सम्पन्न, भक्तपान में पवित्र, उपधि आदि के निक्षेप को जानने वाला, मानसिक दोष के लिए भी प्रायश्चित्त लेने वाला, लाभ-प्रव्रज्या न देने वाला, गमनतृतीय प्रहर में भिक्षाचर्या तथा विहार के लिए जाने वाला'-जो इन गुणों से युक्त होता है, वही एकलविहार प्रतिमा को ग्रहण कर सकता है। ५३. पर्युपशमना आदि शब्दों के अक्षर तो गुण-निष्पन्न होते हैं। श्रमणों की पर्यायव्यवस्थापना पर्युपशमना के आधार पर व्यक्त की गई है। १. दश्रुचू. प ४३ । Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ ५४. पर्युषणा के ये गौण - एकार्थक नाम हैं- परिवसना, पर्युषणा, पर्युपशमन, वर्षावास, दशाश्रुतस्कंध निर्युक्ति प्रथम समवसरण, स्थापना तथा ज्येष्ठावग्रह । १. परिवसना - चार मास तक एक स्थान पर रहना । २. पर्युषणा – किसी भी दिशा में परिभ्रमण का वर्जन । ३. पर्युपशमना – कषायों से सर्वथा उपशान्त रहना । ४. वर्षावास — वर्षाकाल में चार मास तक एक ही स्थान पर रहना । ५. प्रथम समवसरण — नियत वर्षावास क्षेत्र में प्रथम आगमन । ६. स्थापना — ऋतुबद्ध काल के अतिरिक्त काल की मर्यादा स्थापित करना । ७. ज्येष्ठावग्रह - चार मास तक या छह मास तक एक स्थान पर रहना । ५५. स्थापना शब्द के छह निक्षेप है— नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । जिन द्रव्यों का परिभोग किया जाता है अथवा परिहार किया जाता है, वह द्रव्य स्थापना है । जिस क्षेत्र में स्थापना की जाती है, वह क्षेत्र स्थापना है तथा जिस काल में स्थापना की जाती है, वह काल स्थापना है । ५६. औदयिक आदि भावों की स्थापना भाव स्थापना है अथवा जिस भाव से जो स्थापना की जाती है, वह भाव स्थापना है । की दृष्टि से एकत्व और पृथक्त्व के ५७. द्रव्य के स्वामित्व, करण और अधिकरण आधार पर छह भेद होते हैं । इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का वर्णन करना चाहिए । ५८. काल है समय, आवलिका आदि । प्रस्तुत काल अधिकार में जो काल प्ररूपित है, मैं उसकी प्ररूपणा करूंगा । मासकल्प क्षेत्र से निष्क्रमण वर्षावास क्षेत्र में प्रावृड्काल में प्रवेश तथा उसकी समाप्ति होने पर शरद् ऋतु में उससे निर्गमन – ये विषय मैं कहता हूं । ५९. मुनि ग्रीष्म ऋतु में चार मास तथा हेमन्त में चार मास – इन आठ मासों में विहरण करता है । ये आठ मास समाधि के अनुसार एक अहोरात्र, पांच अहोरात्र अथवा न्यूनातिरिक्त मास हो सकते हैं ।" ६०. आषाढ महीने में मासकल्प रह चुकने के पश्चात् कारणवश वहीं वर्षावास करना पड़े तो न्यून आठ मास का ही विहरण काल होता है ( क्योंकि मृगसिर से ज्येष्ठ तक का ही विहरण हुआ है। इसी प्रकार जहां वर्षावास बिताया है वहां से यदि कुछेक कारणों से विहार नहीं हो पाता है तो न्यून आठ मास का विहरण होता है । वे कारण हैं-मार्गों का कीचड़मय हो जाना, वर्षा का बंद न होना, गांव पर शत्रु राजा का आक्रमण हो जाना आदि । [ ऐसी स्थिति में मृगशिर मास तक वहीं रहना होता है तब एक मास न्यून हो जाता है ] ६१. आषढी पूर्णिमा तक वर्षावासयोग्य क्षेत्र न मिलने पर ( उसकी गवेषणा करते-करते दिन अधिक बीत जाने पर ) अथवा साधु मार्गगत हैं-चलते-चलते वर्षावासयोग्य क्षेत्र में विलम्ब से पहुंचने पर, कार्तिक पूर्णिमा के पश्चात् साधक नक्षत्र न मिलने पर अथवा अन्य व्याघात के कारण कार्तिक पूर्णिमा से पूर्व विहरण करने पर अतिरिक्त आठ मास का विहरण होता है । १. देखें ---- गाथा ६२ । Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ नियुक्तिपंचक ६२. प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि एक क्षेत्र में एक अहोरात्र, यथालंदक मुनि पांच अहोरात्र, जिनकल्पिक मुनि एक मास, शुद्धपारिहारिक मुनि एक मास तथा स्थविरकल्पी मुनि निष्कारण भी एक मास रह सकते हैं । (कारण होने पर न्यून मास या अतिरिक्त मास भी रहा जा सकता है ।) ६३. स्थविरकल्पी मुनि के लिए न्यूनातिरिक्त आठ मास का विहरण काल है। इतर अर्थात् प्रतिमा प्रतिपन्न मुनि, यथालन्दक मुनि, विशुद्ध पारिहारिक मुनि तथा जिनकल्पिक मुनि यथाकल्प आठ मास तक विचरण कर नियमित चार मास तक वर्षावास करते हैं। ६४. वर्षावास की स्थापना आषाढी पूर्णिमा को कर लेनी चाहिए । उसी क्षेत्र में मृगसिर कृष्णा दशमी तक रहा जा सकता है । ६४।१ (प्रस्तुत श्लोक में वर्षायोग्य क्षेत्र का निरूपण है।) जहां वैद्य हों, औषध की उपलब्धि हो-धान्य की प्रचुरता हो. राजा सुरक्षाकारी हो, पाषण्ड–अन्यतीर्थिक न्यून हों, भिक्षा की सुलभता हो, स्वाध्याय की बाधा न हो, कीचड़ न हो, द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों की प्रचुर उत्पत्ति न हो, स्थंडिल भूमि की सुविधा हो, जहां दो-चार रहने योग्य वसति हों, गोरस की प्रचुरता हो तथा जहां के परिवार जनाकुल हों-ऐसा स्थान वर्षावास के योग्य माना जाता है। ६५. जहां आषाढमासकल्प कर लिया वहां अथवा वृषभमुनि निकट में वर्षाप्रायोग्य क्षेत्र की भावना करते हैं वहां आषाढी पूर्णिमा को प्रवेश कर प्रतिपदा से पांचवें दिन-श्रावण कृष्णा पंचमी को पर्युषणाकल्प कहकर वहीं वर्षाकाल सामाचारी की स्थापना करनी चाहिए। ६६,६७. आषाढी पूर्णिमा अथवा श्रावण कृष्णा पंचमी को वर्षावास की पर्युषणा कर लेने पर भी गृहस्थ के पूछने पर मुनि बीस दिन-रात अथवा एक मास बीस दिन तक कह सकता है कि यह क्षेत्र वर्षावास के लिए अभी अनभिगहीत है। उसके पश्चात पूछने पर कहे-यह क्षेत्र कातिक पूर्णिमा तक अभिग्रहीत है। ऐसा कहने के दो कारण हैं-कदाचित् अशिव आदि अनेक कारण उत्पन्न हो जाएं अथवा वर्षा सम्यक न होने पर लोगों में अपवाद प्रारम्भ हो जाए। इन दोषों के कारण अभिवद्धित वर्ष में बीस रात-दिन तथा चन्द्र वर्ष में एक मास बीस दिन-रात की सीमा रखी गई है। ६८. आषाढी पूर्णिमा तक वर्षावास योग्य क्षेत्र न मिलने पर पांच-पांच दिन के अन्तराल से गवेषणा करते-करते एक मास और बीस दिन बीतने पर अर्थात् भाद्रव शुक्ला पंचमी तक पर्युषणा कर ले-एक स्थान पर स्थित हो जाए । निकट में वर्षावास योग्य क्षेत्र है तो आषाढी पूर्णिमा को ही पर्युषणा की स्थापना करे। जहां आषाढ मासकल्प किया है और वह क्षेत्र वर्षावास-प्रायोग्य है तो वहां आषाढ शुक्ला दशमी को वर्षावास के लिए स्थित हो जाए और आषाढी पूर्णिमा को पर्युषणा करे। ६९. जो भाद्रव शुक्ला पंचमी को वर्षावास के लिए स्थित होते हैं उनके जघन्यतः सत्तर दिन का, जो भाद्रव कृष्णा दशमी को पर्युषणा करते हैं उनके अस्सी दिन का, जो श्रावणी पूर्णिमा को पर्युषणा करते हैं उनके नब्बे दिन का, जो श्रावण कृष्णा दशमी को पर्युषणा करते हैं, उनके एक सौ दस दिन का ज्येष्ठावग्रह होता है । यह सारा मध्यम ज्येष्ठावग्रह है। कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को वर्षावास पूर्ण हो जाने पर भी यदि मृगसिर में वर्षा हो रही हो तो उसे दस-दस दिन तीन बार Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति अर्थात् पूरे मृगसिर मास तक वहां रहा जा सकता है। यह एक क्षेत्र में वास की उत्कृष्ट कालमर्यादा है। ७०. किसी क्षेत्र में मासकल्प अर्थात् आषाढ मास पूरा रहकर उसी क्षेत्र में वर्षावास बिताए और मृगसिर का मास भी दुभिक्ष आदि के कारण वहीं पूरा करे तो यह सालंबन रूप में छह मास का ज्येष्ठावग्रह होता है। ७१. वर्षावास से चतुष्प्रातिपदिक (चार मास की चार प्रतिपदाओं) के पश्चात् वहां से मृगसिर की प्रतिपदा को विहार कर लेना चाहिए। यदि वहां से गमन न हो तो पूर्व निर्दिष्ट आरोपणा आदि प्रायश्चित्त आता है। ७२,७३. कायिकीभूमि तथा संस्तारक जीवों से संसक्त हो जाए, भिक्षा दुर्लभ हो, राजा दुष्ट हो, सर्प आदि वसति में प्रविष्ट हो जाएं, कुंथ ओं से वसति संसक्त हो जाए, अग्नि का उपद्रव हो, ग्लान की परिचर्या न हो पाए तथा स्थडिल भूमि का अभाव हो-यदि ये कारण प्राप्त हों तो वर्षावास सम्पन्न न होने पर भी उस क्षेत्र से निर्गमन कर देना चाहिए। ७४,७५. वर्षा न रुक रही हो, मार्ग दुर्गम तथा कीचड़मय हो गये हों, अन्यत्र अशिव तथा दुभिक्ष हो, राजा का उपद्रव हो, चोर डाकुओं का भय हो, ग्लान की असमर्थता हो-इन कारणों से वर्षावास अतिक्रांत हो जाने पर भी उस क्षेत्र से निर्गमन नहीं हो पाता। ७६. वर्षावास क्षेत्र से चारों ओर ढाई कोस तक भिक्षाचर्या आदि के लिए क्षेत्रावग्रह होता है । आने-जाने में एक योजन तथा एक कोस अर्थात् पांच कोस प्रमाण क्षेत्र है। अपवाद कारण को छोड़कर यह क्षेत्र-मर्यादा है। ७७. क्षेत्रावग्रह छह दिशाओं में होता है, जैसे-ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा, पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण-इन छहों दिशाओं में एक योजन अथवा एक कोस का क्षेत्रावग्रह होता है। इन्द्रपद अथवा गजान पर्वत से छहों दिशाओं में क्षेत्र हैं।' अन्यान्य पर्वतों से चार-पांच दिशाओं में क्षेत्र ७८. किसी व्याघात के उपस्थित होने पर एक, दो अथवा तीन दिशाओं में क्षेत्रावग्रह होता है । जिस दिन व्याघात हो उस दिन उद्यान तक क्षेत्रावग्रह होता है। उससे आगे छिन्नमडंब अर्थात जिस गांव या नगर के चारों दिशाओं में कोई ग्राम या नगर न हो, वह अक्षेत्र होता है। ७९. नदी आदि में क्षेत्रावग्रह की मर्यादा-ऋतुबद्धकाल में तीन उदकसंघटन-अर्धजंघा तक जल, वर्षावास में सात उदकसंघटन-इतने पानी में अवगाहन कर भिक्षाचर्या के लिए अन्यत्र जाने में तथा आने में क्षेत्रावग्रह का हनन नहीं होता। इसके अतिरिक्त ऋतुबद्धकाल में चार उदकसंघट्टन तथा वर्षावास में आठ उदकसंघट्टन लगाने से क्षेत्रावग्रह का उपघात होता है । अर्धजंघा से अधिक उदक का एक बार भी अवगाहन करने से क्षेत्रावग्रह का अतिक्रमण होता है । १. पर्वत पर ऊपर और नीचे भी ग्राम होता है। अतः पर्वत पर मध्यस्थित ग्राम की अपेक्षा छह दिशाएं होती हैं। Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ नियुक्तिपंचक ८०. द्रव्य स्थापना के सात द्वार हैं-आहार, विकृति (विगय), संस्तारक, मात्रक, लोचकरण, सचित्त तथा अचित्त का व्युत्सर्जन, ग्रहण तथा स्वीकरण। ८१. आहार विषयक मर्यादा--पूर्वाहार अर्थात् ऋतुबद्धकालीन आहार का परित्याग करे। अपनी शक्ति के अनुसार योगवृद्धि अर्थात् व्रतों में वृद्धि करे।' (क्योंकि वर्षाकाल में कीचड़ हो जाने से भिक्षाचर्या कठिन हो जाती है तथा संज्ञाभूमि में जाना कष्टकर होता है, स्थंडिलभूमि हरियाली से छा जाती है आदि ।) विगय के दो प्रकार हैं-संचयिका और असंचयिका। इनके दो-दो प्रकार हैं-प्रशस्त तथा अप्रशस्त । प्रशस्त के ग्रहण से द्रव्य की सीमा होती है। ८२. जो विगतिभीत अर्थात् कुगतियों-तिर्यञ्चगति, नरकगति आदि विविध गतियों से भयभीत है, वह भिक्ष यदि विकृति अथवा विकृतिमिश्र भोजन करता है तो वह विकृति उस मुनि को विकृत स्वभाव वाला बना देती है और वह उसे बलात् विगति--नरकगति में ले जाती है । ८२३१. मुनि सामान्यतः दूध, दही, नवनीत आदि जो प्रशस्त असंचयिका विकृतियां हैं, उन्हें ग्रहण करे । संचयिका विकृतियां ग्रहण न करे क्योंकि ये विकृतियां ग्लान आदि के लिए प्रयोजनीय होती हैं। (सामान्यत: इनको लेने पर ग्लान आदि को ये प्राप्त नहीं होतीं।) ८३. मुनि प्रशस्तविकृति ग्रहण तथा अप्रशस्तविकृति ग्रहण प्रयोजनवश करे। अप्रशस्तविकृति का ग्रहण उतनी ही मात्रा में करे जितनी मात्रा बाल, वृद्ध अथवा रोगी के लिए आवश्यक हो तथा जिसके लेने से गर्दा न हो, दाता को विश्वास हो तथा उसके दोषयुक्त भावों का प्रतिघात हो। ८४. ऋतुबद्धकाल में जो संस्तारक ग्रहण किए थे उनका वर्षावास काल में परित्याग कर दे तथा वर्षायोग्य अपरित्यजनीय संस्तारक ग्रहण करे । तीन संस्तारक-निवात, प्रवात तथा निवातप्रवात गुरु को देकर शेष मुनि (रत्नाधिक के क्रम से) एक-एक संस्तारक ग्रहण करे । __ ८५ ऋतुबद्धकाल में उच्चार-प्रस्रवण तथा श्लेष्म के उपयोगी मात्रक ग्रहण किए थे, उनका परित्याग कर वर्षावास में प्रत्येक मुनि इन तीनों के लिए तीन-तीन मात्रक ग्रहण करे। संयमनिर्वाह के लिए, अतिथि के प्रयोजन के लिए तथा एक के फूट जाने पर मुनि बचे पात्र को काम में ले। ८६. जिनकल्पिक मुनियों के लिए नित्य ध्रुवढंचन की परम्परा है । स्थविर मुनियों के लिए वर्षावास में ध्रवलंचन की परम्परा है। जो असहनशील तथा ग्लान मुनि हैं, वे भी पर्यषणारात्रि का अतिक्रमण नहीं करते, अवश्य लुंचन कराते हैं । १. यदि आवश्यकी में परिहानि न होती हो तो चातुर्मासिक तप करे। यदि यह न कर सके तो तीन मास, दो मास, एक मास "आदि तप करे। २. क्षीर, दधि, मांस, नवनीत आदि असंचयिका विकृति है तथा घत, गुड़, मांस आदि संचयिका विकृति है।। ३. मधु, मांस, मद्य अप्रशस्त हैं तथा क्षीर, गुड़ आदि प्रशस्त हैं। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ दशाश्रुतस्कंध निर्युक्ति ८७. परम्परा से पुराना', भावितश्राद्ध - श्रद्धा से ओतप्रोत तथा वैरागी व्यक्ति को छोड़कर अन्य को चातुर्मास में प्रव्रजित करने का निषेध है । वर्षावास में इनको प्रव्रजित करने पर ये धर्मशून्य अर्थात् वर्षा आदि में जाने-आने से शंकाशील हो सकते हैं तथा मंडली में भोजन करने, मात्रक में प्रस्रवण आदि करने से उन नव प्रव्रजित मुनियों के मन में उड्डाह - प्रवचन के प्रति तिरस्कार हो सकता 1 ८८. वर्षाकाल में क्षार, डगल (पत्थर के टुकड़े), मात्रक आदि का ग्रहण, ऋतुबद्धकाल में गृहीत का व्युत्सर्ग तथा क्षार आदि का संग्रह करना चाहिए। इनके बिना ग्लान की विराधना तथा लेप के बिना भाजन की विराधना होती है, इसलिए इनका ग्रहण अनुमत है । (यह एक सीमा हैकुछेक का ग्रहण, कुछेक का धरण, कुछेक का व्युत्सर्ग और कुछेक का ग्रहण धरण व्युत्सर्ग 1 ) ८९. ईर्यासमिति, एषणासमिति, भाषासमिति (आदाननिक्षेप समिति तथा परिष्ठापनासमिति) की स्खलना, मन, वचन, काय की गुप्ति में स्खलना, दुश्चरित्र, अधिकरण तथा कषाय-इनका सांवत्सरिक उपशमन हो ही जाना चाहिए । ९०. यद्यपि मुनि को सभी काल में पांचों समितियों से समित रहना चाहिए किंतु वर्षावास में इसका विशेष प्रसंग होता है क्योंकि उस समय भूमि प्राणियों से संकुल होती है । ९१. भाषा समिति में अनायुक्त होने पर संपातिम—उड़ने वाले प्राणियों का वध, तीसरी एषणा समिति में अनायुक्त होने पर दुर्ज्ञेय उदक स्नेह बिंदुओं का व्याघात तथा ईर्यासमिति और अन्तिम दो — आदाननिक्षेप और परिष्ठापनिका समिति में अनायुक्त होने पर प्राणियों का दुष्प्रतिलेखन और दुष्प्रमार्जन होता है । ९२. मनोगुप्ति, वाग्गुप्ति तथा कायगुप्ति – इनमें स्खलना हुई हो, विपरीत आचरण किया हो तो उसकी शीघ्र ही आलोचना कर लेनी चाहिए। अधिकरण में दुरूतक, प्रद्योत तथा द्रमक के उदाहरण हैं । ९३,९४. ( ग्रामवासियों द्वारा एक बैल की चोरी कर लेने पर कुंभकार के पास एक बैल की गाड़ी रह गई । लोगों ने कहा-) देखो ! एक बैल की गाड़ी है । (बैल चुराए जाने से उसने भी खलिहान के आग लगाकर कहा ) – देखो ! खेत जल रहे हैं । एक दिन भाणकमल्ल द्वारा मल्लयुद्ध में यह घोषणा की गयी हे दुरूतकवासियो ! कुंभकार का हृत बैल उसको सौंप दिया जाए, जिससे खलिहान न जलें । कुंभकार से क्षमायाचना करते हुए ग्रामवासियों ने कहा - भो ! तुम अन्य सात वर्षों तक हमारा धान्य ( खलिहान ) मत जलाओ ।" ९५ - ९८. चंपा में अनंगसेन नामक स्वर्णकार | पंचशील द्वीप से दो अप्सराओं का आगमन हुआ। अनंगसेन उनमें आसक्त हो गया। एक स्थविर नाविक उसको पंचशील द्वीप के पास ले गया । वहां से वह वृक्ष की शाखा पकड़कर पंचशील द्वीप पहुंच गया। हासा, प्रहासा नामक अप्सराओं ने उसे 'पुन: चंपानगरी पहुंचा दिया । मित्र नाइल द्वारा जिनोक्त धर्म का प्रतिबोध पर वह निदान करके इंगिनीमरण स्वीकार कर पंचशील द्वीप में विद्युन्माली यक्ष के रूप में उत्पन्न हुआ । नंदीश्वर द्वीप में गमन । ( वहां मित्र देव नाइल ने कहा ) - बोध के लिए तुम किसी १. जिसको पहले दीक्षा दी जा चुकी हो । २. देखें परि० ६ कथा सं० १ । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक स्थान पर जिनप्रतिमा का अवतरण कराओ । राजा उद्रायण के वहां देवाधिदेव महावीर की प्रतिमा प्रकट हई । अमंगल देखने पर प्रभावती द्वारा देवदत्ता दासी पर दर्पण का प्रहार । देवदत्ता की मृत्यु । उसका देव रूप में उत्पन्न होना । प्रभावती देव द्वारा उद्रायण को तापस आश्रम में ले जाना, वहां भयोत्पत्ति । शरण के लिए श्रमणों के पास जाना। गंधार जनपद में श्रावक दीक्षा लेना चाहता था। देवाराधना द्वारा उसके यहां प्रतिमा का प्रकटीकरण । देवता द्वारा ५०० गुटिकाओं की प्राप्ति । श्रावक का वीतभय नगर में जाना। वहां देवायतन में कृष्णगुटिका दासी द्वारा सेवा। (गुटिका के प्रभाव से वह कृष्णगुटिका से स्वर्णगुटिका बन गई।) राजा प्रद्योत द्वारा स्वर्णगुटिका एवं देवप्रतिमा का हरण । पुष्करतीर्थ की उत्पत्ति । राजा उद्रायण एवं प्रद्योत में युद्ध । (प्रद्योत को बंदी बनाकर उसके लालट पर यह अंकित किया)—यह दास है, दासीपति है, छत्रार्थी है, हमारे यहां बंदी रूप में रह रहा है । जो कोई राजा की आज्ञा का भंगकर उसे कुपित करता है, वह हंतव्य और बंधनयोग्य है।' ९९,१००. धनाढ्य के घर खीर का भोजन देखकर दरिद्र के बच्चों द्वारा पिता से खीर का आग्रह । पिता ने दूसरों से दूध आदि की याचना कर खीर बनाई। चोरों का आगमन । खीर को चोर ले गए। द्रमक ने चोरों का पीछा किया। चोर सेनापति का तलवार से शिरच्छेद । भाई को सेनापति बनाया गया। (स्वजनों ने कहा)-यदि तुम भाई के घातक को नहीं मारते हो तो तुम्हें धिक्कार है। पकड़े जाने पर द्रमक बोला-जहां शरणागत मारे जाते हैं, वहीं मुझे मारा जाए । द्रमक की मुक्ति । १०१,१०२. क्रोध कषाय के चार प्रकार हैं-पानी की रेखा के समान, बालु की रेखा के समान, भूमि की रेखा के समान तथा पर्वत की रेखा के समान । प्रथम तीनों प्रकार के क्रोध कुछ ही समय में नष्ट हो जाते हैं परन्तु चौथे प्रकार का क्रोध जब तक पर्वत है, तब तक बना रहता है। अर्थात् यह जीवन-पर्यंत बना रहता है । जो क्रोध पानी की रेखा के समान होता है वह उसी दिन के प्रतिक्रमण से या पाक्षिक प्रतिक्रमण से उपशांत हो जाता है । जो चातुर्मासिक काल में उपशांत होता है वह क्रोध बालु की रेखा के समान, जो सांवत्सरिक काल में उपशांत होता है वह भूमि की रेखा के समान तथा पर्वत की रेखा जैसा क्रोध जीवन पर्यंत नष्ट नहीं होता। (इनकी गति इस प्रकार है-पर्वत की रेखा सदृश क्रोधी मनुष्य की नरकगति, भूमि की रेखा सदृश की तिर्यञ्च गति, बालु की रेखा सदृश की मनुष्य गति और उदक रेखा सदृश की देवगति होती है।) १०३. मान के चार प्रकार हैं-पत्थर के स्तम्भ के समान, अस्थि-स्तम्भ के समान, काष्ठस्तम्भ के समान तथा लता-स्तम्भ के समान । माया के चार प्रकार हैं-बांस के समान, मेंढे के सींग के समान, गोमूत्रिका के समान, तथा छिलते बांस के समान । लोभ के चार प्रकार हैं-कृमिराग के समान, कर्दम के समान, कूसंभराग के समान तथा हरिद्राराग के समान । १०४. इसी प्रकार स्तम्भ के समान मान, केतन के समान माया तथा वस्त्रराग के समान लोभ-इन तीनों की भी चार-चार प्रकार की प्ररूपणा की गई है। प्रत्येक प्रकार में गति का क्रम १. देखें परि० ६, कथा सं० २। २. देखें परि० ६, कथा सं० ३ । Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति ४१९ यह है-नरकगति, तिर्यचगति मनुष्यगति और देवगति । क्रोध के विषय में मरुक, मान के विषय में अत्वकारी भट्टा, माया के विषय में पंडरज्जा तथा लोभ के विषय में आर्य मगु का दृष्टांत है । १०४।१ चारों कषायों के चार-चार प्रकारों में प्रत्येक प्रकार की गति का क्रमशः क्रम यह है-नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति । सुगति के मार्ग को जानने वाले मुनियों को इन कषायों का सदा उपशमन/क्षय करना चाहिए। १०५. बैल श्रांत होकर गिर गया। मरुक ने चार केदारों के ढेलों से उसे पीटा । बल मर गया। ब्राह्मणों ने कहा-तुम अति क्रोधी हो अत: तुम्हें प्रायश्चित्त नहीं देंगे।' १०६-१०८ आठ पुत्रों के पीछे धन वणिक् के एक पुत्री हुई, जिसका नाम अत्वंकारी भट्टा रखा। कोई शादी को तैयार नहीं। आखिर मंत्री उसकी शर्त को मानने के लिए तैयार हुआ। (अत्वंकारी ने मंत्री को सूर्यास्त से पहले आने के लिए कह रखा था) एक दिन राजा ने मंत्री को रात्रि में देर तक रोक लिया। उसने कहा-मैं द्वार नहीं खोलंगी। फिर क्रोधावस्था में द्वार खोलकर वह रात्रि में ही घर से बाहर निकल गयी और चोर सेनापति के चंगुल में फस गई। उसने उसकी पत्नी बनना स्वीकार नहीं किया। सेनापति ने जलक वैद्य को बेच दिया। उसने भी उसे पत्नी बनाना चाहा पर उसने अस्वीकृत कर दिया। तब जलक वैद्य ने कहा-पानी से जलका ग्रहण करो। एक दिन भाई का आगमन । सारा वत्तान्त भाई को कहा। भाई ने मुक्ति दिलवाई। १०९. (अत्वकारी भट्टा स्वस्थ होकर पुन: मंत्री की पत्नी के रूप में घर चली गई।) उसके घर में लक्षपाक तैल के घट भरे थे। एक बार एक यति ने व्रण-संरोहण के लिए उससे तेल की याचना की। दासी द्वारा तीन बार घट नष्ट हो गए। भट्टा दासी पर कुपित नहीं हुई । चौथी बार स्वयं उसने साधु को दान दिया। ११०,१११. पांडुरा पार्श्वस्थ-शिथिलाचारिणी साध्वी । समय आने पर गुरु के पास भक्तप्रत्याख्यान का स्वीकरण । मंत्र शक्ति से लोगों की भीड़ । गुरु के द्वारा पूछने पर उसने तीन बार प्रतिक्रमण किया। चौथी बार फिर मंत्रशक्ति का प्रयोग किया। आचार्य के पूछने पर कहा कि पूर्वाभ्यास से लोग आते हैं अतः प्रतिक्रमण नहीं किया। मरकर वह सौधर्म देवलोक में ऐरावण हाथी की अग्रम हिषी बनी । महावीर के समवसरण में हथिनी के रूप में वातनिसर्ग-चिंघाड़ने लगी। गोतम द्वारा पूछने पर महावीर ने पूर्वभव बताया।' ११२. मथुरा में आर्य मंगु बहुश्रुत, वैरागी एवं श्रद्धालुओं द्वारा पूजित आचार्य थे । सुखसाता में प्रतिबद्ध होकर श्रावकों की नित्य भिक्षा करने लगे। दिवंगत होने पर प्रतिमा में प्रवेश कर लंबी जीभ निकालकर कहते-मैं लोलुपता वश अधर्मी व्यन्तर बना हूं कोई लोलुपता मत करना। ११३. कषायों के दोषों को जानकर गहस्थ भी उनसे विरत हो जाते हैं, यह सोचकर कोई भी संयमी साधु-साध्वी अधिकरण न करे तथा कषायों के बूरे परिणामों को सुनकर/जानकर उनसे निवृत्त हो जाए। १. देखें परि० ६, कथा सं० ४॥ २. वही, कथा सं० ५। ३. वही, कथा सं०६। ४. वही, कथा सं०७। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० नियुक्तिपंचक ११४. जो प्रायश्चित्त ऋतुबद्ध काल में संचित हुआ है, उसका वहन वर्षावासकाल में सुखपूर्वक होता है क्योंकि वर्षाऋतु में प्राणियों की उत्पत्ति अत्यधिक होती है, इसलिए गमनागमन नहीं होता। चिरकाल तक वहां निवास होता है। वर्षाकाल की शीतलता से उन्मत्त इन्द्रियों के दर्प का परिहार करने के लिए प्रायश्चित्त में प्राप्त तप उस समय किया जाता है। इसलिए वर्षाकाल में स्वाध्याय, संयम और तप के अनुष्ठान में आत्मा को अत्यधिक नियोजित करना चाहिए। ११५. प्रथम तथा अन्तिम तीर्थंकर के समय में कल्प-पर्युषणा अर्थात् वर्षावास अवश्य होता है। मध्य तीर्थंकरों के समय में वर्षावास विकल्प से होता है। वर्द्धमान के तीर्थ में मंगल के निमित्त वर्षाऋतु में जिनेश्वर देवों, गणधरों तथा स्थविरों के चरित्र का निरूपण होता है। ११६. सूत्र में यह प्रतिपादित है कि मुनि 'वग्घारिय वर्षा' अर्थात् ऐसी वर्षा जो वर्षांकल्प को भेदकर भीतर भी गीला कर दे, में भक्तपान ग्रहण न करे,भिक्षा के लिए न जाए, किन्तु ज्ञानार्थी, तपस्वी और भूख को न सह सकने वाला मुनि वर्षा में भी भक्तपान ग्रहण कर सकता है, भिक्षा के लिए जा सकता है। ११७. ज्ञानार्थी, तपस्वी तथा क्षुधा सहने में असमर्थ मुनि यदि संयमक्षेत्र (वर्षावास के योग्य क्षेत्र) से च्युत हो जाते हैं तो वे भिक्षाकाल में उत्तरकरण (देखें गाथा १२०) के द्वारा भिक्षाचर्या कर सकते हैं। ११८. संयमक्षेत्र वह होता है, जहां औणिक वर्षाकल्प तथा अलाबु पात्र प्राप्त होते हैं, जहां स्वाध्याय तथा एषणा की शुद्धि होती है और कालोचित वर्षा होती है।' ११९. जहां वर्षा के कारण भिक्षाचर्या न होने पर पूर्व अधीत ज्ञान विस्मृत हो जाता है, नष्ट हो जाता है, नया ज्ञानार्जन करने में सामर्थ्य नहीं रहता, तपस्वी के पारणक में बाधा आती है तथा बाल मुनि आदि भूख सहने में असमर्थ होते हैं, वह संयमक्षेत्र नहीं होता। १२०. (वर्षा बरस रही हो और क्षुधा सहने में असमर्थ मुनि के लिए अथवा किसी रोगी के प्रयोजन से भिक्षा के लिए जाना पड़े तो) बालों से बने वर्षाकल्प अथवा सौत्रिक वर्षाकल्प से आवृत्त होकर जाए। इनके न होने पर ताड़सूची (ताड़पत्रों) अथवा पलाश आदि के पत्तों से बने सिरत्राण से सिर ढक कर अथवा छत्र धारण कर भिक्षा के लिए जाए। यह ज्ञानार्थी, तपस्वी तथा क्षुधा को सहन न करने वाले मुनियों के लिए उत्तरविशेष-विशेष विधि या उत्तरकरण है । नौवीं दशा : मोहनीयस्थान १२१. मोह शब्द के चार निक्षेप हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । स्थान के विषय में पहले कहा जा चुका है। यहां भाव स्थान का प्रसंग है। १. वग्घारिय-वग्घारियं नाम जं भिन्नवासं पडति, वासकप्पं भेत्तूण अंतो कायं तिम्मेति । (दश्रुचू प ६३) २. कालोचित वर्षा-रात्रि में वर्षा होती है, दिन में नहीं होती। अथवा भिक्षाकाल तथा संज्ञाभूमि में जाने के समय को छोड़कर वर्षा होती है अथवा वर्षाऋतु में वर्षा होती है, ऋतुबद्ध काल में नहीं। (निभा ३२०६, चूणि पृ. १५४) Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति ४२१ १२२. द्रव्य मोह के दो प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त । सचित्त है-स्वजन धन आदि, (अचित्त है-मद्य आदि)। भावमोह के दो प्रकार हैं-ओघ और विभाग। ओघ में मोहनीयकर्म की एक प्रकृति गृहीत है तथा विभाग में अनेक प्रकृतियां-संपूर्ण मोहकर्म गृहीत है। १२३-१२५. आठ प्रकार के कर्मों को संक्षेप में 'मोह' कहा गया है। इसका वर्णन पूर्वगत -कर्मप्रवादपूर्व में है। उसके एकार्थक ये हैं-पाप, वर्ण्य (अवद्य), वर, पनक, पंक, क्षोभ, असाता, सङ्ग, शल्य, अरत, निरत, धुत्त, कर्म, क्लेश, समुदान, मलिन, माया, अल्पाय, द्विपक्ष तथा संपराय। १२६. यह मोहनीय तथा महामोहनीय कर्म अशुभ है। इसका अनुबंध दु:खमय होता है । इससे दुःखपूर्वक छुटकारा होता है और यह दीर्घ स्थिति वाला होता है। इसका अनुभागबंध सघन और चिकना होता है। १२७. जिनेश्वर देव ने लोगों को ऐसा कहा है और प्रकाशित किया है कि साधु, गुरु, मित्र, बांधव, श्रेष्ठी. सेनापति आदि के वध से सघन मोहनीय कर्म का बंध होता है। १२८. इससे महती आशातना तथा जिनवचन के विलोपन की प्रतिबद्धता होती है तथा अशुभ कर्म बंध और दुःख का बंध होता है, इसलिए मोहनीय कर्मबंध के सभी कारणों का वर्जन करना चाहिए। दशवी दशा : निदानस्थान १२९. आजाति तथा स्थान शब्द के चार-चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । स्थान का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। प्रस्तुत में भावस्थान का प्रसंग है । १३०. द्रव्य आजाति का अर्थ है-द्रव्य का स्वभाव । भाव आजाति है-अनुभवन । उसके दो प्रकार हैं-ओघतः आजाति और विभागतः आजाति । विभागतः आजाति के छह प्रकार हैं। ओघत: आजाति है-संसारी जीव । १३१. आजाति के तीन प्रकार हैं-जाति, आजाति और प्रत्याजाति । जाति हैसंसारस्थ प्राणियों की नरक आदि गतियों में उत्पत्ति । आजाति है-सम्मूर्छनज, गर्भ और उपपात से जन्म । १३२. एक भव से च्युत होकर पुनः उसी में जन्म लेना प्रत्याजाति है । यह केवल मनुष्य और तिर्यञ्चों के ही होती है। १३३. एकान्ततः असंयत का मोक्ष नहीं होता । निश्चित ही उसकी आजाति होती है। किस विशेषता से श्रमण अनाजाति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होता है ? १३४-१३६. जो श्रमण मूलगुणों और उत्तरगुणों का अप्रतिसेवी होता है, उनका नाश नहीं करता, इहलोक के प्रति प्रतिबद्ध नहीं होता, सदा विविक्त भक्त-पान, उपधि, शयनासन का सेवन करता है, प्रयत्नवान--अप्रमत्त होता है, तीर्थकर, गुरु और साधुओं के प्रति भक्तिमान होता है, हस्तपाद से प्रतिसंलीन, पांच समितियों से समित, कलह, झंझा, पैशुन्य से विरत तथा अवधानविरतस्थिर संयमवाला होता है, वह प्रायः उसी भव में सिद्ध हो जाता है। कोई-कोई श्रमण भविष्यत् काल में सिद्ध होता है । किस दोष के कारण श्रमण आजाति को प्राप्त होता है। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ नियुक्तिपंचक १३७. तीर्थंकरों ने सूत्रों में जो निदानस्थान बतलाए हैं, उनका सेवन करने वाला श्रमण आजाति को प्राप्त होता है । संदान, निदान और बंध-ये एकार्थक हैं। १३८. (बंध के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) द्रव्य बंध के दो प्रकार हैं-प्रयोगबंध और विस्रसाबंध । प्रयोगबंध के तीन प्रकार हैं-मन का मूल प्रयोगबंध, वचन का मूल प्रयोगबंध तथा काया का मूल प्रयोगबंध। कायप्रयोग बंध के दो प्रकार हैं-मूलबंध और उत्तरबंध । शरीर और शरीरी का जो संयोगबंध है, वह मूलबंध है । वह दो प्रकार का होता है-सादि और अनादि । १३९. निगड़ आदि उत्तरबंध है । विस्रसाबंध सादि और अनादि दो प्रकार का होता है । जिस क्षेत्र में बंध होता है, वह क्षेत्र बंध है और जिस काल में बंध होता है, वह कालबंध है। १४०. भावबंध के दो प्रकार हैं--जीवभावबंध और अजीवभावबंध । दोनों तीन-तीन प्रकार के हैं-विपाकज, अविपाकज तथा विपाक-अविपाकज । १४१. जीवभाव बंध है-कषायबंध । उसके प्रयोजन अनेक हैं । जैसे-इहलौकिक प्रयोजन पारलौकिक प्रयोजन । प्रस्तुत में पारलौकिक बंध का प्रसंग है। १४२. जो मुनि निदान दोषों में प्रयत्नशील होता है, वह निश्चित ही आजाति को प्राप्त होता है। वह विनिपात अर्थात संसार में भ्रमण करता है। इसलिए अनिदानता ही श्रेयस्करी है। १४३. साधु के लिए (सभी के लिए) संसार-समुद्र से तरने के ये पांच उपाय हैं१. अपार्श्वस्थता ४.अप्रमाद। २. अकुशील आचार ५. अनिदान। ३. अकषाय Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १. भाष्य-गाथाओं का समीकरण • दशवैकालिक भाष्य . . • उत्तराध्ययन भाष्य २. पदानुक्रम ३. एकार्थक ४. देशी शब्द ५. निक्षिप्त शब्द ६. कथाएं ७. परिभाषाएं ८. सूक्त-सुभाषित ९. उपमा और दृष्टान्त १०. दृष्टिवाद के विकीर्ण तथ्य ११. अन्य ग्रंथों से तुलना १२. विशेषनामानुक्रम १३. वर्गीकृत विशेषनामानुक्रम १४. वर्गीकृत विषयानुक्रम १५. प्रयुक्त ग्रंथ सूची Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ दशवैकालिक भाष्य की गाथाओं का समीकरण हाटी हाटी १४ ३७ हस्तप्रतियों में दशवैकालिक नियुक्ति के साथ ही दशवकालिक भाष्य की गाथाएं मिलती हैं । हस्त आदर्शों में गाथाओं के आगे 'भाष्यम्' का उल्लेख नहीं मिलता है । टीका की मुद्रित पुस्तक में भाष्य गाथा का अलग से निर्देश किया गया है । पाठ-संपादन में हमने गाथाओं के बारे में गहराई से अनुचितन किया है । हाटो की मुद्रित पुस्तक में अनेक गाथाएं नियुक्ति के क्रम में प्रकाशित हैं लेकिन वे भाष्य को गाथाएं होनी चाहिए । अनेक ऐसी गाथाएं हैं, जो भाष्य के क्रम में प्रकाशित हैं पर वे नियुक्ति के क्रम में होनी चाहिए । यहां हमने उनका चार्ट प्रस्तुत कर दिया है, जिससे पाठकों को गाथा ढूढने में सुविधा हो सके । भागा हाटी दशनि भागा वशनि भागा दशनि ८९.१ १२३१२ ३५ ८९।२ १४० १२३।३ ८९।३ १४१ १२३।४ १४२ १२३१५ १४३ १२३१६ १४४ १२३१७ १४५ १२३१८ १४६ १२३।९ १४७ १२३३१० ९५२ ४३ १४८ १२३।११ १०२ ९५३ १७६ १५०१ १०४ ९६१ २१५' X १०५ ९६२ ४५१ १०७ ९७११ ३०११ १९६ ११० ९९१ ३०।२ १९७ १३१ १२०॥ ३०।३ १९८ ४७।१ २८ २०२ १२०१२ ४८ २९ १३३ १२०१३ x ४८।१ ३० २०३ १३४ १२०१४ ३३ x १३८ १२३.१ ३४ १३ ३२x * * * * * * * * Exxxxxxxxxxxx 1 6 ४५ २९ ३० x १ ४६ ४७ 2030 १३२ ३२ xxxx ५० १. टीकाकार ने इस गाथा के लिए 'आह च भाष्यकार:' का उल्लेख किया है। किंतु मुद्रित प्रति में 'भाष्यम्' का उल्लेख होने पर भी यह निगा के क्रमांक में है। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ भागा ५०।१ ५०/२ ५१ ५२ ५३ ૫૪ ५५ ५६ ५७ ५८ ५९ ६० ६१ हाटी ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३९ ४० ४१ ४२ ४३ ४४ ४५ १. ३. दशनि २०४ २०५ X X X X X X X X X X X X Excxx 3 भागा हाटी दशनि ६२ ६३ ૬૪ ६५ ६६ ६७ ६८ ६९ ७० ७१ ७१।१ ७१२ ७२ ४६ एस पइन्नासुद्धी, सब्भावेण ४७ जयंति, જન ४९ ५० ५१ ५२ ५३ ૪ ५५ ५६ ५७ ५८ जो तेसु धम्मसद्दो, सो सी हस सीहे जह ऊ X X X X X X X X X X X २०९ २१० X दशवैकालिक भाष्य जह जिणसासरिया, धम्मं पालेंति साहवो सुद्धं । न कुतित्थि सु एवं, दीसइ परिपालणोवाओ || सुवि धम्मसद्दो, धम्मं नियगं च ते पसंसंति । नणु भणिओ सावज्जो, कुतित्थिधम्मो जिणवरेहिं ॥ उवयारेण निच्छएण इहं । पाहण्णुवया रओऽण्णत्थ' ।। साइए पंचसुवि । विसुद्ध इमा तत्थ || भागा ७३ ७३।१ ७४ ७५ ७६ ७७ ७८ ७९ ८० ८०११ ८१ ८२ हाटी ५९ ६० ६१ २३४ २३६ २३७ २३८ २३९ २४१ ६२ २४२ ६३ निर्युक्तिपंचक दशनि X २१६ X २१७/१ २१८१ २१८२ २१८३ २१८/४ २१९।१ २२० २२०।१ १. १-३ ये तीनों गाथाएं टीका में निगा के क्रमांक में व्याख्यात हैं । हमने इनको भाष्य - गाथा के अन्तगंत माना है (देखें दर्शान ८९ ३ का टिप्पण) । ३४५ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - १ ४।१. ४२. ५. ६. ७. ८. ९. १०. ११. १२. १३. १४. १५. जं भत्त-पाण-उवगरण-वसहि सयणासणादिसु जयंति । फासुयमकयमकारियमणणुमतमणुद्दिसितभोई IE अप्फासुयकय- कारित- अणुमय तसथावर हिंसाए, जणा I भोण हंदि ! अकुसला उ लिप्पंति' ॥ एसा हेउविसुद्धी, दिट्ठतो तस्स चेव य विसुद्धी । सुत्ते भणिया उ फुडा, सुत्तप्फासे उ इयमन्ना ॥ अग्गमि हवी हूयइ, आइच्चो तेण पीणिओ संतो । afres पाहियट्ठ तेजसहि परोहति ॥ कि दुब्भिक्खं जायइ ?, जइ एवं अह भवे दुरिट्ठे तु । कि जायइ सव्वत्था, दुब्भिक्खं अह भवे इंदो ॥ वासइ तो किं विग्धं, निग्धायाईहि जायए तस्स । अह वासइ उउसमए, न वासई तो तणट्ठाए । कस्सइ बुद्धी एसा, वित्ती उवकप्पिया पयावरणा । सत्ताणं तेण दुमा, पुती मट्ठा ॥ तं न भवइ जेण दुमा, नामागोयस्स पुव्वविहियस्स । उदणं पुप्फफलं, निवत्तयंती इमं चऽन्नं ॥ जइ पगई कीस पुणो, सव्वं कालं न देंति पुप्फफलं । जं काले पुप्फफलं, ददंति गुरुराह अत एव * ॥ च गिहनिवासी उ । भण्णइ न जम्हा" || एस समत्ता उ निगमणं तेणं । साहुणोत्तिय, जेणं ते महुयरसमाणा ।। समणऽणुकंपनिमित्तं पुण्णनिर्मितं कोई भणेज्ज पागं करेंति सो उवसंहारविसुद्धी, वुच्चंति तम्हा दयाइगुणसुट्टिएहिं भमरोव्व अवहवित्तीहि । साहूहि साहिउ त्ति, उक्किट्ठे मंगलं धम्मो ॥ निगमणसुद्धी तित्यंतरावि धम्मत्थमुज्जया विहरे । भण्णइ कायाणं ते, जयणं न मुणंति न कुणंति ॥ १. मुद्रित टीका में ४।१,२ ये दोनों गाथाएं भाष्य २, ३ के क्रमांक में हैं किन्तु दोनों चूर्णियों में ये निगा के रूप में (देखें टिप्पण दशनि ९१ ) । व्याख्यात हैं २ ३. ४. ४२७ ६-८ के लिए देखें टिप्पण दर्शनि ९५।३ । ९,१० के लिए देखें टिप्पण दर्शनि ९६।२ । ११ के लिए देखें टिप्पण दर्शानि ९७।१ । १२ के लिए देखें टिप्पण दर्शन ९९।१ । ५. Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ १६. १७. १८. १९. २०. २१. २२. २३. २४. २५. २६. २७. २८. न य उग्गमाइसुद्धं, भुंजंती महुयरा वऽणुवरोही । नेव य तिगुत्तिगुत्ता, जह साहू निच्चकालं पि' | धम्मो मंगलमुक्किट्ठति पइण्णा अत्तवयणनिद्देसो | सो य इहेव जिणमए, नन्नत्थ पइण्णपविभत्ती ॥ सुरपूइओत्ति हेऊ, धम्मट्ठाणे ठिया उ जं परमे । उविभती निरुवहि, जियाण अवहेण य जियंति ॥ जिणवयणपट्ठे वि हु, ससुराईए अधम्मरुइणोवि । मंगलबुद्धीइ जणो, पणमइ आविवक्खो || बितिय यस्स विवक्खो, सुरेहि पुज्जंति जण्णजाई वि । बुद्धाई वि सुरणया, वुच्चंते णायपडिवक्खो ।। एवं तु अवयवाणं, चउण्ह पडिवक्खु पंचमोऽवयवो | एत्तो छट्टोऽवयवो, विवक्पडिसेह तं वोच्छं ॥ सम्मत्त पुमं, हास - रइ आउनामगोयसुहं । आइदुगे, विवक्पडिसेह मो एसो ॥ अजिइंदिय सोहिणो, वधगा जइ ते वि नाम पुज्जति । अग्गी वि होज्ज सीओ, हेउविभत्तीण पडिसेहो || सायं धम्मफलं पूयाठाणं जिणा उ एसो अवयवो बुद्धाई उवयारे, दिट्ठत पडिस्से हो, छट्टो अरिहंत मग्गगामी, दिट्ठतो साहुणो वि समचित्ता । पागरएसु गिही सुं, एते अवमाणा तम्हा उ सुरनराणं, पुज्जत्ता मंगलं सया दसमो एस अवयवो, पइन्नहेऊ पुणो अट्ठारस उ सहस्सा, सीलंगाणं जिणेहि तेसि परिरक्खणट्ठा, अवराहपए उ १. १३-१६ के लिए देखें टिप्पण दर्शन १२००१ । २. गा. १७-२७ के लिए देखें टिप्पण दर्शान ३. सब्भावं । तत्थ भवे आसंका, उद्दिस्स जई वि कीरए पागो । तेण र विसमं नायं, वासतणा तस्स पडसे || उ ॥ उ ॥ धम्मो । वयणं ॥ पण्णत्ता । वज्जेज्जा" ।। १२३।१ । देखें टिप्पण दशनि १५१।१ । निर्युक्तिपंचक Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ ४२९ २९. ३०. ३०११. ३०१२. ३०/३. जीवाहारो भण्णइ, आयारो तेणिमं तु आयायं । छज्जीवणियज्झयणं, तस्सऽहिगारा इमे होंति' । नाम ठवण गयाओ, दवे गुणपज्जवेहि रहिउ त्ति । तिविहो य होइ भावे, ओहे भव तब्भवे चेव ॥ संते आउयकम्मे, धरती तस्सेव जीवती उदए । तस्सेव निज्जराए, मओ त्ति सिद्धो नयमएणं ॥ जेण य धरति भवगतो, जीवो जेण उ भवाउ संकमई । जाणाहि तं भवाउं, चउव्विहं तब्भवे दुविहं ॥ दुविधा य होति जीवा, सुहमा तह बायरा य लोगम्मि । सुहुमा य सव्वलोए, दो चेव य बायरविहाणा ।। सुहुमा य सव्वलोए, परियावण्णा भवंति नायव्वा । दो चेव बायराणं, पज्जत्तियरे य नायव्वा ।। लक्खणमियाणि दारं, चिंधं हेऊ अ कारणं लिंगं । लक्खणमिति जीवस्स उ, आयाणाई इमं तं च ॥ लक्खिज्जइ त्ति नज्जइ, पच्चक्खियरो व जेण जो अत्थो । तं तस्स लक्खणं खलु, धूमुण्हाइ व्व अग्गिस्स ।। अयगार कूर परसू, अग्गि सवण्णे अ खीरनरवासी । आहारो दिट्ठता, आयाणाईण जहसंखं ॥ देहिदियाइरित्तो, आया खलु गझगाहगपओगा । संडासा अयपिंडो, अययाराइव्व विन्नेओ ।। देहो सभोत्तिओ खलु, भोज्जत्ता ओयणाइथालं व । अन्नप्पउत्तिगा खलु, जोगा परसुव्व करणत्ता ।। उवओगा नाभावो, अग्गिव्व सलक्खणा परिच्चागा । सकसाया णाभावो, पज्जयगमणा सुवण्णं व ।। लेसाओ णाभावो, परिणमणसभावओ य खीरं व । उस्सासा णाभावो, समसभावा खउव्व नरो ।। अक्खाणेयाणि परत्थगाणि वासाइवेह करणत्ता । गहवेयगनिज्जरओ, कम्मस्सऽन्नो जहाहारो॥ ३९. टीकाकार ने इस गाथा के लिए "आह च होने पर भी यह निगा के क्रमांक में है। भाष्यकार:" का उल्लेख किया है। किन्तु २. ३०।१,२ के लिए देखें टिप्पण दशनि १९६ । टीका की मुद्रित प्रति में भाष्यम् का उल्लेख ३. देखें टिप्पण दशनि १९८ । Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० नियुक्तिपंचक चित्तं तिकालविसयं, चेयण पच्चक्खसन्नमणुसरणं । विण्णाणऽणेगभेयं, कालमसंखेयरं धरणा ।। अस्थस्स ऊह बुद्धी, ईहा चेट्टत्थअवगमो उ मई । संभावणत्थतक्का, गुणपच्चक्खा घडोव्वऽस्थि ।। जम्हा चित्ताईया, जीवस्स गुणा हवंति पच्चक्खा । गुणपच्चक्खत्तणओ, घडुव्व जीवो अओ अत्थि ॥ अत्थि त्ति दारमहणा, जीविस्सइ अस्थि विज्जए नियमा । लोगायतमयघायत्थमुच्चए तत्थिमो हेऊ ।। जो चितेइ सरीरे, नत्थि अहं स एव होइ जीवो त्ति । न हु जीवंमि असंते, संसयउप्पायो अन्नो । जीवस्स एस धम्मो, जा ईहा अस्थि नत्थि वा जीवो । खाणुमणुस्साणुगया, जह ईहा देवदत्तस्स ।। ४५॥१. सिद्धं जीवस्स अत्थितं, सद्दादेवाणुमीयते । नासओ भुवि भावस्स, सद्दो हवइ केवलो' । अथिति निविगप्पो, जीवो नियमाउ सद्दओ सिद्धी । कम्हा? सुद्धपयत्ता, घडखरसिंगाणुमाणाओ। सुद्धपयत्ता सिद्धी, जइ एवं सुण्णसिद्धि अम्हं पि । तं न भवइ संतेणं, जं सुन्नं सुन्नगेहं व ॥ ४७११. मिच्छा भवेउ सव्वत्या, जे केई पारलोइया । कत्ता चेवोपभोत्ता य, जदि जीवो न विज्जइ' ।। ४८. पाणिदया-तव-नियमा, बंभं दिक्खा य इंदियनिरोहो । सव्वं निरत्थयमेयं, जइ जीवो न विज्जई ।। ४८।१. लोइगा वेइगा चेव, तहा सामाइया विऊ । निच्चो जीवो पिहो देहा, इति सव्वे ववत्थिया' ।। ४९. लोगे अच्छेज्जभेज्जो, वेए सुपरीसदद्धगसियालो । समएज्जहमासि गओ, तिविहो दिव्वाइसंसारो॥ अस्थि सरीरविहाया, पइनिययागारयाइभावाओ । कुंभस्स जह कुलालो, सो मुत्तो कम्मजोगाओ। ४७. ५०. ३. देखें टिप्पण दशनि २०३। १. देखें टिप्पण दशनि २०१। २. देखें टिप्पण दशनि २०२। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ ४३१ ५०११. फरिसेण जहा वाऊ, गिज्झती कायसंसितो । नाणादीहिं तहा जीवो, गिज्झती कायसंसितो' । ५०।२. अणिदियगुणं जीवं, दुण्णेयं मंसचक्खुणा । सिद्धा पासंति सव्वन्नू, नाणसिद्धा य साहुणो॥ ५१. अत्तवयणं तु सत्थं, दिट्ठा य तओ अइंदियाणं पि । सिद्धीगहणाईणं, तहेव जीवस्स विण्णेया । अण्णत्तममुत्तत्तं, निच्चत्तं चेव भण्णए समयं । कारणअविभागाईहेऊहिं इमाहिं गाहाहिं ।। अन्नत्ति दारमहणा, अन्नो देहा गिहाउ पुरिसो व्व । तज्जीवतस्सरी रियमयघायत्थं इमं भणियं ।। देहिदियाइरित्तो, आया खलु तदुवलद्धअत्थाणं । तविगमे वि सरणओ, गेहगवक्खेहिं पुरिसोव्व ।। न उ इंदियाइं उवलद्धिमति विगएसु विसयसंभरणा । जह गेहगवखेहिं, जो अणुसरिया स उवलद्धा ।। संपयममुत्तदारं, अइंदियत्ता अछेयभेयत्ता । रूवाइविरहओ वा, अणाइपरिणामभावाओ ।। छउमत्थाणुवलंभा, तहेव सव्वण्णुवयणओ चेव । लोयाइपसिद्धीओ, जीवोऽमुत्तो ति नायव्वो । निच्च त्ति दारमहुणा, णिच्चो अविणासि सासओ जीवो । भावत्ते सइ जम्माभावाउ नहं व विन्नेओ ।। संसाराओ आलोयणाउ तह पच्चभिन्नभावाओ । खणभंगविघायत्थं, भणिों तेलोक्कदंसीहिं ।। लोगे वेए समए, निच्चो जीवो विभासओ अम्हं । इहरा संसाराई, सव्वंपि न जुज्जए तस्स ।। कारणअविभागाओ कारणअविणासओ य जीवस्स । निच्चत्तं विन्नेयं, आगासपडाणुमाणाओ ।। ६२. हेउप्पभवो बंधो, जम्माणतरहयस्स नो जुत्तो । तज्जोगविरहओ खलु, चोराइघडाणुमाणाओ ।। १. देखें टिप्पण दशनि २०४ । २. देखें टिप्पण दशनि २०५। Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ नियुक्तिपंचक अविणासी खलु जीवो, विगारणुवलंभओ जहागासं । उवलब्भंति विगारा, कुंभाइविणासिदव्वाणं ।। रोगस्सामयसन्ना, बालकयं जं जुवाऽणुसंभरइ । जं कयमन्नंमि भवे, तस्सेवन्नत्थुवत्थाणा । णिच्चो अणिदियत्ता, खणिओ न वि होइ जाइसंभरणा । थणअभिलासा य तहा, अमओ नउ मिम्मउव्व घडो ।। कत्तत्ति दारमहुणा, सकम्मफलभोइणो जओ जीवा । वाणियकिसीवला इव, कविलमनिसेहणं एयं ।। वावित्ति दारमहुणा, देहव्वावी मओऽग्गिउण्हं व । जीवो नउ सव्वगओ, देहे लिंगोवलंभाओ। अहुणा गुणित्ति दारं, होइ गुणेहिं गुणित्ति विन्नेओ । ते भोग-जोगउवओगमाइ रुवाइ व घडस्स ।। उड्ढंगइत्ति अहुणा, अगुरुलहुत्ता सभावउड्ढगई । दिटुंतलाउएणं, एरंडफलाइएहिं च ।। अमओ य होइ जीवो, कारणविरहा जहेव आगासं । समयं च होयऽनिच्चं, मिम्मयघडतंतुमाईयं ।। साफल्लदारमहुणा निच्चानिच्चपरिणामिजोवम्मि । होइ तयं कम्माणं, इहरेगसभावओऽजुत्तं ।। ७१११. जीवस्स उ परिमाणं, वित्थरओ जाव लोगमेत्तं तु । ओगाहणा य सुडमा, तस्स पएसा असंखेज्जा । ७११२. पत्थेण व कुडवेण व, जह कोइ मिणेज्ज सव्वधन्नाई । एवं मविज्जमाणा, हवंति लोगा अणंता उ'। ७२. विद्धत्थाविद्धत्था, जोणी जीवाण होइ नायत्वा । तत्थ अविद्धत्थाए, वुक्कमई सो य अन्नो वा ।। जो पुण मूले जीवो, सो निव्वत्तेति जा पढमपत्तं । कंदाइ जाव बीयं, सेसं अन्ने पकुव्वंति ।। ७३।१. सेसं सुत्तप्फासं, काए काए अहक्कम बूया । अज्झयणत्या पंच य, पगरणपयवंजणविसुद्धा' ।। ७१. ७३. १. ७१।१,२ के लिए देखें टिप्पण दशनि २०९। २. देखे टिप्पण दशनि २१६ । Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ ४३३ ७४. मूलगुणा वक्खाया, उत्तरगुणअवसरेण आयायं । पिंडज्झयणमियाणि, निक्खेवे नामनिप्फन्ने । पिंडो य एसणा या, दुपयं नामं तु तस्स नायव्वं । चउचउनिक्खेवेहि, परूवणा तस्स कायव्वा' ।। पिडि संघाए जम्हा, ते उइया संहया य संसारे । संघातयंति जोवं, कम्मेणट्टप्पगारेण ।। दम्वेसणा उ तिविहा, सचित्ताचित्तमीसदव्वाणं । दुपयचउप्पयअपया, नरगयकरिसावणदुमाणं ॥ भावेसणा उ दुविहा, पसत्थ अपसत्थगा य नायव्वा । नाणाईण पसत्था, अपसत्था कोहमादीणं । भावस्सुवगारित्ता, एत्थं दवेसणाइ अहिगारो । तीइ पुण अत्थजुत्ती, वत्तव्वा पिंडनिज्जुत्ती ॥ सा नवहा दुह कीरइ, उग्गमकोडो विसोहिकोडी अ । छसु पढमा ओयरइ, कोयतियम्मी विसोही उ॥ ८०।१. कोडीकरणं दुविहं, उग्गमकोडी विसोधिकोडी य । उग्गमकोडी छक्कं, विसोधिकोडी भवे सेसा ।। कम्मुद्देसियचरिमतिग, पूइयं मीसचरिमपाहुडिआ । अज्झोयर अविसोहो, विसोहिकोडी भवे सेसा ॥ अधिगारो पुव्वुत्तो, चतुम्विहो बितियचूलियज्झयणे । सेसाणं दाराणं, अहक्कम धोसणा होति ।। १. देखें टिप्पण दशनि २१७१ । ४. देखें टिप्पण दशनि २२० । २. ७६-७९ के लिए देखें टिप्पण दशनि ५. देखें टिप्पण दशनि २२०।१ । २१८।१-४। ६. देखें टिप्पण दशनि ३४५ । ३. देखें टिप्पण दशनि २१९।१। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन पर कोई भाष्य उपलब्ध नहीं है । केवल क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय अध्ययन के प्रसंग में निर्ग्रन्थ एवं उसके भेदों की व्याख्या हेतु कुछ भाष्य गाथाएं प्राप्त होती हैं । ये भाष्य गाथाएं किसके द्वारा लिखी गयीं इसकी कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती है । संभव लगता है कि व्याख्या के प्रसंग 'अन्य भाष्य गाथाओं से ये गाथाएं यहां उद्धृत कर दी गयी हों । हस्त आदर्शों एवं शांत्याचार्य की टीका में प्रकाशित भाष्य गाथाओं के क्रम में थोड़ा अन्तर है । हमने हस्त आदर्शों के आधार पर गाथाओं का क्रम रखा है । उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य की प्रकाशित टीका में २५७-५९ इन तीन पत्रों में ये गाथाएं मिलती हैं । १. २. ३. ४. ५. ७. उत्तराध्ययन भाष्य ८. पुलाग - बकुस - कुसीला, णिग्गंथ - सिणायगा य एएसि पंचह वि, होइ विभासा इमा होइ पुलागो दुविहो, लद्धिपुलागो तहेव लद्धि लागो संघाइकज्ज इतरो तु णाणे दंसण चरणे, लिंगे अहासुहुमगे य णाणे दंसण चरणे, तेसि तु विराहण णायव्वा । कमसो' ॥ इयरो य । पंचविहो || बोधव्वे | असारो ॥ लिंगपुलागो अन्नं, णिक्कारणतो करेति मणसा अकप्पियाई, णिसेवओ सारीरं उवकरणे, क्लित्थाणि धरे, अह । आभोगमणाभोगे, संवुड डे दुविहो उ बाउसो खलु, पंचविहो होति णायव्वो ॥ आभोगो जाणतो, करेति दोसं तहा अणाभोगो । मूलुत्तरेह संवुड, विवरीय असंवुडो होति ॥ अच्छि मुहमज्जमाणो, होइ अहासुहुमओ तहा बउसो । पडिसेवणाकसाए, होइ कुसीलो दुहा एसो ॥ जो लिंगं । होतऽहासुमो || बाउसियत्तं दुहा समवखायं । दे य सव्वसरीरम्म || १. इस गाथा से पहले शान्त्याचार्य की मुद्रित टीका में निम्न गाथा अतिरिक्त मिलती हैतत्थ नियंठ पुलातो, बकुस कुसीलो नियंठ पहातो य । तत्थ पुलाओ दुविहो, आसेवण लद्धितो चेव ।। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ णाणे दंसण चरणे, तवे य अहसुहमए य बोधव्वे । पडिसेवणाकुसीलो, पंचविहो ऊ मुणेयव्वो ।। णाणादी उवजीवति, अहसुहुमो अह इमो मुणेयन्वो । सातिज्जतो राग, गच्छति एसो तवच्चरणी ।। एमेव कसायम्मि वि, पंचविहो होइ ऊ कुसीलो उ । कोहेणं विज्जादी, पउंजए एव माणादी ।। एमेव दंसम्मि वि, सावं पुण देति ऊ चरित्तम्मि । मणसा कोहादीणि उ, करेति अह सो अहासुहुमो ।। पढमग अपढम चरिमा, अचरिमो सुहुमो य होइ णायव्वो। णिग्गंथे पंचविहो, सिणाए पुण केवली भणिता ।। पढमापढमा चरिमे, अचरिमसहुमे य होंति णिग्गंथे । अच्छवि अस्सबले या, अकम्मसंसुद्ध अरहजिणो ।। निग्गयगंथ णियंठो, अंतमुहुत्तं दुहा मुणेयव्वो। उवसंतकसायो वा, खीणकसायो य पंचविहो । अंतो मुहत्तद्धाए, पढमेयरचरिम अचरिम णियंठो । समएसु अहासुहुमो, णायव्वो संपराएसु ।। ण्हाओ एक्कं समयं, चउक्कम विसुद्धण्हायगो होइ । अत्थ वि सयलअकम्मे, णाणादिविसुद्धचरिमजिणो' । संजम-सुय-पडिसेवण, तित्थे लिंगे य लेस उववाए । थाणं च पतिविसेसो, पुलागादीण तु जोएज्जा ।। पुलागबकुसकुसीला, सामाइय-छेयसंजमा होति । होति कसायकुसीलो, परिहारे सुहुमरागे य ।। णिग्गंथो य सिणाओ, अहखाए संजमे मुणेयव्वा । दसपुव्वधरुक्कोसा, पडिसेवपुलायबउसा य ।। चोद्दसपुव्वधरादी, कसायणियंठा य होंति णायव्वा । अवगयसुतो उ केवलि, मूलगुणासेवओ पुलओ। चित्तलवत्थासेवी, बलाभिओगेण सो भवे वउसो । मूलगुण उत्तरगुणे, सरीरबउसो मुणेयव्वो ।। १. ३, १५, १६, १७ ये चारों गाथाएं मुद्रित टीका में नहीं हैं। Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. नियुक्तिपचक हाय कसायकुसीले, निग्गंथाणं च नत्थि पडिसेवा । सव्वेसुं तित्थेसं, होति पुलागादि य णियंठा ।। लिंगे उ भावलिग, सव्वेसि दवलिंग भणिज्जा । लेसाउ पुलागस्स य, उरिल्लातो भवे तिण्णि ।। बकुसपडिसेवगाणं, सव्वा लेसाउ होंति णायव्वा । परिहारविसुद्धीणं. तिण्हुवरिल्ला कसाए उ ।। णिग्गंथसुहमरागे, सुक्का लेसा तहा सिणाएसुं । सेलेसि पडिवण्णो, लेसातीए मुणेयव्वो ।। सहस्सार-अच्चुतम्मि, अणुत्तराणुत्तरे य मोक्खम्मि । उक्कोसेणं हीणा, सोहम्म नव उ पल्लाओ । संजमठाणाणि य संखासंखादीणि होति जीवस्स । जणियाणि कसाएहिं, पुलगकसादीणि वोच्छामि ॥ पुलागस्स सहस्सारे, सेवगबउसाण अच्चुए कप्पे । सकसायणियंठाणं, सव्वळे हायगो सिद्धो ।। पुलागकुसीलाणं, सव्वजहण्णाइं होंति ठाणाई । वोलीणेहिं असंखेहि, होइ पुलागस्स वोच्छित्ती ।। कसायकुमीलो उवरि, असंखिज्जाइं तु तत्थ ठाणाई । पडिसेवणबउसे वा, कसायकुसीलो तओऽसंखा ।। वोच्छिण्णे ऊ बउसो, उरि पडिसेवणाकसाओ य । गंतुमसंखिज्जाइं, छिज्जइ पडिसेवणकुसीलो ।। उरि गंतुं छिज्जति, कसायसेवी ततो हु सो णियमा । उद्धं एगट्ठाणं, णिगंथसिणायगाणं तु ॥ उक्कोसतो नियंठो, जहन्नओ चेव होइ णायव्यो । अजहन्नमणुक्कोसो, होति नियंठा असंखेज्जा ।। ३४. १. २७,२८ और ३४ ये तीन गाथाएं मुद्रित टीका में नहीं हैं। Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ पदानुक्रम अइसेस इढियायरिय अंग दस भाग भेदे अंगप्पभवा जिणभासिया अंगाणं किं सारो अंतगयफिप्फिसाणि य अंतोमुहुत्तमद्धं अंतो सादीयाओ अंबठुग्ग-निसाया अंबे अंबरिसी चेव , अकुसलजोगनिरोहो अक्खरगुण मतिसंघातणाए अक्खीणं दिज्जतं अक्खेवणि अक्खित्ता अगणी णिव्वावणे चेव अगणेतो निक्खंतो अग्गबिय मूलबीया अग्गिम्मि हवी हयइ अचिरुग्गतए य सूरिए अच्चित्तं पुण विरियं अच्चित्तमीसगेसं अचिइंदियसोवहिणो अजीवकम्मनोदव्व... अजीवपयोगकरणं अज्जद्दएण गोसाल अज्झप्पस्साणयणं अज्झयणगुणी भिक्खू अज्झयणे निक्खेवो अट्ठपदेसो रुयगो अट्ठमए य विमोक्खो अविधं कम्मचयं अविधं पि य कम्म अट्ठविहं कम्मरयं दशनि १५७।१ अट्टविहकम्ममहणस्स उनि १५८ अट्टविहकम्मरुक्खा उनि ४ अट्टविहकम्मरोगा".. आनि १६ अट्ठसु वि समितीसु य सूनि ७१ अट्ठारस उ सहस्सा सूनि १७७ अट्ठारसठाणाई आनि ४५ अट्ठावयमुज्जिते आनि २२ अट्ठी जहा सरीरम्मि सूनि ६६ अणगारवादिणो पुढवि अणगारे निक्खेवो दनि ३३।१ अणभिग्गहिता भासा सूनि २० उनि २८।४ अणसणमूणोयरिया अणसातणा य भत्ती दशनि १७८ अणिएयं पतिरिक्कं उनि ४५० अणिदियगुणं जीवं सूनि १९६ अणिगृहितबलविरियो आनि १३० अणिच्चे पव्वए रुप्पे दशनि ९५१ अणुपुब्विगमादेसो उनि १३५ अणुपुग्विविहारीण सूनि ९२ अणसमयं च पवेसो सूनि १५२ अणुसमय निरंतरमवीचि दशनि १२३७ अतसि-हरिमंथ तिपुडग उनि ५३२ अतिरित्तअधिगमासा उनि १८७ अतिसेसे उप्पन्ने सूनि १९१ अत्तउवन्नासम्मि य दशनि २६, उनि ६ अत्थकहा कामकहा दशनि ३२५ अत्थबहुलं महत्थं उनि ५३८ अत्थमहंती वि कहा आनि ४२ अत्थि ति जा वितक्का आनि ३२ अत्थि त्ति किरियवादी दशनि २९४ अत्थि बहु गाम-नगरा दनि १२३ अत्थि बहू वणसंडा दशनि ३०, २८०, उनि ११ उनि २८० आनि १८८ दशनि ३४२ उनि ४५६ दशनि १५१११ दशनि २४३ आनि ३५४ आनि ८५ आनि १००, सुनि ८९५१ उनि ५४१ दशनि २५३ दशनि ४४ दशनि ३०३ दशनि ३४७ दशनि २०५ दशनि १६१ आनि ३६४ आनि २८६ आनि २७५ आनि ९० उनि २०८ दशनि २३० दशनि ३३६ उनि २५२ दशनि ७९ दशनि १६२ दशनि १५० दशनि १८७ दशनि ७३ सूनि ११८ दशनि १०२ दशनि ९७ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ नियुक्तिपंचक अद्दपुरे अद्दसुतो अध ओवयारिओ पुण अधिगम्मति व अत्था अधिगारो पुवुत्तो अन्नं पि य सिं नाम अन्नावदेसओ नाहियवाई अन्नो वि य अणगारो अपडिक्कम सोहम्मे अपरक्कममादेसो अपासत्थाएं अकुसीलयाए अपुहत्तपुहत्ताई अप्पिणह तं बइल्लं अप्फासुय-कय-कारित अप्फासुयपडिसेवी अब्भासवत्ति छंदाणु वत्तणं अभितरगा खुभिता अब्भुट्ठाणं अंजलि अब्भुवगतगतवेरे अभयं तुज्झ नरवती अभयकरो जीवाणं अभिपेतमणभिपेतो अभिलावे संजोगो अयलपुरे जुवराया अरती अचेल इत्थी अरतीइ दुगुंछाए अरहंत चक्कवट्टी अरहंत मग्गगामी अवणेति तवेण तमं अवदाली उत्तसओ अवराधम्मि पतणुए अवहंत गोण मरुए अवि भमरमधुकरगणा अवि य हु भारियकम्मा अविरयमरणं बालमरणं अविसुद्धभावलेसा अव्वोगडो उ भणिओ असंजतेहिं भमरेहि सूनि १८८ असमणुण्णस्स विमोक्खो दशनि २९६ असमाहि य सबलत्तं उनि ७, २७, असिपत्ते धणुं कुंभे दशनि २७ असिवादिकारणेहिं दशनि ३४५ असिवे ओमोयरिए दशनि १४१ असि-सत्ति-कोत-तोमर दशनि ७६ असीतिसयं किरियाणं उनि १०६ असुभे दुहाणुबंधे दनि १११ अह अन्नया कयाई आनि २८४ अह आगतो सपरिसो दनि १४३ अह आसगतो राया दशनि ४ अह एगराइयाए दनि ९४ अह कीस पुण गिहत्था दशनि ९१ अह केसरमुज्जाणे सूनि ८९ अह तस्स पिया पत्ति दशनि २८९ अह दव्वसम्म इच्छा उनि १३३ अह देहति रायसुतो दशनि २८८, २९८ अह पेच्छइ रायपहे दनि ११३ अह पोंडरीयनाम उनि ३९५ अह भणई अणगारो आनि २०७ अह भणई जयघोसं उनि ४३ अह भणति सन्निनाणी उनि ४५ अह मोणमस्सितो सो उनि ९९ अह रूविणीएँ सहिओ उनि ७६ अहवा वि इमो हेऊ उनि ७७ अहवा वि दुप्पणिहिंदियो सूनि १४९ अहवा वि नाण-दंसण दशनि १२३१९ अह सा सत्थाहसुया दशनि २९५ अह्यिासित्तु वसग्गे उनि ४८४ दनि १३ दनि १०५ आइक्खिउं विभइउं दशनि ११४ आई मझवसाणे सूनि १६१ आउज्ज कट्टकम्मे उनि २१६ आउट्टिम उक्किण्णं उनि ५३६ आउरचिण्णाई एयाई आनि ३१२ आउविवागज्झयणाणि दशनि ११५ आउस्स वि दाराई आनि २७१ दनि ८ सूनि ६७ दनि ६७ दनि ७५ सूनि ७२ सूनि ११९ दनि १२६ उनि ४०६,४२६,४३३,४६२ उनि २८५ उनि ३९१ उनि ४६८ दशनि १०१ उनि ३९० उनि ४३१ आनि २१८ उनि ४०८ उनि ४०७ उनि २८६ उनि ४७२ उनि ४७० उनि ४३४ उनि ३९३ उनि ४३२ दशनि ८३ दशनि २७४।१ सूनि १५७ उनि ४२८ आनि २५२ आ आनि ३१५ दशनि २ आनि १४७ दशनि १४३ उनि २४२।१ दनि २ आनि १०६ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ आगमतो उवउत्ते आगमतो पुण आदी आगम- नोआगमतो आनंदसुपातं आदाणपणावंति आदाणपदेणाssi आदरणिय संकलिया आदाणे गहणम्मि य आदाणे परिभोगे आदिट्ठो आदेसंसि आदेसो पुण दुविधो आभरण छायणाऽऽदं सगाण आमंतणि आणवणी आय- परसरी रगया आयप्पवायपुव्वा आयरिओ तारिसओ आयरिओ पुण दुविधो आयरियपरंपरएण आयरियसीस पुत्तो आयाणपदेणेदं आर अंग सुध आयारग्गाणत्थो आयारपकप्पो पुण आयारम्मि अधीते आयारम्मि अहीए आयार सुतं भणियं आयारस्स भगवतो आयारे अंगम्मि य आयारे निक्खेवो आयारे बायाला आयारे ववहारे आयारो अंगाणं आयारो आचालो आरंभे रसगिद्धी आराहणी उदव्वे आलंबणे य काले आलस्स-मोह-ऽवण्णा दर्शन ३१६ सूनि १३६ सूनि १३५ दर्शन ३४९ आनि २३९ सूनि १०३ सूनि २८ सूनि १३२ दशनि १९९ उनि ४८ उनि ५० उनि ५३३ दशनि २५२ दशनि १७२ दशनि १५ उनि ५९ सूनि १३० सूनि १२५ उनि ५८ उनि ४९८ आनि २ आनि १२ आनि ३११ दनि २७ आनि १० सूनि १८३ आनि ३६६ आनि ५ उनि ४७९ दनि ४७ दशनि १६७ आनि ९ आनि ७ आलेवण पहरण भूसणे आवरणे कवचादी उनि २४२ दशनि २४८ आवीचि ओहि अंतिय आसंदी य अकरणं पुणिमाए आसाणा उदुविहा आसेवणाय दुविध आहरणं तद्दे आहार- उवहि- पूया आहार-भय- परिग्गह आहारे उवकरणे आहारेण विरहिओ इंगाल- अगणि-अच्ची इंदग्गेयी जम्मा इंदपुरे रुद्दपुरे इंदियलद्धी निव्वत्तणा इंदिय - विसय कसाया इच्छादि सामसुं इच्छा पत्थमपसत्थिगा इच्छा मिच्छा तहक्कारो इड्ढि - रस-सात गुरुगा इड्ढी निक्खतो इतरेतरसंजोगो इत्थं पुण अधिगारी इत्यिकहा भत्तकहा इत्थीण कहत्य वट्टती इत्थी परिग्गहाओ इत्थीरयण पुरोहि इत्थीसक्कारपरीसहो इमं च एरिसं तं च इय सत्तरी जहण्णा इरि एस भासाणं ईसर - तलवर - माडं बियाण उक्कल - कलिंग गोतम आनि ३३१ उनि १६३ उक्aलिया मंडलिया इ उ ४३९ आनि ९३ सूनि ९३ उनि २०५ आनि २६३ दनि ६४ दनि १५ सूनि १२९ दर्शनि ६९ आनि २२५ आनि ३९ आनि १४६ आनि २९३ आनि ११ आनि ४३ उनि ३४४ उनि १६२ दर्शनि १५१ उनि ४८१ दर्शन १३९ उनि ४७८ । १ सूनि ११३ उनि ४१५ उनि ३५ उनि २२९ दर्शन १८० उनि ३२१ दशनि ३१५।१ उनि ३४८ आनि २०३ उनि १२२ दनि ६९ दनि ८९ उनि ३०८ आनि ३२३ आनि १६६ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० नियुक्तिपचक दशनि ८८ दशनि ११९ सूनि २५ सूनि ४७ आनि २५१ उनि १०१ उनि २८१ उनि ३५५ उनि ३६० उनि ३५३ आनि ११३ दनि ६३ दनि ५९ उनि १७२।१४ उक्कोसो उ नियंठो उग्गमदोसा पढमिल्लुगम्मि उग्गेण खत्ताए उच्चवइ सरीराओ उच्चार-पासवण-खेलमत्तए उच्छाहपालणाए उज्जम-धिति-धीरत्तं उज्जाणे तिदुगम्मि उज्जेणि कालखमणा उज्जेणि हत्थिमितो उज्जेणी धणमित्तो उड्ढमहे तिरियम्मिय उण्णियवासाकप्पो उत्तरकरणेण कयं उत्तरज्झयणाणेसो उदएण समुप्पज्जइ उदगदं सारदं उदगसरिच्छा पक्खेण उद्दिकडं भुंजति उद्देसम्मि चउत्थे उद्देसम्म य ततिए उद्देसो गुरुवयणं उन्नंदमाणहियओ उप्पन्न-विगत-मीसग उब्भामिगा य महिला उभओ वि अद्धजोयण उरग-गिरि-जलण-सागर उरभाउणामगोयं उल्लो सुक्को य दो छुढा उवओग-जोग-अज्झवसाणे उवकमिए संजमविग्घकारए उवमा खलु एस कता उवमा पोंडरीएण उवयारेण उ पगयं उवलम्भम्मि मिगावइ उवसंपया य काले उवसंहारविसुद्धी उनि २३३ उवसंहारो देवा आनि ३२६ उवसंहारो भमरा आनि २६ उवसग्गभीरुणो थीवसस्स आनि ३४४ उवसग्गम्मि य छक्क दनि ८५ उवसग्गा सम्माणय आनि ३६३ उसभपुरं रायगिहं सूनि ९६ उसभस्स भरहपिउणो उनि ३२० उसुयारनामगोयं उनि १२० उसुयारपुरे नगरे उनि ९० उसूयारे निक्खेवो उनि ९१ उस्सिचण-गालण-धोवणे दनि ७७ दनि ११८ ऊणातिरित्तमासा उनि १७६ ऊणातिरित्तमासे उनि २७ ऊहाए पण्णतं दशनि ३३९ सूनि १८६ एए पंच वयंसा दनि १०२ एए समणा धुत्ता दशनि ३३२ एएहिं कारणेहि आनि १९९, २१६, २७३ एएहिं सरीरेहि सूनि ३७ एक्कं च दो व समए उनि ८७ एक्कारस ति ति दो दो उनि ४०५ एक्केक्को य चउविहो दशनि २५१ एगंतपसत्था तिण्णि दशनि ८४ एगंतरिए इणमो दनि ७६ एगबइल्ला मंडी दशनि १३२ एगभविए य बद्धाउए उनि २४० एगभविय बद्धाउगे य आनि २३३ एगमुकुंदा तुरं आनि ८४,१५७ एगरस-एगवण्णे सूनि ४९ एगविहो पूण सो संजमो दशनि ११६ एगस्स उ जं गहणं सूनि १५९ एगस्स खीरभोयण आनि ३०६ एगस्स दोण्ह तिण्ह व दशनि ७२ एगा मणुस्सजाई उनि ४७८।२ एगिदिय देवाणं दशनि १२०११ एगुणतीसे आवस्सग उनि ३२९ उनि ३६४ आनि ९४,११२,१२२ आनि ८३,१३५ सूनि १७५,१७६ आनि ३६८ सूनि ५० उनि २२८ आनि २३ दनि. ९३ सूनि १४६ सूनि १८७ उनि १५२ उनि ३३ आनि ३१३ आनि १३७ उनि २९३ आनि ८२,१४२,१४३ आनि १९ सूनि १७४ उनि २५ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ उनि १५० आनि २१४ दशनि २७८ दशनि ३०१ सूनि ८७ उनि ४९,५६,सूनि १५६ आनि १८४ दनि ५६ उनि १२३ उनि २२३ आनि ३०३ सूनि १७३ उनि २४१ उनि ५१ आनि १ उनि १४७ सूनि ६९ दशनि २५११, उनि २८।१ एगो कायो दुहा जातो एतं ससल्लमरणं एतस्स उ पडिसेधो एताई तु खुहाई एताई पावाई एता चेव कहाओ एतासि चेव अट्ठण्ह एते चेव य दोसा एतेहि कारणेहि एत्तो उत्तरकरणं एत्तो गुरु आसायण एत्थं पुण अधिकारो एत्थं पुण अधिगारो एत्थ तु अण भिग्गहियं एत्थ तु पणगं पणगं एत्थ य भणेज्ज कोई एत्थ य सहसम्मुइय एत्थ समणा सुविहिया एमेव ओहिमरणं एमेव कामविणओ एमेव चउविगप्पो एमेव थंभकेयण एमेव भावसुद्धी एयं ण्हाणं एवं एयं वियाणिऊणं एयाई परूवेळ एयासिं लेसाणं एवं चितयंतस्स एवं तु अवयवाणं एवं तु इहं आया एवं तु समणुचिण्णं एवं तू सुयसमाधि एवं नाणे चरणे एवं भमराहरणे एवं लग्गंति दुम्मेहा , एवं विकप्पियाणं एवं सउ जीवस्स वि एसणमणेसणिज्ज दशनि २११११ एसा उ हणइ कडु उनि २१३ एसेव य उवदेसो सूनि १८४ एसो दुविहो पणिधी उनि ३७२ एसो भे परिकहितो उनि ३८४ दशनि १८१ ओचे सीलं विरती आनि ५३ ओदइय ओवसमिए सूनि ६१ ओदइयं उवदिट्ठा उनि १६४, आनि १४८ ओदइयादीयाणं उनि १८५ ओधाविउकामोऽविय दनि १२८ ओधिं च आइयंतिय दशनि २१२ ओधुणण धुणण नासण सूनि १५८ ओयाहारा जीवा दनि ६६ ओरब्भे य कागिणी दनि ६८ ओवसमिए य खइए ओसहि तण सेवाले आनि ६५ ओसिर-हिरिबेराणं दशनि १०४ ओहतहते य निहते उनि २०९ ओहो ज सामन्न दशनि २९० दशनि ५७ कंचुग पज्जुण्णम्मि य दनि १०४ कंडू अभत्त छंदो दशनि २६२ कतारे दुब्भिक्खे कंदादी सच्चित्तो उनि १४८ कंपिल्लं गिरितडग आनि १०४ दशनि ६ कंपिल्लपुरवरम्मि उनि ५४० कंपिल्लपुराहिवई उनि ४०९ कंपिल्ले मलयवती दशनि १२३१५ कंसाणं दूसाणं दशनि ५९ कडगासणपरिभोगो आनि ३०४ कडगे ते कुंडले य ते दनि ४८ कण्णो?-नास-कर-चरण उनि ६० कत्तो कस्स व दवे दशनि ९३ कत्थइ पंचावयवं आनि २३४ कत्थइ पुच्छति सीसो आनि ५५ कप्पंति करकएहिं दशनि ६१,६२ कप्पंति कागिणी मंसगाणि उनि ८१ कप्पणि कुहाडि असियग उनि ३५२ उनि ८५ दशनि १०० उनि २९१ उनि ३३६ उनि ३८८ उनि ३९४ उनि ३३४ सूनि १५१ आनि २५८ उनि १३९ सूनि ७७ उनि ६९ दशनि ४७ दशनि ३५ सूनि ८१ सूनि ७५ आनि १४९ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ निर्यक्तिपंचक कमउत्तरेण पगतं कम्मगसरीरकरणं कम्मप्पगडी लेसा कम्मप्पवायपुग्वे कम्मम्मि य निक्खेवो कम्मयदव्वेहि सम कम्मुद्देसिय चरिम तिग कम्मे य किलिसे य करकंडू कलिंगेसु करणं च कारगो या करणतिए जोगतिए कविलाउणामगोतं कविलो निच्चियपरिवेसियाइ कस्सइ बुद्धी एसा कह नाम सो तवोकम्म कहिऊण ससमयं तो कहिया जिणेहि लोगो काइयभूमी संथारए य काऊण तवच्चरणं काऊण मासकप्पं काऊण य सामण्णं काऊण समणरूवं काम असंजतस्सा कामं तु निरवसेसं कामं तु सव्वकाल कामं तु सासतमिणं कामं दुवालसंग कामाण तु णिक्खेवो कामो च उवीसतिविहो कायं वायं च मणं च कारणो उडुगहिते कारण विभाग कारणविणास काले विणए बहुमाणे कालो जो जावइओ कालो य नालियाइहिं कालो समयादीओ किंच दुमा पुप्फंती उनि ३ किंची सकायसत्थं उनि १९७ उनि १७ किं दुब्भिक्खं जायइ उनि ७० किं पुण अवसेसेहिं उनि ५२२ किण्हचउद्दसिरत्ति आनि २७९ कितिकम्मं भावकम्म दशनि २२०१ किन्नु गिही रंधती दनि १२५ किरियाओ भणियाओ उनि २५७ किह मे होज्ज अवंझो सूनि ४ कुंभीसु य पयणेसु य दशनि ३१५ कुक्कुडरव तिलपत्ते उनि २४५ कुणमाणो वि निवित्ति उनि २४७ दशनि ९६१ कुमा कुणमाणो वि य किरियं आनि २९२ कुप्पवयणं कुधम्म दशनि १६९ कुमारए नदी लेणे दनि १२७ कुसुमे सभावपुप्फे दनि ७२ केई वहति अट्ठा उनि ३९८,४३६ केई सयं वधेति दनि ६०,७० केणं ति नत्थि आया उनि ३५७ केवलिपरिसं तत्तो उनि ३६१ केसिंचि नाणसण्णा दनि १३३ कोडि पि देमि अज्जे त्ति दनि ४० कोडीकरणं दुविहं दनि ९० कोधे माणे माया सूनि ४१ कोल्लयरे वत्थव्वो सूनि १८९, दनि ३८ को वेदेई अकयं? उनि २०० कोसंबि कासवजसा दशनि २३६ कोसंबीए सेट्ठी दशनि १२१ दनि ८४ कोसंबी जण्णदत्तो दशनि २०६ कोहं माणं मायं दशनि १५८ उनि १८९, सूनि १० दशनि ५८ खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स दनि ५८ खंती य मद्दवज्जव दशनि ९६ खंधेसु य दुपदेसादिएसु आनि ९६,११४,१२४, १५०,१७१,दशनि २१४ दशनि ९५२२ आनि २९८ उनि १९२ आनि १९४ दशनि ९९ सूनि १६६ आनि ३६२ सूनि ७८ उनि ३५१ आनि २२१ आनि २२० दनि ३६ उनि ८८ दशनि ११८ आनि १६२ आनि १०१ दशनि ७५ उनि २९४ आनि ६३ उनि २५० दशनि २२० दशनि २५०, उनि २३५ उनि १०७ सूनि ३४ उनि २४६ उनि १०० उनि १०९ दशनि २७५ आनि २३२ दशनि २२५.३२४ उनि १८१, सूनि ८ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४४३ उनि २६० उनि ४४८ उनि ४४७ आनि ७५ खद्धाऽऽदाणिय गेहे खवगे य खीणमोहे खुड्डग पायसमासं खेत्तं कालं पुरिसं खेत्तं तु जम्मि खेत्ते खेत्तं-वत्थु धण-धन्न खेत्तम्मि अवक्कमणं खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते खेत्ते काले य तहा खेत्ते बहओघभयं खेमेणं संपत्तो उनि २८८ गंगाए दोकिरिया गंडी गली मराली गंथो पुब्बुद्दिट्ठो गंधगमोसधंगं गंधारगिरी देवय गज्ज पज्ज गेयं गणणाए रज्जू खलु गणसंगहुवग्गहकारओ गणियं निमित्त जुत्ती गणियाघरम्मि एक्को गम्म-पसु-देस-रज्जे गहणं नदीकुडंगं गहणुग्गहम्मि अपरिग्गहस्स गामे बसंतपुरए गारवपंकनिबुड्डा गावी महिसी उट्टी गाहावति संजोगे गाहावितो तिविधी गाहीकता य अत्था गिद्धादिभक्खणं गिद्धपिट्ठ गिहिणो विसयारंभग गुणमाहप्पं इसिनाम.. गुणिउड्ढगतित्ते या गुत्ता गुत्तीहिं सव्वाहिं गूढसिरागं पत्तं दनि ९९ गोठेंगणस्स मज्झे आनि २२४ गोतमकेसीओ या आनि २२८ गोतमनामागोयं दशनि १८८ गोमेज्जए य रुयगे आनि २४७ उनि २३६ घेत्तूण पोंडरीयं दशनि ५२ सूनि १०९ चइऊणं संकपयं उनि ४७ सूनि ४८ चउकारणपरिसुद्ध उनि ४२९ चउत्थम्मि धुवणविही चउधा खलु आहरणं चउवीसं चउवीसं उनि १६९ चउसु कसाएसु गती उनि ६५ चंकमणे य ठाणे सूनि १२७ चंदप्पभवेरुलिए उनि १४५ चंपाए पुण्णभद्दम्मि दनि ९७ चंपाए सत्थवाहो दशनि १४६ चंपाएँ सुनंदो नाम सूनि १५५ चंपाएं सुमणभद्दो दनि २८ चंपा कुमार नंदी आनि ३५५ चक्कागं भज्जमाणस्स उनि १०३ चतुकारणपरिसुद्ध दशनि ३९ चत्तारि उवन्नासे उनि ३४२ चत्तारि विचित्ताई आनि ३४२ चरग-मरुगादियाणं सूनि १९२ चरणदिसावज्जाणं उनि २१२ चरणम्मि होति छक्कं दशनि २३४ चरणे छक्को दब्वे आनि २५३ चरितं च कप्पितं या सूनि १३१ चरिमसरीरो साहू सूनि १३९ चरिया य विचित्ता एक्कवीसे उनि २१८ चरिया सेज्जा य परीसहा दशनि ३१२ चलणं कम्मगई खलु आनि ३५६ चाउद्दसिरत्तीए दशनि १९४ चारो चरिया चरणं आनि १०५ चित्तं चेयण सण्णा आनि १४० चित्ते य विज्जुमाला आनि २४३ आनि ३३२ आनि २५७ दशनि ५० दशनि २२८ दनि १०४।१ आनि ९२ आनि ७६ उनि २७९ उनि ४२५ उनि ११८ उनि ९४ दनि ९५ आनि १३९ दशनि ३२७ दशनि ८० आनि २८९ दशनि ३०७।१ आनि ३ आनि २९ उनि ३७७ दशनि ४९ उनि २८३ उनि २३ आनि २९९ दशनि १११ सूनि १३ आनि २४६ दशनि २०० उनि ३३१ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक चित्ते संभूताउं चित्ते संभूयम्मि य चिरसंसट्ठ चिरपरिचियं चोद्दसवासाइं तदा चोद्दस सोलस वासा चोल्लग पासग धन्ने छउमत्थमरण-केवलि छक्कं पर एक्केक्क छक्काया समितीओ छज्जीवणिकाए खलु छज्जीवणिया पढमे छट्टट्ठमपुब्वेसु छट्टम्मि उ एगत्तं छठे पडिघाओ संजमाओ छप्पिय जीवनिकाये छम्मासे छउमत्थो छहि मासेहि अधीतं उनि ३२४ जदा रज्जं च रहें च उनि ३२२ जदि अत्थि पदविहारो उनि २९६ जध गयकुलसंभूतो उनि १७२।१ जध दारुकम्मकारो उनि १७१ जध नाम आतुरस्सिह उनि १६१ जध नाम मंडलग्गेण जध वा विसगंडूसं उनि २०६ जमदग्गिजडा हरेणुया आनि ३४७ जमह दिया य रातो दशनि २८५ जम्म मतंगतीरे दशनि १९० जम्माभिसेग-निक्खमण आनि १५ जयघोसा अणगारा दनि १८ जयमाणस्स परो जं आनि २७४ जया सव्वं परिच्चज्ज आनि २६१ जलचर-थलचर-खहचारिएसु आनि २२७ जलमाल कद्दमालं उनि २५१ जस्स जओ आइच्चो जस्स पुण दुप्पणिहिताणि जस्स वि य दुप्पणिहिता जह एत्थ चेव इरिया" दनि ४४ जह एसो सहेसुं सूनि ४४ जह खलु झुसिरं कळं दशनि ९७।१ उनि ४८५ जह खलु मलिणं वत्थं जह जिणसासणनिरया दशनि १२२ जह तुब्भे तह अम्हे सूनि १३३ जह दीवा दीवसयं उनि ८२ दशनि ६७ जह दुमगणा उ तह नगर दशनि ९० जह देवस्स सरीरं दशनि ३१९ जह देहपरीणामो दशनि २६४ जह धातू कणगादी दशनि २४९ जह नाम गोतमा रंड... उनि ३५० जह नाम सिरिघराओ दनि १३२ जहन्नं सुत्तरं खलु आनि ४ जह भमरो त्ति य एत्थं आनि ५१ जह मन्ने एतमलैं उनि १३४ जह मम न पियं दुक्खं उनि २७० जह वक्कं तह भासा उनि २६९ दनि ७१ दनि ३० दशनि ३११ दशनि ३४१ सूनि ५१ सूनि ५२ उनि १४६ उनि १२७ उनि ३१७ आनि ३५३ उनि ४५९ आनि ३४८ उनि २७१ सूनि १४८ सूनि १६२ आनि ४७ दशनि २७४ दशनि २७६ दशनि १२० दशनि २७३ आनि २३५ आनि ३०२ दशनि ८९।१ उनि ३०१ दशनि २८, उनि ८ दशनि ११७ आनि १६७ आनि ११९ उनि ३४ सूनि ९० सूनि ५३ उनि २ दशनि ९२ उनि २९७ दशनि १२९ आनि ३३६ जइ ता गिहिणो वि य उज्जमंति जइ ताव निज्जरमदो जइ पगई कीस पुणो जं किर दव्वं खुज्ज जं च तवे उज्जुत्ता जं पढमस्संतिमए जं पप्प नेगमणओ जं भणसि नत्थि भावा जं भत्त-पाण-उवगरण जंभिक्खमेत्तवित्ती जं वक्कं वदमाणस्स जणवय-सम्मय-ठवणा जतुघरपासायम्मिय जत्तो चुओ भवाओ जत्थ य ज जाणेज्जा जत्थ य जो पण्णवओ जत्थ राया सयं चोरो जदा ते पेतिए रज्जे Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४४५ जह वऽस्साओ हत्थि जह वा तिलसक्कुलिया जह सगलसरिसवाणं जह सव्वपायवाणं जह सुत्तं तह अत्थो जह सुत्त-मत्त-मुच्छिय जह हथिस्स सरीरं जहा लाभो तहा लोभो जाई खेत्ताई खलु जाई भणियाइं सुत्ते जाणग पुच्छा पुच्छति जाणगभवियसरीरा जाणगसरीरभविए दशनि ६० जा ससमयवज्जा खलु दशनि १७० आनि १३२ जिणवयणं सिद्धं चेव दशनि ४६ आनि १३१ जिणवयणपदुठे वि हु दशनि १२३।३ आनि १८७ जिणवयणम्मि परिणए दशनि २४०।१ सूनि १२४ जियसंजमो य लोगो आनि ३३ आनि २१३ जीवकरणं तु दुविहं उनि १९५ आनि ११० जीवस्स अत्तजणितेहिं आनि २८० जीवस्स उ निक्खेवो दशनि १९३ उनि २४९ जीवस्स उ परिमाणं दशनि २०९ सूनि १५३ जीवाऽजीवाभिगमे दशनि १८९ दनि २३ जीवाजीवाभिगमो दशनि २१७ उनि २३ जीवाणमजीवाण य उनि ५३१ उनि ५२६ जीवा भवद्वितीए सूनि १५४ उनि ६७,२३२,२३९, जीवो छक्कायपरूवणा आनि ३५ २४४,२५४,२७४, जीवो तु दम्वचित्तं दनि ३३ ३१२,३२३,३५४, जुत्ती सुवण्णगं पुण दशनि ३२९ ३६८,३८६,४००, जे अज्झयणे भणिता दशनि ३३० ४१८,४३८,४४६, जे किर गुरुपडिणीया उनि ४८८ ४५३,४५५,४५८, ' जे किर चउदसपुवी उनि ३१० ४७८,४८०,४८३, ४९२,४९४,४९६, जे किर भवसिद्धीया उनि ५५२ ५००,५०२,५०६, जे जिणवरा अतीता आनि २२६ ५१०,५१२,५१५, जेट्ठासाढेसु मासेसु उनि १३० ५३९,५४२,५४५, जेट्ठा सुदंसण जमालि उनि १७२१२ जेण जीवंति सत्ताणि उनि १३१ उनि ५२३ जेण भिक्खं बलि देमि उनि १२४ उनि ५३०,५४९ जेण य धरति भवगतो दशनि १९७ आनि ६४ जेण रोहति बीयाणि उनि १२६ उनि १५५ जेण व जं व पडुच्चा दशनि १२ दनि २१, १३७ जेण सुहप्पज्झयणं उनि २८।३ दनि १३१ जे तिव्वपरीणामा आनि २०४ उनि ३४७ जे बादरपज्जत्ता आनि ८६,१०९,१२०,१४५,१६८ उनि ५३४ जे बादरे विधाणा आनि ७९ उनि ११५ जे भावा अकरणिज्जा उनि ३८३ उनि १३२ जे भावा दसकालियसुत्ते दशनि ३०७ आनि ३१७ जे मंदरस्स पुत्वेण आनि ४९ दशनि १७१ जेसि पि अत्थि आया दशनि ७१ जाणगसरीरभवियं जाणगसरीरभविया जाणति सयं मतीए जाणावरणपहरणे जाणि भणिताणि सुत्ते जाती आजातीया जातीपगासण निवेयणं जा दव्वकम्मलेसा जायणपरीसहम्मी जाव वुत्थं सुहं वुत्थं जावोग्गहपडिमाओ जा ससमएण पुवि Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक जेसिं तु पमाएणं जे होंति अभवसिद्धा जो इंदके उं समलंकियं तु जोगुवओग-कसाए जोगे करणे सण्णा जो चूयरुक्खं तु मणाभिरामं जो चेव होति मोक्खो जो जइया तित्थगरो जो जीवो भविओ खलु जोणिन्भूते बीए जो तेसु धम्मसद्दो जो पुढवि समारभते जो पुव्वं उवदिट्ठो जो पुवि उद्दिट्ठो जो भिक्खू गुणरहितो जो संजतो पमत्तो जो सन्निवाइओ खलु जो सो अरिनेमी जो सो नमितित्थयरो उनि ५२० तं कसिणगुणोवेतं उनि ५५३ तंतिसमं वण्णसमं उनि २६२ तं न भवइ जेण दुमा उनि ४२० तं नेति पिता तीसे दशनि १५२ तं पासिऊण इडिढं उनि २६८ तं वयणं सोऊणं आनि ३६५ तं सोऊण कुमारो तगराए अरहमित्तो सूनि १४५ तडतडतडत्ति भज्जति दशनि २१५, आनि १३८ तहाछुहाकिलंतं दशनि ८९।३ ततिए आयारकहा आनि १०२ ततिए आहाकम्म दशनि २६९ ततिए एसो अपरिग्गहो दशनि २२२ ततिए खलंकभावो दशनि ३३१ ततिए जयंतछलणा दशनि १८४ ततियम्मि अंगचेट्टा उनि ५२,५४ ततियम्मि अदायणया उनि ४४२ तत्तं जीवाजीवा उनि २६५ तत्तो दोन्नि दुगुंछ तत्तो य चुया संता तत्थ अकारि करिस्सं दनि ५५ तत्थ असंपत्तऽत्थो दशनि ६३ तत्थऽज्झयणं पढमं सूनि १७ तत्थ भवे आसंका दनि ८८ तत्थहिगारो तु सुहं आनि २०९ तत्थाहरणं दुविहं दनि ५,६ तम्हा उ सुरनराणं तम्हा कम्माणीयं दशनि ४८ तम्हा खलुकभावं उनि १४४ तम्हा खलुप्पमायं उनि १४२,१४३ तम्हा जिणपण्णत्ते दशनि १२५,३४९।१ तम्हा जे अज्झयणे उनि ६६ तम्हा तु अप्पसत्थं उनि ४११ तम्हा दयाइगुणसुट्ठिएहि आनि १११ तम्हा धम्मे रतिकारगाणि तम्हा न हु वीसंभो सुनि ४६५ तव-संजम गुणधारी दशनि ३२८ दशनि १४९ दशनि ९६०२ सूनि १९७ उनि २९२ उनि ३६३ उनि ३३९ उनि ९३ सूनि ७९ उनि ३२६ दशनि २० सूनि ३१ आनि २३७ आनि २५५ आनि ३२७ आनि २७२ आनि ३३५ आनि ३५७ उनि ३२७ उनि ३५८ आनि ६७ दशनि २३७ उनि २८ दशनि १२३।१० दनि ४३ दशनि ४७११ दशनि १२३३११ आनि २२२ उनि ४९० उनि ५२१ उनि ५५४ दशनि ३३३ दशनि २८४ दशनि १२०१२ दशनि ३४४ सूनि ५८ दशनि १८३ ठवणाए निक्खेवो ठवणाकम्म एक्कं ठिति-अणुभावे बंधण डगलच्छारे लेवे डझति तिव्वकसाओ डहरीओ तु इमाओ णातं आहरणं ति य णामंगं ठवणंगं णामं ठवणा दविए णायम्मि गिव्हियव्वे णासो परीसहाणं णिद्धस्स णिद्धेण दुहाहिएण ण्हाणे पियणे तह धोवणे त तं अन्नमन्नघायं Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ तव - संजम - नाणेसु तव -संजमप्पहाणा तव्वत्थु गम्मि पुरिसो तसकाए दाराई तसकाए समारंभण तस्स य वेसमणस्सा तस्से-पवत्तण तह पवयणभत्तिगओ तहविय कोई अत्थो तिणि दुवे एगा वा तिण्णे ताई दविए तिण्णे तायी दविए तिन्हं अणगाराणं तिण्हं पि नेगमणओ तित्थकर - सिद्ध-कुल गण तित्थकरे य जिणवरे तित्थगर केवलीणं तित्थगर-गुरु- साहूसु तित्थगराण भगवओ तित्थगरो चउनाणी तिविधा य दव्वसुद्धी तिविहं तु भावसम्म तिविहा तिविहा जोणी तिविहाय दव्वसेज्जा तुज्झ पिता मह पिउणो तुममेव य अंब हे ! लवे ते उ पतिणविभत्ती तेस्स वि दाराइं तएण कम्मएणं तेत्तीस मे कम्मं तेरसपदेसियं खलु तेरसमे य नियाणं तेरिच्छिगा मणुस्सा तेसि उत्तरकरणं तेसि च रक्खणट्ठाय सिंदोह वित्तो सिं पुत्ता चउरो सूनि ४३ सूनि १९४ दशनि ८१ आनि १५२ आनि २६० उनि २८७ आनि ६ दनि ३१ सूनि १९० दनि ७८ दर्शन १३५ दशनि ३२० उनि १०२ उनि ७१ दर्शन ३०२ सूनि १ उनि ३०९ दनि १३५ आनि ३५२ आनि २९७ दशनि २६० आनि २१९ आनि १५५ आनि ३२२ दशनि ८२ उनि १३६ दशनि १२३ आनि ११६ सूनि १७८ उनि २६ आनि ४१ उनि २१ सूनि १४७ उनि १८३ सिमताणुमणं तेसु वि य धम्मसद्दो तेहि य पव्वइयव्वं तो ते सावग तम्हा तो समणो जइ सुमणो निखेव उहा रेणुट्टा थोवं पि पमायकयं दंसण नाण- चरित्तं दंसण-नाण-चरिताणि दंसण-नाण-चरित्ते दंसणमोहे दंसणपरीसहो दंसण-वय- सामाइय दंसमसगस्समाणा दक्खत्तणगं पुरिसस्स दक्खिणं पत्तो घट्ट तिणि सत्त व दट्ठ संबुद्धो रक्खिओ दट्ठूण चेडिमरणं दट्ठूण तहिं समणे दढसम्मत्तचरिते दया य संजमे लज्जा दवियं कारणगहियं दव्वइरियाओ तिविहा दव्वं गंधंग-तिलाइएसु दव्वं च अत्थिकायो दव्वं च परसुमादी दव्वं जाणण पच्चक्खाणे दव्वं जेण व दव्वेण दव्वं तू पोंडगादी दव्वं दव्वसभावो दव्वं निद्दावेदो दव्वं माम्माणं दव्वं संठाणादी आनि ३१६ उनि ४०४ उनि ४४१ थ ४४७ सूनि १२० दशनि ८९/२ उनि ३६२ दनि ३९ दशनि १३१ सूनि ८४ आनि ३०७ दशनि १७५ दनि २२ दर्शन २०१ दशनि १५६, २६३, २९१; आनि १५६,३५१ उनि ७८ दनि ४४।१ उनि ४८७ दशनि १६४ उनि २४८ दनि ७९ सूनि १९५ उनि ९६ उनि ३६५ दनि ५१ उनि १५९ दशनि ५४ आनि ३२९ आनि ३४९ दशनि ३७ सूनि ३९ आनि ३७ दर्शन ३०४, दनि ९,३३।२ सूनि ३ दनि १३० सूनि ४२ दनि १७ आनि ३४६ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ नियुक्तिपंचक दव्वं सत्थ ग्गिविसं दव्वं सरीरभविओ दव्वकरणं तु दुविहं दव्वगुणो दव्वं चिय दव्वट्ठवणाहारे दव्व-तदट्ठोवासग दव्वप्पओग-वीससप्पओग दव्वमरणं कुसुंभादिएसु दव्वम्मि सचित्तादी दव्वरती खलु दुविहा दव्वविमोक्खो निगलादिएस दव्वसुय पोंडगादी दव्वाण सव्वभावा दव्वादिएहि निच्चो दश्वाभिलाव चिधे दव्वावाए दोन्नि उ दव्वुग्गहो उ तिविहो दव्वुवहाणं सयणे दव्वे अद्ध अहाउय दव्वे किरिएजणया दवे खेत्ते काले दशनि २१३, आनि ३६ दसआउविवागदसा आनि २८,७०, दनि २५ दसकालियं ति नामं उनि १७८ दसकालियस्स एसो आनि १८० दसपुर नगरुच्छुघरे दनि ८० दससु य छक्के दब्वे दनि ३५ दसाणं पिंडत्थो दनि १३८ दहणे पयावणे पगासणे उनि २०२ दाणे ति दत्त गिण्हण दनि ४१ दासो दासीवतिओ दशनि ३३७ दाहिणपासम्मि उ दाहिणा दाहिणपासम्मि य दाहिणा आनि २७७ दिळंतसुद्धि एसा उनि ३०५ दिसॆतो अरहंता दशनि २९२ दिन्ने कोडिन्ने या दशनि ५५ दुग्गतिफलवादीणं सूनि ५५ दुपएसादि दुरुत्तर दशनि ५१ दुपय-चतुप्पय-धण-धन्न आनि ३४० दुप्पणिधियजोगी पुण आनि ३०१ दुमआउणामगोत्तं दशनि १० दुमपत्तेणोवम्म सूनि १६७ दुमपुष्फियनिज्जुत्ती दशनि ३३४, आनि १७९, दुमपुप्फियादओ खलु १९२, १९२।१, दुमपुप्फिया य आहार" २६५-६७,३२१,३३९ दुमा य पादवा रुक्खा दनि १२ दुविधा य होंति जीवा दशनि २४७ दुविधो य होइ गंथो दशनि २७० दुविहं पओगकरणं सूनि ५ दुविह तवोमग्गगती दनि २९ दुविहम्मि वि तिगभेदो दशनि ४१ दुविह वण स्सतिजीवा दशनि ३३५, आनि ३८, दुविहा उ आउजीवा सूनि १७१, दनि १२२ दुविहा उ भावलेस्सा दशनि २१८।२ दुविहा उ वाउजीवा दशनि ३४६ दुविहा खलु तसजीवा आनि २०१ दुविहा बादरपुढवी आनि ३०५ दुविहा य तेउजीवा दनि ४ दशनि ७ दशनि २४ उनि १७२।१० उनि ३७४ दनि ७ आनि १२१ दशनि ११३ दनि ९८ आनि ५२ आनि ४८ दशनि १०६ दशनि ८७ उनि २८९ सुनि १११ आनि ४४ दशनि ३१४ दशनि २८२ उनि २७५ उनि २७६ दशनि १२४ दशनि १८ दशनि ३४ दशनि ३२ दशनि १९८ उनि २३४ उनि १८२ उनि ५०० सूनि ११० आनि १२७ आनि १०७ उनि ५३५ आनि १६५ आनि १५३ आनि ७२ आनि ११७ दव्वे चित्तलगोणादि दव्वे तिविधा गहणे दब्वे निधाणमादी दव्वे पओगवीसस दव्वे भावे य सरीरसंपया दव्वे भावे वि य मंगलाणि दव्वे सच्चित्तादी दम्वेसणा उ तिविहा दव्वे सरीरभविओ दव्वे सीतलदव्वं दव्वोगाहण आदेस Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ४४९ सूनि २७ सूनि ६८ दशनि १०७ दनि ८६ दुविहा य पुढविजीवा दुविहा य भावसेज्जा - दुविहो परमाणणं दुविहो भावविमोक्खो दुविहो य भावबंधो दुविहो य होइ दीवो दुविहो य होति मोहो दुविहो लोगुत्तरिओ देवकुरुसुसमसुसमा देवीणं मणुईणं देवीय नागदत्ता देसविमोक्खो पगयं दो अज्झयणा च लिय दो चेव सुतक्खंधा दोन्नि व तिन्नि व चत्तारि दोन्नि वि नमी विदेहा दो रयणीओ महिंद"" दो वि य जमला भाउग आनि ७१ धम्मो समाहि मग्गो आनि ३२४ धाडेति पधाडेंति य उनि ३६ धारेइ तं तु दव्वं आनि २७८ धुवलोओ उ जिणाणं दनि १४० उनि १९८ न करेति दुक्खमोक्खं आनि १८९ नत्थि य सि अंगुवंगा दशनि ४० नत्थि य सि कोइ वेसो आनि १८२ नदि-खेड जणव उल्लुग आनि २७० न दुक्करं वा नरपासमोयणं उनि ३३२ नमिआउणामगोत्तं आनि २९४ नमिपव्वज्ज दुमपत्तयं च दशनि २३ न य उग्गमाइसुदं सूनि २२ नवकोडीपरिसुद्धं उनि २२१ नव चेवऽट्रारसगं नव चेव तहा चउरो उनि १४९ नवबंभचेरमइओ उनि ४६१ नवमासा कुच्छिघालिए नववाससए वासाहिए न वि अत्थि न वि य होही उनि ३३३ न विणा आगासेणं दशनि २२९ न हु अफलथोवनिच्छित दशनि २२७ नाऊण निच्छयमती दशनि १६६ नाणं भविस्सई एव"" दशनि ३८ नाणं सिक्खति नाणी सूनि ६० नाणस्स दंसणस्स य आनि २०५ नाणावरणे वेदे दशनि २४१ नाणाविहसंठाणा उनि ४२ नाणाविहोवकरणं उनि १८० नाणेण दंसणेण य दशनि १७९,२४० नातं गणितं गुणितं दशनि २२६ नातिविकिट्टो उ तवो दशनि ८६ नामअलं ठवणअलं सूनि ९९ नामं ठवणज्झयणे दशनि २२३ नाम ठवणपमादे दशनि १२३११ नाम ठवणपरिणा धणदेवे वसुमित्ते धन्नाणि चउव्वीसं धन्नाणि रतण-थावर धम्मकहा बोधव्वा धम्मत्थिकायधम्मो धम्मम्मि जो दढमती धम्मम्मि जो पमायति धम्मस्स फलं मोक्खो धम्मादिपदेसाणं धम्माधम्मागासं धम्मो अत्थो कामो धम्मो एसुवदिट्ठो धम्मो गुणा अहिंसादिया ' धम्मो पुन्बुद्दिट्टो धम्मो बावीसतिविहो धम्मो मंगलमुक्किट्ठ सूनि १२६, दनि २० __ आनि ९८ दशनि १३० उनि १७२।६ सूनि २०१ उनि २५५ उनि १४ दशनि १२०१४ दशनि १०५ दशनि २२१ उनि ४० आनि ११ उनि १३७ उनि ४४४ उनि ३०२ उनि १८८, सूनि ९ सूनि ३५ उनि ४११ आनि ३५९ दशनि २९३ दशनि २९ उनि ७४ आनि १३३ दशनि २३५ उनि ४१३ दनि २६ आनि २९० सूनि २०२ उनि ५ उनि १७३ सूनि १७९ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० नामं ठवणविमोक्खो नामं ठवणसकारो नामं ठवणसरीरे नामं ठवणाइरिया नामं ठवणाकम्मं नामं ठवणाकामा नामं ठवणागाधा नाम ठवणाचित्तं नाम ठवणाजाई नामं ठवणाजीवो नामं ठवणा दविए नामं ठवणाधम्मो नामं ठवणापिडो नाम वाढवी नामं ठवणाभिक्खू नामं ठवणामोहो नामं ठवणायारे नामं ठवणासम्मं नामं ठवणासीयं नामं ठवणासुद्धी नामं ठवणुवहाणं नामण - धोवण - वासण नामहं ठवणतहं नामदुमो ठवणदुमो नामद्द ठवण नामपदं ठवणपदं आनि २७६ दशनि ३०५ दर्शन २११ आनि ३२५ आनि १९३ दशनि १३७ सूनि १३७ दनि ३२ दनि १२९ दशनि १९५ दर्शन ८,९,१३६ १५३,१९१, १९२ उनि १,१७७, २०१, २३०,३७३,३७९, ४१६,५१६ आनि ४०, १८५, १९१ सूनि ३२,५६,६४, १०४, १०७, १४२, १४३, १४४,१६८, १७०, १८० दनि १० १०० दशनि २१८ आनि ६९ दशनि ३६, सूनि दशनि ३०९ दनि १२१ सूनि १८२ आनि २१७ आनि २०० दशनि २५९ अनि ३०० दशनि १५५ सूनि १२२ दर्शन ३१ सूनि १८५ दशनि १४२ नामम्मि य खेत्तम्मि य नामादिचउब्भेयं नामादी ठेवणादी नालंदाय समीवे निउणो उ हवति कालो निक्कंपया य नवमे निक्खतो गयपुरातो निक्खम पवेसकालो fadng निरुत्त निक्खेवो अप्पमाऍ निक्खेवी उ अजीवे निक्खेवो उ उरब्भे निक्खेवो उगती निक्खेवो उ तवम्मी निक्खेव उदुमम्मी निक्खेवो उ नमिम्मी निक्खेवो उपमाए निक्खेव उविहीए निक्खेवो कविलम्मी निक्खेवो खलुंकम्मि निक्खेवो गाधाए निक्खेवो गोतमम्मि निक्खेवो चरणम्मी निक्खेवो जण्णम्मि य निक्खेवो जीवम्मि य निक्खेव तु चक्को निक्खेवो नियंठम्मि निक्खेवो पगडीए निक्खेवो पवयणम्मि निक्खेव भिक्खुम्मी निक्खेवो मग्गम्मि वि निक्खेवो मोक्खम्मि य निक्खेवो य मियाए निक्खेवो य सुयम्मी निक्खेवो विभत्तीए निक्खेवो संजइज्जम्मि निक्खेवो सामम्मि य निर्युक्तिपंचक उनि ५७ दशनि २५ २ सूनि १३४ सूनि २०५ आनि ५९ उनि २० उनि १०८ आनि १५९ दशनि ५ उनि ४९९ उनि ५४६ उनि २३८ उनि ४९५ उनि ५०५ उनि २७३ उनि २५३ उनि ५१४ उनि ५११ उनि २४३ उनि ४८२ सूनि २३ उनि ४४५ उनि ५०९ उनि ४५७ उनि ५४४ दशनि २४५ उनि २३१,४१७ उनि ५२५ उनि ४५२ उनि ३६७ उनि ४९३ उनि ४९१ उनि ३९९ उनि ५०१ उनि ५४८६ उनि ३८५ उनि ४७७ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ निगमणसुद्धी तित्थंतरा निगलादिउत्तरो वीससा निद्देसपसंसाए निप्फाइया य सीसा निरए छक्कं दव्वनिरया निरामयाऽऽमयभावा निवचित विकालपडिच्छणा निव्वाण सुहं सायं निस्संकिय-निक्कंखिय निस्संगया य छठे निस्सील-कुसीलजढो नेच्छति जलूगवेज्जग नेरइय-तिरिय-मणुया नोकम्मदव्वकम्म नोकम्मदव्वलेसा नोकम्मम्मि य तिविहो नोकम्मे दव्वाइं नोमाउगं पि दुविहं नो य विवक्खापुवो नोसण्णाकरणं पुण नोसुयकरणं दुविहं दशनि १२००३ पगति-ट्ठिति अणुभागो दनि १३९ पगती एस गिहीणं दशनि ३०६ पगती एस दुमाणं आनि २८८ पगती चउक्कगाणंतरे सुनि ६२ पगयं तु भावचरणे दशनि २०७ पच्चक्खाणं सेयं दनि १०७ पच्चयओ य बहुविहो आनि २०८ पच्छित्तं बहुपाणा दशनि १५७ पज्ज पि होति तिविहं आनि ३४ पज्जत्तीभावे खलु सूनि २६ पज्जोसमणाए अक्खराई दनि १०८ पडिचोदितो य कुविओ आनि १५४ पडिमागतस्समीवे उनि ५२४ पडिमापडिवनगाणं उनि ५३७ पडिरूवो खलु विणओ उनि ६८ पडिलोगे जह अभओ उनि ५२७ पडिलोमे सुद्दादी दशनि १४५ पडिसेहेणऽगारस्सा दशनि ६८ पढमं अधम्मजुत्तं उनि १७९ पढमझयणं दुमपुप्फियं उनि १९६ पढम-बितिया चरित्ते पढमम्मि अट्ठभंगा सूनि १६३ पढमम्मि य पडिलोमा उनि ३९ पढमे उवागमण निग्गमो सूनि ३३ पढमे गहणं बीए आनि २५९ पढमे धम्मपसंसा आनि ३०९ पढमे नियविधुणणा उनि ४६७ पढमे विणओ बितिए दशनि २२४ पढमे संथव-संलावाइहि आनि १४,३१४ पढमे संबोधि अणिच्चया उनि १७५ पढमे सम्मावाओ उनि १७२ पढमे सुत्ता अस्संजत उनि ११४ पणयालीसा बारस आनि १८६ पणिधाणजोगजुत्तो सूनि १०५ पण्णरससू अज्झयणेसु उनि ७९ पण्णवग दिसट्टारस सूनि ११५ पण्णवगदिसाए पुण उनि १९२।१ पण्णवण वेद रागे उनि ५२८ दशनि १०३ दशनि ९८ आनि २१ उनि ५१३ उनि १७२।१२ उनि ६१ दनि ११४ दशनि १४८ सूनि २०३ दनि ५३ आनि २८७ सूनि १९८ दनि ६२ दशनि २९७,३०० दशनि ७८ आनि २४ सूनि २०४ दशनि ७७ दशनि २५ दशनि २५८ उनि ७२ सूनि ४५ आनि ३३४ आनि ३३८ दशनि १९ आनि २५० उनि १८ सूनि ५४ सूनि ३६ आनि २१५ आनि १९८ उनि ४१ दशनि १५९ सूनि १४० आनि ६१ आनि ६२ उनि ४१९ पउमं उल्लंघेउं पंचग बारसगं खलु पंचण्हं संजागे पंचमए अट्ठपदेणं पंचमगस्स चउत्थे पंचमहव्वयजुत्तो पंच य अणुव्वयाई पंच य महव्वयाई पंचविहो य पमादो पंचसया चुलसीया पंचसया जंतेणं पंचसु कामगुणेसु य पंचसु वि य विसएसुं पंचेव आणुपुव्वी पंथो णायो मग्गो पक्ख तिधयो दुगुणिता Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ नियुक्तिपंचक पण्णाऽण्णाणपरीसह पतिखुड्डएण पगतं पत्तेगा साधारण पत्तया पज्जत्ता पत्थेण व कुडवेण व परमाणुपुग्गला खलु परलोगु मुत्तिमग्गो परवइ वागरणं पुण परिजित कालामंतण परितंतो वायणाए परिभासिता कुसीला परिमंडले य वट्टे परियट्टियलावणं परिवसणा पज्जुसणा पल्हत्थिया अपत्था पवदंति य अणगारा पव्वइए अणगारे पव्वज्ज गागिलिस्स य पव्वज्जानिक्खेवो पसत्थविगतिग्गहणं पाएण एरिसो सिज्झइ पाणवह-मुसावाए पाधन्ने महसद्दो पायच्छित्तं विणओ पायच्छेयण-भेयण पायसहरणं छेत्ता पावइ धुवमायाति पावसमणिज्जं तह संजइज्ज पावाणं कम्मागं पावाण वज्जणा खलु पावे छक्कं दवे पावे वज्जे वेरे पावोवरते अपरिग्गहे पासत्थि पंडरज्जा पासत्थोसण्ण कुसील" पासावच्चिज्जो पूच्छिताइओ पाहण्णेण उ पगयं उनि ७५ पाहण्णे महसद्दे दशनि १५४ पिंडेसणाए जा आनि १२८ पिंडेसणा य सव्वा आनि १३४ पिंडो य एसणा या आनि ८७,१४४,२१० पिडि संघाए जम्हा उनि ३७ पिसूणा परोवतावी दशनि २४२ पीती य दोण्ह दूओ आनि ६६ पुच्छाए कोणिओ खलु दनि ५२ पुच्छिसु जंबुणामो उनि १२१ पुढो जहा अबद्धो सूनि ८८ पुढवि समारभंता उनि ३८ पुढवि-दग-अगणि-मारुय उनि ३०० पूढविफासं अण्णाणु.... दनि ५४ पुढवी आउक्काए पुढवीए जे दारा आनि ९९ पूढवीए निक्खेवो दशनि १३४,३२१ पुढवी य सक्करा बालुगा उनि २७८ पुप्फाणि य कुसुमाणि य उनि २५६ पुप्फुत्तरातो चवणं दनि ८३,८२११ पुरिमंतरंजि भुयगुह दनि १३६ पुरिमचरिमाण कप्पो आनि ३५० पुव्वं बुद्धीइ पेहित्ता सूनि ८३ पुन्वभवे संखस्स उ दशनि ४५ पुव्वभवे संघडिया आनि ९७ पुव्वाधीतं नासति दनि १०० पुव्वा य पुव्वदक्खिण दनि १४२ पुवाहारोसवणं उनि १५ पोराण य गयदप्पो दशनि १७४ उनि २२ उनि ३८० फलगलतंदोलण-वेत्त दनि १२४ फलोदएणं म्हि गिह पविट्ठो आनि २४९ फरिसेण जहा वाऊ दनि ११० सूनि १०२ बंभगुणा पणवीसे सूनि २०६ बंभम्मी उ चउक्कं आनि २६९ बद्धो य बंधहेऊ आनि २६४ आनि ३१८ दशनि २१९ दशनि २१७।१ दशनि २१८।१ उनि ४८९ सूनि १९४ दशनि ७४ सूनि ८५ उनि १७२।११ आनि १०३ दशनि ४३ सूनि ६५ आनि १२३ आनि १२६ आनि ६८ आनि ७३ दशनि ३३ उनि २६६३१ उनि १७२१७ दनि ११५ दशनि २६८ उनि ३१४ उनि ३५६ दनि ११९ आनि ५६ दनि ८१ उनि २६१ सूनि १०८ आनि २३० दशनि २०४ उनि २४ । आनि १८, उनि ३७५ आनि ३५८ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५३ परिशिष्ट २ बलकोट्टे बलकोट्टो बवं च बालवं चेव बहुयाणं सद्दयं सोच्चा बहुरय जमालिपभवा बहुरय-पदेस-अव्वत्त बहु सुए पूजाए य बहुस्सुतं चित्तकह बायरपुढविक्काइय बारसवासे अहिए बारसविहम्मि वि तवे बाला मंदा किड्डा बाले राई दाली बाले सुत्ते सूई बावत्तरिकलाओ य बावीसं बादरसंपराए बाहिं ठिता वसभेहिं बितिउद्देसे अदढो बितिए नियतीवाओ बितिए मग्गविजहणा बितिओ वि नमीराया बितिओ वि य आदेसो बितियंतरिए नियमा बितिययस्स विवक्खो बितियपइण्णा जिणसासणम्मि बितियस्स य पंचमए बुद्धाई उवयारे बोडियसिवभूतीए बोहण पडिमोद्दायण उनि ३१८ भवणवति-वाणमंतर उनि १९०, सूनि ११ भवति तु असच्चमोसा उनि २६७ भवसिद्धिया उ जीवा उनि १६८ भावइरियाओ दुविहा भावंगं पि य दुविध उनि १६७ भावकरणं तु दुविहं उनि ३०३ भावगई कम्मगई उनि १२५ भावतहं पुण नियमा आनि ९१ भावपदं पि य दुविहं उनि ५१९ भावपरिण्णा दुविहा दशनि १६० भावप्पमायपगयं दशनि ९।१, दनि ३ भावबहुगेण बहुगा दनि १४ भावम्मि विभत्ती खलु दनि १२० भावसमाधि चतुविध उनि ४३० भावसमाधी चित्ते उनि ८० भावसमोसरणं पुण दनि ६५ भावसुयं पुण दुविहं भावस्सुवगारित्ता आनि १९७ भावा आगरिसे कालंतरे सूनि ३० भावे उ निरयजीवा आनि २५४ भावे उ वत्थिनिग्गहो उनि २६६ भावे उ सम्मदिट्ठी दशनि १७, उनि ५५ भाले कमायो आनि २५ भावे गति आहारे दशनि १२३।४ भावे जीवस्स सवीरियस्स दशनि ८९ भावे पयोगवीसस आनि ३०८ भावे पसत्थमियरो दशनि १२३८ भावे पावं इणमो उनि १७२।१५ भावे फलसाहणता दनि ९६ भावेसणा उ दुविहा भासणे संपातिवहो सनि ७३ भिदंतो य जह खधं उनि १०५ भिक्खं पविठ्ठण मएऽज्ज दिळं उनि २१९,२८१ भिक्खविसोधी तव संजमस्स उनि ३१९ भिक्खुस्स य निक्खेवो उनि ४२१ भिक्खुणं उवधाणे सूनि १५० दशनि २५७ उनि ३०६ आनि ३३० उनि १५६ उनि १९३ दशनि १०९ सूनि १२३ दशनि १४४ आनि २६८ उनि ५१७ उनि ३०४ उनि ५५१ सूनि १०६ दनि ३४ सूनि ११७ उनि ५०३ दशनि २१८४ उनि ४२१ सूनि ६३ उनि ३७६ दनि ३७ दनि १४१ आनि ३० सूनि ९४ सूनि १४ उनि ९ उनि ३८१ आनि २४१ दशनि २१८१३ दनि ९१ दशनि ३१८ आनि २२९ दशनि २१ दशनि ३०८ दनि ४५ भंजति अंगमंगाणि भगवं पि थूलभद्दो भत्तपरिण्णा इंगिणि भद्दगेणेव होयव्वं भव-आगरिसे कालंतरे Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૫૪ भिक्खूणं उवहाणे भिक्खेण न मे कज्जं भीते पलायमाणे भूमि - घर - तरुगणा य भेत्ताऽऽगमोवउत्तो भेत्ता य भेयणं वा भेदतो भेदणं चेव मइउग्गहे य गहणुग्गहे मंसस्स केइ अट्ठा मंसादी परिभोगो मगहापुरनगराओ मग्गगई दोह वि मग्गगती दोह वि मज्जं विसय- कसाया मणगं पडुच्च सेज्जं भवेण मणपज्जवो हिनाणी म मण वयण - काय आणा... मण-वयण- कायगुत्तो मणुया तिरिया काया मधुरं हेतुनिजुत्त मरणं च होइ दसमो मरणम्मि एगमेगे मरणविभत्तिपरूवण मरणविभत्ती पुण पंचमम्मि मरणे अनंतभागो मह पंचभूत एकप्पए महुराए इत महुराए कालवेसिय महुराए संखो खलु महरा मंगू आगम माणुस्सं धम्मसुती माणुस खेत्त जाती मातम्मि उ निक्खेवो माया- गारवसहितो माया मे त्ति पिया मे दनि ४९ उनि ४७५ सूनि ८२ दर्शन २३३ दशनि ३१७ उनि ३६९ दशनि ३१० आनि ३४१ आनि १६१ आनि १६० उनि २७७ उनि ५४३ उनि ५०७ उनि १७४ दशनि १४ उनि २१७ सूनि ९५ दनि ९२ आनि ६० दशनि १४७ दशनि २३८ उनि २०४ उनि २०३ उनि १९ उनि २२५ सूनि २९ उनि ११९ उनि ११६ उनि ३१५ दनि ११२ उनि १५७ उनि १६० माया य रुट्सोमा मालाविहारम्मि मएऽज्ज दिट्ठा मिगआउनामगोयं मिगदेव पुत्ताओ मिच्छत्तं वेदंतो मिच्छद्दिट्ठी जीवा मिच्छादिट्ठी जीवो मिच्छादिट्ठी तसथावराण मिच्छापडिवत्तीए मिच्छा भवेउ सव्वत्था मिहिलाए लच्छिघरे मिहिलापतिस्स नमिणो मीरासु सुंठएस य मुणिणा छक्कायदया वरेण मुणिसुव्वतवासी मूलकरणं पुण सुते मूलकरणं सरीराणि मूलगुण-उत्तरगुणे मूलगुणेसु य पयं मूले कंदे बंधे मूले छक्क दव्वे मोक्खमग्गपवन्नेसु मोक्खो मग्गो य गती मोत्तुं अम्मभूम मोतुं पुराणभावित तूण ओहिमरणं मोरी नउलि बिराली रज्जाणि उ अवहाया रयणाणि चतुव्वीसं रयणुप्पया य विजओ रहकारपरसुमादी रहने मिनामगोय उनि ४५४ रहने मिस्स भगवतो दशनि २७९ आनि १९६ रहनेमी निक्खेवो रहवीरपुरं नयरं र निर्युक्तिपंचक उनि ९७ आनि २३१ उनि ४०१ उनि ४०२ दशनि १८२ उनि ३०७ उनि १६५ दशनि ३१३ दनि १९ दशनि २०२ उनि १७२५ उनि २६३ सूनि ७४ आनि ३४५ उनि ११३ सूनि १६ सूनि ६ दनि १३४ सूनि १८१ उनि ३२ आनि १८३ उनि २७२ उनि ४९७ उनि २१४ दनि ८७ उनि २१५ उनि १७२१९ उनि ४७३ दशनि २३१ उनि ३४६ उनि ३७० उनि ४३९ उनि ४४३ उनि ४३७ उनि १७२।१३ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ राईसरिसवमेत्ताणि रागद्दोसा दंडा रागाई मिच्छाई रायगिह-मिहिल-हत्थिणपुरं रायगिहम्मि वयंसा रायगिहागम चोरा रायगिहे गुणसिलए रायगिहे मालारो राया उसुयारो या राया य तत्थ बंभो राया य बंभदत्तो राया सप्पे कुंथू रुक्खा गुच्छा गुम्मा रुक्खाणं गुच्छाणं रूवं वयो य वेसो लंघण-पवण-समत्थो लक्खणमेयं चेव उ लज्जाए गारवेण य लेसा-कसाय-वेदण लेसाणं निक्खेवो लोइगा वेइगा चेव लोइय-लोउत्तरिओ लोगम्मि कुसमएसु य लोगसत्थाणि" लोगस्स धम्मसारो लोगस्स य को सारो लोगस्स य निक्खेवो लोगस्स य विजयस्स य लोगागासपएसे लोगे चउन्विहम्मी लोगे संथारम्मि य लोगो ति य विजयोत्ति य लोगो भणितो दव्वं लोगोवयारविणयो उनि १४० उनि ३७१ वइजोगेण पभासित दशनि २२१११ वदामि भद्दबाहुं उनि ३४५ वंदित्त सव्वसिद्धे उनि ९२ वक्कं तु पुव्वभणियं सूनि १९९ वक्कं वयणं च गिरा उनि १७२।३ वग्घस्स मए भीतेण उनि १११ वग्धो वा सप्पो वा उनि ३५९ वडपुरग-बंभथलयं उनि ३२८ वणहत्थी य कुमारं उनि ३३० वणिधूयाऽचकारिय दनि ७३ वणे रामे पुरे भिक्खा आनि १२९ वण्णम्मि य एक्केक्के आनि ८० वण्ण-रस-रूव-फासे दशनि १६५ वण्ण-रस-रूव-फासेसु वण्णादिगा य वण्णादिगेसु वयछक्कं कायछक्कं उनि १२९ आनि १५८ वयणविभत्तिअकुसलो उनि २११ वयणविभत्तिकुसलस्स उनि ५३ बयणविभत्तीकुसलो उनि ५२९ वयणविभत्ती पुण सत्तमम्मि दशनि २०३ ववहरमाणस्स तहिं सूनि १०१ वस-पूय-रुहिर-केसऽट्ठि आनि २४२ वसभे य इंदकेऊ दशनि २०२।१ वाउस्स वि दाराई आनि २४५ वाओदएण राई आनि २४४ वाघातिममादेसो आनि १७६ वाणारसिनगरीए आनि १७४ वादे पराजियाए आनि ८८ वारेयन्तु उवाएण आनि २४८ वासइ तो कि विग्धं उनि ८६ वासं कोडीसहियं आनि १७५ वासं वन उवरमती आनि १७७ वासग्गसो य तिण्हं दशनि २८७ वासति न तणस्स कते वाससहस्सं उगं सूनि १९ दनि १ आनि १ दशनि ३४० दशनि २४६ उनि १२८ उनि १०४ उनि ३४० उनि ३४१ दनि १०६ उनि ८९ आनि ७८ उनि १९४, आनि ७७ दशनि २६१ सूनि १५ दशनि २४४ दशनि २६६ दशनि २६५ दशनि २६७ दशनि २२ उनि ४२७ सूनि ८० उनि २५८ आनि १६४ दनि १०१ आनि २८५ उनि ४६० सूनि २०० दशनि ६६ दशनि ९५३ आनि २९१ दनि ७४ उनि ८४ दशनि ९५ उनि ५१८ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक वासाखेत्तालभे विगति विगतीभीतो विच्छय सप्पे मूसग विजितो कसायलोगो विज्जा चरणं च तवो विज्जा व देवकम्म विज्जा-सिप्पमुवाओ विज्जो ओसह निवयाहिवइ विणयसुयं च परीसह विणयस्स समाधीए विणयो पूवद्दिट्रो विधुवण वेहाणस हत्थकम्म वियण धमणाभिधारण वियणे य तालविंटे विरिए छक्कं दवे विसघाती रसायणमंगलत्त विस-तिणिस-वात-वंजुल विसयसुहेसु पसत्तं विहगगई चलणगई विहमागासं भण्णइ वीयभय देवदत्ता वीरिय विउव्वणिड्ढी वीसं उक्कोसपदे वीसंत नवरि जेम्म वीसज्जिऊण आसं वुडिढं च हाणि च ससीव दट्ठ वेणइया पढमया वेयालियं इह देसितं ति वेयालियम्मि वेयालगो वेरग्गमप्पमाओ दनि ६१ संघातणा य परिसाडणा दनि ८२ संघायण-परिसाडण उनि १७२।८ संजमखेत्तच याणं आनि १७८ संजमजोगविसण्णा दशनि १६८ संजमनाम गोत्तं सूनि १६४ संजाणंतो भणती दशनि १६३ दनि ६४।१ संजुत्तगसंजोगो उनि १३ संजोगे निक्खेवो दशनि २८६ संजोगे सोलसगं उनि २९ संते आउयकम्मे आनि २५६ संदीणमसंदीणो आनि १६९ संबंधणसंजोगे आनि १७० संबंधणसंजोगो सूनि ९१ संबुद्धो सो भगवं दशनि ३२६ संवेगजणितहासो दशनि १३३ संवेगसमावन्नो दशनि १४० संवेगो निव्वेओ दशनि ११० संसारं छत्तुमणो दशनि १०८ संसारपारगमणे उनि ९५ संसारस्स उ मूलं दशनि १७३ सगडुद्धिसंठियाओ उनि ८३ सच्चप्पवायपुव्वा दनि ११ सज्झाय-संजम-तवे उनि ३९२ सण्णातिगमणवियडे उनि २६२।१ सण्णासिद्धि पप्पा दशनि १७७ सत्तरसविहाणाई सूनि ४० सत्तहिं छहिं चउचउहि सूनि ३८ सत्तमे य तिनि पलया आनि ३६१ सत्तेक्कगाणि एकसरगाणि सत्तेक्कगाणि सत्त वि उनि १९१, सूनि १२ सत्थं तु असियगादी आनि १८१ सत्थपरिण्णा अत्थो उनि २२४ सत्थपरिण्णा लोगविजओ • दशनि २३२ सत्थाहसुओ दक्खत्तणेण . उनि ३४९ सद्द-रस-रूव-गंधा सूनि ७,१८६ उनि १८४ दनि ११७ उनि २१० उनि ३८७ उनि ४७४ उनि ३१ उनि ३० आनि २० दशनि १९६ उनि १९९ उनि ६४ उनि ४६,६२,६३ उनि ४३५ उनि ४१४ सूनि १९३ दशनि ३२३ आनि १९५ उनि ४५१ आनि १९० आनि ४६ दशनि १६ दशनि ३४३ उनि ११० दशनि ११२ उनि २०७ आनि ३६७ आनि २६२ आनि ३४३ आनि ३१० सूनि ९८ आनि १३ आनि ३१ दशनि १६३।१ दशनि १३८,३३८ सउणि चतुप्पय नागं संकुचितविगसितत्तं संखमसंखमणता संखो तिणिसाऽगुरु-चंदणाणि संगामे अत्थि भेदो Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ सद्देसु य रूवेसु य सपरक्कममादेसो -सपरक्कमे य अपरक्कमे सप्पो वि कुललवसगो सप्पो वि य कुररेणं समकडगातो अडवी समणऽणुकंपनिमित्तं समणस्स उ निक्खेवो समणे चउक्कनिक्खेवओ समणेण कहेतव्वा समणो सि संजता असी समाधि-ओवहाणे य समाधीए चउक्कं समिईओ जण्णइज्ज समुतारो खलु दुविहो समुदाणियाणिह तओ समुद्दपालिआउं समुद्देण पालियम्मि समोसरणे वि छक्कं सम्मत्तमप्पमादो सम्मत्तुप्पत्ती सावए सम्महिटी किरियावादी सम्मद्दिट्ठी जीवो सम्मट्ठिी तु सुतम्मि सम्मप्पणीतमग्गो सयगुणसहस्सपागं सयणे अदढत्तं बीयगम्मि सयमेव य लुक्ख लोविया सरीरेणोयाहारो सव्वं पि य तं तिविध सव्वण्णुवदिद्वत्ता सवभिचारं हेतुं सव्वमिणं चइऊणं सव्वस्स थूलगुरुए सव्वा ओसधजुत्ती दशनि २७१ सव्वा वयणविसोही आनि २८३ सव्वा वि य सा दुविधा आनि २८२ सव्वे एते दारा उनि ४६४ सव्वे भवत्थजीवा उनि ४६३ सव्वे वि ईरियविसोहि सव्वे वि य वयण विसोहि उनि ३३७ सव्वे वि य सेज्जविसोहि ... दशनि ९९।१ सव्वेसि आयारो दशनि १२८ सव्वेसिं उत्तरेणं उनि ३८२ सव्वेसि तवोकम्म दशनि १८६ सव्वेसि पि नयाण उनि १४१ ससमयपरसमयपरूवणा दनि ४६ सागेते चंडवडिसयस्स उनि ३७८ साडण-पाडण-तोदण उनि १६ सा दुविधा छब्विगुणा उनि ७३ साधु अहिंसाधम्मो साधु संवासेती सूनि १६९ उनि ४२४ साधू तेणे ओग्गह साधु ल हे य तधा उनि ४२३ सा नवहा दुह कीरइ सूनि ११६ सामण्णपुव्वगस्स तु उनि ५०४ सामण्णमणुचरंतस्स आनि २२३ सामाइयअणु कमओ सूनि १२१ सामित्ते करणम्मि य उनि १६६ सामुत्थाणी कविला दशनि २५६ सायं सम्मत्त पुमं सूनि ११२ सारो परूवणाए दनि १०९ सावज्जगंथमुक्का आनि १७३ सावत्थी उसभपुरं उनि १३८ सावत्थीएं कुमारो सूनि १७२ सावत्थी जियसत्तू सूनि ९७ सा सगडतित्तिरी वंसगम्मि दशनि २०८ साहारणमाहारो दशनि ६४ साहुक्कारपुरोगं उनि ३९६ सिंगाररसुत्तइया आनि २४० सिक्खगअसिक्खगाणं उनि ४४ सिक्खावए य लिंगे य आनि ३१९ दशनि २५४ उनि २२७ उनि २२२ आनि ३३३ आनि ३३७ आनि ३२५ आनि ८ आनि ५० आनि २९६ दशनि १२६, ३४९।२ सूनि २४ उनि ३२५ सूनि ७० दनि ४२ आनि ३६० उनि २८२ दनि १६ दशनि ३२२ दशनि २१९।१ दशनि १२७ दशनि २७७ दशनि ११ दनि ५७ आनि ५७ दशनि १२३१६ आनि १७ उनि २३७,४२२ उनि १७० उनि ११७ उनि ११२ दशनि ८५ आनि १३६ दशनि ७० दशनि १८५ दशनि ५३ उनि ४४९ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ सिद्धं जीवस्स अत्थित्तं सिद्धाणमसिद्धाण य सिद्धिगतिमुवगयाणं सिद्धी य देवलोगो साउण्ह-फास-सुह-दुह सीतं परीसह पमादुवसम सीतीभूतो परिनिव्वुतो सीमंधरो य राया सीयाणि य उण्हाणि य सीले चतुक्क दवे सीसं उरो य उदरं सीह गिरि भद्दगुत्तो सीहत्ता निक्खमिउं सुग्गीवे नयरम्मि य सुचिरं पि वंकडाई सुतखंधे निक्खेवं सुतधम्मे पुण तिविधा सुत्ता अमुणिओ सया सुत्ते जहा निबद्धं सुत्तेण सूइत त्ति य सुद्देण निसादीए सुद्धप्पयोगविज्जा सुद्धोदगे य ओसा सुपतिठे कुसकुंडिं सुप्पणिधितजोगी पुण सुयनाणं अणुयोगेण सुरपूइओ त्ति हेऊ सुर-मण य-तिरिय निरओ सुसमत्था वि असमत्था सुह-दुक्खसंपओगो सूयगडं अंगाणं सूरा मो मण्णंता सेज्जभवं गणधरं सेज्जा-इरिया तह उग्गहे सेतं सुजातं सुविभत्तसिंग सेयवि पोलासाढे सेलऽट्रि थंभ दारुय नियुक्तिपंचक दशनि २०१ सेवाल-कत्थ-भाणिय आनि १४१ उनि ५५० सेसं सुत्तप्फासं दशनि २१६ दशनि १ सेसाई दाराई आनि ११५,१२५,१५१,१६३,१७२. दशनि १७६ सेसाणं मरणाणं उनि २२६ आनि २१० सोइंदियरस्सीहि उ दशनि २७२ आनि २०२ सो उज्जाणनिसन्नो उनि ४६९ आनि २०६ सोऊण जिणवरमतं सूनि १८ उनि ३६६ सोऊण तं अरहतो उनि २९५ आनि २११ सोऊण तं भगवतो उनि २८४,२९९ सूनि ८६ सोऊण य सो धम्म उनि ३९७ उनि १५३,१८२।१ सो एवं पडिसिद्धो उनि ४७१ उनि ९८ सो गुरुमासायंतो दनि २४ उनि ४१२ सोतिदियमादीया दनि ५० उनि ४०३ सोरियपुरम्मि नगरे उनि ४४० उनि ४८६ सो लद्धबोहिलाभो उनि १२ उनि ४१० सोलस दक्खा भागा दशनि २५५ उनि १५१ सोलसमे अज्झयणे आनि २१२ सूनि १४१ सोलस वि य तिरिय दिसा आनि ५९ दनि ११६ सोवक्कमो य निरुवक्कमो सूनि २१ उनि २२० सो समणो पव्वइओ उनि ४६६,४६७ आनि २७ सो सिक्खगो तु दुविधो सूनि १२८ सूनि १६५ सो हम्मती अमच्चो उनि ३३८ आनि १०८ उनि ३४३ दशनि २८३ हत्थे-पादे-ऊरु-बाह सूनि ७६ दशनि ३ हयमारूढो राया उनि ३८९ दशनि १२३।२ हरउवमा तव-संजम आनि २३८ सूनि १६० हरिएसनामगोयं उनि ३१३ सूनि ५९ हरिएसा गोदत्ता उनि ३३५ दशनि ५६ हरिएसा चंडाला उनि ३१६ सूनि २ हरिएसे निक्खेवो उनि ३११ सुनि ५७ हरियाले हिंगुलए आनि ७४ दशनि १३ हल-कुलिय-विस-कुद्दाला आनि ९५ आनि ३२० हसित-ललितोवगृहित दशनि २३९ उनि २५९ हिंसग-विसयारंभग आनि २३६ उनि १७२।४ हिंसाए पडिवक्खो दशनि ४२ दनि १०३ हित-मित-अफरुसभासी दशनि २९९ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ सरिसेहि अहेतुहि नेरइयाणं पातला हेट्ठिल्लाण चउत्थं सूनि ४६ आनि ५८ आनि ५४ उनि २९० होंति उवंगा कण्णा होंति पडुप्पन्नविणासणम्मि होति पुण भावगाधा ४५९ उनि १५४, १८२२ दर्शनि ६५ सूनि १३८ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ एकार्थक अंग-अवयव। अंग दस भाग भेदे, अवयव असगल य चुण्णिया खंडे । देस पदेसे पव्वे, साह पडल पज्जव खिने य ।। (उनि १५८) (उनि २०८) अणुसमय-निरन्तर । अणुसमयनिरंतरमवीचि-सन्नियं । अस्स-अश्व । अस्से गोणे य होंति एगट्ठा। (उनि ६५) (उनि ६५) (उनि ९) (आनि ७) आइण्ण-विनीत। आइण्णे य विणीए य भद्दए यावि एगट्ठा । आय-लाभ। आउ ति आगमो ति य लाभो त्ति य होंति एगट्ठा । आयार-आचार। आयारो आचालो, आगालो आगरो य आसासो । आदरिसो अंगं ति य, आइण्णाऽऽजाइ आमोक्खा ॥ उवसंत-उपशांत । सीतीभूतो परिनिव्वुतो य संतो तहेव पल्हाओ होउवसंतकसाओ। ओधुणण-अवधुनन। ओधुणण धुणण नासण, विणासणं झवण खवण सोहिकरं। छेयण भेयण फेडण, डहणं धुवणं च कम्माणं ॥ कम्म-कर्म। पावे वज्जे वेरे, पणगे पंके खुहे असाए य । संगे सल्ले अरए, निरए धुत्ते य एगट्ठा ।। खाय-प्रसिद्धि। खाय-जस-कित्ती। कित्तण-कीर्तन। कित्तण-संपूयणा-थुणणा। (आनि २०६) (आनि ३०३) (दनि १२४) (उनि ४३५) (आनि ३५२) Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ४६१ (उनि ६५) (आनि २४६) (दशनि २१७) (दनि २६) गंडी- दुष्ट अश्व या बैल। गंडी गली मराली होंति एगट्ठा । चार-चर्या । चारो चरिया चरणं एगळं । जीवाजीवाभिगम-दशवकालिक के चौथे अध्ययन का नाम । जीवाजीवाभिगमो, आयारो चेव धम्मपण्णत्ती। तत्तो चरित्तधम्मो, चरणे धम्मे य एगट्ठा । णात-ज्ञात । नातं गणितं गुणितं गतं च एगळं । तिण्ण-तीर्ण, साध। तिण्णे तायी दविए, वती य खते य दंत विरते य । मुणि-तावस-पण्णवगुजु, भिक्खू बुद्ध जति विदू य ॥ पन्वइए अणगारे, पासंडी चरग बंभणे चेव । परिवायगे य समणे, निग्गंथे संजते मुत्ते ।। साधू लूहे य तहा, तीरट्ठी होति चेव नातव्वे । नामाणि एवमादीणि, होंति तव-संजमरताणं ।। दया---दया, अहिंसा। दया य संजमे लज्जा, दुगुंछाऽछलणा इय । तितिक्खा य अहिंसा य, हिरी एगट्ठिया पदा ।। दुम-वृक्ष। दुमा य पादवा रुक्खा, विडिमी य अगा तरू । कुहा महीरुहा वच्छा, रोवगा भंजगा वि य॥ दुमपुफिया-प्रथम अध्ययन का नाम (मपुष्पिका)। दुमपुफिया य आहारएसणा गोयरे तया उंछे। मेस जलोया सप्पे, वणक्ख-इसु गोल पुत्तुदए । नात-ज्ञात (उदाहरण)। नातं आहरणं ति य दिळेंतोवम्म निदरिसणं तह य ।। निव्वाणसुह–निर्वाणसुख । निव्वाणसुहं सायं सीतीभूयं पयं अणाबाहं । (दशनि ३२०-२२) (उनि १५९) (दशनि ३२) (दशनि ३४) (दशनि ४८) (आनि २०८) पंथ-मार्ग। पंथो णायो मग्गो, विधी धिती सोग्गती हित सुहं च । पत्थं सेयं निव्वति, निव्वाणं सिवकरं चेव ।। (सूनि ११५) Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ पज्जोसमण – पर्युषण । पुप्फ– पुष्प । जोसमणाए अक्खराई, होंति उ इमाइ गोण्णाइं । परियायववत्थवणा, पज्जोसमणा य पागइया || परिवसणा पज्जुसणा, पज्जोसमणा य वासवासो य । पढमसमोसरणं ति य, ठवणा जेठोग्गगट्ठा ॥ संदाण । वक्क- वाक्य, भाषा । पुप्फाणि य कुसुमाणि य, फुल्लाणि तहेव होंति पसवाणि । सुमणाणि य सुहमाणि य, पुप्फाणं होंति एगट्ठा । समण - वक्कं वयणं च गिरा, सरस्वती भारती य गो वाणी । भासा पण्णवणी देसणी य वइजोग जोगे य ॥ संदाण निदाणं ति य पव्वो त्ति य होंति एगट्ठा ॥ -(भ्रमण) साधु । पoose अणगारे, पासंडी चरक तावसे भिक्खू | परिवायए य समणे, निग्गंथे संजते मुत्ते ॥ तिण्णे ताई दविए, मुणी य खंते य दंत विरए य । लूहे तीरट्ठी वि य, हवंति समणस्स नामाई || सुयगड -- सूत्रकृतांग । सूतगडं सुतकडं सूयगडं चेव गोण्णाणि । सूर-वीर । सूरो सत्तिओ य वीरो य । हरिएस - चंडाल । हरिएसा चंडाला, सोवाग मयंग बाहिरा पाणा । साधणा य मयासा, सुसाणवित्तीय नीया य ॥ निर्युक्तिपंचक (दनि ५३, ५४ ) (दशनि ३३) ( दशनि २४६ ) ( दनि १३७ ) ( दशनि १३४, १३५ ) ( सूनि २) ( सूनि ६० ) ( उनि ३१६) Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ देशो शब्द अणुक-चावल की एक जाति । (दशनि २२९) खत----खण्डित । (दनि १४) भद्द---दर्पण। (दनि ९६) खुल्लय--छोटा। (उनि २३० अद्दाग-दर्पण। (दशनि १३३) खुह--कर्म । (दनि १२४) अढा-काल । (दशनि २५१) गंडी-दुष्ट घोड़ा, अविनीत बैल। (उनि ६५) अप्फोब-वनस्पति विशेष । (उनि ३९०) गली-दुष्ट घोड़ा, अविनीत बैल। (उनि ६५) अम्मा-मां, माता। (उनि ४१४) गोण--बैल। (उनि ६५, दनि १२) अवय-अनंतकाय वनस्पति । (आनि १४१) चंदणिया--अशुचिस्थान, मल- (उनि १०६) अवहेडग--आंधा शीशी रोग। (उनि १५०) विसर्जन भूमि उंदर-चूहा। (दशनि १३३) चडगर--बढ़ा-चढ़ाकर कहना। (दशनि १८७) उड्डाहकारि--अवहेलना करने वाला। चडुलग--खण्ड-खण्ड किया हुआ। (सूनि ६९) (उनि १३९) चिक्खल्ल-कर्दम, कीचड़। (दनि ६०) उत्तुइय-उत्तेजित। (दशनि १८५) चिक्खिल्ल-कीचड़। (दनि ७४) भोसा-ओस । (आनि १०८) चोयाल--चवालीस । (उनि १७१) कंगु-धान्य विशेष। (दशनि २२९) चोल्लग--भोजन, क्रम से घर-घर कत्थ-अनन्तकाय वनस्पति । (आनि १४१) में किया जाने वाला भोजन । काइय-मूत्र। (दनि ७२) (उनि १६१) कालेज्ज- हृदय का मांस खण्ड । (सूनि ६१) जल्ल-मैल । (उनि ११८) किण्हय-वर्षा काल में घड़े आदि में डगल-पत्थर के टुकड़े। (दनि ८८) होने वाली एक प्रकार की काई। (आनि १४१) ढक्कण-ढकना, ढक्कन । (दशनि ६३) कुडंग - बांस का झुरमुट । (उनि ३४२) ढिकिय-वृषभ की गर्जना। (उनि २६०) कुडिय-चुराई हुई वस्तु की खोज सलवर--नगररक्षक, कोतवाल । (उनि ३०८) करने वाला। (उनि १०८) तिपुरग-धान्य विशेष । (दशनि २३०) कुहाडि-कुल्हाड़ी, फरसा। (आनि १४९) बालि-रेखा । (दनि १४) कोस-समुद्र, सागर । (आनि ११३) दुयग्ग-दम्पति । (उनि ३६०) खद्धादाणिय-धनी, समृद्ध । (दनि ९९) धणिय-अधिक । (दनि ११५) खलुंक-अविनीत बैल, दुष्ट । (उनि ४८२. धणीय-अत्यन्त गाढ़। (दशनि ६८) आनि २५५) धुत्त-कर्म । (दनि १२४) खुडु-छोटा शिष्य । उनि ९० नालिएर-नारियल । (आनि १३३) खुड्डुग-छोटा शिष्य । (आनि २२८) नासीर-शिकार । (उनि ३८८) खड्डय--छोटा। (उनि ९१) पणग-कर्म । (दनि १२४) Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ नियुक्तिपंचक पणय-अनन्तकाय वनस्पति, मराली-दुष्ट घोड़ा, अविनीत बैल । कर्दम, काई। (आनि १४१) (उनि ६५) पतिरिक्क-शून्य एकांत । (दशनि ३४७) मीरा-बड़ा चूल्हा। (सूनि ६४) पाण-चण्डाल । (उनि ३१६) मो-पादपूरक अव्यय । (दशनि १२३/६) पारासर-ब्राह्मण। (उनि ११५) र-निश्चयार्थक अव्यय। (दशनि १२३/१०) पिउर-खाद्य पदार्थ विशेष । (उनि १७२/३) रुक्ख-वृक्ष । (उनि १४६, आनि ८०) पुष्णपत्त-खुशी से हृत वस्त्र। (उनि ३४२) लिड-लींड। (दशनि ८४) पोंड-फल। (उनि १५२) लुक्स'-वृक्ष । (उनि १३८) पोंग-कपास का सूत। (उनि ३०५, सूनि ३) वग्धारिय--बघारा हुआ। (दनि ११६) पोरसार--पुरुष का मांस खाने वत्ता--सूत्रवेष्टन यंत्र। (सूनि २०१) ___ वाला। (उनि ३६४) विडिमी-वृक्ष। (दशनि ३२) फिफ्फिस-आंतस्थित मांस विशेष । (सूनि ७१) विडि-छोटा तालाब । (उनि १३८) फंग-करीषाग्नि । (दशनि १५५) वोलंत-जाते हुए। (उनि ४०७) फुफ्फुस-उदरवर्ती आंत विशेष । (सूनि ७१) संगार-संकेत। (सूनि ३२) बइल्ल-बैल। (दनि ९३) संघडिय--मित्र । (उनि ३५६) बाहिर-चंडाल की जाति । सन्न-मल। (दशनि ६३) बोड-खण्डित घट। (दनि १४) साल-शाखा। (उनि ३२) बोरिय-जैन सम्प्रदाय विशेष । साह-कहना। (दशनि ८१) (उनि १६२/१५) साह-अंश । (उनि १५८) मंडीगाडी। (दनि ९३) सुहम-फूल । (दशनि ३३) माणिय-अनंतकाय वनस्पति। (आनि १४१) सेट्टि-सेठ । (उनि १००) मेर-निविष सर्प। (उनि ३१९) सेहि-शक्ष साध्वी । (उनि १३९) मइलित--मैला, गंदा । (उनि १०६) हर--अनन्तकाय वनस्पति । (आनि १४१) माल्ल-कर्म। (दनि १२५) हरतणु-पृथ्वी को भेदकर निकलने वाले मग्गत-पीछे। (दनि १०६) जलबिंदु । (आनि १०८) मल्लग--पात्र विशेष । (आनि ५९) हरिमंथ--चना! (दशनि २३०) १,२. पाइयसद्दमहण्णवो में इसे देशी नहीं माना है लेकिन यह देशी होना चाहिए। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ निक्षिप्त शब्द अंग (अङ्ग) अग्ग (अग्र) अजीव (अजीव) अज्झयण (अध्ययन) अज्झीण (अक्षीण) अणगार (अनगार) अद्द (आई) अप्पमाद (अप्रमाद) अल (अल) अवाय (अपाय) अहिंसा (अहिंसा) आजाइ (आजाति) आदाण (आदान) आदि (आदि) आय (आय) आयार (आचार) (उनि १४४-५६, आनि २) उवासग (उपासक) (दनि ३५-३७) (आनि ३०५, ३०६) उसुयार (इषुकार) (उनि ३५३, ३५४) (उनि ५४६, ५४७) एक्क (एक) (दशनि ८, १९१, उनि (दशनि २५॥२, ३०, १४२, ३७३) उनि ५-११, ५३८, ५३९, एक्कग (एकक) (उनि १४२, ३७३) सूनि १४३) एसणा (एषणा) (दशनि २१७१, (उनि ५) २१८।२,३,४) (उनि ५४१, ५४२) कड (कृत) (सूनि ४) (सूनि १८५-८७) कम्म (कर्मन्) (उनि ५२२-२४, आनि (उनि १७३, ४९९) १९३,१९४) (सूनि २०२) करण (करण) (उनि १७७-९७, सूनि ४-१४) (दशनि ५१-५३) कविल (कपिल) (उनि २४३,२४४) __ (दशनि ४२) कसाय (कषाय) (आनि १९१) (दनि १२९, १३०) काम (काम) (दशनि १३७-३९, (सूनि १३२) उनि २००) (सूनि १३४-३६) कारग (कारक) (सूनि ४) (दशनि २९, उनि ५) काल (काल) (दशनि १०) (दशनि १५४-६१, उनि किरिया (क्रिया) (सूनि १६७) ४७९, ४८०, आनि ५, केसि (केशिन्) (उनि ४४७) सूनि १८२) खंध (स्कन्ध) (सूनि २३) (सूनि १७०, १७१) खलुंक (दे.) (उनि ४८२, ४८३) (सूनि ५५) खुड्डुग (दे) (उनि २३०, ४१६) (आनि ३२८-३३०) खुल्लय (दे.) (दशनि १५३, उनि २३०) (आनि ३३९-४२) गइ (गति) (दशनि १०९-११) (आनि २००) गणि (गणिन्) (दनि २५) (उनि १-३) गति (गति) (उनि ४९५,४९६,५०७,५४३) (उनि २३८, २३९) गहण (ग्रहण) (सूनि १३२) (आनि ४७-४९) गाधा (गाथा) (सूनि २३,१३७,१३८) (आनि ३००-३०२) गुण (गुण) (आनि १७९) (दशनि ५७, ५८) गोतम (गौतम) (उनि ४४५-४७) आहार (आहार) इत्थी (स्त्री) इरिया (ई) उग्गह (अवग्रह) उण्ह (उष्ण) उत्तर (उत्तर) उरब्भ (उरभ्र) उवसग (उपसर्ग) उवहाण (उपधान) उवाय (उपाय) Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ चउ (चतुर ) चरण (चरण) चार (चार) चित्त (चित्त) चूलिया (चूलिका) छक्क (षट् ) छक्का ( षट्क) जण (यज्ञ) जाय (जात ) जीव (जीव ) झवणा (क्षपणा) ठवणा (स्थापना) ठाण (स्थान) तव (तपस्) तह (तथ्य ) श्रुति (स्तुति) दस (दशक ) दसा (दशा) दिसा (दिक् ) दुम (द्रुम) धम्म (धर्म) ( उनि १४३ ) ( उनि ३७७, ५०९, ५१०, आनि. २९, ३० ) ( आनि २४६ ) ( उनि ३२२, ३२३, दनि _३२-३३।१) ( दशनि ३३४, ३३५) ( उनि ३७४ ) ( दशनि १९२ ) ( उनि ४५७, ४५८ ) ( आनि ३३६ ) ( दशनि १९०, १९५ - १९७, उनि ५४४,५४५) ( उनि ५, ११) (दनि ५५-५८) ( उनि ३७९, ५१६, आनि. १८५, सूनि १६८, दनि १० ) ( उनि ५०५, ५०६ ) ( सूनि १२२, १२३ ) ( सूनि ८४ ) ( दशनि ९ ) (दनि २) ( आनि ४०-४२ ) ( दशनि ३१, उनि २७३,२७४) ( दशनि ३६-४०, सूनि १००,१०१) नमि (नमि) ( उनि २५३,२५४) ( दशनि १९० ) निकाय ( निकाय) नियंठ (निग्रंथ ) ( उनि २३१,२३२, ४१७, ४१८) निद्दा ( निद्रा ) निरय (निरय) निसीहिया (निशीथिका ) पगड (प्रकृति) पच्चक्खाण (प्रत्याख्यान ) पडिमा (प्रतिमा) पणिधि (प्रणिधि) (सुनि ४२ ) ( सूनि ६२, ६३) ( आनि ३४३ ) ( उनि ५२५-२८) ( सूनि १८० ) (दनि ४१, ४२) ( दशनि २६९-७१ ) पत्त (पत्र) पद (पद) पाय ( प्रमाद) पर (पर) परिण्णा (परिज्ञा ) परीसह ( परीषह ) पवयण (प्रवचन) पव्वज्जा ( प्रव्रज्या ) पाय ( पात्र ) पालिय ( पालित) पाव (पाप) पाहण ( प्राधान्य) पिंड (पिंड) पुढवी (पृथ्वी) पुत (पुत्र) पुप्फ (पुष्प) पुरिस ( पुरुष ) पुव्वग (पूर्वक) या (पूजा) पोंडरीय (पुंडरीक) बंध (बंध) बंभ (ब्रह्मन्) बहु (बहु बोह (बोध) भावणा ( भावना ) भासा ( भाषा) भिदिव्व ( भिदितव्य) भिक्खु ( भिक्षु ) भेत्ताभेयण (भेदन ) मंगल (मंगल) निर्युक्तिपंचक ( उनि २७५) ( दशनि १४२-४५ ) उनि १७३,५१४,५१५ ) (आनि ३४७ ) ( आनि ३७,२६७, २६८, सूनि १७९) ( उनि ६६-६८ ) ( उनि ४५२,४५३) ( उनि २५६ ) ( आनि ३३८ ) ( उनि ४२३ ) ( उनि ३८०, ३८१ ) ( आनि २६४ ) ( दशनि २१७ १,२१८ ) (आनि ६९, ७० ) ( उनि ४०१ ) ( दशनि ३१ ) ( सूनि ५६) ( दशनि १२७-३६) ( उनि ३०३, ३०८,३०९ ) ( सूनि १४४-४६ ) (दनि ९३८-४१ ) ( उनि ३७५, ३७६, आनि १८-२८) ( उनि ३०३,३०४) ( सूनि ४२ ) (आनि ३४९) (दशनि २४५,२४७, आनि ३३६) ( उनि ३६९, ३७० ) | ( दशनि ३०९-१६, उनि ३६७, ३६८ दनि ४५) ( उनि ३६९, ३७०) (उनि ३६८,३६९) ( दर्शनि ४१ ) Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ ४६७ मग्ग (मार्ग) (उनि ५४३,४९३,४९४,५०७ संजत (संयत) (दशनि ३४६) सूनि १०७-१०९) संजोग (संयोग) (उनि ३०-६४) मरण (मरण) (उनि २०१,२०२) संपया (संपदा) (दनि २८) मह (महद्) (सूनि ८३) संभूत (संभूत) (उनि ३२२,३२३) महंत (महद्) (दशनि १५३, संसार (संसार) (आनि १९२) उनि २३०,४१६, सकार (सकार) (दशनि ३०५) आनि २६४-६६, सूनि १४२) (आनि ३८) मात (मातृ) (उनि ४५४,४५५) सत्थ (शस्त्र) (दशनि २१३, आनि ३६) मिया (मृगा) (उनि ३९९,४००) सद्द (शब्द) (आनि ३४६) मूल (मूल) (आनि १८३,१८४) सबल (शबल) (दनि १२) मोक्ख (मोक्ष) (उनि ४९१,४९२) समण (श्रमण) (दशनि १२८, उनि ३८२) मोह (मोह) (दनि १२१,१२२) समय (समय) (सूनि. ३२) रति (रति) (दशनि ३३७,३३८) समाधि (समाधि) (दशनि २८६,३०४, उनि रहनेमि (रथनेमि) (उनि ४३७,४३८) ३७८, सूनि १०४-१०६) लाभ (लाभ) (दनि १५) समाहि (समाधि) (दनि ९,३३।२,३४) लेसा (लेश्या) (उनि ५२९,५३०) समुद्द (समुद्र) (उनि ४२३) लोग (लोक) (आनि १७६,१७७) समोसरण (समवसरण) (सूनि ११६,११७) वक्क (वाक्य) (दशनि २४५,२४७) सम्म (सम्यक्) (आनि २१७-१९) वत्थ (वस्त्र) (आनि ३३८) सरीर (शरीर) (दशनि २११) विजय (विजय) (आनि १७७) साम (सम्यक) (उनि ४७७,४७८) विणय (विनय) (दशनि २८६) सामण्ण (श्रामण्य) (दशनि १२७) विभत्ति (विभक्ति) (उनि ५४८,५४९ सार (सार) (आनि २३९) सूनि ६४) सीय (शीत) (आनि २००,२०१) विमोक्ख (विमोक्ष) (आनि २७६-७८) सील (शील) (सूनि ८६,८७) वियालणिय (विदारणीय) (सूनि ३८,३९) सुतखंध (श्रुतस्कंध) (उनि १२, आनि २) विरिय (वीर्य) (सूनि ९१-९४) सुत्त (सूत्र) (आनि ३००, सूनि ३,१८२) विहंगम (विहंगम) (दशनि १०७) सुद्धि (शुद्धि) (दशनि २५९-६२) विहि (विधि) (उनि ५११,५१३) सुय (श्रुत) (उनि २९,३०३,३०५,५०१वीर (वीर) (सूनि ८३) ५०३, सूनि २३) वेयालग (वैतालक) (सूनि ३८) सेज्जा (शय्या) (आनि. ३२१-२४) वेयालण (विदारण) (सूनि ३८) हरिएस (हरिकेश) (उनि ३११,३१२) संजइज्ज (संयतीय) (उनि ३८५,३८६) Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिक - निर्यक्ति की कथाएं १. शय्यंभव और मनक २. रत्नवणिक् ३. अनर्थ का मूल - धन ४. क्षेत्र और काल अपाय ( दशार्हवर्ग और द्वैपायन ऋषि) ५. क्रोध का दारुण परिणाम ६. सत्यप्रतिज्ञ महिला वृद्धकुमारी) ७. हिंगुशिव ८. उपाय से अपाय का निवारण (गांधर्विक) ९. सुभद्रा का शील १०. आर्या चन्दना का अनुशासन ( मृगावती ) ११. कृत्रिम चक्रवर्ती (कोणिक) १२. आश्वासन ( गौतम और महावीर ) १३. नलदाम जुलाहे की बुद्धिमत्ता १४. महाराज प्रद्योत और अभयकुमार १५. गोविंद आचार्य १६. उपाय कथन का विवेक ( पिंगल स्थपति ) १७. व्यसनों की शृंखला (बौद्ध भिक्षु ) १८. अयथार्थ आश्चर्य १९. स्वर्ण खोरक २०. हेतु उपन्यास २१. धूर्त पत्नी २२. लोक का मध्य (अभयकुमार और कथाएं २३. शकटतित्तिरी २४ धूर्तता से धूर्तता का निरसन २५. दक्षता का उदाहरण ( चार मित्र ) २६. दृढ श्रद्धा २७. स्वाध्याय-काल में काल और अकाल का विवेक २८. भक्ति और बहुमान २९. उपधान ३०. गुरु का अपलाप परिशिष्ट ६ उत्तराध्ययन-निर्युक्ति की कथाएं १. अहं से अर्हम् (सनत्कुमार चक्रवर्ती) २. क्षुधा परीषह ३. पिपासा परीषह ४. शीत परीषह ५. उष्ण परीषह (अर्हनक ) ६. दंशमशक परीषह ७. अचेल परीषह ८- ९. अरति परीषह १०. स्त्री परीषह (स्थूलभद्र मुनि और सिंहगुफावासी यति) ११. चर्या परीषह १२. निषीधिका परीषह १३. शय्या परीषह १४. आक्रोश परीषह ( अर्जुनमाली) १५. वध परीषह (स्कन्दक ) १६. याचना परीषह (बलदेव) १७. अलाभ परीषह ( ढंढण मुनि) १८. रोग परीषह (काल वैशिक मुनि) १९. तृणस्पर्श परीषह २०. जल्ल परीषह (सुनंद) २१. सत्कार पुरस्कार परीषह (इंद्रदत्त पुरोहित) २२. प्रज्ञा परीषह (आचार्य कालक) २३. अज्ञान परीषह ( अशकट पिता ) २४. ज्ञान परीषह (आचार्य स्थूलभद्र ) २५. दर्शन परीषह ( आषाढभूति) Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६९ परिशिष्ट ६ २६. चोल्लक २७. पाशक २८. धान्य २९. द्यूत ३०. रत्न ३१. स्वप्न ३२. चक्र ३३. चर्म ३४. युग ३५. परमाणु ३६. जमालि और बहुरतवाद ३७. तिष्यगुप्त और जीवप्रादेशिकवाद ३८. आचार्य आषाढ के शिष्य और अव्यक्तवाद ३९. अश्वमित्र और समुच्छेदवाद ४०. आचार्य गंग और द्वैक्रियवाद ४१. रोहगुप्त और त्रैराशिकवाद ४२. गोष्ठामाहिल और अबद्धिकवाद ४३. शिवभूति और बोटिकवाद ४४. उरभ्र ४५. काकिणी ४६. अपत्थं अंबगं भोच्चा ४७. तीन वणिक् पुत्र ४८. कपिल पुरोहित ४९. करकंडु ५०. दुर्मुख ५१. नमि ५२. नग्गति ५३. गौतम की अधीरता ५४. हरिकशबल ५५,५६. चित्र-संभूत ५७. भृगु पुरोहित ५८. राजर्षि संजय ५९. मृगापुत्र ६०. समुद्रपाल ६१. रथनेमि-राजीमती ६२. जयघोष-विजयघोष आचारांग-नियुक्ति की कथाएं १. जातिस्मरण-१ २. जातिस्मरण-२ ३. जातिस्मरण-३ ४. दृष्टि का महत्त्व ५. सकुंडलं वा वयणं न व त्ति आयं वज्र का अनशन ७. आर्य समुद्र का अनशन ८. आचार्य तोस लि का अनशन ९. आचार्य की तीक्ष्ण आज्ञा १०. द्रव्य शय्या सूत्रकृतांग-नियुक्ति को कथाएं १. अभयकुमार बंदी बना २. महाराज प्रद्योत और अभयकुमार ३. कलबाल ४. पौंडरीक ५. आर्द्रककुमार ६. गौतम और उदक की चर्चा ७. ऋषभ के अट्ठानवे पुत्र बशाश्रुतस्कंध-नियुक्ति की कथाएं १. क्षमादान : महादान २. उद्रायण ओर प्रद्योत ३. दरिद्र किसान और चोर सेनापति ४. क्रोध का दुष्परिणाम ५. दिशा ही बदल गई (अत्वकारीभट्टा) ६. आराधक : विराधक (पडरज्जा साध्वी) ७. करणी का फल (आर्य मगु) Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक-नियुक्ति की कथाएं १. शरयंभव और मनक अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी के तीसरे पट्टधर आर्य प्रभव थे। एक बार उनके मन में चितन उत्पन्न हुआ कि मेरे बाद गण को धारण करने में कौन समर्थ होगा? उन्होंने अपने गण और संघ पर दृष्टि डाली पर कोई भी परम्परा को अविच्छिन्न निभाने वाला पट्टधर नहीं मिला। फिर उन्होंने गृहस्थ समाज पर दृष्टि टिकाई। उपयोग लगाने पर उन्होंने राजगह नगर में शय्यंभव ब्राह्मण को यज्ञमंडप में यज्ञ करते देखा। आचार्य प्रभव राजगृह नगरी में आए और अपने शिष्यों को यज्ञ-मंडप में भिक्षार्थ भेजा। आचार्य प्रभव ने कहा-'वहां तुम्हें जब प्रवेश के लिए निषेध करें तो तुम कहना-'अहो ! कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते-खेद है, सत्य को नहीं जानते ।' साधु वहां गए उन्हें द्वार पर ही रोक दिया गया तब उन्होंने कहा-'अहो कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते ।' शय्यंभव ब्राह्मण द्वार पर ही खड़ा था। उसने यह बात सुनी । उसने सोचा-ये उपशांत तपस्वी असत्यभाषण नहीं करते अतः तत्काल अपने अध्यापक के पास जाकर उसने पूछा-'तत्त्व क्या है ?' अध्यापक ने कहा'वेद।' तब शय्यंभव ने म्यान से तलवार निकालकर क्रोध में आकर कहा-'यदि तुम मुझे सही तत्त्व नहीं बताओगे तो मैं तुम्हारा सिर काट दूंगा। तब अध्यापक बोला-'मेरा समय पूरा हो गया है। वेदार्थ में यह प्रतिपादित है कि सिरच्छेद का प्रसंग उपस्थित हो जाने पर सत्य की अभिव्यक्ति कर देनी चाहिए। अब मुझे यथार्थ का गोपन नहीं करना चाहिए ।' अध्यापक ने कहा-इस स्तूप के नीचे एक स्वर्णमयी अर्हत् प्रतिमा है अत: आर्हत धर्म तत्त्व है। तब शय्यंभव अध्यापक के चरणों में गिर पड़े। शय्यंभव ने यज्ञवाद के सारे उपस्कर अध्यापक को दे दिए । शय्यंभव उन साधुओं की गवेषणा करते हुए आचार्य के पास पहुंच गए । आचार्य को वंदना करके साधुओं को कहा- मुझे धर्म का उपदेश दो।' आचार्य ने उपयोग लगाया और उन्हें पहचान लिया । तब आचार्य ने उन्हें साधु-धर्म की जानकारी दी । शय्यंभव संबुद्ध होकर प्रव्रजित हो गए । कालान्तर में If हुए। जब वे प्रवजित हुए तब उनकी भार्या गर्भवती थी। शय्यंभव के प्रवजित हो जाने पर लोग यह कहते-अरे, देखो, यह अपनी तरुण पत्नी को छोड़कर प्रव्रजित हो गया है। यह निःसंतान है । वे लोग उसकी पत्नी को पूछते---- 'क्या गर्भस्थ कुछ है ?' वह कहती-प्रतीत होता है कि मनाक्-कुछ है। समय बीता । उसने एक पत्र को जन्म दिया। बारह दिन बीतने पर स्वजनों ने पुत्र का नाम 'मनक' रखा क्योंकि गर्भकाल में स्वजनों द्वारा पूछने पर वह कहती थी-'मणगं' अर्थात् कुछ है। ___ जब बालक मनक आठ वर्ष का हुआ तब उसने अपनी मां से पूछा-'मेरे पिता कौन हैं ?' वह बोली-'तम्हारे पिता प्रवजित हो गए । ज्ञात नहीं है अब वे कहां हैं ?' बालक अपने पिता की १. आगे अनुवाद में एक और दो कथा के नम्बर नहीं लगे हैं। वहां १ नम्बर की कथा को कथा सं० ३ पर पढ़ें। Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-६ : कथाएं ४७१ खोज में घर से निकल पड़ा । आचार्य उस समय चंपा में विहरण कर रहे थे। बालक मनक भी चंपा में आ गया। आचार्य जब संज्ञा-भूमि में जा रहे थे तब उन्होंने बालक को देखा । बालक ने आचार्य को वंदना की। बालक को देखते ही आचार्य के मन में बालक के प्रति स्नेह उमड़ आया । बालक के मन में भी आचार्य के प्रति अनुरक्ति जाग गयी। आचार्य ने पूछा-'वत्स ! तुम कहां से आए हो?' बालक बोला-'राजगह नगरी से।' आचार्य ने पूछा - 'राजगह नगरी में तुम किसके पुत्र या पौत्र हो !' बालक ने कहा-'मैं शय्यंभव ब्राह्मण का पुत्र हैं।' आचार्य ने पूछा-'तुम यहाँ किस प्रयोजन से आए हो?' बालक बोला- मैं भी दीक्षित होना चाहता हं।' बालक ने आचार्य से पूछा - 'क्या आप मेरे पिता को जानते हैं ?' आचार्य ने कहा- मैं उनको जानता हूं.' बालक ने फिर पूछा 'वे अभी कहां हैं ?' आचार्य बोले- वे मेरे एक शरीरभूत अभिन्न मित्र हैं। तुम मेरे पास प्रबजित हो जाओ।' उसने अपनी स्वीकृति दे दी। आचार्य उसको साथ लेकर उपाश्रय में आए और सोचा-यह सचित्त उपलब्धि हई है।' उन्होंने बालक को प्रवजित कर दिया। दीक्षित करने के बाद आचार्य ने अपने ज्ञान-बल से उसका आयुष्य जानना चाहा। ज्ञान से उन्होंने जाना कि इसका आयुष्य केवल छह मास का ही है। आचार्य ने सोचा-'इसका आयुष्य बहुत कम है अतः क्या करना चाहिए ?' वे जानते थे, चतुर्दशपूर्वी किसी भी कारण के उपस्थित होने पर अवश्य ही पूर्वो से ग्रंथ का नियूं हण करते हैं। अन्तिम दशपूर्वी भी अवश्य ही नियूं हण करते हैं । आचार्य ने सोचा-'मेरे सामने भी कारण उपस्थित हआ है अतः मुझे नियू हण करना चाहिए। उन्होंने पूर्वो से नि!हण करना प्रारम्भ कर दिया। नि!हण करते-करते विकाल की बेला आ गई, दिन कुछ ही अवशिष्ट रहा दस अध्ययनों का नियूंहण सम्पन्न हुआ, इसलिए इस ग्रन्थ का नाम 'दसवेआलिय' रखा मया ।' २ रत्नवणिक एक वणिक दारिद्रय से अभिभूत था। एक बार वह घूमते हए रत्नद्वीप में पहुंचा। वहाँ उसने त्रलोक्य सुन्दर अमूल्य रत्नों को देखा। उनकी गठरी बांध बह घर की ओर चल पड़ा । लम्बे रास्ते में चोर आदि के भय से उन्हें सकुशल घर ले जाना सम्भव नहीं था। बुद्धि-कौशल से उसने एक उपाय किया। उन रत्नों को एक स्थान पर गाडकर अपने हाथ में जीर्ण-शीर्ण पत्थरों को लेकर पागल के वेश में 'यह रत्नवणिक जा रहा है', 'यह रत्नवणिक् जा रहा है'-यों चिल्लाता हुआ चोरों की पल्ली के पास से गूजरा । आगे जाकर पुनः लौटते हए उन्हीं शब्दों को दोहराता हुआ वहां से गुजरा। उसने तीन बार ऐसे ही किया। चोरों ने उसे देखा पर पागल समझकर उस ओर ध्यान नहीं दिया। चौथी बार वह गडे रत्नों को लेकर सुखपूर्वक चोर-पल्ली को पार कर गया । अटवी लंबी थी अतः वह तीव्र प्यास से अभिभूत हो गया । अटवी में उसने एक गड्ढा देखा । गड्ढे में थोड़ा पानी था। उस पानी में अनेक हिरण मरे पड़े थे। इसलिए सारा पनी वसामय हो गया था। उसने श्वास रोककर स्वाद न लेते हुए उस पानी को पीया । पास शांत हुई । वह रत्नों के साथ सुरक्षित रूप से घर पहुंच गया ।' १. दशअचू पृ. ४,५, हाटी प. १०-१२ २. दशअचू पृ. ८, हाटी प. १९ । Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक ३. अनर्थ का मूल-धन एक नगर में दो भाई रहते थे। वे बहुत गरीब थे। एक बार वे धनार्जन के लिए मालव देश से सौराष्ट्र गए। वहां उन्होंने एक हजार रुपए कमाए। जब वे पुनः अपने घर लौटने लगे तो रुपयों की नौली की बारी-बारी से सुरक्षा करने लगे। एक बार जब एक भाई के पास नौली थी तब दूसरा सोचने लगा-'अच्छा हो इसको मार दूं, जिससे ये सारे रुपये मुझे मिल जाएंगे।' ऐसा ही चिन्तन दूसरे भाई के दिमाग में भी आया। परस्पर एक दूसरे को मारने की चिन्ता में वे चले और अपने ग्राम के समीप बहने वाली नदी के तट पर विश्राम करने ठहर गए। सहसा छोटे भाई के विचार बदले और वह रोने लगा। दूसरे भाई ने कारण पूछा तो वह बोला-'मुझे धिक्कार है । मैं धन के लिए अपने भाई को मारने के लिए भी तैयार हो गया।' दूसरे भाई ने कहा-'मेरे दिमाग में भी तुझे मारने की बात आई थी पर अब मेरा विचार बदल गया है।' इस धन के कारण ही हमारे मन में बुरे विचार आए ऐसा सोचकर उन दोनों भाइयों ने रुपयों की नौली को नदी में बहा दिया । वहां से चलकर वे अपने घर पहुंच गए। नदी में गिरी हई उस नौली को एक मत्स्य निगल गया । प्रातः धीवर ने मछलिया पकड़ने के लिए नदी में जाल फेंका। संयोगवश वही मत्स्य उसके जाल में फस गया और मर गया। धीवर उसे बाजार में बेचने के लिए ले आया। इधर उन दोनों भाइयों की माता ने अपनी लड़की से कहा--'आज तुम्हारे भाई आए हैं अत उनके लिए मत्स्य ले आओ।' वह गई और संयोगवश उसी मत्स्य को ले आई, जिसके पेट में वह नौली थी। मत्स्य को काटते समय लड़की ने वह नौली देखी और उसे अपनी गोद में छिपा ली। उसकी यह क्रिया बढ़ी मां देख रही थी। उसने पूछा-'बेटी! तुमने गोद में क्या छिपाया है ?' लोभवश लड़की ने कुछ नहीं बताया। बूढ़ी मां उठी और लड़की के पास आकर छीना-झपटी करने लगी। लड़की को आवेश आ गया। उसने अपनी बढ़ी मां के मर्मस्थल पर ऐसा प्रहार किया कि वह तत्काल मर गई। भाई बाहर बैठे थे । उन्होंने मां बेटी की तकरार सुनी। वे अन्दर आए । नौली को जमीन पर पड़ी देख वे मां की मृत्यु का कारण जान गए । 'यह धन दोष-बहुल है। इसने हमारी नहीं तो मां की जान ले ली।' यह सोच उनका मन उद्विग्न हो गया। वे विरक्त हो गए। उस लड़की का विवाह कर वे प्रवजित हो गए।' ४. क्षेत्र और काल अपाय (दशाहवर्ग और द्वैपायन ऋषि) दशार्ह हरिवंश में उत्पन्न राजा थे। कंस ने मथुरा नगरी का विनाश कर दिया । इधर राजा जरासंध का भय बढ़ा तब उस क्षेत्र को अपाय-बहुल समझकर दशाहवर्ग मथुरा से चलकर द्वारवती नगरी में आ गए। एक बार भगवान् कृष्ण ने अरिष्टनेमि से पूछा-भगवन् ! द्वारवती (द्वारिका) का विनाश कब होगा? भगवान अरिष्टनेमि ने उत्तर दिया-'द्वैपायन ऋषि के द्वारा इस नगरी का विनाश बारह वर्षों में होगा। द्वैपायन ऋषि ने उद्योतवरा नगरी में यह बात कर्णकणिकया सुनी। 'मैं इस नगरी का विनाशक न बनं, अत: इस कालावधि तक कहीं अन्यत्र चला जाऊं,' यह सोच वे द्वारिका १. दशनि ५१, अच पृ. २१, हाटी प. ३५,३६ । Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ ४७३ नगरी छोड़कर उत्तरापथ में चले गए। __ कालमान की विस्मृति हो जाने के कारण वे बारहवें वर्ष में ही द्वारिका पुनः लौट आए। यादव कुमारों ने उन्हें अनेकविध कष्ट पहुंचाए । रुष्ट होकर ऋषि ने निदान कर लिया। मरकर वे देव बने और उस नगरी का विनाश कर डाला ।' ५. क्रोध का दारुण परिणाम एक क्षपक अपने शिष्य के साथ भिक्षाचर्या में गया । मार्ग में उसके द्वारा एक मेंढकी मर गई । शिष्य ने कहा-'आपके द्वारा एक मेंढकी मर गई है।' क्षपक बोला-'रे दुष्ट शिष्य ! मैंने कब मारी ? यह तो कब से ही मरी पड़ी थी।' इसके बाद वे दोनों अपने स्थान पर पहुंच गए। संध्याकालीन प्रतिक्रमण के समय जब क्षपक ने मेंढ़की की आलोचना नहीं की तो शिष्य ने उन्हें सचेष्ट करते हए कहा-'आप उस मेंढ़की की आलोचना करें।' उसकी इस बात पर क्षपक रुष्ट हो गया और श्लेष्म-शराव लेकर शिष्य को मारने दौड़ा । दौड़ते हुए वह एक खंभे से टकराया और पृथ्वी पर गिरते ही मर गया । वह मरकर ज्योतिष्क देव बना । वहां से च्युत होकर वह दृष्टि-विष सर्पो के कुल में दृष्टिविष सर्प के रूप में पैदा हआ । एक दिन एक सर्प नगर में इधर-उधर घूम रहा था। उसने राजकुमार को काट लिया । सर्पविद्याविशारद एक सपेरे ने विद्याबल से सभी सो को आमंत्रित किया और विद्याबल से निर्मित मंडल में उनको प्रविष्ट कर बोला-'अन्य सभी सर्प अपने-अपने स्थान पर चले जाएं। वही सर्प यहां ठहरे, जिसने राजकुमार को काटा है।' सभी सर्प चले गए। एक सर्प उस मंडल में ठहरा । सपेरे ने उसको कहा-'या तो तुम वान्त विष को पी लो अन्यथा इस अग्नि में गिरकर भस्म हो जाओ।' वह सर्प अगन्धन कुल का था । उसने अग्नि में प्रवेश कर प्राण त्याग दिये परन्तु वान्त विष का पान नहीं किया। विष का अपहार न होने से राजकुमार की मृत्यु हो गई। राजा अत्यन्त कुपित हो गया । उसने राज्य में यह घोषणा करवाई कि जो कोई मुझे सर्प का शिर लाकर देगा, उसे प्रत्येक शिर की एक दीनार मिलेंगी। दीनार के लोभ मे लोग सों को मारने लगे। क्षपक का जीव देवलोक से च्युत होकर जिस सर्पकुल में जन्मा था, वह जातिस्मतिज्ञान से सम्पन्न था । सर्प ने जातिस्मति से अपना पूर्व जन्म देख लिया । 'मेरे देखने मात्र से व्यक्ति भस्मसात हो जाता है'-यह सोचकर वह दिन भर बिल में रहता और रात को बाहर घूमता। एक बार कुछ सपेरे सांपों की खोज में रात को निकले । वे अपने साथ एक प्रकार का गंध द्रव्य ले गए जिससे रात्रि में निकलने वाले सर्पो की खोज सुखपूर्वक हो सके । उन्होंने घूमते-घूमते उस क्षपक सर्प का बिल देखा। उन्होंने बिल-द्वार पर बैठकर औषधि का प्रयोग किया और सर्प को आह्वान किया। सर्प सोचने लगा--'मैंने क्रोध का कट परिणाम देख लिया हैं । मैं मुंह की ओर से बाहर निकलूंगा तो किसी को जला डालूंगा अतः पूंछ से निकलना ही उचित है।' वह पूंछ की तरफ से बाहर निकलने लगा ? उसके शरीर का जितना भाग बाहर निकलता वे सपेरे उसको काट डालते। वह निकलता गया और सपेरे उसके टकड़े करते गये। शिरच्छेद होते ही वह मर गया । वह सर्प देवता परिगृहीत था । देवता ने राजा को स्वप्न में दर्शन देकर कहा-'राजन् ! १. दशनि ५२, हाटी प. ३६, ३७ विस्तार हेतु देखे उनि कथा सं० १६ । Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ नियुक्ति पंचक सर्पों को मत मारो। नागकुल से निकलकर वह सर्प तुम्हारा पुत्र होगा । उसका नाम नागदत्त रख देना ।' वह क्षपक सर्प प्राण परित्याग कर उसी राजा का पुत्र हुआ। बालक का नाम नागदत्त रखा गया । वह छोटी अबस्था में ही प्रव्रजित हो गया । परन्तु पूर्वभव में तिर्यंच होने के कारण उसे भूख बहुत लगती थी। वह सूर्योदय से सूर्यास्त तक खाता ही रहता । वह अत्यन्त उपशांत और धर्म के प्रति अति आस्थावान था । जिस गच्छ में वह था, उसमें चार क्षपक थे । वे चारों तपस्वी थे । उनमें से एक चातुमसिक तपस्या करता, दूसरा त्रैमासिक तप करता, तीसरा द्विमासिक तप और चौथा मासिक तप करता था । एक बार रात्रि में वहां एक देव वंदना करने आया । वहाँ सबसे आगे चातुर्मासिक तप करने वाला क्षपक बैठा था । उसके पास क्रमश: त्रैमासिक द्विमासिक और एकमासिक तप करने वाले तीनों क्षपक बैठे थे । इन सभी के अन्त में वह नित्यभोजी क्षपक बैठा था । देवता ने इन सभी तपस्वी क्षपकों का अतिक्रमण कर उस नित्यभोजी क्षुल्लक को वंदना की । यह देखकर सभी तपस्वी क्षपक कुपित हो गए । जब देवता जाने लगा तब चातुर्मासिक क्षपक ने उसके वस्त्र को पकड़ते हुए कहा - 'हे कटपूतने ! हम तपस्वियों को वन्दना न कर इस नित्यभोजी क्षपक को वंदना करते हो, यह गलत है ।' देवता बोला- 'मैं तो भाव-क्षपक को वंदना करता हूं । जो क्षपक पूजा-सत्कार के इच्छुक हैं तथा अहंकार ग्रस्त हैं उन क्षपकों को वंदना नहीं करता । तत्पश्चात् वे तपस्वी क्षपक उस नित्यभोजी क्षपक से ईर्ष्या करने लगे । देवता ने सोचा'ये तपस्वी इस क्षुल्लक की भत्र्त्सना न कर सकें इसलिए मुझे इस क्षपक के निकट ही रहना चाहिए । तभी मैं इनको बोध दे पाऊगा ।' थूक दूसरे दिन वह क्षुल्लक भिक्षु आज्ञा लेकर पर्युषित अन्न ( बासी भोजन) लेने के लिए गया । भिक्षाचर्या से निवृत्त होकर वह अपने स्थान पर आया और गमनागमन की आलोचना कर आहार ग्रहण करने के लिए चातुर्मासिक तपस्वी को निमन्त्रण दिया । उसने क्षपक के भोजन - पात्र में दिया । क्षुल्लक मुनि ने हाथ जोड़कर कहा - 'भंते! मेरा अपराध क्षमा करें। मैं समय पर ' श्लेष्म पात्र' ( थूकदानी) प्रस्तुत नहीं कर सका, इसलिए आपको इस भिक्षापात्र में थूकना पड़ा ।' तब क्षुल्लक मुनि ने आहार पात्र में पड़े श्लेष्म को ऊपर से दूर कर श्लेष्म पात्र में डाल दिया । स्वयं पूर्ण समभाव में रहा । तत्पश्चात् उसने शेष तीनों तपस्वियों को आहार करने का निमन्त्रण दिया। तीनों क्षपकों ने पूर्ववत् आहारपात्र में थूका । क्षुल्लक मुनि श्लेष्म को श्लेष्म पात्र में डालता गया । अन्त में वह क्षुल्लक मुनि मान्त भाव से आहार- पात्र से कवल लेने के लिए तत्पर हुआ तब एक क्षपक ने उसकी दोनों भुजाओं को पकड़ लिया । उस समय भी वह क्षुल्लक मुनि प्रसन्न रहा । उसके परिणाम और लेश्याएं उत्तरोत्तर विशुद्ध होती गई । उस स्थिति में आवारक कर्मों के क्षीण होने पर उसे केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई । तत्काल देवता ने प्रकट होकर क्षपकों से कहा- 'तुम वन्दनीय कैसे हो सकते हो ? तुम निरन्तर क्रोधाविष्ट रहते हो, क्रोध से अभिभूत रहते हो ।' यह सुनकर वे सभी तपस्वी क्षपक संवेग से ओतप्रोत होकर अपने कृत्य की निन्दा करते हुए बोले- 'अहो ! यह क्षुल्लक मुनि कितना Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ४७५ पश्चात्ताप शान्तचित्त है । असकृत्य करने वाले हमने इसकी आशातना की है । वे मन ही मन करने लगे । इस प्रकार शुभ अध्यवसायों के कारण उनके आवारक कर्मों का क्षय हुआ और उन सबको कैवल्य की प्राप्ति हो गई ।' ६. सत्यप्रतिज्ञ महिला ( अभयकुमार और वृद्धकुमारी ) राजगृह नाम का नगर था। वहां श्रेणिक राजा राज्य करता था। रानी ने एक बार राजा से कहा - 'एक खंभे वाला प्रासाद निर्मित करवाएं ।' राजा ने अनेक बढ़इयों को प्रासादनिर्माण का आदेश दिया । बढ़ई उपयुक्त काठ की खोज करने जंगल में गए । अभयकुमार साथ में था । वहाँ उन्होंने सीधा-सरल एक महान् वृक्ष देखा । वह लाक्षणिक था । उन्होंने वहाँ धूप-दीप कर कहा – 'जो इस वृक्ष का अधिष्ठाता देव है, वह हमें दर्शन दे तो हम इस वृक्ष को नहीं काटेंगे | यदि देव साक्षात् दर्शन नहीं देंगे तो हम इसे काट डालेंगे ।' वृक्षवासी वाणव्यंतर देव अभयकुमार को दर्शन देकर बोला -- ' मैं राजा के लिए एक खंभे वाला प्रासाद बना दूंगा और सभी ऋतुओं के अनुकूल सब प्रकार की वनजातियों से युक्त एक antar भी बना दूंगा। तुम इस वृक्ष को मत काटो । इस प्रकार देव ने एक खंभे वाला प्रासाद निर्मित कर दिया और साथ ही साथ एक सुन्दर बगीचा भी बना दिया । एक बार एक चाण्डा लिन को अकाल आम खाने का दोहद उत्पन्न हुआ । उसने अपने पति से आम लाने को कहा । उस समय आम का मौसम नहीं था । चण्डाल राजा के उस सर्व ऋतुओं में पुष्पित और फलित रहने वाले उद्यान के पास गया और अवनामिनी विद्या के द्वारा आम की शाखा नीचे की । फल तोड़े और उन्नामिनी विद्या से शाखा को पूर्ववत् करके चला गया । प्रातः राजा ने देखा कि आमों की चोरी हो गई है पर किसी मनुष्य के पदचिन्ह वहाँ नहीं है । राजा ने सोचा- 'क्या कोई मनुष्य यहाँ चोरी कर गया ? क्या उसमें यह शक्ति है कि वह आए और पदचिन्ह अंकित न हो। यदि ऐसा शक्तिधर कोई मनुष्य है तो वह मेरे अन्तःपुर में भी धृष्टता कर सकता है । राजा ने तत्काल अभयकुमार को बुलाकर कहा - 'सात दिनों के भीतर चोर को पकड़कर नहीं लाओगे तो तुम जीवित नहीं रह सकोगे । यह सुनकर अभयकुमार चोर की खोज में लग गया । एक दिन अभयकुमार ने देखा कि एक स्थान पर नर्तक नृत्य करना चाहता है और लोग इकट्ठे हो रहे हैं । वहां जाकर अभयकुमार ने एकत्रित लोगों से कहा - 'नट तैयार होकर आता है तब तक मेरी एक कथा सुनो एक नगर में एक दरिद्र सेठ रहता था । उसकी पुत्री वृद्धकुमारी अत्यन्त रूपवती थी । वह श्रेष्ठ पति के लिए कामदेव की अर्चना करती थी । एक दिन चोरी से फूल तोड़ते समय माली ने उसे देख लिया । जब माली उसको पकड़कर कदर्थना करने लगा तब वह बोली- 'तुम्हारे भी बहिन, भानजी हैं, उनकी तरह ही मुझको समझो और मुझ कुमारी की कदर्थना मत करो । माली १. दशअचू पृ. २१,२२ हाटी प. ३७-३९ । Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ नियुक्तिपंचक बोला कि एक शर्त पर मैं तुझे छोड़ सकता हूं कि जिस दिन तुम्हारा विवाह हो, उसी सुहागरात्रि में पति द्वारा अनुपभुक्त ही तुम मेरे पास आओ। वृद्धकुमारी ने शतं स्वीकार कर ली। माली ने उसको छोड़ दिया । कुछ दिनों बाद उसका विवाह हो गया। वह सुहागरात्रि में अपने अपवरक (ओरा) में गई और पति को सारी बात बता दी। पति ने उसे माली के पास जाने की अनुज्ञा दे दी। मार्ग में जाते समय उसको चोरों ने पकड़ लिया। सारी स्थिति समझाने पर चोरों ने भी उसे छोड़ दिया। आगे एक राक्षस मिला जो छह महीनों से आहार लेता था । उसने वृद्धकुमारी को पकड़ लिया। सही बात बताने पर राक्षस ने भी उसे छोड़ दिया। वह माली के पास पहुंच गई। माली ने उसे देखा और विस्मित होकर बोला-'कैसे आई हो?' वद्धकूमारी ने शर्त की बात याद दिलाई तब माली ने पूछा-'तुझे तेरे पति ने कैसे भेज दिया ?' वृद्धकुमारी ने सारी बात सुना दी । माली सोचने लगा-'यह महिला कितनी सत्यप्रतिज्ञ है ?' इतने व्यक्तियों ने इसे छोड़ दिया है तो फिर मैं इसको दूषित कैसे करूं यह सोचकर उसने भी उसे मुक्त कर दिया। घर लौटते समय भी वह राक्षस और चोरों के मध्य होती हुई गुजरी पर उसकी सत्यता से प्रसन्न होकर सबने उसे छोड़ दिया। वह अपने पति के पास अक्षत आ गई। कथानक सुनाकर अभयकुमार ने पूछा-'बोलो, इस कथानक में सबसे कठिन काम किसने किया?' ईाल बोले'उसके पति ने' । क्षधात बोले--'राक्षस ने' । पारदारिक बोले-मालाकार ने और वह हरिकेश चांडाल बोला--'चोरों ने।' अभयकुमार ने समझ लिया कि यह चोर है। उसे पकड़कर राजा के सामने उपस्थित कर दिया । राजा ने चोरी का कारण पूछा तो उसने सब कुछ सही-सही बता दिया। राजा बोला--- 'यदि तुम अपनी विद्याएं मुझे सिखा दो तो प्राण दण्ड नहीं मिलेगा।' चण्डाल ने स्वीकृति दे दी और विद्या का रहस्य समझाने लगा। राजा के कोई बात समझ में नहीं आई तो उसने कहा'विद्या सिद्ध क्यों नहीं हो रही है ?' चाण्डाल बोला-'रोजन् ! आप आसन पर बैठे हैं और मैं नीचे भूमि पर। इस प्रकार अविनयपूर्वक पढ़ने से विद्या नहीं आती है।' राजा तत्काल नीचे बैठ गया। दोनों विधाएं सिद्ध हो गई। ७. हिंगुशिव एक नगर में एक मालाकार रहता था। एक दिन वह करण्डक में फूल लेकर बेचने को निकला। रास्ते में मलोत्सर्ग की आशंका से पीड़ित हो गया। उसने वहां शीघ्रता से उत्सर्ग कर करण्डक के सारे फल उस पर डाल दिए। लोगों ने देखा और पूछा-'यह क्या है ? जो तुम इस प्रकार फूल चढा रहे हो ?' ___ मालाकार बोला-'देवता ने मुझे दर्शन दिए हैं। यहां अभी हिंगुशिव नामक व्यन्तर देव उत्पन्न हुआ है। लोगों ने उसकी बात स्वीकार कर ली और वे भी उसकी पूजा करने लगे। आज भी पाटलिपुत्र में हिंगुशिव व्यन्तर का मंदिर प्रसिद्ध है। १. दशनि ५८, अचू पृ. २२,२३, हाटी प. ४१,४२ । २. दशनि ६३, अचू पृ. २४, हाटी प. ४४ । Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ ४७७ ८. उपाय से अपाय का निवारण (गांर्विक) ___ एक ग्राम में एक वणिक् रहता था । उसके घर में बहुत सी बहन, बेटियां और बहुएं थीं। उसके घर के पास ही राजकुल से सम्बन्धित (संगीत के आचार्य) गान्धर्विक दिन में तीन बार संगीत करते थे। वे घर की स्त्रियां संगीत के मधुर शब्दों द्वारा गांधविकों में आसक्त हो गईं अतः वे समय पर कुछ भी काम नहीं करती थीं। उस वणिक ने सोचा कि ये तो विनष्ट हो रही हैं। अब ऐसा कौन सा उपाय किया जाए जिससे ये कुल-परम्परो को अक्षुण्ण रखें। यह सोचकर उसने अपने एक मित्र को सारी बात बताई। मित्र बोला-'तुम अपने घर के पास व्यन्तरदेव का मंदिर बनवा लो।' उसने वैसा ही किया और पटह बजाने वालों को रुपया देकर पटह बजवाने लगा । गान्धविक जिस समय संगीत करते उस समय वे पटहवादक पटह, बांसुरी आदि बजाते और साथ-साथ गायन आदि भी करते । इससे गांधविकों के संगीत में विघ्न होने लगा। पटह शब्द के कारण गीत शब्द सुनाई नहीं देते थे अतः उन गांधविकों ने राजा के समक्ष शिकायत की। राजा ने उस वणिक् को बुलाकर पूछा-'तुम इनके काम में विघ्न क्यों करते हो?' वह बोला-'मेरे घर में एक देव-मंदिर है। मैं तीनों समय पूजा के लिए पटह बजाता हूं और कुछ नहीं करता । तब राजा ने कहा-'गांधविकों ! तुम अन्यत्र जाकर संगीत करो। प्रतिदिन देव-पूजा में बाधा क्यों डालते हो? गांधविक वहां से चले गए। घर की बहु-बेटियां अपनी मूल स्थिति में आ गईं।' ६. सुभद्रा का शील चंपा नामक नगरी में सुश्रावक जिनदत्त के सुभद्रा नामक लड़की थी । वह अत्यन्त रूपवती थी। एक बौद्ध उपासक ने उसे देखा । वह उसमें आसक्त हो गया। उसने जिनदत्त से सुभद्रा की याचना की। जिनदत्त बोला-'मैं मिथ्यादृष्टि को अपनी पुत्री नहीं दूंगा।' यह सुनकर वह बौद्ध उपासक साधुओं के पास गया और धर्म की बात पूछी । साधुओं ने धर्मदेशना दी। उसने कपटपूर्वक श्रावकधर्म को स्वीकार कर लिया। उसने साधुओं को बता दिया कि मैंने उस लड़की के लिए कपटपूर्वक धर्म ग्रहण किया था । अब मुझे अणुव्रतों का स्वीकरण करा दो। अणुव्रत स्वीकार करने के बाद वह लोक में स्पष्ट रूप से श्रावक हो गया। समयान्तर में 'यह श्रावक है' ऐसा जानकर जिनदत्त ने सुभद्रा का उसके साथ विवाह कर दिया। कुछ समय बाद वह बोला-'मैं लड़की को अपने घर ले जाऊंगा ।' तब जिनदत्त बोला'तुम्हारा सारा कुल उपासक है, यह उसका अनुवर्तन नहीं करेगी तो अपमान होगा अतः तुम इसे वहां मत ले जाओ । अत्यन्त आग्रह करने पर जिनदत्त ने सुभद्रा को उसके साथ भेज दिया। वह उसे लेकर घर गया और अपना अलग घर बनाकर रहने लगा । सुभद्रा भिक्षुओं (बौद्ध श्रमणों) की भक्ति नहीं करती है यह जानकर उसकी सास और ननद उससे द्वेष करने लगी। एक बार उन्होंने सुभद्रा के पति से कहा कि यह सुभद्रा श्वेतपटधारी (जैन मुनि) से संसक्त है। श्रावक ने उनकी बात पर कोई विश्वास नहीं किया। एक दिन एक मुनि उसके घर भिक्षा लेने आए । मुनि की आंख में रजकण गिर गया था। सुभद्रा ने अपनी जीभ से उस रज कण को निकाल १. दशनि ६५, अचू पृ. २४, हाटी प. ४५ । Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ नियुक्तिपंचक दिया । सुभद्रा ने सिन्दूर का तिलक लगा रखा था। वह मुनि की आंख से रजकण निकालते समय क्षपक के ललाट में लग गया। उपासिकाओं ने श्रावक को दिखाया। उसे विश्वास हो गया। अब वह उसके साथ पहले जैसा बर्ताव नहीं करता था। सुभद्रा ने सोचा-मैं गहरण हैं, मेरा अपमान हुआ है इसमें क्या आश्चर्य है ? पर यह जिनशासन की अवहेलना मुझे दुःख दे रही है । उस रात्रि को वह कायोत्सर्ग करके लेट गई। देवता आया और बोला-'आज्ञा दो. मैं क्या करूं?' सुभद्रा बोली-'मेरा यह अपयश दूर कर दो।' देव ने स्वीकृति देकर कहा- 'मैं इस नगर के चारों द्वार बंद कर दूंगा और घोषणा करूंगा कि जो पतिव्रता होगी वह इन दरवाजों को खोल सकेगी। वहां तु ही इन दरवाजों को अनावृत कर सकेगी। अपने परिवार वालों को विश्वास दिलाने के लिए चलनी से पानी निकालना, देव प्रभाव से एक बूंद भी नीचे नहीं गिरेगी, ऐसा आश्वासन देकर देव चला गया । देव ने रात्रि के समय नगर के द्वार बंद कर दिए । द्वार बन्द देखकर नगरवासी अधीर हो गए । सहसा आकाशवाणी हई ... 'नागरिकों ! निरर्थक क्लेश मत करो। यदि शीलवती स्त्री चलनी से पानी निकाल कर उस पानी से द्वार पर छींटे लगाएगी तो द्वार खुल जाएंगे। नगर के अनेक श्रेष्ठियों और सार्थवाह की पुत्रियों तथा पुत्रवधुओं ने उस ओर चरण बढ़ाने ा प्रयत्न भी नहीं किया तभी सुभद्रा ने अपने परिवार वालों से यह काम करने की अनुमति मांगी। वे भेजने के लिए राजी नहीं हए । उपासिका ने कहा- ओह ! अब यह श्रमण में आसक्त सुभद्रा द्वारों को खोलेगी ! किन्तु जब सुभद्रा ने कुए के पास जाकर चलनी से पानी निकाला और एक बद भी पानी नीचे नहीं गिरा तो उपासिका सास विषण्ण हो गई। घर वालों को विश्वास हो गया। उसे जाने की अनुमति प्राप्त हो गई। वह घर से चली उसके हाथ में पानी से भरी चलनी थी। ___ महान् लोगों द्वारा सत्कारित सुभद्रा नगरद्वार के पास गई, अरिहन्त भगवान् को नमस्कार करके द्वार पर पानी के छींटे लगाए और तत्काल महान शब्द करते हुए तीनों द्वार खुल गए । उत्तर का द्वार अभी भी बन्द था। उस पर पानी के छींटे न लगाकर वह बोली - 'जो मेरे जैसी शीलवती नारी होगी, वह इस द्वार को खोलेगी। कहा जाता है वह द्वार आज भी बन्द पड़ा है। नागरिक जन सुभद्रा का जय-जयकार करते हुए बोले- 'अहो ! यह महासती है । अहो ! यह साक्षात् धर्म है।" १०. आर्या चन्दना का अनुशासन (मृगावती) प्रवजित होते ही साध्वी मृगावती आर्या चन्दना की शिष्या बन गई । एक बार भगवान् महावीर विहार करते-करते कौशाम्बी नगरी पधारे । चन्द्र और सूर्य अपने विमानों सहित भगवान् को वन्दन करने आए । चतुष्पौरुषिक समवसरण कर अस्तमन बेला में वे लोट गए। उनके जाते ही मृगावती संभ्रान्त हो गई और समीपस्थ साध्वियों से बोली-'अरे ! विकाल हो गया है। वह तत्काल वहां से उठी और साध्वियों के साथ आर्या चंदना के पास पहुंची। तब तक अन्धकार हो गया था । आर्या चन्दना आदि साध्वियों ने उस समय प्रतिक्रमण भी कर लिया था। आर्या चन्दना ने १. दशअचू पृ २४, २५, हाटी प. ४६-४८ । Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ ४७९ साध्वी मृगावती को उपालम्भ देते हुए कहा-'उत्तम कुल में पैदा होकर भी तुम ऐसा करती हो ? यह अच्छा नहीं है।' साध्वी मृगावती उनके घरों में गिरकर अत्यन्त विनम्रता से क्षमा मांगने लगी । वह बोली-'करुणार्द्र हृदये ! मेरा यह अपराध क्षमा कर दें। मैं ऐसा फिर कभी नहीं करूंगी।' उस समय आर्या चन्दना संस्तारक पर लेटी हुई थी। मृगावती पास में बैठी थी । परम संवेग को प्राप्त होने से उसे केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। रात बीतती गई और अन्धकार बढ़ता गया। दोनों के मध्य से एक सर्प आ रहा था। उस समय प्रवर्तिनी चन्दना के प्रलम्बमान हाथ को मृगावती ने उठाया । चन्दना जाग गई और बोली'ऐसा क्यों?' मृगावती ने उत्तर दिया- कोई सर्प की जाति आ रही है।' चन्दना-तुमने कैसे जाना? क्या कोई अतिशय ज्ञान हआ है ? मृगावती-हां। चन्दना-ज्ञान प्रतिपाति है या अप्रतिपाति ? मृगावती--अप्रतिपाति । आर्या चन्दना ने मृगावती साध्वी से क्षमायाचना की।' ११. कृत्रिम चक्रवर्ती (कोणिक) राजा कोणिक ने भगवान से पूछा-भंते ! काम-भोगों का त्याग नहीं करने वाले चक्रवर्ती राजा कालमृत्यु को प्राप्त कर कहां उत्पन्न होते हैं ? भगवान ने कहा-चक्रवर्ती सातवीं नरक भूमि में उत्पन्न होते हैं । कोणिक-भगवन् ! मैं कहां उत्पन्न होऊंगा? भगवान्-छट्ठी नरक भूमि में। कोणिक-मैं सातवीं नारकी में क्यों नहीं जाऊंगा? भगवान-सातवीं नारकी में चक्रवर्ती उत्पन्न होते हैं। कोणिक-मेरे पास भी चौरासी लाख हाथी हैं, मैं चक्रवर्ती कैसे नहीं हैं? भगवान्-तुम्हारे पास निधियां और रत्न नहीं हैं। यह सुनकर महाराज कोणिक कृत्रिम रत्न बनवाकर दिग्विजय के लिए निकले। जब वे तमिस्रा गुफा में प्रवेश करने लगे तो किरिमालक देव ने कहा--'बारह चक्रवर्ती हो चुके हैं। तुम यह काम करोगे तो विनष्ट हो जाओगे।' रोकने पर भी वह नहीं रुका। किरिमालक देव ने उस पर प्रहार किया और वह मरकर छट्ठी नरक भूमि में उत्पन्न हुआ । १२. आश्वासन (गौतम और महावीर) ___ जब गौतम स्वामी अपने द्वारा दीक्षित मुनियों को केवली पर्याय में देखकर अधीर हो गए तब भगवान् बोले--'गौतम ! तुम मेरे चिरसंसृष्ट हो, चिरपरिचित हो और चिरभावित हो। तुम अधीर मत बनो, अन्त में हम दोनों समान हो जाएंगे।' १. दशनि ७२, अच पृ. २५, हाटी प. ४९,५० । २. दशनि ७४, अच पृ. २६, हाटी प. ५०,५१। ३. दशनि ७४, अचू पृ. २६, हाटी प. ५१, विस्तार के लिए देखें उनि कथा सं० ५३ । Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० नियुक्तिपंचक १३. नलदाम जुलाहे की बुद्धिमत्ता ___ चाणक्य ने नन्द राजा को उत्थापित करके चन्द्रगुप्त को राज्य-सिंहासन पर बिठा दिया। इधर चन्द्रगुप्त राजा का चोरग्राह (चोरों को पकड़ने वाला) नन्द के आदमियों से मिल गया और नगर में चोरी करने लगा । चाणक्य को दूसरे चोरगाह की खोज करनी थी। वह त्रिदण्ड लेकर परिव्राजक के वेश में नगर में घूमने लगा। वहां वह नलदाम नामक तन्तुवाय (जुलाहे) के पास गया और उसकी वयनशाला में ठहर गया। उस तन्तुवाय के बच्चे को मार्ग में खेलते समय मकोडों ने काट खाया। वह रोता हआ पिता के पास आया। सारा वतान्त जानकर नलदाम ने बिल खोदकर मकोड़ों को जला दिया। चाणक्य बोला--इन्हें क्यों जला रहे हो? जुलाहे ने उत्तर दिया-इन्हें समूल नष्ट नहीं कर दूंगा तो ये फिर काट खाएंगे । चाणक्य ने सोचा--यह उपयुक्त चोरग्राह मुझे मिल गया है । यही नन्द के चोरों का समूल उच्छेद कर सकेगा । चाणक्य ने उसे चोरगाह बना दिया । उस जुलाहे ने चोरों को विश्वास दिला दिया कि हम मिलकर चोरी करेंगे। उन चोरों ने दूसरे चोरों का अता-पता भी बता दिया और उन्होंने फिर दूसरे चोरों का क्योंकि उन्होंने सोचा-'अब हम सब मिलकर सरलता से चोरी कर सकेंगे।' सब चोरों का पता लगने पर उस चोरगाह जुलाहे ने उन सब चोरों को मरवा दिया।' १४. महाराज प्रद्योत और अभयकुमार अभय और राजा प्रद्योत की कथा के लिए देखें सूनि की कथा सं. ३ । १५. गोविद आचार्य गोविंद नामक एक बौद्ध भिक्षु थे। वे एक जैन आचार्य द्वारा वाद-विवाद में अठारह बार पराजित हुए। पराजय से दु:खी होकर उन्होंने सोचा कि जब तक मैं इस सिद्धांत को नहीं जानंगा तब तक इन्हें नहीं जीत सकता । इसलिए हराने की इच्छा से ज्ञानप्राप्ति के लिए उसी आचार्य को दीक्षा के लिए निवेदन किया । सामायिक आदि ग्रंथों का अध्ययन करते हुए उन्हें सम्यक्त्व का बोध हो गया। गुरु ने उन्हें व्रत-दीक्षा दी। दीक्षित होने पर गोविंद मुनि ने सरलता पूर्वक अपने दीक्षित होने का प्रयोजन गुरु को बतला दिया। १६. उपाय कथन का विवेक (पिंगल स्थपति) एक राजा ने एक तालाब बनवाया जो समूचे राज्य में सारभूत-श्रेष्ठ था। वह तालाब प्रतिवर्ष भरने के बाद फूट जाता। एक बार राजा ने अपने मंत्रियों तथा अन्यान्य बुद्धिमान् व्यक्तियों को एकत्रित कर पूछा-'ऐसा क्या उपाय किया जा सकता है जिससे कि यह तालाब न फूटे, भरा का भरा रह जाए।' वहाँ एक कापालिक भी उपस्थित था। उसने कहा---'महाराज ! जिस व्यक्ति के शिर तथा दाढी-मूंछ के बाल कपिल (पीले) हों, उसे जीवित अवस्था में वहां गाढ दिया जाए जहां से तालाब फटता है तो भविष्य में तालाब नहीं फूटेगा।' सभी ने यह उपाय सुना । कूमारामात्य १. दशनि ७७, अच पृ. २६, हाटी प. ५२ । २. दशनि ७८, निभा ३६५६, च. पृ. २६०। Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ ४८१ ने तत्काल कहा-'राजन् ! यह जिस प्रकार के आदमी की बात कह रहा है, वैसा यह स्वयं है। दूसरा वैसा मिलना कठिन है । तब राजा ने उसी कापालिक को जीवित ही वहां गढवा दिया। ____ नीतिकार कहते हैं ऐसा उपाय नहीं बताना चाहिए जिससे स्वयं को मरना पड़े।' १७. व्यसनों की श्रृंखला (बौद्ध भिक्षु) कोई बौद्ध भिक्षुक हाथ में जाल लेकर मत्स्य मारने के लिए चला । रास्ते में एक धूर्त मिला । उसने कहा-आचार्य ! आपकी कंथा छिद्रों वाली है। भिक्षु बोला-'यह तो मछलियों को पकड़ने का जाल है।' धूर्त-क्या आप मछली खाते हैं ? भिक्षु-हां, मैं उन्हें मद्य के साथ खाता हूं। धूर्त-क्या आप मदिरा भी पीते हैं ? भिक्षु-मैं अकेला मदिरा नहीं पीता, वेश्या के साथ पीता हूं। धूर्त-क्या आप वेश्या के पास भी जाते हैं ? भिक्षु---शत्रुओं के गले पर पैर रखने के लिए वहां भी जाता हूं। धूर्त-क्या आपके शत्रु भी हैं ? भिक्षु-हां, जिनके घरों में मैं सेंध लगाता हूं, वे मेरे शत्रु हैं । धूर्त-क्या आप चोर हैं ? भिक्षु-जुए में धन चाहिए उसके लिए चोरी करता हूं। धूर्त--तो आप जुआरी भी हैं ? भिक्षु-हां, क्योंकि मैं दासी-पुत्र हूं।' १८. अयथार्थ आश्चर्य एक देवकुल में कुछ कार्पटिक मिले और बोले--किसी ने घूमते हुए कोई आश्चर्य देखा हो तो बताएं। उनमें से एक कार्पटिक बोला--मैंने देखा है पर यहां कोई श्रमणोपासक नई बताऊं । शेष कार्पटिकों ने कहा-'यहां श्रमणोपासक नहीं है।' इसके बाद वह बोला 'पूर्व वैतालिक में मैं एक समुद्रतट पर घूम रहा था। वहां एक बहुत बड़ा वृक्ष था। उस वृक्ष की एक शाखा समुद्र में थी और एक शाखा स्थलभाग में। उसके जो भी पत्ते पानी में गिरते वे जलचर जीव बन जाते और जो स्थल में गिरते वे स्थलचर जीव बन जाते।' सुनने वाले कार्पटिक बोले--'अहो ! आर्य भद्रारक ने बहुत बड़ा आश्चर्य बताया।' वहां एक कापटिक श्रावक भी था। उसने पूछा जो पत्ते मध्य भाग में गिरते उनका क्या होता? वह कार्पटिक क्षुब्ध होकर बोला-'मैंने पहले ही कह दिया था कि यहां श्रावक होगा तो मैं नहीं बताऊंगा।' १६. स्वर्ण खोरक ___ एक नगर में एक परिव्राजक रहता था। वह एक स्वर्ण-खोरक (तापस-भाजन) लेकर १. दशनि ७९, अचू पृ. २६, हाटी प. ५३,५४ । ३. दशनि ८१, अचू पृ. २७, हाटी प. ५५ । २. दशनि ७९, अचू पृ. २७, हाटी प. ५४ । Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ निर्युक्तिपंचक घूमता था । वह कहता था कि जो मुझे असुनी बात सुनाएगा उसे मैं यह स्वर्ण - खोरक दे दूंगा । एक श्रावक ने यह घोषणा सुनी। उसने परिव्राजक से कहा- तुझ पिया मम पिउणो, धारेई अणूणयं सयसहस्सं । जइ सुयपुव्वं दिज्जउ, अह न सुयं खोरयं देहि ॥ तुम्हारे पिता ने मेरे पिता से लाख रुपए उधार लिए थे। यह बात तुम्हारी सुनी हुई है तो वे रुपए लौटा दो और यदि नहीं सुनी हुई है तो यह स्वर्ण खोरक दे दो ।' २०. हेतु उपन्यास एक व्यापारी यव खरीद रहा था। दूसरे व्यक्ति ने पूछा--यवों को क्यों खरीद रहे हो ? उसने कहा———ये खरीदने से ही मिलते हैं, मुफ्त नहीं ।' यव खरीदने का यह हेतु है । " २१. धूर्त पत्नी एक वणिक् अपनी स्त्री को साथ ले प्रत्यंत देश में चला गया । प्रत्यंत देश में वे जाते हैं जो दरिद्र हैं, भाग्यहीन हैं, अपराधी हैं अथवा जो विपरीत कलाओं में निष्णात् हैं । वणिक् की स्त्री कुलटा थी । वह एक पुरुष में आसक्त थी । उस वणिक् पति को अपने बीच व्यवधान समझकर एक दिन वह बोली- 'व्यापार करने के लिए जाओ।' वणिक् बोला -- 'क्या लेकर जाऊं ?' वह बोली- 'उष्ट्र लिण्डिका, (ऊंट के मींगने) लेकर उज्जयिनी जाओ और एक एक दीनार में एक एक लिfuser को बेचो ।' स्त्री का अभिप्राय यह था कि वणिक् लम्बे समय तक वहीं रह जाए । वह बेचारा ऊंट के मींगनों से भरकर एक गाड़ी उज्जयिनी ले गया । बाजार में मींगनों का ढेर लगाकर ग्राहक की प्रतीक्षा करने बैठ गया पर किसी ने कुछ नहीं पूछा । अचानक वहां मूलदेव आ गया । उसने देखा और पूछा तो वणिक् ने सारी बात बता दी । मूलदेव ने सोचा कि यह बेचारा अपनी पत्नी के द्वारा छला गया है। उसने कहा- 'भाई ! मैं इन सबको बिकवा दूंगा यदि तुम आधा हिस्सा मुझे दे दो तो ?' वणिक् ने स्वीकार कर लिया । मूलदेव तब पिशाच का रूप बनाकर आकाश में उड़ गया । वह नगर के बीच में ठहरकर बोला- 'मैं देव हूं। जिस बच्चे के गले में उष्ट्र-लिंडिका बंधी हुई नहीं होगी उस बच्चे को में मार दूंगा ।' तब सभी भयभीत लोगों ने एक एक दीनार में उष्ट्र-लिडिका खरीद ली । वणिक् का सारा माला बिक गया। उसने आधा हिस्सा मूलदेव को दे दिया । मूलदेव बोला - तेरी स्त्री तो किसी धूर्त्त से लगी हुई है, इसीलिए उसने तेरे साथ ऐसा व्यवहार किया है । वणिक् को विश्वास नहीं हुआ तो मूलदेव ने कहा- 'आओ, हम वहां चलें । तुझे विश्वास न हो तो प्रत्यक्ष दिखा देता हूं ।' वे दोनों वेष बदलकर वहां गए और विकाल का बहाना कर ठहरने के लिए स्थान मांगा। उस स्त्री ने स्थान दे दिया। वे एक ओर ठहर गए । कुछ समय पश्चात् घर में वह धूर्त आया और स्त्री उसके साथ मदिरापान करने लगी । इसी बीच में वह गाने लगी 'लक्ष्मी के मन्दिर का पुजारी मेरा पति वाणिज्य के लिए गया है वह सैकड़ों वर्षों तक जीए पर जीता हुआ घर न आए ।' १. दशनि ८२, अचू पृ. २७, हाटी प. ५६ । २. दशनि ८२, अचू पृ. २८, हाटी प. ५६, ५७ । Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं अन्य वेशधारी मूलदेव बोला- 'हे कदलीपत्रों से वेष्टित नारी ! इसका उत्तर यह है कि जो जोर से गर्जता है, उसका अस्तित्व मुहूर्त मात्र का ही होता है। तब मूलदेव ने वणिक् से कहा - ' देख लिया, तुम्हारी स्त्री धूर्त है।' ४८३ वह वणिक् मूलदेव के साथ प्रातः घर से चला गया और कुछ समय पश्चात् अपने घर आ गया। वह स्त्री सहसा अपने पति को घर आया देखकर संभ्रात होकर उठी। इसके बाद भोजन आदि करते समय वणिक् ने गीत गाने तक की सारी बात उसे याद दिला दी। २२. लोक का मध्य एक परिव्राजक घूमता रहता था । वह यह प्ररूपणा करता था कि समक्षेत्र में दिया गया दान आदि सफल होता है, इसलिए समक्षेत्र में दान करना चाहिए। मैं लोक का मध्य भाग जानता हूं, दूसरा कोई नहीं जानता। लोग उसका बहुत आदर-सत्कार करते थे। जब उसे लोक का मध्य पूछा जाता तब चारों दिशाओं में कीलें गाड़कर और रस्सी से मापकर वह मायावी कहता - यह लोक का मध्य है ।' लोग विस्मित होकर कहने लगते- 'आश्चर्य है, इन्होंने लोक का मध्य जान लिया है।' वहां एक श्रावक रहता था । उसने सोचा- 'यह धूर्त लोगों को कैसे ठग रहा है?" मैं भी इसके साथ वंचनापूर्वक व्यवहार करूं।' ऐसा निश्चय कर श्रावक ने उसे कहा- 'भाई ! यह लोक का मध्य भाग नहीं है, तुम भ्रांत हो गए हो।' तत्पश्चात् उस श्रावक ने रस्सी से मापकर दूसरे स्थान को लोक का मध्य भाग बताया। लोग प्रसन्न हो गए। श्रावक ने उस परिव्राजक को निरुत्तर कर दिया। २३. शकटतित्तिरी एक ग्रामीण काठ से गाड़ी भरकर नगर में जा रहा था। रास्ते में उसने एक मरी हुई तित्तिरिका देखी । वह उसे गाड़ी के ऊपर रखकर नगर में गया। वहां एक नगर धूर्त ने उसको पूछा- 'यह शकट - तित्तिरी कितने में मिल सकती है?' ग्रामीण बोला- 'मथ्यमान सत्तुक के द्वारा ।' वह धूर्त्त मथ्यमान सत्तुक देना स्वीकार कर लोगों को साक्षी बना तित्तिरी सहित शकट ले जाने लगा । अब वह ग्रामवासी दुःखी होकर बैठ गया। इतने में उधर से मूलदेव जैसा कोई व्यक्ति आया । वह बोला- ' अरे देवानुप्रिय ! क्या सोच रहे हो?' ग्रामीण ने बताया कि मुझे एक व्यापारी ने इस प्रकार ठग लिया है । वह बोला- 'डरो मत। तुम उपचार से मध्यमान सत्तुक मांगो।' इसके बाद . उसने ग्रामीण को कैसे माया करनी है सिखा दिया । 'ऐसा ही होगा' यह कहकर वह ग्रामीण उस धूर्त के पास गया। वहां जाकर वह बोला- 'यदि तुमने मेरा शकट ले लिया है तो अब सोपचार मथ्यमान सत्तुक तो दिलाओ।' अच्छा कहकर वह धूर्त्त उसे अपने घर ले गया और अपनी स्त्री को आदेश दिया कि वह आभूषणों से अलंकृत होकर परम विनय से इसको मध्यमान सत्तुक दे। कहने के साथ ही वह आ उपस्थित हुई। शाकटिक बोला -'मेरी अंगुली कटी हुई है, इस पर पट्टी बंधी हुई है इसलिए मैं सत्तू को मथ नहीं सकता। तुम मथकर दे दो।' यह सुनकर उस स्त्री ने मथिका हाथ में ली। ग्रामीण उसे हाथ से पकड़ अपने गांव की ओर जाने लगा। उसने लोगों से कहा- 'मैं १. दशनि. ८४, अचू. पृ. २८, हाटी. प. ५७,५८ । २. दशनि. ८४, अचू. पृ. २८, हाटी. प. ५८, ५९ । Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक अपनी शर्त के अनुसार सतित्तिरीक शकट के बदले में यह सत्तुमथिका लेकर जा रहा हूं।' यह देखकर उस धूर्त ने शकट लौटा, ग्रामीण को राजी कर, अपनी स्त्री को छुड़ा लिया। ४८४ २४. धूर्तता से धूर्तता का निरसन एक आदमी ककड़ी से भरी हुई गाड़ी लेकर नगर में गया। वहां उसे एक धूर्त्त मिला। वह बोला-'जो आदमी इस ककड़ियों से भरी हुई गाड़ी को खा ले तो तुम क्या दोगे?' गाड़ीवान् ने उस धूर्त से कहा- 'मैं उसे इतना बड़ा लड्डू दूंगा जो इस नगर द्वार से बाहर न निकल सके।' वह धूर्त्त बोला-'मैं तुम्हारे इस ककड़ी से भरे शकट को खा लेता हूं तुम मुझे वह लड्डू देना जो नगर के द्वार से न निकल सके।' शाकटिक की स्वीकृति मिलने पर उस धूर्त ने कुछ लोगों को साक्षी बनाया। इसके बाद वह शकट पर बैठा और उन ककड़ियों का एक-एक टुकड़ा खाता गया। इस प्रकार सभी ककड़ियों के टुकड़े खा लेने के पश्चात् उसने शाकटिक से मोदक मांगा। शाकटिक बोला- 'तुमने सारी ककड़ी नहीं खाई हैं!' धूर्त्त बोला-' यदि नहीं खाई हैं तो तुम इनका विक्रय करो । ' शाकटिक उन्हें बेचने के लिए बैठा । ग्राहक आए और उन खंडित ककड़ियों को देखा। ग्राहक बोले-' इन खाई हुई ककड़ियों को कौन खरीदेगा?' ऐसा कहने से यह प्रमाणित हो गया कि ककड़ियां खाई हुई हैं। शाकटिक हार गया। तब उस धूर्त ने अपना मोदक मांगा। बेचारा शाकटिक दुःखी हो गया। इसी बीच कुछ जुआरी उधर से निकले। उन्होंने शाकटिक को दुःखी जानकर दुःख का कारण पूछा तो शाकटिक ने सारी बात बता दी। उनमें से एक बोला-'तुम नगर-द्वार के बीच में एक छोटा सा मोदक रख दो और उसे द्वार में से बाहर निकलने के लिए कहो ।' शाकटिक ने ऐसा ही किया। वह धूर्त से कहने लगा- 'लो यह मोदक, यह नगर द्वार से बाहर नहीं निकल रहा है। तुम इसे ले जाओ।' वह धूर्त पराजित हो गया। २५. दक्षता का उदाहरण (चार मित्र) राजकुमार, अमात्यपुत्र, श्रेष्ठिपुत्र और सार्थवाहपुत्र ये चारों मित्र थे। एक बार वे चारों एक स्थान पर मिले और आपस में पूछने लगे कि कौन किस आधार से जीता है? राजपुत्र ने कहा- मैं अपने पुण्य के आधार पर जीता हूं । अमात्यपुत्र ने कहा- मैं अपने बुद्धिबल से जीता हूं । श्रेष्ठिपुत्र ने कहा- मैं अपने सौंदर्य से जीता हूं । सार्थवाहपुत्र ने कहा- मैं अपनी दक्षता से जीता हूं । अपने-अपने अभिमत की पुष्टि के लिए वे दूसरे नगर में गए जहां उनको कोई नहीं जानता था। वहां वे एक उद्यान में ठहरे। सबसे पहले सार्थवाह पुत्र की दक्षता का परीक्षण करने का निश्चय हुआ। उसको खाने-पीने की व्यवस्था करने का आदेश मिला। सार्थवाह पुत्र बाजार में जाकर एक बूढ़े वणिक् की किराने की दुकान के बाहर जाकर बैठ गया। उस दिन कोई बड़ा उत्सव था इसलिए १. दशनि. ८५, अचू. पृ. २८, हाटी. प. ५९,६० । २. दशनि. ८५, अचू. पृ. २९, हाटी. प. ६१ । Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ४८५ ग्राहक बहुत आ रहे थे। वह वृद्ध ग्राहकों को निपटाने में असमर्थ था। वहां बैठा हुआ सार्थवाह पुत्र अपनी दक्षता से जिस ग्राहक को जिस चीज (घी, गुड़, लवण, तेल, सोंठ, मिर्च आदि) की अपेक्षा होती, वही चीज दे देता। इससे वृद्ध को बहुत लाभ हुआ। वृद्ध प्रसन्न होकर बोला-'तुम यहां के वास्तव्य हो या आगंतुक ?' सार्थवाह पुत्र ने कहा-'हम तो आगंतुक हैं।' तब वृद्ध बोला-'हमारे घर चलो, आज का भोजन वहीं करना है।' सार्थवाह पुत्र ने कहा-'मेरे और भी साथी हैं। वे उद्यान में ठहरे हुए हैं, मैं उनके बिना भोजन नहीं करूंगा।' तब वृद्ध वणिक् ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा-'उन सबको साथ ले चलो।' सार्थवाह पुत्र ने सबको बुला लिया। वे सब उसके घर गए । वणिक् ने सबको भोजन कराया। तत्पश्चात् ताम्बूल आदि से सत्कार कर उनका बहुमान किया। उसने पांच रुपयों का खर्च किया। दूसरे दिन रूपवान् वणिक्पुत्र को भोजन की व्यवस्था करनी थी। वह शरीर को सज्जित कर वेश्या-बाड़े में गया। वहां देवदत्ता नाम की वेश्या थी। वह पुरुषों से बहुत द्वेष करती थी. अतः राजपुत्र और श्रेष्ठिपुत्रों द्वारा अभिलषित होने पर भी वह किसी को नहीं चाहती थी। उस वणिक् पुत्र के सौन्दर्य को देखकर वह क्षुब्ध और चंचल हो गई। एक दासी ने वेश्या की माता से जाकर कहा कि आज तुम्हारी पुत्री एक सुन्दर युवक पर आसक्त हो गई है । वेश्या की माता ने कहा-'जाओ, श्रेष्ठिपुत्र को कहो कि वह हमारे घर नि:संकोच आए और आज का भोजन यहीं करे।' उसने भी पूर्ववत् अपने साथियों की बात कही, सबको वहां बुलाया। वेश्या ने सबको अच्छा भोजन कराया। उसने सौ रुपए खर्च किए। __ तीसरे दिन बुद्धिमान् अमात्यपुत्र से कहा-'आज तुम्हें सबके भोजन की व्यवस्था करनी है।' वह नगर की करणशाला-न्यायशाला में गया. जहां विवादों का निपटारा होता था। वहां दिन से एक विवाद का निपटारा नहीं हो पा रहा था। विवाद यह था- दो सौतें थीं। उनका पति मर गया। उनमें एक के पुत्र था, दूसरी के नहीं। जो अपुत्रा थी वह स्नेह से पुत्र का लालन-पालन करती और कहती-'यह पुत्र मेरा है।' पुत्र की वास्तविक माता कहती-'यह पुत्र मेरा है ।' यह विवाद समाहित नहीं हो रहा था। अमात्यपुत्र बोला-'मैं इस विवाद को निपटा देता हूं। इस बच्चे के दो खंड करके एक-एक खंड दोनों माताओं को दे दो।' यह सुनते ही पुत्र की असली माता बोली-'न तो मुझे धन चाहिए और न यह बालक। दोनों उसी को दे दो। मैं बालक को जीवित देखकर ही संतुष्ट हो जाऊंगी।' दूसरी स्त्री कुछ भी नहीं बोली। तब अमात्यपुत्र ने उस बालक को उसकी असली मां को सौंप दिया। बालक की मां द्वारा अमात्यपुत्र को भोजन का निमन्त्रण मिला। सभी मित्रों को भोजन कराया। इसमें एक हजार का व्यय, हुआ। चौथे दिन राजपुत्र से कहा-'राजपुत्र! आज तुम्हें पुण्यबल से हम सबका योगक्षेम वहन करना है।' राजकमार ने स्वीकृति दी। वहां से चलकर वह एक उद्यान में ठहरा। उस दिन नगर का राजा मर गया। वह अपुत्र था। मंत्रियों ने तब एक घोड़े की पूजा कर, उसे अधिवासित कर, नगर Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ नियुक्तिपंचक में घुमाया। जिस वृक्ष के नीचे राजपुत्र सो रहा था उस वृक्ष की छाया स्थिर थी। घोड़ा वहां आकर रुका और हिनहिनाने लगा। वह राजकुमार उस नगर का राजा बन गया। उसने सभी मित्रों को बुला भेजा। वह विपुल संपत्ति का स्वामी बन गया। २६. दृढ़ श्रद्धा राजा श्रेणिक के सम्यक्त्व की प्रशंसा देवराज इन्द्र ने की। एक देवता उस प्रशंसा को सह नहीं सका। वह नगर के बाहर एक तालाब के किनारे साधु के रूप की विकुर्वणा कर मछलियों को पकड़ने बैठ गया। श्रेणिक उसको निवारित करता है और समझाता है । पुनः वह देव एक गर्भवती साध्वी के रूप में श्रेणिक के सामने उपस्थित होता है। श्रेणिक उसे तलघर में ले जाकर प्रसूतिकर्म करवाता है। उस प्रसूतिकर्म को पूर्णरूप से गुप्त रखने के लिए सारा कार्य वह स्वयं करता है। देव मरी हुई गाय जैसी दुर्गन्ध की विकुर्वणा करता है लेकिन श्रेणिक का मन सम्यक्त्व से विचलित नहीं होता। साध्वी का रूप छोड़कर, प्रसन्न होकर दिव्य ऋद्धि वाले देव ने कहा-'भो श्रेणिक ! तुम्हारा. जन्म सफल है, जो प्रवचन पर तुम्हारी इतनी दृढ़ भक्ति है।'२ २७. स्वाध्याय में काल और अकाल का विवेक . (क) एक मुनि कालिकश्रुत का स्वाध्याय कर रहा था। रात्रि का पहला प्रहर बीत गया। उसे इसका भान नहीं रहा। वह स्वाध्याय करता ही गया। एक सम्यग्दृष्टि देवता ने सोचा कि यह मुनि अकाल में स्वाध्याय कर रहा है। कोई मिथ्यांदृष्टि देव इसको ठग न ले, इसलिए उसने छाछ बेचने वाले ग्वाले का स्वांग रचा। छाछ लो, छाछ लो- यह कहता हुआ वह ग्वाला उस मार्ग से निकला। वह बार-बार उस मुनि के उपाश्रय के पास आता-जाता रहा। यह छाछ बेचने वाला मेरे स्वाध्याय में बाधा डाल रहा है-यह सोचकर मुनि ने कहा-'अरे अज्ञानी ! क्या यह छाछ बेचने का समय है? समय की ओर ध्यान दो।' तब उसने कहा-'मुनिवर्य! क्या यह कालिकश्रुत का स्वाध्याय-काल है? मुनि ने यह बात सुनी और सोचा-'यह कालिकश्रुत का स्वाध्याय-काल नहीं है। आधी रात बीत चुकी है।' मुनि ने प्रायश्चित्त स्वरूप-'मिच्छा मि दुक्कडं' का उच्चारण किया। देवता बोला-'फिर ऐसा मत करना, अन्यथा तुम तुच्छ देवता से ठगे जाओगे। अच्छा है, स्वाध्यायकाल में ही स्वाध्याय करो न कि अस्वाध्याय-काल में।'३ (ख) एक गृहस्थ खेत में सूअरों को डराने के लिए सींग बजाता था। एक बार अवसर देखकर चोर उसकी गायों को चुराकर ले जा रहे थे। प्रतिदिन की भांति उस समय उसने सींग बजाया। सींग की ध्वनि सुनकर 'चोर गवेषक आ गया है' यह सोचकर चोर गायों को छोड़कर भाग गए। प्रातः काल उसने गायों को देखा और उन्हें घर ले गया। अब सींग बजाता हआ वह क्षेत्र और गायों की रक्षा करने लगा। प्रतिदिन सींग बजाते रहने के कारण चोर यथार्थ स्थिति समझ गए। उन्होंने रुष्ट होकर उसे पीटा और गायों को भी साथ में ले गए। १. दशनि.१६४, अचू.पृ. ५४, हाटी.प. १०७-१०९। ३. दशनि.१५८, अचू.पृ. ५१, हाटी.प. १०३,१०४। २. दशनि.१५७, अचू.पृ. ५०,५१, हाटी.प. १०२,१०३। ४. दशनि.१५८, अचू.पृ. ५१। Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ४८७ (ग) राजा के निर्गमन काल में एक शंखवादक ने शंख बजाया। अवसर पर शंख बजाया है' यह सोचकर राजा ने प्रसन्न होकर उसे एक हजार मुद्राएं दीं। अब वह बार-बार शंख बजाने लगा। एक बार राजा ने विरेचन की दवा ली। वह मल-विसर्जन के लिए गया हुआ था। शंखवादक ने शंख बजाया। राजा ने सोचा कि शत्रु-सेना ने दुर्ग पर आक्रमण कर दिया है। राजा मल-विसर्जन के वेग के कारण उठ नहीं सका। उसका मन खिन्न हो गया। वहां से उठने के बाद राजा ने अकारण शंख बजाने के कारण उस शंखवादक को दंडित किया। (घ) एक वृद्धा ने व्यंतर देव की आराधना की। कंडों को उलटते हुए उसको रत्न प्राप्त हुए। वह समृद्ध हो गयी। उसने चतुःशाल घर बनवाया और उसमें अनेक शयन, आसन और रत्न आदि भर दिए। पड़ोसी वृद्धा ने जब यह सुना तो उसने समृद्धि का कारण पूछा। उसने यथार्थ स्थिति बता दी। उस पड़ोसी वृद्धा ने भी व्यंतर देव की आराधना की। देव प्रकट हुआ और पूछा-'तुम्हें क्या दूं?' उस वृद्धा ने कहा- 'मुझे यह वर दें कि मेरे पास पड़ोसिन से दुगुना हो जाए। पहली वृद्धा जो-जो सोचती दूसरी के दुगुना होता जाता। प्रथम स्थविरा ने जब यह सुना कि वरदान के कारण पड़ोसिन के सब दुगुना होता जाता है तो उसने सोचा कि मेरा चतु:शाल भवन नष्ट हो जाए और उसके स्थान पर घास-फस की कटिया बन जाए। दूसरी पडोसिन के दो चत:शाल घर नष्ट हो गएं और उसके स्थान पर दो तृण-कुटिया हो गयीं। पहली ने सोचा कि मेरी एक आंख फूट जाए। उसकी एक आंख फूट गई और दूसरी की दोनों आंखें फूट गयीं। इसी प्रकार उसने देव से कहा-'मेरा एक हाथ और एक पैर टूट जाए।' देव ने कहा- 'तथास्तु'। पड़ोसिन के दोनों हाथ और पैर टूट गए। यह असंतोष का फल है। २८. भक्ति और बहुमान एक गिरि-कंदरा में शिव की मूर्ति थी। ब्राह्मण और भील-दोनों उसकी पूजा-अर्चा करते थे। ब्राह्मण प्रतिदिन स्नान आदि कर, पवित्र होकर अर्चना करता था। अर्चना के पश्चात् वह शिव के सम्मुख बैठकर शिवजी का स्तुति-पाठ कर चला जाता। उसमें शिव के प्रति विनय था, बहुमान नहीं। वह भील शिव के प्रति बहुमान रखता था। वह प्रतिदिन मुंह में पानी भर लाता और उससे शिव को स्नान करा. प्रणाम कर वहीं बैठ जाता। शिव प्रतिदिन उसके साथ बातचीत करते। एक बार ब्राह्मण ने दोनों का आलाप-संलाप सुन लिया। उसने शिव की पूजा कर उपालंभ भरे शब्दों में कहा–'तुम भी व्यन्तर शिव हो, जो ऐसे गंदे व्यक्ति के साथ आलाप-संलाप करते हो।' तब शिव ने ब्राह्मण से कहा-'भील में मेरे प्रति बहुमान-आंतरिक प्रीति है, वह तुम्हारे में नहीं है।' एक बार शिव ने अपनी आंखें निकाल ली। ब्राह्मण अर्चा करने आया। शिव के आंखें न देखकर वह रोने लगा और उदास होकर वहीं बैठ गया। इतने में ही भील आ पहुंचा। शिव की आंखें न देखकर उसने तीर से अपनी दोनों आंखें निकाल कर शिव के लगा दी। ब्राह्मण ने यह देखा। उसे शिव की बात पर पूरा विश्वास हो गया कि भील में बहुमान का अतिरेक है। . ३. दशनि.१५८, अचू.पृ. ५२, हाटी.प. १०४। १. दशनि.१५८, अचू.पृ. ५२। . २. दशनि.१५८, अचू.पृ. ५२। For Private & Personal use only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ नियुक्तिपंचक २९. गुरु का अपलाप एक गांव में एक नापित रहता था। विद्या के प्रभाव से उसका 'क्षरप्रभांड' अधर आकाश में स्थिर हो जाता था। एक परिव्राजक उस विद्या को हस्तगत करना चाहता था। वह नापित की सेवा में रहा और विविध प्रकार से उसे प्रसन्न कर वह विद्या प्राप्त की। अब वह विद्याबल से अपने त्रिदंड को आकाश में स्थिर रखने लगा। इस आश्चर्य से बड़े-बड़े लोग उस परिव्राजक की पूजा करने लगे। एक बार राजा ने पूछा-'भगवन् ! यह आपका विद्यातिशय है या तप का अतिशय?' उसने कहा-'यह विद्या का अतिशय है।' राजा ने पुनः पूछा-'आपने यह विद्या किससे प्राप्त की?' परिव्राजक बोला-'मैं हिमालय में साधना के लिए रहा। वहां मैंने एक फलाहारी तपस्वी ऋषि की सेवा की और उनसे यह विद्या प्राप्त की।' परिव्राजक के इतना कहते ही आकाश-स्थित वह त्रिदंड भूमि पर आ गिरा। उत्तराध्ययन नियुक्ति की कथाएं १. अहं से अहम् (सनत्कुमार चक्रवर्ती) एक बार इन्द्र ने अपनी सभा में चक्रवर्ती सनत्कुमार के रूप की प्रशंसा की। यह सुनकर दो देवताओं को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। वे ब्राह्मण का रूप बनाकर चक्रवर्ती के पास आए। देवताओं ने राजा को देखकर मस्तक झुकाया। राजा ने पूछा-'पंडितजी! आप क्यों आए हैं?' ब्राह्मण-रूप देवों ने कहा-'हमने आपके रूप की प्रशंसा सुनी अत: देखने आए हैं । चक्रवर्ती ने सगर्व कहा-'जब मैं स्नान कर, आभूषण पहनकर सभा-मंडप में बैलूं तब आप मेरा रूप देखना।' चक्रवर्ती सनत्कुमार स्नान से निवृत्त हो अनेक आभूषणों से सुसज्जित होकर सिंहासन पर बैठे और ब्राह्मण देवों की ओर देखने लगे। उन्होंने सोचा. अब ये शायद मेरी प्रशंसा करेंगे। ब्राह्मण रूप देव बोले-'पहले आपका शरीर सुन्दर और अमृतमय था। अब विषमय बन गया है। सारा शरीर कीड़ों से व्याप्त हो गया है । आप पात्र में थूक कर देखें।' चक्रवर्ती ने थूका। उस पर मक्खियां बैठते ही मर गयीं। इस घटना से चक्रवर्ती का अभिमान टूट गया। वे विरक्त होकर प्रव्रजित हो गए। कालान्तर में उनके शरीर में सोलह रोग उत्पन्न हो गए। वे उन्हें समभाव से सहने लगे। ___ एक देव वैद्य के रूप में चिकित्सा के लिए आया। मुनि सनत्कुमार ने कहा-'वैद्यराज ! मैं आत्मा को अरुज करने में लगा हूं। शरीर का रोग तो मैं भी मिटा सकता हूं।' ऐसा कहकर उन्होंने अंगुलि पर थूक लगाया। कुष्ठ रोग से गलित अंगुलि कंचन के समान चमकने लगी। देव वैद्य आश्चर्यचकित रह गया। १. दशनि.१५८, अचू.पृ. ५२, २६ से २९ तक की कथाओं का निर्देश आगे अनुवाद वाले टिप्पण में नहीं दिया है अतः क्रमांक में इन्हें सबसे अन्त में दिया है। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ४८९ मुनि सनत्कुमार अनेक लब्धियों से सम्पन्न थे। परन्तु उन्होंने अपने शारीरिक स्वास्थ्य के लिए उनका उपयोग नहीं किया। वे सात सौ वर्षों तक रोगों की असह्य वेदना को समभावपूर्वक सहते हुए अंत में निर्वाण को प्राप्त हो गए। 2. क्षुधापरीषह उज्जयिनी नगरी में हस्तिमित्र नामक सेठ रहता था। उसकी अत्यन्त प्रिय पत्नी का अकाल में वियोग हो गया। उसके हस्तिभूति नामक एक पुत्र था। पत्नी का वियोग होने पर संसार की नश्वरता देखकर दोनों पिता-पुत्र प्रव्रजित हो गए। एक बार उन्होंने साधुओं के साथ उज्जयिनी से भोगकट नगरी की ओर प्रस्थान किया। अटवी के मध्य पिता हस्तिमित्र के पैर में तीक्ष्ण कील लगी। वेदना के कारण एक कदम चलना भी उनके लिए शक्य नहीं था। मुनि ने अन्य साधुओं को कहा–'मैं तो अभी पैर की पीड़ा से पीड़ित हूं अत: चलने में असमर्थ हूं। लेकिन तुम सब लोग अटवी को पार कर यहां से चले जाओ। मेरे साथ रहने से भूख-प्यास से पीडित हो जाओगे तथा मारणांतिक कष्ट भी आ सकते हैं। मैं अब यहां भक्तप्रत्याख्यान कर पंडित-मरण की आराधना करूंगा।' साधुओं ने कहा-'आप विषाद न करें, हम आपकी सेवा करेंगे क्योंकि ग्लान की सेवा करना निर्गन्ध-प्रवचन में सबसे बड़ा धर्म है।' मुनि हस्तिमित्र ने पुन: कहा-'मैं तो अवस्था प्राप्त हूं अत: तुम मेरे पीछे व्यर्थ ही कष्ट मत उठाओ।' ऐसा कहकर उसने सबसे क्षमायाचना की और गिरि कंदरा में एकान्त स्थान पर अनशन स्वीकार कर लिया। अन्य सभी साधुओं ने आगे की यात्रा के लिए प्रस्थान कर दिया। हस्तिमित्र मुनि का पुत्र हस्तिभूति अपने पिता की सेवा में रहना चाहता था, लेकिन दूसरे साधु उसे बलपूर्वक अपने साथ ले गए। कुछ दूर जाकर छोटा मुनि साधुओं को विश्वास दिलाकर लौट आया। वह पिता के पास गया। अपने पुत्र को देखकर पिता ने पूछा-'वत्स! तुम यहां वापिस क्यों आए? यहां रहने से तुम्हें भूख-प्यास की असह्य वेदना सहन करनी पड़ेगी।' भूख-प्यास की तीव्र वेदना से हस्तिमित्र मुनि का अनशन उसी दिन सम्पन्न हो गया। क्षुल्लक मुनि यह नहीं जान सका कि पिता मुनि की मृत्यु हो गई है। मुनि मरकर देवलोक में उत्पन्न हुए। उन्होंने अवधिज्ञान का प्रयोग किया और सोचा कि मैंने क्या दान किया है और कौनसा तप तपा है? अवधि का प्रयोग करते-करते उन्होंने अपना मृत कलेवर और उसके पास बैठे पुत्र को देखा। अनुकंपावश देव अपने कलेवर में प्रवेश कर पुत्र से बोला-'वत्स! अब भिक्षा के लिए जाओ।' बाल मुनि ने जिज्ञासा की-'मुनिवर ! यहां भिक्षा के लिए कहां जाऊं? यहां तो कोई घर भी नहीं है।' देव रूप मुनि ने कहा-'यहां धव और न्यग्रोध के वृक्ष हैं। यहां वृक्षों पर रहने वाले भोजन पकाते हैं। वे तुम्हें भिक्षा देंगे।' अपने पिता की बात सुनकर वह वृक्ष के पास गया और वहां धर्म-लाभ दिया। उसी समय वृक्ष से सुसज्जित एक हाथ निकला और उसने मुनि को भिक्षा दी। इस प्रकार वह बालमुनि प्रतिदिन भिक्षा ग्रहण करने लगा। १. उनि.८५, उशांटी.प. ७८ । । Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० नियुक्तिपंचक दूसरे वर्ष वे सभी साधु दुर्भिक्ष होने के कारण पुनः उज्जयिनी नगरी की ओर प्रस्थित हुए। मार्ग में वही अटवी पुनः आयी। साधुओं ने उस बालमुनि को देखा और सारी स्थिति की अवगति चाही। मुनि हस्तिभूति ने कहा-'मेरे पिता भी अभी तक जीवित है। वे उस कंदरा में हैं।' साधु वहां पहुंचे। उनका शुष्क शरीर देखा। मुनियों ने जान लिया कि स्वर्गस्थ मुनि ने देव होकर मोहानुकम्पा से पुनः इस शरीर में प्रवेश किया है। वे साधु उस बाल मुनि को अपने साथ ले गए। देवता भी अपने स्थान पर वापिस चला गया। ३. पिपासा परीषह उज्जैनी नगरी में धनमित्र नामक वणिक् रहता था। उसके आठ वर्ष के पुत्र का नाम धनशर्मा था। अपने पुत्र के साथ धनमित्र दीक्षित हो गया। एक बार वे दोनों मुनि अन्यान्य मुनियों के साथ मध्याह्न में विहार कर एडकाक्षपथ की ओर जा रहे थे। मार्ग में क्षुल्लक मुनि को प्यास लगी। वह प्यास से व्याकुल हो गया और धीरे-धीरे चलने लगा। उसका पिता धनमित्र मुनि पीछे से आ रहा था। अन्य मुनि आगे चले गए। विहार के बीच एक नदी आयी। धनमित्र ने पुत्रानुराग से कहा-'आओ वत्स! यहां पानी पी लो फिर प्रायश्चित्त कर लेना।' यह मेरे सामने पानी पीने में संकोच कर रहा है। यदि मैं दूर चला जाऊं तो यह पानी पी लेगा।' ऐसा सोच धनमित्र ने नदी पार कर ली। - एकान्त पाकर वह छोटा मुनि नदी के पास गया। पानी से अंजलि भर ली। उसी समय उसने चिंतन किया—'मैं असंख्य जीवों से युक्त यह पानी कैसे पी सकता हूं? इससे कितने जीवों को कष्ट होगा? जिनेश्वर भगवान ने एक बंद पानी में असंख्य जीव बताए हैं। यह सोचकर बालमनि ने दृढ वैराग्य भाव से पानी नहीं पीया। अत्यधिक प्यास के कारण वह बालमुनि शुभ अध्यवसायों से वहीं मृत्यु को प्राप्त हो गया। देवगति में उत्पन्न होकर उसने अपना पूर्वभव तथा मृत शरीर को देखा। उसमें प्रविष्ट होकर वह अपने पिता मुनि के पीछे-पीछे चलने लगा। पिता मुनि भी उसे देख आश्वस्त हो गये। उस देव ने समस्त प्यासे मुनियों की रक्षा के लिए अनुकंपावश वैक्रिय शक्ति से गोकुल की विकुर्वणा की। साधुओं ने वहां छाछ, दूध आदि ग्रहण किया। देव रूप बाल मुनि हर स्थान पर गोकुल की विकुर्वणा करने लगा। इस प्रकार वे सभी मुनि सुखपूर्वक जनपद के निकट पहुंच गए। जनपद आने के अंतिम विहार के समय देव ने अपना परिचय कराने के लिए किसी साधु का आसन विस्मत करवा दिया। एक साधु वहां वापिस आया। वहां उसने आसन तो देखा लेकिन गोकुल कहीं दिखाई नहीं दिया। वापिस आकर उसने सारी बात साधुओं को कही। साधुओं ने जाना कि यह देवकृत चमत्कार था। बाल मुनि देव रूप में प्रकट हुआ। उसने पिता को छोड़कर सबको वंदना की। साधुओं के द्वारा कारण पूछने पर उसने सारी घटना बतायी। देव ने कहा-'यदि मैं अपने पिता के कहने से पानी पी लेता तो अनन्त संसार में भ्रमण करता तथा विराधक बन जाता। इन्होंने मुझे सचित्त जल पीने की प्रेरणा दी इसलिए मैंने वंदना नहीं की।' ऐसा कहकर देव पुनः स्वर्गलोक चला गया। १. उनि.९०, उशांटी.प.८५, ८६, उसुटी.प. १८। २. उनि .९१, उशांटी.प.८७, ८८, उसुटी.प. १९ । Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ४ शीत परीषह राजगृह नगरी में चार वणिक् मित्र थे। वे बचपन से एक साथ खेले तथा बड़े हुए। एक बार भद्रबाहु स्वामी की देशना सुनकर चारों मित्र उनके पास दीक्षित हो गए। अनेक शास्त्रों का सम्यक् अध्ययन करने के पश्चात् उन्होंने एकलविहार प्रतिमा स्वीकार की। . एक बार विहार करते हुए वे पुन: राजगृह नगरी में आए। उस समय हेमंत ऋतु थी। कड़ाके की सर्दी थी। चारों मुनि दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षा लेकर पुन: वैभारगिरि पर्वत की ओर आने लगे। पहला मुनि जब गुफाद्वार तक पहुंचा तब चौथा प्रहर प्रारंभ हो गया, इसलिए वह वहीं प्रतिमा में स्थित हो गया। इसी प्रकार दूसरा मुनि उद्यान में, तीसरा उद्यान के समीप, चौथा नगर के पास वे चारों मुनि प्रतिमा में स्थित हो गए। गुफा के निकट ठहरे मुनि को अबाध शीत परीषह पीड़ित करता रहा। मुनि ने मेरु पर्वत की भांति दृढ़ मनोबल से उसे सहन किया और रात्रि के प्रथम प्रहर में ही स्वर्गस्थ हो गया। उद्यान में ठहरा मुनि शीत के कारण रात्रि के द्वितीय प्रहर में, उद्यान के समीप ठहरा मुनि रात्रि के तीसरे प्रहर में तथा नगर-द्वार पर प्रतिमा में स्थित मुनि रात्रि के चौथे प्रहर में स्वर्गस्थ हुआ क्योंकि उसे नगर की उष्मा बचा रही थी। इस प्रकार चारों मुनि शीत परीषह को समतापूर्वक सहकर सद्गति को प्राप्त हुए। ५. उष्ण परीषह (अर्हन्नक) तगरा नगरी में अर्हन्मित्र नामक आचार्य विहार कर रहे थे। एक बार दत्त नामक वणिक् अपनी पत्नी भट्टा तथा पुत्र अर्हन्नक के साथ आचार्य अर्हन्मित्र के पास दीक्षित हुआ। दत्त मुनि स्नेहवश अपने पुत्र को कभी भिक्षा के लिए नहीं भेजता था। आहार आदि के समय भी मन इच्छित आहार करवाता था। वह बालमुनि बहुत सुकुमार था लेकिन अन्य साधुओं को यह व्यवहार बहुत अखरता था। पर साधु कुछ कह नहीं सकते थे। कालान्तर में दत्त मुनि स्वर्गस्थ हो गए। साधुओं ने दो तीन दिन बाद ही मुनि अर्हन्नक को भिक्षा के लिए भेज दिया। सुकुमार होने के कारण ग्रीष्मऋतु के आतप से वे ऊपर, नीचे और । पार्श्व से झुलसने लगे। उस दिन वे प्यास से व्याकुल होकर छाया में विश्राम के लिए ठहरे। एक विरहिणी स्त्री ने उन्हें देखा। उसका पति परदेश गया हुआ था। मुनि के सुकुमार और सुन्दर शरीर को देखकर वह स्त्री उसमें आसक्त हो गयी। स्त्री ने दासी द्वारा मुनि को ऊपर बुलाया। महिला ने पूछा-'मुनिवर ! आपको क्या चाहिए?' मुनि ने उत्तर दिया-'मुझे केवल भिक्षा चाहिए।' स्त्री ने भिक्षा में पर्याप्त लड्डू बहराए। पुनः उसने पूछा-'आप इस दुष्कर व्रत का पालन क्यों करते हैं?' मुनि ने सहजता से उत्तर दिया-'सुख के लिए।' यह सुनकर स्त्री ने स्नेहयुक्त दृष्टि से मुनि को देखते हुए कहा-'यदि सुख चाहते हो तो मेरे साथ रहो और भोगों का उपभोग करो। इस दुष्कर चर्या का तो जीवन की अंतिम अवस्था में पालन कर लेना।' यह बात सुन गर्मी से व्याकुल मुनि श्रामण्य से च्यत हो गया। अब वह उस स्त्री के साथ भोग भोगने लगा। साधुओं ने सभी स्थानों पर १. उनि.९२, उशांटी.प.८९, उसुटी.प. २०। For Private & Personal use.Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक मुनि अर्हन्नक की खोज की लेकिन मुनि का कहीं पता नहीं चला क्योंकि वह गृहस्थ हो गया था । मुनि की माता साध्वी भट्टा पुत्र के शोक से व्याकुल हो गयी। वह अर्हन्नक- अर्हन्नक का विलाप करती हुई नगर के तिराहे - चौराहे में भ्रमण करने लगी। वह किसी भी व्यक्ति को देखती तो सबसे यही पूछती - 'क्या तुमने अर्हन्नक को कहीं देखा है ? ' इस प्रकार विलाप करती हुई वह पागल की भांति इधर-उधर भ्रमण करने लगी । ४९२ एक बार उसके पुत्र अर्हन्नक ने गवाक्ष से अपनी माता को देखा । वह उसी समय नीचे उतरा और माता के चरणों में गिर पड़ा। वह बोला-'आपके कुल में कलंक लगाने वाला मैं आपका पुत्र अर्हन्नक हूं।' पुत्र को देखकर वह स्वस्थ हो गई। उसका चित्त शांत हो गया। उसने कहा--' पुत्र ! अब तुम पुनः दीक्षित हो जाओ। इस प्रकार दुर्गति में पड़कर जीवन बर्बाद मत करो । पुत्र ने कहा -'मां ! मैं अब संयम- पालन करने में असमर्थ हूं, परन्तु अनशन कर सकता हूं।' मां ने स्वीकृति देते हुए कहा - ' असंयमी जीवन से अनशन करना अच्छा है। तुम असंयत होकर संसार अटवी में परिभ्रमण करने वाले मत बनो ।' तब अर्हन्नक पादोपगमन अनशन स्वीकार कर एक तप्त शिला पर सो गया । मुहूर्त्त भर में उसका सुकुमार शरीर गर्मी से सूख गया। पहले अर्हन्नक ने उष्ण परीषह को सहन नहीं किया, तत्पश्चात् उसने उसे समतापूर्वक सहन किया। ६. दंशमशक परीषह चम्पानगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसके युवराज का नाम सुमनभद्र था । धर्मघोष आचार्य के पास धर्म सुनकर वह कामभोगों से विरक्त होकर प्रव्रजित हो गया। युवराज सुमनभद्र ने दीक्षित होकर सूत्रों का अध्ययन किया और फिर दृढ़ मनोबल से एकलविहार प्रतिमा स्वीकार कर ली। एक बार वह अटवी में विहार कर रहा था। शरद ऋतु का समय था । वह अटवी में ही कायोत्सर्ग में स्थित हो गया। रात्रि में मच्छरों का उपद्रव रहा। सारी रात मच्छर काटते रहे पर मुनि ने उनका निवारण नहीं किया । मच्छरों ने सारा रक्त चूस लिया। उसने मच्छर-दंश की पीड़ा को समभावपूर्वक सहा और उसी रात दिवंगत हो गया । २ ७. अचेल परीषह दशपुर नगर में सोमदेव नामक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम रुद्रसोमा था । उसके दो पुत्र थे- आर्यरक्षित और फल्गुरक्षित । आर्यरक्षित पिता के कथनानुसार अध्ययन करने लगा। जब उसने देखा कि घर में अध्ययन करना संभव नहीं है, तब वह पाटलिपुत्र नगर में चला गया । उसने सांगोपांग चारों वेद पढ़े। जब उसका पारायण सम्पन्न हुआ तब वह शाखापारक विद्वान् बन गया। चौदह विद्यास्थानों को ग्रहण कर वह दशपुर नगर वापिस लौट आया। उसके पिता राजकुल के सेवक थे। आर्यरक्षित ने अपने आगमन की सूचना राजा को दे दी। राजा ने समस्त नगर को ध्वजाओं से सजाया। राजा स्वयं उसकी अगवानी करने गया । उसको सत्कारित-सम्मानित किया और पारितोषिक दिया। नगरवासियों ने उसका अभिनंदन किया। वह हाथी पर आरूढ़ होकर अपने घर पहुंचा। वहां १. उनि . ९३, उशांटी. प. ९०, ९१ उसुटी. प. २१ । २ उनि ९४, उशांटी. प. ९२ उसुटी.प. २२ । Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ४९३ भी बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् के लोगों ने भावभीना स्वागत किया और पूजा-अर्चना की। उसका घर मित्रों, स्वजनों और उपहारों से भर गया। उसने इधर-उधर देखा। मां को वहां न देखकर वह सीधा घर के भीतर गया। मां ने उसे देखकर कहा–'पुत्र! स्वागत है।' इतना कहकर वह मौन बैठ गई। आर्यरक्षित ने पछा-'मां! क्या तम मेरे अध्ययन से संतष्ट नहीं हो? मैंने चौदह विद्यास्थान को अधिगत कर लिया है। नगर मेरे अध्ययन से विस्मयाभिभूत है।' मां बोली-'पुत्र! मेरी तुष्टि कैसे हो? तुम अनेक जीवों की वधकारक विद्या सीखकर आये हो। इससे संसार का भ्रमण बढ़ता लिए मुझे संतोष कैसे हो? क्या तुमने दृष्टिवाद का अध्ययन कर लिया?' मां के वचन सुनकर आर्यरक्षित ने सोचा-'वह दृष्टिवाद कितना बड़ा होगा? कितना ही बड़ा क्यों न हो, मैं उसे अवश्य ढंगा, जिससे मां को संतोष हो सके। मुझे लोगों को संतुष्ट करने से क्या?' उसने मां से पूछा-'मां! यह दृष्टिवाद क्या है?' मां बोली-वह साधुओं का दृष्टिवाद है। यह सुनकर आर्यरक्षित उसके नक्षरार्थ का चिंतन करने लगा। उसने सोचा-'दृष्टियों का वाद है दृष्टिवाद । नाम सुन्दर है। यदि कोई मुझे इसका अध्ययन करायेगा तो मैं अवश्य अध्ययन करूंगा। माता भी संतुष्ट हो जाएगी।' उसने मां से पूछा-'मां ! कहां है दृष्टिवाद के ज्ञाता? मां बोली-'वत्स ! अपने इक्षुगृह में आचार्य तोसलिपुत्र आए हुए है। वे दृष्टिवाद के ज्ञाता हैं।' आर्यरक्षित ने कहा-'मां! तुम उदासीन मत बनो। मैं कल ही दृष्टिवाद पढ़ने के लिए आचार्य के पास चला जाऊंगा।' वह सारी रात दृष्टिवाद शब्द के अर्थ का चिन्तन करता हुआ जागता रहा। दूसरे दिन वह ऊषाकाल में ही घर से प्रस्थित हो गया। उसका एक प्रिय मित्र ब्राह्मण उपनगर में रहता था। जब उसने आर्यरक्षित के विद्याध्ययन कर घर लौटने की बात सुनी तो वह उसका साक्षात् करने घर से निकल पड़ा। उसने सोचा-'कल मैं उसकी अभिवादन-सभा में नहीं पहुंच सका अतः आज मैं उसका साक्षात् करूं।' यह सोचकर अपने मित्र को उपहार देने के लिए नौ पूरे और एक आधा इक्षुदंड लेकर वह घर से निकला। दोनों आमने-सामने मिले। ब्राह्मण ने पूछा-'तुम कौन हो?' उसने कहा-'मैं आर्यरक्षित हूं।' तब ब्राह्मण ने अत्यन्त हर्ष से उसे गले लगाया और कहा–'स्वागत है, स्वागत है। मैं तुम्हें देखने के लिए ही आ रहा था।' आर्यरक्षित बोला-'आओ! मैं अभी शरीर-चिंता से निवत्त होकर आ रहा हं। तम ये इक्षदंड माता को सर्मा कर देना और माता से यह कहना कि मैंने आर्यरक्षित को देखा है और मैं ही पहला व्यक्ति हूं आज उसे देखने वाला। वह ब्राह्मण अपने इक्षुदंडों के साथ आर्यरक्षित के घर गया। माता को इक्षुदंड समर्पित किए और सारा वृत्तांत बता दिया। मां बहुत प्रसन्न हुई। उसने सोचा-'मेरे पुत्र ने सुन्दर मंगलमय वस्तु देखी है। वह नौ पूर्व और उसका खंड ग्रहण कर सकेगा। आर्यरक्षित ने सोचा-'मैं दृष्टिवाद के नौ अध्ययन तथा दसवें का अंश ग्रहण कर सकूँगा। दसवां पूर्व पूरा ग्रहण नहीं कर पाऊंगा। वह वहां से इक्षुगृह के पास गया और सोचने लगा-'मैं यहां से अपरिचित हूं। क्या मैं अकेला ही चला जाऊं? यदि आचार्य का कोई श्रावक मिल जाए तो उसके साथ जाना अच्छा रहेगा-' यह सोच वह एक ओर ठहर गया। वहां ढड्ढर नाम का एक श्रावक शरीरचिंता से मुक्त होकर उपाश्रय में जा रहा था। उसने दूरस्थित होकर तीन नैषेधिकी की। इसी प्रकार बाढ़स्वरों से 'ईरिया' आदि की। आर्यरक्षित मेधावी Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ नियुक्तिपंचक था। उसने उस श्रावक की सारी क्रिया सीख ली। वह भी परिश्रम से भीतर गया और सभी साधुओं को वंदना की. पर ढडढर श्रावक को वंदना नहीं की। आचार्य ने देखा यह नया श्रावक आया है। आचार्य ने पूछा-'किसके साथ आए हो?' उसने कहा-'मैं इस श्रावक के साथ आया हूं।' आचार्य ने साधुओं से कहा-'यह श्रावकपुत्र है और वही है जो कल हाथी पर आरूढ़ होकर आया था।' साधुओं ने पूछा-'तुम यहां कैसे आए हो?' आर्यरक्षित ने सारा वृत्तान्त सुनाया और कहा-'आर्यवर ! मैं आपके पास दृष्टिवाद का अध्ययन करने आया हूं।' आचार्य बोले-'यदि तुम मेरे पास प्रव्रज्या ग्रहण करो तो मैं तुम्हें अध्ययन करा सकूँगा।' आर्यरक्षित बोला-'जैसी आपकी आज्ञा। मैं आपके पास दीक्षित हो जाऊंगा।' तब आचार्य ने कहा- 'मैं परिपाटी-क्रम से निश्चित काल में पढ़ाऊंगा।' उसने कहा-'मुझे यह स्वीकार है। परन्तु गुरुदेव ! मैं यहां प्रव्रजित नहीं हो सकता। यहां का राजा और दूसरे लोग मेरे में अनुरक्त हैं। वे मुझे बलात् घर ले जायेंगे, इसलिए हम अन्यत्र कहीं चलें।' - आचार्य तब आर्यरक्षित को साथ ले दूसरे गांव चले गए। यह उनके प्रथम शिष्य की निष्पत्ति थी। आर्यरक्षित ने दीक्षित होकर कुछ ही समय में ग्यारह अंग पढ़ लिए। उसने आचार्य तोसलिपुत्र के पास दृष्टिवाद का वह सारा अंश ग्रहण कर लिया जितना आचार्य को ज्ञात था। उसने सुना कि युगप्रधान आचार्य वज्र दृष्टिवाद के ज्ञाता हैं, तब आर्यरक्षित आचार्य वज्र के पास जाने के लिए प्रस्थित हुआ। मार्ग में उज्जयिनी नगर आया। वहां वह स्थविर भद्रगुप्त के पास गया। उन्होंने उसे गले लगाकर कहा- 'तुम धन्य हो, कृतार्थ हो। मैं अभी संलेखना कर रहा हूं। मेरा कोई निर्यामक नहीं है। तुम मेरे निर्यामक बनो।' आर्यरक्षित ने स्वीकार कर लिया। स्थविरं भद्रगुप्त मृत्युशय्या पर थे। वे बोले-'वत्स! तुम वज्रस्वामी के साथ मत रहना। किसी दूसरे उपाश्रय में रहकर अध्ययन करना क्योंकि जो व्यक्ति एक रात भी वज्रस्वामी के साथ रह जाता है, वह मर जाता है।' आर्यरक्षित ने यह बात मान ली। भद्रगुप्त के कालगत होने पर वह वज्रस्वामी के पास गया और उपाश्रय के बाहर ठहर गया। वज्रस्वामी ने उसी दिन स्वप्न देखा कि मेरा एक पात्र दूध से भरा हुआ है। एक आगंतुक आया और सारा दूध पीकर आश्वस्त हो गया, फिर भी कुछ दूध पात्र में अवशिष्ट रह गया। आचार्य ने अपने स्वप्न की बात साधुओं को बताई। वे सब परस्पर आलाप-संलाप करने लगे। आर्य वज्र बोले-'तुम नहीं जानते आज मेरा प्रातीच्छिक आयेगा और वह कुछ न्यून दस पूर्व सीखेगा।' प्रात:काल होते ही आर्यरक्षित वहां आ पहुंचे। आचार्य ने पूछा-'कहां से आये हो?' आर्यरक्षित ने कहा-'आचार्य तोसलिपत्र के पास से आया हं।' आचार्य ने पुनः पूछा-'क्या तुम आर्यरक्षित हो?' उसने स्वीकृति में अपना सिर हिलाया। आचार्य ने स्वागत करते हुए पूछा-'कहां ठहरे हो?' उसने कहा-'उपाश्रय से बाहर ठहरा हूं।' आचार्य बोले-'बाहर ठहरे व्यक्ति को अध्ययन कैसे कराया जा सकता है क्या तुम यह नहीं जानते?' तब आर्यरक्षित बोले-'आर्य ! क्षमाश्रमण स्थविर . भद्रगुप्त ने मुझे कहा था कि तुम बाहर ही ठहरना। यह सुनकर आचार्य वज्र ने ज्ञान का उपयोग लगाया और जाना कि आचार्य किसी को कोई बात निष्कारण नहीं कहते। अच्छा, तुम बाहर ही ठहरो। आचार्य वज्र उसे वाचना देने लगे। कुछ ही समय में आर्यरक्षित ने नौ पूर्व पढ़ लिए। दसवां Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ४९५ पूर्व चल रहा था। तब आर्य वज्र ने एक दिन कहा-'इसके यविक पढो। इस पूर्व का यही परिकर्म है। ये सूक्ष्म होते हैं।' आर्यरक्षित ने चौबीस यविक पढ़ लिए। आर्य वज्र उन्हें पढ़ाते रहे। इधर आर्यरक्षित के माता-पिता उनके विरह से शोकाकुल हो गए। उन्होंने सोचा- 'आर्यरक्षित कहता था कि मैं उद्योत करूंगा परन्तु उसने अन्धकार कर दिया।' उन्होंने आर्यरक्षित को बुला भेजा, फिर भी वह नहीं आया। तब उन्होंने उसके अनुज फल्गुरक्षित को भेजा। उसे कहा-'तुम जाओ, आर्य वज्र के पास जो भी जाता है, उसे वह प्रव्रजित कर देता है।' फल्गुरक्षित को इस पर विश्वास नहीं हुआ। वह गया और प्रव्रजित होकर उनके पास पढ़ने लगा। आर्यरक्षित का अध्ययन चल रहा था। वह दसवें पर्व की यविकाओं में अत्यन्त लीन था। एक दिन उसने आर्य वज्र से पछा-'भगवन! दसवां पूर्व कितना अवशिष्ट रहा है?' आचार्य ने बिन्दु और समुद्र तथा सर्षप और मन्दर पर्वत का दृष्टान्त देते हुए कहा-'अभी तक तुमने बिन्दु मात्र ग्रहण किया है, समुद्र जितना शेष है।' यह सुनकर वह विषादग्रस्त हो गया। उसने सोचा, मेरे में वह शक्ति कहां है कि मैं इस महासमुद्र का पार पा सकू?' वह आचार्य वज्र के पास जाकर बोला-'आर्य ! मैं जा रहा हूं, मेरा यह भाई फल्गुरक्षित आ गया है।' आचार्य बोले-'अधीर मत बनो। अध्ययन करते रहो।' किन्तु वह बार-बार एक ही प्रश्न पूछता रहा। तब आचार्य वज्र ने ज्ञानोपयोग से यह जाना कि मेरा आयुष्य थोड़ा ही शेष है। आर्यरक्षित पनः वापिस यहां नहीं आएगा अतः मेरे बाद दसवें पूर्व का उच्छेद हो जाएगा। आचार्य की आज्ञा लेकर आर्यरक्षित दशपुर नगर में आ गया। उसने वहां माता, भार्या भगिनी आदि सभी स्वजन वर्ग को दीक्षित कर दिया। जो वृद्ध पिता था, वह भी अनुरक्तिवशात् अपने प्रव्रजित स्वजनों के साथ रहने लगा। परन्तु लज्जावश उसने लिंग-मुनिवेश धारण नहीं किया। वह सोचता, 'मैं श्रमण कैसे बनूं? यहां मेरे स्वजन हैं। मेरी बेटियां, पुत्रवधुएं, पौत्रियां आदि हैं। उनके समक्ष मैं नग्न कैसे रह सकता हूं?' वह गृहस्थ वेश में ही रहने लगा। अनेक मुनि और आचार्य . उसे श्रमण बनने की बात कहते, तब वह वृद्ध कहता कि यदि मुझे युगल-वस्त्र, कमंडलु, छत्र, पादुका, यज्ञोपवीत आदि के साथ प्रव्रजित किया जाए तो मैं प्रव्रजित हो सकता हूं, अन्यथा नहीं। आर्यरक्षित ने उसे उसी रूप में प्रव्रजित कर दिया। उन्होंने सोचा कि चरणकरण का स्वाध्याय करते समय इसका निग्रह करना चाहिए। उन्होंने कहा-'ठीक है, तुम कटिवस्त्र धारण करो।' वह स्थविर बोला-'छत्र के बिना मैं रह नहीं सकता।' उन्होंने छत्र की अनुज्ञा दे दी। पुन: उसने अपनी मांग प्रस्तुत की-'पात्र के बिना मैं उच्चार-प्रस्रवण नहीं कर सकता।' उसे कमंडलु की भी आज्ञा मिल गई। 'मैं ब्राह्मणचिह्न-जनेऊ रखेंगा।' आर्यरक्षित ने कहा-'ठीक है।' इतना रखकर उसने अवशिष्ट का त्याग कर दिया। एक बार आचार्य आर्यरक्षित चैत्य-वन्दन के लिए निकले। उन्होंने बालकों को यह सिखा दिया था कि वे इस प्रकार कहें-'हम सब बालक छत्रधारी मुनि को छोड़कर शेष सभी मुनियों को वंदना करते हैं।' यह सुनकर वृद्ध मुनि ने सोचा-'ये मेरे पुत्र-पौत्र सभी वन्दनीय हैं, मैं कैसे अवन्दनीय रहूं?' वृद्ध ने उन बालकों से पूछा- क्या मैं प्रव्रांडत नहीं हूं।' बालक बोले- 'मुने ! क्या प्रव्रजित होने वाले जूते, कमंडलु, यज्ञोपवीत, छत्र आदि रखते हैं?' वृद्ध ने सोचा-'ये बालक Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक मुझे लक्ष्य कर कह रहे हैं ।' उसने तत्काल सभी वस्तुएं छोड़ने का निश्चय कर लिया । वह अपने पुत्र आचार्य आर्यरक्षित के पास गया और कहा - 'मैं छत्र छोड़ दूंगा तो आतप में क्या करूंगा?' आचार्य बोले—— आतप में सिर पर कपड़ा डाल देना।' अगर कमंडलु छोड़ दूं तो ? संज्ञाभूमि में पात्र ले जाते ही हैं। पुन: वृद्ध बोला- 'मैं ब्राह्मण हूं अत: यज्ञोपवीत कैसे छोड़ दूं?' आचार्य ने समाधान दिया- 'हम ब्राह्मण हैं, यह कौन नहीं जानता?' इस प्रकार उसने सभी वस्तुओं का परिहार कर डा। इतने में बालक चिल्ला उठे - 'कटिवस्त्रधारी मुनि को छोड़कर हम सभी मुनियों को वंदना करते हैं।' यह सुनकर वृद्ध मुनि रुष्ट होकर बोला- 'तुम सभी मुझे वंदना मत करो। मुझे अन्य लोग वंदना करेंगे पर मैं यह कटिवस्त्र नहीं छोडूंगा।' एक बार वहीं एक मुनि भक्तप्रत्याख्यान कर कालगत हो गया । उसको निमित्त बनाकर आचार्य आर्यरक्षित ने उनका कटिवस्त्र उतरवाने के लिए कहा- 'जो इस मृत मुनि का वहन करेगा, वह महान फल का आभागी होगा।' पूर्व प्रव्रजित मुनि बोले- 'हम इसको वहन करेंगे।' वे सभी उपस्थित हुए । आचार्य ने कहा- 'मेरा स्वजन वर्ग निर्जरा का भागी न बने इसलिए तुम सब लोग इसको वहन करने के लिए कह रहे हो।' तब वृद्ध मुनि ने पूछा - 'पुत्र ! क्या इसको वहन करने से बहुत 'निर्जरा होती है?' आचार्य ने उत्तर दिया- इसमें निर्जरा तो प्रत्यक्ष है, पूछना क्या है? तब स्थविर मुनि बोले- मैं भी इसको वहन करूंगा।' आचार्य बोले- ' इसमें उपसर्ग हो सकते हैं । बालक पीछे लग सकते हैं । यदि तुम इन उपसर्गों को सहन कर सको तो इसको वहन कर ले जाओ । यदि तुम सहन नहीं कर पाओगे तो अच्छा नहीं रहेगा।' इस प्रकार उसे स्थिर कर दिया । ४९६ वृद्ध साधु ने शव को उठाया। साधु आगे चल रहे थे। पीछे साध्वियां थीं। तब पूर्व योजना के अनुसार कुछ बालक आए और उस स्थविर मुनि का कटिवस्त्र खींच डाला। उसने लज्जावश मृतक को छोड़ना चाहा तब दूसरों ने कहा-' शव को बीच में मत छोड़ देना।' तब वृद्ध ने दूसरे कपड़े से कटिवस्त्र बना डोरी से उसे बांध दिया। अब वह लज्जावश उसे वहन करते हुए सोचने लगा कि मार्ग में मुझे मेरी पुत्रवधुएं देखेंगी। 'यह उपसर्ग आया है' – यह सोचकर उसने उसे सहन किया। फिर उसी अवस्था में उपाश्रय में आया । आचार्य ने पूछा- 'मुने ! आज यह क्या?' तब वृद्ध बोला - 'पुत्र ! आज उपसर्ग आया था।' आचार्य ने कहा- 'अच्छा, शाटक ले आओ।' वृद्ध बोला- 'अब शाक का क्या प्रयोजन? जो देखना था, वह देख लिया। अब तो चोलपट्टक ही उचित रहेगा ।' उसे चोलपट्टक दे दिया गया। पहले उसने अचेल परीषह सहन नहीं किया, बाद में सहन किया । " ८ अरति परीषह अचलपुर नगर में जितशत्रु राजा राज्य करता था । उसका पुत्र युवराज आचार्य राध के पास दीक्षित हुआ। एक बार वह विहार करता हुआ तगरा नगरी पहुंचा। उस समय आचार्य राध के स्वाध्याय अंतेवासी शिष्य आर्यराध श्रमण उज्जैनी में विहार कर रहे ।। राधश्रमण के कुछ शिष्य तगरा नगरी में आर्य राध के पास आए। आर्य राध ने आए हुए शिष्यों से पूछा - 'वहां कोई उपसर्ग १. उनि ९५ - ९८, उशांटी. प. ९७,९८, उसुटी.प. २३-२५ । Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ४९७ तो नहीं है?' मुनियों ने उत्तर दिया--'भंते ! उज्जयिनी में राजपुत्र और पुरोहितपुत्र-दोनों मुनियों को बहुत कष्ट देते हैं।' आचार्य राध के प्रव्रजित युवराज शिष्य ने भी यह बात सुनी। उज्जयिनी का राजपुत्र उसका भतीजा था। उसने सोचा-'वह इस दुष्प्रवृत्ति से संसार में भ्रमण करेगा इसलिए उसे इससे मुक्त करना चाहिए।' यह सोचकर वह आचार्य से आज्ञा प्राप्त कर उन दोनों को प्रतिबोध देने के लिए उज्जयिनी की ओर प्रस्थित हो गया। वह उज्जयिनी पहुंचा। आचार्य राध श्रमण ने अतिथि मुनि का स्वागत किया। भिक्षा के समय वह भिक्षाचर्या के लिए तत्पर हुआ। आचार्य बोले'बैठो।' उसने कहा-'मझे उन दोनों प्रत्यनीकों का घर बता दें।' आचार्य ने एक क्षुल्लक को मुनि के साथ भेजा। क्षुल्लक ने उन दोनों का घर बता दिया। मुनि विश्वस्त होकर घर में प्रविष्ट हुए। वहां राज-परिजन विस्मित होकर खड़े हुए और मुनि को देखकर बोले-'मुने ! आप शीघ्र ही यहां से निकल जाइए अन्यथा कुमार आपकी हंसी करेंगे, अपमान करेंगे। मुनि ने नि:संकोच भाव से बाढ़स्वर में धर्मलाभ' का उच्चारण किया। राजपुत्र और मंत्रिपुत्र दोनों ने यह शब्द सुना। वे बोले'अहो ! आज हमारे अहोभाग्य कि तुम जैसे मुनि हमारे घर आ गए। हमारी वंदना स्वीकार करो। 'मुने ! क्या तुम नाचना जानते हो?' मुनि बोले-'हां, मैं नाचना जानता हूं, तुम वाद्य बजाओ।' वे वाद्य बजाने लगे पर वे बजाना नहीं जानते थे। मुनि बोले- 'ऐसे ही ढोंगी हो तुम, बजाना भी नहीं जानते।' यह सुनकर दोनों कुपित हो गए। वे दोनों उस पर प्रहार करने दौड़े। मुनि ने उन दोनों के शरीर के संधि-स्थलों को क्षुभित कर दिया। पहले उन दोनों की पिटाई की। पीटे जाने पर वे दोनों जोर-जोर से चिल्लाने लगे। अनेक परिजन इकट्ठे हो गए। मुनि के जाने के बाद परिजनों ने देखा कि वे दोनों न तो जीवित हैं और न मृत। उनकी दृष्टि स्थिर है। राजा को सारा वृत्तान्त ज्ञात हुआ। राजा ने दोनों को मुक्त कर दिया। फिर राजा अपनी सेना के साथ मुनियों के पास आया। वह मुनि भी एक ओर बैठा-बैठा आगमों का परावर्तन कर रहा था। राजा ने आचार्य के चरणों में प्रणिपात कर प्रार्थना के स्वरों में कहा-'भगवन् ! आप कृपा करें।' आचार्य बोले- 'मैं कुछ भी नहीं जानता। यहां एक अतिथि मुनि आया है, संभव है यह उसी का काम हो।' राजा उस मुनि के पास गया और उसे पहचान लिया। मुनि ने ओजस्वी वाणी में राजा से कहा-'तुमको धिकार है। राजा होकर भी तुम अपने पुत्र पर अनुशासन नहीं कर सके।' राजा दि दोनों प्रव्रजित हो जाएं तो मुक्त हो सकते हैं।' यह सुनकर राजा और पुरोहित दोनों ने दीक्षा की अनुमति दे दी। जब दोनों स्वस्थ हो गए तो दीक्षा के बारे में पूछने पर वे सहर्ष तैयार हो गए। पहले उन दोनों का लोच किया फिर उनको मुक्त करके दीक्षित किया। दीक्षित होकर राजपुत्र शुद्धभाव से चारित्र पालन करने लगा। पुरोहितपुत्र को जाति का मद था। वह सोचता था कि हमें बलात् दीक्षित किया गया है। फिर भी संयम-जीवन यापन कर वे दोनों देवलोक में उत्पन्न हुए। उस समय कौशाम्बी नगरी में तापस नामक सेठ रहता था। वह मरकर अपने ही घर सूअर की योनि में उत्पन्न हुआ। शूकर के भव में उसे जातिस्मृति ज्ञान हो गया। सेठ के पुत्रों ने उसी दिन उस सूअर को मार दिया। वह पुनः अपने ही घर में सर्प के रूप में पैदा हुआ। सांप के भव में भी उसे जातिस्मृति ज्ञान की प्राप्ति हो गयी। सांप किसी को डस न ले इसलिए उसे मार डाला गया। Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक वहां से मरकर वह अपने ही पुत्र के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। वहां भी जातिस्मृति होने से उसनें सोचा- 'मैं अपनी पुत्रवधू को मां तथा पुत्र को पिता कैसे कहूंगा?' यह सोचकर उसने मौनव्रत स्वीकार कर लिया। माता-पिता ने अनेक उपाय किए लेकिन वह नहीं बोला । जब वह बड़ा हुआ तब चार ज्ञान के धनी स्थविर मुनि वहां आए। उन्होंने अपने ज्ञान से जाना कि यह संबुद्ध होगा । साधु उसके घर जाकर बोले- 'तापस! इस मौन व्रत को स्वीकार करने से क्या? धर्म के रहस्य को समझकर उसे स्वीकार करो।' साधुओं की बात सुनकर वह विस्मित हो गया कि इन्होंने मेरे मन की बात कैसे जानी ? उसने प्रणाम करके पूछा - ' आपने यह कैसे जाना ?' साधुओं ने कहा- 'हमारे गुरु सब जानते हैं।' वह आचार्य के पास आया। उनके चरणों में वंदना की और श्रावकधर्म स्वीकार किया । उसका मूल नाम अशोकदत्त था लेकिन फिर मूक हो गया। ४९८ इधर पुरोहितपुत्र जो देवलोक में उत्पन्न हुआ था, उसने महाविदेह क्षेत्र में जाकर सीमंधर स्वामी से पूछा- 'मैं सुलभबोधि हूं या दुर्लभबोधि ?' सीमंधर स्वामी ने उत्तर दिया--' तुम दुर्लभबोधि हो ।' पुन: उसने पूछा-'मैं यहां से च्युत होकर कहां उत्पन्न होऊंगा ?' भगवान् ने कहा- ' कौशाम्बी नगरी में तुम मूक के भाई बनोगे। तुम्हारा वह मूक भाई दीक्षित हो जायेगा ।' वह देव भगवान् को वंदना कर मूक के पास गया। बहुत सा धन देकर उसने मूक से कहा- 'मैं देवलोक से च्युत होकर तुम्हारे भाई के रूप में उत्पन्न होऊंगा । उस समय माता को आम खाने का दोहद उत्पन्न होगा। मैंने अमुक पर्वत पर सदाबहार आम का वृक्ष आरोपित कर दिया है। - तुम माता को कह देना कि तुम्हारे पुत्र होगा । यदि मां दोहद के लिए आम मांगे तो तुम कहना कि यदि तुम उत्पन्न होने वाले पुत्र को मेरे साथ दीक्षित कर दोगी तो मैं आम ला दूंगा। मेरे जन्म के पश्चात् ऐसा प्रयत्न करते रहना जिससे मुझे धर्मबोध मिलता रहे तथा मैं संबुद्ध होता रहूं।' मूक ने यह बात स्वीकृत कर ली । देव भी संतुष्ट होकर वापिस चला गया। कुछ समय पश्चात् वह देव (पुरोहित - पुत्र) वहां से मूक की माता के गर्भ में उत्पन्न हुआ। माता को अकाल में आम खाने का दोहद उत्पन्न हुआ । मूक ने सभी कार्य वैसा ही किया जैसा देव ने कहा था। समय आने पर बालक का जन्म हुआ। वह मूक अपने छोटे भाई को बचपन में ही. साधुओं के यहां वंदना करने ले जाता । साधुओं के चरणों में सिर रखने पर वह रोने लगता, वंदना नहीं करता। कुछ समय बाद संतों से प्रतिबोधित होकर परिश्रान्त और संतप्त मूक ने दीक्षा ग्रहण कर ली । वह श्रामण्य का सम्यक् पालन करके देवलोक में उत्पन्न हुआ। देव ने अवधिज्ञान से भाई की अवस्था देखी तो प्रतिबोधित करने के लिए उसके पेट में जलोदर की व्याधि उत्पन्न कर दी । रोग के कारण वह उठ भी नहीं सकता था। सभी वैद्य उपचार करके हार गए । कुछ समय बाद डोंब का रूप धारण कर वह देव वहां आया। डोंब ने घोषणा की - 'मैं सभी रोगों को शांत कर सकता हूं।' तब वह दर्द से तड़फते हुए बोला- 'मेरा उदर रोग शांत कर दो।' देव रूप वैद्य ने कहा - ' तुम्हारा रोग असाध्य है। यदि तुम मेरे साथ चलो तो तुम स्वस्थ हो सकते हो।' वह उसके साथ चलने के लिए तैयार हो गया। वैद्य ने उसे शस्त्रों का थैला लेकर चलने Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ४९९ के लिए कहा। वह थैला देव-माया से धीरे-धीरे भारी होता गया। लेकिन वह उसे लेकर चलने लगा। रास्ते में उन्होंने कुछ साधुओं को पढ़ते हुए देखा। वैद्य ने कहा-'यदि तुम दीक्षा ले लो तो तुम्हें इस भार से मुक्त कर सकता हूं, अन्यथा नहीं।' भार से खिन्न होकर उसने दीक्षा लेना ही श्रेष्ठ समझा। उसने दीक्षा की स्वीकृति दे दी। उसी समय बालक ने मुनि के पास दीक्षा ले ली।। देव के चले जाने पर वह शीघ्र ही श्रामण्य से खिन्न हो गया और गृहस्थ बन गया। देव ने अवधिज्ञान से देखा तो पुन: उसके उदर में जलोदर पैदा कर दिया और उसी उपाय से पुनः दीक्षित किया। इस प्रकार दो-तीन बार इसी उपाय से पुनः प्रतिबोधित किया। तीसरी बार वह मूक देव उसी के साथ रहने लगा। एक बार देव ने दूसरा उपाय सोचा। विहार के समय देव ने मनुष्य की विक्रिया की और वह हाथ में घास का गट्ठर लेकर जलते हुए गांव में प्रवेश करने लगा। यह देखकर मुनि बोला-'मूर्ख! तुम तृणभार को साथ में लेकर जलते गांव में क्यों प्रवेश कर रहे हो?' देव ने कहा---'तुम मुझसे ज्यादा मूर्ख हो क्योंकि तुम क्रोध, मान, माया और लोभ से जलते हुए गृहवास में प्रविष्ट हो रहे हो।' ऐसा कहने पर भी मुनि प्रतिबोधित नहीं हुआ। कुछ समय बाद वे दोनों अटवी में एक साथ चल रहे थे। चलते-चलते वह देव मार्ग को छोड़कर अटवी के उत्पथ की ओर जाने लगा। मुनि ने कहा-'अरे मूर्ख ! तुम मार्ग को छोड़कर कुमार्ग की ओर क्यों जा रहे हो?' देव ने मौका देखकर कहा- 'मैं तो अज्ञानी हूं लेकिन तुम मुनि होकर मोक्ष मार्ग को छोड़कर संसार रूपी अटवी में क्यों प्रवेश कर रहे हो?' ऐसा कहने पर भी मुनि प्रतिबोधित नहीं हुआ। पुनः प्रतिबोध देने के लिए देवता ने व्यंतर का रूप बनाया और देवकुल में ऊपर से नीचे गिरने लगा। यह देख मुनि बोला-'आश्चर्य है यह व्यंतर देव कितना दुर्भाग्यशाली है जो ऊपर रहता हुआ भी बार-बार नीचे गिर रहा है।' व्यंतर देव ने व्यंग्य में कहा–'तुम मुझसे भी ज्यादा दुर्भागी हो। मुनिपद के अर्चनीय स्थान को छोड़कर संयम से बार-बार स्खलित हो रहे हो।' यह बात सुन मुनि ने पूछा-'तुम कौन हो?' देवता ने अपना मूल मूक का रूप बनाया और पूर्वभव का सारा वृत्तान्त कहा। मुनि ने कहा-'इसका क्या प्रमाण है कि पूर्वभव में मैं देव था।' विश्वास दिलाने के लिए देव उस मुनि को वैताढ्य पर्वत पर ले गया। वहां सिद्धायतन कूट पर पहले ही संकेत-चिह्न कर दिया था। वहां सिद्धायतन की पुष्करिणी में नामांकित कुंडल-युगल दिखाए। अपने नामांकित कुंडल युगल को देखकर मुनि को जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। वह संबुद्ध होकर पुन: दीक्षित हो गया। अब उसके मन में संयम में रति उत्पन्न हो गयी। १०. स्त्री परीषह । प्राचीन काल में क्षितिप्रतिष्ठित नामक एक नगर था। जब वह उजड़ गया तब चणकपुर नाम का नगर बसाया गया। उसके उजड़ने पर ऋषभपुर, फिर राजगृह, फिर चंपा और अन्त में पाटलिपुत्र नगर बसाया गया। १. उनि.९९,१००, उशांटी.प. १००-१०३, उसुटी.प. २५-२७। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० नियुकिपंचक पाटलिपुत्र नगर में नंद वंश का नौवां राजा नंद राज्य करता था। वहां कल्पक वंश में उत्पन्न चार बुद्धियों से युक्त शकडाल नाम का मंत्री था। उसके दो पुत्र थे-स्थूलिभद्र और श्रीयक। वहां वररुचि नामक एक भट्टपुत्र रहता था। वह प्रतिदिन प्रशंसावाचक १०८ श्लोकों से राजा की स्तुति करता था। राजा प्रसन्न हुआ। उसने अपने मंत्री शकडाल की ओर देखा लेकिन उसकी आंखों में प्रशंसा के भाव नहीं थे अतः राजा ने उसे पारितोषिक रूप में कुछ भी नहीं दिया। वररुचि ने इसका कारण जाना और शकडाल की पत्नी को कहा कि आप शकडाल को कहें कि वे मेरे द्वारा पढे हए श्लोकों की राजा के सामने प्रशंसा करें। अनुकूलता देखकर पत्नी ने शकडाल से यह बात कही। शकडाल ने सोचा-'यह ठीक नहीं है, फिर भी पत्नी की बात मानकर शकडाल ने उसके पढ़े हुए श्लोकों पर ताली बजा दी। शकडाल को ताली बजाते देख राजा ने वररुचि को १०८ दीनारें पुरस्कार के रूप में दी। राजा प्रतिदिन उसे १०८ दीनारें देने लगा। शकडाल ने सोचा कि इस प्रकार प्रतिदिन दीनारें देने से राज्यकोष रिक्त हो जायेगा। एक दिन शकडाल ने नंद से कहा-'आप उसे प्रतिदिन इतनी स्वर्ण-मुद्राएं क्यों दे रहे हैं?' राजा ने कहा-'तुमने ही तो प्रशंसा की थी।' शकडाल ने कहा-'यह लौकिक काव्य अस्खलित रूप से पढ़ता है इसलिए मैंने इसकी प्रशंसा की थी।' राजा ने पूछा- क्या ये लौकिक काव्य हैं?' शकडाल ने कहा- मेरी यक्षा, यक्षदत्ता, भूता, भूतदत्ता, सेणा, बेणा और रेणा-ये सातों पुत्रियां भी इस काव्य को पढ़ना जानती हैं । यक्षा एक बार सुनते ही ग्रहण कर लेती थी। यक्षदत्ता दो बार सुनकर किसी भी चीज को अस्खलित सुना देती थी। यावत् रेणा सात बार सुनकर सुना देती थी। दूसरे दिन राजा ने अत:पुर में पर्दे के पीछे सातों कन्याओं को बिठा दिया। समय पर वररुचि आया और प्रशस्ति-श्लोक पढ़ने लगा। उसके बाद राजा के आदेश से यक्षा ने वे सारे श्लोक सुना दिए। इस प्रकार सातों कन्याओं ने क्रमशः वे श्लोक सना दिए। राजा को विश्वास हो गया. अत: वररुचि को पुरस्कार देना बंद कर दिया। वररुचि ने दुःखी होकर एक उपाय सोचा। उसने एक यंत्र बनाया और गंगा नदी के बीच रख दिया। उसमें ८०० दीनारों की एक पोटली रखकर यह प्रचारित किया कि गंगा नदी मेरा स्तुति-पाठ सुनकर स्वर्णमय हाथों से ८०० दीनारें देती है। लोगों ने कई बार उस दृश्य को देखा। राजा के पास भी गंगा द्वारा दीनार दिए जाने की बात पहुंची। वररुचि गंगा स्नान कर उस यंत्र के पास खडा रहकर गंगा का स्ततिपाठ करता और यंत्र को पैर से दबाता। इतने में ही एक कनकमय हाथ दीनारों की थैली लिए ऊपर उठता और वररुचि दीनारों की पोटली ले लेता। लोगों को यंत्र की बात ज्ञात नहीं थी। 'गंगा वररुचि को ८०० मुद्राएं देती है', राजा ने मंत्री को यह बात कही। शकडाल ने सोचा कि यह यंत्र के प्रयोग से ऐसा कर अपनी झूठी प्रशंसा कर रहा है। मंत्री ने राजा से कहा-'यदि मेरे सामने गंगा स्वर्णमुद्राएं देगी तो मैं विश्वास करूंगा।' सन्ध्या के समय मंत्री ने अपने विश्वस्त व्यक्ति को प्रच्छन्न रूप से गंगा के तट पर भेजा। वररुचि स्नान करने आया और चारों ओर किसी व्यक्ति को न देखकर यंत्र में स्वर्णमुद्रा की पोटली रखकर अपने घर वापिस आ गया। वररुचि के लौट जाने पर व्यक्ति ने यंत्र से पोटली निकालकर मंत्री को दे दी। प्रात:काल मंत्री के साथ राजा गंगा के किनारे आया। वररुचि ने गंगा की स्तुति की। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५०१ उसने पैर से यंत्र को दबाया पर कुछ भी नहीं मिला। वह तिलमिला उठा। राजा ने उसके दंभ को देखकर उसकी भर्त्सना की। मंत्री ने लोगों के सामने वह पोटली दिखा दी और सायंकाल वाली सारी बात बता दी। लोगों ने भी उसका तिरस्कार किया। द्वेष को प्राप्त वररुचि मंत्री के दोषों को ढूंढ़ने लगा। वह पुनः राजा के पास आने-जाने लगा। राजा को मंत्री के दोष बताने लगा लेकिन राजा ने विश्वास नहीं किया। एक बार श्रीयक के विवाह में राजा को भेंट देने के लिए तैयारी की जाने लगी। वररुचि ने एक दासी से यह ज्ञात कर लिया कि राजा के लिए भोजन और अन्य सरंजाम किया जा रहा है। वररुचि ने सोचा कि यही अवसर है। उसने बच्चों को मोदक देकर यह गाथा याद कराई रायनंदु न वि याणइ, जं सगडालु करेसइ। रायनंदुं मारेत्ता, सिरियं रजि ठवेसई॥ 'राजा नंद नहीं जानता कि यह शकडाल क्या करने वाला है? यह नंद को मारकर श्रीयक को राजा बनाएगा।' बच्चे गली-गली में यह गाथा गाने लगे। राजा ने यह सुना और खोज करवाई। 'शकडाल के यहां सारा सरंजाम है' यह जानकारी मिली। राजा कुपित हो गया। जैसे-जैसे शकडाल राजा के पैरों में झुकने लगा वैसे-वैसे राजा और अधिक पराङ्मुख होता गया। उसका क्रोध शांत नहीं हुआ। शकडाल ने सोचा-'राजा का क्रोध अत्यंत अनियंत्रित, विकराल और अज्ञात है। इस क्रोध का कितना भयंकर परिणाम हो सकता है? मेरे एक के वध से कुटुम्ब का वध रुक सकता है-यह चिंतन करके शकडाल अपने घर पहुंचा और राजा के अंगरक्षक अपने पुत्र श्रीयक से कहा-'संकट का समय उपस्थित हुआ है। उसका समाधान तथा राजा को विश्वास दिलाने का उपाय यह है कि जैसे ही मैं राजा के चरणों में प्रणाम करूं वैसे ही तुम तत्काल मेरा शिरच्छेद कर देना।' यह सुनकर श्रीयक रोने लगा। वह बोला-'क्या मैं कुल का क्षय करने के लिए उत्पन्न हुआ हूँ जो आप मुझे ऐसा जघन्य कार्य करने का आदेश दे रहे हैं? अधिक क्या कहूं? आप राजा के समक्ष मेरा शिरच्छेद कर डालें। कुल के ऊपर आए उपसर्ग के लिए मेरी बलि दे डालें।' मंत्री ने कहा-'तुम कुल का क्षय करने वाले नहीं, बल्कि कुल के क्षय का अंत करने वाले हो। मुझे मारे बिना तुम कुल-क्षय के अंतकर नहीं होओगे, इसलिए मेरे आदेश का पालन करो। श्रीयक ने कहा-'जो होगा वह देखा जाएगा लेकिन में गुरुस्थानीय पिता का वध नहीं करूंगा।' तब मंत्री ने कहा-'ठीक है, मैं स्वयं तालपुट विष खाकर अपने प्राण त्याग दूंगा। फिर तुम मरे हुए मुझ पर खड्ग चला देना। 'बड़ों का वचन अलंघनीय होता है ' अत: तुम्हें यह कार्य करना होगा। यह समय आक्रन्दन करने का नहीं है। तुम संकट में पड़े कुल का उद्धार करो और मुझे अयश के कीचड़ से बाहर निकालो।' श्रीयक ने सोचा-'मेरे जीवन में कैसा संकट उत्पन्न हुआ है। एक ओर गुरुवचन का उल्लंघन है और दूसरी ओर गुरु के शरीर का व्यापादन। मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है कि मुझे क्या करना चाहिए? यदि मैं स्वयं का घात कर लूं फिर भी कुलक्षय और अयश तो वैसा ही रहेगा।' 'बड़ों के वचन अलंघनीय होते हैं ' ऐसा सोचकर उसने पिता की बात स्वीकार कर ली। श्रीयक राजा के पास गया। उसके पीछे-पीछे शकडाल आ गया। शकडाल को देखकर राजा ने अपना मंह दूसरी ओर कर लिया। शकडाल ने राजा से बात करनी चाही पर राजा ने कोई उत्तर नहीं दिया। Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ नियुक्तिपंचक शकडाल राजा के चरणों में गिर पड़ा। रोष से राजा ने अपना मुंह फेर लिया। मंत्री ने जैसे ही तालपुट विष मंह में लिया श्रीयक ने अपने पिता शकडाल का शिरच्छेद कर दिया। सभा में हाहाकार मच गया। राजा ने कहा-'यह क्या किया?' श्रीयक ने कहा-'देव! यह आपकी आज्ञा का अतिक्रमण करने वाले हैं इसीलिए चरणों में गिरने पर भी आप इन पर प्रसन्न नहीं हुए। मैं राजा का अंगरक्षक हूं अतः जो राजा की आज्ञा का उल्लंघन करता है वह चाहे पिता ही क्यों न हो, मुझे नहीं चाहिए। आपने मुझे ऐसे स्थान पर नियुक्त किया है अत: मुझे यह करना पड़ा।' राजा ने सोचा- ऐसे निस्पृह लोगों के बारे में भी लोग अन्यथा सोचते हैं। निश्चित ही यह वररुचिकृत प्रपंच है। ओह ! मैंने कैसा अकार्य कर डाला जो शकडाल जैसे मंत्री की उपेक्षा करता रहा। अब मैं श्रीयक को मंत्रीपद पर स्थापित करूंगा। राजा बोला-'श्रीयक! विषाद मत करो। मैं तुम्हारे सारे कार्य संपादित करूंगा।' इस प्रकार आश्वासन देकर राजकीय वैभव के साथ शकडाल का अग्नि-संस्कार किया गया। शकडाल की मृत्यु के पश्चात् नंद ने श्रीयक को मंत्री-पद स्वीकार करने के लिए कहा। श्रीयक ने कहा-'मेरे बड़े भाई बारह वर्षों से कोशा के यहां हैं अत: पहले आप उनसे पद-ग्रहण करने के लिए कहें।' स्थूलिभद्र को मंत्रीपद देने के लिए बुलाया गया तो उन्होंने कहा कि मैं चिन्तन करूंगा। स्थूलिभद्र अशोक-वाटिका में जाकर चिंतन करने लगे। उन्होंने चिंतन किया कि ये कामभोग मूर्ख और विक्षिप्त व्यक्तियों के लिए हैं। इनसे व्यक्ति नरक की यातनाएं भोगता है। संसारअटवी में परिभ्रमण करता है। कामभोग आपातभद्र और परिणाम-विरस होते हैं । ऐसा सोचकर उसी समय पंचमुष्टि लोच कर वे प्रव्रजित हो गए और ओढ़े हुए कम्बल को फाड़कर उसका रजोहरण बना लिया। दीक्षित होकर स्थूलिभद्र राजा के पास आए। राजा ने उनके चिन्तन की सराहना की। मुनि स्थूलिभद्र महल से बाहर जाने लगे। राजा के मन में शंका उभरी कि यह मुनि तो बन गया है पर वेश्या से मोह नहीं छूटा होगा अतः राजा ने प्रासाद के ऊपरी भाग पर चढ़कर देखा लेकिन स्थूलिभद्र तो पूर्ण विरक्त हो गए थे। वे चले जा रहे थे। रास्ते में एक मृत कलेवर पड़ा था। स्थूलिभद्र मुनि समभाव से उसके पास से गुजर गए। राजा ने सोचा कि लोग मृत कलेवर से दूर हटकर चल रहे हैं। अपने नाक को ढंक रहे हैं पर स्थूलिभद्र मुनि समभाव से चल रहे हैं। निश्चित ही इनमें विरक्ति प्रगाढ़ हैं तब राजा ने छोटे भाई श्रीयक को मंत्री बना दिया। श्रीयक भाई के स्नेह से कोशा वेश्या के पास गया पर वह स्थूलिभद्र के अतिरिक्त किसी पर अनुरक्त नहीं हुई। कोशा की छोटी बहिन का नाम उपकोशा था। वररुचि उसके साथ रहता था। श्रीयक वररुचि का छिद्रान्वेषण करने लगा। वह अपनी भोजाई कोशा से बोला-'इस वररुचि के कारण पिता की मृत्यु तथा भाई का वियोग हुआ है। तेरा भी स्थूलिभद्र से वियोग हो गया। अब तुम इसको कभी सुरापान कराना।' तब कोशा ने उपकोशा से कहा-'तुम सुरापान कर मत्त हो जाना। यह वररुचि अमत्त रहेगा। तुम मदिरा पिलाना चाहोगी फिर भी वह अयथार्थ प्रलाप करेगा। लेकिन तुम उसे सुरा पिला देना।' दूसरे दिन उपकोशा ने उसे सुरा पिलाना चाहा। वररुचि ने आनाकानी की। वह बोली-'अब तुमसे मेरा क्या प्रयोजन?' तब वररुचि ने उसके वियोग को सहन न कर सकने के कारण उपकोशा Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं की इच्छा को बहुमान देते हुए चन्द्रप्रभ नामक सुरा पी ली। लोगों ने जाना कि यह दूध पी रहा है। कोशा ने सारा वृत्तांत श्रीयक को बता दिया। एक बार राजा ने श्रीयक से कहा-'श्रीयक ! तुम्हारे पिता शकडाल मेरे बहुत हितैषी थे।' श्रीयक बोला-'हां, राजन् ! किन्तु इस मत्त वररुचि ने सारा अनर्थ कर डाला।' राजा बोला-'क्या वररुचि मद्यपान करता है?' श्रीयक बोला-हां। राजा ने पूछा-कैसे? श्रीयक बोला-'आप स्वयं उसे देखें।' इतने में ही वररुचि राजा के समक्ष आ गया। तब राजा ने एक व्यक्ति को मदनफल से भावित कमल पुष्प देकर कहा-'जाओ, यह पुष्प वररुचि को दे आओ और ये दूसरे फूल दूसरों को दे देना।' उस व्यक्ति ने सभा में आए वररुचि को पुष्प दे दिए। उसने उनको सूंघा। यह मद्यपान करता है, यह जानकर तिरस्कार करके उसे सभा से बाहर निकाल दिया। चतुर्वेद को जानने वाले ब्राह्मण ने उसको प्रायश्चित्त दिया। उसे गर्म शीशा पिलाया, जिससे वह मर गया। स्थूलिभद्र मुनि सम्भूतविजयजी के पास दीक्षित हो गए। वहां घोर तपश्चर्या करने लगे। एक बार विहार करते हुए उनका संघ पाटलिपुत्र पहुंचा। वहां तीन साधुओं ने अभिग्रह स्वीकार किए। पहले साधु ने आचार्य को निवेदन किया कि मैं सिंह की गुफा में चातुर्मास बिताऊंगा। दूसरे ने सर्प की बांबी पर तथा तीसरे ने कुए की मेंढ़ पर चातुर्मास करने की प्रतिज्ञा ली। स्थूलिभद्र मुनि ने कोशा वेश्या के यहां चातुर्मास करने की प्रार्थना की। आचार्य ने चारों को स्वीकृति प्रदान कर दी। पहले साधु की साधना से सिंह उपशांत हो गया। दूसरे की साधना से दृष्टिविष सर्प शांत हो गया। तीसरे ने निर्भयता से कुए की मेंढ़ पर चातुर्मास बिताया। स्थूलिभद्र को अपनी चित्रशाला में देखकर कोशा की प्रसन्नता का पार नहीं रहा। उसने सोचा-मुनि परीषह से पराजित होकर यहां आए हैं। कोशा वेश्या ने करबद्ध पूछा-'मैं आपकी क्या सेवा करूं?' स्थूलिभद्र ने नीचे दृष्टि करके संयतवाणी में कहा-'मैं तुम्हारे यहां चातुर्मास बिताना चाहता हूं अत: उद्यान में स्थान की अनुमति दो।' उसने प्रसन्नतापूर्वक अपने उद्यान में स्थान की व्यवस्था कर दी। रात्रि में कोशा सोलह शृंगार कर उद्यान में मुनि के पास आयी। अनेक प्रकार के हावभाव से मुनि को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया लेकिन मुनि स्थूलिभद्र मेरु की भांति अपने संयम में अप्रकंप रहे । मुनि ने कल्याण की भावना से धर्म-वार्ता सुनायी। धर्म सुनकर वह प्रतिबुद्ध हो गयी तथा उसने श्रावक-व्रत स्वीकार कर लिए। सने संकल्प लिया कि राजाज्ञा के अतिरिक्त मैं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूंगी।। चार महीनों का उपवास कर सिंह गुफावासी मुनि आचार्य के पास पहुंचे। आचार्य ने कुछ उठकर कहा-'स्वागत है दुष्कर कार्य संपादित करने वाले तुम्हारा और सर्प की बांबी पर चातुर्मास सम्पन्न कर आए मुनि का।' जब स्थूलिभद्र चातुर्मास सम्पन्न करके आए तब आचार्य ससंभ्रम उठे और बोले-'स्वागत है, स्वागत है, अति दुष्कर अति दुष्कर कार्य सम्पन्न करने वाले तुम्हारा !' उन मुनियों ने जब यह देखा तो सोचा कि आचार्य का मुनि स्थूलिभद्र पर अमात्य-पुत्र होने के कारण अधिक स्नेह है इसीलिए इसका इतना स्वागत किया है। आचार्य ने पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया है। १. नियुक्तिगाथा तथा शान्त्याचार्य टीका में कुए की मेंढ पर चातुर्मास करने वाले मुनि की बात नहीं है। केवल ___ चूर्णि में यह प्रसंग मिलता है। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ नियुक्तिपंचक दूसरे वर्ष चातुर्मास के लिए सिंहगुफावासी मुनि ने आचार्य से निवेदन किया कि इस वर्ष मैं कोशा वेश्या के यहां चातुर्मास करना चाहता हूं। आचार्य ने ज्ञान द्वारा मुनि का भविष्य देखा इसलिए उसे बहुत मना किया। लेकिन मुनि आचार्य की आज्ञा की अवहेलना कर कोशा वेश्या के यहां गया। वहां उसने चातुर्मास व्यतीत करने की आज्ञा मांगी। वेश्या ने स्वीकृति दे दी। कोशा बिना शृंगार के भी नैसर्गिक रूप से बहुत रूपवती थी। कुछ ही दिनों में मुनि उसके अप्रतिम सौन्दर्य पर आसक्त हो गया। कोशा ने अपने अनुभवों से मुनि की आंतरिक इच्छा को जान लिया लेकिन वह श्राविका बन चुकी थी। मुनि के द्वारा भोगों की प्रार्थना किए जाने पर कोशा ने कहा-'इसके बदले तुम मुझे क्या दोगे?' मुनि ने कहा- 'मैं तुम्हें क्या दूं?' वेश्या बोली-'शतसहस्र दें।' अब मुनि शतसहस्र (लाख मुद्राएं) प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगा। कोशा ने कहा-'नेपाल देश का राजा श्रावक है। उसके पास जो व्यक्ति सर्वप्रथम पहुंच जाता है,उसे वह सवा लाख रुपयों के मूल्य वाला कम्बल देता है । वह कम्बल मुझे लाकर दो तो तुम्हारी प्रार्थना पर सोच सकती हूं।' मुनि कम्बल के लिए नेपाल देश गया। श्रावक राजा ने उसे शतसहस्र मूल्य वाला कम्बल दिया। कम्बल प्राप्त करके पुनः कोशा के पास आने के लिए उसने नेपाल देश से प्रस्थान किया। चलते-चलते एक स्थान पर चोरों की पल्ली आयी। चोरों ने वहां मार्ग अवरुद्ध कर रखा था। एक पक्षी अपनी सांकेतिक भाषा में बोला-'यह व्यक्ति सवा लाख मूल्य की वस्तु लेकर जा रहा है। सेनापति बाहर आया लेकिन मुनि को देखकर वापिस लौट गया। पक्षी की आवाज पुनः सुनकर सेनापति मुनि के पास आया। मुनि ने चोर सेनापति को यथार्थ बात बता दी। सारी बात सुनकर सेनापति ने मुनि को छोड़ दिया। मुनि कोशा के पास आया और बहुमूल्य कम्बल उसके हाथों में थमा दिया। कोशा ने कंबल से पैर पोंछकर उसे नाली में डाल दिया। यह देखकर मुनि ने कहा-'यह इतना कीमती कम्बल है, इसे मैं कितने परिश्रम से लाया हूं? लेकिन तुमने इसका नाश कर डाला।' अवसर देखकर कोशा ने कहा--'मुनिवर ! आप भी तो ऐसा ही कार्य कर रहे हैं। संयम-रत्न को छोड़कर काम-भोग रूपी कीचड़ में फंसना चाह रहे हैं।' समय पर दी गई वाणी की चोट से मुनि की धार्मिक चेतना जाग गयी। मुनि आचार्य के पास आए और आलोचना कर, प्रायश्चित्त ले शुद्ध होकर विहार करने लगे। आचार्य ने अनुशासना देते हुए कहा-'व्याघ्र और सर्प तो शरीर को पीड़ा दे सकते हैं पर ज्ञान, दर्शन और चारित्र को खण्डित करने में समर्थ नहीं हैं। मुनि स्थूलिभद्र ने सचमुच दुष्कर-महादुष्कर कार्य किया है क्योंकि पहले इसका गणिका के प्रति बहुत अनुराग था। अब वह श्राविका बन चुकी है।' आचार्य ने उस मुनि को उपालम्भ देते हुए कहा-'तुमने दोषों की अवगति प्राप्त किए बिना यह उपक्रम किया, यह तुम्हारे लिए श्रेयस्कर नहीं था।" ११. चर्या परीषह कोल्लकर (कोल्लाक) नामक नगर में संगम नामक बहुश्रुत आचार्य विहार कर रहे थे। उस नगर में दुर्भिक्ष का प्रकोप हो गया। आचार्य का जंघाबल क्षीण हो गया था अत: वे अन्यत्र विहार १. उनि.१०१-१०६, उशांटी.प. १०५-१०७, उसुटी.प.२८-३१ । Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं करने में असमर्थ थे। उन्होंने सिंह नामक शिष्य को अपना उत्तराधिकारी बना सुभिक्ष में विहार करने का आदेश दे दिया। वे उसी नगर के नौ भाग करके वहां भी मासकल्प से विहार करते थे । इस प्रकार वहां विहार करते हुए आचार्य को बारह वर्ष बीत गए। उनकी साधना से प्रभावित होकर नगरदेवी उनकी सेवा में ही रहती थी । उत्तराधिकारी सिंह मुनि ने दत्त नामक शिष्य को सुखसाता पूछने के लिए भेजा । वह शिष्य आचार्य के पास आया। दत्त मुनि ने सोचा कि आचार्य यहां नित्यवास करते हैं अतः इनके साथ रहने में दोष होगा यह सोचकर वह उपाश्रय के बाहर ठहरा और बिना भक्ति- बहुमान के वंदना की । भिक्षा के समय वह आचार्य के साथ गया । दुष्काल के कारण अज्ञात उंछ से यथेप्सित आहार प्राप्त नहीं हुआ। वह मन ही मन विक्षुब्ध हो गया। उसने सोचा- ' आचार्य मुझे सामान्य घरों में ले जा रहे हैं इसलिए आहार नहीं मिल रहा है।' गुरु ने ज्ञान से शिष्य के मन की बात जान ली। शिष्य को संक्लेश से बचाने हेतु दोनों एक श्रेष्ठि के यहां गए। वहां व्यंतर देवी के प्रभाव से उनका बच्चा छह महीने से निरंतर रो रहा था । उसे देखकर आचार्य ने चुटकी बजाकर कहा - 'तुम मत रोओ।' इतना कहने मात्र से बालक व्यंतर के प्रभाव से मुक्त हो गया। पारिवारिक लोगों ने प्रसन्न मन से यथेप्सित आहार दिया। वह आहार गुरु ने शिष्य को दे दिया। वे स्वयं बहुत समय तक घूमकर अंत-प्रांत भोजन लेकर आए। शिष्य ने सोचा कि गुरु ने मुझे तो केवल एक ही घर बताया है अन्य घरों में तो वे स्वयं गए हैं। संध्या के समय में प्रतिक्रमण के समय गुरु ने दत्त से कहा- 'वत्स! आज आहार की आलोचना करो।' दत्त ने कहा- ' 'मुझे कोई बात याद नहीं जिसकी आलोचना करूं।' गुरु ने कहा- 'शिष्य ! आज तुमने धात्रीपिंड आहार ग्रहण किया है।' शिष्य कुपित हो गया और उसने दोष की आलोचना नहीं की। उसने गुरु से कहा कि आप सूक्ष्मता से अपने दोषों की आलोचना करें। यह कहकर क्रोधावेश में वह अपने स्थान पर चला गया। यह गुरु की अवहेलना करता है इसलिए उसको सम्यक् प्रतिबोध देने के लिए देवता ने अर्धरात्रि में अंधकार और भयंकर जल-वर्षा प्रारम्भ कर दी । ५०५ शिष्य ठंडी वायु से क्षुब्ध हो गया। उसने आचार्य को आवाज दी। आचार्य ने वत्सलता से कहा- 'शिष्य ! यहां आ जाओ।' लेकिन उसे अंधकार में कुछ दिखाई नहीं दिया । दत्त ने कहामुझे अंधकार के अलावा कुछ नहीं दिखता है। आचार्य ने अपनी अंगुली दिखाई। वह दीप की भांति प्रकाशित हो रही थी। शिष्य ने सोचा- 'आचार्य दीपक भी रखते हैं।' उसके ऐसा चिंतन करने पर देवता ने उसकी भर्त्सना की । भयभीत होकर वह आचार्य के चरणों में गिर पड़ा और क्षमायाचना की। गुरु ने उसे नगर के नौ भागों की बात बताई। सारी बात सुनकर शिष्य को पश्चात्ताप हुआ। उसने गुरु से अपने दोषों की आलोचना की तथा स्वयं को शुद्ध कर लिया। १२. निषीधिका परीषह हस्तिनापुर नगर में कुरुदत्त नामक श्रेष्ठीपुत्र था । वह सर्वगुणसम्पन्न आचार्य के पास दीक्षित हो गया। एक बार कुरुदत्त मुनि एकलविहारप्रतिमा स्वीकार कर साकेत नगर में समवसृत हुए । अन्तिम १. उनि १०७, उशांटी. प. १०८, उसुटी. प. ३२ / Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ निर्युक्तिपंचक गुजरा। प्रहर में मुनि चौराहे पर प्रतिमा में स्थित थे । उस समय गायों को चुराकर कोई व्यक्ति उधर से गायों को खोजते हुए व्यक्ति वहां आए। उन्होंने मुनि को देखा। वहां से दो मार्ग जाते थे । वे मार्ग नहीं जानते थे। उन्होंने मुनि से पूछा - 'चोर किस रास्ते से गए हैं?' मुनि ने प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया । उत्तर न पाकर वे कुपित हो गए। वे मुनि के सिर पर मिट्टी की पाल बांधकर उसमें जलती हुई चिता अंगारों को रख कर चले गए। मुनि ने समभाव पूर्वक उस परीषह को सहन किया । " १३. शय्या परीषह कौशाम्बी नगरी में यज्ञदत्त नामक ब्राह्मण था । उसके सोमदत्त और सोमदेव नामक दो पुत्र थे। दोनों भाई संसार के कामभोगों से विरक्त होकर सोमभूति आचार्य के पास दीक्षित हो गए। वे बहुश्रुत और अनेक आगमों के ज्ञाता बन गए। एक बार वे दोनों ज्ञाति लोगों की बस्ती में गए। उज्जयिनी नगरी में उनके माता-पिता रहते थे । एक बार वे वहां भिक्षा के लिए गए। वहां के ब्राह्मण मद्यपान करते थे । उन्होंने अन्य द्रव्य में मदिरा मिलाकर उन मुनियों को भिक्षा दी। अजानकारी में पानी समझकर वह शराब उन्होंने पी ली। शराब का नशा उन पर छाने लगा। बाद में उन्होंने चिंतन किया- 'अहो ! यह हमने अकृत्य का आसेवन किया है। हमने बहुत बड़ा प्रमाद किया है अतः प्रायश्चित्त स्वरूप अब भक्त प्रत्याख्यान करना ही श्रेष्ठ होगा।' दोनों ने नदी के किनारे एक काष्ठ पर भक्त प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन संथारा स्वीकार कर लिया। वहां अकाल में ही वर्षा प्रारम्भ हो गयी। नदी में बाढ़ आने से वे पानी में बहते हुए समुद्र में चले गए। कष्ट आने पर वे मानसिक रूप से भी विचलित नहीं हुए। दोनों मुनियों ने सम्यक् प्रकार से शय्या परीषह को सहन किया ।२ १४. आक्रोश परीषह (अर्जुनमाली) राजगृह नगरी में अर्जुन नामक माली रहता था। उसकी पत्नी का नाम स्कन्द श्री था। राजगृह नगर के बाहर मुद्गरपाणि यक्ष का मंदिर था । अर्जुनमाली को यक्ष पर प्रगाढ़ आस्था थी । वह कुलदेवता के रूप में उसकी पूजा करता था । माली के उद्यान के रास्ते में ही यक्ष का मंदिर था । अर्जुन प्रतिदिन ताजे फूल लाकर यक्ष की पूजा करने जाया करता था । एक दिन स्कन्दश्री अपने पति को भोजन देने गयी । आते समय फूलों को लेकर वह घर जा रही थी। रास्ते में मंदिर में छह कामी पुरुषों ने स्कन्दश्री को देखा। वे उसके रूप और लावण्य पर मुग्ध हो गए। उन्होंने सोचा, यह भोग भोगने के लिए उपयुक्त है, ऐसा सोचकर उसे पकड़ लिया और यक्ष की मूर्ति के सामने ही उसके साथ भोग भोगने लगे । कुछ समय बाद अर्जुनमाली प्रतिदिन की भांति ताजे फूलों को लेकर यक्ष की अर्चना करने आया । अपने पति को देखकर उसने कहा- 'मेरा पति आ रहा है। क्या तुम मुझे छोड़ दोगे ?' कामी पुरुषों ने उसके मानसिक अभिप्राय को जानकर कहा - 'हम अभी उसको रस्सी से बांध देंगे। तुम्हें डरने की कोई आवश्यकता नहीं है।' उन लोगों ने अर्जुनमाली को रस्सी से बांध दिया। उसके सामने १. उनि १०८, उशांटी.प. १०९, ११०, उसुटी.प. ३३ । २. उनि १०९, ११० उशांटी.प. १११, उसुटी. प. ३४ । Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ही वे लोग उसकी पत्नी के साथ दुराचार करने लगे। स्कन्द श्री पति को उत्तेजित करने के लिए मोहोत्पादक स्त्री शब्दों में विलाप करने लगी । अर्जुनमाली यह घृणित दृश्य देख नहीं सका। उसकी आत्मा विद्रोह करने लगी। उसने चिंतन किया-'मैं प्रतिदिन ताजे फूलों से यक्ष की पूजा-अर्चना करता हूं लेकिन फिर भी मैं इसके सामने इतना क्लेश और पीड़ा का अनुभव कर रहा हूँ । यदि यक्ष में कोई शक्ति होती तो इतना क्लेश नहीं पाता। आज यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह केवल काठ की मूर्ति है, मुद्गरपाणी यक्ष की मूर्ति नहीं है।' इन शब्दों को सुनकर यक्ष ने अनुकम्पावश उसके शरीर में प्रवेश कर लिया । यक्ष के प्रभाव से उसके सारे बंधन तड़-तड़ टूट गए। उसने लोहमय मुद्गर लेकर उन छहों पुरुषों तथा अपनी पत्नी को यमलोक पहुंचा दिया। अब वह प्रतिदिन छह पुरुष और एक स्त्री को मारने लगा। जब तक वह सात व्यक्तियों को नहीं मार देता, राजगृह नगर से बाहर नहीं निकलता था । एक बार राजगृह नगरी में भगवान् महावीर समवसृत हुए। उस समय सुदर्शन भगवान् महावीर को वंदना करने निकला। रास्ते में अर्जुनमाली ने उसे देख लिया । वह सुदर्शन की ओर दौड़ा। सुदर्शन की दृष्टि अर्जुन पर पड़ी। सुदर्शन ने अर्हत्, सिद्ध, साधु और धर्म की शरण लेकर वहीं सागारिक अनशन लेकर कायोत्सर्ग कर लिया और नमस्कार मंत्र का जाप करने लगा। अर्जुनमाली बहुत परिश्रम करके भी सुदर्शन का अनिष्ट नहीं कर सका। वह उसके चारों ओर घूमता हुआ परिश्रान्त हो गया। वह उस विशिष्ट पुरुष को अनिमेष दृष्टि से देखने लगा । यक्ष अर्जुन के शरीर से निकल मुद्गर लेकर अपने स्थान पर लौट गया। अर्जुनमाली वहीं भूमि पर गिर पड़ा। सुदर्शन ने स्नेह - पूर्वक उसे उठाया और पूछा- तुम कहां जा रहे हो? सुदर्शन ने कहा- 'भगवान् महावीर को वंदना करने जा रहा हूं।' अर्जुनमाली भी उसके साथ भगवान् को वंदना करने गया । महावीर के मुख से देशना सुनकर वह वहीं प्रव्रजित हो गया। जब वह भिक्षा के लिए घूमता तब लोग कहते - 'यह हमारे स्वजन का घातक है', इस प्रकार वह अनेक प्रकार से तिरस्कृत होता। लेकिन मुनि अर्जुनमाली ने समतापूर्वक आक्रोश वचन सहन किए और कैवल्य प्राप्त कर लिया। ५०७ १५. वध परीषह (स्कन्दक) श्रावस्ती नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था । उसकी पटरानी धारिणी तथा युवराज स्कन्दक था। राजा की पुत्री का नाम पुरंदरयशा था । उसका विवाह कुंभकारकट नगर में दंडकी राजा के साथ किया गया। दंडकी राजा के पुरोहित का नाम पालक था। एक बार श्रावस्ती नगरी मुनिसुव्रतस्वामी पधारे। उनके समवसरण में अनेक व्यक्ति उपस्थित हुए। स्कन्दक भी देशना सुनने गया। धर्मवार्ता सुनकर उसने श्रावक व्रत स्वीकार कर लिये । एक बार पालक पुरोहित दूत के रूप में श्रावस्ती नगरी आया। सभा के बीच में ही वह जैन साधुओं की निंदा करने लगा। उस समय कुमार स्कन्दक ने अपनी तेजस्वी वाणी से उसे निरुत्तरित कर राज्य से बाहर निकाल दिया। इस घटना से उसके मन में स्कन्दक के प्रति रोष उमड़ पड़ा। उसी दिन से पालक गुप्तचरों के माध्यम से स्कन्दक का छिद्रान्वेषण करने लगा । १. उनि. १११, उशांटी.प. ११२ ११४, उसुटी. प. ३४, ३५ । Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ नियुक्तिपंचक कालान्तर में कुमार स्कन्दक पांच सौ व्यक्तियों के साथ मुनि सुव्रत तीर्थंकर के पास दीक्षित हुए। वे ज्ञानाभ्यास से बहुश्रुत हो गए। उनकी योग्यता का मूल्यांकन करके कुछ समय बाद मुनि सव्रत तीर्थंकर ने उन्हें पांच सौ शिष्यों का प्रमख बना दिया। एक बार स्कन्दक ने भगवान् को निवेदन किया कि मैं अपनी संसारपक्षीया बहिन पुरंदरयशा को प्रतिबोध देने जाना चाहता हूँ। यह सुनकर तीर्थंकर सुव्रत ने कहा-'वत्स ! वहां मारणान्तिक कष्ट आ सकता है।' 'उपसर्ग में हम सब आराधक होंगे या विराधक?' यह पूछने पर भगवान् ने प्रत्युत्तर दिया- 'तुमको छोड़कर अन्य सभी साधु आराधक होंगे।' उसने कहा-'अच्छा है, इतने मुनि यदि आराधक होते हैं तो शुभ है।' भगवान् के मनाही करने पर भी आचार्य स्कन्दक अपने पांच सौ मुनियों के साथ कुंभकारकट नगर में पहुंचे। सभी मुनि नगर के बाहर एक उद्यान में ठहरे। पालक को जब स्कन्दक मुनि के आने का वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो उसने उद्यान में गुप्त रूप से शस्त्र छिपा दिए। दूसरे दिन पालक ने राजा के पास आकर उनको भ्रमित करने के लिए कहा-'स्कन्दक मुनि परीषहों से पराजित होकर यहां आया है। वह बहिन से मिलने के बहाने यहां आपको मारकर राज्य ग्रहण करना चाहता है। यदि मेरी बात पर विश्वास न हो तो आप उद्यान में जाकर देखें, वहां अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र छिपाए पड़े हैं।' राजा ने गुप्तचरों को उद्यान में भेजा। छिपे शस्त्रों की बात जानकर राजा का विश्वास स्थिर हो गया। राजा ने सभी मुनियों का निग्रह कर पालक पुरोहित को सौंप दिया। पालक ने एक-एक कर पांच सौ मुनियों को कोल्हू में पील दिया। सभी मुनियों ने समतापूर्वक उस वध परीषह को सहन किया। पूर्ण समाधिस्थ रहने से सबको कैवल्य उत्पन्न हुआ और सभी सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गए। आचार्य स्कन्दक पास में खड़े थे। उन्होंने यह सारा दृश्य देखा। रुधिर से भरे कोल्हू यंत्र की ओर उनकी दृष्टि गई। उन्होंने कहा-'इस बाल मुनि को मैं यंत्र में पीलते हुए नहीं देख सकता अत: पहले मुझे पील दो।' पर उनके देखते-देखते छोटे शिष्य को यंत्र में पील दिया। यह दृश्य देखकर आचार्य स्कन्दक कुपित हो गए। उन्हें सबसे अंत में पीला गया। वे निदान कर अग्निकुमार देव के रूप में उत्पन्न हुए। उसी समय एक गृद्ध आचार्य स्कन्दक का रक्तलिप्त रजोहरण को पुरुष का हाथ समझकर उठाकर ले गया। साथ में पुरंदरयशा द्वारा दत्त कंबल भी था। वह रजोहरण पुरंदरयशा के सामने गिरा। रजोहरण और कंबल को देखते ही पुरंदरयशा ने पहचान लिया कि यह मेरे भाई का है। जब उसे ज्ञात हुआ कि मेरे भाई सहित सभी मुनियों को मरवा दिया है तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हो गयी। उसने राजा से कहा-'अरे पापिष्ट राजा ! तुमने आज विनाश का कार्य किया है। अब मैं स्वयं भी दीक्षा लेना चाहती हूं।' उसकी प्रबल भावना जानकर देवों ने उसे मुनि सुव्रत स्वामी के पास पहुंचा दिया। उधर अग्निकुमार देव ने अपने पूर्वभव का बदला लेने के लिए पूरे नगर को जलाकर भस्म कर डाला। आज भी वह क्षेत्र दण्डकारण्य कहलाता है। १. उनि.११२-१४, उशांटी.प. ११५, ११६, उसुटी.प. ३६, निभा.५७४०- ५७४३ चू.पृ. १२७, १२८ । Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५०९ १६. याचना परीषह द्वारिका नगरी देवनिर्मित और स्वर्णमयी थी। वह सब प्रकार से समृद्ध थी। वहां अर्द्धभरत का चक्रवर्ती वासुदेव राजा राज्य करता था। उसके दो भाई थे-बलदेव और जराकुमार । वे दोनों उससे ज्येष्ठ थे। उनके पिता वसुदेव थे। उनकी पत्नी जरा से जराकुमार उत्पन्न हुआ। शाम्ब, प्रद्युम्न आदि सभी कुमार साढ़े तीन करोड़ कुमारों के साथ सांसारिक भोगों का अनुभव करते हुए राज्य का उपभोग करते थे। एक बार सर्वज्ञ अरिष्टनेमि भगवान् भव्य लोगों के उद्धार हेतु वहां आए। देवताओं ने समवसरण की रचना की। चारों जाति के देव, यादव और वासदेव भी भगवान के दर्शनार्थ आए। भगवान् ने धर्म की देशना दी। धर्मकथा की समाप्ति पर वासुदेव ने पूछा-'धन, स्वर्ण, रत्न, जनपद, रथ और घोडे से समद्ध देवनिर्मित. यादवकल की इस द्वारिका नगरी का किससे और किस निमित्त से विनाश होगा?' भगवान् ने कहा-'यहां द्वीपायन नाम का परिव्राजक है। वह मद्यपान में उन्मत्त शाम्ब आदि राजकुमारों से अपमानित होने पर द्वारिका का विनाश करेगा तथा यादवकुल का अंत करेगा।' द्वीपायन पहले सोरियनगर के बाहर तापस आश्रम में पाराशर नामक तापस था। उसको एक अविनीत कन्या प्राप्त हुई। उसे लेकर वह यमुना नदी के द्वीप में आ गया इसलिए उसका नाम द्वीपायन पड़ गया। वह ब्रह्मचारी बेले-बेले का तप करता हुआ विचरण करता था। द्वीपायन ऋषि ने सुना कि सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान् अरिष्टनेमि ने कहा है कि मेरे निमित्त से द्वारिका नगरी तथा यदुवंश का विनाश होगा। यह दुष्ट कार्य मेरे द्वारा कैसे होगा यह सोचकर वह वन में चला गया। भगवान ने आगे कहा-'तुमने जो अपने मरण का कारण पूछा था, उसे सुनो-'तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता की पत्नी जरा से उत्पन्न जराकुमार से तुम्हारी मृत्यु होगी।' तब यादवों की जराकमार पर विषाद एवं शोकपूर्ण दष्टि रहने लगी। जराकमार ने सोचा-'अत्यन्त खेद की बात है कि किस प्रकार मैं वसुदेव का पुत्र होकर स्वयं ही छोटे भाई के विनाश का कारण बनूंगा।''अहो! यह तो महापाप होगा' ऐसा सोचकर कृष्ण की रक्षा हेतु यादवजनों से पूछकर और उन्हें प्रणाम कर जराकुमार वनवास में चला गया। जराकुमार के जाने पर हरि आदि यादव स्वयं को शून्य जैसा मानने लंगे। तब भगवान् अरिष्टनेमि को प्रणाम कर सारे यादव संसार की, विशेषत: द्वारिका नगरी की तथा यादववंश की अनित्यता का चिन्तन करते हुए अपनी नगरी में चले गए। नगर में प्रवेश करके वासुदेव कृष्ण ने घोषणा करवाई-'शीघ्र ही सारी सुरा और मद्य कादम्बवन की गुफा में ले जाओ क्योंकि भगवान् अरिष्टनेमि ने कहा है कि मद्यपान करके यादव कुमार द्वीपायन ऋषि को उत्पीड़ित करेंगे और वह कुपित होकर द्वारिका नगरी का विनाश कर देगा। कर्मकरों ने कृष्ण की आज्ञा का पूर्ण रूप से पालन किया। सारी सुरा कादम्ब-वन के शिलाकुंडों पर डाल दी गयी। पूरा कादम्ब-वन सुरा से भर गया। वह गुफा कादम्ब-वन से आच्छन्न थी, इसलिए उसे कादम्ब-वन गुफा कहा जाता था इसीलिए सुरा का नाम भी कादम्बरी प्रसिद्ध हो गया। बलदेव के भाई का नाम सिद्धार्थ था। उसके सारथि ने उसे स्नेहपूर्वक कहा-'भगवान् Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० नियुक्तिपंचक ने कहा है कि जन्म-जरा और मरण से युक्त इस क्षणभंगुर संसार में कोई वस्तु स्थिर नहीं है। विशेषतः हमारा जीवन तो स्थिर है ही नहीं अत: आप मुझे भगवान् के पास श्रामण्य स्वीकार करने की अनुज्ञा दें। बलदेव ने उसके निश्चय को जानकर कहा-'ठीक है, तुम प्रव्रज्या ग्रहण करो लेकिन विपत्ति में किसी भी प्रकार से तुम मुझे प्रतिबोधित करना।' सिद्धार्थ ने स्वीकृति दे दी। वह अपने स्वजनों से पूछकर भगवान् के पास दीक्षित हो गया। घोर तपश्चर्या कर वह छह मास में ही दिवंगत हो गया। इधर कादम्बवन की गुफा के शिलाकुंडों में उंडेली हुई वह सुरा छह मास में पक्चरस वाली हो गयी। वह स्वच्छ, स्वादु रस वाली, श्रेष्ठ, हृदय को सुख देने वाली और कर्केतन रत्न की आभा वाली हो गयी। शाम्बकुमार के पास रहने वाला मदिरालुब्ध पुरुष कादम्ब-वन की गुफा के पास गया। उसने वहां वह सुरा देखी। प्रसन्न होकर वह उसे पीने लगा। स्वादिष्ट होने के कारण वह अंजलि से चूंट पीने लगा। मद्यपायी व्यक्तियों ने उसे देखा। वे भी शीतल, स्वच्छ और स्वादु मदिरा को पीकर निर्भय होकर क्रीड़ा करने लगे। वह व्यक्ति शाम्बकुमार के पास गया और मदिरा वाली बात बताई। शाम्बकुमार वहां आया। उसने वारुणी मदिरा देखी। मदिरा पीने के बाद शाम्बकुमार ने चिंतन किया-'कुमारों के बिना मैं अकेला मदिरा-सुख का अनुभव नहीं कर सकता अत: कल मैं अपने साथ कुमारों को लेकर आऊंगा।' शाम्ब दुर्दान्त कुमारों को कादम्बरी गुफा के पास लेकर आया। उन्होंने श्रेष्ठ सरा को देखा। उसने कर्मकरों को आज्ञा दी कि इस वारुणी शराब को लेकर आओ। आज्ञा प्राप्त कर वे शराब लेकर आ गए। वे विविध वृक्ष,कुसुम आदि से युक्त रमणीय उद्यान में आए। शाम्ब ने कहा-'किसी भी प्रकार से छह मास से हमने यह सुरा प्राप्त की है अत: इच्छा के अनुसार सब पीओ।' सब मदिरा पीने लगे। वे उन्मुक्त होकर गाने, नाचने और परस्पर आलिंगन करने लगे। क्रीड़ा करते हुए वे पहाड़ के पास गये। वहां उन्होंने तप करते हुए द्वीपायन ऋषि को देखा। वे परस्पर बोलने लगे-'यह वही दुरात्मा है जिसको भगवान् अरिष्टनेमि ने द्वारिका का विनाशक कहा है। इस पापी और निष्कारण वैरी को हम क्यों न मार डालें?' तब वे रोषपूर्वक पैरों से, मुष्टि से तथा चपेटा के घात से निरपराध द्वीपायन ऋषि को मारने लगे। वह मरणासन्न जैसा धरती पर गिर गया। उसको पीटकर वे लोग द्वारिका आ गए। वासुदेव के निजी विश्वस्त पुरुषों ने सारी बात कृष्ण को बताई। कृष्ण ने सोचा-'ये कुमार बहुत दुर्दान्त हैं। अहो ! यौवन की अदीर्घदर्शिता! अब हम इन जीवन मात्र को धारण करने वाले कमारों का क्या करें?' श्रीकष्ण बलदेव सहित द्वीपायन ऋषि का अननय करने गए। उन्होंने कोप से कांपते हुए अधरों वाले द्वीपायन ऋषि को देखा। समयोचित सम्मान देकर वे बोले -'भो महातापस ऋषि ! क्रोध सब गुणों का विनाश करने वाला है। महासत्व और दान्त मुनि क्रोध के वशवर्ती नहीं होते। अज्ञानवश मद्य से प्रमत्त मूढ़ व्यक्तियों के अपराध पर महातपस्वी लोग ध्यान नहीं देते। इसलिए कुमारों ने जो दुश्चेष्टाएं की हैं उसके लिए हमें क्षमा कर दें।' इतना कहने पर भी द्वीपायन ऋषि ने जब रोष नहीं छोड़ा तो बलदेव ने कहा, भो नराधिप! अब प्रयत्न करना व्यर्थ है। जो इसने सोचा है वह उसे करने दो। क्या जिनेन्द्र की कही हुई बात अन्यथा हो सकती है? तब द्वीपायन ने कहा-'मारे जाते हुए मैंने एक बड़ी प्रतिज्ञा की थी कि बलदेव और कृष्ण-इन दो को छोड़कर द्वारिका का कुत्ता भी विनाश से नहीं बच सकता। अतः न ही जिनेश्वर Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५११ भगवान् का वचन व्यर्थ हो सकता और न ही मेरी प्रतिज्ञा अन्यथा हो सकती है अत: आप जाएं, अधिक विचार करने से क्या?' तब महाशोक से संतप्त मन से बलदेव और वासदेव नगरी में लौट आए। द्वीपायन के प्रतिज्ञा की बात पूरी नगरी में फैल गयी। दूसरे दिन पूरे नगर में बलदेव ने घोषणा करवाई कि सभी लोग उपवास आदि तपस्या में निरत हो जाएं धर्मध्यान में लीन हो जाएं। नगरी का वही परिणाम होने वाला है जो भगवान ने कहा है। इसी बीच भगवान् अरिष्टनेमि विहार करते हुए पुनः रेवतक पर्वत पर समवसृत हुए। यादव लोग भगवान् को वंदना कर अपने-अपने स्थान पर बैठ गए। धर्मकथा के अंत में संसार की अनित्यता से संवेग को प्राप्त प्रद्युम्न, निषध, शुक, सारण, शांब आदि कुमार भगवान् के पास प्रव्रजित हो गए। रुक्मिणी भी पूर्व कर्मों के भय से उद्विग्न होकर वासुदेव को कहने लगी-'भो राजन् ! संसार की ऐसी परिणति है और विशेषतः यादव कुल की अतः आप मुझे आज्ञा दें मैं दीक्षित होना चाहती हूँ।' तब कृष्ण ने वाष्पार्द्र आंखों से, बड़े दु:खी हृदय से रुक्मिणी को दीक्षा की आज्ञा दी। रुक्मिणी अन्य श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ प्रव्रजित हो गयी। यादव लोग अरिष्टनेमि को वंदना कर शोकविह्वल होकर द्वारिका नगरी वापिस चले गए। वासुदेव भी रुक्मिणी के विरह में स्वयं को श्रीविहीन समझने लगे। भगवान् अरिष्टनेमि भी भव्य-जनों को प्रतिबोध देने के लिए अन्यत्र चले गए। ___ वासुदेव कृष्ण ने दूसरी बार पूरी नगरी में घोषणा करवाई-'नागरिको! द्वीपायन ऋषि का महान् भय उत्पन्न हो गया है अतः विशेष रूप से धर्म में रत रहो। हिंसा, असत्य, अदत्त, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह को सभी यथाशक्य छोड़ें। आयम्बिल, उपवास, बेला, तेला आदि तप सभी यथाशक्य करें। नागरिक भी वासुदेव की बात स्वीकृत कर धर्म में संलग्न हो गए। द्वीपायन ऋषि भी अति दुष्कर बाल तप करके द्वारिका के विनाश का निदान कर भवनपति देवों में अग्निकुमार देव बना। उसने यादवों के कृत्य को याद किया। वह द्वारिका के विनाश हेतु आया पर विनाश करने में समर्थ नहीं हो सका क्योंकि सभी यादव तपस्या में निरत थे। वे देवता की अर्चना एवं मंत्रजाप में तत्पर थे अत: उनका कोई पराभव नहीं कर सका। द्वीपायन ऋषि छिद्रान्वेषण करने लगा। बारह वर्ष बीत गए। द्वारिका के लोगों ने सोचा कि द्वीपायन ऋषि अब निष्प्रभ और प्रतिहत तेज वाला हो गया है अतः वे पुनः आमोद-प्रमोद और क्रीडा करने लगे। वे कादम्बरी के पान से मत्त होकर रति-क्रीड़ा में मस्त हो गए। तब अग्निकुमार देवयोनि में उत्पन्न द्वीपायन ऋषि ने द्वारिका का विनाश करना प्रारम्भ कर दिया। उसने अनेक प्रकार के उपद्रव प्रारम्भ कर दिए। द्वीपायन ने संवर्तक वायु की विकुर्वणा की। प्रलयकाल के समान चलने वाली हवा से काष्ठ, तृण और पत्तों के समूह आवाज करते हुए नगर के अन्दर इकट्ठे होने लगे। ऋषि ने भीषण अग्नि प्रज्वलित कर दी। वह अधम देव बार-बार उद्यान से तरु, काष्ठ, लता और तृण आदि फेंकने लगा। धूएं और अग्नि के कारण एक घर से दूसरे घर में जाना भी संभव नहीं हो सका। पूरी द्वारिका नगरी चारों ओर से जलने लगी। अनेक मणि, रत्न और सोने से बने प्रासाद तड़-तड़ टूटकर पृथ्वी पर गिरने लगे। भेड़, हाथी, बैल, घोड़ा, गधा, ऊंट आदि पशु अग्नि से जलते हुए भीषण दारुण शब्द करने लगे। यादव लोग अपनी प्रियतमाओं के साथ जलने लगे। उनकी अंगनाएं हाहाकार और रुदन का दारुण शब्द करने लगीं। बलदेव और वासुदेव जलती हुई द्वारिका Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ नियुक्तिपंचक को देखकर विलाप करते हुए अपने पिता के घर आ गए। शीघ्र ही रोहिणी, देवकी और पिता को रथ पर बिठाकर तीव्र गति से चलने वाले बैल को उसमें जोड़ा पर वे अग्नि में जलते हुए रथ को खींचने में समर्थ नहीं हुए अत: बलदेव और वासुदेव स्वयं ही रथ को खींचने लगे। इसी बीच हा महाराज कृष्ण! हा बलराम! हा वत्स! हा नाथ! ऐसा करुण-विलाप सब घरों में सुनाई देने लगा। तब बलदेव और कृष्ण शीघ्रता से नगरद्वार के पास रथ को ले गए पर वहां दोनों रथ इंद्रकील (द्वार का एक हिस्सा) के द्वारा अवरुद्ध हो गए। उस इंद्रकील को बलदेव ने पैर से चूर्ण कर दिया तब वह द्वार अग्नि में जलने लगा। इसी बीच द्वीपायन ऋषि ने घोषणा की-'अरे ! मैंने पहले ही कहा था कि बलदेव और कृष्ण तुम दो को छोड़कर कोई भी नहीं बच सकेगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है।' तब वासुदेव ने अपने पैरों से आहत कर एक कपाट को धरती पर गिरा दिया और धूं-धूं कर जलते हुए दूसरे कपाट को बलराम ने गिरा दिया। तब वसुदेव ने देवकी और रोहिणी को कहा-'तुम्हारे जीवित रहने से यादव कुल की पुनः समुन्नति हो जाएगी।' अत: शीघ्रता से तुम निकल जाओ। माता-पिता के वचन सुनकर करुण विलाप करते हुए यादव लोग वहां से निकल गए। बाहर भग्न उद्यान में स्थित होकर वे जलती हुई द्वारिका को देखने लगे। द्वीपायन ऋषि ने देवशक्ति से नगरी के सारे द्वार बंद करके पूर्ण रूप से द्वारिका नगरी को जला दिया। बलराम का प्राणवल्लभ कुब्जवारक नामक छोटा लड़का चरिम शरीरधारी था, वह अपने भवन में ऊपर चढ़कर बोला-'अरे पार्श्वस्थित देवताओ ! मैं जिनेन्द्र अरिष्टनेमि का शिष्य हूँ। मैं समस्त प्राणियों के प्रति दया रखने वाला हूँ। मैं चरिमशरीरी हूं अतः इसी भव में मोक्ष जाऊंगा। यदि भगवान् के ये वचन सत्य हैं तो फिर ऐसा क्यों हो रहा है?' उसके ऐसा कहने पर जृम्भक देव वहां आए। उन्होंने जलते हुए भवन से उसे निकाला और पल्हवदेश में भगवान् के पास ले गए। कृष्ण की सोलह हजार देवियों ने समभाव पूर्वक अनशन कर लिया। सभी धर्मपरायण यादव महिलाओं ने अग्नि के भय से भक्त प्रत्याख्यान कर लिया। द्वीपायन ने नगर की ६० और ७२ कुलकोटियों को जला दिया। इस प्रकार छह मास तक उसने द्वारिका नगरी को जलाया। फिर पश्चिम समद्र में उसको प्लावित कर दिया। . बलदेव और वासुदेव-दोनों ने अत्यन्त शोक एवं व्याकुल मन से द्वारिका नगरी को देखा। आंसू से गीले नयनों से द्वारिका को देखकर उन्होंने सोचा-'अहो! यह संसार की असारता है। कर्मों की गति का वैचित्र्य है। सारा कार्य नियति के अधीन होता है।' कष्ण ने कहा-'सब परिजनों से रहित शोकाकुल और मरणासन्न तथा भय से उद्विग्न लोचन वाले हम अब कहां जाएं?' बलराम ने कहा-'पराक्रमी पांडव हमारे बांधव हैं अत: दक्षिण समुद्र में स्थित मथुरा नगरी चलते हैं।' कृष्ण ने कहा-'द्रौपदी के लाने के समय महागंगा उतरने के लिए उन्होंने हमें रथ को नहीं भेजा अतः सर्वस्व हरण कर हमने उन्हें निकाल दिया था। ऐसी स्थिति में हम उनकी नगरी में कैसे जाएं?' बलदेव ने कहा-'वे महापुरुष हमारे ही कुल में उत्पन्न परमबंधु हैं । वे किसी को परिभव बुद्धि से नहीं देखते। नीचकर्मा या क्रूरकर्मा व्यक्ति भी यदि घर पर आ जाए तो वे उसके साथ निष्ठर आचरण नहीं करते।' तब कृष्ण ने बलराम की बात स्वीकार कर ली। वे शरीर-कांति को छिपाते Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५१३ हुए पैदल ही पूर्व दिशा की ओर चलने लगे। सौराष्ट्र देश को पारकर वे हस्तिनाकल्प नगरी के बाहर पहुंचे। कृष्ण ने बलदेव से कहा-'मैं भूख और प्यास से व्याकुल हो रहा हूं।' तब बलदेव ने कहा–'मैं शीघ्र ही आपके लिए भक्तपान लाने के लिए जा रहा हूं। तुम भी जागरूक होकर यहां बैठे रहना। यदि मेरे इस नगरी में जाने पर कोई आपत्ति आई तो मेरा महाशब्द सुनकर तुम आ जाना।' ऐसा कहकर बलदेव हृदय में वासुदेव की स्मृति करता हुआ हस्तिनाकल्प नगर गया। वहां धृतराष्ट्र का पुत्र अच्छंदक नाम का राजा राज्य करता था। बलदेव ने अपने श्रीवत्स को वस्त्रों से आच्छादित कर नगरी में प्रवेश किया। वहां लोकापवाद हो गया कि नगरी में अग्नि से बलदेव वासुदेव आदि सभी बंधु जल कर नष्ट हो गए हैं। बलदेव को प्रमाण से भी अधिक सुरूप देखकर लोग विस्मित होकर कहने लगे-'अहो रूपसंपदा', 'अहो चन्द्रमा के समान कांति और सौम्यता!' इस प्रकार श्लाघा को प्राप्त करता हुआ बलदेव भोजनालय में गया। वहां अंगूठी बेचकर उसने भोजन और हाथ के कटक देकर मदिरा प्राप्त की। वह वहां से प्रस्थित होकर नगर-द्वार पर पहुंचा। उसे देखकर द्वार-आरक्षकों ने राजा को निवेदन किया-'कोई बलदेव जैसा पुरुष चोर की भांति दूसरों के चुराए हुए कटक और अंगूठी बेचकर भक्त-पान खरीदकर जा रहा है।' तब अच्छंदक राजा सशंकित होकर अपनी सेना के साथ वहां गया और बलराम से लड़ना प्रारम्भ कर दिया। बलराम ने कृष्ण को जताने के लिए महाशब्द किया। यह युद्ध का सांकेतिक शब्द था। वह भक्त और पान को छोड़कर पास के हाथी पर चढ़कर अच्छंदक की सेना को विदीर्ण करने लगा। तब तक कृष्ण भी शीघ्र ही वहां आ गए। नगर-द्वार को तोड़कर अर्गला को हाथ में लेकर उन्होंने अच्छंदक की सेना को विदीर्ण कर दिया और अच्छंदक को अपने वश में कर लिया। उन्होंने कहा-'अरे! दुराचारिन् ! क्या तू हमारे बाहुबल को भी नहीं पहचान पाया? अच्छा, हम तुम्हें मुक्त करते हैं। तू अपने राज्य का स्वच्छंदता से उपभोग कर।' उन्होंने अपना व्यतिकर बताया और वे वनखंड से शोभित उद्यान में चले गए। वहां वे अश्रुपूरित नेत्रों से 'नमो जिणाणं' कहकर लाए हुए अन्न-पानी को ग्रहण करने लगे। दोनों ने सोचा, पूर्वकाल में हम किस प्रकार से भोजन करते थे, उसका अनुभव करते हुए भी हमें आज इस प्रकार भोजन करना पड़ रहा है। सच है, क्षुधा और पिपासा को सहन करना अत्यन्त कठिन होता है। हमें ऐसा क्यों सोचना चाहिए? भगवान ने स्वयं कहा है-'प्रत्येक जन्म में सभी भावों की अनित्यता होती है।' ऐसा सोचकर कुछ आहार-पानी करके वे लोग दक्षिण दिशा में जाने लगे। चलते-चलते वे कोसुंब नामक वन में पहुंचे। मद्यपान एवं लवण युक्त भोजन करने से ग्रीष्मकाल में अत्यधिक पसीना निकल जाने से, शोकाकुल होने से तथा पुण्य-क्षय होने के कारण वासुदेव को अत्यधिक प्यास की अनुभूति हुई। कृष्ण ने बलराम से कहा-'भातृवत्सल भाई बलराम! प्यास से मेरा मुंह सूख रहा है। मैं शीतलवन तक जाने में भी समर्थ नहीं हूं।' यह सुनकर बलदेव ने कहा-'अति प्राणवल्लभ भाई ! तुम थोड़ी देर पेड़ की छाया में विश्राम करो तब तक मैं तुम्हारे लिए जल लेकर आता हूँ।' कृष्ण ने कौशेय वस्त्र से स्वयं को ढका और एक पैर को जानु के ऊपर रखकर सो गए। बलदेव ने कहा-'प्राणवल्लभ! तुम यहां जागरूक रहना।' बलदेव ने वन-देवताओं से कहा-'यह Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक मेरा भाई सभी लोगों को अत्यधिक प्रिय है विशेषतः मेरे दुःखी हृदय का प्राणवल्लभ है. अतः मेरा भाई तुम्हारी शरण में है तुम इसकी रक्षा करना।' यह कहकर बलराम पानी लेने चला गया। इसी बीच व्याध वेशधारी जराकुमार धनुष को हाथ में लिए हुए, प्रलंब केश धारण किए हुए, व्याघ्रचर्म से प्रावृत मृग को मारने के उद्देश्य से वहां आया। एक वृक्ष के नीचे कृष्ण तृषातुर होकर बैठे थे । उनको हरिण समझ कर जराकुमार ने धनुष चढ़ा तीक्ष्ण बाण फेंका। उस बाण ने कृष्ण के पैर के मर्मस्थान को बींध दिया। श्रीकृष्ण वेग से उठे और बोले- 'बिना अपराध के ही किसने मेरा पैर बाण से बींधा है? मैंने पहले किसी भी अज्ञातवंश वाले पुरुष को नहीं मारा है अतः जिसने यह बाण छोड़ा है वह शीघ्र ही अपना गोत्र बताए।' तब जराकुमार ने कुडंग के अंदर बैठेबैठे सोचा- 'यह कोई हरिण नहीं है। यह तो कोई पुरुष है, जो मुझसे गोत्र पूछ रहा है । इसलिए इसे मैं अपना गोत्र बताऊं ।' जराकुमार ने कहा- 'मैं हरिवंश कुल में उत्पन्न वसुदेव और जरा देवी क़ा पुत्र तथा पृथ्वी के एक मात्र वीर श्रीकृष्ण का ज्येष्ठ भ्राता जराकुमार हूं। 'श्रीकृष्ण की मृत्यु जराकुमार से होगी' अरिष्टनेमि के इन वचनों को सुनकर मैं अपने बंधुवर्ग को छोड़कर एक वन से दूसरे वन में घूम रहा हूँ । मुझे घूमते हुए बारह वर्ष बीत गए हैं। अब तुम अपना परिचय दो कि तुम कौन हो ?' कृष्ण ने कहा- 'आओ-आओ प्रिय सहोदर ! मैं जनार्दन हूँ। तुम्हारा और बलदेव का छोटा भाई हूँ । तुम मेरे प्राणों की रक्षा के लिए घूमते-घूमते यहां आए लेकिन तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ हो गया इसलिए तुम शीघ्र ही मेरे पास आओ।' ५१४ तब जराकुमार कृष्ण के पास आया। उसने कृष्ण की अवस्था देखी तब आंसू बहाता हुआ विलाप करने लगा - 'हा! मैंने मेरे भाई को मार डाला। मैं दुरात्मा हूं। हे पुरुषसिंह ! तुम यहां कहां से आ गए? क्या द्वीपायन ने द्वारिका जला दी? यादव नष्ट हुए या नहीं?' तब कृष्ण ने जैसा देखा और सुना था वह सब सुना दिया । जराकुमार विलाप करने लगा - 'मैं पापी हूँ। मैंने अच्छा किया कृष्ण का आतिथ्य-सत्कार ! अब मैं कहां जाऊं? मेरी सुगति कैसे होगी? भाई के घातक मुझको कौन देखना चाहेगा? हे केशव ! लोग तुम्हारा नाम अपने कंठों में धारण कर रखेंगे। मैं वनवासी बन गया पर मैंने क्रूरता से विपरीत आचरण कर डाला। अब मुझ पापी की बहुत अधिक गर्दा होगी। कहां हैं वे राजा ? कहां हैं उनकी हजारों रानियां? हे जनार्दन ! वे कुमार कहां हैं?' तब कृष्ण ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा - ' अरे जरानंदन ! भगवान् अरिष्टनेमि ने पहले ही कह दिया था कि संसार में सब प्राणी अपने-अपने कर्मों से अनेकों कष्ट पाते हैं। जो व्यक्ति इस भव में या परभव में जैसा शुभ या अशुभ कर्म करता है उसका फल उसे प्राप्त करना होता है। दूसरा तो निमित्त मात्र होता है इसलिए तुम उद्वेग मत करो। तुम्हारा कोई अपराध नहीं है यह तो कर्मों की विचित्र परिणति है । जिनेन्द्र का कथन कभी अन्यथा नहीं होता अत: तुम वक्षस्थल पर स्थित मेरी कौस्तुभ मणि को लेकर पांडवों के पास जाओ और उनको तुम सारी बात बता देना।' मेरी ओर से पांडवों को कहना कि द्रौपदी को ले जाने के समय सामर्थ्य का परीक्षण करने के लिए उन्होंने रथ नहीं भेजा तब मैंने उनका सर्वस्व हरण करके उनको बहिष्कृत कर दिया इसलिए वे मुझे क्षमा करें। 'सत्पुरुष क्षमाप्रधान होते हैं और विशेषतः बंधुजन तो क्षमाप्रधान होते ही हैं।' कृष्ण के कहने पर भी जराकुमार जाने के लिए तैयार नहीं हुआ । तब कृष्ण ने पुन: कहा - 'महाभाग ! शीघ्र जाओ। तुम जानते हो बलदेव Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५१५ का मेरे ऊपर बहुत अधिक स्नेह है। वह मेरी प्यास बुझाने हेतु जल लेने गया हुआ है। वह आते ही मुझे मरणावस्था में देखकर तुम्हें मार देगा अतः इन्हीं पैरों से तुम शीघ्रता से यहां से चले जाओ।' तब पादतल से बाण निकालकर जराकुमार वहां से चला गया। वासुदेव ने भी वेदना समुद्घात उत्पन्न होने पर नमस्कार महामंत्र का जप प्रारम्भ कर दिया। परमपूजा के योग्य अर्हतों को नमस्कार ! सुख और समृद्धि से युक्त सिद्धों को नमस्कार ! पांच आचारों का पालन करने वाले आचार्यों को नमस्कार ! स्वाध्याय-ध्यान में रत उपाध्यायों को नमस्कार ! साधना में संलग्न साधुओं को नमस्कार ! जिनेन्द्र अरिष्टनेमि को नमस्कार ,जो सकल आसक्तियों का त्याग करके महामुनि बन गए। कृष्ण ने तृण-संस्तारक बनाकर अपने शरीर को कपड़े से ढका और वीरासन में स्थित होकर सोचने लगे-'शांब, प्रद्युम्न, निरुद्ध, सारण आदि कुमार, यादव एवं रुक्मणी आदि रानियां धन्य हैं, जिन्होंने सारे संगों का त्याग कर भगवान् के पास प्रव्रज्या ग्रहण की है। मैं हतभागी तप और चारित्र का पालन किए बिना ही मर रहा हूँ। अचानक जीवन के अंतिम समय में कृष्ण ने शुभ भावों को विस्मृत कर दिया। वे सोचने लगे-'इस अकारण वैरी द्वीपायन ने नगरी को जला कर सारे यादवकुल का नाश कर दिया इसलिए वह महापापी मारने योग्य है। इस प्रकार अशुभ परिणामों से मृत्यु प्राप्त कर वे तीसरी नारकी में उत्पन्न हुए। इधर बलदेव शीघ्रता से कमलिनी के पत्तों का दोना बनाकर उसमें पानी लेकर कृष्ण की दिशा में चले। विपरीत शकुन हुए। वे वहां आए। जल को नीचे रखकर बलदेव ने सोचा-'मेरे हृदय को आनन्द देने वाला यह कृष्ण अभी सो रहा है। यह जब जागकर उठेगा तभी मैं इसे पानी दूंगा।' अत्यंत स्नेह होने के कारण, व्याकुल मन के कारण बलदेव कृष्ण की मौत को नहीं जान सके । कुछ समय बाद कृष्ण के शरीर के चारों ओर काली मक्खियां भिनभिना रही हैं, यह देखकर भयभीत होकर बलदेव ने कृष्ण के मुख से कपडा हटाया। 'अरे यह तो मर गया है' ऐसा सोचकर बलदेव पृथ्वी पर मूर्च्छित होकर गिर पड़े। मूर्छा टूटने पर बलदेव ने तीव्र सिंहनाद किया। उससे सारे पशु, पक्षी और वन कांप उठा। बलदेव ने विलाप करना प्रारम्भ किया-'यह मेरा भाई हृदयवल्लभ, पृथ्वी का एकमात्र वीर, जिस निर्दयी और दुष्ट व्यक्ति के द्वारा मारा गया है,वह यदि मेरा सच्चा हितैषी/सच्चा योद्धा है तो मेरे सामने आए। इस सुप्त, प्रमत्त और प्यास से व्याकुल मेरे भाई को क्यों मारा? निश्चित ही वह पुरुषों में अधम है, जिसने ऐसा जघन्य कार्य किया है।' इस प्रकार उच्च शब्दों में बोलता हुआ बलदेव वन में चारों ओर घूमता हुआ पुनः गोविंद के पास आया। वहां आकर वह उच्च स्वर में रोने लगा-'हा मेरे भाई! हा जनार्दन! हा समर्थ योद्धा! हा महारथी! हा हरिचंद ! तुम्हारी किस-किस बात पर रोऊं? क्या सौभाग्य था? क्या धीरज, बल, वर्ण और रूप था? तुम कहते थे 'बल' मेरा प्रिय भाई है। आज ऐसी विपरीतता क्यों? जिससे तुम उत्तर भी नहीं दे रहे हो? तुम्हारे विरह में मैं मंदभाग्य अकेला क्या करूंगा? अब कहां जाऊं? कहां रहूँ? किसको कहूं? किसको पूछू? किसकी शरण में जाऊं? किसको उपालम्भ दूं? किससे रोष करूं? मेरे लिए तो सारा संसार ही नष्ट हो गया। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ नियुक्तिपंचक अरे वन देवताओ ! मैंने जनार्दन को तुम्हें समर्पित किया था, तुम्हारी ऐसी उपेक्षा क्या उचित है? अरे जनार्दन ! आओ तुम सुना-अनसुना क्यों कर रहे हो? मैंने तुम्हारा क्या अपराध किया है? देवताओ! यह मेरा भाई कृष्ण मुझ पर कुपित हो गया है अत: करुणा से इसे प्रसन्न करो। हे सहोदर! सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा है। उठो, संध्योपासना का समय हो गया है। उत्तमपुरुष संध्यावेला में नहीं सोते। अत: उठो, अंधियारी काली रात आ गई है। क्रूर हिंसक प्राणी चारों ओर घूम रहे हैं। गीदड़, सियार शब्द करते हुए घूम रहे हैं।' इस प्रकार प्रलाप करते हुए प्रात: हो गया। बलदेव पुनः कृष्ण को संबोधित कर कहने लगे-'भाई! उठो, सूर्य उग गया है।' जब कृष्ण नहीं उठे तो स्नेह से विमूढ़ बना हुआ बलदेव कृष्ण के मृतक शरीर को अपने कंधे पर रखकर गिरि कानन में घूमने लगा। घूमते-घूमते वर्षाकाल आ गया। बलदेव का सिद्धार्थ नामक सारथि देवलोक को प्राप्त हुआ। अवधिज्ञान लगाकर उसने बलदेव को देखा। अत्यंत खेद के साथ उसने चिंतन किया-'स्नेहानुराग से किस प्रकार बलदेव वासुदेव कृष्ण के मृतक शरीर को ढो रहे हैं? इसलिए भातृवत्सल इस बलदेव को मैं प्रतिबोध दूंगा। तब देव ने पर्वत पर रथ को उतारते हुए एक पुरुष की विकुर्वणा की। वह रथ टेढ़ा-मेढ़ा चलता हुआ पर्वत पर भग्न नहीं हुआ बल्कि समभूमि पर उसके सैकड़ों टुकड़े हो गए। वह देव उन टुकड़ों का संधान करने लगा। यह देख बलदेव ने कहा-'अरे मूढ़पुरुष! यह रथ गिरितट पर भग्न नहीं हुआ लेकिन सममार्ग पर भग्न हुआ है अतः खंड-खंड बने इस रथ का तुम कैसे संधान कर सकते हो?' देव ने कहा-'यह कृष्ण अनेक हजार योद्धाओं के द्वारा भी पराजित नहीं हआ वह आज युद्ध के बिना भी मर गया है। जब यह जीवित हो जाएगा तो रथ भी पुन: नवीन हो जाएगा।' पुन: वह पुरुष शिलापट्ट पर पद्मिनी को रोपने लगा। बलदेव ने कहा-'शिलापट्ट पर रोपी हुई पद्मिनी कैसे उगेगी?' देव ने कहा-'जब यह तुम्हारे कंधे पर स्थित मृतक जी उठेगा तब कमलिनी भी उग जाएगी।' थोड़ी दूर जाने पर एक ग्वाले को केवल अस्थिमय गायों को हरी घास देते हुए देखा। बलदेव ने कहा- 'ये गायें हड्डियों का ढांचा मात्र हैं क्या ये हरी घास से पुनः जी सकती हैं?' देव ने कहा-'जब यह तुम्हारा भाई कृष्ण जी उठेगा तब गायें भी जी जाएंगी। तब बलदेव के ज्ञानतंतु झंकृत हुए और उसने सोचा-क्या मेरा अपराजित भाई मर गया? वनान्तर में स्थित कौन मुझको ऐसा कह रहा है? तब देव सिद्धार्थ के रूप में उपस्थित होकर बोला-'मैं पूर्वभव में आपका सारथि सिद्धार्थ था। तीर्थंकर अरिष्टनेमि की कृपा से मैं देवगति में उत्पन्न हुआ। आपने मुझे पहले कहा था-'जब मैं विपत्ति में पड़े तब तुम मुझे प्रतिबोधित करना।' इसीलिए मैं आपको प्रतिबोध देने यहां आया हूं। आप शोक को छोड़कर धैर्य को धारण करें। यदि आप जैसे पुरुष भी शोक से विह्वल होंगे तब संसार में कौन स्थिर रह पाएगा? धैर्य आत्मगुण है। संसार में कोई ऐसा प्राणी नहीं है, जिसने इस स्वच्छंद और वैरी यमराज से कदर्थना प्राप्त न की हो। इसलिए अपने आपको स्थिर करो। स्वामी अरिष्टनेमि ने पहले ही कह दिया था कि जराकुमार से कृष्ण की मृत्यु होगी। वैसा ही हो गया।' बलदव ने पूछा-जराकुमार ने कृष्ण को कब मारा? देव ने जराकुमार की सारी बात बतायी और उसे पांडवों के पास भेजा तब तक का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५१७ बलदेव ने सिद्धार्थ का आलिंगन कर स्नेहपूर्वक कहा-'अब क्या करना चाहिए?' देव ने कहा-'सब प्रकार के परिग्रह को छोड़कर अब आप श्रामण्य को स्वीकार करें और तीर्थंकर अरिष्टनेमि के वचनों को याद करें?' तब बलदेव ने कहा-'तुमने जो कहा वह मैं भलीभांति स्वीकार करूंगा। तुमने भगवान् के वचन याद दिलाकर अच्छा किया। अब कृष्ण के कलेवर का क्या करें?' देव ने कहा-'दो नदी के बीच के तट पर इसे जलाएंगे। तीर्थंकर, चक्री, बलदेव और वासुदेव पूजा के योग्य होते हैं अतः पूजा करेंगे।' तब उन्होंने दो नदी के संगम-स्थल पर कृष्ण के मृत शरीर को रखा, पुष्प, गंध, धूप आदि से पूजा की और शरीर को जला दिया। अरिष्टनेमि ने बलदेव के प्रव्रज्या समय को जानकर विद्याधर श्रमण को वहां भेजा। उनके पास बलराम ने प्रव्रज्या ग्रहण की। तुंगिया पर्वत के शिखर पर वे तपश्चरण करने लगे। सिद्धार्थ देव पूर्व स्नेह के कारण बलराम की रक्षा में वहीं रहने लगा। इधर जराकुमार दक्षिण मथुरा में पहंचा। उसने पांडवों को देखा और पांडवों को कौस्तुभ मणि दे दी। उसने द्वारिका विनाश से लेकर पांडवों तक पहुंचने का सारा वृत्तान्त पांडवों को सुनाया पांडवों ने अत्यन्त विलाप और दुःख के साथ एक वर्ष तक उनका प्रेत्यकार्य किया फिर जराकुमार को राज्य देकर स्वयं भगवान अरिष्टनेमि के पास चले गए। भगवान् अरिष्टनेमि ने चार ज्ञान के धनी धर्मघोष अनगार को अनेक श्रमणों के साथ पांडवों की प्रव्रज्या के लिए भेजा। पांडव उनके पास दीक्षित हो गए। दीक्षित होकर पांडव भगवान के पास जाने के लिए प्रस्थित हुए। वे बेला, तेला, चोला (चार दिन की तपस्या), पंचोला (पांच दिन की तपस्या), पक्ष, मास, छह मास की तपस्या करते हुए चले जा रहे थे। उस समय भगवान् बारह योजन दूरी पर स्थित थे। उन्होंने चिन्तन किया कि कल अरिष्टनेमि भगवान के दर्शन करेंगे अतः रात्रि वहीं बिताई । प्रात:काल उन्होंने जनप्रवाद सुना कि उज्जयंत पर्वत पर भगवान् मोक्ष चले गए। तब वे अत्यन्त दु:खी हुए और पुंडरीक पर्वत पर प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए। समुद्रविजय आदि नव दशार, भगवान् की माता, गजसुकुमाल के साथ दीक्षित होकर देवलोक में गयीं। रुक्मिणी आदि रानियां मोक्ष गयीं। द्रौपदी भी राजीमती के साथ दीक्षा ग्रहण कर, मृत्यु को प्राप्त कर अच्युत कल्प में उत्पन्न हुई। द्वारिका जलन के समय वसुदेव, रोहिणी और देवकी देवलोक में उत्पन्न हुए। ___ बलदेव ऋषि तुंगिया पर्वत के शिखर पर अत्यन्त कष्टप्रद एवं घोर तप कर रहे थे। वे सप्तसप्तमिका भिक्षु प्रतिमा कर रहे थे। सप्तसप्तमिका प्रतिमा इस प्रकार है-'प्रथम सात दिन भोजन में एक दत्ती ग्रहण करना तथा पानी की भी एक दत्ती ग्रहण करना। दूसरे सप्ताह भोजन पानी की दोदो दत्ती ग्रहण करना, तीसरे सप्ताह भोजन और पानी की तीन-तीन दत्ती ग्रहण करना। इस प्रकार सातवें सप्ताह सात दत्ती ग्रहण करना। इस प्रकार ४९ रात दिन में १९६ भोजन और पानी की दत्ती ग्रहण करना। इस प्रतिमा की बलदेव मुनि ने भलीभांति अनुपालना की। इसकी संपन्नता होते ही दूसरी अष्टअष्टमिका भिक्षु प्रतिमा प्रारम्भ कर दी। प्रथम आठ दिन भोजन और पानी की एक-एक दत्ती ग्रहण करना, दूसरे आठ दिनों में भोजन और पानी की दो-दो दत्ती ग्रहण करना। इस प्रकार Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक आठवें अष्टक में भोजन और पानी की आठ-आठ दत्ती ग्रहण करना। इस प्रकार यह अष्टअष्टमिका भिक्षु प्रतिमा ६४ दिन-रात में पूरी होती है तथा दो सौ अट्ठासी दत्ती ग्रहण की जाती है। इस प्रकार बलऋषि ने अष्टअष्टमिका, नवनवमिका और दशदशमिका प्रतिमा भी की। बलराम प्राय: एक पक्ष या एक मास से वन काटने वाले लकड़हारों से जो कुछ प्रासुक एषणीय मिल जाता, वही ग्रहण करते। उन लकड़हारों ने जनपद में आकर राजा से कहा - 'कोई महान् शक्तिशाली दिव्यपुरुष वन में तप कर रहा है।' तब वह राजा संबुद्ध होकर सोचने लगा- 'कोई राज्य का अभिलाषी व्यक्ति तप कर रहा है अथवा कोई विद्या साध रहा है अतः जाकर उसे मार डालना ही श्रेष्ठ है।' यह सोचकर राजा अपनी सेना के साथ कवच से सन्नद्ध, अनेक प्रकार के शस्त्रों से सज्जित, अनेक यान - वाहन पर आरूढ होकर बलराम मुनि के पास आए। इधर रक्षक देव सिद्धार्थ ने बलराम ऋषि के पास भयंकर मुख वाले, बीभत्स दिखाई देने वाले, तीक्ष्ण नखाग्र वाले, दारुण तथा केशर सटा से युक्त सिंहों की विकुर्वणा की । तब वे राजा दूर से ही भयभीत होकर उस महाप्रभावी बलदेव ऋषि को प्रणाम कर शीघ्र ही अपने-अपने घर चले गए। लोक में बलदेव नरसिंह के रूप में प्रसिद्ध हो गए। इस प्रकार बलदेव मुनि प्रतिदिन उपशांत भाव में लीन रहते । बलराम के स्वाध्याय, ध्यान और धर्मकथा से आकृष्ट होकर अनेक व्याघ्र, सिंह, चीते, खरगोश, संबर, हरिण आदि उपशांत हो गए। उनमें कुछ श्रावक हो गए, कुछ भद्र प्रकृति वाले हो गए, कुछ ने अनशन स्वीकार कर लिया, कुछ कायोत्सर्ग में स्थित हो गए। वे मांसाहार का त्याग करके बलदेव ऋषि की उपासना करने लगे । ५१८ वहां एक युवा हरिण भगवान् बलराम मुनि के पूर्वभव का परिचित था । उसे जातिस्मृति ज्ञान प्राप्त था। वह अत्यन्त संवेग को प्राप्त था । वह भिक्षा आदि के समय भगवान् के पीछे-पीछे दौड़ता था। एक बार बलदेव भी मासखमण के पारणे हेतु नगर में गए। वहां एक तरुणी कुएं से जल निकाल रही थी । उसने पानी निकालते हुए बलदेव को देखा । बलदेव के दिव्य रूप में वह अत्यन्त आसक्त हो गई। उसकी सारी चेतना बलदेव के रूप लावण्य में उलझ गई। वह अपना भान भूल गई। उसने घड़े के कंठ में कुंडी लगाने के बदले कटि पर स्थित अपने छोटे पुत्र के गले में वह कुंडी लगाकर रस्सी बांधकर उसे कुएं में लटका दिया । बलदेव ने यह देखा । वह संवेग को प्राप्त होकर सोचने लगे - ' मेरा शरीर भी प्राणियों के लिए अनर्थ का कारण है।' अनुकम्पावश बालक को मुक्त कराकर उन्होंने प्रतिज्ञा की - 'जहां स्त्रियां नहीं होंगी, वहां यदि भिक्षा मिलेगी तो ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं।' बलदेव वापिस वन में चले गए। एक दिन अच्छी लकड़ी काटने के निमित्त से कुछ रथकार वन में आकर वृक्ष काटने लगे । कुछ समय पश्चात् वे भोजन करने बैठे। उसी समय मुनि बलदेव भी मासखमण के पारणे के लिए वहां आ पहुंचे। हरिण भी उनके साथ-साथ गया। मुनि बलदेव को देखकर रथकार स्वामी ने सोचा- 'हमारे पुण्यों का उदय हुआ इसीलिए मरुस्थल में भी कल्पवृक्ष प्राप्त हुआ है । अहो ! १. एक अन्य मत के अनुसार अभिमानवश बलदेव ने सोचा कि अपने ही नौकरों से भिक्षा कैसे ग्रहण करूं? यह सोचकर वे ग्राम के बाहर लकड़हारों से ही भिक्षा ग्रहण करने लगे । Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५१९ इसके रूप, उपशम और तेज की संपदा कैसी है? मैं कृतार्थ हो गया। मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ है इसीलिए ये महान् ऋषि भिक्षा के लिए यहां आए हैं। इनको भिक्षा देकर मैं स्वयं को कलुष रहित कर लूंगा।' ऐसा सोचकर रथकार ने पृथ्वी पर जानु रखकर उन्हें वंदना की और भक्त-पान लेकर उनके सामने गया। मुनि ने भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से शुद्ध भिक्षा जानकर उसे ग्रहण कर ली। उस रथकार ने शुद्ध दान देने से देवलोक का आयष्य बांध लिया। अत्यधिक भक्ति से हरिण की आंखों से आंसू निकलने लगे। वह रथकार और मुनि की ओर प्रसन्न और मंथर दृष्टि से बारबार देखता हुआ सोचने लगा-'अहो! यह वनछेदक धन्य है। इसका मनुष्य जन्म सफल हो गया है। मैं दुर्भाग्य एवं कर्मदोष से तिर्यंच जाति में उत्पन्न हुआ हूं। मैं इस महातपस्वी को दान देने से वंचित हूँ। मेरी इस तिर्यक् योनि को धिक्कार है।' इसी बीच तेज वायु से प्रहत होकर एक वृक्ष वनछेदक, बलदेव और हरिण के ऊपर गिरा। वे तीनों मरकर ब्रह्मकल्प के पद्मोत्तर विमान में उत्पन्न हुए। बलदेव भी सौ वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर विशिष्ट देवलोक में उत्पन्न हुए। देव बनकर बलदेव ने अवधिज्ञान से स्नेहपूर्वक कृष्ण को देखना प्रारम्भ किया। उसने अत्यंत दु:ख के साथ कृष्ण को तीसरी नारकी में देखा। शीघ्र ही वैक्रिय शरीर की विकुर्वणा करके वे कष्ण के पास गए। बलदेव ने दिव्य मणि की प्रभा का उद्योत करके जनार्दन को देखा। बलदेव ने कहा- 'अरे भातृवत्सल कृष्ण ! अब मैं तुम्हारे लिए क्या करूं?' कृष्ण ने कहा--'मैं पूर्वकृत कर्मों से उत्पन्न दुःख का अनुभव कर रहा हूं। कोई भी इसका प्रतिकार करने में समर्थ नहीं है।' तब बलदेव ने अपनी दोनों भुजाओं से कृष्ण को उठा लिया। आतप में नवनीत की भांति उनका शरीर पिघलने लगा। तब कृष्ण ने कहा- 'मुझे छोड़ो। मुझे बहुत कष्ट की अनुभूति हो रही है। तुम अब भरतक्षेत्र पिस लौट जाओ। वहां जाकर गदा, खड्ग, चक्र और शंखधारी, पीले वस्त्र पहने हुए तथा गरुड़ध्वज हलमुसल को धारण किए हुए नीले वस्त्र पहने हुए अपने आपको सब लोगों को दिखाना। बलदेव ने श्रीकृष्ण की बात को स्वीकार कर लिया! दिव्य विमान में आरूढ़ होकर बलराम ने भरत क्षेत्र में आकर श्रीकृष्ण और बलदेव के रूप की विकुर्वणा करके लोगों को दिखाया। विशेषतः शत्रुलोगों के सामने यह रूप दिखाया। बलदेव ने कहा-'तिराहे, चौराहे और चत्वरों पर हमारा प्रतिरूप स्थापित करो। हम स्वर्ग संहारकारी हैं। हम देवलोक से आए हैं और अब वहीं जा रहे हैं। वहां हम नाना प्रकार की क्रीड़ाओं में रत रहते हैं। द्वारिका नगरी हमारे द्वारा निर्मित है। पुनः हमने ही उसका संहार करके समुद्र में फेंक दिया है। इसलिए हम ही कारण पुरुष विधाता हैं । लोगों ने ससंभ्रम इस बात को स्वीकार कर लिया और जैसा कहा था वैसा किया। फिर परम्परा से वह बात प्रसिद्ध हो गयी। बलदेव भी ऐसा कर पुनः देवलोक चले गए। वहां से च्युत होकर अमम तीर्थंकर जो कृष्ण का जीव है उनके पास शासन में सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त होंगे। नगर के समृद्ध कुलों में भिक्षा की याचना उतनी दुष्कर नहीं है, जितनी अरण्य में तृणहारक और काष्ठहारक के यहां से भिक्षा लेनी। बलदेव ने जैसे याचना परीषह सहन किया वैसे ही सबको सहन करना चाहिए।' १. उनि.११५ उशांटी.प. १७७, उसुटी.प. ३७-४५ । Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० नियुक्तिपंचक १७. अलाभ परीषह (ढंढण कुमार) एक गांव में एक ब्राह्मण कृषि-कुशल अथवा शरीर से कृश होने के कारण कुशल था। वह 'कृषि पाराशर' के रूप में प्रसिद्ध हो गया। वह ब्राह्मण उस ग्राम में राजा के खेत की जुताई के लिए नियुक्त था। बैल दिन भर की जुताई से थक जाते, छाया में विश्राम करना चाहते और चारापानी पाने की अभिलाषा करते । आहार आ जाने पर जब वह उनको मुक्त करना चाहता तब सोचता कि एक हलबंभ' की जुताई और कर लूं। बैल भूख से पीड़ित रहते। इस प्रकार उसने ६०० बार उन बैलों से खेत की अतिरिक्त जुताई कराई। इससे उसके बहुत सघन अंतराय कर्म बंध गए। वहां से मरकर वह अपने किसी अन्य पुण्य के प्रभाव से वासुदेव कृष्ण के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम ढण्ढ रखा गया। समय आने पर वह तीर्थंकर अरिष्टनेमि के पास दीक्षित हो गया। दीक्षित होने के बाद अपने पूर्वभव में बंधा हुआ अंतराय कर्म उदय में आ गया। जब ढंढण मुनि आहार के लिए जाते तो घूमने पर भी विशाल द्वारिका नगरी में शुद्ध आहार नहीं मिलता। यदि कभी आहार मिलता तो वह ऐसे-वैसे कारणों से प्राप्त होता। एक बार ढंढण मुनि ने भगवान् से इसके बारे में पूछा। भगवान् से पूर्व भव का सारा वृत्तान्त जानकर ढंढण मुनि ने अभिग्रह किया कि मैं दूसरे के प्रभाव से प्राप्त आहार का उपयोग नहीं करूंगा। एक बार अरिष्टनेमि द्वारिका नगरी आए। वासुदेव कृष्ण उन्हें वंदना करने गए। वासुदेव कृष्ण ने अरिष्टनेमि से पूछा-'अभी इन अठारह हजार साधुओं में दुष्कर तपश्चर्या अथवा साधना कौन कर रहा है?' भगवान् ने उत्तर दिया-'ढंढण मुनि सबसे कठोर साधना कर रहा है क्योंकि वह अलाभ परीषह को बहुत समता से सहन कर रहा है।' ढंढण मुनि के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त करने पर अरिष्टनेमि ने कहा-'जब तुम नगर में प्रवेश करोगे तो ढंढण मनि तुम्हें रास्ते में मिलेगा।' भगवान को वंदना कर जब वासुदेव वापिस जाने लगे तो रास्ते में कृश शरीर किन्तु प्रशान्त वदन वाले ढंढण मुनि को देखा। मुनि को देखकर वासुदेव ने हाथी से नीचे उतरकर मुनि को वंदना की। अपने हाथ से उनके चरणों का प्रमार्जन किया तथा सुखपृच्छा की। वासुदेव को वंदना करते हुए एक सेठ ने देख लिया। उसने मन में सोचा यह बहुत बड़ा महात्मा है, तभी वासुदेव नीचे उतरकर वंदना कर रहे हैं। संयोग से मुनि ने उस दिन भिक्षा के लिए उसी सेठ के यहां प्रवेश किया। सेठ ने अत्यन्त श्रद्धा भक्ति से भिक्षा में लड्डु बहराए। भिक्षा से लौटकर मुनि ने भगवान् को आहार दिखाकर पूछा-'भंते ! क्या मेरा अलाभ परीषह क्षीण हो गया?' भगवान् ने कहा-'वत्स! तुम्हारा अलाभ परीषह अभी क्षीण नहीं हुआ है। आज तुम्हें वासुदेव के प्रभाव से आहार मिला है।' अपने संकल्प के अनुसार अनासक्त भावों से मुनि ने आहार का परिष्ठापन कर दिया लेकिन प्रतिज्ञा को भंग नहीं किया। आत्म-धरातल पर चिंतन करते हुए शुभ अध्यवसाय से उन्हें कैवल्य-लाभ हो गया। १८. रोग परीषह (कालवैशिक) मथुरा नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसी नगर में काला नामक वेश्या रहती १. हल से विदारित भूमि रेखा। २. उनि.११५, उशांटी.प. ११९, उसुटी.प. ४५, ४६ । Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५२१ थी। वह बहुत सुन्दर थी अतः राजा ने उसे अपने अंत:पुर में रख लिया। उस वेश्या के कालवैशिक नामक एक पुत्र हुआ। वेश्या की एक पुत्री भी थी,जिसका विवाह हतशत्रु राजा के साथ हुआ। एक बार कालवैशिक कुमार श्रमणों के पास दीक्षित हो गया। दीक्षित होकर उसने एकलविहार प्रतिमा स्वीकृत की। विहार करते हुए कालवैशिक मुनि अपनी बहिन की ससुराल मुद्गशैलपुर पहुंचे। वहां उनके अर्श (मस्सा) रोग उत्पन्न हो गया। रोग के कारण मुनि बहुत पीड़ित थे। पीड़ा देखकर बहिन ने वैद्य से उपचार पूछा। वैद्य ने कुछ दवाइयां दी और कहा कि आहार के साथ इस औषध को मिलाकर मुनि को भिक्षा में दे देना। उसने मुनि को औषध मिश्रित आहार भिक्षा में दे दिया। मुनि ने गंध से जान लिया कि मोह के वशीभूत हो मेरी बहिन ने औषध मिश्रित आहार बहराया है तथा मेरे निमित्त हिंसा की है। मुनि ने चिंतन किया कि ऐसे जीवन से क्या लाभ? ऐसा चिन्तन करके मुनि ने मुद्गशैल शिखर पर भक्त-प्रत्याख्यान अनशन स्वीकार कर लिया। कालवैशिक मुनि जब बालक थे तब उन्होंने रात्रि में सियार के शब्द सुनकर अपने व्यक्तियों से पूछा-'यह आवाज किसकी है?' व्यक्तियों ने उत्तर दिया-'ये सभी जंगली सियार हैं।' कुमार ने सियार को बांधकर लाने की आज्ञा दी। राजपुरुष सियार को पकड़कर ले आए। कुमार कालवैशिक उसको पीटने लगा। पीटने से सियार ‘खी, खी' की आवाज करने लगा। आवाज सुनकर कुमार को बहुत प्रसन्नता हुई। इस प्रकार अत्यधिक पीटने से सियार मर गया। अकाम निर्जरा के कारण वह व्यन्तर देव के रूप में पैदा हुआ। ___ व्यन्तर देव ने अनशन में स्थित कुमार कालवैशिक मुनि को देखा तो तीव्र वैर उत्पन्न हो गया। उसने वैक्रिय शक्ति से सियार के बच्चों की विकुर्वणा की। अपने बच्चों सहित वह सियार रूप देव खी-खी' शब्द करके मुनि के शरीर को नोंचने लगा। इधर राजा ने जब मुनि के भक्त-प्रत्याख्यान की बात सनी तो राजपरुषों को रक्षा के लिए भेज दिया। राजपुरुष वहां रहते तो देव चला जाता। जब आवश्यक कार्य के लिए वे जाते तो 'खी-खी' शब्द करता हुआ वह देव रूप सियार मुनि के शरीर को खाने लगता। इस प्रकार मुनि ने रोग परीषह को समता-पूर्वक सहन किया। १९. तृणस्पर्श परीषह श्रावस्ती नगरी में जितशत्रु राजा था। राजकुमार का नाम भद्र था। दीक्षित होकर उसने एकलविहार प्रतिमा स्वीकार की। विहार करते हुए एक बार वह वैराज्य में पहुंचा। गुप्तचर समझकर सैनिकों ने उसे पकड़ लिया। परिचय पूछने पर मुनि मौन रहे अत: सैनिकों ने मुनि को बहुत पीटा। शरीर लहुलुहान हो गया, फिर सैनिकों ने उस पर नमक छिड़क कर घास से वेष्टित कर छोड़ दिया। तब रक्त मिश्रित दर्भ के कारण उसे अत्यन्त वेदना होने लगी। उसने उस परीषह को समभावपूर्वक सहन किया। १. उनि.११६, उशांटी.प.१२०, १२१, उसुटी.प.४७। २. उनि.११७, उशांटी.प.१२२, उसुटी.प.४७ । Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ नियुक्तिपंचक २०. जल्ल (मैल) परीषह (सुनंद) चंपा नगरी में सुनन्द नामक वणिक् श्रावक रहता था। वह मैले-कुचेलों से घृणा करता था। उसकी दुकान पर बहुविध वस्तुएं मिलती थीं । वह साधु को यथेच्छित वस्तुएं अवज्ञापूर्वक देता। औषध, भेषज आदि भी दान देता था। एक बार ग्रीष्म ऋतु में पसीने से लथपथ मैले शरीर वाले कुछ मुनि दुकान पर आए। मुनि के शरीर से इतनी दुर्गन्ध निकल रही थी कि सुगंधित चीजें भी उस दुर्गंध के नीचे दब गयीं। सुनन्द ने मन में चिंतन किया-'साधुओं का सारा आचार अच्छा है। यदि मैल धारण न करते तो कितना अच्छा होता।' सुनंद उस चिंतन की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना काल-कवलित हो गया और कौशाम्बी नगरी में श्रेष्ठी पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। धर्म के महत्व को जानकर काम-भोगों से विरक्त हो उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षित होते ही उसके पूर्वबद्ध कर्म उदय में आ गए। मुनि के शरीर से भयंकर दुर्गन्ध निकलने लगी। वे भिक्षा के लिए जाते तो लोग उपहास तथा अवमानना करते। इसलिए अन्य साधुओं ने उन्हें भिक्षा के लिए भेजना बंद कर दिया। परेशान होकर मुनि ने रात्रि में देवता की आराधना की, कायोत्सर्ग किया। देव प्रभाव से मुनि के शरीर में सुगंधित द्रव्यों की खुशबू आने लगी। लोग फिर अवमानना करने लगे कि यह मुनि होकर सुगंधित द्रव्यों का सेवन करता है। मुनि ने पुन: देवता की आराधना की इससे मुनि का शरीर स्वाभाविक हो गया। . २१. सत्कार-पुरस्कार परीषह (इन्द्रदत्त पुरोहित) चिरकाल से प्रतिष्ठित मथुरा नगरी में इन्द्रदत्त नामक पुरोहित रहता था। वह जैन धर्म का विरोधी था। जब कोई साधु उसके घर के नीचे से गुजरता तो वह अपने दोनों पैर लटका कर मानता कि मैंने साधु के शिर पर पैर रख दिए हैं। यह एक श्रावक ने देखा। उसे बहुत क्रोध आया कि यह साधुओं के ऊपर अपने पैर रखता है। उसने प्रतिज्ञा ली कि मैं अवश्य इस पुरोहित के पैर काटूंगा। वह उसका छिद्रान्वेषण करने लगा लेकिन उसे कोई मौका नहीं मिला। एक दिन वह श्रावक आचार्य के पास गया, वंदना कर उसने सारी बात कही। आचार्य ने शिक्षा देते हुए कहा-'मुनि को सत्कार-पुरस्कार परीषह सहन करना चाहिए।' श्रावक ने पुनः निवेदन किया--'गुरुदेव ! मैंने प्रतिज्ञा की है कि मैं उसके पैर का छेदन करूंगा। जो व्यक्ति शासन की अवहेलना करे उसे दंड मिलना चाहिए इसलिए आप मुझे कोई उपाय बतायें।' . यह सुनकर आचार्य ने पूछा कि इस पुरोहित का क्या अपना कोई घर है? श्रावक ने उत्तर दिया कि पुरोहित ने अभी नया प्रासाद बनवाया है। जिस दिन वह अपने प्रासाद में प्रवेश करेगा, उस दिन राजा को भोजन के लिए आमंत्रित करेगा। यह सुनकर आचार्य ने कहा- 'राजा जब घर में प्रवेश करे तब तुम राजा का हाथ खींच कर उसे बाहर ही रख देना। मैं अपने विद्याबल से भवन गिरा दूंगा।' श्रेष्ठी मन ही मन प्रसन्न हुआ। उसने वैसा ही किया जैसा आचार्य ने निर्देश दिया। हाथ १. उनि. ११८, उशांटी.प. १२३, १२४ उसुटी.प. ४८ । Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं खींचने का कारण जब राजा ने पूछा तो श्रेष्ठी श्रावक ने कहा- 'राजन् ! यह आपको मारना चाहता था। देखिये, वह भवन गिर गया है। राजा को उसकी बात पर विश्वास हो गया। राजा ने पुरोहित को सेठ को सौंप उचित दंड देने के लिए कहा। सेठ ने उसके पैरों में पहले इंद्रकील डाली फिर अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उसके पैर काट डाले । वह श्रावक सत्कार - पुरस्कार परीषह सहन नहीं कर सका। २२. प्रज्ञा परीषह (कालकाचार्य) उज्जयिनी में कालकाचार्य विहार कर रहे थे । वे चरण-करण की आराधना में तत्पर तथा बहुश्रुत थे। उनके शिष्यों में किसी को अध्ययन की रुचि नहीं थी। सभी शिष्य अविनीत और प्रमादी थे । वे सूत्रार्थ का अध्ययन नहीं करते थे । साधु की सामाचारी में भी आलस्य करते थे । मृदुवाणी में सारणा करने पर भी उनमें कोई परिवर्तन नहीं आया। भर्त्सना करने पर वे मन में वैर और कलुषता उत्पन्न कर लेते थे । आचार्य ने सोचा- 'इनको बार-बार अनुशासित करने पर मेरे सूत्रार्थ की हानि होती है और कर्मों का बंधन होता है।' आचार्य शिष्यों से परेशान हो गए। उन्होंने शय्यातर को अपना अभिप्राय बताकर सुवर्णभूमि की ओर विहार कर दिया। सुवर्णभूमि में उनके पौत्र शिष्य आर्य सागर विहार कर रहे थे। नहीं पहचानने के कारण आचार्य सागर और उनके शिष्यों ने उठकर अभिवादन नहीं किया। आचार्य ने पूछा- 'आप कौन हैं?' कालकाचार्य ने कहा- 'मैं उज्जयिनी से आया हूं।' आचार्य कालक आर्य सागर के साथ एक वृद्ध के रूप में रहने लगे। आचार्य सागर को अपनी प्रज्ञा पर बहुत अभिमान था। एक बार सागर क्षमाश्रमण ने आर्य कालक से पूछा - 'वृद्ध मुने ! क्या तुमको कुछ समझ में आता है?' आचार्य कालक ने स्वीकृति में सिर हिलाया । आर्य सागर अपने शिष्यों के साथ उन्हें भी वाचना देने लगे । उधर उज्जयिनी में प्रभातकाल में जब शिष्यों ने आचार्य कालक को नहीं देखा तो वे खोज करने लगे। उन्होंने शय्यातर से पूछा । शय्यातर ने कहा- 'आप लोग ऐसे अकृतज्ञ, प्रमादी और दुर्विनीत हैं, जो अपने गुरु के इंगित का पालन भी नहीं कर सकते।' शय्यातर ने डांटते. हुए वास्तविक शिष्यों को बतायी । शिष्यों को बहुत ग्लानि हुई। सभी शिष्यों ने सुवर्णभूमि की ओर प्रस्थान कर दिया। मार्ग में लोग पूछते कि यह किस आचार्य का संघ जा रहा है ? साधु उत्तर देते कि यह कालकाचार्य का संघ जा रहा है। जनश्रुति से यह संवाद आर्य सागर के पास पहुंचा। इससे उन्हें प्रसन्नता हुई। उन्होंने आर्य कालक से कहा- 'मेरे गुरु के गुरु आ रहे हैं।' कालकाचार्य ने उत्तर दिया- 'मैंने भी ऐसा सुना है' लेकिन उन्होंने अपना वास्तविक परिचय नहीं दिया। सभी आगंतुक साधुओं ने आचार्य सागर को वंदना करके अपने आचार्य के बारे में पूछा। आर्य सागर ने शंकित होकर कहा कि कुछ दिनों पूर्व एक वृद्ध मुनि यहां आए थे लेकिन मैं आर्य कालक को आकृति से नहीं पहचानता । साधुओं ने अपने आचार्य को पहचान लिया। वे मिलकर बहुत प्रसन्न हुए। सभी ने गुरु से क्षमायाचना की। आर्य सागर को जब वास्तविकता ज्ञात हुई तब उन्होंने कालकाचार्य के चरणों में प्रणिपात कर क्षमायाचना की तथा आशातना के लिए मिथ्या दुष्कृत किया । १. उनि. ११९, उशांटी.प. १२५, १२६ उसुटी.प. ४९ । ५२३ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ नियुक्तिपंचक कुछ दिनों बाद आचार्य सागर ने कालकाचार्य से पूछा-गुरुदेव! मैं वाचना कैसी देता हूँ? आचार्य ने कहा-वाचना तो सुन्दर देते हो लेकिन इसके साथ गर्व मत करना। क्या पता कब-कौन सुनने आ जाए। आचार्य ने धूलिपुंज के दृष्टान्त से प्रतिबोध दिया कि जैसे अंजलि से भरी धूलि कुछ न कुछ कम होती जाती है, वैसे ही तीर्थंकर द्वारा प्रदत्त ज्ञान भी कम होता जाता है । परम्परागत होने से इसके कितने ही पर्यायों का क्षरण हो जाता है। इसी प्रकार कीचड़ पिंड को भिन्न-भिन्न स्थान पर रखने से वह कम होता जाता है। इन दोनों उदाहरणों को हृदयंगम कर प्रज्ञा का मद नहीं करना चाहिए। आर्य कालक ने समतापूर्वक प्रज्ञा परीषह सहन किया। ज्ञात होने पर भी अपने प्रशिष्य से वाचना लेते रहे लेकिन अपने आपको प्रकट नहीं किया। २३. अज्ञान परीषह गंगा के किनारे दो भाई रहते थे। दोनों भाइयों ने विरक्त होकर मुनि दीक्षा स्वीकार कर ली। उनमें एक भाई बहुश्रुत हो गया तथा दूसरा अल्पश्रुत ही रहा। बहुश्रुत मुनि साधुओं को अध्यापन कराता था। उसे अनेक बार वाचना देनी पड़ती। दिन में वह अध्यापन में व्यस्त रहता तथा रात्रि में भी वह अच्छी तरह सो नहीं पाता। एक दिन नींद के कारण परेशान होकर बहुश्रुत आचार्य ने चिंतन किया- 'अहो ! मेरा भाई कितना भाग्यशाली है, जो आराम करता रहता है और रात्रि में भी अच्छी तरह सोता है। मैं कितना मंदपुण्य हूं कि अच्छी तरह सो भी नहीं सकता।' इस चिंतन से उनके सघन ज्ञानावरणीय कर्म का बंध हुआ। चिन्तन की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना ही वे स्वर्गस्थ हो गए। कालान्तर में वे देवलोक से च्युत होकर एक ग्वाले के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए। क्रम से बालक बड़ा हुआ। यौवन आने पर माता-पिता ने एक सुन्दर कन्या के साथ उसका विवाह कर दिया। उसके एक अत्यन्त सुन्दर पुत्री थी। एक बार दोनों-पिता और पुत्री दूसरे ग्वालों के साथ घी की गाड़ी भरकर बेचने जा रहे थे। उस गाड़ी को वह कन्या हांक रही थी। अन्य ग्वालों के लड़के उसके रूप पर आसक्त हो गए और वे भी अपनी बैलगाड़ियां उसके बराबर चलाने लगे। गाड़ी चलाते हुए वे उसको बार-बार देख रहे थे। इस असंतुलन के कारण शकट उत्पथ में चलने लगे। वे सब टूट गए। इस वारदात से उन्होंने लड़की का नाम असगडा (अशकटा) रख दिया। उसका पिता असगडपिता के नाम से प्रसिद्ध हो गया। इस घटना से ग्वाले को वैराग्य हो गया। उसने अपनी लडकी का विवाह कर दिया। घर की सारी सम्पत्ति उसे देकर वह दीक्षित हो गया। दीक्षित होकर उसने उत्तराध्ययन के तीन अध्ययन तो सीख लिए लेकिन चौथा अध्ययन सीखते हुए पूर्वबद्ध ज्ञानावरणीय कर्म उदय में आ गया। मुनि ने बहुत प्रयत्न किया लेकिन सफलता नहीं मिली। मुनि ने आचार्य को निवेदन किया। आचार्य ने सारी बात बताकर कहा कि अभी तुम्हारे ज्ञानावरणीय कर्म का उदय है अतः जब तक कर्म क्षीण न हो तब तक आयम्बिल करते रहो। मुनि अदीन भाव से आयम्बिल करने लगे। इस प्रकार उसने बारह वर्षों तक अदीन भाव से आयम्बिल किया और उतने काल में उत्तराध्ययन का केवल चौथा अध्ययन 'असंखयं' सीखा। इस प्रकार उनका ज्ञानावरणीय कर्म क्षीण हो गया। उसके बाद वे बहुत ज्ञान प्राप्त करने लगे। १. उनि.१२०, उशांटी. प. १२७, १२८, उसुटी.प. ५०। २. उनि.१२१ उशांटी.प. १२९, १३०, उसुटी.प. ५१ । Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं २४. ज्ञान परीषह (स्थूलिभद्र ) स्थूलभद्र एक बहुश्रुत एवं चतुर्दशपूर्वी आचार्य थे । उनके गृहस्थ - काल का एक बहुत घनिष्ठ मित्र था । विहार करते हुए एक बार आचार्य उनके यहां गए । मित्र घर पर नहीं था । उसकी पत्नी से आचार्य ने अपने मित्र के बारे में पूछा। महिला ने उत्तर दिया कि वे आजीविका कमाने के लिए गए हुए 1 जब आचार्य ने दीक्षा ली तब उनका मित्र बहुत सम्पन्न था, लेकिन तब आचार्य ने उसकी विपन्न अवस्था देखी। चारों ओर गरीबी दिखाई दे रही थी। उसके पूर्वजों ने एक खंभे के नीचे बहुमूल्य द्रव्य गाड़ रखे थे। आचार्य ने ज्ञानबल से वह गड़ा हुआ धन देख लिया । आचार्य उस खंभे की ओर हाथ कर बोले- 'यह ऐसा है, वह वैसा है।' आचार्य के ऐसा कहने पर लोगों ने यह समझा कि घर पहले सम्पन्न था अब विपन्न है, शटित-गलित है। आचार्य अनित्यता का निरूपण करने के लिए ऐसा कह रहे हैं । वह मित्र इधर-उधर भ्रमण कर घर लौटा। उसकी पत्नी ने आचार्य के आगमन की सारी बात बताई। महिला ने कहा- 'आचार्य ने और कुछ नहीं कहा, केवल खंभे की ओर हाथ से संकेत करके कुछ कहा।' यह सुनकर वह वणिक् पूरा रहस्य समझ गया। उसने उस स्थान को खोदा। वहां रत्नों से भरे अनेक कलश निकले। वह पुनः सम्पन्न हो गया । आचार्य अपने ज्ञान परीषह को सहन नहीं कर सके । २५. दर्शन परीषह वत्सभूमि में आर्य आषाढ़ नामक बहुश्रुत आचार्य थे। उनका शिष्य परिवार बहुत बड़ा था । उनके संघ में जो शिष्य कालगत होते उन्हें वे पहले भक्तप्रत्याख्यान अनशन करवाते और कहते- 'तुम देव बनकर अवश्य ही मुझे दर्शन देना ।' अनेक मुनि अनशनपूर्वक दिवंगत हुए पर कोई वापस लौट कर नहीं आया। एक बार एक अत्यन्त प्रिय शिष्य मृत्यु शय्या पर था । आचार्य ने उसे भक्तप्रत्याख्यान कराते हुए स्नेहपूर्वक कहा - ' देवलोक में उत्पन्न होते ही शीघ्र यहां आकर दर्शन करना, प्रमाद मत करना ।' उसने कहा- 'आऊंगा।' मुनि दिवंगत हो गया लेकिन वह भी लौटकर नहीं आया। आचार्य ने सोचा- 'यह निश्चित है कि परलोक है ही नहीं। अनेक लोग विश्वास दिलाकर गए पर कोई वापस नहीं आया । यह कष्टपूर्ण व्रतचर्या निरर्थक है। मैंने व्यर्थ ही भोगों का परित्याग किया।' आचार्य का मन डांवाडोल हो गया। वे उसी वेश में गण का परित्याग कर पलायन कर गए। ५२५ इसी बीच उस प्रिय शिष्य ने अवधिज्ञान से आचार्य की स्थिति को जाना। गुरु को प्रतिबोध देने हेतु उसने मार्ग में एक गांव की रचना की और सुन्दर नृत्य का आयोजन किया। नाटक को देखते हुए छह मास बीत गए । नाटक को देखते हुए आचार्य को न भूख सताती थी, न प्यास और न श्रम । देवता के प्रभाव से छह मास का काल बीतना भी उन्होंने नहीं जाना। देवता ने अपनी माया समेटी I आचार्य वहां से चले । देवता ने उनके संयम के परिणामों की परीक्षा करने हेतु षड्जीवनिकाय के १. उनि . १२२, उशांटी.प. १३०, १३१, उसुटी. प. ५२ । Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ नियुक्तिपंचक नाम से छह बालकों की विकुर्वणा की। वे बालक सब अलंकारों से अलंकृत थे। सबसे पहले आचार्य के पास पृथ्वीकाय नामक बालक आया। आचार्य ने सोचा-'यदि मैं इसके सारे गहने ले लं तो जीवन सुखपूर्वक बीतेगा।' आचार्य ने बच्चे से कहा-'तुम्हारे गहने उतारकर दे दो।' बालक गहने देने से इन्कार हो गया।' आचार्य ने उसे गले से पकड़ा। बालक भयभीत होकर बोला-भंते ! इस भीषण अटवी में मैं आपकी शरण में आया हूं अत: आप मेरी रक्षा करें। कहा है अनालंब का आलंबन, विपत्तिग्रस्त व्यक्ति का उद्धार तथा शरणागत की रक्षा-ये तीन रल हैं। इन तीनों से पृथ्वी समलंकृत है।' आचार्य उसका गला पकड़ने लगे तब बालक बोला-'पहले मेरी कथा सुनें फिर आपकी जो इच्छा हो वह करना।' पृथ्वीकाय कथा सुनाते हुए बोला-एक कुंभकार मिट्टी को खोद रहा था। अचानक ऊपर की मिट्टी से वह आक्रान्त हो गया। लोगों ने पूछा-'यह क्या है?' कुंभकार बोला- 'जिससे मैं भिक्षा देता हूं, देवताओं को बलि चढ़ाता हूं, ज्ञातिजनों का पोषण करता हूं. वही पृथ्वी मुझे आक्रान्त कर रही है। ओह ! शरण से भय उत्पन्न हो रहा है।' इसी प्रकार आप भी मुझ शरणागत पर प्रहार कर रहे हैं।' आचार्य ने कहा-'बोलने में तुम बहुत पंडित दिखाई दे रहे हो'-ऐसा कहकर बलपूर्वक उसके सारे आभरण लेकर पात्र में डाल लिए। थोड़ी देर बाद अप्काय नामक दूसरा बालक आया। वह भी आभूषणों से अलंकृत था। आचार्य ने उससे भी गहनों की मांग की। अप्काय ने एक आख्यानक सुनाते हुए कहा-'एक पाटल नामक तालाचर अनेक प्रकार की कथाएं सुनाकर आजीविका चलाता था। एक बार वह गंगा नदी को पार कर रहा था। इतने में नदी का तीव्र प्रवाह आया और वह पाटल बहने लगा। लोगों ने कहा-'जब तक तुम बहते-बहते दूर न निकल जाओ, तब तक कुछ सुभाषित वचन तो कहो।' उसने कहा-'जिस पानी से बीज उगते हैं, कृषक जीवित रहते हैं, उस पानी से मैं मर रहा हूं। ओह ! शरण से भय उत्पन्न हो रहा है।' इतना सनने पर भी आचार्य ने उसके आभषण उतार लिए। तीसरा बालक तेजस्काय सामने आया। उसने भी आचार्य को एक आख्यानक सुनाया। एक जंगल में एक तापस रहता था। वह प्रतिदिन अग्नि की पूजा करता, आहूति देता। एक बार उसी आग से उसकी झोंपड़ी जलकर राख हो गयी। उस तापस ने कहा-'जिस अग्नि को मैं दिन-रात मधु-घृत से सींचता रहा हूं, उसी अग्नि ने मेरी पर्णशाला जला दी। शरण देने वाला भयप्रद हो गया।' दूसरा उदाहरण सुनाते हुए उसने कहा-'एक व्यक्ति जंगल में जा रहा था। इतने में व्याघ्र आता हुआ दिखाई दिया। उसने अग्नि की शरण ली। वह अग्नि जलाकर वहां बैठ गया। व्याघ्र अग्नि को देखकर भाग गया पर उसी अग्नि ने उसे जला डाला। जिसे शरण माना था वही अशरण हो गया।' आचार्य ने उसके गहने लिए और उसे छोड़ दिया। चौथे बालक का नाम था-वायुकाय । आचार्य ने उसे भी आभूषण देने के लिए कहा। उसने आनाकानी की। आचार्य ने उसे मार डालने की धमकी दी। बालक बोला-'पहले मेरा आख्यानक सुनें फिर आपकी इच्छा हो वह करना। एक युवक शक्तिसम्पन्न और शरीर-संपदा से युक्त था। एक बार उसे वायुरोग हो गया। शीतल वायु भी उसे पीड़ित करने लगी। लोगों ने पूछा-'मित्र! पहले तुम कूदने-दौड़ने में समर्थ थे। अब तुम हाथ में दंड लेकर क्यों चलते हो? कौन से रोग से पीड़ित Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५२७ हो?' वायु रोग से पीड़ित मित्र ने कहा-'जेठ और आषाढ़ मास में जो सुखद वायु चलती थी उसी वायु ने मेरे शरीर को तोड़ दिया। जिस वायु से सभी प्राणी जीवित रहते हैं उस वायु के अपरिमित निरोध के कारण मेरा शरीर टूट रहा है।' इतने में पांचवां बालक वनस्पतिकाय आया। उसने कहा-'भंते ! जंगल में एक विशाल वृक्ष पर अनेक पक्षी विश्राम करते थे। उस पर पक्षियों के अनेक घोंसले थे। घोंसले में अनेक बच्चे एक बार उसी वृक्ष के सहारे एक लता ऊपर उठी और पनपने लगी। धीरे-धीरे उसने सारे वृक्ष को आच्छादित कर दिया। एक दिन एक सर्प उस लता के सहारे चढ़ा और घोसले में स्थित सभी अंडों को खा गया। तब पक्षियों ने कहा-'हम इस वृक्ष पर रहते थे तब यह निरुपद्रव था। किन्तु मूल से लता उठी और यह शरण देने वाला वृक्ष भी भय का कारण बन गया।' आचार्य ने उसके भी आभूषण ले लिए और उसे छोड़ दिया। इतने में छठा बालक त्रसकाय आया। ज्योंहि आचार्य उसके आभूषण उतारने लगे वह बोला-'गुरुवर ! यह आप क्या कर रहे हैं? मैं तो आपका शरणागत हूँ। मैं आपको एक आख्यानक सुनाता हूं। एक नगर पर शत्रु सेना ने चढ़ाई कर दी। शत्रु-सेना से क्षुब्ध होकर नगर के भीतर रहने वाले लोगों ने बाहर वालों को भीतर घुसने नहीं दिया। अंदर वाले लोगों ने कहा-ओ मातंगो! अब तुम दिशाओं की शरण लो। जो नगर शरणस्थल था, वही भय का कारण बन रहा है। दूसरा आख्यानक सुनाते हुए उसने कहा-'एक नगर में राजा, पुरोहित और कोतवाल तीनों ही चोर थे। जनता उनसे संत्रस्त थी। लोगों ने कहा-'जहां राजा स्वयं चोर हो, पुरोहित भंडक हो वहां नागरिकों को वन की शरण लेनी चाहिए, क्योंकि शरण भयस्थान बन रहा है।' दो आख्यानक सुनने पर भी आचार्य ने जब उसे नहीं छोड़ा तो उसने तीसरा आख्यानक सुनाना प्रारम्भ किया ___ एक ब्राह्मण के एक पुत्री थी। यौवन प्राप्त होने पर वह अत्यन्त रूपवती दिखलाई पड़ती थी। ब्राह्मण पिता अपनी पुत्री में आसक्त हो गया। उस चिंता में उसका शरीर कृश हो गया। ब्राह्मणी ने इस बारे में पूछा। उसने सहजता से सारी बात बता दी। ब्राह्मणी ने कहा-'आप अधीर न बनें। मैं ऐसा उपाय करूंगी, जिससे आपका मनोरथ पूरा हो जाए।' एक दिन ब्राह्मणी ने अपनी पुत्री से कहा-'पत्री! हमारे कल की यह परम्परा है कि पत्री का उपभोग पहले यक्ष करता है फिर उस विवाह किया जाता है । इस मास की कृष्णा चतुर्दशी को यक्ष आएगा। तुम उसका अपमान मत करना। वहां प्रकाश भी मत रखना। लडकी के मन में यक्ष के प्रति कुतुहल जाग गया। कौतुकवश उसने दीपक पर ढक्कन दे दिया। रात को यक्ष के स्थान पर उसका पिता आया। वह उसके साथ रतिक्रीड़ा कर वहीं सो गया। लड़की ने कुतूहल-वश दीपक से ढक्कन उठाया। उसने अपने पास सोये पिता को देखा। उसने सोचा माता ने मेरे साथ छल किया है। जो कुछ होना है वह होने दो। इस समय यही पति है अत: लज्जा से क्या लाभ? वे दोनों पुनः रतिक्रीड़ा में संलग्न हो गए। सूर्योदय होने पर भी वे जागृत नहीं हुए। मां ने मागधिका में एक गीत गाया-'उदित होते सूर्य का, चैत्य स्तूप पर बैठे कौए का तथा भींत पर आए आतप का सुख की बेला में पता नहीं चलता।' पुत्री ने उत्तर देते हुए कहा-'मां तुमने ही कहा था कि आए हुए यक्ष की अवमानना मत करना। यक्ष ने पिता का हरण कर लिया है अब दूसरे पिता का अन्वेषण करो।' ब्राह्मणी ने पुनः कहा-'जिसको मैंने Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक नौ मास तक गर्भ में धारण किया, जिसका मैंने मल-मूत्र धोया, उस पुत्री ने मेरे पति का हरण कर लिया। शरण मेरे लिए अशरण बन गया । ' ५२८ पुनः सकाय एक और कथानक कहने लगा। एक ब्राह्मण ने एक तालाब खुदवाया। उसके निकट उसने एक मंदिर और बगीचा बनवा दिया। वहां यज्ञ में बकरे मारे जाते थे। वह ब्राह्मण मरकर वहीं बकरा बना। उसके पुत्र उसी बकरे को तालाब के देवालय में यज्ञ में बलि देने के लिए ले गए। बकरे को जातिस्मृति हो गयी। वह अपनी भाषा में बुड़बुड़ाने लगा। उसने मन ही मन सोचा - 'ओह ! मैंने ही तो देवमंदिर बनाया और मैंने ही यह यज्ञ प्रवर्तित किया।' कांपते हुए बकरे को एक अतिशय ज्ञानी ने देखा। मुनि ने बकरे को कहा -' -'तुमने स्वयं ही तो वृक्ष रोपा और तालाब खुदवाया। अब देव के भोग का अवसर आया तब क्यों चिल्ला रहे हो?' इस बात को सुनकर वह बकरा चुप हो गया। ब्राह्मणपुत्रों ने मुनि से पूछा - 'यह बकरा तुम्हारे कुछ कहने मात्र से चुप कैसे हो गया?' साधु ने कहा- 'यह तुम्हारा पिता है।' उसने पूछा- 'इसकी पहचान क्या है?' मुनि ने कहा- 'पूर्वभव में तुम्हारे पिता ने तुम्हारे साथ जो धन गाड़ा है, इसे यह जानता है।' बकरा उस स्थान पर गया और अपने पैरों से उस पृथ्वी को कुरेदने लगा । पुत्र को विश्वास हो गया और उसने उस बकरे को मुक्त कर दिया। साधु के पास धर्म सुनकर बकरे ने भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार किया और मरकर देवलोक गया। उस ब्राह्मण ने यज्ञ और मंदिर को शरण मानकर उनका निर्माण किया लेकिन वे अशरण ही निकले। आचार्य ने उसकी बात सुनकर कहा तुम बोलने में अति चतुर और वाचाल हो। ऐसा कहकर आचार्य आषाढ़ उसका गला मरोड़ने लगे। उसने सुभाषित सुनाया - ' जो अंधों, हीन तथा लूलोंलंगड़ों पर, बाल-वृद्ध, क्षमाशील तथा विश्वस्त जनों पर, रोगियों तथा शरणागतों पर, दुःखी, दीन तथा दरिद्रों पर निर्दयता से प्रहार करते हैं वे अपने सात कुलों को सातवी नरक में ले जाते हैं।' तुम अति वाचाल हो, यह कहकर आचार्य ने उसके आभूषण भी ग्रहण कर लिए। देव ने सोचा- 'आचार्य . चारित्र से तो शून्य हो गए हैं अब इनके सम्यक्त्व की परीक्षा करनी चाहिए।' छहों के आभूषण लेकर आचार्य आगे चले | देव ने साज-श्रृंगार किए हुए एक गर्भवती साध्वी की विकुर्वणा की । विभूषित साध्वी को देखकर आचार्य आषाढ़ ने कहा- 'अरे! तुम्हारे हाथों में कटक हैं, कानों में कुंडल हैं, आंखों में अंजन आंज रखा है, ललाट पर तिलक है। हे प्रवचन का उड्डाह करने वाली दुष्ट साध्वी ! तू कहां से आई है ?' साध्वी कुपित होकर बोली- 'हे आर्य! तुम दूसरों के राई और सर्षप जितने छोटे दोषों को भी देख लेते हो किन्तु अपने बिल्व जितने बड़े दोषों को देखते हुए भी नहीं देखते।' साध्वी ने आगे कहा- ' आप श्रमण हैं, संयत हैं, ब्रह्मचारी हैं, कंचन और पत्थर को समान समझते हैं, वायु की भांति अप्रतिबद्धविहारी हैं । हे ज्येष्ठार्य ! कृपा कर बताएं आपके पात्र में क्या हैं ?' साध्वी के ऐसा कहने पर आचार्य लज्जित होकर आगे-आगे चलने लगे। आगे चलने पर उन्होंने एक सेना को आते देखा। वे दंडनायक के सम्मुख गए। दंडनायक ने हाथी से उतरकर आचार्य को वंदना की और कहा - 'भंते! आज मेरा परम सौभाग्य है कि इस जंगल में आपके दर्शन हुए । आप मुझ पर अनुग्रह करें और ये प्रासुक मोदक मेरे हाथ से ग्रहण करें।' आचार्य ने उपवास की बात कहकर लेने से इंकार कर दिया। उसने बलपूर्वक पात्र ग्रहण किया और मोदक डालने लगा । झोली Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५२९ में आभरण देखकर वह कुपित होकर भुकुटि चढाकर बोला-'हे अनार्य! ये मेरे पत्रों के आभरण हैं। तुमने उनको मारकर ये आभरण ग्रहण किए हैं? अभी तुम कहां जा रहे हो?' आचार्य भय से कांपने लगे और कुछ नहीं बोल सके। तत्काल देवता ने अपनी लीला समेटी और प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होकर बोला-'आप जैसे विशिष्ट आगमधरों के लिए ऐसा सोचना उचित नहीं है कि परलोक नहीं है। देवलोक में अपार सुख हैं अतः सुख का उपभोग करते हुए बीते हुए काल का ज्ञान नहीं हो पाता। आप भी देव द्वारा कुत नाटक छह महीने तक खड़े-खड़े देखते रहे पर आपको काल का ज्ञान नहीं हुआ।' __ आचार्य आषाढ़ परम संवेग को प्राप्त हुए और स्वयं की निंदा करने लगे। देव भी वंदना करके पुनः देवलोक चला गया। आचार्य भी आलोचना-प्रतिक्रमण करके वैराग्य की वृद्धि करते हुए विहरण करने लगे। २६. चोल्लक कांपिल्य नामक नगर था। वहां के राजा का नाम ब्रह्म और पटरानी का नाम चुलनी था। उनका पुत्र ब्रह्मदत्त बारहवां चक्रवर्ती बना। जब वह कुमार था तब राजा ब्रह्म की मृत्यु हो गयी। रानी चुलनी और राजा दीर्घ के आपस में प्रगाढ़ सम्बन्ध था अतः उनके भय से वह अपने मित्र वरधनु के साथ-साथ राज्य से पलायन कर गया। उस समय स्थान-स्थान पर घूमते हुए उसके सामने अनेक विपत्तियां आईं लेकिन एक कार्पटिक ब्राह्मण ने उसकी बहुत सेवा की और उसे अनेक विपत्तियों से बचाया। कालान्तर में ब्रह्मदत्त राजा बन गया। बारह वर्ष तक अभिषेक का कार्यक्रम चला। अभिषेक की बात सुनकर कार्पटिक वहां आया पर उसे वहां आश्रय नहीं मिला। अभिषेक का बारहवां वर्ष चल रहा था। कार्पटिक ने एक उपाय सोचा। वह अपने जूतों को बांधकर ध्वजारोहकों के साथ दौड़ने लगा। राजा ने उसे देखा और निकट वाले व्यक्ति से पूछा-'यह किसकी ध्वजा लिए दौड़ रहा है।' उन्होंने कहा-'राजन् ! हम नहीं जानते।' तब राजा ने उसे बुलाया। वह आया। राजा ने पहचान लिया कि यही मेरे सुखदु:ख में सहायक रहा है। राजा तत्काल हाथी से नीचे उतरा। उसे गले लगाया और कुशलक्षेम पूछा। राजा ने कार्पटिक से कहा-'जो चाहो मांग लो।' उसने कहा-'राजन् ! मैं अपनी पत्नी से पूछकर मांगूगा।' वह अपने गांव गया। पत्नी से कहा-'राजा संतुष्ट हुआ है। मैं जो कुछ मांगूगा, वह देगा। मैं क्या मांगू?' पत्नी ने सोचा, इसे यदि समृद्धि मिल जाएगी तो मेरा मूल्य कम हो जायेगा अत: वह बोली-'अधिक परिग्रह से क्या? पूरे भारतवर्ष में प्रतिदिन सबके यहां भोजन और दक्षिणा में दीनार-युगल मांग लो।' कार्पटिक राजा के पास गया और बोला-'राजन् ! मुझे करचोल्लग दो अर्थात् मैं पहले दिन आपके प्रासाद में भोजन करूं फिर बारी-बारी से भारतवर्ष में आपके राज्य के सभी संभ्रान्त कुलों में भोजन प्राप्त कर पुन: आपके प्रासाद में भोजन करूं ।' राजा ने मुस्कराकर कहा-'इस तुच्छ याचना से तुम्हें क्या लाभ होगा? तुम चाहो तो मैं तुम्हें एक देश का राज्य अथवा १. उनि.१२३-४१ उशांटी.प. १३३-३९ उसुटी.प. ५२-५५। Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० नियुक्तिपंचक भंडार दे सकता हूं, जिससे तुम जीवन-भर हाथी के हौंदे पर सुखपूर्वक विचरण कर सको।' कार्पटिक बोला-'मुझे इतने विशाल परिग्रह से क्या करना है? मुझे इतने में ही संतोष है।' राजा ने सोचा जो जत्तियस्स अत्थस्स, भायणं तस्स तत्तियं होई। वुटे वि दोणमेहे, न डुंगरे पाणियं ठाई॥ -जिस व्यक्ति में जितने धन की पात्रता होती है, उसे उतना ही प्राप्त होता है। मूसलाधार वर्षा होने पर भी डूंगर पर पानी नहीं ठहरता। राजा ने करचोल्लग की बात स्वीकार कर ली। उसने पहले दिन राजा के यहां भोजन किया। राजा ने उसे दो दीनार भी दिये। अब वह बारी-बारी से नगर-कुलों में भोजन करने लगा। उस नगर में अनेक कुलकोटियां थीं। नगर के घरों में क्रमशः भोजन करता हुआ वह कब उनका अन्त ले पाएगा? उस नगर के पश्चात् सभी गांवों का तथा सम्पूर्ण भारत का क्रम वह कैसे पूर्ण कर पाएगा? __ संभव है किसी उपाय या देवयोग से वह सम्पूर्ण भारत के घरों का पार पा जाए पर मनुष्य जन्म को पुनः प्राप्त करना दुष्कर है। २७. पाशक गोल्ल देश में चणक नामक ग्राम था। वहां चणक नामक ब्राह्मण श्रावक था। एक बार उसके घर साधु ठहरे। ब्राह्मण के यहां दाढ़ा सहित पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम चाणक्य रखा। ब्राह्मण ने उसे साधु के चरणों में वंदना करवाई। साधुओं ने कहा-'यह राजा बनेगा।' ब्राह्मण ने सोचा यह दुर्गति में न चला जाए इसलिए उसके दांत घिस दिए। फिर भी आचार्य ने कहा-'इतने पर भी यह पूरा राजा नहीं तो बिंबांतरित राजा अवश्य बनेगा। जब बालक चौदह वर्ष का हुआ तब चौदह विद्यास्थानों में पारंगत हो गया। श्रावक उसके अध्ययन से बहुत प्रसन्न हुआ। एक दरिद्र ब्राह्मण-कुल की कन्या के साथ चाणक्य का विवाह कर दिया गया। एक बार अपने भाई के विवाह-प्रसंग में वह पीहर गयी। उसकी अन्य बहिनों का विवाह समद्ध घरों में हुआ था। वे सब विवाह के अवसर पर आभूषणों से अलंकृत होकर आयी थीं। परिवार के लोग उनसे आलाप-संलाप कर रहे थे। चाणक्य की पत्नी अकेली उदास बैठी रहती थी। दारिद्र्य के कारण वह अधीर हो गयी। जब वह पुन: अपने ससुराल आई तो चाणक्य ने उसकी उदासी का कारण पूछा। वह कुछ नहीं बोली केवल आंसुओं से अपने कपोल गीले करती हुई नि:श्वास छोड़ती रही। चाणक्य बहुत आग्रहपूर्वक उसके दुःख का कारण पूछने लगा। उसने गद्गद वाणी से पीहर में घटित स्थिति बता दी। चाणक्य ने चिंतन किया-'निर्धनता अपमान का कारण है इसलिए पीहर में भी लड़की का ऐसा परिभव होता है। मुझे किसी भी प्रकार से धन कमाना चाहिए। पाटलिपुत्र में नंद राजा ब्राह्मणों को धन देता है अत: वहां जाना चाहिए। वहां जाकर चाणक्य कार्तिक पूर्णिमा के दिन पूर्वन्यस्त आसन पर सबसे पहले जाकर बैठ गया। वह आसन पल्लीपति के लिए बिछाया जाता था। १. उनि.१६१, उशांटी.प. १४५, १४६, उसुटी.प. ५६, ५७ । Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५३१ नंदराजा के साथ सिद्धपत्र वहां आया और बोला-'यह ब्राह्मण नंदवंश की मर्यादा का अतिक्रमण कर बैठा है।' दासी ने तब चाणक्य से कहा-'भगवन् ! आप दूसरे आसन पर बैठें।' चाणक्य ने दूसरे आसन पर कुंडिका, तीसरे पर दंड और चौथे पर गणेत्रिका (रुद्राक्ष का बना हुआ हाथ का आभूषण विशेष) तथा पांचवें आसन पर यज्ञोपवीत रख दिया। यह ब्राह्मण धीठ है' ऐसा कहकर नंद ने उसे बाहर निकाल दिया। चाणक्य अत्यंत क्रुद्ध होकर प्रतिज्ञा के स्वर में बोला-'नंद र का कोश और भृत्यसमूह बद्धमूल है। इसका वंश और मित्र वर्ग वृद्धिंगत है। मैं नंद राज्य को वैसे ही उखाड़ कर निर्मूल कर दूंगा, जैसे उग्र पवन महावृक्ष को उखाड़ देती है।' क्य वहां से उस व्यक्ति की खोज में निकला,जो उसका सहयोग कर सके। उसने अपने बारे में प्रतिकार राज्ञा बनने की बात सुनी। नंद के मोरपोषक एक गांव में रहते थे। चाणक्य परिव्राजक के रूप में उस गांद में गया। उसी दिन गांव के मुखिया की बेटी को चांद को खीर पीते हुए देखने दोहद उत्पन्न हुना। वह भिक्षाटन करता हुआ वहां गया। दोहद की बात ज्ञात होने पर उसने कहा-'यदि तुम बालक मुझे दे दोगे तो मैं चांद को खीर पीता हुआ दिखा दूंगा।' मुस्त्रिया ने बात मान ली। चाणक्य ने कपड़े का तंबू ताना और उसके बीच में छेद कर दिया। उस दिन पूर्णिमा थी। आधी रात में अनेक द्रव्यों से मिश्रित खीर की थाली भरी और जहाँ चन्द्र का प्रतिबिम्ब उस छिद्र में से पड़ रहा था, उस पट-मण्डप के नीचे उसे रख दी। लड़की को बुलाया। उसने चांद का प्रतिबिम्ब देखा और यह भी देखा कि वह थाली से खीर पी रहा है, खा रहा है। फिर पूर्व निर्दिष्ट पुरुष ने उस छिद्र को ढंक दिया। दोहद पूर्ण होने पर कालक्रम से उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम चन्द्रगुप्त रखा गया। धीरे-धीरे वह बढ़ने लगा। वह बच्चों के साथ खेलता और आनन्द में रहता था। चाणक्य वहां से चला गया। वह नंद की घात के लिए छिद्र देखने लगा। कालान्तर में वह लौटकर वहां पर आया। उसने चन्द्रगुप्त को देखा। चाणक्य के पास शस्त्रास्त्र थे। चन्द्रगुप्त ने कहा-'हमें भी दो'। चाणक्य बोला-'कोई तुम्हें इनसे मार न दे।' चन्द्रगुप्त ने उत्तर दिया-यह पृथ्वी वीरभोग्या है। जो वीर होगा, वही इसका उपभोग कर सकेगा। चाणक्य ने जान लिया किस बालक के पास शक्ति के साथ विज्ञान भी है। पूछा, यह बालक कौन है? लड़कों ने कहा- यह परिव्राजक का पुत्र है।' तब चाणक्य ने कहा-'मैं ही हूं वह परिव्राजक।' यह बात सुन सबको आश्चर्य हुआ। चाणक्य ने बालक से कहा-'चलो, मैं तुम्हें राजा बनाऊंगा।' वह चाणक्य के साथ चला गया। चाणक्य ने लोगों को एकत्रित कर पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया। नंद ने उसको छिन्न-भिन्न कर दिया। परिव्राजक भाग गया। नंद के अश्वारोह उसके पीछे पडे । चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को एक पदम सरोवर में छिपा कर स्वयं रजक का वेश धारण कर लिया। अश्वारोहियों ने उसे देखा। इतने में नंद का एक अश्वारोही वहां पर आया। वह जात्यश्व पर आरूढ था। उसने रजक वेशधारी चाणक्य से पछा-'कहां है चन्द्रगप्त?'चाणक्य बोला-'चन्द्रगुप्त इस पद्मसरोवर में छिपा हुआ है।' अश्वारोही ने देखा। उसने अपना वस्त्र चाणक्य को सौंप तलवार हाथ में ले ली। वह अपना कवच उतारकर जल में उतरने लगा। इतने में ही चाणक्य ने उसके हाथ से तलवार खींच कर उसके धड़ को अलग कर दिया। फिर चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को पुकारा। चन्द्रगुप्त छुपे स्थान से बाहर निकला। दोनों उस जात्यश्व पर चढ़कर वहां से पलायन कर गये। Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ नियुक्तिपंचक चाणक्य ने चंद्रगुप्त से पूछा-'जिस समय मैंने तुम्हें जो कहा, क्या तुमने उस विषय में कुछ सोचा?' उसने कहा-'यही अच्छा हुआ। आप सब कुछ जानते हैं।' चाणक्य ने तब मन ही मन सोचा-'यह योग्य पुरुष है। यह कभी विपरिणत नहीं होता।' चन्द्रगुप्त क्षुधातुर हुआ। चाणक्य उसे एक स्थान पर बिठा, स्वयं भोजन की गवेषणा करने गया। उसके मन में यह भय था कि यहां हमें कोई पहचान न ले। चलते-चलते वह एक विप्र के घर पहुंचा। विप्र घर से बाहर गया हुआ था। उसके पुत्र को स्फेटित कर घर से दही मिश्रित ओदन लेकर चाणक्य चन्द्रगुप्त के पास आया और उसकी भख शांत की। एक बार वे घूमते-घूमते एक गांव में आए। उन्होंने देखा कि एक घर में वृद्धा ने बर्तन में अपने पुत्रों को तरल खाद्य पदार्थ परोसा है । एक पुत्र ने खाने के लिए बीच में हाथ डाला। उसका हाथ जल गया। वह रोने लगा। वृद्धा ने कहा-'चाणक्य के समान मूर्ख मेरे वत्स! तुम खाना भी नहीं जानते?' चाणक्य द्वारा कारण पूछने पर वृद्धा बोली-'गर्म चीज किनारे से खानी चाहिए फिर खाते-खाते मध्य तक पहुंचना होता है।' उस घटना से प्रेरणा लेकर चाणक्य हिमवंतकट में गया। वहां पर्वतक राजा से मैत्री की। चाणक्य ने कहा-'नंद राज्य को हम ग्रहण कर आधा-आधा बांट लेंगे।' पर्वतक ने चाणक्य की बात स्वीकार कर ली। उसने तैयारी प्रारम्भ कर दी। परन्तु एक भी नगर हस्तगत नहीं हो रहा था। त्रिदंडी परिव्राजक चाणक्य वहां गया। इन्द्रकुमारियों को देखा। उसने सोचा कि इनकी तेजस्विता के कारण नगर का पतन नहीं हो रहा है। उसने छल-कपट कर उन इन्द्रकुमारियों को वहां से बाहर निकाल दिया। नगर हस्तगत हो गया। फिर उसने पाटलिपुत्र नगर पर आक्रमण किया। नंद ने धर्मद्वार मांगा। चन्द्रगप्त ने कहा-'एक रथ में जितना ले जा सको ले जाओ।' नंद तब अपनी दो पत्नियों, एक कन्या तथा कुछ धन लेकर बाहर निकल गया। रथ में पलायन करते समय वह नंद-कन्या बार-बार चन्द्रगुप्त की ओर देखने लगी। तब नंद बोला-'जा त उसी के पास चली जा। वह नंद के रथ से उतरी और ज्योंहि चन्द्रगुप्त के रथ पर आरूढ़ हुई, उसी समय उस रथचक्र के नौ अर टूट गए। चन्द्रगुप्त ने अमंगल मानकर उसे निवारित करना चाहा। तब चाणक्य बोला-'अरे ! इसे मत रोको। नौ पुरुषयुगों तक तुम्हारा वंश चलेगा।' यह सुनकर चंद्रगुप्त ने उस नंदकन्या को स्वीकार कर लिया। वह उसके अंत:पुर में चली गई। __नंद राज्य के दो भाग कर दिए गए। एक भाग में एक विषकन्या रहती थी। महाराज पर्वतक से उस भाग की इच्छा की। उसे वह मिल गया। पर्वतक उस रूपवती विषकन्या के प्रेमजाल गया। अग्नि के स्पर्श की भांति विष के प्रभाव से वह मरने लगा। पर्वतक ने चंद्रगुप्त से कहा-'मित्र ! मैं मर रहा हूं।' चन्द्रगुप्त ने उसे विषमुक्त करने का प्रयत्न किया। तब चाणक्य ने भृकुटि तानकर इस नीतिवाक्य का स्मरण कराते हुए कहा तुल्याथ तुल्यसामर्थ्य, मर्मज्ञं व्यवसायिनम्। अर्द्धराज्यहरं भृत्यं, यो न हन्यात् स हन्यते॥ ... 'वत्स ! इस नीतिवचन को याद रखो। जिसका प्रयोजन समान हो अथवा ऐश्वर्य की समानता हो, जो समान बल वाला हो, मर्मज्ञ हो, पुरुषार्थ करने वाला हो, आधा राज्य लेने वाला Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५३३ हो, उसकी यदि घात न की जाए तो व्यक्ति स्वयं मारा जाता है।' यह सुनकर चंद्रगुप्त अपने विचारों से विरत हो गया। महाराज पर्वतक मर गया। नंद का पूरा राज्य चंद्रगुप्त के अधीन हो गया। ____ नंद के अनुचर चोरी के आधार पर आजीविका चलाते थे। वे राजद्रोह करते थे। चाणक्य एक उग्र चोरग्राह (चोरों को पकड़ने वाला) की खोज में था। वह नगर के बाहर गया। वहां नलदाम जुलाहे को देखा। उसके पुत्र को एक मकोड़े ने खा लिया। उसने कुपित होकर मकोड़े का बिल खोदकर अग्नि जलाकर सब मकोड़ों को नष्ट कर दिया। चाणक्य ने यह दृश्य देखा। उसने सोचा कि यह श्रेष्ठ चोरग्राह बन सकता है। चाणक्य ने उसे बुलाया और ससम्मान आरक्षक बना दिया। सबसे पहले नलदाम ने उन चोरों का विश्वास प्राप्त किया। भोजन, पानी आदि के उपचार से उन्हें विश्वस्त कर दिया। एक बार उन सबको सकुटुम्ब भोजन पर बुलाया और सबको मरवा दिया। राज्य निष्कंटक हो गया। कोश को समृद्ध करने के लिए चाणक्य ने समृद्ध लोगों के साथ मद्यपान करना प्रारम्भ कर दिया। उस समय विशेष वाद्य बजने लगे। वह सबमें भय पैदा करने के लिए नाचते हुए गाने लगा दो मज्झ धाउरत्ताई, कंचणकुंडिया तिदंडं च। राया वि मे वसवत्ती, एत्थ वि ता मे होलं वाएहि ॥ मेरे दो भगवा वस्त्र हैं-कंचन कुंडिका तथा त्रिदंड। राजा भी मेरे वशवर्ती है। यहां मद्यपान करते समय भी होल नामक वाद्य बजना चाहिए। दूसरा व्यक्ति इन वचनों को सहन नहीं कर सका। वह अपनी ऋद्धि को प्रदर्शित करते हुए नाचते हुए बोला गयपोययस्स मत्तस्स, उप्पइयस्स य जोयणसहस्सं। पए पए सयसहस्सं, एत्थ वि ता मे होलं वाएहि ॥ मत्त हस्तिशावक जो सहस्र योजन तक जा चुका है। उसके एक-एक पग पर हजार-हजार मुद्राएं देता हूं। इस पर भी होल नामक वाद्य बजना चाहिए। तीसरा व्यक्ति बोला तिलआढयस्स वुत्तस्स, निप्फन्नस्स बहुयसइयस्स। तिले-तिले सयसहस्सं, एत्थ वि ता मे होलं वाएहि ॥ मैंने एक आढक तिल बोए। उससे अनेक शत आढक तिल निष्पन्न हुए। एक-एक तिल पर एक-एक लाख की मुद्रा देता हूं। यहां भी होल नामक वाद्य बजना चाहिए। चौथा व्यक्ति बोला णवपाउसम्मि पुन्नाए,गिरिनदियाए सिग्घवेगाए। एगाह महियमेत्तेण, नवणीएण पालिं बंधामि॥ एत्थ वि ता मे होलं वाएहि। Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक वर्षाकाल पूर्ण हो जाने पर पर्वतीय नदियों के शीघ्रगामी प्रवाह को रोकने के लिए मैं नवनीत की पाल बांधता हूं। इस पर भी होल नामक वाद्य बजना चाहिए। पांचवां व्यक्ति बोला ५३४ जच्चाण णवकिसोराण, तद्दिवसेण जायमेत्ताण । केहि नभं छाएमि, एत्थ वि ता मे होलं वाएहि ॥ तत्काल उत्पन्न जात्य अश्व किशोरों के केशों से मैं नभ को आच्छादित कर देता हूं । इस पर भी होल नामक वाद्य बजना चाहिए । छठा व्यक्ति बोला दो मज्झ अस्थि रयणाई, सालिपसूई य गद्दभीया य । छिन्ना छिन्ना वि रुहंति, एत्थ वि ता मे होलं वाएहि ॥ मेरे पास दो रत्न हैं - सालिप्रसूति और गर्दभिका (विद्याविशेष), जो काट लेने पर भी बारबार उगते रहते हैं । इस पर भी होल नामक वाद्य बजना चाहिए । सातवां व्यक्ति बोला सय सुक्किल निच्चसुगंधो, भज्ज अणुव्वय णत्थि पवासो । निरिणो य दुपंचसओ, एत्थ वि ता मे होलं वाएहि ॥ मुझे सदा श्वेत शालि धान का भोजन मिलता है । पत्नी अनुगामिनी है। प्रवास नहीं है । ऋण-मुक्त हूं। पास में हजार स्वर्णमुद्राएं हैं। यहां भी होल नामक वाद्य बजना चाहिए । चाणक्य ने यह सब सुना। सबसे यथोचित धन की याचना की । शालि से कोष्ठागार भर दिए, जिनके प्रभाव से बार-बार काटने पर भी खेती ज्यों की त्यों बनी रहती थी। एक दिवसजात अश्वों की मांग की। एक दिवसीय नवनीत मांगा। स्वर्ण- उत्पादन के लिए चाणक्य ने यंत्रमय पाशक बनाए। एक दक्ष व्यक्ति को पाशे चलाने सिखा दिए। उसने दीनारों से एक थाल भरा। वह दक्ष व्यक्ति थाल को लिए घोषणा करने लगा - 'जो कोई मुझे जुए में जीत लेगा, मैं उसे दीनारों से भरा यह थाल दे दूंगा। यदि मैं जीतूंगा तो केवल एक दीनार लूंगा।' लोग लोभाविल हो उसके साथ जुआ खेलने लगे। दक्ष पुरुष की इच्छानुसार पाशे गिरते । सदा वही जीतता । कोई उसे पराजित नहीं कर सका। कदाचित् कोई उस दक्षपुरुष को पाशे में जीत भी सकता है पर दुर्लभ मनुष्य जन्म पुनः मिलना दुर्लभ है ।" २८. धान्य भरत क्षेत्र के सभी धान्यों को पिंडित करके ढेर लगा दिया। उसमें एक प्रस्थ सरसों के डाल दिए । वृद्धा सूर्प लेकर सरसों के दानों को अलग करने लगी । क्या वह पुनः सारे सरसों १. उनि. १६१, उसुटी. प. ५७-५९ । Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं के दानों को पृथक् कर पाएगी? दिव्यप्रसाद से वह वृद्धा दानों को पृथक् कर भी ले परन्तु पुनः मनुष्य जन्म की प्राप्ति दुष्कर है। २९. द्यूत एक राजा था। उसका सभामंडप एक सौ आठ खंभों पर आधृत था। एक-एक खंभा एक सौ आठ कोणों से युक्त था। एक बार राजकुमार का मन राज्य- लिप्सा से आक्रान्त हो गया । उसने सोचा- 'राजा वृद्ध हो गया है अतः उसे मारकर राज्य ग्रहण कर लूंगा।' अमात्य को यह बात ज्ञात हो गयी। उसने राजा को इस बात की अवगति दी। राजा ने सोचा- 'लोभ से आक्रान्त व्यक्ति के लिए कुछ भी अकरणीय नहीं होता।' राजा ने अपने पुत्र को बुलाकर कहा-'हमारे वंश की परम्परा है कि जो राजकुमार राज्य प्राप्ति के अनुक्रम को सहन नहीं करता उसे जुआ खेलना होता है और उस जुए को जीतने पर ही उसे राज्य प्राप्त हो सकता है। जीतने का क्रम यह है कि जु में एक दांव तुम्हारा होगा और शेष दांव हमारे होंगे । यदि तुम एक दांव में एक सौ आठ खंभों के एकएक कोण को एक सौ आठ बार जीत लोगे तो राज्य तुम्हारा हो जाएगा।' ऐसा होना संभव नहीं है, फिर भी यदि देव-योग से ऐसा हो जाए जाए तो भी विनष्ट मनुष्य जन्म पुनः प्राप्त होना अत्यन्त दुष्कर R और राजकुमार जीत ३०. रत्न एक वृद्ध वणिक् के पास अनेक रत्न थे। उसी नगर में अन्य अनेक कोट्याधीश वणिक् थे, जिनके मकानों पर पताकाएं फहराती थीं। उस वणिक् के घर पर पताकाएं नहीं फहराती थीं । एक बार वृद्ध देशान्तर चला गया । वृद्ध के जाने पर पुत्रों ने सारे रत्न विदेशी व्यापारियों को बेच । पुत्र खुश थे कि हमारे घर पर भी पताकाएं फहरेंगी । वृद्ध देशान्तर से आया और रत्नों के विक्रय की बात सुनकर चिंतित हो गया। उसने पुत्रों का डांटा और कहा - ' बेचे हुए सारे रत्न शीघ्र ही वापिस लेकर आओ।' पुत्र परेशान हो गए, क्योंकि उन्होंने सारे रत्न परदेशी व्यापारियों को बेचे थे । व्यापारी फारस आदि देशों में वापिस लौट गए थे। पुत्र रत्नों को एकत्रित करने इधर-उधर घूमने लगे। जैसे व्यापारियों से रत्न एकत्रित करना असंभव था वैसे ही मनुष्य जन्म पुनः प्राप्त करना असंभव है । ३१. स्वप्न उज्जयिनी नगरी में सभी कलाओं में कुशल, अनेक विज्ञान में निपुण, उदारचित्त, कृतज्ञ, शूरवीर, गुणानुरागी, प्रियवादी, दक्ष तथा रूप लावण्य से युक्त मूलदेव नामक राजपुत्र रहता था । वह द्यूत व्यसन के कारण पिता द्वारा अपमानित होकर पाटलिपुत्र से भ्रमण करता हुआ उज्जयिनी आया । उज्जयिनी में गुटिका के प्रयोग से वामन रूप बनाकर, वेश परिवर्तन कर विचित्र कथाओं, गंधर्व आदि कलाओं तथा अनेक कौंतुकों से वह लोगों को विस्मित करने लगा। लोगों में उसकी बहुत प्रसिद्धि हो गई। १. उनि . १६१, उसुटी. प. ५९ । ५३५ २. उनि . १६१, उसुटी. प. ५९ । ३. उनि १६१, उसुटी प. ५९ । Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ नियुक्तिपंचक उज्जयिनी नगरी में रूप-लावण्य और विविध कलाओं से गर्वित देवदत्ता नामक प्रधान गणिका रहती थी। मूलदेव ने लोगों से सुना कि वह आत्मगर्विता गणिका किसी सामान्य व्यक्ति से प्रसन्न नहीं होती। मूलदेव ने कुतूहलवश गणिका को विचलित करने के लिए प्रात:काल उसके घर के समीप मधुर-स्वरों में आरोह-अवरोह के साथ गायन प्रारम्भ कर दिया। देवदत्ता ने उस संगीत को सुना। उसने सोचा-'अहो! यह तो अपूर्व ध्वनि है, विशिष्ट ध्वनि है। यह कोई दिव्य पुरुष होना चाहिए। मनुष्य का ऐसा मधुर स्वर नहीं हो सकता। उसने अपनी दासियों को गायक पुरुष की खोज में भेजा। दासियों ने वामन रूप मूलदेव को देखा। उन्होंने सारी बात देवदत्ता को बताई। मूलदेव को बुलाने के लिए देवदत्ता ने माधवी नामक कुब्जा दासी को भेजा। दासी ने विनयपूर्वक देव से कहा- 'भो महासत्त्व! हमारी स्वामिनी देवदत्ता ने आपको संदेश भिजवाया है कि आप हमारे घर पधारने की कृपा करें।' मूलदेव ने उस निपुण कुब्जा दासी से कहा- 'नीतिकारों का वचन है कि विशिष्ट लोगों को वेश्याओं के साथ सम्पर्क नहीं रखना चाहिए अत: गणिका के यहां जाने का मेरा कोई प्रयोजन नहीं है और न ही अभिलाषा है। कुब्जा दासी ने अपने वाक् कौशल से मूलदेव का चित्त प्रसन्न कर लिया और आग्रहपूर्वक हाथ पकड़कर घर ले जाने लगी। चलते-चलते वामन रूपधारी मूलदेव ने कला-कुशलता और विद्याप्रयोग द्वारा हस्त-ताड़न से उस कुब्जा को स्वस्थ बना दिया। उसका कुब्जपना मिटा दिया। विस्मय से क्षिप्त चित्तवाली कुब्जा दामी मूलदेव को भवन में ले गई। देवदत्ता ने अपूर्व लावण्यधारी उस वामनरूप मूलदेव को देखा। देवदत्ता वेश्या ने विस्मित होकर उसे आसन और ताम्बूल दिया। वह आसन पर बैठ गया। माधवी ने देवदत्ता को अपना परिवर्तित रूप बताया और पूरा वृत्तान्त कह सुनाया। यह सुनकर देवदत्ता अत्यन्त विस्मित हुई। अब देवदत्ता और मूलदेव दोनों में परस्पर मधुर और पांडित्यपूर्ण संलाप शुरू हो गया। मूलदेव ने उसके हृदय को आकृष्ट कर लिया। इसी बीच एक वीणावादक वहां आया और वीणा बजाने लगा। देवदत्ता उसे सुनकर अत्यन्त अनुरक्त हो गयी। देवदत्ता ने कहा-'अरे वीणावादक ! तुम्हारी वीणावादन की कला बहुत सुन्दर है।' मूलदेव ने व्यंग्य में कहा---'उज्जयिनी के लोग बहुत निपुण हैं, जो सुन्दर और असुन्दर का विवेचन कर सकते हैं।' देवदत्ता ने कहा-'इसमें हानि क्या है?' मूलदेव ने कहा-'इस वीणा का बांस अशुद्ध है तथा तंत्री सगर्भा है।' देवदत्ता ने विस्मय से पूछा-'यह तुमने कैसे जाना?' मूलदेव ने कहा-'मैं अभी दिखाता हूं।' देवदत्ता ने वीणा मलदेव के हाथ में थमा दी। मलदेव ने बांस से पत्थर के टुकड़े को निकाला। फिर तंत्री से बाल निकालकर वीणा बजाने लगा। मूलदेव ने परिजन सहित देवदत्ता को अपने अधीन कर लिया। पास में ही एक हथिनी बंधी हई थी। वह सदा चिंघाडती रहती थी। वह भी वीणा के स्वर सुनकर उत्कर्ण हो गयी। देवदत्ता और वीणावादक-दोनों ही अत्यधिक विस्मित हए। देवदत्ता ने सोचा-'यह प्रच्छन्न वेश में विश्वकर्मा है।' देवदत्ता ने वीणावादक को पारितोषिक देकर भेज दिया। भोजन-बेला आई। देवदत्ता ने कहा-'अंगमर्दक को बलाओ। हम दोनों- मैं और मूलदेव अपना अंगमर्दन करवाएंगे।' मूलदेव ने देवदत्ता से कहा-'मुझे आज्ञा दें, मैं ही आपका अभ्यंगन करूं।' देवदत्ता ने पूछा---'क्या तुम अंग-मर्दन भी जानते हो?' मूलदेव ने Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५३७ कहा-'मैं भलीभांति तो नहीं जानता लेकिन अंगमर्दन के ज्ञाता लोगों के पास रहा हूँ।' दासी चंपक का तैल लेकर आई। मूलदेव ने अभ्यंगन प्रारम्भ कर दिया। वह मूलदेव के वशवर्ती हो गयी। देवदत्ता ने सोचा--'अहो इसके पास विज्ञान का अद्भुत अतिशय है। इसकी हथेली का स्पर्श भी अपूर्व है। यह निश्चित ही प्रच्छन्न रूप से सिद्धपुरुष होना चाहिए। प्रकृति से इस रूप वाले का इतना प्रकर्ष नहीं हो सकता अत: इसके मूल रूप को प्रकट करवाऊंगी।' देवदत्ता मूलदेव के चरणों में गिर पड़ी और बोली-'महानुभाव ! आपके असाधारण गुणों से ही मैंने आपको पहचान लिया है कि आप उत्तमपुरुष हैं, वात्सल्ययुक्त हैं तथा उदार हैं अत: आप अपना मूल रूप प्रकट करें। आपके मूल रूप का दर्शन करने हेतु मेरा हृदय अत्यंत उत्कंठित है।' बहुत अधिक आग्रह करने पर मुस्कराकर मूलदेव ने वेश-परावर्तिनी गुटिका निकाली। गुटिका के प्रयोग से वह मूल रूप में आ गया। सूर्य के समान दीप्त तेज, कामदेव के समान मोहित रूप तथा नव यौवन और लावण्य से युक्त उस मूलदेव को सबने देखा। हर्ष के कारण रोमांचित होकर देवदत्ता मूलदेव के चरणों में पुन: गिर पड़ी। देवदत्ता बोली--'आपने अपने हाथों से अभ्यंगन किया यह मुझ पर अत्यंत कृपा की है।' स्नान करने के बाद दोनों ने अच्छी तरह भोजन किया, देवदूष्य पहना और वार्तालाप करने एक स्थान पर बैठ गए। देवदत्ता ने कहा-'महाभाग ! तुमको छोड़कर कोई भी दूसरा पुरुष मेरे मन को अनुरंजित नहीं कर सका।' नीतिविदों ने यह सच ही कहा है नयणेहि को न दीसइ?, केण समाणं न होंति उल्लावा। हिययाणंदं जं पुण, जणेइ तं माणुसं विरलं॥ 'आंखों से कौन दिखाई नहीं देता? किसके साथ आलाप-संलाप नहीं होता? किन्तु हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाला पुरुष विरल ही होता है । मैं आपसे अनुरोध करती हूं कि आप प्रातादन मेरे घर आया करें ।' मूलदेव ने कहा-'गुणानुरागिणी देवी ! अन्य देश से आए मुझ जैसे निर्धन से प्रतिबद्धता रखना आपके लिए शोभास्पद नहीं है। ऐसा स्नेह स्थिर नहीं रहता है क्योंकि सभी व्यक्ति प्रयोजनवश ही स्नेह करते हैं।' देवदत्ता बोली- 'सत्पुरुषों के लिए स्वदेश और परदेश जैसा कुछ नहीं होता अत: आप मेरी प्रार्थना स्वीकार करें।' देवदत्ता का आग्रह देखकर मलदेव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। उन दोनों का आपस में स्नेहयुक्त संबंध हो गया। एक बार देवदत्ता ने राजा के समक्ष अपना नृत्य प्रस्तुत किया। उसमें मूलदेव ने वाद्य बजाए। राजा उससे बहुत संतुष्ट हुआ और एक वरदान दिया। देवदत्ता ने राजा से कहा-'आप मेरा यह वरदान धरोहर के रूप में रखें। समय आने पर मांगूंगी।' मूलदेव अत्यन्त द्यूत व्यसनी था। वह पहनने के कपड़े भी दांव पर लगाने से नहीं चूकता था। देवदत्ता ने अनुनयपूर्वक मधुर स्वर में मूलदेव को कहा-'प्रियतम ! चन्द्रमा में कलंक की भांति तुम इस व्यसन को क्यों धारण किए हुए हो? तुम सब गुणों से अलंकृत हो पर द्यूत रूप कलंक से कलंकित हो। द्यूत सभी दोषों का घर है अत: मेरे आग्रह से तुम इस व्यसन को पूर्ण रूप से छोड़ दो।' द्यूत में अत्यधिक रस होने के कारण मूलदेव उसे छोड़ नहीं सका। देवदत्ता के प्रति वहीं का निवासी अचल नामक सार्थवाह-पुत्र भी अत्यधिक आमत्त था। Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ नियुक्तिपंचक वह देवदत्ता को इच्छानुसार वस्तुएं देता था। समय-समय पर वस्त्र-आभरण आदि भी भेजता रहता था। वह मूलदेव के प्रति प्रद्वेष रखता था। वह निरन्तर उसके दोष खोजने की ताक में रहता था। उसके कारण मलदेव अवसर के बिना देवदत्ता के घर नहीं जा सकता था। देवदत्ता की मां ने अपनी पुत्री से कहा-'बेटी ! इस मूलदेव को छोड़ दे। इस निर्धन से तुम्हारा कोई प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है। वह उदार महानुभाव अचल बार-बार तुम्हारे लिए विविध प्रकार की सामग्री भेजता है अतः पूर्ण प्रणय से उसी को अंगीकार करो। एक ही म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं। अलूणी शिला को कोई नहीं चाटता । इसलिए तू जुआरी मूलदेव को छोड़ दे।' देवदत्ता ने कहा-'अम्मा! मैं एकान्त रूप से धन की अनुरागिनी नहीं हूं। मेरी प्रतिबद्धता गुणों के साथ है।' मां ने पूछा-'उस जुआरी में ऐसे क्या गुण हैं, जिससे तू उस पर इतनी आसक्त है?' देवदत्ता ने कहा-'मां! वह गुणों का भण्डार है। वह धीर, उदारचरित, अनुकूल, कलानिपूण, प्रियभाषी, कतज्ञ. गणानरागी और विशेषज्ञ है अत: मैं उसे नहीं छोड़ सकती।' कुट्टिनी ने अनेक दृष्टान्तों से देवदत्ता को प्रतिबोध दिया कि जो अलक्तक मांगने पर नीरस वस्तु देता है, इक्षुखंड मांगने पर उसके छिलके मात्र देता है, फूल मांगने पर वृन्तमात्र देता है। वह जैसा है वैसा ही तुम्हारा प्रियतम है फिर भी तुम उसको नहीं छोड़ रही हो।' देवदत्ता ने सोचा-'मेरी मां मूढ है, इसीलिए ऐसे दृष्टान्त दे रही है।' एक दिन देवदत्ता ने अपनी मां से कहा-'मां! आप अचलकमार से इक्ष मंगवाएं।' उसने अचल को इक्षु लाने को कहा। अचल ने शकट भरकर इक्षु भेज दिए। देवदत्ता ने कहा-'क्या मैं हथिनी हूं जो इस प्रकार के पत्तों और डालों से युक्त प्रभूत इक्षु भेजे हैं।' देवदत्ता की मां ने कहा-'पुत्री ! अचलकुमार बहुत उदार है इसीलिए उसने शकट भरकर इक्षु भेजे हैं। उसने यह भी सोचा होगा कि वह दूसरों को भी इक्षु बांटेगी इसलिए प्रभूत इक्षु-दंड भेजे हैं।' दूसरे दिन देवदत्ता ने अपनी दासी माधवी से कहा-'हले ! जाकर मूलदेव को कहो कि मेरी इक्षु खाने की इच्छा हो रही है अत: वह इक्षु भेजे।' दासी ने जाकर सारी बात बताई। मूलदेव ने बाजार में जाकर दो इक्षुदंड खरीदे। उसको छीलकर उसने दो-दो अंगुल प्रमाण टुकड़े किए। इलायची से उन्हें सुगंधित किया। कपूर आदि द्रव्यों से उन्हें वासित किया। एक शूल से थोड़ा छेद करके उन्हें माला के रूप में धागे में पिरो दिए। एक बर्तन में उन्हें रखकर ढक्कन देकर देवदत्ता के पास भेज दिए। माधवी ने वे इक्षुखंड देवदत्ता को उपहृत किए। देवदत्ता ने उन इक्षु खंडों को अपनी मां को दिखाते हुए कहा-'देखो मां! दोनों पुरुषों में कितना अंतर है? गुणों के कारण ही मैं मूलदेव पर अनुरक्त हूं।' मां ने सोचा-'यह मूलदेव पर अत्यंत अनुरक्त है अत: यह स्वयं उसे नहीं छोड़ेगी। मुझे कोई न कोई उपाय करना चाहिए, जिससे यह कामुक यहां से चला जाए।' उसने अचल से कहा-'तुम बहाना बनाकर ग्रामान्तर जाने की बात देवदत्ता को कहो। फिर मूलदेव के यहां आने पर अपने लोगों के साथ यहां आकर उसका अपमान करो। अपमानित होने पर वह देशत्याग कर देगा। फिर तुम देवदत्ता के साथ ही रहना। मैं तुम्हें सारी सूचनाएं भेज दूंगी।' अचल ने यह बात स्वीकार कर ली। दूसरे दिन उसने वैसा ही किया। वह ग्रामान्तर जाने के बहाने घर से निकल पड़ा। मूलदेव निर्भय होकर देवदत्ता के यहां आया। देवदत्ता की मां ने अचल को मूलदेव के आगमन की बात कहलवा दी। वह अपनी साधन-सामग्री के साथ वहां आ गया। देवदत्ता ने अचल Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं को अपने भवन में प्रवेश करते देखा । उसने मूलदेव से कहा- 'प्रतीत होता है कि मां ने अचल द्वारा प्रेषित सामग्री स्वीकार कर ली है अत: तुम कुछ क्षणों के लिए पलंग के नीचे छिप जाओ।' वह पलंग के नीचे छिप गया । अचल ने उसे पलंग के नीचे छिपते देख लिया । अचल पलंग पर बैठ * गया और देवदत्ता से बोला- 'स्नान की सामग्री तैयार करवाओ।' देवदत्ता ने कहा - 'ठीक है, तुम उठो और अपने कपड़े उतारो जिससे शरीर में तेलमर्दन किया जा सके। अचल बोला- 'आज मैंने स्वप्न देखा है कि कपड़े पहनकर ही मैंने तेलमर्दन करवाया है तथा पलंग पर आरूढ़ होकर ही स्नान किया है। इसलिए मेरे इस स्वप्न को सत्य करो।' देवदत्ता ने कहा - 'इससे यह बहुमूल्य रूई का गद्दा और तकिया नष्ट हो जाएगा। अचल ने कहा- 'मैं तुमको इससे भी अधिक विशिष्ट और कीमती बिछौना ला दूंगा । देवदत्ता की मां ने कहा- 'ठीक है, तुम्हारी इच्छा पूरी करो।' अचल ने वहीं पलंग पर बैठकर अंगमर्दन और उबटन करवाया तथा गर्म पानी से स्नान किया। नीचे बैठा मूलदेव पानी से भीग गया। तत्काल आयुध ग्रहण किए हुए अनेक पुरुष वहां आ गये । देवदत्ता की मां ने अचल को मूलदेव का संकेत कर दिया। उसने मूलदेव के बालों को पकड़कर बाहर निकाला और कहा'अरे ! बोल इस समय तेरा कोई शरण है?' मूलदेव ने अपने चारों ओर देखा । तीक्ष्ण तलवारों को हाथ में लिए अनेक मनुष्य उसे घेरे हुए थे । उसने सोचा- 'मैं आज इन लोगों से बच नहीं सकता अतः मुझे वैर-निर्यातन-वैर-शुद्धि कर लेनी चाहिए। मैं इस समय निःशस्त्र हूं अतः यह पौरुष दिखाने का अवसर नहीं है।' मूलदेव ने चिंतन करके कहा- 'जो तुम्हें अच्छा लगे वही करो।' अचल ने सोचा-आकृति से तो यह कोई उत्तम पुरुष प्रतीत होता है। संसार में महापुरुष भी व्यसन से आक्रान्त हो जाते हैं। कहा भी है- 'संसार में कौन ऐसा व्यक्ति है, जो सदा सुखी है, किस व्यक्ति के पास लक्ष्मी स्थिर रही है ? कौन ऐसा व्यक्ति है, जिससे स्खलना नहीं होती? कौन ऐसा है जो विधि - भाग्य के द्वारा दुःखी या कदर्थित न हुआ हो?" अचल ने कहा- -' मूलदेव ! मैं तुम्हें इस अवस्था में मुक्त कर रहा हूँ। भाग्यवश मैं भी कभी ऐसी विपत्ति में फंस जाऊं तो तुम भी ऐसा ही बर्ताव करना।' ५३९ तब मूलदेव दुःखी मन से नगर के बाहर चला गया। उसने सोचा, ओह ! किस प्रकार मैं अचल से छला गया हूं। उसने सरोवर में स्नान किया और कुछ खाया-पीया। मूलदेव ने चिंतन किया कि मैं विदेश जाऊं। वहां जाकर इस अपमान का प्रतिकार करूं । वह वेन्नातट की ओर चला । ग्राम, नगर आदि के मध्य से जाते हुए वह बारह योजन लम्बी अटवी के पास पहुंचा। उसने सोचा कि यदि चलते हुए कोई वाग्मित्र मिल जाए तो सुखपूर्वक अटवी पार हो जाए। थोड़ी देर में वहां विशिष्ट आकृति वाला, पाथेय हाथ में लिए हुए 'टक्क' ब्राह्मण मिला। मूलदेव ने पूछा - ' अरे ब्राह्मण ! कितनी दूर जाओगे?' उसने कहा- 'अटवी के परे वीरनिधान नामक गांव है, वहां जाऊंगा।' ब्राह्मण ने पूछा- 'तुम कहां जाओगे ?' मूलदेव ने कहा- 'मैं वेन्नातट पर जाऊंगा।' ब्राह्मण ने कहा- 'आओ, हम दोनों साथ चलें ।' मध्याह्न के समय चलते हुए उन्होंने एक सरोवर देखा । टक्क ब्राह्मण ने कहा——यहां क्षणभर विश्राम कर लें।' वे पानी के पास गए और हाथ-पैर धोए । मूलदेव नदी के किनारे स्थित वृक्ष की छाया में बैठ गया। टक्क ब्राह्मण ने अपना पाथेय का थैला खोला और सत्तू को पात्र में डाला । उसको जल में घोलकर वह खाने लगा। मूलदेव ने सोचा- 'यह ब्राह्मण जाति Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक भूखप्रधान होती है ।' ब्राह्मण खाना खाकर अपनी पोटली बांधकर आगे चलने लगा। 'यह मध्याह्न में मुझे देगा' ऐसा सोचकर मूलदेव उसके पीछे-पीछे चलने लगा। दोपहर को उसने खाना खाया पर मूलदेव को नहीं दिया । 'यह कल मुझे कुछ खाने को देगा' इस आशा से मूलदेव आगे चला । आगे चलते हुए रात हो गयी। रास्ता पार कर वे एक वटवृक्ष के नीचे सो गए। प्रातः काल पुनः प्रस्थान किया। मध्याह्न में वे थक गए। टक्क ने भोजन किया लेकिन मूलदेव को नहीं दिया। तीसरे दिन मूलदेव ने सोचा कि अब तो अटवी लगभग पार हो गयी है, आज तो यह अवश्य मुझे कुछ खाने के लिए देगा। किन्तु ब्राह्मण ने कुछ नहीं दिया । उन लोगों ने अटवी पार कर ली। ब्राह्मण ने कहा- 'दोनों के अलग-अलग मार्ग आ गए हैं, यह तुम्हारा मार्ग है और यह मेरा अतः तुम इस मार्ग से चले जाओ।' मूलदेव ने कहा- 'ब्राह्मणदेव ! मैं आपके प्रभाव से यहां तक आ गया हूँ। मेरा नाम मूलदेव है। यदि आपका कोई प्रयोजन मेरे से सिद्ध हो तो वेन्नातट पर आ जाना।' मूलदेव ने पूछा- 'आपका नाम क्या है?' ब्राह्मण ने कहा- 'मेरा नाम सद्धड़ ( श्राद्ध) है। लोगों के द्वारा मेरा नाम निर्घृणशर्मा किया गया है। ५४० ब्राह्मण अपने गांव चला गया । मूलदेव भी वेन्नातट की तरफ चला गया। इसी बीच उसने एक बस्ती देखी। वह भिक्षा के लिए पूरे गांव में घूमा । उसे उड़द के अलावा कोई धान्य नहीं मिला ! वह जलाशय की तरफ गया। वहां उसने तपस्या से कृशदेह, मासखमण का पारणा करने के लिए आने वाले एक महातपस्वी को देखा । तपस्वी को देखकर मूलदेव अत्यधिक हर्षित हुआ । मूलदेव ने सोचा- 'अहो, मैं कृतार्थ हूँ, जो इस तपस्वी के आज दर्शन हुए हैं। अब अवश्य ही मेरे जीवन का कल्याण होगा। जैसे मरुस्थल में कल्पवृक्ष, दरिद्र के घर स्वर्ण - वृष्टि, मातंग के घर ऐरावत का होना सौभाग्य है, वैसे ही यहां मुनि के दर्शन मेरे लिए अत्यन्त कल्याणप्रद हैं। ये साधु ज्ञान, दर्शन से युक्त तथा स्वाध्याय, ध्यान और तप में निरत हैं अतः ये सुपात्र हैं। इनको दान देना अनंत सौभाग्य का कारण है। आज अवसर अतः मैं यह उड़द का भोजन इन्हें दूंगा । इस गांव में कोई दाता नहीं है, इसीलिए ये महात्मा कुछ घरों में दर्शन देकर पुन: लौट जाते हैं। मैं दो तीन बार इस गांव में जाऊंगा तो मुझे उड़द मिल जायेंगे। दूसरा गांव पास ही है अतः ये सारे उड़द मैं इनको ही दे दूंगा।' यह सोचकर मूलदेव ने मुनि को वंदना की और वे उड़द मुनि के समक्ष प्रस्तुत कर दिए। साधु ने द्रव्यशुद्धि और उसके परिणामों के प्रकर्ष को देखकर कहा - 'वत्स ! थोड़े देना, सभी मत डाल देना, ऐसा कहकर पात्र नीचे रख दिया । मूलदेव ने प्रवर्धमान भावों से मुनि को उड़द दिए । इसी बीच आकाश के बीच से ऋषिभक्त देवता मूलदेव की भक्ति से प्रसन्न होकर बोला- 'मूलदेव ! तुमने सुन्दर काम किया है। तुम एक गाथा के पश्चार्ध से जो चाहो वह मांग लो। मैं तुम्हारी सारी कामना पूर्ण करूंगा। मूलदेव ने कहा- 'गणियं च देवदत्तं, दंतिसहस्सं च रज्जं च'- मुझे देवदत्ता गणिका, एक हजार हाथी और राज्य चाहिए। देवता ने कहा- 'वत्स ! तुम निश्चित रहो। इस तपस्वी मुनि के प्रभाव से शीघ्र ही तुम्हारी इच्छा पूरी होगी।' मूलदेव ने कहा- 'बस इतना ही ' । ऋषि को वंदना कर मूलदेव लौट गया और ऋषि भी उद्यान में चले गए। मूलदेव ने गांव से दूसरी भिक्षा प्राप्त कर ली। भोजन कर मूलदेव ने वेन्नातट की ओर प्रस्थान कर दिया। चलते-चलते वह वेन्नातट पहुंचा और रात्रि में पांथशाला में ही ठहर गया। अंतिम प्रहर में उसने एक स्वप्न देखा कि वह एक स्थान पर अनेक कार्पटिकों के साथ बैठा हुआ है। निर्मल चांदनी से युक्त, पूर्ण मंडल वाला चन्द्रमा पेट 1 Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं में प्रवेश कर रहा है। दूसरे कार्पटिकों ने भी ऐसा ही स्वप्न देखा। उसने अन्य कार्यटिकों को वह स्वप्न कहा। उनमें से एक कार्पटिक ने कहा-' आज तुम घी और गुड़ से युक्त एक बड़ी रोटी प्राप्त करोगे।' यह सुनकर मूलदेव ने सोचा, ये स्वप्न के परमार्थ को नहीं जानते इसलिए उसने अपने स्वप्न का अर्थ नहीं बताया। स्वप्नद्रष्टा कार्पटिक भिक्षा के लिए गया। उसे छावनी में घी और गुड़ से संयुक्त बड़ा रोट मिला। वह प्रसन्न हो गया। उसने कार्पटिकों से यह बात कही। मूलदेव भी एक उद्यान में चला गया। वहां फूलों का ढेर लिए एक माली आ रहा था । उसने मूलदेव को पुष्प और फल दिए। उनको लेकर मूलदेव सरोवर पर स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वप्न-पाठकों के पास गया। उनको प्रणाम कर कुशलक्षेम पूछा। स्वप्न- पाठकों ने भी उसे बहुमान देते हुए आने का प्रयोजन पूछा। मूलदेव ने करबद्ध होकर स्वप्न का सारा वृत्तान्त बताया। स्वप्नपाठक उपाध्याय ने प्रसन्न होकर कहा- 'मैं तुम्हें शुभ मुहूर्त्त में स्वप्न का फल बताऊंगा। आज तुम हमारे अतिथि बनकर रहो।' मूलदेव ने उसका आतिथ्य स्वीकार कर लिया। स्नान आदि से निवृत्त होकर बहुत आदर और सत्कार के साथ उसने वहां भोजन किया। उपाध्याय ने कहा - 'पुत्र ! यह मेरी कन्या विवाह योग्य है, अत: मेरे अनुरोध से तुम इसके साथ विवाह कर लो' । मूलदेव ने कहा—'महाशय ! आप अज्ञात कुल-शील वाले मुझको जामाता कैसे बना रहे हैं?' उपाध्याय ने कहा- 'वत्स ! बिना बताए ही आचार से कुल जाना जा सकता है।' उसने अनेक सुभाषितों से उसको समझाकर शुभ मुहूर्त्त में अपनी कन्या का विवाह मूलदेव के साथ कर दिया। स्वप्न का फल बताते हुए उपाध्याय ने कहा- 'तुम सात दिन के भीतर राजा बन जाओगे'। यह सुनकर मूलदेव अत्यन्त आनन्दित हुआ और वहीं सुखपूर्वक रहने लगा। पांचवें दिन वह नगर के बाहर घूमने गया । वह एक चंपक वृक्ष की छाया में विश्राम करने बैठ गया । अकस्मात् ही नगरी का राजा उस दिन मर गया। उसके कोई पुत्र नहीं था । अमात्य ने पांच दिव्य - हाथी, अश्व, स्वर्णमय जलपात्र, चामर और पुंडरीक को अधिवासित कर नगर में भेजा। वे पांचों नगर के बाहर अपरिवर्तित छाया में विश्राम कर रहे मूलदेव के पास आकर ठहरे। मूलदेव को देखकर हाथी चिंघाड़ने लगा, घोड़ा हिनहिनाने लगा, स्वर्णमय पात्र से मूलदेव का अभिषेक किया गया, चामर डुलाए गए और उस पर कमल रखा गया। लोगों ने जय-जयकार किया। हाथी ने उसे अपनी पीठ पर चढ़ा लिया और नगरी में घुमाया। मंत्री, सामन्त आदि ने उसका अभिषेक किया। आकाश से देववाणी हुई कि यह महानुभाव सम्पूर्ण कलाओं में पारंगत, देवताधिष्ठित शरीर वाला, विक्रमराज नामक राजा है, जो इसके अनुशासन में नहीं रहेगा उसको मैं क्षमा नहीं करूंगा। नगरी के सभी सामंत, मंत्री और पुरोहित मूलदेव की आज्ञा के अधीन हो गए। वह विपुल सुख का अनुभव करता हुआ रहने लगा। मूलदेव ने उज्जयिनी के राजा विचारधवल के साथ संव्यवहार प्रारम्भ किया। उन दोनों में निरन्तर प्रीति बढ़ती गई। इधर देवदत्ता अचल द्वारा मूलदेव के प्रति की गई विडम्बना को याद कर अचल से विरक्त हो गयी। उसने अचल को फटकारते हुए कहा- 'मैं वेश्या हूं, तुम्हारी पत्नी नहीं हूं । फिर भी तुम मेरे घर में रहते हुए ऐसा व्यवहार करते हो? अब तुम मेरी इच्छा के विरुद्ध प्रणय-याचना मत करना।' यह कहकर वह राजा के पास चली गई। राजा के चरणों में प्रणाम कर वह बोली ५४१ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक 'राजन् ! आप मुझ पर कृपा करें।' राजा ने कहा- 'बोलो, क्या चाहती हो? क्या कुछ अभद्र हो रहा है?' देवदत्ता ने कहा- 'मूलदेव को छोड़कर कोई दूसरा पुरुष मेरे घर न आए। इस अचल का मेरे घर आना रोक दें।' राजा ने कहा- 'जैसा तुम चाहोगी वैसा ही होगा पर यह तो बताओ कि वृत्तान्त क्या है ? ' तब माधवी ने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। यह सुनकर राजा अचल पर अत्यन्त क्रुद्ध हो गया। राजा ने कहा -'मेरी नगरी में दो रत्न हैं- देवदत्ता वेश्या तथा मूलदेव । उनकी भी निर्भर्त्सना होती है?' राजा ने तब अचल को बुलाया और उसको तिरस्कृत करते हुए कहा- 'क्या तुम इस नगरी राजा हो जो ऐसा व्यवहार करते हो? तुम बताओ, अब किसकी शरण लेना चाहते हो? मैं तुम्हें प्राणदंड देता हूँ । देवदत्ता ने कहा- 'राजन् ! कुत्ते की मौत मरे हुए को मारने से क्या लाभ? अतः इसे मुक्त कर दें।' तब राजा बोला - ' अरे अचल ! देवदत्ता के कहने से मैं तुम्हें मुक्त कर रहा हूं । तुम्हारी शुद्धि तो तब होगी जब तुम मूलदेव की खोज कर उसे यहां ले आओगे।' अचल राजा के चरणों में गिरकर राजकुल से बाहर चला गया। वह चारों दिशाओं में मूलदेव की खोज करने लगा। कहीं उसका अता-पता नहीं मिला तब वह भांडों से वाहनों को भरकर अनुभव के आधार पर व्यापारार्थ फारसकुल की ओर प्रस्थित हो गया। कुछ समय के बाद मूलदेव ने देवदत्ता और वहां के राजा के लिए एक लेखपत्र और अनेक उपहार भेजे। उसने राजा के लेखपत्र में लिखा- 'मेरा स्वभावतः देवदत्ता से बहुत प्रेम है । यदि आपको रुचिकर लगे और देवदत्ता की इच्छा हो तो देवदत्ता को यहां भेजने का अनुग्रह करें ।' राजा ने दूत से कहा - 'विक्रम राजा ने यह क्या बड़ी बात लिखी? हमारे लिए उनसे विशेष कोई चीज है क्या? देवदत्ता क्या सारा राज्य भी उसका ही है।' राजा ने देवदत्ता को बुलाया और सारी बात हुए कहा कि यदि तुम्हारी इच्छा हो तो तुम उसके पास जा सकती हो। देवदत्ता ने कहा-' आपने मुझ पर अत्यन्त कृपा की। आपकी अनुज्ञा से मेरे मनोरथ फल गए।' राजा ने अपार वैभव से देवदत्ता का सत्कार कर उसे मूलदेव के पास भेज दिया । मूलदेव ने भी बहुत सम्मान और राजकीय वैभव के साथ उसका नगर में प्रवेश करवाया। इस आदान-प्रदान से दोनों आपस में एक हो गए। देवदत्ता के साथ विषय-सुख का अनुभव करता हुआ वह आनंदपूर्वक रहने लगा । अचल फारस देश पहुंचा। वहां भांडों का विक्रय कर अपार संपत्ति अर्जित की। उसे नौका में भरकर वह वेनातट पर आया । वह नगर के बाहर रुका। अचल ने लोगों से पूछा- 'यहां के राजा का क्या नाम है ?' लोगों ने कहा- 'विक्रम'। वह सोने, चांदी और मोती के थाल भरकर राजा को भेंट करने गया । राजा ने उसे आसन दिया और पहचान लिया। अचल ने नहीं जाना कि यह वही मूलदेव है । राजा ने पूछा - ' श्रेष्ठिवर ! आप कहां से आए हैं?' अचल ने कहा- 'मैं फारसकुल से आया हूं ।' राजा के द्वारा सत्कार किए जाने पर अचल ने कहा- 'राजन् ! आप अपने निरीक्षक को भेजें, जो भांडों का निरीक्षण कर सके।' राजा ने कहा- 'मैं स्वयं देखने के लिए चलूंगा।' राजा पंचों के साथ वहां गया। अचल ने अपने जहाज में भरे सभी द्रव्य एक-एक कर राजा को दिखाए। पंचों के समक्ष राजा ने पूछा- ' श्रेष्ठीवर ! क्या आपके पास इतना ही सामान है?' अचल ने कहा-' राजन् ! इतना ही है।' राजा ने तब कहा - 'थैलों को मेरे सामने तोलो और आधा सेठ को दे दो।' राजपुरुषों ने उसे तोला । पादप्रहार तथा वंशवेध करने से यह ज्ञात हुआ कि मंजिष्ठ के भीतर बहुमूल्य ५४२ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं पदार्थ छिपाए हुए हैं। राजा ने थैलों को फड़वाया। थैलों को फाड़ने पर यह देखकर राजा को आश्चर्य हुआ कि कहीं सोना, कहीं चांदी तथा कहीं मणि, मोती, प्रवाल आदि बहुमूल्य पदार्थों के भांड रखे हुए हैं। उसे देखकर राजा ने रुष्ट होकर अपने व्यक्तियों को आदेश दिया कि यह प्रत्यक्षतः चोर है। इसे बांधकर ले जाओ । अचल थर-थर धूजने लगा। आरक्षकों ने उसे बांधा। राजा यान पर चढ़कर अपने भवन में चला गया। आरक्षक उसे राजा के पास लाए। उसे गाढ़ बंधन में बंधा देखकर राजा ने कहा- 'अरे ! इसे छोड़ दो।' आरक्षकों ने उसे मुक्त कर दिया। राजा ने पूछा- 'क्या तुम मुझे पहचानते हो?" अचल बोला- 'देव ! आप समस्त विश्व में प्रसिद्ध हैं। आपको कौन नहीं जानता है ?' राजा ने कहा - ' औपचारिक बातों को छोड़ो। यदि तुम जानते हो तो स्पष्ट कहो ।' अचल ने कहा- 'मैं आपको पूरी तरह नहीं जानता।' तब राजा ने देवदत्ता को वहां बुलाया। वह अलंकारों से अलंकृत होकर वहां आई। अचल ने उसे पहचान लिया। उसे देख वह मन ही मन लज्जा का अनुभव करने लगा । देवदत्ता ने कहा- 'यह वही मूलदेव है, जिसको तुमने कहा था कि भाग्यवश यदि मेरे में कभी ऐसी विपत्ति आ जाए तो तुम मेरी सहायता करना । यह अवसर है। राजा (मूलदेव) ने तुमको बंधनमुक्त कर दिया है। यह सुनकर अचल लज्जित होकर बोला- 'आपने मुझ पर महान् अनुग्रह किया है।' ऐसा कहकर वह राजा और देवदत्ता के चरणों में गिर पड़ा। सकल कलाओं से परिपूर्ण, निर्मल स्वभाव वाले पूर्णिमा के चन्द्रमा की मैंने राहु जैसी कदर्थना की है अतः हे राजन् ! मुझे क्षमा कर दें। आपकी कदर्थना करने से कुपित होकर महाराज ने भी मुझे उज्जयिनी में प्रवेश नहीं दिया। मूलदेव ने कहा- 'मैंने और देवी देवदत्ता ने तुम्हें क्षमा कर दिया है।' वह फिर उन दोनों के चरणों में गिर पड़ा । देवदत्ता ने परम आदर से उसे स्नान करवाया, भोजन खिलाया और उसे बहुमूल्य वस्त्र पहनाए। राजा ने उसे कर मुक्त कर दिया । उसका सारा सामान उसको सौंप दिया। राजा विक्रम ने उसे उज्जयिनी भेजा। राजा मूलदेव के द्वारा अभ्यर्थित होने के कारण उज्जयिनी के राजा विचारधवल ने भी उसे क्षमा कर दिया। निर्घृणशर्मा ने जब सुना कि मूलदेव राजा बन गया है तो वह भी वेन्नातट पर आ गया। मूलदेव ने उसकी अदृष्ट सेवा से प्रसन्न होकर एक गांव उसे पुरस्कार के रूप में दे दिया। वह राजा को प्रणाम कर कृतज्ञता ज्ञापित कर अपने गांव चला गया। इधर उस कार्पटिक ने सुना कि मूलदेव ने मेरे जैसा ही स्वप्न देखा था पर वह स्वप्नादेश से राजा बन गया । उसने सोचा- 'मैं वहां जाऊं, जहां गोरस- दही, छाछ, आदि प्राप्त होते । उन्हें पीकर सो जाऊं । सोऊंगा तो पुनः वैसा ही स्वप्न देखूंगा।' संभव है वह पुनः उस स्वप्न को देख ले, लेकिन मनुष्य भव पुनः मिलना दुर्लभ है। ३२. चक्र इन्द्रपुर नगर में इन्द्रदत्त नाम का राजा राज्य करता था । उसकी प्रिय रानियों के बावीस पुत्र थे। राजा को सभी पुत्र अपने प्राणों से अधिक प्रिय थे। राजा के अमात्य की एक पुत्री थी । विवाह के अवसर पर राजा ने उसे देखकर पूछा- 'यह कौन है ?' लोगों ने कहा- 'यह आपकी देवी (रानी) है ।' राजा उस अमात्य - पुत्री के साथ एक रात रहा। ऋतुस्नाता होने से वह गर्भवती हो गयी। अमात्य १. उनि. १६१, उसुटी. प. ५९-६५ । २. कुछ मान्यता के अनुसार एक ही रानी के बावीस पुत्र थे । ५४३ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ नियुक्तिपंचक ने अपनी पुत्री को कहा-'जब तुम्हें गर्भ की अनुभूति हो तब मुझे कह देना।' एक दिन अमात्यपुत्री ने अपने पिता को दिन, मुहूर्त आदि बताते हुए राजा द्वारा किया गया वादा कह सुनाया। अमात्य ने उसे सारा एक पत्र में लिखा और उस पत्र को छिपाकर रख लिया। अमात्य-पुत्री का गर्भकाल पूरा हुआ। नौ महीनों के पश्चात् उसने एक पुत्र का प्रसव किया। उसका नाम सुरेन्द्रदत्त रखा गया। उसी दिन उसके घर चार दास-पुत्रों का जन्म हुआ। उनके नाम आग्निक, पर्वतक, बाहुलक और सागर रखे गए। राजा के सभी पुत्रों- सुरेन्द्रदत्त तथा दासीपुत्रों को कलाचार्य के पास शिक्षाग्रहण करने भेजा गया। कलाचार्य ने लेख, गणित आदि अनेक कलाओं का शिक्षण दिया। जब कलाचार्य दासीपुत्रों को शिक्षण देते तब वे आचार्य को आकुल-व्याकुल करते । अविनय और उदंडता के कारण वे शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाए। वे बावीस राजकुमार कलाचार्य के द्वारा डांटे जाने पर आचार्य को पीट देते या अशिष्ट वचनों का प्रयोग करते। जब आचार्य उनको पीटते तो वे अपनी माता को जाकर आचार्य की शिकायत कर देते। तब राजा आचार्य को तिरस्कृत करते कि हमारे पुत्रों को आप क्यों पीटते हैं? माता-पिता के हस्तक्षेप से वे बावीस पुत्र सम्यक् रूप से शिक्षा ग्रहण नहीं कर सके। लेकिन सुरेन्द्रदत्त ने कलाचार्य से बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त कर ली क्योंकि वह विनीत और गंभीर था। मथुरा के राजा जितशत्रु के निर्वृति नामक लड़की थी। विवाह के योग्य होने पर उसे अलंकृत करके राजा के सामने उपस्थित किया गया। राजा ने अपनी पुत्री से कहा-'तुम्हें जो वर प्रिय हो, उसका वरण कर लो।' उसने कहा-'जो शूर, वीर और विक्रान्त हो, वही मेरा पति होगा।' राजा ने कहा-'जिसे तुम पसंद करोगी उसे राज्य भी दिया जाएगा।' वह सेना और वाहन को लेकर इन्द्रपुर नगर गयी। वहां इन्द्रदत्त राजा के बहुत पुत्र थे। इन्द्रदत्त ने संतुष्ट होकर सोचा- 'अन्य राजाओं से इस लड़की का पिता अच्छा है। यह स्वयं यहां आई है।' इन्द्रदत्त ने नगर को पताकाओं से सजाया। एक स्थान पर उसने एक अक्ष पर आठ चक्र बनाए। उनके आगे एक पुतली रख दी और उसकी आंख बींधने की शर्त रखी गयी। इन्द्रदत्त राजा सन्नद्ध होकर अपने पुत्रों के साथ वहां आया। निर्वृति राजकुमारी भी सर्वालंकार से विभूषित होकर वहां बैठ गयी। जैसे द्रौपदी के स्वयंवर में राजाओं और योद्धाओं का रंग जमा था वैसा ही रंग उस स्वयंवर में जमा। इन्द्रदत्त राजा के ज्येष्ठ पुत्र का नाम श्रीमाली था। राजा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र से कहा-'इस कन्या और राज्य को ग्रहण करना चाहिए अतः तुम दत्तचित्त होकर पुतली का लक्ष्यवेध करो।' वह राजकुमार अनभ्यास के कारण लोगों के मध्य धनुष को उठाने में भी समर्थ नहीं हुआ। किसी प्रकार उसने धनुष को उठाया। उसने बाण छोड़ा लेकिन बाण चक्र से भग्न हो गया। इस प्रकार किसी ने एक अर (चक्र) को पार किया. किसी ने दसरे का तथा किसी-किसी का बाण तो बाहर से ही निकल गया। तब राजा इन्द्रदत्त अधीर होकर अपने आपको अपमानित महसूस करने लगा। अमात्य ने कहा-'आप अधीर क्यों होते हैं?' राजा बोला-'इन पुत्रों के कारण मुझे अपमानित होना पड़ा है। इन पुत्रों ने मुझे तुच्छ बना डाला है।' तब मंत्री बोला-'मेरी पुत्री से उत्पन्न आपका एक अन्य पुत्र भी है, जिसका नाम सुरेन्द्रदत्त है। वह इस लक्ष्य को बींधने में समर्थ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५४५ है।' अमात्य ने पहचान के चिह्नों की बात कही। राजा ने पूछा-'बताओ।' तब अमात्य ने वह लिखित पत्र बताया। राजा ने सुरेन्द्रदत्त का आलिंगन करके कहा-'आठ रथचक्र में स्थित पुतलिका की आंख को बींधकर तुम राज्य और निर्वृति दारिका को प्राप्त करो। तब सुरेन्द्रदत्त ने 'जैसी आज्ञा' ऐसा कहकर धनुष को उठाया। चारों दिशाओं में स्थित दासपुत्र विघ्न उत्पन्न करने लगे। दोनों पार्श्व में खड्ग को ग्रहण कर दो व्यक्ति खड़े थे। यदि किसी प्रकार यह राजकुमार लक्ष्य को चूक जाए तो इसका शीर्षच्छेद कर देना है। उपाध्याय भी पास में स्थित होकर भय उत्पन्न करते हुए कहने लगा-'यदि लक्ष्य चक गए तो मारे जाओगे।' वे बावीस राजकमार जो लक्ष्यभेद नहीं कर सके, वे भी विघ्न उपस्थित करने लगे। सुरेन्द्रदत्त ने इन सब विघ्नों की परवाह न करते हुए लक्ष्य में दृष्टि को स्थिर कर, मन को उसी में निविष्ट कर दिया। उसने आठ रथचक्र के भीतर पुतली की बांयी आंख को बींध डाला। तब लोगों ने उच्च स्वरों में उसका जय-जयकार किया और धन्यवाद दिया। __जिस प्रकार उस पुतली की आंख को बींधना दुष्कर था, वैसे ही मनुष्य जन्म दुष्कर है। ३३. चर्म एक तालाब था। उसका विस्तार एक लाख योजन तक था। पूरे तालाब पर सघन शैवाल छाई हुई थी। ऐसा लगता था मानो वह शैवाल रूपी चर्म से अवनद्ध हो। वहीं एक कछुआ रहता था। एक बार उसने तालाब में एक छिद्र को देखा। छेद उतना ही बड़ा था, जिसमें उसकी गर्दन समा सके। उस कच्छप ने अपनी गर्दन को छेद से बाहर निकाला और ऊपर देखा। आकाश में चांद एवं तारे टिमटिमा रहे थे। चांदनी के प्रकाश में उसने फूल एवं फलों को भी देखा। कुछ क्षणों तक वह देखता रहा, फिर उसने सोचा, परिवार के सदस्यों को भी यह मनोरम दृश्य दिखाऊं। वह गया और अपने पूरे परिवार को लेकर आया। वह चारों ओर घूमता रहा, परन्तु उसे कहीं भी छिद्र दृष्टिगत नहीं हुआ। इसी प्रकार मनुष्यभव प्राप्त होना दुष्कर है। ३४. युग एक अथाह समुद्र के एक छोर पर जुआ है और दूसरे छोर पर उसकी कील पड़ी है। उस कील का जुए के छिद्र में प्रवेश होना दुर्लभ है। उसी प्रकार मनुष्य जन्म भी दुर्लभ है। कील उस अथाह पानी में प्रवाहित हो गयी। बहते-बहते संभव है कि वह इस छोर पर आकर जुए के छिद्र में प्रवेश कर ले, किन्तु मनुष्य जन्म से भ्रष्ट जीव का पुनः मनुष्य जन्म पाना दुर्लभ है।' ३५. परमाणु (क) एक खंभा था। किसी देव ने उसको चूर्णित कर उस चूर्ण को एक नालिका में भरकर मंदर पर्वत पर जाकर फूंककर बिखेर दिया। स्तम्भ के सारे परमाणु इधर-उधर बिखर गए। क्या दूसरा कोई भी व्यक्ति पुन: उन परमाणुओं को एकत्रित कर वैसे ही स्तम्भ का निर्माण कर सकता है? कभी नहीं। वैसे ही एक बार मनुष्य जन्म को व्यर्थ खो देने पर पुनः उसकी प्राप्ति दुष्कर होती है। १. उनि.१६१, उसुटी.प. ६५, ६६। २. उनि.१६१, उसुटी.प. ६६। ३. उनि.१६१, उसुटी.प. ६६,६७। Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक (ख) शताधिक स्तम्भों पर अवस्थित एक सभा-भवन है। कालान्तर में उस सभाभवन में आग लग गई और वह जलकर नष्ट हो गया। क्या कोई ऐसा समर्थ व्यक्ति है जो उन विनष्ट पुद्गलों को एकत्रित कर पुन: उस सभा-भवन का निर्माण कर सके? यह असंभव है। इसी प्रकार मनुष्य जन्म भी दुर्लभ है। ३६. जमालि और बहुरतवाद (केवलोत्पत्ति के १४ वर्ष पश्चात्) भगवान् महावीर की बड़ी बहिन सुदर्शना कुंडपुरग्राम में रहती थी। उसके पुत्र का नाम जमालि था। भगवान् की पुत्री अनवद्यांगी उसकी भार्या थी। उसका दूसरा नाम प्रियदर्शना था। जमालि ने ५०० पुरुषों के साथ तथा प्रियदर्शना ने हजार स्त्रियों के साथ भगवान् के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षित होकर उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। एक बार जमालि भगवान् से आज्ञा प्राप्त कर पांच सौ साधुओं के साथ श्रावस्ती नगरी चला गया। वहां तिंदुक उद्यान के कोष्ठक चैत्य में समवसृत हुआ। अंत-प्रान्त आहार सेवन से उसका शरीर रोगाक्रान्त हो गया और दाहज्वर उत्पन्न हो गया। वह बैठने में भी समर्थ नहीं रहा। उसने श्रमणों से कहा-'मेरा शय्या-संस्तारक (बिछौना) करो।' उन्होंने बिछौना करना शुरू किया। अधीर होकर उसने पूछा-'क्या बिछौना कर दिया।' श्रमणों ने कहा-'कर रहे हैं।' जमालि के मन में शंका हो गई कि भगवान तो क्रियमाण को कृत, चलमान को चलित, उदीर्यमाण को उदीरित और निर्जीर्यमाण को निर्जीर्ण कहते हैं, यह मिथ्या है। प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है कि बिछौना क्रि है पर कृत नहीं है, संस्तीर्यमाण है पर संस्तृत नहीं है। इस प्रकार वेदना-विह्वल जमालि मिथ्यात्व के उदय से निहव बन गया। उससे बहुरतवाद' की उत्पत्ति हुई। कुछ साधुओं ने जमालि के कथन पर श्रद्धा की तथा कुछ ने श्रद्धा नहीं की। जिन्होंने श्रद्धा की वे जमालि के पास रहे । जिन्होंने श्रद्धा नहीं की वे बोले-'जमालि ! भगवान् ने जो कहा है, वह तथ्य है। तुम जो कह रहे हो, वह मिथ्या है।' वे पुनः भगवान् महावीर के शासन में प्रव्रजित हो गए। .. साध्वी प्रियदर्शना कुंभकार ढंक के यहां ठहरी हुई थी। वह जमालि के दर्शनार्थ आई। जमालि ने उसे सारी बात समझाई। जमालि के प्रति अनुरक्त होने के कारण उसने जमालि के मत को स्वीकार कर लिया और अन्य साध्वियों को भी समझा दिया। जब कुंभकार को यह ज्ञात हुआ कि प्रियदर्शना उन्मार्ग में प्रस्थित हो गयी है तो उसने उसे सन्मार्ग पर लाना चाहा। एक दिन प्रियदर्शना कुंभकार के यहां स्वाध्याय पौरुषी में रत थी। ढंक मृन्मय भांडों का उद्वर्तन कर रहा था। उसने एक अंगारा उछाला, उससे प्रियदर्शना की शाटिका का एक छोर जल गया। उसने कहा-'आर्य ! यह शाटिका जल गई।' तब कुंभकार ढंक ने कहा-'तुमने ही तो प्ररूपणा की थी कि दह्यमान अदग्ध है फिर तुम्हारी शाटिका कैसे जल गई?' भगवान् महावीर के वचनानुर १. उनि.१६१, उसुटी.प. ६७ । जमालि की दृष्टि के प्रति अनेक जीव रत-आसक्त थे, इसलिए वह बहुरतवाद कहलाया। अथवा एक कार्य की सिद्धि बहुत समय सापेक्ष होती है, इस मान्यता में रत-आसक्त व्यक्ति बहुरतवादी कहलाए। (उशांटी. प. १५७)। Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५४७ कहा जा सकता है कि दह्यमान दग्ध है न कि तुम्हारी मान्यता के अनुसार। प्रियदर्शना प्रतिबुद्ध हो गयी। वह जमालि को समझाने के लिए गयी पर जमालि ने अपने आग्रह को नहीं छोड़ा। तब साध्वी प्रियदर्शना एक हजार साध्वियों के साथ भगवान् की शरण में चली गयी। भगवान् महावीर के समझाने पर भी जमालि की शंका दूर नहीं हुई। असत्प्ररूपणा एवं मिथ्या आग्रह के कारण वह दूसरों को भी शंकित एवं भ्रमित करने लगा। उसने अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया तथा बेले-तेले आदि की विविध तपस्याएं की। १५ दिन की संलेखना एवं एक मास के संथारे में वह दिवंगत हो गया। अपने दोषों की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना ही मृत्यु को प्राप्त होकर वह लान्तक देवलोक में तेरह सागरोपम की स्थिति वाला देव बना। ३७. तिष्यगुप्त और जीव प्रादेशिकवाद (केवलोत्पत्ति के सोलह वर्ष पश्चात्) राजगृह नगर के गुणशिलक चैत्य में चतुर्दशपूर्वी आचार्य वसु का आगमन हुआ। वे वहां अपने शिष्य तिष्यगुप्त को आत्मप्रवाद पूर्व पढ़ाने लगे। उसके एक आलापक में शिष्य ने आचार्य से पूछा-'भंते! क्या जीव-प्रदेश को जीव कहा जा सकता है?' आचार्य ने कहा-'उसे जीव नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार दो, तीन, चार, संख्येय, असंख्येय तथा एक प्रदेश न्यून भी जीव नहीं कहे जा सकते। प्रतिपूर्ण असंख्येय प्रदेशात्मक जीव को ही जीव कहा जाएगा।' वह उस प्रसंग से विप्रतिपन्न हो गया। वह मिथ्या प्ररूपणा करने लगा कि अंतिम प्रदेश ही जीव है। गुरु ने समझाया कि जब प्रथम प्रदेश जीव नहीं है तब अंतिम प्रदेश जीव कैसे होगा? जैसे एक तन्तु समस्त पट नहीं होता, सारे तंतु मिलकर समस्त पट बनते हैं वैसे ही एक प्रदेश जीव नहीं अपितु सारे प्रदेश समुदित रूप से जीव हैं। गुरु के समझाने पर भी वह विप्रतिपन्न रहा और अपनी असत् प्ररूपणा और मिथ्याअभिनिवेश से अन्य लोगों को भी विप्रतिपन्न करने लगा। एक बार वह आमलकल्पा नगरी में गया। वहां अंबशालवन में ठहरा। उस नगरी में मित्रश्री नामक श्रमणोपासक था। तिष्यगुप्त को संबोध देने के लिए उसने अपने घर भोजन के लिए आमन्त्रित किया। तिष्यगुप्त वहां गया। मित्र श्री ने उसके समक्ष विविध खाद्य पदार्थ प्रस्तुत किए और प्रत्येक पदार्थ का एक-एक छोटा खंड उसे दिया। चावल का एक दाना, सूप की दो-चार बिन्दु और वस्त्र का एक टुकड़ा दिया। तिष्यगुप्त ने सोचा कि यह बाद में पुन: देगा। मित्र श्री दे चुकने के बाद तिष्यगुप्त के चरणों में गिरा। उसने अपने स्वजनों को कहा-'वन्दना करो। आज हम दान देकर धन्य हो गए।' यह सुनकर तिष्यगुप्त बोला-'तुमने मेरा तिरस्कार किया है।' श्रावक ने कहा-'यह तो आपका सिद्धान्त है कि अन्तिम अवयव ही वास्तविक अवयवी है। मैंने तो आपके सिद्धान्त का पालन किया है अत: तिरस्कार कैसे? यदि यह सत्य नहीं है तो मैं आपको भगवान् महावीर के सिद्धांतानुसार प्रतिलाभित करूं।' प्रतिबोध पाकर तिष्यगुप्त ने श्रावक मित्रश्री से क्षमायाचना की, तब मित्रश्री ने उसे १. उनि.१७२/१,२, उशांटी.प. १५३-५७, उसुटी.प.६९,७०। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक प्रतिलाभत किया। वह शिष्य परिवार के साथ अपने पूर्व दोषों की आलोचना-प्रतिक्रमण करके विहरण करने लगा ।" ५४८ ३८. आचार्य आषाढ़ के शिष्य और अव्यक्तवाद ( वीर निर्वाण के २१४ वर्ष पश्चात् ) श्वेतविका नगरी के पोलाषाढ़ उद्यान में आचार्य आषाढ वाचनार्थ समवसृत थे । वे आगाढ़योग से प्रतिपन्न अपने शिष्यों को वाचना दे रहे थे। एक बार वे अचानक विसूचिका रोग से ग्रस्त हो गये। वायु की प्रबलता के कारण वे निश्चेष्ट हो गए। उन्होंने किसी शिष्य को जागृत नहीं किया। वे दिवंगत होकर सौधर्म कल्प के नलिनीगुल्म विमान में उत्पन्न हुए । अवधिज्ञान से उन्होंने अपने निश्चेष्ट शरीर और आगाढ़योग प्रतिपन्न शिष्यों को देखा। शिष्य उनकी मृत्यु से अनजान थे। तब देव उसी मृत शरीर में प्रविष्ट हुआ और शिष्यों को जगाकर बोला- 'वैरात्रिक करो।' दिव्य प्रभाव सं अध्ययन शीघ्र ही पूरा हो गया। जब शिष्य उस अध्ययन में निष्णात हो गए तब देव प्रकट होकर बोला- ' श्रमणो! मुझे क्षमा करो। मैं असंयत होकर तुम सबसे वंदना आदि कराता रहा। मैं तो अमु दिन ही काल - कवलित हो गया था।' इस प्रकार क्षमायाचना कर देव चला गया। शिष्यों ने मृत शरीर का विसर्जन कर सोचा- 'हमने इतने दिनों तक असंयत को वंदना की। यहां सब अव्यक्त है। कौन जाने कौन साधु है और कौन देव? कोई वंदनीय नहीं है। यदि वंदना करते हैं तो असंयमी को भी वंदना हो सकती है अतः अमुक संयमी है यह कहना मिथ्या है।' बहुत समझाने पर भी शिष्यों ने अपना आग्रह नहीं छोड़ा तब स्थविर मुनियों ने उन्हें संघ से पृथक् कर दिया। एक बार विहार करते हुए वे राजगृह नगरी में आए। राजा बलभद्र ने उनको पकड़वा लिया और कहा - 'कौन जानता है साधु वेश में कौन चारिक है ? कौन चोर है? आज मैं आपका वध करूंगा।' संतों ने कहा - 'हम तपस्वी हैं, आप संदेह न करें। ज्ञान और चर्या के आधार पर साधु और असाधु की पहचान होती है। आप श्रावक होकर हम पर संदेह करते हैं ?' राजा ने प्रत्युत्तर दिया- 'जब आपको भी परस्पर विश्वास नहीं है तब मुझे ज्ञान और चर्या में कैसे विश्वास होगा? आप श्रमण हैं या नहीं? आप अव्यक्त हैं। आप श्रमण हैं या चारिक कौन जाने? मैं भी श्रमणोपासक हूँ या नहीं? आप इस संदेह को छोड़कर व्यवहार नय को स्वीकार करें।' इस प्रकार युक्ति से राजा ने संबोध दिया। उन्होंने राजा से क्षमायाचना की। वे बोले-'हम निःशंकितरूप से श्रमण-निर्ग्रन्थ हैं।' राजा बोला- 'मैंने आपको उपालंभ दिया, आपका तिरस्कार किया, कठोर वचन कहे, मृदु वचन भी कहे। यह सारा प्रतिबोध देने के लिए किया। आप क्षमा करें।' वे पुन: गुरु के पास आए और प्रायश्चित्त लेकर संघ में सम्मिलित हो गए। ३९. अश्वमित्र और समुच्छेदवाद ( वीर - निर्वाण के २२० वर्ष पश्चात् ) मिथिला नगरी में लक्ष्मीगृह चैत्य था । वहां महागिरि आचार्य के शिष्य कौडिन्य रहते थे । कौंडिन्य अपने शिष्य अश्वमित्र को अनुप्रवादपूर्व के नैपुणिक वस्तु की वाचना दे रहे थे । छिन्न१. उनि . १७२ / ३, उशांटी. प. १५८-१६०, उसुटी. प. ७०, ७१ । २. उनि . १७२/४ उशांटी. प. १६०-६२, उसुटी. प. ७१ । Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं छेदन की वक्तव्यता के अनुसार प्रथम समय के नारक विच्छिन्न हो जाएंगे, दूसरे समय के नारक भी विच्छिन्न हो जाएंगे। उत्पत्ति के अनन्तर ही वस्तु विनष्ट हो जाती है अतः उच्छेदवाद में उसकी आस्था जम गई। गुरु ने कहा- 'यह बात ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से है । सब नयों की अपेक्षा से सत्य नहीं है।' गुरु के समझाने पर भी उसने गुरु के कथन को स्वीकार नहीं किया। निह्नव समझकर गुरु ने उसे संघ से अलग कर दिया। वह अपने शिष्यों के साथ समुच्छेदवाद की मिथ्या प्ररूपणा करता हुआ लोगों को भ्रमित करने लगा कि यह सारा लोक शून्य हो जाएगा । विहार करते हुए वे राजगृह नगरी में पहुंचे। वहां के खंडरक्ष आरक्षक श्रावक थे । वे शुल्कपाल थे। उन्होंने अश्वमित्र को उसके शिष्यों के साथ पकड़ लिया और सबको पीटने लगे। अश्वमित्र ने कहा कि तुम तो श्रावक हो फिर भी श्रमणों को इस तरह पीट रहे हो ? तब श्रावकों ने कहा-'जो प्रव्रजित हुए थे वे तो विच्छिन्न हो गए। तुम चोर हो या गुप्तचर कौन जाने? आपको कौन मार रहा है आप तो स्वयं विनष्ट हो रहे हो । ' इस प्रकार भय और युक्ति से समझाने पर वे संबुद्ध हो गए और गुरु के पास जाकर प्रायश्चित्त लेकर पुनः संघ में प्रविष्ट हो गए। ५४९ ४०. आचार्य गंग और द्वैक्रियवाद ( वीर - निर्वाण के २२८ वर्ष पश्चात् ) उल्लुका नदी के एक तट पर उल्लुकातीर नामक नगर था और दूसरे तट पर 'खेटस्थान' था। वहां आचार्य महागिरि के शिष्य धनगुप्त रहते थे। उनका शिष्य आचार्य गंग था । वे नदी के उस तट पर उल्लुगातीर नगर में निवास कर रहे थे। एक बार आचार्य गंग शरद्काल में अपने आचार्य को वंदना करने नदी के उस तट पर स्थित खेटस्थान में जा रहे थे। वे नदी में उतरे। उनका सिर गंजा था। ऊपर सूरज से सिर तप रहा था और नीचे से पानी शीतल लग रहा था। उन्हें एक क्षण में सिर को सूर्य की गरमी और पैरों को नदी की ठंडक का अनुभव हो रहा था । उनको शंका हो गयी कि सूत्र में कहा है कि एक समय में एक क्रिया का वेदन होता है पर मुझे तो दो क्रियाओं का अनुभव हो रहा है। गुरु ने उसको समझाया कि समय, आवलिका आदि काल की सूक्ष्मता तथा मन की सूक्ष्म और शीघ्रगामिता के कारण तुम क्रिया की पृथक्ता का अनुभव नहीं कर सकते पर वे समझे नहीं। उनको संघ से पृथक् कर दिया गया। शिष्यों के साथ मिथ्या प्ररूपणा करते हुए वे दूसरों को भी शंकित करने लगे । आचार्य गंग संघ से अलग होकर राजगृह नगर में आए। वहां महातपस्तीरप्रभ नामक एक झरना था। वहां मणिनाग नामक नागदेव का चैत्य था। आचार्य गंग ने उस चैत्य में परिषद् के सम्मुख एक समय में दो क्रियाओं के वेदन की बात कही। मणिनाग नागदेव ने परिषद् के मध्य प्रकट होकर कहा - ' तुम यह मिथ्या प्ररूपणा मत करो। मैंने भगवान् महावीर के मुख से सुना है कि एक समय में एक ही क्रिया का संवेदन होता है। तुम अपने मिथ्या वाद को छोड़ो। इससे तुम्हारा अहित होगा।' आचार्य गंग प्रतिबुद्ध हो गए। वे गुरु के पास आए और प्रायश्चित्त पूर्वक संघ में सम्मिलित हो गए। १. उनि. १७२ / ५, उशांटी. प. १६२-६५, उसुटी. प. ७१,७२ । २. उनि १७२ / ६, उशांटी. प. ९६५ -६८, उसुटी.प. ७२१ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० नियुक्तिपंचक ४१. रोहगुप्त और त्रैराशिकवाद (वीर-निर्वाण के ५४४ वर्ष पश्चात्) अंतरंजिका नामक नगरी में भूतगृह नामक चैत्य था। वहां आचार्य श्रीगुप्त का प्रवास था। उस नगर के राजा का नाम बल श्री था। आचार्य श्रीगुप्त का शिष्य रोहगुप्त दूसरे स्थान पर रहता था। एक दिन वह आचार्य को वंदना करने आया। वहां एक परिव्राजक रहता था जो पेट पर लोहपट्ट को बांधकर जंबू वृक्ष की शाखा हाथ में लेकर घूमता हुआ कहता था कि ज्ञान से मेरा पेट फूट रहा है इसलिए मैंने पेट पर लोहपट्ट बांध रखा है। इस जंबूद्वीप में कोई मेरे साथ प्रतिवाद करने वाला नहीं है इसलिए मैं हाथ में जंबू वृक्ष की शाखा रखता हूं। लोगों ने उसका नाम पोट्टशाल रख दिया। रोहगुप्त ने उस चुनौती को स्वीकार किया और सारी बात आचार्य को सुनाई। आचार्य ने कहा-'वह परिव्राजक वृश्चिक, सर्प आदि सात विद्याओं में निष्णात है। मैं तुझे इन विद्याओं की प्रतिपक्षी मायूरी, नाकुली आदि सात विद्याएं सिखा देता हूं, जिससे तुम अजेय बन जाओगे।' आचार्य ने उसे रजोहरण मंत्रित करके देते हुए कहा-'यदि परिव्राजक दूसरी कोई विद्या का प्रयोग करे तो तुम रजोहरण घुमा देना। तुम अजेय हो जाओगे, इन्द्र भी तुम्हें नहीं जीत सकेगा।' रोहगुप्त इन विद्याओं को ग्रहण कर सभा में आया और परिव्राजक को वाद के लिए आमंत्रित किया। परिव्राजक ने सोचा इसको इसी के सिद्धान्त से पराजित करना चाहिए इसलिए दो राशियों की स्थापना की। रोहगुप्त ने छिपकली की कटी पूंछ का उदाहरण देकर तीसरी राशि की स्थापना की। परिव्राजक निरुत्तर हो गया। उसने रुष्ट होकर अनेक विद्याओं का प्रयोग किया। रोहगुप्त ने प्रतिपक्षी विद्याओं से उसको परास्त कर दिया। ___ विजयी होकर रोहगुप्त अपने आचार्य के पास आया तब गुरु ने कहा-'जीतकर तुमने परिषद् में यह क्यों नहीं कहा कि यह अपसिद्धान्त है। तीसरी नोजीव राशि नहीं होती। इस प्रकार की प्ररूपणा तीर्थंकरों की आशातना है अत: तम पन: परिषद में जाकर कहो कि यह हमारा सिद्धान्त नहीं है किन्तु मैंने इसे बुद्धि से पराभूत किया है।' गुरु के बहुत समझाने पर भी अपमान के भय से उसने गुरु की बात को स्वीकृत नहीं किया। वह गुरु के साथ विवाद करने लगा। आचार्य ने सोचा-'यह स्वयं नष्ट होकर दूसरों को भी नष्ट करेगा अतः मैं लोगों के समक्ष राजसभा में इसका निग्रह करूंगा, जिससे लोगों में मिथ्या तत्त्व का प्रचार नहीं होगा।' राजा बलश्री के समक्ष चर्चा प्रारम्भ हई। चर्चा करते हुए छह मास बीत गए। राजा ने कहा-'चर्चा से सारा कार्य अव्यवस्थित हो रहा है, यह वाद कब समाप्त होगा?' आचार्य ने कहा- मैंने जान-बूझकर इतना समय बिताया है। मैं कल ही इसका निग्रह कर वाद को समाप्त कर दूंगा।' दूसरे दिन प्रात: वाद प्रारम्भ हुआ। आचार्य ने कहा–'यदि तीन राशि होती है तो कुत्रिकापण में चलें, वहां सभी वस्तुएं मिलती हैं।' राजा के साथ वे सभी कुत्रिकापण पहुंचे। वहां नोजीव को मांगा। अधिकारी देव ने कहा-'यहां जीव और अजीव है। नोजीव की श्रेणी का कोई पदार्थ विश्व में नहीं है।' इस प्रकार आचार्य श्रीगुप्त ने १४४ प्रश्नों के द्वारा रोहगुप्त का निग्रह कर उसे पराजित किया। राजा ने उसको देश निकाला दे दिया, निह्नव समझकर उसे संघ से भी पृथक् कर दिया। Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५५१ उसने वैशेषिक सूत्रों की रचना की। उसका गोत्र षडूलक था अतः वह षडूलक नाम से भी प्रसिद्ध हुआ। ४२. गोष्ठामाहिल और अबद्धिकवाद (वीरनिर्वाण के ५८४ वर्ष पश्चात्) देवेन्द्र वंद्य आर्यरक्षित विहरण करते हुए दशपुर नगर में पहुंचे। मथुरा में अक्रियवादी सक्रिय थे। लोग अक्रियवाद से भावित हो रहे थे। विशिष्ट व्यक्तियों ने संघ को एकत्रित किया पर वहां कोई वादी नहीं था। आर्यरक्षित युगप्रधान आचार्य हैं, ऐसा सोचकर उनको आमंत्रित करने साधुओं को भेजा गया। आरक्षित वहां आए, उन्हें सारी बात बताई गयी। वे वृद्ध थे अत: उन्होंने गोठामाहिल को वाद हेत भेजा क्योंकि वह वाकलब्धि सम्पन्न था। वह वहां गया और अक्रियवादी को पराजित कर दिया। श्रावकों के निवेदन करने पर गोष्ठामाहिल ने वहीं चातुर्मास किया। एक बार आचार्य आर्यरक्षित ने सोचा कि मेरे बाद गण को धारण करने वाला कौन होगा? क्योंकि जो जानते हुए अपात्र को अपना उत्तराधिकारी बना देता है, वह महापाप का भागी बनता है। उन्होंने दुर्बलिकापुष्यमित्र को इसके योग्य समझा। वहां आचार्य के अनेक स्वजन थे। वे गोष्ठामाहिल या फल्गुरक्षित को उत्तराधिकारी के रूप में योग्य मानते थे। आचार्य ने सबको बुलाकर दृष्टान्त देते हुए कहा-'तीन प्रकार के घट होते हैं-चने से भरा घट, तैल से भृत घट तथा घी से परिपूर्ण घट । चने के घडे को उल्टा करने पर सारे चने बाहर निकल जाते हैं। तैल के घडे से तैल भी बाहर निकल जाता है पर उसका कुछ अंश घड़े के लगा रह जाता है। घी के घड़े को उल्टा करने पर उसका बहुत अंश घड़े के ही लगा रह जाता है। दुर्बलिकापुष्यमित्र ने मुझे चने के घड़े के समान बना दिया है। उसने मुझसे सूत्र,अर्थ तथा उभय-सारा ग्रहण कर लिया है। फल्गुरक्षित द्वारा मैं तेल के घड़े के समान तथा गोष्ठामाहिल द्वारा मैं घृत घट के समान हुआ हूँ अत: दुर्बलिकापुष्यमित्र सूत्र और अर्थ से युक्त है। वह इस गण का आचार्य बने। आचार्य आर्यरक्षित के इस कथन को सभी ने एक स्वर से स्वीकार किया। आचार्य ने दुर्बलिकापुष्यमित्र से कहा-'मैंने जैसा व्यवहार फल्गुरक्षित तथा गोष्ठामाहिल के प्रति किया है वैसा व्यवहार तम्हें भी रखना है।' तदनन्तर सभी को संबोधित कर बोले-'शिष्यो! जैसा व्यवहार तुम सबने मेरे प्रति किया है, वैसा ही दुर्बलिकापुष्यमित्र के प्रति क्रोध नहीं किया किन्तु दुर्बलिकापुष्यमित्र किसी को क्षमा नहीं करेगा।' इस प्रकार दोनों पक्षों को शिक्षा प्रदान कर आचार्य भक्तप्रत्याख्यान से पंडित-मरण कर दिवंगत हो गए। उस समय गोष्ठामाहिल कहीं अन्यत्र विहरण कर रहा था। उसने सुना, आचार्य आर्यरक्षित दिवंगत हो गए हैं। वह वहां आया और पूछा कि आचार्य ने अपना उत्तराधिकारी किसे बनाया है? उसे तीन घडों का दष्टान्त कह सनाया। तब वह पथक उपाश्रय में उपधि आदि रखकर मुल उपाश्रय में आया। वहां स्थित मुनियों ने आदरभाव से कहा-'आप हमारे साथ यहीं रहें।' उसने वहां रहना स्वीकार नहीं किया। वह अलग उपाश्रय में ही रहा और अन्यान्य लोगों को बहकाने लगा। परन्तु १. उनि.१७२/६-९ उशांटी.प. १६८-७२, उसुटी. प. ७२, ७३ । Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक वह अपने प्रयत्न में सफल नहीं हो सका। आचार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र अर्थपौरुषी कर रहे थे । गोष्ठामाहिल उसे नहीं सुनता और लोगों से कहता - 'जाओ, निष्पावकुट वाले आचार्य से सुनो।' आचार्य जब अर्थपौरुषी सम्पन्न कर देते तब मुनि विन्ध्य उनके पश्चात् प्रवचन करता । वह आठवें पूर्व कर्मप्रवाद के आधार पर कर्म का विवेचन करते हुए कर्म और जीव का संबंध कैसे-कैसे होता है - इस पर प्रकाश डाल रहा था । जीव के साथ कर्म का संबंध तीन प्रकार का होता है-बद्ध स्पृष्ट और निकाचित । बद्ध जैसे तंतु से बंधा हुआ सूची - समूह । स्पृष्ट जैसे- घन से कूट कर एक किया हुआ सूचीकलाप तथा निकाचित जैसे सूचीकलाप को तपाकर, बन से पीटकर एक कर देना । इसी प्रकार जीव राग-द्वेष से कर्मबंध करता है । वह अपने इस राग-द्वेष के परिणाम को न छोड़कर उन्हें स्पृष्ट कर लेता है तथा उन्हीं संक्लिष्ट परिणामों से उन्हें निकाचित कर लेता है। निकाचित कर्म निरुपक्रम उदय से संवेदित होता है, अन्यथा उसका वेदन नहीं होता। यह सुनकर गोष्ठामाहिल बोला-'ऐसा नहीं होता। हमने ऐसा कभी नहीं सुना। यदि कर्म इस प्रकार बद्ध, स्पृष्ट और निकाचित होते हैं तो मोक्ष कभी नहीं होगा।' उससे पूछा- 'आप बताएं यह कैसे होता है?' गोष्ठामाहिल बोला- 'सुनो, केंचुली जैसे केंचुली पहने पुरुष का स्पर्श करती है, किन्तु वह शरीर से आबद्ध नहीं है। इसी प्रकार कर्म भी जीव- प्रदेशों के साथ स्पृष्ट हैं, बद्ध नहीं। जिसके कर्म बद्ध हैं, उसके कर्मों की व्युच्छित्ति कभी नहीं होगी । आचार्य ने हमें इतना ही बताया है। यह मुनि विन्ध्य इसे नहीं जानता ।' तब मुनि विन्ध्य शंकाशील हो गया और उसने सोचा कि मैंने कहीं अन्यथा तो ग्रहण नहीं कर लिया है। वह आचार्य दुर्बलिका- पुष्यमित्र के पास गया । आचार्य ने कहा - ' विन्ध्य ! तुमने जो कहा वह सत्य है, गोष्ठामाहिल की प्ररूपणा मिथ्या है।' विन्ध्य ने जाकर गोष्ठामाहिल से यह बात कही कि आचार्य ने इस प्रकार कहा है । फिर भी गोष्ठामाहिल इसी आशा से वहां रहने लगा कि मैं कुछेक शिष्यों को विपरीतगामी बना डालूंगा । ५५२ वें पूर्व में प्रत्याख्यान के प्रकरण में यावज्जीवन तीन करण तीन योग से प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ—इस प्रकार प्रत्याख्यान करने का विधान है। गोष्ठामाहिल बोला- 'यह अपसिद्धान्त है।' उससे इसका कारण पूछा गया। उसने कहा - 'समस्त प्राणातिपात का मैं प्रत्याख्यान करता हूं अपरिमाण से । तीन करण तीन योग से परिमाण क्यों नहीं किया जाता ? ऐसा करने से आशंसा दोष निवर्तित हो जाता है ।' यावज्जीवन कहने से परिमाण से आगे अभ्युपगम होता है इसलिए अपरिमाण से प्रत्याख्यान करना चाहिए। मुनि विन्ध्य ने उसे आगम युक्तियों से समझाने का प्रयत्न किया, पर वह नहीं समझा। सब मुनि बोल उठे - ' आचार्य ने ऐसी ही प्ररूपणा की थी।' अन्य गच्छवासी स्थविरों ने भी आचार्य की प्ररूपणा का समर्थन किया। तब गोष्ठामाहिल बोला-'तुम सब नहीं जानते, तीर्थंकरों ने ऐसा ही कहा है।' सभी बोले - 'गोष्ठामाहिल ! तुम नहीं जानते।' जब वह नहीं समझा तब संघ को एकत्रित किया गया। देवता के आह्वान के लिए कायोत्सर्ग किया गया। जो श्रद्धालु देवता था, वह प्रकट होकर बोला- 'क्या प्रयोजन है?' तब देवता से कहा- 'तुम जाओ और तीर्थंकर से पूछो कि गोष्ठामाहिल जो कह रहा है वह सच है अथवा दुर्बलिकापुष्यमित्र आदि श्रमण कह रहे हैं, वह सच है ? ' तब देवता बोला- 'मुझे अनुबल दें।' संघ ने कायोत्सर्ग किया। वह तीर्थंकर के पास गया और पूछा । तीर्थंकर बोले- 'संघ सम्यग्वादी है, गोष्ठामाहिल मिथ्यावादी है । यह सातवां Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं निह्नव है।' देवता वहां से आकर बोला- ' कायोत्सर्ग पूरा करें।' संघ ने कायोत्सर्ग पूरा किया। देवता बोला- 'तीर्थंकर ने कहा है कि संघ सत्यवादी है और गोष्ठामाहिल मिथ्यावादी है। यह सातवां निह्नव है ।' गोष्ठामाहिल ने यह सुना । वह तिलमिलाकर बोला- 'यह अल्पर्द्धिक देव है । इसमें वहां तक पहुंचने की शक्ति ही कहां है?' उसने देवता के कथन पर भी विश्वास नहीं किया। तब पुष्यमित्र आदि मुनियों ने गोष्ठामाहिल से कहा - 'मुने! संघ की बात आप मान लें अन्यथा आपको संघविच्छेद करना होगा ।' उसने उनकी बात स्वीकार नहीं की। संघ ने उससे बारह प्रकार का संभोग तोड़ दिया । ४३. शिवभूति और बोटिकवाद ( वीर निर्वाण के ६०९ वर्ष पश्चात् ) रथवीरपुर नामक एक ग्राम में दीपक उद्यान था। वहां आचार्य आर्य कृष्ण समवसृत थे । ari शिवभूति नामक एक साहस्रिक मल्ल था । वह राजा के पास आजीविका हेतु आया। राजा ने कहा-'मैं पहले तुम्हारी परीक्षा लूंगा।' राजा ने मल्ल को कहा- 'तुम कृष्णा चतुर्दशी को श्मशान में देवी के मंदिर में बलि देकर आओ।' उसे शराब और पशु दे दिए। कुछ लोगों को राजा ने श्मशान में उसे डराने के लिए पहले ही भेज दिया। वह श्मशान जाकर देवी को बलि देकर पशुओं का मांस पकाकर स्वयं खाने लगा । राजपुरुष विविध प्रकार की ध्वनियों से भय-भैरव उत्पन्न करने लगे लेकिन भय तो दूर, उसको रोमाञ्च भी नहीं हुआ। राजपुरुषों ने राजा को सारा वृत्तान्त सुनाया। राजा ने उसे आजीविका दे दी। ५५३ एक बार राजा ने अपने सेनानायक को आज्ञा दी कि मथुरा पर विजय प्राप्त करो। रक्षक पूरी सेना के साथ मथुरा को जीतने के लिए चले। कुछ दूर जाने पर सेनानायक ने कहा- 'हमने राजा से यह नहीं पूछा कि कौन सी मथुरा जीतनी है ? मथुरा दो हैं ( पांडु मथुरा तथा दक्षिण मधुरा) राजा ने भी इस ओर इंगित नहीं दिया !' वे भयभीत हो गए। तब शिवभूति ने कहा - ' हम एक साथ दोनों मथुरा जीतेंगे।' सैनिकों ने कहा- 'यह संभव नहीं है। दोनों मथुराएं दो ओर हैं। एक-एक को जीतने में बहुत समय लगेगा।' शिवभूति ने कहा - ' जो दुर्जेय है, वह मुझे दे दो।' वह पांडु मथुरा की ओर गया। वहां वह प्रत्येक ग्रामवासियों को पीड़ित करने लगा और स्वयं दुर्ग को जीतकर वहां स्थित हो गया । वह मथुरा नगरी को जीतकर राजा के पास आया। राजा प्रसन्न होकर बोला- 'मैं तुम्हें क्या उपहार दूं?" उसने चिंतन कर कहा-'मैंने जो जीता है, वह सुविजित है । अब मैं वहां जो चाहूं करूं - ऐसा आप मुझे वरदान दें।' राजा ने स्वीकृति दे दी। शिवभूति प्रतिदिन आधी रात तक बाहर घूमता रहता था। जब तक वह घर नहीं पहुंचता तब तक उसकी पत्नी न खाना खाती थी और न ही सोती थी । एक दिन वह अपनी सास से कलह करती हुई बोली- 'तुम्हारा पुत्र प्रतिदिन आधी रात को आता है, तब तक मैं भूख से व्याकुल होकर जागती रहती हूं।' सास ने बहू कहा - ' जब वह आए तब द्वार मत खोलना । आज रात को मैं जागूंगी।' रात को शिवभूति आया लेकिन पत्नी ने द्वार नहीं खोला। उसको तिरस्कृत करते हुए मां १. उनि. १७२/१०-१२, उशांटी. प. ९७२-७८, उसुटी. प. ७३ ७४ । Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक ने कहा-' इस आधी रात में जहां द्वार खुला मिले वहीं चले जाओ।' नियति से उसने साधु के उपाश्रय द्वार खुले देखे । वह उपाश्रय के अंदर गया। साधुओं को वंदना की और कहा कि मुझे भी प्रव्रजित कर लो । साधुओं ने इन्कार कर दिया पर उसने स्वयं लोच कर लिया। साधुओं ने उसे मुनिवेश धारण करवा दिया। वे सभी वहां से विहार कर गए। ५५४ एक बार वे पुन: उसी नगरी में आए। राजा ने उसे कंबल - रत्न दिया। आचार्य ने कहा-' 'मुनियों को इससे क्या प्रयोजन है?' इस कंबल - रत्न को क्यों ग्रहण किया - ऐसा कहकर मुनियों ने बिना पूछे ही कंबल को फाड़ दिया और उसकी निषद्या बना दी। तब वह कुपित हो गया । एक बार आचार्य जिनकल्पिक की चर्या का वर्णन कर रहे थे। उन्होंने कहा- 'जिनकल्पिक मुनि दो प्रकार के होते हैं - पाणिपात्र और पात्रधर । सवस्त्र तथा अवस्त्र । इनके भी दो-दो प्रकार हैं ।' शिवभूति ने पूछा- 'आज ऐसा क्यों नहीं हो सकता?' आचार्य बोले- 'जिनकल्पिक आज व्युच्छिन्न हो गया है।' उसने कहा- 'मेरे लिए वह व्युच्छिन्न नहीं है। परलोकार्थी मुनि को वही ग्रहण करना चाहिए। सर्वथा निष्परिग्रह ही श्रेयस्कर है।' आचार्य के निषेध करने पर भी शिवभूति आग्रहवश अपने सारे वस्त्र छोड़कर वहां से निकल गया। उसकी बहिन उसको वंदना करने गई । उसको देखकर वह भी निर्वस्त्र हो गई । वह भिक्षा लेने गई । एक वेश्या ने उसे देखकर सोचा- 'यह हमारी वेश्यावृत्ति को समाप्त कर देगी।' उसने उसे लज्जा-स्थान के आवरण के लिए एक वस्त्र दिया। वह नहीं चाहती थी। शिवभूति ने कहा - ' इसे ग्रहण कर लो। ऐसा मानो कि यह देव- प्रदत्त है । ' शिवभूति ने दो शिष्य प्रव्रजित किए - कौडिन्य और कोट्टवीर । आगे यह परम्परा चली। ४४. उरभ्र एक सेठ के पास गाय और उसका एक बछड़ा था। उसने एक मेंढ़ा भी पाल रखा था । वह मेंढ़े को खूब खिलाता -पिलाता । सेठ की बहुएं उसे प्रतिदिन स्नान कराती, शरीर पर हल्दी, अंगराग आदि का लेप करती थीं। सेठ के बच्चे भी उसके साथ नाना प्रकार की क्रीड़ाएं करते थे । कुछ ही दिनों में मेंढ़ा स्थूलकाय हो गया । बछड़ा प्रतिदिन मेंढ़े को देखता और मन ही मन चिंतन करता कि इस मेंढ़े का इतना लालन-पालन क्यों हो रहा है? सेठ हम पर इतना ध्यान क्यों नहीं देता? बछड़ा यह देखकर उदास हो गया और उसने स्तनपान करना भी छोड़ दिया। उसने अपनी माता गाय से पूछा - ' सेठ इस मेंढ़े को जौ का भोजन देता है और हमें रूखी-सूखी घास। इसे विशेष अलंकारों से अलंकृत किया जाता है तथा पुत्र की भांति इसका लालन-पालन हो रहा है। दूसरी ओर मैं मंदभाग्य हूं कि कोई मुझ पर ध्यान नहीं देता। सूखी घास भी कभी-कभी मिलती है, वह भी भर पेट नहीं मिलती। समय पर पानी के लिए भी कोई नहीं पूछता ।' मां ने कहा—'वत्स! मेमने को अच्छा और पुष्ट भोजन खिलाना उसके रोग और मृत्यु का चिह्न है क्योंकि मरणासन्न प्राणी को पथ्य और अपथ्य जो कुछ वह चाहता है, दिया जाता । बछड़े के सूखे तृणों का आहार उसकी दीर्घायु का लक्षण है । इस मेंढ़े का मरणकाल निकट है।' ० उनि. १७२/१३-१५, उशांटी. प. १७८-८१, उसुटी. प. ७५, ७६ / Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं कुछ दिनों बाद सेठ के घर मेहमान आए । बछड़े के देखते-देखते मेंढे के गले में छुरी चला दी गयी। उस मोटे ताजे मेंढ़े का मांस पकाकर मेहमानों को खिलाया गया । बछड़ा भय से कांप उठा। उसने अपनी मां से पूछा- 'क्या मैं भी इस मेंढ़े की भांति मारा जाऊंगा?' मां ने कहा'वत्स ! डरो मत, जो रसगृद्ध होता है, उसे उसका फल भी भोगना पड़ता है। तू सूखी घास चरता है अत: तुझे कटुविपाक नहीं भोगना पड़ेगा । " ४५. काकिणी एक भिखारी ने भीख मांग-मांग कर एक हजार कार्षापण एकत्रित किए। एक बार वह उन्हें साथ लेकर सार्थ के साथ अपने घर की ओर चला। रास्ते में भोजन के लिए उसने एक कार्षापण को काकिणियों में बदलवाया । वह प्रतिदिन काकिणियों से भोजन खर्च चलाता। उसके पास एक काकिणी बची उसे वह पिछले स्थान पर भूल गया। सार्थ के जाने पर उसने सोचा- 'मुझे कार्षापण काकणियों में बदलवाना पड़ेगा अतः कार्षापण की नौली एक स्थान पर गाढ़कर वह काकिणी के लिए दौड़ा। किन्तु वह काकिणी किसी दूसरे व्यक्ति ने चुरा ली थी। जब वह वापिस लौटा तो उसे नौली भी नहीं मिली क्योंकि नौली को गाड़ते हुए किसी व्यक्ति ने देख लिया और वह उसे लेकर भाग गया। वह भिखारी दुःखी मन से घर पहुंचा और पश्चात्ताप करने लगा। ४६. अपत्थं अंबगं भोच्चा आम अधिक खाने से एक राजा के आम का अजीर्ण हो गया और उससे विसूचिका - हैजा हो गया। वैद्यों ने बहुत श्रम से उसकी चिकित्सा की। राजा स्वस्थ हो गया। वैद्यों ने राजा को सावधान करते हुए कहा - ' राजन् ! यदि तुम पुनः आम खाओगे तो तुम्हारा जीवित रहना दुष्कर हो जाएगा।' राजा को आम बहुत प्रिय थे। उसने अपने राज्य के सारे आम्रवृक्ष उखड़वा दिए। एक बार वह अपने मंत्री के साथ अश्वक्रीड़ा के लिए निकला। अश्व बहुत दूर चला गया। जब वह थक गया तो एक स्थान पर रुक गया। वहां बहुत से आम के वृक्ष थे। मंत्री के मना करने पर भी राजा आम्रवृक्ष के नीचे विश्राम हेतु बैठा। हवा से राजा के पास अनेक आम गिर पड़े। राजा ने उन्हें हाथों से उठाया और सूंघने लगा। मंत्री के निषेध करने पर भी राजा ने आम खाने शुरू कर दिए । आम खाने से तत्काल उसकी मृत्यु हो गयी। ३ ४७. तीन वणिक् पुत्र एक वणिक् के तीन पुत्र थे । पुत्रों की बुद्धि, व्यवसाय और पुण्य के परीक्षण के लिए उसने तीनों को हजार-हजार कार्षापण दिए और कहा - ' इन रुपयों से तुम तीनों व्यापार करो और अमुक १ उनि २४१-२४२/१, उशांटी. प. २७२, २७३, उसुटी.प. ११६,११७। २ उनि. २४१, उशांटी. प. २७६, उसुटी. प. ११८ । ३. उनि २४१, उशांटी. पं. २७७, उसुटी.प. ११८ ५५५ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ नियुक्तिपंचक काल तक अपनी-अपनी पूंजी लेकर मेरे पास आओ। वे तीनों मूल पूंजी लेकर अलग-अलग स्थान पर गए। पहले पुत्र ने सोचा कि पिता ने परीक्षा के लिए हमको व्यापारार्थ भेजा है अत: मुझे विपुल धन का उपार्जन करना चाहिए। भोजन, कपड़े पर उसने कम खर्च किया तथा घत. मद्य आदि व्यसनों से परहेज किया। विधिपूर्वक व्यापार करने से उसने बहुत धन कमा लिया। दूसरे पुत्र ने सोचा-'हमारे घर प्रभूत धन-सम्पदा है किन्तु उसका व्यय करने से एक न एक दिन वह सम्पदा नष्ट हो सकती है अत: मूल की रक्षा करनी चाहिए।' वह जो भी कमाता उसे भोजन, वस्त्र, अलंकार आदि में खर्च कर देता। उसने मूल धन की रक्षा की पर धन एकत्रित नहीं कर पाया। तीसरे पुत्र ने चिन्तन किया कि सात पीढ़ी आराम से खाए इतना धन हमारे यहां पड़ा है फिर भी वृद्ध पिता ने अर्थ के लोभ से हमें परदेश भेजा है अत: अर्थार्जन का कष्ट क्यों किया जाए? उसने कोई भी व्यापार नहीं किया। केवल मद्य, द्यूत आदि व्यसनों तथा शरीर-पोषण में सारे धन को गंवा दिया। निर्दिष्ट काल पर तीनों पुत्र अपने घर पहुंचे। पिता ने सारी बात पूछी। जिसने अपनी मूल पूंजी गंवा दी थी, उसे नौकर का कार्य सौंपा गया जिसने मूल पूंजी की रक्षा की थी उसे गृह-कार्य सौंपा गया। जिसने मूल की वृद्धि की, उसे गृहस्वामी बना दिया। ४८. कपिल पुरोहित कौशाम्बी नगरी में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उस नगरी में चौंसठ विद्याओं में पारंगत काश्यप नाम का ब्राह्मण रहता था। वह राजा के द्वारा बहत सम्मानित था। उसकी पत्नी का नाम यशा तथा पुत्र का नाम कपिल था। कपिल जब छोटा था तभी काश्यप कालगत हो गया। काश्यप की मृत्यु के बाद राजा ने उसका पद किसी दूसरे ब्राह्मण को दे दिया। एक दिन वह ब्राह्मण घोडे पर आरूढ होकर. छत्र धारण करके उधर से जा रहा था। यशा उसे देखकर रोने लगी। कपिल ने माता से रोने का कारण पूछा तो उसने बताया कि तेरा पिता भी ऐसी ही ऋद्धि से सम्पन्न था। कपिल ने पूछा-'उनको ऋद्धि कैसे मिली'? यशा ने उत्तर दिया-'वे विद्यासम्पन्न थे।' कपिल बोला-'मैं भी विद्या का अभ्यास करूंगा।' यशा ने कहा-'यहां तुझे मत्सरभाव के कारण कोई नहीं पढ़ाएगा। यदि तुझे पढ़ना हो तो श्रावस्ती नगरी चले जाओ। वहां तेरे पिता के मित्र इन्द्रदत्त ब्राह्मण हैं, वे तुझे विद्याध्ययन करवाएंगे।' कपिल इन्द्रदत्त ब्राह्मण के पास गया। इन्द्रदत्त ने पूछा-'तुम कहां से आए हो?' कपिल ने सारी घटना बता दी और विनयपूर्वक विद्यादान की प्रार्थना की। उपाध्याय ने भी पुत्र-स्नेह से उसका आलिंगन करते हुए कहा-'वत्स! तुम्हारा विद्याग्रहण के प्रति अनुराग उत्तम है। विद्याविहीन पुरुष पशु के समान होते हैं । इहलोक और परलोक दोनों में विद्या कल्याणकारी है।' ब्राह्मण इन्द्रदत्त ने कहा-'तुम मेरे यहां सब प्रकार की विद्या सीखने में स्वतंत्र हो पर अपरिग्रही होने के कारण मेरे यहां भोजन की व्यवस्था नहीं हो सकती। भोजन के १. उनि.२४१, उशांटी.प. २७८, २७९, उसुटी.प. ११९, १२० । Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५५७ बिना पढ़ना भी संभव नहीं है।' कपिल ने कहा- 'मैं भिक्षा से भोजन की व्यवस्था कर लूंगा।' ब्राह्मण ने कहा-'भिक्षावृत्ति से अध्ययन में बाधा आती है, पढ़ने को समय नहीं मिलता अत: तुम मेरे साथ चलो मैं किसी सेठ के यहां तुम्हारे भोजन की व्यवस्था करा दूंगा।' वे दोनों शालिभद्र सेठ के पास गए। उन्होंने सेठ को आशीर्वाद दिया। सेठ ने उनके आने का प्रयोजन पूछा । उपाध्याय ने कहा-'यह मेरे मित्र का पुत्र है। विद्या-ग्रहण की अभिलाषा से यह कौशाम्बी से यहां आया है। यह तुम्हारे यहां भोजन और मेरे यहां विद्या-ग्रहण करेगा। विद्या में सहयोग देने से तुम महान् पुण्य के भागी बनोगे।' सेठ ने सहर्ष उनकी बात स्वीकार कर ली। कपिल उस सेठ के यहां प्रतिदिन भोजन करता और इन्द्रदत्त उपाध्याय के पास अध्ययन करता। सेठ की एक दासी कपिल को भोजन कराती थी। वह हंसमुख थी। उसका दासी के साथ अनुराग हो गया। दासी कहती कि तुम मुझे प्रिय हो। मैं तुमसे और कुछ नहीं मांगती केवल तुम रोष मत किया करो। मैं वस्त्र का मूल्य पाने के लिए दूसरे के पास कार्य करती हूं, अन्यथा मैं तुम्हारी ही आज्ञा की अनुचरी हूं। एक दिन दासियों का उत्सव आया। वह दासी उदास हो गयी। उसे नींद नहीं आई तब कपिल ने पूछा-'तुम उदास क्यों हो?' वह बोली-'दासी का उत्सव आ गया है। मेरे पास पत्रपुष्प आदि के पैसे भी नहीं हैं, इसलिए सखियों के बीच में उपहास का पात्र बन जाऊंगी।' यह सुनकर कपिल भी अधीर हो गया। दासी ने कपिल को कहा-'तुम अधीर मत बनो। यहां धन नामक एक दानवीर सेठ है। ब्रह्ममुहूर्त में जो उसको सबसे पहले बधाई देता है, उसको वह दो मासा सोना देता है। इसलिए आज तम जाकर उसे बधाई दो।' कपिल ने उसका कथन स्वीकार कर लिया। मझसे पहले कोई अन्य बधाई देने न चला जाए, इस लोभ से वह आधी रात को ही घर से निकल पड़ा। आरक्षक पुरुषों ने उसे चोर समझकर पकड़ लिया और प्रात: महाराज प्रसेनजित् के समक्ष उपस्थित किया। राजा के पूछने पर उसने यथार्थ बात बता दी। राजा कपिल के सत्यकथन से प्रसन्न हुआ और बोला-'तुम जो कुछ मांगोगे वह मैं दूंगा।' कपिल ने कहा-'मैं सोचकर मागूंगा।' राजा ने उसकी बात स्वीकार कर ली। वह अशोक-वाटिका में गया। एक वृक्ष के नीचे बैठकर चिन्तन करने लगा कि दो मासे सोने से क्या होगा? कपड़े, आभरण, यान, वाहन, बाजों का उपभोग कैसे होगा? घर पर आए हुए अतिथियों के सत्कार के लिए तथा अन्यान्य उपभोग के लिए उतने मात्र से क्या लाभ?' इस प्रकार चिंतन करते-करते करोड़ मुद्राओं से भी उसका मन संतुष्ट नहीं हुआ। मनन करते-करते वह शुभ अध्यवसाय से संवेग को प्राप्त हुआ। उसने सोचा, मैं विद्या ग्रहण करने हेतु माता को छोड़कर विदेश आया हूं। उपाध्याय के हितकारी उपदेश की अवहेलना करके तथा कुल के गौरव की अवमानना करके मैं एक स्त्री में आसक्त हो गया, यह मेरे लिए अच्छा नहीं है। ऐसा सोचते-सोचते उसे जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया और वह स्वयंबुद्ध हो गया। स्वयं ही पंचमुष्टि लोच कर देवता प्रदत्त उपकरणों को धारण कर मुनि का वेश पहन राजा के समक्ष उपस्थित हुआ। राजा ने कहा-'तुमने क्या सोचा है?' कपिल बोला-'जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ बढ़ता जाता है। दो मासा सोने से होने वाला कार्य लोभ बढ़ने पर करोड़ों स्वर्ण-मुद्राओं से Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक भी पूरा नहीं हो सका क्योंकि तृष्णा का कहीं अंत नहीं है।' राजा ने प्रसन्न मुखमुद्रा से कहा-'मैं तुम्हें करोड़ों स्वर्ण मुद्राएं भी दे सकता हूँ।' लेकिन कपिल संबुद्ध हो चुका था अत: वह पापों का शमन करने वाला श्रमण बन गया। मुनि बनने के बाद कपिल छह मास तक छद्मस्थ अवस्था में रहा। राजगृह नगर के बाहर अठारह योजन लम्बी-चौड़ी अटवी में बलभद्र आदि पांच सौ चोर रहते थे। कपिल ने ज्ञान से जाना कि ये संबुद्ध होंगे। वे विहार कर उस अटवी में आ गए। चोरों ने देखा कि कोई हमें पराजित करने के लिए आ रहा है । वे श्रमण कपिल को पकड़कर अपने सेनापति के पास ले गए। सेनापति ने कहा-'इनको मुक्त कर दो।' चोरों ने कहा-'हम इनके साथ खेलना चाहते हैं।' उन्होंने मुनि कपिल को कहा-'आप नृत्य करें।' कपिल ने कहा कि कोई वादक नहीं है। तब वे पांच सौ चोर ताली बजाने लगे। कपिल मुनि भी गाने लगे 'अधुवे असासयम्मि, संसारम्मि दुक्खपउराए। किं नाम होज्जतं कम्मयं, जेणाहं दोग्गई ण गच्छेज्जा।।' अर्थात् इस अध्रुव, अशाश्वत और दुःख-बहुल संसार में कौन सा ऐसा कार्य है, जिससे मैं दुर्गति को प्राप्त न करूं। यह ध्रुपद था। प्रत्येक श्लोक के अन्त में यह गाया जाता था। कुछ चोर प्रथम श्लोक से प्रतिबुद्ध हो गये। कुछ दूसरे श्लोक को सुनकर, कुछ तीसरे श्लोक को सुनकर। इस प्रकार पांच सौ चोर प्रतिबुद्ध होकर कपिल मुनि के पास प्रव्रजित हो गए। ४९. करकंडु चंपानगरी में दधिवाहन नामक राजा था। चेटक की पुत्री पद्मावती उसकी पत्नी थी। जब वह गर्भवती हुई तब उसके मन में दोहद उत्पन्न हुआ कि मैं राजा के कपड़े पहनकर उद्यान, कानन आदि में विहरण करूं। दोहद परा न होने से उसका शरीर कुश होने लगा। राजा ने कुश-काय होने का कारण पूछा। रानी ने राजा को दोहद की बात बताई। यह सुनकर राजा और रानी जय नामक हाथी पर आरूढ हए। राजा ने रानी के सिर पर छत्र धारण किया। वे दोनों उद्यान में गए। वर्षाऋत होने के कारण मिट्टी की गंध से हाथी वन की ओर दौड़ने लगा। राजकीय लोग उस हाथी को रोकने में समर्थ नहीं हो सके ! राजा और रानी दोनों को लेकर हाथी अटवी में प्रविष्ट हो गया। राजा ने एक वटवृक्ष को देखकर रानी से कहा-'जब हाथी इस वटवृक्ष के नीचे से गुजरे तब तुम इस वटवृक्ष की शाखा पकड़ लेना। रानी पद्मावती ने राजा की बात सुनी पर वह वृक्ष की शाखा को पकड़ने में असमर्थ रही। राजा दक्ष था अत: उसने तुरन्त शाखा पकड़ ली। अकेली रानी हाथी पर रह गई। राजा वृक्ष से नीचे उतरा और दुःखी मन से वापिस चंपा नगरी लौट आया। इधर हाथी रानी को निर्जन अटवी में ले गया। वहाँ हाथी को प्यास का अनुभव हुआ। उसने एक बड़ा तालाब देखा और उसमें उतरकर क्रीड़ा करने लगा। रानी भी धीरे-धीरे नीचे उतरी, तालाब से बाहर आई। वह अपने नगर की दिशा नहीं जानती थी। १. उनि.२४६-५२, उशांटी.प. २८७-२८९, उसुटी.प. १२४, १२५ । Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५५९ अहो! कर्मों की गति कितनी विचित्र है। मैं अकल्पित विपत्ति में फंस गई हूँ। अब मैं क्या करूं? कहां जाऊं? मेरी क्या गति होगी? ऐसा सोचते-सोचते वह रोने लगी। क्षण भर बाद उसने धैर्य धारण करके सोचा-'हिंसक एवं जंगली पशुओं से युक्त इस भीषण वन में कुछ भी हो सकता है अतः हर क्षण अप्रमत्त रहना चाहिए।' उसने अर्हत् आदि चार शरणों को स्वीकार किया। अनाचरणीय की आलोचना की और सकल जीव राशि के साथ मानसिक रूप से क्षमायाचना की। उसने सागारिक भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार कर लिया। वह नमस्कार महामंत्र का जाप करती हुई एक दिशा में प्रस्थित हुई। बहुत दूर जाने पर उसे एक तापस दिखाई पड़ा। तापस के पास जाकर उसने अभिवादन किया। तापस ने पूछा-'माँ! आप यहां निर्जन वन में कहां से आईं?' वह बोली-'मैं चेटक की पुत्री हूँ। राजा दधिवाहन की पत्नी हूँ । हाथी मुझे यहां तक ले आया'। वह तापस चेटक से परिचित था। उसने रानी को आश्वासन दिया कि तुम डरो मत। तापस ने भोजन के लिए उसे और अटवी के पार पहुंचा दिया। तापस ने कहा-'यहां से आगे हल के द्वारा जोती हुई भूमि है अत: मैं आगे नहीं जा सकता। आगे दन्तपुर नगर है। वहां का राजा दन्तवक्र है।' वह चलकर अटवी से बाहर निकली और दंतपुर नगर में आर्याओं के पास प्रव्रजित हो गयी। पूछने पर भी उसने अपने गर्भ के बारे में कुछ नहीं बताया। कुछ समय पश्चात् महत्तरिका को यह ज्ञात हुआ। प्रसव होने पर नाममुद्रिका एवं कंबलरत्न से आवेष्टित कर बालक को श्मशान में छोड़ दिया। श्मशान में रहने वाले चांडाल ने उस बालक को उठा लिया और अपनी पत्नी को दे दिया। उसका नाम अवकीर्णक रख दिया। आर्या पदमावती ने उस चांडाल के साथ मैत्री स्थापित कर ली। अन्य साध्वियों ने उससे पूछा-'तुम्हारा गर्भ कहां है?' उसने कहा-'मृतक पुत्र पैदा हुआ था अत: उसे श्मशान में डाल दिया।' वह बालक बढ़ने लगा और बच्चों के साथ खेलने लगा। वह बच्चों से कहता—'मैं तुम सब का राजा हं अत: तुम सब मुझे 'कर' दो।' एक बार उसे सखी खाज हो गई। वह बालकों से कहता कि मेरे खाज करो। हाथ से खाज करने के कारण बच्चों ने उसका नाम करकंडु रख दिया। बालक करकंडु भी उस साध्वी के प्रति अनुरक्त हो गया। वह साध्वी भी भिक्षा में जो मोदक आदि अच्छी चीज मिलती, उस बालक को देती थी। बड़ा होने पर वह श्मशान की रक्षा करने लगा। एक बार दो मुनि किसी कारणवश उस श्मशान भूमि से गुजरे। वहां बांस के झुरमुट में एक डंडा देखा। एक मुनि दंड-लक्षणों का ज्ञाता था। उसने दूसरे मुनि से कहा-'जो इस डंडे को ग्रहण करेगा वह राजा बनेगा। लेकिन वह चार अंगुल और बढ़ने पर ही राज्य-प्राप्त कराने में योग्य बनेगा। तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।' यह बात उस मातंग सुत करकंडु एवं एक ब्राह्मण के पुत्र ने सुनी। ब्राह्मण पुत्र निर्जन समय में उस वंशदंड को चार अंगुल जमीन खोदकर बाहर निकाल रहा था तब मातंगपुत्र करकंडु ने उसे देख लिया। उसने उसको डरा-धमकाकर उसके हाथ से डंडा छीन लिया। वह ब्राह्मण उसको न्यायकर्ताओं के पास ले गया और कहा–'मेरा डंडा मुझे दिलवाओ।' करकंडु ने कहा- श्मशान मेरा है अतः मैं इसे नहीं दूंगा।' ब्राह्मण-पुत्र ने कहा-'तुम दूसरा डंडा ले लो।' तब करकंडु बोला-'मैं इस डंडे के प्रभाव से राजा बनूंगा अत: यह डंडा मैं नहीं दे सकता।' तब न्यायकर्ताओं ने हंसकर कहा-'जब तुम राजा बन जाओ तब इसको भी तुम Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० नियुक्तिपंचक एक गांव दे देना।' करकंडु ने यह बात स्वीकार कर ली। उस ब्राह्मण-पुत्र ने अन्य ब्राह्मण-पुत्रों को अपने पक्ष में कर लिया कि इसको मारकर हम डंडा ग्रहण कर लेंगे। यह बात करकंडु के पिता ने सुनी। उन्होंने उस गांव से पलायन की बात सोची। वे तीनों कांचनपुर पहुंचे। कांचनपुर का राजा मर गया था। उसके कोई पुत्र नहीं था। राज-कर्मचारियों ने घोड़े को अधिवासित करके छोड़ा। वह घोड़ा नगर के बाहर सोए करकंडु के पास आया। वह करकंडु की प्रदक्षिणा करके खड़ा हो गया। नागरिकों ने देखा कि यह युवक लक्षणयुक्त है। उन्होंने जय-जयकार द्वारा उसको वर्धापित किया। नंदीतूर बजाया गया। वह भी जम्भाई लेते हुए खड़ा हुआ। वह विश्वस्त होकर घोड़े पर बैठ गया। उसने नगर में प्रवेश किया। यह चाण्डाल है' ऐसा सोचकर ब्राह्मणों ने उसको प्रवेश करने से रोका। तब करकंडु ने दंडरत्न हाथ में लिया। वह जलने लगा। जलते दंडे को देखकर ब्राह्मण भयभीत हो गए। उसने 'वाटधानक' चांडालों को ब्राह्मण बना दिया। उसका गृह नाम अवकीर्णक था पर बाद में उसका नाम राजा करकंडु प्रसिद्ध हो गया। एक दिन महाराज करकंडु के पास वह ब्राह्मणपुत्र आया और प्रतिज्ञा के अनुसार गांव की मांग की। करकंडु ने कहा कि जो तुम्हें रुचिकर हो वही गांव मैं तुम्हें दे सकता हूं। वह बोला-'मेरा घर चंपा जनपद में है अत: वहीं कोई गांव दे दीजिए।' तब करकंडु ने दधिवाहन को लिखा कि मुझे चंपा जनपद में एक गांव दे दें। मैं आपको इसके बदले अपने राज्य का यथेच्छित गांव या नगर दे दूंगा।' राजा दधिवाहन इस आज्ञापत्र से रुष्ट हो गए। उन्होंने सोचा यह दुष्ट मातंग अपनी शक्ति को नहीं पहचानता तभी उसने मझे यह लेख लिखकर भेजा है, दूत ने सारा वृत्तान्त महाराज करकंडु को सुनाया। यह बात सुनकर करकंडु कुपित हो गया। उसने चंपा पर आक्रमण कर दिया। युद्ध प्रारम्भ हो गया। साध्वी पद्मावती को जब युद्ध का वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो उसने सोचा कि व्यर्थ ही जनक्षय होगा अत: उसने युद्ध-भूमि में करकंडु को बुलाकर रहस्य खोल दिया कि तुम जिससे लड़ रहे हो वे तुम्हारे पिता हैं । करकंडु ने पालन करने वाले माता-पिता से पूछा तो उन्होंने यथार्थ बात बता दी। पता चलने पर भी करकंडु अभिमानवश युद्ध-भूमि से नहीं हटा तब साध्वी पद्मावती चंपानगरी में राजा दधिवाहन के प्रासाद में गई। ज्ञात होने पर दास-दासियां उनके चरणों में पड़कर रोने लगीं। राजा ने जब यह बात सुनी तो वह भी वहां साध्वी के पास आया और विधिवत् वंदना की। राजा ने गर्भ के बारे में पूछा तो साध्वी ने कहा-'जो इस नगरी पर आक्रमण कर युद्ध कर रहा है, वही आपका पुत्र है।' राजा अपने पुत्र करकंडु के पास गया और प्रसन्नता से गले मिला। दोनों राज्य करकंडु को देकर दधिवाहन प्रव्रजित हो गया। करकंडु विशाल राज्य का सम्राट् बन गया। करकडु गोकुल प्रिय था। उसके पास अनेक गोकुल थे। एक बार शरदकाल में वह गोकुल में गया और एक श्वेत हष्ट-पुष्ट बछड़े को देखा। उसने गोपालक को आदेश दिया कि इस बछड़े की मां को न दुहा जाए। जब यह बड़ा हो जाए तब अन्य गायों का दूध भी इसे पिलाया जाए। गोपालों ने यह बात ध्यान से सुनी और वे उस बछड़े का यथादेश लालन-पालन करने लगे। थोड़े दिनों में वह बड़े सींगों वाला तथा हृष्ट-पुष्ट शरीर वाला वृषभ बन गया। वह युद्ध-कला में निपुण बन गया। एक बार राजा कार्यवश अन्यत्र गया। कुछ समय पश्चात् वह पुन: अपने राज्य में लौटा और गोशाला Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५६१ देखने गया। राजा ने उस हृष्ट-पुष्ट बैल के विषय में पूछा। गोपाल ने राजा को वह वृषभ दिखाया। राजा ने उस महाकाय बैल को जीर्ण-शीर्ण अवस्था में देखा। उसकी आंखें धंस गई थीं। पैर लड़खड़ा रहे थे। वह छोटे-बड़े बैलों से सताया जा रहा था। राजा ने पूछा-'क्या यह वही वृषभ है?' गोपालक बोले---'राजन् ! यह वही वृषभ है।' उसे देख राजा करकंडु विषण्ण हो गया। वह संसार की अनित्यता से संबुद्ध होकर प्रव्रजित हो गया। ५०. द्विर्मुख भरतक्षेत्र में कांपिल्यपुर नामक नगर था। वहां हरिवंश कुल में उत्पन्न राजा का नाम जय और उसकी पटरानी का नाम गुणमाला था। एक बार राजा आस्थानमंडप में बैठा था। उसने दूत से पूछा-'ऐसी क्या वस्तु है जो अन्य राजाओं के पास है और मेरे पास नहीं है?' दूत ने कहा-'आपके राज्य में चित्रसभा नहीं है।' राजा ने तत्काल बढ़ई को बुलाया और शीघ्र ही चित्रसभा के निर्माण की आज्ञा दी। बढ़ई ने कार्य प्रारम्भ कर दिया। पृथ्वी की खुदाई करते हुए पांचवें दिन रत्नमय देदीप्यमान महामुकुट निकला। कर्मकरों ने हर्ष के साथ राजा को यह सूचना दी। राजा ने प्रसन्न होकर नंदी वाद्य बजाकर मुकुट को धरती से ऊपर निकाला तथा कर्मकरों को वस्त्र आदि पुरस्कार में दिए। थोड़े ही दिनों में चित्रशाला का कार्य पूरा हो गया। शुभमुहूर्त में राजा ने चित्रशाला में प्रवेश किया। मंगल वाद्य-ध्वनि के साथ राजा ने मुकुट को अपने मस्तक पर धारण किया। उस मुकुट के प्रभाव से उसके दो मुख दिखाई देने लगे। लोगों ने उसका नाम द्विर्मुख रख दिया। कुछ काल बीता। राजा के सात पुत्र हुए पर पुत्री एक भी नहीं हुई। पुत्री के अभाव में गुणमाला अधीर और उदास हो गई। उसने मदन नामक यक्ष की आराधना से वरदान प्राप्त किया। उसके एक पुत्री हुई, जिसका नाम मदनमंजरी रखा गया। क्रमशः मदनमंजरी यौवन को प्राप्त हुई। उज्जयिनी के राजा चंडप्रद्योत ने जय राजा के द्विर्मुख होने की बात सुनी। उसने अपने दूत से इसका कारण पूछा। दूत ने उसे चमत्कारी मुकुट की बात बताई, जिसको धारण करने से राजा दो मुंह वाला बन जाता था। प्रद्योत के मन में मुकुट को प्राप्त करने का लोभ बढ़ गया। दूत ने द्विर्मुख राजा से कहा-'या तो आप अपना मुकुट चण्डप्रद्योत राजा को समर्पित करें अथवा युद्ध के लिए तैयार हो जाएं।' राजा द्विर्मुख ने कहा-'यदि चण्डप्रद्योत मुझे चार वस्तुएं दे तो मैं उसे मुकुट दे सकता हूं। (1) अनलगिरि हाथी, (2) अग्निभीरू रथ, (3) रानी शिवादेवी, (4) लोहजंघ लेखाचार्य । ये चारों प्रद्योत के राज्य की निधियां थीं। दूत उज्जयिनी गया और प्रद्योत को सारी बात बताई। प्रद्योत अत्यन्त कुपित हुआ और चतुरंगिणी सेना के साथ कांपिल्यपुर पर आक्रमण के लिए प्रस्थान कर दिया। उसके साथ दो लाख हस्तिसेना, दो लाख रथसेना, पचास हजार अश्वसेना तथा सात करोड़ पदातिसेना थी। अनवरत चलते-चलते वह अपनी सेना के साथ पांचाल देश की सीमा पर पहुंच गया। प्रद्योत ने सेना का पड़ाव डाला। द्विर्मुख भी अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ नगर के बाहर आ गया और पांचाल देश की सीमा पर पहुंचा। प्रद्योत ने गरुड़व्यूह की रचना की थी। उसके प्रतिपक्ष में १. उनि. २५९-६१, उशांटी.प. ३००-३०३, उसुटी. प. १३३-१३५ । Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ नियुक्तिपंचक द्विर्मुख ने सागरव्यूह की रचना की। दोनों ही सेनाओं में युद्ध प्रारम्भ हो गया। मुकुट के प्रभाव से द्विर्मुख की सेना अजेय रही। प्रद्योत की सेना पलायन करने लगी। द्विमुख ने प्रद्योत को बंदी बनाकर नगर में प्रवेश कराया। प्रद्योत कारागृह में बंदी था। एक दिन उसने राजकन्या मदनमंजरी को देखा। वह उसमें आसक्त हो गया। कामाग्नि में जलते हुए चिंतातुर और संतप्त प्रद्योत की वह रात ज्यों-त्यों बीती। प्रात:काल द्विर्मुख प्रद्योत के स्थान पर गया। उसने प्रद्योत का म्लान और उदासीन मुखमंडल देखकर उसका कारण पूछा। पहले उसने कोई उत्तर नहीं दिया। बाद में आग्रह करने पर नि:श्वास छोड़ते हए उसने सारी बात बता दी। प्रद्योत ने कहा-'यदि मझे मदनमंजरी नहीं मिली तो मैं अग्नि में कद कर मर जाऊँगा। यदि मेरा कुशल-क्षेम चाहते हो तो मदनमंजरी का मेरे साथ विवाह कर दो।' द्विर्मुख ने शुभमुहूर्त देखकर प्रद्योत के साथ अपनी कन्या का विवाह कर दिया। कुछ दिन वहां रहकर प्रद्योत नववधू के साथ उज्जयिनी आ गया। कांपिल्यपुर में इन्द्रमहोत्सव था। राजा की आज्ञा से नागरिकों ने इन्द्रध्वज की स्थापना की। वह इन्द्रध्वज अनेक प्रकार के पुष्पों, घण्टियों तथा मालाओं से सज्जित किया गया। लोगों ने उसकी पूजा की। स्थान-स्थान पर नृत्य-गीत होने लगे। सारे लोग मोद-मग्न थे। इसी प्रकार सात दिन बीते। पूर्णिमा के दिन महाराज द्विर्मुख ने इन्द्रध्वज की पूजा की। सात दिन बीतने पर लोगों ने इन्द्रध्वज के आभूषण उतार लिए और काष्ठ को सड़क पर फेंक दिया। एक दिन राजा द्विमुख उसी मार्ग से निकला। उसने उस इन्द्रध्वज के काष्ठ को मलमूत्र में पड़ा देखा और देखा कि लोग उसका तिरस्कार करते हुए अतिक्रमण कर रहे हैं। संसार की अनित्यता देखकर उसे वैराग्य हो गया। वह प्रतिबुद्ध हो, पंच-मुष्टि लोच कर, प्रव्रजित हो गया। ५१. नमि राजर्षि भरत क्षेत्र में अवन्ती जनपद के सुदर्शनपुर नामक नगर में मणिरथ नामक राजा राज्य करता था। उसका भाई युगबाहु युवराज था। उसकी पत्नी मदनरेखा अनुपम रूप और लावण्य से युक्त थी। वह सुदृढ श्राविका थी। उसके सर्वगुणसम्पन्न एक पुत्र था, जिसका नाम चन्द्रयश था। एक दिन मणिरथ मदनरेखा को देखकर उसके रूप में आसक्त हो गया। वह सोचने लगा-'मेरा इसके साथ संयोग कैसे होगा? पहले मैं इसके साथ प्रीति बढ़ाऊं फिर इसके साथ रहकर इसके चित्त के भावों को जानकर यथायोग्य करूंगा'-ऐसा चिंतन करके उसने उसके साथ प्रीतिसम्बन्ध स्थापित करना प्रारम्भ किया। सर्वप्रथम उसने पुष्प, कुंकुम, तंबोल, विविध वस्त्र एवं अलंकार भेजे। मदनरेखा के मन में कोई गलत भाव नहीं थे अतः उसने वे उपहार स्वीकार कर लिये। समय बीतने लगा। एक दिन मणिरथ ने मदनरेखा से कहा-'सुन्दरी ! यदि तुम मुझे स्वीकार कर लो तो मैं तुम्हें सारे राज्य की स्वामिनी बना दूंगा।' उसने कहा-'नपुंसकत्व, स्त्रीत्व और पुरुषत्व पूर्व कर्मों से प्राप्त होता है। तुमने पुरुषत्व प्राप्त किया है। यदि मैं तुम्हें स्वीकार न करूं तो भी भाई १. उनि. २६२, २६२/१, उशांटी. प. ३०३, उसुटी.प. १३५, १३६ । Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५६३ के युवराज की पत्नी हूं अतः मेरे राज्य के स्वामित्व का हरण कौन कर सकता है। जो सत्पुरुष होते हैं, वे मरना स्वीकार कर लेते हैं मगर इहलोक और परलोक के विरुद्ध कोई आचरण नहीं करते? हिंसा, असत्य-भाषण, स्तेय, परस्त्रीगमन से जीव नरक में जाते हैं इसलिए महाराज दुष्टभाव को छोड़कर आचार-मार्ग को स्वीकार करें।' मणिरथ ने सोचा कि युगबाहु के जीवित रहते यह अन्य पुरुष की इच्छा नहीं करेगी अतः विश्वास में लेकर युगबाहु को मार दूं, फिर बलपूर्वक इसे अपनी बना सकता हैं। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय कारगर नहीं हो सकता । समय बीतने लगा। एक दिन मदनरेखा ने चंद्र का स्वप्न देखा। उसने पति से इसका फल पूछा। युगबाहु ने कहा-'सकल पृथ्वीमंडल पर चांद के समान सन्दर तुम्हारे एक पत्र होगा।' वह गर्भवती हई। गर्भ के तीसरे महीने उसको दोहद उत्पन्न हुआ कि मैं तीर्थंकर और मुनियों की उपासना करूं तथा सतत तीर्थंकरों का चरित्र सुनूं। उसका दोहद पूरा हुआ। वह सुखपूर्वक गर्भ का वहन करने लगी। एक दिन बसन्त मास में यगबाह मदनरेखा के साथ उद्यान में क्रीडा करने आया। वे दोनों भोजन-पानी में इतने मस्त हो गए कि सूर्य अस्ताचल में डूब जाने पर भी उन्हें भान नहीं हुआ। रात हो गई। सर्वत्र अंधकार व्याप्त हो गया। इसलिए युगबाहु उसी उद्यान में ठहर गया। मणिरथ ने सोचा-'यह अच्छा अवसर है। युगबाहु नगर के बाहर है, उसके पास सहायक भी कम हैं, रात्रि का समय है तथा सघन अंधकार है अत: वहां जाकर यदि मार दूं तो नि:शंक होकर मदनरेखा के साथ रमण कर सकूँगा।' ऐसा सोच वह शस्त्र लेकर उद्यान में आया। युगबाहु भी रतिक्रीड़ा कर कदलीगृह में ही सो गया। चारों ओर प्रहरी पुरुष बैठे थे। मणिरथ ने उनसे पूछा-'युगबाहु कहां है'? उन्होंने बता दिया। मणिरथ ने कहा कि कोई शत्रु यहां युगबाहु का अभिभव न कर दे इस चिंता से मैं यहां आया हूं। ऐसा कह वह कदलीगृह में प्रविष्ट हो गया। युगबाहु ससंभ्रम उठा और भाई को प्रणाम किया। मणिरथ बोला-'चलो, नगर चलते हैं यहां रहना ठीक नहीं है।' युगबाहु उठने लगा। उसी समय कार्य-अकार्य की चिंता किए बिना, जनपरिवाद को सोचे बिना, परलोक के भय को छोड़कर विश्वस्त हृदय से मणिरथ ने तीक्ष्ण खड्ग से युगबाहु की गर्दन पर प्रहार किया। तीक्ष्ण प्रहार की वेदना से उसकी आंखें बंद हो गईं और वहीं धरती पर गिर पड़ा। मदनरेखा ने चीत्कार करते हुए कहा-'अहो ! अकार्य हो गया।' उसकी आवाज सुनकर खड्गधारी पुरुष वहां आ गए और पूछा-'यह क्या हुआ?' मणिरथ ने कहा-'प्रमाद से मेरे हाथ से यह खड्ग गिर गया। हे सुन्दरी! अब भय से क्या?' आरक्षक पुरुष मणिरथ की चेष्टा से उसके भावों को जानकर उसे बलपूर्वक में ले गये। उन्होंने चन्द्रयश को युगबाहु का वृत्तान्त बताया। करुण विलाप करता हुआ वह उद्यान में आया। वैद्यों ने व्रण-चिकित्सा की। थोड़ी देर में उसकी वाणी अवरुद्ध हो गई तथा नयनयुगल बंद हो गए। अंग निश्चेष्ट हो गए। खून का प्रवाह निकलने से उसका शरीर सफेद हो गया। मदनरेखा ने मरणासन्न स्थिति देखकर पति के कान में मधुर शब्दों में कहा–'महानुभाव! आप मानसिक समाधि रखें। किसी पर द्वेष न रखें। सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखें और चतुः शरण की शरण स्वीकार करें। अपने पूर्वाचीर्ण अनाचारों की गर्दा करें और कर्मोदय से आए इस कष्ट को समता से सहन करें । जो कर्म किए हुए हैं, वे भोगने ही पड़ते हैं। दूसरा तो निमित्त नगर Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ नियुक्तिपंचक मात्र होता है। इसलिए शुभचिंतनरूप परलोक के पाथेय को स्वीकार करें। आप समस्त मोह और आसक्ति से विलग हो जाएं। संसार में न कोई माता है, न पुत्र, न भाई और न कोई बंधु । दु:ख-बहुल संसार में धन भी किसी का शरण नहीं बन सकता। एक मात्र जिनेन्द्र देव का धर्म ही त्राण और शरण बन सकता है।' युगबाहु ने हाथ जोड़कर मस्तक से यह सब स्वीकार किया। शुभ अध्यवसाय से वह कुछ ही समय में देवगति को प्राप्त हो गया। चन्द्रयश विलाप करने लगा। मदनरेखा ने सोचा-'इस प्रकार के अनर्थकारी मेरे इस रूप को धिक्कार है। वह पापी मेरी इच्छा के बिना भी अवश्य मेरा शील भंग करेगा अत: यहां रहना उचित नहीं है। किसी दूसरे स्थान पर जाकर इहलोक और परलोक को सधारूंगी अन्यथा वह पापी मेरे गर्भस्थ पत्र को भी मार सकता है।' ऐसा सोचकर वह आधी रात के समय ही उद्यान से बाहर निकली और पूर्वदिशा में प्रस्थित हो गई। एक भयानक अटवी में उसने रात गुजारी। दूसरे दिन चलते-चलते मध्याह्न तक व सरोवर के पास पहुंची। वन के फलों से उसने अपनी बुभुक्षा शान्त की। रास्ते की थकान से खिन्न होकर सागारिक अनशन कर वह कदली-गृह में सो गई। रात प्रारम्भ हुई। वहां व्याघ्र, सिंह, वराह आदि अनेक हिंस्र पशुओं की भयानक आवाजें आने लगीं। मदनरेखा का भय बढ़ा। वह नमस्कार महामंत्र का जप करने लगी। अचानक आधी रात को उसके पेट में प्रसव-वेदना हुई। अत्यन्त कष्टपूर्वक उसने सर्वलक्षणसम्पन्न एक बालक को जन्म दिया। प्रात:काल बालक को कंबल-रत्न से आवेष्टित कर युगबाहु के नाम की मुद्रिका पहनाकर वह सरोवर पर गई। कपड़ों को धोकर वह स्नान के लिए सरोवर में उतरी। इसी बीच जल के मध्य स्नान करते हुए एक जलहस्ती ने उसे सूंड से पकड़ा और आकाश में उछाल दिया। नियतिवश नंदीश्वरद्वीप की ओर जाते हुए एक विद्याधर ने उसे देखा। यह रूपवती है, ऐसा सोचकर करुण क्रन्दन के साथ नीचे गिरती हुई मदनरेखा को विद्याधर ने पकड़ लिया। वह उसे वैताढ्य पर्वत पर ले गया। रोते हुए मदनरेखा ने कहा-'भो महासत्त्व! आज रात्रि में वन के मध्य मैंने प्रसव किया है। अपने पुत्र को कदलीगृह में छोड़कर मैं सरोवर में स्नान के लिए उतरी थी। जलहस्ती ने मुझे सूंड से ऊपर उछाला। इसी बीच आपने मुझे झेल लिया। बालक को कोई वन्य पशु मार न दे अथवा हार न मिलने पर वह स्वयं न मर जाए अतः आप मुझे अपत्यदान देने की कृपा करें, व्याघात न करें। हिंस्र पशुओं से उसे बचाएं। आप मुझे शीघ्र वहां ले चलें।' विद्याधर ने कहा-'यदि तुम मुझे पति के रूप में स्वीकार करो तो तुम्हारे आदेश का पालन कर सकता हूँ।' विद्याधर बोला-'गांधार जनपद के रत्नापथ नगर में मणिचूड़ नामक विधाधर राजा था। उसकी पत्नी का नाम कमलावती था। मैं उसका पुत्र मणिप्रभ हूं। दोनों श्रेणियों के आधिपत्य का पालन कर मणिचूड़ कामभोगों से विरक्त होकर मुझे राज्य सौंपकर चारण श्रमण के पास दीक्षित हो गया। वह अनुक्रम से विहार करता हुआ कल यहां आया था। अभी चैत्यवंदन हेतु नंदीश्वर द्वीप गया है। उसके पास जाते हुए तुम मुझे दिखलाई दी। अतः हे सुन्दरी ! तुम्हें सब विद्याधरियों की स्वामिनी बना दूंगा। मुझे तुम अपना स्वामी स्वीकार कर लो।' उसने आगे उसके पुत्र के बारे में बताते हुए कहा-'मिथिला का राजा शिकार के लिए निकला। अश्व उसे निर्जन अटवी में ले आया। अटवी में विचरण करने वाले मिथिला के राजा ने Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं तुम्हारे पुत्र को देखा। उसे लेकर उसने अपनी महादेवी को दे दिया। वह पुत्र की भांति उसका लालनपालन कर रही है । यह सारी बात मैंने अपने विद्याबल के उपयोग से जान ली है। इसलिए हे सुतनु ! उद्वेग को छोड़कर धीरज करो। अपने मन को प्रसन्न करो। अपनी यौवनश्री को मेरे साथ रमणकर आनंदित करो।' यह सुनकर मदनरेखा ने सोचा- 'मेरे कर्मों की रेखा कितनी विचित्र है? मुझे नई विपत्तियों का सामना करना पड़ रहा है। अब मुझे क्या करना चाहिये? कामदेव से ग्रसित प्राणी कार्य और अकार्य का विवेक नहीं कर सकता। वह लोकापवाद की चिंता नहीं करता तथा परलोक का हित नहीं सोचता। इसलिए मुझे किसी भी अवस्था में शील की रक्षा करनी चाहिए।' ऐसा सोचकर उसने विद्याधर से कहा - 'आप मुझे नंदीश्वर द्वीप ले चलें। वहां जाकर मैं आपकी इच्छा पूरी करूंगी।' विद्याधर ने प्रसन्नमन से श्रेष्ठ विमान की विकुर्वणा की । मदनरेखा को उसमें बिठाकर वह नंदीश्वरद्वीप ले गया। मणिप्रभ और मदनरेखा दोनों विमान से उतरे और उन्होंने ऋषभ, वर्द्धमान, चन्द्रानन, वारिषेण आदि जिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा-अर्चना की। उन्होंने मणिचूड़ चारण मुनि को भी वंदना की और उनके पास बैठ गये । मणिचूड़ चार ज्ञान के धारक थे। उन्होंने अपने ज्ञान के बल से मदनरेखा का वृत्तान्त जान लिया और धर्मकथा से मणिप्रभ को उपशान्त किया। मणिप्रभ ने मदनरेखा से अपने कृत्य के लिए क्षमा मांगी। मणिप्रभ ने कहा-' आज से तुम मेरी भगिनी हो । बोलो, अब मैं तुम्हारे लिए क्या करूं?' मदनरेखा ने कहा - ' आपने मुझे नंदीश्वर तीर्थ दिखला दिया अत: बहुत उपकार किया है।' मदनरेखा ने मुनिप्रवर से कहा- 'भगवन्! आप मुझे अपने पुत्र का वृत्तान्त बतायें ।' मुनि ने कहा- 'जंबूद्वीप के पूर्व विदेह के पुष्कलावती विजय में मणितोरण नामक नगर था। वहां अमितयश नामक चक्रवर्ती था । उसकी भार्या पुष्पवती से दो पुत्र उत्पन्न हुए - पुष्पसिंह और रत्नसिंह। वे दोनों चौरासी लाख पूर्व राज्य कर संसार के भय से उद्विग्न होकर चारण श्रमणों के पास प्रव्रजित हो गए। सोलह लाख पूर्व तक यथोचित श्रामण्य का पालन कर आयु-क्षय होने पर वे अच्युत कल्प में बावीस सागरोपम के आयुष्य वाले इन्द्र सामानिक देव बने । देव ऋद्धि का सुख भोगकर वहां से च्युत होकर धातकीखंड के अर्द्ध भरत में हरिषेण बलदेव की पत्नी समुद्रदत्ता के यहां पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। एक का नाम सागरदेव तथा दूसरे का नाम सागरदत्त रखा गया। राज्य श्री को असार जानकर बारहवें तीर्थंकर दृढ़ सुव्रत स्वामी के तीर्थ के अतिक्रान्त हो जाने पर आचार्य के पास दीक्षित हुए। दीक्षित होने के तीसरे दिन विद्युद्घात से वे दिवंगत हो गये। वे महाशुक्र देवलोक में उत्पन्न हुए। सतरह सागरोपम तक देव-सुख का अनुभव किया। बावीसवें तीर्थंकर के कैवल्यउत्सव पर वे वहां गए। वहां उन्होंने भगवान् से पूछा - 'यहां से च्युत होकर हम कहां उत्पन्न होंगे।' भगवान् ने कहा- 'एक मिथिला नगरी के राजा जयसेन के पुत्ररूप में तथा दूसरा सुदर्शनपुर युगबाहु राजा की पत्नी मदनरेखा के यहां पुत्र होगा । परमार्थतः वे पिता-पुत्र होंगे।' ऐसा सुनकर वे देव पुनः देवलोक में चले गये। के एक देव वहां से च्युत होकर मिथिला नगरी के राजा जयसेन की पत्नी वनमाला के यहां उत्पन्न हुआ । उसका नाम पद्मरथ रखा गया। जब वह युवा हुआ तो पिता ने उसे राजा बना दिया और स्वयं प्रव्रजित हो गया। उसकी पत्नी का नाम पुष्पमाला था। राज्य का पालन करते हुए बहुत समय व्यतीत हो गया । ५५५ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ नियुक्तिपंचक इधर दूसरा देव देवलोक से च्युत होकर तुम्हारा पुत्र बना । वह पद्मरथ अविनीत घोड़े के द्वारा पथ से च्युत हो गया और अटवी में चला गया। आज प्रातः घूमते हुए उसने तुम्हारा पुत्र देखा। पूर्वभव के स्नेह के कारण उसने अत्यन्त प्रसन्न हृदय से उसे स्वीकार कर लिया। इसी बीच पैर के चिह्नों से खोजते हुए सेना भी वहीं आ गई। वह हाथी पर चढ़कर अपने नगर चला गया। उसने वह बालक अपनी पत्नी पुष्पमाला को दे दिया। राजा ने वर्धापनक समारोह मनाया। अत्यन्त स्नेह से उसका लालन-पालन हो रहा है। जब मुनि यह वृत्तान्त बता रहे थे तभी एक दिव्य देदीप्यमान विमान वहां उतरा। उसमें से श्रेष्ठ रत्नों का मुकुट पहने, चंचल मणिकुंडल धारण किए हुए, वक्षस्थल में हार पहने हुए एक देव निकला। वह तीन बार प्रदक्षिणा देकर मदनरेखा के चरणों में गिर पड़ा। उसके बाद वह मुनि के चरणों में वंदना कर धरती पर बैठ गया। तब विद्याधर ने देव का अविनय देखकर कहा अनरेहि नरवरेहि य, परूविया हुंति रायनीईओ। लुप्पंति जत्थ ते च्चिय, को दोसो तत्थ इयराणं?॥ -देवता और राजा नीति का प्ररूपण करते हैं। यदि वे भी उसका लोप करते हैं तो दूसरों का तो कहना ही क्या? 'क्रोधादि दोष से रहित, पांच इन्द्रियों का दमन करने वाले, मद का नाश करनेवाले, श्रेष्ठ ज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले, तप और संयम से युक्त इस धीर श्रमण को छोड़कर तुमने इस रमणी को पहले वंदना क्यों की?' देव ने कहा-हे विद्याधरराज ! तुमने जो कहा है, वह सत्य है। मैंने इसको प्रथम वंदना की, इसका कारण सुनो। सुदर्शनपुर में मणिरथ नामक राजा था। उसका भाई युगबाहु था। पूर्वभव के वैर के कारण बसंत मास में अपने भाई मणिरथ के द्वारा उसके गर्दन पर प्रहार किया गया। जब मैं मरणासन्न था तब इस मदनरेखा ने जिनधर्म का उपदेश दिया और वैर के अनुबंध को उपशान्त कर दिया। सम्यक्त्व आदि परिणामों से कालगत होकर मैं पंचम कल्प में दस सागर की आयुष्य वाला इंद्र सामानिक देव बना हूँ। यह मेरी धर्मगुरु है क्योंकि इस से मैंने सम्यक्त्व का मूल जिनधर्म स्वीकार किया है। कहा भी है जो जेण सुद्धधम्मम्मि, ठाविओ संजएण गिहिणा वा। सो चेव तस्स जायइ, धम्मगुरू धम्मदाणाओ। जो संयमी साधु या गृहस्थ किसी को धर्म में स्थित करता है, वह उसका धर्मगुरु है इसलिए मैने इसे पहले वंदना की। यह सुनकर विद्याधर ने सोचा-'अहो! जिनधर्म का कितना सामर्थ्य है? संसार में अनेक ऐसे व्यक्ति हैं, जो दुःख प्राप्त करते हैं पर जिनधर्म में प्रयत्न नहीं करते।' देव ने मदनरेखा से कहा-'साधर्मिणी ! कहो, मैं तुम्हारा क्या प्रिय कर सकता हूं?' मदनरेखा ने कहा-'आप परमार्थ के अलावा मेरा और कोई प्रिय करने में समर्थ नहीं हैं। जन्म, जरा, मरण आदि से रहित मोक्ष-सुख ही मुझे प्रिय है। फिर भी हे त्रिदशेश्वर ! मुझे आप मिथिला ले जाएं, वहां पुत्र का मुंह देखकर मैं परलोक का हित-सम्पादन करूंगी।' तब देवता उसको तत्क्षण मिथिला ले गया। मिथिला तीर्थंकर मल्लिनाथ और नमिनाथ की जन्म और अभिनिष्क्रमण भूमि है अत: तीर्थभूमि Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं है। वहां वे एक उपाश्रय में गए साध्वियों को वंदना की और उनके सम्मुख बैठ गये । साध्वियों ने उन्हें उपदेश दिया कि मनुष्य जन्म प्राप्त कर, धर्म और अधर्म को जानकर सकल सुख के कारण धर्म में प्रयत्न करना चाहिये। धर्मकथा की समाप्ति पर देवता ने कहा- 'अब राजभवन चलते हैं। वहां तुम्हें तुम्हारे बेटे का मुंह दिखा दूंगा।' मदनरेखा ने कहा- 'संसार बढ़ाने वाले स्नेह से क्या लाभ? मैं प्रव्रज्या ग्रहण करूंगी।' तुम्हें जो रुचिकर लगे वह करो ऐसा कहकर देवता अपने कल्प में लौट गया। मदनरेखा ने साध्वियों के समक्ष दीक्षा ग्रहण कर ली। उसका नाम सुव्रता रखा गया। वह दीक्षित होकर तप और संयम से स्वयं को भावित करने लगी। इधर वह बालक पद्मरथ राजा के यहां सुखपूर्वक बढ़ने लगा। विपक्षी राजा पद्मरथ के प्रति विनम्र हो गए अतः राजा ने बालक का गुणनिष्पन्न नाम नमि रख दिया। वह पांच धाइयों से परिवृत होकर सुखपूर्वक बढ़ने लगा। जब वह आठ वर्ष का हुआ तभी सब कला - शास्त्र में निपुण हो गया। इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न देवांगनाओं के रूप को लज्जित करने वाली एक हजार आठ कन्याओं के साथ विषय-सुख का अनुभव करता हुआ वह समय बिताने लगा । पद्मरथ राजा भी संसार की असारता को जानकर नमिकुमार को विदेह जनपद का राजा बनाकर स्वयं संयमश्री का वरण कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गया। नमिराजा राज्य का सम्यक् प्रकार से पालन करने लगे। इधर मणिरथ को उसी रात में सांप ने डस लिया। मरकर वह चौथी नारकी में उत्पन्न हुआ। सामंत और मंत्रियों ने चन्द्रयश को राजा बना दिया। चन्द्रयश राज्य का भलीभांति परिपालन करने लगा । ५६७ एक बार नमि राजर्षि के राज्य का प्रधान हाथी आलानस्तंभ को तोड़कर विंध्य अटवी की ओर भाग गया। वह सुदर्शनपुर नगर के निकट से निकल रहा था । चन्द्रयश राजा की अश्वसेना ने जाते हुए हाथी को देखा। राजा को यह बात बताई गई । चन्द्रयश हाथी को पकड़कर नगर में लेकर आ गया । गुप्तचरों ने नमि राजा को सारा वृत्तान्त बताया। उन्होंने कहा - 'धवल हस्ती को चन्द्रयश ने पकड़ लिया है अतः आप ही प्रमाण हैं । आज्ञा दें हम क्या करें?' नमि राजा ने चन्द्रयश के पास दूत भेजकर कहलवाया - ' यह धवल हस्ती मेरा है अतः इसे वापिस भेजें।' नमि के दूत ने चन्द्रयश को यह बात बताई। चन्द्रयश ने कहा- 'रत्नों पर किसी का नाम नहीं लिखा जाता। जो अधिक बलशाली है, वही उसका स्वामी है । नीतिकार कहते हैं ·1 को देइ कस्स दिज्जइ, कमागया कस्स कस्स व निबद्धा । विक्कमसारेहि जिए, भुज्जह वसुहा नरिंदेहिं ॥ वसुधा को कौन किसे देता है ? क्रमागत यह वसुधा किस-किस के साथ निबद्ध नहीं हुई। जो पराक्रमी नरेन्द्र होते हैं, वे ही इसका उपभोग भी करते हैं । तिरस्कृत और सम्मानित होकर दूत मिथिला नगरी में आ गया। चन्द्रयश की सारी बात राजा नमि को बताई गयी । कुपित नमि राजा ने सेनाबल के साथ चन्द्रयश पर आक्रमण कर दिया। इधर चन्द्रयश राजा नमि को आक्रमण के लिए आया जानकर सेना के साथ प्रस्थित हुआ। सामने अपशकुन देखकर वह रुक गया। मंत्रियों ने चन्द्रयश राजा को कहा कि नगरद्वार बंद करके हम दुर्ग में रह Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ नियुक्तिपंचक जाएं। उचित समय पर हम अन्य उपाय करेंगे। राजा ने मंत्रियों की बात स्वीकार कर ली। इधर नमि राजा ने आकर नगर को चारों ओर से घेर लिया। जनश्रुति से साध्वी सुव्रता के पास भी यह बात पहुंची। उसने सोचा-'जन और धन की हानि कर ये दोनों अधोगति में न जाएं इसलिए मैं जाकर उन दोनों को उपशान्त करूंगी।' मुखिया साध्वी की आज्ञा लेकर साध्वियों के साथ साध्वी सुव्रता सुदर्शनपुर गई। आर्या सुव्रता ने नमि राजा को देखा। नमि राजा ने आदरपूर्वक साध्वी को आसन दिया। साध्वी सुव्रता को वंदना कर नमिराजा भूमि पर बैठ गया। साध्वी सुव्रता ने नि:सीम सुख के निमित्तभूत जिनधर्म की व्याख्या की। धर्म-कथा के अंत में साध्वी ने कहा-'राजन्! यह राज्य श्री असार है। विषय-सुखों का विपाक बहुत दारुण होता है। पापी व्यक्ति अत्यधिक दुःखप्रद स्थान नरक में उत्पन्न होते हैं इसलिए इस संग्राम से तुम निवृत्त हो जाओ। रहस्य की बात यह है कि ज्येष्ठ भाई के साथ कैसा संग्राम?' नमिराजा ने कहा-'क्या वह मेरा ज्येष्ठ भाई है?यह कैसे?' साध्वी सुव्रता ने अपना सारा वृत्तान्त सप्रमाण उसे सुना दिया। फिर भी अभिमानवश वह युद्धभूमि से उपरत नहीं हुआ। तब साध्वी सुव्रता एक छोटे दरवाजे से नगर में प्रवेश कर राजभवन में गई। जैसे ही उसने राजभवन में प्रवेश किया, परिजनों ने उसे पहचान लिया। चन्द्रयश राजा ने साध्वी माता को वंदना की। उनको आदरपूर्वक स्थान दिया और स्वयं धरती पर बैठ गया। अंत:पुर के सदस्यों ने आर्या के आगमन की बात सुनी। वे अश्रुपूरित नयनों से आए और साध्वी सुव्रता की चरण-वंदना की। राजा चन्द्रयश ने साध्वी से कहा-'यह दुर्धर व्रत क्यों स्वीकार किया है?' आर्या सुव्रता ने अपना पूर्व वृत्तान्त सुनाया। चन्द्रयश ने पूछा-'मेरा छोटा भाई अभी कहां है?' आर्या ने कहा-जिसने तुम पर आक्रमण किया है, वही तुम्हारा छोटा भाई है।' यह सुनकर हर्ष से रोमांचित होकर वह नगर से निकला। नमिराजा भी अपने बड़े भाई चन्द्रयश को आते देखकर दौड़ा और उनके चरणों में गिर पड़ा। बड़े आदर-सत्कार और हर्ष के साथ चन्द्रयश ने अपने छोटे भाई को नगर में प्रवेश करवाया। चन्द्रयश ने नमिराजा को सम्पूर्ण अवंती जनपद का राज्य देकर उसका अभिषेक किया फिर महाराजा चन्द्रयश श्रामण्य को स्वीकार कर सुखपूर्वक विहरण करने लगे। नमिराजा दोनों देशों पर नीतिपूर्वक राज्य करने लगा। उसका अनुशासन अत्यन्त कठोर था। एक बार राजा नमि को दाहज्वर हो गया। उसने छह मास तक उसकी घोर वेदना सही। वैद्यों ने रोग को असाध्य बता दिया। दाहज्वर को शांत करने के लिए रानियां चंदन घिसती रहीं। चंदन घिसते हुए उनके हाथ के कंकण बज रहे थे। कंकण की आवाज से पूरा राजभवन गुंजित हो रहा था। कंकण की आवाज राजा के कानों को अप्रिय लग रही थी। राजा ने कहा कि इस आवाज से मेरे कानों पर आघात सा लगता है। सभी रानियों ने सौभाग्य चिह्न स्वरूप एक-एक कंकण को छोड़कर शेष सभी कंकण उतार दिये। कुछ देर बाद राजा ने मंत्री से पूछा-'कंकण का शब्द क्यों नहीं बज रहा है?' मंत्री ने कहा-'राजन् ! कंकण के घर्षण से होने वाली ध्वनि आपको अप्रिय लग रही थी अत: सभी रानियों ने एक-एक कंकण के अतिरिक्त शेष कंकण उतार दिये हैं। अकेले कंकण से घर्षण नहीं होता अत: घर्षण के बिना शब्द भी नहीं हो सकता। यह सुनकर राजा नमि _Jain Education inने परमार्थ का चिंतन किया-'सुख अकेलेपन में है। जहां द्वैत है, अनेक हैं, वहां दु:ख है। राजा jainelibrary.org Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५६९ का आत्ममंथन आगे चला। उसने संकल्प ग्रहण किया कि यदि मैं इस रोग से मुक्त हो जाऊंगा तो अवश्य प्रव्रजित हो जाऊंगा। उस दिन कार्तिक मास की पूर्णिमा थी। राजा इसी चिंतन में लीन होकर सो गया। रात्रि के अंतिम प्रहर में उसने स्वप्न देखा कि श्वेत नागराज मंदरपर्वत पर स्वयं चढ़ गया है। सवेरे नंदीघोष की आवाज से वह जागा। वह प्रसन्नमना चिंतन करने लगा कि मैंने श्रेष्ठ स्वप्न देखा है। पुनः वह गहराई से चिंतन करने लगा कि ऐसा पर्वत मैंने पहले कभी देखा है। इस प्रकार चिंतन करते हुए उसे जातिस्मृति हो गई। उसने देखा कि इस जन्म से पूर्व मनुष्य भव में श्रामण्य का पालन करके मैं पुष्पोत्तर विमान में उत्पन्न हुआ था। नमि राजा प्रतिबुद्ध होकर प्रव्रजित हो गया। ५२. नग्गति भरतक्षेत्र में क्षितिप्रतिष्ठित नामक नगर था। वहां का राजा जितशत्रु था। एक बार राजा ने चित्रसभा का निर्माण प्रारम्भ करवाया। उसने चित्रसभा का समविभाग कर विभिन्न चित्रकारों को उसे चित्रित करने के लिए कहा। अनेक चित्रकार उसमें लगे। चित्रांगक नामक एक वृद्ध चित्रकार उसमें चित्र करता था। वृद्ध चित्रकार की युवा पुत्री कनकमंजरी रोज उसके लिए भोजन लेकर आती थी। एक दिन वह भोजन लेकर अपने पिता के पास आ रही थी। जब वह जनसंकल राजमार्ग पर चल रही थी तब तीव्र गति से एक घुड़सवार वहां से गुजरा । वह भयभीत होकर एक ओर सरक गई। घुड़सवार के जाने पर वह अपने पिता के पास आई। चित्रांगक भोजन को आया देखकर शरीरचिंता के लिए चला गया। कनकमंजरी ने कौतुकवश पृथ्वी-तल पर रंगों से बने प्रतिरूप मोरपिच्छ को देखा। इसी बीच राजा जितशत्रु चित्रसभा में आ गया। चित्र देखते हुए उसने पृथ्वी पर मोरपिच्छ को देखा। यह सुन्दर है' ऐसा सोचकर उसने उसे उठाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया। वेग के कारण उसके नखाग्रभाग टूट गए। वह चारों ओर दिग्मूढ होकर देखने लगा। कनकमंजरी ने हंसते हुए कहा-'तीन पैर से कोई भी आसंदक-कुर्सी नहीं ठहरती। चौथे मूर्ख पुरुष की खोज करते हुए आज तुम आसंदक के चौथे पैर मिल गए हो।' राजा ने कहा-'कैसे? इसका परमार्थ बताओ।' उसने कहा-'आज मैं अपने पिता के लिए खाना लेकर आ रही थी तब राजमार्ग में एक पुरुष अश्व को बहुत तीव्र गति से चला रहा था। उसके मन में थोड़ी भी करुणा नहीं थी। उसने यह नहीं सोचा कि राजमार्ग से अनेक बाल, वृद्ध, स्त्री आदि गुजरते हैं, कोई भी असमर्थ व्यक्ति उस तीव्रगामी अश्व से कुचला जा सकता है। इसलिए वह महामूर्ख अश्ववाहक आसंदी का एक पैर था। दूसरा पैर है यहां का राजा, जिसने चित्रकारों को समविभाग में चित्रसभा बांटी है। एक-एक कुटम्ब में अनेक चित्रकार होते हैं। मेरा पिता अकेला है। उसके कोई पुत्र नहीं है। वह वृद्ध तथा निर्धन भी है। ऐसे व्यक्ति के लिए भी समविभाग किया है। तीसरा पैर मेरा पिता है, जिसने इस चित्रसभा को चित्रित करते हुए पूर्वार्जित सारा धन खा लिया। इस समय जैसे-तैसे मैं उनके लिए भोजन लाती हूं। भोजन आने के बाद वह शरीर-चिंता के लिए जाता है। भोजन ठंडा हो जाता है। यह कैसा भोजन?' राजा बोला-'मैं चौथा पैर कैसे हूँ?' कनकमंजरी ने कहा-'तुम सब कुछ जानते हो। यहां मोर का १. उनि २६३-६७, उसुटी प. १३६-४१ । Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक आगमन कैसे हो सकता है? यदि मोर का आना संभव भी हो तो दृष्टि से अच्छी तरह देखना चाहिए।' राजा ने कहा— 'सत्य है । मैं मूर्ख हूं और आसंदी का चौथा पैर हूं।' राजा उसके वचनविन्यास और देह के लावण्य को देखकर उस पर अनुरक्त हो गया । कनकमंजरी भी पिता को भोजन खिलाकर अपने घर चली गयी। ५७० राजा ने अपने सुगुप्त नामक मंत्री के माध्यम से चित्रांगक से कनकमंजरी को मांगा। चित्रांगक ने कहा- 'हम दरिद्र हैं अतः विवाह के अवसर पर राजा का सत्कार आदि कैसे कर सकते हैं?' मंत्री ने राजा को आकर सारी बात कही। राजा ने धन, धान्य और हिरण्य से चित्रांगक का भवन भर दिया। प्रशस्त तिथि और मुहूर्त्त में वैभव के साथ राजा के साथ कनकमंजरी का विवाह हो गया । राजा ने उसके महल में अनेक दास-दासियों को रख दिया। राजा जितशत्रु के अनेक रानियां थीं अतः एक-एक रानी अपने क्रम के अनुसार राजा के शयनगृह में जाती थीं । उस दिन कनकमंजरी को बुलाया गया। वह अलंकारों से विभूषित होकर मदनिका दासी के साथ वहां गई । वह आसन पर बैठ गई । इसी बीच राजा वहां आ गया। राजा को देखते ही वह विनय-पूर्वक उठी। राजा शय्या पर बैठ गया। इससे पूर्व ही कनकमंजरी ने मदनिका को कह दिया कि राजा के बैठने पर मुझे आख्यानक सुनाने के लिए कहना जिससे राजा भी सुन सके। तब मदनिका ने अवसर देखकर कहा-'स्वामिनी ! जब तक राजा सो न जाए तब तक एक कथा सुना दो।' कनकमंजरी ने कहा - ' मदनिका ! जब राजा नींद में सो जाएगा तब कथा कहूंगी।' राजा ने सोचा यह कैसी कथा कहेगी मैं भी इसकी कथा सुनूंगा अतः वह कपट-नींद में सो गया। मदनिका ने कहा- 'स्वामिनी ! राजा सो गया है अतः अब आख्यानक सुनाओ। ' कनकमंजरी ने कथा सुनाना प्रारम्भ किया-' बसंतपुर नगर में वरुण नामक सेठ रहता था । उसने एक हाथ प्रमाण पत्थर का मंदिर बनाया। उसमें चार हाथ प्रमाण देवता की मूर्ति बनवाई।' मदनिका ने कहा- स्वामिनी ! एक हाथ प्रमाण देवकुल में चार हाथ का देव कैसे समाएगा? कनकमंजरी ने कहा- 'अभी राजा निद्राधीन है अतः कल कहूंगी।' 'ऐसा ही हो' कहकर मदनिका अपने घर चली गयी। राजा को कौतूहल उत्पन्न हो गया, ऐसा कैसे हुआ? वह सो गई । दूसरे दिन रात्रि को राजा ने कनकमंजरी को पुनः बुलाया। उस दिन भी मदनिका ने कहा—'स्वामिनी ! अब आधे कहे हुए कथानक को पूरा करो।' कनकमंजरी ने कहा - 'वह देव चतुर्भुज था। उसके शरीर का प्रमाण इतना नहीं था। इतना ही आख्यानक है।' मदनिका ने कहा- 'अन्य कोई आख्यानक कहें ।' कनकमंजरी ने कहा- 'हले ! एक बड़ी अटवी थी । उसके अन्दर विस्तृत शाखा प्रशाखा वाला एक लाल अशोक का वृक्ष था । उसके छाया नहीं थी।' मदनिका ने कहा- 'इतने बड़े वृक्ष की छाया कैसे नहीं थी'? कनकमंजरी ने कहा- 'आगे की कथा कल कहूंगी। इस समय मैं नींद के पराधीन हो रही हूं।' तीसरे दिन भी कौतुक वश राजा ने उसी को बुलाया। मदनिका के पूछने पर उसने कहा- उस पादप की अधः शाखा थी अर्थात् नीचे छाया पड़ती थी ऊपर नहीं । अन्य कथा पूछने पर उसने कहना प्रारम्भ किया - एक सन्निवेश में एक ग्राम- मुखिया था । उसके पास एक बड़ा ऊंट था। वह स्वच्छंद विचरण करता था। एक दिन चरते हुए उसने पत्र, पुष्प एवं फल से समृद्ध बबूल का वृक्ष देखा । वह ऊंट उसके सामने अपनी गर्दन फैलाने लगा, लेकिन Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५७१ हाता। वह कुछ भी प्राप्त नहीं कर सका। इसलिए वह बहुत देर तक क्लेश पाता रहा। फिर वह अच्छी तरह चारों ओर गर्दन फैलाने लगा। जब उसने किसी भी प्रकार कुछ नहीं पाया तब वह कुपित हो गया। उसने उसके ऊपर मूत्र और मल का विसर्जन कर दिया। मदनिका ने कहा-'उसने बबूल के वृक्ष पर मल और मूत्र का विसर्जन कैसे किया जब कि वह मुख से कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता था।' कनकमंजरी ने कहा-'आगे कल कहूंगी।' दूसरे दिन उसने कहा---'वह बबूल का वृक्ष अंधकूप के गर्त के मध्य था इसलिए ऊंट कुछ भी खा नहीं सका।' इस प्रकार कनकमंजरी छह महीने तक अनेक आख्यानकों से राजा को मोहित करती रही। राजा का उसके प्रति अत्यधिक अनुराग हो गया। राजा उसके साथ ही एकान्तरित समय बिताने लगा। उसकी सपत्नियां उस पर कुपित हो गयीं और छिद्रान्वेषण करने लगीं। वे सपत्नियां कहने लगीं-इसने राजा पर वशीकरण-सम्मोहन कर दिया है, जिससे उत्तम कुल में प्रसूत हम सबको राजा ने त्याग दिया है। इस शिल्पी की कन्या में अनुरक्त राजा गुण और दोष का विचार भी नहीं करता है। राजा राज्य-कार्य में भी रस नहीं लेता है। इस मायाविनी के कारण धन का नाश होने पर भी राजा को चिंता नहीं होती। इधर कनक मंजरी मध्याह्न बेला में अपने प्रासाद में जब अकेली रहती तब राजा के दिए हुए कपड़े, आभरण आदि उतार कर पिता के दिए कपड़े पहनती तथा पुष्प के बने अलं धारण कर स्वयं को संबोधित करती – 'हे जीव! तू ऋद्धि का गौरव और मद मत कर । तू अपने आपकी विस्मृति मत कर। यह समृद्धि राजा की है। तेरे पास तो केवल फटे-पुराने कपड़े और ऐसे आभरण हैं इसलिए तू उपशान्त रह, जिससे तू चिरकाल तक इस समृद्धि में सहभागी बन सकती है अन्यथा राजा एक दिन गर्दन पकडकर बाहर निकाल देगा। उसकी प्रतिदिन की इस प्रकार की चेष्टाओं को देखकर सपलियों ने राजा से कहा-'यद्यपि आप हम पर नि:स्नेह हो गए हैं फिर भी हम आपको अकुशल और अमंगल से बचाती हैं । नारी के लिए पति देवता होता है। वह आपकी हृदयवल्लभा दयिता कोई क्षुद्रकर्म की साधना कर रही है। उसके वशीभूत होकर आप अपना अनर्थ भी नहीं देख पाते।' राजा ने कहा-'कैसे?' सपत्नियों ने कहा-'मध्याह्न बेला में जब यह सब कार्यों से उपरत हो जाती है तब द्वार बंद करके कुछ समय तक मन ही मन में कुछ गुनगुनाती है। यदि आपको विश्वास न हो तो आप किसी आत्मीय व्यक्ति को भेजकर खोज कराएं।' यह सुनकर अपवरक में प्रविष्ट कनकमंजरी को देखने के लिए राजा स्वयं गया। द्वार पर स्थित होकर राजा ने वैसा ही देखा जैसा कहा गया था। राजा ने उसका आत्मानुशासन-स्व को संबोधित कर कहे गए वाक्य सुने। वह बहुत प्रसन्न हुआ। राजा ने सोचा इसमें कितना बुद्धि-कौशल है ! कैसा अभिमान का त्याग है ! कितना विवेक है ! सचमुच यह सकल गुणों की निधान है। मात्सर्य के कारण से सपत्नियां इसके गुण को भी दोष रूप में देख रही हैं । राजा ने प्रसन्न होकर उसे सारे राज्य की स्वामिनी बना दिया। उसे पट्टबद्ध रानी के रूप में मान्यता दे दी। उसे पटरानी बना दिया। एक बार विमलचन्द्र आचार्य के पास राजा ने कनकमंजरी के साथ श्रावक धर्म अंगीकार किया। कालान्तर में कनकमंजरी मर कर देवी बनी। वहां से च्युत होकर वैताद्य पर्वत पर तोरणपुर नगर में दृढशक्ति विद्याधर राजा की पुत्री बनी। उसका नाम कनकमाला रखा गया। क्रमश: वह यवती Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक बनी। एक बार उसके रूप से आकृष्ट हृदय वाले एक विद्याधर ने उसका अपहरण कर वैताढ्य पर्वत पर प्रासाद की विकुर्वणा करके उसमें रख दिया। उसने वेदिका की रचना की और सोचा यहां विवाह करूंगा। इसी बीच कनकमाला का ज्येष्ठ भ्राता कनकतेज वहां आ गया। दोनों रोषाग्नि में जलते हुए युद्ध करते हुए आपसी घात - प्रत्याघात से मृत्यु को प्राप्त हो गए । कनकमाला भी भाई के शोक से तीव्र विलाप करती हुई उसी प्रासाद में रहने लगी । एक दिन व्यंतर / वाणमंतर जाति का एक देव वहां आया। उसने स्नेहपूर्वक कनकमाला से कहा - 'वत्से ! तुम मेरी बेटी हो ।' जब वह देव उसे कह रहा था उस समय दृढ़शक्ति नामक विद्याधर अपने पुत्र और पुत्री की खोज करता हुआ वहां आ गया। देवमाया से व्यन्तर ने कनकमाला का रूप परिवर्तन कर दिया। उसने पुत्र, पुत्री और वासव के मृत शरीर को धरती पर पड़े हुए दिखाया। उन्हें देख दृढ़शक्ति ने सोचा- 'मेरे पुत्र को वासव ने मारा है और कनकतेज ने वासव को मारा । आपस में मारते हुए वासव के द्वारा कनकमाला मारी गयी है। धिक्कार है इस दुःख - बहुल संसार को । कौन सयाना इस संसार में रहना चाहेगा? ऐसा चिन्तन करते-करते वह विरक्त हो गया और उसने दीक्षा स्वीकार कर ली । व्यन्तर ने अपनी माया को समेटा । कनकमाला और देव ने मुनि बने दृढ़शक्ति को वंदना की। साधु ने पूछा- 'यह क्या है ? ' कनकमाला ने अपने भाई का वृत्तान्त उसे सुनाया। साधु ने कहा-'मैंने तीनों के मरे हुए शरीरों को देखा था ।' देव ने कहा- 'वह मेरी माया थी ।' मुनि ने पूछा- 'ऐसा क्यों किया?' देव ने इसका कारण बताते हुए कहा 'क्षितिप्रतिष्ठित नगर में जितशत्रु नामक राजा था । उसने चित्रांगक चित्रकार की लड़की कनकमंजरी के साथ विवाह किया । वह भी श्राविका बन गई । मरणासन्न अवस्था में उसने चित्रांगक को नमस्कार महामंत्र सुनाया, जिससे वह व्यन्तर जाति का देव बना । वह मैं हूँ। मैं इधर से आ रहा था। मैंने शोक-विह्वल कनकमाला को देखा । मेरे मन में इसके प्रति अत्यधिक स्नेह उमड़ पड़ा। मैने सोचा कि क्या यह पूर्वभव में मेरी कोई परिचित बंधु रही है जो इतना स्नेह उमड़ रहा है। मैंने अवधिज्ञान से उपयोग लगाया तो पता चला कि यह कनकमंजरी पूर्वभव में मेरी पुत्री थी । यह मरकर विद्याधर की बेटी बनी है। इसी बीच आप आ गए। मैंने सोचा - 'यह तुम्हारे साथ चली जाएगी।' इस विरह के भय से तुम्हें विमोहित करने के लिए माया रची और इसका मरा हुआ शरीर दिखाया। तुमने दीक्षा स्वीकार कर ली है। अब मैं खेद का अनुभव कर रहा हूँ कि यह महानुभाव अपनी पुत्री से वंचित हो गया । इसलिए आप मेरी दुश्चेष्टा के लिए मुझे क्षमा करें।' साधु ने कहा - 'तुम मेरे परम उपकारी हो क्योंकि तुम्हारे कारण मैंने धर्म स्वीकार किया है।' ऐसा कहकर वे विद्याबल से आकाश में उड़ गए और यथासमाधि विहरण करने लगे । ५७२ व्यन्तर सुर द्वारा सारी बात सुनकर उस पर चिन्तन करने से कनकमाला को भी जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने अपना पूर्वभव जान लिया कि मैं कनकमंजरी थी और यह देव मेरा पिता था। उसने अपने पिता से पूछा - 'मेरा पति कौन होगा?' देवता ने अवधिज्ञान का उपयोग लगाकर कहा - 'तुम्हारे पूर्व जन्म का पति जितशत्रु राजा तुम्हारा पति होगा । वह देव होकर वृद्धसिंह राजा का पुत्र सिंहरथ के रूप में उत्पन्न होगा। वही तुम्हारा पति होगा ।' कनकमाला ने पूछा- 'मेरा उसके साथ संयोग कैसे होगा?' व्यंतर देव ने कहा- 'एक दुष्ट घोड़ा उसका अपहरण कर यहां खींच Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५७३ लायेगा इसलिए तुम यहां सुखपूर्वक रहो, उद्वेग मत करो। मैं तुम्हारे आदेश का पालन करूंगा।' वह देव उसी प्रासाद में उसके साथ रहने लगा। कनकमाला भी सुखपूर्वक उसके साथ रहने लगी। एक बार देव मेरु पर्वत पर चैत्य-वंदन हेतु गया। उसी दिन मध्याह्न काल में विपरीत शिक्षा वाले घोड़े पर बैठा सिंहरथ वहां आया। राजा ज्यों-ज्यों लगाम खींचता त्यों-त्यों वह तेजी से दौड़ता था। बारह योजन तक चलने पर राजा ने लगाम ढीली छोड़ी। घोड़ा भी वहीं रुक गया। उसे एक वृक्ष से बांध राजा वहां घूमने लगा। वह रात बिताने हेतु पहाड़ पर चढ़ा। वहां सप्तभौम प्रासाद देखा। राजा महल के अंदर गया। वहां उसने सुन्दर कन्या देखी। दोनों एक दूसरे को देखकर अनुरक्त हो गए। राजा ने उसका परिचय पूछा। उसने कहा-'पहले मेरे साथ विवाह करो फिर मैं अपना सारा वृत्तान्त सुनाऊंगी।' राजा ने अति उत्कंठा से उसके साथ विवाह किया। रात बीतने पर प्रात:काल कनकमाला ने सारी बात बताई। अपने वत्तान्त को सुनकर सिंहरथ को जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो । इसी बीच देवांगनाओं के साथ वह व्यन्तर देव वहां आया। राजा ने उसको प्रणाम किया। देवता ने हर्षपूर्वक उसका अभिनंदन किया। कनकमाला ने अपने विवाह की बात देव को बताई। यह सुनकर वह बहुत हर्षित हुआ। बातचीत करते-करते मध्याह्न का समय हो गया। राजा ने अपनी पत्नी कनकमाला के साथ दिव्य आहार किया। एक मास तक वह वहीं रहा। एक दिन राजा सिंहरथ ने कनकमाला से कहा-'मेरे न रहने से प्रतिपक्षी राजा मेरे राज्य में उपद्रव करेंगे अत: अब चलना चाहिये।' कनकमाला ने कहा- 'जैसी आपकी आज्ञा। पर एक बात है, आपका नगर बहुत दूर है अतः वहां तक पैदल चलना कैसे होगा? मेरे पास प्रज्ञप्ति विद्या है। आप मेरे से प्रज्ञप्ति विद्या साध लें'। कनकमाला ने राजा सिंहरथ को वह विद्या सिखा दी। कनकमाला से पूछकर वह अपने नगर पहुंचा। नागरिकों ने महोत्सव का आयोजन किया। सामंतों ने राजा से सारी बात पूछी। राजा ने सारा घटना-प्रसंग उनको सुनाया। सुनकर सभी लोग विस्मित हो गए। सामन्तों ने कहा-'पुण्यशाली जीव चाहे समुद्र में चला जाए या अटवी में, लेकिन अपने पुण्यों के प्रभाव से वहां भी आनन्द मनाता है।' राजा पांच-पांच दिनों से उसी पर्वत पर कनकमाला से मिलने जाया करता था। कनकमाला के साथ कुछ दिन रहकर वह अपने नगर लौट आता था। लोग कहते राजा पर्वत पर जाता है। इसलिए उसका 'नग्गति' नाम प्रसिद्ध हो गया। एक बार नग्गति राजा घूमने के लिए पर्वत पर गया। व्यन्तर देव ने कहा-'यहां रहते हुए मुझे बहुत समय बीत गया है अतः स्वामी के आदेश से किसी कार्यवश मुझे जाना होगा। संभव है कुछ समय लग जाए। कनकमाला मेरे विरह में अधीर हो जाएगी अत: ऐसा उपाय करना जिससे यह अकेली न रहे।' ऐसा कह देव वहां से चला गया। राजा ने सोचा-इसके मन की शांति का और कोई उपाय नहीं है अत: उसी पर्वत पर एक नगर बसा दिया। प्रलोभन देकर वह अपनी बहुत सी प्रजा को वहां से लेकर आ गया। वहां उसने जिनभवनों का निर्माण कर दिया। उसमें प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवा दी। यात्रा-महोत्सव करते हुए तथा न्याय से राज्य की परिपालना करते हुए समय बीतने लगा। Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ नियुक्तिपंचक एक बार घूमते हुए राजा ने पुष्पित आम्रवृक्ष देखा। राजा उसकी एक मंजरी तोड़कर आगे निकल गया। राजा के जाने के बाद पीछे चलने वाली सेना ने उस वृक्ष की मंजरी, पत्र, प्रवाल, पुष्प फूल, फल आदि सभी तोड़ लिए। आम्र का वृक्ष केवल लूंठ मात्र रह गया। कुछ समय पश्चात् राजा उसी मार्ग से लौटा। राजा ने पूछा-'वह आम्रवृक्ष कहां है?' मंत्री ने अंगुलि के इशारे से ढूंठ की ओर इशारा किया। राजा ने पूछा-'इसकी ऐसी अवस्था कैसे हुई?' मंत्री ने कहा-'राजन्! आपने एक मंजरी तोड़ी। उसके बाद पूरी सेना ने एक-एक चीज तोड़कर इसकी ऐसी अवस्था कर दी।' नग्गति राजा ने सोचा-'निश्चित ही जहां ऋद्धि है, वहां शोभा है परन्तु सारी ऋद्धियां स्वभावतः चंचल हैं ' ऐसा सोचते-सोचते वह संबुद्ध हो गया। चारों प्रत्येकबुद्ध क्षितिप्रतिष्ठित नगर के चार द्वार वाले देवकुल में पहुंचे। पूर्व दिशा के द्वार से करकंडु ने, दक्षिण दिशा के द्वार से द्विमुख ने, पश्चिम दिशा के द्वार से नमि ने तथा उत्तर दिशा के द्वार से गांधार अधिपति नग्गति ने प्रवेश किया। साधु के सामने दूसरी ओर मुंह करके कैसे रहूं इसलिए व्यंतर देव ने चारों और अपना मुंह कर लिया। राजर्षि करकंडु के बालपन से ही खुजली का रोग था। उसने खाज करने वाले उपकरण द्वारा धीरे से अपने कान को खुजलाया। उस उपकरण को उसने एक स्थान पर छिपा दिया। छिपाते हुए उसे द्विर्मुख ने देख लिया। मुनि द्विर्मुख बोला-'जब तुमने राज्य, राष्ट्र, नगर और अंत:पुर भी छोड़ दिया है तो फिर मुनि बनकर संचय क्यों करते हो?' करकंडु ने इस बात का कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। उस समय नमि राजर्षि बोले-'जब तुम्हारे पिता का राज्य था। तब दूसरे के दोष देखने वाले अनेक कर्मचारी नियुक्त थे। तुमने दीक्षित होकर उस कार्य को छोड़ दिया फिर आज दूसरों के दोष देखने वाले कैसे बन रहे हो?' तब गांधारराज नग्गति बोले-'जब तुमने सब कुछ छोड़कर आत्मकल्याण के लिए मोक्षमार्ग का रास्ता अपनाया है तो फिर दूसरों की निंदा, गर्हा क्यों करते हो?' यह सुनकर मुनि करकंडु बोले-'मोक्ष मार्ग में संलग्न ब्रह्मचारी और मुनि यदि किसी के अहित का निवारण करते हैं तो उसे दोष-दर्शन नहीं कहा जा सकता । कहा भी है रूसऊ वा परो मा वा, विसं वा परियत्तउ। भासियव्वा हिया भासा, सपक्खगुणकारिया॥ -दूसरा चाहे रोष करे अथवा विष का भक्षण करे, साधक को सदा गुणकारी और हितकारी भाषा बोलनी चाहिए। करकंडु द्वारा की गई इस अनुशास्ति को सबने स्वीकार कर लिया। कालान्तर में वे चारों प्रत्येकबुद्ध मोक्ष को प्राप्त हो गए। ५३. गौतम की अधीरता पृष्ठचंपा नामक नगरी में शाल नामक राजा राज्य करता था। युवराज का नाम महाशाल था। उसकी बहिन का नाम यशोमती और पति का नाम पिठर था। उसके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम गागलि रखा गया। एक बार भगवान् महावीर राजगृह से विहार कर पृष्ठचंपा पधारे। वहां १. उनि.२५८-७२, उशांटी.प. २८७-३०५, उसुटी.प. १४१-४५ । Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं सुभूमिभाग उद्यान में ठहरे। राजा शाल भगवान् को वंदन करने गया । भगवान् का प्रवचन सुनकर वह विरक्त हो गया। उसने भगवान् से प्रार्थना की- भंते! मैं महाशाल का राज्याभिषेक करके दीक्षित होने के लिए अभी वापिस आ रहा हूं।' वह नगर में गया और महाशाल से सारी बात कही। महाशाल ने कहा - 'संसार के भय से उद्विग्न हूं अतः मैं भी प्रव्रजित होना चाहता हूं।' राजा ने अपने भानजे गालि को काम्पिल्यपुर से बुलाया। उसे पट्टबद्ध राजा बना दिया । गागलि ने दो शिविकाएं तैयार करवाईं। वे दोनों पिता-पुत्र प्रव्रजित हो गए। गागलि ने अपने माता-पिता को भी वहीं बुला लिया । यशोमती भी श्रमणोपासिका बन गई। उन दोनों श्रमणों ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। ५७५ भगवान् महावीर पृष्ठचंपा से विहार करते हुए राजगृह गए। वहां से विहार कर चम्पा पधारे। शाल और महाशाल भगवान् के पास आए और बोले - ' यदि आपकी अनुज्ञा हो तो हम पृष्ठचंपा जाना चाहते हैं। संभव है वहां किसी को प्रतिबोध मिले और कोई सम्यग्दर्शी बने ।' भगवान् ने ज्ञान से जाना कि कुछ लोग संबुद्ध होंगे अत: अनुज्ञा दी और गौतम के साथ उन्हें वहां भेजा। वे पृष्ठचंपा गए। गौतम स्वामी का प्रवचन सुनकर गागलि, यशोमती और पिठर- ये तीनों संबुद्ध हुए । गागलि बोला- 'मैं माता-पिता से आज्ञा लेकर ज्येष्ठ पुत्र को राज्य सौंपकर दीक्षा लूंगा।' उसकी बात सुनकर माता-पिता बोले—'यदि तुम संसार के भय से उद्विग्न हो गए हो तो हम भी तुम्हारे साथ दीक्षा लेंगे।' वह अपने पुत्र को राज्य देकर माता-पिता के साथ दीक्षित हो गया। गौतम स्वामी उनको अपने साथ लेकर चंपा पहुंचे। मार्ग में चलते-चलते मुनि शाल और महाशाल के अध्यवसायों की पवित्रता बढ़ी और वे केवली हो गये । गागलि और उसके माता पिता को भी केवलज्ञान हो गया । वे सब महावीर के पास चंपा नगरी पहुंचे। महावीर को प्रदक्षिणा देकर तीर्थ को प्रणाम करके वे केवलिपरिषद् में बैठ गए। गौतम स्वामी ने भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा देकर उनके चरणों में वंदना की और उठकर उन पांचों से बोले- 'कहां जा रहे हो? आओ, तीर्थंकर को वंदना करो।' तब भगवान् महावीर ने कहा- 'गौतम ! केवलियों की आशातना मत करो ?' गौतम स्वामी ने पुन: लौटकर उनसे क्षमायाचना की और संवेग को प्राप्त हो गए । गौतम स्वामी ने सशंकित होकर सोचा- 'मेरी सिद्धि नहीं होगी।' इधर देवता परस्पर संलाप करते हुए कहने लगे – 'जो अष्टापद पर्वत पर जाकर चैत्यों को वंदना करता है, वह उसी भव में सिद्ध हो जाता है।' यह सुनकर गौतम का मन उद्वेलित हो उठा। भगवान् महावीर ने गौतम के मन को जान लिया । यह भी जान लिया कि वहां जाने से तापसों को संबोध प्राप्त होगा तथा गौतम का मन भी शांत और स्थिर हो जाएगा। गौतम ने महावीर से पूछा- 'मैं अष्टापद पर्वत पर जाना चाहता हूं ।' भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर गौतम ने अष्टापद पर्वत की ओर प्रस्थान कर दिया । जन-प्रवाद को सुनकर दत्त, कौंडिन्य और शैवाल - ये तीनों तापस अपने पांच सौ शिष्यपरिवार के साथ अष्टापद पर चढ़ने के लिए उत्सुक हो रहे थे। कौडिन्य तापस चतुर्थ भक्त - एकान्तर तप के पारणे में कंद आदि सचित्त आहार करता था । वह अष्टापद पर्वत के नीचे की मेखला तक ही पहुंच पाया । दत्त तापस षष्ठभक्त बेले- बेले की तपस्या के पारणे में नीचे गिरे हुए पाडुंर पत्तों का आहार करता था । वह पर्वत की मध्य मेखला तक ही पहुंच पाया। शैवाल तापस अष्टमभक्त तेले - तेले की तपस्या के पारणे में शुष्क एवं गंदे शैवाल का आहार करता था । वह पर्वत की उपरितन मेखला तक ही चढ़ पाया। चढ़ते हुए वे तीनों परिश्रान्त हो गए । Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक गणधर गौतम का औदारिक शरीर अग्नि तथा बालसूर्य की किरणों के समान तेजस्वी था । गौतम स्वामी को आते देखकर वे आपस में बोले - 'हम महातपस्वी भी ऊपर नहीं चढ़ सके तो यह स्थूलकाय श्रमण पर्वत पर कैसे चढ़ पाएगा?' गौतम स्वामी जंघाचारण लब्धि से मकड़ी के जाले के तंतुओं के सहारे ऊपर चढ़ गए। तापसों ने देखा कि गौतम आए और अदृश्य हो गए। वे विस्मित होकर उनकी प्रशंसा करने लगे। गौतम स्वामी की ऋद्धि देखकर उन्होंने आपस में चिंतन किया कि जब ये नीचे उतरेंगे तब उनको गुरु रूप में स्वीकार कर लेंगे। वे तापस वहीं बैठ गए। गौतम स्वामी ने उत्तर-पूर्व दिशा में पृथ्वी शिला पट्ट पर अशोक वृक्ष के नीचे रात बिताई । उसी समय लोकपाल वैश्रमण इंद्र अष्टापद चैत्यवंदन के लिए आया। इंद्र ने चैत्यवंदन करके गौतम स्वामी को वंदन किया। गौतम स्वामी ने अनगार के गुणों पर प्रवचन दिया । प्रवचन सुनकर वैश्रमण इन्द्र ने सोचा- 'भगवान् गौतम ने इस प्रकार के दुष्कर साधु-गुणों का वर्णन किया है । इनका स्वयं का शरीर तो देवताओं से भी अधिक सुकुमार है।' गौतम स्वामी ने उनके मानसिकआशय को जानकर पुंडरीक नामक अध्ययन की प्ररूपणा करते हुए कहा - 'पुष्कलावती विजय में पुष्करिणी नगरी में नलिनी गुल्म उद्यान था। वहां महापद्म नामक राजा राज्य करता था । उसकी पत्नी का नाम पद्मावती था। उसके पुंडरीक और कंडरीक नामक दो सुकुमार और सुन्दर पुत्र थे । कालान्तर में पुंडरीक युवराज बना । उस समय स्थविर मुनि नलिनीगुल्म विमान में समवसृत हुए। महापद्म प्रवचन सुनने गया। धार्मिक प्रवचन सुनकर वह बोला- 'हे देवानुप्रिय ! मैं पुंडरीक कुमार को राज्य देकर प्रव्रजित होना चाहता हूँ ।' स्थविर मुनि ने कहा- 'जैसी इच्छा हो वैसा करें।' पुंडरीक राजा और कंडरीक युवराज बन गया। एक दिन महापद्म राजा ने पुंडरीक राजा से दीक्षा की अनुमति ली। तब पुंडरीक ने शिविका तैयार करवाई और महापद्म राजा प्रव्रजित हो गया । दीक्षित होकर उसने चौदह पूर्वों का अध्ययन किया । बेले-तेले आदि की तपस्या करते हुए उसने बहुत वर्षों तक श्रामण्य का पालन किया और अंत में एक मास की संलेखना में शरीर को झोषकर वह सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गया। एक दिन वे स्थविर मुनि पुष्करिणी नगरी में समवसृत हुए। पुंडरीक राजा कंडरीक युवराज के साथ धर्म-प्रवचन सुनने आया। राजा पुंडरीक ने श्रावक धर्म स्वीकार किया। कंडरीक युवराज दीक्षित होने के लिए उत्कंठित हो गया । वह चार घंटों वाले अश्वरथ पर चढ़कर राजा पुंडरीक के पास आया और दीक्षा की अनुमति मांगी। राजा पुंडरीक ने उसे अनेक प्रकार का प्रलोभन दिया और साधु-जीवन के विविध शारीरिक-मानसिक कष्टों का विवेचन किया। लेकिन कंडरीक अपनी भावना पर दृढ़ रहा। राजा पुंडरीक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर महान् अभिनिष्क्रमण उत्सव मनाने के लिए कहा। कंडरीक प्रव्रजित हो गया। उसने सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और बेले-तेले आदि विविध प्रकार के तप के अनुष्ठान में अपने आपको लगा दिया। अंत-प्रान्त भोजन करने से एक बार उनके शरीर में दाह ज्वर उत्पन्न हो गया । कालान्तर में विहार करते हुए मुनि कंडरीक पुष्करिणी नगरी के नलिनी वन में समवसृत हुआ। राजा पुंडरीक अपने भाई मुनि कंडरीक के दर्शन करने आया और कंडरीक के पूरे शरीर को रोग से आक्रान्त देखकर उसने निवेदन किया कि मैं प्रासुक और एषणीय औषध - भेषज से आपकी चिकित्सा करना चाहता ५७६ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं हूं अतः आप मेरी यानशाला में पधारें। कंडरीक उनकी यानशाला में चिकित्सालाभ करने लगे । मनोज्ञ एवं सरस आहार करने से शीघ्र ही उनका शरीर हृष्ट-पुष्ट हो गया। स्वस्थ होने के बाद मुनि कंडरीक उस मनोज्ञ भोजन-पान में आसक्त हो गये और उग्रविहार छोड़कर वहीं रहने लगे। एक दिन राजा पुंडरीक ने उन्हें समझाने के लिए विविध दृष्टान्त दिए तथा संसार की नश्वरता एवं कामभोग के कटुविपाक का बोध कराया। संकोचवश कंडरीक ने वहां से विहार कर दिया लेकिन कुछ दिनों के बाद ही वह श्रामण्य से विचलित हो गया । ५७७ वह अपने आचार्य के पास से विहार कर पुनः पुष्करिणी नगरी में राजा पुंडरीक के भवन की अशोक वाटिका में आकर ठहरा। वहां पृथ्वीशिला पट्ट पर बैठकर चिंतन करने लगा। तभी राजा पुंडरीक की धायमां वहां आई। उसने तत्काल मुनि कंडरीक के आगमन की सूचना राजा पुंडरीक दी। राजा अपने अंत:पुर के साथ मुनि के दर्शनार्थ आया। राजा पुंडरीक ने देखा कि मुनि कंडरीक मुनिव्रत त्यागकर पुनः राज्य एवं कामभोग का उपभोग करना चाहता है। उसने तत्काल उसका राज्याभिषेक किया और स्वयं पंचमुष्टि लोच कर चातुर्याम धर्म को स्वीकार कर लिया। उसने दीक्षित होकर कंडरीक के भंडोपकरण ग्रहण कर लिए और यह अभिग्रह किया कि मैं स्थविर आचार्य के पास जाकर ही आहार ग्रहण करूंगा । इधर कंडरीक प्रणीत आहार को सम्यक् रूप से पचा नहीं सका अत: विपुल वेदना से अभिभूत हो गया । वह राज्य और अंतःपुर में आसक्त होकर अकाममरण प्राप्त कर सातवीं नरक में उत्पन्न हुआ । मुनि पुंडरीक विहार करते हुए स्थविर आचार्य के पास पहुंचे और पुनः चातुर्याम धर्म स्वीकार किया । वे तेले-तेले की तपस्या करने लगे। अरस-विरस आहार से उनके शरीर में विपुल वेदना उत्पन्न हो गयी। अंत समय में आलोचना-प्रतिक्रमण करके उन्होंने समाधि-मरण प्राप्त किया और सर्वार्थसिद्ध देवलोक में देव बने । आगामी भव में महाविदेह क्षेत्र में वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे। इस कथानक को सुनकर वैश्रमण देव परम संवेग को प्राप्त हुआ और गौतम को वंदना करके लौट गया । प्रातः होते ही गौतम नीचे उतरे। तब तापसों ने कहा- 'हम आपके शिष्य हैं और आप हमारे आचार्य हैं। गौतम स्वामी ने कहा- 'तुम्हारे और हमारे आचार्य त्रैलोक्य गुरु भगवान् महावीर हैं।' तापसों ने आश्चर्य व्यक्त किया- 'क्या आपके भी कोई अन्य आचार्य हैं?' तब गौतम ने भगवान् महावीर का गुणकीर्तन किया और सभी तापसों को प्रव्रजित कर भगवान् की दिशा में चल पड़े। मार्ग में भिक्षावेला के समय गौतम ने पूछा- 'मैं आपके लिए क्या लेकर आऊं ।' उन्होंने दूध की इच्छा व्यक्त की । गौतम सब लब्धियों से सम्पन्न थे । पात्र में मधु संयुक्त दूध लेकर गौतम आए। गौतम को अक्षीणमहानस लब्धि प्राप्त थी अत: सभी तृप्त हो गए। भोजन करते-करते शैवाल और उसके सभी शिष्यों को कैवल्य उत्पन्न हो गया। वे वहां से आगे चले। दत्त तथा उनके शिष्यों को भगवान् के छत्रातिछत्र अतिशय को देखकर कैवल्य उत्पन्न हो गया। कौडिन्य तथा उसके शिष्यों को भगवान् महावीर को देखते ही केवलज्ञान हो गया। सभी भगवान् के पास आए। गौतम ने महावीर की वंदनास्तुति की। वे सभी तापस-मुनि केवलिपरिषद् में चले गए। गौतम ने उन्हें भगवान् को वंदना करने के लिए कहा। भगवान् ने कहा- 'गौतम ! केवलियों की आशातना मत करो।' गौतम ने 'मिच्छामि Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक दुक्कडं' किया। गौतम का धैर्य टूट गया । भगवान् ने उसके मन की बात जान ली। भगवान् बोले'गौतम ! देवताओं के वचन प्रमाण हैं या जिनवर के ?' गौतम ने कहा- 'भगवन् ! जिनवर के वचन प्रमाण हैं ।' तब भगवान् ने चार कड़ों का दृष्टान्त दिया और कहा-' गौतम ! तुम्हारा मेरे ऊपर कंबल कड़ के समान स्नेहानुराग है इसीलिए तू मुझसे अत्यन्त निकट है, चिरसंसृष्ट है । गौतम ! प्रशस्त राग भी यथाख्यात चारित्र का नाश कर देता है । यथाख्यात चारित्र के बिना कैवल्य उत्पन्न नहीं होता । केवल सरागसंयमी साधुओं के लिए अप्रशस्त राग का निवारण करने के हेतु प्रशस्त राग अनुमत है इसलिए तुम विषाद मत करो। शीघ्र ही तू और मैं-दोनों ही एक अवस्था को प्राप्त होंगे। दोनों में कुछ भी भिन्नता नहीं रहेगी। तब भगवान् ने गौतम को सम्बोधित कर द्रुमपत्रक अध्ययन की प्रज्ञापना की। ५७८ ५४. हरिकेशबल मथुरा नगरी में शंख नामक युवराज प्रवचन सुनकर विरक्त हो गया । वह स्थविर साधुओं के पास महान् विभूति के साथ दीक्षित हुआ । कालक्रम से वह गीतार्थ बन गया। ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वह एक बार गजपुर - हस्तिनापुर पहुंचा और भिक्षा के लिए नगर की ओर निकला। वह घूमते हुए एक मार्ग के पास पहुंचा। वह मार्ग जलते अंगारे के समान अत्यन्त उष्ण था । वह मार्ग सदा प्रज्वलित रहता था अतः उसका नाम हुतवह' पड़ गया। जो भी उस मार्ग से गुजरता, वह भस्म हो जाता। मुनि मार्ग से अनभिज्ञ थे । उन्होंने गवाक्ष में बैठे एक व्यक्ति से मार्ग पूछा। ब्राह्मण ने कुतूहलवश उष्ण-मार्ग की ओर संकेतकर दिया। मुनि निश्छल भाव से उसी मार्ग पर चल पड़े। वे लब्धिसम्पन्न थे अत: उनके पादस्पर्श से मार्ग ठंडा हो गया। मुनि को अविचल भाव से आगे बढ़ते देख ब्राह्मण भी उस मार्ग पर चल पड़ा। मार्ग को बर्फ जैसा ठंडा देखकर उसने सोचा- 'यह मुनि काही प्रभाव है कि अग्नि जैसा मार्ग भी हिमस्पर्श वाला हो गया है।' उसे अपने अनुचित कृत्य पर पश्चात्ताप हुआ। वह उद्यान में स्थित मुनि के पास दौड़ा-दौड़ा आया और अपने पाप को प्रकट कर क्षमायाचना करते हुए मुनि से पूछा - 'मैं इस पापकर्म से कैसे मुक्त बनूं।' मुनि ने उसे संसार की अस्थिरता बताते हुए दीक्षा की प्रेरणा दी। मुनि के धार्मिक उपदेश को सुनकर उसके मन में विरक्ति के भाव उत्पन्न हुए। वह मुनि के पास प्रव्रजित हो गया। उसका नाम सोमदेव था । उसमें जाति और रूप का मद था। कालक्रम से जातिमद से स्तब्ध मरकर वह देव बना । अवधिज्ञान से उसने पूर्वभव का वृत्तान्त जाना। वह देवांगनाओं के साथ भोग भोगने लगा। भोग करते-करते उसके अनेक पल्य बीत गए । मृत गंगा नदी के तट पर हरिकेश का राजा बलकोट्ट नामक चांडाल रहता था । उसके दो पत्नियां थीं - गौरी और गांधारी । देव आयुष्य को पूरा कर सोमदेव का जीव जातिमद के परिपाक के कारण उस चांडाल के घर गौरी के गर्भ से उत्पन्न हुआ। गर्भकाल में गौरी ने स्वप्न में बसन्त मास की छटा देखी तथा अनेक पुष्पित एवं फलित आम्रवृक्ष देखे । स्वप्नपाठकों ने स्वप्न का फल १. उनि २७७-९९, उशांटी. प. ३२३-३३, उसुटी. प. १५३ - १५९ । २. सुखबोधा टीका में मार्ग का नाम हुताशन है। Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं बताते हुए कहा- 'तुम्हारा पुत्र विशिष्ट और महान् बनेगा।' समय आने पर पुत्र का जन्म हुआ। रूप से वह अत्यन्त कुरूप था । उसका वर्ण कृष्ण था । बलकोट्ट के यहां जन्म लेने के कारण उसका नाम बल रखा गया। यही बालक हरिकेशबल के नाम से प्रसिद्ध हुआ । बालक बल बहुत कलहप्रिय और असहिष्णु था। वह विषवृक्ष की भांति सबके लिए उद्वेगकारी था । एक बार बसन्तोत्सव का समय था। सभी लोग उत्सव में मग्न थे । लोग भोज में आहार करके सुरापान कर रहे थे । बालकों ने बल को अप्रियकारी और क्रोधी मानकर उसको अपने खेल में सम्मिलित नहीं किया। दूसरे बालक खेलने लगे। वह केवल द्रष्टा ही बना रहा। इतने में वहां एक भयंकर सर्प निकला। सहसा सब खड़े हो गए और उसे पत्थर से मार डाला। कुछ ही क्षणों बाद वहां एक निर्विष सर्प भेरुंड निकला। लोग एक बार भयभीत हो गए पर उसे निर्विष समझकर छोड़ दिया। बालक बल यह दृश्य देख रहा था । उसने सोचा- ' प्राणी अपने दोषों से ही दुःख पाता है।' सर्प सविष था अतः वह अपने दोष से मारा गया । भेरुंड निर्विष था अतः लोगों ने उसे छोड़ दिया । यदि मैं भी भेरुंड की भांति निर्विष होता हूं तो कोई दूसरा मुझे क्यों सताएगा ? हा भी है भद्दएणेव होयव्वं, पावति भद्दाणि भद्दओ । सविसो हम्मती सप्पो, भेरुंडो तत्थ मुच्चति ॥ ५७९ उसने सोचा- ' अपने गुण और दोष के आधार पर ही सम्पत्ति और विपत्ति मिलती है। इसलिए दोषों को छोड़कर गुणों को स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार चिंतन करते हुए उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया । जातिमद के विपाक का चित्र उसके सामने आया । निर्वेद को प्राप्त होकर उसने प्रव्रज्या स्वीकार कर ली। उसका नाम हरिकेशबल हो गया। दीक्षित होकर मुनि हरिकेशबल बेला-तेला यावत् चार मास का घोर तप करने लगे । एक बार वे पार्श्वनाथ की जन्मस्थली वाराणसी के तेंदुक उद्यान में ठहरे। वहां गंडीतिंदुक यक्ष का मंदिर था। वह यक्ष हरिकेश मुनि के गुणों से आकृष्ट होकर उनकी उपासना में रहने लगा। एक बार एक दूसरा यक्ष वहां आया। वह गंडीतिंदुक यक्ष से बोला- 'आजकल दिखाई क्यों नहीं देते ?' उसने कहा—'ये महात्मा मेरे उद्यान में ठहरे हैं। सारा दिन इनकी ही उपासना में बीतता है।' वह आगंतुक यक्ष मुनि के चरित्र से प्रतिबुद्ध हुआ और बोला- 'मित्र ! ऐसे उपशांत मुनि का सान्निध्य पाकर तुम कृतार्थ हो । मेरे उद्यान में भी कतिपय मुनि ठहरे हैं। चलो, उन्हें वंदना कर आएं?' दोनों यक्ष वहां गए। उन्होंने देखा अनेक साधु विकथाएं कर रहे हैं । कुछ स्त्रीकथा में और कुछ जनपद - कथा में आसक्त हैं। उनका मन खिन्न हो गया। एक बार वाराणसी के राजा कौशलिक की पुत्री भद्रा यक्ष की पूजा करने दासियों के साथ उद्यान आई । यक्ष की पूजा कर वह प्रदक्षिणा करने लगी। उसकी दृष्टि ध्यानलीन मुनि पर टिकी । मुनि के मैले कपड़े और कुरूप शरीर को देखकर उसके मन में घृणा हो गयी। आवेश में आकर उसने मुनि पर थूक दिया । यक्ष ने सोचा- 'यह पापिष्णु है, जो इसने महान् तपस्वी मुनि की अवहेलना की है अत: इसका फल इसे मिलना चाहिए ।' यक्ष उसके शरीर में प्रविष्ट हो गया । राजकुमारी अनर्गल प्रलाप करने लगी। दासियां उसे राजमहल में ले गईं। अनेकविध उपचार किए गए पर सब Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक व्यर्थ हो गए। तांत्रिकों और यांत्रिकों के प्रयास भी निष्फल हो गए। राजा विचलित हो गया । यक्ष ने कहा - 'इस कुमारी ने एक तपस्वी मुनि का तिरस्कार किया है। यदि यह उस तपस्वी के साथ पाणिग्रहण करना स्वीकार कर ले तो मैं इसे छोड़ सकता हूं, अन्यथा नहीं।' लाचार होकर राजा ने यक्ष की बात स्वीकार कर ली। महत्तरिकाओं के साथ अपनी पुत्री भद्रा को अलंकारों से विभूषित करके यक्षायतन में भेज दिया। रात्रि में महत्तरिकाओं ने भद्रा से कहा- 'जाओ, अपने पति के पास' । भद्रा यक्षायतन में प्रविष्ट हुई। मुनि ने ध्यान संपन्न किया और भद्रा को स्वीकार न करने की अपनी मर्यादा बताई। ५८० यक्ष ने मुनि का रूप बनाया और राजकन्या के साथ पाणिग्रहण किया। उसने मुनि को आच्छन्न कर कभी दिव्यरूप और कभी मुनिरूप बनाकर उसे ठगा । वह रात भर उस कन्या के साथ ऐसे ही विडम्बना करता रहा । प्रभात में यक्ष दूर हुआ और मुनि ने सही-सही बात कन्या से कही । वह दु:खी मन से राजा के पास गई और यक्ष द्वारा ठगे जाने की बात बताई । राजा के पास बैठे पुरोहित रुद्रदेव ने कहा- 'राजन् ! यह ऋषि पत्नी है। मुनि द्वारा परित्यक्त है अत: इसे किसी ब्राह्मण को दे देना चाहिए। राजा ने उसी पुरोहित को कन्या सौंप दी। कुछ समय बाद पुरोहित रुद्रदेव ने यज्ञ किया। भद्रा को यज्ञपत्नी बनाया गया। दूर-दूर से विद्वान् ब्राह्मण और विद्यार्थी बुलाए गए। उन सबके आतिथ्य के लिए प्रचुर भोजन-सामग्री एकत्रित की गयी। उस समय मुनि हरिकेशबल एक-एक मास का तुप कर रहे थे। पारणे के दिन वे भिक्षा के लिए घर-घर घूमते हुए उसी यज्ञ मंडप में जा पहुंचे। उसके बाद मुनि और ब्राह्मणों में जो वार्तालाप हुआ, वह उत्तराध्ययन के बारहवें अध्ययन में संकलित है। ५५, ५६. चित्र - संभूत साकेत नगर में चन्द्रावतंसक राजा का पुत्र मुनिचन्द्र राज्य करता था। राज्य का उपभोग करते-करते उसका मन विरक्त हो गया। उसने मुनि सागरचंद्र के पास दीक्षा ग्रहण की। वह अपने गुरु के साथ देशान्तर जा रहा था। रास्ते में वह भिक्षा लेने गांव गया पर सार्थ से बिछुड़ गया और एक भयानक अटवी में जा पहुंचा। भूख और प्यास से व्याकुल मुनि को चार ग्वालपुत्रों ने देखा । उनका मन करुणा से भर गया । उन्होंने मुनि की परिचर्या की। मुनि ने स्वस्थ होकर चारों ग्वालपुत्रों को धर्म का उपदेश दिया। चारों बालक प्रतिबुद्ध हुए और मुनि के पास दीक्षित हो गए। वे सभी आनंद से दीक्षा - पर्याय का पालन करने लगे। किन्तु उनमें से दो मुनियों के मन में मैले कपड़ों के विषय में जुगुप्सा रहने लगी। चारों मरकर देवगति में गए। जुगुप्सा करने वाले दोनों मुनि देवलोक से च्युत हो दशपुर नगर में शाण्डिल्य ब्राह्मण की दासी यशोमती की कुक्षि से युगल रूप में जन्मे । क्रमश: वे युवा हुए। एक बार वे जंगल में अपने खेत की रक्षा के लिए गए। रात को वे एक वटवृक्ष के नीचे सो गए। अचानक ही वृक्ष की कोटर से एक सर्प निकला और एक को डस कर चला गया। दूसरा जागकर तत्काल ही उस सर्प की खोज में निकल पड़ा। वही सर्प उसे भी डस गया। दोनों मरकर १. उनि ३१३-२१, उशांटी प. ३५५-५७, उसुटी प. ९७३ - १७५ । Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५८१ कालिंजर पर्वत पर एक मृगी के उदर से युगल रूप में उत्पन्न हुए। एक बार दोनों हरिण आसपास में चर रहे थे। एक व्याध ने एक ही बाण से दोनों को मार डाला। वहां से मरकर वे गंगा नदी में आए और युगल रूप में जन्मे। युवा होने पर दोनों साथसाथ घूम रहे थे। एक बार एक मछुए ने उन्हें पकड़ा और गर्दन मरोड़ कर मार डाला। उस समय वाराणसी नगरी में चाण्डालों का एक अधिपति रहता था। उसका नाम भूतदत्त था। वह बहुत समृद्ध था। वे दोनों हंस मरकर उसके घर में पुत्र-युगल के रूप में उत्पन्न हुए। उनका नाम चित्र और संभूत रखा गया। दोनों भाइयों में अपार स्नेह था। __ उस समय वाराणसी नगरी में शंख राजा राज्य करता था। नमुचि उसका मंत्री था। एक बार उसके किसी अपराध पर राजा क्रुद्ध हो गया और उसके वध की आज्ञा दे दी। चाण्डाल भूतदत्त को यह कार्य सौंपा गया। उसने नमुचि को अपने घर में छिपा लिया और कहा-'मंत्रिन् ! यदि आप तलघर में रहकर मेरे दोनों पुत्रों को अध्यापन कराना स्वीकार करें तो मैं आपका वध नहीं करूंगा।' जीवन की आशा में मंत्री ने बात मान ली। अब वह चाण्डाल के पुत्रों-चित्र औ संभूत को पढ़ाने लगा। चाण्डाल-पत्नी नमुचि की परिचर्या करने लगी। अध्यापन कराते हुए कुछ काल बीता । नमुचि चाण्डाल-स्त्री में आसक्त हो गया। भूतदत्त ने यह बात जान ली। उसने नमुचि को मारने का विचार किया। चित्र और संभूत-दोनों ने अपने पिता के विचार जान लिए। उपकार के कारण गुरु के प्रति कृतज्ञता से प्रेरित हो उन्होंने नमुचि को कहीं भाग जाने की सलाह दी। नमुचि वहां से भागा-भागा हस्तिनापुर नगर में आया और चक्रवर्ती सनत्कुमार का मंत्री बन गया । चित्र और संभूत बड़े हुए। उनका रूप और लावण्य आकर्षक था। नृत्य और संगीत में वे प्रवीण हुए। वाराणसी के लोग उनकी कलाओं पर मुग्ध थे। एक बार मदन-महोत्सव का अवसर आया। अनेक गायक-टोलियां मधुर राग में आलाप भर रही थीं और तरुण-तरुणियों के अनेक गण नृत्य कर रहे थे। उस समय चित्र-संभूत की नृत्य-मंडली भी वहां आ गई। उनका गाना और नत्य सबसे अधिक मनोरम था। उसे सुन देखकर सारे लोग उनकी मंडली की ओर चले आए। युवतियां मंत्र-मग्ध सी हो गयीं। सभी तन्मय थे। ब्राह्मणों ने जब यह देखा तो उनके मन में ईर्ष्या उभर आई। वे जातिवाद की आड़ ले राजा के पास गए और राजा को निवेदन किया कि ये मातंगपुत्र सबको भ्रष्ट कर रहे हैं। राजा ने दोनों मातंग-पुत्रों को नगर से निकाल दिया। वे अन्यत्र चले गए। एक बार कौमुदी-महोत्सव के अवसर पर वे दोनों मातंग-पुत्र राजा की आज्ञा की अवगणना कर कौतूहलवश अपनी नगरी में आए। वे मुंह पर कपड़ा डाले महोत्सव का आनंद ले रहे थे। चलतेचलते उनके मुंह से संगीत के स्वर निकल पड़े। उनका गाना सुनकर लोगों ने उन्हें घेर लिया। उन्होंने सोचा-'किन्नर के समान कानों को अमृत रस के समान सुखद लगने वाली यह वाणी किसकी है?' लोग दोनों के पास आए। अवगुंठन हटाते ही वे उन्हें पहचान गए । उनका रक्त ईर्ष्या से उबल गया। 'ये चाण्डाल पुत्र हैं'-ऐसा कहकर उन्हें लातों और चाटों से मारा और नगर से बाहर निकाल दिया। वे बाहर एक उद्यान में ठहरे। उन्होंने सोचा-'धिक्कार है हमारे रूप, यौवन, सौभाग्य और कला-कौशल को। आज हम चाण्डाल होने के कारण प्रत्येक वर्ग से तिरस्कृत हो रहे हैं। हमारा सारा गुण-समूह दूषित हो रहा है। ऐसा जीवन जीने से लाभ ही क्या? उनका मन जीने से ऊब गया। Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ नियुक्तिपंचक वे आत्महत्या का दृढ़ संकल्प ले दक्षिण दिशा में चले गए। दूर से उन्होंने एक पहाड़ देखा। वे आत्महत्या के विचार से ऊपर चढ़े। उन्होंने देखा कि एक श्रमण ध्यान-लीन है। वे प्रसन्न होकर साधु के पास आए और बैठ गए। उन्होंने भक्तिपूर्वक साधुओं को वंदन किया। ध्यान पूर्ण होने पर साधु ने उनका नाम-धाम पूछा। दोनों ने अपना पूर्व वृत्तान्त कह सुनाया। मुनि ने कहा-'तुम अनेक कला-शास्त्रों के पारगामी हो। आत्महत्या करना नीच व्यक्तियों का काम है। तुम्हारे जैसे विमलबुद्धि वाले व्यक्तियों के लिए यह उचित नहीं। तुम इस विचार को छोड़ो और जिनधर्म की शरण में आओ। इससे तुम्हारे शारीरिक और मानसिक-सभी दुःख उच्छिन्न हो जायेंगे।' उन्होंने सहर्ष, मुनि के वचन को शिरोधार्य किया और हाथ जोड़कर कहा-'भगवन् ! आप हमें दीक्षित करें।' मुनि ने उन्हें योग्य समझकर दीक्षा दी। गुरु-चरणों की उपासना करते हुए वे अध्ययन करने लगे। कुछ समय बाद वे गीतार्थ हुए। विचित्र तपस्याओं से आत्मा को भावित करते हुए वे ग्रामानुग्राम विहार करने लगे। एक बार वे हस्तिनापुर आए और नगर के बाहर एक उद्यान में ठहरे । एक दिन मासखमण तप का पारणा करने के लिए मुनि संभूत नगर में गए। भिक्षा के लिए वे घर-घर घूम रहे थे। मंत्री नमुचि ने उन्हें देखकर पहचान लिया। उसकी सारी स्मृतियां सद्यस्क हो गईं। उसने सोचा-'यह मुनि मेरा सारा वृत्तान्त जानता है। यहां के लोगों के समक्ष यदि इसने कुछ कह डाला तो मेरी महत्ता नष्ट हो जाएगी।' ऐसा विचार कर उसने लाठी और मुक्कों से मारकर मुनि को नगर से बाहर निकालना चाहा। कई लोग मुनि को पीटने लगे पर मुनि शांत रहे। लोग जब अत्यन्त उग्र हो गए, तब मुनि संभूत का चित्त अशांत हो गया। उनके मुंह से धुंआ निकला और सारा नगर अंधकारमय हो गया। लोग घबराकर मुनि को शांत करने लगे। चक्रवर्ती सनत्कुमार भी वहां आ पहुंचा। उसने मुनि से प्रार्थना की-'भंते ! यदि हमसे कोई त्रुटि हुई हो तो आप क्षमा करें। आगे हम ऐसा अपराध नहीं करेंगे। आप महान् हैं अत: नगर-निवासियों को जीवन-दान दें।' इतने पर भी मुनि का क्रोध शांत नहीं हुआ। उद्यान में बैठे मुनि चित्र ने यह संवाद सुना और आकाश को धूम से आच्छादित देखा। वे तत्काल वहां आए और उन्होंने मुनि सम्भूत से कहा-'मने ! क्रोधानल को उपशांत करो। महर्षि उपशम-प्रधान होते हैं। वे अपराधी पर भी क्रोध नहीं करते। तुम अपनी शक्ति का संवरण करो। जिस प्रकार दावाग्नि क्षण भर में वन को जला देती है वैसे ही कषाय-परिणत जीव अपने तप और संयम को नष्ट कर देता है।' जिनेन्द्र भगवान् की उपशम प्रधान वाणी रूपी जल से मुनि सम्भूत की क्रोधाग्नि शान्त हो गयी। वे वैराग्य को प्राप्त हो गए। उन्होंने तेजोलेश्या का संवरण किया। अन्धकार मिट गया। लोग प्रसन्न हुए। दोनों मुनि उद्यान में लौट आए। उन्होंने सोचा-'हम काय-संलेखना कर चुके हैं इसलिए अब अनशन करना चाहिए।' दोनों ने बड़े धैर्य के साथ अनशन ग्रहण किया। चक्रवर्ती सनत्कुमार ने जब यह जाना कि मन्त्री नमुचि के कारण ही सभी लोगों को संत्रास सहना पड़ा है तो उसने मंत्री को बांधने का आदेश दिया। मंत्री को रस्सों से बांधकर मुनियों के . पास लाए। मुनियों ने राजा को समझाया और उसने मंत्री को मुक्त कर दिया। चक्रवर्ती दोनों मुनियों के पैरों में गिर पड़ा। स्त्रीरत्न रानी सुनंदा भी साथ थी। वंदना करते हुए अकस्मात् ही उसके केश Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५८३ मुनि संभूत के पैरों को छू गए। मुनि संभूत को अपूर्व आनंद का अनुभव हुआ। उसने निदान करने का विचार किया। मुनि चित्र ने ज्ञानशक्ति से यह जान लिया और सोचा- 'अहो ! मोहकर्म कितना दुर्जेय है? इन्द्रियां कितनी दुर्दान्त हैं? विषयों का उन्माद कितना भयंकर है? इन कारणों से तप और चारित्र में संलग्न तथा जिनेन्द्र भगवान् के वचनों का ज्ञाता यह मुनि सम्भूत युवती के केशों के स्पर्श मात्र से ऐसा अध्यवसाय कर रहा है। प्रतिबोध देते हुए मुनि चित्र ने कहा-'इस अशुभ अध्यवसाय से निवृत्त हो जाओ। ये कामभोग असार और दारुण विपाक वाले हैं। परमार्थतः ये दुःखरूप हैं। जैसे खुजली करने वाला बाद में दुःख पाता है वैसे ही मोहातुर व्यक्ति भी दु:ख को सुखरूप मानता है।' मुनि चित्र ने आगे कहा-'तुम तो आगम के परमार्थ को जानने वाले हो अत: इसमें मूर्च्छित मत बनो।' इस प्रकार अनुशासित करने पर भी वह प्रतिबुद्ध नहीं हुआ। मुनि सम्भूत ने निदान किया कि यदि मेरी तपस्या का फल है तो मैं अगले जन्म में चक्रवर्ती बनं। दोनों मुनियों का अनशन चालू था। वे मरकर सौधर्म देवलोक में देव बने। वहां का आयुष्य पूरा कर चित्र का जीव पुरिमताल नगर में एक इभ्य सेठ का पुत्र बना और संभूत का जीव कांपिल्यपुर में ब्रह्म राजा की रानी चुलनी के गर्भ में आया। रानी ने चौदह महास्वप्न देखे। बालक का जन्म हुआ। उसका नाम ब्रह्मदत्त रखा गया। बालक अनेक कलाओं को सीखते हुए बढ़ने लगा। राजा ब्रह्म के चार मित्र थे-1. काशी देश का अधिपति कटक 2. गजपुर का राजा करेणुदत्त 3. कौशल देश का राजा दीर्घ और 4. चम्पा देश का अधिपति पुष्पचूल। राजा ब्रह्म का इनके साथ अगाध प्रेम था। एक दूसरे का विरह न सहने के कारण वे सभी एक-एक वर्ष दूसरे के राज्य में रहते थे। एक बार वे सब राजा ब्रह्म के राज्य में समुदित हो रहे थे। अचानक राजा ब्रह्म के असह्य मस्तक-वेदना उत्पन्न हुई। मंत्र, तंत्र, औषधि आदि के प्रयोग से भी वेदना में अंतर नहीं आया। स्थिति चिंताजनक बन गई। राजा ब्रह्म ने कटक आदि राजाओं को बुलाया और अपने पुत्र ब्रह्मदत्त को चारों मित्रों को सौंपते हुए कहा-'इसका राज्य तुम्हें चलाना है।' मित्रों ने स्वीकार कर लिया। कुछ काल बाद राजा ब्रह्म की मृत्यु हो गई। मित्रों ने उसका अन्त्येष्टि-कर्म किया। उस समय कुमार ब्रह्मदत्त छोटी अवस्था में था। चारों मित्रों ने विचार-विमर्श कर कौशल देश के राजा दीर्घ को राज्य का सारा भार सौंपा और बाद में सब अपने-अपने राज्य की ओर चले गये। राजा दीर्घ राज्य की व्यवस्था करने लगा। सर्वत्र उसका प्रवेश होने लगा। वह रानी चुलनी के साथ मंत्रणा करने लगा। उसका धीरे-धीरे रानी चुलनी के साथ प्रेमबंधन गाढ़ होता गया। दोनों नि:संकोच विषयवासना का सेवन करने लगे। रानी के इस दुराचार को जानकर राजा ब्रह्म का विश्वस्त मंत्री धनु चिन्ताग्रस्त हो गया। ने सोचा-'जो व्यक्ति अधम आचरण में फंसा हआ है, वह भला कमार ब्रह्मदत्त का क्या हित साध सकेगा?' उसने रानी चुलनी और राजा दीर्घ के अवैध सम्बन्ध की बात अपने पुत्र वरधनु के द्वारा कुमार तक पहुंचाई। कुमार को यह बात बहुत बुरी लगी। उसने एक उपाय ढूंढा। एक कौवे और एक कोकिल को पिंजरे में बंद कर अन्त:पुर में ले गया और रानी चुलनी को सुनाते हुए बोला-'जो कोई भी व्यक्ति अनुचित सम्बन्ध जोड़ेगा, उसे मैं इसी प्रकार पिंजरे में डाल दूंगा।' राजा दीर्घ ने यह बात सुनी। उसने चुलनी से कहा-'कुमार ने हमारा सम्बन्ध जान लिया है। मुझे कौवा Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ नियुक्तिपंचक और तुम्हें कोयल मान यह संकेत दिया है। अब हमें सावधान हो जाना चाहिए। मेरे रहते तुम्हारे अन्य संतान हो जाएगी। पर इसको अपने मार्ग से हटाना आवश्यक है।' चुलनी ने कहा-'वह अभी बालक है। जो कुछ मन में आता है, कह देता है।' राजा ने कहा-'नहीं, ऐसा नहीं है। वह हमारे प्रेम में बाधा डालने वाला है। उसको मारे बिना अपना सम्बन्ध नहीं निभ सकता।' चुलनी ने कहा-'जो आप कहते हैं, वह सही है किन्तु उसे कैसे मारा जाये, जिससे लोकापवाद न हो।' राजा दीर्घ ने कहा-'यह कार्य बहत सरल है। जनापवाद से बचने के लिए पहले हम उसका विवाह कर देंगे।' विवाह के पश्चात् अनेक खम्भों वाले लाक्षागृह में सुखपूर्वक सोए हुए उसको अग्नि जलाकर मार देंगे। ऐसी मंत्रणा करके एक शुभ वेला में कुमार का विवाह सम्पन्न हुआ। उसके शयन के लिए राजा दीर्घ ने हजार स्तम्भ वाला एक लाक्षा-गृह बनवाया। इधर मंत्री धनु ने राजा दीर्घ से प्रार्थना की-'स्वामिन् ! मेरा पुत्र वरधनु मंत्री-पद का कार्यभार संभालने के योग्य हो गया है। मैं अब कार्य से निवृत्त होकर परलोक-हित का कार्य सम्पादित करना चाहता हूं।' राजा ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और छलपर्वक कहा-'तम और कहीं जाकर क्या करोगे? यहीं रहो और दान आदि धर्मों का पालन करो।' मंत्री ने राजा की बात मान ली। उसने नगर के बाहर गंगा नदी के तट पर एक विशाल प्याऊ बनवाई। वहां वह पथिकों और परिव्राजकों को प्रचुर अन्न-पान देने लगा। दान और सम्मान के वशीभूत हुए पथिकों और परिव्राजकों द्वारा उसने लाक्षा-गृह से प्याऊ तक एक सुरंग खुदवाई। राजा रानी को यह बात ज्ञात नहीं हुई। नववधू ने अनेक नेपथ्य और परिजनों के साथ नगर में प्रवेश किया। रानी चुलनी ने कुमार ब्रह्मदत्त को नववधू के साथ उस लाक्षा-गृह में भेजा। रानी चुलनी ने शेष सभी ज्ञातिजनों को अपनेअपने घर भेज दिया। मंत्री का पुत्र वरधनु वहीं रहा। रात्रि के दो पहर बीते। कुमार ब्रह्मदत्त गाढ़ निद्रा में लीन था। वरधनु जाग रहा था। अचानक लाक्षा-गृह एक ही क्षण में प्रदीप्त हो उठा। हाहाकार मचा। कुमार जागा और दिग्मूढ़ बना हुआ वरधनु के पास आकर बोला कि यह क्या हुआ? अब क्या करें? वरधनु ने कहा-'जिसके साथ आपका पाणिग्रहण हुआ है वह राजकन्या नहीं है। इसमें प्रतिबंध करना उचित नहीं है। चलो हम चलें।' उसने कुमार ब्रह्मदत्त को एक सांकेतिक स्थान पर लात मारने को कहा। कुमार ने लात मारी। सुरंग का द्वार खुल गया। वे उसमें घुसे। मंत्री ने पहले ही अपने दो विश्वासी पुरुष सुरंग के द्वार पर नियुक्त कर रखे थे। वे घोड़ों पर चढ़े हुए थे। ज्योंहि कुमार ब्रह्मदत्त और वरधनु सुरंग से बाहर निकले त्यों ही उन्हें घोड़ों पर चढ़ा दिया। वे दोनों वहां से चले और पचास योजन दूर जाकर ठहरे । लम्बी यात्रा के कारण घोड़े खिन्न होकर गिर पड़े। अब वे दोनों वहां से पैदल चलते-चलते कोष्ठग्राम में आए। कुमार ने वरधनु से कहा-'मित्र! भूख और प्यास बहुत जोर से लगी है। मैं अत्यन्त परिश्रान्त हो गया हूं।' वरधनु गाँव में गया। एक नाई को साथ में लाया। कुमार का सिर मुंडाया, गेरुए वस्त्र पहनाए और श्रीवत्सालंकृत चार अंगुल प्रमाण पट्ट-बंधन से वक्षस्थल को आच्छादित किया। वरधनु ने भी वेष-परिवर्तन किया। दोनों गाँव में गए। एक दास के लड़के ने घर से निकल कर उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया। वे दोनों उसके घर गए । पूर्ण सम्मान से उन्हें भोजन कराया गया। उस गृहस्वामी Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५८५ के बंधुमती नाम की एक पुत्री थी। भोजन कर चुकने पर एक महिला आई और कुमार के सिर पर आखे (अक्षत) डाले और कहा-'यह बंधुमती का पति है।' यह सुनकर वरधनु ने कहा-'इस मूर्ख बटुक के लिए क्यों अपने आपको नष्ट कर रहे हो?' उसने कहा-स्वामिन् ! एक बार नैमित्तिक ने हमें कहा था कि जिस व्यक्ति का वक्षस्थल पट्ट से आच्छादित होगा और जो अपने मित्र के साथ यहाँ भोजन करेगा, वही इस कन्या का पति होगा।' कुमार ने बंधुमती के साथ विवाह किया। दूसरे दिन वरधनु ने कुमार से कहा-'हमें बहुत दूर जाना है।' बंधुमती से प्रस्थान की बात कह वरधनु और कुमार दोनों वहाँ से चल पड़े। चलते-चलते वे एक गाँव में आए। वरधनु पानी लेने गया। शीघ्र ही आकर उसने कहा'कुमार ! लोगों में यह जनश्रुति है कि राजा दीर्घ ने ब्रह्मदत्त के सारे मार्ग रोक लिए हैं। अब हम पकड़े जाएंगे अत: कुछ उपाय ढूंढ़ना चाहिए।' दोनों राजमार्ग को छोड़ उन्मार्ग से चले और एक भयंकर अटवी में पहुँचे। कुमार प्यास से व्याकुल हो गया। वह एक वटवृक्ष के नीचे बैठ गया। वरधन पानी की खोज में निकला। घमते-घूमते वह दर जा निकला। राजा दीर्घ के सिपाहियों ने उसे देख लिया। उन्होंने उसका पीछा किया। वह बहुत दूर चला गया। ज्यों-त्यों कुमार के पास आ उसने चलने का संकेत किया। कुमार ब्रह्मदत्त वहां से भागा। वह एक दुर्गम कान्तार में जा पहुंचा। भूख और प्यास से परिक्लान्त होते हुए तीन दिन तक चलकर उसने कान्तार को पार किया। वहाँ एक तापस को देखा। तापस के दर्शन मात्र से उसे जीवित रहने की आशा बंध गई। उसने पूछा'भगवन् ! आपका आश्रम कहाँ हैं?' तापस ने आश्रम का स्थान बताया और उसे कुलपति के पास ले गया। कुमार ने कुलपति को प्रणाम किया। कुलपति ने पूछा-'वत्स! यह अटवी अपाय-बहुल है?' तुम यहाँ कैसे आए?' कुमार ने उनसे सारी बात यथार्थ रूप से कही। कुलपति ने कहा-'वत्स! तुम मुझे अपने पिता का छोटा भाई मानो। यह आश्रम तुम्हारा ही है। तुम यहाँ सुखपूर्वक रहो।' कुमार वहाँ रहने लगा। काल बीतने पर वर्षा ऋतु आ गई। कुलपति ने कुमार को चतुर्वेद आदि महत्त्वपूर्ण सारी विद्याएं सिखाईं। ___ एक बार शरद ऋतु में तापस फल, कंद, मूल, कुसुम, लकड़ी आदि लाने के लिए अरण्य में गए। कुमार भी कुतूहलवश उनके साथ जाना चाहता था। कुलपति ने उसे रोका, पर वह नहीं माना और अरण्य में चला गया। वहाँ उसने अनेक सुन्दर वनखण्ड देखे। वहाँ के वृक्ष फल और पष्पों से समद्ध थे। उसने एक हाथी देखा और गले से भीषण गर्जारव किया। हाथी उसकी ओर दौड़ा। यह देख कुमार ने अपने उत्तरीय को गोल गेंद सा बना हाथी की ओर फेंका। तत्क्षण ही हाथी ने उस गेंद को अपनी सूंड से पकड़ कर आकाश में फेंक दिया। हाथी अत्यन्त कुपित हो गया। कुमार ने उसे छल से पकड़ लिया और अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं से परिश्रान्त कर छोड़ दिया। कुमार उत्पथ से आश्रम की ओर चल पड़ा। वह दिग्मूढ़ हो गया था। ___ इधर-उधर घूमते-घूमते वह एक नगर में पहुंचा। वह नगर जीर्ण-शीर्ण हो चुका था। उसके केवल खण्डहर ही अवशेष थे। वह उन खण्डहरों को आश्चर्य की दृष्टि से देखने लगा। देखतेदेखते उसकी आँखें एक ओर जा टिकीं। उसने एक खड्ग और चौड़े मुँह वाला बाँस का कुडंग Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक देखा। उसका कुतूहल बढ़ा। परीक्षा करने के लिए उसने खड्ग से कुडंग पर प्रहार किया । एक प्रहार में झुरमुट नीचे गिर गया। उसके अन्दर से एक मुंड निकला। मनोहर सिर को देख उसे अत्यन्त आश्चर्य हुआ। उसने सोचा- 'धिक्कार है मेरे व्यवसाय को।' उसने अपने पराक्रम की निन्दा की और बहुत पश्चात्ताप किया। बाद में उसने एक ओर ऊँचे बंधे हुए पाँव वाले कबंध को देखा । उसकी उत्सुकता और बढ़ी। आगे उसने एक उद्यान देखा। वहाँ एक सप्तभौम प्रासाद था। उसके चारों ओर अशोक वृक्ष थे । वह धीरे-धीरे प्रासाद में गया। वहां उसने एक सुन्दर स्त्री देखी। वह विकसित कमल के समान आंखों वाली तथा अत्यन्त सुन्दर थी । ब्रह्मदत्त ने पूछा - 'सुन्दरी ! तुम कौन हो ?' सुन्दरी ने कहा - 'महाभाग ! मेरा वृत्तान्त बहुत बड़ा है। तुम ही अपना परिचय दो कि तुम कौन हो ? कहाँ से आए हो?' कुमार ने उसकी मधुर वाणी को सुन कर कहा-' - सुन्दरी ! में पांचाल देश के राजा ब्रह्म का पुत्र हूं । मेरा नाम ब्रह्मदत्त है।' इतना सुनते ही वह महिला अत्यन्त हर्षित हुई। आनन्द उसकी आँखों से बाहर झाँकने लगा। वह उठी और उसके चरणों में गिरकर रोने लगी । कुमार का हृदय दया से भीग गया । 'देवी! रुदन मत करो' यह कह उसने उसे उठाया और पूछा - ' 'देवी ! तुम कौन हो ?' उसने कहा- 'आर्यपुत्र ! मैं तुम्हारे मामा पुष्पचूल राजा की लड़की हूं। एक बार मैं अपने उद्यान में कुँए के पास वाली भूमि में खेल रही थी । नाट्योन्मत्त नाम का एक विद्याधर वहाँ आया और मुझे उठाकर यहाँ ले आया । यहाँ आए मुझे बहुत दिन हो गए । मैं परिवार की विरहाग्नि में जल रही हूँ। आज तुम अचानक ही यहाँ आ गए। मेरे लिए यह अचिंतित स्वर्ण-वर्षा हुई है। अब तुम्हें देखकर मुझे जीने की आशा भी बंधी है' कुमार ने कहा - 'वह महाशत्रु कहाँ है? मैं उसके बल की परीक्षा करना चाहता हूँ ।' स्त्री ने कहा - 'स्वामिन्! उसने मुझे पठितसिद्ध शंकरी नामक विद्या दी और कहा - ' इस विद्या के स्मरण मात्र से यह विद्या सखी, दास आदि परिवार के रूप में उपस्थित होकर तुम्हारे आदेश का पालन करेगी। यह विद्या तुम्हारे पास आते हुए शत्रुओं का निवारण करेगी। उसे पूछने पर वह मेरी सारी बात बताएगी। मैंने एक बार उसका स्मरण किया। उसने कहा - ' यह नाट्योन्मत्त नाम का विद्याधर है। मैं उसके द्वारा यहां लाई गई हूँ। मैं अधिक भाग्यशाली हूँ। वह मेरा तेज सह नहीं सका इसलिए वह मुझे विद्या निर्मित तथा सफेद और लाल ध्वजा से भूषित प्रासाद में छोड़ गया। मेरा वृत्तान्त जानने के लिए अपनी बहिन के पास विद्या को प्रेषित कर स्वयं वंशकुडंग में चला गया। विद्या को साध कर वह मेरे साथ विवाह करेगा। आज उसकी विद्या सिद्ध होगी।' इतना सुनकर ब्रह्मदत्त कुमार ने पुष्पावती से उस विद्याधर के मारे जाने की बात कही। यह अत्यन्त प्रसन्न होकर बोली- 'आर्य ! आपने अच्छा किया। वह दुष्ट मारा गया।' दोनों ने गन्धर्व विवाह किया । कुमार कुछ समय तक उसके साथ रहा। एक दिन उसने दिव्यवलय का शब्द सुना । कुमार ने पूछा- 'यह किसका शब्द है?' उसने कहा- 'आर्यपुत्र ! विद्याधर नाट्योन्मत्त की बहन खण्डविशाखा उसके विवाह के लिए सामग्री लेकर आ रही है। तुम थोड़ी देर के लिए यहाँ से चले जाओ। मैं उसकी भावना जान लेना चाहती हूँ । यदि वह तुम में अनुरक्त होगी तो मैं प्रासाद के ऊपर लाल ध्वजा फहरा दूँगी, अन्यथा सफेद ।' कुमार वहां से चला गया। थोड़े समय बाद कुमार ने सफेद ध्वजा देखी। वह धीरे-धीरे वहाँ से चल पड़ा और गिरिनिकुंज में आ गया। वहाँ एक बड़ा सरोवर ५८६ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५८७ देखा। उसने उसमें डुबकी लगाई। वह उत्तर-पश्चिम तीर पर जा निकला। वहाँ एक सन्दर कन्या बैठी थी। कुमार ने उसे देखा और सोचा- 'अहो ! मेरे पुण्य की साक्षात् परिणति है कि यह कन्या मुझे दिखाई दी है।' कन्या ने भी स्नेहपूर्ण दृष्टि से कुमार को देखा और वह वहां से चली गई। थोड़े ही समय में एक दासी वहाँ आई। उसने कुमार को वस्त्रयुगल, पुष्प, तंबोल आदि भेंट किए और कहा–'कुमार ! सरोवर के समीप जिस कन्या को तुमने देखा था, उसी ने यह भेंट भेजी है और आपको मंत्री के घर में ठहरने के लिए कहा है। आप वहाँ चलें और सुखपूर्वक रहें।' कुमार ने वस्त्र पहने, अलंकार किया और नागदेव मंत्री के घर जा पहुँचा। दासी ने मंत्री से कहा-'आपके स्वामी की पुत्री श्रीकान्ता ने इन्हें यहाँ भेजा है। आप इनका सम्मान करें और आदर से यहाँ रखें।' मंत्री ने वैसा ही किया। दूसरे दिन मंत्री कुमार को साथ ले राजा के पास गया। राजा ने उठकर कुमार को आगे आसन दिया और वृत्तान्त पूछा। भोजन से निवृत्त होकर राजा ने कहा-'कुमार ! हम आपका और क्या स्वागत करें। राजकुमारी श्रीकान्ता को आपके चरणों में भेंट करते हैं।' शुभ दिन में उनका विवाह सम्पन्न हआ। एक दिन कुमार ने श्रीकान्ता से पूछा- 'तुम्हारे पिता ने मेरे साथ तुम्हारा विवाह कैसे किया? मैं तो अकेला हूँ।' उसने कहा-'आर्यपुत्र ! मेरे पिता पराक्रमी हिस्सेदारों द्वारा उपद्रुत होकर इस विषम पल्ली में रह रहे हैं। वे नगर, ग्राम आदि को लूटकर दुर्ग में चले जाते हैं। मेरी माता श्रीमती के चार पुत्र थे। उनके बाद मैं उत्पन्न हुई इसलिए पिता का मुझ पर अत्यन्त स्नेह था। जब मैं युवती हुई तब एक बार पिता ने कहा- 'पुत्री! सभी राजा मेरे विरुद्ध हैं अत: जो घर बैठे ही तुम्हारे लिए उचित वर आ जाए तो मुझे कहना।' इसलिए मैं प्रतिदिन सरोवर पर जाती हूँ और मनुष्यों को देखती हूँ। आज मेरे पुण्यबल से तुम दिखलाई पड़े। यही सब रहस्य है।' कुमार श्रीकान्ता के साथ विषय-सुख भोगते हुए समय बिताने लगा। एक बार वह पल्लीपति अपने साथियों को साथ ले एक नगर को लूटने गया। कुमार उसके साथ था। गाँव के बाहर कमल सरोवर के पास उसने अपने मित्र वरधनु को बैठे देखा। वरधनु ने भी कुमार को पहचान लिया। असंभावित दर्शन के कारण वह रोने लगा। कुमार ने सान्त्वना दी और उसे गले लगाया। वरधनु ने कुमार से पूछा-'मेरे परोक्ष में तुमने क्या-क्या अनुभव किए?' कमार ने अथ से इति तक सारा वृत्तान्त कह सुनाया। कुमार ने कहा-'तुम अपना वृत्तान्त भी बताओ'। वरधनु ने कहा-'कुमार ! मैं तुम्हें एक वटवृक्ष के नीचे बैठे छोड़कर पानी लेने गया। मैने एक बड़ा सरोवर देखा। मैं एक दोने में जल भर कर तुम्हारे पास आ रहा था। इतने में ही महाराज दीर्घ के सन्नद्ध भट्ट मेरे पास आए और बोले-'वरधनु ! बताओ ब्रह्मदत्त कहाँ है?' मैंने कहा-'मैं नहीं जानता।' उन्होंने मुझे बहुत पीटा तब मैंने कहा-'कुमार को बाघ ने खा लिया।' भट्टों ने कहा-'वह प्रदेश हमें बताओ, जहाँ कुमार को बाघ ने खाया था।' इधर-उधर घूमता हुआ मैं कपट से तुम्हारे पास आया और तुम्हें भाग जाने के लिए संकेत किया। मैंने भी परिव्राजक द्वारा दी गई गुटिका मुंह में रखी और उसके प्रभाव से बेहोश हो गया। मुझे मरा हुआ समझकर भट्ट चले गये। बहुत देर बाद मैंने मुंह से गुटिका निकाली और मुझे होश आ गया। होश आते ही मैं तुम्हारी टोह में निकल पड़ा, परन्तु कहीं भी तुम नहीं मिले। मैं एक गाँव में गया। वहां एक परिव्राजक ने कहा- 'मैं तुम्हारे पिता का मित्र हूं। मेरा नाम Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक वसुभाग है।' उसने कहा- ' 'तुम्हारे पिता धनु भाग गए। राजा दीर्घ ने तुम्हारी माता को मांतगों के मुहल्ले में डाल दिया।' यह सुनकर मुझे बहुत दुःख हुआ । मैं काम्पिल्यपुर गया और कापालिक का वेश धारण कर उस मातंग बस्ती के प्रधान को धोखा दे माता को ले आया। एक गांव में मेरे पिता के मित्र ब्राह्मण देवशर्मा के यहां मां को छोड़कर तुम्हारी खोज में यहां आया हूं । इस प्रकार दोनों अपने सुख-दुख की बातें कर रहे थे। इतने में ही एक पुरुष वहां आया। उसने कहा - 'महाभाग ! तुम्हें यहाँ से कहीं अन्यत्र भाग जाना चाहिए। तुम्हारी खोज करते-करते राजा दीर्घ के मनुष्य यहाँ आ गए हैं।' इतना सुन दोनों— कुमार और वरधनु वहां से चल पड़े। गहन जंगलों को पार कर वे कौशाम्बी नगरी पहुंचे। वे गांव के बाहर एक उद्यान में ठहरे। वहां सागरदत्त और बुद्धि नाम के दो श्रेष्ठी - पुत्र अपने-अपने कुक्कुट लड़ा रहे थे । लाख मुद्राओं की बाजी लगी हुई थी । कुक्कुटों का युद्ध प्रारम्भ हुआ । सागरदत्त का कुक्कुट बुद्धिल्ल के कुक्कुट के साथ लड़ने में उत्साहित नहीं हुआ। सागरदत्त बाजी हार गया। इतने में ही दर्शक के रूप में खड़े वरधनु ने कहा - 'यह क्या बात है कि सागरदत्त का कुक्कुट सुजाति का होते हुए भी हार गया? यदि आपको आपत्ति न हो तो मैं परीक्षा करना चाहता हूं।' सागरदत्त ने कहा- 'महाभाग ! देखो-देखो मेरी लाख मुद्राएं चली गईं, इसका मुझे कोई दुःख नहीं है । परन्तु दुःख इतना ही है कि मेरे स्वाभिमान की रक्षा नहीं हुई । ' वरधनु ने बुद्धिल्ल के कुक्कुट को देखा। उसके पांवों में लोह की सूक्ष्म सूइयां बंधी हुई थीं। बुद्धिल्ल ने वरधनु को देखा। वह उसके पास आ धीरे से बोला- 'यदि तू इन सूक्ष्म सूइयों की बात नहीं बताएगा तो मैं तुझे अर्द्धलक्ष मुद्राएं दूंगा।' वरधनु ने स्वीकार कर लिया। उसने सागरदत्त से कहा - ' श्रेष्ठिन् ! मैंने देखा पर कुछ भी नहीं दिखा।' बुद्धिल्ल को ज्ञात न हो इस प्रकार वरधनु ने आंखों में अंगुलि - संचार के प्रयोग से सागरदत्त को कुछ संकेत किया। सागरदत्त ने अपने कुक्कुट के पैरों में सूक्ष्म सूइयां बांध दीं इससे बुद्धिल्ल का कुक्कुट पराजित हो गया। उसने लाख मुद्राएं हार दीं। अब सागरदत्त और बुद्धिल्ल दोनों समान हो गए। सागरदत्त बहुत प्रसन्न हुआ। उसने वरधनु को कहा - 'आर्य ! चलो, हम घर चलें ।' दोनों घर पहुंचे। उनमें अत्यन्त स्नेह हो गया। ५८८ एक दिन एक दास आया। उसने वरधनु को एकान्त में बुलाया और कहा - 'सूई का व्यतिकर न कहने पर बुद्धिल्ल ने जो तुम्हें अर्द्धलक्ष देने को कहा था, उसके निमित्त से उसने चालीस हजार का यह हार भेजा है।' यों कहकर उसने हार का डिब्बा समर्पित कर दिया । वरधनु ने उसको स्वीकार कर लिया । उसे ले वह ब्रह्मदत्त के पास गया। कुमार को सारी बात कही और उसे हार दिखाया । हार को देखते हुए कुमार की दृष्टि हार के एक भाग में लटकते हुए एक पत्र पर जा टिकी । उस पर ब्रह्मदत्त का नाम अंकित था। उसने पूछा- 'मित्र ! यह लेख किसका है'? वरधनु ने कहा- 'कौन जाने ? संसार में ब्रह्मदत्त नाम के अनेक व्यक्ति हैं, इसमें आश्चर्य ही क्या है?' वरधनु कुमार को एकान्त में ले गया और लेख को देखा। उसमें यह गाथा अंकित थी पत्थिज्जइ जइ वि जए, जणेण संजोयजणियजत्तेण । तह वि तुमं चिय धणियं, रयणवई मणई माणेउं ॥ अर्थात् यद्यपि रत्नवती को पाने के लिए अनेक प्रार्थी हैं, फिर भी रत्नवती तुम्हारे लिए Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५८९ समर्पित है। ब्रह्मदत्त ने सोचा-'मैं इसके भावार्थ को कैसे जानूं?' दूसरे दिन एक परिव्राजिका आई। उसने कुमार के सिर पर अक्षत तथा फूल डाले और कहा–'पुत्र! हजार वर्ष तक जीओ।' इतना कहकर वह वरधनु को एकान्त में ले गई और उसके साथ कुछ मंत्रणा कर वापस चली गई। कुमार ने वरधनु को पूछा---' यह क्या कह रही थी?' वरधनु ने कहा-'कुमार ! उसने मुझे कहा कि बुद्धिल्ल ने जो हार भेजा था और उसके साथ जो लेख था उसका प्रत्युत्तर दो।' मैंने कहा-'वह ब्रह्मदत्त नाम से अंकित है। बताओ वह ब्रह्मदत्त कौन है?' उस परिव्राजिका ने कहा-'सुनो, लेकिन यह बात किसी को बताना मत।' उसने कहा-'इस नगरी में श्रेष्ठी-पुत्री रत्नवती रहती है। बाल्यकाल से ही मेरा उस पर अपार स्नेह है। जब वह युवती हुई तब एक दिन मैंने उसे कुछ सोचते हुए देखा। मैं उसके पास गई। मैंने कहा-'पत्री रत्नवती! क्या सोच रही हो?' उसके परिजनों ने कहा-'यह बहुत दिनों से इसी प्रकार उदासीन है।' मैंने उसे बार-बार पूछा पर वह नहीं बोली। तब उसकी सखी प्रियंगलतिका ने कहा-'भगवती ! यह लज्जावश तम्हें कछ नहीं बताएगी। मैं कहती हैं कि एक बार यह उद्यान में क्रीड़ा करने के लिए गई थी। वहां इसके भाई बुद्धिल्ल श्रेष्ठी ने लाख मुद्राओं की बाजी पर कुक्कुट लड़ाए थे। इसने वहां एक कुमार को देखा। उसको देखते ही यह ऐसी बन गई।' यह सुनकर मैंने उसकी काम-व्यथा जान ली। परिव्राजिका ने स्नेहपूर्वक कहा कि पुत्री ! यथार्थ बात बताओ तब उसने ज्यों-त्यों कहा कि तुम मेरी मां के समान हो। तुम्हारे सामने अकथनीय कुछ भी नहीं है। वह ब्रह्मदत्त कुमार यदि मेरा पति नहीं होगा तो मैं निश्चय ही प्राण त्याग दूंगी। यह सुनकर मैंने उसे कहा-'धैर्य रखो। मैं वैसा ही उपाय करूंगी, जिससे तम्हारी कामना सफल हो सके।' यह बात सुनकर कुमारी रत्नवती कुछ स्वस्थ हुई। कल मैंने उसके हृदय को आश्वासन देने के लिए कहा-'मैंने कुमार को देखा है।' उसने भी कहा-'भगवती ! तुम्हारे प्रसाद से सब कुछ अच्छा ही होगा। किन्तु उसके विश्वास के लिए बुद्धिल्ल के कथन के मिष से हार के साथ ब्रह्मदत्त नामांकित एक लेख भेज देना।' मैंने कल वैसा ही किया। आगे उस परिव्राजिका ने कहा- मैंने लेख की सारी बात तुम्हें बता दी। अब उसका प्रत्युत्तर दो।' वरधनु ने कहा-'मैंने उसे यह प्रत्युत्तर दिया बंभदत्तो वि गुरुगुणवरधणुकलिओ ति माणिउं मणई। रयणवई रयणिवई, चंदो इव चंदणीजोगो॥ अर्थात् वरधनु सहित ब्रह्मदत्त भी रत्नवती का योग चाहता है, जैसे रजनीपति चांद चांदनी का। वरधनु द्वारा कही गई सारी बात सुनकर कुमार रत्नवती को बिना देखे ही उसमें तन्मय हो गया। उसको प्राप्त करने के उपाय सोचते-सोचते अनेक दिन बीत गए। एक दिन वरधनु बाहर से आया और सम्भ्रान्त होता हुआ बोला-'कुमार ! इस नगर में स्वामी कौशलाधिपति ने हमें ढूंढ़ने के लिए विश्वस्त पुरुषों को भेजा है। इस नगर के स्वामी ने ढूँढना प्रारम्भ कर दिया है, ऐसा मैंने लोगों से सुना है।' यह व्यतिकर जानकर सागरदत्त ने दोनों को भोहरे में छुपा दिया। रात्रि आने पर कुमार ने सागरदत्त से कहा-'ऐसा कोई उपाय करो, जिससे हम यहाँ से निकल जाएँ।' यह सुनकर सागरदत्त उन दोनों को साथ ले नगरी के बाहर चला गया। सागरदत्त उनके साथ जाना चाहता था। परन्तु ज्यों-त्यों उसे समझा कर घर भेजा और कुमार तथा वरधनु दोनों . Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० नियुक्तिपंचक आगे चले गये। वे नगर के बाहर उद्यान में पहुँचे। उसमें एक यक्षायतन था। वहाँ वृक्ष के नीचे एक रथ खड़ा था। वह शस्त्रों से सज्जित था। उसके पास एक सुन्दर स्त्री बैठी थी। कुमार को देखकर वह उठी और आदर-भाव प्रकट करती हुई बोली-'आप इतने समय के बाद कैसे आए?' यह सुनकर कुमार ने कहा-'भद्रे ! हम कौन हैं?' उसने कहा-'स्वामिन् ! आप ब्रह्मदत्त और वरधनु हैं।' कुमार ने कहा-'तुमने हमको कैसे जाना'? उसने कहा-'सुनो, इस नगरी में धनप्रवर नाम का सेठ रहता है। उसकी पत्नी का नाम धनसंचया है। उसके आठ पुत्र हैं। मैं उनकी नौंवीं संतान हूँ। मैं युवती हुई पर मुझे कोई पुरुष पसन्द नहीं आया है। तब मैंने इस यक्ष की आराधना प्रारम्भ की। यक्ष भी मेरी भक्ति से संतुष्ट हुआ। वह प्रत्यक्ष दर्शन देकर बोला-'बेटी! भविष्य में होने वाला चक्रवर्ती कुमार ब्रह्मदत्त तुम्हारा पति होगा। मैंने पूछा-'मैं उसको कैसे जान सकूँगी?' यक्ष ने कहा-'बुद्धिल्ल और सागरदत्त के कुक्कुट-युद्ध में जिस पुरुष को देखकर तुम्हें आनन्द हो, उसे ही ब्रह्मदत्त जान लेना।' उसने मुझे जो बताया, वह सब यहाँ मिल गया। मैंने जो हार आदि भेजा, वह आप जानते ही हैं।' यह सुनकर कुमार उसमें अनुरक्त हो गया। वह उसके साथ रथ पर आरूढ हुआ और उससे पूछा-'हमें कहाँ जाना चाहिए?' रत्नवती ने कहा-'मगधपुर में मेरे चाचा सेठ धनसार्थवाह रहते हैं। वे हमारा वृत्तान्त जान कर हमारा आगमन अच्छा मानेंगे। अत: आप वहीं चलें, उसके बाद जहाँ आपकी इच्छा हो।' रत्नवती के वचनानुसार कुमार मगधपुर की ओर चल पड़ा। वरधनु को सारथि बनाया। ___ग्रामानुग्राम चलते हुए वे कौशाम्बी जनपद को पार कर गए। आगे चलते हुए वे एक गहन जंगल में जा पहुंचे। वहां कंटक और सुकंटक नाम के दो चोर-सेनापति रहते थे। उन्होंने रथ और उसमें बैठी हुई अलंकृत स्त्री को देखा। उन्होंने यह भी जान लिया कि रथ में तीन ही व्यक्ति हैं। वे सज्जित होकर आए और उन पर प्रहार करने लगे। कुमार ने भी अनेक प्रकार से प्रहार किए। चोर सेनापति हार कर भाग गया। कुमार ने रथ को आगे बढ़ाया। वरधनु ने कहा-'कुमार ! तुम बहुत परिश्रान्त हो गए हो। कुछ समय के लिए रथ में ही सो जाओ।' कुमार और रत्नवती दोनों सो गए। रथ आगे बढ़ रहा था। वे एक पहाड़ी प्रदेश में पहुंचे। घोड़े थककर एक पहाड़ी नदी के पास जाकर रुक गये। कुमार जागा, वह जम्भाई लेकर उठा। उसने आस-पास देखा पर वरधनु दिखाई नहीं दिया। कुमार ने सोचा-'संभव है वह पानी लाने गया हो।' कुछ देर बाद उसने भयाक्रान्त हो वरधन को पुकारा। उसे प्रत्युत्तर नहीं मिला। उसने रथ के अगले भाग को देखा। वह रक्त से सना हुआ था। कुमार ने सोचा कि वरधनु मारा गया। 'हा! मैं मारा गया। अब मैं क्या करूं?' यह कहते हुए वह रथ में ही मूर्च्छित हो गया। कुछ समय बीतने पर उसे होश आया। 'हा, हा भ्रात वरधनु !' यह कहता हुआ वह प्रलाप करने लगा। रत्नवती ने ज्यों-त्यों उसे बिठाया और समझाया। कुमार ने कहा-'सुन्दरी ! मैं स्पष्ट नहीं जान पा रहा हूँ कि वरधनु मर गया या जीवित है? मैं उसको ढूंढ़ने के लिए पीछे जाना चाहता हूँ। रत्नवती ने कहा-'आर्यपुत्र ! यह पीछे चलने का अवसर नहीं है। मैं एकाकिनी हूँ। यहां भयंकर जंगल है। इसमें अनेक चोर और श्वापद रहते हैं। यहाँ की सारी घास पैरों से रौंदी हुई है इसलिए यहां पास में ही कोई बस्ती होनी चाहिए।' कुमार ने उसकी बात मान ली। वह मगध देश की ओर चल पड़ा। वह उस देश की सन्धि में संस्थित एक ग्राम में पहुँचा। Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ग्राम सभा में बैठे हुए ठाकुर ने कुमार को प्रवेश करते हुए देखा। उसे विशेष व्यक्ति मानकर वह उठा । उसका सम्मान किया और अपने घर ले गया। उसने ब्रह्मदत्त को रहने के लिए मकान दिया। जब वह सुखपूर्वक बैठ गया तब ठाकुर ने कुमार से कहा - 'महाभाग ! तुम बहुत ही उद्विग्न दिखाई दे रहे हो। क्या कारण है?' कुमार ने कहा- 'मेरा भाई चोरों के साथ लड़ता हुआ न जाने कहाँ चला गया? किस अवस्था को प्राप्त हो गया?' ठाकुर ने कहा- 'आप खेद न करें। यदि वह इस अटवी में होगा तो अवश्य ही मिल जाएगा।' ठाकुर ने विश्वस्त आदमियों को अटवी में चारों ओर भेजा। वे आकर बोले- 'स्वामिन्! हमें अटवी में कोई खोज नहीं मिली।' केवल एक बाण ही मिला है । यह सुनते ही कुमार अत्यन्त उद्विग्न और उदास हो गया। उसने सोचा- 'निश्चय ही वरधनु मारा गया है।' रात आने पर कुमार रत्नवती के साथ सो गया। एक प्रहर रात बीतने पर गांव में चोर घुसे। वे लूट-खसोट करने लगे। कुमार ने चोरों का सामना किया। सभी चोर भाग गये। गाँव के प्रमुख ने कुमार का अभिनन्दन किया। प्रातः काल होने पर ठाकुर ने अपने पुत्र को उनके साथ भेजा । ५९१ वे चलते-चलते राजगृह पहुंचे। नगर के बाहर एक परिव्राजक का आश्रम था । कुमार रत्नवती को आश्रम में बिठाकर गाँव के अन्दर गया। प्रवेश करते ही उसने अनेक खम्भों पर टिका हुआ, अनेक कलाओं से निर्मित एक धवल भवन देखा । वहाँ दो सुन्दर कन्याएं बैठी थीं । कुमार को देखकर अत्यन्त अनुराग दिखाती हुई वे दोनों बोलीं- 'क्या आप जैसे महापुरुषों के लिए यह उचित है कि भक्ति से अनुरक्त व्यक्ति को भुलाकर परिभ्रमण करते रहो ?' कुमार ने कहा- 'वह कौन है, जिसके लिए तुम ऐसा कह रही हो? उन्होंने कहा - ' कृपा कर आप आसन ग्रहण करें।' कुमार आसन पर बैठ गया । स्नान कर वह भोजन से निवृत्त हुआ। दोनों स्त्रियों ने कहा - 'महासत्व ! इसी भरत के वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी में शिवमन्दिर नाम का नगर है । वहाँ ज्वलनसिंह नाम का राजा राज्य करता है। उसकी महारानी का नाम विद्युतशिखा है। हम दोनों उनकी पुत्रियाँ हैं । हमारे ज्येष्ठ भ्राता का नाम नाट्योन्मत्त था । एक दिन हमारे पिता अग्निशिख मित्र के साथ गोष्ठी में बैठे थे। उन्होंने आकाश की ओर देखा । अनेक देव तथा असुर अष्टापद पर्वत के अभिमुख जिनेश्वर देव को वन्दनार्थ जा रहे थे। राजा भी अपने मित्र तथा बेटियों के साथ उसी ओर जाने लगा। हम सब अष्टापद पर्वत पर पहुंचे, जिनदेव की प्रतिमाओं को वन्दना की और सुगन्धित द्रव्यों से अर्चा की। हम तीन प्रदक्षिणा कर लौट रहे थे तभी हमने देखा कि एक अशोक वृक्ष के नीचे दो मुनि खड़े हैं। वे चारणलब्धि सम्पन्न थे । हम उनके पास वन्दना कर बैठ गए। उन्होंने धर्मकथा करते हुए कहा - 'यह संसार असार है। शरीर विनाशशील है। जीवन शरद् ऋतु के बादलों की तरह नश्वर है । यौवन विद्युत् के समान चंचल है। कामभोग किंपाक फल जैसे हैं । इन्द्रियजन्य सुख संध्या के राग की तरह हैं। लक्ष्मी कुशाग्र पर टिके हुए पानी की बूंद की तरह चंचल है। दुःख सुलभ है, सुख दुर्लभ है। मृत्यु सर्वत्रगामी है। ऐसी स्थिति में प्राणी को मोह का बंधन तोड़ना चाहिए। जिनेन्द्र प्रणीत धर्म में मन लगाना चाहिए।' परिषद् ने धर्मोपदेश सुना। लोग विसर्जित हुए । अवसर देख अग्निशिख ने पूछा- 'भगवन् ! इन बालिकाओं का पति कौन होगा ।' मुनि ने कहा-' इनका पति भ्रातृ-वधक होगा।' यह सुन राजा का चेहरा श्याम हो गया। हमने पिता से कहा- 'तात ! मुनियों Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ नियुक्तिपंचक ने जो संसार का स्वरूप बताया है, वह यथार्थ है। हमें ऐसा विवाह नहीं चाहिए। हमें ऐसा विषयसुख नहीं चाहिए।' पिता ने हमारी बात मान ली, तब से हम अपने प्रिय भाई की स्नान-भोजन आदि की व्यवस्था में ही चिन्तित रहती हैं। हम अपने शरीर-परिकर्म का कोई ध्यान नहीं रखतीं। एक दिन हमारे भाई ने घूमते हुए तुम्हारे मामे की लड़की पुष्पवती को देखा। वह उसके रूप पर मुग्ध हो गया और उसे हरण कर यहाँ ले आया। परन्तु वह उसकी दृष्टि सहने में असमर्थ था अतः विद्या को साधने के लिए गया। आगे का वृत्तान्त आप जानते हैं। हे महाभाग! उस समय तुम्हारे पास से आकर पुष्पवती ने हमें भाई का सारा वृत्तान्त सुनाया। उसे सुनकर हमें अत्यन्त शोक हुआ। हम रोने लगीं। पुष्पवती ने धर्मदेशना दे हमें शान्त किया और शंकरी विद्या से हमारे वृत्तान्त को जानकर उसने कहा-'मुनि के वचन को याद करो। ब्रह्मदत्त को अपना पति मानो।' हमने अनुराग पूर्वक आपको अपना पति स्वीकार कर लिया। पुष्पवती के संकेत से आप कहीं चले गए। हमने आपको अनेक नगरों व ग्रामों में ढूंढा पर आप कहीं नहीं मिले। अन्त में हम खिन्न होकर यहां आ गईं। आज हमारा भाग्य जागा। अतर्कित हिरण्य की वृष्टि के समान आपके दर्शन हुए। हे महाभाग! पुष्पवती की बात को याद कर आप हमारी आशा पूरी करें।' यह सुन कुमार प्रसन्न हुआ। उसने उनकी बात स्वीकार कर उनके साथ गन्धर्व-विवाह किया। रात वहीं बिताई। प्रात:काल होने पर कुमार ने कहा-'तुम दोनों पुष्पवती के पास चली जाओ। उसके साथ तब तक रहना, जब तक मैं राजा न बन जाऊँ।' दोनों ने बात मान ली। उनके जाने के बाद कुमार ने देखा कि न वहां प्रासाद है और न परिजन। उसने सोचा कि यह विद्याधरियों की माया है अन्यथा ऐसा इन्द्रजाल-सा कौतुक कैसे होता? कुमार को रत्नवती का स्मरण हो गया और वह उसको ढूंढ़ने आश्रम की ओर चला। वहां न तो रत्नवती ही थी और न कोई दूसरा। किसे पूछू, यह सोच उसने इधर-उधर देखा पर कोई नहीं मिला। वह उसी की चिन्ता में व्यग्र था तभी वहाँ सौम्य आकृति वाला एक पुरुष दिखलाई पड़ा। कुमार ने पूछा-'महाभाग ! क्या तुमने अमुक-अमुक आकृति तथा वेष-धारण करने वाली स्त्री को आज या कल कहीं देखा है?' उसने पूछा-'कुमार! क्या तुम रत्नवती के पति हो।' कुमार ने स्वीकृति में अपना सिर हिला दिया। उसने कहा-'कल अपराह्न-वेला में मैंने उसको रोते देखा था। मैं उसके पास गया और पूछा-'पुत्री ! तुम कौन हो कहां से आई हो, तुम्हारे दु:ख का कारण क्या है? तुम्हें कहां जाना है?' उसने अपना परिचय दिया। मैंने उसे पहचान लिया और कहा–'तुम मेरी धेवती हो।' मैंने उसका वृत्तान्त जाना और उसे उसके चाचा के पास ले गया। उसने उसे आदर पूर्वक अपने घर में प्रवेश कराया इसीलिए अन्वेषण करने पर भी वह तुम्हें नहीं मिली। तुमने अच्छा किया कि यहां आ गये।' इतना कहकर वह कुमार को सार्थवाह के घर ले गया। रत्नवती के साथ उसका पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ। वह विषय-सुख का भोग करता हुआ वहीं रहने लगा। एक दिन उसे याद हो आया कि आज वरधनु का दिन है, यह सोच उसने ब्राह्मणों को भोजन के लिए आमंत्रित किया। संयोगवश वरधनु ब्राह्मण के वेश में भोजन लेने वहीं आ गया। उसने एक नौकर से कहा-'जाओ, अपने स्वामी से कहो कि यदि तुम मुझे भोजन दोगे तो वह उस परलोकवर्ती के मुँह और पेट में सीधा चला जाएगा, जिसके लिए तुमने भोज किया है।' नौकर Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५९३ ने जाकर कुमार को सारी बात कही। कुमार बाहर आया। उसने ब्राह्मण-वेश में वरधनु को पहचान लिया। दोनों ने परस्पर आलिंगन किया। दोनों अन्दर आ गए। स्नान-भोजन आदि से निवृत्त हो कुमार ने वरधनु से उसका वृत्तान्त पूछा। वरधनु ने कहा-'उस रात आप दोनों रथ पर सो गए थे। मैं आगे बैठा था। एक चोर घनी झाड़ी में छुपा बैठा था। उसने पीछे से बाण मारा। मैं वेदना से पराभूत हो धरती पर गिर पड़ा। आप पर कोई आपत्ति न आ जाए इस भय से आवाज नहीं की। रथ आगे चला गया और मैं भी सधन वृक्षों को चीरता हुआ गाँव में पहुँचा, जहाँ आप थे। वहाँ के प्रधान से मैंने आपके विषय में सारी बात जान ली। मुझे अत्यन्त हुर्ष हुआ। ज्यों-त्यों मैं यहां आया और आपसे मिलना हुआ।' दोनों अत्यन्त आनंद से दिन बिता रहे थे। एक बार दोनों ने विचार किया कि कितने दिन तक हम निठल्ले बैठे रहेंगे। हमें कोई उपाय ढूंढ़ना चाहिए। मधुमास आया। मदनमहोत्सव की बेला में नगर के सारे लोग क्रीड़ा करने उद्यान में गए। कुतूहलवश कुमार और वरधनु भी वहीं गए। सभी नर-नारी विविध क्रीड़ाओं में मग्न थे। इतने में ही मदोन्मत्त राज-हस्ती आलान से छूट गया। वह निरंकुश हो दौड़ पड़ा। सभी लोग भयभीत हो गए। भयंकर कोलाहल होने लगा। सभी क्रीड़ागोष्ठियाँ भंग हो गईं। इस प्रवृद्ध कोलाहल में एक तरुण स्त्री मत्तहाथी के भय से पागल की तरह दौड़ती हई त्राण के लिए इधर-उधर देख रही थी। हाथी की दृष्टि उस पर पड़ी। चारों ओर ह होने लगा। स्त्री के परिवार वाले चिल्लाने लगे। कुमार ने यह देखा। उसने भयभीत तरुणी के आगे हो, हाथी को हांका । कुमारी बच गई। हाथी कुमारी को छोड़कर अत्यन्त कुपित हो, सूंड को घुमाता हुआ, कानों को फड़फड़ाता हुआ कुमार की ओर दौड़ा। कुमार ने अपनी चादर को गेंद बना हाथी की ओर फेंका। हाथी ने उसे रोष से अपनी सँड में पकड़कर आकाश में उछाल दिया। वह धरती पर जा गिरा। हाथी उसे पुनः उठाने में प्रयत्नशील था कि कुमार शीघ्र ही उसकी पीठ पर जा बैठा और तीखे अंकुश से उस पर प्रहार किया। हाथी उछला। तत्क्षण ही कुमार ने मीठे वचनों से उसे संबोधित किया। हाथी शान्त हो गया। लोगों ने यह देखा। चारों ओर से साधुवाद की ध्वनि आने लगी। मंगलपाठकों ने कुमार का जयघोष किया। हाथी को आलान पर ले जाया गया। कुमार ब्रह्मदत्त पास ही खड़ा रहा। राजा आया। कुमार को देखकर विस्मित हुआ। उसने पूछा- 'यह कौन है?' मंत्री ने सारी बात बताई। राजा प्रसन्न हुआ। कुमार को साथ ले वह अपने राजमहल में आया। स्नान, भोजन, पान आदि से उसका सत्कार किया। भोजन के पश्चात् राजा ने अपनी आठ पुत्रियाँ कुमार को समर्पित की। शुभ मुहूर्त में विवाह-संस्कार सम्पन्न हुआ। कुमार कई दिन वहाँ रहा। एक दिन एक स्त्री कुमार के पास आकर बोली-'कुमार ! मैं आपसे कुछ कहना चाहती हूँ।' कुमार ने कहा बोलो, क्या कहना चाहती हो? उस स्त्री ने कहा-'इसी नगरी में वैश्रमण नाम का सार्थवाह रहता है। उसकी पुत्री का नाम श्रीमती है। मैंने उसको पाला-पोषा है। यह वही बालिका है, जिसकी तुमने हाथी से रक्षा की थी। हाथी के संभ्रम से बच जाने पर उसने तुम्हें जीवनदाता मानकर तुम्हारे प्रति अनुरक्ति दिखाई है। तुम्हारे रूप, लावण्य और कला-कौशल को देखकर वह तुम्हारे में अत्यन्त अनुरक्त है। तभी से वह तुम्हें देखती हुई स्तम्भित की तरह, लिखित मूर्ति की तरह, भूमि Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ नियुक्तिपंचक में गढ़ी कील की तरह निश्चल और भरी आंखों से क्षण भर वहां ठहरी। हाथी का संभ्रम दूर होने पर ज्यों-त्यों उसे घर ले जाया गया। वह वहाँ भी न स्नान करती है और न ही भोजन। वह तब से मौन है। मैं उसके पास गई। मैंने कहा-'पुत्री ! तुम बिना कारण ही क्यों अनमनी हो रही हो? मेरे वचनों की अवहेलना क्यों कर रही हो?' उसने मुस्कराते हुए कहा-'मां ! तुमसे मैं क्या छुपाऊँ? किन्तु लज्जावश चुप हूँ। यदि उस कुमार के साथ जिसने मुझे हाथी से बचाया है, मेरा विवाह नहीं हो जाता तो मेरा मरना निश्चित है।' यह बात सुन मैंने उसके पिता से सारी बात कही। उसने मुझे तुम्हारे पास भेजा है। आप कृपा कर इस बालिका को स्वीकार करें।' कुमार ने उसे स्वीकार कर लिया। शुभ दिन में उसका विवाह सम्पन्न हुआ। वरधन का विवाह अमात्य सबद्धि की पत्री नन्दा के साथ हुआ। दोनों सुख भोगते हुए वहीं रहने लगे। चारों ओर उनकी कीर्ति फैल गई। चलते-चलते वे वाराणसी पहुंचे। राजा कटक ने जब कुमार ब्रह्मदत्त का आगमन सुना तो वह बहुत ही प्रसन्न हुआ। पूर्ण सम्मान के साथ कुमार ब्रह्मदत्त को नगर में प्रवेश कराया गया। उसने अपनी पुत्री कटकावती से ब्रह्मदत्त का विवाह किया। राजा कटक ने दूत भेजकर सेना सहित पुष्पचूल को बुला लिया। मंत्री धनु और करेणुदत्त भी वहां आ पहुंचे। चंद्रसिंह, भवदत्त आदि और भी अनेक राजा उनके साथ मिल गए। उन सबने वरधनु को सेनापति के पद पर नियुक्त कर काम्पिल्यपुर पर चढ़ाई कर दी। इसी बीच राजा दीर्घ ने कटक आदि राजाओं के पास अपना दूत भेजा पर सबने उसका तिरस्कार किया। अनवरत प्रयाण से सेना काम्पिल्यपुर पहुंच गयी। चारों ओर से नगर को घेर लिया, जिससे नागरिकों का निर्गम और प्रवेश अवरुद्ध हो गया। राजा दीर्घ 'कितने दिन तक अंदर छिपकर बैठा रहूंगा' ऐसा सोचकर साहस के साथ सेना के सम्मुख आया। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ। अपनी सेना को पराजित होते देख साहस के साथ राजा दीर्घ युद्ध में उपस्थित हुआ। राजा दीर्घ को देखकर कुमार ब्रह्मदत्त ने रोष के साथ उस पर बाण छोड़ा। फिर गांडीव, खड्ग आदि से प्रहार करके उस पर चक्र छोड़ दिया। राजा दीर्घ का सिर धड़ से अलग हो गया। 'चक्रवर्ती की विजय हुई'-यह घोष चारों ओर फैल गया। देवों ने आकाश से फूल बरसाए। 'बारहवां चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ है' यह आकाशवाणी हुई। नागरिकों ने अभिनंदन करते हुए चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त का नगर में प्रवेश करवाया। सकल सामन्तों ने कुमार ब्रह्मदत्त का चक्रवर्ती के रूप में अभिषेक किया। वह छह खंड का अधिपति बन गया। पुष्पवती प्रमुख सारा अंत:पुर काम्पिल्यपुर में आ गया। राज्य का परिपालन करता हुआ ब्रह्मदत्त सुखपूर्वक रहने लगा। एक बार एक नट आया। उसने राजा से प्रार्थना की-'मैं आज मधुकरी गीत नामक नाट्य-विधि का प्रदर्शन करना चाहता हूँ।' चक्रवर्ती ने स्वीकृति दे दी। अपराह्न में नाटक होने लगा। उस समय एक कर्मकरी ने फूलमालाएं लाकर राजा के सामने रखीं। राजा ने उन्हें देखा और मधुकरी गीत सुना। तब चक्रवर्ती के मन में एक विकल्प उत्पन्न हआ कि ऐसा नाटक इसके पहले भी मैंने कहीं देखा है। वह इस चिन्तन में लीन हो गया और उसे पूर्व-जन्म की स्मृति हो आई। उसने जान लिया कि ऐसा नाटक मैंने सौधर्म देवलोक के पद्मगुल्म नामक विमान में देखा था। इस स्मृति मात्र से वह मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। पास बैठे हुए सामन्त उठे, चन्दन का लेप किया। राजा की चेतना लौट आई। सम्राट आश्वस्त हुआ। उसे पूर्वजन्म के भाई की याद सताने लगी। भाई की खोज करने के लिए उसने एक Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५९५ मार्ग ढूँढ़ा। रहस्य को छिपाते हुए सम्राट ने महामात्य वरधनु से कहा-'आस्व दासौ मृगौ हंसौ, मातंगावमरौ तथा' इस श्लोकार्द्ध को सब जगह प्रचारित करो और यह घोषणा करो कि इस श्लोक की पूर्ति करने वाले को सम्राट् अपना आधा राज्य देगा। प्रतिदिन यह घोषणा होने लगी। यह अर्द्धश्लोक दूर-दूर तक प्रसारित हो गया और व्यक्ति-व्यक्ति को कण्ठस्थ हो गया। इधर चित्र का जीव देवलोक से च्युत होकर पुरिमताल नगर में एक सेठ के घर जन्मा। युवा होने पर एक दिन उसे पूर्वजन्म की स्मृति हुई और वह मुनि बन गया। एक बार ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वह वहीं काम्पिल्यपुर में आया और मनोरम नाम के कानन में ठहरा। एक दिन वह कायोत्सर्ग कर रहा था। उसी समय रहट को चलाने वाला एक व्यक्ति वहां बोल उठा-'आस्व दासौ मृगौ हंसो, मातंगावमसौ तथा।' मुनि ने इस श्लोकार्ध को सुना और उसके आगे के दो चरण पूरे करते हुए कहा-'एषा नौ षष्ठिका जातिः, अन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः रहट चलाने वाले उस व्यक्ति ने उन दोनों चरणों को एक पत्र में लिखा और आधा राज्य पाने की खुशी में वह दौड़ा-दौड़ा राज-दरबार में पहुँचा। सम्राट की अनुमति प्राप्त कर वह राज्य-सभा में गया और एक ही साँस में पूरा श्लोक सम्राट् को सुना डाला। उसे सुनते ही सम्राट् स्नेहवश मूर्च्छित हो गए। सारी सभा क्षुब्ध हो गयी। सभासद क्रुद्ध होकर उसे पीटने लगे। उन्होंने कहा-'तने सम्राट को मर्छित कर दिया। कैसी तेरी श्लोक-पर्ति?' मार पड़ने पर वह बोला-'मुझे मत मारो। श्लोक की पूर्ति मैंने नहीं की है।' 'तो किसने की है?' सभासदों ने पूछा तब उसने कहा-'मेरे रहट के पास खड़े एक मुनि ने की है।' अनुकूल उपचार पाकर सम्राट सचेतन हुआ। सारी बात की जानकारी प्राप्त कर वह परिकर सहित मुनि के दर्शन करने के लिए उद्यान में चल पड़ा। मुनि को वंदना कर वह विनयपूर्वक उनके पास बैठ गया। मुनि ने धर्मदेशना दी। कर्मविपाक का वर्णन किया तथा मोक्षमार्ग का विवेचन किया। परिषद विरक्त हो गयी पर चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त भावित नहीं हुआ। पुनः पुनः प्रतिबोध देने पर भी ब्रह्मदत्त प्रतिबुद्ध नहीं हुआ तब मुनि चित्र ने सोचा-'ओह ! अब मुझे समझ में आ गया कि ब्रह्मदत्त प्रतिबुद्ध क्यों नहीं हो रहा है? पूर्वभव में चक्रवर्ती सनत्कुमार की स्त्रीरत्न दर्शनार्थ आई थी। वन्दना करते समय उसकी केशराशि का स्पर्श मुनि के चरणों से हुआ। चरण -स्पर्श से मुनि को अपार सुख की अनुभूति हुई। तब मुनि सम्भूत ने स्त्रीरत्न की प्राप्ति का निदान कर डाला। मैंने निदान करने का निषेध किया। परन्तु निषेध का असर नहीं हुआ। यही कारण है कि आज यह अपने राज्य के प्रति इतना आसक्त है। जैसे मृत्यु रूपी नाग से दष्ट व्यक्ति के लिए जिन-वचन रूपी मंत्र-तंत्र कार्यकर नहीं होता, वैसे ही इस पर धर्म-प्रतिबोध का कोई प्रभाव नहीं हो रहा है।' मुनि वहां से चले गए और साधना करते-करते मोक्ष को प्राप्त हो गए। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती सुखों का अनुभव करने लगा। कुछ काल बीता। एक बार एक ब्राह्मण चक्रवर्ती के पास आकर बोला-'राजन् ! मेरे मन में एक अभिलाषा उत्पन्न हुई है कि मैं चक्रवर्ती का भोजन करूं।' चक्रवर्ती बोला-'द्विजोत्तम! मेरा अन्न तुम पचा नहीं पाओगे। यह अन्न मेरे अतिरिक्त कोई नहीं पचा पाता। यह अन्न दूसरों में सम्यक् परिणत नहीं होता।' तब ब्राह्मण बोला-'राजन् ! Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ नियुक्तिपंचक आपकी इस राज्यलक्ष्मी को धिक्कार है कि आप अन्नदान देने में भी इतना सोच रहे हैं।' तब राजा ने आक्रोश वश उसे भोजन की अनुमति दे दी। अनुमति पाकर ब्राह्मण अपने परिवार सहित चक्रवर्ती के प्रासाद में गया। वहां सभी ने भोजन किया। ब्राह्मण अपने परिवार के साथ घर आ गया। रात्रि में अन्न की परिणति के कारण सभी में उन्माद व्याप्त हो गया। सभी परिजन काम-वेदना से आविष्ट होकर संबंधों को भूलकर, एक दूसरे के साथ अनाचार का सेवन करने लगे। अन्न का पूरा परिणमन हुआ। प्रात:काल ब्राह्मण तथा सभी परिजन अत्यन्त लज्जा का अनुभव करने लगे। वे एक दूसरे को मुंह दिखाने में भी समर्थ नहीं रहे । ब्राह्मण घर छोड़कर नगर के बाहर चला गया। वन की ओर जातेजाते ब्राह्मण ने सोचा-'राजा के साथ मेरा कोई वैर नहीं था। फिर बिना किसी निमित्त के राजा ने मेरी ऐसी विडम्बना क्यों की?' उसका मन ईर्ष्या और क्रोध से भर गया। वह वन में घूमता रहा। एक दिन उसने एक अजापालक को देखा, जो कंकरों से पीपल के पत्तों में छेद कर रहा था। कंकर ठीक निशाने पर लग रहे थे। 'यह मेरा विवक्षित कार्य करने में समर्थ है' यह सोचकर ब्राह्मण अजापालक के पास गया। सम्मान से दान-दक्षिणा देकर उसे प्रसन्न किया और उसको एकान्त में अपना अभिप्राय बता दिया। उसने तदनुरूप कार्य करना स्वीकार कर लिया। एक दिन वह अजापालक एक भीत की ओट में छिपकर खड़ा हो गया। राजा ब्रह्मदत्त अपने प्रासाद से उसी मार्ग पर कहीं जा रहे थे। अचूक निशानेबाज अजापालक ने निशाना साधा और एक साथ कंकर से उनकी दोनों आंखें उखाड़ दीं। अजापालक पकड़ा गया। राजा ने उससे पूरा वृत्तान्त जानकर ब्राह्मण को उसके पूरे परिवार सहित मरवा डाला। अन्यान्य ब्राह्मणों की घात करने के पश्चात् 'राजा ने मंत्री से कहा-'इन सबकी आंखें एक थाल में सजाकर मेरे सामने उपस्थित करो। मैं अपने हाथों से उन आंखों का मर्दन कर सुख का अनुभव करूंगा।' मंत्री ने सोचा-'राजा अभी क्लिष्ट कर्मोदय के वशीभूत है। मुझे कोई उपाय करना चाहिए।' उसने शाखोटक (सिहोड) वृक्ष के फलों को थाली में सजाकर राजा के सामने रखा। राजा क्रूर अध्यवसायों से अभिभूत था। वह उन फलों को मनुष्य की आंखें मानकर उनका मर्दन करता हुआ सुख का अनुभव करने लगा। कुछ दिन बीते। सात सौ सोलह वर्ष का आयुष्य पूरा कर, अत्यन्त रौद्र अध्यवसायों से मरकर वह सातवीं नरक में तेतीस सागर की आयुष्य वाला नैरयिक बना।' ५७. भृगु पुरोहित तेरहवें अध्ययन में वर्णित चित्र और संभूत के दो मित्र थे, जो ग्वाले थे। साधु के अनुग्रह से उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई। वे वहां से मरकर देवलोक में उत्पन्न हुए। वहां से च्यवन कर वे क्षितिप्रतिष्ठित नगर में एक सेठ के यहां उत्पन्न हुए। चार इभ्यपुत्र उनके मित्र थे। उन सबने युवावस्था में भोगों का उपभोग किया फिर स्थविर मुनि के प्रवचन से विरक्त होकर प्रव्रजित हो गए। चिरकाल तक संयम का पालन कर वे भक्तप्रत्याख्यान अनशन द्वारा सौधर्म देवलोक के पद्मगुल्म नामक विमान में चार पल्योपम की स्थिति वाले देव बने। दो ग्वालपुत्रों को छोड़कर शेष चारों मित्र वहां से च्युत हुए। उनमें एक कुरु जनपद के इषुकार नगर में इषुकार नामक राजा बना तथा दूसरा उसी राजा की १. उनि.३२५-३५२, उसुटी.प. १८५-९७ । Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५९७ पटरानी कमलावती बना। तीसरा उसी राजा का पुरोहित बना, जिसका नाम भृगु था तथा चौथा भृगु पुरोहित की पत्नी वाशिष्ठगोत्री यशा बना। भृगु पुरोहित के कोई पुत्र नहीं था। संतान के लिए दोनों पति-पत्नी चिंतामग्न रहते थे। संतान के लिए वे विविध देवताओं और नैमत्तिकों से उपाय पूछते रहते थे। __एक बार उन दोनों ग्वालपुत्रों ने देवभव में अवधिज्ञान से जाना कि वे भृगुपुरोहित के प होंगे। वे श्रमण का रूप बनाकर भृगु पुरोहित के पास आए। भृगु पुरोहित और यशा-दोनों ने उन्. वंदना की। श्रमण देवों ने उन दोनों को धर्म का उपदेश दिया। भृगु दम्पति ने श्रावक व्रत स्वीकार किए। भृगु ने पूछा-'भगवन् ! हमारे कोई पुत्र होगा या नहीं?' श्रमण युगल ने कहा-'तुम्हारे दो पुत्र होंगे लेकिन वे बाल्यावस्था में ही दीक्षित हो जाएंगे। उनकी प्रव्रज्या में तुमको कोई बाधा नहीं पहुंचानी है। वे दीक्षित होकर धर्मशासन की प्रभावना करेंगे और अनेक लोगों को प्रतिबुद्ध करेंगे।' इतना कहकर वे दोनों श्रमण वहां से चले गए। कुछ समय बाद दोनों देव पुरोहित-पत्नी के गर्भ में आए। दीक्षा के भय से पुरोहित नगर को छोड़कर व्रज गांव में जाकर बस गया। वहां पुरोहित-पत्नी ने दो पुत्रों को जन्म दिया। कुछ बड़े होने पर माता-पिता ने सोचा कि कहीं ये दीक्षित न हो जाएं अतः एक बार उसने कहा-'ये श्रमण धर्त और प्रेत-पिशाच रूप होते हैं। ये सन्दरसुन्दर बालकों को उठाकर ले जाते हैं और फिर उनका मांस खाते हैं अत: तुम कभी भी उनके पास मत जाना।' एक बार वे दोनों बालक खेलते-खेलते गांव के बाहर चले गए। कुछ साधु उसी मार्ग से आ रहे थे। वे दोनों बालक भयभीत हो गए और दौड़कर एक वृक्ष पर चढ़ गए। संयोगवश साधु भी उसी वृक्ष की सघन छाया में ठहरे । मुहूर्त भर विश्राम करके सभी साधु एक मंडली में भोजन करने लगे। बालकों को माता-पिता की शिक्षा स्मृति में आयी किन्तु उन्होंने देखा कि मुनि के पात्र में मांस जैसी कोई वस्तु नहीं है । साधुओं को अपने घर जैसा सामान्य भोजन करते देख बालकों का भय कम हुआ। उन्होंने सोचा-'अहो ! हमने ऐसे साधु अन्यत्र भी कहीं देखे हैं।' चिंतन करते-करते उन्हें जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। वे प्रतिबुद्ध हो गए। नीचे उतरकर उन्होंने साधुओं को वंदना की और वे अपने माता-पिता के पास आए। उन्होंने माता-पिता से कहा-'मनष्य जीवन अनित्य और विघ्नबहुल है, आयु छोटी है अत: हम दीक्षा स्वीकार करने की अनुमति चाहते हैं।' पिता ने उनको अनेक प्रकार से समझाने का प्रयत्न किया। वार्तालाप में पिता ने उन्हें ब्राह्मण संस्कृति से परिचित कराने का प्रयत्न किया किन्तु दोनों बालकों ने विस्तार से उन्हें श्रमण संस्कृति का ज्ञान कराया। अंत में पुरोहित भी संसार से विरक्त होकर प्रव्रज्या हेतु तैयार हो गया। उसने अपनी पत्नी को समझाया तो वह भी प्रतिबुद्ध हो गयी। इस प्रकार वे चारों-माता-पिता और दोनों पुत्र प्रव्रजित हो गए। उस समय राज्य का विधान था कि जिसके कोई उत्तराधिकारी नहीं होता, उसकी सम्पत्ति राजा की मान ली जाती थी। भृगु पुरोहित का सारा परिवार दीक्षित हो गया। राजा को जब यह बात ज्ञात हुई तो उसने सारी सम्पत्ति पर अधिकार करना चाहा। रानी कमलावती को जब यह बात मालूम पड़ी तो उसने राजा से कहा-'राजन् ! वमन को खाने वाले पुरुष की प्रशंसा नहीं होती। आप ब्राह्मण द्वारा परित्यक्त धन लेना चाहते हैं. यह वमन पीने जैसा है।' Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक रानी ने काम भोगों की असारता पर मार्मिक प्रकाश डाला। राजा का मन विरक्त हो उठा। राजा और रानी दोनों दीक्षित हो गए। कालान्तर में उन छहों को कैवल्य उत्पन्न हो गया और वे निर्वाण को प्राप्त हो गए। ५८. राजर्षि संजय ५%, काम्पिल्य नगर में संजय नाम का राजा राज्य करता था। एक बार वह मृगया के लिए निकला। उसके साथ चारों प्रकार की सेनाएं थीं। वह घोड़े पर सवार होकर केशर उद्यान में गया। वह मृगों को खदेड़ कर अपने साथ ले गया । एकत्रित मृगों को वह रसलोलुप राजा संत्रस्त कर मारने लगा। उस उद्यान में गर्दभालि अनगार ध्यान कर रहे थे। राजा ने सोचा यहां के मृगों को मारकर मैंने मुनि की आशातना की है। वह तत्काल घोड़े से उतरा और मुनि के पास गया। मुनि के पास बद्धाञ्जलि होकर वह बोला- 'भगवन् ! मुझे क्षमा करें।' मुनि मौन धारण किए हुए थे अतः कुछ नहीं बोले । राजा भयभीत हो गया। उसने सोचा- 'यदि मुनि क्रुद्ध हो गए तो वे अपने तेज से समूचे विश्व को नष्ट कर देंगे।' राजा ने पुनः कहा- 'मैं कांपिल्यपुर का राजा हूं। मेरा नाम संजय है। मैं आपकी शरण में आया हूं। आप मुझे अपने तपोजनित तेज से न जलाएं।' मुनि शांत भाव से बोले - ' राजन् ! मैं तुम्हें अभयदान देता हूं। तुम भी अभयदाता बनो । पानी के बुदबुदे के समान क्षणभंगुर इस जीवन में अपने मरण को जानकर भी तुम हिंसा में क्यों आसक्त बन रहे हो ?' राजा ने मुनि की धर्मदेशना सुनी और विरक्त हो गया । समग्र वैभव युक्त राज्य को छोड़कर उसने प्रव्रज्या स्वीकार कर ली । अनेक वर्षों तक तपश्चरण कर राजर्षि संजय सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए। ५९. मृगापुत्र सुग्रीव नगर में बलभद्र नाम का राजा राज्य करता था । उसकी अग्रमहिषी का नाम मृगावती था। उनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम बल श्री रखा गया। वह लोक में मृगापुत्र नाम से प्रसिद्ध हुआ । वह बुद्धिमान, वज्रऋषभसंहनन वाला तथा तद्भवमुक्तिगामी था । युवा होने पर उसका पाणिग्रहण हुआ । एक बार वह पत्नियों के साथ प्रासाद के झरोखे में बैठा क्रीड़ा कर रहा था । राजमार्ग से लोग आ जा रहे थे । स्थान-स्थान पर नृत्य संगीत की मंडलियां आयोजित थीं । एकाएक उसकी दृष्टि राजमार्ग पर मंदगति से चलते हुए निर्ग्रन्थ पर जा टिकी। मुनि श्रुत के पारगामी, धीर, गंभीर एवं तप, नियम और संयम के धारक थे। मुनि के तजोदीप्त ललाट, चमकते हुए नेत्रों तथा तपस्या से कृश शरीर को वह अनिमेष दृष्टि से देखता रहा । मुनि को देखकर 'पहले भी मैंने ऐसा रूप कहीं देखा है ' - यह विचार करते-करते उसे जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। जातिस्मृति से उसकी अतीत की सारी स्मृतियां ताजा हो गयीं। उसने जान लिया कि पूर्वभव में वह श्रमण था । उसका मन संसार १. उनि ३५६ - ६६, उशांटी. प. ३९५, ३९६, उसुटी.प. २०४, २०५ २. उनि ३८८-३९८ । Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं से विरक्त हो गया। वह अपने माता-पिता के पास आकर बद्धाञ्जलि बोला-'पिताजी ! मैं प्रव्रजित होना चाहता हूं। यह शरीर अनित्य है, अशुचिमय है, दु:ख और क्लेशों का भाजन है । इसे आज या कल छोड़ना ही होगा। इन काम-भोगों को मैं अभी छोड़ना चाहता हूं।' माता-पिता ने अनेक तर्कों से उसे श्रामण्य जीवन की कठोरता से अवगत कराया। लेकिन जब उन्होंने देखा कि इसका संकल्प दृढ़ है तो उन्होंने कहा-'पुत्र! तुम धन्य हो, जो सुख-सामग्री की विद्यमानता में विरक्त बने हो। तुम सिंह की भांति अभिनिष्क्रमण कर सिंह-वृत्ति से ही श्रामण्य का पालन करना। धर्म की कामना रखते हुए कामभोगों से विरक्त होकर विहरण करना। वत्स! तुम ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, संयम, नियम, क्षांति, मुक्ति आदि से सदा वर्धमान रहना।' संवेगजनित हर्ष, से बलश्री ने माता-पिता के आशीर्वाद को स्वीकार किया। पवित्रता से श्रामण्य का पालन किया और अंत में सिद्ध, बुद्ध और मुक्त बन गया।' ६०. समुद्रपाल चंपा नगरी में पालित नामक सार्थवाह रहता था। वह वीतराग भगवान महावीर का अनुयायी था। निर्ग्रन्थ प्रवचन में उसकी दृढ़ श्रद्धा थी। वह सामुद्रिक व्यापारी था अतः दूर-दूर तक उसका व्यापार फैला हुआ था। एक बार वह यानपात्र पर आरूढ़ होकर घर से निकला। वह गणिम-सुपारी तथा धरिम-स्वर्ण आदि से भरे जहाज को लेकर पिहुंड नगर पहुंचा। क्रय-विक्रय हेतु वह वहां कई दिनों तक रहा। नगरवासियों से उसका परिचय बढ़ा और एक सेठ ने अपनी पुत्री के साथ उसका विवाह कर दिया। __कुछ दिन वहां रहकर वह पत्नी को लेकर स्वदेश की ओर चल पड़ा। उसकी पत्नी गर्भवती हुई। समुद्र-यात्रा के बीच ही उसने एक सुन्दर और लक्षणोपेत बालक को जन्म दिया। समुद्र में जन्म लेने के कारण उसका नाम समुद्रपाल रखा गया। पालित श्रावक सकुशल अपने घर पहुंचा। शिशु समुद्रपाल पांच धायों के बीच बड़ा होने लगा। उसने बहत्तर कलाएं सीखीं। वह न्याय-नीति में निपुण हो गया। यौवन में प्रवेश कर वह अत्यधिक सुन्दर दिखाई देने लगा। युवावस्था में पिता ने रूपिणी नामक कन्या के साथ उसका विवाह कर दिया। वह स्त्रियों के चौंसठ गुणों से युक्त तथा देवांगना के समान सुन्दर थी। समुद्रपाल रूपिणी के साथ पुंडरीक भवन में क्रीड़ारत रहता था। एक बार वह प्रासाद के गवाक्ष में बैठा नगर की शोभा देख रहा था। उसने देखा कि राजपुरुष एक वध्य को वधभूमि में ले जा रहे हैं। वह व्यक्ति लाल वस्त्र पहने हुए था। उसके गले में लाल कनेर की मालाएं थीं। यह सब देख कुमार का मन संवेग से भर गया। 'अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है और बुरे कर्मों का फल बुरा होता है।' इस चिंतन से उसका मार्ग स्पष्ट हो गया। संबोध प्राप्त कर समुद्रपाल उत्कृष्ट वैराग्य से संपृक्त हो गया। प्रख्यात यश-कीर्ति वाले उस कुमार ने माता-पिता की आज्ञा लेकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। अनेक वर्षों तक तपश्चर्या द्वारा कर्मों का क्षय कर वह सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गया। १. उनि.४०२-४१५। २. उनि.४२५-३६। Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० नियुक्तिपंचक ६१. रथनेमि-राजीमती एक सन्निवेश में ग्रामाधिपति के पुत्र का नाम धन था। मामा की पुत्री धनवती उसकी पत्नी बनी। एक बार ग्रीष्म-काल के मध्याह्न में वे किसी प्रयोजनवश अरण्य में गए। वहां उन्होंने भूखप्यास एवं परिश्रम से व्याकुल, कृश शरीर वाले एक मुनि को देखा, जो पथ भूल गए थे और मूर्च्छित से पृथ्वी पर पड़े थे। इस दयनीय अवस्था में मुनि को देखकर दम्पत्ति ने सोचा कि यह कोई तपस्वी है। करुणा से ओत-प्रोत धन ने मुनि पर जल के छींटे डाले। उनके शरीर पर कपडे से हवा की। धन ने मुनि के शरीर का मर्दन भी किया। जब मुनि स्वस्थ हुए तब धन उन्हें अपने गांव लेकर आ गया। आहार आदि से उनकी सेवा की। मनि भी उसे उपदेश देते हए बोले-'इस दुःख प्रचुर संसार में दूसरों का हित अवश्य करना चाहिए। यदि शक्य हो तो तुम मांस, मद्य, शिकार आदि व्यसनों से निवृत्त हो जाओ क्योंकि ये दोषबहुल हैं।' मुनि ने और भी अनेक प्रकार के त्यागप्रत्याख्यान की बात कही। धन को धर्म में स्थिर करके साधु ने वहां से विहार कर दिया। वह भी साधु के द्वारा बताए अनुष्ठान का विधिपूर्वक पालन करने लगा। उसने तपस्वी के प्रति वात्सल्य से महान् पुण्य का बंध किया। कालान्तर में धन एवं उसकी पत्नी ने यतिधर्म स्वीकार कर लिया। दिवंगत होकर धन सौधर्म देवलोक में सामानिक देव बना और उसकी पत्नी उसकी मित्र बनी। वहां दिव्य सुख का अनुभव करके देवलोक से च्यवन कर धन वैताढ्य में सूरतेज विद्याधर राजा का पुत्र बना। उसका नाम चित्रगति रखा गया। धनवती भी सूर राजा की रत्नवती कन्या बनी। कालान्तर में वह उसी की पत्नी बनी। मुनि धर्म का पालन कर चित्रगति माहेन्द्र देवलोक में सामानिक देव बना तथा उसकी पत्नी उसकी मित्र बनी। वहां से च्युत होकर वह अपराजित नाम का राजा बना और वह उसकी पत्नी बनी, जिसका नाम प्रियमती था। श्रमण धर्म का पालन कर वे आरणक कल्प में देव बने और पत्नी उसकी मित्र बनी। वहां से च्युत होकर वह शंख नामक राजा बना और वह यशोमती नाम से उसकी पत्नी बनी। शंख ने मुनि धर्म स्वीकार किया। अर्हद्-भक्ति आदि हेतु से उसने तीर्थंकर नाम गोत्र न किया तथा अपराजित विमान में उत्पन्न हए। यशोमती भी साधधर्म का पालन करने से वहीं उत्पन्न हुई। सोरियपुर नगर में दश दशारों में ज्येष्ठ राजा समुद्रविजय राज्य करते थे। उनकी पटरानी का नाम शिवा था। उसके चार पुत्र थे-अरिष्टनेमि, रथनेमि, सत्यनेमि और दृढ़नेमि । कार्तिक कृष्णा बारस को धन का जीव शिवा रानी के गर्भ में आया। गर्भकाल में माता ने 14 महास्वप्न देखे । उचित समय पर श्रावण शुक्ला पंचमी के दिन शिवा देवी ने पत्र-रत्न को जन्म दिया। दिग-कमारियों ने जन्म-अभिषेक महोत्सव मनाया तथा राजा समुद्रविजय ने वर्धापनक समारोह का आयोजन किया। स्वप्न में रिष्ट रत्नमय नेमि देखे जाने के कारण पुत्र का नाम अरिष्टनेमि रखा गया। अरिष्टनेमि आठ वर्ष के हुए। इसी बीच कृष्ण ने कंस का वध कर दिया। महाराज जरासंध यादवों पर कुपित हो गए। जरासंध के भय से सभी यादव पश्चिमी समुद्र-तट पर चले गए। वहां केशव द्वारा आराधित वैश्रमण देव द्वारा निर्मित, स्वर्णमयी, बारह योजन लम्बी एवं नौ योजन चौड़ी द्वारवती नगरी में वे Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं सुखपूर्वक रहने लगे। कालान्तर में बलराम और केशव ने जरासंघ को मार दिया और वे अर्धभरत के राजा बन गए । अरिष्टनेमि युवा होने पर भी विषयों से पराङ्मुख रहते थे । वे सभी यादवों के प्रिय थे । ६०१ एक बार अरिष्टनेमि कौतुकवश श्रीकृष्ण की आयुधशाला में पहुंच गए। वहां उन्होंने अनेक देवाधिष्ठित आयुध देखे । अरिष्टनेमि ने दिव्य कालपृष्ठ उठाया। उसे देखकर आयुधशाला का रक्षक बोला- ' कुमार ! यह क्या? स्वयंभूरमण समुद्र को भुजाओं से तैरने की भांति इस धनुष्य का संचालन आपके लिए अशक्य अनुष्ठान है । श्रीकृष्ण के अतिरिक्त तीनों लोक में कोई भी इस धनुष्य को संचालित करने में समर्थ नहीं है। हंसते हुए अरिष्टनेमि ने आयुधशाला - पालक की अवहेलना करते हुए उस धनुष को उठाकर प्रत्यंचा को आस्फालित किया। उसकी ध्वनि से पृथ्वी कांप उठी । पर्वत हिलने लगे। जलचर, थलचर और खेचर आदि पशु-पक्षी संत्रस्त होकर इधर-उधर पलायन करने लगे। आयुधशाला - रक्षक विस्मित हो गया । रक्षकों द्वारा निषेध करने पर भी अरिष्टनेमि ने कालपृष्ठ धनुष को नीचे रखकर पाञ्चजन्य शंख हाथ में उठाया और उसे कुतूहलवश बजा डाला। शंख के शब्द से सारा संसार बहरा जैसा हो गया। देवता, असुर तथा मनुष्यों के हृदय भी कंपित हो गये । विशेषत: द्वारका नगरी सम्पूर्ण रूप से कांप उठी। कृष्ण ने सोचा---' यह प्रलयंकारी ध्वनि कहां से उठी है?' आयुधपाल ने सारी बात श्रीकृष्ण को बताई । श्रीकृष्ण विस्मित हो गए । अरिष्टनेमि के सामर्थ्य को जानकर श्रीकृष्ण ने बलदेव से कहा- 'यह बालक होते हुए भी इतना शक्ति सम्पन्न है, जब यह बड़ा होगा तो राज्य को खतरा हो जाएगा।' बलदेव ने कहा- 'तुम्हारी यह चिंता व्यर्थ है । केवली भगवान् ने कहा है कि अरिष्टनेमि बावीसवें तीर्थंकर और तुम नौंवे वासुदेव बनोगे । ' एक बार श्रीकृष्ण अरिष्टनेमि से उद्यान में मिले और बोले- -'कुमार! अपने-अपने बल की परीक्षा के लिए हम बाहुयुद्ध करें।' अरिष्टनेमि ने कहा- 'इस निंदनीय बाहुयुद्ध को करने से क्या लाभ है? हम वाग्युद्ध करेंगे। दूसरी बात यह भी है कि मैं आपसे छोटा हूं यदि आपको हरा दूंगा तो इससे आपकी अपकीर्ति होगी। श्रीकृष्ण ने कहा- 'मनोरंजन के लिए किए जाने वाले युद्ध में कैसी अपकीर्ति?' अरिष्टनेमि ने अपनी वाम बाहु फैलाई और कहा कि यदि तुम इसे झुका दोगे तो तुम जीत जाओगे। श्रीकृष्ण बाहु को आंदोलित करना तो दूर किंचित् मात्र भी हिला नहीं सके । श्रीकृष्ण की राज्यहरण की चिंता दूर हो गयी । यौवन प्राप्त होने पर एक दिन श्रीकृष्ण ने समुद्रविजय को कहा- ' -'कुमार का शीघ्र विवाह कर दिया जाए, जिससे यह शीघ्र ही भोगों में फंस जाए।' रुक्मिणी, सत्यभामा आदि ने भी यथावसर कुमार से कहा- ' -' त्रिभुवन में आप जैसा रूप किसी का नहीं है । निरुपम सौभाग्य से युक्त स्वस्थ शरीर है अतः दुर्लभ मनुष्य जन्म एवं यौवन का लाभ लेने के लिए विवाह करो।' नेमिनाथ ने हंसते हुए कहा- 'तुच्छ काम-भोगों से मनुष्यजन्म की सार्थकता नहीं होती । एकान्तशुद्ध, निष्कलंक एवं निरुपमसुख वाली शाश्वती सिद्धि से ही जीवन की सफलता है। मैं सिद्धि के लिए ही यत्न करूंगा।' श्री कृष्ण ने कहा- ' -'कुमार! ऋषभ आदि तीर्थंकरों ने भी पहले विवाह किया। सन्तानोत्पत्ति के पश्चात् पश्चिम वय में प्रव्रजित होकर मोक्ष को प्राप्त किया अत: तुम भी दारसंग्रह करके Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ नियुक्तिपंचक दशारचक्र के मनोरथ को पूरा करो।' अरिष्टनेमि ने भवितव्यता जानकर श्रीकृष्ण की बात स्वीकार कर ली। दशारचक्र इस बात को सुनकर हर्षित हो गए। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा-'कुमार के अनुरूप कन्या की अन्वेषणा करो।' भोज कुल के राजन्य उग्रसेन की पुत्री राजीमती को अरिष्टनेमि के योग्य समझ विवाह का प्रस्ताव रखा। मूल धनवती का जीव अपराजित विमान से च्युत होकर राजीमती के रूप में उत्पन्न हुआ था। अनुरूप संबंध देखकर उग्रसेन ने अनुग्रह मानकर विवाह की स्वीकृति दे दी। दोनों कुलों में वर्धापन हुआ। शुभ मुहूर्त में विवाह-महोत्सव का आयोजन हुआ। विवाह से पूर्व के सारे कार्य सम्पन्न हुए। राजीमती को अलंकृत किया गया। कुमार भी अलंकृत होकर बारात के साथ मत्त हाथी पर आरूढ़ हुए। बलदेव, वासुदेव के साथ सभी दशार एकत्रित हुए। बाजे बजने लगे। शंख-ध्वनि होने लगी तथा मंगलदीप जलाए गए। चंवर डुलने लगे। जनसमूह के साथ वरयात्रा विवाह-मंडप के पास आई। राजीमती भी नेमिकुमार को देखकर हर्षविभोर हो गयी। उसी समय अरिष्टनेमि के कानों में क्रन्दन भरे शब्द सुनाई पड़े। उन्होंने सारथी से पूछा-'ये करुण क्रंदन युक्त शब्द कहां से आ रहे हैं?' सारथी ने कहा-'देव ! ये करुणा भरे शब्द पशुओं के हैं। ये आपके विवाह में सम्मिलित होने वाले अतिथियों के लिए भोज्य बनेंगे।' अरिष्टनेमि ने कहा-'यह कैसा आनन्द ! जहां हजारों मूक और दीन निरपराध प्राणियों का वध किया जाता है। ऐसे विवाह से क्या जो संसार-परिभ्रमण का हेतु बनता है?' ऐसा कहकर अरिष्टनेमि ने हाथी को अपने निवास स्थान की ओर मोड़ दिया। सारथी ने नेमिकुमार के अभिप्राय को जानकर प्राणियों को मुक्त कर दिया। नेमिकुमार को विरक्त और मुड़ते देखकर राजीमती मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी। सखियों ने ठण्डा जल छिड़का, पंखा झला। चेतना प्राप्त करके राजीमती विलाप करने लगी। सखियों ने समझाया कि विलाप करना व्यर्थ है अत: तुम धैर्य धारण करो। राजीमती बोली-'सखियों! आज स्वप्न में देव, दानवों से घिरा हुआ एक दिव्य पुरुष द्वार पर खड़ा दिखाई दिया जो ऐरावत हाथी पर आरूढ था। तत्क्षण वह सुमेरु पर्वत पर चढ गया और सिंहासन पर बैठ गया। अ वहां आए, मैं भी वहां गयी। वह शारीरिक और मानसिक दुःखों को दूर करने वाले कल्पवृक्ष के चार-चार फल सबको दे रहा था।' मैंने कहा-'भगवान् ! मुझे भी ये फल दें। मुझे भी उन्होंने वे फल दिए। इसके बाद मेरी नींद खुल गयी। सखियों ने कहा-'प्रिय सखी! वतर्मान में कट लगने पर भी यह स्वप्न परिणाम में सुन्दर फल देने वाला है।' इधर इन्द्र का आसन चलित हुआ। लोकान्तिक देवों ने अरिष्टनेमि को प्रतिबोध दिया कि सब प्राणियों के हित के लिए आप तीर्थ का प्रवर्तन करें। नेमिकुमार अपने माता-पिता के पास गए और प्रव्रज्या की आज्ञा मांगी। माता-पिता मोह से विलाप करने लगे। राजीमती के साथ पाणिग्रहण करने का आग्रह किया। अरिष्टनेमि ने अपने माता-पिता को समझाते हुए कहा-'तात ! आप मानसिक संताप न करें। यह यौवन अस्थिर है, ऋद्धियां चंचल हैं, संध्याभ्र के समान पिता, पुत्र एवं स्वजनों का संयोग क्षणभंगुर है अतः मुझे संसार रूपी अग्नि से बाहर निकलने की अनुमति प्रदान करें।' दशारचक्र ने बद्धाञ्जलि प्रार्थना की-'कुमार ! कुछ समय प्रतीक्षा करो उसके बाद तुम प्रव्रज्या Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं स्वीकार कर लेना ।' अरिष्टनेमि ने सांवत्सरिक महादान के निमित्त से एक वर्ष तक घर में रहना स्वीकार कर लिया । नेमिकुमार ने महादान प्रारम्भ कर दिया। एक वर्ष पूरा होने पर माता-पिता की आज्ञा से श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन सहस्राम्र वन के उद्यान में देव और मनुष्यों की परिषद् में बेले की तपस्या में अरिष्टनेमि ने स्वयं पंचमुष्टि लोच किया। वे तीन सौ वर्ष तक अगारवास में रहे । अब रथनेमि राजीमती के पास आने-जाने लगे। उन्होंने कहा - 'सुतनु ! तुम विषाद मत करो । अरिष्टनेमि तो वीतराग हैं। वे विषयानुबंध करना नहीं चाहते। अब तुम मुझे स्वीकार करो । मैं जीवन भर तुम्हारी आज्ञा का पालन करूंगा।' राजीमती ने उत्तर देते हुए कहा- 'यद्यपि मैं नेमिनाथ के द्वारा परित्यक्ता हूं फिर भी मैं उनको नहीं छोडूंगी। मैं उनकी शिष्या बनना चाहती हूं इसलिए तुम इस अनुबंध का त्याग कर दो।' ६०३ कुछ दिनों बाद रथनेमि ने पुनः भोगों की प्रार्थना की। राजीमती का मन काम-भोगों से निर्विण्ण हो चुका था । उसे रथनेमि की प्रार्थना अनुचित लगी। उसे प्रतिबोध देने के लिए राजीमती ने मधु- घृत संयुक्त पेय पीया । फिर उसके सामने मदनफल खाकर वमन किया। वमन को एक स्वर्ण कटोरे में भर रथनेमि को उसे पीने के लिए कहा । रथनेमि ने कहा- 'वमन किए हुए को मैं कैसे पीऊं?' राजीमती ने कहा- 'क्या तुम इस बात को वास्तविक रूप में जानते हो ?' रथनेमि ने कहा--' इस बात को तो एक बालक भी जानता है।' राजीमती ने कहा- 'यदि यह बात है तो मैं भी अरिष्टनेमि द्वारा वान्त हूं। मुझे स्वीकार करना क्यों चाहते हो? धिक्कार है तुम्हें जो वान्त वस्तु को पीने की इच्छा करते हो। इससे तो तुम्हारा मरना श्रेयस्कर है।' रथनेमि जागृत होकर आसक्ति से उपरत हो गए। राजीमती दीक्षा की भावना से विविध प्रकार की तपस्या से शरीर को कृश करने लगी । भगवान् अरिष्टनेमि ५४ दिन अन्यत्र विचरण करके रेवन्तगिरी के सहस्राम्र वन के उद्यान में आए। आसोज की अमावस्या को शुभ अध्यवसायों द्वारा तेले की तपस्या में भगवान् को कैवल्य उत्पन्न हो गया । राजीमती ने स्वप्न में जिस दिव्य पुरुष को चार फल देते हुए देखा, वह स्वप्न साकार हो गया क्योंकि उसे कल्पवृक्ष के चार फलों की भांति चार महाव्रत (चातुर्याम धर्म) मिल गए। एक बार भगवान् अरिष्टनेमि रेवतक पर्वत पर समवसृत थे। साध्वी राजीमती अनेक साध्वियों के साथ भगवान् को वंदना करने आई। अचानक रास्ते में भयंकर वर्षा प्रारम्भ हो गयी। साथ वाली साध्वियां इधर-उधर गुफाओं में चली गयीं। राजीमती भी एक शून्य गुफा में प्रविष्ट हुई। वर्षा के कारण नियतिवश मुनि रथनेमि पहले से ही वहां बैठे हुए थे । अंधकार के कारण राजीमती को मुनि दिखाई नहीं दिए। राजीमती ने सुखाने के लिए अपने कपड़े फैलाए । राजीमती का निरावरण शरीर देखकर रथनेमि का मन विचलित हो गया। अचानक राजीमती ने रथनेमि को देख लिया । शीघ्र ही बाहों से अपने शरीर को ढंकती हुई वह वहीं बैठ गई । रथनेमि ने कहा- 'मैं तुम्हारे में अत्यन्त अनुरक्त हूँ । तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकता अतः अनुग्रह करके मुझे स्वीकार करो और मेरी मनोकामना पूर्ण करो। फिर मानसिक समाधि होने पर हम दोनों पुनः संयम मार्ग स्वीकार कर लेंगे।' राजीमती ने साहसपूर्ण शब्दों में कहा - ' आप उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हैं। व्रत का इस प्रकार Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक भंग करना क्या आपके लिए उचित है? महापुरुष अपना जीवन छोड़ देते हैं लेकिन प्रतिज्ञा का लोप नहीं करते। इसलिए मन में विषयों के दारुण विपाकों का चिंतन करके जीवन की अस्थिरता का चिंतन करो।' राजीमती के प्रतिबोध से रथनेमि संबुद्ध हो गया । उपकारी मानकर राजीमती का अभिनंदन कर वह अपने मांडलिक साधुओं के पास चला गया। राजीमती भी आर्यिकाओं के पास चली गयी। अरिष्टनेमि भगवान ने ५४ दिन कम ७०० वर्ष तक केवली पर्याय का पालन किया। अनेक भव्य जीवों को प्रतिबोधित करके एक हजार वर्ष का आयुष्य पूर्ण करके आषाढ़ शुक्ला अष्टमी को रेवतपर्वत पर एक मास की तपस्या में पांच सौ छत्तीस श्रमणों के साथ सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए। रथनेमि और राजीमती भी सिद्ध हो गए। ६२. जयघोष - विजयघोष ६०४ वाराणसी नगरी में जयघोष और विजयघोष नामक दो ब्राह्मण काश्यपगोत्री थे। वे पट्कर्म में रत तथा चार वेदों के अध्येता थे। वे दोनों युगल रूप में जन्मे। एक बार जयघोष मुनि स्नान हेतु गंगा नदी के तट पर गया। वहां उसने सर्प द्वारा मेंढक को निगलते देखा। इतने में मार्जार-कुरर पक्षी वहां आया और सर्प को खाने लगा। कुरर द्वारा पकड़े जाने पर भी सांप मेंढ़क को खाने लगा । कम्पायमान सर्प को खाने में कुरर पक्षी आसक्त था । आपस के घात - प्रत्याघात को देखकर जयघोष मुनि प्रतिबुद्ध हो गया। गंगा को पार करके वह साधुओं के पास गया और वहां श्रमण बन गया । एक बार जयघोष मुनि ने एकरात्रिकी प्रतिमा स्वीकार की। ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए वे बनारस पहुंचे। उनके मासखमण का पारणा था अतः भिक्षा के लिए वे नगर में गए। उस दिन ब्राह्मण विजयघोष ने यज्ञ प्रारम्भ किया । दूर-दूर से बुलाए गए ब्राह्मणों के लिए विविध प्रकार की भोज्य-सामग्री तैयार की गयी। मुनि जयघोष भिक्षा हेतु यज्ञवाट में पहुंचे। वहां उन्होंने भिक्षा की याचना की । विजयघोष ने कहा- 'तुम वेदों और यज्ञ-विधि को नहीं जानते अतः तुम्हें भिक्षा नहीं मिलेगी । ' जयघोष मुनि ने यह बात सुनी। भिक्षा हेतु निषेध करने पर भी मुनि समचित्त रहे। उन्होंने भिक्षा हेतु नहीं अपितु याजकों को सही ज्ञान कराने के लिए कई नए तथ्य प्रकट किए। ब्राह्मण शब्द के नए अर्थ किए। जयघोष की प्रेरणा से विजयघोष भी सम्बुद्ध हो गया और उनके पास प्रव्रजित हो गया। आचारांग - निर्युक्ति की कथाएं १. जातिस्मरण (क) बसन्तपुर नगर का राजा जितशत्रु अपने पुत्र धर्मरुचि को राज्य सौंपकर तापस दीक्षा लेना चाहता था। धर्मरुचि ने माँ से पूछा- 'माँ ! पिताजी राज्यश्री को क्यों छोड़ रहे हैं ?' मां ने कहा- 'राज्य नरक आदि दुःखों का हेतुभूत है। इसे छोड़ तुम्हारे पिता शाश्वत सुख पाना चाहते हैं ।' पुत्र ने कहा—'यदि यह यथार्थ है तो मुझे इसमें क्यों फंसाया जा रहा है? मैं भी प्रव्रजित हो जाऊंगा।' वह १. उनि ४४०-४४, उसुटी. प. २७७-८२ । २. उनि ४६० - ७६, उसुटी. प. ३०५ । Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ६०५ पिता के साथ प्रवजित होकर तापस बन गया और तापस क्रियाओं का यथावत् पालन करने लगा। एक दिन एक तापस ने आश्रम में घोषणा की कि कल अनाकुट्टी होगी इसलिए आज ही समिधा कुसुम, कन्द, फल-फूल आदि ले आएं। यह सुनकर धर्मरुचि तापस ने अपने पिता तापस से पूछा-'तात! यह अनाकुट्टी क्या है?' पिता तापस ने कहा-'अमावस्या आदि पर्व दिनों में कन्द,फल आदि का छेदन नहीं करना चाहिए। यह हिंसायुक्त क्रिया है।' यह सुनकर धर्मरुचि तापस ने सोचा कि यदि सदा के लिए अनाकुट्टी की जाए तो वह श्रेष्ठ है। एक बार अमावस्या के दिन आश्रम के निकटवर्ती मार्ग से विहार करते हुए साधुओं को उसने देखा। उनको देखकर धर्मरुचि तापस ने पूछा-'क्या आज आपके अनाकुट्टी नहीं है? आज आप अटवी में क्यों जा रहे हैं?' मुनि बोले-'हमारे तो यावज्जीवन ही अनाकुट्टी है।' यह कहकर मुनि आगे प्रस्थान कर गए। तापस धर्मरुचि ईहा, अपोह और विमर्श में निमग्न हो गया। चिंतन करतेकरते उसे जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने जान लिया कि पूर्वजन्म में वह श्रामण्य का पालन कर देवलोक में सुखों का अनुभव कर यहां उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार उसने अपने जातिस्मरण ज्ञान से विशिष्ट दिशा से आगमन की बात जान ली। २. जातिस्मरण (ख) गणधर गौतम ने भगवान से पूछा-'मुझे केवलज्ञान की प्राप्ति क्यों नहीं होती?' भगवान ने कहा-'तुम्हारा मुझ पर अतीव स्नेह है, इसलिए कैवल्य का लाभ नहीं हो रहा है।' गौतम ने पूछा-'यह स्नेह क्यों है?' भगवान ने कहा-'गौतम अनेक जन्मों से हम दोनों का संबंध रहा है, यही स्नेह का कारण है।' गौतम को तब विशिष्ट दिशा से आगमन का ज्ञान हो गया। यह तीर्थंकर के कथन से होने वाला ज्ञान है? ३. जातिस्मरण (ग) मल्लिकुमारी ने विवाह के लिए समागत छह राजपुत्रों को जन्मान्तर का वृत्तान्त सुनाते हुए कहा-'हम सभी एक साथ प्रव्रजित हुए थे और एक साथ जयन्त विमान देवलोक में सुखानुभव किया था।' यह सुनकर वे छहों प्रतिबुद्ध हो गए और उन्हें विशिष्ट दिशा से आगमन का विज्ञान प्राप्त हो गया। यह अन्य श्रवण से उत्पन्न ज्ञान का उदाहरण है।' ४. दृष्टि का महत्व उदयसेन राजा के वीरसेन और सूरसेन नामक दो पुत्र थे। वीरसेन अंधा था। उसने गान्धर्व (गायन) आदि कलाएं सीख लीं। सूरसेन धनुर्विद्या आदि कलाओं में निपुण हो गया तथा लोक में उसकी प्रसिद्धि हो गयी। यह सुनकर वीरसेन ने राजा को निवेदन किया कि मैं भी धनुर्विद्या का अभ्यास करूंगा। राजा ने उसके आग्रह को देखकर धनुर्विद्या सीखने की आज्ञा दे दी। उपयुक्त उपाध्याय के उपदेश तथा अपनी प्रज्ञा के अतिशय से वह शब्दवेधी धनुर्धर बन गया। युवावस्था प्राप्त होने पर उसने राजा से शत्रु-सेना के साथ युद्ध की आज्ञा मांगी। राजा ने अनुमति दे दी। वह शत्रु १-३.आनि.६४, आटी.पृ. १४ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक सेना के साथ लड़ने निकल पड़ा। शत्रु सैनिकों ने बिना हो हल्ला किए उसे अंधा समझकर पकड़ लिया । वह शब्दवेधी धनुर्धर होने पर भी अंधत्व के कारण कुछ नहीं कर सका। सूरसेन को यह ज्ञात हुआ। उसने राजा से आज्ञा प्राप्त की और अपनी धनुर्विद्या के बल से शत्रु सेना को अवष्टम्भित कर वीरसेन को मुक्त करा लिया । ५. सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ६०६ पाटलिपुत्र नगर में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उसके मंत्री का नाम रोहगुप्त था । वह जैन दर्शन का अच्छा ज्ञाता था। एक बार राजा जब सभामण्डप में उपस्थित हुआ तब उसने सभासदों के सम्मुख एक प्रश्न उपस्थित किया कि कौन-सा धर्म सबसे अच्छा है? प्रश्न के उत्तर में सभी ने अपने-अपने धर्मों की प्रशंसा की। मंत्री अभी तक चुप बैठा था। राजा ने मंत्री से पूछा - 'मंत्रिवर! आप अभी तक चुप कैसे बैठे हैं?' मंत्री ने कहा- 'राजन् ! जिस व्यक्ति को जो धर्म अच्छा लगता है, वह उस धर्म की प्रशंसा करेगा। इसलिए इससे किसी भी धर्म की अच्छाई का निर्णय नहीं किया जा सकता। यदि आपको इस जिज्ञासा का समाधान खोजना है तो स्वयं इसकी परीक्षा करें ।' राजा को यह सुझाव पसंद आया। उसने "सकुंडलं वा वयणं न व त्ति" संस्कृत के इस एक चरण को लिखवाकर नगर के मध्य लटका दिया। इसके बाद सभी धर्मावलम्बियों को सूचित किया कि जो इस चरण की पूर्ति करेगा उसको राजा यथेप्सित पुरस्कार देगा तथा उसका भक्त बन जाएगा। सभी धर्मावलम्बी सातवें दिन राजा के समक्ष समस्या-पूर्ति को लेकर उपस्थित हुए। सर्वप्रथम परिव्राजक ने बोलना शुरू किया भिक्खं पविद्वेण मएज्ज दिट्ठ, पमदामुहं कमलविसालनेत्तं । वक्खत्तचित्तेण न सुटु नायं, सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ॥ राजा ने इस गाथा को सुनकर कहा कि यह वीतरागता की सूचक नहीं है अतः उसका तिरस्कार करके उसे बाहर निकाल दिया। उसके बाद तापस ने अपनी समस्यापूर्ति पढ़नी शुरू की फलोदणं म्हि गिहं पविट्ठो, तत्थासणत्था पमदा मि दिट्ठा । वक्खित्तचित्तेण न सुट्टु नायं, सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ॥ उसके पश्चात् बौद्ध भिक्षु ने अपनी बात कहनी प्रारम्भ की मालाविहारम्मि मएज दिट्ठा, उवासिया कंचणभूसियंगी। वक्खित्तचित्तेण न सुट्टु नायं, सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ॥ इस प्रकार और भी अनेक धर्मावलम्बियों ने अपनी-अपनी दृष्टि से पाद पूर्ति की । जैन मुनि वहां उपस्थित नहीं थे। राजा ने अमात्य से पूछा कि जैन भिक्षु यहां उपस्थित क्यों नहीं हुए? मंत्री ने निवेदन किया- - 'राजन्! मैं खोजकर आपके समक्ष जैन साधुओं को प्रस्तुत करूंगा।' मंत्री ने राजकर्मचारियों को आदेश दिया कि जैन मुनियों को खोजो। उसी समय एक बालमुनि भिक्षा के १. आनि. २२०, आटी. पृ. ११८ । Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ६०७ लिए प्रविष्ट हुआ। बालमुनि को वह चरण बताया गया। उसने समस्या की पूर्ति करते हुए कहा खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स, अज्झप्पजोगे गयमाणसस्स। किं मज्झ एएण विचिंतिएणं, सकुंडलं वा वयणं न व ति॥ इस गाथा को सुनकर राजा मुनि की शांति और वीतरागता से बहुत प्रसन्न हुआ। राजा ने बालमुनि को निवेदन किया कि आप मुझे धर्म की शिक्षा दें। बालमुनि ने दो मिट्टी के गोले भीत की ओर फेंके। राजा ने जिज्ञासा की कि इसका तात्पर्य क्या है? मुनि ने राजा को प्रतिबोधित करते हुए कहा-'राजन् ! मिट्टी के दो गोले सूखे और गीले को यदि भींत पर फेंका जाए तो गीला वहां चिपक जायेगा लेकिन सूखा गोला वापिस नीचे गिर जाएगा। इसी प्रकार कामभोगों के कीचड़ से जिसका मन आई है, वह कर्म-परमाणुओं को निरन्तर ग्रहण करता रहता है। इसके विपरीत जो वीतराग है, वह सूखे गोले की भांति कर्मरजों से लिप्त नहीं होता। धर्म का मर्म समझकर राजा ने श्रावकव्रत स्वीकार किए। धर्मबोध देकर मुनि वापिस लौट गए। उसी समय मंत्री रोहगुप्त ने राजा से कहा-'राजन् ! जितने भी अन्य धर्मावलम्बियों ने समस्या-पूर्ति की, उन सबके चित्त विक्षिप्त थे। किसी का भिक्षा के कारण तथा किसी का उपासिका के कारण क्योंकि उनकी वीतरागता की साधना नहीं सधी थी। जैन साधु वीतरागता की साधना करते हैं, परमार्थतः यही मोक्ष का मार्ग है।' राजा को अपने प्रश्न का समाधान मिल गया। ६. आर्य वज्र का अनशन एक बार आर्य वज्र स्वामी अपने कानों पर सूंठ का गांठिया रखकर भूल गए। उन्हें अपने प्रमाद की अवगति हुई। उन्होंने जान लिया कि मरण सन्निकट है। वे उस समय शारीरिक शक्ति से सम्पन्न थे फिर भी उन्होंने "रथावर्त शिखरिणी" नामक प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर पंडितमरण का वरण कर लिया। ७. आर्य समुद्र का अनशन आर्य समुद्र शरीर से कृश थे। जब उन्होंने देखा कि वे जंघाबल से क्षीण हो गए हैं तथा शरीर से जो लाभ होना चाहिए वह नहीं हो रहा है तब उन्होंने शरीर को छोड़ने की इच्छा से गच्छ में ही उपाश्रय के एक निश्चित स्थान में प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर लिया। ८. आचार्य तोसलि का अनशन तोसलि देश में भैंसे बहुत होती थीं। एक बार आचार्य तोसलि वन्य भैंसों से उपद्रुत हुए। उनसे छुटकारा न देखकर आचार्य ने चारों आहार का परित्याग कर दिया और व्याघातिम मरण को प्राप्त किया। १. आनि.२२८-३४, आटी.पृ. १२५ । २. आनि.२८३, आटी.पृ. १७५ । ३. आनि.२८४, आटी.पृ. १७५ । ४. आनि.२८५, आटी.पृ. १७५ । Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ नियुक्तिपंचक ९. आचार्य की तीक्ष्ण आज्ञा एक मुनि बारह वर्ष की संलेखना कर आचार्य के पास अनशन की आज्ञा लेने आया। आचार्य ने कहा-'कुछ काल तक और संलेखना करो।' साधु क्रुद्ध हो गया। उसने अपनी अंगुली को तोड़ कर दिखाते हुए कहा-'मेरे में क्या दोष है?' आचार्य बोले कि मेरे कहते ही तुमने अंगुली तोड़ दी, यही दोष है । देखो, एक राजा था। उसकी आँखें निस्पन्द रहती थीं। पलकें स्थिर रहती थीं। वैद्यों ने चिकित्सा की पर आंखें स्वस्थ नहीं हुईं। एक दिन एक वैद्य आकर बोला-'राजन् ! मैं आपको स्वस्थ कर दूंगा यदि आप वेदना को सहन कर सकें तथा वेदना से पीड़ित होकर मेरी घात करने की आज्ञा न दें। राजा ने इसे स्वीकार कर लिया। वैद्य ने चिकित्सा की। राजा भयंकर वेदना से अभिभूत हो गया। उसने वैद्य को मार डालने की आज्ञा दे दी। यह राजा की तीक्ष्ण आज्ञा थी। कुछ क्षणों बाद वेदना शांत हुई और राजा की आंखें स्वस्थ हो गईं। राजा ने वैद्य की प्रशंसा की और अनेक उपहार देकर उसे प्रसन्न किया। इसी प्रकार आचार्य की प्रेरणात्मक आज्ञा पहले तीक्ष्ण लगती है किन्तु परमार्थतः वह शीतल होती है। १०. द्रव्यशय्या ___एक अटवी में उत्कल और कलिंग नामक दो भाई रहते थे। वे चोरी से अपना निर्वाह करते थे। उनकी भगिनी का नाम वल्गुमती था। एक बार वहां गौतम नामक नैमित्तिक आया। दोनों भाइयों ने उसका स्वागत-सत्कार किया। वल्गुमती ने कहा-'मुझे लगता है कि इस नैमित्तिक का यहां रहना निरापद नहीं है। यह कभी न कभी इस पल्ली के विनाश का कारण बनेगा, इसलिए यह उचित है कि इसको यहां से निकाल दिया जाए। भगिनी की बात मानकर भाइयों ने उस नैमित्तिक को वहां से निकाल दिया। नैमित्तिक गौतम वल्गुमती पर रुष्ट हो गया। उसने प्रतिज्ञा की कि मेरा नाम गौतम नहीं है यदि मैं इस वल्गुमती के पेट को चीर कर उसके शव पर न सोऊं। वह गौतम वहां की भूमि में सरसों के दाने बो कर चला गया। वर्षाकाल में सरसों का पौधा विकसित हआ। गौतम ने किसी दूसरे राजा को प्रेरित करके उस पल्ली को लूट लिया और पूरी पल्ली को जला डाला। गौतम ने वल्गुमती के पेट को चीर डाला। उसके प्राण अभी अवशिष्ट थे। वह उस वल्गुमती की देह पर सो गया। यह सचित्त द्रव्य शय्या है। सूत्रकृतांग-नियुक्ति की कथाएं १. अभयकुमार बंदी बना महाराज चंडप्रद्योत अभयकुमार को बंदी बनाना चाहते थे। उन्होंने इस कार्य के लिए एक गणिका को चुना। गणिका ने सारी योजना बनाई। इस कार्य के लिए उसने शहर की दो सुन्दर और १. आनि.२८६, आटी.पृ. १७६ । २. आनि.३२३, आटी.पृ. २४० Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ६०९ चतुर षोडशियों को तैयार किया। वे तीनों राजगृह में आईं और अपने आपको धर्मनिष्ठ श्राविकाओं के रूप में विख्यात कर दिया। प्रतिदिन मुनिदर्शन, धर्मश्रवण तथा अन्यान्य धार्मिक क्रियाकाण्डों को करने का प्रदर्शन कर जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया। अभयकुमार भी उनकी धार्मिक क्रियाओं और तत्त्वज्ञान की प्रवणता को देखकर आकृष्ट हो गया। एक दिन अभयकुमार ने तीनों को भोजन के लिए आमन्त्रित किया। वे तीनों अभयकुमार के यहां गयीं। भोजन से निवृत्त होकर उन्होंने धार्मिक चर्चा की। उन तीनों ने भी अभयकुमार को अपने निवास-स्थान पर आमंत्रित किया। अभयकुमार ठीक समय पर उनके निवास स्थान पर पहुंचा। तीनों ने भाव भरा स्वागत किया, सुस्वादु भोजन करवाया और चन्द्रहार सुरा के मिश्रण से निष्पन्न मधुर पेय पिलाया। मदिरा के प्रभाव से अभयकुमार को तत्काल मूर्छा एवं नींद आने लगी। सुकोमल शय्या तैयार थी। अभयकुमार उस पर सो गया। वह बेसुध सा हो गया। गणिकाएं उसे रथ में डालकर अवन्ती ले गयीं। उसे चंडप्रद्योत को सौंप कर गणिकाएं अपने घर चली गयीं। अभयकुमार का बुद्धिबल पराजित हो गया। २. चंडप्रद्योत अभयकुमार चंडप्रद्योत से बदला लेना चाहता था। चंडप्रद्योत वीर था। उसके आमने-सामने लड़कर पराजित कर पाना असंभव था। अभयकुमार ने गुप्त योजना बनाई। वह बनिए का रूप बनाकर उज्जयिनी आया। दो सन्दर गणिकाएं उसके साथ में थीं। बाजार में एक विशाल मकान किराए पर लेकर वह वहीं रहने लगा। चंडप्रद्योत प्रतिदिन उसी मार्ग से आता-जाता था। उस समय वे स्त्रियां गवाक्ष में बैठकर हावभाव दिखाती थीं। चंडप्रद्योत उनके प्रति आकृष्ट हुआ और अपनी दासी के साथ प्रणय-प्रस्ताव भेजा। एक दो बार वह दासी निराश लौट आई। तीसरी बार गणिकाओं ने महाराज को अपने घर आने का निमन्त्रण दे दिया। इधर अभयकुमार ने एक व्यक्ति को अपना भाई बनाकर उसका नाम प्रद्योत रख दिया। उसने उसे पागल का अभिनय करने का प्रशिक्षण दिया। लोगों में यह प्रचारित कर दिया कि यह पागल है और सदा कहता है कि मैं प्रद्योत राजा हूं , मुझे जबरदस्ती पकड़कर ले जाया जा रहा है। निर्धारित दिन के अपराह्न में चंडप्रद्योत गणिका के द्वार पर आया। गणिका ने स्वागत किया। चंडप्रद्योत एक पलंग पर लेट गया। इतने में ही अभय के सुभटों ने उसे धर दबोचा। उसे रस्सी से बांधकर चार आदमी अपने कंधों पर उठाकर बीच बाजार से ले चले। उसका मुँह ढंका हुआ था। वह चिल्ला रहा था, 'मुझे बचाओ। मैं प्रद्योत राजा हूं। मुझे जबरदस्ती पकड़कर ले जा रहे हैं। लोग इस चिल्लाहट को सुनने के आदि से हो गए थे। किसी ने ध्यान नहीं दिया। उसे बंदी अवस्था में लाकर अभयकुमार ने श्रेणिक को सौंप दिया। प्रद्योत का शरीरबल परास्त हो गया। १. सूनि.५७। २. सूनि.५७। Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० नियुक्तिपंचक ३. कूलबाल ___ महाराज अजातशत्रु वैशाली के प्राकारों को भंग करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे। अनेक प्रयत्नों के बावजूद भी प्रतिज्ञा सफल नहीं हो रही थी। एक व्यन्तरी ने महाराज से कहा-'राजन् ! यदि मागधिका वेश्या तपस्वी कूलबाल को अपने फंदे में फंसा ले तो आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो सकती है।' मागधिका वेश्या चंपा में रहती थी। महाराजा अजातशत्रु ने उसे बुला भेजा और अपनी बात बताई। वेश्या ने कार्य करने की स्वीकृति दे दी। कूलबाल तपस्वी का अता-पता किसी को ज्ञात नहीं था। गणिका ने श्राविका का कपट रूप बनाया। आचार्य के पास आने-जाने से उसका परिचय बढ़ा और एक दिन मधुर वाणी से आचार्य को लुभाकर तपस्वी का पता जान ही लिया। वह तपस्वी कूलबाल अपने शाप को अन्यथा करने के लिए एक नदी के किनारे कायोत्सर्ग में लीन रहता था। जब कभी आहार का संयोग होता तो भोजन कर लेता, अन्यथा तपस्या करता रहता। गणिका उसी जंगल में पहुंची,जहां तपस्वी तपस्या में लीन थे। उनकी सेवा-शुश्रूषा का बहाना बनाकर उसने वहीं पड़ाव डाला। मुनि को पारणे के लिए निमंत्रित कर औषध-मिश्रित मोदक बहराए। उनको खाने से मुनि अतिसार से पीड़ित हो गए। यह देखकर मागधिका ने कहा- 'मुनिवर ! अब मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी। आप मेरे आहार से रोगग्रस्त हुए हैं अतः मैं आपको स्वस्थ करके ही यहां से हटूंगी।' अब वह प्रतिदिन मुनि की वैयावृत्य, अंगमर्दन और भिन्न-भिन्न प्रकार से सेवा करने लगी। मुनि का अनुराग बढ़ता गया। दोनों का प्रेम पति-पत्नी के रूप में विकसित हुआ और मुनि अपने मार्ग से च्युत हो गए। ४. पोंडरीक एक रमणीय पुष्करिणी में अथाह जल था। स्थान-स्थान पर कीचड़ भी था। उसमें अनेक श्वेत शतदल जल से ऊपर उठे हुए थे। पुष्करिणी के बीच में एक विशाल रमणीय और विशिष्ट ल खिला हुआ था। चार पुरुष चारों दिशाओं से आए। वे उस श्वेत कमल को पाने के लिए ललचाने लगे। एक-एक कर चारों पुरुष उस पुष्करिणी में उतरने लगे। वे स्वयं को कुशल एवं पारगामी समझते थे। पर वे उस पुष्करिणी के कीचड़ में फंस गए। वे न तट पर आ पाए और न ही आगे बढ़ पाए। वे वहां कीचड़ में फंसे हुए खेद का अनुभव करने लगे और त्राण के लिए इधर-उधर देखने लगे। इतने में एक भिक्षु आया वह पानी में नहीं उतरा, तीर पर खड़े-खड़े ही उसने आह्वान किया-'हे पद्मवर पुंडरीक! ऊपर आओ, ऊपर आओ।' वह पद्मवर पुंडरीक ऊपर आ गया।' ५. आईक कुमार प्रतिष्ठानपुर नामक नगर था। वहां सामयिक नामक गाथापति अपनी पत्नी के साथ धर्मघोष आचार्य के पास प्रव्रजित हुआ। वह साधुओं के साथ तथा उसकी साध्वी पत्नी साध्वियों के साथ विहरण करने लगी। ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए एक बार दोनों एक ही गांव में आ गए। सामयिक १. सूनि.५७, कथा सं. १-३ तक की तीन कथाएं सूत्रकृतांग की चूर्णि और टीका में नहीं हैं। टीकाकार ने मूलादावश्यकादवगंतव्यानि का उल्लेख किया है। २. सूनि.१६२-६५। Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ६११ ने अपनी पत्नी साध्वी को भिक्षाचर्या करते देखा। उसे पूर्वभुक्त काम-क्रीड़ाओं की स्मृति हो आई और वह उसमें पुन: अनुरक्त हो गया। मुनि ने अपने साथी मुनि से कहा--'यह मेरी पत्नी है। इसे श्रामण्य से च्युत कर दो। मैं इसे पुनः स्वीकार करना चाहता हूं।' मुनि साथी ने सोचा कि गलत कार्य की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। उसने कहा-'मुने! मैं इस कार्य को आज ही कर दूंगा या मर जाऊंगा।' यह कहकर वह साध्वियों के उपाश्रय में गया और महत्तरिका को सारी बात बता दी। प्रवर्तनी ने साध्वी को बुलाकर कहा- 'तुम इस देश को छोड़कर दूसरे देश में चली जाओ।' साध्वी ने यह बात सुनकर प्रवर्तनी से कहा-'इस स्थिति में मैं अकेली किसी अन्य देश में नहीं जा सकती। वह वहां भी मेरा पीछा नहीं छोड़ेगा। मेरे लिए यही श्रेष्ठ है कि चरित्र-भंग की अपेक्षा भक्तप्रत्याख्यान करके प्राण-त्याग दूं।' उस साथी मुनि ने विचलित और दृप्त मुनि को आकर कहा-'यहां तुम दोनों का मिलन दुष्कर है। अमुक दिन मिलना होगा, अन्यथा यह शक्य नहीं है।' वह दृप्त मुनि वहीं रहा और दिन गिनने लगा। साध्वी ने उस दिन की निकटता को देखकर वैहानसमरण-फांसी लगाकर अपना शरीर त्याग दिया। मरकर वह देवलोक में उत्पन्न हुई। आचार्य को साध्वी के कालगत होने का निवेदन किया गया। जब पति साधु ने यह बात सुनी तो उसके मन में संवेग उत्पन्न हो गया। उसने सोचा--'साध्वी ने व्रतभंग के भय से अनशनपूर्वक मृत्यु का आलिंगन किया है। मेरा मानसिक रूप से तो व्रतभंग हो ही चुका है अतः इस अकार्य के प्रायश्चित्त हेतु मुझे भी अनशन कर लेना चाहिए।' वह मुनि अपने आचार्य के पास आया और उनकी अनुज्ञा लेकर अनशनपूर्वक मृत्यु का वरण किया। वह भी देवलोक में उत्पन्न हुआ। मुनि देवलोक से च्युत होकर अनार्य देश के आर्द्रकपुर नगर के राजा आर्द्रक राजा की पत्नी धारिणी के यहां पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम आर्द्रक कुमार रखा गया। उस कुल की यह परा थी कि वहां उत्पन्न होने वाले सभी आर्द्रक ही कहलाते थे। वह साध्वी भी देवलोक से च्युत होकर बसन्तपुर के एक सेठ के यहां पुत्री रूप में उत्पन्न हुई। आर्द्रक कुमार क्रमशः यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ। एक बार महाराज आर्द्रक ने राजा श्रेणिक से मित्र-स्नेह प्रकट करने के लिए विशिष्ट उपहार भेजे। कुमार आर्द्रक को जब यह बात ज्ञात हुई तो उसने दूत से पूछा-'ये सारे बहुमूल्य उपहार कहां भेजे जा रहे हैं?' दूत ने कहा-'आपके पिता के परममित्र महाराजा श्रेणिक को ये सारे उपहार भेजे जा रहे हैं।' आर्द्रक कुमार ने पूछा-'क्या उनके कोई राजकुमार है?' दूत ने स्वीकृति में अपना सिर हिला दिया। आर्द्रक कुमार ने कहा-'ये उपहार मेरी ओर से राजकुमार को भेंट कर देना और कहना कि राजकुमार आपसे प्रगाढ़ मैत्री का सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है।' दूत दोनों के बहुमूल्य उपहार लेकर मगध देश की ओर चला। वह राजगृह पहुंचा। राजाज्ञा से वह सभा में आया और प्रणाम कर राजा आर्द्रक द्वारा भेजे गए उपहार भेंट किए। राजा श्रेणिक ने दूत का यथोचित सम्मान किया। दूसरे दिन वह राजकुमार अभय के पास गया और राजकुमार आर्द्रक द्वारा भेजे गए उपहार देकर प्रगाढ़ मित्रता की बात कही। उसने भी उपहार स्वीकार किए और दूत का सम्मान किया। अभय Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ नियुक्तिपंचक कुमार ने अपनी पारिणामिकी बुद्धि से जान लिया कि राजकुमार आर्द्रक भव्य और निकट भविष्य में मुक्ति जाने वाला है। अभय ने सोचा-'वह मेरे साथ मित्रता करना चाहता है अतः मेरा परम कर्तव्य है कि मैं उसकी मुक्तिगमन योग्यता को उजागर करने जैसा उपहार भेजूं।' अभयकुमार ने आदि-तीर्थंकर भगवान् ऋषभ की प्रतिमा बनवाई। उसे एक बहुमूल्य मंजूषा में रखकर अन्यान्य और भी उपहार दूत को देकर अभयकुमार ने कहा-'तुम्हारे राजकुमार से कहना कि इस मंजूषा को एकान्त में खोले। लोगों के समक्ष न खोले।'दत उपहार लेकर आर्द्रक नगर पहंचा। राजा आर्द्रक को सारे उपहार दिए और श्रेणिक का संदेश सुनाया। राजा ने उसको सत्कारित किया। दूसरे दिन राजकुमार आर्द्रक के पास गया और अभयकुमार द्वारा प्रेषित उपहार और मंजूषा देते हुए अभय का संदेश सुना दिया। उसने भी दूत का सत्कार करके उसे विदा किया। राजकुमार आर्द्रक मंजूषा लेकर महलों में ऊपर गया। वहां लोगों को विसर्जित करके एकान्त में मंजूषा को खोला। आर्द्रक कुमार मंजूषा में ऋषभदेव की प्रतिमा को देखकर सोचने लगा-'ओह ! यह रूप तो मैंने पहले कभी देखा है।' चिंतन करते-करते उसे जाति-स्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने सोचा कि अभयकुमार ने मुझ पर परम उपकार किया है। मुझे धर्म का सही प्रतिबोध दिया है। आर्द्रक कुमार के मन में संवेग उत्पन्न हो गया। उसने सोचा- 'मैं देव था तब मनोनुकूल भोग-सामग्री उपलब्ध थी फिर भी मन की तृप्ति नहीं हुई। देवता के भोगों के समक्ष मनुष्य के कामभोग तुच्छ और अल्पकालिक हैं अत: मुझे इनमें आसक्त नहीं होना है।' राजकुमार आर्द्रक संसार से विरक्त हो गया। वह संसार में रहते हुए भी विरक्त जीवन जीने लगा। राजा को जब राजकुमार के विरक्त जीवन की बात ज्ञात हुई तो उसने परिचारकों से इसका कारण पूछा। उन्होंने कहा-'राजन् ! जब से राजकुमार अभय कुमार द्वारा प्रेषित उपहार कुमार को प्राप्त हुए हैं तभी से वे विरक्ति का जीवन जी रहे हैं।' राजा उद्विग्न हो गया। उसने सोचा कहीं राजकुमार घर से पलायन न कर जाए। राजा ने पांच सौ कुमारामात्य पुत्रों को राजकुमार के संरक्षण का भार सौंप दिया और कहा-'तुम पर राजकुमार के संरक्षण का दायित्व है। यदि वह कहीं पलायन कर गया तो तुम सबको मृत्युदंड दूंगा।' वे सब राजकुमार की सेवा और संरक्षण करने लगे। आर्द्रक कुमार का मन घर से विरक्त हो चुका था। वह पलायन करके अभिनिष्क्रमण करना चाहता था। उसने उपाय खोजा। एक दिन अश्ववाहनिका का बहाना बनाकर अपने रक्षक पांच सौ साथियों के साथ घूमने निकल पड़ा। बहुत दूर जाकर उसने अपने घोड़े को दूसरी दिशा में मोड़ दिया। जब पांच सौ कुमारामात्य रक्षकों को ज्ञात हुआ तो वे उसकी खोज में निकले पर वे उसे खोज नहीं पाए। आर्द्रक नगर से पलायन कर आर्द्रककुमार प्रव्रजित होने के लिए उद्यत हुआ। मित्र देव ने कहा कि अभी दीक्षा मत लो क्योंकि उपसर्ग उपस्थित हो सकते हैं। राजकुमार आर्द्रक ने देवता की बात पर ध्यान नहीं दिया और दीक्षा ग्रहण कर ली। एक बार वह विहार करते-करते बसन्तपुर नगर में आया और साधु-प्रतिमा का पालन करते हुए कायोत्सर्ग में स्थित हो गया। एक सेठ की पुत्री अपनी सहेलियों के साथ उद्यान में क्रीड़ा कर Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ६१३ रही थी। खेल-खेल में वह मुनि को देखकर बोली-'यह मेरा पति है।' यह सुनकर पास में अदृश्य रूप में स्थित देव ने मन ही मन सोचा कि लड़की ने अच्छा चिंतन किया। दिव्य प्रभाव से उसी समय साढ़े तेरह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं की वृष्टि हुई। राजा को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह स्वर्ण मुद्राओं को हस्तगत करने आया। उसी समय देव सर्प रूप में उपस्थित हुआ और राजा को कहा–'राजन् ! यह सारी सम्पत्ति सेठ की पुत्री की है। कोई दूसरा इस पर अधिकार करने की चेष्टा न करे।' लड़की का पिता आया और सारी सम्पत्ति सुरक्षित कर घर ले गया। कायोत्सर्ग सम्पन्न होने के बाद आर्द्रककमार ने सोचा कि अब मझे यहां नहीं रहना चाहिए। वह तत्काल वहां से अन्यत्र चला गया। एक बार श्रेष्ठी-पुत्री से विवाह करने के इच्छुक कुछ युवक आए। कन्या ने अपने माता-पिता से कहा-'कन्या का विवाह जीवन में एक बार ही होता है, अनेक बार नहीं। मेरा तो उसके साथ विवाह हो चुका है, जिसका धन आपने एकत्रित किया है। वही मेरा पति है।' पिता ने पूछा-'क्या तुम उसे पहचानती हो?' कन्या ने कहा कि उनके पैरों से मैं उन्हें पहचान लूंगी। भिक्षु की खोज हेतु सेठ ने भिक्षुओं को दान देना प्रारम्भ किया। अनेक प्रकार के भिक्षु भिक्षार्थ आने लगे। बारह वर्ष बीतने पर एक दिन भवितव्यता के योग से भिक्षुक बना राजकुमार आर्द्रक उसी बसन्तपुर नगर में आया। वह भिक्षार्थ उसी सेठ के घर पहुंचा। लड़की ने उसे पदचिह्न से पहचान लिया। कन्या ने अपने पिता से कहा-'यही मेरा पति है।' कन्या उस भिक्षक के पीछेपीछे जाने लगी। भिक्षुक ने सोचा कि इस प्रकार तो मेरा तिरस्कार होगा। उसे देवता का वचन याद आया। कर्मों का उदय मान भिक्षु-वेश का त्याग कर वह श्रेष्ठी-कन्या के साथ रहने लगा। उसके एक पुत्र हुआ। उसके साथ रहते हुए बारह वर्ष बीत गए. एक दिन आर्द्रककुमार ने अपनी पत्नी से कहा कि अब तुम दो हो गए हो। मैं पुनः प्रव्रजित होकर अपना कल्याण करना चाहता हूं। कन्या ने प्रत्युत्तर नहीं दिया, वह रोने लगी। एक दिन वह सूत बनाने के लिए कपास कात रही थी। इतने में उसका पुत्र उसके पास आया और बोला-'मां, तुम यह क्या कात रही हो? यह काम तुम्हारे लायक नहीं है।' उसने कहा-'तुम्हारे पिता प्रव्रज्या लेना चाहते हैं। तुम अभी छोटे हो अत: जीवन-निर्वाह हेतु मैंने यह कार्य प्रारम्भ कर दिया है।' बालक प्रतिभासम्पन्न और चंचल था। मां के द्वारा काता गया सूत लेकर वह पिता के पास पहुंचा। पिता को सत से वेष्टित करते हए वह बोला-'मेरे द्वारा बांधे जाने पर अब आप कहां जाएंगे?' आर्द्रक कुमार ने सोचा-बालक ने मुझे जितने तंतुओं से बांधा है, उतने वर्ष मझे गहवास में और रहना है. आगे नहीं। तंत गिनने पर बारह निकले। वह बारह वर्षों तक घर पर रहा फिर घर से अभिनिष्क्रमण कर प्रव्रजित हो गया। आईक कमार ने एकाकी विहार करते हए राजगह की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में एक भयंकर जंगल आया। उस जंगल में पांच सौ चोर रहते थे। ये वे ही संरक्षक थे, जिन्हें आर्द्रककुमार के संरक्षण के लिए नियुक्त किया था। जब आर्द्रक अपने घोड़े पर पलायन कर गया तब वे पांच सौ रक्षक राजाज्ञा की अवहेलना के भय से घर न जाकर जंगल में चले गए और वहां चोरी, लूट Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ नियुक्तिपंचक खसोट करते हुए जीवन-यापन करने लगे। आईक कुमार ने उन्हें पहचान लिया। आर्द्रक मुनि ने पूछा कि तुम लोग चोर कैसे बन गए? उन्होंने राजभय की बात कही। मुनि आर्द्रक ने उन्हें प्रतिबोध दिया। वे सभी संबुद्ध होकर मुनि बन गए। __ पांच सौ को प्रव्रजित कर उन्हें अपने साथ लेकर आर्द्रककुमार महावीर के दर्शनार्थ राजगृह आया। नगर के प्रवेश-द्वार पर गोशालक, हस्तितापस आदि विभिन्न दर्शनों के आचार्य मिले। सबने मुनि आर्द्रक को अपने धर्म में दोक्षित करने का प्रयत्न किया। वाद-विवाद में उन सबको पराजित कर मुनि आर्द्रक आगे बढ़ा। इतने में एक विशालकाय हाथी अपने बंधनों को तोड़कर मुनि आर्द्रक के चरणों में झुक गया। राजा को जब यह बात ज्ञात हई तो वह आर्द्रककमार के पास आया और चरण-वंदना कर बोला-'भंते ! आपके दर्शनमात्र से यह उन्मत्त हाथी अपने बंधनों से मुक्त कैसे हो गया? आपका अचिन्त्य प्रभाव है।' मुनि आर्द्रक बोले-'राजन् ! मनुष्यों द्वारा निर्मित सांकलों द्वारा बंधे हुए हाथी का बंधनमुक्त होना आश्चर्य की बात नहीं है, यह दुष्कर भी नहीं है। कच्चे सूत की डोरी से बंधे हुए मेरा बंधन-मुक्त होना दुष्कर है क्योंकि स्नेह-तंतु को तोड़ना अत्यन्त दुष्कर होता है।' राजा मुनि की स्तवना करता हुआ महावीर के समवसरण में चला गया। ६. आज्ञा का महत्त्व नालन्दा के समीप मनोरथ नामक उद्यान था। एक बार गणधर गौतम अनेक शिष्यों के साथ वहां समवसृत थे। तीर्थंकर पार्श्व की परम्परा में दीक्षित श्रमण उदक जिज्ञासा के समाधान हेतु गौतम के पास आया। वह पेढाल का पुत्र और मेदार्य गोत्र वाला था। उसने गौतम से श्रावक के विषय में अनेक प्रश्न पूछे । गौतम ने उनका समाधान किया। एक प्रश्न के समाधान में एक कथानक सुनाते हुए गौतम ने कहा ___'रत्नपुर नगर में रत्नशेखर नामक राजा था। एक दिन प्रसन्न होकर राजा ने अग्रमहिषी रत्नमाला आदि रानियों को कौमुदीप्रचार की आज्ञा दे दी। नागरिक लोगों ने भी अपनी स्त्रियों को कौमुदी महोत्सव में क्रीड़ा करने की अनुमति दी। राजा ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि कौमुदी महोत्सव के प्रारम्भ हो जाने पर सूर्यास्त के बाद जो कोई व्यक्ति नगर में मिलेगा उसको बिना कुछ पूछताछ किए दंडित किया जाएगा। एक व्यापारी के पुत्र उस दिन क्रय-विक्रय और व्यापार में इतने व्यस्त हो गए कि सूर्यास्त हो गया। सूर्यास्त होते ही नगरद्वार बंद कर दिए गए। वे छहों वणिक्पुत्र समय के अतिक्रान्त हो जाने पर बाहर नहीं जा सके। वे भयभीत होकर नगर के मध्य में ही कहीं छुप गए। कौमुदी-महोत्सव पूर्ण होने पर राजा ने आरक्षकों को बुलाकर आदेश दिया कि तुम अच्छी देखो कि कौमुदी-महोत्सव में नगर में कौन पुरुष उपस्थित था। आरक्षकों ने पूर्णरूपेण निरीक्षण कर छह वणिक् पुत्रों की बात राजा से कही। आज्ञा-भंग के अपराध से राजा ने कुपित होकर छहों को मृत्युदण्ड दे दिया। पुत्र-शोक से विह्वल पिता ने राजा से कहा-'आप हमारे कुल को नष्ट न करें। आप मेरी सारी सम्पत्ति ले लें पर मेरे छहों पुत्रों को मुक्त कर दें। आप अनुग्रह करें।' राजा ने प्रार्थना स्वीकार नहीं की। तब वणिक् हताश होकर पांच, चार, तीन, दो और एक पुत्र की मुक्ति की प्रार्थना १. सूनि.१८८-२०१, सूचू. प. ४१४-१७, सूटी.पृ. २५८,२५९ । Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं करता रहा। राजा ने उसके निवेदन को स्वीकार नहीं किया। अंत में वणिक् राजा के चरणों में गिर पड़ा और गद्गद स्वरों में निवेदन करने लगा। राजा का मन करुणार्द्र हुआ 'और ज्येष्ठ पुत्र को मुक्त करने का आदेश दे दिया । ' ६१५ गणधर गौतम और पार्वापत्यीय श्रमण उदक की चर्चा लम्बे समय तक चली। उदक का मन समाहित हो गया। चर्चा सम्पन्न होने के बाद उदक बिना कृतज्ञता ज्ञापित किए ही जाने लगा । गौतम ने कहा- 'उदक! तुम बिना कुछ कहे ही जा रहे हो।' तब उदक ने कहा कि आप क्या कहना चाहते हैं मैं समझ नहीं सका। गौतम ने शिक्षा देते हुए कहा कि लौकिक परम्परा में भी शिक्षागुरु के प्रति सम्मान व्यक्त किया जाता है फिर परमार्थ का तो कहना ही क्या? यह सत्य है कि पूज्य व्यक्ति पूजा-प्रतिष्ठा की भावना से दूर रहता है पर व्यवहार में यह अनिवार्य हो जाता है कि पूज्य के उपकार को बहुमान दिया जाए। तुमने इस चर्चा से यथार्थ की अवगति की है। कृतज्ञता ज्ञापित किए बिना तुम्हारा यों ही जाना क्या उचित है ? उदक को अपने प्रमाद का अहसास हुआ। वह बोला- 'गौतम! तुम्हारे से मैंने परमार्थ का अवबोध किया है। मैं उस तत्त्व के प्रति श्रद्धा व्यक्त करता हूं और चातुर्याम धर्म से पंचयाम धर्म स्वीकार करूं, अप्रतिक्रमण धर्म से सप्रतिक्रमण धर्म में आऊं तथा पार्श्व की परम्परा से महावीर की परम्परा में दीक्षित बनूं, ऐसी मेरी भावना ।' गौतम उदक के साथ भगवान् महावीर के पास आए । उदक ने भगवान को वंदना की और पंचयाम धर्म में प्रव्रजित होने की इच्छा व्यक्त की। भगवान महावीर ने उसे अपने शासन में सम्मिलित कर लिया । ' दशाश्रुतस्कंध -निर्युक्ति की कथाएं १. क्षमादान : महादान (दुरूतक कुंभकार ) एक कुम्हार मिट्टी के भांडों से गाड़ी भरकर दुरूतक नामक अनार्य गांव में गया। उसके एक बैल का अपहरण करने की इच्छा से गांव के कुछेक लोग कहने लगे कि अरे ! एक आश्चर्य देखो, यह गाड़ी एक बैल से चल रही है। यह सुनकर कुम्हार भी व्यंग्य में बोला- 'देखो ! इस गांव का खलिहान जल रहा है।' कुम्हार जब कार्यवश इधर-उधर गया तब गांव वालों ने उसके एक बैल IT अपहरण कर लिया। कुम्हार के बैल मांगने पर उन्होंने कहा कि तुम एक ही बैल से गाड़ी चला रहे थे। जब उन्होंने बैल वापिस नहीं दिया तो वह कुम्हार प्रतिवर्ष उनका धान्य जलाने लगा। सात वर्ष तक लगातार यह क्रम चला। बाद में एक उत्सव के अवसर पर उस गांव के मुखिया ने घोषणा की - 'जिसका हमने अपराध किया है, उससे हम क्षमा चाहते हैं। इस प्रकार हमारा धान्य नष्ट मत करो।' यह सुनकर कुम्हार ने भी घोषणा की कि मेरा बैल वापिस कर दो। मैं धान्य नहीं जलाऊंगा। बाद में उन दोनों में समझौता हो गया। कुम्हार को बैल वापिस मिल गया। दोनों ने एकदूसरे को क्षमा कर दिया । २ १. सूनि २०५, २०६, सूटी. पृ. २७६ । २. दनि ९३, ९४, दचू.प. ६०, ६१, निभा. ३१८०, ३१८१, चू. पू. १३९ : Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ नियुक्तिपंचक २. उद्रायण एवं प्रद्योत चम्पा नगरी में अनंगसेन नामक स्वर्णकार रहता था। वह स्त्रियों के प्रति बहुत आसक्त था। वह जिस कन्या को देखता,उसकी सुन्दरता पर मुग्ध हो उठता। बहुत सा धन देकर वह उससे विवाह कर लेता। इस प्रकार उसने पांच सौ कन्याओं के साथ विवाह किया। वह उनके साथ काम-भोगों में रत रहता। उसी समय पंचशील नामक द्वीप में विद्युन्माली नामक एक यक्ष का च्यवन हो गया। उसकी दो अग्रमहिषियां थीं-हासा और प्रहासा। भोग की बलवती भावना से प्रेरित होकर वे किसी सुन्दर पुरुष की खोज में निकलीं। उन्होंने अनंगसेन को देखा। विक्रिया के माध्यम से सुन्दर रूप बनाकर अशोक-वाटिका में वे अनंगसेन के समक्ष गयीं। उनकी कामपूरक चेष्टाओं को देखकर अनंगसेन चंचल और उन्मत्त होकर उनकी ओर हाथ फैलाने लगा। उसकी काम-विह्वलता देखकर देवियों ने कहा कि हमें पाने की पहली शर्त यह है कि पंचशील द्वीप में आओ। इतना कहकर वे अदृश्य हो गईं। अनंगसेन उनके पीछे पागल हो उठा। उसने राजा को प्रेरित कर यह घोषणा करवाई कि जो अनंगसेन को पंचशैल द्वीप में पहुंचाएगा, उसे वह एक करोड़ मुद्रा देगा। एक बूढ़े नाविक ने उस घोषणा को स्वीकार कर कहा कि मैं पंचशील द्वीप में पहुंचा दूंगा। उसने एक करोड़ मुद्राएं ले लीं। पाथेय लेकर नौका पर आरूढ़ होकर दोनों ने गंतव्य की ओर प्रस्थान किया। कुछ दूर जाने पर नाविक ने पूछा-'आगे जल के ऊपर कुछ दिखाई देता है?' अनंगसेन ने नकारात्मक उत्तर दिया। कुछ दूर जाने पर पुनः प्रश्न किया तो अनंगसेन के कहा कि मानव सिर के बराबर कोई कृष्णवर्णी वस्तु नजर आ रही है। नाविक ने कहा-'यहीं पंचशैल की धारा में स्थित वटवृक्ष है। नौका इसके नीचे से जाएगी। इसके आगे जलावर्त है अतः तुम सावधान होकर इस वृक्ष की शाखा को पकड़ लेना। मैं नौका से जलावर्त में जाऊंगा। जब जल का वेग उतर जाए तब तम पर्वत पर चढकर उस ओर उतर जाना। वहीं पंचशैल द्वीप है। फिर जहां जाना हो वहां चले जाना। संध्याकाल में बड़े-बड़े पक्षी पंचशील द्वीप से यहां आयेंगे और रात्रि-निवास करके वापिस लौटेंगे। तुम उनके पैर पकड़कर पंचशैल द्वीप चले जाना। इतने में नौका वटवृक्ष के पास जा पहुंची। वह शीघ्र वट पर आरूढ़ हो गया और नाविक आगे जलावर्त में चला गया। नाविक के कथनानुसार अनंगसेन द्वीप में पहुंचकर दोनों यक्षिणियों से मिला और अपनी भावना व्यक्त की। दोनों देवियों ने नकारात्मक उत्तर दिया और कहा-'तुम्हारा यह अशुचि शरीर हमारे परिभोग के योग्य नहीं है। यदि तुम हमें चाहते हो तो बाल-तपस्या और निदान करके यहां जन्म लो तभी तुम हमारे लिए भोग्य और आदेय हो सकते हो।' देवियों ने अतिथि-धर्म का पालन करते हुए दिव्य पत्र, पुष्प, फल आदि से उसका आतिथ्य किया। थकान के कारण वह वहीं शीतल छाया में सो गया। नींद में ही देवियों ने उसे हाथ में उठाया और चम्पानगरी में उसके मकान की १. दशाश्रुतस्कन्ध की चूर्णि में इस कथा का उल्लेख नहीं है अत: यहां निशीथ चूर्णि के अनुसार कथा का अनुवाद किया गया है। Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ६१७ छत पर छोड़ दिया। जागने पर उसने स्वयं को अपने ही घर में चारों ओर से स्वजन-परिजनों से घिरा हुआ देखा। तब वह हासे! प्रहासे ! कहकर प्रलाप करने लगा। लोगों के पूछने पर उसने पंचशैल में देखा हुआ सारा वृत्तान्त बताया। जब उसके मित्र नाइल श्रावक ने यह बात सुनी तो उसने अनंगसेन को जिनोपदिष्ट धर्म का उपदेश दिया और उसे जीवन-व्यवहार में उतारने के लिए प्रेरित किया। नाइल श्रावक ने कहा-'धर्म-पालन से तुम सौधर्म आदि स्वर्गों में दीर्घकालीन स्थिति वाली देवियों के साथ उत्तम भोग भोग सकते हो। उनके सामने इन अल्पकालीन व्यन्तर देवियों की कोई मूल्यवत्ता नहीं है । नाइल के उपदेश का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। स्वजन-परिजनों द्वारा दी गयी सलाह की अवहेलना कर उसने निदान कर इंगिनीमरण द्वारा मरकर उसी द्वीप में विद्युन्माली यक्ष के रूप में जन्म लिया। वह तीव्र भावना से हासा और प्रहासा से भोग भोगने लगा। नाइल श्रावक प्रव्रजित हुआ और श्रामण्य का निरतिचार पालन करता हुआ मर कर अच्युत देवलोक में देव बना। वह भी उसी पंचशैल द्वीप में आया। एक बार नंदीश्वर द्वीप में अष्टाह्निक महोत्सव था। वहां इन्द्र द्वारा आज्ञापित देव अपनेअपने कार्यों में नियुक्त होकर परस्पर मिले। विद्युन्माली को बाजे बजाने का कार्य सौंपा गया। वह ढोल बजाना नहीं चाहता था लेकिन आदेश का पालन भी आवश्यक था। इच्छा न होते हुए भी वह दूर बैठा ढोल बजा रहा था। नाइल देव ने उसे देखा। पूर्वस्नेह के कारण वह उसे प्रतिबोध देने उसके पास आया। विद्युन्माली उसके भव्य तेज को सहन नहीं कर सका और ढोल बजाना बीच में ही बंद कर दिया। नाइल देव ने पूछा कि क्या तुम मुझे जानते हो? 'विद्युन्माली देव पहचानने में असमर्थ रहा। वह बोला कि क्या तुम शक्र हो, इन्द्र हो? मैं तुम्हें नहीं जानता। नाइल देव बोला-'मैं पूर्वभव की बात पूछता हूं, देवत्व की नहीं। उसने कहा-'मैं तुम्हें नहीं जानता।' तब अपना परिचय देते हुए नाइल ने बताया- 'मैं पूर्वभव में चम्पानगरी में तुम्हारा मित्र नाइल था। उस समय तुमने मेरी बात नहीं मानी इसलिए तुम अल्पऋद्धि वाले देव बने हो। खैर, अब भी तुम जिनप्रणीत धर्म स्वीकार करो।' यह कह नाइल देव ने उसे धर्मबोध देकर जिनधर्म अंगीकार करवाया। विद्युन्माली ने पूछा-'अब मुझे क्या करना चाहिए?' अच्युतदेव नाइल ने कहा-'बोध के लिए तुम किसी स्थान पर जिन-प्रतिमा का अवतरण कराओ।' तब विद्युन्माली ने अष्टाह्निक महोत्सव संपन्न होने पर चुल्ल हिमवंत पर्वत से गोशीर्ष चंदन लेकर दैविक प्रभाव से जिन प्रतिमा बनवाई। रत्न आदि विभिन्न आभूषणों से अलंकृत करके उसे गोशीर्ष चंदन की लकड़ी के बीच रख दिया। उसके बाद उसने चिंतन किया कि यह प्रतिमा अब मैं बाहर कैसे भेजूं? इधर उसी समय समुद्र में एक वणिक् की नाव डगमगा रही थी। डोलते हुए नाव को छह मास बीत गए। वणिक् चिंतित हो उठा। वह धूप-दीप लेकर इष्ट देवता का स्मरण करने लगा। यह देखकर विद्युन्माली ने कहा-'अरे भाई ! आज प्रात:काल तुम्हारी नौका वीतभय नगर के किनारे पहुंच जायेगी। तुम इस गोशीर्ष चंदन को लेकर जाओ और राजा उदयन को भेंट करके कहना कि इस लकड़ी से देवाधिदेव की प्रतिमा बनवाए, यह देवकथन है।' उसी रात देव-अनुग्रह से वह नौका वीतभय नगर पहुंच गयी। Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ नियुक्तिपंचक वणिक् नगरी में पहुंचते ही अर्घ्य लेकर राजा के पास पहुंचा। पूर्व वृत्तान्त बताते हुए उस गोशीर्ष चन्दन से देवाधिदेव की प्रतिमा बनाने का निवेदन किया। सारी बात सुनकर राजा ने सभी चतुर लोगों को बुलाकर यह बात बतायी। राजा ने काष्ठकारों को बुलाया। उन्हें प्रतिमा बनाने के लिए कहा। उन्होंने प्रतिमा बनाने के लिए हथौड़ा उठाया लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। उस समय ब्राह्मणों ने कहा कि देवाधिदेव ब्रह्मा हैं अत: उनकी प्रतिमा बनवाओ। शिल्पी ने कुल्हाड़ी मारी लेकिन व्यर्थ चली गयी। किसी ने कहा कि देवाधिदेव विष्णु हैं, फिर भी चंदन-काष्ठ पर शस्त्र का असर नहीं हुआ। इस दृश्य को देखकर स्कन्द, रुद्र आदि देवों के नाम लेकर शस्त्र चलाया लेकिन वह प्रयास व्यर्थ ही हुआ। यह देखकर राजा बहुत दु:खी हुआ। उसी समय रानी प्रभावती ने राजा को भोजन के लिए बुलाया। राजा ने इन्कार कर दिया। भोजन-बेला का अतिक्रमण जानकर प्रभावती ने दासी को पुनः राजा के पास भेजा। दासी के निवेदन करने पर राजा ने सारी स्थिति दासी को बतायी। दासी ने रानी को यथार्थ स्थिति से अवगत कराया। सारी स्थिति जानकर रानी बोली-'अहो! मिथ्यादर्शन के कारण राजा देवाधिदेव को भी नहीं जानते हैं।' उसी समय रानी श्वेत वस्त्रों को पहन कर कौतुक मंगल आदि से निवत्त होकर राजा के पास आयी और बोली-'देवाधिदेव महावीर वर्द्धमान स्वामी हैं. उनकी प्रतिमा बनवाओ।' महावीर का नाम लेकर काष्ठकार ने लकड़ी पर कुल्हाड़ी चलायी। एक बार में ही लकड़ी के दो टुकड़े हो गए। उसके अन्दर से सर्व अलंकारों से सुशोभित भगवान् महावीर की प्रतिमा निकली। राजा ने अपने निवास स्थल के पास देवायतन बनवाया और मर्ति की की। देवायतन में कृष्णगुटिका नामक दासी को नियुक्त किया। अष्टमी, चतुर्दशी के दिन रानी प्रभावती स्वयं वहां जाकर नृत्य आदि में भाग लेती थी। राजा भी उसी के अनुरूप मृदंग बजाता था। एक बार जब रानी प्रभावती नृत्य कर रही थी, तब राजा ने रानी के सिर की छाया नहीं देखी। अमंगल की चिन्ता से राजा के हाथ के वाद्य छट गए। रानी प्रभावती इस बात से नाराज है गयी। राजा ने कहा-'महारानी ! तुम रुष्ट मत बनो। आज मैंने अमंगल देखा है अत: चित्त की विक्षिप्तता से मेरे हाथ से वाद्य छूट गया।' यह सुनकर रानी प्रभावती बोली-'जिन शासन में अनुरक्त व्यक्ति को मरने से नहीं डरना चाहिए।' एक दिन रानी प्रभावती जब स्नान आदि से निवृत्त हो गयी तो दासी को श्वेत वस्त्र लाने के लिए कहा। दासी वस्त्र लाने गयी लेकिन देवकत उपद्रव से वे वस्त्र बीच में ही लाल हो गए। दासी चकित हो गयी। दासी ने वस्त्र महारानी को दिए। उस समय महारानी दर्पण में अपना मुंह देख रही थी। रानी उन लाल वस्त्रों को देखकर क्रोधित हो गई। रुष्ट होकर वह बोली-'देवायतन में प्रवेश करते हुए तुमने यह अमंगल क्यों किया? क्या इस समय मैं शयनगृह में जा रही हूं, जो ये लाल वस्त्र लायी हो?' क्रोधावेश में व्यक्ति अंधा हो जाता है। रानी ने दर्पण से दासी के सिर पर प्रहार किया फलस्वरूप दासी उसी समय मर गई। उधर उसी समय वस्त्र पुनः स्वाभाविक स्थिति में आ गए। यह देखकर रानी ने आत्मालोचन किया कि मैने व्यर्थ ही निरपराध दासी की हत्या कर दी। चिरकाल से पालित मेरा स्थूल प्राणातिपात-विरमण व्रत भंग हो गया। निश्चय ही यह बात 1 की स्थापना Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ६१९ मेरे लिए भावी अमंगल की सूचक है। रानी ने राजा को सारी स्थिति बतलाई और दीक्षा की अनुमति मांगती हुई बोली कि मैं संयम के बिना मरना नहीं चाहती। रानी की तीव्र भावना देखकर राजा ने कहा कि यदि तुम मरकर मुझे सद्धर्म में प्रेरित करो तो तुम्हें दीक्षा की अनुमति दे सकता हूँ। अनुज्ञा मिलते ही रानी प्रभावती साध्वी प्रभावती बन गई। छह मास तक संयम का सम्यक् पालन कर अन्तिम समय में आलोचना-प्रतिक्रमण कर रानी वैमानिक देव बनी। प्रभावती देव ने अवधि ज्ञान से अपना पूर्वभव देखा। पूर्व अनुराग तथा प्रतिज्ञा की स्मृति से उसने राजा उदयन को अनेक रूपों में यतिधर्म का उपदेश दिया। राजा उस समय तापसों का परम भक्त बना हुआ था अत: उसने जिन धर्म स्वीकृत नहीं किया। प्रतिबोध देने हेतु देव प्रभावती ने तापस का रूप बनाया और फूल, फल आदि लेकर राजा के पास उपस्थित हुआ। तापस ने अत्यंत रमणीय फल राजा को समर्पित किया। वह फल गंध से सुरभित, रूप से मनोरम और स्वाद में रसयुक्त था। राजा ने उस अनुपम फल के बारे में जिज्ञासा व्यक्त की। तापस रूप देव ने कहा कि यहां से निकट ही तापसों के आश्रम में ऐसे फल देने वाले अनेक वृक्ष हैं। राजा ने तापसाश्रम और उन वृक्षों को देखने की जिज्ञासा व्यक्त की। राजा उस देव तापस के साथ अकेला ही अनेक अलंकारों से विभूषित होकर गया। आश्रमद्वार में प्रवेश करते ही उसे दिव्य गंध की अनुभूति हुई। राजा को देखते ही तापसों की आवाज सुनायी दी कि यह राजा अनेक अलंकारों को पहन कर आया है अत: इसे मारो, पकड़ो। राजा भय से पीछे सरकने लगा। यह देखकर साथ आने वाला तापस देव भी चिल्लाया कि अरे! यह राजा भाग रहा है, इसे पकड़ो। आवाज सुनकर अनेक तापस दण्ड, कमण्डलु लेकर 'मारो, पकड़ो' की आवाज करते हुए पीछे दौड़ने लगे। भय विह्वल राजा ने एक वन-खण्ड देखा। वहाँ अनेक मनुष्यों की आवाज सुनायी दी। शरण लेने की इच्छा से राजा ने उस वन-खण्ड में प्रवेश किया। वहां चंन्द्र की भांति सौम्य, कामदेव जैसा रूपवान् तथा बृहस्पति की तरह सर्व शास्त्रों के विशारद एक तेजस्वी श्रमण को देखा। उसके चारों ओर अनेक साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाएं उपदेश सुनने बैठे हुए थे। उसी समय राजा 'शरण दो' 'शरण दो' की आवाज करता हुआ वहां आया। साधुओं ने अभय का उपदेश दिया। आश्वस्त होकर राजा वहीं बैठ गया। तापस भी 'यह हाथ से निकल गया' यह कहकर वापिस लौट गए। साधुओं ने राजा को धर्म का रहस्य बताया। प्रभावित होकर राजा ने श्रमण धर्म स्वीकार कर लिया। देव तापस ने भी अपनी माया समेट ली। राजा ने अनुभव किया कि मैं तो सिंहासन पर बैठा हूं न कहीं गया और न आया फिर यह घटना कैसे घटी? प्रभावती रूप देव ने आकाशवाणी करते हुए कहा-'राजन् ! यह सब माया मैंने तुमको प्रतिबोधित करने के लिए की। अब तुम धर्म में दृढ़ रहना और कभी आपत्ति का अनुभव करो तो मुझे याद कर लेना।' यह कहकर देव अन्तर्धान हो गया। उसी समय गंधार जनपद में एक श्रावक दीक्षा लेना चाहता था। वह सभी तीर्थंकरों की जन्मभूमि, दीक्षाभूमि, कैवल्यभूमि और निर्वाण-भूमि को देखकर लौटा। उसने सुना कि वैताढ्य पर्वत की गुफा में ऋषभ आदि तीर्थंकरों की रत्न-निर्मित स्वर्ण-प्रतिमाएं हैं। साधु के मुख से यह बात सुनकर उसके मन में वह स्थान देखने की भावना जागृत हुई। उसने देवता की आराधना करके प्रतिमा प्रकट करायी। ___ वह श्रावक वहां रहता हुआ अहर्निश भगवान् की स्तुति करने लगा। उसके मन में रत्नों Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० नियुक्तिपंचक और सोने के प्रति थोड़ा भी लोभ जागृत नहीं हुआ। उसका मानस अध्यात्म से पूर्णतया आपूरित था। श्रावक की निर्लोभता और अनासक्ति से देवताओं को बहुत आश्चर्य हुआ। प्रसन्न होकर देवता ने उसे वरदान मांगने के लिए कहा। कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए श्रावक बोला-'देवानुप्रिय! मैं अब भौतिक काम-भोगों से विरत हो गया हूं अत: अब वरदान से मुझे क्या प्रयोजन है?' देवता ने प्रसन्नता से कहा कि देवदर्शन निष्फल नहीं होते। देवता ने उसे आठ सौ गुटिकाएं दीं, जो मन इच्छित वस्तुएं दे सकती थीं। श्रावक ने वे अपने पास रख ली और वहां से प्रस्थान कर दिया। कुछ दिनों पश्चात् उसने सुना कि वीतभय नगर में सर्व अलंकारों से सुशोभित देवों द्वारा अवतारित प्रतिमा है। वह उस प्रतिमा को देखने की इच्छा से वीतभय गया। कुछ दिन वहीं रहने की इच्छा से वह वहीं देवायतन में ठहर गया। किसी कारण से वह वहां रुग्ण हो गया। कृष्णगुटिका दासी वहीं रहती थी अत: उसने उसकी खूब सेवा की। श्रावक ने सोचा मैं तो दीक्षा लूंगा अतः गुटिकाओं से मेरा क्या प्रयोजन? यह सोचकर उसने कृष्णगुटिका की सेवा से प्रसन्न होकर सारी गुटिकाएं उसे देकर वहां से प्रस्थान कर दिया। दासी ने सोचा कि ये गुटिकाएं वास्तव में मनोरथ पूर्ण करने वाली हैं अथवा केवल कल्पना मात्र? उसने मन में चिंतन किया कि यदि ये प्रभावशाली हैं तो मैं उत्तप्त स्वर्ण जैसी वर्णवाली रूपवती और सुभगा नारी बन जाऊं। वह वैसी ही बन गई। लोगों ने उसके अद्भुत रूप को देवता का प्रसाद माना और उसे स्वर्णगुटिका कहने लगे। स्वर्णगुटिका को उन गुटिकाओं पर विश्वास हो गया। उसने दूसरी गुटिका मुख में रख कर चिंतन किया कि इस गुटिका के प्रभाव से राजा प्रद्योत मेरा पति बने। वीतभय से उज्जैनी नगरी केवल अस्सी योजन दूर थी। एक दिन सहसा प्रद्योत की राजसभा में कुछ अग्रणी पुरुषों ने कहा कि वीतभय नगरी में देवावतारित प्रतिमा की सेवा में रहने वाली कृष्णगुटिका दासी देवअनुग्रह से स्वर्णगुटिका बन गई है। वह अत्यन्त लावण्यवती है। उसके सौन्दर्य के पिपासु अनेक व्यक्ति है। सारी बात सुनकर प्रद्योत ने एक दूत राजा उद्रायण के पास भेजा और संदेश भिजवाया कि स्वर्णगुटिका को इस दूत के साथ भेज दो। दूत राजा उद्रायण के पास गया और स्वयं के आने का प्रयोजन बताया। उद्रायण ने दूत का तिरस्कार करके उसे वापिस भेज दिया। दूत ने सारी बात प्रद्योत को बतायी। कुछ दिनों बाद राजा प्रद्योत ने गुप्त रूप से एक दूत को स्वर्णगुटिका के पास भेजा और उसका अभिप्राय जानना चाहा। दूत ने पूछा-'यदि स्वर्णगुटिका राजा प्रद्योत से प्रेम करती है तो वह गुप्त रूप से उसके पास आ जाए।' दासी ने उत्तर दिया कि यदि देवावतारित प्रतिमा भी मेरे साथ जाए तो मैं जाने के लिए तैयार हूं अन्यथा मैं वहां नहीं जा सकती। दूत की बात सुनकर राजा प्रद्योत अनलगिरि हस्तिरत्न पर आरुढ़ होकर एक दिन में ही वीतभय नगरी पहुंच गया। प्रदोष-बेला में उसने स्वर्णगटिका से गुप्तरूप से बात की। उसी समय बसन्त महोत्सव के अवसर पर लेप्यक उत्सव मनाया गया। प्रद्योत ने उस अवसर पर एक सुन्दर मिट्टी की प्रतिमा बनवायी। गीत, नृत्य, वाद्य आदि के साथ उसने वह प्रतिमा भी देवावतारित प्रतिमा के देवालय में रखवा दी। भाग्ययोग से छलपूर्वक मिट्टी की प्रतिमा उसी मन्दिर में रख दी गयी। लोग जब ढोल आदि बजा रहे थे तब उन्हीं के सामने स्वर्णगुटिका देवप्रतिमा को बाहर ले आई। लोगों ने सोचा कि मिट्टी की प्रतिमा बाहर लायी होगी। प्रद्योत स्वर्णगुटिका और प्रतिमा दोनों का हरण करके ले गया। Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं जिस रात्रि में गंधहस्ती अनलगिरि ने वीतभय नगरी में प्रवेश किया, उसकी गंध से आलानस्तम्भ में बंधे हाथी पृथ्वी पर लुढ़कने लगे और स्तम्भों को तोड़ने का प्रयत्न करने लगे। मंत्रियों ने सोचा, अनलगिरि अपने खंभे को तोड़ कर यहां आ गया होगा अथवा कोई जंगली हाथी आया होगा। प्रात:काल यथार्थ वृत्तान्त ज्ञात हुआ । गुप्तचरों ने अनलगिरि का मल देखा अतः राजा को निवेदन किया कि रात्रि में राजा प्रद्योत आया था लेकिन वह वापिस चला गया। यह सुनकर राजा ने स्वर्णगुटिका दासी की खोज करायी। ज्ञात हुआ कि मध्यरात्रि में राजा प्रद्योत ने स्वर्णगुटिका दासी का अपहरण कर लिया है। ६२१ देवावतारित प्रतिमा की यह विशेषता थी कि उस पर चढ़ाए गए फूल चंदन की शीतलता के कारण म्लान नहीं होते थे। राजा उद्रायण मध्याह्न में जब देवायतन गया तो फूलों को म्लान देखा । राजा ने चिंतन किया कि यह देवकृत उपद्रव है अथवा देव-प्रतिमा के स्थान पर दूसरी प्रतिमा रख दी है। फूलों को हटाने पर ज्ञात हुआ कि प्रद्योत ने प्रतिमा की भी चोरी की है। कुपित होकर राजा दूत के साथ संदेश भिजवाया कि तुमने दासी की चोरी की इससे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है लेकिन मेरी प्रतिमा वापिस कर दो। प्रत्युत्तर में राजा प्रद्योत ने कहा कि मैं प्रतिमा भी वापिस नहीं करूंगा। यह बात सुनते ही उद्रायण के रोष का पार नहीं रहा। राजा उद्रायण ने दस राजाओं के नेतृत्व में विशाल सुसज्जित सेना लेकर उज्जैनी की ओर प्रस्थान किया । भयंकर ग्रीष्म ऋतु का समय था । मरुभूमि में पैदल चलने से तथा पानी के अभाव में सारी सेना तीसरे ही दिन व्यथित और दुःखी हो गयी। सेना की यह स्थिति देखकर राजा दुःखी हो उठा । बहुत चिंतन करने पर भी कोई समाधान नहीं मिला। अंत में राजा ने रानी प्रभावती का स्मरण किया। फलस्वरूप प्रभावती का आसन कंपित हुआ। प्रभावती देव ने अवधि ज्ञान से जाना कि राजा उद्रायण अभी आपत्ति में है । देव प्रभाव से खूब वर्षा हुई। कृत्रिम सरोवर बना दिए गए। शीतल वायु बहने लगी । यह देवकृत सरोवर है अतः वहां पुष्कर तीर्थ की स्थापना कर दी। उद्रायण ने उज्जैनी पर चढ़ाई कर दी। अकारण ही अनेक लोगों की मौत को देखकर उद्रायण ने चण्डप्रद्योत से कहा- 'विरोध तो परस्पर हमारा है अतः हम दोनों ही लड़ेंगे। शेष निरपराध जनता को मारने से क्या लाभ?' प्रद्योत ने उद्रायण की बात स्वीकृत कर ली । दूतों के माध्यम से आपस में चिन्तन किया कि युद्ध हाथी से करें, रथ से करें अथवा घोड़ों से? प्रद्योत ने कहलवाया कि तुम्हारे पास श्रेष्ठ हस्ती नहीं है अतः रथ से ही युद्ध करेंगे। लेकिन युद्ध के दिन राजा प्रद्योत हाथी लेकर उपस्थित हुआ । उद्रायण रथ पर आरूढ़ था। शेष सेना दर्शक की भांति मध्यस्थ भाव से युद्ध का नजारा देख रही थी। उद्रायण ने चुनौती देते हुए कहा कि अपने वचन का पालन न करने वाले को जीने का कोई अधिकार नहीं है। प्रथम बार में ही क्षत्रिय शौर्य दिखाते हुए उद्रायण ने चक्रभ्रम की तरह तीर छोड़ा जिससे हाथी के चारों पांव बिंध गए। वह मृत होकर वहीं गिर गया । उद्रायण ने प्रद्योत को हराकर बंदी बना लिया। उज्जैनी पर उद्रायण का अधिकार हो गया। स्वर्णगुटिका दासी को वहीं मार दिया गया। प्रतिमा देवाधिष्ठित थी अतः वहां से वापिस वीतभय ले जाना संभव नहीं हो सका। राजा उद्रायण ने प्रतिबोधित करने के लिए प्रद्योत के ललाट पर 'दासीपति' शब्द अंकित करवा दिया। उद्रायण अपनी सेना के साथ प्रद्योत को बंदी बनाकर ले गया। उस समय तक वर्षा ऋतु प्रारम्भ हो गयी थी। प्रतिदिन दसों मुकुटबद्ध राजा और उद्रायण के आहार करने के पश्चात् प्रद्योत को आहार करवाया जाता था । Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ नियुक्तिपंचक एक बार पर्युषण काल में उद्रायण ने उपवास किया। उसने रसोइए को भेजकर प्रद्योत को पूछवाया कि आज तुम्हारे लिए क्या बनवाया जाए? प्रद्योत से जब उसकी इच्छा पूछी गयी तो उसका मन आशंकित हो गया। उसने सोचा आज तक मुझसे यह प्रश्न नहीं पूछा गया आज ही यह बात क्यों पूछी गयी? निश्चित ही राजा विष मिश्रित भोजन देकर मुझे मारना चाहता है। तत्काल उसके मन में चिंतन उभरा कि संदेह नहीं करना चाहिए अत: इसी से पूछू कि वास्तविकता क्या है? पूछने पर रसोइए ने उत्तर दिया कि राजा श्रमणोपासक है अत: पर्युषण पर्व की आराधना के लिए उपवास किया है, इसलिए आपकी इच्छा जानने के लिए मुझे भेजा है। यह सुनते ही प्रद्योत को स्वयं पर बहुत ग्लानि हुई और वह अपने आपको धिक्कारने लगा कि आज मुझे पर्युषण का दिन भी याद नहीं रहा। फिर उसने कहा कि मैं भी श्रमणोपासक हूँ अतः राजा से कहना कि मैं भी आज उपवास करूंगा। रसोइए ने जाकर सारी बात उद्रायण के सामने प्रकट की। आत्मचिंतन करते हुए उद्रायण ने सोचा-'मैंने अपने साधर्मिक को बंदी बना रखा है अत: आज मैं उसे मुक्त किए बिना शुद्ध सामायिक नहीं कर सकता।' राजा उसी क्षण प्रद्योत के पास गया और उसके सारे बंधन खोलकर क्षमायाचना की। ललाट पर लिखित शब्दों को ढंकने के लिए उद्रायण ने प्रद्योत के सिर पर एक स्वर्णपट्ट बंधवा दिया। उसी दिन से राजा प्रद्योत पट्टबद्ध राजा के रूप में प्रसिद्ध हो गया। ३. दरिद्र किसान और चोर सेनापति किसी गांव में उत्सव के अवसर पर धनवानों के घर खीर बनी। खीर देखकर एक गरीब के बच्चे भी खीर खाने का आग्रह करने लगे। बच्चों की इच्छा देखकर वह दरिद्र व्यक्ति मांग कर चावल और दूध लाया तथा अपनी पत्नी को खीर बनाने के लिए कहा। वह सीमावर्ती गांव था। उस दिन चोरों की सेना वहां आ गयी। चोरों ने गांव को लूटना प्रारम्भ कर दिया। वे उस दरिद्र के घर भी आए और पात्र सहित खीर को ले गए। उस समय वह गरीब खेत पर गया हुआ था। खेत से घास आदि काटकर जब वह वापिस आया तो उसने चिंतन किया कि आज खीर बनी है अत: बच्चों के साथ ही खाना खाऊंगा। लेकिन जब वह घर पहुंचा तो बच्चों ने रोते हुए चोरों द्वारा खीर ले जाने की सारी बात बतायी। क्रोधावेश में घास के गट्ठर को वहीं छोड़कर वह चोरों की पल्ली में गया। वहां उसने सेनापति के सामने खीर का पात्र देखा। उस समय चोर तो पुन: गांव लूटने चले गए थे। सेनापति अकेला बैठा था। उसने तलवार से सेनापति का सिर काट लिया। नायक की मृत्यु पर चोर असहाय हो गए लेकिन उस समय मृतककृत्य करके सेनापति के छोटे भाई को अपना मुखिया बना दिया। मुखिया बनने पर उसकी मां, बहिन और भाभी व्यंग्य में कहने लगी कि तुम्हारे जीवन को धिक्कार है, जो तुम अपने भाई के शत्रु से बदला लिए बिना सेनापति बन गए हो। परिजनों की बात सुनकर क्रोध में आकर वह चोर सेनापति उस गरीब को जीवित ही पकड़ कर ले आया। उसके हाथों में बेड़ियां डालकर परिजनों के सम्मुख उसे प्रस्तुत किया। चोर सेनापति ने तलवार हाथ में लेकर गरीब को संबोधित करते हुए कहा-'बोल, तेरा वध कहां करूं? तू मेरे भाई का घातक है।' गरीब ने दीन भाषा में कहा-'जहां शरणागत मारे जाते हैं, वहीं मुझे मारो।' उसके उत्तर को सुनकर सेनापति ने चिंतन किया कि शरणागत तो अवध्य होते हैं। उसने अपने परिजनों की ओर १. दनि ९५-९८, निभा ३१८२-८५, चू.पृ. १४०-४७। Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ६२३ देखा। उन्होंने कहा--'शरणागत का वध नहीं किया जाता।' यह सुनकर चोर सेनापति ने उस भ्रातृघातक को ससम्मान विसर्जित कर दिया। ४. क्रोध का दुष्परिणाम एक ब्राह्मण के पास एक बैल था। एक बार वह बैल को लेकर खेत जोतने के लिए गया। खेत जोतते हुए बैल थक गया और वहीं गिर गया। असमर्थता के कारण वह उठ नहीं सका। ब्राह्मण ने उसे चाबुक से मारा। चाबुक टूट गया लेकिन बैल उठ नहीं सका। अन्य कोई चीज न देखकर वह मिट्टी के ढेलों से बैल को मारने लगा। इस प्रकार एक-एक करके चार केदारों के ढेलों से उसे मारा फिर भी वह नहीं उठा तो ढेलों से मारते-मारते बैल के चारों ओर ढेलों का ढेर हो गया और वह बैल मर गया। ___ वह ब्राह्मण गोहत्या के पाप की विशुद्धि के लिए अन्य ब्राह्मणों के पास उपस्थित हुआ। उन्हें सारी घटना सुनायी। ब्राह्मण ने आत्मालोचन करते हुए कहा कि मुझे इतना क्रोध आया कि अभी भी क्रोध शांत नहीं हुआ है। ब्राह्मणों ने सारी बात सुनकर कहा-'तुम अतिक्रोधी हो अतः तुम्हारी शुद्धि नहीं हो सकती। हम तुम्हें प्रायश्चित्त नहीं देंगे।' ऐसा कह उसे जाति से बहिष्कृत कर दिया तथा वह लोगों की दृष्टि में निन्दा और घृणा का पात्र बन गया। ५. दिशा ही बदल गई (अत्वंकारीभट्टा) क्षितिप्रतिष्ठित नगर में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उसकी पटरानी का नाम धारिणी और मंत्री का नाम सुबुद्धि था। उसी नगर में धन नामक श्रेष्ठी निवास करता था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। सेठ के आठ पुत्रों के पश्चात् एक पुत्री हुई। सेठ ने उसका नाम भट्टा रखा। वह पारिवारिक जनों की अत्यन्त दुलारी थी अत: माता-पिता ने सभी से कह रखा था कि वह जो कुछ भी करे लेकिन इसे कोई 'चूं' तक न कहे, रोक-टोक न करे अत: उसका नाम अच्चकारिय भट्टा-अत्वंकारी भट्टा पड़ गया। भट्टा बहुत रूपवती थी अतः अनेक लोग उससे विवाह करने के इच्छुक थे। जब वह यौवन की दहलीज पर पहुंची तो उसने संकल्प लिया कि वह उसी व्यक्ति को अपना जीवन-साथी बनाएगी जो उसके सभी आदेशों का पालन करेगा तथा अपराध होने पर भी कुछ नहीं कहेगा। एक बार उसके लावण्य से मोहित होकर मंत्री सुबुद्धि उसके साथ विवाह करने को तैयार हो गया। मंगल-बेला में दोनों विवाहसूत्र में बंध गए। मंत्री सदा उसकी आज्ञा का पालन करने लगा। मंत्री प्रतिदिन राजकार्य समाप्त कर एक प्रहर रात बीतने पर घर लौटता था। भट्टा ने मंत्री से कहा कि आप सायं घर शीघ्र आया करें। पत्नी के कहे अनुसार मंत्री शीघ्र ही राज्य के कार्य से निवृत्त होकर घर लौट आता था। एक दिन राजा ने चिंतन किया कि यह मंत्री इतनी जल्दी घर क्यों चला जाता है? राजा के चिन्तन को जानकर अन्य राजदरबारियों ने कहा-'महाराज! मंत्री बड़ा पत्नीभक्त है अत: वह उसकी आज्ञा का भंग नहीं कर सकता।' एक दिन राजा ने कारणवश कुछ काम बताकर मंत्री को वहीं रोक लिया। मंत्री देरी से १. दनि ९९, १००, दचू प. ६१, निभा ३१८६, ३१८७ चू. पृ. १४७, १४८। २. दनि १०५, दचू प. ६२, निभा ३१९३ चू. पृ. १५० । Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिपंचक घर पहुंचा। भट्टा अपने वायदे की अवहेलना सह न सकी अतः उसने द्वार नहीं खोले। मंत्री बाहर ही खड़ा रहा। जब अति विलम्ब हो गया तब मंत्री ने भट्टा से कहा- 'मैं तो जाता हूं, अब तुम ही इस घर की स्वामिनी बनकर रहना।' यह सुनते ही भट्टा ने द्वार खोला और अभिमानवश अकेली ही जंगल में चली गयी। वह अनेक आभूषणों से विभूषित थी अतः रास्ते में चोरों ने उसे पकड़ लिया। चोरों ने उसके आभूषण उतार लिए और अपने सेनापति के समक्ष उसे उपस्थित किया। चोरों का मुखिया उसके रूप पर मुग्ध हो गया और उसे विवाह सूत्र में बंधने के लिए कहा लेकिन उसने वह प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया। अनेक प्रयत्नों के बाद भी वह उसे प्राप्त नहीं कर सका। अंत में सेनापति ने जलौक वैद्य के हाथों उसे बेच डाला। उसने भी उसे अपनी पत्नी बनाना चाहा लेकिन वह शीलवती नारी थी अतः अपने धर्म से नहीं डिगी। अंत में उस जलौक वैद्य ने रोष में कहा कि जाओ मेरे लिए जलौका लेकर आओ। वह शरीर पर मक्खन चुपड़कर जल में अवगाहन करती और जौंक पकड़ती । वह कार्य उसके लिए उपयुक्त नहीं था। वह वैसा करना भी नहीं चाहती थी परन्तु शीलरक्षा के लिए उसे वैसा करना पड़ रहा था। इस कार्य से उसका रूप और लावण्य नष्ट हो गया। ६२४ एक बार दूत कार्य में नियुक्त उसका भाई वहां आया। वहां उसने अपनी बहिन को पहचान लिया और उससे सारा वृत्तान्त जाना। भाई जलौक वैद्य से अपनी बहिन को मुक्त कराकर घर ले आया । वमन विरेचन आदि प्रयत्नों से वह पूर्ण स्वस्थ हो गई। अमात्य ने उस पर विश्वास कर लिया। अपने घर लाकर उसे पुनः गृहस्वामिनी बना दिया । क्रोधपूर्वक अभिमान के दुष्परिणाम को देखकर उसने संकल्प किया कि मैं अब क्रोध और अभिमान नहीं करूंगी। अब उसका अभिमान मर चुका था। भट्टा के घर लक्षपाक तैल का निर्माण हुआ। एक मुनि ने अपनी व्रण - चिकित्सा के लिए भट्टा से वह तैल मांगा। भट्टा ने अपनी दासी को तैल का घट लाने को कहा। दासी जब घट उठाने लगी तो वह उसके हाथ से गिरकर फूट गया । इसी प्रकार दूसरा और तीसरा घट भी हाथ से गिरा और फूट गया । बहुमूल्य तैल-घटों के नष्ट हो जाने पर भी भट्टा को क्रोध नहीं आया। चौथी बार उसने स्वयं उठकर लक्षपाक तैल साधु को दिया। तीन घड़ों के फूट जाने से भी उसके मन पर कोई असर नहीं हुआ।' ६. आराधक - विराधक (पांडुरा आर्या ) एक शिथिलाचारिणी साध्वी थी। उसका नाम 'पांडुरा' था । उसको शरीर और उपकरणों प्रति आसक्ति थी अतः वह शरीरबकुश और उपकरणबकुश थी । वह प्रतिदिन स्वच्छ और सफेद वस्त्र धारण करती थी इसीलिए लोगों ने उसका नाम 'पाडुंरा आर्या' रख दिया। पांडुरा को अनेक विद्या, मंत्र, वशीकरण और उच्चाटन आदि की जानकारी थी तथा उसको अनेक विद्याएं सिद्ध थीं । वह उन विद्याओं का प्रयोग भी करती थी। इन विद्याओं का चमत्कार देखने अनेक व्यक्ति श्रद्धा से उसके पास आते और मस्तक झुकाकर हाथ जोड़े खड़े रहते । आधी उम्र बीतने पर उसे वैराग्य आया और उसने अपने आचार्य को निवेदन किया कि आप मुझे अकल्प्य वृत्तियों की आलोचना करवाएं। आलोचना के बाद उसने दीर्घकाल तक दीक्षापालन में अपनी असमर्थता व्यक्त की। आचार्य ने मंत्र, विद्या आदि का प्रयोग करने का प्रत्याख्यान १. दनि १०६-१०९, दचू प. ६२, निभा ३१९४ - ९७, चू. पृ. १५०, १५१ । Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं कराकर संथारा दिला दिया तथा साधु-साध्वियों को निर्देश दिया कि यह बात लोगों को न कही जाए। भक्त प्रत्याख्यान के पश्चात् कुछ साधु-साध्वियों के अतिरिक्त वह एकाकी हो गयी। पहले वह बहुत लोगों से घिरी रहती थी। अब लोग उसके पास नहीं आते थे। कुछ समय पश्चात् उसे इस साधना से अरुचि पैदा हो गयी। उसने मानसिक रूप से पुन: विद्या का प्रयोग किया जिससे लोगों का आवागमन पुन: शुरू हो गया। लोग पुष्प, फल आदि भेंट लेकर वंदना करने आने लगे। आचार्य ने साधु-साध्वियों से पूछा- 'क्या तुमने पांडुरा के बारे में लोगों को जानकारी दी है, जिससे इतनी भीड़ हो रही है।' श्रमणवर्ग ने नकारात्मक उत्तर दिया। आखिर पांडुरा से पूछा तो उसने यथार्थ बात बता दी। गुरु ने प्रतिबोध दिया और उसने उस दोष की आलोचना की। उसने पुनः विद्या का प्रयोग छोड़ दिया अतः लोगों का आवागमन कम हो गया। एकाकीपन उसे खलने लगा। इस प्रकार तीन बार उसने विद्या का प्रयोग किया और पूछने पर सम्यक् प्रतिक्रमण और आलोचना की । चौथी बार जब उसने विद्या का प्रयोग किया तो पुनः लोग आने लगे। पूछे जाने पर उसने माया का प्रयोग किया और कहा कि ये लोग पूर्व अभ्यास के कारण आते हैं। इस दोष की आलोचना किए बिना ही वह काल-धर्म को प्राप्त हो गयी? मरकर वह सौधर्म देवलोक में ऐरावत की अग्रमहिषी बनी। उसके पश्चात् वह हथिनी के रूप में भगवान् महावीर के समवसरण में उपस्थित हुई । धर्मदेशना समाप्त होने पर भगवान के सामने वह जोर से चिंघाड़ने लगी तथा सूंड से प्रचंड हवा छोड़ने लगी । यह देखकर गौतम स्वामी के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई। उन्होंने भगवान से पूछा। भगवान ने उसके पूर्वभव को बतलाया और प्रेरणा देते हुए कहा कि जो कोई साधु-साध्वी इस प्रकार माया का सेवन करेगा उसे ऐसा ही परिणाम भोगना पड़ेगा। माया के परिणाम अत्यंत भयंकर होते हैं । ७. करणी का फल (आर्य मंगु) आचार्य मंग बहुश्रुत, आगमज्ञ और विरक्त आचार्य थे। वे अपनी शिष्य-संपदा के साथ विहार करते हुए एक बार मथुरा नगरी पधारे। उनके वैराग्य को देखकर लोगों ने वस्त्र आदि से अभ्यर्थना की तथा प्रतिदिन दूध, दही, घी आदि स्वादिष्ट पदार्थों का दान देने लगे। आचार्य मंगु सुख और भोगों में प्रतिबद्ध होकर वहीं रहने लगे। वे विहार की चर्चा भी नहीं करते। शेष साधुओं को यह बात नहीं भायी। वे अन्यत्र विहार कर गये। आचार्य मंगु ने अन्तिम समय में अपने कृत्य पापों की आलोचना नहीं की अतः वे व्यन्तर जाति में यक्ष रूप में उत्पन्न हुए। उस स्थान से जब कोई साधु विहार करते तब वे यक्ष-प्रतिमा में प्रवेश करके खूब लम्बी जीभ निकालते । साधुओं के पूछने पर वे कहते कि मैं जीभ के सुख में प्रतिबद्ध और आसक्त हो गया था अतः कम ऋद्धिवाला देव बना हूं। तुम लोगों को प्रेरणा देने यहां आया हूं। तुम जिह्वा - सुख में प्रतिबद्ध मत होना । २ ८. आचार्य कालक और पर्युषणपर्व ६२५ उज्जयिनी नगरी में बलमित्र और भानुमित्र नामक दो राजा थे। उनका भानजा आचार्य कालक द्वारा दीक्षित हुआ। राजाओं ने आक्रुष्ट होकर आर्य कालक को देश निकाला दे दिया। वे १. दनि ११०,१११, दचू प. ६२, ६३, निभा ३१९८, ३१९९, चू. पृ. १५१, १५२ । २. दनि ११२, दचू प. ६३, निभा ३२००, चू. पृ. १५२, १५३ । Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ नियुक्तिपंचक प्रतिष्ठान नगर में गए। वहां शातवाहन नामक राजा श्रावक था। उसने 'श्रमणपूजा' नामक उत्सव प्रारम्भ किया। और अंत:पर में कहा कि अमावस्या और अष्टमी आदि को उपवास करके पारणे में साध को भिक्षा देकर पारणा करना चाहिए। एक बार पर्यषणाकाल निकट आने पर शातवाहन को आचार्य कालक ने कहा कि भाद्रव शुक्ला पंचमी को पर्युषणा होती है। राजा ने कहा-'उस दिन मेरे यहाँ इन्द्र-महोत्सव होगा अतः मैं उस दिन साधु और चैत्य की पर्युपासना नहीं कर सकूँगा अतः षष्ठी के दिन पर्युषणा कर ली जाए।' आचार्य ने कहा-'पंचमी के दिन का अतिक्रमण नहीं हो सकता।' राजा ने निवेदन किया कि फिर चतुर्थी को ही पर्युषणा कर ली जाए। आचार्य ने कहा कि ऐसा संभव है अतः चतुर्थी के दिन ही पर्युषणा की गयी। इस प्रकार कारण उपस्थित होने पर चतुर्थी को भी पर्युषण मनाया गया। ९. ईर्यासमिति की जागरूकता एक साधु ईर्या समिति में उपयुक्त था। उसकी साधना के प्रभाव से इन्द्र का आसन चलित हो गया। इन्द्र ने देवताओं के मध्य उसकी प्रशंसा की। एक मिथ्यादष्टि देव इस प्रशंसा को सह नहीं सका अतः वह उस साधु के निकट आया। उसने मक्खी जितने प्रमाण की मेंढ़कियों की विकुर्वणा की। परा मार्ग मेंढकियों से समाकल हो गया। उसी मार्ग पर पीछे से एक हाथी दौडता हआ आ रहा था। उसका भय था पर मनि ने अपनी गति में भेद नहीं किया। वे ईर्यापर्वक मार्ग में चलते रहे। हाथी निकट आया और उसने मुनि को सूंड से पकड़ ऊपर उछाला। उस समय मुनि ने अपने शरीर की परवाह नहीं की। नीचे गिरने पर सत्त्वों की हिंसा होगी इस दयाभाव में परिणत होकर वे ध्यानस्थ हो गए। १०. मनोगुप्ति एक श्रेष्ठीपुत्र अपनी पत्नी को छोड़कर प्रव्रजित हो गया। एक बार वह शून्यगृह में प्रतिमा में स्थित था। उसकी पत्नी एक पारदारिक के साथ उसी शून्यगृह में आयी। अंधकार सघन था। वहां एक मंचक था। स्त्री ने मंचक को उठाया। न दीखने के कारण मंचक का एक हिस्सा (पाया) मुनि के पैर पर रख दिया। मुनि को मंचक के उस पाये की कील की चुभन महसूस होने लगी। पर वे प्रतिमा में स्थित थे। पारदारिक ने उसके साथ रतिक्रीड़ा की। मुनि ने दोनों को अनाचार का सेवन करते देख लिया, जान लिया पर वे विचलित नहीं हए। वे प्रतिमा में स्थिर रहे। १. ३. दनि ६८, दचू प. ५५। २. दनि ९१, दचू प. ५९ । दनि ९२, दचू प. ६०, दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति की ८-१० इन तीन कथाओं का क्रमांक आगे अनुवाद के पादटिप्पण में नहीं लग पाया है अत: इनको क्रम की दृष्टि से अंत में रखा है। Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ परिभाषाएं अउगव-अयोगव। सुद्देण वइस्सीए जाओ अउगवुत्ति भण्णइ। शूद्र पुरुष से वैश्य स्त्री में उत्पन्न संतान अयोगव कहलाती है। (आचू. पृ. ५) अंबट्ठ-अम्बष्ठ। बंभणेणं वइस्सीए जाओ अंबट्ठो त्ति वुच्चइ। ब्राह्मण पुरुष से वैश्य स्त्री में उत्पन्न संतान अम्बष्ठ कहलाती है। (आचू. पृ. ५) अकम्मंस-अकर्मांश। कर्मणस्ते अवगया जस्स सो अकम्मंसो। _जिसके सभी कर्म अपगत हो गए हों, वह अकर्माश है। (उचू. पृ. १४५) अकहा-अकथा। मिच्छत्तं वेदंतो जं अण्णाणी कहं परिकहेति... सा अकहा देसिया समए। मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का वेदन करता हुआ अज्ञानी जो कथा करता है, वह विकथा कहलाती है। (दशनि.१८२) अकिंचण-अकिञ्चन। नत्थि जस्स किंचणं सोऽकिंचणो। जिसके पास कुछ भी नहीं है, वह अकिंचन है। (दशअचू. पृ. ११) अकिंचणया-अकिंचनता। अकिंचणया नाम सदेहे निस्संगता निम्ममत्तणं ति वुत्तं भवति। अपने शरीर के प्रति नि:संगता और निर्ममत्व अकिंचनता कहलाती है। __ (दशजिचू. पृ. १८) अक्खेवणी-आक्षेपणी। जाए सोता रंजिज्जति,सा अक्खेवणी। जिसको सुनकर श्रोता रंजित होते हैं, वह आक्षेपणी कथा है। (दशअचू. पृ. ५५) • विजा-चरण-पुरिसकार-समिति-गुत्तीओ जाए कहाए उवदिस्संति,सो कहाए अक्खेवणीए रसो। जिस कथा में विद्या, चरण, पुरुषकार, समिति, गुप्तियां उपदिष्ट होती हैं, वह आक्षेपणी कथा का रस है। (दशअचू. पृ. ५६) अगंधण-अगंधन। अगंधणा णाम मरणं ववसंति,ण य वंतयं आवियंति। जो मरना पसन्द कर लेते हैं पर वान्त विष का पुनः पान नहीं करते, वे अगंधन कुल के सर्प कहलाते हैं। (दशजिचू. पृ. ८७) अग्गबीय-अग्रबीज। जेसिं कोरंटगादीणं अग्गाणि रुप्पंति ते अग्गबीया। जिसका अग्रभाग ही बीज है, जिसका अग्रभाग बोया जाता है, वह वनस्पति अग्रबीज कहलाती है , जैसे- कोरंटक आदि। (दशअचू. पृ. ७५) अग्गला-अर्गला। दुवारे तिरिच्छं खीलिकाकोडियं कळं अग्गला। द्वार में तिरछे काष्ठ का अवष्टम्भन अर्गला कहलाती है। (दशअचू. पृ. १२७) अचियत्त-अप्रिय। अचियत्ते ति अप्रीतिकरः दृश्यमानः सम्भाष्यमाणो वा सर्वस्याप्रीतिमेवोत्पादयति। Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ नियुक्तिपंचक जिसको देखने से एवं जिसके साथ बातचीत करने से अप्रीति उत्पन्न होती है, वह अचियत्त-अप्रीतिकर है। (उशांटी. प. ३४६) • अणिट्ठो पवेसो जस्स सो अचियत्तो जिसका आना अनिष्टकर लगता है, वह अचियत्त-अप्रीतिकर है। (दशअचू. पृ. १०४) अच्चि-अर्चि। दीवसिहासिहरादि अच्ची। दीपशिखा के अग्रभाग को अर्चि कहते हैं। (दशअचू. पृ. ८९) • दाह्यप्रतिबद्धो ज्वालाविशेषोऽर्चिः। दाह्य वस्तु से प्रतिबद्ध ज्वाला-विशेष अर्चि कहलाती है। (आटी. पृ. ३३) • अच्ची नाम आगासाणुगयापरिच्छिन्ना अग्गिसिहा। आकाश की ओर ऊपर उठने वाली अपरिच्छिन्न अग्निशिखा अर्चि कहलाती है। ___ (दशजिचू. पृ. १५६) अच्छिन्नसंधना-अच्छिन्नसंधना। पसत्येसु भावेसु वट्टमाणो जं अपुव्वं भावं संधेइ एसावि अच्छिन्नसंधणा। प्रशस्त भावों में वर्तमान व्यक्ति जिन अपूर्व भावों का संधान करता है, वह अच्छिन्नसंधना कहलाती है। (आचू.पृ. ४७) अज्झप्प-अध्यात्म। अप्पाणमधिकरेऊण जं भवति तं अज्झप्पं। आत्मा को लक्ष्य कर जो किया जाता है, वह अध्यात्म है। (दशअचू.पृ. २४१) अज्झयण-अध्ययन। अज्झप्पस्साणयणं, कम्माणं अवचओ उवचियाणं। अणुवचओ य नवाणं, तम्हा अज्झयणमिच्छति ॥ अधिगम्मति व अत्था, इमेण अधिगं च नयणमिच्छंति। अधिगं च साहु गच्छति, तम्हा अज्झयणमिच्छंति॥ अध्ययन का अर्थ है-अध्यात्म का आनयन। उपचित (संचित) कर्मों का अपचय और नए कर्मों का अनुपचय, यह सारा अध्यात्म का आनयन है। यह अध्ययन है। जिससे अर्थ-बोध होता है, वह अधिगम अध्ययन है अथवा जिससे अर्थबोधि में अधिक गति होती है, वह अध्ययन है। इससे मुनि संयम के प्रति तीव्र प्रयत्न करता है, इसलिए (भव्य जन) अध्ययन की इच्छा करते हैं। (दशनि .२६,२७, उनि.६,७) अट्ट-आर्त। अट्टो णाम अट्टज्झाणोवगतो रागद्दोससहितो। आर्तध्यान से युक्त तथा राग-द्वेष से प्रभावित व्यक्ति आर्त कहलाता है। (आचू.पृ. ८७) अट्ट-आर्त्तध्यान । ऋतं-दुःखं तन्निमित्तं दुरज्झवसातो अटें। दु:ख का निमित्तभूत दुर् अध्यवसाय आर्त्तध्यान है। (दशअचू.पृ. १६) अणंतजीव-अनंत (काय) जीव। चक्कागं भज्जमाणस्स, गंठी चुण्णघणो भवे। पुढविसरिसभेदेणं, अणंतजीवं वियाणाहि ॥ गूढसिरागं पत्तं, सच्छीरं जं च होइ निच्छीरं । जं पुण पणट्ठसंधिय, अणंतजीवं वियाणाहि ॥ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं - जिसके मूल, कंद, त्वक्, पत्र, पुष्प, फल आदि को तोड़ने से समानरूप में चक्राकार टुकड़े होते हैं, जिसका पर्वस्थान चूर्ण-रजों से व्याप्त होता है अथवा जिसका भेदन करने पर पृथ्वी सदृश भंग होते हैं, वह अनन्तकाय वनस्पति कहलाती है । - जिसके पत्ते क्षीर मुक्त अथवा क्षीर शून्य तथा गूढ़ शिराओं वाले होते हैं, जिनकी शिराएं अलक्ष्यमाण होती हैं, जिनके पत्रार्ध की संधि दृग्गोचर नहीं होती, वे अनन्तजीव वनस्पति कहलाती हैं। (आनि १३९, १४० ) अणगार - साधु । गुत्ता गुत्तीहिं सव्वाहिं, समिया समितीहिं संजया । जयमाणगा सुविहिता, एरिसगा होंति अणगारा ॥ जो गुप्तियों से गुप्त, सभी समितियों से समित, संयत और यतना करने वाले होते हैं, वे अनगार कहलाते हैं । (आनि १०५ ) अगारं - गृहं तं जस्स नत्थि सो अणगारो । जिसके कोई अगार - घर नहीं है, वह अनगार कहलाता है । (दशअचू. पृ. ३७) अणाइल-अनाकुल। अणाइलेत्ति न धर्म देशमानो आतुरो भवति चोदितो वा आकुलव्याकुलीभवति । जो धर्म की देशना देता हुआ तथा प्रश्न पूछने पर आकुल-व्याकुल नहीं होता, वह अनाकुल (सूचू १ पृ. २३५) है । ० ६१९ अणाइलो णाम परीषहोपसगैः नक्रैः समुद्रवद् नाऽऽकुलीक्रियते । जैसे मगरमच्छ आदि जलजंतुओं से समुद्र आकुल नहीं होता, वैसे ही जो परीषहों और उपसर्गों से आकुल नहीं होता, वह अनाकुल 1 अणाजीवी - अनाजीवी । अणाजीवी ण तवमाजीवति लाभ-पूयणादीहिं । (सूचू १ पृ. ६३, ६४ ) जो लाभ, पूजा आदि के लिए तप से आजीविका नहीं करता, वह अनाजीवी है। (दशअचू पृ. ५३) ० अणायु - अनायु । अनायुरिति नास्यागमिष्यं जन्म विद्यते आगमिष्यायुष्कबंधो वा । जिसका आगामी जन्म नहीं होता, जिसके आगामी आयुष्य का बंध नहीं होता, वह अनायु होता है। (सूचू १ पृ. १४४) • न विद्यते चतुर्विधमप्यायुर्यस्य स भवत्यनायुः । जिसके चारों प्रकार का (मनुष्य, देव, नरक और तिर्यञ्च) आयुष्य न हो, वह अनायु है । ( सूटी पृ. ९७ ) अणिदाण - अनिदान | माणुसरिद्धिनिमित्तं तव - संजमं न कुव्वइ से अनियाणे । जो मनुष्य - सम्बंधी ऋद्धि को प्राप्त करने के लिए तप, संयम नहीं करता, वह अनिदान होता है । (दशजिचू पृ. ३४५) ० अणिदाणो ण दिव्व- माणुस्सएसु कामभोगेषु आसंसापयोगं करेति जो देवसंबंधी तथा मानुषिक कामभोगों की आशंसा नहीं करता, वह अनिदान है। (सूचू १ पृ. ७६) अवुड अनिर्वृत। तत्तं पाणितं पुणो सीतलीभूतं आठक्कायपरिणामं जाति तं अपरिणयं अणिव्वुडं । Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक गर्म पानी भी ठंडा हो जाने पर पुन: अप्काय के परिणाम (सचित्त जल) वाला बन जाता है, वह अपरिणत और अनिर्वृत जल कहलाता है। (दशअचू पृ. ६१) अणिह-अनिभ। अनिहो नाम परीषहोपसगैर्न निहन्यते तव-संजमेसु वा संतपरक्कम ण णिहेति। जो परीषहों और उपसर्गों से पराभूत नहीं होता अथवा जो तप और संयम में अपनी शक्ति का गोपन नहीं करता, वह अनिभ है। (सूचू १ पृ. ५५) अणुक्कस-अनुत्कर्ष । अणुक्कसो णाम न जात्यादिभिर्मदस्थानैरुत्कर्ष गच्छति। जाति आदि मदस्थानों के आधार पर जो अहंकार नहीं करता, वह अनुत्कर्ष है। (सूचू १. पृ. ४५) अणुप्पेहा-अनुप्रेक्षा। अणुप्पेहा नाम जो मणसा परिअट्टेइ, णो वायाए। अनुप्रेक्षा का अर्थ है-मानसिक जाप, इसमें वचन का सर्वथा विसर्जन होता है। (दशहाटी प. ३२) • सुत्तऽत्थाणं मणसाऽणुचिंतणं। सूत्रार्थ का मन ही मन अनुचिंतन करना अनुप्रेक्षा है। (दशअचू पृ. १६) अणुभाव-अनुग्रह और विग्रह का सामर्थ्य । अणुभावो णाम शापानुग्रहसामर्थ्यम्। शाप देने और अनुग्रह करने का सामर्थ्य अनुभाव कहलाता है। (उचू पृ. २०८) अणुव्विग्ग-अनुद्विग्न । अणुव्विग्गो परीसहाणं अभीउ त्ति वुत्तं भवति। परीषहों में अभीत रहने वाला अनुद्विग्न कहलाता है। (दशजिचू पृ. १६८) अत्तगवेसि-आत्मगवेषी। अत्तगवेसगो णाम णरगेसु पडमाणं अत्ताणं गवेसतीति अत्तगवेसिणो।। जो नरक आदि दुर्गति में गिरती हुई आत्मा की गवेषणा करते हैं, वहां की उत्पत्ति के कारणों की मीमांसा करते हैं, वे आत्मगवेषी हैं। (दशजिचू पृ. २९२) अत्तपण्ण-आत्मप्रज्ञ। जेहिं इह अप्पीकता पण्णा ते अत्तपन्ना। जो प्रज्ञा को आत्मसात् कर लेते हैं, वे आत्मप्रज्ञ हैं। (आचू. पृ. २०१) अत्तव-आत्मवान्। णाणदंसणचरित्तमयो जस्स आया अस्थि सो अत्तवं। जिसकी आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्रमय हो, वह आत्मवान् है। (दशअचू पृ. १९७) अत्थविणय-अर्थविनय। अत्थनिमित्तं रायादीण विणयकरणं अत्यविणयो। धन के लिए राजा आदि का विनय करना अर्थविनय है। (दशअचू पृ. २०२) अदिट्ठधम्म-अदृष्टधर्मा। अदिट्ठधम्मे णाम सुतधम्म-चरित्तधम्मअजाणए भण्णइ। जो श्रुतधर्म और चारित्रधर्म को नहीं जानता, वह अदृष्टधर्मा है। (दशजिचू पृ. ३१७) अदीण-अदीन। अदीणो णाम जो परीसहोदए ण दीणो भवति अथवा रोगिवत् अपत्थाहारं अकामः असंजमं वज्जतीति अदीनः, जे पुण हृष्यंति इव ते अदीणा। जो परीषह आदि में कभी दीन नहीं होता अथवा जैसे रोगी अपथ्य आहार को छोड़ देता है वैसे ही जो असंयम का परिहार करता है तथा जो सदा प्रसन्न रहता है, वह अदोन है। (उचू पृ. १६५) अदीणवित्ति-अदीनवृत्ति। अदीणवित्ती नाम आहारोवहिमाइसु अलब्भमाणेसु नो दीणभावं गच्छइ। - - Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं ६३१ जो आहार, उपधि आदि नहीं मिलने पर भी दीन नहीं बनता, वह अदीनवृत्ति है। (दशजिचू पृ. ३२२) अदेसकालपलावि-क्षेत्र और समय को जाने बिना बोलने वाला। अदेसकालपलावी जाहे किंचि कज्जं अतीतं ताहे भणति जति पकरेंतो सुन्दरं होतं, मए पुव्वं चेव चिंतितेल्लयं । अदेशकालप्रलापी वह होता है, जो कार्य सम्पन्न होने पर सोचता है कि यदि मैं यह कार्य कर लेता तो कितना अच्छा होता। मैंने पहले ही यह सोच रखा था। (उचू पृ. १९७) अपडिण्ण-अप्रतिज्ञ। अप्रतिज्ञः इह परलोकेषु कामेषु अप्रतिज्ञः अमूर्च्छित अद्विष्टो वा। जो इहलोक और परलोक सम्बंधी कामभोगों में अमूर्च्छित और आकांक्षारहित होता है, वह अप्रतिज्ञ है। (सूचू १ पृ. १८५) अप्पिच्छ-अल्पेच्छ। अप्पिच्छया णाम जो ण मुच्छं करेइ, ण वा अतिरित्ताण गिण्हइ। प्राप्त पदार्थों में मूर्छा न करने वाला तथा आवश्यकता से अधिक न लेने वाला अल्पेच्छ होता है। (दशजिचू पृ. ३२०) • अप्पिच्छो णाम जो जस्स आहारो ताओ आहारपमाणाओ ऊणमाहारेमाणो अप्पिच्छो भवति । अपनी आहार की मात्रा से जो कम आहार लेता है, वह अल्पेच्छ कहलाता है। __ (दशजिचू पृ. २८२) अबुह-अज्ञानी। अबुहो णाम अप्रबुद्धेन्द्रियो बालः। जिसका इन्द्रिय-ज्ञान विकल है, जो बाल है, वह अबुध है। (सूचू १ पृ. ३७) अब्भक्खाण-अभ्याख्यान । अब्भक्खाणं असब्भूताभिणिवेसो। अयथार्थ अभिनिवेश अभ्याख्यान कहलाता है। (सूचू १ पृ. २४७) अब्भुट्ठाण-अभ्युत्थान। अब्भुट्ठाणं णाम जं अब्भुट्ठाणरिहस्स आगयस्स अभिमुहं उट्ठाणं। अभ्युत्थान के योग्य व्यक्ति के आने पर उसके सम्मुख खड़ा होना अभ्युत्थान है। (दशजिचू पृ. २९५) अभिगम-विनयप्रतिपत्ति । अभिगमो नाम साधूणमायरियाणं जा विणयपडिवत्ती सो अभिगमो भण्णइ। साधुओं तथा आचार्य के प्रति की जाने वाली विनयप्रतिपत्ति को अभिगम कहा जाता है। (दशजिचू पृ. ३२४) अभिणिव्वुड-अभिनिर्वृत । अभिनिर्वृतो लोभादिजयान्निरातुरः। अभिनिर्वृत वह है, जो कषाय-विजय से अनातुर हो गया है। (सूटी पृ. ११७) अभिधारणा-अभिधारणा। प्रस्विन्नो यदहिरवतिष्ठते वातागमनमार्गे साऽभिधारणा। पसीने से लथपथ हो जाने पर बाहर वायु के आगमन मार्ग में जाकर बैठना अभिधारणा है। (आटी पृ. ५०) अभिहड-अभिहत । अभिहडं जं अभिमुहमाणीतं उवस्सए आणेऊण दिण्णं। सम्मुख लाकर उपाश्रय में दी जाने वाली भिक्षा अभिहत भिक्षा है। (दशअच प. ६० अयल-अचल।अचलोत्ति थिरो नाणादिसु थिरचित्तो, ण य भज्जति अरतिरतीहिं अणुलोमेहिं पडिलो य उवसग्गेहिं। Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ नियुक्तिपंचक जो ज्ञान आदि में स्थिर चित्त वाला होता है तथा अनुलोम और प्रतिलोम उपसर्गों और रतिअरति से भग्नचित्त नहीं होता, वह अचल कहलाता है। (दचू.प. ४३) अरह-अर्हत्। नास्य रहस्यं विद्यत इति अरहा। जिनके लिए कोई रहस्य नहीं रहता, वे अर्हत् हैं। (उचू.पृ. १४५) अलोलुय-अलोलुप। आहारदेहादिसु अपडिबद्ध अलोलुए। जो आहार और शरीर के प्रति अप्रतिबद्ध-अनासक्त होता है, वह अलोलुप है। (दशअचू.पू. २५४) • अलोलुए नाम उक्कोसेसु आहारादिसु अलुद्धो भवइ अहवा जो अप्पणो वि देहे अपडिबद्धो सो अलोलुओ भण्णइ। जो अच्छे आहार आदि में लुब्ध नहीं होता, वह अलोलुप है अथवा जो अपने शरीर में भी अप्रतिबद्ध होता है, वह अलोलुप कहलाता है। (दशजिचू. पृ. ३२१) अविहेडय-दूसरों को तिरस्कृत न करने वाला। अविहेडए णाम जे परं अक्कोस-तेप्पणादीहिं न विहेडयति। जो आक्रोश, ताड़ना आदि के द्वारा दूसरों को तिरस्कृत नहीं करता, उसे अविहेटक कहते (दशजिचू.पृ. ३४३) • परे विग्गहविकथापसंगे सुसमत्थो वि ण तालणादिणा विहेडयति एवं अविहेडए। जो समर्थ होते हुए भी विग्रह और विकथा के प्रसंग में ताड़ना आदि के द्वारा दूसरों का तिरस्कार नहीं करता, वह अविहेटक कहलाता है। (दशअचू. पृ. २४०) असप्पलावि-असत्प्रलापी। असप्पलावी नाम जो असंतं उल्लावेति। जो असत् बात कहता है, वह असत्प्रलापी है। ___ (उचू. पृ. १९७) असम्भपलावि-असभ्य बोलने वाला। असम्भप्पलावी जो असम्भं उलावेति खरफरुस-अक्कोसादि असब्भं पलवइ। जो कर्कश, परुष, आक्रोश आदि असभ्य वचनों से बोलता है, वह असभ्यप्रलापी है। ___ (उचू.पृ. १९७) असमिक्खियपलावि-बिना विचारे बोलने वाला। असमिक्खियपलावी असमिक्खिउं उल्लविति, जं से मुहातो एति तं उल्लावेति। जो बिना सोचे-समझे बोलता है, जो मुंह में आता है ,वही बोल डालता है, वह असमीक्ष्यप्रलापी (उचू.पृ. १९७) अस्स-अश्व। अश्नाति अश्नुते वा अध्वानमिति अश्वः। जो मार्ग को खाता है, पार हो जाता है अथवा जो पथ में व्याप्त हो जाता है, वह अश्व __ (उचू.पृ. १२२) आठर-आतुर। सारीरमाणसेहिं दुक्खेहिं आतुरीभूतो अच्चत्थं तुरति आतुरो। शारीरिक और मानसिक दुःखों से दु:खी होकर जो अत्यंत त्वरा करता है, वह आतुर है। (आचू.पृ. १०८) Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं ६३३ आगंतार-धर्मशाला। तत्र आगत्य आगत्यागारा तिष्ठति तं आगंतागारम्। जहां आ-आकर पथिक ठहरते हैं, वह आगंतागार-धर्मशाला है। (आचू. पृ. ३४०) आगास-आकाश। आकाशन्ते-दीप्यन्ते स्वधर्मोपेता आत्मादयो यत्र तदाकाशम्। अपने-अपने धर्मों से युक्त पदार्थ जहां दीप्त होते हैं, वह आकाश है। (दशहाटी. प. ६९) आणापाणु-आन-अपान । णासिकागतस्स वातस्स अंतो अणुप्पवेसणमाणू.पाणूहिं निच्छुभणं आणापाणू। नासिकागत वायु को भीतर ले जाना 'आन' तथा बाहर निकालना 'अपान' है। (दशअचू. पृ. ६७) आणारुइ-आज्ञारुचि। जा तित्थगराणं आणा तं आणं महता संवेगसमावन्नो पसंसइ एस आणारुई। - जो तीर्थंकरों की आज्ञा की तीव्र संवेग से प्रशंसा करता है, आदर करता है, वह आज्ञारुचि (दशजिचू.पृ. ३३) आतजोगि-आत्मयोगी। आतजोगीणं ति जस्स जोगा वसे वटुंति आप्ता वा यस्य जोगा। जिसके योग वशवर्ती होते हैं अथवा जिसके योग आप्त हैं, वह आप्तयोगी कहलाता है। (दचू.प. २७) आयंक-आतंक। फुसंति पावंति आगता अंगं संकामेन्ति आयंका। जो बाहर से आकर शरीर का स्पर्श करते हैं, उसे प्राप्त करते हैं तथा उसमें सक्रांत होते हैं, वे आतंक-सद्योघाती रोग हैं। (आचू. पृ. २०३) • सारीरमाणसेहिं दुक्खेहिं अप्पाणं अंकेति आतंको। शारीरिक और मानसिक दुःखों से जो व्यक्ति को आतंकित करता है, वह आतंक है। (आचू. पृ. ३८) आलीढ-आलीढ, युद्ध की मुद्रा विशेष । तत्थालीढं दाहिणपादं अग्गहुत्तं काउं वामं पादं पच्छतोहुत्तं ओसारेति, अंतरं दोण्ह वि पायाणं पंचपादा। धनुर्धर के खड़े रहने की एक अवस्थिति विशेष आलीढ है, जिसमें दक्षिण पैर आगे और वाम पैर पीछे रहता है। दोनों के मध्य पांच कदमों का अन्तर होता है। (दचू. प. ४) आवण-आपण। आवणं कयविकयत्थाणं । क्रय-विक्रय का स्थान आपण है। (दशअचू. पृ. ११७) आवेसण-आवेसन। आगंतुं विसंति जहियं आवेसणं। जहां आगंतुक आकर बैठते हैं, वह आवेसन है। (आचू. पृ. ३११) आसायणा-आशातना। मिच्छापडिवत्तीए, जे भावा जत्थ होंति सब्भूता। तेसिं तु वितहपडिवज्जणाए आसायणा तम्हा॥ सद्भूत अर्थ को मिथ्या प्रतिपत्ति के द्वारा वितथरूप में स्वीकार करना आशातना है। (दनि. १९) • आयं सादयति आसादणा। जो आय-लाभ का विनाश करती है, वह आशातना है। (दचू. प. ११) Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ नियुक्तिपंचक आसीविस-आशीविष । दाढासु जस्स विसं स आसीविसो भण्णति। जिसकी दाढ़ा में विष होता है, वह आशीविष है। (उचू.पृ. १८५) आसुपण्ण-आशुप्रज्ञ। आसुपण्णे त्ति न पुच्छितो चिंतेति, आशु एव प्रजानीते आशुप्रज्ञः। प्रश्न करने पर जिसको चिन्तन नहीं करना पड़ता, तत्काल सब कुछ समझ लेता है, वह आशुप्रज्ञ कहलाता है। (सूचू. १. पृ. १२६) • आशुप्रज्ञ इति क्षिप्रप्रज्ञः क्षणलवमुहूर्तप्रतिबुद्ध्यमानता। आशुप्रज्ञ वह है, जो प्रतिक्षण जागरूक तथा अप्रमत्त रहता है। (सूचू.१. पृ. २२९) • आशुप्रज्ञः न छद्मस्थवद् मणसा पर्यालोच्य पदार्थपरिच्छित्तिं विधत्ते। जो छद्मस्थ की भांति मन से पर्यालोचित कर पदार्थों का अवबोध नहीं करता, वह आशुप्रज्ञ (सूटी. पृ. १०१) आसूरिय-आसूर्य । आसूरियाणि न तत्थ सूरो विद्यते, अधवा एगिदियाणं सूरो णत्थि जाव तेइंदिया असूरा वा भवंति। आसूर्य अर्थात् जहां सूर्य नहीं होता, प्रकाश नहीं होता अथवा एकेन्द्रिय जीवों से त्रीन्द्रिय जीवों तक असूर्य होते हैं, उनके आंखें नहीं होतीं। (सूचू.१. पृ. ७२, ७३) आहेण-आहेण। आहेणं ति यद्विवाहोत्तरकालं वधूप्रवेशे वरगृहे भोजनं क्रियते। विवाह के बाद वधू के गृहप्रवेश पर वर के घर में जो भोज का आयोजन किया जाता है, वह आहेण (बडार का बहूमेला) कहलाता है। (आटी. पृ.२२३) इंगाल-अंगारा। खदिरादीण णिद्दड्ढाण धूमविरहितो इंगालो। खदिर आदि लकड़ियों के जल जाने पर जो धूमरहित धगधगता कोयला होता है, वह अंगार (दशअचू. पृ. ८९) इंदियदम-इन्द्रियसंयम। इंदियदमो सोइंदियपयारणिरोधो वा सद्दातिराग-दोसणिग्गहो वा। श्रोत्रेन्द्रिय के विषय का निरोध अथवा शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों के प्रति राग-द्वेष का निग्रह करना इन्द्रियदम है। (दशअचू.पृ. ९३) इतरेतरसंजोग-इतरेतरसंयोग । दुप्पभितीण परमाणूणं जो संजोगो सो इतरेतरसंजोगो भवति परमाणूणं । दो-तीन आदि परमाणुओं का संयोग होना इतरेतरसंयोग है। (उचू. पृ. १७) उक्कोसणियंठ-उत्कृष्ट निर्ग्रन्थ। जो उक्कोसएसु संयमट्ठाणेसु वट्टति सो उक्कोसणियंठो भण्णति । जो उत्कृष्ट संयम-स्थानों में वर्तन करता है, वह उत्कृष्ट निर्ग्रन्थ है। (उचू.पृ. १४६) उग्ग-उग्र। खत्तिएणं सुद्दीए जातो उग्गोत्ति वुच्चइ। क्षत्रिय पुरुष से शूद्र स्त्री में उत्पन्न संतान उग्र कहलाती है। (आचू.पृ. ५) उजलण-उज्ज्वलन। उज्जलणं नाम वीयणमाईहिं जालाकरणमुज्जलणं। पंखे आदि से अग्नि को उद्दीप्त करना उज्ज्वलन है। (दशजिचू.पृ. १५६) उज्जु-ऋजु। उज्जु रागद्दोसपक्खविरहितो। ऋजु वह होता है, जो राग-द्वेष के पक्ष से रहित है। (दशअचू.पृ. ६३) Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं ६३५ उहपरीसह-उष्णपरीषह । जे तिव्वपरीणामा परीसहा ते भवंति उण्हा उ। जो तीव्र परिणाम वाले परीषह हैं, वे उष्ण परीषह कहलाते हैं। (आनि.२०४) उदाहरण-उदाहरण। तद्धम्मभावी दिटुंतो उदाहरणं। कथनीय धर्म का समर्थन करने वाला दृष्टान्त उदाहरण कहलाता है। (दशअचू. पृ. २०) • तथोदाहियते प्राबल्येन गृह्यतेऽनेन दार्टान्तिकोऽर्थ इति उदाहरणम्। दार्टान्तिक अर्थ को प्रबलता से प्रस्तुत करने वाला उदाहरण है। (दशहाटी. प. ३४) उद्देसित-उद्दिष्ट । उद्देसितं जं उद्दिस्स किज्जति। जो किसी को उद्दिष्ट कर बनाया जाए, वह उद्दिष्टकृत है। (दशअचू. पृ. ६) उब्भिय-उद्भिज । उब्भिया नाम भूमिं भेतूण पंखालया सत्ता उप्पज्जति। पृथ्वी को भेदकर उत्पन्न होने वाले पतंग आदि सत्त्व उद्भिज कहलाते हैं। (दशजिचू. पृ. १४०) उवगरणसंजम-उपकरणसंयम। उवगरणसंजमो महाधणमोल्लेसु वा दूसेसु वज्जणं तु संजमो। महामूल्यवान् वस्त्रों के उपभोग का संयम उपकरणसंयम है। (दशअचू. पृ. १२) ठवज्झाय-उपाध्याय। अविदिण्णदिसो गणहरपदजोग्गो उवज्झातो। जो गणधर पद के योग्य है, किन्तु अभी तक पद प्राप्त नहीं है, वह उपाध्याय है। (दशअचू. पृ. १५) उवधाणव-उपाधनकर्ता। उवधाणवं जो जो सुयस्स जोगो तं तहेव करेति। जिस-जिस सूत्र के वाचन में जितना तपोयोग का कथन है, वैसा करने वाला उपधानवान् है। (उचू. पृ. १९८) उवधि-उपधि। उवधी नाम अन्येषां वशीकरणम्। दूसरों को वश में करने का साधन उपधि है। (सूचू. १ पृ. १०२) उवमाण-उपमान। उपमीयतेऽनेन दान्तिकोऽर्थ इत्युपमानम् । दृष्टान्तगत अर्थ को जो उपमित करता है, वह उपमान है। (दशहाटी. प. ३४) उववूहण-उपबृंहण। तत्रोपबृंहणं नाम समानधार्मिकाणां सद्गुणप्रशंसनेन तद्वृद्धिकरणम्। साधार्मिकों के सद्गुणों की प्रशंसा कर उनको वृद्धिंगत करना उपबृंहण है। (दशहाटी. प. १०२) उवसंति-उपशान्ति। णवस्स कम्मस्स अकरणं पोराणस्स खवणं उवसंती वुच्चति । नए कर्मों का अबंध और बंधे हुए पुराने कर्मों का क्षपण उपशांति है। (आचू.पृ. ९१) उवहाण-उपधान । उवहाणं णाम तवो जो जस्स अज्झयणस्स जोगो आगाढमणागाढो तहेव अणुपालेयव्वो। जिस आगम के लिए जो तप विहित है, उसका उसी रूप में पालन करना उपधान है। ___ (दशजिचू. पृ. १००) उवेहासंजम-उपेक्षासंयम । उवेहासंजमो-संजमवंतं संभोइयं पमायंतं चोदेंतस्स संजमो, असंभोइयं चोयंतस्स असंजमो, पावयणीए कजे चियत्ता वा से पडिचोयण त्ति अण्णसंभोइयं पि चोएति, गिहत्थे कम्मायाणेसु सीदमाणे ठवेहंतस्स संजमो। सांभोजिक मुनि को प्रमाद के प्रति जागरूक करना. प्रवचन के प्रति होने वाली अवहेलना... wijainelibrary.org Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक को टालने के लिए असांभोजिक मुनि को जागरूक करना तथा कर्मादान से विषण्ण गृहस्थ को जागरूक करना उपेक्षा संयम है। (दशअचू. पृ. १२) उस्सूलग-खाई। उस्सूलगा णाम खातिआ उवाया जत्थ परबलाणि पडंति। वह परिखा, जहां शत्रुसेना गिर पड़ती है, उसे उस्सूलक कहते हैं। (उचू. पृ. १८२) एग-शुद्ध आत्मा। एगो णाम रागद्दोसरहितो। एक अर्थात् राग-द्वेष रहित शुद्ध आत्मा। (उचू. पृ. ६६) एगचर-एकचर। एकचरो नाम एक एवासौ चरति, न तस्य सहायकृत्यमस्ति। जो अकेला चलता है, जिसका कोई सहयोगी नहीं होता, वह एकचर है। (सूचू.१ पृ. १०६) ओगाहरुइ-अवगाढ़रुचि। ओगाहरुई नाम अणेगनयवायभंगुरं सुयं अत्थओ महता संवेगमावजइ एस ओगाहरुई। जो अनेक नय और वादों-विकल्पों से युक्त गंभीर श्रुत के अर्थ को तीव्र संवेग से ग्रहण करता है, वह अवगाढ़रुचि कहलाता है। (दशजिचू. पृ. ३४) ओय-शुद्ध। रागद्दोसविरहितं चित्तं ओअं ति भन्नति सुद्ध। जिसका चित्त राग-द्वेष से शून्य है, जो शुद्ध है, वह ओज कहलाता है। (दचू. प. २७) ओस्सा-ओस। सरयादौ णिसि मेघसंभवो सिणेहविसेसो तोस्सा। शरद्काल की रात्रि में मेघोत्पन्न स्नेह-विशेष को ओस कहते हैं। (दशअचू. पृ. ८८) कंदण-क्रन्दन। कंदणं महता सद्देण विरवणं संपओग-विप्पओगत्थं। संयोग और वियोग के लिए जोर-जोर से चिल्लाना क्रन्दन है। (दशअचू. पृ. १७) कप्पित-कल्पित। कप्पितं असब्भूतमवि अत्थसाहणत्थमुपपादिज्जति। असद्भूत अर्थ की सिद्धि के लिए किया जाने वाला प्रयत्न कल्पित है। ___ (दशअचू. पृ. २१) कब्बड-छोटा गांव। कब्बडं कुणगरं जत्थ जलत्थलसमुब्भवविचित्तभंडविणियोगो णत्थि। जहां जल और स्थल कहीं से भी क्रय-विक्रय नहीं होता, वह कर्बट कहलाता है। (दशजिचू. पृ. ३६०) • कब्बडं णाम धुल्लओ जस्स पागारो। वह गांव, जहां धूल का प्राकार हो, कर्बट कहलाता है। (आचू. पृ. २८१) कम्मपुरुष-कर्मपुरुष। कम्मपुरुषो नाम यो हि अतिपौरुषाणि कम्माणि करेति। ह व्याक्त है, जो अति पौरुषेय कार्य करता है। (सूचू.१ पृ. १०२) करग-ओला। वरिसोदगं कढिणीभूतं करगो। आकाश से गिरने वाले उदक के कठिन भाग को करक-ओला कहते हैं। (दशअचू.पृ. ८८) कलह-कलह । कलाभ्यो हीयते येन स कलहः। जिससे सारी कलाएं क्षीण हो जाती हैं, वह कलह है। (उचू. पृ. १७१) Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं ६३७ कल्लाण-कल्याण, मुक्ति। कल्लं-आरोग्गं तं आणेइ कल्लाणं संसारातो विमोक्खणं। कल्य का अर्थ है-आरोग्य। जो आरोग्य या स्वास्थ्य प्रदान करता है वह है कल्याण। कल्याण का अर्थ है-संसार से मक्त हो जाना। (दशअचू पृ. ९३) कसायकुसील-कषायकुशील। कसायकुसीलो जस्स पंचसु णाणाइसु कसाएहिं विराहणा कजति सो कसायकुसीलोत्ति। जो ज्ञानादि पांच प्रकार के आचार में कषाय के द्वारा विराधना करता है, वह कषायकुशील __(उचू पृ. १४४) कहा-कथा। तव-संजमगुणधारी, जं चरणरया कहेंति सब्भावं। सव्वजगज्जीवहियं, सा उ कहा देसिया समए॥ जो तप, संयम आदि गुणों के धारक चारित्ररत श्रमण संसारस्थ प्राणियों को हितकर तथा परमार्थ का उपदेश देते हैं, वह कथा (उपदेश) कहलाती है। (दशनि १८३) कागिणी-काकिनी। कागिणी णाम रूवगस्स असीतिमो भागो वीसोवगस्स चतुभागो। रुपए का अस्सीवां भाग तथा विसोपग (एक सिक्का) का चौथा भाग काकिनी है। (उचू पृ. १६१) काम-काम। उक्कामयंति जीवं धम्मातो तेण ते कामा। जो धर्म से उत्क्रान्त-दूर करता है, वह काम कहलाता है। • विविक्तविश्रम्भरसो हि कामः। एकान्त में श्रृंगाररस की बात करना काम है। (सूचू १ पृ. १०५) • शब्द-रस-रूप-गन्ध-स्पर्शाः मोहोदयाभिभूतैः सत्त्वैः काम्यन्त इति कामाः। मोह के उदय से अभिभूत व्यक्तियों द्वारा जो इन्द्रियविषय काम्य होते हैं, वे काम कहलाते (दशहाटी प. ८५) कायसंजम-कायसंयम। कायसंजमो नाम आवस्सगाइजोगे मोत्तुं सुसमाहियपाणिपादस्स कुम्मो इव गुत्तिंदियस्स चिट्ठमाणस्स संजमो भवइ । आवश्यक आदि संयम-योग में की जाने वाली प्रवृत्ति को छोड़कर जो हाथ-पैर से सुसमाहित तथा कूर्म की भांति गुप्तेन्द्रिय होता है, उसके 'काय-संयम' होता है। ___ (दशजिचू पृ. २१) कासव-काश्यप। काशो नाम इक्खु भण्णइ, जम्हा तं इक्खं पिबंति तेन काश्यपा अभिधीयते। काश्य का अर्थ है-इक्षु । इक्षु का पान करने वाला काश्यप कहलाता है। (दशजिचू पृ. १३२) कित्ति-कीर्ति। परेहिं गुणसंसद्दणं कित्ती। दूसरों द्वारा किया जाने वाला गुणकीर्तन कीर्ति है। (दशअचू पृ. २२७) • सर्वदिग्व्यापी साधुवादः कीर्तिः। सब दिशाओं में व्याप्त साधुवाद कीर्ति है। (दशहाटी प. २५७) किमिच्छय-किमिच्छक। राया जो जं इच्छति तस्स तं देति एस रायपिंडो किमिच्छतो। याचक जो चाहता है, राजा उसको वह देता है-यह राजपिंड किमिच्छक है। (दशअचू पृ. ६०) Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ नियुक्तिपंचक कीतकड-क्रीतकृत । कीतकडं जं किणिऊण दिज्जति । जो खरीद कर दी जाती है, वह भिक्षा क्रीतकृत है। (दशअचू. पृ. ६०) कुंडमोय-पात्र विशेष। कुंडमोयो नाम हत्थिपदागिती संठियं कुंडमोयं। हाथी के पांव के आकार वाला बर्तन कुंडमोद कहलाता है। (दशजिचू. पृ. २२७) कुसल-कुशल । कुशलो हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्तिनिपुणः। जो अपने हितकारी कार्य में प्रवृत्त तथा अहितकारी कार्य से निवृत्त होने में निपुण होता है, वह कुशल है। (सूटी. पृ. ८) कुसील-कुशील। कुत्सितं शीलं यस्य पञ्चसु प्रत्येकं ज्ञानादिषु सो कुसीलो। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप तथा वीर्य-इन पांच प्रकार के आचारों के प्रति स्खलित आचरण वाला कुशील है। (उचू.पृ. १४४) कोविदप्पा-विचक्षण। कोविदात्मा ज्ञातव्येषु सर्वेषु परिचेष्टितः। जिसने सभी ज्ञातव्य तथ्यों का पारायण कर लिया, वह कोविदात्मा है। (उचू. पृ. २३८) कोहण-क्रोधी। परं च संजलयति दुक्खसमुत्थेण रोसेण संजलण इव कोहणो वुच्चति। जो दु:ख से उत्पन्न रोष से दूसरों को प्रज्वलित करता है, वह संज्वलन की भांति क्रोधी (दचू.पृ. ३९) खण-क्षण । खणमिति कालः सो य सत्तउस्सासणिस्सास थोवो एस एव खणो भन्नति। सात उच्छ्वास-नि:श्वास परिमाण काल को क्षण कहा जाता है। (उचू. पृ. २२४) खत्तिय-क्षत्रिय। सुदृण खत्तियाणीए जाओ खत्तिओत्ति भण्णइ। शूद्र पुरुष से क्षत्रिय स्त्री में उत्पन्न संतान क्षत्रिय कहलाती है। (आचू. पृ. ६) खमा-क्षमा। कोहोदयस्स निरोहो कातव्वो उदयप्पत्तस्स वा विफलीकरणं एसा खमा। क्रोध के उदय का निरोध तथा उदयप्राप्त क्रोध का विफलीकरण क्षमा है। (दशअचू. पृ. ११) खमावीरिय-क्षमावीर्य। क्षमावीर्य आक्रुश्यमानोऽपि न क्षुभ्यति । आक्रोश करने पर भी जो क्षुब्ध नहीं होता, वह क्षमावीर्य है। (सूचू.१ पृ. १६४) खलुक-दुष्ट, अविनीत। जे किर गुरुपडिणीया, सबला असमाहिकारया पावा। अहिगरणकारगा वा, जिणवयणे ते किर खलुंका॥ पिसुणा परोवतापी, भिन्नरहस्सा परं परिभवंति। निव्वय-निस्सील सढा, जिणवयणे ते किर खलुंका॥ जो गुरु के प्रत्यनीक, शबल दोष लगाने वाले, असमाधि पैदा करने वाले, पापाचरण करने वाले, कलहकारी, पिशुन, परपीड़ाकारी, गुप्त रहस्यों का उद्घाटन करने वाले, दूसरों का परिभव करने वाले, व्रत और शील से रहित तथा शठ हैं-वे जिनशासन में खलुंक-अविनीत कहे जाते हैं। (उनि.४८८, ४८९) खवण-कर्मक्षय करने वाला। भवं चउप्पगारं खवेमाणो खवणो भण्णइ। अणं कम्मं भण्णइ, जम्हा अणं खवइ तम्हा खवणो भण्णइ। Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं ६३९ जो चार प्रकार की गतियों का क्षय करता है अथवा जो अण-कर्मों का क्षय करता है, वह क्षपण कहलाता है। (दशजिचू. पृ. ३३३, ३३४) खोतोदग-क्षोदोदक। खोतोदगं णाम उच्छुरसोदगस्स समुद्रस्य अधवा इहापि इक्षुरसो मधुर एव। (सूचू.१ पृ. १४८) • खोओदए इति इक्षुरस इवोदकं यस्य इक्षुरसोदकः। जिस समुद्र का पानी इक्षु रस की तरह मीठा है, उसे क्षोदोदक कहा जाता है। (सूटी. पृ. १००) गंधण- गंधन कुल का सर्प । गंधणा णाम जे डसिऊण गया मंतेहिं आगच्छिया तमेव विसं वणमुवट्ठिया पुणो आवियंति ते। जो सर्प डस कर चले जाते हैं तथा मंत्रों से आहूत होकर लौट आते हैं और डसे हुए स्थान पर मुंह रखकर वान्त विष को पुनः चूस लेते हैं, वे गंधनकुल के सर्प होते हैं। ___ (दशजिचू. पृ. ८७) गंभीर-गम्भीर। गंभीरो नाम न परीषहै : क्षुभ्यते, दांतु वा कातुं वा णो उत्तुणो भवति। जो परीषहों से क्षुब्ध नहीं होता तथा जो देने में तथा कार्य करने में उतावला नहीं होता, वह गंभीर है। (सूचू.१ पृ. १६४) गणहर-गणधर। यस्त्वाचार्यदेशीयो गुर्वादेशात् साधुगणं गृहीत्वा पृथग् विहरति स गणधरः। जो आचार्य के समान होता है तथा जो आचार्य के आदेश से साधु संघ को लेकर पृथक् विहरण करता है, वह गणधर है। (आटी. पृ. २३६) गणावच्छेदय-गणावच्छेदक। गणावच्छेदकस्तु गच्छकार्यचिन्तकः। जो गण के कार्य के विषय में चिन्तन करता रहता है, वह गणावच्छेदक है। __(आटी. पृ. २३६) गाणंगणिय-गाणंगणिक । गाणंगणिए त्ति गणाद् गणं षण्मासाभ्यन्तर एव संक्रामतीति गाणंगणिक इत्यागमिका परिभाषा। जो छह महीनों के भीतर एक गण से दूसरे गण में संक्रमण करता है, वह मुनि गाणंगणिक कहलाता है। (उशांटी. प. ४३५, ४३६) गाधा-गाथा। मधुराभिधाणजुत्ता, तेण गाह त्ति णं बेंति। जो मधुर उच्चारण से युक्त होती है, वह गाथा कहलाती है। (सूनि. १३८) • गाधीकता या अत्था अधवा सामुद्दएण छंदेण। जहां बिखरे अर्थों को पिंडीकृत-एकत्रित किया जाता है अथवा जो सामुद्रिक छंद में निबद्ध होती है, उसे गाथा कहा जाता है। (सूनि.१३९) गाम-ग्राम। ग्रसति बद्धिमादिणो गुणा इति गामो। जहां बुद्धि आदि गुण ग्रस्त हो जाते हैं, वह ग्राम है। (दशअचू. पृ. ९९) गिल्लि-यान विशेष। पुरुषद्वयोत्क्षिसा झोल्लिका। दो पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली कपड़े की झोली। (सूटी. पृ. २२०) गुत्त-गुप्त। गुत्तो णाम मणसा असोभणं संकप्पं वज्जयंतो वायाए कज्जमेत्तं भासंतो। Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक जो मन से असत् संकल्प या चिन्तन नहीं करता तथा वचन से भी कार्यवश ही बोलता है, वह गुप्त कहलाता है। (दशजिचू पृ. २८८) गुरु-गुरु। गृणंति शास्त्रार्थमिति गुरवः। जो शास्त्र के अर्थ को अभिव्यक्ति देते हैं, वे गुरु हैं। (उचू. पृ. २) गेय-गेय। गेयं णाम यद् गीयते सरसंचारेण। स्वरसंचार से गाया जाने वाला गेय कहलाता है। (सूचू.१ पृ. ४) गोट्ठी-गोष्ठी। समवयसां समुदायो गोष्ठी। समान वय वालों का समुदाय गोष्ठी है। (दशहाटी. प. २२) गोत्त-गोत्र। प्रधानमप्रधानं वा करोतीति गोत्रं । जो व्यक्ति को प्रधान या अप्रधान बनाता है, वह गोत्र है। (उचू.पृ. २७७) गोयम-गोतम । गोतमा णाम पासंडिणो मसगजातीया, ते हि गोणं णाणाविधेहिं उवाएहि दमिऊण गोणपोतगेण सह गिहे धाणं ओहारेंता हिंडंति। मशकजातीय अन्यतीर्थिकों का एक समूह जो छोटे बैल के साथ घूम-घूमकर अनेक उपायों से घरों से धान्य एकत्रित करते हैं। (सूचू.१ पृ. १५२) गोरहग-गोरथक। गाओ जे (रहजोग्गा) रहमिव वा धावंति ते गोरहगा भण्णंति । रथयोग्य बैल जो रथ की भांति दौड़ते हैं, 'गोरथक' कहलाते हैं। (दशजिचू. पृ. २५३) गोव्वतिग-गोव्रतिक। गोव्वतिगा वि धीयारप्राया एव, ते च गोणा इव णत्थितेल्लगा रंभायमाणा गिहे गिहे सुप्पेहि गहितेहि धणं ओहारेमाणा विहरंति। सांड की भांति गर्जते हुए जो छाज लेकर घर-घर में धान्य मांगते फिरते हैं, वे गोव्रतिक कहलाते हैं। (सूचू.१ पृ. १५२) घसा-पोल। घसा नाम जत्थ एगदेसे अक्कममाणे सो पदेसो सव्वो चलइ सा घसा भण्णइ। एक प्रदेश को आक्रान्त करने पर जहां सारे प्रदेश हिलने लगें, वह घसा-पोल कहलाती (दशजिचू. पृ. २३१) चंगबेर-काष्ठपात्री। चंगबेरं कट्ठमयं भायणं भण्णइ। काष्ठमयी पात्री को चंगबेर कहा जाता है। (दशजिचू.पृ. २५४) चंडाल-चाण्डाल। सुद्देण बंभणीए जाओ चंडालोत्ति पवुच्चइ। शूद्र पुरुष से ब्राह्मण स्त्री में उत्पन्न संतान चांडाल कहलाती है। (आचू. पृ. ६) चक्खुसंधण-चक्षुसंधान। चक्षुसंधणं णाम दिट्ठीए दिट्ठिसमागमो। आंख से आंख मिलाना चक्षुसंधान है। (सूचू.१ पृ. १०५) चरित्तविणीय-चारित्रविनीत । अट्ठविधं कम्मचर्य, जम्हा रितं करेति जयमाणो। नवमन्नं च न बंधति, चरित्तविणीओ भवति तम्हा॥ जो आठ प्रकार के कर्मचय को रिक्त करता है और नया कर्म नहीं बांधता, वह चास्त्रिविनीत (दशनि.२९४) Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं छठमत्थमरण-छद्मस्थमरण । मणपज्जवोहिनाणी, सुयमइनाणी मरंति जे समणा। छठमत्थमरणमेयं...... मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी आदि श्रमण जिस मरण को प्राप्त होते हैं, वह छद्मस्थमरण है। (उनि.२१७) जरा-बुढ़ापा। णरो जिज्जति जेण सा जरा। प्राणी जिससे जर्जरित होता है, वह जरा है। (आचू.पृ. १०७) जराउय-जरायुज। जराठया णाम जे जरवेट्ठिया जायंति जहा गोमहिसादि। जन्म के समय जो जरायु-वेष्टित दशा में उत्पन्न होते हैं, वे जरायुज कहलाते हैं। __(दशजिचू. पृ. १३९, १४०) जाणणापरिण्णा-ज्ञपरिज्ञा। जाणणापरिण्णा णाम जो जं किंचि अत्थं जाणइ सा तस्स जाणणापरिण्णा भवति। किसी वस्तु को जानना ज्ञपरिज्ञा है। (दशजिचू.पृ. ११६) जाला-ज्वाला। उद्दितोपरि अविच्छिन्ना जाला। प्रदीप्त अग्नि से संबद्ध या अविच्छिन्न अग्निशिखा ज्वाला है। (दशअचू. पृ. ८९) जिइंदिय-जितेन्द्रिय। जिइंदिओ णाम जिताणि सोयाईणि इंदियाणि जेण सो जिइंदिओ। जिसने श्रोत्र आदि इन्द्रियों को जीत लिया, वह जितेन्द्रिय कहलाता है। __ (दशजिचू. पृ. २८५) जिट्ठोग्गह-ज्येष्ठावग्रह । वरिसासु चत्तारि मासा एगखेत्तोग्गहो भवत्ति त्ति जिट्ठोग्गहो। वर्षाकाल में मुनि चार मास एक ही क्षेत्र में रहते हैं, वह ज्येष्ठावग्रह कहलाता है। (दचू.प. ५१) जीवत्थिकाय-जीवास्तिकाय। जीवत्थिकायो सततमुवयोगधम्मी। जो सतत उपयोगधर्मा होता है, वह जीवास्तिकाय है। (दशअचू. पृ. १०) जुद्ध-युद्ध। जुद्धं आयुहादीहि हणाहणी। शस्त्रास्त्रों से मरना-मारना युद्ध है। (दशअचू. पृ. १०२) जोगक्खेम-योगक्षेम। अप्राप्तविशिष्टधर्मप्राप्तिः प्राप्तस्य च परिपालनं योगक्षेमम्। अप्राप्त विशिष्ट धर्म की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा करना योगक्षेम है।(उशांटी.प. २८३) जोगव-योगवान्। जोगा वा जस्स वसे वट्ठति स भवति योगवान्। जिसके सभी योग-प्रवृत्तियां वशवर्ती हैं, वह योगवान् है। (सूचू.१ पृ. ५४,५५) झाण-ध्यान। दढमज्झवसाणं झाणं। दृढ अध्यवसाय ध्यान है। (दशअचू.पृ. १६) • एगग्गचिंतानिरोहो झाणं। एकाग्रचिन्तन अथवा विचारों का निरोध ध्यान है। (दशअचू.पृ. १६) टंकण-टंकण। टंकणा णाम म्लेच्छजातयः पार्वतेयाः ते हि पर्वतमाश्रित्य सुमहन्तमवि अस्सबलं वा हत्थिबलं वा प्रारभन्ते आगलिन्ति। Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ निर्युक्तिपंचक पार्वतीय म्लेच्छ जाति विशेष, जो पर्वत पर रहकर बड़ी से बड़ी अश्वसेना और हस्तिसेना को भी पराजित कर देती है । (सूचू. १ पृ. ९३) टाल - बिना गुठली का फल, कच्चा फल । टालाणि नाम अबद्धट्ठिगाणि भण्णति । जिस फल में गुठली न पड़ी हो, उसे टाल कहा जाता है। ठियप्पा - स्थितात्मा । ठितप्पा णाण- दंसण - चरित्तेहिं । ( सूचू. १ पृ. २४८) ज्ञान, दर्शन और चारित्र में स्थित व्यक्ति स्थितात्मा कहलाता है । स्थितो व्यवस्थितोऽशेषकर्मविगमात्मस्वरूपे आत्मा यस्य स भवति स्थितात्मा । सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से जो आत्मस्वरूप में स्थित हो गया है, वह स्थितात्मा है । ( सूटी. पृ. ९७ ) ० णाणविणीय - ज्ञानविनीत । नाणं सिक्खति नाणी, गुणेति नाणेण कुणति किच्चाणि । नाणी नवं न बंधति, नाणविणीओ भवति तम्हा ॥ जो ज्ञान को ग्रहण करता गृहीत ज्ञान का प्रत्यावर्तन करता है, ज्ञान से कार्य सम्पादित करता है तथा नए कर्मों का बंधन नहीं करता, वह ज्ञान विनीत कहलाता है । (दशनि. २९३) ( आचू. पृ. ११५) (दशअचू. पृ. २०) (दशहाटी. पृ. ३४) ( सूचू. १ पृ. २४६ ) णाणि - ज्ञानी । णाणी णाम जो विसए जहावट्ठिते पासति । जो विषय को यथावस्थित देखता है, जानता है, वह ज्ञानी है । णात - ज्ञात । णज्जंति अणेण अत्था णातं । जिससे अर्थ ज्ञात होते हैं, वह ज्ञात है । ज्ञायतेऽस्मिन् सति दान्तिकोऽर्थ इति ज्ञातम् । जिससे दाष्टन्तिक अर्थ जाना जाता है, वह ज्ञात है । णिग्गंथ - निर्ग्रन्थ । बज्झऽब्धंतरातो गंथातो णिग्गतो णिग्गंथो । बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ से जो अतीत है, वह निर्ग्रन्थ है । णिट्ठाण — निष्ठान्न । णिट्ठाणं णाम जं सव्वगुणोववेयं सव्वसंभारसंभियं तं णिट्ठाणं भण्णइ । जो सर्वगुणसम्पन्न तथा सब प्रकार के उपस्कार से युक्त होता है, कहलाता है । णिसीहिया - नैषेधिकी। णिसीहिया सज्झायथाणं । (दशजिचू. पृ. २५६ ) नैषेधिकी का अर्थ है - स्वाध्याय का स्थान । हि - निभ। जो अप्पाणं संजमतवेसु णिहेति सो णिहो । जो स्वयं को संयम और तप में नियोजित करता है, वह निभ है । णिह - वधस्थान । निहन्यन्ते प्राणिनः कर्मवशगा यस्मिन् तन्निहम् - आघातस्थानम् । णीरय- नीरज, कर्ममुक्त । णीरया नाम अट्ठकम्मपगडीविमुक्का भण्णंति । आठ प्रकार के कर्मों से मुक्त आत्माएं नीरज कहलाती हैं। वह आहार निष्ठान्न (दशजिचू. पृ. २८१) जहां कर्म के वशवर्ती प्राणियों का वध किया जाता है, वह स्थान 'निह' कहलाता है 1 (सूटी. पृ. १३७) (दशजिचू. पृ. ११७) ( दशअचू. पृ. १२६ ) (आचू. पृ. ७० ) Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं ६४३ तज्जणा-तर्जना। तर्जना अंगुलिभ्रमणधूत्क्षेपादिरूपा। अंगुलि दिखाकर या भौंहे चढ़ाकर तिरस्कार करना या डांटना तर्जना है। (उशांटी.प. ४५६) तव-तप। तवो णाम तावयति अट्ठविहं कम्मगंठिं नासेति त्ति वुत्तं भवइ। जो आठ प्रकार की कर्मग्रन्थि को तपाता है, नष्ट करता है, वह तप है। ___(दशजिचू. पृ. १५) तवविणीय-तपविनीत। अवणेति तवेण तमं, उवणेति य मोक्खमग्गमप्पाणं। तव विणय-निच्छितमती, तवोविणीओ हवति तम्हा॥ जो तपस्या से अज्ञान को दूर करता है तथा आत्मा को स्वर्ग और मोक्ष के निकट ले जाता है, वह तपोविनीत कहलाता है। (दशनि.२९५) तवस्सि-तपस्वी। तवस्सी नाम जो उग्गतवचरणरओ। तपस्वी वह है, जो उग्र तपस्या के आचरण में रत रहता है। (दशहाट पृ. ३१) • तपस्सी णाम तवो बारसविधो सो जेसिं आयरियाणं अत्थि ते तवस्सिणो। जो बारह प्रकार के तप में रत रहता है, वह तपस्वी है। (दशअचू. पृ. २२३) तहागय–तथागत। तहागता णाम खीणरागदोसमोहा केवलजीवसभावत्था। जिनके राग, द्वेष और मोह सर्वथा क्षीण हो गए हैं, जो केवल आत्मस्वभाव में लीन हैं, वे तथागत हैं। (आचू. पृ. १२२) ताइ-त्रायी। संसारमहाभयादात्मानं त्रायतीति त्रायी। संसार के महान् भय से आत्मा की रक्षा करने वाला त्रायी होता है। (उचू. पृ. १७१) तालपुड-तालपुट। तालपुडं नाम जेणंतरेण ताला संपुडिजति तेणंतरेण मारयतीति तालपुडं। जितने समय में दोनों हाथों की हथेलियां बंद की जाएं, उतने समय में जो मार देता है, वह तालपुट विष है। (दशजिचू. पृ. २९२) तावस-तापस। तवो से अत्थि तावसो। जो तप करता है, वह तापस-तपस्वी है। (दशअचू. पृ. ३७) तिगुत्त-त्रिगुप्त। तिगुत्ता मण-वयण-कायजोगनिग्गहपरा। जो मन, वचन और काया के योग का निग्रह करते हैं, वे त्रिगुप्त हैं। (दशअचू. पृ. ६३) तित्थ-तीर्थ । तिजति जं तेण तहिं वा तरिजइ त्ति तित्थं। जिससे या जहां से तैरा जाता है, वह तीर्थ है। (सूचू.१ पृ. २) तित्थगर-तीर्थंकर। संसारमहाभयातो भवियजणमुपदेसेण त्रायन्तीति परतातिणो तित्थकरा। जो भव्य लोगों को अपने उपदेश से संसार के महान् भय से त्राण देते हैं, वे परत्राता-तीर्थंकर (दशअचू. पृ. ५९) तुंबाग-घीया। तुंबागं जं तयाए मिलाणममिलाणं अंतो त्वम्लान । • तुंबागं नाम जं तयामिलाणं अब्भंतरओ अद्दयं । हैं। Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ नियुक्तिपंचक जिसकी त्वचा म्लान हो गयी हो और अंतर भाग अम्लान या आर्द्र हो, वह तुम्बाग कहलाता __ (दशअचू. पृ. ११७, दशजिचू. पृ. १८४) थावर-स्थावर। थावरो जो थाणातो न विचलति। जो अपने स्थान से नहीं चल पाता, वह स्थावर है। (दशअचू.पृ. ८१) • जे एगम्मि ठाणे अवट्ठिया चिटुंति ते थावरा भण्णंति। जो एक ही स्थान पर अवस्थित रहते हैं, वे जीव स्थावर कहलाते हैं। (दशजिचू.पृ.१४७) थिग्गल-थिग्गलं नाम जं घरस्स दारं पुव्वमासी तं पडिपूरियं । घर का वह द्वार, जो किसी कारणवश फिर से चिना हुआ हो। (दशजिचू. पृ. १७४) थिरीकरण-स्थिरीकरण। स्थिरीकरणं तु धर्माद्विषीदतां सतां तत्रैव स्थापनम्। धर्म में विषादप्राप्त लोगो को पुनः धर्म में स्थापित करना स्थिरीकरण है। (दशहाटी. पृ. १०२) थिल्लि-यानविशेष। थिल्लि त्ति वेगसराद्वयनिर्मितो यानविशेषः। जो यान दो खच्चरों से चलता है, वह थिल्ली कहलाता है। (सूटी. पृ. २२०) थेर-स्थविर। थेरो जाति-सुय-परियारहिं वृद्धो जो वा गच्छस्स संथितिं करेति । जन्म, श्रुत तथा संयम पर्याय में वृद्ध तथा गच्छ में अस्थिरता प्राप्त मुनि को स्थिर करने वाला स्थविर कहलाता है। (दशअचू. पृ. १५) थेरग-स्थविर। थेरगो दंडधरितग्गहत्थो अत्यन्तदशां प्राप्तः। जो अंतिम दशा को प्राप्त है तथा जो लाठी के सहारे चलता है, वह स्थविर है। (सूचू.१ पृ. ८४) दंत-दान्त । दंतो इंदिएहिं णोइंदिरहिं य। जो इंद्रियों तथा नोइंद्रियों का दमन करता है, वह दान्त है। (दशअचू. पृ ९३) दंतवक्क-दान्तवाक्य । दम्यन्ते यस्य वाक्येन शत्रवः स भवति दान्तवाक्यः। जिसके वचन मात्र से शत्रु दान्त हो जाते हैं, वह दान्तवाक्य कहलाता है। (सूचू.१ पृ.१४८) दंसणविणय-दर्शनविनय। दव्वाण सव्वभावा, ठवदिट्ठा जे जहा जिणवरेहिं । __ ते तह सद्दहति नरो, दंसणविणओ भवति तम्हा॥ जिनेश्वर देव के द्वारा द्रव्यों की जितनी पर्यायें जिस प्रकार उपदिष्ट हैं, जो उन पर वैसी ही श्रद्धा करता है, वह दर्शनविनय है। (दशनि.२९२) दविय-द्रव्य, शुद्ध। दविओ नाम रागद्दोसरहितो। राग-द्वेष रहित चेतना द्रव्य कहलाती है। (सूचू.१ पृ. १०६) दव्वजिण-द्रव्यजिन। दव्वजिणा जे बाहिं वेरियं वा जिणंति। बाह्य शत्रुओं को जीतने वाले द्रव्यजिन हैं। (दशअचू. पृ. ११) दव्वपमाद-द्रव्यप्रमाद। दव्वपमादो जेण भुत्तेण वा पीतेण वा पमत्तो भवति। जिस द्रव्य के खाने अथवा पीने से व्यक्ति प्रमत्त होता है, वह द्रव्य-प्रमाद है। (उचू. पृ.१०२) Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं AA दव्वपूया-द्रव्यपूजा। ईसर-तलवर माडंबियाण सिव-इंद-खंद-विण्हूणं । ___जा किर कीरइ पूया, सा पूया दव्वतो होई॥ ईश्वर (धनपति), तलवर (राजा आदि), माडम्बिक (जलदुर्ग का अधिकारी), शिव, इन्द्र, स्कन्ध, विष्णु आदि की जो पूजा की जाती है, वह द्रव्यपूजा कहलाती है। (उनि.३०८) दव्वभिक्खु-द्रव्यभिक्षु। गिहिणो विसयारंभग, उज्जुप्पण्णं जणं विमग्गंता। जीवणिय दीण-किविणा, ते विजा दव्वभिक्खु ति॥ करणतिए जोगतिए, सावजे आयहेतु पर उभए। अट्ठाऽणट्ठपवत्ते, ते विजा दवभिक्खु त्ति ॥ जो गृहस्थ का जीवन-यापन करते हुए विषयों में आसक्त रहते हैं, ऋजुप्रज्ञ (भोले) व्यक्तियों के पास याचना करते हैं, वे द्रव्यभिक्षु हैं तथा जो आजीविका के निमित्त दीन-कृपण अर्थात् कार्पटिक आदि भिक्षा के लिए घूमते हैं, वे भी द्रव्य भिक्षु हैं। जो तीन करण तीन योग से अपने लिए, दूसरों के लिए अथवा दोनों के लिए प्रयोजनवश अथवा अप्रयोजनवश पाप कार्यों में प्रवृत्त रहते हैं, वे द्रव्यभिक्षु हैं। (दर्शान.३१२, ३१५) दिटुंत-दृष्टान्त । दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्तः। जो दृष्ट अर्थ को अंत तक ले जाता है, वह दृष्टान्त है। (दशहाटी. प. ७५) दिटुंतिय-दान्तिक। निश्चयेन दर्श्यतेऽनेन दान्तिकः। जो निश्चय से दिखाता है, निरूपित करता है, वह दार्टान्तिक है। (दशहाटी.प.३४) दुम-द्रुम । द्रूः-साहा ताओ जेसिं विज्जति ते दुमा। द्रु का अर्थ है शाखा। जो शाखायुक्त होते हैं, वे द्रुम कहलाते हैं। (दशअचू.पृ. ७) • भूमीय आगासे य दोसु माया दुमा। जो भूमि और आकाश दोनों में समाते हैं, वे द्रुम हैं। (दशअचू. पृ. ७) देव-देव। दीवं आगासं तम्मि आगासे जे वसंति ते देवा। जो दिव-आकाश में निवास करते हैं, वे देव हैं। (दशजिचू. पृ. १५) दोगुंदग-क्रीडाप्रधान देव। नित्यं भोगपरायणा दोगुंदगा इति भण्णति। (उशांटी.प. ४५१) जो सदैव भोग में रत रहते हैं, वे दोगुंदक देव कहलाते हैं। धम्म-धर्म। धारेति दुग्गतिमहापडणे पतंतमिति धम्मो। दुर्गति के महान् गढ़े में गिरते हुए को जो धारण कर लेता है, बचा लेता है, वह धर्म है। (दशअचू. पृ. ९) धम्मकहा-धर्मकथा। धम्मकहा णाम जो अहिंसाइलक्खणं सव्वण्णुपणीयं धम्मं अणुओगं वा कहेइ एसा धम्मकहा। जिसमें सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत अहिंसा धर्म का प्रतिपादन हो अथवा उसकी विशेष व्याख्या हो, वह धर्मकथा है। (दशहाटी.प. ३२) धम्मत्थकाम-धर्मार्थकाम। धम्मस्स अत्थं कामयंतीति धम्मत्थकामा। धर्म के अर्थ की कामना करने वाले धमार्थकाम हैं। (दशअचू.पृ. १३९) Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ नियुक्तिपंचक धम्मत्थिकाय-धर्मास्तिकाय। धम्मत्थिकायो गतिपरिणयस्स गमणोवकारि त्ति गतिसभावो गतिलक्खणो। गति में परिणत जीव और पुद्गल की गति में उपकारी, गतिस्वभाव तथा गतिलक्षण वाला पदार्थ धर्मास्तिकाय है। (दशअचू. पृ. १०) धारणा-धारणा। अतीतगंथधरणं धारणा। अतीत को धारण करना-स्मृति में रखना धारणा है। (दशअचू. पृ. ६७) धीर-धीर। धीरो इति बुद्ध्यादीन् गुणान् दधातीति धीरः। जो बुद्धि आदि गुणों से युक्त है, वह धीर है। (सूचू. १ पृ. २१) धुयमोह-मोह जीतने वाला। धुयमोहा नाम जितमोह त्ति वुत्तं भवइ। मोह जीतने वाले को धुतमोह कहा जाता है। (दशजिचू. पृ. ११७) धुवजोगी-ध्रुवयोगी। धुवजोगी णाम जो खण-लव-मुहत्तं पडिबुज्झमाणादिगुणजुत्तो सो धुवजोगी। जो क्षण, लव, मुहूर्त-प्रतिपल जागरूकता आदि गुणों से युक्त होता है, वह ध्रुवयोगी है। (दशजिचू. पृ. ३४१) धुवमग्ग-ध्रुवमार्ग। धुवमग्गो णाम संजमो विरागमग्गो वा। संयम अथवा वैराग्य का मार्ग ध्रुवमार्ग है। (सूचू.१ पृ. १०९) नगर-नगर। ण एत्थ करो विजतीति नगरं। जहां कर नहीं लगता, वह नकर-नगर है। (आचू. पृ. २८१) नरग-नरक। नयन्ते तस्मिन् पापकर्मा स्वकर्मभिरिति नारकाः। जिसमें पापी अपने कर्म से ले जाए जाते हैं, वे नरक हैं। (उचू.पू. १३८) नाग-नाग । न तेषां किञ्चिज्जलं थलं वा अगम्यमिति नाग। जिनके लिए जल या स्थल कुछ भी अगम्य नहीं रहता, वे नाग (नागकुमार देव) हैं। (सूचू.१ पृ. १४८) नाहियादि-नास्तिकवादी। नास्त्यात्मा एवं वदनशील: नाहियवादी। जो आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता, वह नास्तिकवादी है। (दचू. पृ. ३६) निगमण-निगमन, उपसंहार। पतिण्णाए पुणो वयर्ण निगमणं। प्रतिज्ञा का पुनर्वचन निगमन है। (दशअचू.पृ. २०) निण्हव-निह्नव। निण्हवो णाम पुच्छितो संतो सव्वहा अवलवइ। पूछने पर जो सर्वथा अपलाप करता है, वह निह्नव है। (दशजिचू. पृ. २८५) निद्देसवत्ति-निर्देश का पालन करने वाला। निदेसवत्तिणो नाम जमाणवेति तं सव्वं कुव्वंतीति निद्देसवत्तिणो। जो गुरु की आज्ञा का उसी रूप में पालन करते हैं, वे निर्देशवर्ती कहलाते हैं। ___ (दशजिचू. पृ. ३१४) निम्मम-ममत्वरहित। नास्य कलत्र-मित्र-वित्तादिसु बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु ममता विद्यते इति निर्मम। जिसको स्त्री, मित्र,धन आदि बाह्य वस्तुओं में तथा आभ्यन्तर परिग्रह में ममता नहीं है, वह निर्मम होता है। (सूचू.१ पृ. १७६) Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं ६४७ नियाग-नित्यान। नियागं प्रतिणियतं जं णिब्बंधकरणं। प्रतिनियत तथा प्रतिबद्ध भिक्षा नित्याग्र है। (दशअचू. पृ. ६०) निरासय-आशा रहित । निग्गता आसा अपसत्था जस्स सो निरासए। जिसमें अप्रशस्त आशा नहीं होती, वह निराशक है। (दशजिचू. पृ. ३२८) निव्वेयणी-निर्वेदनी कथा। पावाणं कम्माणं, असुभविवागो कहिज्जए जत्थ। इह य परत्थ य लोए, कहा उ णिव्वेयणी णाम॥ जिस कथा में इहलौकिक और पारलौकिक पाप कर्मों के अशुभ विपाक का वर्णन होता है, वह निर्वेदनी कथा है। (दशनि.१७४) निसग्गरुइ-निसर्गरुचि । निसग्गरुई णाम णिसग्गो सहावो सहावेण चेव जिणपणीए भावे रोयइ बहुजणमज्झे य महता संवेगसमावण्णो पसंसइ एस निसग्गरुई। जो स्वभावतः जिनप्रणीत भावों/पदार्थों में रुचि रखता है तथा तीव्र वैराग्य के कारण जनता से प्रशंसित होता है, वह निसर्गरुचि है। (दशजिचू. पृ. ३३) निसाद-निषाद । बंभणेण सुद्दीए जातो णिसादो त्ति वुच्चति। ब्राह्मण पुरुष से शूद्र स्त्री में उत्पन्न व्यक्ति निषाद कहलाता है। (उचू.पृ. ९६) निसेज्जा-निषद्या। निषद्या स्वाध्यायभूम्यादिकां यत्र निषद्यते। जहां बैठकर स्वाध्याय आदि किया जाता है, वह निषद्याभूमि/स्वाध्यायभूमि है। __ (उशांटी-प. ४३४) पओगकम्म-प्रयोगकर्म । जम्मि पओए वट्टमाणो कम्मपोग्गले गिण्हइ तं पओगकम्म। जिस प्रयोग में प्रवृत्त होकर जीव कर्म पुद्गलों को ग्रहण करता है, वह प्रयोगकर्म है। पंक-पङ्क। पंको नाम स्वेदाबद्धो मलः। (आचू. पृ. ४८) पसीने के साथ शरीर पर जमा हुआ मैल पंक कहलाता है। पसार पर जमा हुआ मल पक कहलाता हा (उचू.पु. ७९) पंडिय-पंडित। पंडिता इति सा बुद्धिपरिकम्मिता जेसिं ते। जिनकी बुद्धि परिकर्मित होती है, वे पंडित कहलाते हैं। (दशअचू. पृ. ४८) • पापाड्डीनः पण्डितः पण्डा वा बुद्धिः पण्डितः। जो पापों से रहित है, जिसकी बुद्धि पंडा-तत्त्वानुगा है, वह पंडित है। (उचू. पृ. २८) • पंडिया णाम चत्ताणं भोगाणं पडियाइयणे जे दोसा परिजाणंति पंडिया। जो त्यक्त भोगों के पुनः सेवन से होने वाले दोषों को जानते हैं, वे पंडित कहलाते हैं। __ (दशजिचू.पृ. ९२) पक्खपिंड-पक्षपिंड। पक्खपिंडो दोहिं वि बाहाहिं उरुगजाणूणि घेत्तूण अच्छणं। ___ दोनों हाथों से घुटनों एवं साथल को वेष्टित करके बैठना पक्षपिंड है। (उचू. पृ. ३५) पगासभोइ-प्रकाशभोजी (दिन में भोजन करने वाला)। प्रकाशभोई दिवसतो भुंजति न रात्रौ। जो दिन में भोजन करता है, रात में नहीं, वह प्रकाशभोजी है। (दचू. प. ४०) पच्चक्खाणपरिण्णा-प्रत्याख्यानपरिज्ञा। पच्चक्खाणपरिण्णा नाम पावं कम्मं जाणिऊण तस्स पावस्स जं अकरणं सा पच्चक्खाणपरिण्णा भवति। Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ नियुक्तिपंचक पापकर्म को जानकर उस पाप को नहीं करना प्रत्याख्यान परिज्ञा है ।(दशजिचू.पृ. ११६) पच्चक्खायपावकम्म-प्रत्याख्यात पापकर्मा । पच्चक्खायपावकम्मो नाम निरुद्धासवदुवारो भण्णति। जो आस्रव-द्वारों का निरोध कर देता है, वह प्रत्याख्यातपापकर्मा है। (दशजिचू.पृ. १५४) पच्चाजाति-प्रत्याजाति । जत्तो चुओ भवाओ, तत्थेव पुणो विजह हवति जम्मं सा खलु पच्चाजाति.....। एक भव से च्युत होकर पुनः उसी में जन्म लेना प्रत्याजाति है। (दनि.१३२) पडिभा-प्रतिभा। पभणति वा पतिभा श्रोतणां संशयोच्छेत्ता। जो श्रोताओं के संशय का उच्छेद करती है, वह प्रतिभा है। (सूचू.१ पृ. २३३) पडिसेवणा-प्रतिसेवना। सम्माराहणविवरीया पडिगया वा सेवणा पडिसेवणा। सम्यक् आराधना के विपरीत जो आसेवना है, वह प्रतिसेवना है। (उचू. पृ. १४४) पडिहयपावकम्मा-पाप कर्मों को प्रतिहत करने वाला। पडिहयपावकम्मो नाम नाणावरणादीणि अट्ठ कम्माणि पत्तेयं जेण हयाणि सो पडिहयपावकम्मो। जिसने ज्ञानावरण आदि प्रत्येक कर्म का नाश कर दिया है, वह प्रतिहतपापकर्मा है। (दशजिचू. पृ. १५४) पणगसुहम-पनकसूक्ष्म। पणगसुहुमं णाम पंचवण्णो पणगो वासासु भूमिकट्ठ-उवगरणादिसु तद्दव्वसमवण्णो पणगसुहुमं। वर्षा में भूमि, काठ और उपकरण (वस्त्र) आदि पर उस द्रव्य के समान वर्ण वाली जो काई उत्पन्न होती है, वह पनक सूक्ष्म कहलाती है। (दशजिचू. पृ. २७८) पण्णापरीसह-प्रज्ञापरीषह । प्रज्ञापरीसहो नाम सो हि सति प्रज्ञाने तेण गव्वितो भवति तस्स प्रज्ञापरीषह। प्रज्ञा का गर्व करना प्रज्ञा परीषह है। (उचू. पृ. ८२) पतिण्णा-प्रतिज्ञा। साहणीयनिद्देसो पतिण्णा। साधनीय का निर्देश प्रतिज्ञा है। (दशअचू. पृ. २०) पम्भारा-प्राग्भारा (जीवन की एक अवस्था)। भाषिते चेष्टिते वा भारेण नत इव चिट्ठए पब्भारा। बोलते अथवा काम करते समय भार से नत व्यक्ति की भांति झुके रहने की अवस्था प्राग्भारा अवस्था है। (दचू.प. ३) परमदंसि-परमदर्शी। मोक्खो वा परं पस्सतीति परमदंसी। जो मोक्षदर्शी है, वह परमदर्शी है। (आचू. पृ. ११४) परिनिव्वुड-परिनिर्वृत। परिनिव्बुडा नाम जाइ-जरा-मरण- रोगादीहिं सव्वप्पगारेण वि विप्पमुक्क त्ति वुत्तं भवइ। जो जन्म, जरा, मरण तथा रोग आदि से मुक्त हैं, वे परिनिर्वृत कहलाते हैं। (दशजिचू. पृ. ११७) • परिनिव्वुता समंता णिव्वुता सव्वप्पकारं घातिभवधारणकम्मपरिक्खते। जो घातिकर्मों का तथा भवधारणीय कर्मों का सम्पूर्ण क्षय कर देते हैं, वे परिनिर्वृत कहलाते (दशअचू. पृ. ६४) Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं • परिणिव्वुतो णाम रागद्दोसविमुक्को। जो रागद्वेष से विमुक्त है, वह परिनिर्वृत है। (उचू. पृ. १९३) परियट्टण-परिवर्तना, चितारना। परियट्टणं पुव्वपढितस्स अब्भसणं । पूर्व पठित का अभ्यास करना परिवर्तना है। (दशअचू. पृ. १६) परियागववत्थवणा-पर्यायव्यवस्थापना। पव्वज्जापरियातो पज्जोसमणावरिसेहिं गणिजंति तेण परियागववत्थवणा भण्णति । प्रव्रज्या पर्याय को पर्युषणा कल्प से गिना जाता है, वह पर्याय-व्यवस्थापना कहलाती है। (दचू. प. ५१) परिव्वायग-परिव्राजक। सव्वसो पावं परिवज्जयंतो परिव्वायगो भण्णइ। सर्वथा पाप का वर्जन करने वाला परिव्राजक कहलाता है। (दशजिचू. पृ. ७३, ७४) पल्हत्थिया-पर्यस्तिका, पालथी। पर्यस्तिका जानुजंघोपरिवस्त्रवेष्टनात्मिका। घुटनों और जंघाओं के चारों ओर वस्त्र बांधकर बैठना पर्यस्तिका है। (उशांटी.प. ५४) पवा-प्रपा, प्याऊ। पवा जत्थ पाणितं पिज्जा। जहां पानी पिलाया जाता है, वह प्रपा है। पवियक्खण-प्रविचक्षण। पवियक्खणा वायाए विपरिग्गाहणसमत्था। कथन मात्र से अर्थ को ग्रहण कराने में समर्थ व्यक्ति प्रविचक्षण कहलाता है। (दशअचू. पृ. ४८) पव्वइय-प्रव्रजित। पव्वइओ नाम पापाद्विरतो प्रव्रजितः। जो पाप से विरत है, वह प्रव्रजित कहलाता है। (दशजिचू. पृ. ७३,) पाओवगमण-प्रायोपगमन । पाओवगमणं जं निप्पडिकम्मो पायवो विव जहापडिओ अच्छति। वृक्ष की शाखा की भांति निश्चेष्ट तथा शरीर के प्रति निष्प्रतिकर्म रहना प्रायोपगमन अनशन (दशअचू.पृ. १२) पागार-प्राकार । प्रकर्षेण मर्यादया च कुर्वन्ति तमिति प्राकाराः। जो विशाल तथा परिमाण-मर्यादा से निर्मित होता है, वह प्राकार है। (उशांटी.प. ३११) पायच्छित्त-प्रायश्चित्त । पापं छिनत्तीति पापच्छित् अथवा यथावस्थितं प्रायश्चित्तं शुद्धमस्मिन्निति प्रायश्चित्तम्। जो पाप का छेदन करता है, वह पापच्छित् अर्थात् प्रायश्चित्त है। अथवा जिसमें चित्त प्रायः यथावस्थित होकर शुद्ध हो जाता है, वह प्रायश्चित्त है। (दशहाटी.प. ३०) पायव-पादप। पादेहिं पिबंति पालिजंति वा पायवा। जो पैरों (जड़ों) से पीते हैं अथवा पालित होते हैं, वे पादप (वृक्ष) हैं। (दशअचू.पृ. ७) पारगामि-पारगामी। जे पुण अप्पसत्थरतिविणियट्टा पसत्थरतिआउट्टा विमुत्ता ते जणा पारगामिणो। जो अप्रशस्त रति से विनिवृत्त और प्रशस्त रति में प्रवृत्त रहते हैं, वे पारगामी हैं। (आचू.पृ. ५९) Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० नियंक्तिपंचक पाव-पाप। पभूतं पातयतीति पावं। जो बहुत नीचे गिराता है, वह पाप है। (दशअचू पृ. १३३) पावग-पाप। पावगं नाम असुभकम्मोवचओ घण-चिक्कणो भण्णइ। अत्यन्त स्निग्ध अशुभ कर्मों का उपचय पाप है। (दशजिचू पृ. १५८) पावग-पावक, अग्नि। पावं व हव्वं सुराणं पावयतीति पावकः। जो हव्य को देवताओं तक पहुंचाता है, वह पावक (अग्नि) है। (उचू पृ. ९९) पासंडि-पाषंडी। अट्ठविहकम्मपासादो घरपासादो वा डीणे पासंडी। अष्ट प्रकार के कर्म रूपी प्रासाद में अथवा गृह प्रासाद में रहने वाला पाषंडी है। __(दशअचू पृ. ३७) पासणिय-प्राश्निक। प्रश्नेन राजादिकिंवृत्तरूपेण दर्पणादिप्रश्ननिमित्तरूपेण वा चरतीति प्राश्निकः। राजा आदि के इतिहास-ख्यापन तथा दर्पण, अंगुष्ठ आदि विद्या के द्वारा आजीविका चलाने वाला प्राश्निक कहलाता है। __ (सूटी पृ. ४६) पासत्थ-पार्श्वस्थ। पार्वे तिष्ठंतीति पार्श्वस्थाः। जो ज्ञान आदि के पार्श्व में स्थित हैं, वे पार्श्वस्थ हैं। (सूचू १ पृ. ९७) पासाद-प्रासाद। प्रसीदंति अस्मिन् जनस्य नयनमनांसि इति प्रासादः।। जिसको देखकर मनुष्य के नयन और मन प्रसन्न हो जाते हैं, वह प्रासाद है। (उचू पृ. १८१) • पासादो समालको घरविसेसो। मंजिलों से युक्त गृह विशेष प्रासाद कहलाता है। (दशअचू पृ. ११७) पिंडोलग-पिंडोलक, भिक्षा में आसक्त संन्यासी। पिंडेसु दीयमाणेसु ओलंति पिंडोलगा। जो दीयमान पिंड-भिक्षा में आसक्त होते हैं, वे पिंडोलक हैं। (उचू पृ. १३८) पिट्ठमंसिय-चुगलखोर । पिट्ठीमंसं खायंतीति पिट्ठमंसितो। जो पीठ का मांस खाते हैं अर्थात् पीठ के पीछे अनर्गल बात कहते हैं, वे पृष्ठमांसी (चुगलखोर) होते हैं। (दचू प. ३९) • पिट्ठिमंसितो-परमुहस्स अवण्णं बोल्लेइ अगुणे भासति णाणादिसु । जो परोक्ष में किसी का अवर्णवाद कहता है, ज्ञान आदि विषयक अगुण की उद्भावना करता है, वह पृष्ठमांसी-चुगलखोर है। ... (दचू प. ७) पिसुण-पिशुन। प्रीतिशून्य इति पिशुनः। जो प्रीतिशून्य होता है, वह पिशुन है। (उचू पृ. १३३) पुंडरीय-पुण्डरीक। तिरिच्छगा मणुस्सा, देवगणा चेव होंति जे पवरा। ते होंति पोंडरीया तिर्यञ्च, मनुष्य और देवताओं में जो श्रेष्ठ होते हैं, वे पोंडरीक कहलाते हैं। (सूनि १४७) पुरिस-पुरुष। प्रीणाति चात्मानमिति पुरुषः। पूर्णों वा सुख दुःखानामिति पुरुषः। पुरि शयनाद्वा पुरुषः। १. जो आत्मा को प्रीणित करता है, वह पुरुष है। २. जो सुख-दुःख से प्रतिपूर्ण है, वह पुरुष है। Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं ३. जो शरीर में निवास करता है, वह पुरुष 1 ( उचू. पृ. १४७) पुरेकम्म - पूर्वकर्म दोष ( भिक्षा का दोष) । पुरेकम्मं नाम जं साधूणं दट्ठणं हत्थं भायणं धोवइ तं पुरेकम्मं भण्णा । साधु को देखकर भिक्षा देने के निमित्त पहले सजीव जल से हाथ, कड़छी आदि धोना पूर्वकर्म दोष है । (दशजिचू. पृ. १७८) पुलाग-- पुलाक । णाण- दंसण-चरित्तं निस्सारत्तं जो उवेति सो पुलागो । जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र को निस्सार कर देता है, वह पुलाक पुव्वदिसा - पूर्वदिशा । जस्स जओ आइच्चो उदेति सा तस्स होति पुव्वदिसा । जिस क्षेत्र में जिस ओर सूर्य उदित होता है, वह उस क्षेत्र के लिए पूर्वदिशा है। (आनि. ४७) • जत्थ य जो पण्णवओ, कस्स वि साहति दिसाण उ निमित्तं । जत्तो मुहो य ठायइ सा पुव्वा.. । कोई प्रज्ञापक जहां स्थित होकर दिशाओं के आधार पर निमित्त - ज्योतिष् का कथन करता है, वह जिस ओर अभिमुख है, वह पूर्वदिशा है । पूयणट्ठि — पूजार्थी । पूयणट्ठी णाम पूया-सक्कारादि पत्थेति । (आनि. ५१) जो सत्कार - पूजा आदि की वांछा करता है, वह पूजार्थी है । पूयणा - पूतना । पातयन्ति धर्मात् पासयन्ति वा चारित्रमिति पूतनाः । फलग — फलक । फलगं जत्थ सुम्पति । ६५१ (निर्ग्रन्थ) है । ( उचू. पृ. १४४ ) जो धर्म से नीचे गिराती है अथवा चारित्र को बांध देती है, वह पूतना है । ( सूचू. १ पृ. ९९ ) पेसल - पेशल । पेसलो नाम पेसलवाक्यः अथवा विनयादिभिः शिष्यैः गुणैः प्रीतिमुत्पादयति पेशलः । जो मृदुभाषी है, वह पेशल है। जो विनय आदि शिष्य-गुणों से प्रीति उत्पन्न करता है, वह पेशल है । ( सूचू. १ पृ. २२२) पोग्गलपरियट्ट - पुद्गलपरिवर्त । सव्वपोग्गला जावतिएण कालेण सरीरफास - अशनादीहिं फासिज्जंति सो पोग्गलपरियट्टो भवति । समस्त पुद्गल जितने काल में अशन आदि के द्वारा शरीर का स्पर्श करते हैं, वह पुद्गलपरिवर्त है। ( उचू. पृ. १८९ ) (दशअचू.पृ. ९१) जिस पर सोया जाता है, वह फलक है। (सूचू. १ पृ. २४८) बठस—बकुश। सरीरोपकरणविभूषाऽनुवर्तिनः ऋद्धियशकामाः सातागौरवाश्रिताः अविविक्तपरिवारा: छेदशबलचारितजुत्ता णिग्गंथा बउसा भण्णंति । शरीर और उपकरणों की विभूषा में रत रहने वाले, ऋद्धि और यश की कामना करने वाले, साता और तीन गौरवों में संलग्न, परिवार में आसक्त तथा शबल चारित्र से युक्त निर्ग्रन्थ कुश कहलाते हैं। (उच्. पृ. १४४) Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ बंध - बन्ध । कम्मयदव्वेहि समं, संजोगो होति जो उ जीवस्स । सो बंधो नायव्वो... । जीव का कर्म - पुद्गलों के साथ सम्बन्ध होना बंध है । (आनि. २७९ ) О बंधो णाम यदात्मा कर्मयोग्यपुद्गलानां स्वदेशैः परिणमयति परस्परं क्षीरोदकवत् तदा बंधो भवति । कर्मयोग्य पुद्गलों का आत्मप्रदेशों के साथ क्षीरनीरवत् लोलीभूत हो जाना बंध है । ( उचू. पृ २१) बंभ - ब्रह्म । बृंहति बृंहितो वा अनेनेति ब्रह्मः । ( उचू. पृ. २०७ ) जो व्यापक है अथवा जिससे व्यापकता होती है, वह ब्रह्म है । बंभण-ब्राह्मण । अट्ठारसविधो बंभं धारयतीति बंभणो । अठारह प्रकार के ब्रह्म को धारण करने वाला ब्राह्मण है । बहुमाण - बहुमान । भावओ नाणमंतेसु णेहपडिबंधो बहुमाणो । ज्ञानियों के प्रति अंत:करण से स्नेहप्रतिबद्धता बहुमान 1 बहुस्सुत- बहुश्रुत । परिसमत्तगणिपिडगज्झयणस्सवणेण य विसेसेण य बहुस्सुतो । बोक्स - बोक्कस | निसाएणं अंबट्ठीए जातो सो बोक्कसो भवति । निषाद पुरुष से अंबष्ठी स्त्री में उत्पन्न संतान बोक्कस कहलाती है । ० • निसाएण सुद्दीए जातो सो वि बोक्कसो। जो गणिपिटक - द्वादशांगी के अध्ययन और श्रवण विशेष को परिसंपन्न कर लेता है, वह बहुश्रुत कहलाता है। (दशअचू पृ. २५६ ) निर्युक्तिपंचक भक्ति - भक्ति । भक्ती पुण अब्भुट्ठाणाति सेवा । अभ्युत्थान आदि से सेवा करना भक्ति है। भवंत - भवान्त । भवमवि चतुप्पगारं खवेमाणो भवंतो भवति । (दशअचू. पृ. २३४) (आचू. पृ. ६) निषाद पुरुष से शूद्र स्त्री में उत्पन्न संतान भी बोक्कस कहलाती है । भगव - भगवान् । अत्थ- जस-धम्म- लच्छी-रूव-सत्त-विभवाण छण्हं एतेसिं भग इति णामं, जस्स संति सो भण्णति भगवं । (दश अचू. पृ. ५२ ) भग के छह प्रकार हैं - अर्थ, यश, धर्म, लक्ष्मी, रूप और सत्त्व। जिसको 'भग' - वैभव प्राप्त है, वह भगवान् है । ( उचू. पृ. ५१ ) ( उचू. पृ. ९६ ) (दशअचू. पृ. ५२) नरक आदि चारों प्रकार के भव-संसार का क्षय करने वाला भवान्त कहलाता है । (दशअचू. पृ. २३३) भवजीवित - भवजीवित । जस्स उदएण णरगादिभवग्गहणेसु जीवति जस्स य उदएण नवातो भवं गच्छति एतं भवजीवितं । जिस कर्म के उदय से प्राणी नरक आदि भवों में जीता है, अथवा जिस कर्म के उदय से एक भव से दूसरे भव में जाता है, वह भवजीवित कर्म है। (दशअचू. पृ. ६६ ) भवाठ - भवायु । जेण य धरति भवगतो, जीवो जेण उ भवाउ संकमई । जाणाहि तं भवाउं.... ॥ जिसके आधार पर जीव भव धारण करता • अथवा भवायुष्य संक्रमित होता है, वह भवायु है । 1 (दश अचू. पृ. ६६ ) Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं ६५३ भारियकम्मा–भारीकर्मा । जो पुण निक्कारणतो अत्तुक्कोसेण करेइ सो खलु भारियकम्मो। जो बिना प्रयोजन ही अति उत्कर्ष से कर्मबन्ध करता है, वह भारीकर्मा है। (दचू.प. १२) भावगणि-भावगणी। भावगणी गुणसमंतितो गुणोवपेतो अट्ठविधाए गणिसंपदाए। गुणों से तथा आठ गणि-संपदाओं से युक्त गणी भावगणी कहलाता है। (दचू.प. १६) भावचित्त-भावचित्त। अकुसलमणनिरोहो, कुसलाणं उदीरणं च जोगाणं। एयं तु भावचित्तं.... ॥ __ अकुशल योगों का निरोध तथा कुशल योगों की उदीरणा भावचित्त है। (दनि.३३/१) भावण्झवण-भावक्षपण। अट्ठविहं कम्मरयं, पोराणं जं खवेइ जोगेहिं। एवं भावज्झवणं, णेयव्वं आणुपुव्वीए॥ जो बंधे हुए चिरन्तन आठ प्रकार के कर्म-रजों को विनष्ट करता है, वह परम्परा से भावक्षपण कहलाता है। (उनि.११) भावतित्थ-भावतीर्थ । जतो णाणादिभावतो मिच्छत्त-ऽण्णाणा-ऽविरतिभवभावेहितो तारयति तेण भावतित्थं ति। अधवा क्रोध-लोभ-कम्मरय-दाह-तण्हाछेद-कम्ममलावणयणमेगंतियमच्चंतियं च तेण कज्जति त्ति अतो भावतित्थं । जो ज्ञान आदि की भावना से मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति आदि भावों से बचाता है तथा क्रोध, लोभ, कर्म, दाह, तृष्णा तथा कर्ममल का ऐकान्तिक और आत्यन्तिक अपनयन करता है, वह भावतीर्थ है। (सूचू.१ पृ. २) भावधुय-भावधुत। अहियासित्तुवसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य। जो विहुणइ कम्माई, भावधुतं तं वियाणाहि ॥ जो देवता सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी तथा तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्गों को सहन कर कर्मों का धुनन करता है, वह भावधुत है। (आनि.२५२) भावपुलाय-भावपुलाक। भावपुलाए जेण मूलगुण-उत्तरगुणपदेण पडिसेविएण निस्सारो संजमो भवति सो भावपुलाओ। मूलगुण और उत्तरगुण की प्रतिसेवना से जिसका संयम निस्सार हो जाता है, वह भावपुलाक (दशजिचू.पृ ३४६) भावपूया-भावपूजा। तित्थगरकेवलीणं, सिद्धायरियाण सव्वसाहूणं। जा किर कीरइ पूया, सा पूया भावतो होइ॥ तीर्थंकर केवली, सिद्ध, आचार्य और समग्र साधुओं की जो पूजा की जाती है, वह भाव पूजा है। (उनि.३०९) भावसत्थ-भावशस्त्र। भावसत्थं कायो वाया मणो य दुप्पणिहियाई। मन, वचन और काया का दुष्प्रणिधान भावशस्त्र है। (आचू.पृ. ८) भावसुत्त-भावसुप्त। भावसुप्तस्तु ज्ञानादिविरहितः अज्ञानी मिथ्यादृष्टिरचारित्री च। जो ज्ञान आदि से शून्य है-अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि और अचारित्री है, वह भावसुप्त है। (सूचू.१ पृ. ५१) Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ भिक्खु - भिक्षु । जो भिंदेह खुहं खलु सो भिक्खु । जो क्षुत्-कर्म का भेदन करता है, वह भिक्षु कहलाता है। भित्ति - भित्ति । नदितडीतो जवोवद्दलिया सा भित्ती भण्णति । मंगल - मङ्गल । मंगं लातीति मंगलं अथवा मां गालयते भवादिति मंगलं । नदी के तट पर पानी के वेगवान् प्रवाह से पड़ी हुई दरार 'भित्ति' कहलाती है। 1 (दशजिचू. पृ २७५ ) निर्युक्तिपंचक ( उनि . ३६८) मंग अर्थात् कल्याण । जो कल्याण को लाता है, वह मंगल है । जीवन से मा-विघ्न को दूर करने वाला मंगल है । ( उचू. पृ. ४) ० • शास्त्रस्य मा गलो भूदिति मंगलं । शास्त्र ( की परिसमाप्ति) में कोई विघ्न न हो, वह मंगल है । ० मं संसारिकेभ्यो अपायेभ्यः गलतीति मंगलं । जो सांसारिक अपाय को दूर करता है, वह मंगल है। सम्यग्दर्शनादिमार्गलयनाद्वा मंगलम् । ( सूचू. १ पृ. २) सम्यग्दर्शन आदि के मार्ग में लीन करने वाला मंगल है। • मंग्यते हितमनेनेति मंगलम्, मङ्गयते (अधिगम्यते) साध्यत इत यावत् । अथवा मंग:- धर्म ला- आदाने मंगं लातीति मंगलम् । जिससे हित साधा जाता है अथवा प्राप्त किया जाता है, वह मंगल है। मंग का अर्थ है धर्म, जो धर्म को प्राप्त कराता है, वह मंगल 1 (सूचू. १ पृ. २) मडंब - मडम्ब । मडंबो जस्स अड्ढाइज्जेहि गाउएहि णत्थि गामो । मंजुल - मञ्जुल, मनोरम । मणसि लीयते मनोऽनुकूलं वा मंजुलम् । जो मन में समा जाता है, वह मंजुल है। जो मनोनुकूल है, वह मंजुल है । (सूचू. १ पृ. १०६) मंद - मन्द । मंदा नाम बुद्ध्यादिभिरपचिता । जो बुद्धि आदि से शून्य है, वह मन्द है । (उचू. पृ. १७३) मंदबुद्धि - स्थूलबुद्धि । जस्स थूला बुद्धी सो मंदबुद्धी भण्णइ । जिसकी बुद्धि स्थूल है, वह मंदबुद्धि है। ( उचू. पृ. १७२ ) मंसखल - मांस सुखाने का स्थान । मसखलं जत्थ मंसा सुक्खाविंति सुक्खस्स वा कडवल्ला कता । जहां मांस सुखाया जाता है तथा सूखे मांस के टुकड़े किए जाते हैं, वह मांसखल है । (आचू. पृ. ३३५) ( उचू. पृ. ४) (दशजिचू. पृ. २) जिसके चारों ओर ढाई कोस तक कोई गांव नहीं होता, वह मडम्ब कहलाता है । (आचू. पृ. २८१ ) मणविणय - मानसिक विनय । मणविणयो आयरियादिसु अकुसलमणवज्जणं कुसलमणउदीरणं । आचार्य आदि गुरुजनों के प्रति अमंगलकारी मन (भावना) का निरोध तथा मंगलकारी मन (भावना) की उदीरणा मानसिक विनय है । (दशअचू. पृ. १५) Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं ६५५ मणि-मणि। मद्यते मन्यते वा तमलङ्कारमिति मणिः। जो उस-उस अलंकार को श्रेष्ठ बना देता है, वह मणि है। (उचू. पृ. १५१) मणोरम-मनोरम। मणोरमे मणांसि अत्र मनस्विनां रमन्त इति मणोरमे भवति । जो मनस्वी लोगों के मन में रमण करता है, वह मनोरम है। (सूचू.१ पृ. १४६) मच्छर-मात्सर्य। मत्सरो नाम अभिमानपुरस्सरो रोषः। जो अभिमानयुक्त रोष होता है, वह मात्सर्य है। (सूचू.१ पृ. ७४) मद्दवया-मार्दव । मद्दवता जाति-कुलादीहिं परपरिभवाभावो। जाति, कुल आदि के आधार पर दूसरों का परिभव न करना मार्दव है। (दशअचू. पृ. ११) मयगंगा-मृतगंगा। मतगंगा हेट्ठाभूमीए गंगा अण्णमण्णेहिं मग्गेहिं जेण पुव्वं वोदणं पच्छा ण वहति सा मतगंगा भण्णति। गंगा प्रतिवर्ष नए-नए मार्ग से समुद्र में जाती है। जो मार्ग चिरत्यक्त हो, बहते-बहते गंगा ने जो मार्ग छोड़ दिया हो, उसे मृतगंगा कहा जाता है। (उचू. पृ. २१५) महिया-महिका, कुहरा। जो सिसिरे तुसारो पडइ, सा महिया भण्णइ। शिशिर काल में जो तुषार गिरती है, वह महिका कहलाती है। (दशजिचू. पृ. १५५) • गर्भमासादिषु सायं प्रातर्वा धूमिकापातो महिकेत्युच्यते। गर्भमास आदि में सायं और प्रातः जो धूअर आती है, वह महिका कहलाती है। (आटी. पृ. २७) • पातो सिसिरे दिसामंधकारकारिणी महिता। शिशिर में जो अंधकारकारक तुषार गिरता है, उसे महिका या कुहरा कहते हैं। (दशअचू. पृ. ८८) महेसि-महान् की एषणा करने वाला। महानिति मोक्षो तं एसन्ति महेसिणो। जो महान् अर्थात मोक्ष की एषणा करता है, वह महैषी-महर्षि है। (दशअचू.पृ. ५९) मागह-मागध। वइस्सेण खत्तियाणीए जाओ मागहो त्ति भण्णइ। वैश्य पुरुष से क्षत्रिय स्त्री में उत्पन्न संतान मागध कहलाती है। (आचू. पृ. ५) माण-सम्मान। माणो अब्भुट्ठाणादीहिं गव्वकरणं। अभ्युत्थान आदि से गर्व करना मान है। (दशअचू. पृ. १३३) ० जाति-कुल-रूप बलादिसमुत्थो गर्वो मानः। जाति, कुल, रूप, बल आदि से उत्पन्न गर्व मान है। (आटी. पृ. ११४) मामग-ममकार करने वाला। मामको णाम ममीकारं करोति देशे ग्रागे कुले वा एगपुरिसे वा। जो देश, ग्राम, कुल अथवा किसी पुरुष विशेष में ममकार करते हैं, वे मामक-मोही हैं। (सूचू. १ पृ. ६७) माया-माया। परवञ्चनाध्यवसायो माया। दूसरे को ठगने की भावना माया है। (आटी. पृ. ११४) Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ माया - मात्रा । मीयतेऽसौ मीयते वाऽनयेति माया । जो मापा जाता है अथवा जिससे मापा जाता है, वह मात्रा है । मार- कामदेव । खणे खणे मारयतीति मारो। जो क्षण-क्षण में मारता है, वह मार / कामदेव है । (आचू. पृ. १०८ ) माहण - माहन, अहिंसक मा हणह सव्वसत्तेहिं भणमाणो अहणमाणो य माहणो भवति । किसी सत्त्व का हनन मत करो, ऐसा कहने वाला माहन कहलाता है अथवा जो किसी का हनन नहीं करता, वह 'माहन' होता है । ( सूचू. १ पृ. २४६ ) मीसियाकहा- मिश्रकथा । धम्मो अत्थो कामो, उवइस्सइ जत्थ सुत्त कव्वेसु । लोगे वेदे समए, सा उ कहा मीसिया नामं ॥ मुट्ठि - मुष्टि । अंगुटुंगुलितलसंघातो मुट्ठी । जिन सूत्रों, काव्यों तथा लौकिक ग्रन्थों - रामायण आदि में, यज्ञ आदि क्रियाओं में तथा सामयिक ग्रन्थों - तरंगवती आदि में धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों का कथन किया जाता है, वह मिश्रकथा है। (दशनि. १७९) अंगूठे और अंगुलि का संघात होना मुष्टि है। मुनि - मुनि। मुणेति जगं तिकालावत्थं मुणी । जो त्रिकालावस्थित जगत् को जानता है, वह मुनि है । मनुते मन्यते वा धर्माधर्मानिति मुनिः । ० धर्म और अधर्म का मनन करने वाला मुनि होता है। • सावज्जं न भासति त्ति मुणी । सावज्जेसु मोणं सेवति त्ति मुणी । जो सावद्य वाणी नहीं बोलता, वह मुनि है । मुक्त - मुक्त | बाहिरऽब्धंतरेहि गंथेहिं विप्पमुक्को मुत्तो । ० बाह्य और आभ्यन्तर ग्रंथि से रहित मुक्त कहलाता है। ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धनाद्वियुक्तो मुक्तः । ज्ञानावरणीय आदि कर्मबंधन से विमुक्त मुक्त कहलाता है। ० मुम्मुर - मुर्मुर । करिसगादीण किंचि सिट्ठो अग्गी मुम्मुरो । निर्युक्तिपंचक ० मुम्मुरो नाम जो छाराणुगओ अग्गी सो मुम्मुरो । कंडे की अग्नि या क्षारादिगत अग्नि-कण को मुर्मुर कहते हैं । ( उचू. पृ. १३३) • विरलाग्निकणं भस्म मुर्मुरः । वह राख जिसमें विरल अग्निकण हो, मुर्मुर कहलाती है। मुम्मुही - मुन्मुखी ( जीवन की एक अवस्था ) । विणओवक्कमंतो मूक इव भाषते जिस अवस्था में व्यक्ति मूक की भांति बोलता है, वह मुन्मुखी है । (दचू.प. ३९ ) (दशअचू. पृ. ३८, दशजिचू. पृ. ७४) (दशअचू. पृ. २३४) ( सूटी. पृ. ९७ ) ( आचू. पृ. १०४) ( उचू. पृ. २०३ ) (दशअचू पृ. ८९, दशजिचू. पृ. १५६ ) (दशहाटी. प. १५४) मुम्मुही । ( दचू. प. ३) Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं मुहरी - मुखरी ( वाचाल ), अंटसंट बोलने वाला। मुखे अरिमावहतीति मुखरी । जो अंटसंट बोलता है, मुख में शत्रुता को वहन करता है, वह मुखरी है। ( उचू. पृ. २८) मुहाजीवि - मुधाजीवी । मुहाजीवी नाम जं जातिकुलादीहिं आजीवणविसेसेहिं परं न जीवति जो जाति, कुल आदि के सहारे नहीं जीता, उसे मुधाजीवी कहा जाता है । (दशजिचू. पृ. १९० ) मुहालद्ध-मुधालब्ध। मुहालद्धं नाम जं कोंटलवेंटलादीणि मोत्तूणमितरहा लद्धं तं मुहालद्धं । तंत्र, मंत्र और औषधि आदि के द्वारा हित-संपादन किए बिना जो मिले, उसे मुधालब्ध कहा जाता है। (दशजिचू. पृ. १९० ) मूढ - मूढ । मूढो कज्जाकज्जमयायाणो । कार्य और अकार्य के विवेक से विकल व्यक्ति मूढ कहलाता है । ( सूचू. १ पृ. १७२ ) О मूढा तत्त्वातत्त्वअजाणगा । • मूढा हिताहितविवेचनं प्रत्यसमर्थाः । तत्त्व और अतत्त्व के ज्ञान से शून्य तथा हित और अहित के विवेक से विकल मूढ कहलाता है । ( उचू. पृ. १४९, उशांटी. प. २६२ ) मेधावि - मेधावी । मेधावि त्ति आशुग्रहणधारणसम्पन्नः । ६५७ मोक्ख - मोक्ष। बंधवियोगो मोक्खो भवति । कर्मबंधन का वियोग मोक्ष है। मोह-मोह | मोहो णाम हिताहिते निव्विसेसता । जो हित और अहित में निर्विशेष होता है, वह मोह है । मोहुवासक — मोहोपासक । कुप्पवयणं कुधम्मं, उवासए मोहुवासको सो उ । जो कुप्रवचन तथा कुधर्म की उपासना करता है, वह मोहोपासक है। रसणिज्जूढ — रसनिर्यूढ । रसणिज्जूढं णाम जं कदसणं ववगयरसं तं रसणिज्जूढं भण्णइ । नीरस और विकृत आहार को रसनिर्यूढ कहते हैं । रसय - रसज । रसया नाम तक्कंबिलमाइसु भवंति । शीघ्र ग्रहण और धारण- इन दो बुद्धिगुणों से सम्पन्न व्यक्ति मेधावी कहलाता है। ( सूचू. २ पृ., ३१२ ) राग-राग रागो नाम तीव्राभिनिवेशः । तीव्र अभिनिवेश- आसक्ति को राग कहते हैं । रायधम्म — राजधर्म | रायधम्मो इट्ठाणिट्ठेसु दंडधरणं । छाछ, दही आदि रसों में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्मशरीरी जीव रसज कहलाते हैं । (दशजिचू. पृ. १४० ) (आचू. पृ. २४६) (आचू. पृ. ९१ ) (दनि. ३६) (दशजिचू. पृ. २८१) (दचू. पृ. ३६) प्रिय या अप्रिय व्यक्ति का चिन्तन किए बिना अपराधी को दंड देना राजधर्म है । (दशअचू. पृ. ११) Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ रायपिंड - राजपिंड । मुद्धाभिसित्तस्स रण्णो भिक्खा रायपिंडो । मूर्धाभिषिक्त राजा की भिक्षा लेना राजपिंड है I रायहाणी - राजधानी । रायहाणी जत्थ राया वसइ । जहां राजा रहता है, वह राजधानी है। लक्खण - लक्षण । पच्चक्खमणुवलब्भमाणो जेणाणुमीयते अत्थि त्ति लक्खणं । (आचू. पृ. २८२) जो प्रत्यक्ष में अनुपलब्ध है परन्तु जिस गुण से अस्तित्व का अनुमान किया जाता है, वह (दश अचू. पृ. ६६ ) लक्षण | लाढ -संयमी । लाढयति प्रासुकैषणीयाहारेण साधुगुणैर्वात्मानं यापयतीति लाढः । जो प्रासुक एषणीय आहार से अथवा साधु-गुणों के द्वारा जीवन-यापन करता है, वह लाढ कहलाता है । (उशांटी.प. १०७) लोम-रोम । लुनाति लूयंते वा तानि लीयंते वा तेषु यूका इति लोमानि । जिनको उखाड़ा जाता है, अथवा जिनमें जूं आदि रहते हैं, वे लोम-केश हैं। ( उचू. पू. १४२) लोह - लोभ । तृष्णापरिग्रहपरिणामो लोभः । तृष्णा और परिग्रह का परिणाम लोभ है। (आटी. पृ. ११४) वइसाह - वैशाख, योद्धा की मुद्रा विशेष । वइसाहं पहिओ अब्भितराहुत्तीओ समसेढीए करेति, अग्गिमतलो बाहिराहुत्तो । वक्कसुद्धि - वाक्शुद्धि । जं वक्कं वदमाणस्स, संजमो सुज्झई न पुण हिंसा । न य अत्तकलुसभावो, तेण इहं वक्कसुद्धि त्ति ॥ निर्युक्तिपंचक (दश अचू. पू. ६० ) दोनों एड़ियों को भीतर की ओर समश्रेणी में रखकर अग्रिम तल को बाहर रखना वैशाखस्थान है। (दचू. प. ४) जिस वाक्य को बोलने से संयम की शुद्धि होती है, हिंसा नहीं होती, आत्मा में कलुषभाव नहीं आता, वह वाक्शुद्धि है। (दशनि. २६४) वच्च - वर्चस्, पाखाना । वच्वं नाम जत्थ वोसिरंति कातिकाइसन्नाओ । जहां मल और मूत्र का उत्सर्ग किया जाए, वे दोनों स्थान वर्चस् कहलाते हैं। वच्छ - वृक्ष । पुत्ता इव रक्खिज्जंति वच्छा। पुत्र की भांति जिनकी रक्षा की जाती है, वे वत्स (वृक्ष) हैं। वज्जभीरु - वज्रभीरु । वज्जभीरुणो णाम संसारभउव्विग्गा थोवमवि पावं णेच्छंति । वण्ण- लोकव्यापी यश । लोकव्यापी जसो वण्णो । लोकव्यापी यश वर्ण है । (दशजिचू. पृ. १७७) जो संसार के भय से उद्विग्न होकर थोड़ा भी पाप का सेवन नहीं करते, वे वज्रभीरु हैं । (दशजिचू. पृ. ९२ ) (दशअचू. पृ. २२७) (दशअचू. पृ. ७) Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : पारभाषाए वयसंजम-वाक्संयम। वयसंजमो णाम अकुसलवइनिरोहो कुसलवइउदीरणं वा। अकुशल वचन का निरोध तथा कुशल वचन की उदीरणा वचन-संयम है। (दशजिचू पृ. २१) वलय-वलय। वलयं णाम एक्कदुवारो गड्डापरिक्खेवो वलयसंठितो वलयं भण्णति। एक द्वार वाला गर्ता का परिक्षेप, जो वलय के आकार का होता है, वह वलय कहलाता (सूचू १ पृ. ८८) वलायमरण-वलन्मरण। संजमजोगविसण्णा, मरंति जे तं वलायमरणं तु। संयम-योगों से विषण्ण होकर मरना वलन्मरण कहलाता है। (उनि २१०) वसट्टमरण-वशा-मरण । इंदियविसयवसगता, मरंति जे तं वसट्टे तु। जो प्राणी इन्द्रिय-विषयों के वशवर्ती होकर मृत्यु को प्राप्त करते हैं, उनका मरण वशात मरण कहलाता है। (उनि २१०) वसवट्टि-वशवर्ती। वश्येन्द्रियो वा यः स वशवट्टी गुरूणां वा वशे वर्तते इति वशवर्ती। जिसकी इंद्रियां स्ववश में हों अथवा जो स्वयं गुरु के वश में हो, वह वशवर्ती है। (सूचू १ पृ. १०७) वसुहा-वसुधा। वसूनि निधत्ते इति वसुधा। जो वसु-रत्नों को धारण करती है, वह वसुधा है। (उचू पृ. २०९) वाय-वाद। पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः । पक्ष और प्रतिपक्ष का प्रयोग करना वाद है। (दचू प. २२) • वादो णाम छल-जाति-निग्रहस्थानवर्जितः। जिसमें छल, जाति और निग्रह-स्थान का कोई अवकाश नहीं होता, वह वाद है। (सूचू १ पृ. ९३) वायणा-वाचना। सीसस्स अज्झावणं वायणा। शिष्य को पढ़ाना वाचना है। (दशअचू पृ. १६) वायावीरिय-वाग्वीर्य। वायावीरियं णाम जो भणति ण य करेति। जो कहता है पर करता नहीं, वह केवल वाग्वीर्य है। (सूचू १ पृ. १०९) वासावास-वर्षावास। वरिसासु चत्तारि मासा एगत्थ अच्छंतीति वासावासो। वर्षाकाल में एक स्थान पर चार मास तक रहना वर्षावास कहलाता है। (दचू प. ५१) विकहा-विकथा। जो संजतो पमत्तो, रागद्दोसवसगओ परिकहेइ। साउ विकहा पवयणे, पण्णत्ता धीरपुरिसेहिं॥ जो संयमी मुनि प्रमाद तथा राग-द्वेष के वशीभूत होकर कथा (धर्मोपदेश) करता है, वह विकथा कहलाती है। (दशनि १८४) • जहा विणट्ठसीला विसीला णारी एवं विणट्ठाकहा विकहा। जैसे नारी का शील विनष्ट हो जाने पर वह विशीला कहलाती है वैसे ही जिस कथा का स्वरूप विनष्ट हो जाता है, वह विकथा है। (दशअचू पृ. ५८) Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० विक्खेवणी कहा - विक्षेपणी कथा । जा ससमयवज्जा खलु, होइ कहा लोग- वेय-संजुत्ता । परसमयाणं च कहा, एसा विक्खेवणी नाम ॥ जो कथा ( धर्मोपदेश) स्वसिद्धान्त से शून्य तथा लौकिक कथाओं से संयुक्त है वह परसिद्धान्त का कथन करने वाली विक्षेपणी कथा है। (दशनि. १७० ) 0 विविहं विण्णाण विसयादीहिं खिवति विक्खेवणी । जो कथा विविध उपायों से श्रोता को इन्द्रिय-विषयों से दूर ले जाती है, वह विक्षेपणी कथा है । (दशअचू. पृ. ५५) विगयगेहि— विगतगृद्धि। बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु विगता यस्य गेधी स भवति विगतग्रेधी | जो बाह्य और आभ्यन्तर वस्तुओं के प्रति गृद्ध नहीं होता, वह विगतगृद्धि है । विज्जल - विज्जल । विगयमात्रं जतो जलं तं विज्जलं । जिस पंक में वितस्तिमात्र जल हो, वह विज्जल है । विण्णाण - विज्ञान । विविहेहिं ऊहावोहादीहिं जेण उवलभति तं विण्णाणं । जो विविध ऊहा, अपोह आदि से जाना जाता है, वह विज्ञान है । वितह - वितथ । जं वत्युं न तेण सभावेण अत्थि तं वितहं भण्णइ । अतद्रूप वस्तु वितथ कहलाती है । विभूसा - विभूषा । विभूसा नाम ण्हाण - हत्थ - पाद-मुह-वत्थादिधोवणं । स्नान करना, हाथ, पैर, मुंह, वस्त्र आदि धोना विभूषा है। वियक्खण- विचक्षण । वियक्खणो पराभिप्पायजाणतो । दूसरों के अभिप्राय का ज्ञाता विचक्षण कहलाता है । वियत्त - व्यक्त । व्यक्तो बालभावान्निष्क्रान्तः परिणतबुद्धिः । नियुक्तिपंचक ( सूचू. १ पृ. १४९ ) ० ( दशअचू. पृ. १०० ) विरमण - विरमण, विरति । विरमणं नाम सम्यग्ज्ञान श्रद्धानपूर्वकं सर्वथा निवर्तनम् । सम्यग् ज्ञान और श्रद्धा पूर्वक सर्वथा निवर्तन करना विरमण है । विरय - विरत । पाणवधादीहिं आसवदारेहिं न वट्टइ त्ति विरतो । विसय - विषय । विषीदन्ति - अवबध्यन्ते एतेषु प्राणिन इति विषयाः । जहां प्राणी बंध जाते हैं, वे इंद्रिय विषय हैं। ( दशअचू. पृ. ६७) (दशअचू. पृ. १०६) जो बालभाव को पार कर चुका है, जिसकी बुद्धि परिपक्व हो चुकी है, वह व्यक्त कहलाता है । ( सूटी. पृ. ८) ( दशजिचू. पृ. २४६ ) (आचू. पृ. २८) जो प्राणवध आदि आस्रव द्वारों में प्रवृत्त नहीं होता, वह विरत कहलाता है। (दशहाटी. प. १४४) विरओ णामऽणेगपगारेण बारसविहे तवे रओ । बारह प्रकार के तप में अनेक प्रकार से निरत भिक्षु विरत कहलाता है । (दशजिचू. पृ. ७४) ( दशजिचू. पृ. १५४) (दशहाटी. प. ८६ ) Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं विसारय-विशारद । अर्थग्रहणसमर्थो विशारदः प्रियकथनो वा। अर्थ ग्रहण करने में समर्थ अथवा प्रियवादी व्यक्ति विशारद कहलाता है। (सूचू १ पृ. २२४) विहंगम-विहंगम। विहं-आगासं, विहायसा गच्छंति त्ति विहंगमा। जो विह-आकाश में विचरण करते हैं, वे विहङ्गम हैं। (दशअचू पृ. ३३) • विहं गच्छन्त्यवतिष्ठन्ते स्वसत्तां बिभ्रतीति विहङ्गमाः। जो आकाश में उड़ते रहते हैं, अपनी सत्ता को बनाए रखते हैं, वे विहंगम हैं। (दशहाटी प. ७०) विहुयकप्प-विधूतकल्प। विधूतं वा जेण कम्मं तेण तुल्यो विधूतकप्पो। जिसने कर्मों को धुन डाला है, उसके तुल्य विधूतकल्प होता है। (आचू पृ. २१७) वीससाकरण-विस्रसाकरण। खंधेसु य दुपदेसादिएसु, अब्भेसु विज्जुमादीसु। निप्फण्णगाणि दव्वाणि, जाणि तं वीससाकरणं॥ द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों में तथा अभ्र, विद्युत् आदि में परिणत पुद्गल-द्रव्य विस्रसाकरण कहलाता है। (सूनि ८) वीससामेल-विस्रसामेल। विस्रसामेलो णाम दोण्हं तिहं चतुण्डं पंचण्हं वा वण्णाणं संयोगविसेसेणं उप्पज्जते। दो, तीन, चार अथवा पांच वर्षों के संयोग विशेष से जो उत्पन्न होता है, वह विस्रसामेल है। (सूचू १ पृ. १०) वुसीमंत-संयमी। वशे येषामिन्द्रियाणि ते भवंति वुसीम, वसंति वा साधुगुणेहि वुसीमंतः। जो जितेन्द्रिय अथवा मुनि-गुणों से युक्त हैं, वे वृषिमान्–संयमी हैं। (उचू पृ. १३७) वेणव-वेणव। वैदेहेणं खत्तीए जाओ वेणवु त्ति वुच्चइ। वैदेह पुरुष से क्षत्रिय स्त्री में उत्पन्न संतान वेणव कहलाती है। (आचू पृ. ६) वेदवि-वेदवित् । दुवालसंग वा प्रवचनं वेदो, तं जे वेदयति स वेदवी। द्वादशांगी अथवा जिन-प्रवचन का अपर नाम वेद है। जो इसको जानता है, वह वेदविद् __(आचू पृ. १८५) वेदेह-वैदेह । वइस्सेण बंभणीए जाओ वेदेहो त्ति भण्णति। वैश्य पुरुष से ब्राह्मण स्त्री में उत्पन्न संतान वैदेह कहलाती है। (आचू. पृ. ६) वोसट्ठकाय-व्युत्सृष्टकाय। वोसट्ठकाए त्ति अपडिकम्मसरीरो उच्छूढसरीरो त्ति वुत्तं होति। जो शरीर का प्रतिकर्म नहीं करता, शरीर की सार-संभाल नहीं करता, वह व्युत्सृष्टकाय है। (सूचू १ पृ. २४६) संखडी-जीमनवार। छण्हं जीवनिकायाणं आउयाणि संखडिज्जति जीए सा संखडी भण्णइ। जहाँ छह जीवनिकायों के प्राणियों का आयुष्य खंडित किया जाता है, जीव वध किया जाता है, वह संखडी (भोज, जीमनवार) है। (दशजिचू पृ. २५७) Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ नियुक्तिपंचक संगाम-संग्राम। समस्तं ग्रस्यते ग्रस्यन्ते वा तस्मिन्निति संग्रामः। जो सबको ग्रस्त कर देता है, खा जाता है अथवा जिसमें सब ग्रस्त हो जाते हैं, वह संग्राम (सूचू. १ पृ. ७९) संजम-संयम। संजमो पाणातिवायविरती। प्राणातिपात (प्राणहिंसा आदि) से विरत होना संयम है। (दशअचू. पृ. ११) • सव्वावत्थमहिंसोवकारी संजमो। जो सब अवस्थाओं में अहिंसा का उपकारक है, वह संयम है। (दशअचू. पृ. १२) संजममधुवजोगजुत्त-संयमध्रुवयोगयुक्त। संजमधुवजोगेण जुत्तो जस्स अप्पा, स भवति संजमधुवजोगजुत्तो। जिसकी आत्मा संयम के ध्रुवयोगों से युक्त है, वह संयमध्रुवयोगयुक्त है। (दचू. पृ. २१) संजलण-क्रोध। संजलनं नाम रोषोदगमो मानोदयो वा। संज्वलन अर्थात् क्रोध या मान का उदय। (उचू. पृ. ७२) संजलण-क्रोधी। संजलणो णाम पुणो पुणो रुस्सइ, पच्छा चरित्तसस्सं हणति डहइ वा अग्गिवत् । जो बार-बार कुपित होता है और चारित्र रूपी शस्य को जला देता है, वह संज्वलन- क्रोध (दचू. प. ७) संजय-संयत। संजओ नाम सोभणेण पगारेण सत्तरसविहे संजमे अवट्ठिओ संजतो भवति । सतरह प्रकार के संयम में भली-भांति अवस्थित साधक संयत है। (दशजिचू. पृ. १५४) ० छसु पुढविकायादिसु त्रिकरणएकभावेण जता संजता। पृथ्वी आदि छह जीवनिकायों के प्रति जो मन, वचन और काया से उपरत रहता है, उनकी हिंसा नहीं करता, वह संयत कहलाता है। (दशअचू. पृ. ६३) संडिब्भ-बच्चों का क्रीड़ास्थल। संडिब्भं नाम बालरूवाणि रमंति धणुहि । जहाँ बालक धनुष्य आदि से खेलते हैं, वह स्थान 'संडिब्भ' कहलाता है। ___(दशजिचू. पृ. १७१, १७२) संथव-संस्तव। संथवो णाम उल्लाव-समुल्लावा-ऽऽदाण-ग्गहणसंपयोगादि। परस्पर आलाप-संलाप करना, देना-लेना, परस्पर मिलना-संस्तव है ।(सूचू.१ पृ. १२०) संथार-संस्तारक। संथारो अड्डाइज्जहत्थो आयतो। हत्थं समचउरंगुलं वित्थिण्णो। • संथारगो यडड्ढाइज्जहत्थाततो समचतुरंगुलं हत्थं वित्थिण्णो। ढाई हाथ लम्बा और एक हाथ चार अंगुल चौड़ा बिछौना संस्तारक कहलाता है। (दशजिचू. पृ. १५८, दशअचू. पृ. ९१) संदीण-संदीनद्वीप। संदीणो णाम जो जलेण छाडेजति। जो जल से आप्लावित होता है, वह संदीनद्वीप कहलाता है। (उचू. पृ. ११४) संधि-सन्धि। संधी जमलघराणं अंतरं। दो घरों के बीच का अंतर संधि कहलाता है। (दशअचू. पृ. १०३) संपसारग-संप्रसारक। संप्रसारकः देववृष्ट्यर्थकाण्डादिसूचककथाविस्तारकः। देववृष्टि, अर्थकाण्ड आदि की सूचक कथा का विस्तार करने वाला संप्रसारक कहलाता (सूटी. पृ. ४६) Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं ६६३ • संपसारगो णाम असंजताणं असंजमकज्जेसु साम छंदेति उवदेसं वा। गृहस्थों के असंयममय कार्यों का समर्थन करने वाला तथा उनका उपदेश देने वाले को संप्रसारी कहा जाता है। (सूचू. १ पृ. १७८) संमुच्छिम-सम्मूर्च्छिम। सम्मुच्छिमा नाम जे विणा बीएण पुढविवरिसादीणि कारणाणि पप्प उठेति। जो उत्पादक बीज के बिना केवल पृथ्वी, पानी आदि कारणों से उत्पन्न होते हैं, वे सम्मूर्च्छिम कहलाते हैं। (दशजिचू.पृ. १३८) संवर-संवर। संवरो नाम पाणवहादीण आसवाणं निरोहो भण्णइ। प्राणातिपात आदि आस्रवों के निरोध को संवर कहते हैं। (दशजिचू. पृ. १६२, १६३) संवेयणी-संवेजनी। संवेगं संसारदुक्खेहिंतो जणेति संवेदणी। संसार के दु:खों से संवेग प्राप्त कराने वाली कथा संवेजनी है। (दशअचू. पृ. ५५) संसय-संशय। संशय्यते च अर्थद्वयमाश्रित्य बुद्धिरिति संशयः। व्यर्थक शब्द के प्रति बुद्धि में जो विपर्यास होता है, वह संशय है। (उचू. पृ. १८३) संसार-संसार। अट्ठविहो जोणिसंगहो संसारेति पवुच्चइ। आठ प्रकार का योनि-संग्रह-उत्पत्ति-स्थल संसार कहलाता है। (आचू.पृ. ३६) • संसरति तासु तासु गतिष्विति संसारः। विभिन्न गतियों में संसरण करना संसार है। (उचू. पृ. ९७) संहिता-संहिता। संहिता अविच्छेदेण पाढो। संहिता का अर्थ है-अव्यवच्छिन्न पाठ का उच्चारण। (दशअचू. पृ. ९) सकार-संस्कार। शुभाऽशुभकर्म संस्कुर्वन्तीति संस्काराः। जो शुभ-अशुभ कर्मों से वासित करते हैं, वे संस्कार कहलाते हैं। (सूचू.१ पृ. २९) सच्च-सत्य। सच्चं-अणुवधायगं परस्स वयणं। दूसरे का उपघात न करने वाला वचन सत्य है। (दशअचू.पृ. ११) सढ-शठ। शठो नाम अन्यथा संतमात्मानमन्यथा दर्शयति। जो स्वयं को दूसरे रूप में प्रदर्शित करता है, वह शठ है। (उचू. पृ. १३३) सबल-शबल। सालंबो वा जयणाए सेवंतो सबलो भवति। जो पुष्ट आलंबन से अथवा यतनापूर्वक अनासेव्य का सेवन करता है, वह शबल (चारित्री) (दचू. प. ९) सण्णा-संज्ञा। पुव्वदिट्ठमत्थमाहितसंस्कारादि एसा सण्णा। __पूर्वदृष्ट अर्थ से संस्कारित होना संज्ञा है। (दशअचू. पृ. ६७) सभा-सभा। सभा नाम नगरादीणं माझे देसे कीरंति। नगर आदि के मध्य में निर्मित जन-स्थान सभा कहलाता है। (आचू.पृ. ३११) सभिक्खु-सद्भिक्षु। अट्ठविधं कम्मखुहं, तेण निरुत्तं सभिक्खु त्ति। __ आठ प्रकार के कर्मों का भेदन करने वाला सद्भिक्षु होता है। (दशनि.३१७) Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ नियुक्तिपंचक समण-समण। समेति व वाणी समणो। जो अपने कथन के अनुसार चलता है, वह समण है। (आचू. पृ. २७१) • जह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्व जीवाणं। ० न हणति न हणावेति, य सममणई तेण सो समणो॥ जैसे मुझे दुःख अप्रिय है वैसे ही सब जीवों को है-ऐसा जानकर जो व्यक्ति न हिंसा करता है, न करवाता है तथा जो समान व्यवहार करता है, वह समण है। (दशनि. १२९) • मित्ता-ऽरिसु समो मणो जस्स सो भवति समणो। जिसका शत्रु और मित्र के प्रति समान मन होता है, वह समन है। (सूचू. १ पृ. २४६) • णत्थि य सि कोति वेसो, पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु। एएण होति समणो.....।। जिसके लिए कोई प्रिय या अप्रिय नहीं होता, वह समण है। (दशअचू. पृ. ३६) समर-समर, युद्ध। समरं नाम जत्थ हेट्ठा लोहयारा कम्मं करेंति अहवा सहारिभिः समरः। जहां लोहकार कार्य करते हैं, वह समर है अथवा जहां शत्रुओं के साथ सामना होता है, वह समर (युद्ध) है। (उचू. पृ. ३७) संवुडकम्मा-संयमी। मिथ्यादर्शनाऽविरति-प्रमाद-कषाय-योगा यस्य संवृता भवन्ति स संवृतकर्मा। जिसके मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग संवृत होते हैं, वह संवृतकर्मा-संयमी कहलाता है। (सूचू.१ पृ. ६९) समाहि-समाधि। समाधिर्नाम राग-द्वेषपरित्यागः। राग-द्वेष का परित्याग करना समाधि है। (सूचू.१ पृ. ६७) समाहितप्पा -समाहित आत्मा। नाण-दसण-चरित्तेसु सुट्ट आहितप्पा समाहितप्पा। ज्ञान, दर्शन, चारित्र में अच्छी तरह स्थित व्यक्ति समाहित कहलाता है। (दशअचू. पृ. २४१) समाहियच्च-समाहितार्च। जस्स भावो समाहितो स भवति समाहियच्चो। जिसके भाव समाधियुक्त होते हैं, वह समाधितार्च है। (आचू. पृ. २८१) समिइ-समिति। सम्मं पवत्तणं समिती। सम्यक् प्रवर्तन करना समिति है। (दशअचू. पृ. ५३) समुत्थिय-समुत्थित। मोक्षाय सम्यगुत्थिताः समुत्थिताः। __ मोक्षप्राप्ति के लिए सम्यक् पुरुषार्थ करने वाले समुत्थित कहलाते हैं । (सूचू.१ पृ. ६७) सयग्घी-शतघ्नी । शतं धनन्तीति शतघ्न्यः। एक साथ सौ को मारने वाला शस्र शतघ्नी है। (उचू.पृ. १८२) सरण-शरण। जेण आवति तरति जं अस्सिता णिब्भयं वसंति तं सरणं। जहां आपदाओं से रक्षा होती है तथा जहां निर्भयतापूर्वक रहा जा सकता है, वह शरण है। (आचू. पृ. ५३) Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं ६६५ सरीरबउस-शरीरबकुश। सरीराभिषक्तचित्तो विभूषितार्थो तत्प्रतिकारसेवी शरीरबकुशः। जो शरीर के प्रति आसक्त, विभूषा का अर्थी (निरन्तर शरीर का परिकर्म करने वाला) तथा शरीर के प्रतिकूल तथ्य का प्रतिकार करने वाला होता है, वह शरीरबकुश कहलाता है। __ (उचू पृ. १४५) ससणिद्ध-जल से स्निग्ध। ससणिद्धं जं न गलति तिंतयं तं ससणिद्धं भण्णइ। गीली वस्तु, जिससे जल-बिन्दु नहीं गिरते, उसे सस्निग्ध कहते हैं ।(दशजिचू पृ. १५५) साहु-साधु । जेण कारणेण तस-थावराणं जीवाणं अप्पणो य हियत्थं भवइ तहा जयंति अतो य ते साहुणो भण्णंति। जो त्रस-स्थावर जीवों के तथा स्वयं के हित के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, वे साधु हैं। (दशजिचू पृ. ७०) सिक्खग-नवदीक्षित। सिक्खगो णाम जो अहुणा पव्वइओ। तत्काल प्रव्रजित मुनि शैक्ष कहलाता है। (दशहाटी प. ३१) सिक्खा-शिक्षा। शिक्षा नाम शास्त्रकलासु कौशलम्। शास्त्रों में तथा कलाओं में कुशलता प्राप्त करना शिक्षा है। (उचू पृ. १६५) सिणात-स्नातक। मोहणिज्जाइघातियचउकम्मावगतो सिणातो भण्णति। जो मोहनीय आदि चार घाती कर्मों का विनाश कर देता है, वह स्नातक निर्ग्रन्थ है। (उचू पृ. १४५) सिद्ध--सिद्ध। रागादिवासनामुक्तं, चित्तमेव निरामयम्। __ सदा नियतदेशस्थं, सिद्ध इत्यभिधीयते ॥ राग आदि की वासना से मुक्त, निर्मल चित्त वाले तथा सदा नियत स्थान में स्थित सिद्ध कहलाते हैं। (दशहाटी प. १) सिला-शिला। सवित्थारो पाहाणविसेसो सिला। विस्तृत पाषाणखंड शिला कहलाती है। (दचू प. ११) • सिला नाम वित्थिण्णो जो पाहाणो सा सिला। मूल से विच्छिण्ण पाषाण शिला कहलाती है। (दशजिचू पृ. १५४) सीओदग-सचित्त जल। उदगं असत्थहयं सजीवं सीतोदगं भण्णइ। जो जल शस्त्र प्रतिहत नहीं होता, वह शीतोदक (अप्रासुक जल) कहलाता है। (दशजिचू पृ. ३३९) सीयपरीसह-शीतपरीषह। जे मंदपरीणामा परीसहा ते भवे सीया। मंद परिणाम वाले परीषह शीत परीषह कहलाते हैं। (आनि २०४) सीलगुण-शीलगुण। सीलगुणो णाम अक्कुस्समाणो वि ण खुब्भति, अहवा सद्दादिएसु भद्दयपावरसु ण रज्जति दुस्सति वा। आक्रोश किए जाने पर भी क्षुब्ध नहीं होना, प्रशस्त इन्द्रिय-विषयों में अनुरक्त तथा अप्रशस्त इंद्रिय-विषयों में द्वेष नहीं करना शीलगुण है। (आचू. पृ. ४५) Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ नियुक्तिपंचक सुंडिया-उन्मत्तता। जा सुरातिसु गेही सा सुंडिया भण्णति। सुरा आदि के प्रति गृद्धि सोंडिका कहलाती है। (दशजिचू. पृ. २०३) सुत्तरुइ-सूत्ररुचि। सुत्तरुयी सुत्तं पढंतो संवेगमावज्जति। सूत्र को पढ़ने से जो संवेग को प्राप्त होता है, वह सूत्ररुचि है। (दशअचू. पृ. १८) सुपणिहियजोगी-सुप्रणिहितयोगी। जो पुण सुपणिहियजोगी सो सुभासुभविवागं जाणइ। जो शुभ और अशुभ विपाक को जानता है, वह सुप्रणिहितयोगी कहलाता है। (दशजिचू. पृ. २७०) सुपण्णत्त-सुप्रज्ञप्त। सुपण्णत्ता जहाबुद्धिसिस्साणं प्रज्ञापिता। शिष्यों को अपनी-अपनी योग्यता एवं बुद्धि के अनुसार प्रज्ञापित करना सुप्रज्ञप्त है। (दशअचू. पृ. ७३) सुभग-सुभग। अप्पिच्छित्तणेण सुभगो भवइ । जिसकी इच्छाएं अल्प हैं, वह सुभग कहलाता है। (दशजिचू. पृ. २८२) सुसंतुट्ठ-सुसंतुष्ट । जेण वा तेण वा आहारेण संतोसं गच्छइ, सो सुसंतुट्ठो भण्णइ।। जो जिस किसी प्रकार के भोजन से संतोष प्राप्त कर लेता है, वह सुसंतुष्ट कहलाता है। (दशजिचू.पृ. २८२) सुसमाहिय-सुसमाहित। नाण-दसण-चरित्तेसु सुठु आहिता सुसमाहिता। जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र में सम्यक् रूप से भावित होता है, वह सुसमाहित है। (दशअचू. पृ. ६३) सुह-सुख। सरीरमनसोरनुकूलं सुखमिति। शरीर और मन के जो अनुकूल होता है, वह सुख है। (आटी. पृ. १०१) सूय-सूत। खत्तिएणं बंभणीए जाओ सूओ त्ति भण्णति । क्षत्रिय पुरुष से ब्राह्मण स्त्री में उत्पन्न संतान सूत कहलाती है। (आचू. पृ. ५) सूर-शूर। शवत्यसौ युद्धं मुंचति वा तमिति शूरः।। जो युद्ध को श्मशान बना देता है, वह शूर है। जिसको सब छोड़ देते हैं कोई सामने नहीं आता, वह शूर है। __(उचू. पृ. ५९) सूरप्पमाणभोई-सूर्यप्रमाणभोजी। सूरप्पमाणभोई सूर एव प्रमाणं तस्य उदिते सूरे आरद्ध जाव ण अत्थमेइ ताव भुंजति सज्झायमादी ण करेति, पडिनोदितो रुस्सति। जो सूर्योदय से सूर्यास्त तक खाता रहता है,स्वाध्याय आदि नहीं करता, प्रेरणा देने पर रुष्ट होता है, वह सूर्यप्रमाणभोजी है। (दचू. प. ७,८) सोय-श्रोत्र। श्रृणोति भाषापरिणतान् पुद्गलानिति श्रोत्रम्। जो भाषा रूप में परिणत पुद्गलों को सुनता है, वह श्रोत्र (कान) है। (आटी. पृ. ६९) सोयण-शोक । अंसुपुण्णनयणस्स रोयणं सोयणं। अश्रुपूर्ण नयनों से रुदन करना शोचन/शोक है। (दशअचू.पृ. १७) Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं सोवाग - श्वपाक । ठग्गेण खत्तियाणीए सोवागो त्ति वुच्चइ । (आचू. पृ. ६) उग्र पुरुष से क्षत्रिय स्त्री में उत्पन्न संतान श्वपाक कहलाती है। हढ — हढ । हढो णाम वणस्सइविसेसो, सो दह - तलागादिसु छिन्नमूलो भवति तथा वातेण य आइद्धो इओ - तओ य णिज्जइ । द्रह, तालाब आदि में जो मूल रहित वनस्पति होती है तथा वायु के द्वारा प्रेरित होकर इधरउधर हो जाती है, वह हट वनस्पति कहलाती है। (दशजिचू. पृ. ८९) हत्थ - हस्त | हसंति येनावृत्य मुखं हंति वा हस्ताः । जिससे मुंह ढककर हंसा जाता है अथवा जिनसे घात की जाती है, वे हाथ हैं। ( उचू. पृ. १३२) हरतणु - हरतनु, भूमि भेदकर निकलने वाले जलकण । हरतनुः भुवमुद्भिद्य तृणाग्रादिषु भवति । भूमि का भेदन करके जो जलबिन्दु तृणाग्र आदि पर होते हैं, वे हरतनु हैं । (दशहाटी. प. १५३) वर्षा- शरत्कालयोर्हरिताडूकुरमस्तकस्थितो जलबिन्दुर्भूमिस्नेहसम्पर्कोद्भूतो हरतनु शब्देनाभिधीयते । वर्षा और शरत्काल में हरितांकुरों के अग्रभाग पर स्थित जलबिन्दु जो भूमि के स्नेह के संपर्क से उत्पन्न होता है, वह हरतनु कहलाता है । (आटी. पृ. २७) हरियसुहुम - हरितसूक्ष्म । हरितसुहुमं णाम जो अहुणुट्ठियं पुढविसमाणवण्णं दुव्विभावणिज्जं तं हरियसुहुमं । जो तत्काल उत्पन्न, पृथ्वी के समान वर्ण वाला और दुर्ज्ञेय हो, वह अंकुर हरितसूक्ष्म है । (दशजिचू. पृ. २७८) o हव्व - हव्य । जं हूयते घयादि तं हव्वं भण्णइ | घी आदि की आहूति हव्य है । हायणी - हायनी (जीवन की एक अवस्था ) । हायत्यस्यां बाहुबलं चक्षु र्वा हायणी । ६६७ जिस अवस्था में बाहुबल तथा आंखें कमजोर हो जाती हैं, वह हायनी अवस्था है । (दचू.प. २) हिंसा - हिंसा । पमत्तजोगस्स पाणववरोवणं हिंसा । प्रमादवश प्राणों का व्यपरोपण करना हिंसा है। (दशअचू. पृ. १२) हिम - हिम, बर्फ । अतिसीतावत्थंभितमुदगमेव हिमं । हेठ - हेतु । हिनोति - गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानर्थानिति हेतुः । (दशजिचू. पृ २२५) अत्यन्त सर्दी में जो जल जम जाता है, वह हिम है। (दशअचू. पृ. ८८ ) o हिमं तु शिशिरसमये शीतपुद्गलसम्पर्काज्जलमेव कठिनीभूतम् । शिशिरकाल में शीत पुद्गलों के सम्पर्क से जमा हुआ जल हिम कहलाता है। (आटी. पृ. २७) हीणपेषण - आज्ञा की अवहेलना करने वाला । हीणपेसणं णाम जो य पेसणत्तं आयरिएहिं दिन्नं तं देसकालादीहिं हीणं करेति त्ति हीणपेसणे । जो आचार्य की आज्ञा को देश, काल आदि के बहाने से हीन कर देता है, वह हीनप्रेषण है । (दशजिचू. पृ. ३१७) जो जिज्ञासित धर्म के विशिष्ट अर्थों का ज्ञापक होता है, वह हेतु है । (दशहाटी प. ३३ ) Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-८ सूक्त-सुभाषित (८६) (९१) (१२०/२) (१२९) (१४०) (१४१) (१५१) (२६६, २६७) (२६८) दशवैकालिक नियुक्ति देवा वि लोगपुज्जा पणमंति सुधम्म। तसथावरहिंसाए जणा अकुसला उ लिप्पंति। उक्किटुं मंगलं धम्मो। जह मम न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । उक्कामयंति जीवं धम्मातो तेण ते कामा। कामे पत्थेमाणो रोगे पत्थेति खलु जंतू। इंदिय विसय-कसाया, परीसहा वेयणा पमादा य। एए अवराहपदा, जत्थ विसीयंति दुम्मेहा ॥ वयणविभत्तिअकुसलो, वओगतं बहुविधं अजाणंतो। जइ वि न भासति किंची, न चेव वइगुत्तयं पत्तो ॥ वयणविभत्तीकुसलो, वओगतं बहुविधं वियाणंतो। दिवसमवि भासमाणो, अभासमाणो व वइगुत्तो॥ पुव्वं बुद्धीइ पेहित्ता, ततो वक्कमुदाहरे। जस्स पुण दुप्पणिहिताणि, इंदियाइं तवं चरंतस्स। सो हीरति असहीणेहि, सारही इव तुरंगेहिं ।। कोहं माणं मायं लोभं च महाभयाणि चत्तारि। जस्स वि य दुप्पणिहिता, होंति कसाया तवं करेंतस्स। सो बालतवस्सी विव, गयण्हाणपरिस्समं कुणति ॥ सामण्णमणुचरंतस्स, कसाया जस्स उक्कडा होति । मन्नामि उच्छुफुल्लं व, निप्फलं तस्स सामण्णं ॥ नाणी नवं न बंधति। जो भिक्खू गुणरहितो, भिक्खं हिंडति न होति सो भिक्खू। वण्णेणं जुत्तिसुवण्णगं व असती गुणनिधिम्मि। उत्तराध्ययन नियुक्ति जह दीवा दीवसयं, पदिप्पए सो य दिप्पती दीवो। दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवेति ।। सुहिओ हु जणो न बुज्झती। (२७४) (२७५) (२७६, २७७) (२९३) (३३१) (८) (१३५) Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ८ : सूक्त-सुभाषित ६६९ (१४०) (१६०) (१६४) (२४९) (३१९) (३४२) (३९५) (३९६) (४७१) (५२०) राईसरिसवमेत्ताणि, परछिद्दाणि पाससि। अप्पणो बिल्लमेत्ताणि, पासंतो वि न पाससि ॥ माणुस्स-खेत्त-जाती, कुल-रूवारोग्ग-आउयं बुद्धी। सवणोग्गह-सद्धा संजमो य लोगम्मि दुलहाई॥ न लभइ सुई हियकरिं संसारुत्तारिणिं जीवो। जहा लाभो तहा लोभो, लाभा लोभो पवड्ढति । दोमासकयं कजं, कोडीए वि न निट्ठियं ॥ भद्दगेणेव होयव्वं, पावति भद्दाणि भद्दओ। गहणं नदीकुडंगं गहणतरागाणि पुरिसहिययाणि ॥ ..........जलबुब्बुयसन्निभे य माणुस्से। किं हिंसाए पसज्जसि, जाणतो अप्पणो दुक्खं ॥ सव्वमिणं चइऊणं, अवस्सं जदा य होइ गंतव्वं । किं भोगेसु पसज्जसि, किंपागफलोवमनिभेसु॥ परमत्थदिवसारो, नेव य तुट्ठो न वि य रुट्ठो। जेसिं तु पमाएणं, गच्छइ कालो निरत्थओ धम्मे । ते संसारमणंतं, हिंडंति पमाददोसेणं ॥ आचारांग नियुक्ति अंगाणं किं सारो? आयारो। एगा मणुस्सजाई। सातं गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरंति । भावे य असंजमो सत्थं । कामनियत्तमई खलु, संसारा मुच्चए खिप्पं । जस्स कसाया वटुंति, मूलट्ठाणं तु संसारे। संसारस्स उ मूलं, कम्मं तस्स वि य होंति उ कसाया। माया मे त्ति पिया मे, भगिणि भाया य पुत्त दारा मे। अत्थम्मि चेव गिद्धा, जम्मणमरणाणि पावेंति। अभयकरो जीवाणं,सीयघरो संजमो भवति सीतो। अस्संजमो च उण्हो। डज्झति तिव्वकसाओ, सोगाभिभूओ उदिण्णवेदो य। कामा न सेवियव्वा। सुत्ता अमुणिओ सया, मुणिओ सुत्ता वि जागरा होति। न ह बालतवेण मोक्खो त्ति। (१६) (१९) (९४) (९६) (१७८) (१८६) (१९०) (१९६) (२०७) (२०७) (२०९) (२११) (२१२) (२१५) Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० नियुक्तिपंचक (२२१) (२२२) (२३३, २३४) (२३५) (२४२) (२४५) (३०२) कुणमाणोऽवि निवित्तिं परिच्चयंतो वि सयण-धण-भोए। दितो वि दुहस्स उरं, मिच्छद्दिट्ठी न सिज्झइ उ॥ दंसणवओ हि सफलाणि होति तवनाणचरणाई। उल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलया मट्टियामया। दो वि आवडिया कुड्डे, जो उल्लो सोऽत्थ लग्गती॥ एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा। विरत्ता उ न लग्गति, जहा से सुक्कगोलए। जह खलु झुसिरं कटुं, सुचिरं सुक्कं लहुं डहइ अग्गी। तह खलु खति कम्मं, सम्मच्चरणट्ठिया साहू ॥ सारो हु नाण-दंसण-तव-चरणगुणा हियट्ठाए। लोगस्स धम्मसारो, धम्म पि नाणसारियं बेंति। नाणं संजमसारं, संजमसारं च निव्वाणं॥ जह खलु मलिणं वत्थं, सुज्झइ उदगादिएहि दव्वेहिं । एवं भावुवहाणेण, सुज्झती कम्म अट्ठविहं ॥ किह मे होज अवंझो, दिवसो? किं वा पभू तवं काउं। को इह दव्वे जोगो, खेत्ते काले समय-भावे॥ सूत्रकृतांग नियुक्ति तव-संजम-नाणेसु वि, जइ माणो वज्जितो महेसीहिं। अत्तसमुक्कसणटुं, किं पुण हीला नु अन्नेसिं? ॥ दीसंति सूरवादी, नारीवसगा न ते सूरा। धम्मम्मि जो दढमती, सो सूरो सत्तिओ य वीरो य। न हु धम्मनिरुच्छाओ, पुरिसो सूरो सुबलिओ वि।। सम्मप्पणीतमग्गो, नाणं तध दंसणं चरित्तं च। न करेति दुक्खमोक्खं, उज्जममाणो वि संजम-तवेसु। तम्हा अत्तुक्करिसो, वज्जेतव्वो जतिजणेणं॥ दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति दंसण-नाण-चरित्तं,तवो य विणओ य होति गुरुमूले। आणं कोवेमाणो, हंतव्वो बंधियव्वो य। सज्झाय-संजम-तवे, धणियं अप्पा नियोतव्वो। (३६२) (४३) (५९) (६०) (११२) (२०) (२२) (९८) (११४) Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-९ उपमा और दृष्टान्त (८९/३) (११८) (१२०/२) दशवैकालिक नियुक्ति जह सीहसहु सीहे पाहण्णुवयारओऽन्नत्थ। कुसुमे सभावपुप्फे, आहारंति भमरा जह तहेव। भत्तं सभावसिद्धं, समणसुविहिता गवेसंति ॥ भमरोव्व अवहवित्तीहिं। उरग-गिरि-जलण-सागर-नभतल तरुगणसमो य जो होइ। भमर-मिग-धरणि-जलरुह, रवि-पवणसमो य सो समणो । विस-तिणिस-वात-वंजुल, कणियारुप्पलसमेण समणेणं। भमरुंदर-नड-कुक्कुड, अद्दागसमेण भवितव्वं ॥ फरिसेण जहा वाऊ. ............ पत्थेण व कुडवेण व जह कोइ मिणेज सव्वधन्नाई। सारही इव तुरंगेहिं । अहवा वि दुप्पणिहिंदियो उ मज्जार-बगसमो होइ। सो बालतवस्सी विव गयण्हाणपरिस्समं कुणति। मन्नामि उच्छुफुल्लं व निप्फलं तस्स सामण्णं । निसिटुंगो व कंटइल्ले जह पडतो। सुक्कतिणाई जहा अग्गी। वण्णेणं जच्चसुवण्णगं व। जध नाम आतुरस्सिह..। उत्तराध्ययन नियुक्ति दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवेंति। जह धातू कणगादी, सभावसंजोगसंजुया होंति । इय संततिकम्मेणं, अणाइसंजुत्तओ जीवो ॥ चोल्लग पासग धन्ने, जूए रयणे य सुमिण चक्के य। चम्म जुगे परमाणू, दस दिटुंता मणुयलंभे॥ पुट्ठो जहा अबद्धो, कंचुइणं कंचुओ समन्नेति। एवं पुट्ठमबद्धं, जीवो कम्मं समन्नेति ॥ (१३२, १३३) (२०४) (२१०) (२७४) (२७४/१) (२७६) (२७७) (२८२) (२८३) (३३०) (३४१) (८) (३४) (१६१) (१७२/११) Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ ओरब्भे य कागिणी अंबए य ववहार सागरे चेव । पंचेते दिट्ठता वुड्ढं च हाणिं च ससीव दट्टु, पूरावरेगं च महानईणं । जह तुब्भे तह अम्हे, तुब्भे वि य होहिहा जहा अम्हे । अप्पाइ पडतं, पंडुरपत्तं किसलयाणं ॥ जलबुब्बुयसन्निभे य माणुस्से । किंपागफलोवमनिभेसु । सीहत्ता निक्खमिउं, सीहत्ता चेव विहरसू । अमरवधूणं सरिसरुवं । दोगुंदगो व देवो । दंसमसगस्समाणा, जलूक - विच्छुगसमा । आचारांग नियुक्ति अट्ठी जहा सरीरम्मि, अणुगतं चेयणं खरं दिट्ठे । एवं जीवाणुगयं, पुढविसरीरं खरं होति ॥ जह हत्थिस्स सरीरं, कललावत्थस्स अहुणोववन्नस्स । होति उदगंडगस्स य, एसुवमा आउजीवाणं ॥ जह देहपरीणामो, रत्तिं खज्जोयगस्स सा उवमा । जरितस्स य जह उम्हा, एसुवमा तेउजीवाणं ॥ जह सगलसरिसवाणं, सिलेसमिस्साण वत्तिया वट्टी । पत्तेय 1 जह वा तिलसक्कुलिया, बहूहिं तिलेहिं मेलिया संती । पत्तेय --------| जह देवस्स सरीरं, अंतद्धाणं व अंजणादीसुं । एओवमा आदेसो, वाएऽसंतेऽवि रूवम्मि ॥ जह सव्वपायवाणं, भूमीए पतिट्ठियाणि मूलाणि । कम्मपायवाणं, संसारपट्टिया मूला ॥ इय जह सुत्त - मत्त-मुच्छिय, असहीणो पावती बहुं दुक्खं । सीयघरो संजमो भवति सीतो । कमलविसालनेत्तं । जह खलु झुसिरं कट्ठ, सुचिरं सुक्कं लहुं डहइ अग्गी । तह खलु खवेंति कम्मं, सम्मच्चरणट्ठिया साहू ॥ रण्णो जह तिक्ख - सीयला आणा । निर्युक्तिपंचक (२४१) (२६२ / १ ) (३०१) (३९५) (३९६) (४१२) (४३१) (४३२) (४८७) (८५) ( ११० ) (११९) (१३१,१३२) (१६७) (१८७) (२१३) (२०७) (२२९) (२३५) (२८७) Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ९ : उपमा और दृष्टान्त सउणी जह अंडगं पयत्तेणं । जह खलु मलिणं वत्थं, सुज्झइ उदगादिएहि दव्वेहिं । एवं ............. रुक्खस्स पव्वयस्स य जह अग्गाई तहेताई । सूत्रकृतांग नियुक्ति जध नाम मंडलग्गेण, सिरं छेत्तूण कस्सइ मणुस्सो । अच्छेज्ज पराहुत्तो, किं नाम ततो न घिप्पेज्जा ? ॥ जध वा विसगंडू, कोई घेत्तूण नाम तुहिक्को । अण्णेण अदीसंतो, किं नाम ततो न व मरेज्जा ? ॥ जह नाम सिरिघराओ, कोई रयणाणि नाम घेत्तूणं । अच्छेज्ज पराहुत्तो, किं नाम ततो न घेप्पेजा ॥ दशाश्रुतस्कन्ध निर्युक्ति जध गयकुलसंभूतो, गिरि-कंदर - कडग-विसम - दुग्गेसु । परिवहइ निययसरी रुग्गए अपरितंतो, दंते ॥ ६७३ (२८८) (३०२) (३०६) (५१) (५२) (५३) (३०) Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १० दृष्टिवाद के विकीर्ण तथ्य पूर्व ज्ञान के अक्षय भण्डार थे। लेकिन संहनन, धृति और स्मृति की कमजोरी से वे धीरेधीरे लुप्त होने लगे। इनका लोप देखकर आचार्यों ने कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथों का नि!हण किया। पूर्वज्ञान से नियूंढ रचना का प्रारम्भ वीर-निर्वाण के ८० वर्ष के बाद आचार्य शय्यंभव ने किया। उन्होंने अपने पुत्र मनक के लिए दशवैकालिक सूत्र का निर्वृहण किया। उसके बाद आचार्य भद्रबाहु आदि आचार्यों ने छेदसूत्र जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का नि!हण किया। अंगविजा जैसा विशालकाय ज्योतिष सम्बन्धी ग्रंथ भी पूर्वो से उद्धृत है। यद्यपि दृष्टिवाद की विशाल श्रुतराशि आज हमारे समक्ष उपलब्ध नहीं है पर यह खोज का विषय है कि दृष्टिवाद का उल्लेख कहां-कहां किस रूप में मिलता है? कम्मप्पवायपुव्वे, सत्तरसे पाहुडम्मि जं सुत्तं । सणयं सोदाहरणं, तं चेव इहं पि णातव्वं ॥ (उनि. ७०) परीसहा बारसमाओ अंगाओ कम्मप्पवायपुव्वाओ णिजूढा। (उचू. पृ. ७) अस्य कर्मप्रवादपूर्वसप्तदशप्राभृतोद्धृततया वस्तुतः सुधर्मस्वामिनैव जम्बुस्वामिनं प्रति प्रणीतत्वात् । (उशांटी. प १३२) आयप्पवायपुव्वा, निज्जूढा होइ धम्मपण्णत्ती। कम्मप्पवायपुव्वा, पिंडस्स त एसणा तिविधा॥ (दशनि.१५) सच्चप्पवायपुव्वा, निज्जूढा होति वक्कसुद्धी उ। अवसेसा निज्जूढा, नवमस्स उ ततियवत्थूतो॥ (दशनि.१६) चरिमो चोद्दसपुव्वी अवस्सं निजूहति, चोद्दस (दस) पुव्वी वि कारणे। (दशअचू. पृ. ४,५) चोद्दसपुव्वी कहिं पि कारणे समुप्पण्णे निजूहइ, दसपुव्वी पुण अपच्छिमो अवस्समेव । (दशजिचू. पृ. ७) आयारपकप्पो पुण, पच्चक्खाणस्स तइयवत्थूओ। आयारनामधेजा, वीसइमा पाहुडच्छेया॥ (आनि.३११) छट्ठट्ठमपुव्वेसु आउवसग्गो त्ति सव्वजुत्तिकओ। (दनि.१८) अट्ठविहं पि य कम्मं, भणियं मोहो त्ति जं समासेणं। सो पुव्वगते भणिओ.....। (दनि. १२३) भद्दबाहुस्स ओसप्पिणीए पुरिसाणं आयु-बलपरिहाणिं जाणिऊण चिंता समुप्पण्णा। पुव्वगते वोच्छिण्णे मा साहू विसोधिं ण याणिस्संति त्ति काउं अतो दसाकप्पववहारा निज्जूढा पच्चक्खाणपुव्वातो। (दचू. पृ. ४) दिट्ठिवायातो नवमातो पुव्वातो असमाहिट्ठाणपाहुडातो असमाधिट्ठाणं, एवं सेसाओ वि सरिसनामेहिं पाहुडेहिं निजूढाओ। केण? भद्दबाहुहिं। (दचू. पृ. ६) सच्चप्पवायपुव्वे अक्खरपाहुडे तत्रादुपसर्गो वर्ण्यते। अट्ठमे कम्मप्पवायपुव्वे अट्ठमं महानिमित्तं तत्थ स्वरचिंता तत्रापि आदुपसर्गो वर्ण्यते। (दचू. पृ. १२) उवासगपडिमा थेरा गणधरा तेहिं अक्खातं णवमे पव्वे। (दचू. पृ. ३८) Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ११ अन्य ग्रंथों से तुलना नियुक्ति संख्या अन्य ग्रन्थ नियुक्ति गाथा अइसेस इड्डियायरिय अंबे अंबरिसी चेव अक्खीणं दिजतं अग्गबिय मूलबीया अज्झप्पस्साणयणं अज्झयणगुणी भिक्खू अट्ठविधं कम्मचयं अणभिग्गहिता भासा अणसणमूणोयरिया अणिगृहितबलविरियो अतसि हरिमंथ तिपुडग अपडिक्कमसोहम्मे अप्पिणह तं बइल्लं अब्भुवगतगतवेरे अरती अचेल इत्थी अवणेति तवेण तमं अवहंत गोण मरुए असिपत्ते धणुं कुंभे असिवादिकारणेहिं असिवे ओमोयरिए आमंतणि आणवणी आय-परसरीरगया आयारे ववहारे आलस्स मोहऽवण्णा आसाढपुण्णिमाए इंगाल अगणि अच्ची इंदग्गेयी जम्मा इंदियलद्धी निव्वत्तणा इच्छा-मिच्छा तहक्कारो दशनि १५७/१ सूनि ६६ उनि २८/४ आनि १३० उनि ६ दशनि ३२५ दशनि २९४ दशनि २५३ दशनि ४४ दशनि १६१ दशनि २३० दनि १११ दनि ९४ दनि ११३ उनि ७६ दशनि २९५ दनि १०५ सूनि ६७ दनि ६७ दनि ७५ दशनि २५२ दशनि १७२ दशनि १६७ उनि १६३ दनि ६४ आनि ११८ आनि ४३ उनि १६२ उनि ४७८/१ निभा ३३ सम १५/१/१, भ. ३/२५९/१ विभा ९५६ मूला. तु. २१३ अनुद्वा ६३१/१ पंव ११९१ मूला. तु. ५८९ प. ११/३७/२ उ. तु. ३०/८ निभा ४३, पंकभा तु. ११३६, मूला ४१३ निभा १०३० निभा ३१९९ निभा ३१८१ निभा ३२०१ भ.८/३२१/१ मूला. ५९० निभा ३१९३ सम. १५/१/२, भ. ३/२५९/२ निभा ३१५२, बृभा ४२८३ निभा ३१६१ प. ११/३७/१, मूला. तु. ३१५, भआ. ११८९ ठाणं तु. ४/२४९ ठाणं तु. ४/२४७ आवनि ८४१ निभा ३१४९, बृभा ४२८० मूला. तु. २११ भ. १०/४, १३/५१, ठाणं १०/३१ विभा ३२४८ ठाणं १०/१०२/१.,भ.२५/५५५/१, अनुद्वा २३९/१, आवनि ६६६ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ नियुक्तिपंचक इय सत्तरी जहण्णा इरि-एसण-भासाणं उक्कलिया मंडलिया उच्चार-पासवण खेल उड्डमहे तिरियम्मि य उण्णियवासाकप्पो उदगसरिच्छा पक्खेण उद्दिट्टकडं भुजति उभओ वि अद्धजोयण उरग-गिरि-जलण-सागर उल्लो सुक्को य दो छूढा उवसंपया य काले ऊणातिरित्तमासा ऊणातिरित्तमासे ऊहाए पण्णत्तं एगबइल्ला भंडी । एगस्स उ जंगहणं एगस्स दोण्ह तिण्ह व एतेहिं कारणेहिं एत्थ तु अणभिग्गहियं एत्थ तु पणगं पणगं एमेव थंभकेयण एवं लग्गंति दुम्मेहा ओदइयादीयाणं ओहो जं सामण्णं कहिऊण ससमयं तो करकंडू कलिंगेसु काइयभूमी संथारए काऊण मासकप्पं कामं तु सव्वकालं कारणओ उडुगहिते काले विणए बहुमाणे कालो समयादीओ कोल्लयरे वत्थव्वो कोहे माणे माया दनि.६९ निभा.३१५४, बृभा.४२८५ दनि.८९ निभा.३१७६ आनि.१६६ मूला. तु. २१२ दनि.८५ निभा.३१७२ दनि.७७ निभा.३१६३ दनि.११८ निभा. ३२०६ दनि.१०२ निभा.३१८९ दशनि.३३२ पंव.१२०२ दनि.७६ निभा.३१६२ दशनि.१३२ अनुद्वा.७०८/५ आनि.२३३ उ.२५/४० उनि.४७८/२ ठाणं १०/१०२/२, आवनि.६६७, अनुद्वा.२३९/२,भ. २५/५५५/२ दनि.६३ निभा.३१४८ दनि.५९ निभा.३१४४ उनि.१७२/१४ विभा.३०३३, निभा.५६१० दनि.९३ निभा.३१८० आनि.१३७ प. १/४८/५४ आनि.१४३ प. १/४८/५७ उनि.१६४ आवनि.८४२ दनि.६६ बृभा. ४२८२, निभा.३१५१ दनि.६८ बृभा.३१५३, बृभा.४२८४ दनि.१०४ निभा.३१९० आनि.२३४ उ.२५/४१ दनि.५६ निभा.३१४१ दशनि.२५/१, विभा.९५८ दशनि.१६९ ठाणं तु. ४/२४८ उनि.२५७ उ. १८/४५ दनि.५७२ निभा. ३१५९ दनि.६०, ७० निभा.३१४५, ४२८६, बृभा.४२८६ दनि.९० निभा.३१७७ दनि.८४ निभा.३१७१ दशनि.१५८ निभा.८, मूला. २६९, ३६७, भआ. ११२ दनि.५८ निभा.३१४३ उनि.१०७ निभा.४३९२ उनि.२३५ प. ११/३४/२ ठाणं १०/९० बृभा.८३१, Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ११ : अन्य ग्रन्थों से तुलना ६७७ दनि.९९ उनि.१६९ खंती य मद्दवऽज्जव खद्धादाणिय गेहे गंगाए दोकिरिया गंधारगिरी देवय गावी महिसी उट्टी गूढसिरागं पत्तं गोमेज्जए य रुयगे चउवीसं चउवीसं चउसु कसाएसु गती चंदप्पभ वेरुलिए चंपा कुमार नंदी चक्कागं भज्जमाणस्स चतुकारणपरिसुद्धं चोद्दसवासाई तदा चोद्दस सोलस वासा चोल्लग पासग धन्ने जणवय सम्मय ठवणा जत्थ य जं जाणेज्जा जदि अत्थि पदविहारो जध गयकुलसंभूतो जह तुब्भे तह अम्हे जह दीवा दीवसयं जह मम न पियं दुक्खं जह वा तिलसक्कुलिया जह सगलसरिसवाणं जहा लाभो तहा लोभो जाणावरणपहरणे जीवाजीवाभिगमो जुत्तीसुवण्णगं पुण जे अज्झयणे भणिता जेट्ठा सुदंसण जमालि जेण सुहप्पज्झयणं जोगुवओग कसाए जोगे करणे सण्णा जोणिब्भूते बीए दशनि.२२५ मूला. १०२२ निभा.३१८६ आवनि.७८०, विभा.२७८४ दनि.९७ निभा.३१८४ दशनि.२३४ निभा.१०३४ आनि.१४० प. १/४८/३९, निभा.४८२७, बृभा.९६७ आनि.७५ उ. ३६/७५, प. १/२०/३, मूला.तु. २०८ दशनि.२२८ निभा.तु. १०२८ दनि.१०४/१ निभा.३१९२ आनि.७६ उ. तु. ३६/७६ प. तु. १/२०/४, मूला.तु. २०९ दनि.९५ निभा. ३१८२, बृभा.५२२५ आनि.१३९ प. १/४८/३८, निभा.४८२८, बृभा.९६८ दशनि.३२७ पंव. ११९६ उनि.१७२/१ विभा २७८८, निभा.५६११ उनि.१७१ आवनि.७८२, निभा.५६१८, विभा.२७८६ उनि.१६१ आवनि.८३२ दशनि.२४९ ठाणं १०/८९, प. ११/३३/१, मूला.तु. ३०८ भआ.११८७ आनि.४ अनुद्वा.७/१ दनि.७१ बृभा.४२८७, निभा.३१५७ दनि.३० पंकभा. १९१५, व्यभा.१९४७ उनि.३०१ अनुद्वा.५६९/३ उनि.८ अनुद्वा.६४३/१, चंदा.30 दशनि.१२९ अनुद्वा.७०८/३, विभा.३३१५ आनि.१३२ प. १/४७/३, जी. १/७२/३ आनि.१३१ प. १/४७/२, जी. १/७२/२ उनि.२४९ उ. ८/१७ उनि.१५५ आवनि.८४३ दशनि.२१७ बृभा.४१२ दशनि.३२९ पंव. ११९९ दशनि.३३० पंव. १२०० उनि.१७२/२ निभा.५५९७ उनि.२८/३ विभा.९५५ उनि.४२० भ. २५/२७८/२ दशनि.१५२ पंव.११६३, मूला.तु. १०१९ दशनि.२१५ गोजी. १९०, प. १/४८/५१ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ जो भिक्खू गुणरहितो ठवणाए निक्खेवो लच्छा लेवे णायम्मि गिहियव्वे द्धिस्स णिद्वेण दुहाहिएण तं कसिणगुणावेतं तम्हा जे अज्झणे तह पवयणभत्तिगओ तिणि दुवे गावा तो समणो जइ सुमणो दंसण - णाण-चरित्ते दगघट्ट तिणि सत्त व दव्वं सत्यग्गिविसं दव्ववणाहारे दव्वे अद्ध अहाउय दसपुरनगरुच्छु दासो दासीवतिओ धन्नाणि चउवीसं धन्नाणि रतण - थावर धम्मका बोधव्वा धुलोओ उ जिणाणं नत्थि य सि कोइ वेसो नदि - खेड - जणव उल्लुग नवबंभचेरमइओ न वि अत्थि न विय होही नाणं सिक्खति नाणी नाणाविहसंठाणा नाणाविहोवकरणं नामं ठवणा दविए नामं ठवणा पिंडो नामण-धोवण- वासण नामादिचउब्भेयं निक्खेवेगट्ठ-निरुत्त निर्वाचित विकालपडिच्छणा निस्संकिय निक्कंखिय दशनि. ३३१ दनि. ५५ दनि. ८८ दशनि. १२५ उनि ४१ / १ दशनि. ३२८ दशनि. ३३३ दनि. ३१ दनि. ७८ दशनि. १३१ दशनि. २९१ दनि. ७९ दशनि. २१३ दनि. ८० दशनि. १० उनि . १७२/१० दनि ९८ दशनि २२९ दशनि. २२७ दशनि. १६६ दनि. ८६ दशनि. १३० उनि . १७२/६ आनि ११ उनि . ३०२ दशनि. २९३ आनि. १३३ दशनि. २३५ दशनि. ८ दशनि. २१८ दशनि. १५५ दशनि. २५/२ दशनि. ५ दनि. १०७ दशनि. १५७ पंव. १२०१ निभा. ३१४० निभा. ३१७५ अनुद्वा. ७१५/५ प. १३/२२/२ पंव. १९९८ पंव. १२०४ पंकभा. १९१६, व्यभा. १९४८ निभा. ३१६४ अनुद्वा. ७०८/६, आवनि. ८६७, विभा. ३३१७ मूला. ५८६ निभा. ३१६५ आनि. ३६, ठाणं. तु. १० / ९३ निभा. ३१६६ आवनि. ६६० निभा. ५६०७, विभा. २९९२ निभा. ३१८५ निभा. १०२९ निभा तु . १०२८ ठाणं. तु. ४/२४६ निभा. ३१७३ अनुद्वा. ७०८/४, आवनि. ८६८, निभा. ५६०१, विभा २९०७ निभा. १ अनुद्वा. ५६९/४ मूला. ३६८ जी. १/७२/१, प. १/४७/१ निभा. तु १०३५ बृभा.५ पिनि. तु. ५ निभा. ६ विभा. ९५९ निर्युक्तिपंचक बृभा. १४९ निभा. ३१९५ प. १/१०१/१४, आवनि. १५६१, विभा. ३६१६ निभा. २३, मूला. २०१, उ. २८/३१ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ११ : अन्य ग्रन्थों से तुलना ६७९ नेच्छति जलूगवेज्जग पंचसया चुलसीया पंचसया जंतेणं पंचेव आणुपुव्वी पक्खतिधयो दुगणिता पच्चक्खाणं सेयं पच्छित्तं बहुपाणा पज्जोसमणाए अक्खराई पडिमापडिवन्नाणं पणिधाणजोगजुत्तो पण्णवण वेद रागे परियट्टिय लावण्णं परिवसणा पज्जुसणा पसत्थविगतिग्गहणं पायच्छित्तं विणओ पायसहरणं छेत्ता पावाणं कम्माणं पासत्थि पंडरज्जा पुट्ठो जहा अबद्धो पुढवी य सक्करा बालुगा पुरिमंतरंजि भुयगुह पुरिम-चरिमाण कप्पो पुव्वाधीतं नासति पुव्वाहारोसवणं बवं च बालवं चेव बहुरय जमालिपभवा बहुरय पदेस अव्वत्र बारसविहम्मि वि तवे दनि.१०८ निभा.३१९६ उनि.१७२ आवनि.७८३, विभा.२७८७, निभा.५६२१ उनि.११४ निभा.३९६५ उनि.७९ भ. ८/३१९/१ उनि.१९२/१ विभा.३३४९ उनि.१७२/१२, विभा.३०३४ दनि.११४ निभा.३२०२ दनि.५३ निभा.३१३८ दनि.६२ निभा.३१४७ दशनि.१५९ निभा.३५, मूला. २९७ उनि.४१९ भ. २५/२७८/१ उनि.३०० अनुद्वा.तु. ५६९/२ दनि.५४ निभा. ३१३९ दनि.८२/१, ८३ निभा.३१६९, तु. ३१७० दशनि.४५ उ. ३०/३०, मूला.तु. ३६० दनि.१०० निभा.३१८७ दशनि.१७४ ठाणं तु. ४/२५० दनि.११० निभा.३१९८ उनि.१७२/११ विभा.२९९९, निभा. ५६०८ आनि.७३ उ. ३६/७३, प. १/२०/१, मूला. २०६ उनि.१७२/७ निभा.५६०२, विभा. २९३४ दनि.११५ निभा.३२०३ दनि.११९ निभा. ३२०७ दनि.८१ निभा.३१६७ उनि.१९० विभा.३३४८ उनि.१६८ ठाणं ७/१४०, आवनि.७७९ उनि.१६७ आवनि.७७८, निभा.५५९६ दशनि.१६० निभा.४२, पंकभा.१२१४, पंव.५६२, भआ.१०६ ,मूला. ४०९, ९७२ दशनि.९/१ ठाणं १०/१५४, निभा.३५४५, पंकभा.२५२,तंदुल.३१ दनि.१२० निभा.३२०८ दनि.६५ निभा.३१५०, बृभा.४२८१ उनि.१७२/१५ . विभा.३०३५, निभा.५६२० दनि.९६ निभा.३१८३ उनि.४२१ भ. २५/२७८/३ बाला मंदा किड्डा बाले सुत्ते सूई बाहिं ठिता वसभेहिं बोडियसिवभूतीए बोहण पडिमोद्दायण भव आगरिसे कालंतरे Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० नियुक्तिपंचक भासणे संपातिवहो भूमी घर-तरुगणा य मण-वयण-कायगुत्तो महुरा-मंगू आगम माणुस्स खेत्त जाती माया य रुद्दसोमा मिच्छादिही जीवो मिच्छापडिवत्तीए मिहिलाए लच्छिघरे मुणिसुव्वयंतवासी मोत्तुं पुराण भावित मोरी नउलि बिराली रयणाणि चतुव्वीसं रहवीरपुरं नयरं रायगिहे गुणसिलए राया सप्पे कुंथू रुक्खा गुच्छा गुम्मा वंदामि भद्दबाहुं वणिधूयाचंकारिय वयछक्कं कायछक्कं वाओदएण राई वासं व न उवरमती वासाखेत्तालंभे विगतिं विगतीभीतो विच्छुय सप्पे मूसग विसघाति रसायण मंगलत्त सउणि चउप्पय नागं संखो तिणिसाऽगरु संघातणा य परिसाडणा संजमखेत्तचुयाणं सम्मद्दिट्ठी जीवो सयगुणसहस्सपागं सव्वेसिं पि नयाणं सामित्ते करणम्मि य सावत्थी उसभपुरं दनि.९१ निभा.३१७८ दशनि.२३३ निभा.१०३३ दनि.९२ निभा.३१७९ दनि.११२ निभा. ३२०० उनि.१६० आवनि.८३१ उनि.९७ आवनि.७७५ उनि.१६५ भआ.३९ दनि.१९ निभा.२६४८ उनि.१७२/५ विभा.२८७२, निभा.५६०० उनि.११३ निभा.३९६४ दनि.८७ निभा.३१७४ उनि.१७२/९ विभा.२९३६,निभा.५६०४ दशनि.२३१ निभा.१०३१ उनि.१७२/१३ विभा.३०३४, निभा.५६०९ उनि.१७२/३ विभा.२८१६, निभा.५५९८ दनि.७३ निभा.३१५८ आनि.१२९ जी. १/६९/१ दनि.१ पंकभा.१ दनि.१०६ निभा.३१९४ दशनि.२४४ सम.१८/३/१, जीतभा.५८७ दनि.१०१ निभा.३१८८ दनि.७४ निभा.३१६० दनि.६१ निभा.३१४६ दनि-८२ निभा.३१६८, पंव.३७० उनि.१७२/८ विभा.२९३५, निभा.५६०३ दशनि.३२६ पंव.११९२ उनि.१९१ विभा.३३५० दशनि.२३२ निभा.१०३२ उनि.१८६ निभा.१८०४ दनि.११७ निभा.३२०५ उनि.१६६ भआ.३१ दनि.१०९ निभा.३१९७ दशनि.१२६ अनुद्वा.७१५/६ दनि.५७ निभा.३१४२ उनि.१७० ठाणं ७/१४२, आवनि.७८१, निभा.५६२२, विभा.२७८५ Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ११ : अन्य ग्रन्थों से साहारणमाहारो सीसं उरो य उदरं सहगिरि भगुत्तो सुत्ते जहा निबद्धं सुद्धोदय ओसा सेयवि पोलासाढे सेट्ठि थंभ दारुय हरियाले हिंगुल हितमित-अफरुसभासी होंति उवंगा कण्णा तुलना आनि. १३६ उनि . १५३ उनि . ९८ दनि. ११६ आनि. १०८ उनि. १७२/४ दनि. १०३ आनि. ७४ दशनि. २९९ उनि १५४, १८२ / २ प. १/४८/५५, निभा. ५९३ आवनि. तु. ७७६ निभा. ३२०४ गोजी. १९२ ६८१ मूला. तु. २१० विभा. २८३९, निभा. ५५९९ निभा. ३१९१ उ. ३६ / ७४, प. १/२०/२, मूला. तु. २०७ मूला. तु. ३८३ निभा. ५९४ Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १२ विशेषनामानुक्रम अंक (मणि) आनि.७५ अंगुलि (अवयव) उनि. १८२/२ अंजण (पृथ्वीकाय) आनि.७४ अंतगय (अवयव) सूनि.७१ अंतरंजि (नगरी) उनि. १७०, १७२/७ अंतरा (ग्राम) उनि. ३४१, ३४३ अंतिय (मरण) उनि.२०५ अंतोसल्ल (मरण) उनि. २०५ अंब (परमाधार्मिक देव) सूनि.६६, ६८ अंब (फल) उनि.२५८ अंबट्ठ (वर्णान्तर) आनि.२२, २३ अंबट्ठी (वर्णान्तर) आनि.२६ अंबय (फल) उनि.२४१ अंबरिसि (परमाधार्मिक देव) सूनि.६६, ६९ अकारगवाद (दर्शन) सूनि. २९ अकिरियवादी (दार्शनिक) सूनि. ११८ अक्खेवणी (कथा) दशनि.१६६-१६८, १७७, १७८ अग्गेय (दिव्य शस्त्र) सूनि. ९८ अग्गेयी (दिशा) आनि.४३ अचंकारियभट्टा (महिला) दनि.१०४, १०६ अच्छि (अवयव) उनि. १८२/२ अच्छिवेयणा (रोग) उनि.८५ अजोगव (वर्णान्तर) आनि. २२,२४ अजरक्खिय (आचार्य) उनि. ९८, १७२/१० अज्जुणय (माली) उनि.१११ अट्ठमपुव्व (ग्रंथ) दनि.१८ अट्ठावय (पर्वत) उनि.२८०, आनि. ३५४, सूनि अणुक (धान्य) दशनि.२२९ अणुप्पवाय (ग्रंथ) उनि.१७२/५ अणोज्जा (साध्वी) उनि. १७२/२ अण्णाणिय (दर्शन) सूनि.३०, ११८, ११९ अतसि (धान्य) दशनि. २३० अद्द (राजा) सूनि.१८८ अद्दइज (अध्ययन) सूनि.१८८ अद्दग (राजकुमार, मुनि) सूनि. १८८, १९१ अद्दपुर (नगर) सूनि.१८८ अद्दय (मुनि) सूनि. १९३ अद्दसुत (राजकुमार) सूनि. १८८ अपरक्कममरण (मरण) आनि.२८४ अप्पमादसुय (अध्ययन) उनि. ५०४ अप्पमाय (भावना) आनि.३६१ अफलवाद (दर्शन) सूनि. २९ अप्फोव (मण्डप) उनि.३९० अबद्धिग (दर्शन) उनि.१६७ अब्भ (पृथ्वीकाय) आनि.७४ अभत्तछंद (रोग) उनि.८५ अभय (मंत्री) दशनि.५८, ७८, सूनि.५७, १९४ अभिधम्मा (दिशा) आनि.५७ अय (तिर्यञ्च) दशनि. २३४ अय (पृथ्वीकाय) आनि.७३ अयलपुर (नगर) उनि. ९९ अरहन्नय (मुनि) उनि.९३ अरहमित्त (मुनि) उनि.९३ अरिटुनेमि (तीर्थंकर) उनि.४४१, ४४२ अवय (वनस्पति) आनि.१४१ अवरउत्तर (दिशा) आनि.५६ अवरदिसा (दिशा) आनि. ४७ अवरा (दिशा) आनि.५६ अवहेडग (रोग) उनि.१५० Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १२ : विशेष नामानुक्रम ६८३ अव्वत्तवाय (निहववाद) उनि.१६७, १६८ आसंदी (उपकरण) आनि. २६३ असगड (मुनि) उनि. १२१ आसतरग (तिर्यञ्च) दशनि. २३४ असि (शस्त्र) सूनि.७२ आसमित्त (निह्नव) उनि.१६८, १७२/५ असि (परमाधार्मिक देव) आसाढ (आचार्य) उनि.१२३, १६८, १७२/४ असिपत्त (परमाधार्मिक देव) इंगिणिमरण (मरण) उनि. २०६, २२८, असिपत्तधणु (परमाधार्मिक देव) सूनि. ७७ आनि.२७४, २८१, दनि.९५ असिय (शस्त्र) दनि.१०० इंदा (दिशा) आनि. ४३ असियग (शस्त्र) आनि.१४९, सूनि. ९८ इंदजसा (रानी) उनि.३३० अस्स (तिर्यञ्च) दशनि.६०, उनि.६५ इंददत्त (पुरोहित) उनि.११९,२४६ अहालंद (विशिष्ट मुनि) दनि.६२ इंदनील (मणि) आनि.७५ अहि (तिर्यञ्च) उनि. २६३ इंदपद (पर्वत) दनि.७७ अहिछत्ता (नगरी) उनि.३४०, ३४३ इंदपुर (नगर) उनि.३४४ अहिमार (वृक्ष) उनि. १५२ इंदभूति (गणधर) सूनि.२०५ अहोदिसा (दिशा) आनि.५८ इंदवसु (रानी) उनि.३३० आइय (मरण) उनि. २१५ इंदसिरी (रानी) उनि. ३३० आइयंतिय (मरण) उनि.२०९, २२३ इक्कड (चोर की जाति) उनि.२५१ आघ (अध्ययन) सूनि. १०३ इक्खु (धान्य) दशनि.२३० आढगम (माप) उनि. १५१ इसिभासित (ग्रंथ) सूनि.१९० आतच्छ? (दर्शन) सूनि.२९ इसिवुड्ढि (रानी) उनि.३३५ आमदोष (रोग) दशनि.३४१ ईसाणा (दिशा) आनि.४३ आमलकप्पा (नगरी) उनि.१७२/३ उंदर (तियञ्च) दशनि.१३३ आमेलय (आभूषण) उनि.१५२ उक्कल (व्यक्ति) आनि.३२३ आयप्पवायपुव्व (ग्रन्थ) दशनि.१५ उक्कलिया (वायु) आनि.१६६ आयय (संस्थान) उनि. ३८, ४०, ४१ ।। उग्ग (वर्णान्तर) आनि. २२, २३, २६ आयार (ग्रंथ) दशनि. १६७, आनि. १,९, उजिंत (पर्वत) आनि.३५४ १०,३२,३०६,३०७,३११ उज्जेणी (नगरी) उनि.९०, ९१, ९५, सूनि. २२, दनि. २७, ४७ ९९, १२० आयारग्ग (ग्रंथ) आनि.१२, ३२, ३०७ उच्छु (वनस्पति) दशनि. २७७, आयारधर (विशिष्ट मुनि)आनि.१०, दनि. २७ उनि.१५१, १८८ आयारपकप्प (ग्रंथ) आनि. ३११, ३१७, उच्छुघर (स्थान विशेष) उनि. १७२/१० आलित्त (शस्त्र) आनि.९५ उट्ट (तिर्यञ्च) दशनि.८४ आवीइय (मरण) उनि. २२२ उट्टी (तिर्यञ्च) दशनि. २३४ आवीचि (मरण) उनि.२०५, २१५ उड्ढदिसा (दिशा) आनि.५४, ५९ आस (तिर्यञ्च) दशनि. २३४, उत्तरज्झयण (ग्रंथ) उनि.४, २७, ५५२ Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ नियुक्तिपंचक उत्तरदिसा (दिशा) आनि.४८, ५६ एलग (तिर्यञ्च) दशनि. २३४ उदग (मुनि) सूनि. २०५, २०६ एलगच्छपह (मार्ग) उनि. ९१ उदधि (सार्थवाह) उनि. ४२९ ओट्ठ (अवयव) उनि. १८२/२, सूनि.७७ उदयण (राजा) उनि.१४८ ओदण (धान्य) दशनि. २१८ उदर (अवयव) उनि.१८२/१ ओय (आहार) सूनि. १७१ उदहि (आचार्य) आनि.२८४ ओरभिज्ज (अध्ययन) उनि.२४२ उद्दायण (राजा) दनि.९६ ओवाई (विद्या) उनि.१७२/९ उप्पल (पुष्प) दशनि.१३३ ओसा (नगरी) उनि.३३६ उर (अवयव) उनि.१८२/१ ओसिर (वनस्पति) उनि.१४७ उरग (तिर्यञ्च) दशनि.१३२, उनि.१०० ओहि (मरण) उनि.२०५, २०९, २१५ उरब्भ (तिर्यञ्च) उनि.२३८, २४० कंगु (धान्य) दशनि.२२९ उरभ (तिर्यञ्च) उनि.२४० कंचुग (व्यक्ति) उनि. ३५२ उवरिमदिसा (दिशा) आनि.५८ कंडु (रोग) उनि.८५, १५० उवरुद्द (परमाधार्मिक देव) सूनि.६६, ७३ ।। कंपिल्ल (नगर) उनि.३३४, ३३६ उवल (पृथ्वीकाय) आनि.७३ कंपिल्लपुर (नगर) उनि.३८८, ३९४ उवहाणपडिमा (प्रतिमा) दनि. ४६ कंस (कांस्य) सूनि.१५१ उवहाणसुय (अध्ययन) आनि. २९५ कच्चाइणी (रानी) उनि.३३२ उवासगपडिमा (प्रतिमा) दनि. ४९ कडग (आभूषण) उनि.१३९ उसभ (तीर्थंकर) उनि.२८१, आनि.१९, कडग/कडय (राजा) उनि.३२८, ३४९ सूनि.४१ कडवाद (दर्शन) सूनि.३१ उसभ (राजा) उनि.३३२ कणग (धातु) उनि.३४, ४६० उसभपुर (नगर) उनि.१०१, १७० कणगमूल (वनस्पति) उनि.१४९ उसुयार (राजा) उनि.३५३, ३५५, ३५९, ३६५ ।। कणियार (वनस्पति) दशनि.१३३ उसुयार (नगर) उनि. ३५८ कणेरुदत्त (राजा) उनि.३२८ उसुयारपुर (नगर) उनि.३२७, ३६० कण्ण (अवयव) उनि.१८२/२, सूनि.७७ उलुगी (विद्या) उनि.१७२/९ कण्ह (आचार्य) उनि.१७२/१३ उल्लुगातीर (नगरी) उनि. १७०, १७२/६ कत्थ (वनस्पति) आनि.१४१ ऊरु (अवयव) सूनि. ७३, ७७ कप्प (ग्रंथ) दनि. १ ऊस (पृथ्वीकाय) आनि.७३ कप्पणी (शस्त्र) आनि.१४९, सूनि. ६९ एकप्पय (दर्शन) सूनि. २९ कमल (पुष्प) आनि.२२९ एगग्ग (भावना) आनि.३६१ कमलावई (रानी) उनि.३५९ एगराइय (प्रतिमा) उनि.४६८ कम्मप्पवायपुव्व (ग्रंथ) दशनि.१५, उनि.७० एगविहारपडिमा (प्रतिमा) दनि.४६ कर (अवयव) सूनि.७३, ७७ एरंड (वृक्ष) आनि. २४० करकंडु (प्रत्येकबुद्ध) उनि.२५७, २५८ Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १२ : विशेष नामानुक्रम सूनि . ८१ उनि ४८६ उनि . १४७ करकय ( शस्त्र) करमंदि (वनस्पति) करिस ( माप) करेणुदत्ता (रानी) करेणुपदिगा (रानी) कुक्कुड ( तिर्यञ्च) कुक्कुरअ ( वर्णान्तर) उनि ३३५ उनि ३३५ उनि ३३५ दशनि २३० कुच्छिवेयणा (रोग) कुडव (माप) कुद्दाल (शस्त्र) कुरर ( तिर्यञ्च ) करेणुसेणा (रानी) उनि १०८ कलाय (धान्य) कलिंग (व्यक्ति) कलिंग (जनपद) कविल (मुनि) कविला (दिशा) कुरु (जनपद) कुरुदत्त (व्यक्ति) कुरुमती (रानी) उनि ३३५, ३५२ दशनि. २३० आनि. ३२३ उनि २५७ उनि २४३, २४५, २४६, २४७ आनि. ५७ उनि २४१, ५३३ उनि १७२/८ सूनि. ६६,७४ उनि . १२० उनि ११६ कुलत्थ (धान्य) कुलल ( तिर्यञ्च ) कुलिय (कृषि उपकरण) उनि ४६३, ४६४ दशनि. ५७ कागिणी (मुद्रा) कागी (विद्या) काल (परमाधार्मिक देव) R उनि. ३४३ कुसकुंडी (रानी) कुसुंभ (रंग) उनि १८७, २०२, दनि. १०३ कालखमण (आचार्य) कालवेसि (मुनि) कुसुंभय (रंग) दनि. १०३ आनि. १४९ कालेज्ज (अवयव) कावलिक (आहार) सूनि. ७१ सूनि . १७२ कुहाडि ( शस्त्र) कूलबाल (मुनि) सूनि ५७ उनि २०६, २१७ उनि . ८५ कास (रोग) कासव (पुरोहित) केवलिमरण ( मरण) केस (अवयव) उनि २४६ उनि ४६० कासव (गोत्र) किंत्थुग्घ (करण) सूनि . १२ केसर (उद्यान) केसि (आचार्य) कोंत (शस्त्र) उनि ३९६ किंपाग (फल) किंसुग्घ (करण) उनि. १९१ आनि. १४१ किण्हय (वनस्पति) उनि ३३१ कित्तिमई (रानी) कित्तिसेण (राजा) किमि ( तिर्यञ्च ) किरियवादी (दर्शन) कुंजर (तिर्यञ्च ) कुंजरसेणा (रानी) दनि. १०३ सूनि . ११८, १२१ उनि ३५२ उनि ३३५ उनि ३५० उनि १३९ सूनि. ७४ कुंडय (पात्र) कुंडल (आभूषण) कुंभी (परमाधार्मिक देव) कोट्टवीर (शिष्य) कोडिन्न (तापस, मुनि) उनि ३३१ कोणिय (राजा) कोद्दव (धान्य) कोलव (करण) कोल्लयर (नगर) कोसंबी (नगर) ६८५ उनि १८२/२, सूनि. ८० उनि ३८९, ३९० उनि . ४४७, ४४८ सूनि . ७२ उनि . १७२/१५ उनि . १७२ / ५, १५ २८६, २८९ दशनि. ७४ दशनि २२९ उनि १९०, सूनि ११ उनि . १०७ उनि १००, १०९, ११८, २४६, ३४०, आनि. २४० उनि . १७२/५ खइर (वनस्पति) खंडरक्खा ( आरक्षक ) उनि ३५१, दशनि. १३३, ३३५ आनि. २७ उनि . ८५ दशनि. २१० आनि. ९५, १४९ उनि ४६३ उनि. ३५८ Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ नियुक्तिपंचक खंद (देव) उनि.३०८ खंदय (मुनि) उनि.११२, ११३ खंदसिरी (महिला) उनि.१११ खंध (अवयव) उनि.१८३ खज्जोय (तिर्यञ्च) आनि.११९ खत्त (वर्णान्तर) आनि.२२, २४ खत्ता (वर्णान्तर) आनि.२६ खरस्सर (परमाधार्मिक देव) सूनि.६७, ८१ खलुंक (तिर्यञ्च) उनि. ४८२-८५ खीर (खाद्य पदार्थ) उनि.२९३, दनि.९९ खेलेज्जा (दिशा) आनि.५७ गंग (निह्नव) उनि.१६९, १७२/६ गंगा (नदी) उनि. १२१, १२५, ४६२, ४६५ ।। गंडयजक्ख (यक्ष) उनि.३२० गंडि (यक्ष) उनि.३२० गंडितिंदुगवण (उद्यान) उनि. ३१७, ३२० । गंधार (श्रावक) उनि.९५ गंधार (जनपद) उनि.२५७ गंधार (पर्वत) दनि. ९७ गंधारी (महिला) उनि.३१८ गद्दभ (तिर्यञ्च) दशनि.२३४ गद्दभालि (मुनि) उनि.३९० गय (तिर्यञ्च) दशनि. २७६, उनि. ४८६, सूनि.२०१, दनि.३० गयग्गपयय (पर्वत) आनि.३५४ गयपुर (नगर) उनि.१०८, ३१५ गरादि (करण) उनि.१९०, सूनि.११ गागलि (राजा, मुनि) उनि. २७८ गावी (तिर्यञ्च) दशनि.२३४ गाहा(छंद) सूनि.१३९ गिद्धपिट्ठ (मरण) उनि.२०६, २१८, आनि. २७३ गिरितडग (नगर) उनि.३३६ १. दशार्णकूटवर्ती गजाग्रपद। गिरिपुर (नगर) उनि.३४० गुंजा (वायु) आनि.१६६ गुड (खाद्य पदार्थ) दशनि.२१८ गुणसिलय (चैत्य) उनि.१७१/३ गो (तिर्यञ्च) दनि.१०३ गोट्ठमाहिल (निह्नव) उनि. १६९ गोट्ठामाहिल (निह्नव) उनि. १७२/१० गोण (तिर्यञ्च) उनि.६५, ४८४, दनि. १२, गोतम (गणधर) उनि. २८४,२८७,२९२,२९४, २९५,२९८,४४५,४४७,४४८, सूनि.९०,२०६ दनि.१११ गोतम (नैमित्तिक) आनि. ३२३ गोदत्ता (रानी) उनि. ३३५ गोधुम (धान्य) दशनि.२२९ गोमेजय (मणि) आनि.७५ गोयमस्सामी (गणधर) दशनि.७४ गोरी (महिला) उनि.३१८ गोविंदवायग (आचार्य) दशनि.७८ गोसाल (भिक्षु) सूनि.१९१, १९९ घणवाय (वायु) आनि.१६६ घोडग (तिर्यञ्च) दशनि. २३४ चउप्पय (करण) उनि.१९१, सूनि.१२ चउरंस (संस्थान) उनि.३८, ४० चंडवडिंसय (राजा) उनि.३२५ चंडाल (वर्णान्तर) उनि. ३१६, आनि. २२, २५ चंदपडिमा (प्रतिमा) दनि.४७ चंदप्पभ (मणि) आनि.७६ चंपपुरी (नगरी) उनि.२७८ चंपा (नगरी) उनि. ९४, ११८, २७९, ३३६, ३४५, ४२५, दनि.९५ चक्क (शस्त्र) उनि. १६१, सूनि.९३ चमर (देव) आनि.३५४ Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १२ : विशेष नामानुक्रम ६८७ चरक (परिव्राजक) दशनि.१३४, ३०७/१ जसवई (रानी) उनि.३३२ चरण (अवयव) सूनि.७३,७७ जसा (पुरोहित पत्नी) उनि. २४६ चरित्त (भावना) आनि.३५१ जावग (हेतु) दशनि.८३, ८४ चाउत्थिग (रोग) उनि. १५० जिणपडिमा (प्रतिमा) दनि.४१ चारित्तसमाहिपडिमा (प्रतिमा) दनि.४८ जियसत्तु (राजा) उनि.११२, ३४३ चारुदत्त (राजा) उनि.३३२ जीवपदेस (दर्शन) उनि.१६८ चित्त (मुनि) उनि. ३२२, ३२४, ३४७, ३३१ ।। जीहा (अवयव) दनि.११२ चित्तसंभूय (अध्ययन) उनि.३२४ ठाण (ग्रंथ) दनि.४७ चित्तसेणअ (राजा) उनि.३३१ ढंक (श्रमणोपासक) उनि.१७२/२ चुलणिदेवी (रानी) उनि.३३० ढंढ (मुनि) उनि. ११५ चूतरुक्ख (वृक्ष) उनि. २६८ णंदिसर (द्वीप) दनि.९५ चूयपादव (वृक्ष) उनि.३४९ णाया (ग्रंथ) दनि.५ छउमत्थ (मरण) उनि.२०६, २१७ तउय (पृथ्वीकाय) आनि.७३ छगल (तिर्यञ्च) उनि.१३८ तंब (पृथ्वीकाय) आनि.७३ छट्ठ पुव्व (ग्रन्थ) दनि. १८ तंबोल (ताम्बूल) आनि. २८७ छत्तय (उपकरण) दनि.१२० तंस (संस्थान) उनि.३८, ३९ छलूग (निह्नव) उनि.१६९ तगरा (नगरी) उनि.९३ जंघा (अवयव) सूनि. १६२,उनि. १८२/२ तज्जीवतस्सरीर (दर्शन) सूनि.२९ जंबु (आचार्य) सूनि. ८५ तब्भव (मरण) उनि.२०५, २१४, २१५ जंबुय (तिर्यञ्च) उनि.११६ तमा (दिशा) आनि.४३ जक्खहरिल (यक्ष) उनि.३३२ तमालपत्त (वनस्पति) उनि.१४७ जगदग्गिजडा (वनस्पति) उनि.१४६ तव (भावना) आनि. ३५१ जण्णदत्त (ब्राह्मण) उनि.१०९ ताल (वृक्ष) आनि.१३३ जमालि (निव) उनि.१६८, १७२/२, तालवंट (उपकरण) आनि.१७० सूनि. १२५ तावस (श्रेष्ठी) उनि.१०० जम्मा (दिशा) आनि.४३ तिंदुग (उद्यान) उनि.१७२/२,३१७,३२० जयघोष (मुनि) उनि.४५९, ४६१, ४६२, तिणिस (वनस्पति) दशनि. १३३, २८६ ४६५, ४७०, ४७४, ४७६ तित्तिरी (तिर्यञ्च) दशनि.८५ जर (रोग) उनि. ८५ तिपुडग (धान्य) दशनि. २३० जलकंत (मणि) आनि.७६ तिमिर (रोग) उनि. १५० जलूक (तिर्यञ्च) उनि. ४८७, दनि.१०८ तिल (धान्य) दशनि. २२९, उनि. ३५१, जलोय (तिर्यञ्च) दशनि. ३४ आनि.३४९ जव (धान्य) दशनि. २२९ तिलसक्कुलिया (खाद्यपदार्थ) आनि.१३२ जसभद्द (आचार्य) दशनि.३४९ तिसूल (शस्त्र) सूनि.७२ Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ तीसगुत्त (निह्नव) तुंबवण (वन) तुरंग ( तिर्यञ्च ) तुरग ( तिर्यञ्च ) तुवरी (धान्य) तूर (वाद्य) तेइज्जग (रोग) तेरासिय (निह्नववाद ) तोमर ( शस्त्र) तोसलि (आचार्य) तोसलिपुत्त (आचार्य) थण (अवयव) थाल (उपकरण) थावग (हेतु) थूलभद्द (आचार्य) थीविलोयण (करण) दंडइ (राजा) दंडगी (राजा) दंसण ( भावना) दक्खा (वनस्पति) दक्खिणा (दिशा) दक्खिणापरा (दिशा) दढनेमि (राजकुमार) दत्त (मुनि) दत्तिय ( शस्त्र) उनि १६८, १७२/३ उनि २८८ दशनि २७४ उनि ४६ दशनि. २३० उनि . १५२ उनि १५० उनि १६९ सूनि ७२ आनि. २८५ उनि ९७ सूनि ७७ उनि ३५० दशनि. ८३, ८४ उनि १०१, १०५, १०६, १२२ उनि १९०, सूनि ११ उनि ११३ उनि ११२ आनि ३५१ उनि १५१ आनि. ५६ आनि ५६ उनि ४४१ उनि ९३, १०७ आनि १४९ २४ दशनि. १ सूनि ७७ उनि ३२७ दसकालिय (ग्रंथ) दशनि ७, ११, १३, १४, दसकालियनिज्जुत्ति (ग्रंथ) दसण (अवयव) दसण्ण (जनपद) दसपुर (नगर) दसवेयालिय (ग्रंथ) दसारवग्ग (जाति) १. तक्षशिला में स्थित धर्मचक्रस्थान | उनि ९६,१७०, १७२/१० दशनि. ६ दशनि. ५२ दसासु (ग्रंथ) दारुय (वणिक्) दाहिणदिसा (दिशा) दिवाय (ग्रंथ) दिन्न (तापस, मुनि) दीवग (उद्यान) दीवसिहा (रानी) दीवायण (ऋषि) दीह (राजा) दुद्ध (खाद्य) दुमपुफिया (अध्ययन) दुम्मुह (प्रत्येकबुद्ध) दुरूतग (व्यक्ति) दुरूयग (व्यक्ति) देवकुरु (क्षेत्र) देवदत्त (व्यक्ति) देवदत्ता (दासी) देवी (रानी) दोकिरिय (निह्नववाद ) दोगुंदा (देव) धण ( श्रेष्ठी) धणगिरि ( श्रेष्ठी) धणगुत्त (शिष्य) धणदेव (वणिक् ) धमित्त (मुनि) धणसम्म (मुनि) धणसेट्ठि (श्रेष्ठी) धणु (परमाधार्मिक देव) धणुय (सेनापति) धम्मघोस (आचार्य) धम्मचक्कर (स्थान) धम्मपण्णत्ति (अध्ययन) धायगी (वनस्पति) निर्युक्तिपंचक दनि. १ उनि ३३३, ३५१ आनि. ४८, ५२ दशनि. १६७ उनि २८९ उनि. १७२/१३ उनि ३३३ दशनि. ५२ उनि ३२८, ३४६ सूनि. ३५ दशनि. १८ उनि २५७, २५८ दनि ९४ दनि. ९२, ९४ आनि. १८२, सूनि १५३ दशनि. ६० उनि ९५, दनि. ९६ उनि ३३२ उनि १६९ उनि ४०५, ४३२ दनि. १०८ उनि २८८ उनि १७२/६ उनि ३३३ उनि ९१ उनि . ९१ उनि २४६ सूनि ६७ उनि ३३० उनि ९४ आनि. ३५४ दशनि. १५ उनि १५१ 시 Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १२ : विशेष नामानुक्रम ६८९ धारिणी (रानी) उनि. ११२ निसाय (वर्णान्तर) आनि. २२, २३, २६ धुय (अध्ययन) आनि. ३१० निसीह (ग्रंथ) आनि.३६६ नउली (विद्या) उनि. १७२/९ नेरुती (दिशा) आनि.४३ नंगल (कृषि उपकरण) दशनि.५७ पउम (पुष्प) सूनि.१६३, १६४ नंद (सन्निवेश) उनि. ३३६ पउमगुम्म (विमान) उनि.३५७ नंद (राजा) उनि.१०१ पंचाल (जनपद) उनि.२५७, २६२/१ नंदण (भवन, प्रासाद) उनि.४०५ पंडरज्जा (साध्वी) दनि.११०, १०४ नंदी (वाद्य) उनि.२६३ पंडिय (मरण) उनि.२०५, २१६ नंदी (द्वीप) दनि.९५ पंथक (राजा) उनि. ३३१ नंदीसर (द्वीप) आनि. ३५३ पक्खेव (आहार) सूनि. १७१, १७२ नग्गति (प्रत्येकबुद्ध) उनि.२५७ पडिलीण (प्रतिमा) दनि. ४६ नदिखेड (जनपद) उनि. १७२/६ पच्चक्खाण (ग्रंथ, दृष्टिवाद) आनि. ३११ नमि (राजर्षि) उनि. २५३, २५५, २५७, पज्जुण्ण (व्यक्ति) उनि.३५२ २५८, २६३, २६४, २६६, २६७ पज्जुन्नसेण (राजा) उनि.३३४ नमि (तीर्थंकर) उनि.२६४, २६५ पज्जोत/पजोय (राजा) सूनि.५७, दशनि.७८, नयण (अवयव) दशनि. २७ उनि.९५, ९६ नलदाम (व्यक्ति) दशनि.७७ पडलब्भ (पृथ्वीकाय) आनि.७४ नलिणिगुम्म (विमान) उनि.१७२/४, ३४६ पड्डय (तिर्यञ्च) उनि. २६१ नह (अवयव) उनि.१८२/२ पणय (वनस्पति) आनि.१४१ नाग (करण) उनि. १९१, सूनि.१२ । पण्णत्ति (ग्रंथ) दशनि.१६७ नागजसा (रानी) उनि.३३१ पण्णवित्ती (दिशा) आनि.५७ नागदत्ता (रानी) उनि.३३२ पतिगा (रानी) उनि.३३४ नाण (भावना) आनि. ३५१ पत्थ (माप) दशनि. २१० नाणवादी (दर्शन) सूनि.३० पत्थिव (दिव्य शस्त्र) सूनि.९८ नालंदइज्ज (अध्ययन) सूनि.२०५ पभावई (रानी) उनि.९६, दनि.९६ नालंदा (उपनगरी) सूनि.२०४, २०५।। पमायप्पमाय (अध्ययन) उनि.१७५ नालिया (उपकरण) दशनि.५८ पयण (पात्र) सूनि.७८ नालिएर (वृक्ष) आनि.१३३ परसु (शस्त्र) उनि. ३७०, आनि.१४९ नावा (वाहन) आनि. ३३४, सूनि.१६२ सूनि. ३९,८१ नास (अवयव) उनि.१८२/२ परासर (वर्णान्तर) आनि. २३ निप्फाव (धान्य) दशनि. २३० परिमंडल (संस्थान) उनि.३८ नियतीवाय (दर्शन) सूनि.३० परिमंडलग (संस्थान) उनि.४१ निव्वेयणी (कथा) दशनि.१७४, १७५ परियाधम्मा (दिशा) आनि.५७ निसादी (वर्णान्तर) आनि.२७ पल (माप) उनि.१४७ Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० नियुक्तिपंचक पलियंक (उपकरण) दशनि २४४ पवाल (मणि) आनि ७४, सूनि १५१ पसेणई (राजा) उनि २४६ पाईण (गोत्र) दनि १ पाओवगमण (मरण) उनि २०६ पाडल (पुष्प) उनि १२५ पाडलिपुत्त (नगरी) उनि १०१ पाण (चांडाल जाति) उनि ३१६ पाद (अवयव) उनि १८२/२, सूनि ७६ पायवगमण (मरण) उनि २२८ आनि २७४,२८३, २८४, २९१ पायस (खाद्य पदार्थ) दनि ९९, १०० पारासर (कृषक) उनि ११५ पालक्क (पुरोहित) उनि ११३ पालिग (सार्थवाह) उनि ४२५ पालिय (सार्थवाह) उनि ४२९ पास (अवयव) सूनि ७६ पास (तीर्थंकर) आनि ३५४ पासावच्चिज (सम्प्रदाय) सूनि २०६ पिउड (खाद्य पदार्थ) उनि १७२/३ पिंगल (संन्यासी) दशनि ७९ पिंगला (रानी) उनि ३३३ पिंडेसणा (अध्ययन) दशनि २१९ पिट्टिचंपा (नगरी) उनि २७७ पिट्ठी (अवयव) उनि १८२/१ पिहुंड (नगर) उनि ४२६, ४२७ पुंडरीय (भवन) उनि ४३२ पुक्खर (तीर्थ) उनि ९६, दनि ९७ पुण्णभद्द (चैत्य) उनि २७९ पुष्फचूल (राजा) उनि ३२८ पुप्फुत्तर (विमान) उनि २६६/१ पुत्थी (रानी) उनि ३३३ पुरंदरजसा (रानी) उनि ११२, ११३ पुव्वदक्खिणा (दिशा) आनि ५६ पुव्वदिसा (दिशा) आनि ४७, ५६ पुवुत्तरदिसा (दिशा) आनि ५६ पुसमित्त (आचार्य) उनि १७२/१० पोंडरीय (राजकुमार) उनि २८६, २८८ पोंडरीय (दृष्टान्त) दशनि ६३ पोंडरीय (पुष्प) सूनि १४५ पोट्टसाल (परिव्राजक) उनि १७२/७ पोत (राजा) उनि ३३३ पोयाई (विद्या) उनि १७२/८ पोलास (उद्यान) उनि १७२/४ फग्गुरक्खिय (मुनि) उनि ९७ फलिह (मणि) आनि ७५ फिग्ग (अवयव) सूनि ७७ फिप्फिस (अवयव) सूनि ७१ फुप्फुस (अवयव) सूनि ७१ बइल्ल (तिर्यञ्च) उनि ४८३, दनि ९३, ९४ बंभ (राजा) उनि ३२८ बंभच्चेर (ग्रंथ) आनि १२ बंभथलय (नगरी) उनि ३४० उनि ३२७, ३३०, ३५२, ३४५ बंभवती (परिव्राजक) सूनि १९१ बंभी (दार्शनिक) सूनि १९९ बग (तिर्यञ्च) दशनि २७४/१ बलकोट्ट (चाण्डाल-अधिपति) उनि ३१८ बलदेव (मुनि) उनि ११५ बलभद्द (राजा) उनि १७२/४ बलभद्द (चोर) उनि २५१ बलभद्द (मुनि) उनि ४०३ बलसिरी (राजा) उनि १७२/७ बलसिरी (राजकुमार) उनि ४०२, ४०४ बव (करण) उनि १९०, सूनि ११ बसंतपुर (नगर) सूनि १९२ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १२ : विशेष नामानुक्रम ६९१ बहुरय (निह्नववाद)उनि. १६७, १६८, १७२/१ भेरुंड (तिर्यञ्च) उनि.३१९ बालपंडित (मरण) उनि. २१६ __ भोयडपुर (नगर) उनि.९० बालमरण (मरण) उनि. २०५, २१६ मंगु (आचार्य) दनि. १०४, ११२ बालव (करण) उनि. १९०, सूनि. ११ मंडलग्ग (शस्त्र) सूनि.५१ बालुगा (पृथ्वीकाय) आनि.७३ मंडलिया (वायु) आनि.१६६ बालुय (पृथ्वीकाय) आनि.७४ मंडुक्क (तिर्यञ्च) उनि.४६२, ४६४ बाहिर (चाण्डाल) उनि.३१६ मंडुक्किया (तिर्यञ्च) दशनि.५२ बाहा (अवयव) सूनि.१६२, उनि. १८२/१ मंदर (पर्वत) दशनि.३३५, उनि. २६३, बाहु (अवयव) सूनि.७३, ७७ आनि. ४९, ३५३ बिराली (विद्या) उनि.१७२/९ मंसु (अवयव) उनि.१८२/२ बिल्ल (वनस्पति) उनि.१४० मगहापुर (नगर) उनि.२७७ बुक्कस (वर्णान्तर) आनि.२६ मच्छ (तिर्यञ्च) दशनि.५१ बोडियलिंग (मत) उनि. १७२/१५ मज्जार (तिर्यञ्च) दशनि.२७४/१ बोडियसिवभूति (आचार्य) उनि. १७२/१४,१५ मणग (मुनि) दशनि.१४,१७, ३४८ भत्तपरिण्णा (मरण) उनि.२०६, २१९ मणगपियर (आचार्य) दशनि. १३ आनि.२६३, २७३, २८१ मणिणाय (देव) उनि, १७२/६ भद्द (राजकुमार) उनि.११७ मणोरह (उद्यान) सूनि. २०५ भद्दगुत्त (आचार्य) उनि. ९८ मणोसिला (पृथ्वीकाय) आनि.७४ भद्ददारु (वृक्ष) उनि. १४७ मतंग (नदी) उनि. ३१७ भद्दबाहु (आचार्य) दनि. १,उनि.९२ मयंग (चाण्डाल जाति) उनि. ३१६ भद्दा (साध्वी) उनि.९३ मधुकरी (तिर्यञ्च) दशनि.११४ भद्दा (रानी) उनि. ३३१ मय (तिर्यञ्च) दशनि. ९५ भमर (तिर्यञ्च) दशनि.९२, ९६, ९७, मयास (चाण्डाल जाति) उनि. ३१६ ११४, ११५, ११७, ११९, मयूर (तिर्यञ्च) दशनि.३३५ १२०/२, १३३ मरगय (मणि) आनि.७५ भरहपिउ (तीर्थंकर) उनि. २८१ मरुग (श्रमण) दशनि. ३०७/१ भाणिय (वनस्पति) आनि. १४१ मरुय (किसान) दनि.१०४, १०५ भावणा (चूला) आनि. ३१०, ३१७ मलयवती (रानी) उनि.३३४ भासज्जाय (अध्ययन) आनि.३०९ मल्लिया (पुष्प) उनि. १४६ भिकुंडि (राजा) उनि.३४३ मसग (तिर्यञ्च) उनि.९४, ४८७ भिक्खुपडिमा (प्रतिमा) दनि.४५ मसारगल्ल (मणि) आनि.७५ भिगु (पुरोहित) उनि.३५९, ३६६ मसूर (धान्य) दशनि. २३० भुयगुह (चैत्य) उनि.१७२/७ महपंचभूत (दर्शन) सूनि. २९ भुयमोयग (मणि) आनि.७५ महाकाल (परमाधार्मिक देव) सूनि.६६, ७५ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२ महागिरि (आचार्य) महाघोस (परमाधार्मिक देव) महातव (पर्वत) महानियंठ (अध्ययन) महापरिण्णा (अध्ययन) मागह ( माप) मागह (वर्णान्तर) मास (धान्य) २७०, ३१० उनि २७९ उनि २७७ उनि १४९ महावीर (तीर्थंकर) महासाल (राजकुमार) महिंदफल (फल) महिसी ( तिर्यञ्च ) दशनि २३४, आनि. २८५ भहु (खाद्यपदार्थ) उनि . १२७ दशनि. ९६ महुगरि ( तिर्यञ्च) महुर ( तिर्यञ्च दशनि. ९५, १२०/१, १२०/४ महुरा (नगरी) उनि . ११६, ११९, ३१५, ३४०, ३४३ दनि. ११२ उनि. १५१ मास ( माप) मिंढ ( तिर्यञ्च ) मिग ( तिर्यञ्च ) मिगदेवी (रानी) मिगपुत्तिज्ज (अध्ययन) उनि. १७२ / ५, १७२/६ सूनि. ६७, ८२ उनि १९७२ / ६ मिगा (रानी) मिगावई (साध्वी) मिगी (विद्या) मित्तसिरी ( श्रमणोपासक) मिय ( तिर्यञ्च ) मिहिला (नगरी) मिहिलापति ( राजर्षि ) उनि ४२१, ४२२ आनि. २६९, मीरा (उपकरण) महिलाहिव ( राजर्षि) मीस (बालपंडितमरण) मुकुंद (वाद्य) दनि. १०३ दशनि. १३२, आनि. ९५ उनि ४०२ उनि ४०२ उनि ४०३ दशनि. ७२ आनि. २२, २४ दशनि २२९ उनि २४९ उनि १७२/८ उनि १७२/३ उनि ३८९ उनि १७०, १७२ / ५, ३४५ उनि. २६३ सूनि . ७४ उनि २६७ उनि २०५ उनि . १५२ मुग्ग (धान्य) मुग्गर ( शस्त्र) मुग्गरपाणि (यक्ष) मुग्गसेलपुर (नगर) मुणिचंद (मुनि) मुणिसुव्वय (तीर्थंकर) मुत्तावलि (आभूषण) मुरिय (वंश) मूसग (विद्या) मूसगावरद्ध (रोग) मेरु (पर्वत) मेस ( तिर्यञ्च ) मोत्तिय (मणि) मोय (प्रतिमा) मोयग (खाद्यपदार्थ) मोरी (विद्या) रक्खय (आचार्य) रयणवई (रानी) रयणि ( माप) रह ( वाहन) रहनेमि (मुनि) रहवीरपुर (नगर) रहावत्तनग (पर्वत) राई (वनस्पति) राध (आचार्य) रायगिह (नगर) निर्युक्तिपंचक दशनि २२९ उनि. ८८ रायमती (साध्वी) रायमास (धान्य) रालग (धान्य) राहक्खमण (आचार्य) रुद्द (परमाधार्मिकदेव ) उनि १११ उनि . ११६ उनि ३२५ उनि . ११३ आनि. ४६ उनि. १७२/४ उनि . १७२ / ८ उनि . १५० आनि. ४९, ५० दशनि. ३४ सूनि. १५१ दनि ४७ दशनि. ८५ उनि. १७२/९ उनि ९८ उनि ३३२ उनि १४९ उनि ४६, ३५० उनि. ४३७, ४३९, ४४१, ४४२, ४४३ उनि . १७०, १७२/१३, १४ आनि. ३५४ उनि . १४० उनि ९९ उनि ९२, १०२, १११, १७२ / ३-६, २५१, ३४०, ३४५, सूनि १९९, २०४ उनि ४४४ दशनि. २३० दशनि. २२९ उनि. ९९ सूनि. ७२ Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १२ : विशेष नामानुक्रम ६९३ रुद्दपुर (नगर) उनि.३४४ रुद्दसोमा (व्यक्ति) उनि.९७ रुप्प (पृथ्वीकाय) आनि.७३ रुयग (मणि) आनि.७५ रूविणी (सार्थवाह-पत्नी) उनि.४३१, ४३२ रोद्द (परमाधार्मिक देव) सूनि.६६ रोहगुत्त (शिष्य) उनि. १७२/७ रोहगुत्त (मंत्री) आनि. २२८ लच्छिघर (चैत्य) उनि. १७२/५ लवण (समुद्र) आनि.५० लाउयपात (अलाबुपात्र) दनि. ११८ लोगसार (अध्ययन) आनि.२३९ लोण (पृथ्वीकाय) आनि.७३ लोम (आहार) सूनि. १७१, १७२ लोहि (उपकरण) सूनि.७८ लोहियक्ख (मणि) आनि.७५ वइर (रत्न) आनि.७३, २४० वइर (आचार्य) आनि.२८३ वइरक्खमण (आचार्य) उनि.९८ वंजुल (वनस्पति) दशनि.१३३ वंस (वनस्पति) दनि.१०३ वंसीपासाय (भवन) उनि. ३३६ वक्कसुद्धि (अध्ययन) दशनि.१६ वगु (विमान) उनि.२८८ वग्गुमती (महिला) आनि. ३२३ वग्घ (तिर्यञ्च) उनि.१०३,१२८ वग्घी (विद्या) उनि.१७२/९ वच्छी (रानी) उनि. ३३२ वट्ट (संस्थान) उनि.३८ वडथलग (नगर) उनि. ३४० वडपायव (वृक्ष) उनि.३३७ वडपुरग (नगर) उनि.३४० वडपुरय (नगर) उनि.३४१ वड्डकुमारी (महिला) दशनि.५८ वणराइ (रानी) उनि.३३४ वणिय (करण) उनि.१९०, सनि.११ वद्धमाण (तीर्थंकर) आनि.२९६, उनि.५१९, दनि.११५ वयग्गाम (ग्राम) उनि.३६३ वयरोसभ (संहनन) उनि. ४०४ वरग (मंत्री) दनि. १०६ वरधणु (मंत्री) उनि.३३०, ३३७ वरधणुग (मंत्री) उनि.३३७ वररुइ (व्यक्ति) उनि. १०१ वराही (विद्या) उनि.१७२१८ वलय (आभूषण) उनि.२५८, २६७ वलायमरण (मरण) उनि. २०५, २१० ववहार (ग्रन्थ) दशनि.१६७, दनि.१,४७ वसट्टमरण (मरण) उनि.२०५, २१० वसभ (तिर्यञ्च) उनि. २५८, २६०, २६१ वसह (तिर्यञ्च) उनि.२५९, २६१ वसु (आचार्य) उनि.१७२/३ वसुमित्त (वणिक्) उनि.३३३ वाउ (दिव्यशस्त्र) सूनि. ९८ वाघातिममरण (मरण) आनि.२८५ वाणारसी (नगरी) उनि.३१७, ३४०, ४६०, ४६८ वाणीरा (रानी) उनि.३३४ वायव्वा (दिशा) आनि.४३ वायस (तिर्यञ्च) उनि.१३५ वारिभद्दग (दार्शनिक) सूनि.९० वारुण (दिव्यशस्त्र) सूनि.९८ वारुणी (दिशा) आनि.४३ वालु (परमाधार्मिक देव) सूनि.६७ वालूग (परमाधार्मिक देव) सूनि.७९ वासवदत्ता (राजकुमारी) उनि.१४८ वासि (शस्त्र) आनि.१४९ वासिट्टा (पुरोहित-पत्नी) उनि.३५९, ३६६ Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ नियुक्तिपंचक आ विक्खेवणी (कथा) दशनि. १६६, १७०, १७७, १७८ विज्जुमती (रानी) उनि.३३१ विज्जुमाला (रानी) उनि. ३३१ विंझ (शिष्य) उनि.१७२/१० विच्छुग (तिर्यञ्च) उनि. ४८७ विच्छुय (विद्या) उनि.१७२/८ विजयघोस (मुनि) उनि.४५९, ४६१, ४७४, ४७६ विट्ठि (करण) उनि. १९०, सूनि.११ विणयसुत (अध्ययन) उनि. २८ विण्हु (देव) उनि.३०८ विदेह (जनपद) उनि.२५७, २६४ विदेह (वर्णान्तर) आनि.२६ विमला (दिशा) आनि.४३ विमुत्ति (चूला) आनि.३१०, ३१७ वियण (उपकरण) आनि.१६९, १७० विवित्तचरिया (चूला) दशनि.२३ विवेगपडिमा (प्रतिमा) दनि.४६ विसाहदत्त (व्यक्ति) उनि. ३४४ वीयभय (नगरी) उनि.९५ वीयरागसुय (अध्ययन) उनि.४९८ वीर (तीर्थंकर) उनि.२७७,२७८, सूनि.२५,८५,२०० वीरवर (तीर्थंकर) उनि.४२५ वीहि (धान्य) दशनि. २२९ वेणइय (दर्शन) सूनि.११८, ११९ वेणव (वर्णान्तर) आनि.२६ वेतरणी (परमाधार्मिकदेव) वेयरणी (परमाधार्मिकदेव) सूनि.८० वेतालिक (छंद) सूनि.४० वेत्त (वनस्पति) सूनि. १०८ वेद (ग्रंथ) आनि.११ वेदेह (वर्णान्तर) आनि.२२,२४ वेभारगिरि (पर्वत) उनि.९२ वेयड (पर्वत) उनि. २८२ वेरग्ग (भावना) आनि.३५१, ३६१ वेरुलिय (मणि) आनि.७६ वेसमण (इन्द्र) उनि.२८५, २८७ वेहाणस (मरण) उनि.२०६, आनि.२७३ वेहास (मरण) उनि.२१८ सउणि (करण) उनि.१९१, सूनि. १२ संख (युवराज, मुनि) उनि.३१४, ३१५ संख (तिर्यञ्च) उनि. १८६, सूनि.७ संजइज्ज (अध्ययन) उनि.३८७ संजत (राजा) उनि.३८८ संजतपडिमा (प्रतिमा) दनि.४१ संजय (राजा) उनि.३८८ संभूय (मुनि) उनि.३२२, ३२४ संवेयणी (कथा) दशनि.१७२, १७३ सक्करा (पृथ्वीकाय) आनि.७३ सगड (वाहन) उनि.१८६, सूनि.७ सगडाल (मंत्री) उनि. १०१ सच्चणेमि (राजकुमार) उनि. ४४१, ४४२ सच्चप्पवायपुव्व (ग्रन्थ) दशनि.१६ सट्ठीय (धान्य) दशनि.२२९ सतपुप्फ (वनस्पति) उनि.१४७ सत्ति (शस्त्र) सूनि.७२ सत्थपरिण्णा (अध्ययन) आनि.१२, १३, ३१०, ३१२, ३१६ सपिण्णिय (वनस्पति) उनि. १४६ सप्प (विद्या) उनि.१७२।८ सप्प (तिर्यञ्च) दशनि. ३४, उनि. १०३, १०४, ३१८, ३१९, ४६२-६४ दनि.७३ सप्पावरद्ध (रोग) उनि. १५० सप्पि (खाद्यपदार्थ) उनि.१२७ सबरनियंसणिय (वनस्पति) उनि.१४६ मानद Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १२ : विशेष नामानुक्रम सबल (परमाधार्मिक देव) सूनि.६६ साल (राजकुमार) उनि.२७७ सभिक्खुय (अध्ययन) दशनि.१८ सालि (धान्य) दशनि.२२९ समकडग (नगर) उनि.३३६, ३३७ सालिभद्द (श्रेष्ठी) उनि.२४६ समाधि (अध्ययन) सूनि.१०३ सावत्थी (नगरी) उनि.११२, ११७, १७०, समाधिपडिमा (प्रतिमा) दनि.४६ १७२/१,२, २४६, ३४१, ३४५ समुच्छ (दर्शन) उनि.१६७ सावित्ती (दिशा) आनि.५७ समुद्दपाल (सार्थवाहपुत्र) उनि.४२८ सास (रोग) उनि.८५ समुद्दपालिज्ज (अध्ययन) उनि.४२४ सासग (पृथ्वीकाय) आनि.७४ समुद्दविजय (राजा) उनि.४४० सिंधुदत्त (वणिक्) उनि.३३४ समूसण (औषधि) उनि.१४९ सिंधुसेण (वणिक्) उनि.३३४ समोसरण (अध्ययन) सूनि. १२० सिंबलि (वृक्ष) सूनि.८१ सम्मत्तपरक्कम (अध्ययन) उनि.४९८ सिद्धपव्वत (पर्वत) उनि.२८२ सरल (वृक्ष) आनि.१३३ सियविया (नगरी) उनि.१७० सरस (वनस्पति) उनि.१४९ सिर (अवयव) सूनि.७३ सरिसव (वनस्पति) उनि.१४० सिरिगुत्त (आचार्य) उनि.१७२/७ सव्वक्खरसन्निवाइ (लब्धिधारी मुनि)उनि.३१० सिरिय (शकडाल का पुत्र) उनि.१०१ सव्वक्खरसन्निवाय (लब्धि) सूनि. १८९ सिरोरोग (रोग) उनि.१५० ससल्लमरण (मरण) उनि.२१२, २१३ सिला (रानी) उनि.३३२ सहस्सपाग (तैल) दनि.१०९ सिला (पृथ्वीकाय) आनि.७३ साएय (नगरी) उनि.३३६ सिलिंद (धान्य) दशनि.२३० साकेय (नगरी) उनि.१०८ सिव (देव) उनि.३०८ सागरखमण (आचार्य) उनि.१२० सिवदत्त (व्यक्ति) उनि.३४४ सागरचंद (मुनि) उनि.३२५ सिवभूइ (निह्नव) उनि.१७२/१३,१४ सागरदत्त (वणिक्) उनि.३३३ सिवा (रानी) उनि.४४० सागेत (नगरी) उनि.३२५ सीओसणिज्ज (अध्ययन) आनि.२११ साणधण (चांडाल जाति) उनि. ३१६ सीमंधर (राजा) उनि.३६६ साम (परमाधार्मिकदेव) सूनि.६६ सीवण (उपकरण) दशनि.३४१ सामइय (मुनि) सूनि.१९२ सीस (अवयव) उनि. १८२/१ सामाइय (ग्रन्थ) दशनि.११ सीसग (पृथ्वीकाय) आनि.७३ सामलि (पुष्प) उनि.१५२ सीह (तिर्यञ्च) दशनि.८९/३ सामाइयसमाहिपडिमा (प्रतिमा) दनि. ४८ . सीहगिरि (आचार्य) उनि.९८ सामुच्छेद (दर्शन) उनि.१६८ सीही (विद्या) उनि.१७२/९ सामुत्थाणी (दिशा) आनि.५७ सुंठय (पात्र) सूनि.७४ सामुद्दय (छंद) सूनि. १३९ सुग्गीव (नगरी) उनि.४०३ Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्तिपंचक सुत्तकड (ग्रंथ) सूनि.२ सुदंसण ( श्रेष्ठी) उनि. १११ सुदंसण (व्यक्ति) उनि. ३३३, ३५१ सुदंसणा (महावीर की बहिन) उनि.१७२/२ सुद्द (वर्ण) आनि.२४, २७ सुद्दी (वर्ण) आनि.२६ सुद्धवाय (वायु) आनि.१६६ सुधम्मा (गणधर) सूनि.८५ सुनन्द (श्रावक) उनि.११८ सुनन्दा (महिला) उनि. २८८ सुपति? (नगर) उनि.३४३ सुभद्दा (महिला, सती) दशनि. ६९ सुभद्दा (राजकुमारी) उनि.३१७ सुमणुभद्द (मुनि) सुयसमाहिपडिमा (प्रतिमा) दनि.४८ सुवण्ण (पृथ्वीकाय) आनि. ७३ सुवण्णभूमि (जनपद) उनि.१२० सुसाणवित्ति (चांडालजाति) उनि.३१६ सुइय (शस्त्र) सूनि.७२ सूई (उपकरण) आनि. २६२, दनि. १२० सूतगड (ग्रंथ) सूनि.२ सूय (वर्णान्तर) आनि.२२,२४ सूयगड (ग्रंथ) सूनि. १,२,१८,२०, १०२ सूयर (तिर्यञ्च) उनि. १०० सूरकंत (मणि) आनि. ७६ सूल (शस्त्र) सूनि.७२ सेजभव (आचार्य) दशनि.११, १३, ३४९ सेयवि (नगरी) उनि.१७२/४ सेयविया (नगरी) उनि.१७२/४ सेवाल (मुनि) उनि. २८९, २५१ सेवाल (वनस्पति) आनि.१४१ सोमदत्त (ब्राह्मणपुत्र) उनि.१०९ सोमदेव (आर्यवज्र के पिता) उनि.९७ सोमदेव (ब्राह्मणपुत्र) उनि.१०९ सोमभूइ (आचार्य) उनि.१०९ सोमा (दिशा) आनि.४३ सोमा (रानी) उनि.३३४ सोरियपुर (नगरी) उनि.४४० सोवाग (चांडाल जाति) उनि.३१६ सोवाग (वर्णान्तर) आनि.२६ सोहम्म (देवलोक) दनि. १११ हड (वनस्पति) आनि. १४१ हत्थ (अवयव) उनि.१८२/२, सूनि.७६ हत्थि (तिर्यञ्च) दशनि.६०, २३४,आनि.११० हत्थिणपुर (नगरी) उनि.३३६, ३४५ हत्थिणी (तिर्यञ्च) दनि.१११ हत्थितावस (तापस) सूनि.१९१ हत्थिपुर (नगर) उनि.३४५ हत्थिभूइ (मुनि) उनि.९० हत्थिमित्त (मुनि) उनि.९० हत्थिय (तिर्यंच) उनि.३४१, ३५० हय (तिर्यञ्च) उनि.३८९ हरिएस (कुल) उनि.३१६ हरिएस (चांडाल जाति) उनि.३१४ हरिएसा (रानी) उनि.३३५ हरिमंथ (धान्य) दशनि. २३० हरियाल (पृथ्वीकाय) आनि.७४ हरेणुया (वनस्पति) उनि.१४६ हल (उपकरण) आनि.९५ हलिद्दा (वनस्पति) दनि.१०३ हिंगुलय (पृथ्वीकाय) आनि.७४ हिंगुसिव (व्यन्तर देव) दशनि.६३ हियय (अवयव) सूनि.७१ हिययसूल (रोग) उनि.१७२/४ हिरिबेर (वनस्पति) उनि.१४७ Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१३ वर्गीकृत विशेष नामानुक्रम अध्ययन अप्पमादसुय (उत्त. का उन्नीसवां अध्ययन) उनि-५०४ आघ (सूत्रकृतांग का दसवां अध्ययन) सूनि.१०३ धम्मपण्णत्ति (दशवै. का चौथा अध्ययन) दशनि.१५ पमायप्पमाय (उत्त. का चौथा अध्ययन) उनि.१७५ वीयरागसुय (उत्त. का उनतीसवां अध्ययन) उनि.४९८ अवयव पिट्ठी (पीठ) उनि.१८२/१ अंगुलि (अंगुलि) उनि. १८२/२ फिग्ग (नितम्ब) सूनि.७७ अंजलि (अंजलि) दशनि.२८८ फिप्फिस (उदरवर्ती आंत विशेष) अंतगय (आंत) सूनि.७१ फुप्फुस (फेंफड़ा) सूनि.७१ अच्छि (आंख) उनि.१८२/२ बाहा (बाहु) सूनि.१६२, उदर (पेट) उनि.१८२/१ बाहु (बाहु) सूनि.७३ उर (हृदय) उनि.१८२/१ मंसु (दाढ़ी) उनि.१८२/२ उरुय (जंघा) उनि.१८२/१ सिर (शिर) सूनि.७३ ऊरु (जंघा) सूनि.७३ सीस (शिर) उनि.१८२/१ ओ? (होठ) उनि.१८२/२, सनि.७७ हत्थ (हाथ) आनि.१८२/२ कण्ण (कान) उनि.१८२/२ हियय (हृदय) सूनि.७१ कर (हाथ) सूनि.७३ आचार्य कालेज (कलेजा) सूनि.७१ आसाढ (आषाढ) उनि.१२३, १६८, १७२/४ केस (केश) उनि.१८२/२ उदहि (उदधि) आनि.२८४ खंध (कंधा) उनि.१८३ कण्ह (कृष्ण) उनि.१७२/१३ चरण (पैर) सूनि.७३, ७७ कालखमण (कालकाचार्य) उनि.१२० जंघा (जंघा) उनि.१६२ केसि (केशी) उनि.४४७, ४४८ जीहा (जीभ) दनि.११२ गोविंदवायग (गोविंदवाचक) दशनि.७८ थण (स्तन) सूनि.७७ जंबु (जंबू) सूनि.८५ दसण (दांत) सूनि.७७ जसभद्द (यशोभद्र) दशनि.३४९ नयण (नयन) दशनि.२७ तोसलि (तोसलि) आनि.२८५ नह (नख) उनि.१८२/२ तोसलिपुत्त (तोसलिपुत्र) उनि.९७ नास (नाक) उनि.१८२/२ थूलभद्द (स्थूलिभद्र) उनि.१०१, १०५, पाद (पैर) उनि.१८२/२ १०६, १२२. पास (पार्श्व) सूनि ७६ धम्मघोस (धर्मघोष) उनि.९४ Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ नियुक्तिपंचक पुसमित्त (पुष्यमित्र) उनि.१७२/१० दीवग (दीपक) उनि.१७२/१३ बोडियसिवभूति (बोटिकशिवभूति) उनि.१७२। पोलास (पोलास) उनि.१७२/४ १५ मणोरह (मनोरथ) सूनि.२०५ भद्दगुत्त (भद्रगुप्त) उनि.९८ उपकरण भद्दबाहु (भद्रबाहु) दनि.१,९२ आसंदी (कुर्सी) आनि.२६३ मंगु (मंगु) दनि.१०४, ११२ कंडु (पात्र) सूनि ७८ मणगपियर (शय्यंभव) दशनि.१३ छत्त (छत्र) सूनि.१०८ महगिरि (महागिरि) उनि.१७२/५, ६ तालवंट (तालवंट, पंखा) आनि.१७० रक्खियखमण (आर्यरक्षित) उनि.९८, १७२/१० नंगल (लांगल) दशनि.५७ राध (राध) उनि.९९ नालिया (समय जानने का यंत्र) दशनि.५८ राहक्खमण (राधाचार्य) उनि.९९ पयण (कडाही) सूनि.७८ वइर (वज्र) आनि.२८३ पलियंक (पलंग) दशनि.२४४ वइरक्खमण (आर्य वज्र) उनि.९८ मीरा (चूल्हा) सूनि.७४ वसु (वसु) उनि.१७२/३ लाउयपात (पात्रविशेष) दनि.११८ सागरखमण (आर्य सागर) उनि.१२० लोहि (पात्र विशेष) सूनि.७८ सिरिगुत्त (श्रीगुप्त) उनि.१७२/७ वियण (व्यजन, पंखा) आनि.१६९, १७० सीहगिरि (सिंहगिरि) उनि.९८ सुंठय (पात्र विशेष) सूनि.७४ सेजंभव (शय्यंभव) दशनि.११, १३, ३४९ हल (हल) आनि.९५ सोमभूइ (सोमभूति) उनि.१०९ कथा आभूषण अक्खेवणी (आक्षेपणी) दशनि.१६६-१६८, आमेलय (शिर का आभूषण) उनि.१५२ १७७,१७८ कडग (हाथ का आभूषण) उनि.१३९ निव्वेयणी (निर्वेदनी) दशनि.१७४, १७५ कुंडल (कुण्डल) उनि.१३९ विक्खेवणी (विक्षेपणी) दशनि.१६६, १७०, मुत्तावलि (मोतियों की माला) आनि.४६ १७७, १७८ वलय (वलय) उनि.२५८ संवेयणी (संवेजनी) दशनि.१७२, १७३, आहार करण ओय (ओज) सूनि.१७१ किंत्थुग्घ (किंस्तुघ्) सूनि.१२ कावलिक (कावलिक) सूनि.१७२ किंसुग्घ (किंस्तुध्न) उनि.१९१ पक्खेव (प्रक्षेप) सूनि.१७१ __ कोलव (कोलव) उनि.१९०, सूनि.११ लोम (लोम) सूनि.१७१ गरादि (गरादि) उनि.१९०, सूनि.११ उद्यान एवं वन चउप्पय (चतुष्पद) उनि.१९१, सूनि.१२ केसर (केसर) उनि.३८९, ३९० थीविलोयण (स्त्रीविलोकन)उनि.१९०, सूनि.११ गंडितिंदुगवण (गंडितिंदुकवन) उनि.३१७, ३२० नाग (नाग) उनि.१९१, सूनि.१२ तिंदुग (तिन्दुक)उनि.१७०, १७२/२, ३१७, ३२१ बव (बव) उनि.१९०, सूनि.११ तंबवण (तुंबवन) उनि.२८८ बालव (बालव) उनि.१९०, सूनि.११ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १३ : वर्गीकृत विशेष नामानुक्रम ६९९ दनि.५ वणिय (वणिज) उनि.१९०, सूनि.११ ६,८,९,१०, ३०, ३२, २१७, ३०७, विट्ठि (विष्टि) उनि.१९०, सूनि.११ ३११,३६६, सूनि.२२, दनि.२७, ४७ सउणि (शकुनि) उनि.१९१, सूनि.१२ आयारग्ग (आचाराग्र) आनि.१२, ३२, ३०७ क्षेत्र आयप्पवायपुव्व (आत्मप्रवादपूर्व) दशनि.१५ देवकुरु (देवकुरु) आनि.१, सूनि.१५३, १८२ आयारपकप्प (आचारप्रकल्प) दनि.२७, आनि . खाद्य पदार्थ ३११,३१७ ओदण (ओदण) दशनि. २१८ इसिभासित (ऋषिभाषित) सूनि.१९० खीर (खीर) उनि.२९३, दनि.९९ उत्तरज्झयण (उत्तराध्ययन) उनि.४, २७, ५५२ गुड (गुड़) दशनि.२१८ कप्प (कल्प) दनि.१ तिलसकुलिया (तिलपपड़ी) | आनि.१३२ ___ कम्मप्पवायपुव्व (कर्मप्रवादपूर्व) दशनि.१५, कम्मणवायपुष्प (कमात्र दुद्ध (दूध) सूनि.३५ उनि.७० पायस (खीर) दनि.९९,१०० छट्ठपुव्व (सत्यप्रवादपूर्व) दनि.१८ पिउड (कूरपिंड) उनि.१७२/३ ठाण (स्थानांग) दनि.४७ महु (मधु) उनि.१२७ णाया (ज्ञाताधर्मकथा) मोयग (लड्ड) दशनि.८५ दसकालिय (दशवैकालिक) दशनि.७, ११, १३, लोण (नमक) दशनि.३६ १४, २४, ३०७ सप्पि (घी) उनि.१२७ दसकालियनिज्जुति गणधर (दशवैकालिकनियुक्ति) दशनि.१ इंदभूति (इन्द्रभूति) सूनि.२०५ दसवेयालिय (दशवैकालिक) दशनि.६ गोतम (गौतम) उनि.२८४, २८७, २९२, दसासु (दशाश्रुतस्कन्ध) दनि.१ २९४, २९५, २९८, दिट्ठिवाय (दृष्टिवाद) दशनि.१६७ ४४५, ४४७, ४४८, निसीह (निशीथ) आनि.३६६ सूनि.९०, २०६, दनि.१११ पच्चक्खाण (प्रत्याख्यानपूर्व) आनि.३११ गोयमस्सामी (गौतमस्वामी) दशनि.७४ ।। पण्णत्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति) दशनि.१६७ सुधम्मा (सुधर्मा) सूनि.८५ बंभच्चेर (आचारांग) आनि.१२ गोत्र, जाति एवं वंश ववहार (व्यवहार) दशनि.१६७, दनि.१, ४७ इक्कड (चोर की जाति) उनि.२५१ वेद (आचारांग) आनि.११ कासव (काश्यप) उनि.४६० सच्चप्पवायपुव्व (सत्यप्रवादपूर्व) दशनि.१६ दसारवग्ग (दशाहवर्ग) दशनि.५२ सामाइय (सामायिक) दशनि.११ पाईण (प्राचीन) दनि.१ सुत्तकड (सूत्रकृत) सूनि.२ मुरिय (मौर्य) उनि.१७२/४ सूतगड (सूत्रकृत) सूनि.२ ग्रन्थ सूयगड (सूत्रकृत) सूनि १, २, १८, २०, १०२ अणुप्पवाय (अनुप्रवाद) उनि.१७२/५ चक्रवर्ती आयार (आचारांग) दशनि.१६७, आनि.१, बंभदत्त (ब्रह्मदत्त)उनि.३२७, ३३०, ३५२, ३४५ " Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० नियुक्तिपंचक चाण्डाल जाति कलिंग (कलिंग) उनि.२५७ पाण (पाण) उनि.३१६ कुंभकारकड (कुंभकारकट) उनि.११३ बलकोट्ट (बलकोट्ट) उनि.३१८ कुरु (कुरु) उनि.३५८ बाहिर (बाह्य) उनि.३१६ कोल्लयर (कोल्लकर) उनि.१०७ मयंग (मातंग) उनि.३१६ कोसंबी (कौशाम्बी) उनि.१००, १०९, ११८, मयास (मृताश) उनि.३१६ २४६,३४० साणधण (श्वानधन) उनि.३१६ गंधार (गांधार) उनि.२५७ सुसाणवित्ति (श्मशानवृत्ति) उनि.३१६ गयपुर (गजपुर) उनि.१०८, ३१५ सोवाग (श्वपाक) उनि.३१६ गिरितडग (गिरितटक) उनि.३३६ हरिएस (हरिकेश) उनि.३१४, ३१६ गिरिपुर (गिरिपुर) उनि.३४० चैत्य चंपपुरी (चम्पापुरी) उनि.२७८ उच्छुघर (इक्षुगृह) उनि.१७२/१० चंपा (चम्पा) उनि.९४, ११८, २७९, ३३६, गुणसिलय (गुणशिलक) उनि.१७१/३ ३४५, ४२५, दनि.९५ पुण्णभद्द (पूर्णभद्र) उनि.२७९ तगरा (तगरा) उनि.९३ दसण्ण (दशार्ण) उनि.३२७ भुयगुह (भूतगृह) उनि.१७२/७ दसपुर (दशपुर) उनि.९६, १७०, १७२/१० उनि.१७२/५ लच्छिघर (लक्ष्मीगृह) नंद (नंद) उनि.३३६ छंद नदिखेड (नदिखेट) उनि.१७२/६ गाहा (गाथा) सूनि.१३९ नालंदा (नालन्दा) सूनि.२०४, २०५ वेतालिक (वैतालिक) सूनि.४० पंचाल (पाञ्चाल) उनि.२५७, २६२/१ सामुद्दय (सामुद्रक) सूनि.१३९ पाडलिपुत्त (पाटलिपुत्र) उनि.१०१ जनपद एवं नगरी पिट्ठीचंपा (पृष्ठिचंपा) उनि.२७७ अंतरंजि (अंतरंजिका) उनि.१७०, १७२/७ पिहुंड (पिहुण्ड) उनि.४२६, ४२७ अंतरा (अन्तराग्राम) उनि.३४१, ३४३ बंभथलय (ब्रह्मस्थलक) उनि.३४० अद्दपुर (आर्द्रपुर) सूनि.१८८, १९३ बंसतपुर (बसन्तपुर) सूनि.१९२ अयलपुर (अचलपुर) उनि.९९ भोयडपर (भोगकटपर) उनि.९० अहिछत्ता (अहिच्छत्रा) उनि.३४०, ३४३ मगहापुर (मगधपुर) उनि.२७७ आमलकप्पा (आमलकल्पा) उनि.१७२/३ महुरा (मथुरा) उनि.११६, ११९, ३१५, ३४०, इंदपुर (इन्द्रपुर) उनि.३४४ ३४३, दनि.११२ उज्जेणी (उज्जयिनी)उनि.९०, ९१, ९५, ९९, १२० मिहिला (मिथिला) उनि.१७०, १७२/५, ३४५ उल्लुगातीर (उल्लुकातीर) उनि.१७०, १७२/६ मुग्गसेलपुर (मुद्गशैलपुर) उनि.११६ उसभपुर (ऋषभपुर) उनि.१०१, १७० रहवीरपुर (रथवीरपुर)उनि.१७०, १७२/१३, १४ उसुयारपुर (इषुकारपुर) उनि.३२७, ३५८, ३६० रायगिह (राजगृह) उनि.९२, १०१, १११, १७२। एलगच्छपह (एडकाक्षपथ) उनि.९१ ३-६, २५१, ३४०, ३४५, सूनि. ओसा (अवश्याय) उनि.३३६ १९९, २०४ कंपिल्लपुर (काम्पिल्यपर)उनि.३३६, ३८८, ३९४ रुद्दपुर (रुद्रपुर) उनि.३४४ Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १३ : वर्गीकृत विशेष नामानुक्रम उनि . ३३६ उनि ३४० उनि ३४०, ३४१ उनि . ३६३ उनि ३१७, ३४०, ४६०, ४६८ उनि २५७, २६४ उनि . ९५ उनि ३३६, ३३७ उनि ३३६ वंसीपासाय (वंशीप्रासाद) वडथलग (वटस्थलक) वडपुरग (वटपुरक) वयग्गाम ( व्रजग्राम) वाणारसी (वाराणसी) विदेह (विदेह) वीयभय (वीतभय) समकडग (समकटक) साएय (साकेत) साकेय (साकेत) सागेत (साकेत ) सावत्थी ( श्रावस्ती) सियविया (श्वेतविका) सुग्गीव (सुग्रीव) सुपतिट्ठ (सुप्रतिष्ठ) सुवणभूमि (सुवर्णभूमि) उनि ११२, ११७, १७०, १७२ / १, २, २४६, ३४१, ३४५ उनि . १७० उनि ४०३ उनि ३४३ उनि १२० उनि १७२/४ उनि . १७२/४ उनि ४४० उनि ३३६, ३४५ उनि ३४५ सेयवि (श्वेतविका) सेयविया (श्वेतविका) सोरियपुर (शौरिकपुर) हथिणपुर (हस्तिनापुर ) हरिथपुर (हस्तिपुर) अस्स (घोड़ा) अय (बकरा ) अहि (सांप) आस (घोड़ा) आसतरग ( खच्चर) उंदर (चूहा ) उट्ट (ऊंट) उट्टी (ऊंटनी) उरग (सर्प) उरब्भ (मेमना) एलग (भेड़) उनि . १०८ उनि ३२५ तिर्यञ्च दशनि. ६० दशनि. २३४ उनि. २६३ दशनि २३४ दशनि. २३४ दशनि. १३३ दशनि. ८४ दशनि. २३४ दशनि. १३२ उनि २३८ दशनि. २३४ किमि (कृमि) कुंजर (हाथी) कुंथु (कुंथु) कुक्कुड (मुर्गा) कुरर (कुरल) कुलल (कुरल) खज्जोय (जुगनू ) खलुंक (दुष्ट बैल) गद्दभ ( गधा ) गय (हाथी) गावी (गाय) गो (गाय) गोण (बैल) घोडग (घोड़ा) छगल (बकरा ) जंबु (श्रृगाल) जलूक (जलौका) जलोय (जलौका) तुरंग (घोड़ा) तुरग (घोड़ा) तित्तिरी ( तीतर) पड्डय (बछड़ा, पाडा) बइल (बैल) बग (बक) भमर (भ्रमर) भेरुंड (निर्विष सर्प) मंडुक्क (मेंढ़क) मंडुक्किया (मेंढ़की) मच्छ (मत्स्य) मज्जार (बिलाव ) मधुकरी (भ्रमरी) मय (मृग ) मयूर (मोर) मसग (मच्छर ) ७०१ दनि. १०३ उनि . ३५२ दनि. ७३ उनि ३५१ उनि ४६२ उनि . ४६३ आनि. ११९ उनि . ४८२ दशनि. २३४ दशनि. २७६ दशनि २३४ दनि. १०३ उनि . ६५ दशनि. २३४ उनि. १३८ उनि . ११६ उनि ४८७ दशनि. ३४ दशनि २७४ उनि ४६ दशनि. ८५ उनि २६१ उनि ४८३ दशनि. २७४/१ दशनि. ९२ उनि . ३१९ उनि ४६२ दशनि. ५२ दशनि. ५१ दशनि. २७४/१ दशनि. ११४ दशनि. ९५ दशनि. ३३५ उनि . ९४ Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ नियुक्तिपंचक महिसी (भैंस) आनि.२८५ महुगरि (भ्रमरी) दशनि.९६ महुयर (भ्रमर) दशनि.९५ मिंढ (मेंढा) दनि.१०३ मिग (मृग) आनि.९५ मिय (मृग) उनि.३८९ मेस (मेंढा) दशनि.३४ वग्घ (व्याघ्र) उनि.१०३ वसभ (बैल) उनि. २५८ वसह (बैल) उनि.२५९ वायस (कौआ) उनि.१३५ विच्छुग (बिच्छु) उनि.४८७ संख (शंख) उनि.१८६/७ सप्प (सर्प) दशनि.३४ सीह (सिंह) दशनि.८९/३ सूयर (सूकर) उनि.१०० हत्थि (हाथी) दशनि.६० हत्थिणी (हथिनी) दनि.१११ हय (घोड़ा) उनि.३८९ तीर्थ पुक्खर (पुष्कर) उनि.९६, दनि.९७ तीर्थंकर अरिट्ठनेमि (अरिष्टनेमि) उनि.४४१, ४४२ । उसभ (ऋषभ) उनि.२८१, आनि.१९, सूनि.४१ नमि (नमि) उनि.२६४, २६५ पास (पार्श्व) आनि.३५४ सूनि.२०६ भरहपिउ (ऋषभ) उनि.२८१ महावीर (महावीर) उनि.२७९ मुणिसुव्वय (मुनिसुव्रत) उनि.११३ वद्धमाण (वर्धमान)आनि.२९६, ५१९ दनि.११५ वीर (महावीर) उनि.२७७, २७८, सूनि.२५, ८३, २०० वीरवर (महावीर) उनि.४२५, आनि.३०४ तैल सहस्सपाग (सहस्रपाक) दनि.१०९ दर्शन एवं दार्शनिक अकारगवाद (अकारकवाद) सूनि.२९ अकिरियवादी (अक्रियावादी) सूनि.११८ अण्णाणिय (अज्ञानवाद) सूनि.३०, ११८, ११९ अफलवाद (अफलवाद) सूनि.२९ आतच्छ? (आत्मषष्ठ) सूनि.२९ एकप्पय (एकात्मवाद) सूनि.२९ कडवाद (कृतवाद) सूनि.३१ किरियवादी (क्रियावादी) सूनि.११८, १२१ तज्जीवतस्सरीर (तज्जीवतत्शरीरवाद) सूनि.२९ नाणवादी (ज्ञानवादी) सूनि.३० नियतीवाय (नियतिवाद) सूनि.३० महपंचभूत (पंचमहाभूत) सूनि.२९ वेणइयवादी (वैनयिकवादी) सूनि.११८ दिव्य शस्त्र अग्गेय (आग्नेय) सूनि.९८ पत्थिव (पार्थिव) सूनि.९८ वाउ (वायव्य) सूनि.९८ वारुण (वारुण) सूनि.९८ दिशा अग्गेयी (आग्नेयी) आनि.४३ अभिधम्मा (अभिधर्मा) आनि.५७ अवरउत्तर (पश्चिमउत्तर) आनि.५६ अवरदिसा (पश्चिमदिशा) आनि.४७, ५६ अहोदिसा (अधोदिशा) आनि.५८ इंदा (ऐंद्री, पूर्व) । आनि.४३ उड्ढदिसा (उर्ध्वदिशा) आनि.५४, ५९ उत्तरदिसा (उत्तरदिशा) आनि.४८, ५६ उवरिमदिसा (उर्ध्वदिशा) आनि.५८ ईसाणा (ईशानी) आनि.४३ कविला (कपिला) आनि.५७ खेलेज्जा (खेलेज्जा) आनि.५७ जम्मा (याम्या, दक्षिण) आनि.४३ तमा (अधोदिशा) आनि.४३ दक्खिणा (दक्षिणदिशा) आनि.५६ Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १३ : वर्गीकृत विशेष नामानुक्रम ७०३ दक्खिणापरा (दक्षिणपश्चिमदिशा) आनि.५६ बालु (बालु) सूनि.६७ दाहिणदिसा (दक्षिणदिशा) आनि.४८, ५२ बालुग (बालुक) सूनि.७९ नेरुती (नैर्ऋती) आनि.४३ विण्हु (विष्णु) उनि.३०८ पण्णवित्ती (प्रज्ञापनी) आनि.५७ वेतरणी (वेतरणी) सूनि.६७, ८० परियाधम्मा (पर्याधर्मा) आनि.५७ वेसमण (वैश्रमण) उनि.२८५, २८७ पुव्वदिसा (पूर्वदिशा) आनि.४७, ५६ । सबल (शबल) सूनि.६६, उनि.७१ पुव्वदक्खिणा (पूर्वदक्षिणदिशा) आनि.५६ । साम (श्याम) सूनि.६६ पुव्वुत्तरदिसा (पूर्वोत्तरदिशा) आनि.५६ सिव (शिव) उनि.३०८ वायव्वा (वायव्या) आनि.४३ हरिल (हरिल) उनि.३३२ वारुणी (वारुणी, पश्चिम) आनि.४३ हिंगुसिव (हिंगुशिव) दशनि.६३ विमला (विमला) आनि.४३ देवलोक एवं देवविमान सामुत्थाणी (सामुत्थानी) आनि.५७ ___नलिणिगुम्म (नलिनिगुल्म) उनि.१७२/४, सावित्ती (सावित्री) आनि.५७ उनि.३४६ सोमा (सोमा, उत्तर) आनि.४३ पउमगुम्म (पद्मगुल्म) उनि.३५७ देव एवं यक्ष पुप्फुत्तर (पुष्पोत्तर) उनि.२६६/१ अंब (अम्ब) सूनि.६६ वग्गु (वल्गु) उनि.२८८ अंबरिसि (अंबरिसी) सूनि.६६ सोहम्म (सौधर्म) दनि.१११ असि (असि) सूनि.७६ द्वीप असिपत्त (असिपत्र) सूनि.६७ णंदिसर (नंदीश्वरद्वीप) दनि.९५ उवरुद्द (उपरौद्र) सूनि.६६, ७३ नंदि (नंदीश्वरद्वीप) दनि.९५ काल (काल) सूनि.६६,७४ नंदिसर (नंदीश्वरद्वीप) आनि.३५३ कुंभ (कुम्भ) सूनि.६७ धान्य कुंभी (कुंभी) सूनि.७४ अणुक (अणुक) दशनि.२२९ खंद (स्कंद) उनि.२०८ अतसि (अलसी) दशनि. २३० खरस्सर (खरस्वर) सूनि.६७, ८१ इक्खु (इक्षु) दशनि. २३० गंडयजक्ख (गण्डकयक्ष) उनि.३२० ओदण (चावल) दशनि.२१८ चमर (चमर) आनि.३५४ कंगु (कंगु) दशनि.२२९ दोगुंदग (दोगुंदक) उनि.४०५, ४३२ कुलत्थ (कुलथी) दशनि. २३० धणु (धनु) सूनि.६७, ७७ कलाय (कलाय, मटर) दशनि. २३० मणिणाय (मणिनाग) उनि.१७२/६ कोद्दव (कोद्रव) दशनि.२२९ महाकाल (महाकाल) सूनि.६६, ७५ गोधुम (गेंहू) दशनि.२२९ महाघोस (महाघोष) सूनि.६७, ८२ जव (जौ) दशनि.२२९ मुग्गरपाणि (मुद्गरपाणि) उनि.१११ तिपुडग (त्रिपुटक) दशनि.२३० रुद्द (रुद्र) सूनि.७२ तिल (तिल) दशनि.२२९ रोद्द (रौद्र) सूनि.६६ तुवरी (अरहर) दशनि.२३० Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ नियुक्तिपंचक निप्फाव (निष्पाव) दशनि २३० मसूर (मसूर) दशनि २३० मास (उड़द) दशनि २२९ मुग्ग (मूंग) दशनि २२९ रायमास (राजमाष) दशनि २३० रालग (रालक) दशनि २२९ वीहि (व्रीहि) दशनि २२९ सट्ठीय (साठी चावल) दशनि २२९ सालि (शालि) दशनि २२९ सिलिंद (मोठ) दशनि २३० हरिमंथ (हरिमंथ) दशनि २३० नदी एवं समुद्र गंगा (गंगा) उनि १२१, १२५, ४६२, ४६५ मतगंगा (मृतगंगा) उनि ३१७ लवण (लवणसमुद्र) आनि ५० निह्नव एवं निववाद अबद्धिग (अबद्धिकवाद) उनि १६७ अव्वत्तवाय (अव्यक्तवाद) उनि १६७, १६८ आसमित्त (अश्वमित्र) उनि १६८, १७२/५ गंग (गंग) उनि १६९, १७२/६ गोट्ठमाहिल (गोष्ठामाहिल) उनि १६९ गोट्ठामाहिल (गोष्ठामाहिल) उनि १७२/१० छलुग (षडुलूक) उनि १६९ जमालि (जमालि) उनि १६८, १७२/२, सूनि १२५ जीवपदेस (जीवप्रादेशिकवाद) उनि १६८ तीसगुत्त (तिष्यगुप्त) उनि १६८, १७२/३ तेरासिय (त्रैराशिक) उनि १६९ दोकिरिया (द्वैक्रियवाद) उनि १६९ बहुरय (बहुरत) उनि १६७, १६८, बोडियलिंग (बोटिकलिंग) उनि १७२/१५ समुच्छ (सामुच्छेदवाद) उनि १६७ सिवभूइ (शिवभूति) उनि १७२/१३, १४ सामुच्छेद (सामुच्छेदवाद) उनि १६८ परिव्राजक और संन्यासी गोसाल (गोशाल) सूनि १९१, १९९ चरक (चरक) दशनि १३४, सूनि ११२ तिदंडिय (त्रिदंडी) सूनि १९१, १९९ दीवायण (द्वीपायन) दशनि ५२ पिंगल (पिंगल) दशनि ७९ पोट्टसाल (पोट्टशाल) उनि १७२/७ बंभवती (ब्रह्मवादी) उनि १९१ बंभी (ब्रह्मवादी) सूनि १९९ भिक्खु (बौद्ध भिक्षु) सूनि १९९ मरुग (मरुक) दशनि ३०७/१ वारिभद्दग (वारिभद्रक, शौचवादी) सूनि ९० हत्थितावस (हस्तितापस) सूनि १९१ पर्वत अट्ठावय (अष्टापद)उनि २८०, आनि ३५४, सूनि ४१ इंदपद (इंद्रपद) दनि ७७ उजिंत (उज्जयंत) आनि ३५४ गंधारगिरि (गांधारगिरि) दनि ९७ गयग्गपय (गजाग्रपद) आनि ३५४ मंदर (मंदर) दशनि ३३५, उनि २६३ आनि ४९, ३५३ महातव (महातप) उनि १७२/६ मेरु (मेरु) आनि ४९, ५० रहावत्तनग (रथावर्त) आनि ३५४ वेभारगिरि (वैभारगिरि) उनि ९२ वेयड्ड (वैताढ्य) उनि २८२ सिद्धपव्वत (सिद्धपर्वत) उनि २८२ । एवं ब्राह्मण इंददत्त (इन्द्रदत्त) उनि ११९, २४६ कासव (काश्यप) उनि २४६ जण्णदत्त (यज्ञदत्त) उनि १०९ पालक्क (पालक) उनि ११३ भिगु (भृगु) उनि ३५९, ३६६ वररुई (वररुचि) उनि १०१ सोमदत्त (सोमदत्त) उनि १०९ सोमदेव (सोमदेव) उनि १०९ Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १३ : वर्गीकृत विशेष नामानुक्रम ७०५ पुष्प चारित्तसमाहिपडिमा उप्पल (उत्पल) दशनि १३३ (चारित्रसमाधिप्रतिमा) दनि ४८ कमल (कमल) आनि २२९ जिणपडिमा (जिनप्रतिमा) दनि ४१ धायगी (धातकी) उनि १५१ पडिसंलीणपडिमा (प्रतिसंलीनप्रतिमा) दनि ४६ पउम (पद्म) सूनि १६३, १६४ भिक्खुपडिमा (भिक्षुप्रतिमा) दनि ४५ पाडल (पाटल) उनि १२५ मोयपडिमा (मोकप्रतिमा) दनि ४७ पोंडरीय (पोंडरीक) सूनि १४५ विवेगपडिमा (विवेकप्रतिमा) दनि ४६ मल्लिया (मल्लिका) उनि १४६ संजतपडिमा (संयतप्रतिमा) दनि ४१ सामलि (शाल्मलि) उनि १५२ समाधिपडिमा (समाधिप्रतिमा) दनि ४६ पृथ्वीकाय सामाइयसमाहिपडिमा (सामायिकसमाधिप्रतिमा) दनि ४८ अंजण (अंजन) आनि ७४ अब्भपडल (अभ्रपटल) आनि ७४ सुयसमाधिपडिमा (श्रुतसमाधिप्रतिमा) दनि ४८ अब्भवालुय (अभ्रबालुक) आनि ७४ प्रत्येकबुद्ध अय (लोह) आनि ७३ करकंडु (करकण्डु) उनि २५७, २५८ उवल (उपल) आनि ७३ दुम्मुह (दुर्मुख) उनि २५७, २५८ ऊस (ऊष) आनि ७३ नग्गति (नग्गति) उनि २५७ तउस (त्रपुष) आनि ७३ नमि (नमि) उनि २५३, २५५, २५७, २५८, तंब (तांबा) आनि ७३ २६३, २६४, २६६, २६७. बालुय (बालुक) आनि ७४ प्रासाद मणोसिला (मन:शिला) आनि ७४ नंदण (नंदन) उनि ४०५ रुप्प (चांदी) आनि ७३ पुंडरीय (पुण्डरीक) उनि ४३१, ४३२ लोण (लवण) आनि ७३ वंसीपासाय (वंशीप्रासाद) उनि ३३६ सक्करा (शर्करा) आनि ७३ फल सुवण्ण (स्वर्ण) आनि ७३ अंब (आम) उनि २५८ सासग (शस्यक) आनि ७४ अंबय (आम) उनि २४१ सिला (शिला) आनि ७३ किंपाग (किम्पाक) उनि ३९६ सीसग (शीशा) आनि ७३ महिंदफल (माहेन्द्रफल) उनि १४९ हरियाल (हरताल) आनि ७४ भावना हिंगुलय (हिंगलु) आनि ७४ अप्पमाय (अप्रमाद) आनि ३६१ प्रतिमा एगग्ग (एकाग्र) आनि ३६१ उवहाणपडिमा (उपधानप्रतिमा) दनि ४६ चरित्त (चारित्र) आनि ३५१ उवासगपडिमा (उपासकप्रतिमा) दनि ४९ तव (तप) आनि ३५१ एगराइय (एकरात्रिकी) उनि ४६८ दंसण (दर्शन) आनि ३५१ एगविहारपडिमा (एकलविहारप्रतिमा) दनि ४६ नाण (ज्ञान) आनि ३५१ चंदपडिमा (चन्द्रप्रतिमा) दनि ४७ वेरग्ग (वैराग्य) आनि ३५१, ३६१ Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ अप्फोव (अप्फोव) अभय (अभय) धणुय (धनुक ) रोहगुत्त (रोहगुप्त ) वरग (वरक) वरधणु ( वरधनु) वरधणुग ( वरधनुक) सगडाल (शकडाल) सिरिय (श्रीयक) मंडप मंत्री मणि अंक (पुलकमणि) इंदनील (इंद्रनील) गोमेज्जय (कर्केतन) चंदप्पभ (चन्द्रकान्त) जलकंत (जलकान्त) पवाल (प्रवाल) फलिह (स्फटिक) भुयमोयग (भुजमोचक) मरगय ( मरकत) मरण अंतिय (अत्यंत ) अंतोसल्ल (अंत:शल्य ) मसारगल्ल (मसारगल्ल) मोत्तिय (मोती) रुयग (रुचक) लोहियक्ख (पद्मराग, लोहिताक्ष) वेरुलिय (वैडूर्य) सूरकंत (सूर्यकान्त) अपरक्कम (अपराक्रम) आइयंतिय (आत्यन्तिक) आवीइय (आवीचि) आवीचि (आवीचि) उनि . ३९० दशनि. ५८, ७८, सूनि. ५७, १९४ उनि ३३० आनि . २२८ दनि. १०६ उनि ३३०, ३३७ उनि ३३७ उनि १०१ उनि . १०१ आनि. ७५ आनि. ७५ आनि. ७५ आनि. ७६ आनि. ७६ आनि.७४, सूनि. १५१ आनि. ७५ आनि. ७५ आनि. ७५ आनि. ७५ सूनि १५१ आनि. ७५ आनि. ७५ आनि. ७६ आनि. ७६ उनि २०५ उनि २०५ आनि. २८४ उनि २०९, २२३ उनि २२२ उनि २०५, २१५ निर्युक्तिपंचक इंगिणि (इंगिनी) उनि २०६, २२८, आनि. २७४, २८१, दनि ९५ उनि २०५, २०९, २१५ उनि २०६, २१७ ओहि (अवधि) केवलि (केवलिमरण) गिद्धपिट्ठ (गृद्धपृष्ठ ) उनि २०६, २१८, आनि. २७३ उनि २०६, २१७ छउमत्थ (छद्मस्थ) उनि २०५, २१४, २१५ उनि २०५, २१६ उनि २०६ उनि २२८, २७४, २८३, २८४, २९१ बाल (बाल) उनि २०५, २१६ उनि. २१६ बालपंडित (बालपंडित) भत्तपरिण्णा (भक्तपरिज्ञा) उनि २०६, २१९, २२८, आनि. २६३, २७३, २८१ उनि २०५ उनि २०५, २१० उनि २०५, २१० आनि. २८५ उनि २०६, आनि. २७३ उनि. २१८ उनि. २१२, २१३ तब्भव (तद्भव ) पंडिय (पंडित) पाओवगमण (प्रायोपगमन ) पायवगमण (प्रायोपगमन) २८१, मीस (बालपंडितमरण) वलाय (वलन्मरण) वसट्ट (वशार्त्त) वाघातिम (व्याघातिम) वेहाणस (वैहानस) वेहास (वैहानस) ससल्ल (सशल्य) महिला अचकारियभट्टा (अत्वंकारी भट्टा) दनि.१०४,१०६ खंदसिरी (स्कन्द श्री ) उनि . १११ उनि . ३१८ गंधारी (गांधारी) गोरी (गौरी) उनि . ३१८ उनि २४६ जसा (यशा) उनि. ९५, दनि ९६ उनि ९७ देवदत्ता (दासी) रुद्द सोमा (रुद्रसोमा) रूविणी (रूपिणी) वग्गुमती (वल्गुमती) वड्डुकुमारी (वृद्धकुमारी) वासिट्ठा (वाशिष्ठा) सुदंसणा (महावीर की बहिन) उनि ४३१, ४३२ आनि . ३२३ दशनि. ५८ उनि . ३५९, ३६६ उनि . १७२/२ Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १३ : वर्गीकृत विशेष नामानुक्रम ७०७ सुनंदा (सुनन्दा) उनि.२८८ सुभद्दा (सती) दशनि.६९ माप आढगम (आढक) उनि.१५१ करिस (कर्ष) उनि.१४७, ३३५ कुडव (कुडव) दशनि.२१०, आनि.८७, १४४ पत्थ (प्रस्थ) दशनि.२१०, आनि.८७, १४४ पल (पल) उनि.१४७ भाग (पलिका) उनि.१४७ मागह (मागध) उनि.१५१ मास (मासा) उनि.२४९ रयणि (रलि) उनि.१४९ धणगुत्त (धनगुप्त) उनि.१७२/६ धणमित्त (धनमित्र) उनि.९१ धणसम्म (धनशर्मा) उनि.९१ फग्गुरक्खिय (फल्गुरक्षित) उनि.९७ बलदेव (कृष्ण का भाई) उनि.११५ मणग (मनक) दशनि.१४, १७, ३४८ मुणिचंद (मुनिचन्द्र) उनि.३२५ रहनेमि (रथनेमि)उनि.४३७, ४३९, ४४१, ४४२,४४३ रोहगुत्त (रोहगुप्त) उनि.१७२/७ विजयघोस (विजयघोष) उनि.४५९, ४६१, ४७४, ४७६, संख (शंख) उनि.३१४, ३१५ संभूय (संभूत) उनि.३२२, ३२४ सागरचंद (सागरचन्द्र) उनि.३२५ सामइय (मुनि) सूनि.१९२ सुमणुभद्द (सुमनुभद्र) उनि.९४ सेवाल (शैवाल) उनि.२८९, २९१ सोमदेव (आर्यव्रज के पिता) उनि.९७, १०९ हत्थिमित्त (हस्तिमित्र) उनि.९० . हत्थिभूइ (हस्तिभूति) । उनि.९० मुद्रा कागिणी (काकिणी) उनि.२४१, ५३३ मुनि 11.९० रन । अद्दग (आर्द्रक) सूनि.१८८, १९१, २०० अद्दय (आर्द्रक) सूनि.१९३ अरहन्नय (अर्हन्नक) उनि.९३ अरहमित्त (अर्हन्मित्र) उनि.९३ असगड (अशकट) उनि.१२१ उदग (उदक) सूनि.२०५, २०६ कविल (कपिल) उनि.२४३, २४५-२४० कूलबाल (कूलबाल) सूनि.५७ कोडिन्न (कौडिन्य) उनि.१७२/५, २८६, २८९, १७२/१५ कोट्टवीर (कोट्टवीर) उनि.१७२/१५ खंदय (स्कन्दक) उनि. ११२,११३ गद्दभालि (गर्दभालि) उनि.३९० गागलि (गागलि) उनि.२७८ चित्त (चित्र) उनि.३२२, ३२४, ३४७, ३३१ जयघोस (जयघोष) उनि.४५९, ४६१, ४६२ ४६५, ४७०, ४७४, ४७६ ढंढ (ढण्ढ) उनि.११५ दत्त (दत्त) उनि.९३, १०७ दिन (दत्त) उनि.२८९ अगरु (अगरु) आमिल (ऊनी वस्त्र) कट्ठ (काष्ठ) गंध (सौगंधिक द्रव्य) चंदण (चन्दन) चम्म (चर्म,सिंह आदि का) तउ (कलई) तंब (ताम्र) तिणिस (तिनिश) दंत (दांत, हाथी आदि के ) दव्वोसह (पीपर आदि औषधि) पवाल (प्रवाल) पासाण (विजातीय रत्न) बाल (चमरी गाय के बाल) दशनि.२३२ दशनि.२३२ दशनि.२३२ दशनि.२३२ दशनि.२३२ दशनि.२३२ दशनि.२३१ दशनि.२३१ दशनि.२३२ दशनि.२३२ दशनि.२३२ दशनि.२३१ दशनि.२३१ दशनि.२३२ Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ मणि (मणि) मोत्तिय (मुक्ता) यय (चांदी) लोह (लोहा) वइर (वज्र ) वत्थ (वस्त्र) संख (शंख) सीसग (सीसा) सुवण (स्वर्ण) हिरण्ण (रुपया) अद्दसुत (आर्द्रककुमार ) कालवेसिय (कालवैशिक) दढनेमि (दृढ़नेमि) पोंडरीय (पुण्डरीक) बलसिरी (बलश्री) भद्द (भद्र) राजकुमार महासाल ( महाशाल) सच्चनेमि (सत्यनेमि ) साल (शाल) अद्द (आर्द्र) उदयण (उदयन) उद्दायण (उद्रायण) उसभ (ऋषभ) राजा उसुयार (इषुकार) कंपिल (काम्पिल्य) कडग (कटक) कडय (कटक) कणेरुदत्त (कणेरुदत्त) कित्तिसेण (कीर्तिसेन ) कोणिय (कोणिक) चंडवडिंसय (चन्द्रावतंसक) चारुदत्त ( चारुदत्त) चित्तसेण (चित्तसेनक) दशनि २३१ दशनि. २३१ दशनि २३१ दशनि २३१ दशनि. २३१ दशनि. २३२ दशनि. २३२ दशनि. २३१ दशनि. २३१, ३२५ दशनि. २३१ सूनि. १८८ उनि . ११६ उनि . ४४१ उनि २८६, २८८ उनि ४०२, ४०४ उनि ११७ उनि २७७ सूनि . १८८ उनि १४८ दनि. ९६ उनि ३३२ उनि ३५३, ३५५, ३५९ उनि . ३६५ उनि . ३२८ उनि . ४४१, ४४२ उनि २७७ उनि ३२८, ३४९ उनि . ३२८ उनि . ३३१ दशनि. ७४ उनि . ३२५ उनि ३३२ उनि ३३१ जियसत्तु (जितशत्रु) दंडड़ (दंडकी) दंडगी (दंडकी) नंद (नन्द) दीह (दीर्घ) पंथक (पन्थक) पज्जुनसेण (प्रद्युम्नसेन) पज्जोय (प्रद्योत ) पसेणई (प्रसेनजित्) पुप्फचूल (पुष्पचूल) पोत (पोत) बंभ (ब्रह्म) उनि ३२८, ३४६ उनि ३३१ उनि ३३४ दशनि. ७८, उनि ९५, ९६, सूनि ५७, दनि ९२,९७ उनि २४६ उनि . ३२८ उनि . ३३३ उनि . ३२८ उनि . १७२/४, ४०३ उनि . १७२/७ बलभद्द ( बलभद्र ) बलसिरि (बलश्री) भिकुंडि (निकुंडि) मिहिलापति (नमिराजा) मिहिलाहिव (नमिराजा) विसाहदत्त (विशाखदत्त) संजत (संजय) संजय (संजय) समुद्दविजय (समुद्रविजय) सीमंधर (सीमन्धर) रानी इंदजसा (इंद्रयशा) इंदवसु (इन्द्रवसु) इसिवुड्ढि (ऋषिवृद्धि ) इंदसिरी (इन्द्रश्री) कच्चाइणी (कात्यायनी) कमलावई (कमलावती ) करेणुदत्ता (करेणुदत्ता) करेणुपदिगा (करेणुपतिका) करेणुसेणा (करेणुसेना) कित्तिमई (कीर्तिमती ) कुंजरसेणा (कुंजरसेना) निर्युक्तिपंचक उनि ११२, ३४३ उनि . ११३ उनि ११२ उनि . १०१ उनि . ३४३ उनि. २६३ उनि २६७ उनि ३४४ उनि . ३८८, ३९४ उनि . ३८५, ३८६ उनि ४४० उनि . ३६६ उनि ३३० उनि ३३० उनि ३३५ उनि ३३० उनि ३३२ उनि . ३५९ उनि ३३५ उनि ३३५ उनि ३३५ उनि ३३१ उनि ३३५ Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १३ : वर्गीकृत विशेष नामानुक्रम कुरुमती (कुरुमती) उनि.३३५, ३५२ कुसकुंडी (कुसकुंडी) उनि.३४३ गोदत्ता (गोदत्ता) उनि.३३५ चुलणि (चुलनी) उनि.३३० जसवई (यशोमती) उनि.३३२ दीवसिहा (दीपशिखा) उनि.३३३ देवी (देवी) उनि.३३२ धारिणी (धारिणी) उनि.११२ नागजसा (नागयशा) उनि.३३१ नागदत्ता (नागदत्ता) उनि.३३२ पतिगा (पतिका) उनि.३३४ पभावई (प्रभावती) उनि.९६, दनि.९६ पिंगला (पिंगला) उनि.३३३ पुत्थी (पुस्ती) उनि.३३३ पुरंदरजसा (पुरन्दरयशा) उनि.११२, ११३ भद्दा (भद्रा) उनि.३३१ मलयवती (मलयवती) उनि.३३४ मिगदेवी (मृगादेवी) उनि.४०२ मिगा (मृगादेवी) उनि.४०३ रयणवई (रत्नवती) उनि.३३२ वच्छी (वत्सी) उनि.३३२ वणराइ (वनराजि) उनि.३३४ वाणीरा (वानीरा) उनि.३३४ वासवदत्ता (वासवदत्ता) उनि.१४८ विजुमती (विद्युन्मती) उनि.३३१ विज्जुमाला (विद्युन्माला) उनि.३३१ सिला (शिला) उनि.३३२ सिवा (शिवा) उनि.४४० सुभद्दा (सुभद्रा) उनि.३१७ सोमा (सोमा) उनि.३३४ हरिएसा (हरिकेशा) उनि.३३५ रोग अच्छिवेयणा (अक्षिवेदना) उनि.८५ अभत्तछंद (अजीर्ण) उनि.८५ अवहेडग (अर्धशिरोरोग) उनि.१५० आमदोस (आमदोष) दशनि.३४१ कंडु (खाज) उनि.८५, १५० कास (खांसी) उनि.८५ कुच्छिवेयणा (कुक्षिवेदना) उनि.८५ चाउत्थिग (ज्वरविशेष) उनि.१५० जर (ज्वर) उनि.८५ तिमिर (आंख का रोग) उनि.१५० तेइज्जग (ज्वर विशेष) उनि.१५० मूसगावरद्ध (चूहे का काटा हुआ) उनि.१५० सप्पावरद्ध (सांप का काटा हुआ) उनि.१५० सास ( वास रोग) उनि.८५ सिरोरोग (शिरोरोग) उनि.१५० हिययसूल (हृदयशूल) उनि.१७२/४ लब्धि सव्वक्खरसन्निवाय (सर्वाक्षरसन्निपात)सूनि.१८९ वनस्पति अवय (अवक) आनि.१४१ उच्छु (इक्षु) दशनि.२७७ ओसिर (ओसीर) दशनि.१४७ कणगमूल (कनकमूल) उनि.१४९ कणियार (कनेर) दशनि.१३३ कत्थ (कत्थ) आनि.१४१ करमंदि (करमर्दी, गुल्मविशेष) उनि.४८६ किण्हय (किण्व) आनि.१४१ खइर (खदिर) आनि.२४० जमदग्गिजडा (जमदग्निजटा) उनि.१४६ तंबोल (तंबोल) आनि.२८७ तमालपत्र (तमालपत्र) उनि.१४७ तिणिस (तिनिस) दशनि.१३३ दक्खा (द्राक्षा) उनि.१५१ धायगी (धातकी) उनि.१५१ पणय (पनक) आनि.१४१ बिल्ल (बेल) उनि.१४० भाणिय (भाणिक) आनि.१४१ Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० नियुक्तिपंचक राई (राई) उनि.१४० वाद्य वंस (बांस) दनि.१०३ तूर (तूर्य) उनि.१५२ वेत्त (बांस) सूनि.१०८ नंदी (वाद्य) उनि. २६ सतपुप्फ (शतपुष्प) उनि.१४७ मुकुंद (मुकुन्द) उनि.१५२ सपिण्णिय (तमालपत्र) उनि.१४६ संख (शंख) सूनि.७ सबरनियंसणिय (शबरनिवसनक) उनि.१४६ वायु सरस (आर्द्रक) उनि.१४९ उक्कलिया (उत्कलिका) आनि.१६६ सरिसव (सर्षप) उनि.१४० गुंजा (गुंजा) आनि.१६६ सेवाल (शैवाल) आनि.१४१ घणवाय (घनवात) आनि.१६६ हड (हट) आनि.१४१ मंडलिया (मंडलिका) आनि.१६६ हरेणुया (प्रियंगु) उनि.१४६ सुद्धवाय (शुद्धवात) आनि.१६६ हलिद्दा (हरिद्रा) दनि.१०३ वाहन हिरिबेर (हीबेर) उनि.१४७ नावा (नौका) आनि.३३४ वर्णान्तर रह (रथ) उनि.४६ अंबट (अम्बष्ठ) आनि.२२, २३, २६ सगड (शकट) उनि.१८६ अंबट्ठी (अम्बष्ठी) आनि.२६ विद्याविशेष अजोगव (अयोगव) आनि.२२, २४ उलुगी (उलूकी, काकविद्या उग्ग (उग्र) आनि.२२, २३, २६ की प्रतिपक्षी) उनि.१७२/९ कुक्कुरअ (कुक्कुरक) ओवाई (उल्लावकी, पोताकीविद्या खत्त (क्षत्र) आनि.२२, २४, २६ की प्रतिपक्षी) उनि.१७२/९ खत्ता (क्षत्रिया) आनि. २६ कागी (काकीविद्या) उनि.१७२।८ चंडाल (चाण्डाल) उनि.३१६, आनि. २२, २५ नउली (नाकुली, सर्पविद्या निसादी (निषादी) आनि.२७ की प्रतिपक्षी) उनि.१७२/९ पोयाई (पोताकीविद्या) उनि.१७२८ निसाय (निषाद) आनि.२२, २३, २६ बिराली (बिडाली, मूषकविद्या परासर (पराशर) आनि.२३ की प्रतिपक्षी) उनि.१७२/९ बुक्कस (बुक्कस) आनि.२६ मिगी (मृगीविद्या) उनि.१७२।८ मागह (मागध) आनि.२२, २४ मूसग (मूषकविद्या) उनि.१७२८ वेणव (वेणव) आनि.२६ मोरी (मायूरी, वृश्चिकविद्या विदेह (विदेह) आनि.२६ की प्रतिपक्षी) उनि.१७२/९ वेदेह (वेदेह) आनि.२२, २४ वग्घी (व्याघ्री, मृगीविद्या सुद्द (शूद्र) आनि.२४, २६, २७ की प्रतिपक्षी) उनि.१७२/९ सुद्दी (शूद्री) आनि.२६ वराही (वराहीविद्या) उनि.१७२/८ सूय (सूत) आनि.२२, २४ विच्छुय (वृश्चिकविद्या) उनि.१७२।८ सोवाग (श्वपाक) आनि.२६ सप्प (सर्पविद्या) उनि.१७२/८ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १३ : वर्गीकृत विशेष नामानुक्रम ७११ सीही (सिंही, वराही विद्या कप्पणी (करवत) आनि.१४९ की प्रतिपक्षी) उनि. १७२/९ करकय (करवत) सूनि.८१ विशिष्ट मुनि कुद्दाल (कुदाल) आनि.९५ अहालंद (यथालंदक) दनि.६२ कुहाडि (कुठारी) आनि.१४९ आयारधर (आचारधर) आनि.१० कोंत (भाला) सूनि.७२ सव्वक्खरसन्निवाइ (सर्वाक्षरसन्निपाती)उनि ३१० चक्क (चक्र) उनि.१६१ तिसूल (त्रिशूल) सूनि.७२ वृक्ष अहिमार (अभिमार) तोमर (भाला) सूनि.७२ उनि.१५२ आनि.२४० दत्तिय (दांती) आनि.१४९ एरंड (एरण्ड) चूतरुक्ख (आम्रवृक्ष) उनि.३७० उनि.२६८ परसु (परशु) मंडलग्ग (मण्डलाग्र) उनि.३४८ चूयपादव (आम्रवृक्ष) सूनि.५१ मुग्गर (मुद्गर) आनि.१३३ उनि.८८ ताल (ताड़) वासि (वसौला) नालिएर (नारियल) आनि.१३३ आनि.१४९ सत्ति (शक्ति, सांग) भद्ददारु (देवदारु) उनि.१४७ सूनि.७२ दशनि.१३३ सूइय (सूई) वंजुल (वञ्जुल) सूनि.७२ उनि.३३७ सूल (शूल) सूनि.७२ वडपायव (वटवृक्ष) सरल (चीड़) आनि.१३३ श्रमणोपासक सिंबलि (सिम्बलि) सूनि.८१ खंडरक्खा (खंडरक्षा) उनि.१७२/५ व्यक्ति गंधार (गान्धार) उनि.९५ ढंक (ढंक) उनि.१७२/२ अज्जुणय (अर्जुनमाली) उनि.१११ मित्तसिरी (मित्रश्री) उनि.१७२/३ उक्कल (उत्कल) आनि.३२३ उनि.११८ कंचुग (कंचुक) उनि.३५२ सुनन्द (सुनन्द) कलिंग (कलिंग) आनि.३२३ श्रेष्ठी गोतम (गौतम नैमित्तिक) आनि.३२३ कुरुदत्त (कुरुदत्त) उनि.१०८ दुरूतग (दुरूतग ग्रामीण) दनि.९४ तावस (तापस) उनि.१०० देवदत्त (देवदत्त) दशनि.६० दारुय (दारुक) उनि.३३३, ३५१ नलदाम (जुलाहा) दशनि.७७ धण (धन) उनि.२४६, दनि.१०८ परासर (पाराशर कृषक) उनि.११५ धणगिरि (धनगिरि) उनि.२८८ बलभद्द (बलभद्र चोर) उनि.२५१ धणदेव (धनदेव) उनि.३३३ मरुय (मरुक किसान) दनि.१०४, १०५ पज्जुण्ण (प्रद्युम्न) उनि.३५२ शस्त्र वसुमित्त (वसुमित्र) उनि.३३३ असि (तलवार) सूनि.७२ सागरदत्त (सागरदत्त) उनि.३३३ असिय (तलवार) दनि.१०० सालिभद्द (शालिभद्र) उनि.२४६ असियग (तलवार) आनि.१४९ सिंधुदत्त (सिन्धुदत्त) उनि.३३४ आलित्त (आलित्रक) आनि.९५ सिंधुसेण (सिंधुसेन) उनि.३३४ Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ नियुक्तिपंचक दशनि.७२ उनि.४४४ सिवदत्त (शिवदत्त वणिक्) उनि.३४४ सुंदसण (सुदर्शन) उनि.१११, ३३३, ३५१ संस्थान आयय (आयत) उनि.३८, ४०, ४१ चउरंस (चतुरस्र) उनि.३८, ४० तंस (त्र्यस्र) उनि.३८, ३९ परिमंडल (परिमण्डल) उनि.३८ परिमंडलग (परिमण्डल) उनि.४१ वट्ट (वृत्त) उनि.३८ साध्वी अणोज्जा (अनवद्या) उनि.१७२/२ पंडरज्जा (पाण्डुरा) दनि.११०, १०४ भद्दा (भद्रा) उनि.९३ मिगावई (मृगावती) रायमती (राजीमती) सार्थवाह उदधि (उदधि) पालिग (पालिक) पालिय (पालिक) समुद्दपाल (समुद्रपाल) हेतु जावग (यापक) थावग (स्थापक) लूसग (लूषक) वंसग (व्यंसक) उनि.४२९ उनि. ४२५ उनि.४२९ उनि.४२८ दशनि.८३, ८४ दशनि.८३, ८४ दशनि.८३, ८५ दशनि.८३, ८५ Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग अकारकवाद अग्र अजीव अध्ययन अनगार अनशन अनाचार अनुयोग अप्काय अप्रमाद अर्थ अलं अवग्रह अवयव अहिंसा आचार आचारांग आचाराग्र आचार्य आजाति/ निदान आत्मकर्तृत्ववाद आत्मा वर्गीकृत विषयानुक्रम उनि १४४-६२ सूनि. ३४, ३५ आनि. ३०५-३०७ उनि ५४६, ५४७ दशनि २६, २७, ३०, उनि ५ ७, ९, ११, २८/३, ४, ५३८, ५३९, सूनि . १४३, उनि ५४१, ५४२ आनि. २८७ दशनि २४४ दशनि. ३-५ आनि. १०६-१५ उनि ४९९, ५०० दशनि २२६-३५ सूनि २०२, २०३ आनि. ३३९-४२ दशनि. १२३ - १२३/११ दशनि. ४२, आनि. २२६, २२७ दशनि. १५४ - ६१, उनि. ४७९ आनि. ७-१७, ३१-३५, १९७ ९९, २१५, २१६, २३६-३८, २५०, २५१, २५३-६३, २६७, २६८, २७१-७५, २९५, २९९ आनि. ३०७-११, ३१७, ३२६, ३२७, ३३४, ३३५, ३४३, ३६४ दशनि. २८, उनि ८, सूनि . १३०, १३१ दनि. १२९ - ३७, १४२ दशनि. ७१, २०२ दशनि. ५९-६१, ७३-७६, आत्मा की परिणमनशीलता आर्द्रक आशातना आहार इषुकार ईर्या उच्चार- प्रस्रवण उत्तर उत्तराध्ययन उदाहरण उपधान उपसर्ग उपासक उपासक-प्रतिमा उरभ्र कथा कपिल करण कर्म कषाय काम कामगुण कामलालसा कुशील कोटि क्रिया २०१ परिशिष्ट १४ दशनि. ६२ सूनि . १८८ - २०१ दनि. १५-१९,२४ सूनि . १७० - ७८ उनि ३५३-६६ आनि. ३२८-३३ आनि. ३४४, ३४५ उनि १, २ उनि ३, ४, १३- २७, ५५२ ५४ दशनि. ४७-८२ आनि. ३००-३०४ सूनि. ४७-५० दनि ३५-३७, ३९ दनि ४४/१ उनि २३८ - २४२/१ दशनि. १६२-८८ उनि २४३-५२ उनि १७६ - ९७, सूनि ४- १६ उनि ५२२ - २४, आनि. १९३ १५, दनि. १२४ - २६ दशनि २७६ - ७८, आनि. १९१, दनि. १०१-१०४/१ दशनि. १३७ - ४१, २३६-३९, उनि २०० आनि. १८६ आनि. २३३, २३४ सूनि ९० दशनि. २१९/१-२२१/१ सूनि. १६६, १६७ Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ नियुक्तिपंचक क्षुल्लक खलुंक गद्यकाव्य गणी गति गाथा गुण गुणश्रेणिविकास गेय गौतम ग्रंथ द्रुम चतुर्वर्ण चरण चारित्रआचार धुत चित्त नय चित्र-संभूत चूड़ा जयघोष उनि.४१६ दशवैकालिक दशनि.७-२५,१८९,२८५, उनि.४८२-९० ३४८, ३४९ दशनि.१४७ दशा दनि.२-७ दनि. २५-२८, ३०, ३१ दिशा आनि ४०-६२ उनि.४९५, ४९६ दीप उनि.१९८, १९९ सूनि.२३, १३७-४० दशनि.३१, ३२, उनि २७३-७६ आनि. १७९-८२ द्रुमपुष्पिका दशनि.३४ आनि. २२३, २२४ द्वीप उनि.१९८, १९९ दशनि.१४९ द्रुष्प्रणिहित दशनि. २८२ उनि.२७७-३०२, ४४५-४७ धर्म दशनि. ३६-४०,८६-९०, उनि.२३४-३६ २२३-२५, २४१, सूनि.९९आनि.१९ १०१ उनि. ३७७, ५०९, ५१०, धर्मप्राप्ति के आनि.२९, ३० बाधक तत्व उनि.१६३, १६४ दशनि.१५९ आनि.२५१, २५२ दनि.३२-३३/१ नमि उनि.२५३-५५,२६३-६७ उनि.३२२-२७ दशनि.१२५, १२६ दशनि.३३४-३६ नरक सूनि.६२, ६३ उनि.४६०-७६ नारकीय वेदना सूनि.६५ आनि.३३६ निक्षेप आनि.४ आनि.६३-६७ नित्यानित्यवाद दशनि.५५,५६ दशनि. १९३-२०९, उनि. निर्ग्रन्थ उनि.२३१-३३, २३७, ४१७ ४२२ ५४४, ५४५ निह्नववाद उनि.१६७-१७२/१५ दशनि.१९९,२०० पंचभूतवाद सूनि.३३ दशनि.६६-६८ पद दशनि.१४२-५२ दशनि.१५८ पद्य दशनि.१४८ सूनि.१२२-१२४ परमाधार्मिक देव सूनि.६६-८२ दशनि. ४४, ४५, उनि.५०५, . परिज्ञा आनि.३७, २६७-६९, ५०६, आनि. २०९,२९२, सूनि.१७९ २९३, २९६,२९८ परीषह उनि.६६-१४१, आनि.२०२दशनि.१६० २०४ आनि.२९५-९७ पर्युषणा दनि.५३-१००, १०५-२० आनि.११६-२५ पाप उनि.३८०, ३८१ आनि.१५२-६३ पिंडैषणा दशनि.२१७/१-२१९ दशनि.२२३-२४०/१ पुण्डरीक सूनि.१४४-१६५ दशनि.१५७, १५७/१ पुष्प दशनि.३३ जात जातिस्मृति जीव जीव के लक्षण जीवत्व-सिद्धि ज्ञान आचार तथ्य तप तप आचार तीर्थंकर तेजस्काय त्रसकाय त्रिवर्ग दर्शन आचार Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १४ : वर्गीकृत विषयानुक्रम ७१५ पुरुष पूजा पृथ्वीकाय प्रकृति प्रणिधि प्रतिमा प्रतिमाप्रतिपन्न के गुण प्रत्याख्यान प्रत्येकबुद्ध प्रमाद आनि.३१५, ३१६ दशनि. ९२-१०५, ११३१२०/४ उनि.४९३, ४९४, सूनि.१०७११५ उनि.१६५, आनि.२२०, २२१ दशनि.२५१ आनि.१८३, १८४ उनि.३९९-४१५ दशनि. २५० उनि.४९१, ४९२ आनि.१८७-८९, दनि.१२१-२३ दनि.१२७, १२८ उनि.४५७-५९ दशनि. ३३७-३९, ३४१, प्रवचन प्रवचनमाता ३४२ प्रव्रज्या बंध बहु सूनि. ५६ महाव्रत उनि.३०८-१० माधुकरी भिक्षा दशनि.१३६ आनि.६८-१०५ मार्ग उनि.५२५-२८ दशनि.२६९-७५, २७९-८१ मिथ्यादृष्टि दनि.४१,४२, ४६-५०, मिश्रभाषा मूल दनि. ५१. ५२ मृगापुत्र सूनि.१८०, १८१ मृषाभाषा उनि.२५७-७२ मोक्ष उनि.१७३, १७४, ५१७-२१, मोह ५१४,५१५ मोहनीय स्थान उनि. ४५२, ४५३ यज्ञ उनि.४५६ रति उनि. २५६ दनि.१३८-४१ रथनेमि उनि.३०३, ३०४ लेश्या उनि.३७५, ३७६, आनि.१८, २८ लोकसार उनि.३३०-५२ वनस्पतिकाय दनि.१ वर्णान्तर आनि.३४९-६३ वाक्य दशनि.२४७-५८ वायुकाय दशनि.२६६-६८ विकथा दशनि.३०७-२५, ३३०-३३, विजयघोष उनि.३६७-७२ विधि दशनि.४१ विनय सनि.४३, ४४ विभक्ति आनि. १९६ विमोक्ष उनि.२०१-२९, आनि.२८२-८६ विहंगम दशनि. १५३, उनि. २३०, वीर्य आनि. २६४-६६, सूनि.८३, वीर्याचार १४२ व्यवहार भाषा ब्रह्म लोक ब्रह्मदत्त भद्रबाहु भावना भाषा भाषाविवेक भिक्षु उनि. ४३७-४४ उनि. ५२९-३७, ५४० दशनि.२१०, आनि.१७६-७८ आनि. २४४, २४५ दशनि.२१५ आनि.१२६-५१ आनि. २०-२७ दशनि.२४५, २४६ आनि.१६५-७२ दशनि.१८०, १८२, १८४ उनि.४७०-७६ उनि.५११-१३ दशनि.२८६-३०३ उनि.५४८-५१, सूनि.६४ आनि.२७६-८१ दशनि. १०७-१२ सूनि.९१-९७ दशनि.१६१ दशनि.२५२, २५३ मंगल मद ममत्व मरण महत् Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ शबल शय्या शस्त्र शिष्य शीत शील शीलवादी शुद्धि शूर शैक्ष श्रमण श्रुत संजय संज्ञा संपदा संयम संयोग संलेखना संसार सत्यभाषा समय दनि. १२-१४ आनि. ३२१-२५ दशनि २१३, २१४, आनि. ३६, सूनि. ९८ सूनि . १२७ आनि. २००, २०२, २०५-२०७ सूनि. ८६, ८७ सूनि. ८९ दर्शन. २५९-६३ सूनि. ६० सूनि . १२८, १२९ दशनि. १२८-३५, २४३, उनि ३८२-८४ आनि. २१० १२, २२५ उनि २९,३०५ - ३०७ ५०१-५०३ उनि ३८५-९८ आनि. ३८, ३९ दनि. २९ दशनि. ४३, आनि. ३१३, ३१४ उनि ३० - ६४ आनि. २८८- ९१ आनि. १९२, १९२ / १ दशनि २४९ सूनि . ३२ समवसरण समाधि समुद्रपाल सम्यक् चारित्र सम्यक्त्व सम्यग्दृष्टि साधु साधुचर्या सामाचारी सार सिद्धि सुप्रणिहित सूत्र सूत्रकृतांग स्तुति स्त्री स्थान स्थावरकाय में वेदना स्वर्ण हरिकेशबल हेतु निर्युक्तिपंचक सूनि ११६ -- २० दशनि. ३०४, उनि ३७८, सूनि . १०४ - १०६, दनि. ९, ३३ / २,३४ उनि ४२३-३६ आनि. २३५ आनि. २१७-१९ उनि. १६६, आनि. २२२ दशनि. १२१, १२२ दशनि. ३४७ उनि ४७७-८१ आनि. २४०-४३ दशनि. ३४३ दशनि. २८३ सूनि . ३ सूनि. २,१८ - २२,२४-३१ सूनि . ८४ सूनि. ५५, ५७-५९,६१ उनि ५१६, ३७९, आनि. १८५, सूनि. १६८, दनि. १० आनि ९७, ९८ दशनि. ३२६-२८ उनि ३११-२१ दशनि. ८३-८५ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थ सूची ग्रन्थ नाम लेखक, संपा., व्या., अनु. | संस्करण प्रकाशक अणुओगदाराई | प्रसं. १९९६ | जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. आचार्य महाप्रज्ञ जिनदासगणी अनुयोगद्धार चूर्णि अनुवाद कला डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर अष्टाध्यायी भाष्य प्रथमावृत्ति || पतञ्जलि भाग १ अष्टाध्यायी भाष्य प्रथमावृत्ति पतञ्जलि प्रसं. १९२८ | श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम | द्विसं. १९९० | प्रभात प्रकाशन, दिल्ली चसं. १९९२ | रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़ चसं १९८९ श्री रामलाल कपूर ट्रस्ट, अमृतसर भाग-२ | पं. दलसुखभाई मालवणिया द्विसं. १९९० | प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर आगम युग का जैन दर्शन आचारांग चिंतामणि टीका आचारांग चूर्णि जिनदासगणी प्रसं. १९४१ | श्रीऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम प्रसं. १९७८ मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली प्रसं. १९९९ | जैन विश्व भारती, लाडनूं आचारांग टीका आचारांग नियुक्ति (नियुक्तिपंचक) आचारांगभाष्यम् प्रसं. १९९४ | जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं आचार्य शीलांक वा. प्र. गणाधिपति तुलसी प्रसंपा. आचार्य महाप्रज्ञ संपा. समणी कुसुमप्रज्ञा वा. प्र. गणाधिपति तुलसी भा. आचार्य महाप्रज्ञ संपा. शूबिंग वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. मुनि नथमल जिनदासगणी आचारांगसूत्रम् आयारो प्रसं.वि. २०३१/ जैन विश्व भारती, लाडनूं आवश्यकचूर्णि (पूर्वभाग) आवश्यकचूर्णि (उत्तरभाग) जिनदासगणी आवश्यकनियुक्ति भाग १, २ | आचार्य भद्रबाहु प्रसं. १९२८ श्रीऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम प्रसं. १९२९ वही प्रसं.वि. २०३८ श्री भैरुलाल कन्हैयालाल कोठारी, धार्मिक ट्रस्ट, मुम्बई | प्रसं. १९२८ | आगमोदय समिति, बम्बई आवश्यकनियुक्ति मलयगिरि | आचार्य मलयगिरि टीका Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ ग्रन्थ नाम आवश्यक निर्युक्ति हारिभद्रीय टीका आवश्यक निर्युक्ति हारिभद्रीय टीका आवश्यक संग्रहणी उत्तराध्ययन, भाग १ उत्तराध्ययन, भाग २ उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक अध्ययन उत्तराध्ययन सुखबोधा टीका ऋग्वेद संहिता ओघनियुक्ति ओघनियुक्ति द्रोणाचार्य टीका कर्मग्रन्थ ( शतक) कर्म प्रकृति कषाय पाहुड़ - भाग १ कामसूत्र उत्तराध्ययनचूर्ण उत्तराध्ययननियुक्ति (निर्युक्तिपंचक) उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य टीका शांत्याचार्य लेखक, संपा., व्या., अनु. संस्करण आचार्य हरिभद्र प्रसं वि. २०३८ आचार्य हरिभद्र वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ वा. प्र. आचार्य तुलसी विवेचक मुनि नथमल जिनदासगणी | आचार्य भद्रबाहु संपा. समणी कुसुमप्रज्ञा आचार्य नेमिचन्द्र संपा. नारायण शर्मा चिंतामणि शर्मा | आचार्य भद्रबाहु द्रोणाचार्य व्या. मुनि श्री मिश्रीमल आचार्य गुणधर चूर्णिकार यतिवृषभ | संपा. फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री वात्स्यायन अनु. एस. सी. उपाध्याय प्रसं. वि. २०३८ द्विसं. १९९२ द्विसं. १९९३ प्रसं. १९६८ प्रसं. १९३३ प्रसं. १९९९ प्रसं. १९१७ प्रसं. १९३७ प्रसं. १९४६ सं. १९१९ सं. १९१९ प्रसं. १९७६ प्रसं. १९७४ नियुक्ति पंचक प्रकाशक भेरुलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, बम्बई भेरुलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, बम्बई जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता - । ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम जैन विश्व भारती, लाडनूं देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, बम्बई पुष्पचन्द्र खेमचन्द्र वलाद वैदिक संशोधन मण्डल, तिलक मेमोरियल, पूना - २ आगमोदय समिति, मेहसाणा देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सूरत श्री मरुधरकेसरी साहित्य प्रकाशन समिति ब्यावर भा. दि. जैन संघ, चौरासी, मथुरा तेरापुरावाला २१०, रोड, बम्बई नौरोजी Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थ सूची ७१९ ग्रन्थ नाम प्रकाशक | लेखक, संपा., व्या., अनु.] संस्करण स्वामीकुमार तृसं. १९९० कार्तिकेयानुप्रेक्षा श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास कौटिलीय अर्थशास्त्र ले. चाणक्य संपा. वाचस्पति गैरोला संपा.पं.दलसुखभाई मालवणिया चसं. १९९१ प्रसं. १९८२ चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी राजस्थान प्राकृत-भारती, जयपुर गणधरवाद गीता द्विसं.वि.२०५३ - गीता प्रेस, गोरखपर १९९२ गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव | डॉ. सागरमल जैन और विकास पार्श्वनाथ विद्यापीठ शोध संस्थान, वाराणसी गोम्मटसार (जीवकाण्ड) चामुण्डराय प्रसं. १९७२ श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, अगास गौतमधर्मसूत्राणि संपा. डॉ. उमेश्चन्द्र पाण्डेय | प्रसं.१९६६ चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी चंदावेज्झय पइण्ण्य प्रसं.१९८४ | श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई प्रसं. १९८९ । जैन विश्व भारती, लाडनूं जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति (उवंगसुत्ताणि खण्ड-२) वा.प्र. आचार्य तुलसी संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका आचार्य शांतिचन्द्र | प्रसं. १९२० जयधवला संपा फूलचन्द सिद्धान्त शास्त्री | प्रसं. १९७४ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, बम्बई वर्धमान मुद्रणालय गौरीगंज, वाराणसी - १ हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग जातक द्विसं. १९८२ जीतकल्पचूर्णि जीतकल्पभाष्य अनु. भदन्त आनन्द कौसल्यायन आ. सिद्धसेनगणी संपा. जिनविजय जी जिनभद्रगणी संपा. मुनि पुण्यविजयजी वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ डॉ. जगदीशचन्द्र जैन प्रसं. १९२६ जैन साहित्य संशोधक समिति, अहमदाबाद बबलचन्द्र केशवलाल मोदी, अहमदाबाद प्रसं. १९८७ ।। जैन विश्व भारती, लाडनूं प्रसं. १९६५ चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी जीवाजीवाभिगम (उवंगसुत्ताणि खण्ड१) जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज जैन धर्म जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education Yhternational पं. कैलाशचन्द शास्त्री चसं.१९६६ । डॉ. देवीप्रसाद मिश्र प्रसं.१९८८ भा. दि. जैन संघ, मथुरा हिन्दुस्तानी ऐकेडमी, इलाहाबाद Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० निर्यात पचक ग्रन्थ नाम लेखक, संपा., व्या., अनु.| संस्करण प्रकाशक डॉ. मोहनचंद | प्रसं. १९८९ / इस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग २ डॉ. मोहनलाल मेहता डॉ. जगदीशचन्द्र जैन आचार्य तुलसी संपा. मुनि नथमल वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. मुनि नथमल | द्विसं. १९८९ / पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध, संस्थान, वाराणसी | चसं: १९९६ आदर्श साहित्य संघ, चूरू जैनसिद्धान्तदीपिका प्रसं. १९७४ | जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) ज्ञाताधर्मकथा (अंगसुत्ताणि भाग-३) ठाणं | प्रसं.वि.२०३३ वा.प्र. आचार्य तुलसी संपा. मुनि नथमल जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज) प्रसं. १९८४ | श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई | तृसं. १९८९ भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली संपा. प्रो. महेन्द्रकुमार तंदुलवेयालिय पइण्णय तत्त्वार्थवार्तिक (राजवार्तिक) भाग १ तत्त्वार्थवार्तिक (राजवार्तिक) भाग २ तत्त्वार्थश्रुतसागरीय वृत्ति संपा. प्रो. महेन्द्रकुमार द्विसं. १९९० | भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली विसं. २००५ , भारतीय ज्ञानपीठ, काशी श्रुतसागरसूरि संपा. प्रो. महेन्द्रकुमार दक्षसंहिता तत्त्वार्थसूत्र द्विसं. १९८५ | पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी-५ प्रसं. १९८७ जैन विश्व भारती, लाडनूं दशवैकालिक (नवसुत्ताणि) आचार्य उमास्वाति व्या. पं. सुखलाल संघवी वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. मुनि नथमल वा. प्र. आचार्य तुलसी विवेचक-मुनि नथमल संपा. मुनि पुण्यविजय दशवैकालिक: एक समीक्षात्मक अध्ययन प्रसं.वि २०२३ जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता दशवैकालिक अगस्त्यसिंह | प्रसं. १९७३ प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद चूर्णि दशवैकालिक जिनदास चूर्णि जिनदासगणी प्रसं १९३३ श्रीऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम जैन विश्व भारती, लाडनूं प्रसं १९९९ दशवैकालिक नियुक्ति (नियुक्तिपंचक) आचार्य भद्रबाहु सैंपा. समणी कुसुमप्रज्ञा दशवकालिक हारिभद्रीय टीका आचार्य हरिभद्र देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, । सूरत Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थ सूची ७२६ ग्रन्थ नाम लेखक, संपा., व्या., अनु. संस्करण प्रकाशक दशाश्रुतस्कन्ध चूर्णि जिनदासगणी प्रसं. २०११ | श्री मणिविजयजी गणी ग्रन्थमाला, भावनगर प्रसं. १९९९ | जैन विश्व भारती, लाडनूं आचार्य भद्रबाहु संपा. समणी कुसुमप्रज्ञा दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति (नियुक्तिपंचक) दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति : एक अध्ययन दसवेआलियं डॉ. अशोककुमारसिंह प्रसं. १९९८ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी द्विसं. १९७४ | जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) वा. प्र. आचार्य तुलसी विसं.२०२३ दसवेआलियं तह उत्तरज्झयणाणि देशीशब्दकोश संपा. मुनि नथमल वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. मुनि नथमल वा. प्र. आचार्य तुलसी प्र.संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ संपा. मुनि दुलहराज आ. सिद्धसेन दिवाकर श्री जैन श्वे. तेरापंथी महासभा, कलकता जैन विश्व भारती, लाडनूं प्रसं. १९८८ द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका प्रसं. १९७७ विजयलावण्यसूरि ग्रंथमाला ज्ञानोपासक समिति, बोयद षसं. १९९३ । बुद्ध भूमि प्रकाशन, नागपुर धम्मपद संपा. डॉ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन संपा. हीरालाल जैन धवला प्रसं. १९४९ जैन साहित्योद्धारक फंड, अमरावती (बरार) जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं नंदी प्रसं. १९९७ वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. आचार्य महाप्रज्ञ नंदीचूर्णि प्रसं १९६६ प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद जिनदासगणी संपा. मुनि पुण्यविजय आ. मलयगिरि आगमोदय समिति, महेसाणा नंदी मलयगिरि टीका नंदी हारिभद्रीय टीका प्रसं. १९८० प्रसं. १९६६ प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद आचार्य हरिभद्र संपा. मुनि पुण्यविजय संपा. उपाध्याय अमरमुनि निशीथ चूर्णि भाग १-४ द्विसं. १९८२ सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा निशीथ भाष्य मुनि कन्हैयालाल द्विसं.१९८२ वही पंचवस्तु पंचकल्प भाष्य वि. २०२८ | आगमोद्धारक ग्रन्थमाला, पारडी Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ नियुक्ति पंचक ग्रन्थ नाम लेखक, संपा., व्या., अनु.| संस्करण । प्रकाशक पंचसंग्रह पतञ्जलिकालीन भारत पद्मपुराण परिशिष्ट पर्व डॉ. प्रभुदयाल अग्निहोत्री संपा. पन्नालाल जैन आचार्य हेमचन्द्र | प्रसं. १९६३ | बिहार राष्ट्र भाषा परिषद्, पटना द्विसं. १९७७/ भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली प्रसं. १९८० श्रीमती गंगाबाई जैन चेरिटेबल ट्रस्ट, बम्बई द्विसं. १९६९ | चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी तृसं. १९८० मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली प्रसं. १९१८ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, पाणिनीकालीन भारतवर्ष पातञ्जलयोगदर्शनम पिंडनियुक्ति वासुदेवशरण अग्रवाल हरिहरानंद आरण्य आचार्य भद्रबाहु बम्बई पिंडनियुक्ति टीका आचार्य मलयगिरि प्रसं.१९१८ | देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई प्रभावकचरित संपा. मुनि जिन विजयजी | प्रसं. वि.१९९७ सिंधी जैन ज्ञानपीठ प्रशमरतिप्रकरण उमास्वाति विस.२०४४| श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास संपा. पं. राजकुमारजी प्राचीन भारतीय संस्कृति प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध प्रवाचक आचार्य तुलसी प्रसं. १९८८ / जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) प्रसंपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ सं. मुनि मधुकर बृहत्कल्पभाष्य } सं मुनि चतुरविजय | प्रसं. १९३६ | श्री आत्मानंद जैन सभा, भावनगर बृहत्कल्पभाष्य टीका } मुनि पुण्यविजय प्रसं. १९३६ / जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर भगवई वा. प्र. आचार्य तुलसी | विसं. २०३१ | जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) (अंगसुत्ताणि-२) सं. मुनि नथमल भगवती आराधना पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री प्रसं. १९७८ | जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर भगवती टीका आ. अभयदेव सूरि प्रसं १९१८ । आगमोदय समिति, बम्बई भागवत महापुराण वेदव्यास षसं वि.२०२७/ गीता प्रेस, गोरखपुर भिक्षुन्यायकर्णिका आचार्य तुलसी आदर्श साहित्य संघ, चूरू संपा. साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा मज्झिमनिकाय भिक्षु धर्मरक्षित द्विसं. १९६४) महाबोधि सभा, बनारस मनुस्मृति सं. गोपालशास्त्री नेने द्विसं. १९७० | चौखम्बा संस्कृत सीरीज वाराणसी-१ मनोनुशासनम् आचार्य तुलसी चसं. १९८६ | आदर्श साहित्य संघ, चूरू महापुराण आचार्य जिनसेन प्रसं. १९७५ श्री जैन संस्कति संरक्षक संघ, शोलापुर महापुराणों में पुरुषार्थ चतुष्टय | डॉ. श्री विलास बुडाकोटी | प्रसं. १९९२ | इंडोविजन प्राइवेट लिमिटेड, | गाजियाबाद Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थ सूची ७२३ ग्रन्थ नाम प्रकाशक | लेखक, संपा., व्या., अनु. संस्करण रामचन्द्र शास्त्री किंजवडेकर द्विसं. १९७९ वही द्विसं. १९७९ महाभारत भाग- २(वनपर्व) महाभारत भाग-३ ओरियण्टल बुक रीप्रिंट कारपोरेशन . वही महाभारत भाग- ४ (शांतिपर्व) | वही द्विसं. १९७९ | वही महाभारत भाग-६ द्विसं. १९७९ | वही (अनुशासन पर्व) महाभारतकालीन समाज सुखमय भट्टाचार्य प्रसं. १९६६ लोक भारती प्रकाशन १५-ए, महात्मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद महाभाष्य भाग-२ व्या. युधिष्ठर मीमांसक द्विसं.वि.२०४५| श्री प्यारेलाल द्राक्षादेवी न्यास. दिल्ली मूलाचार आचार्य वट्टकेर द्विसं. १९९२ भारतीय ज्ञान पीठ, दिल्ली यजुर्वेद संपा. श्री रामशर्मा आचार्य पंसं. १९६९ संस्कृति संस्थान ख्वाजा कुतुब, बरेली रयणसार कुन्दकुन्दाचार्य वीनि.२५०० वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति, संपा. डॉ. देवेन्द्रकुमार इन्दौर राजप्रश्नीय वा. प्र. आचार्य तुलसी प्रसं १९८७ | जैन विश्व भारती. लाडनं (उवंगसुत्ताणि, खंड १) सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ विशेषावश्यक भाष्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण | वि.२०३९ | दिव्य दर्शन ट्रस्ट, मुंबई विशेषावश्यक भाष्य कोट्याचार्य | संपा. डॉ. नथमल टांटिया प्रसं. १९७२ प्राकृत विद्यापीठ, वैशाली बिहार टीका विशेषावश्यक भाष्य मलधारी मलधारी हेमचन्द्र वि.२०३१ । दिव्य दर्शन ट्रस्ट, मुंबई हेमचन्द्र टीका व्यवहार भाष्य वा. प्र. आचार्य तुलसी प्र. संपा. आचार्य महाप्रज्ञ संपा. समणी कुसुमप्रज्ञा प्रसं. १९९६ | जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं षट्खंडागम ले. पुष्पदंत भूतबलि प्र सं. १९४९ | जैन साहित्योद्धारक फंड, वीरसेनाचार्यकृत धवलाटीका अमरावती (बरार) संपा. हीरालाल जैन षड्दर्शनसमुच्चय डॉ. महेन्द्रकुमार जैन तृसं. १९८९ | भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली शौनक ऋक् प्रातिशाख्य समवाओ वा. प्र. आचार्य तुलसी प्रसं. १९८४ | जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ समवाओ प्रकीर्णक वा. प्र. आचार्य तुलसी प्रसं. १९८४ | जैन विश्व भारती लाडनूं, (राज.) संपा युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ नियुक्ति पंचक ग्रन्थ नाम | लेखक, संपा., व्या., अनु.| संस्करण | प्रकाशक समवायांग टीका अभयदेवसूरि प्रसं. १९३८ | कांतिलाल चुन्नीलाल, अहमदाबाद सागर जैन विद्या भारती, भाग २ प्रो. सागरमल जैन प्रसं. १९९४ | पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी सामाचारी शतक समयसुन्दरगणी विसं. १९९६ | जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार, सूरत साहित्य दर्पण विश्वनाथ पंसं. १९७९ / चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी व्या. डॉ. सत्यव्रतसिंह सूत्रकृतांग चूर्णि (प्रथम श्रुतस्कंध) | संपा. मुनि पुण्यविजय प्रसं. १९७५ | प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद-९ सूत्रकृतांग चूर्णि (द्वितीय श्रुतस्कंध) प्रसं. १९४१ ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम सूत्रकृतांग टीका आ. शलांक प्रसं. १९७८ | मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली संपा मुनि जम्बूविजय सूत्रकृतांगनियुक्ति (नियुक्तिपंचक)| वा. प्र. गणाधिपति तुलसी | प्रसं. १९९९ | जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं प्रसंपा. आचार्य महाप्रज्ञ समणी कुसुमप्रज्ञा सूयगड़ो - १ वा. प्र. आचार्य तुलसी | प्रसं. १९८४ | जैन विश्व भारती, लाडनूं संपा युवाचार्य महाप्रज्ञ सूयगड़ो - २ वा. प्र. आचार्य तुलसी प्रसं. १९८६ | जैन विश्व भारती, लाडनूं संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ स्थानांग टीका आचार्य अभयदेव प्रसं. १९३७ | सेठ माणकलाल चुन्नीलाल, अहमदाबाद हरिवंश पुराण आचार्य जिनसेन प्रसं. १९६२ भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, संपा. पन्नालाल जैन दिल्ली हरिवंश पुराण: राममूर्ति चौधरी प्रसं. १९८९ सुलभ प्रकाशन १६, अशोक मार्ग एक सांस्कृतिक अध्ययन A History of the Hiralal Rasikadas Hiralal Rasikadas Canonical literature of Kapadia Kapadia jain's Uttaradhyayana sutra Jarl charpentier Fir. Ad.1980 Ajaya Book Service, Delhi History of Indian literature Maurice winternitz Vol || Sec. Ad.1993 | Motilal Banarasidas, Delhi Fo. Ad. 1980 Motilal Banarasi das, Delhi Sacred Books of the East. Hermann Jacobi Vol 1 xxii Page #856 -------------------------------------------------------------------------- _