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________________ ३० नियुक्तिपंचक ९५।२. किं दुब्भिक्खं जायइ ?, जइ एवं अह' भवे दुरिठं तु । कि जायइ सव्वत्था, दुब्भिक्खं अह भवे इंदो ? ।। ९५॥३. वासइ 'तो कि'२ विग्घं, निग्घायाइहि जायए तस्स । अह वासइ उउसमए, न वासई तो तणट्ठाए । ९६. 'किं च दुमा पुप्फती, भमराणं कारणा अहासमयं । ___मा भमर-महुगरिगणा, किलामएज्जा अणाहारा ।। ९६।१. कस्सइ बुद्धी एसा, वित्ती उवकप्पिया पयावइणा । सत्ताणं तेण दुमा, पुप्फती महुरिगणट्ठा ।। ९६।२. तं न भवइ जेण दुमा, नामागोयस्स पुव्वविहियस्स । उदएणं पुप्फफलं, निवत्तयंती इमं चऽन्न ।। ९७. अत्थि बहू वणसंडा, भमरा जत्थ न उति न वसंति । तत्थ वि पुप्फति दुमा, पगती एसा दुमगणाणं ।। १. इह (रा)। २. कि तो (रा)। ३. गाथा ९५ के बाद की तीन गाथाओं का दोनों चूणियों में कोई संकेत नहीं है किन्तु अचू में 'एत्थ चोदेति' तथा जिच में 'एत्यंतरे सीसो चोदेइ' कहकर इन तीनों गाथाओं का भावार्थ दिया है। इन तीनों गाथाओं में ९५वीं गाथा का ही विस्तार तथा व्याख्या है, अतः ये भाष्यगाथाएं प्रतीत होती हैं। मुद्रित टीका की प्रति में ये निर्यक्तिगाथा के क्रम में प्रकाशित हैं, किन्तु हरिभद्र ने अपनी व्याख्या में इन गाथाओं के बारे में कोई संकेत नहीं दिया है। हमने इनको भाष्यगाथा के रूप में स्वीकृत किया है। इन गाथाओं को निगा के क्रम में न रखें तो भी चाल विषयक्रम में कोई अंतर नहीं आता। विषय की दष्टि से ९५ की गाथा ९६ से सीधी जुड़ती है। (देखें परि० १ गा, ६-८) ४. किंतु (जिचू)। ५. ० फेंती (अचू), पुप्फति (हा) । ६. महुयर० (अ, ब) ७. निव्वयंति (रा)। ८. ९६/१-२ इन दोनों गाथाओं की संक्षिप्त व्याख्या चणि में मिलती है किंत गाथाओं का संकेत नहीं है। टीका में यह निगा के क्रम में व्याख्यात है। किन्तु यह गाथा भाष्य की होनी चाहिए। (देखें टिप्पण गा. ९५॥३) । ये गाथाएं रा प्रति में नहीं मिलती हैं। ये दोनों गाथाएं व्याख्यात्मक सी प्रतीत होती हैं। इन दोनों को निगा के क्रम में न रखने से भी चालू विषयक्रम में कोई अंतर नहीं पड़ता। ९६ की गाथा विषयवस्तु की दृष्टि से ९७ से सीधी जुड़ती है। (देखें परि १ गा. ९,१०) . जं च (हा)। ९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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