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________________ दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति अर्थात् पूरे मृगसिर मास तक वहां रहा जा सकता है। यह एक क्षेत्र में वास की उत्कृष्ट कालमर्यादा है। ७०. किसी क्षेत्र में मासकल्प अर्थात् आषाढ मास पूरा रहकर उसी क्षेत्र में वर्षावास बिताए और मृगसिर का मास भी दुभिक्ष आदि के कारण वहीं पूरा करे तो यह सालंबन रूप में छह मास का ज्येष्ठावग्रह होता है। ७१. वर्षावास से चतुष्प्रातिपदिक (चार मास की चार प्रतिपदाओं) के पश्चात् वहां से मृगसिर की प्रतिपदा को विहार कर लेना चाहिए। यदि वहां से गमन न हो तो पूर्व निर्दिष्ट आरोपणा आदि प्रायश्चित्त आता है। ७२,७३. कायिकीभूमि तथा संस्तारक जीवों से संसक्त हो जाए, भिक्षा दुर्लभ हो, राजा दुष्ट हो, सर्प आदि वसति में प्रविष्ट हो जाएं, कुंथ ओं से वसति संसक्त हो जाए, अग्नि का उपद्रव हो, ग्लान की परिचर्या न हो पाए तथा स्थडिल भूमि का अभाव हो-यदि ये कारण प्राप्त हों तो वर्षावास सम्पन्न न होने पर भी उस क्षेत्र से निर्गमन कर देना चाहिए। ७४,७५. वर्षा न रुक रही हो, मार्ग दुर्गम तथा कीचड़मय हो गये हों, अन्यत्र अशिव तथा दुभिक्ष हो, राजा का उपद्रव हो, चोर डाकुओं का भय हो, ग्लान की असमर्थता हो-इन कारणों से वर्षावास अतिक्रांत हो जाने पर भी उस क्षेत्र से निर्गमन नहीं हो पाता। ७६. वर्षावास क्षेत्र से चारों ओर ढाई कोस तक भिक्षाचर्या आदि के लिए क्षेत्रावग्रह होता है । आने-जाने में एक योजन तथा एक कोस अर्थात् पांच कोस प्रमाण क्षेत्र है। अपवाद कारण को छोड़कर यह क्षेत्र-मर्यादा है। ७७. क्षेत्रावग्रह छह दिशाओं में होता है, जैसे-ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा, पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण-इन छहों दिशाओं में एक योजन अथवा एक कोस का क्षेत्रावग्रह होता है। इन्द्रपद अथवा गजान पर्वत से छहों दिशाओं में क्षेत्र हैं।' अन्यान्य पर्वतों से चार-पांच दिशाओं में क्षेत्र ७८. किसी व्याघात के उपस्थित होने पर एक, दो अथवा तीन दिशाओं में क्षेत्रावग्रह होता है । जिस दिन व्याघात हो उस दिन उद्यान तक क्षेत्रावग्रह होता है। उससे आगे छिन्नमडंब अर्थात जिस गांव या नगर के चारों दिशाओं में कोई ग्राम या नगर न हो, वह अक्षेत्र होता है। ७९. नदी आदि में क्षेत्रावग्रह की मर्यादा-ऋतुबद्धकाल में तीन उदकसंघटन-अर्धजंघा तक जल, वर्षावास में सात उदकसंघटन-इतने पानी में अवगाहन कर भिक्षाचर्या के लिए अन्यत्र जाने में तथा आने में क्षेत्रावग्रह का हनन नहीं होता। इसके अतिरिक्त ऋतुबद्धकाल में चार उदकसंघट्टन तथा वर्षावास में आठ उदकसंघट्टन लगाने से क्षेत्रावग्रह का उपघात होता है । अर्धजंघा से अधिक उदक का एक बार भी अवगाहन करने से क्षेत्रावग्रह का अतिक्रमण होता है । १. पर्वत पर ऊपर और नीचे भी ग्राम होता है। अतः पर्वत पर मध्यस्थित ग्राम की अपेक्षा छह दिशाएं होती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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