________________
४१६
नियुक्तिपंचक
८०. द्रव्य स्थापना के सात द्वार हैं-आहार, विकृति (विगय), संस्तारक, मात्रक, लोचकरण, सचित्त तथा अचित्त का व्युत्सर्जन, ग्रहण तथा स्वीकरण।
८१. आहार विषयक मर्यादा--पूर्वाहार अर्थात् ऋतुबद्धकालीन आहार का परित्याग करे। अपनी शक्ति के अनुसार योगवृद्धि अर्थात् व्रतों में वृद्धि करे।' (क्योंकि वर्षाकाल में कीचड़ हो जाने से भिक्षाचर्या कठिन हो जाती है तथा संज्ञाभूमि में जाना कष्टकर होता है, स्थंडिलभूमि हरियाली से छा जाती है आदि ।)
विगय के दो प्रकार हैं-संचयिका और असंचयिका। इनके दो-दो प्रकार हैं-प्रशस्त तथा अप्रशस्त । प्रशस्त के ग्रहण से द्रव्य की सीमा होती है।
८२. जो विगतिभीत अर्थात् कुगतियों-तिर्यञ्चगति, नरकगति आदि विविध गतियों से भयभीत है, वह भिक्ष यदि विकृति अथवा विकृतिमिश्र भोजन करता है तो वह विकृति उस मुनि को विकृत स्वभाव वाला बना देती है और वह उसे बलात् विगति--नरकगति में ले जाती है ।
८२३१. मुनि सामान्यतः दूध, दही, नवनीत आदि जो प्रशस्त असंचयिका विकृतियां हैं, उन्हें ग्रहण करे । संचयिका विकृतियां ग्रहण न करे क्योंकि ये विकृतियां ग्लान आदि के लिए प्रयोजनीय होती हैं। (सामान्यत: इनको लेने पर ग्लान आदि को ये प्राप्त नहीं होतीं।)
८३. मुनि प्रशस्तविकृति ग्रहण तथा अप्रशस्तविकृति ग्रहण प्रयोजनवश करे। अप्रशस्तविकृति का ग्रहण उतनी ही मात्रा में करे जितनी मात्रा बाल, वृद्ध अथवा रोगी के लिए आवश्यक हो तथा जिसके लेने से गर्दा न हो, दाता को विश्वास हो तथा उसके दोषयुक्त भावों का प्रतिघात हो।
८४. ऋतुबद्धकाल में जो संस्तारक ग्रहण किए थे उनका वर्षावास काल में परित्याग कर दे तथा वर्षायोग्य अपरित्यजनीय संस्तारक ग्रहण करे । तीन संस्तारक-निवात, प्रवात तथा निवातप्रवात गुरु को देकर शेष मुनि (रत्नाधिक के क्रम से) एक-एक संस्तारक ग्रहण करे ।
__ ८५ ऋतुबद्धकाल में उच्चार-प्रस्रवण तथा श्लेष्म के उपयोगी मात्रक ग्रहण किए थे, उनका परित्याग कर वर्षावास में प्रत्येक मुनि इन तीनों के लिए तीन-तीन मात्रक ग्रहण करे। संयमनिर्वाह के लिए, अतिथि के प्रयोजन के लिए तथा एक के फूट जाने पर मुनि बचे पात्र को काम में ले।
८६. जिनकल्पिक मुनियों के लिए नित्य ध्रुवढंचन की परम्परा है । स्थविर मुनियों के लिए वर्षावास में ध्रवलंचन की परम्परा है। जो असहनशील तथा ग्लान मुनि हैं, वे भी पर्यषणारात्रि का अतिक्रमण नहीं करते, अवश्य लुंचन कराते हैं ।
१. यदि आवश्यकी में परिहानि न होती हो तो
चातुर्मासिक तप करे। यदि यह न कर सके तो तीन मास, दो मास, एक मास "आदि तप करे।
२. क्षीर, दधि, मांस, नवनीत आदि असंचयिका विकृति है तथा घत, गुड़, मांस आदि
संचयिका विकृति है।। ३. मधु, मांस, मद्य अप्रशस्त हैं तथा क्षीर, गुड़
आदि प्रशस्त हैं।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org