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________________ ४१७ दशाश्रुतस्कंध निर्युक्ति ८७. परम्परा से पुराना', भावितश्राद्ध - श्रद्धा से ओतप्रोत तथा वैरागी व्यक्ति को छोड़कर अन्य को चातुर्मास में प्रव्रजित करने का निषेध है । वर्षावास में इनको प्रव्रजित करने पर ये धर्मशून्य अर्थात् वर्षा आदि में जाने-आने से शंकाशील हो सकते हैं तथा मंडली में भोजन करने, मात्रक में प्रस्रवण आदि करने से उन नव प्रव्रजित मुनियों के मन में उड्डाह - प्रवचन के प्रति तिरस्कार हो सकता 1 ८८. वर्षाकाल में क्षार, डगल (पत्थर के टुकड़े), मात्रक आदि का ग्रहण, ऋतुबद्धकाल में गृहीत का व्युत्सर्ग तथा क्षार आदि का संग्रह करना चाहिए। इनके बिना ग्लान की विराधना तथा लेप के बिना भाजन की विराधना होती है, इसलिए इनका ग्रहण अनुमत है । (यह एक सीमा हैकुछेक का ग्रहण, कुछेक का धरण, कुछेक का व्युत्सर्ग और कुछेक का ग्रहण धरण व्युत्सर्ग 1 ) ८९. ईर्यासमिति, एषणासमिति, भाषासमिति (आदाननिक्षेप समिति तथा परिष्ठापनासमिति) की स्खलना, मन, वचन, काय की गुप्ति में स्खलना, दुश्चरित्र, अधिकरण तथा कषाय-इनका सांवत्सरिक उपशमन हो ही जाना चाहिए । ९०. यद्यपि मुनि को सभी काल में पांचों समितियों से समित रहना चाहिए किंतु वर्षावास में इसका विशेष प्रसंग होता है क्योंकि उस समय भूमि प्राणियों से संकुल होती है । ९१. भाषा समिति में अनायुक्त होने पर संपातिम—उड़ने वाले प्राणियों का वध, तीसरी एषणा समिति में अनायुक्त होने पर दुर्ज्ञेय उदक स्नेह बिंदुओं का व्याघात तथा ईर्यासमिति और अन्तिम दो — आदाननिक्षेप और परिष्ठापनिका समिति में अनायुक्त होने पर प्राणियों का दुष्प्रतिलेखन और दुष्प्रमार्जन होता है । ९२. मनोगुप्ति, वाग्गुप्ति तथा कायगुप्ति – इनमें स्खलना हुई हो, विपरीत आचरण किया हो तो उसकी शीघ्र ही आलोचना कर लेनी चाहिए। अधिकरण में दुरूतक, प्रद्योत तथा द्रमक के उदाहरण हैं । ९३,९४. ( ग्रामवासियों द्वारा एक बैल की चोरी कर लेने पर कुंभकार के पास एक बैल की गाड़ी रह गई । लोगों ने कहा-) देखो ! एक बैल की गाड़ी है । (बैल चुराए जाने से उसने भी खलिहान के आग लगाकर कहा ) – देखो ! खेत जल रहे हैं । एक दिन भाणकमल्ल द्वारा मल्लयुद्ध में यह घोषणा की गयी हे दुरूतकवासियो ! कुंभकार का हृत बैल उसको सौंप दिया जाए, जिससे खलिहान न जलें । कुंभकार से क्षमायाचना करते हुए ग्रामवासियों ने कहा - भो ! तुम अन्य सात वर्षों तक हमारा धान्य ( खलिहान ) मत जलाओ ।" ९५ - ९८. चंपा में अनंगसेन नामक स्वर्णकार | पंचशील द्वीप से दो अप्सराओं का आगमन हुआ। अनंगसेन उनमें आसक्त हो गया। एक स्थविर नाविक उसको पंचशील द्वीप के पास ले गया । वहां से वह वृक्ष की शाखा पकड़कर पंचशील द्वीप पहुंच गया। हासा, प्रहासा नामक अप्सराओं ने उसे 'पुन: चंपानगरी पहुंचा दिया । मित्र नाइल द्वारा जिनोक्त धर्म का प्रतिबोध पर वह निदान करके इंगिनीमरण स्वीकार कर पंचशील द्वीप में विद्युन्माली यक्ष के रूप में उत्पन्न हुआ । नंदीश्वर द्वीप में गमन । ( वहां मित्र देव नाइल ने कहा ) - बोध के लिए तुम किसी १. जिसको पहले दीक्षा दी जा चुकी हो । Jain Education International २. देखें परि० ६ कथा सं० १ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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