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________________ नियुक्तिपंचक स्थान पर जिनप्रतिमा का अवतरण कराओ । राजा उद्रायण के वहां देवाधिदेव महावीर की प्रतिमा प्रकट हई । अमंगल देखने पर प्रभावती द्वारा देवदत्ता दासी पर दर्पण का प्रहार । देवदत्ता की मृत्यु । उसका देव रूप में उत्पन्न होना । प्रभावती देव द्वारा उद्रायण को तापस आश्रम में ले जाना, वहां भयोत्पत्ति । शरण के लिए श्रमणों के पास जाना। गंधार जनपद में श्रावक दीक्षा लेना चाहता था। देवाराधना द्वारा उसके यहां प्रतिमा का प्रकटीकरण । देवता द्वारा ५०० गुटिकाओं की प्राप्ति । श्रावक का वीतभय नगर में जाना। वहां देवायतन में कृष्णगुटिका दासी द्वारा सेवा। (गुटिका के प्रभाव से वह कृष्णगुटिका से स्वर्णगुटिका बन गई।) राजा प्रद्योत द्वारा स्वर्णगुटिका एवं देवप्रतिमा का हरण । पुष्करतीर्थ की उत्पत्ति । राजा उद्रायण एवं प्रद्योत में युद्ध । (प्रद्योत को बंदी बनाकर उसके लालट पर यह अंकित किया)—यह दास है, दासीपति है, छत्रार्थी है, हमारे यहां बंदी रूप में रह रहा है । जो कोई राजा की आज्ञा का भंगकर उसे कुपित करता है, वह हंतव्य और बंधनयोग्य है।' ९९,१००. धनाढ्य के घर खीर का भोजन देखकर दरिद्र के बच्चों द्वारा पिता से खीर का आग्रह । पिता ने दूसरों से दूध आदि की याचना कर खीर बनाई। चोरों का आगमन । खीर को चोर ले गए। द्रमक ने चोरों का पीछा किया। चोर सेनापति का तलवार से शिरच्छेद । भाई को सेनापति बनाया गया। (स्वजनों ने कहा)-यदि तुम भाई के घातक को नहीं मारते हो तो तुम्हें धिक्कार है। पकड़े जाने पर द्रमक बोला-जहां शरणागत मारे जाते हैं, वहीं मुझे मारा जाए । द्रमक की मुक्ति । १०१,१०२. क्रोध कषाय के चार प्रकार हैं-पानी की रेखा के समान, बालु की रेखा के समान, भूमि की रेखा के समान तथा पर्वत की रेखा के समान । प्रथम तीनों प्रकार के क्रोध कुछ ही समय में नष्ट हो जाते हैं परन्तु चौथे प्रकार का क्रोध जब तक पर्वत है, तब तक बना रहता है। अर्थात् यह जीवन-पर्यंत बना रहता है । जो क्रोध पानी की रेखा के समान होता है वह उसी दिन के प्रतिक्रमण से या पाक्षिक प्रतिक्रमण से उपशांत हो जाता है । जो चातुर्मासिक काल में उपशांत होता है वह क्रोध बालु की रेखा के समान, जो सांवत्सरिक काल में उपशांत होता है वह भूमि की रेखा के समान तथा पर्वत की रेखा जैसा क्रोध जीवन पर्यंत नष्ट नहीं होता। (इनकी गति इस प्रकार है-पर्वत की रेखा सदृश क्रोधी मनुष्य की नरकगति, भूमि की रेखा सदृश की तिर्यञ्च गति, बालु की रेखा सदृश की मनुष्य गति और उदक रेखा सदृश की देवगति होती है।) १०३. मान के चार प्रकार हैं-पत्थर के स्तम्भ के समान, अस्थि-स्तम्भ के समान, काष्ठस्तम्भ के समान तथा लता-स्तम्भ के समान । माया के चार प्रकार हैं-बांस के समान, मेंढे के सींग के समान, गोमूत्रिका के समान, तथा छिलते बांस के समान । लोभ के चार प्रकार हैं-कृमिराग के समान, कर्दम के समान, कूसंभराग के समान तथा हरिद्राराग के समान । १०४. इसी प्रकार स्तम्भ के समान मान, केतन के समान माया तथा वस्त्रराग के समान लोभ-इन तीनों की भी चार-चार प्रकार की प्ररूपणा की गई है। प्रत्येक प्रकार में गति का क्रम १. देखें परि० ६, कथा सं० २। २. देखें परि० ६, कथा सं० ३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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