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________________ दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति ४१९ यह है-नरकगति, तिर्यचगति मनुष्यगति और देवगति । क्रोध के विषय में मरुक, मान के विषय में अत्वकारी भट्टा, माया के विषय में पंडरज्जा तथा लोभ के विषय में आर्य मगु का दृष्टांत है । १०४।१ चारों कषायों के चार-चार प्रकारों में प्रत्येक प्रकार की गति का क्रमशः क्रम यह है-नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति । सुगति के मार्ग को जानने वाले मुनियों को इन कषायों का सदा उपशमन/क्षय करना चाहिए। १०५. बैल श्रांत होकर गिर गया। मरुक ने चार केदारों के ढेलों से उसे पीटा । बल मर गया। ब्राह्मणों ने कहा-तुम अति क्रोधी हो अत: तुम्हें प्रायश्चित्त नहीं देंगे।' १०६-१०८ आठ पुत्रों के पीछे धन वणिक् के एक पुत्री हुई, जिसका नाम अत्वंकारी भट्टा रखा। कोई शादी को तैयार नहीं। आखिर मंत्री उसकी शर्त को मानने के लिए तैयार हुआ। (अत्वंकारी ने मंत्री को सूर्यास्त से पहले आने के लिए कह रखा था) एक दिन राजा ने मंत्री को रात्रि में देर तक रोक लिया। उसने कहा-मैं द्वार नहीं खोलंगी। फिर क्रोधावस्था में द्वार खोलकर वह रात्रि में ही घर से बाहर निकल गयी और चोर सेनापति के चंगुल में फस गई। उसने उसकी पत्नी बनना स्वीकार नहीं किया। सेनापति ने जलक वैद्य को बेच दिया। उसने भी उसे पत्नी बनाना चाहा पर उसने अस्वीकृत कर दिया। तब जलक वैद्य ने कहा-पानी से जलका ग्रहण करो। एक दिन भाई का आगमन । सारा वत्तान्त भाई को कहा। भाई ने मुक्ति दिलवाई। १०९. (अत्वकारी भट्टा स्वस्थ होकर पुन: मंत्री की पत्नी के रूप में घर चली गई।) उसके घर में लक्षपाक तैल के घट भरे थे। एक बार एक यति ने व्रण-संरोहण के लिए उससे तेल की याचना की। दासी द्वारा तीन बार घट नष्ट हो गए। भट्टा दासी पर कुपित नहीं हुई । चौथी बार स्वयं उसने साधु को दान दिया। ११०,१११. पांडुरा पार्श्वस्थ-शिथिलाचारिणी साध्वी । समय आने पर गुरु के पास भक्तप्रत्याख्यान का स्वीकरण । मंत्र शक्ति से लोगों की भीड़ । गुरु के द्वारा पूछने पर उसने तीन बार प्रतिक्रमण किया। चौथी बार फिर मंत्रशक्ति का प्रयोग किया। आचार्य के पूछने पर कहा कि पूर्वाभ्यास से लोग आते हैं अतः प्रतिक्रमण नहीं किया। मरकर वह सौधर्म देवलोक में ऐरावण हाथी की अग्रम हिषी बनी । महावीर के समवसरण में हथिनी के रूप में वातनिसर्ग-चिंघाड़ने लगी। गोतम द्वारा पूछने पर महावीर ने पूर्वभव बताया।' ११२. मथुरा में आर्य मंगु बहुश्रुत, वैरागी एवं श्रद्धालुओं द्वारा पूजित आचार्य थे । सुखसाता में प्रतिबद्ध होकर श्रावकों की नित्य भिक्षा करने लगे। दिवंगत होने पर प्रतिमा में प्रवेश कर लंबी जीभ निकालकर कहते-मैं लोलुपता वश अधर्मी व्यन्तर बना हूं कोई लोलुपता मत करना। ११३. कषायों के दोषों को जानकर गहस्थ भी उनसे विरत हो जाते हैं, यह सोचकर कोई भी संयमी साधु-साध्वी अधिकरण न करे तथा कषायों के बूरे परिणामों को सुनकर/जानकर उनसे निवृत्त हो जाए। १. देखें परि० ६, कथा सं० ४॥ २. वही, कथा सं० ५। ३. वही, कथा सं०६। ४. वही, कथा सं०७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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