SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियुक्ति पंचक दशवैकालिकनिर्युक्ति और आचारांगनिर्युक्ति का पूरक कैसे माना जा सकता है? इन नियुक्तियों का स्वतंत्र अस्तित्व था, इस विषय में कुछ बिंदुओं पर विचार करना आवश्यक लगता है— ९. यद्यपि आचार्य मलयगिरि पिंडनियुक्ति को दशवैकालिकनियुक्ति का अंग मानते हुए कहते हैं कि दशवैकालिकनियुक्ति की रचना चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु ने की । दशवैकालिक के पिंडैषणा नामक पांचवें अध्ययन पर बहुत विस्तृत नियुक्ति की रचना हो जाने के कारण इसको अलग स्वतंत्र शास्त्र के रूप में पिंडनिर्युक्ति नाम दे दिया गया। इसका हेतु बताते हुए आचार्य मलयगिरि कहते हैं कि इसीलिए पिंडनियुक्ति के आदि में मंगलाचरण नहीं किया गया क्योंकि दशवैकालिक के प्रारम्भ में मंगलाचरण कर दिया गया था। लेकिन इस संदर्भ में स्पष्ट रूप कहा जा सकता है कि मंगलाचरण की परम्परा बहुत बाद की है । छेदसूत्र और मूलसूत्रों का प्रारम्भ भी नमस्कारपूर्वक नहीं हुआ | मंगलाचरण की परम्परा लगभग विक्रम की तीसरी शताब्दी के आस-पास की है । दूसरी बात, मलयगिरि की टीका के अतिरिक्त ऐसा उल्लेख कहीं नहीं मिलता अतः स्पष्ट है कि केवल इस एक उल्लेख मात्र से पिंडनियुक्ति को दशवैकालिकनिर्युक्ति का पूरक नहीं माना जा सकता है। तीसरी बात, दशवैकालिकनियुक्ति के मंगलाचरण की गाथा केवल हारिभद्रीय टीका में मिलती है। स्थविर अगस्त्यसिंहकृत दशवैकालिक की चूर्णि में इस गाथा का कोई संकेत नहीं है। इससे भी स्पष्ट है कि मंगलाचरण की गाथा बाद में जोड़ी गयी है। ऐसा अधिक संभव लगता है कि विषय - साम्य की दृष्टि से पिंडनिर्युक्ति को दशवैकालिकनिर्युक्ति का पूरक मान लिया गया । २० २. दशवैकालिकनियुक्ति में द्रव्यैषणा के प्रसंग में कहा गया है कि यहां पिंडनियुक्ति कहनी चाहिए। यदि पिंडनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति की पूरक होती तो ऐसा उल्लेख नहीं मिलता । ३. दशवैकालिकनियुक्ति में नियुक्तिकार ने लगभग अध्ययन के नामगत शब्दों की व्याख्या अधिक की है । अन्य अध्ययनों की भांति पांचवें अध्ययन में भी 'पिंड' और 'एषणा' – इन दो शब्दों की व्याख्या . की है। यदि पिंडनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति की पूरक होती तो अलग से नियुक्तिकार यहां गाथाएं नहीं लिखते तथा पिंड शब्द के निक्षेप भी पिंडनियुक्ति में पुनरुक्त नहीं करते । ४. ओघनियुक्ति और पिंडनियुक्ति को कुछ जैन सम्प्रदाय ४५ आगमों के अंतर्गत मानते हैं। इस बात से स्पष्ट होता है कि आचार्य भद्रबाहु द्वारा इसकी स्वतंत्र रचना की गयी होगी । ओघनियुक्ति की द्रोणाचार्य टीका में भी उल्लेख मिलता है कि साधुओं के हित के लिए चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु ने नवम पूर्व की तृतीय आचार-वस्तु से इसका निर्यूहण किया । ५. ओघनिर्युक्ति को आवश्यकनियुक्ति का पूरक नहीं कहा जा सकता क्योंकि आवश्यकनिर्युक्ति की अस्वाध्याय नियुक्ति का पूरा प्रकरण ओघनियुक्ति में है । यदि यह आवश्यकनियुक्ति का पूरक ग्रंथ होता तो इतनी गाथाओं की पुनरुक्ति नहीं होती । ६. निशीथ आचारांग की पंचम चूला के रूप में प्रसिद्ध है किन्तु आज इसका स्वतंत्र अस्तित्व १. पिनिटी प. ९ । २. दशनि २१८/४; भावस्सुवमारित्ता, एत्थ दव्वेसणाऍ अहिगारो । तीए पुण अत्यजुत्ती, वत्तव्वा पिंडनिज्जुती || ३. ओनिद्रोटी प. ३, ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy