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________________ १९ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण नियुक्ति होने का उल्लेख है। असंख्येय शब्द को दो संदर्भो में समझा जा सकता है। प्रत्येक अंग पर अनेक नियुक्तियां लिखी गयीं अथवा एक ही अंग पर लिखी गयी नियुक्तियों की गाथा-संख्या निश्चित नहीं थी। प्रश्न उपस्थित होता है कि ये नियुक्तियां क्या थीं? इसके समाधान में एक संभावना यह की जा सकती है कि स्वयं सूत्रकार ने ही सूत्र के साथ नियुक्तियां लिखी होंगी। इन नियुक्तियों को मात्र अर्थागम कहा जा सकता है। हरिभद्र ने भी सूत्र और अर्थ में परस्पर नियोजन को नियुक्ति कहा है। इस दृष्टि से 'संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ' का यह अर्थ अधिक संगत लगता है कि सूत्रागम पर स्वयं सूत्रकार ने जो अर्थागम लिखा, वे ही उस समय नियुक्तियां कहलाती थीं। दूसरा विकल्प यह भी संभव है कि आचारांग और सूत्रकृतांग के परिचय में नंदीकार ने 'संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ' का उल्लेख किया होगा लेकिन बाद में पाठ की एकरूपता होने से सभी अंग आगमों के साथ 'संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ' पाठ जुड़ गया। अभी वर्तमान में जो नियुक्ति-साहित्य उपलब्ध है, उसके साथ नंदी सूत्र में वर्णित नियुक्ति का कोई संबंध नहीं लगता। आवश्यकनियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने १० नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की है। उनका क्रम इस प्रकार है-१. आवश्यक २. दशवैकालिक ३. उत्तराध्ययन ४. आचारांग ५. सूत्रकृतांग ६. दशाश्रुतस्कंध ७. बृहत्कल्प ८. व्यवहार ९. सूर्यप्रज्ञप्ति १०. ऋषिभाषित। हरिभद्र ने 'इसिभासियाणं च' शब्द की व्याख्या में देवेन्द्रस्तव आदि की नियुक्ति का भी उल्लेख किया है। वर्तमान में इन दस नियुक्तियों में केवल आठ नियुक्तियां ही प्राप्त हैं। ऐसा संभव लगता है कि भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति में दस नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की लेकिन वे आठ नियुक्तियों की रचना ही कर सके। दूसरा संभावित विकल्प यह भी स्पष्ट है कि अन्य आगम-साहित्य की भांति कुछ नियुक्तियां भी काल के अंतराल में लुप्त हो गयीं। इस संदर्भ में डा. सागरमलजी जैन का मंतव्य है— लगता है सूर्यप्रज्ञप्ति में जैन आचार-मर्यादा के प्रतिकुल कुछ उल्लेख तथा ऋषिभाषित में नारद, मंखलि गोशालक आ परम्परा के लिए विवादास्पद व्यक्तियों का उल्लेख देखकर आचार्य भद्रबाहु ने प्रतिज्ञा करने पर भी इन पर नियुक्ति लिखने का विचार स्थगित कर दिया हो अथवा यह भी संभव है कि इन दोनों ग्रंथों पर नियुक्तियां लिखी गयी हों पर विवादित विषयों का उल्लेख होने से इनको पठन-पाठन से बाहर रख गया हो, फलत: उपेक्षा के कारण कालक्रम से ये विलुप्त हो गयी हों।' इसके अतिरिक्त पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति, पंचकल्पनियुक्ति और निशीथनियुक्ति आदि का * स्वतंत्र अस्तित्व मिलता है। डा. घाटगे के अनुसार ये क्रमश: दशवैकालिकनियुक्ति, आवश्यकनियुक्ति बृहत्कल्पनियुक्ति और आचारांगनियुक्ति की पूरक नियुक्तियां हैं। इस संदर्भ में विचारणीय प्रश्न यह कि ओघनियुक्ति, पिंडनियुक्ति और निशीथनियुक्ति जैसी स्वतंत्र एवं बृहत्काय रचना को आवश्यकनियुकि १. नंदी ८१-९१। २. आवनि ८४, ८५; आवस्सगस्स दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे। सूयगडे निज्जुत्तिं, वुच्छामि तहा दसाणं च ।। कप्परस य निज्जुत्ति, ववहारस्सेव परमणिउणस्स। सूरियपण्णत्तीए, वच्छं इसिभासियाणं च ।। ३. आवहाटी १ पृ. ४१; ऋषिभाषितानां च देवेन्द्रस्तवादीनां नियुक्ति:........ । ४. सागर जैन विद्या भारती, भाग १ पृ. २०५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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