________________
परिशिष्ट ६ : कथाएं
५५७
बिना पढ़ना भी संभव नहीं है।' कपिल ने कहा- 'मैं भिक्षा से भोजन की व्यवस्था कर लूंगा।' ब्राह्मण ने कहा-'भिक्षावृत्ति से अध्ययन में बाधा आती है, पढ़ने को समय नहीं मिलता अत: तुम मेरे साथ चलो मैं किसी सेठ के यहां तुम्हारे भोजन की व्यवस्था करा दूंगा।' वे दोनों शालिभद्र सेठ के पास गए। उन्होंने सेठ को आशीर्वाद दिया। सेठ ने उनके आने का प्रयोजन पूछा । उपाध्याय ने कहा-'यह मेरे मित्र का पुत्र है। विद्या-ग्रहण की अभिलाषा से यह कौशाम्बी से यहां आया है। यह तुम्हारे यहां भोजन और मेरे यहां विद्या-ग्रहण करेगा। विद्या में सहयोग देने से तुम महान् पुण्य के भागी बनोगे।' सेठ ने सहर्ष उनकी बात स्वीकार कर ली।
कपिल उस सेठ के यहां प्रतिदिन भोजन करता और इन्द्रदत्त उपाध्याय के पास अध्ययन करता। सेठ की एक दासी कपिल को भोजन कराती थी। वह हंसमुख थी। उसका दासी के साथ अनुराग हो गया। दासी कहती कि तुम मुझे प्रिय हो। मैं तुमसे और कुछ नहीं मांगती केवल तुम रोष मत किया करो। मैं वस्त्र का मूल्य पाने के लिए दूसरे के पास कार्य करती हूं, अन्यथा मैं तुम्हारी ही आज्ञा की अनुचरी हूं।
एक दिन दासियों का उत्सव आया। वह दासी उदास हो गयी। उसे नींद नहीं आई तब कपिल ने पूछा-'तुम उदास क्यों हो?' वह बोली-'दासी का उत्सव आ गया है। मेरे पास पत्रपुष्प आदि के पैसे भी नहीं हैं, इसलिए सखियों के बीच में उपहास का पात्र बन जाऊंगी।' यह सुनकर कपिल भी अधीर हो गया। दासी ने कपिल को कहा-'तुम अधीर मत बनो। यहां धन नामक एक दानवीर सेठ है। ब्रह्ममुहूर्त में जो उसको सबसे पहले बधाई देता है, उसको वह दो मासा सोना देता है। इसलिए आज तम जाकर उसे बधाई दो।' कपिल ने उसका कथन स्वीकार कर लिया। मझसे पहले कोई अन्य बधाई देने न चला जाए, इस लोभ से वह आधी रात को ही घर से निकल पड़ा। आरक्षक पुरुषों ने उसे चोर समझकर पकड़ लिया और प्रात: महाराज प्रसेनजित् के समक्ष उपस्थित किया। राजा के पूछने पर उसने यथार्थ बात बता दी। राजा कपिल के सत्यकथन से प्रसन्न हुआ और बोला-'तुम जो कुछ मांगोगे वह मैं दूंगा।' कपिल ने कहा-'मैं सोचकर मागूंगा।' राजा ने उसकी बात स्वीकार कर ली। वह अशोक-वाटिका में गया। एक वृक्ष के नीचे बैठकर चिन्तन करने लगा कि दो मासे सोने से क्या होगा? कपड़े, आभरण, यान, वाहन, बाजों का उपभोग कैसे होगा? घर पर आए हुए अतिथियों के सत्कार के लिए तथा अन्यान्य उपभोग के लिए उतने मात्र से क्या लाभ?' इस प्रकार चिंतन करते-करते करोड़ मुद्राओं से भी उसका मन संतुष्ट नहीं हुआ। मनन करते-करते वह शुभ अध्यवसाय से संवेग को प्राप्त हुआ। उसने सोचा, मैं विद्या ग्रहण करने हेतु माता को छोड़कर विदेश आया हूं। उपाध्याय के हितकारी उपदेश की अवहेलना करके तथा कुल के गौरव की अवमानना करके मैं एक स्त्री में आसक्त हो गया, यह मेरे लिए अच्छा नहीं है। ऐसा सोचते-सोचते उसे जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया और वह स्वयंबुद्ध हो गया। स्वयं ही पंचमुष्टि लोच कर देवता प्रदत्त उपकरणों को धारण कर मुनि का वेश पहन राजा के समक्ष उपस्थित हुआ।
राजा ने कहा-'तुमने क्या सोचा है?' कपिल बोला-'जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ बढ़ता जाता है। दो मासा सोने से होने वाला कार्य लोभ बढ़ने पर करोड़ों स्वर्ण-मुद्राओं से Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org