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________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण ११५ आरोग्य—इन अंगों को भी आवश्यक माना है। चूर्णिकार ने इन अंगों के महत्त्व और उनके परस्पर संबंध पर सुंदर प्रकाश डाला है। व्यूह-रचना के द्वारा युद्ध किया जाता था। राजा चंडप्रद्योत और द्विर्मुख के बीच युद्ध में चंडप्रद्योत ने गरुड़-व्यूह एवं द्विर्मुख ने सागर-व्यूह की रचना की थी। आज वैज्ञानिक यह मानते हैं कि शस्त्र का निर्माण सर्वप्रथम मनुष्य के मस्तिष्क में होता है। नियुक्तिकार ने द्रव्य शस्त्रों की चर्चा करते हुए दुष्प्रयुक्त अंत:करण तथा मन और वाणी के असंयम को मूल भावशस्त्र के रूप में माना है। भावशस्त्र सक्रिय है तो द्रव्यशस्त्रों का निर्माण होता रहता है। सूत्रकतांगनियुक्ति में तीन प्रकार के शस्त्रों की चर्चा है—१. विद्याकत. २. मंत्रकत. ३. दिव्य। ये तीनों पांच प्रकार के होते हैं—१. पार्थिव २. वारुण ३. आग्नेय ४. वायव्य ५. मिश्र अर्थात् दो या तीन का मिश्रण, जैसे—पार्थिव और वारुण से निष्पन्न शस्त्र । चूर्णिकार के अनुसार जो साधे जाते हैं अथवा जिनका अभ्यास किया जाता है, वे विद्याकृत मंत्र हैं तथा जिनको साधने अथवा अभ्यास करने की अपेक्षा न हो, वे मंत्रकृत शस्त्र कहलाते हैं। स्थविर जिनदास ने भी अपनी चूर्णि में अनेक प्रकार के शस्त्रों की चर्चा की है—१. एक धार वाले–परशु आदि। २. दो धार वाले—बाण आदि। ३. तीन धार वालेतलवार आदि। ४. चार धार वाले-चतुष्कर्ण आदि। ५. पांच धार वाले—अजानुफल आदि । इतिहास नियुक्ति-साहित्य में ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक दोनों प्रकार के तथ्यों का संकलन मिलता है• भगवान् ऋषभ से पूर्व मनुष्य जाति एक थी, उसमें जातिकृत भेद नहीं था।' • हजार वर्ष तक उग्र तप करने वाले ऋषभ का कुल संकलित प्रमाद-काल एक अहोरान तथा बारह वर्ष से अधिक उग्र तप करने वाले महावीर का प्रमाद-काल अन्तर्मुहूर्त का था। • सूत्रकृतांग का दूसरा अध्ययन ऋषभ ने अष्टापद पर्वत पर अट्ठानवें पुत्रों को संबोधित कर प्रतिपादित किया, जिसे सुनकर वे सब प्रव्रजित हो गए।१० • पुष्कर तीर्थ की उत्पत्ति राजा प्रद्योत और उद्रायण की कथा से ज्ञात होती है। वासवदत्ता ने वशीकरण चूर्ण का प्रयोग करके उदयन को आकृष्ट किया था।१२ . विज्ञान वर्तमान में विज्ञान प्रकर्ष पर है पर नियुक्ति एवं चूर्णि-साहित्य में भी कुछ वैज्ञानिक तथ्य मिलते हैं। आज विज्ञान ने Space (क्षेत्र) और Time (समय) के बारे में काफी चिन्तन किया है। आइंस्टीन ने इस दिशा में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किए हैं लेकिन जैन दर्शन ने जिस सूक्ष्मता से इनके बारे में चिन्तन किया है, वहां तक विज्ञान की पहुंच नहीं हो सकी है। नियुक्तिकार के अनुसार काल से भी १. उनि १५५ । ८. आनि १९, विस्तृत वर्णन हेतु देखें इसी ग्रंथ में वर्ण २. उचू पृ. ९३ । व्यवस्था एवं वर्णान्तर जातियां पृ. ६९-७२। ३. उसुटी प.१३६;रइओ गरुडव्वूहो पज्जोएण, सागरव्वूहो दोमुहेण। ९. उनि ५१८, ५१९ । ४. आनि ३६ । १०. सूनि ४१। ५. सूनि ९८, सूचू १ पृ. १६५ । ११. उनि ९६। ६. सूचू १ पृ. १६५; विज्जा ससाहणा, मंतो असाहणो। १२. उनि १४८। ७. दशजिचू पृ. २२४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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