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नियुक्तिपंचक इसीलिए उन्होंने इन गाथाओं की व्याख्या नहीं की। फिर भी महापरिज्ञा के विच्छेद का प्रामाणिक समय अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है। आवश्यकनियुक्ति के अनुसार आचार्य वज्र ने महापरिज्ञा से गगनगामिनी विद्या सीखी। प्रभावक चरित्र में भी ऐसा उल्लेख मिलता है। यह संभावना की जा सकती है कि आर्य वज्रस्वामी के पश्चात् तथा आचार्य शीलांक से पूर्व इस अध्ययन का विच्छेद हो गया क्योंकि आचार्य शीलांक ने स्पष्ट रूप से इस अध्ययन के विच्छेद का उल्लेख किया है। लगभग वीर-निर्वाण की छठी शताब्दी के बाद महापरिज्ञा का लोप हो गया।
चर्णिकार के अनुसार महापरिज्ञा अध्ययन अयोग्य को नहीं पढ़ाया जाता था। पंडित दलसुखभाई मालवणिया का अभिमत है कि अध्ययन-अध्यापन में अधिकारी की अपेक्षा रहने से इसका वाचन कम हो गया और धीरे-धीरे इसका लोप हो गया। इसके अतिरिक्त इसमें नाना मोहजन्य दोषों का वर्णन होने से सर्वसाधारण के लिए पठनीय नहीं रहा अत: कालकवलित हो गया। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार नियुक्ति में वर्णित विषय-वस्तु के आधार पर ज्ञात होता है कि महापरिज्ञा अध्ययन में महान् परिज्ञा का निरूपण था। कालान्तर में सभी शिष्यों को उसका ज्ञान देना उचित प्रतीत नहीं हुआ इसलिए इस अध्ययन का पाठ विस्मृत हो गया। डॉ. हर्मन जेकोबी के अनुसार यह अध्ययन साधु जीवन का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत करता था, जिसका वर्णन आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध में विस्तार से हुआ है। संभव है इसी कारण से इस अध्ययन को अलग कर दिया क्योंकि यह अध्ययन पुनरुक्त दोष वाला हो गया था। गणाधिपति तुलसी भी इसी मत का समर्थन करते हुए कहते हैं कि नियुक्तिकार के अनुसार आचारचूला की प्रथम चूला के सात अध्ययन (सप्तैकक) महापरिज्ञा के सात उद्देशकों से निर्मूढ हैं। इस उल्लेख के आधार पर सहज ही यह अनुमान किया जा सकता है कि जो विषय महापरिज्ञा से उद्धृत सात अध्ययनों (सप्तककों) में हैं, वे ही विषय महापरिज्ञा अध्ययन में रहे होंगे। ऐसी संभावना की जा सकती है कि महापरिज्ञा से उद्धृत सात अध्ययनों के प्रचलन के बाद उसकी आवश्यकता न रही हो फलत: वह असमनुज्ञात और कमश: विच्छिन्न हो गया हो।
आचारांग सूत्र की चिंतामणि टीका में भी महापरिज्ञा अध्ययन के बारे में श्रुतानुश्रुत परम्परा का उल्लेख है। टीकाकार ने इसका वर्णन इस प्रकार किया है—'इस महापरिज्ञा अध्ययन में जल, स्थल, आकाश और पाताल में विहार करने वाली विद्या, परकायप्रवेश विद्या तथा सिंह, व्याघ्र आदि का शरीर धारण कर रूप-परिवर्तन करने की विद्या का वर्णन था। इस विषय में गुरु-परम्परा से यह घटना प्रसिद्ध है कि एक आचार्य अपने शिष्य को महापरिज्ञा अध्ययन पढ़ा रहे थे। शौचक्रिया की बाधा होने पर आचार्य १. आवनि ७६९; जेणुद्धरिया विज्जा, आगाससमा महापरिणाओ। ६. आचारांगभाष्यम्, पृ. ३५१; नियुक्तिवर्णितविषय
वंदामि अज्जवइरं, अपच्छिमो जो सुयधराणं।। वस्त्वाधारेण ज्ञायते तस्मिन् महती परिज्ञा २. प्रभावकचरित; महापरिज्ञाध्ययनादाचारांगान्तरस्थितात्।
निरूपिता आसीत्। कालान्तरे सर्वशिष्येभ्यः श्रीवजेणोद्धृता विद्या तदा गगनगामिनी।।
तस्या:प्रदानं नोचितं प्रतीतम्। तेन तस्याध्यय३. आटी पृ. १७३: अधुना सप्तमाध्ययनस्य महापरिज्ञाख्यस्यावसरः, नस्य पाठ: विस्मृतिं नीतः। तच्च व्यवच्छिन्नमिति।
७. Acāranga surta, perface page 50 | ४. आचू पृ. २४४; महापरिण्णा न पढिज्जइ असमणुण्णाया। ८. आचारांगभाष्यम् भूमिका पृ. १९ । ५. श्रमण १९५७; आचारांग सूत्र : एक परिचय।
९. आचारांग चिंतामणि टीका पृ. ३६३-६५ ।
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