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________________ ४५ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण शौचार्थ बाहर चले गए। शिष्य ने चंचलतावश महापरिज्ञा में वर्णित विद्या के आधार पर सिंह का रूप धारण किया। शिष्य वापिस मूल रूप में आने की विद्या से अपरिचित था इसलिए वह असली रूप में नहीं आ सका। आचार्य जब वापिस आए तब शिष्य को सिंह रूप में देखा। आचार्य ने उसे वापिस मुनि रूप में परिवर्तित कर दिया। इस घटना को देख आचार्य ने विचार किया कि पंचम काल में इस अध्ययन के पठन-पाठन से लाभ नहीं, अनर्थ होने की संभावना अधिक है अत: उसी समय से इसका वाचन स्थगित कर दिया। बाद में इसका संकलन भी नहीं हुआ और कालान्तर में इसका विच्छेद हो गया। टीकाकार ने अंत में उल्लेख किया है कि यह बात उन्हें अपने आचार्य से ज्ञात हुई। महापरिज्ञा शब्द का अर्थ एवं उसमें वर्णित विषयवस्तु महापरिज्ञा में दो शब्द हैं—महा+परिज्ञा। नियुक्तिकार ने महा शब्द के दो अर्थ किए हैं—१. प्रधान या विशेष २. परिमाण में बृहद् । यहां महा शब्द प्रधान अर्थ का द्योतक है। नियुक्तिकार ने परिज्ञा शब्द के भी दो भेद किए हैं....१. ज्ञ परिज्ञा २. प्रत्याख्यान परिज्ञा। मूलगुण और उत्तरगुण के आधार पर भावपरिज्ञा के भेद-प्रभेद किए गए हैं। मूलत: परिज्ञा शब्द ज्ञान और आचरण का समन्वित रूप है। नियुक्तिकार ने महापरिज्ञा अध्ययन के सात उद्देशकों का उल्लेख किया है। वर्तमान में महापरिज्ञा अध्ययन में वर्णित विषय-वस्तु को जानने के निम्न साधन हमारे समक्ष हैं १. नियुक्तिकार ने प्रारम्भिक गाथाओं में जहां सभी अध्ययनों के विषयों का संक्षेप में वर्णन किया है, वहां महापरिज्ञा अध्ययन के लिए कहा है कि इसमें मोहजन्य परीषह और उपसर्गों का वर्णन है। चूर्णिकार और टीकाकार ने भी इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि इन उपसर्गों को जानकर कर्म प्रत्याख्यान परिज्ञा से कर्म क्षीण करने चाहिए। मोह से उत्पन्न परीषह स्त्री के प्रति आसक्ति से उत्पन्न खतरे की ओर संकेत देता है। स्वयं नियुक्तिकार ने सबसे अंतिम गाथा में कहा है कि दैवी, मानुषी और तिर्यंच स्त्री के प्रति आसक्ति का मन, वचन और काया से परित्याग कर देना चाहिए, यही महापरिज्ञा अध्ययन का सार है। २. आचारांगनियुक्ति के अनुसार सप्तैकक चूलिका के सात उद्देशक महापरिज्ञा अध्ययन से निर्मूढ हैं अत: इस अध्ययन के आधार पर भी महापरिज्ञा की विषय-वस्तु का सामान्य ज्ञान हो सकता है। ३. प्रशमरतिप्रकरण के अनुसार इस अध्ययन में मूलगुण और उत्तरगुणों को भलीभांति जानकर तंत्र-मंत्र तथा आकाशगामिनी ऋद्धि का प्रयोग न करने का तथा प्रत्याख्यान परिज्ञा से हेय का त्याग कर ज्ञान, दर्शन, चारित्र में रमण करने का विधान है। ४. इस अध्ययन की विषय-वस्तु जानने का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन महापरिज्ञा अध्ययन की नियुक्ति है। इसकी प्रारम्भिक ग्यारह गाथाओं में इसके उद्देशकों में वर्णित विषय-वस्तु का उल्लेख १. आनि २६४; पाहण्णे महसदे, परिमाणे चेव होइ नायव्वो। ६. आचू पृ. २४४, आटी पृ. १७३ । २. आनि २६५, तेसि महासद्दो खलु, पाहण्णेणं तु निप्फण्णो। ७. आनि २७०। ३. आनि २६७, २६८। ८. आनि ३१०: सत्तेक्कगाणि सत्त वि निज्जूढाई ४. आनि ३६७। __महापरिण्णाओ। ५. आनि ३४: मोहसमुत्था परीसहुवसग्गा। ९. प्रशमरतिप्रकरण गा. ११५ टी. पृ. ७७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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