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________________ ४६ नियुक्तिपंचक मिलता है। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि इसमें साधु-जीवन की कठोर चर्या का उल्लेख था, यह नियुक्ति गाथाओं में वर्णित विषय-वस्तु से स्पष्ट है। लगता है इतनी कठोर चर्या का पालन असंभव समझकर धीरे-धीरे पठन-पाठन कम होने से इसका लोप हो गया। श्रुति-परम्परा के अनुसार इ अध्ययन में चमत्कार और ऋद्धि-सिद्धि का वर्णन था। संभव है योनिप्राभृत की भांति काललब्धि के अनुसार इसकी वाचना का परिणाम अच्छा नहीं रहा इसलिए समयज्ञ एवं बहुश्रुत आचार्यों ने इसकी वाचना देनी बंद कर दी हो। किन्तु यह बात नियुक्ति-गाथाओं के आधार पर प्रामाणिक नहीं लगती। यह भी संभव है कि आचार्यों ने वज्रस्वामी की गगनगामिनी विद्या वाली घटना के आधार पर इस अध्ययन की विषय-वस्त के बारे में यह कल्पना की हो। यह भी संभावना की जा सकती है कि उस समय महापरिज्ञा नाम का कोई स्वतंत्र ग्रंथ रहा होगा, जिसमें चमत्कार एवं ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने की विविध विद्याओं का वर्णन होगा। कालान्तर में वह ग्रंथ लुप्त हो गया और नाम-साम्य के कारण आचारांग के इस अध्ययन के साथ यह बात जुड़ गई हो। फिर भी इस विषय में अनुसंधान की आवश्यकता है कि महापरिज्ञा अध्ययन लुप्त क्यों हुआ तथा उसकी विषय-वस्तु क्या थी? सूत्रकृतांग एवं उसकी नियुक्ति सूत्रकृतांग दूसरा अंग आगम है। यह आचारप्रधान और दार्शनिक ग्रंथ है। चूर्णिकार ने इसकी गणना चरण-करणानुयोग में तथा आचार्य शीलांक ने इसे द्रव्यानुयोग के अंतर्गत माना है। इसमें स्वमत की प्रस्थापना के साथ परमत का खंडन भी किया गया है अत: इस ग्रंथ के अध्ययन से तत्कालीन प्रचलित विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं का सहज ज्ञान किया जा सकता है। इस ग्रंथ की तुलना बौद्ध ग्रंथ अभिधम्म पिटक से की जा सकती है। नियुक्तिकार ने इसको भगवान् विशेषण से अभिहित किया है, जो इसकी विशेषता का स्वयंभू प्रमाण है। सूत्रकृत में दो शब्द हैं—सूत्र और कृत। सूत्र शब्द की व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार ने श्रुतज्ञानसूत्र के चार भेद किए हैं—१. संज्ञासूत्र २. संग्रहसूत्र ३. वृत्तनिबद्ध ४. और जातिनिबद्ध । सूत्रकृतांग में चारों प्रकार के सूत्रों का उल्लेख है पर मुख्यतया वृत्तनिबद्ध का प्रयोग अधिक हुआ है क्योंकि यह वृत्तछंद में निबद्ध है। कृत शब्द के संदर्भ में करण की व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार ने श्रुत के मूलकरण का अर्थ त्रिविध योग और शुभ-अशुभ ध्यान किया है। नियुक्तिकार के अनुसार इस सूत्र में कुछ अर्थ साक्षात् सूत्रित हैं और कुछ अर्थ अर्थापत्ति से सूचित हैं। ये सभी अर्थ युक्तियुक्त हैं तथा ये आगमों में अनेक प्रकार से प्रयुक्त, प्रसिद्ध और अनादि हैं।५ - १. देखें आनि २५३-२७० तक की गाथाओं का अनुवाद। संख्या कम में इन गाथाओं को नहीं जोड़ा गया है। गा.२५३-६३ तक की प्रारम्भिक ग्यारह गाथाएं प्रकाशित २५३ से २७० तक की महापरिज्ञा अध्ययन की नियुक्ति टीका में उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन २६४-७० तक की गाथाएं सभी आदर्शों में मिलती हैं। सात गाथाएं दोनों श्रूतस्कंधों की टीका के अंत में दी गयी २. सूनि १।। हैं। टीकाकार ने 'अविवृता नियुक्तिरेषा महापरिज्ञाया:' ३. सूनि ३। मात्र इतना ही उल्लेख किया है। प्रकाशित टीका में चालू ४. सूनि १६ । ५. सूनि २१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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