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________________ आचारांग नियुक्ति २३५ १८४. १९०. १६४.. १४. सूक्ष्म अनन्तकाय वनस्पति का प्रस्थ के १८३. मूल शब्द का छह प्रकार से निक्षेप । दृष्टांत द्वारा परिमाण-निर्देश । भावमूल के प्रकारों का निर्देश । १४५. बादर निगोद के परिमाण का निर्देश । १८५. स्थान शब्द के पन्द्रह प्रकार से निक्षेप । १४६,१४७. वनस्पति के उपभोग के प्रकार । १८६. पंच इन्द्रिय-विषयों में राग-द्वेष से संसार की १४८. उक्त उपभोग के कारणों से वनस्पति की वृद्धि। हिंसा। १८७. वृक्ष की उपमा से संसार के मूल का १४९,१५०. वनस्पतिकाय के शस्त्र । निर्देश । १५१. पृथ्वीकाय की भांति अन्य द्वारों के निर्देश १८८. अष्ट कर्मों का मूल मोहनीय कर्म, उसका का कथन । मूल काम तथा काम का मूल संसार । १५२. त्रसकाय के द्वारों का निर्देश । १८९. मोह के भेद । १५३-५५. सकाय के भेद-प्रभेद । संसार का मूल कर्म, कषाय, स्वजन आदि । १५६,१५७. सकाय के लक्षण । १९१. कषाय शब्द के निक्षेप । १५८,१५९. प्रसकाय जीवों का परिमाण । १९२ संसार शब्द के निक्षेप । १६०-६२. प्रसकाय की वेदना, उपभोग तथा हिंसा के १९३,१९४. कर्म शब्द के निक्षेप तथा भेद । कारणों का निर्देश । १९५,१९६. संसार से मुक्ति के लिए कर्म, कषाय तथा १६३. पृथ्वीकाय की भांति ही अन्य द्वारों के कथन । स्वजनों से मोह के परित्याग का निर्देश । का निर्देश । १९७. संयम में अरति का मूल कारण-अध्यात्मवायुकाय के द्वारों का कथन । दोष । १६५. वायुकाय के भेद । तीसरा अध्ययन : शीतोष्णीय १६६. बादर वायुकाय के पांच भेद । १६७. उपमा द्वारा वायू में जीव के अस्तित्व की १९८,१९९. शीतोष्णीय अध्ययन के उद्देशकों की विषय सिद्धि । वस्तु का संक्षेप में कथन । १६८. वायुकाय का परिमाण । २००. शीत और उष्ण शब्द के निक्षेपों का कथन । १६९. वायुकाय के उपभोग के प्रकार । २०१. द्रव्य और भाव शीत तथा उष्ण का कथन । १७०,१७१. वायुकाय के शस्त्र । २०२,२०३. उष्ण परीषह तथा शीत परीषह के भेद । १७२. पृथ्वीकाय की भांति अन्य द्वारों के कथन २०४. उष्ण तथा शीत परीषह का स्वरूप । का निर्देश। २०५. शीत और उष्ण की दृष्टि से प्रमाद की व्याख्या। दूसरा अध्ययन : लोकविजय २०६. उपशांत शब्द के एकार्थक । १७३. लोकविजय अध्ययन के उद्देशकों की विषय- २०७. संयम सीतघर के समान तथा असंयम वस्तु का निर्देश। उष्ण । १७४. लोक, विजय, गुण, मूल तथा स्थान आदि २०८. निर्वाण-सुख के एकार्थक । शब्दों के निक्षेप की प्रतिज्ञा। २०९. तीव्र कषाय का फल । १७५. द्वितीय अध्ययन के नाम का निर्देश । २१०. द्रव्य और भाव परीषह-कथन का १७६,१७७. लोक शब्द के निक्षेप । अभिप्राय । १७८. भावलोक के विजय का फल । २११. शीत और उष्ण परीषह-सहन करने तथा १७९. गुण शब्द का पंद्रह प्रकार से निक्षेप । काम का सेवन न करने का निर्देश । १८०-८२. द्रव्यगुण, क्षेत्रगुण आदि की व्याख्या। २१२. ज्ञानी और अज्ञानी की पहचान । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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