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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५२९ में आभरण देखकर वह कुपित होकर भुकुटि चढाकर बोला-'हे अनार्य! ये मेरे पत्रों के आभरण हैं। तुमने उनको मारकर ये आभरण ग्रहण किए हैं? अभी तुम कहां जा रहे हो?' आचार्य भय से कांपने लगे और कुछ नहीं बोल सके। तत्काल देवता ने अपनी लीला समेटी और प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होकर बोला-'आप जैसे विशिष्ट आगमधरों के लिए ऐसा सोचना उचित नहीं है कि परलोक नहीं है। देवलोक में अपार सुख हैं अतः सुख का उपभोग करते हुए बीते हुए काल का ज्ञान नहीं हो पाता। आप भी देव द्वारा कुत नाटक छह महीने तक खड़े-खड़े देखते रहे पर आपको काल का ज्ञान नहीं हुआ।' __ आचार्य आषाढ़ परम संवेग को प्राप्त हुए और स्वयं की निंदा करने लगे। देव भी वंदना करके पुनः देवलोक चला गया। आचार्य भी आलोचना-प्रतिक्रमण करके वैराग्य की वृद्धि करते हुए विहरण करने लगे। २६. चोल्लक कांपिल्य नामक नगर था। वहां के राजा का नाम ब्रह्म और पटरानी का नाम चुलनी था। उनका पुत्र ब्रह्मदत्त बारहवां चक्रवर्ती बना। जब वह कुमार था तब राजा ब्रह्म की मृत्यु हो गयी। रानी चुलनी और राजा दीर्घ के आपस में प्रगाढ़ सम्बन्ध था अतः उनके भय से वह अपने मित्र वरधनु के साथ-साथ राज्य से पलायन कर गया। उस समय स्थान-स्थान पर घूमते हुए उसके सामने अनेक विपत्तियां आईं लेकिन एक कार्पटिक ब्राह्मण ने उसकी बहुत सेवा की और उसे अनेक विपत्तियों से बचाया। कालान्तर में ब्रह्मदत्त राजा बन गया। बारह वर्ष तक अभिषेक का कार्यक्रम चला। अभिषेक की बात सुनकर कार्पटिक वहां आया पर उसे वहां आश्रय नहीं मिला। अभिषेक का बारहवां वर्ष चल रहा था। कार्पटिक ने एक उपाय सोचा। वह अपने जूतों को बांधकर ध्वजारोहकों के साथ दौड़ने लगा। राजा ने उसे देखा और निकट वाले व्यक्ति से पूछा-'यह किसकी ध्वजा लिए दौड़ रहा है।' उन्होंने कहा-'राजन् ! हम नहीं जानते।' तब राजा ने उसे बुलाया। वह आया। राजा ने पहचान लिया कि यही मेरे सुखदु:ख में सहायक रहा है। राजा तत्काल हाथी से नीचे उतरा। उसे गले लगाया और कुशलक्षेम पूछा। राजा ने कार्पटिक से कहा-'जो चाहो मांग लो।' उसने कहा-'राजन् ! मैं अपनी पत्नी से पूछकर मांगूगा।' वह अपने गांव गया। पत्नी से कहा-'राजा संतुष्ट हुआ है। मैं जो कुछ मांगूगा, वह देगा। मैं क्या मांगू?' पत्नी ने सोचा, इसे यदि समृद्धि मिल जाएगी तो मेरा मूल्य कम हो जायेगा अत: वह बोली-'अधिक परिग्रह से क्या? पूरे भारतवर्ष में प्रतिदिन सबके यहां भोजन और दक्षिणा में दीनार-युगल मांग लो।' कार्पटिक राजा के पास गया और बोला-'राजन् ! मुझे करचोल्लग दो अर्थात् मैं पहले दिन आपके प्रासाद में भोजन करूं फिर बारी-बारी से भारतवर्ष में आपके राज्य के सभी संभ्रान्त कुलों में भोजन प्राप्त कर पुन: आपके प्रासाद में भोजन करूं ।' राजा ने मुस्कराकर कहा-'इस तुच्छ याचना से तुम्हें क्या लाभ होगा? तुम चाहो तो मैं तुम्हें एक देश का राज्य अथवा १. उनि.१२३-४१ उशांटी.प. १३३-३९ उसुटी.प. ५२-५५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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