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________________ निर्युक्तिपंचक नौ मास तक गर्भ में धारण किया, जिसका मैंने मल-मूत्र धोया, उस पुत्री ने मेरे पति का हरण कर लिया। शरण मेरे लिए अशरण बन गया । ' ५२८ पुनः सकाय एक और कथानक कहने लगा। एक ब्राह्मण ने एक तालाब खुदवाया। उसके निकट उसने एक मंदिर और बगीचा बनवा दिया। वहां यज्ञ में बकरे मारे जाते थे। वह ब्राह्मण मरकर वहीं बकरा बना। उसके पुत्र उसी बकरे को तालाब के देवालय में यज्ञ में बलि देने के लिए ले गए। बकरे को जातिस्मृति हो गयी। वह अपनी भाषा में बुड़बुड़ाने लगा। उसने मन ही मन सोचा - 'ओह ! मैंने ही तो देवमंदिर बनाया और मैंने ही यह यज्ञ प्रवर्तित किया।' कांपते हुए बकरे को एक अतिशय ज्ञानी ने देखा। मुनि ने बकरे को कहा -' -'तुमने स्वयं ही तो वृक्ष रोपा और तालाब खुदवाया। अब देव के भोग का अवसर आया तब क्यों चिल्ला रहे हो?' इस बात को सुनकर वह बकरा चुप हो गया। ब्राह्मणपुत्रों ने मुनि से पूछा - 'यह बकरा तुम्हारे कुछ कहने मात्र से चुप कैसे हो गया?' साधु ने कहा- 'यह तुम्हारा पिता है।' उसने पूछा- 'इसकी पहचान क्या है?' मुनि ने कहा- 'पूर्वभव में तुम्हारे पिता ने तुम्हारे साथ जो धन गाड़ा है, इसे यह जानता है।' बकरा उस स्थान पर गया और अपने पैरों से उस पृथ्वी को कुरेदने लगा । पुत्र को विश्वास हो गया और उसने उस बकरे को मुक्त कर दिया। साधु के पास धर्म सुनकर बकरे ने भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार किया और मरकर देवलोक गया। उस ब्राह्मण ने यज्ञ और मंदिर को शरण मानकर उनका निर्माण किया लेकिन वे अशरण ही निकले। आचार्य ने उसकी बात सुनकर कहा तुम बोलने में अति चतुर और वाचाल हो। ऐसा कहकर आचार्य आषाढ़ उसका गला मरोड़ने लगे। उसने सुभाषित सुनाया - ' जो अंधों, हीन तथा लूलोंलंगड़ों पर, बाल-वृद्ध, क्षमाशील तथा विश्वस्त जनों पर, रोगियों तथा शरणागतों पर, दुःखी, दीन तथा दरिद्रों पर निर्दयता से प्रहार करते हैं वे अपने सात कुलों को सातवी नरक में ले जाते हैं।' तुम अति वाचाल हो, यह कहकर आचार्य ने उसके आभूषण भी ग्रहण कर लिए। देव ने सोचा- 'आचार्य . चारित्र से तो शून्य हो गए हैं अब इनके सम्यक्त्व की परीक्षा करनी चाहिए।' छहों के आभूषण लेकर आचार्य आगे चले | देव ने साज-श्रृंगार किए हुए एक गर्भवती साध्वी की विकुर्वणा की । विभूषित साध्वी को देखकर आचार्य आषाढ़ ने कहा- 'अरे! तुम्हारे हाथों में कटक हैं, कानों में कुंडल हैं, आंखों में अंजन आंज रखा है, ललाट पर तिलक है। हे प्रवचन का उड्डाह करने वाली दुष्ट साध्वी ! तू कहां से आई है ?' साध्वी कुपित होकर बोली- 'हे आर्य! तुम दूसरों के राई और सर्षप जितने छोटे दोषों को भी देख लेते हो किन्तु अपने बिल्व जितने बड़े दोषों को देखते हुए भी नहीं देखते।' साध्वी ने आगे कहा- ' आप श्रमण हैं, संयत हैं, ब्रह्मचारी हैं, कंचन और पत्थर को समान समझते हैं, वायु की भांति अप्रतिबद्धविहारी हैं । हे ज्येष्ठार्य ! कृपा कर बताएं आपके पात्र में क्या हैं ?' साध्वी के ऐसा कहने पर आचार्य लज्जित होकर आगे-आगे चलने लगे। आगे चलने पर उन्होंने एक सेना को आते देखा। वे दंडनायक के सम्मुख गए। दंडनायक ने हाथी से उतरकर आचार्य को वंदना की और कहा - 'भंते! आज मेरा परम सौभाग्य है कि इस जंगल में आपके दर्शन हुए । आप मुझ पर अनुग्रह करें और ये प्रासुक मोदक मेरे हाथ से ग्रहण करें।' आचार्य ने उपवास की बात कहकर लेने से इंकार कर दिया। उसने बलपूर्वक पात्र ग्रहण किया और मोदक डालने लगा । झोली For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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