SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति २२७ इकतीसवां अध्ययन : चरण-विधि ५०९,५१०. चरण शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य चरण के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त चरण में भिक्षा आदि की गति अर्थात् भक्षण लिया गया है । आचार को क्रियान्वित करना भावचरण है । ५११,५१२. विधि शब्द के चार निक्षेप हैं -नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य विधि के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तव्यतिरिक्त । तदव्यतिरिक्त विधि में इन्द्रियों की विषयचारिता ज्ञातव्य है । भाव विधि दो प्रकार की है-संयमोपयोग और तपोयोग। ५१३. प्रस्तुत अध्ययन में भाव चरण और भाव विधि का प्रसंग है। अतः अचरणविधि को छोड़कर चरणविधि में उद्यम करना चाहिए। बत्तीसवां अध्ययन : प्रमाद-स्थान ५१४,५१५. प्रमाद के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। द्रव्य प्रमाद के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः। नो-आगमतः के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर. तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त प्रमाद मथ आदि जनित है। भाव प्रमाद है-निद्रा, विकथा, कषाय और विषय । ५१६. स्थान शब्द के चौदह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, अद्धा, ऊर्च, उपरति, वसति, संयम, प्रग्रह, योध, अचल, गणना और संधना। ५१७. यहां भावप्रमाद और संख्या युक्त भावस्थान का अधिकार है अतः प्रमाद को छोड़कर अप्रमाद में प्रयत्न करना चाहिए। ५१८. हजार वर्ष तक उग्रतप तपने वाले आदिनाथ ऋषभ का संकलित प्रमादकाल अर्थात् समस्त प्रमादकाल एक अहोरात्र का था। ५१९. बारह वर्ष से अधिक उग्र तप तपने वाले चरम तीर्थंकर महावीर का संकलित प्रमादकाल अन्तर्मुहूर्त का है। ५२०. धर्म के प्रयोजन से शून्य जिनका काल निरर्थक बीतता है, वे प्राणी प्रमाद के दोष से अनन्तकाल तक संसार में चक्कर लगाते हैं। ५२१. इसलिए पंडित पुरुष को प्रमाद छोड़कर ज्ञान, दर्शन, चारित्र में अप्रमाद करना चाहिए। तेतीसवां अध्ययन : कर्मप्रकृति ५२२,५२३. कर्म शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य मिक्षेप के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः। नो-आगमतः के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त। तद्व्यतिरिक्त के दो भेद हैं-कर्म, नोकर्म । कर्म में कर्म की अनुदयावस्था गृहीत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy