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________________ निर्युक्तिपंचक वर्षाकाल पूर्ण हो जाने पर पर्वतीय नदियों के शीघ्रगामी प्रवाह को रोकने के लिए मैं नवनीत की पाल बांधता हूं। इस पर भी होल नामक वाद्य बजना चाहिए। पांचवां व्यक्ति बोला ५३४ जच्चाण णवकिसोराण, तद्दिवसेण जायमेत्ताण । केहि नभं छाएमि, एत्थ वि ता मे होलं वाएहि ॥ तत्काल उत्पन्न जात्य अश्व किशोरों के केशों से मैं नभ को आच्छादित कर देता हूं । इस पर भी होल नामक वाद्य बजना चाहिए । छठा व्यक्ति बोला दो मज्झ अस्थि रयणाई, सालिपसूई य गद्दभीया य । छिन्ना छिन्ना वि रुहंति, एत्थ वि ता मे होलं वाएहि ॥ मेरे पास दो रत्न हैं - सालिप्रसूति और गर्दभिका (विद्याविशेष), जो काट लेने पर भी बारबार उगते रहते हैं । इस पर भी होल नामक वाद्य बजना चाहिए । सातवां व्यक्ति बोला Jain Education International सय सुक्किल निच्चसुगंधो, भज्ज अणुव्वय णत्थि पवासो । निरिणो य दुपंचसओ, एत्थ वि ता मे होलं वाएहि ॥ मुझे सदा श्वेत शालि धान का भोजन मिलता है । पत्नी अनुगामिनी है। प्रवास नहीं है । ऋण-मुक्त हूं। पास में हजार स्वर्णमुद्राएं हैं। यहां भी होल नामक वाद्य बजना चाहिए । चाणक्य ने यह सब सुना। सबसे यथोचित धन की याचना की । शालि से कोष्ठागार भर दिए, जिनके प्रभाव से बार-बार काटने पर भी खेती ज्यों की त्यों बनी रहती थी। एक दिवसजात अश्वों की मांग की। एक दिवसीय नवनीत मांगा। स्वर्ण- उत्पादन के लिए चाणक्य ने यंत्रमय पाशक बनाए। एक दक्ष व्यक्ति को पाशे चलाने सिखा दिए। उसने दीनारों से एक थाल भरा। वह दक्ष व्यक्ति थाल को लिए घोषणा करने लगा - 'जो कोई मुझे जुए में जीत लेगा, मैं उसे दीनारों से भरा यह थाल दे दूंगा। यदि मैं जीतूंगा तो केवल एक दीनार लूंगा।' लोग लोभाविल हो उसके साथ जुआ खेलने लगे। दक्ष पुरुष की इच्छानुसार पाशे गिरते । सदा वही जीतता । कोई उसे पराजित नहीं कर सका। कदाचित् कोई उस दक्षपुरुष को पाशे में जीत भी सकता है पर दुर्लभ मनुष्य जन्म पुनः मिलना दुर्लभ है ।" २८. धान्य भरत क्षेत्र के सभी धान्यों को पिंडित करके ढेर लगा दिया। उसमें एक प्रस्थ सरसों के डाल दिए । वृद्धा सूर्प लेकर सरसों के दानों को अलग करने लगी । क्या वह पुनः सारे सरसों १. उनि. १६१, उसुटी. प. ५७-५९ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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