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________________ २१० निर्यक्तिपंचक २५५. नमि के आयुष्य, नाम, गोत्र का वेदन करने वाला भावनमि होता है। इस अध्ययन में नमि की प्रव्रज्या का वर्णन होने के कारण इसका नाम नमिप्रव्रज्या है। २५६. प्रव्रज्या शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । अन्यतीथिकों की द्रव्य प्रव्रज्या है और भाव प्रव्रज्या है-आरम्भ तथा परिग्रह का त्याग । २५७. कलिंग में करकंडु, पांचाल में दुर्मुख, विदेह में नमीराजा और गंधार देश में नग्गती राजा प्रतिबुद्ध होकर प्रवजित हुए। २५८. करकंडु की बोधि का निमित्त था वृषभ, दुर्मुख की बोधि का निमित्त था इन्द्रकेतु, नमिराजा की बोधि का निमित्त था कंकण और गंधारराजा (नग्गति) की बोधि का निमित्त था आम का पुष्पित वृक्ष। २५९. गोकूल में श्वेत वर्ण वाले, अहीन अंगोपांग वाले और सुविभक्त सींग वाले बैल की ऋद्धि--बलोपचयता तथा अवद्धि-शक्तिहीनता का सम्यग् पर्यालोचन कर कलिंग राजा ने मुनि धर्म को स्वीकार किया। २६०,२६१. करकंड ने गोबाड़े में एक हृष्टपुष्ट बैल को देखा । उसकी गर्जना सुनकर सूतीक्ष्ण सींगों वाले सशक्त, दृप्त और बलिष्ठ वृषभ भी पलायन कर जाते थे। कुछ समय बाद राजा करकंड पुनः गोबाड़े में उसी बैल को देखने गया। उसने देखा वही बैल शक्तिहीन, धंसी आंखों वाला, प्रकंपित थभ और होठों को चबाने वाला तथा तत्र स्थित सामान्य भैंसों के संघट्टन को सहन करने वाला हो गया है। २६२. समलंकृत इन्द्रध्वज को इधर-उधर गिरते हुए और लोगों द्वारा लटे जाते हए देखकर उसकी ऋद्धि-पूर्णता और अवृद्धि-रिक्तता को सोचकर पंचालराजा ने भी मूनि धर्म स्वीकार कर लिया। २६२।१. चन्द्रमा की हानि और वृद्धि एवं महानदी की पूर्णता और रिक्तता को देखकर तथा यह सोचकर कि यहां सब कुछ अनित्य और अध्रुव है, पंचाल राजा ने भी मुनि धर्म को स्वीकार कर लिया। २६३. मिथिलापति नमिराजा छह मास से दाह रोग से पीड़ित था। राजा का यह रोग वैद्यों द्वारा भी अचिकित्स्य हो गया । कार्तिक पूर्णिमा के दिन राजा ने स्वप्न में शेषनाग और मेरुपर्वत को देखा । तत्पश्चात् नंदी तूर्य का घोष सुनकर प्रतिबुद्ध हो गया। २६४. विदेह के दो नमिराजा राज्य को छोड़कर प्रवजित हुए थे। उनमें एक तीर्थकर हुए और एक प्रत्येकबुद्ध । २६५. वे भगवान् नमितीर्थकर अपने पुत्र को राज्य देकर परिग्रह छोड़कर, हजार व्यक्तियों से परिवृत होकर प्रवजित हुए। १. देखें-परि० ६, कथा सं ४९ २. वही, कथा सं० ५० ३. वही, कथा सं० ५१ ४. वही, कथा सं० ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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