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________________ निर्युक्तिपंचक विज्ञान अभी तक तैजस्काय में जीवत्व के लक्षण नहीं खोज पाया है लेकिन भगवान् महावीर ने अपने ज्ञानचक्षुओं से इसमें चैतन्य के लक्षण देखे । नियुक्तिकार व्यावहारिक हेतुओं द्वारा तैजसका में जीवत्व के लक्षण प्रतिपादित करते हुए कहते हैं— 'जैसे रात्रि में खद्योत ज्योति करता है, वह उसके शरीर की शक्ति विशेष है । इसी प्रकार अंगारे में भी प्रकाश आदि की जो शक्ति है, वह तैजस्कायिक जीवों से आविर्भूत है। जैसे ज्वरित व्यक्ति की उष्मा सजीव शरीर में ही होती है, वैसे ही अग्निकायिक जीवों में प्रकाश या उष्मा उनके शरीर की शक्ति- विशेष है । जैसे आहार करने पर मनुष्य के शरीर की वृद्धि होती है,वैसे ही ईंधन आदि के द्वारा अग्नि बढ़ती जाती है अतः तैजस्काय सजीव है । जैसे मनुष्य ऑक्सीजन के आधार पर जीता है, वैसे ही अग्नि भी ऑक्सीजन के आधार पर ही प्रज्वलित रहती है अन्यथा वह बुझ जाती है । वायुकाय ९२ तैजस्काय वायु इंद्रियंगम्य नहीं, केवल अनुभूतिगम्य है । इसके अस्तित्व को सिद्ध करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं— 'जैसे देवताओं का शरीर चक्षुग्राह्य नहीं होता, जैसे—अंजन, विद्या तथा मंत्र - शक्ति से मनुष्य अंतर्धान हो जाता है, वैसे ही चक्षुग्राह्य न होने पर भी वायु का अस्तित्व है ।'' गाय, मनुष्य आदि की भांति किसी भी प्रेरणा के बिना ही वायु अनियमित रूप से इधर-उधर गति करती है, अत: वह सजीव है । १३ वनस्पतिकाय आचारांग सूत्र में वनस्पति और मानव की बहुत सुंदर तुलना की गयी है संभवत: इसीलिए पुनरुक्ति के भय से निर्युक्तिकार ने वनस्पति में जीवत्व - सिद्धि का कोई हेतु नहीं दिया। आयारो में वर्णित मनुष्य और वनस्पति की तुलना द्रष्टव्य है मनुष्य ९. मनुष्य जन्मता है । २. मनुष्य बढ़ता है। ३. मनुष्य चैतन्ययुक्त है । ४. मनुष्य छिन्न होने पर क्लान्त होता है । ५. मनुष्य आहार करता है। 1 ६. मनुष्य अनित्य है । ७. मनुष्य अशाश्वत | ८. मनुष्य उपचित और अपचित होता है। ९. मनुष्य विविध अवस्थाओं को प्राप्त होता है । १. आनि ११९ । २. भिक्षुन्यायकर्णिका ७/११ । Jain Education International वनस्पति वनस्पति भी जन्मती है 1 वनस्पति भी बढ़ती है । वनस्पति भी चैतन्ययुक्त 1 वनस्पति भी छिन्न होने पर क्लान्त होती है । वनस्पति भी आहार करती है । वनस्पति भी अनित्य I वनस्पति भी अशाश्वत I वनस्पति भी उपचित और अपचित होती है । वनस्पति भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होती है । ३. आनि १६७ । ४. आयारो १ / ११३ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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