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________________ ४८२ निर्युक्तिपंचक घूमता था । वह कहता था कि जो मुझे असुनी बात सुनाएगा उसे मैं यह स्वर्ण - खोरक दे दूंगा । एक श्रावक ने यह घोषणा सुनी। उसने परिव्राजक से कहा- तुझ पिया मम पिउणो, धारेई अणूणयं सयसहस्सं । जइ सुयपुव्वं दिज्जउ, अह न सुयं खोरयं देहि ॥ तुम्हारे पिता ने मेरे पिता से लाख रुपए उधार लिए थे। यह बात तुम्हारी सुनी हुई है तो वे रुपए लौटा दो और यदि नहीं सुनी हुई है तो यह स्वर्ण खोरक दे दो ।' २०. हेतु उपन्यास एक व्यापारी यव खरीद रहा था। दूसरे व्यक्ति ने पूछा--यवों को क्यों खरीद रहे हो ? उसने कहा———ये खरीदने से ही मिलते हैं, मुफ्त नहीं ।' यव खरीदने का यह हेतु है । " २१. धूर्त पत्नी एक वणिक् अपनी स्त्री को साथ ले प्रत्यंत देश में चला गया । प्रत्यंत देश में वे जाते हैं जो दरिद्र हैं, भाग्यहीन हैं, अपराधी हैं अथवा जो विपरीत कलाओं में निष्णात् हैं । वणिक् की स्त्री कुलटा थी । वह एक पुरुष में आसक्त थी । उस वणिक् पति को अपने बीच व्यवधान समझकर एक दिन वह बोली- 'व्यापार करने के लिए जाओ।' वणिक् बोला -- 'क्या लेकर जाऊं ?' वह बोली- 'उष्ट्र लिण्डिका, (ऊंट के मींगने) लेकर उज्जयिनी जाओ और एक एक दीनार में एक एक लिfuser को बेचो ।' स्त्री का अभिप्राय यह था कि वणिक् लम्बे समय तक वहीं रह जाए । वह बेचारा ऊंट के मींगनों से भरकर एक गाड़ी उज्जयिनी ले गया । बाजार में मींगनों का ढेर लगाकर ग्राहक की प्रतीक्षा करने बैठ गया पर किसी ने कुछ नहीं पूछा । अचानक वहां मूलदेव आ गया । उसने देखा और पूछा तो वणिक् ने सारी बात बता दी । मूलदेव ने सोचा कि यह बेचारा अपनी पत्नी के द्वारा छला गया है। उसने कहा- 'भाई ! मैं इन सबको बिकवा दूंगा यदि तुम आधा हिस्सा मुझे दे दो तो ?' वणिक् ने स्वीकार कर लिया । मूलदेव तब पिशाच का रूप बनाकर आकाश में उड़ गया । वह नगर के बीच में ठहरकर बोला- 'मैं देव हूं। जिस बच्चे के गले में उष्ट्र-लिंडिका बंधी हुई नहीं होगी उस बच्चे को में मार दूंगा ।' तब सभी भयभीत लोगों ने एक एक दीनार में उष्ट्र-लिडिका खरीद ली । वणिक् का सारा माला बिक गया। उसने आधा हिस्सा मूलदेव को दे दिया । मूलदेव बोला - तेरी स्त्री तो किसी धूर्त्त से लगी हुई है, इसीलिए उसने तेरे साथ ऐसा व्यवहार किया है । वणिक् को विश्वास नहीं हुआ तो मूलदेव ने कहा- 'आओ, हम वहां चलें । तुझे विश्वास न हो तो प्रत्यक्ष दिखा देता हूं ।' वे दोनों वेष बदलकर वहां गए और विकाल का बहाना कर ठहरने के लिए स्थान मांगा। उस स्त्री ने स्थान दे दिया। वे एक ओर ठहर गए । कुछ समय पश्चात् घर में वह धूर्त आया और स्त्री उसके साथ मदिरापान करने लगी । इसी बीच में वह गाने लगी 'लक्ष्मी के मन्दिर का पुजारी मेरा पति वाणिज्य के लिए गया है वह सैकड़ों वर्षों तक जीए पर जीता हुआ घर न आए ।' १. दशनि ८२, अचू पृ. २७, हाटी प. ५६ । Jain Education International २. दशनि ८२, अचू पृ. २८, हाटी प. ५६, ५७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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