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________________ दशवैकालिक निर्युक्ति १. सिद्धिगतिमुवगाणं, कम्मविसुद्घाण सव्वसिद्धाणं । नमिऊणं दसका लियनिज्जुत्ति कित्तस्सामि ॥ २. आई मज्भवसाणे, काउं मंगलपरिग्गहं विहिणा । नामाइ मंगलं पि य, चउव्विहं पण्णवेऊणं ॥ ३. सुयनाणं अणुयोगेणाऽहिगयं र सो चउब्विहो होइ । चरणकरणाणुयोगे, धम्मे 'गणिए य" दविए य ।। ४. अपुहत्तपुहत्ता, निद्दिसिउं एत्थ होइ अहिगारो । चरणकरणाणुयोगेण, तस्स दारा इमे होंति । ५. निक्खेवेग - निरुत्त-विही पवित्तीय केण वा कस्स । तद्दार भेय-लक्खण, तदरिहपरिसा य सुत्तत्थो । ६. एयाई परूवेडं, कप्पे वण्णियगुणेण गुरुणा उ । अयोग दसवेयालियस्स विहिणा कहेयव्वो । ७. दसकालियं ति नामं, संखाए कालओ य निद्देसो । दसकालिय- सुयबंध, अज्भयणुद्देस निक्खिविरं ॥ ८. नामं ठवणा दविए, माउगपद - संग हेक्कए चेव । पज्जव - भावे य तहा, सत्तेते एक्कका होंति । दारं || १. प्रारंभ की सात गाथाएं दोनों चूर्णियों ( अगस्त्य सिंहस्थविरकृत तथा जिनदास महत्तरकृत) में निर्दिष्ट नहीं हैं । ये गाथाएं भद्रबाहु के बाद जोड़ी गई हैं, किन्तु टीकाकार हरिभद्र के समय तक ये निर्युक्तिगाथा के रूप में प्रसिद्ध हो गई थीं इसलिए प्रायः गाथाओं के आगे टीकाकार ने 'आह नियुक्तिकार : ' लिखा है । इन गाथाओं को बाद में जोड़ने का एक प्रमाण यह है कि गा. ६ में 'कप्पे' शब्द बृहत्कल्पभाष्य की ओर संकेत करता है । गा. ५ 'निक्खेवेग' बृहत्कल्पभाष्य (गा. १४९ ) की है। इसकी व्याख्या बृहत्कल्पभाष्य की Jain Education International पीठिका में विस्तार से की गई है। निर्युक्तिकार बृहत्कल्पभाष्य का अपने ग्रन्थ में संकेत नहीं करते क्योंकि वे भाष्य से पूर्ववर्ती हैं । अतः ये गाथाएं बाद में जोड़ी गई हैं, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है । २. गेण अहि० ( अ ) । ३. काले य (हा, रा), टीका में 'काले य' पाठ की व्याख्या है - 'काले चेति कालानुयोगश्च गणितानुयोगश्चेत्यर्थः ' (हाटी प. ४) । ४. अपुहुत्तपुहु (हा, जिचू ) । ५. भणिया (जिंचू ) । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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