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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं
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आगंतार-धर्मशाला। तत्र आगत्य आगत्यागारा तिष्ठति तं आगंतागारम्।
जहां आ-आकर पथिक ठहरते हैं, वह आगंतागार-धर्मशाला है। (आचू. पृ. ३४०) आगास-आकाश। आकाशन्ते-दीप्यन्ते स्वधर्मोपेता आत्मादयो यत्र तदाकाशम्।
अपने-अपने धर्मों से युक्त पदार्थ जहां दीप्त होते हैं, वह आकाश है। (दशहाटी. प. ६९) आणापाणु-आन-अपान । णासिकागतस्स वातस्स अंतो अणुप्पवेसणमाणू.पाणूहिं निच्छुभणं आणापाणू। नासिकागत वायु को भीतर ले जाना 'आन' तथा बाहर निकालना 'अपान' है।
(दशअचू. पृ. ६७) आणारुइ-आज्ञारुचि। जा तित्थगराणं आणा तं आणं महता संवेगसमावन्नो पसंसइ एस आणारुई। - जो तीर्थंकरों की आज्ञा की तीव्र संवेग से प्रशंसा करता है, आदर करता है, वह आज्ञारुचि
(दशजिचू.पृ. ३३) आतजोगि-आत्मयोगी। आतजोगीणं ति जस्स जोगा वसे वटुंति आप्ता वा यस्य जोगा। जिसके योग वशवर्ती होते हैं अथवा जिसके योग आप्त हैं, वह आप्तयोगी कहलाता है।
(दचू.प. २७) आयंक-आतंक। फुसंति पावंति आगता अंगं संकामेन्ति आयंका।
जो बाहर से आकर शरीर का स्पर्श करते हैं, उसे प्राप्त करते हैं तथा उसमें सक्रांत होते हैं, वे आतंक-सद्योघाती रोग हैं।
(आचू. पृ. २०३) • सारीरमाणसेहिं दुक्खेहिं अप्पाणं अंकेति आतंको। शारीरिक और मानसिक दुःखों से जो व्यक्ति को आतंकित करता है, वह आतंक है।
(आचू. पृ. ३८) आलीढ-आलीढ, युद्ध की मुद्रा विशेष । तत्थालीढं दाहिणपादं अग्गहुत्तं काउं वामं पादं पच्छतोहुत्तं
ओसारेति, अंतरं दोण्ह वि पायाणं पंचपादा। धनुर्धर के खड़े रहने की एक अवस्थिति विशेष आलीढ है, जिसमें दक्षिण पैर आगे और
वाम पैर पीछे रहता है। दोनों के मध्य पांच कदमों का अन्तर होता है। (दचू. प. ४) आवण-आपण। आवणं कयविकयत्थाणं । क्रय-विक्रय का स्थान आपण है।
(दशअचू. पृ. ११७) आवेसण-आवेसन। आगंतुं विसंति जहियं आवेसणं। जहां आगंतुक आकर बैठते हैं, वह आवेसन है।
(आचू. पृ. ३११) आसायणा-आशातना। मिच्छापडिवत्तीए, जे भावा जत्थ होंति सब्भूता।
तेसिं तु वितहपडिवज्जणाए आसायणा तम्हा॥ सद्भूत अर्थ को मिथ्या प्रतिपत्ति के द्वारा वितथरूप में स्वीकार करना आशातना है।
(दनि. १९) • आयं सादयति आसादणा।
जो आय-लाभ का विनाश करती है, वह आशातना है। (दचू. प. ११) Jain Education International For Private & Personal Use Only
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