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नियुक्तिपंचक
आसीविस-आशीविष । दाढासु जस्स विसं स आसीविसो भण्णति। जिसकी दाढ़ा में विष होता है, वह आशीविष है।
(उचू.पृ. १८५) आसुपण्ण-आशुप्रज्ञ। आसुपण्णे त्ति न पुच्छितो चिंतेति, आशु एव प्रजानीते आशुप्रज्ञः।
प्रश्न करने पर जिसको चिन्तन नहीं करना पड़ता, तत्काल सब कुछ समझ लेता है, वह आशुप्रज्ञ कहलाता है।
(सूचू. १. पृ. १२६) • आशुप्रज्ञ इति क्षिप्रप्रज्ञः क्षणलवमुहूर्तप्रतिबुद्ध्यमानता।
आशुप्रज्ञ वह है, जो प्रतिक्षण जागरूक तथा अप्रमत्त रहता है। (सूचू.१. पृ. २२९) • आशुप्रज्ञः न छद्मस्थवद् मणसा पर्यालोच्य पदार्थपरिच्छित्तिं विधत्ते। जो छद्मस्थ की भांति मन से पर्यालोचित कर पदार्थों का अवबोध नहीं करता, वह आशुप्रज्ञ
(सूटी. पृ. १०१) आसूरिय-आसूर्य । आसूरियाणि न तत्थ सूरो विद्यते, अधवा एगिदियाणं सूरो णत्थि जाव तेइंदिया
असूरा वा भवंति। आसूर्य अर्थात् जहां सूर्य नहीं होता, प्रकाश नहीं होता अथवा एकेन्द्रिय जीवों से त्रीन्द्रिय
जीवों तक असूर्य होते हैं, उनके आंखें नहीं होतीं। (सूचू.१. पृ. ७२, ७३) आहेण-आहेण। आहेणं ति यद्विवाहोत्तरकालं वधूप्रवेशे वरगृहे भोजनं क्रियते।
विवाह के बाद वधू के गृहप्रवेश पर वर के घर में जो भोज का आयोजन किया जाता है, वह आहेण (बडार का बहूमेला) कहलाता है।
(आटी. पृ.२२३) इंगाल-अंगारा। खदिरादीण णिद्दड्ढाण धूमविरहितो इंगालो। खदिर आदि लकड़ियों के जल जाने पर जो धूमरहित धगधगता कोयला होता है, वह अंगार
(दशअचू. पृ. ८९) इंदियदम-इन्द्रियसंयम। इंदियदमो सोइंदियपयारणिरोधो वा सद्दातिराग-दोसणिग्गहो वा।
श्रोत्रेन्द्रिय के विषय का निरोध अथवा शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों के प्रति राग-द्वेष का निग्रह करना इन्द्रियदम है।
(दशअचू.पृ. ९३) इतरेतरसंजोग-इतरेतरसंयोग । दुप्पभितीण परमाणूणं जो संजोगो सो इतरेतरसंजोगो भवति परमाणूणं ।
दो-तीन आदि परमाणुओं का संयोग होना इतरेतरसंयोग है। (उचू. पृ. १७) उक्कोसणियंठ-उत्कृष्ट निर्ग्रन्थ। जो उक्कोसएसु संयमट्ठाणेसु वट्टति सो उक्कोसणियंठो भण्णति ।
जो उत्कृष्ट संयम-स्थानों में वर्तन करता है, वह उत्कृष्ट निर्ग्रन्थ है। (उचू.पृ. १४६) उग्ग-उग्र। खत्तिएणं सुद्दीए जातो उग्गोत्ति वुच्चइ।
क्षत्रिय पुरुष से शूद्र स्त्री में उत्पन्न संतान उग्र कहलाती है। (आचू.पृ. ५) उजलण-उज्ज्वलन। उज्जलणं नाम वीयणमाईहिं जालाकरणमुज्जलणं। पंखे आदि से अग्नि को उद्दीप्त करना उज्ज्वलन है।
(दशजिचू.पृ. १५६) उज्जु-ऋजु। उज्जु रागद्दोसपक्खविरहितो। ऋजु वह होता है, जो राग-द्वेष के पक्ष से रहित है।
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