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निर्युक्तिपंचक
गणधर गौतम का औदारिक शरीर अग्नि तथा बालसूर्य की किरणों के समान तेजस्वी था । गौतम स्वामी को आते देखकर वे आपस में बोले - 'हम महातपस्वी भी ऊपर नहीं चढ़ सके तो यह स्थूलकाय श्रमण पर्वत पर कैसे चढ़ पाएगा?' गौतम स्वामी जंघाचारण लब्धि से मकड़ी के जाले के तंतुओं के सहारे ऊपर चढ़ गए। तापसों ने देखा कि गौतम आए और अदृश्य हो गए। वे विस्मित होकर उनकी प्रशंसा करने लगे। गौतम स्वामी की ऋद्धि देखकर उन्होंने आपस में चिंतन किया कि जब ये नीचे उतरेंगे तब उनको गुरु रूप में स्वीकार कर लेंगे। वे तापस वहीं बैठ गए। गौतम स्वामी ने उत्तर-पूर्व दिशा में पृथ्वी शिला पट्ट पर अशोक वृक्ष के नीचे रात बिताई ।
उसी समय लोकपाल वैश्रमण इंद्र अष्टापद चैत्यवंदन के लिए आया। इंद्र ने चैत्यवंदन करके गौतम स्वामी को वंदन किया। गौतम स्वामी ने अनगार के गुणों पर प्रवचन दिया । प्रवचन सुनकर वैश्रमण इन्द्र ने सोचा- 'भगवान् गौतम ने इस प्रकार के दुष्कर साधु-गुणों का वर्णन किया है । इनका स्वयं का शरीर तो देवताओं से भी अधिक सुकुमार है।' गौतम स्वामी ने उनके मानसिकआशय को जानकर पुंडरीक नामक अध्ययन की प्ररूपणा करते हुए कहा - 'पुष्कलावती विजय में पुष्करिणी नगरी में नलिनी गुल्म उद्यान था। वहां महापद्म नामक राजा राज्य करता था । उसकी पत्नी का नाम पद्मावती था। उसके पुंडरीक और कंडरीक नामक दो सुकुमार और सुन्दर पुत्र थे । कालान्तर में पुंडरीक युवराज बना । उस समय स्थविर मुनि नलिनीगुल्म विमान में समवसृत हुए। महापद्म प्रवचन सुनने गया। धार्मिक प्रवचन सुनकर वह बोला- 'हे देवानुप्रिय ! मैं पुंडरीक कुमार को राज्य देकर प्रव्रजित होना चाहता हूँ ।' स्थविर मुनि ने कहा- 'जैसी इच्छा हो वैसा करें।' पुंडरीक राजा और कंडरीक युवराज बन गया। एक दिन महापद्म राजा ने पुंडरीक राजा से दीक्षा की अनुमति ली। तब पुंडरीक ने शिविका तैयार करवाई और महापद्म राजा प्रव्रजित हो गया । दीक्षित होकर उसने चौदह पूर्वों का अध्ययन किया । बेले-तेले आदि की तपस्या करते हुए उसने बहुत वर्षों तक श्रामण्य का पालन किया और अंत में एक मास की संलेखना में शरीर को झोषकर वह सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गया।
एक दिन वे स्थविर मुनि पुष्करिणी नगरी में समवसृत हुए। पुंडरीक राजा कंडरीक युवराज के साथ धर्म-प्रवचन सुनने आया। राजा पुंडरीक ने श्रावक धर्म स्वीकार किया। कंडरीक युवराज दीक्षित होने के लिए उत्कंठित हो गया । वह चार घंटों वाले अश्वरथ पर चढ़कर राजा पुंडरीक के पास आया और दीक्षा की अनुमति मांगी। राजा पुंडरीक ने उसे अनेक प्रकार का प्रलोभन दिया और साधु-जीवन के विविध शारीरिक-मानसिक कष्टों का विवेचन किया। लेकिन कंडरीक अपनी भावना पर दृढ़ रहा। राजा पुंडरीक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर महान् अभिनिष्क्रमण उत्सव मनाने के लिए कहा। कंडरीक प्रव्रजित हो गया। उसने सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और बेले-तेले आदि विविध प्रकार के तप के अनुष्ठान में अपने आपको लगा दिया।
अंत-प्रान्त भोजन करने से एक बार उनके शरीर में दाह ज्वर उत्पन्न हो गया । कालान्तर में विहार करते हुए मुनि कंडरीक पुष्करिणी नगरी के नलिनी वन में समवसृत हुआ। राजा पुंडरीक अपने भाई मुनि कंडरीक के दर्शन करने आया और कंडरीक के पूरे शरीर को रोग से आक्रान्त देखकर उसने निवेदन किया कि मैं प्रासुक और एषणीय औषध - भेषज से आपकी चिकित्सा करना चाहता
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