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परिशिष्ट ६ : कथाएं
सुभूमिभाग उद्यान में ठहरे। राजा शाल भगवान् को वंदन करने गया । भगवान् का प्रवचन सुनकर वह विरक्त हो गया। उसने भगवान् से प्रार्थना की- भंते! मैं महाशाल का राज्याभिषेक करके दीक्षित होने के लिए अभी वापिस आ रहा हूं।' वह नगर में गया और महाशाल से सारी बात कही। महाशाल ने कहा - 'संसार के भय से उद्विग्न हूं अतः मैं भी प्रव्रजित होना चाहता हूं।' राजा ने अपने भानजे गालि को काम्पिल्यपुर से बुलाया। उसे पट्टबद्ध राजा बना दिया । गागलि ने दो शिविकाएं तैयार करवाईं। वे दोनों पिता-पुत्र प्रव्रजित हो गए। गागलि ने अपने माता-पिता को भी वहीं बुला लिया । यशोमती भी श्रमणोपासिका बन गई। उन दोनों श्रमणों ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया।
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भगवान् महावीर पृष्ठचंपा से विहार करते हुए राजगृह गए। वहां से विहार कर चम्पा पधारे। शाल और महाशाल भगवान् के पास आए और बोले - ' यदि आपकी अनुज्ञा हो तो हम पृष्ठचंपा जाना चाहते हैं। संभव है वहां किसी को प्रतिबोध मिले और कोई सम्यग्दर्शी बने ।' भगवान् ने ज्ञान से जाना कि कुछ लोग संबुद्ध होंगे अत: अनुज्ञा दी और गौतम के साथ उन्हें वहां भेजा। वे पृष्ठचंपा गए। गौतम स्वामी का प्रवचन सुनकर गागलि, यशोमती और पिठर- ये तीनों संबुद्ध हुए । गागलि बोला- 'मैं माता-पिता से आज्ञा लेकर ज्येष्ठ पुत्र को राज्य सौंपकर दीक्षा लूंगा।' उसकी बात सुनकर माता-पिता बोले—'यदि तुम संसार के भय से उद्विग्न हो गए हो तो हम भी तुम्हारे साथ दीक्षा लेंगे।' वह अपने पुत्र को राज्य देकर माता-पिता के साथ दीक्षित हो गया। गौतम स्वामी उनको अपने साथ लेकर चंपा पहुंचे। मार्ग में चलते-चलते मुनि शाल और महाशाल के अध्यवसायों की पवित्रता बढ़ी और वे केवली हो गये । गागलि और उसके माता पिता को भी केवलज्ञान हो गया ।
वे सब महावीर के पास चंपा नगरी पहुंचे। महावीर को प्रदक्षिणा देकर तीर्थ को प्रणाम करके वे केवलिपरिषद् में बैठ गए। गौतम स्वामी ने भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा देकर उनके चरणों में वंदना की और उठकर उन पांचों से बोले- 'कहां जा रहे हो? आओ, तीर्थंकर को वंदना करो।' तब भगवान् महावीर ने कहा- 'गौतम ! केवलियों की आशातना मत करो ?' गौतम स्वामी ने पुन: लौटकर उनसे क्षमायाचना की और संवेग को प्राप्त हो गए ।
गौतम स्वामी ने सशंकित होकर सोचा- 'मेरी सिद्धि नहीं होगी।' इधर देवता परस्पर संलाप करते हुए कहने लगे – 'जो अष्टापद पर्वत पर जाकर चैत्यों को वंदना करता है, वह उसी भव में सिद्ध हो जाता है।' यह सुनकर गौतम का मन उद्वेलित हो उठा। भगवान् महावीर ने गौतम के मन को जान लिया । यह भी जान लिया कि वहां जाने से तापसों को संबोध प्राप्त होगा तथा गौतम का मन भी शांत और स्थिर हो जाएगा। गौतम ने महावीर से पूछा- 'मैं अष्टापद पर्वत पर जाना चाहता हूं ।' भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर गौतम ने अष्टापद पर्वत की ओर प्रस्थान कर दिया । जन-प्रवाद को सुनकर दत्त, कौंडिन्य और शैवाल - ये तीनों तापस अपने पांच सौ शिष्यपरिवार के साथ अष्टापद पर चढ़ने के लिए उत्सुक हो रहे थे। कौडिन्य तापस चतुर्थ भक्त - एकान्तर तप के पारणे में कंद आदि सचित्त आहार करता था । वह अष्टापद पर्वत के नीचे की मेखला तक ही पहुंच पाया । दत्त तापस षष्ठभक्त बेले- बेले की तपस्या के पारणे में नीचे गिरे हुए पाडुंर पत्तों का आहार करता था । वह पर्वत की मध्य मेखला तक ही पहुंच पाया। शैवाल तापस अष्टमभक्त तेले - तेले की तपस्या के पारणे में शुष्क एवं गंदे शैवाल का आहार करता था । वह पर्वत की उपरितन मेखला तक ही चढ़ पाया। चढ़ते हुए वे तीनों परिश्रान्त हो गए ।
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