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________________ ५४ निर्युक्तिपंचक टीकाकार ने 'एतदेव व्याचिख्यासुराह भाष्यकार:' का संकेत दिया है । ऐसी विवादास्पद गाथाओं को हमने चालू प्रसंग, पौर्वापर्य एवं चूर्णि की प्राचीनता – इन सब दृष्टियों को ध्यान में रखते हुए नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है । उदाहरणार्थ देखें गा दशनि २२० । इसी प्रकार दशनि गा. ३४५ के लिए दोनों चूर्णिकारों ने इमा उवग्घातनिज्जुत्तिपढमगाहा तथा टीकाकार ने 'एतदेवाह भाष्यकार:' का उल्लेख किया है। इस गाथा को भी हमने नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है । दशवैकालिकनियुक्ति में कुछ गाथाएं ऐसी भी हैं, जिनको हमने भाष्यगाथा के क्रम में रखा है। ये गाथाएं प्रकाशित टीका में नियुक्ति - गाथा के क्रम में हैं, किन्तु चूर्णि में इन गाथाओं का कोई संकेत नहीं मिलता। हमने हेतु पुरस्सर उनको भाष्यगाथा सिद्ध किया है । देखें – ८९/१, ९५/३, ९६/२, ९७/१, १२०/१, १२३/१, १५१/१, २१७/१, २१८/१ गाथाओं के टिप्पण । ये गाथाएं केवल व्याख्यारूप हैं, इनको मूल क्रम में न रखने से भी चालू विषय-वस्तु में कोई अंतर नहीं आता । उदाहरणार्थ गा. ९७/१ भाष्य की होनी चाहिए क्योंकि गाथा के उत्तरार्ध में 'गुरुराह अतएव' का उल्लेख किया है। भाष्यकार ही नियुक्तिकार के बारे में ऐसा कह सकते हैं अन्यथा नियुक्तिकार यदि इस शब्दावलि को कहें तो मूल सूत्र साथ इसका कोई संबंध नहीं जुड़ता, दूसरी बात इस गाथा की विषय-वस्तु अगली गाथा में प्रतिपादित है अत: यह भाष्यगाथा होनी चाहिए । 1 २. कहीं-कहीं टीका की मुद्रित प्रति में गाथाओं के आगे 'भाष्यम्' का उल्लेख है किन्तु चूर्णि में वे गाथाएं स्पष्ट रूप से नियुक्तिगाथा के रूप में व्याख्यात हैं । छंद, विषय-वस्तु और रचना-शैली की दृष्टि से भी ये निर्युक्ति - गाथा की कसौटी पर खरी उतरती हैं । हरिभद्र ने अपनी व्याख्या में इन गाथाओं के बारे में कोई संकेत नहीं दिया है कि ये निर्युक्ति की गाथाएं हैं अथवा भाष्य की ? लगता है मुद्रित टीका में संपादक ने स्वयं ही गाथाओं के आगे 'भाष्यम्' का उल्लेख कर दिया है अतः उसको प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। दशवैकालिकनिर्युक्ति में अनेक भाष्य गाथाओं को हमने सप्रमाण एवं सतर्क नियुक्ति गाथा के क्रम में रखा है । देखें दशनि गा. ९०, ९१,१९६, १९७, २०१ - २०६, २०९, २१०, २१६ । उत्तराध्ययननियुक्ति २०३ - २७ तक की गाथाओं के लिए टीकाकार ने वैकल्पिक रूप से भाष्यगाथा का उल्लेख किया है। यद्यपि ये भाष्य-गाथाएं अधिक संभावित हैं पर हमने इनको नियुक्ति - गाथा के क्रम में रखा है। उनि गा. २२७ में 'सगलनिउणे पयत्ये जिणचउदसपुव्वि भासंति' का उल्लेख भी स्पष्ट करता है कि ये गाथाएं बाद में किसी आचार्य द्वारा रचित हैं । अन्यथा चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु अपने बारे में ऐसा उल्लेख नहीं करते। हमने इनको निर्युक्तिगाथा के क्रम में रखा है । ३. दशवैकालिकनिर्युक्ति में कहीं-कहीं द्वारगाथाओं में उल्लिखित द्वार के आधार पर भी हमने गाथाओं का निर्णय किया है। जैसे- दशनि गा. १३, १४, १८ ये तीन गाथाएं चूर्णि में निर्दिष्ट नहीं हैं । पं. दलसुखभाई मालवणिया ने इन्हें हरिभद्रकृत माना है किन्तु इन्हें हरिभद्र की रचना नहीं माना जा सकता क्योंकि हरिभद्र ने १३ वीं गाथा के प्रारम्भ में 'अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं नियुक्तिकार एव यथावसरं वक्ष्यति' का तथा गा. १४ वीं के प्रारम्भ में 'चाह नियुक्तिकारः' का उल्लेख किया है । यदि वे स्वयं रचना करते तो ऐसा उल्लेख नहीं करते। ये दोनों नियुक्ति की गाथाएं हैं, इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि १२ वीं द्वारगाथा के 'जत्तो' द्वार की व्याख्या वाली गाथाएं जब चूर्णि में नियुक्ति के क्रम में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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