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________________ १९८ नियुक्तिपंचक १३२. वनस्पतिकाय ने दृष्टान्त देते हुए कहा कि एक विशाल वृक्ष पर अनेक पक्षी सुखपूर्वक रह रहे थे। उसी वृक्ष के निकट से एक लता उठी और वह वृक्ष के लिपटती हई ऊपर तक चढ गई। एक बार एक सर्प उस लता के सहारे ऊपर चढा और पक्षियों के अंडों को खा गया। तब शेष पक्षियों ने कहा-'हम इस वृक्ष पर रहते थे। यह निरुपद्रव था। मूल से लता उठी तब यह शरण देने वाला वृक्ष भी भय का कारण बन गया।' १३३. त्रसकाय ने दृष्टान्त देते हुए कहा-'शत्रु सेना से क्षुब्ध होकर नगर के भीतरी लोग बाहर रहने वालों को बाहर ही रोक रहे थे । ओ मातंगो! तुम अब दिशा की शरण लो। ठीक है, जो नगर शरण-स्थल था वही भय का स्थान बन गया।' १३४. जहां का राजा चोर हो और पुरोहित भंडक हो वहां नागरिकों को दिशाओं की ही शरण लेनी चाहिए क्योंकि शरण स्वयं भय-स्थान बन रहा है। १३५,१३६. हे मित्र ! उदित होते हुए सूर्य का, चैत्य-स्तूप पर बैठे कौए का तथा भौंत पर आए आतप का सुख की बेला में पता नहीं चलता। (इस कथन से ब्राह्मणी ने अपना दुःख प्रगट किया। पति के विरह में उसे रात भर नींद नहीं आई।) पुत्री बोली-'मां ! तुमने ही तो मुझे कहा था कि आए हुए यक्ष की अवमानना मत करना। पिता का यक्ष ने हरण कर लिया है । अब तुम दूसरे पिता की अन्वेषणा करो।' १३७. जिसको मैंने नव मास तक गर्भ में धारण किया, जिसका मैंने मल-मूत्र धोया, उस पुत्री ने मेरे भर्ता का हरण कर लिया। शरण मेरे लिए अशरण हो गया। १३८. तुमने स्वयं ही तो वृक्ष रोपा और तालाब खुदवाया। अब देव के भोग का अवसर आया तब क्यों चिल्ला रहे हो? १३९. आर्य आषाढ़ आगे चले। मार्ग में उन्होंने एक अलंकृत-विभूषित साध्वी को देखकर कहा-'अरे ! तुम्हारे हाथों में कटक हैं, कानों में कंडल हैं, आंखों में अंजन आंज रखा है, ललाट पर तिलक है। हे प्रवचन का उड्डाह कराने वाली दुष्ट साध्वी ! तूं कहां से आई है ?' वह बोली १४०. हे आर्य! तुम दूसरों के राई और सर्षप जितने छोटे छिद्रों-दोषों को देखते हो किंतु अपने बिल्व जितने बड़े दोषों को देखते हुए भी नहीं देखते । १४१. तुम श्रमण हो, संयत हो, ब्रह्मचारी हो, मिट्टी के ढेले और कंचन को समान समझने वाले हो, तुम वायु की भांति अप्रतिबद्धविहारी हो। ज्येष्ठार्य ! आपके पात्र में क्या है, बताएं। तीसरा अध्ययन : चतुरंगीय १४२. एक शब्द के सात निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, मातृकापद, संग्रह, पर्यव और भाव । १४३. चतुर् शब्द के सात निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, गणना और भाव । यहां गणन संख्या का अधिकार है। १४४. अंग शब्द के चार निक्षेप हैं-नामांग, स्थापनांग, द्रव्यांग और भावांग । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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