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उत्तराध्ययन नियुक्ति
१९७ ११९. मथुरा में इन्द्रदत्त पुरोहित । साधु का सेवक एक श्रेष्ठी। प्रासाद को विद्या से ध्वंस करना । इन्द्रकील द्वारा पादच्छेद ।
१२०. उज्जयिनी में आचार्य कालक । उनके पौत्र शिष्य आचार्य सागर का सुवर्णभूमि में विहरण । इन्द्र ने आकर आयुष्क-शेष पूछा । (वृत्ति में निगोद जीवों के विषय में पूछा ।) इन्द्र द्वारा दिव्य चमत्कार ।
१२१. वाचना से खिन्न । गंगा के कूल पर अशकट कन्या का पिता । बारह वर्षों में 'असंखयं' अध्ययन (उत्तराध्ययन का चौथा अध्ययन) मात्र सीखना ।'
___ १२२. स्थूलभद्र मुनि अपने अत्यंत प्रिय मित्र के घर गए। वहां जाकर कहा-यह ऐसा है । वह वैसा है । देख, यह कैसा हुआ ? मुनि ज्ञान परीषह से पराजित हो गए।
१२३. आर्य आषाढ ने मुनि जीवन को छोड़ उत्प्रवजित होने का मानस बना लिया। उस समय वे व्यवहारभूमि-हट्ट के मध्य थे। उनके शिष्य ने राजा का रूप बनाकर उन्हें प्रतिबोध दिया।
१२४. सर्वप्रथम शिष्य ने पृथ्वीकाय का रूप बनाकर कहा- 'जिससे मैं साधुओं को भिक्षा देता हूं, देवताओं को बलि चढाता हूं, ज्ञातिजनों का पोषण करता हूं, वही पृथ्वी मुझे आक्रान्त कर रही है। ओह ! शरण से भय उत्पन्न हो रहा है।'
१२५,१२६. अपकाय ने उदाहरण देते हुए कहा-एक बहुश्रुत तथा नाना प्रकार की कथाओं कहने वाला पाटल नामक व्यक्ति नदी के प्रवाह में बहा जा रहा था। एक व्यक्ति ने पूछा-अरे ओ! बहमे वाले! क्या तुम्हारे सुख-शांति है ? जब तक तुम बहते-बहते दूर न निकल जाओ, तब तक कुछ सुभाषित वचन तो कहो। उसने कहा—'जिस पानी से बीज उगते हैं, कृषक जीवित रहते हैं, उस पानी से मैं मर रहा हूं । ओह ! शरण से भय उत्पन्न हो रहा है ।
१२७. तेजस्काय ने कहा-'जिस अग्नि को मैं रात-दिन मधु-घृत से सींचता रहा है, उसी अग्नि ने मेरी पर्णशाला जला डाली। ओह ! शरण से भय हो रहा है।
१२८. व्याघ्र से भयभीत होकर मैं अग्नि की शरण में गया। अग्नि ने मेरे शरीर को जला डाला । ओह ! शरण से भय हो रहा है।
१२९. वायुकाय ने उदाहरण देते हुए कहा-'मित्र ! तुम पहले कूदने-दौड़ने में समर्थ थे । अब तुम हाथ में दंड लेकर क्यों चलते हो? कौन से रोग से पीडित हो ?'
१३०. वायू रोग से पीड़ित मित्र ने कहा-'जेठ और आषाढ मास में जो सुखद वायु चलती थी, उसी वायु ने मेरे शरीर को तोड़ दिया है । ओह ? शरण से भय हो रहा है ।'
१३१. जिस वायु से सभी प्राणी जीवित रहते हैं। उस वायु के अपरिमित निरोध के कारण मेरा सारा शरीर टूट रहा है । ओह ! शरण से भय हो रहा है। १. देखें-परि०६, कथा सं० २१
४. वही, कथा सं० २४ २. वही, कथा सं० २२
५. वही, कथा सं० २५ ३. वही, कथा सं० २३
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