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________________ नियुक्तिपंचक १२४. भावतथ्य दो प्रकार का है-प्रशस्त तथा अप्रशस्त । जैसा सूत्र वैसा ही अर्थ और वैसा ही आचरण -यह प्रशस्त भावतथ्य है। यही याथातथ्य है। वैसा न हो तो वह जुगुत्सित है । याथातथ्य नहीं है। १२५,१२६. आचार्य-परंपरा से जो आगत है, व्याख्यात है, उसको यदि कोई अपनी तर्कबुद्धि या निपुणबुद्धि से दूषित करता है तो वह छेकवादी-पंडितमानी जमालि निन्हव की भांति नष्ट हो जाता है, पथच्युत हो जाता है। वैसा व्यक्ति संयम और तप में पराक्रम करता हुआ भी (दुःखों से) मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए मुनि को आत्मोत्कर्ष-अहंकार का वर्जन करना चाहिए। चौदहवां अध्ययन : ग्रंथ १२७. ग्रंथ के विषय में पहले (उत्तराध्ययन के क्षुल्लक निग्रंथीय अध्ययन में) कहा जा चुका है।' शिष्य के दो प्रकार हैं :-प्रव्रज्याशिष्य, शिक्षाशिष्य । यहां शिक्षाशिष्य का प्रसंग है। १२८. शैक्ष दो प्रकार का होता है ग्रहणशैक्ष, आसेवनाशैक्ष। ग्रहणशैक्ष के तीन प्रकार हैं-सूत्रग्रहणशैक्ष, अर्थग्रहणशैक्ष, तदुभयग्रहणशक्ष। १२९. आसेवनाशैक्ष के दो प्रकार हैं-मूलगुण आसेवनाशैक्ष, उत्तरगुण आसेवना शैक्ष। मूलगुण आसेवना शैक्ष पांच प्रकार का है (पांच महाव्रतों के कारण)। उत्तरगुण आसेवनाशैक्ष के बारह प्रकार हैं। १३०. आचार्य के दो प्रकार हैं-प्रव्रज्या आचार्य तथा शिक्षक आचार्य । शिक्षक आचार्य के दो प्रकार हैं-ग्रहण शिक्षा आचार्य तथा आसेवनाशिक्षा आचार्य । १३१. ग्रहणशिक्षा आचार्य के तीन प्रकार हैं-सूत्र के ग्राहक आचार्य, अर्थ के ग्राहक आचार्य तथा तदुभय ग्राहक आचार्य । आसेवनाशिक्षा आचार्य के मूल तथा उत्तरगुण की अपेक्षा दो प्रकार हैं। पन्द्रहवां अध्ययन : आदानीय १३२. आदान तथा ग्रहण-इन दोनों शब्दों के चार-चार निक्षेप होते हैं। आदान और ग्रहण---ये एकार्थक भी हैं और अनेकार्थक भी। प्रस्तुत में आदान का प्रसंग है। १३३. प्रस्तुत अध्ययन के श्लोकों में प्रथम श्लोक का अंतिम पद दूसरे श्लोक का आदिपद होता है, इसलिए इस अध्ययन का नाम 'आदानीय' है। यह इस अध्ययन का अपर नाम है। १३४. आदि शब्द के चार निक्षेप हैं-नामआदि, स्थापनाआदि, द्रव्यआदि तथा भावआदि । द्रव्य की अपने पर्याय में जो प्रथम परिणति विशेष होती है, वह द्रव्यआदि है। १. उनिगा ३३४-३७ । २. समवायांग में इस अध्ययन का नाम 'यमकीय' मिलता है। चणिकार ने इसके दो नाम बताए हैं-आदानीय और संकलिका (सूचपृ २३८) वत्तिकार ने मुख्य नाम आदानीय तथा विकल्प में यमकीय और संकलिका-ये दो नाम माने हैं। (सूटीपृ १६९) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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