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________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति २०७ २१७. मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और मतिज्ञानी श्रमण जिस मरण को प्राप्त होते हैं, वह छद्मस्थमरण है तथा केवलज्ञानी का मरण केवलिमरण है। २१८. गध्र आदि पक्षियों के द्वारा खाये जाने पर होने वाला मरण गृध्रपृष्ठमरण कहलाता है।' फांसी लगाकर मरना वैहायसमरण है । ये दोनों प्रकार के मरण विशेषकारण से अनुज्ञात हैं, तीर्थंकरों द्वारा अनुमत हैं। २१९. भक्तपरिज्ञा, इंगिनी तथा प्रायोपगमन-ये तीन प्रकार के मरण क्रमशः कनिष्ठ, मध्यम और उत्कृष्ट हैं। इनको स्वीकार करने वाले व्यक्ति धृति और संहनन में विशिष्ट, विशिष्टतर और विशिष्टतम होते हैं। २२०. अनुभावमरण के दो प्रकार हैं-सोपक्रम और निरुपक्रम । आयुष्यकर्म के प्रदेशाग्र अनन्तानन्त हैं। प्रत्येक आत्मप्रदेश अनन्त-अनन्त प्रदेशों से आवेष्टित हैं। २२१,२२२. आवीचिमरण में एक साथ दो, तीन, चार या पांच मरण हो सकते हैं। एक समय में कितने मरते हैं-इनका भेद-प्रभेद विस्तार से जानना चाहिए । सभी भवस्थजीव सदा आवीचिमरण से मरते हैं। अवधिमरण तथा आत्यन्तिक मरण-ये दोनों मरण भजना अर्थात् सदा नहीं होते, जब आयुक्षय होता है तभी ये संभव होते हैं।' २२३. अवधिमरण-आत्यन्तिकमरण-बालमरण-पंडितमरण, बालपंडितमरण, छपस्थमरणकेवलिमरण-ये सब पस्पर विरोधी हैं क्योंकि ये युगपद् नहीं होते। २२४. प्रत्येक अप्रशस्त मरण में संख्यात, असंख्यात और अनन्त बार मरण होता है। प्रशस्तमरण अनुबंध अर्थात् नैरंतर्य से सात-आठ भव तक हो सकता है। केवलिमरण एक बार ही होता २२५. आवीचिमरण को छोड़कर शेष सभी मरणों में एक-एक मरण में अनन्तभाग मरते हैं। आदिमरण-आवीचिमरण सतत होता है । प्रथम और चरम मरण में व्यवधान नहीं होता अर्थात ये दोनों मरण सदा रहते हैं।' २२६. शेष मरण सान्तर और निरन्तर-दोनों रूप में प्ररूपित हैं। पहला आवीचिमरण अनादि है, शेष १६ मरण सादि-सपर्यवसित हैं। २२७. 'मरणविभक्ति' अध्ययन के ये सभी द्वार क्रमशः कहे गए हैं । समस्त पदार्थों को विशेषरूप से जानने वाले अर्हत तथा चतुर्दशपूर्वी स्पष्टरूप से इन प्रशस्त आदि मरणों का निरूपण करते हैं। (मंदबुद्धिवाला मैं वैसा निरूपण नहीं कर सकता।) १. मरने का इच्छुक व्यक्ति हाथी अथवा ऊंट आदि बृहतकाय जानवरों के शव में स्वयं को प्रविष्ट कर लेता है। उन शवों को खाने के लिए गृध्र शृगाल आदि आते हैं। शव के मांस-भक्षण के साथ-साथ उस प्रविष्ट मूनि का भी भक्षण हो जाता है। यह मरण विशेष सत्त्वसम्पन्न व्यक्ति ही कर सकते हैं। _ (शांटीप २३४) २. विस्तार के लिए देखें-श्रीभिक्षु आगम विषय कोश पृ. ५२६, ५२७ ।। ३. आवीचिमरण सदा सम्भव है। चरममरण अर्थात् केवलिमरण में पुनर्भरण नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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