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नियुक्तिपंचक
२२८. जिनेश्वरदेव ने इन तीन मरणों को एकान्त प्रशस्त बतलाया है-भक्तपरिज्ञा, इंगिनी तथा प्रायोपगमन । ये क्रम ज्येष्ठ हैं-उत्तरोत्तर प्रधान हैं ।
२२९. प्रस्तुत प्रसंग में मनुष्य के मरण का अधिकार है। अकाममरण को छोड़कर उसे सकाममरण मरना चाहिए। छठा अध्ययन : क्षुल्लकनिग्रंथीय
२३०. महत् शब्द के आठ निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, प्रधान, प्रति और भाव । महत् का प्रतिपक्ष शब्द क्षुल्लक है।
२३१.२३२. निर्ग्रन्थ शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना. द्रव्य और भाव । द्रव्य निर्ग्रन्थ के दो भेद हैं-आगमत: और नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन प्रकार हैं-ज्ञशरीरनिर्ग्रन्थ, भव्यशरीरनिर्ग्रन्थ तथा तद्व्यतिरिक्तनिर्ग्रन्थ । इसमें निह्नवों का समावेश होता है। भावनिर्ग्रन्थ पांच प्रकार के हैं--(पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक)।
२३३ निर्ग्रन्थ उत्कृष्ट भी होता है और जघन्य भी। अजघन्य-अनुत्कृष्ट निर्ग्रन्थ असंख्येय होते हैं। यह कथन संयमस्थानों की अपेक्षा से है।
२३४. ग्रंथ के दो प्रकार हैं-बाह्य और आभ्यन्तर । आभ्यन्तर ग्रन्थ के चौदह और बाह्य ग्रंथ के दस प्रकार हैं।
२३५. आभ्यन्तर ग्रंथ के चौदह प्रकार हैं-क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मिथ्यात्व, वेद, अरति, रति, हास्य, शोक, भय और जुगुप्सा।
२३६ बाह्य ग्रंथ के दस प्रकार हैं-क्षेत्र, वास्तु, धन-धान्य का संचय, मित्र-ज्ञाति का संयोग, यान, शयन, आसन, दासी, दास तथा कुप्य ।
२३७. जो सावध ग्रन्थों से तथा बाह्य-आभ्यन्तर ग्रन्थों से मुक्त है, वह निर्ग्रन्थ है। यह क्षुल्लकनिर्ग्रन्थ सूत्र की नियुक्ति है । सातवां अध्ययन : उरभ्रीय
२३०,२३९. उरभ्र शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। द्रव्य निक्षेप के दो प्रकार हैं-आगमतः और नो-आगमतः । नो-आगमतः द्रव्य निक्षेप के तीन प्रकार हैंज्ञशरीर, भव्यशरीर और तव्यतिरिक्त । तव्यतिरिक्त के तीन भेद हैं-एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र ।
२४०. उरभ्र के आयु, नाम और गोत्र का वेदन करने वाला भावउरभ्र होता है। उस भावउरभ्र से उत्पन्न होने के कारण इस अध्ययन का नाम उरभ्रीय है। __ २४१. प्रस्तुत उरभ्रीय अध्ययन में ये पांच दृष्टांत हैं-उरभ्रं', काकिणी', आम्र', व्यवहार' और समुद्र । १-४. देखें परि० ६, कथा सं० ४४-४७ ।
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