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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ६१७ छत पर छोड़ दिया। जागने पर उसने स्वयं को अपने ही घर में चारों ओर से स्वजन-परिजनों से घिरा हुआ देखा। तब वह हासे! प्रहासे ! कहकर प्रलाप करने लगा। लोगों के पूछने पर उसने पंचशैल में देखा हुआ सारा वृत्तान्त बताया। जब उसके मित्र नाइल श्रावक ने यह बात सुनी तो उसने अनंगसेन को जिनोपदिष्ट धर्म का उपदेश दिया और उसे जीवन-व्यवहार में उतारने के लिए प्रेरित किया। नाइल श्रावक ने कहा-'धर्म-पालन से तुम सौधर्म आदि स्वर्गों में दीर्घकालीन स्थिति वाली देवियों के साथ उत्तम भोग भोग सकते हो। उनके सामने इन अल्पकालीन व्यन्तर देवियों की कोई मूल्यवत्ता नहीं है । नाइल के उपदेश का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। स्वजन-परिजनों द्वारा दी गयी सलाह की अवहेलना कर उसने निदान कर इंगिनीमरण द्वारा मरकर उसी द्वीप में विद्युन्माली यक्ष के रूप में जन्म लिया। वह तीव्र भावना से हासा और प्रहासा से भोग भोगने लगा। नाइल श्रावक प्रव्रजित हुआ और श्रामण्य का निरतिचार पालन करता हुआ मर कर अच्युत देवलोक में देव बना। वह भी उसी पंचशैल द्वीप में आया। एक बार नंदीश्वर द्वीप में अष्टाह्निक महोत्सव था। वहां इन्द्र द्वारा आज्ञापित देव अपनेअपने कार्यों में नियुक्त होकर परस्पर मिले। विद्युन्माली को बाजे बजाने का कार्य सौंपा गया। वह ढोल बजाना नहीं चाहता था लेकिन आदेश का पालन भी आवश्यक था। इच्छा न होते हुए भी वह दूर बैठा ढोल बजा रहा था। नाइल देव ने उसे देखा। पूर्वस्नेह के कारण वह उसे प्रतिबोध देने उसके पास आया। विद्युन्माली उसके भव्य तेज को सहन नहीं कर सका और ढोल बजाना बीच में ही बंद कर दिया। नाइल देव ने पूछा कि क्या तुम मुझे जानते हो? 'विद्युन्माली देव पहचानने में असमर्थ रहा। वह बोला कि क्या तुम शक्र हो, इन्द्र हो? मैं तुम्हें नहीं जानता। नाइल देव बोला-'मैं पूर्वभव की बात पूछता हूं, देवत्व की नहीं। उसने कहा-'मैं तुम्हें नहीं जानता।' तब अपना परिचय देते हुए नाइल ने बताया- 'मैं पूर्वभव में चम्पानगरी में तुम्हारा मित्र नाइल था। उस समय तुमने मेरी बात नहीं मानी इसलिए तुम अल्पऋद्धि वाले देव बने हो। खैर, अब भी तुम जिनप्रणीत धर्म स्वीकार करो।' यह कह नाइल देव ने उसे धर्मबोध देकर जिनधर्म अंगीकार करवाया। विद्युन्माली ने पूछा-'अब मुझे क्या करना चाहिए?' अच्युतदेव नाइल ने कहा-'बोध के लिए तुम किसी स्थान पर जिन-प्रतिमा का अवतरण कराओ।' तब विद्युन्माली ने अष्टाह्निक महोत्सव संपन्न होने पर चुल्ल हिमवंत पर्वत से गोशीर्ष चंदन लेकर दैविक प्रभाव से जिन प्रतिमा बनवाई। रत्न आदि विभिन्न आभूषणों से अलंकृत करके उसे गोशीर्ष चंदन की लकड़ी के बीच रख दिया। उसके बाद उसने चिंतन किया कि यह प्रतिमा अब मैं बाहर कैसे भेजूं? इधर उसी समय समुद्र में एक वणिक् की नाव डगमगा रही थी। डोलते हुए नाव को छह मास बीत गए। वणिक् चिंतित हो उठा। वह धूप-दीप लेकर इष्ट देवता का स्मरण करने लगा। यह देखकर विद्युन्माली ने कहा-'अरे भाई ! आज प्रात:काल तुम्हारी नौका वीतभय नगर के किनारे पहुंच जायेगी। तुम इस गोशीर्ष चंदन को लेकर जाओ और राजा उदयन को भेंट करके कहना कि इस लकड़ी से देवाधिदेव की प्रतिमा बनवाए, यह देवकथन है।' उसी रात देव-अनुग्रह से वह नौका वीतभय नगर पहुंच गयी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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