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________________ ११ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण तीसरे, चौथे और पांचवें समय में अनाहारक रहते हैं। चौदहवां गुणस्थान भी अनाहारक होता है। इस अतिरिक्त अंतराल गति में विग्रह गति करने वाला जीव एक या दो समय अनाहारक रहता है। दशवैकालिकनियुक्ति में वर्णित भाषा एवं उसके भेदों का वर्णन तथा सूत्रकृतांग नियुक्ति । परमाधार्मिक देवों के कार्यों का वर्णन सैद्धान्तिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति । उपासक और श्रावक का अंतर तात्त्विक दृष्टि से नए तथ्यों को प्रकट करने वाला है। सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक स्थितियां ... साहित्य समाज का दर्पण होता है। किसी भी साहित्य के आलोक में तत्कालीन सभ्यता एवं संस्कृति का ज्ञान किया जा सकता है। नियुक्तिकार ने कथाओं के माध्यम से प्रसंगवश सभ्यता, संस्कृति एवं सामाजिक परम्पराओं के अनेक तथ्यों की ओर इंगित किया है। सामाजिक दृष्टि से चार वर्णों की उत्पति का इतिहास अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। नियुक्तिकालीन सभ्यता में दासप्रथा का पूर्णरूपेण बहिष्कार नहीं हुआ था। व्यक्तियों का क्रय-विक्रय चलता था। बलिप्रथा प्रचलित थी। परिपूर्ण कलश को लौकिक मंगल के रूप में माना जाता था। कन्याएं स्वयंवर भी करती थीं, जैसे—मथुरा के राजा जितशत्रु की पुत्री निर्वृति ने स्वयं दूसरे स्थान पर जाकर स्वयंवर किया। बहुपत्नी प्रथा समृद्धि एवं गौरव का प्रतीक मानी जाती थी। राजा लोग अनेक रानियां रखते थे। गांधर्व विवाह भी प्रचलित थे। गर्भधारण, गर्भपात एवं गर्भ के पोषण की विधियां प्रचलित थीं। साधु उन विधियों को गृहस्थ को नहीं बता सकता था। गर्भवती पत्नी को छोड़कर घर का प्रमुख व्यक्ति दीक्षित हो जाता था। पिता अपनी पुत्री के साथ अकरणीय कार्य कर लेता था और उस कार्य में कभी-कभी पत्नी अपने पति का सहयोग भी कर देती थी।१२ दक्षिणापथ में मामा की बेटी गम्य मानी जाती थी अर्थात् उसके साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किया जा सकता था पर गोल्ल देश में यह संबंध निषिद्ध था।१३ धन के लिए बेटी अपनी मां की हत्या तक कर देती थी। ठगविद्या प्रकर्ष पर थी।५ चोरों द्वारा चुराई हुई वस्तु की पुन: प्राप्ति अशुभ मानी जाती थी।१६ इक्षुदंड को शुभ शकुन माना जाता था।१७ __ शिल्पी लोग अनेक कलात्मक चीजें बनाते थे। चित्रकला की दृष्टि से मिट्टी के मनोहारी फूल बनाए जाते थे। वस्त्र बुनते समय बुनाई में जुलाहा, हाथी, घोड़े आदि के चित्र बना देता था, जिसे वातव्य कहा जाता था।१९ वस्त-विनिमय के साथ-साथ रुपयों द्वारा भी लेन-देन चलता था।२० भारतीय व्यापारी विदेशों में व्यापारार्थ जाते थे। सार्थवाह पुत्र अचल वाहनों को भरकर पारसकुल (ईरान) १. सूनि १७६,१७७। २. दनि ३७-४०। ३. आनि १९ आचू. पृ. ५ । ४. दनि १०७, १०८, उनि २४७ । ५. दशनि ७९। ६. दशनि ४१ । ७. उशांटी प. १४८-५० । ८. उसुटी प १४२; राइणो अणेगाओ महादेवीओ,एगेगा वारएण रयणीए राइणो वासभवणे आगच्छइ । ९. उसुटी प. १९०; सा तेण गंधव्वविवाहेण विवाहिया। १०. आनि २५४। Jain Education International For Private & Personal Use Only ११. दशअचू पृ. ४। १२. उनि १३५-३७। १३. दशअचू पृ. १०। १४. दशनि ५१। १५. दशनि ८५ । १६. दनि १६, दचू प. १२ । १७. उसुटी प. २३। १८. दशनि १४३ टी. प. ८७।' १९. दशनि १४३ टी प. ८७। २० उशांटी प. २०९ । www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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