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________________ ११२ नियुक्तिपंचक इंद्र है तो क्या निर्घात, दिग्दाह आदि से इंद्र के कार्य में विघ्न नहीं होता? इन हेतुओं से यह मानना चाहिए कि स्वाभाविक रूप से ऋतु के अनुसार वर्षा होती है। दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक तथ्य माधुकरी भिक्षा के प्रसंग में ईश्वरकर्तृत्व के बारे में पूर्वपक्ष के साथ उसका हेतु-पुरस्सर उत्तरपक्ष प्रस्तुत किया गया है। ब्रह्मा ने हर प्राणी को आजीविका दी है इसीलिए वृक्ष भी भ्रमरों के लिए फलते-फूलते हैं। वैदिकों के इस मंतव्य का नियुक्तिकार ने सैद्धान्तिक दृष्टि से तो खंडन किया ही साथ ही व्यावहारिक तर्क देते हुए कहा कि अनेक ऐसे वनखंड हैं,जहां न तो भ्रमर जाते हैं और न वहां निवास करते हैं फिर भी वनखंड में वृक्ष फलते-फूलते हैं अत: फलना और फूलना वृक्षों का स्वभाव है। दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन की नियुक्ति में दश अवयवों की चर्चा तथा उदाहरण एवं हेतु के भेद-प्रभेदों का वर्णन न्याय-दर्शन की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। न्याय एवं दर्शन के क्षेत्र में तर्क, हेतु और उदाहरणों का प्रवेश नियुक्तिकाल में हुआ संभव लगता है। पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने 'आगम युग का जैन दर्शन' पुस्तक में विस्तार से इनका वर्णन किया है। चौथे अध्ययन की नियुक्ति में १४ द्वारों के द्वारा जीव की व्याख्या की गयी है, जिसमें आत्मा का अस्तित्व, पुनर्जन्म, आत्मा की परिणमनशीलता, आत्मा का देहव्यापित्व एवं आत्मकर्तृत्व आदि अनेक सिद्धांतों की चर्चा हुई है। दशवैकालिकनियुक्ति में सैद्धान्तिक दृष्टि से जीव के २० लक्षणों की चर्चा की गयी है। वहां सैद्धान्तिक दृष्टि से जीव के तीन भेद किए गए हैं.–१. ओघजीव २. भवजीव ३. तद्भवजीव । आयुष्य कर्म के होने पर जीव जीता है, आयुष्य कर्म के क्षीण होने पर मृत या सिद्ध हो जाता है, वह ओघजीव है। जिस आयुष्य के आधार पर जीव किसी भव में स्थित रहता है अथवा उस भव से संक्रमण करता है, वह भवायु है। तद्भव आयु जीव दो प्रकार के होते हैं—तिर्यञ्चतद्भव आयु और मनुष्यतद्भव आयु क्योंकि तिर्यञ्च और मनुष्य ही मरकर पुन: तिर्यञ्च और मनुष्य में उत्पन्न हो सकते हैं। संकुचित और विकसित होना जीव का मूल गुण है। वह अपने असंख्येय प्रदेशात्मक गुण के कारण समुद्घात के समय सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है। सूत्रकृतांग की 'आहारपरिण्णा' अध्ययन की नियुक्ति में आहार संबंधी सैद्धान्तिक एवं तात्त्विक वर्णन हुआ है। जीव जन्म के समय पहले तैजस और कार्मण शरीर से आहार ग्रहण करता है। बाद में जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक औदारिकमिश्र और वैकियमिश्र से आहार ग्रहण करता है। आहार की दृष्टि से एकेन्द्रिय जीव, देवता और नारकी जीवों के प्रक्षेप—कवल आहार नहीं होता। केवली समुद्घात के समय जीव मंथान के प्रारम्भ और उपसंहार में (तीसरे और पांचवें समय में) तथा लोक को पूरित करते हुए चौथे समय में अनाहारक रहते हैं। इस प्रकार समुद्घात की अपेक्षा केवली १ दशनि ९५/१-३; यद्यपि यह प्रसंग बाद में जोड़ा गया है पर वर्तमान में ये निर्युक्ति-गाथा के रूप में प्रसिद्ध हैं। २. दशनि ९७। ३. दशनि १९३, १९४ । ४. दशनि १९९,२०० । ५. दशनि १९५-९७। ६. आनि १८१। ७. सूनि १७८। ८. सूनि १७४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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