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________________ निर्युक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण श्वेताम्बर परम्परा में महावीर वाणी आज भी ग्यारह अंगों के रूप में सुरक्षित है। दिगम्बर- परम्परा के अनुसार उन आगम ग्रंथों का कालान्तर में लोप हो गया इसलिए नियुक्ति-साहित्य की विशाल श्रुतराशि केवल श्वेताम्बर परम्परा में ही मान्य है । निर्युक्ति का स्वरूप जैन आगमों के व्याख्या ग्रंथ मुख्यतः चार प्रकार के हैं――― निर्युक्ति, भाष्य चूर्णि और टीका । नियुक्ति प्राचीनतम पद्यबद्ध व्याख्या है। आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति (गा. ८८ ) में नियुक्ति का निरुक्त इस प्रकार किया है— 'निज्जुत्ता ते अत्था जं बद्धा तेण होइ निज्जुत्ती' जिसके द्वारा सूत्र के साथ अर्थ का निर्णय होता है, वह नियुक्ति है । निश्चय रूप से सम्यग् अर्थ का निर्णय करना तथा सूत्र में ही परस्पर संबद्ध अर्थ को प्रकट करना निर्युक्ति का उद्देश्य है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार क्रिया, कारक, भेद और पर्यायवाची शब्दों द्वारा शब्द की व्याख्या करना या अर्थ प्रकट करना निरुक्ति/निर्युक्ति है । जर्मन विद्वान् शार्पेन्टियर के अनुसार नियुक्तियां प्रधान रूप से संबन्धित ग्रंथ के इंडेक्स का कार्य करती हैं तथा सभी विस्तृत घटनावलियों का संक्षेप में उल्लेख करती हैं। व्याख्या के संदर्भ में अनुगम दो प्रकार का होता है – सूत्र - अनुगम और नियुक्ति - अनुगम । निर्युक्ति- अनुगम तीन प्रकार का होता है १. निक्षेपनिर्युक्ति- अनुगम २. उपोद्घातनिर्युक्ति- अनुगम ३ सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्ति-अनुगम । प्रत्येक शब्द के कई अर्थ होते हैं। उनमें कौन सा अर्थ प्रासंगिक है, इसका ज्ञान निक्षेपनियुक्ति - अनुगम से कराया जाता है । उपोद्घातनिर्युक्ति - अनुगम में छब्बीस प्रकार से शब्द या विषय की मीमांसा की जाती है। तत्पश्चात् सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति - अनुगम के द्वारा नियुक्तिकार सूत्रगत शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं । नियुक्तिकार मूलग्रंथ के प्रत्येक शब्द की व्याख्या न कर केवल विशेष शब्दों की ही व्याख्या प्रस्तुत करते हैं । १. (क) विभा १०८६; जं निच्छयाइ जुत्ता, सुत्ते अत्था इमीए वक्खाया। तेणेयं निज्जुत्ती निज्जुत्तत्थाभिहाणाओ ।। (ख) सूटी प १; योजनं युक्तिः अर्थघटना निश्चयेनाधिक्येन वा युक्तिर्निर्युक्तिः सम्यगर्थप्रकट नम् । निर्युक्तानां वा सूत्रेष्वेव परस्परसम्बद्धानामर्थानामाविर्भावनं युक्तशब्दलोपान्निर्युक्तिः । १००; सूत्रार्थयोः परस्परं निर्योजन संबंधनं निर्युक्तिः । (ग) आवमटी प. (घ) ओनिटी प ४; नि: आधिक्ये योजनं युक्तिः सूत्रार्थयोर्योगो नित्यव्यवस्थित एवास्ते वाच्यवाचकतयेत्यर्थः अधिका योजना निर्युक्तिरुच्यते, नियता निश्चिता वा योजनेति । २. आवहाटी प ३६३ । 3. Uttarādhyayana sūtra, preface, page 50, 51 ४. विभा ९७२; निज्जुत्ती तिविगप्पा, नासोवग्घायसुत्तवक्खाणं । ५. विभा ९७३ ९७४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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