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________________ निर्युक्तिपंचक वहां से मरकर वह अपने ही पुत्र के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। वहां भी जातिस्मृति होने से उसनें सोचा- 'मैं अपनी पुत्रवधू को मां तथा पुत्र को पिता कैसे कहूंगा?' यह सोचकर उसने मौनव्रत स्वीकार कर लिया। माता-पिता ने अनेक उपाय किए लेकिन वह नहीं बोला । जब वह बड़ा हुआ तब चार ज्ञान के धनी स्थविर मुनि वहां आए। उन्होंने अपने ज्ञान से जाना कि यह संबुद्ध होगा । साधु उसके घर जाकर बोले- 'तापस! इस मौन व्रत को स्वीकार करने से क्या? धर्म के रहस्य को समझकर उसे स्वीकार करो।' साधुओं की बात सुनकर वह विस्मित हो गया कि इन्होंने मेरे मन की बात कैसे जानी ? उसने प्रणाम करके पूछा - ' आपने यह कैसे जाना ?' साधुओं ने कहा- 'हमारे गुरु सब जानते हैं।' वह आचार्य के पास आया। उनके चरणों में वंदना की और श्रावकधर्म स्वीकार किया । उसका मूल नाम अशोकदत्त था लेकिन फिर मूक हो गया। ४९८ इधर पुरोहितपुत्र जो देवलोक में उत्पन्न हुआ था, उसने महाविदेह क्षेत्र में जाकर सीमंधर स्वामी से पूछा- 'मैं सुलभबोधि हूं या दुर्लभबोधि ?' सीमंधर स्वामी ने उत्तर दिया--' तुम दुर्लभबोधि हो ।' पुन: उसने पूछा-'मैं यहां से च्युत होकर कहां उत्पन्न होऊंगा ?' भगवान् ने कहा- ' कौशाम्बी नगरी में तुम मूक के भाई बनोगे। तुम्हारा वह मूक भाई दीक्षित हो जायेगा ।' वह देव भगवान् को वंदना कर मूक के पास गया। बहुत सा धन देकर उसने मूक से कहा- 'मैं देवलोक से च्युत होकर तुम्हारे भाई के रूप में उत्पन्न होऊंगा । उस समय माता को आम खाने का दोहद उत्पन्न होगा। मैंने अमुक पर्वत पर सदाबहार आम का वृक्ष आरोपित कर दिया है। - तुम माता को कह देना कि तुम्हारे पुत्र होगा । यदि मां दोहद के लिए आम मांगे तो तुम कहना कि यदि तुम उत्पन्न होने वाले पुत्र को मेरे साथ दीक्षित कर दोगी तो मैं आम ला दूंगा। मेरे जन्म के पश्चात् ऐसा प्रयत्न करते रहना जिससे मुझे धर्मबोध मिलता रहे तथा मैं संबुद्ध होता रहूं।' मूक ने यह बात स्वीकृत कर ली । देव भी संतुष्ट होकर वापिस चला गया। कुछ समय पश्चात् वह देव (पुरोहित - पुत्र) वहां से मूक की माता के गर्भ में उत्पन्न हुआ। माता को अकाल में आम खाने का दोहद उत्पन्न हुआ । मूक ने सभी कार्य वैसा ही किया जैसा देव ने कहा था। समय आने पर बालक का जन्म हुआ। वह मूक अपने छोटे भाई को बचपन में ही. साधुओं के यहां वंदना करने ले जाता । साधुओं के चरणों में सिर रखने पर वह रोने लगता, वंदना नहीं करता। कुछ समय बाद संतों से प्रतिबोधित होकर परिश्रान्त और संतप्त मूक ने दीक्षा ग्रहण कर ली । वह श्रामण्य का सम्यक् पालन करके देवलोक में उत्पन्न हुआ। देव ने अवधिज्ञान से भाई की अवस्था देखी तो प्रतिबोधित करने के लिए उसके पेट में जलोदर की व्याधि उत्पन्न कर दी । रोग के कारण वह उठ भी नहीं सकता था। सभी वैद्य उपचार करके हार गए । कुछ समय बाद डोंब का रूप धारण कर वह देव वहां आया। डोंब ने घोषणा की - 'मैं सभी रोगों को शांत कर सकता हूं।' तब वह दर्द से तड़फते हुए बोला- 'मेरा उदर रोग शांत कर दो।' देव रूप वैद्य ने कहा - ' तुम्हारा रोग असाध्य है। यदि तुम मेरे साथ चलो तो तुम स्वस्थ हो सकते हो।' वह उसके साथ चलने के लिए तैयार हो गया। वैद्य ने उसे शस्त्रों का थैला लेकर चलने For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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