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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
३३ दिगम्बर आचार्यों ने भी उत्तर शब्द की अनेक दृष्टिकोणों से व्याख्या की है। कषायपाहुड़ के चूर्णिकार के अनुसार उत्तराध्ययन उत्तरपदों का वर्णन करता है। यहां उत्तर शब्द समाधान सूचक है। अंगपण्णत्ति में उत्तर के दो अर्थ हैं—१. किसी ग्रंथ के पश्चात् पढ़ा जाने वाला २. प्रश्नों का उत्तर देने वाला । उत्तर के बाद दूसरा शब्द अध्ययन है। यद्यपि अध्ययन शब्द सामान्यतया पढ़ने के लिए प्रयुक्त होता है किन्तु प्रस्तुत संदर्भ में इसका प्रयोग परिच्छेद, प्रकरण और अध्याय के अर्थ में हुआ है।
सूत्र शब्द का सामान्य अर्थ है जिसमें शब्द कम तथा अर्थ विपुल हो। जैसे पातञ्जलयोगसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र, ब्रह्मसूत्र आदि। उत्तराध्ययन में सूत्ररूपता का अभाव है, विस्तार अधिक है। यद्यपि आत्मारामजी ने अनेक उद्धरणों से इसे सूत्रग्रंथ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है किन्तु सामान्य व्यवहार में प्रयुक्त सूत्र शब्द का लक्षण इस ग्रंथ में घटित नहीं होता है। जार्ल शान्टियर का भी मानना है कि सूत्र शब्द का प्रयोग इसके लिए सटीक नहीं हुआ है क्योंकि विधिविधान, दर्शनग्रंथ तथा व्याकरण आदि ग्रंथों में सूत्रात्मक शैली अपनाई जाती है। ऐसा अधिक संभव लगता है कि वैदिक परम्परा में सूत्र शब्द का प्रयोग अधिक प्रचलित था। जैनों ने भी परम्परा से सूत्रात्मक शैली न होते हुए भी ग्रंथ के साथ सूत्र शब्द जोड़ दिया। कर्तृत्व
नियुक्तिकार के अनुसार यह ग्रंथ किसी एक कर्ता की कृति नहीं, अपितु संकलित ग्रंथ है। उनके अनुसार इसके कर्तृत्व को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है। ---
१. अंगप्रभव—दूसरा अध्ययन (परीषहप्रविभक्ति) २. जिनभाषित-दसवां अध्ययन (द्रुमपत्रक) ३. प्रत्येकबुद्ध-भाषित-आठवां अध्ययन (कापिलीय) ४. संवाद-समुत्थित-नवां और तेईसवां अध्ययन (नमिप्रव्रज्या, केशिगौतमीय)
नंदी में उत्तरज्झयणाई यह बहुवचनात्मक नाम मिलता है। उत्तराध्ययन के अंतिम श्लोक तथा नियुक्ति में भी उत्तरज्झाए' ऐसा बहुवचनात्मक नाम मिलता है। चूर्णिकार ने छत्तीस उत्तराध्ययनों का एक श्रुतस्कंध (एक ग्रंथ रूप) स्वीकार किया है। इस बहुवचनात्मक नाम से यह फलित होता है कि उत्तराध्ययन अध्ययनों का योग मात्र है, एककर्तृक ग्रंथ नहीं। उत्तराध्ययन की भाषा-शैली की भिन्नता देखकर भी यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह किसी एक व्यक्ति की कृति नहीं है। ये सब कब रचे गए, इनका व्यवस्थित रूप कब बना, यह कहना कठिन है। कुछ विद्वानों का मानना है कि इसके प्रथम १८ अध्ययन प्राचीन हैं तथा उत्तरवर्ती अठारह अध्ययन अर्वाचीन । किन्तु इस मत की पुष्टि का कोई सबल प्रमाण नहीं है। इतना निश्चित है कि इसके कई अध्ययन प्राचीन हैं और कई अर्वाचीन । आचार्य तुलसी के अभिमत से उत्तराध्ययन के अध्ययन ई० पू० ६०० से ईस्वी सन् ४०० अर्थात् लगभग एक हजार वर्ष की धार्मिक एवं दार्शनिक विचार-धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। वीर-निर्वाण के एक हजार वर्ष बाद देवर्धिगणी ने प्राचीन एवं अर्वाचीन अध्ययनों का संकलन कर इसे एकरूप कर दिया। इनका प्रवचन
१. कपा. भा.१ चू. पृ. ११०;उत्तरमिदि च उत्तरज्झेणं वण्णेदि। ३. उनि ४; अंगप्पभवा जिणभासिया य पत्तेयबुद्धसंवाया। २. अंगपण्णत्ति ३/२५, २६ ।
४. नंदी ७८। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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