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________________ ३२ नियुक्ति पंचक महाव्रत, समिति आदि का निरूपण है अतः ये मूलसूत्र कहलाते हैं । मूलसूत्र की संख्या एवं उनके नामों के बारे में विद्वानों में काफी मतभेद है किन्तु उत्तराध्ययन को सभी ने एकस्वर से मूलसूत्र माना है। प्रो. बेबर ने उत्तराध्ययन, आवश्यक और दशवैकालिक—इन तीनों को मूलसूत्र के रूप में स्वीकृत किया है। विंटरनित्स ने इन तीनों के अतिरिक्त पिंडनियुक्ति को भी ग्रहण किया है। डॉ. शूब्रिंग पिंडनिर्युक्ति, ओघनियुक्ति सहित पांच ग्रंथों को मूलसूत्र के रूप में स्वीकृत करते हैं। प्रो. हीरालाल कापड़िया ने इनके अतिरिक्त दशवैकालिक की चूलिकाओं को भी मूलसूत्र में परिगणित किया है।'तेरापंथ की मान्यता के अनुसार दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नंदी और अनुयोगद्वार— ये चार सूत्र मूलसूत्र के अंतर्गत हैं। मूलसूत्र का विभाजन विक्रम की ११ वीं १२ वीं शताब्दी के बाद हुआ, ऐसा अधिक संभव लगता है क्योंकि उत्तराध्ययन की चूर्णि एवं टीका में ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता है। आचार्य तुलसी के अनुसार मूलसूत्र का विभाजन विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में होना चाहिए । नामकरण उत्तराध्ययन सूत्र में तीन शब्दों का प्रयोग है -१. उत्तर २. अध्ययन ३. और सूत्र । उत्तर शब्द के तीन अर्थ हो सकते हैं -- प्रधान, जबाब और परवर्ती। आचार्य हरिभद्र के अनुसार उत्तर शब्द का प्रयोग प्रधान या अति प्रसिद्ध अर्थ में हुआ है। प्रो. जेकोबी, बेबर और शार्पेन्टियर इसी अर्थ से सहमत हैं। उत्तर शब्द का प्रयोग परवर्ती या अंतिम अर्थ में भी होता है, जैसे—उत्तरकांड, उत्तररामायण आदि । जैन परम्परा में यह मान्यता बहुत प्रसिद्ध है कि महावीर ने अपने निर्वाण से पूर्व ५५ अध्ययन पुण्य-पाप के तथा छत्तीस अट्ठवागरणाइं अर्थात् बिना पूछे छत्तीस अध्ययनों के उत्तर दिए अतः विद्वानों का मानना है कि यह 'छत्तीसं अपुट्टवागरणाई' शब्द उत्तराध्ययन से ही संबंधित होना चाहिए क्योंकि जैन परम्परा में अन्य कोई ऐसा ग्रंथ नहीं है, जिसके छत्तीस अध्ययन हों । इस कथन की पुष्टि में उत्तराध्ययन की अंतिम गाथा को प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया जाता है इइ पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिव्वुए । छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धीय सम्मए । । यहां 'परिनिव्वुए' शब्द संदेहास्पद है । शान्त्याचार्य ने परिनिव्वुए शब्द का अर्थ स्वस्थीभूत किया है अत: इस दृष्टि से इसे महावीर का अंतिम उपदेश नहीं माना जा सकता । नियुक्तिकार के अनुसार उत्तर शब्द क्रम के अर्थ में प्रयुक्त है । उत्तराध्ययन आचारांग सूत्र के बाद पढ़ा जाता था अतः इसका नाम उत्तराध्ययन पड़ा। टीकाकार शान्त्याचार्य ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि दशवैकालिक की रचना के बाद यह सूत्र दशवैकालिक के बाद पढ़ा जाने लगा। प्रो. लायमन के अनुसार आचारांग आदि ग्रंथों के उत्तरकाल में रचा होने के कारण यह उत्तराध्ययन कहा जाता है । चूर्णिकार ने उत्तर के आधार पर इसके अध्ययनों की तीन प्रकार से योजना की है- -१. स-उत्तर— पहला अध्ययन २. निरुत्तर—छत्तीसवां अध्ययन ३. सउत्तर- निरुत्तर—बीच के सारे अध्ययन | १. A History of the canonical literature of the Jainas, Page 44, 45. २. उनि ३; कमउत्तरेण पगयं, आयारस्सेव उवरिमाइं तु । तम्हा उ उत्तरा खलु अज्झयणा होंति नायव्वा ।। ३. उशांटी प. ५; आरतस्तु दशवैकालिकोत्तरकालं पठ्यंत इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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