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________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण ३१ शासन देवी प्रकट हुई। संघ ने कहा आप इसे सीमंधरस्वामी के पास ले जाएं। उस समय शासन देवता साध्वी यक्षा को सीमंधर स्वामी के पास ले गए। सीमंधर स्वामी ने यक्षा को प्रतिबोधित किया और कहा तुम इसके लिए दोषी नहीं हो। तुम्हारा भाई महाकल्प में देव बना है अत: तुम दु:खी न रहकर धर्म में दृढ़ बनो। उस समय सीमंधर स्वामी ने यक्षा को चार चूलिकाओं की वाचना दी। इनमें दो चूलिकाएं दशवैकालिक के साथ तथा दो आचारांग (तीसरी और चौथी चूला) के साथ जोड़ दी गई। प्रस्तुत नियुक्ति का काल-निर्धारण तथा कर्त्ता का उल्लेख करना कठिन है। लेकिन अत्यंत संक्षेप में इसके द्वारा दशवकालिक की रचना का इतिहास ज्ञात हो जाता है। संभावना की जा सकती है कि प्रस्तुत नियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति के बाद रची गयी क्योंकि इसकी चार गाथाओं को इस नियुक्ति में अक्षरश: लिया गया है। प्राचीनकाल की यह पद्धति रही कि किसी बात को सुरक्षित रखने के लिए उसे पद्यबद्ध कर देते थे जिससे मौखिक और कंठस्थ परम्परा में सुविधा रहती थी। उत्तराध्ययन सूत्र एवं उसकी नियुक्ति उत्तराध्ययन अर्धमागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध आचार प्रधान आगम है। उपमाओं की बहुलता के कारण विटरनित्स ने इसे श्रमणकाव्य की कोटि में रखा है। इसमें साधु के आचार एवं तत्त्वज्ञान का सरल एवं सुबोध शैली में वर्णन किया गया है। जार्ल शान्टियर, डा. गेरिनो, विंटरनित्स तथा हर्मन जेकोबी आदि विद्वानों ने इसे आगम की सूची में ४१ वां आगम माना है। दिगम्बर साहित्य में अंगबाह्य के १४ प्रकारों में सातवां दशवैकालिक और आठवां उत्तराध्ययन का स्थान है। नंदीसत्र में कालिक सत्रों की गणना में प्रथम स्थान उत्तराध्ययन का है। वर्तमान में इसकी गणना मूल सूत्रों में की जाती है। इसको मल सत्र क्यों माना गया इस बारे में विद्वानों में अनेक मतभेद हैं। पाश्चात्य विद्वान शान्टियर एवं प्रो. पटवर्धन के अनुसार इसमें महावीर के मूल शब्दों का संग्रह है, इसलिए इसे मूलसूत्र कहा जाता है। किन्तु यह तर्क युक्तिसंगत नहीं लगता क्योंकि दशवैकालिक मूलसूत्रों के अंतर्गत है पर वह आचार्य शय्यंभव द्वारा निर्मूढ़ है। डॉ. शूबिंग ने साधु जीवन के मूलभूत नियमों का प्रतिपादक होने के कारण इसे मलसत्र कहा। यह समाधान भी तर्क की कसौटी पर सही नहीं उतरता क्योंकि अनुयोगद्वार और नंदी में अन्य विषयों का प्रतिपादन है। प्रो. विंटरनित्स के अनुसार इस मूलसूत्र पर अनेकविध व्याख्या-साहित्य लिखा गया इसलिए इसे मूलसूत्र कहा गया। यह मान्यता भी तर्कसंगत नहीं लगती क्योंकि आवश्यक सूत्र पर सबसे अधिक व्याख्या साहित्य मिलता है। एक मान्यता यह भी प्रसिद्ध है कि आत्मा के चार मूल गुण हैं— ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप। नंदी में मुख्यत: ज्ञान का, अनुयोगद्वार में दर्शन का, दशवैकालिक में चारित्र का तथा उत्तराध्ययन में तप का वर्णन है अत: ये चारों मूल सूत्र हैं। चूर्णिकाल में श्रुतपुरुष के मूल स्थान में आचारांग और सूत्रकृतांग का स्थान था। उत्तरकालीन श्रुतपुरुष की मूलस्थापना में दशवैकालिक और उत्तराध्ययन आ गए। इन्हें मूलसूत्र मानने का यही सर्वाधिक संभावित हेतु है, ऐसा आचार्य श्री तुलसी का मंतव्य है । मूलत: इनमें मुनि के मूल गुणों १. परिशिष्ट पर्व ९/८४-१०० । ३. The Dasavekalika sutra: a study, Page 16. २. The uttaradhyayana sutra, preface page 32. ४. A Histroy of Indian literature vo 2, Page 466. ५. दसवे..........भूमिका पृ. ५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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