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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५७१ हाता। वह कुछ भी प्राप्त नहीं कर सका। इसलिए वह बहुत देर तक क्लेश पाता रहा। फिर वह अच्छी तरह चारों ओर गर्दन फैलाने लगा। जब उसने किसी भी प्रकार कुछ नहीं पाया तब वह कुपित हो गया। उसने उसके ऊपर मूत्र और मल का विसर्जन कर दिया। मदनिका ने कहा-'उसने बबूल के वृक्ष पर मल और मूत्र का विसर्जन कैसे किया जब कि वह मुख से कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता था।' कनकमंजरी ने कहा-'आगे कल कहूंगी।' दूसरे दिन उसने कहा---'वह बबूल का वृक्ष अंधकूप के गर्त के मध्य था इसलिए ऊंट कुछ भी खा नहीं सका।' इस प्रकार कनकमंजरी छह महीने तक अनेक आख्यानकों से राजा को मोहित करती रही। राजा का उसके प्रति अत्यधिक अनुराग हो गया। राजा उसके साथ ही एकान्तरित समय बिताने लगा। उसकी सपत्नियां उस पर कुपित हो गयीं और छिद्रान्वेषण करने लगीं। वे सपत्नियां कहने लगीं-इसने राजा पर वशीकरण-सम्मोहन कर दिया है, जिससे उत्तम कुल में प्रसूत हम सबको राजा ने त्याग दिया है। इस शिल्पी की कन्या में अनुरक्त राजा गुण और दोष का विचार भी नहीं करता है। राजा राज्य-कार्य में भी रस नहीं लेता है। इस मायाविनी के कारण धन का नाश होने पर भी राजा को चिंता नहीं होती। इधर कनक मंजरी मध्याह्न बेला में अपने प्रासाद में जब अकेली रहती तब राजा के दिए हुए कपड़े, आभरण आदि उतार कर पिता के दिए कपड़े पहनती तथा पुष्प के बने अलं धारण कर स्वयं को संबोधित करती – 'हे जीव! तू ऋद्धि का गौरव और मद मत कर । तू अपने आपकी विस्मृति मत कर। यह समृद्धि राजा की है। तेरे पास तो केवल फटे-पुराने कपड़े और ऐसे आभरण हैं इसलिए तू उपशान्त रह, जिससे तू चिरकाल तक इस समृद्धि में सहभागी बन सकती है अन्यथा राजा एक दिन गर्दन पकडकर बाहर निकाल देगा। उसकी प्रतिदिन की इस प्रकार की चेष्टाओं को देखकर सपलियों ने राजा से कहा-'यद्यपि आप हम पर नि:स्नेह हो गए हैं फिर भी हम आपको अकुशल और अमंगल से बचाती हैं । नारी के लिए पति देवता होता है। वह आपकी हृदयवल्लभा दयिता कोई क्षुद्रकर्म की साधना कर रही है। उसके वशीभूत होकर आप अपना अनर्थ भी नहीं देख पाते।' राजा ने कहा-'कैसे?' सपत्नियों ने कहा-'मध्याह्न बेला में जब यह सब कार्यों से उपरत हो जाती है तब द्वार बंद करके कुछ समय तक मन ही मन में कुछ गुनगुनाती है। यदि आपको विश्वास न हो तो आप किसी आत्मीय व्यक्ति को भेजकर खोज कराएं।' यह सुनकर अपवरक में प्रविष्ट कनकमंजरी को देखने के लिए राजा स्वयं गया। द्वार पर स्थित होकर राजा ने वैसा ही देखा जैसा कहा गया था। राजा ने उसका आत्मानुशासन-स्व को संबोधित कर कहे गए वाक्य सुने। वह बहुत प्रसन्न हुआ। राजा ने सोचा इसमें कितना बुद्धि-कौशल है ! कैसा अभिमान का त्याग है ! कितना विवेक है ! सचमुच यह सकल गुणों की निधान है। मात्सर्य के कारण से सपत्नियां इसके गुण को भी दोष रूप में देख रही हैं । राजा ने प्रसन्न होकर उसे सारे राज्य की स्वामिनी बना दिया। उसे पट्टबद्ध रानी के रूप में मान्यता दे दी। उसे पटरानी बना दिया। एक बार विमलचन्द्र आचार्य के पास राजा ने कनकमंजरी के साथ श्रावक धर्म अंगीकार किया। कालान्तर में कनकमंजरी मर कर देवी बनी। वहां से च्युत होकर वैताद्य पर्वत पर तोरणपुर नगर में दृढशक्ति विद्याधर राजा की पुत्री बनी। उसका नाम कनकमाला रखा गया। क्रमश: वह यवती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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