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________________ आचारांग नियुक्ति ३१९ ३४८. यतमान मुनि का दूसरा मुनि यतनापूर्वक जो करता है, वह परक्रिया प्रासंगिक है । जो निष्प्रतिकर्म है, गच्छनिर्गत है, उसके लिए परक्रिया तथा अन्योन्यक्रिया ( पारस्परिक क्रिया) अयुक्त है। तीसरी चला : भावना ३४९. ( भावना शब्द के नाम आदि चार निक्षेप हैं ।) जाति कुसुम आदि सुगंधित द्रव्यों के द्वारा तिल आदि को वासित करना द्रव्यभावना है। इसी प्रकार शीत से भावित शीतसहिष्णु तथा उष्ण से भावित उष्णसहिष्णु और व्यायाम से पुष्ट देह व्यायामसहिष्णु आदि द्रव्यभावना है । भावभावना के दो प्रकार हैं- प्रशस्त तथा अप्रशस्त । ३५०. प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि की भावना अप्रशस्त भावभावना है । ३५१. दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वैराग्य आदि प्रशस्त भावभावना है। जो भावना जैसे प्रशस्त होती है, उसको उसी प्रकार लक्षण सहित निरूपित करूंगा । ३५२. जिनशासन - तीर्थंकर भगवान् का प्रवचन, प्रावचनिक- युगप्रधान आचार्य आदि, अतिशायी' और ऋद्धिधारी मुनि' – इनके अभिमुख जाना, वंदन करना, दर्शन करना, कीर्तन करना, पूजा करना तथा स्तुति करना यह दर्शनभावना है । ३५३, ३५४. तीर्थंकरों की जन्मअभिषेक-भूमि, निष्क्रमण-भूमि, दीक्षा भूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिभूमि तथा निर्वाण-भूमि और देवलोक भवनों में, मन्दर पर्वत में, नन्दीश्वर द्वीप में, भौम-पातालभवनों में जो शाश्वत चैत्य उन्हें मैं वन्दना करता हूं। इसी प्रकार अष्टापद पर्वत, उज्जयन्त पर्वत, दशार्णकूटवर्ती गजाग्रपद, तक्षशिला में स्थित धर्मचक्र स्थान, अहिच्छत्रा में अवस्थित पार्श्वनाथ और धरणेन्द्र के महिमा स्थान, रथावर्त पर्वत, जहां वज्रस्वामी ने प्रायोपगगन अनशन किया था तथा जहां श्री वर्धमानस्वामी की निश्रा में चमरेन्द्र ने उत्पतन किया था इन स्थानों में यथासंभव अभिगमन, वंदन, पूजन, उत्कीर्तन आदि करना दर्शनशुद्धि है । ३५५. प्राचनिक के ये गुणप्रत्ययिक विषय हैं- गणितज्ञता, निमित्तज्ञता, युक्तिमत्ता, समदर्शिता, ज्ञान की अवितथता - इनकी प्रशंसा करना प्रशस्त दर्शन भावना है । ३५६. आचार्य आदि के अन्यान्य गुणों का माहात्म्य प्रकट करना, ऋषियों का नामोत्कीर्त्तन करना, उनकी पूजा करने वाले देवता तथा राजाओं के विषय में बताना तथा चिरन्तन चैत्यों की पूजा करना - यह प्रशस्त दर्शन भावना है । ३५७-५९. तत्त्व दो - जीव और अजीव । दोनों को जानना चाहिए। यह परिज्ञान जैन शासन में ही उपलब्ध है। जैन प्रवचन में कार्य - लक्ष्य, करण - साधन ( सम्यग् ज्ञान आदि ) कारक -मुनि, सिद्धि - मोक्ष, इनका पूर्ण विवेचन है। यहां कर्मबंध तथा उससे मुक्ति का उपाय भी निर्दिष्ट है । ( इस प्रकार ज्ञान से वासित करना ज्ञान भावना 1) बंध बंधहेतु, बंधन तथा बंधन - फल - इनका समुचित विवेचन जैन प्रवचन में है । जैनशासन १. अतिशायी मुनि अर्थात् केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी । २. ऋद्धिसंपन्न अर्थात् आमर्ष औषधि आदि ऋद्धियों से सम्पन्न । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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