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________________ २२२ नियुक्तिपंचक और तद्व्यतिरिक्त। ४२४. समुद्रपाल की आयु का वेदन करता हुआ भाव समुद्रपाल होता है। समुद्रपाल से समुत्थित होने के कारण इस अध्ययन का नाम समुद्रपालीय है । ४२५-३५. चंपा नगरी में पालित नाम का सार्थवाह रहता था। वह वीतराग भगवान महावीर का अनुयायी था । वह सामुद्रिक व्यापारी था। एक बार वह गणिम-सुपारी आदि तथा धरिम-स्वर्ण आदि वस्तुओं से भरे जहाज को लेकर पिहुंड नाम के नगर में पहुंचा और वहां वस्तुओं का क्रय-विक्रय करने लगा । एक वणिक ने अपनी पुत्री के साथ उसका विवाह कर दिया । वह अपनी पत्नी को लेकर स्वदेश की ओर चल पड़ा । उस वणिकपुत्री अर्थात् पालित की पत्नी ने समुद्र-मार्ग में ही एक पुत्र को जन्म दिया। वह सांग सुन्दर और मनोहारी था । उसका नाम समुद्रपाल रखा गया । वह पालित श्रावक सकुशल अपने घर पहुंचा । शिशु समुद्र पांच धायों के बीच में बड़ा होने लगा। उसने बहत्तर कलाएं सीखीं। वह न्याय-नीति में निपुण हो गया। यौवन में प्रवेश कर अत्यधिक सुन्दर दीखने लगा । उसके पिता पालित ने उसका विवाह रूपिणी नामक कन्या से कर दिया। वह स्त्रियों के चौसठ गुणों से युक्त तथा देवांगना सदश रूपवती थी। जैसे दोगन्दक देव क्रीड़ारत रहते हैं, वैसे ही समुद्रपाल अपनी पत्नी रूपिणी के साथ पंडरीक भवन में क्रीडारत रहता था। वह सदा नौकरों से घिरा रहता था। एक बार वह अपने पत्नी के साथ भवन के झरोखे में बैठा था। उसने राजमार्ग पर राजपुरुषों द्वारा एक वध्य को ले जाते देखा । उसके पीछे सैकड़ों व्यक्ति चल रहे थे। उसको देखते ही सम्यक्त्व और ज्ञान के धनी कुमार ने सांसारिक दुःखों से भयभीत होकर सोचा-हाय ! यह निकृष्ट पापकर्मों का प्रत्यक्ष फल है। संबोध प्राप्त कर कुमार समुद्रपाल अनुत्तर वैराग्य से संपृक्त हो गया। प्रख्यात यश-कीर्ति वाले उस कुमार ने मातापिता की आज्ञा लेकर अभिनिष्क्रमण कर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। ४३६. अनेक वर्षों तक तपश्चर्या द्वारा क्लेशों का क्षय करके उसने उस स्थान को प्राप्त किया, जिस स्थान को प्राप्त कर कोई शोक नहीं रहता। बावीसवां अध्ययन : रथनेमीय ४३७,४३८. रथनेमि शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन प्रकार हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन प्रकार हैं-एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र । ४३९. रथनेमि नाम, गोत्र का वेदन करने वाला भावरथनेमि होता है। उसी से समुत्थित यह अध्ययन रथनेमीय कहलाता है । ४४०-४४. शौर्यपुर नगर में समुद्रविजय नाम का राजा था । उसके सर्वांग सुन्दर शिवा नाम की महारानी थी। उनके चार पुत्र हुए-अरिष्टनेमि, रथनेमि, सत्यनेमि और दृढ़नेमि । अरिष्टनेमि बावीसवें तीर्थंकर हुए तथा रथनेमि और सत्यनेमि प्रत्येकबुद्ध हुए। रथनेमि चार सौ वर्ष गृहस्थावास में रहे। एक वर्ष छद्मस्थ पर्याय में और पांच सौ वर्ष केवली पर्याय में रहे। उनका समग्र आयुष्य ९०१ वर्ष का था। राजीमती का भी कालमान इतना ही जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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