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________________ १२६ नियुक्तिपंचक उत्तराध्ययननियुक्ति (अ) यह लाडनूं जैन विश्व भारती के हस्तलिखित भंडार से प्राप्त है। इसमें आचारांग और उत्तराध्ययन-ये दो नियुक्तियां हैं। प्रारम्भ के ६ पत्रों में आचारांगनियुक्ति है। बीच के दो पत्र लुप्त हैं अत: उत्तराध्ययननियुक्ति २८९ गाथा से प्रारम्भ होती है। इसके अंत में “उत्तराध्ययननियुक्ति: संपूर्णा ग्रंथाग्र ६०७।। इत्येवमुत्तराध्ययनस्येमा सारयुक्ता नियुक्तिः" ।। का उल्लेख है। पन्द्रहवें पत्र में यह नियुक्ति सम्पन्न हो जाती है। अन्तिम पत्र में पीछे केवल दो लाइनें हैं, बाकी पूरा पत्र खाली है। (ला) यह लालभाई दलपतभाई विद्यामन्दिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसके अक्षर सुन्दर और स्पष्ट हैं। कुल १६ पत्रों में यह नियुक्ति सम्पन्न हो जाती है। अंत में “३६ उत्तरज्झयणाणं निज्जुत्ति समत्ताओ। ग्रंथाग्र ।।७०८।। श्री।।" का उल्लेख है। (ह.) मुनि पुण्यविजयजी द्वारा प्रकाशित शान्त्याचार्य की टीका में लिए गए पाठान्तर। यह पेन्सिल से संशोधित टीका लालभाई दलपतभाई विद्यामन्दिर पुस्तकालय में है। ह और ला प्रति में बहुत समानता है। संभव है मुनि पुण्यविजयजी द्वारा ला प्रति से ही पाठान्तर लिए गए हों। मुनिश्री ने आधी गाथाओं के ही पाठान्तरों का संकेत किया है, पूरी नियुक्ति का नहीं। (शां) उत्तराध्ययन की शान्त्याचार्य कृत टीका में प्रकाशित नियुक्ति-गाथा के पाठान्तर । (शांटीपा) शान्त्याचार्य टीका के अंतर्गत उल्लिखित पाठान्तर । (चू.) जिनदासकृत प्रकाशित चूर्णि के पाठान्तर। आचारांग नियुक्ति (अ) यह लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक सं. ८८ है। यह ३२.५ सेमी. लम्बी तथा १२.५ सेमी. चौड़ी है। इसमें कुल आठ पत्र हैं। इसके अंत में “आयारनिज्जुत्ती सम्मत्ता” ऐसा उल्लेख मिलता है। इसमें लिपिकर्त्ता और लेखन-समय का उल्लेख नहीं मिलता। यह बहुत जीर्ण प्रति है। दीमक लगने के कारण अनेक स्थलों पर अक्षर स्पष्ट नहीं हैं। यह तकार प्रधान प्रति है। हासिये में बांयी ओर आचा. नियुक्ति का उल्लेख है। पत्र के बीच में तथा दोनों ओर हासिये में रंगीन चित्र हैं। अनुमानत: इसका लेखन-समय चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी होना चाहिए। (ब) यह लाडनूं जैन विश्व भारती भंडार से प्राप्त है। यह २५.८ सेमी. लम्बी तथा १०.५ सेमी. चौड़ी है। इसमें आचारांग तथा उत्तराध्ययन दोनों की नियुक्तियां लिखी हुई हैं। इस प्रति का सातवां और आठवां पत्र लुप्त है अत: कुछ आचारांग की तथा कुछ उत्तराध्ययन की गाथाएं नहीं हैं। दोनों ओर हासिए में कुछ भी लिखा हुआ नहीं है। इसमें कुल १५ पत्र हैं। यह ज्यादा पुरानी नहीं है। अनुमानत: इसका लेखन-समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दी होना चाहिए। (म) यह प्रति भी लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या १९५४८ है। इसमें ३६७ ग्रंथान है। यह २५.५ सेमी. लम्बी तथा. १०.५ सेमी. चौड़ी है। अंत में “आचारांगनिज्जुत्ती सम्मत्ता” मात्र इतना ही उल्लेख है। इसमें ७२ से ८४ पत्र तक आचारांगनियुक्ति है। प्रारम्भ में मूलपाठ लिखा है। इसके चारों ओर हासिए में संक्षिप्त अवचूरि लिखी हुई है। पत्र के बीच में चित्रांकन है तथा अंतिम पत्र पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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