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निर्युक्तिपंचक
ने कहा-' इस आधी रात में जहां द्वार खुला मिले वहीं चले जाओ।' नियति से उसने साधु के उपाश्रय
द्वार खुले देखे । वह उपाश्रय के अंदर गया। साधुओं को वंदना की और कहा कि मुझे भी प्रव्रजित कर लो । साधुओं ने इन्कार कर दिया पर उसने स्वयं लोच कर लिया। साधुओं ने उसे मुनिवेश धारण करवा दिया। वे सभी वहां से विहार कर गए।
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एक बार वे पुन: उसी नगरी में आए। राजा ने उसे कंबल - रत्न दिया। आचार्य ने कहा-' 'मुनियों को इससे क्या प्रयोजन है?' इस कंबल - रत्न को क्यों ग्रहण किया - ऐसा कहकर मुनियों ने बिना पूछे ही कंबल को फाड़ दिया और उसकी निषद्या बना दी। तब वह कुपित हो गया ।
एक बार आचार्य जिनकल्पिक की चर्या का वर्णन कर रहे थे। उन्होंने कहा- 'जिनकल्पिक मुनि दो प्रकार के होते हैं - पाणिपात्र और पात्रधर । सवस्त्र तथा अवस्त्र । इनके भी दो-दो प्रकार हैं ।' शिवभूति ने पूछा- 'आज ऐसा क्यों नहीं हो सकता?' आचार्य बोले- 'जिनकल्पिक आज व्युच्छिन्न हो गया है।' उसने कहा- 'मेरे लिए वह व्युच्छिन्न नहीं है। परलोकार्थी मुनि को वही ग्रहण करना चाहिए। सर्वथा निष्परिग्रह ही श्रेयस्कर है।' आचार्य के निषेध करने पर भी शिवभूति आग्रहवश अपने सारे वस्त्र छोड़कर वहां से निकल गया। उसकी बहिन उसको वंदना करने गई । उसको देखकर वह भी निर्वस्त्र हो गई । वह भिक्षा लेने गई । एक वेश्या ने उसे देखकर सोचा- 'यह हमारी वेश्यावृत्ति को समाप्त कर देगी।' उसने उसे लज्जा-स्थान के आवरण के लिए एक वस्त्र दिया। वह नहीं चाहती थी। शिवभूति ने कहा - ' इसे ग्रहण कर लो। ऐसा मानो कि यह देव- प्रदत्त है । ' शिवभूति ने दो शिष्य प्रव्रजित किए - कौडिन्य और कोट्टवीर । आगे यह परम्परा चली।
४४. उरभ्र
एक सेठ के पास गाय और उसका एक बछड़ा था। उसने एक मेंढ़ा भी पाल रखा था । वह मेंढ़े को खूब खिलाता -पिलाता । सेठ की बहुएं उसे प्रतिदिन स्नान कराती, शरीर पर हल्दी, अंगराग आदि का लेप करती थीं। सेठ के बच्चे भी उसके साथ नाना प्रकार की क्रीड़ाएं करते थे । कुछ ही दिनों में मेंढ़ा स्थूलकाय हो गया । बछड़ा प्रतिदिन मेंढ़े को देखता और मन ही मन चिंतन करता कि इस मेंढ़े का इतना लालन-पालन क्यों हो रहा है? सेठ हम पर इतना ध्यान क्यों नहीं देता? बछड़ा यह देखकर उदास हो गया और उसने स्तनपान करना भी छोड़ दिया। उसने अपनी माता गाय से पूछा - ' सेठ इस मेंढ़े को जौ का भोजन देता है और हमें रूखी-सूखी घास। इसे विशेष अलंकारों से अलंकृत किया जाता है तथा पुत्र की भांति इसका लालन-पालन हो रहा है। दूसरी ओर मैं मंदभाग्य हूं कि कोई मुझ पर ध्यान नहीं देता। सूखी घास भी कभी-कभी मिलती है, वह भी भर पेट नहीं मिलती। समय पर पानी के लिए भी कोई नहीं पूछता ।' मां ने कहा—'वत्स! मेमने को अच्छा और पुष्ट भोजन खिलाना उसके रोग और मृत्यु का चिह्न है क्योंकि मरणासन्न प्राणी को पथ्य और अपथ्य जो कुछ वह चाहता है, दिया जाता । बछड़े के सूखे तृणों का आहार उसकी दीर्घायु का लक्षण है । इस मेंढ़े का मरणकाल निकट है।'
० उनि. १७२/१३-१५, उशांटी. प. १७८-८१, उसुटी. प. ७५, ७६ /
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