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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण पीपल, कालीमिर्च, सरस—आर्द्रक तथा कनकमूल-बेल की जड़-इन सात द्रव्यों को पानी के साथ गोली बनाने से वह गोली खाज, तिरमिरा—आंख का रोग, आधासीसी (अर्ध शिरोरोग), समस्त शिरोरोग, तार्तीयीक (तीन दिनों से आने वाला ज्वर), चातुर्थिक (चार दिनों से आने वाला ज्वर)
आदि रोगों को शान्त करती तथा चूहे, सांप आदि के काटने पर भी काम आती थी। पाणिनी ने दो दिन से आने वाले ज्वर को द्वितीयक, तीन दिन आने वाले ज्वर को तृतीयक और चार दिन से आने वाले ज्वर को चतुर्थक कहा है। उन्होंने ज्वर के कुछ और भेदों का भी उल्लेख किया है। सर्दी देकर चढ़ने वाला ज्वर शीतक तथा गर्मी से आने वाला ज्वर उष्मक कहा जाता था। इसी प्रकार विषपुष्प से उत्पन्न ज्वर विषपुष्पक तथा कासपुष्प से उत्पन्न ज्वर कासपुष्पक कहलाता था। शरदऋतु के प्रारम्भ में उत्पन्न ज्वर शारदिक कहलाता था। बल, रूप आदि को बढ़ाने के लिए वमन-विरेचन का प्रयोग किया जाता था।
बाह्य और आंतरिक तप करने से शरीर में हल्कापन आता है तथा बाहु कृश होती हैं। क्षेत्र विशेष के प्रभाव से भी शरीर कृश होता है। खाद्य पदार्थों में तेल और दही का संयोग विरोधी है। तेल, घी आदि पीने से सौन्दर्य-वृद्धि होती थी। रंग-निखार आदि के लिए तैल-मर्दन तथा उद्वर्तन आदि किया जाता था। ऐसी गोलियों का निर्माण किया जाता था, जिनका सेवन करने से एक महीने तक भूख की अनुभूति नहीं होती और न ही शक्तिहीनता की प्रतीति होती थी। विष का प्रभाव नष्ट करने हेतु विशेष प्रकार के गंध या लेप तैयार किए जाते थे तथा बुद्धि बढ़ाने की औषधियां बनायी जाती थीं। इसी प्रकार लेप विशेष के प्रयोग से कांटे भी स्वत: निकल जाते थे।१ सद्य: बनाए हुए घेवर प्राणकारी, हृद्य और कफ का नाश करने वाले होते थे।१२ परवर्ती एवं अन्य ग्रंथों पर प्रभाव ।
नियुक्तियां आगमों की प्रथम व्याख्या है अत: इसमें वर्णित अनेक विषयों से परवर्ती रचनाकार प्रभावित हुए हैं। निर्जरा की तरतमता बताने वाली गुणश्रेणी-विकास की दश अवस्थाओं का सबसे प्राचीन उल्लेख आचारांगनियुक्ति में मिलता है।१३ गोम्मटसार और षट्खंडागम में शब्दश: ये गाथाएं उद्धृत की गयी हैं। मात्र उपशमक के आगे ‘कसाय' शब्द का प्रयोग अतिरिक्त मिलता है।१४ षट्खंडागम का वेदना खंड और गोम्मटसार का जीवकाण्ड देखने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि ये गाथाएं मूलग्रंथ का अंश नहीं अपितु कहीं से उद्धृत या प्रक्षिप्त की गयी हैं। उमास्वाति ने भी ये अवस्थाएं नियुक्तिकार से ली हैं, यह कहा जा सकता है ।१५
१. उनि १४९, १५०। २. अष्टाध्यायी ५/२/८१ । ३. अष्टाध्यायी ५/२/८१ । ४. दशजिचू पृ. ११५ । ५. आचू पृ. २२२ । ६. आचू पृ. २२१। ७. आचू प. १३०; विवरीतं असम्म जहा तिल्लदहीणं। ८. सूचू १ पृ. १०॥
९. सूचू १ पृ. १६३। १०. सूचू १ पृ. १६३ । ११. सूचू १ पृ. १६३ । १२. सूटी पृ. १११; सद्य: प्राणकरा हृद्या घृतपूर्णा: कफापहाः । १३. आनि २२३, २२४ । १४. षट्. वेदनाखंड, गा. ७, ८, गोजी. ६६, ६७ । १५. विस्तार के लिए इसी ग्रंथ में देखें-निर्जरा की
तरतमता के स्थान, पृ. ७२-७७ ।
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