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________________ ३०४ ११. योधस्थान - युद्धस्थल में स्वीकृत आलीढ, प्रत्यालीढ आदि अवस्थान । १२. अचलस्थान - सादिसपर्यवसान, सादिअपर्यवसान आदि । १३. गणनास्थान - एक, दो आदि शीर्षप्रहेलिका पर्यंत गणना । १४. संधानस्थान - संधान करने के स्थान । १५. भावस्थान - भाव विषयक संधान स्थान | निर्युक्तिपंचक १८६. शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध - ये पांच कामगुण हैं । इनके प्रति जिस प्राणी के कषाय प्रवर्तित होते हैं, यही संसार का मूलस्थान है । १८७. जैसे सभी वृक्षों के मूल भूमि में प्रतिष्ठित होते हैं, वैसे ही कर्मवृक्षों के मूल कषाय में प्रतिष्ठित हैं । १८८. कर्मवृक्ष आठ प्रकार के हैं । इन सबका मूल है - मोहनीय कर्म । कामगुणों का भी मूल है— मोहनीय कर्म और यही मोहनीय कर्म संसार का मूल है— अर्थात् संसार का आद्य कारण है । १८९. मोह के दो प्रकार हैं- दर्शनमोह और चारित्रमोह | कामगुण चारित्रमोह के प्रकार हैं । प्रस्तुत सूत्र में उनका अधिकार है अर्थात् उनका प्रतिपादन है । १९०. संसार का मूल है— कर्म । कर्म का मूल है - कषाय । कषाय स्वजन, प्रेष्य, अर्थधन आदि में विषयरूप में स्थित तथा आत्मा में विषयीरूप में स्थित है । १९१ कषाय शब्द के आठ निक्षेप हैं- नामकषाय, स्थापनाकषाय, द्रव्यकषाय, उत्पत्ति कषाय - जिनके आश्रय से कषाय उत्पन्न होते हैं । प्रत्ययकषाय - कषाय-बंध के कारण । आदेशकषाय - कृत्रिमरूप में भृकुटि तानना आदि । रसकषाय -- कषैलारस । भावकषाय-- क्रोध, मान, माया, लोभ आदि चार कषाय । १९२. संसार के पांच प्रकार हैं- द्रव्यसंसार, क्षेत्रसंसार, कालसंसार, भवसंसार तथा भावसंसार । जहां जीव संसरण करते हैं, वह संसार है । १९२।१. संसार के पांच प्रकार हैं- द्रव्यसंसार, क्षेत्रसंसार, कालसंसार, भवसंसार और भावसंसार । कर्म से संसार होता है अतः यहां सूत्र में उसी का अधिकार है । १९३,१९४. कर्म के दस निक्षेप हैं - नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समुदानकर्म, ईर्यापथिककर्म आधाकर्म, तपःकर्म, कृतिकर्म, भावकर्म । यह संक्षेप में दस प्रकार का कर्म है । ' प्रस्तुत प्रसंग में अष्टविध कर्म का अधिकार है । Jain Education International १९५. जो पुरुष संसार का उन्मूलन करना चाहता है, वह कर्मों का उन्मूलन करे । कर्मों के उन्मूलन के लिए वह कषायों का उन्मूलन करे । कषायों के अपनयन के लिए वह स्वजनों को छोड़े - स्वजनों के स्नेह का अपनयन करे । १९६. माता मेरी है । पिता मेरे हैं । भगिनी मेरी है। भाई मेरे हैं । पुत्र मेरे हैं । पत्नी मेरी है। इन सब में ममत्व कर तथा अर्थ-धन में गृद्ध होकर प्राणी जन्म-मरण को प्राप्त करते रहते हैं । १. विवरण के लिए देखें - आटी पृ ६१,६२ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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