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________________ आचारांग नियुक्ति ७. अभ्यासगुण - सद्य:जात बालक का स्तनपान करना आदि । ८. गुण- अगुण - गुण का ही किसी में अगुणरूप से परिणत होना । जैसे—ऋजुता गुण है, वह मायावी में अगुण होता है । ९. अगुण - गुण - अगुण किसी में गुणरूप में परिवर्तित हो जाता है, जैसे-गलि बैल | १०. भवगुण – मनुष्य, नारक आदि भव से संबंधित गुण-दोष । ११. शीलगुण - अपना स्वभावगत गुण । १२. भावगुण - औदयिक आदि भावों का गुण । जीव-अजीव का गुण । १८३. मूल के छह निक्षेप हैं - ( नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ) । द्रव्यमूल तीन प्रकार का है ।' क्षेत्रमूल - जिस क्षेत्र में मूल जड़ उत्पन्न होती है । कालमूल - जिस काल में मूल उत्पन्न होती है या जितने काल तक मूल बनी रहती 1 १८४. भावमूल के तीन प्रकार ये हैं १. ओदयिकभावमूल - नाम - गोत्र-कर्म के उदय से वनस्पतिकाय के मूलत्व का अनुभव करने वाला मूलजीव । २. उपदेष्टुभावमूल— मूलत्व के कारणभूत कर्मों का उपदेष्टा आचार्य | ३. आदिभावमूल - मोक्ष और संसार का आदिभावमूल का उपदेष्टा । मोक्ष का आदिभाव मूल है- विनय और संसार का आदिभावमूल है कषाय आदि । १८५. स्थान शब्द के पन्द्रह निक्षेप हैं १. नामस्थान । Jain Education International ३०३ २. स्थापनास्थान । ३. द्रव्यस्थान — द्रव्यों का आश्रय | ४. क्षेत्रस्थान - भरत, ऐरवत आदि क्षेत्र । अथवा ऊर्ध्व, अधः, तिर्यक्लोक आदि । नरक १. भवगुण तथा शीलगुण का भावगुण में ग्रहण किया गया है । भवगुण - जीव का आदि भव । शीलगुण क्षांति आदि से युक्त जीव । २. औदयिक द्रव्यमूल वृक्षों के मूल (जढ़) ५. अद्धास्थान — कालस्थान, जैसे – जीवों की कार्यस्थिति, भवस्थिति आदि । ६. ऊर्ध्वस्थान — कायोत्सर्ग आदि । ७. उपरतिस्थान - श्रावक तथा साधुओं का विरति स्थान । ८. वसतिस्थान - ग्राम, गृह आदि निवास-स्थान । ९. संयमस्थान – पांच प्रकार के चारित्र के असंख्य संयमस्थान । १०. प्रग्रहस्थान - आदेय वाक्य वाले नायक का स्थान । इसके दो भेद हैं-लौकिक और लोकोत्तर । लौकिक हैं-राजा, युवराज, महत्तर, अमात्य और कुमार । लोकोत्तर हैं- आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणावच्छेदक । रूप में परिणत द्रव्य । उपदेशमूलचिकित्सक जिस रोग के उन्मूलन में जिस जड़ी-बूटी का उपदेश देता है वह, जैसे पिप्पलीमूल आदि । आदिमूल-वृक्ष की उत्पत्ति में आद्य कारण । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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